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श. १: उ.२: सू.६०-१००
ववन्त्रगा । २. अत्येगइया समाउयाविसमोववन्नगा । ३. अत्येगइया विसमाउया समोववत्रगा । ४. अत्येगइया विसमाउया विसमोववन्त्रगा । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुधइ - मणुस्सा नो सव्वे समाउया, नो सव्वे समोववन्नगा ॥
१००. वाणमंतर - जोतिस - वेमाणिया जहा असुरकुमारा, नवरं वेणा णाणत्तंमायिमिच्छदिट्ठीउववन्त्रगा य अप्पवेयणतरा, अमायिसम्मदिद्विजववन्नगा य महावेयणतरा भाणियन्वा जोतिसवेमाणिया ।।
१. सूत्र ६०-१००
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२. अस्त्येकके समायुषः विषमोपपन्नकाः । ३. अस्त्येकके विषमायुषः समोपपन्नकाः । ४. अस्त्येकके विषमायुषः विषमोपपन्नकाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते—मनुष्याः नो सर्वे समायुषः, नो सर्वे समोपपन्नकाः ।
वानमन्तर - ज्यौतिष - वैमानिकाः यथा असुरकुमाराः, नवरंवेदनायां नानात्वं - मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाः च अल्पतरवेदनाः अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकाः च महत्तरवेदना: भणितव्याः ज्यौतिषवैमानिकाः ।
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भाष्य
प्रस्तुत आलापक में नैरयिक के विषय में नौ प्रश्नों की मार्गणा की गई है - प्रथम तीन प्रश्नों का एक वर्ग है। ये तीनों प्रश्न जीवन के साथ जुड़े हुए हैं। आहार, शरीर और उच्छ्वास- निःश्वास — ये तीनों जीवन के अनिवार्य अंग हैं; इसलिए आहार की मात्रा, शरीर-परिमाण और उच्छ्वास - निःश्वास के परिमाण के विषय में जिज्ञासा की गई है। उसके उत्तर में भगवान् ने कहा— सबका शरीर एक जैसा नहीं होता, किसी का शरीर बड़ा होता है और किसी का छोटा ।' शरीर-भेद के आधार पर आहार और श्वास की मात्रा में भी अन्तर आ जाता है। बड़े शरीर वाला अधिक आहार करता है। और छोटे शरीर वाला अल्प आहार करता है, यह प्राकृतिक नियम है । वृत्तिकार ने इस प्रसंग को हाथी और खरगोश के उदाहरण द्वारा समझाया है। नैरयिक के रोम-आहार होता है।' वृत्तिकार ने इस नियम को बाहुल्यापेक्ष बतलाया है। किन्तु शरीर के परिमाण-भेद को देखते हुए यह स्वाभाविक नियम प्रतीत होता है। दुःख (मानसिक सन्ताप या तनाव ) की मात्रा के आधार पर श्वास की संख्या में भी परिवर्तन हो जाता है। अल्प दुःख - श्वास-उच्छ्वास की संख्या अल्प, अधिक दुःख श्वास- उच्छ्वास की संख्या अधिक। अल्प शरीर वालों
१. पण्ण. २१ । ६६६७ ।
२. भ. वृ. १ । ६१ – दृश्यते हि लोके बृहच्छरीरो बह्वाशी स्वल्प-शरीरश्चाल्पभोजी, हस्तिशशकवत् ।
३. पण्ण. २८ । १०२, भ.जो. १ । ७ । ४४ ।
४. भ. वृ. १ ६१- बाहुल्यापेक्षं चेदमुच्यते, अन्यथा बृहच्छरीरोऽपि कश्चि
भगवई
उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य समान आयु वाले और भिन्न काल में उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य विषम आयु वाले और समकाल में उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य विषम आयु वाले और भिन्न काल में उपपन्न हैं । गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है सब मनुष्य समान आयु वाले और एक साथ उपपन्न नहीं हैं।
१०० वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव असुरकुमार देवों की तरह वक्तव्य हैं। केवल वेदना में भिन्नता है - ( व्यंतर देवों का वेदनाप्रकरण असुरकुमार की भांति ज्ञातव्य है) — ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में (असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते)। जो मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्न हैं, वे अल्पतर वेदना वाले और अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्न हैं, वे महत्तर वेदना वाले हैं।
के लिए इसका नियम विपरीत है। पृथ्वीकाय आदि जीवों के आहार, शरीर और उच्छ्वास- निःश्वास आदि नैरयिक की भांति बतलाए गए हैं। पृथ्वीकायिक आदि जीवों के शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है। फिर अल्प शरीर पर महाशरीर का नियम कैसे लागू होगा ? यह प्रश्न अत्यन्त जटिल है । किन्तु सूक्ष्मता का जगत् बहुत बड़ा है। इतनी सूक्ष्मतम अवगाहना में भी बहुत बड़ा तारतम्य है। पण्णवणा में उस तारतम्य को चतुःस्थानपतित (असंख्येयभाग हीन, संख्येयभाग हीन, संख्येयगुण हीन, असंख्येयगुण हीन; असंख्येयभाग अधिक संख्येयभाग अधिक, संख्येयगुण अधिक, असंख्येयगुण अधिक ) बतलाया गया है। इस आधार पर पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर को अल्प और महान् दो भागों में विभक्त किया गया है। उनमें महाशरीर वाले लोम-आहार के द्वारा बहुतर पुद्गलों का आहार करते हैं और बार-बार उच्छ्वास - निःश्वास करते हैं। अल्प शरीर वालों का व्यवहार इसके विपरीत होता है । "
आहार और उच्छ्वास निःश्वास के विषय में मनुष्य का नियम
दल्पमश्नाति अल्पशरीरोऽपि कश्चिद् भूरि भुङ्क्ते, तथाविध-मनुष्यवत् । न पुनरेवमिह, बाहुल्यपक्षस्यैवाश्रयणात् ।
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५. पण्ण. २१ । ४० ।
६. वही, ५।१५६ ।
७. भ. वृ. १ / ७६ – केवलमाहारसूत्रे भावनैवं पृथिवीकायिकानामङ्गुलासंख्येय
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