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भगवई
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शेष प्राणियों से भिन्न है। महाशरीर वाले मनुष्य बहुतर पुद्गलों का आहार और उच्छ्वास - निःश्वास लेते हैं, किन्तु वे बार-बार आहार आदि नहीं लेते। अल्प शरीर वाले बार-बार आहार और उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। यौगलिक महाशरीर वाले होते हैं। उनका आहार मात्रा की दृष्टि से अल्प होता है, किन्तु सघनता ( density) की दृष्टि से बहुत होता है, इसलिए महाशरीर वालों को बहुतर पुद्गलों का आहार करने वाला कहा गया है।'
कर्म, वर्ण, लेश्या
कर्म, वर्ण और लेश्या ये तीनों जीवन के आन्तरिक पक्ष से सम्बन्धित हैं। पूर्वोपपन्न नैरयिक आयुष्य तथा अन्य कर्मों का अधिक वेदन कर लेता है, इसलिए वह अल्प कर्म वाला हो जाता है । पश्चाद् उपपन्न होने वाला उनका अधिक वेदन नहीं कर पाता, इसलिए वह पूर्वोपपन्न की अपेक्षा महाकर्म वाला रहता है।
वर्ण-सूत्र का भी यही नियम है। पूर्वोपपन्न के कर्म अल्प होते हैं, इसलिए उसका वर्ण विशुद्ध हो जाता है। पश्चाद् उपपत्र में कर्म की बहुलता होती है, इसलिए उनका वर्ण पूर्वोपपन्न की अपेक्षा अविशुद्धतर होता है।
श्या- सूत्र का नियम भी यही है ।
वृत्तिकार ने 'वर्ण' को बाह्य द्रव्य लेश्या और लेश्या को भाव लेश्या बतलाया है। इन दोनों सूत्रों से आन्तरिक आभामण्डल और बाह्य आभामण्डल दोनों फलित होते हैं।
असुरकुमार देव के विषय में कर्म, वर्ण और लेश्या का नैरयिक से विपर्यय प्रतिपादित है । उसका रहस्य यह है—पूर्वोपपन्न देवों के भोग के कारण कर्म का बन्ध अधिक होता जाता है। इस अपेक्षा से पूर्वोपपन्न देव महाकर्म वाले और पश्चाद् उपपन्न देव अल्प कर्म
भागमात्रशरीरत्वेऽप्यल्पशरीरत्वम्, इतरच इत आगमवाचनादवसेयम्-'पुढविकायस्स ओगाहणट्ठायाए चउट्ठाणवडिए 'त्ति, ते च महाशरीरा लोमाहारतो बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्तीति उच्छ्वसन्ति च अभीक्ष्णं महाशरीरत्वादेव । अल्पशरीराणामल्पाहारोच्छ्वासत्वमल्पशरीरत्वादेव । कादाचित्कत्वं च तयोः पर्याप्तकेतरावस्थापेक्षमवसेयम् ।
१. भ.वृ. १ । ८७ – इह स्थाने नारकसूत्रे 'अभिक्खणं आहारेती 'त्यधीतम् इह तु 'आहच्चे' त्यधीयते महाशरीरा हि देवकुर्व्वादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण, 'अट्ठमभत्तस्स आहारो'त्ति वचनात्। अल्पशरीरस्त्वभीक्ष्णमल्पं च, बालानां तथैव दर्शनात् संमूर्च्छिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसंभवाच्च ।
२. ठाणं, ४ । ५८३ चउब्विहा कामा पण्णत्ता, तं जहा सिंगारा, कलुणा, भच्छा, रोहा । सिंगारा कामा देवाणं, कलुणा कामा मणुयाणं, बीभच्छा कामा तिरिक्खजोणियाणं, रोद्दा कामा णेरइयाणं ।
३. भ. ६।१५, १६ ।
४. वही, ६ । १३२ ।
५. वही, १४.८४-८८ ।
६. भ. वृ. १1७४ - कर्मादीनि नारकापेक्षया विपर्ययेण वाच्यानि, तथाहि नारका ये पूर्वोत्पन्नास्तेऽल्पकर्मकशुद्धतरवर्णशुभतरलेश्या उक्ताः, असुरास्तु ये पूर्वो
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श. १: उ.२: सू.६०-१००
वाले होते हैं। उनके निर्जरा के कारण कम और कर्म-बन्ध के कारण अधिक होते हैं। अनुत्तरौपपातिक देवों के भी निर्जरा अल्प बतलाई गई है।' इसके समर्थन में 'लवसत्तम' और अनुत्तरीपपातिक देवों को उद्धृत किया जा सकता है। लवसत्तम देवों का यदि सात लव ( लगभग ४ मिनिट २१ सैकिण्ड का ) आयु शेष होता तो वे मुक्त हो जाते । अनुत्तरौपपातिक देवों के यदि बेला (दो उपवास ) जितना आयुष्य और होता तो वे मुक्त हो जाते। वे नए कर्मों का अर्जन करते हैं, इसलिए लम्बी अवधि तक देव-आयु में रहकर फिर मनुष्य जीवन में आते हैं।
वर्ण और लेश्या कर्म से जुड़े हुए हैं, इसलिए उनका परिवर्तन स्वाभाविक है । वृत्तिकार ने कर्म आदि के परिवर्तन के लिए जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, वे पूर्णतः व्याप्त नहीं हैं।
वेदनावाद
यहां 'वेदना' शब्द से सात और असात दोनों गृहीत हैं। नैरयिकों के प्रसंग में असात वेदना मुख्य और सात वेदना गौण तथा देवों के प्रसंग में सात वेदना मुख्य और असात वेदना गौण रूप में ग्राह्य है। सभी तिर्यग्योनिक एवं मनुष्यों के प्रसंग में विमात्रा (अनियत परिमाण) में सात - असात वेदना होती है।
यहां नैरयिकों को दो भागों में विभक्त किया गया है—संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत। जो जीव अमनस्क भव से मरकर समनस्क भव में उत्पन्न होता है, उसे असंज्ञिभूत कहा गया है। जो जीव समनस्क भव से मरकर समनस्क भव में उत्पन्न होता है, उसे संज्ञिभूत कहा गया है।
वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने तथा प्रज्ञापना वृत्ति में आचार्य मलयगिरि ने असंज्ञिभूत के कई अर्थ किए हैं, किन्तु अल्पवेदन
त्पन्नास्ते महाकर्माणोऽशुद्धवर्णा अशुभतरलेश्याश्चेति कथम् ? ये हि पूर्वोत्पन्ना असुरास्तेऽतिकन्दर्पदर्पाध्मातचित्तत्वान्नारकाननेकप्रकारतया यातनया यातयन्तः प्रभूतमशुभं कर्म संचिन्वन्तीत्यतोऽभिधीयन्ते ते महाकर्माणः । अथवा ये बद्धायुषस्ते तिर्यगादिप्रायोग्यकर्म्मप्रकृतिबन्धनान्महाकर्माणः तथाऽशुद्धवर्णा अशुभलेश्याश्च ते । पूर्वोत्पन्नानां हि क्षीणत्वात् शुभकर्मणः शुभो वर्णो लेश्या च हसतीति । पश्चादुत्पन्नास्त्ववद्धायुषोऽल्पकर्माणो बहुतरकर्मणामबन्धनादशुभकर्म्मणामक्षीणत्वाच्च शुभवर्णादयः स्युरिति ।
७. भ. ७।१०३-१०५ ।
८. (क) भ.वृ. १ । ६८-सञ्ज्ञा — सम्यग्दर्शनं तद्वन्तः सञ्ज्ञिनः सञ्ज्ञिनो भूताः
सञ्ज्ञित्वं गताः सञ्ज्ञिभूताः । अथवाऽ सञ्ज्ञिनः सञ्ज्ञिनो भूताः सञ्ज्ञिभूताः, च्चिप्रत्यययोगात्, मिथ्यादर्शनमपहाय सम्यगदर्शनजन्मना समुत्पन्ना इति यावत् । तेषां च पूर्वकृतकर्मविपाकमनुस्मरतामहो महद्दुः खसङ्कटमिदमकस्मादस्माकमापतितं, न कृतो भगवदर्हाणीतः सकलदुःखक्षयकरो विषयविषमविषपरिभोगविप्रलब्धचेतोभिर्धर्म इत्यतो महदुःखं मानसमुपजायतेऽतो महावेदनास्ते । असञ्ज्ञिभूतास्तु मिथ्यादृष्टयः ते तु स्वकृतकर्मफलमिदमित्येवमजानन्तोऽनुपतप्तमानसा अल्पवेदनाः स्युरित्येके । अन्ये त्वाहुः सञ्ज्ञिनः सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूताः -- नारकत्वं गता सञ्ज्ञिभूताः, ते महावेदनाः । तीव्राशुभाध्यवसायेनाशुभतरकर्मबन्धनेन महानरकेषूत्पादात् । असञ्ज्ञिभूतास्त्वनुभूतपूर्वा
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