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________________ श.२: उ.५: सू.६५ भगवई ६५. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिजा तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्थापत्यीयाः ६५.'उस काल और उस समय पाश्र्थापत्यीय स्थविर थेरा भगवंतो जातिसंपना कुलसंपन्ना स्थविराः भगवन्तः जातिसम्पन्नाः कुलसम्पन्नाः भगवान्, जो जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विणयसंपन्ना नाण- बलसम्पन्नाः रूपसम्पन्नाः विनयसम्पन्नाः ज्ञान- रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, संपन्ना सणसंपना चरित्तसंपत्रा लज्जासंपना सम्पन्नाः दर्शनसम्पन्नाः चारित्रसम्पन्नाः लजा- चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाधवसम्पन्न, ओजलाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वचंसी जसंसी । सम्पत्राः लाघवसम्पन्ना ओजस्विनः तेजस्विनः स्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोधजयी, मानजियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा वर्चस्विनः यशस्विनः जितक्रोधाः जितमानाः जयी, मायाजयी, लोभजयी, निद्राजयी, जितेजियनिद्दा जिइंदिया जियपरीसहा जीवि- जितमायाः जितलोभाः जितनिद्राः जितेन्द्रियाः न्द्रिय, परीषहजयी, जीने की आशंसा और मृत्यु यास-मरण-भयविप्पमुक्का तवप्पहाणा गुण- जितपरीषहाः जीविताशा-मरण-भयवि- के भय से मुक्त, तपप्रधान, गुणप्रधान, करणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्ग- प्रमुक्ताः तपःप्रधानाः गुणप्रधानाः करण- प्रधान, चरणप्रधान, निग्रहप्रधान, निश्चयप्रधान, हप्पहाणा निच्छयप्पहाणा मद्दवप्पहाणा प्रधानाः चरणप्रधानाः निग्रहप्रधानाः निश्चय- मार्दवप्रधान, आर्जवप्रधान, लाघवप्रधान, क्षमाअज्जवप्पहाणा लाघवष्पहाणा खंतिप्पहाणा प्रधानाः मार्दवप्रधानाः आर्जवप्रधानाः लाघव- प्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, मुत्तिप्पहाणा विजाप्पहाणा मंतप्पहाणा प्रधानाः क्षान्तिप्रधानाः मुक्तिप्रधानाः विद्या- वेदप्रधान, ब्रह्मप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा निय- प्रधानाः मन्त्रप्रधानाः वेदप्रधानाः ब्रह्म- सत्यप्रधान, शौचप्रधान, चारुप्रज्ञ, पवित्र ह्रदय मप्पहाणा सचप्पहाणा सोयप्पहाणा चारु- प्रधानाः नयप्रधानाः नियमप्रधानाः सत्य- वाले, निदानरहित, उत्सुकतारहित, आत्मोन्मुखी पण्णा सोही अणियाणा अप्पस्सुया प्रधानाः शौचप्रधानाः चारुप्रज्ञाः शोधिनः भावधारा वाले, सुश्रामण्य में रत, प्रश्न का यथार्थ अबहिल्लेसा सुसामण्णरया अच्छिद्द- अनिदानाः अल्पोत्सुकाः अबहिर्लेश्याः सुश्रा- उत्तर देने वाले, कुत्रिकापणतुल्य, बहुश्रुत और पसिणवागरणा कुत्तियावणभूया बहुस्सुया मण्यरताः अच्छिद्रप्रश्नव्याकरणाः कुत्रि- बहुत परिवार वाले हैं, वे पांच सौ अनगारों के बहुपरिवारा पंचहि अणगारसएर्हि सद्धिं कापणभूताः बहुश्रुताः बहुपरिवाराः पंचभिः साथ स-परिवृत होकर अनुक्रम से परिव्रजन करते संपरिखडा अहाणुपुदि चरमाणा गामाणुगाम अनगारशतैः सार्द्ध संपरिवृताः यथानुपूर्वि हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में घूमते हुए सुखपूर्वक दूइजमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव चरन्तः ग्रामानुग्रामं दवन्तः सुखंसुखेन विहरण करते हुए जहां तुंगिका नगरी है, जहां तुंगिया नगरी जेणेव पुष्फवइए चेइए तेणेव विहरन्तः यत्रैव तुङ्गिका नगरी यत्रैव पुष्प- पुष्पवतिक चैत्य है, वहां आए और आकर प्रवासउवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं वतिकः चैत्यः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य -योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप ओग्गहं ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। अप्पाणं भावमाणा विहरति ॥ तपसा आत्मानं भावयन्तः विहरन्ति । भाष्य १. सूत्र ६५ प्रस्तुत सूत्र में स्थविर की विशेषताओं का निरूपण किया गया है। इनसे मुनि के बहु-आयामी व्यक्तित्व का परिचय हो जाता है। शब्द-विमर्श स्थविर–श्रुतवृद्ध। जातिसम्पन-उत्तम मातृपक्षवाला। कुलसम्पन्न-उत्तम पितृपक्षवाला। लज्जासम्पन-लाज अथवा संयम से सम्पन्न ।' लाघवसम्पन्न-अल्प उपकरण-युक्त। गौरव का त्याग करनेवाला।' ओजस्वी-मनोबल से युक्त। तेजस्वी शरीर-प्रभा से युक्त। वर्चस्वी-विशिष्ट प्रभाव-युक्त। यशस्वी ख्यातिमान। वृत्तिकार ने वच्चंसी का वैकल्पिक अर्थ 'वचस्वी' (विशिष्ट वचन युक्त) भी किया है। गुणप्रधान--'गुण' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ संयम-गुण किया है। दशवकालिकचूर्णि में इसका अर्थ 'चरित्र-रक्षा के लिए की जानेवाली भावना' है। चरणप्रधान करणप्रधान-द्रष्टव्य भ.२१५२ का भाष्य। १. भ.वृ.२।६ लज्जा-प्रसिद्धा संयमो वा।। २. वही,२६ लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्यागः। ३. वही,श६-'ओयंसी'ति ओजस्विनो मानसावष्टम्भयुक्ताः 'तेयंसी'ति तेज- स्विनः शरीरप्रभायुक्ताः वयंसी'ति वर्चस्विनः' विशिष्टप्रभावोपेताः 'वचस्विनो वा' विशिष्टवचनयुक्ताः 'जसंसी'ति ख्यातिमन्तः अनुस्वारश्चैतेषु प्राकृतत्वात् । ४. वही,२।६ गुणाश्च संयमगुणाः। ५. दशवै.जि.चू.पृ.३७०-गुणा तेसिं सारक्खणनिमित्तं भावणाओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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