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________________ भगवई २६६ निग्रहप्रधान — निग्रह का शाब्दिक अर्थ है निषेध और नियन्त्रण | अनाचार का निषेध करना और अपने इन्द्रिय तथा मन का नियन्त्रण करना—ये दोनों अर्थ यहां संगत हो सकते हैं। वृत्तिकार ने इसका अर्थ अन्यायकारी को दण्ड देना किया है । ' निश्चयप्रधान १. अवश्यकरणीय का संकल्प, २. तत्त्व का निर्णय । मार्दवप्रधान - आर्जवप्रधान क्या ये 'जितमान' और 'जितमाय' के पुनरुक्त नहीं है ? इस प्रश्न का वृत्तिकार ने बहुत अच्छा समाधान दिया है। उनके अनुसार मान और माया को जीतने का अर्थ है —मान और माया के उदय को विफल कर देना। जबकि 'मार्दवप्रधान' तथा 'आर्जवप्रधान' के द्वारा मान और माया के 'उदय के अभाव की सूचना दी गई है । ' लाघवप्रधान- लाघव का अर्थ है— क्रिया की दक्षता । विद्याप्रधान मंत्रप्रधान --- विद्या -- जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो । मंत्र जिसका अधिष्ठाता देव हो । ' अभयदेवसूरि ने विद्या और मंत्र के वैकल्पिक अर्थ भी दिए हैं— जो साधना सहित हो, वह विद्या और जो साधना -रहित हो, वह मंत्र । वेदप्रधान औपपातिक वृत्ति में वेद के दो अर्थ मिलते हैं—आगम तथा ॠग्वेद आदि वेद । ब्रह्मप्रधान—ब्रह्म के दो अर्थ हैं — वस्ति निरोध तथा कुशल ६६. तए णं तुंगियाए नयरीए सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह- महापह-पहेसु जाव एगदिसाभिमुहा निज्जायंति । १. भ.जो. १।४२।१६ निग्रह-प्रधान जेह, दंड अन्याय करै जसुं। अनाचार सेवेह तास निषेधी दंड दियै ॥ २. भ. बृ. २/६५ निग्रहः अन्यायकारिणां दण्डः । ३. वही, २६५ निश्चयः – अवश्यंकरणाभ्युपगमस्तत्त्वनिर्णयो वा । ४. वही, २६५ ननु जितक्रोधादित्वान्मार्द्दवादिप्रधानत्वमवगम्यत एव तत्किं मार्दवेत्यादिना ? उच्यते, तत्रोदयविफलतोक्ता, मार्दवादिप्रधानत्वे तूदयाभाव एवेति । ५. वही, २६५ लाघवम् क्रियासु दक्षत्वम् । ६. भ.जो. १ । ४२ । २४-२६ विद्या करी प्रधान, ते प्रज्ञप्ती आदि करि । देवी साधन जान, अक्षर अनुकेर्डे तिका ॥ मंत्रे करी प्रधान, हरिणगमेषी प्रमुख ही । अधिष्ठित सुविधान, तेह तणा पिण जाणमुनि ।। अथवा विद्या सोय, साधना करी सहित जे। मंत्र जिको अवलोय, साधना करी रहित ते ॥ ७. ज्ञाता.वृ. प. ८ विद्याः प्रज्ञप्त्यादिदेवताधिष्ठिता वर्णानुपूर्व्यः, मंत्राः Jain Education International अनुष्ठान। भाष्य । १० ११ नयप्रधान नैगम आदि सात नय अथवा नीति । नियम- नाना प्रकार के अभिग्रह । शौच-अनवद्य आचार । ” श. २: उ.५: सू. ६५,६६ चारुप्रज्ञ – प्रज्ञा का अर्थ है— श्रुतनिरपेक्ष ज्ञान अन्तर्दृष्टि । पवित्र हृदय वाला..... सुश्रामण्य में रत — देखें, भ. २ । ५५ का तस्याः तुङ्गिकायाः नगर्याः शृङ्गाटक-त्रिकचतुष्क- चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु यावत् एकदिशाभिमुखाः निर्यान्ति । निश्छिद्र प्रश्नव्याकरण- व्याकरण का अर्थ है—उत्तर या व्याख्या । निश्छिद्र का अर्थ है— निर्दोष। जिसमें प्रश्न के उत्तर या व्याख्या की शक्ति निर्दोष होती है अथवा तत्काल उत्तर देने की शक्ति होती है, वह निश्छिद्र प्रश्न व्याकरणवाला होता है। १३ कुत्रिकापणभूत 'कुत्रिकापण एक विशिष्ट दुकान का नाम है । आगम - साहित्य में इसका अनेक बार उल्लेख हुआ है। भगवान् महावीर के युग में इस प्रकार की अनेक दुकानें होने का उल्लेख मिलता है। कुत्तिय के संस्कृत रूप दो मिलते है— कुत्रिक और कुत्रिज । जिस दुकान में स्वर्ग, मनुष्यलोक और पाताल इन तीनों में होने वाली सभी वस्तुएं मिलती हैं, उसे 'कुत्रिकापण' कहा जाता है। जिसमें धातु, जीव और मूल (जड़) – ये तीनों प्रकार के पदार्थ मिलते हैं, उसे 'कुत्रिजापण' कहा जाता है। स्थविर समीहित अर्थ-सम्पादन से युक्त अथवा कल गुणों से युक्त थे; इसलिए उनकी कुत्रिकापण से तुलना की गई है। ६६. उस तुंगिका नगरी के शृङ्गाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहट्टों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर यावत् नागरिक जन एक ही दिशा के अभिमुख जा रहे हैं। हरिणेगमिष्यादिदेवताधिष्ठितास्ता एव अथवा विद्या ससाधना, साधनरहिताः मंत्राः । ८. (क) औ.वृ. पृ. ६३ वेदाः आगमाः ऋग्वेदादयो वा । (ख) भ.जो. १।४२।२७- वेद करी सुप्रधान, आगम चिहुं वेदज्ञ वा । ६. राज.वृ. पृ. २८३ — ब्रह्मचर्यं वस्तिनिरोधः सर्वमेव वा कुशलानुष्ठानम् । १०. (क) वही, पृ. २८३ - नया नैगमादयः सप्त प्रत्येकं शतविधाः । (ख) औ.वृ. पृ. ६२ नया नीतयः । ११. राज.वृ. पृ. २८३ नियमा विचित्रा अभिग्रहविशेषाः । १२. राज. बृ. पृ. २८३ द्रव्यतो निर्लेपता, भावतोऽनवद्यसमाचारता । १३. भ.जो. १ । ४२ । ३५ । For Private & Personal Use Only १४. (क) भ. वृ. २ / ६५ कुत्रिकं स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्संभवं वस्त्वपि कुत्रिकं तत्सम्पादक आपणो हट्टः कुत्रिकापणस्तद्भूताः समीहितार्थसम्पा - दनलब्धियुक्तत्वने सकलगुणोपेतत्वेन वा तदुपमाः । (ख) अल्पपरिचित शब्दकोश —अथवा धातुजीवमूल लक्षणेभ्यस्त्रिभ्योजातं त्रिजं सर्वमपि वस्त्वित्यर्थः, कौ— पृथिव्यां त्रिजमापणयति — व्यवहरति यत्र हट्टे सः कुत्रिजापणः । www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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