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भगवई
३८६. कहण्णं भंते! जीवा संसारं हस्सी - करेंति ?
गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं हस्सीकरेति ।
३६०. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं अणुपरियति ?
गोयमा ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्ले एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं
॥
३६१. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं वीतिवयंति ?
गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादंसणसल्लवेरमणे --- एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं वीतिवयंति ।
पसत्या चत्तारि अपसत्या चत्तारि ॥
१. सूत्र ३८४-३६१
प्रस्तुत आलापक में चार युग्म हैं
१. गुरुत्व और लघुत्व
२. आकुलीकरण और परीतीकरण
३. दीर्घीकरण और ह्रस्वीकरण
४. अनुपरिवर्तन और व्यतिव्रजन ।
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कथं भदन्त ! जीवाः संसारं ह्रस्वीकुर्वन्ति ?
गौतम ! प्राणातिपातविरमणेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्यविरमणे-- एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारं ह्रस्वीकुर्वन्ति ।
कथं भदन्त ! जीवाः संसारम् अनुपरिवर्तन्ते ?
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गौतम ! प्राणातिपातेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्येन एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारम् अनुपरिवर्तन्ते ।
कथं भदन्त ! जीवाः संसारं व्यतिव्रजन्ति ?
गौतम ! प्राणातिपातविरमणेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्यविरमणेन — एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारं व्यतिव्रजन्ति । प्रशस्तानि चत्वारि अप्रशस्तानि चत्वारि ।
भाष्य
इन चार युग्मों में सभी प्रथम पक्ष और सभी द्वितीय प्रतिपक्ष हैं। इसी प्रकार सभी प्रथम धर्म से विमुख और सभी द्वितीय धर्म से हैं।' प्रथम युग्म अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की अपेक्षा सम्मुख से है। भारी वस्तु नीचे जाती है और हल्की वस्तु ऊपर जाती है। प्राणातिपात आदि के आचरण से जीव भारी बनकर अधोगति में जाता है। प्राणातिपात आदि के विरमण से वह हल्का होकर ऊर्ध्व गति में जाता है।
दूसरा युग्म संसारावस्थान की अपेक्षा से है। संसार का अर्थ है-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव-इन चार गतियों में गमन या पर्यटन करना। संसार के आकुलीकरण का अर्थ है-चतुर्गति-गमन की परम्परा का पर्यवसान न होना अथवा उसका अनन्त - अनन्त होना। संसार के परीतीकरण का अर्थ है-संसार का परिमित होना । यहां परिमित का अर्थ है –— कुछ कम अपार्ध - पुद्गल परिवर्त । इस प्रसंग में जीवाजीवाभिगमे का एक प्रकरण बहुत उपयोगी होगा। -
१. भ. वृ. १ । ३६१ – पसत्था चत्तारि 'त्ति लघुत्वपरीतत्वहस्वत्वव्यतिव्रजनदण्डका प्रशस्ताः मोक्षाङ्गत्वात्, ‘अपसत्था चत्तारि 'त्ति गुरुत्वाकुलत्वदीर्घत्वानुपरिवर्तन
श. १: उ.६: सू. ३८४-३६१ ३८६. भन्ते ! जीव संसार को अल्पकालिक कैसे करते हैं ?
गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के विरमण से जीव संसार को अल्पकालिक करते हैं ।
३६० भन्ते ! जीव संसार में अनुपरिवर्तन कैसे करते हैं ?
गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के द्वारा जीब संसार में अनुपरिवर्तन करते हैं।
३६१. भन्ते ! जीव संसार का व्यतिक्रमण कैसे करते हैं ?
गीतम ! प्राणातिपात यावत् मिध्यादर्शनशल्य के विरमण से जीव संसार का व्यतिक्रमण करते हैं।
इनमें चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त हैं।
जीव तीन प्रकार के बतलाए गये हैं
१. परीत २. अपरीत ३. नो-परीत-नो- अपरीत |
प्र. परीत कितने काल तक परीत रहता है ?
उ. परीत दो प्रकार का होता है—कायपरीत और संसारपरीत । प्र. कायपरीत कायपरीत के रूप में कितने काल तक रहता है ?
उ. जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यकाल तक ।
प्र. संसारपरीत संसारपरीत के रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल - कुछ कम अपार्ध-पुद्गल-परिवर्त ।
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जो जीव कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में आ जाता है, जो जीव एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श कर लेता है, जो जीव संसार को परीत कर लेता है— इन तीनों का उत्कृष्ट संसारावस्थान-काल एक समान होता है।
आकुलीकरण का प्रयोग 'अपरीत' के अर्थ में प्रतीत होता है । अपरीत के भी दो प्रकार हैं-काय अपरीत और संसार अपरीत । प्र. कायअपरीत कायअपरीत के रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः वनस्पति-काल । प्र. संसार अपरीत संसार अपरीत के रूप में कितने काल तक रहता है ?
दण्डका अप्रशस्ताः अमोक्षाङ्गत्त्वादिति ।
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