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________________ श.१: उ.६: सू.३८४-३६८ १७२ भगवई उ. इसके दो भंग हैं--प्रथम भंग वाले का संसारावस्थान-काल अनादि विशेषण है। इसमें उक्त अर्थ की संगति खोजी जा सकती है।' अनंत होता है। दूसरे भंग वाले का संसारावस्थान-काल अनादि चौथा युग्म अनुपरिवर्तन और व्यतिव्रजन का है। इनका संबंध सपर्यवसित होता है।' क्रमशः भ्रमण-क्रिया और उसके अन्त से है। तीसरा युग्म क्षेत्र की अपेक्षा से है। दीर्धीकरण का अर्थ है प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानकों के लिए देखें, भगवती, अनपरिवर्तन-मार्ग का लम्बा होना। ह्रस्वीकरण का अर्थ है--- १२७६२८६ का भाष्य । अनुपरिवर्तन मार्ग का छोटा होना । 'दीहमद्धं'—यह संसार-कान्तार का ३६२. सत्तमेणं भंते ! ओवासंतरे किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? सप्तमं भदन्त ! अवकाशान्तरं किं गुरुकम् ? लघुकम् ? गुरुकलघुकम् ? अगुरुकलघु- ३६२. 'भन्ते ! सातवां अवकाशान्तर क्या गुरु है। लघु है ? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? कम्? गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए, णो गरुय- लहुए, अगरुयलहुए॥ गौतम ! नो गुरुकं, नो लघुकं, नो गुरुक- लघुकम्, अगुरुकलघुकम्। गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, न गुरुलघु है, अगुरुलघु है। ३६३. सत्तमे णं भंते ! तणुवाए किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? गोयमा! णो गरुए, णो लहुए, गरुयलहुए, णो अगरुयलहुए। सप्तमः भदन्त ! तनुवातः किं गुरुकः ? ३६३. भन्ते ! सातवां तनुवात क्या गुरु है ? लघु लघुकः ? गुरुकलघुकः ? अगुरुकलघुकः? है? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? गौतम ! नो गुरुकः, नो लघुकः, गुरुकलघुकः, गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, न अगुरुलघु नो अगुरुकलघुकः । है, गुरुलधु है। ३६४. एवं सत्तमे घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी॥ एवं सप्तमः घनवातः, सप्तमः घनोदधिः, सप्तमा ३६४. इसी प्रकार सातवां धनवात, सातवां घनोदधि पृथिवी। और सातवीं पृथ्वी ज्ञातव्य हैं। ३६५. ओवासंतराइं सव्वाई जहा सत्तमे ओवासंतरे ॥ अवकाशान्तराणि सर्वाणि यथा सप्तमम् अव- ३६५. सभी अवकाशान्तर सातवें अवकाशान्तर की काशान्तरम्। भांति ज्ञातव्य हैं। ३६६. जहा तणुवाए एवं–ओवास-वाय- घणउदही, पुढवी दीवा य सागरा वासा।। यथा तनुवातः एवम्-अवकाश-वात- ३६६. जैसे तनुवात का निरूपण हुआ है, उसी घनोदधिः, पृथिवी द्वीपाः च सागरा वर्षाणि। प्रकार-अवकाश, घनवात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर और वर्ष निरूपणीय हैं। ३६७. नेरइया णं भंते ! किं गरुया ? लहु- या ? गरुयलया? अगरुयलहुया ? गोयमा ! णो गरुया, णो लहुया, गरुय- लहुया वि, अगरुयलहुया वि॥ नैरयिकाः भदन्त ! किं गुरुकाः ? लघुकाः? ३६७. भन्ते ! नैरयिक क्या गुरु हैं ? लघु हैं ? गुरुकलघुकाः ? अगुरुकलघुकाः ? गुरुलघु हैं ? अगुरुलघु हैं ? गौतम ! नो गुरुकाः, नो लघुकाः, गुरुक- गौतम ! वे न गुरु हैं, न लघु हैं. गुरुलघु भी हैं लघुकाः अपि, अगुरुकलधुकाः अपि। और अगुरुलघु भी हैं। ३६८. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया णो गरुया ? णो लहुया ? गरुयलहुया वि? अगरुयल्या वि? गोयमा ! विउब्बिय-तेयाई पडुच्च णो गरुया, णो लहया, गरुयलया, णो अगरुय- लहया। जीवं च कम्मगं च पडूच णो गरुया, णो लहुया, णो गरुयलहुया, अगरुयलहुया। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ-नेरइया णो गरुया, णो लहुया, गरुयलहुया वि, अगरुयलहुया वि॥ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ३६८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा नो गुरुकाः ? नो लघुकाः ? गुरुकलघुकाः है—रयिक न गुरु हैं ? न लघु हैं ? गुरुलघु अपि ? अगुरुकलघुकाः अपि ? भी हैं ? अगुरुलघु भी हैं ? गौतम ! वैक्रिय तैजसौ प्रतीत्य नो गुरुकाः, गौतम ! वैक्रिय और तैजस शरीर की अपेक्षा से नो लघुकाः, गुरुकलघुकाः, नो अगुरुक- वे न गुरु हैं, न लघु हैं, न अगुरुलघु हैं, गुरुलघु लघुकाः। जीवं च कर्मकं च प्रतीत्य नो हैं। जीव और कार्मण शरीर की अपेक्षा से वे न गुरुकाः, नो लघुकाः, नो गुरुकलघुकाः, गुरु हैं, न लघु हैं, न गुरुलघु हैं, अगुरुलघु हैं। अगुरुकलघुकाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा मुच्यते-नैरयिकाः नो गुरुकाः, नो लघुकाः, है-नैरयिक न गुरु हैं, न लघु हैं, गुरुलघु भी गुरुकलघुकाः अपि, अगुरुकलघुकाः अपि। हैं, अगुरुलघु भी हैं। १. जीवा.६।७५-८१। जीवा.वृ.प.४४६। २. भ.११४५,४७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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