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आमुख
प्रस्तुत शतक तत्त्वविद्या की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। जैन दर्शन को दो काल-खण्डों में विभक्त किया जा सकता है—आगमयुग का दर्शन और आगमोत्तरयुग का दर्शन । आगमोत्तर युग के दर्शन में 'द्रव्य' शब्द बहुत प्रचलित हुआ है। आगम-युग में द्रव्य के लिए अस्तिकाय' का प्रयोग मिलता है। 'द्रव्य' शब्द मुख्यतः वैशेषिक दर्शन में व्यवहृत रहा है। 'अस्तिकाय' अस्तित्व का वाचक एक महत्वपूर्ण शब्द है इसका प्रयोग किसी अन्य दर्शन में प्राप्त नहीं है। प्रस्तुत शतक में अस्तिकाय का निरूपण हुआ है। महावीर के निरूपण की चार मुख्य दृष्टियां रही हैं—द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इन दृष्टियों के आधार पर कहा जा सकता है कि सापेक्षता के बिना किसी भी अस्तित्व का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। अस्तिकाय अचेतन और चेतन इन दो भागों में विभक्त है। जीव चेतन है, शेष चार-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय—अचेतन हैं। इनमें पुद्गलास्तिकाय—मूर्त है, शेष चार अमूर्त हैं। यह मूर्त-अमूर्त का विभाग भी जैन दर्शन में बहुत प्राचीन काल से मान्य है।'
आकाश का लोकाकाश और अलोकाकाश-इन दो भागों में विभाजन जैन दर्शन की मौलिक स्थापना है। इस स्थापना का अध्ययन महान् वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन की आकाशविषयक अवधारणा से किया जा सकता है।'
आकाश की भांति काल के भी दो प्रकार मिलते हैं—नैश्चयिक काल और व्यावहारिक काल । नैश्चयिक काल का संबंध प्रत्येक अस्तित्व के साथ है। व्यावहारिक काल का संबंध सूर्य की गति के साथ है। सूर्य केवल मनुष्य-लोक में ही गतिशील है। जहां सूर्य की गति होती है, वह क्षेत्र समय-क्षेत्र कहलाता है।
जीव अमूर्त है, उसे इन्द्रियों से देखा नहीं जा सकता। फिर भी वह अपने जीवत्व को उपदर्शित करता है। इस उपदर्शन के दो पथ हैं—१. शक्ति का प्रयोग २. ज्ञान का प्रयोग।' शक्ति का प्रयोग पुद्गल में भी होता है, किन्तु उसमें ज्ञान नहीं होता। जीव और अजीव के बीच भेदरेखा खींचने का सूत्र शक्ति और गति नहीं है, केवल ज्ञान ही है।
जीवविज्ञान आगम-युग के दर्शन का मुख्य विषय रहा है। इसकी पुष्टि के अनेक साक्ष्य प्राप्त हैं। आगम-साहित्य में आहार और श्वास से लेकर चेतना के चरम विकास तक का गहन अध्ययन मिलता है। श्वास-विषयक महावीर और गौतम का संवाद बहुत रोचक है:
गौतम ने पूछा-भंते ! दो, तीन, चार इन्द्रियवाले जीव श्वास लेते हैं, हम जानते-देखते हैं। क्या एक इन्द्रिय वाले जीव-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय-भी श्वास लेते हैं ?
महावीर–हां, वे भी उच्छ्वास-निःश्वास, आन और अपान करते हैं। पेड़-पौधे श्वास लेते हैं—यह सूक्ष्म यन्त्र वाले वैज्ञानिक युग में कहना आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु ढाई हजार वर्ष पहले ऐसा कहना सचमुच आश्चर्य है। यांत्रिक उपकरणों द्वारा जो नहीं जाना जा सकता, वह निरावरण चेतना से जाना जा सकता है, इस स्थापना में कोई कठिनाई नहीं है। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में पेड़-पौधों को सजीव बतलाया गया है, किन्तु वे श्वास लेते हैं, किस द्रव्य का श्वास लेते हैं, कितनी दिशाओं से श्वास लेते हैं आदि-आदि विषय कहीं उपलब्ध नहीं हैं। प्रस्तुत शतक में इन विषयों की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
प्रस्तुत शतक में जीव के छह निरुक्त मिलते हैं।
आगम-युग में सांप्रदायिक अभिनिवेश प्रबल नहीं था। उस समय विभिन्न मतवादों और तीर्थों के परिव्राजक और संन्यासी दूसरे सम्प्रदाय के आचार्यों के पास मुक्त भाव से जाते, तत्त्वचर्चा करते और प्रश्न का समाधान पाते। इस सन्दर्भ में परिव्राजक स्कन्दक भगवान महावीर के पास आए, लोक के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। भगवान महावीर ने उनका समाधान दिया। मताग्रह प्रबल नहीं था, दृष्टिकोण
१. सूत्र १२४-१३५। २. सूत्र १३८-१४०। 3. The Universe and Dr. Einstein by Lincoln Barnett,
pp.32,96.
४. सूत्र १२२,१२३ । ५. सूत्र १३६,१३७। ६. सूत्र २-८॥ ७. सूत्र १३-१५॥
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