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________________ श.१: उ.६: सू.२८८-३०७ १३४ भगवई मूल पदार्थों का स्रोत मानता है।' प्रवाहण जैवलि ने आकाश को जीव-अजीववाद मूल तत्त्व बतलाया है। प्रवाहण जैवलि से पूछा गया कि पदार्थों भगवान् महावीर के अनुसार जीव अजीव का प्रतिपक्ष है और की चरम गति क्या है ? उन्होंने उत्तर की भाषा में कहा-आकाश। अजीव जीव का प्रतिपक्ष है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सिद्ध उनके अनुसार समस्त पदार्थों का उद्भव आकाश से ही होता है। नहीं होता। दोनों का अस्तित्व परस्पर सापेक्ष है; इसलिए न जीव और अन्त में आकाश में ही उनका निलय हो जाता है। अजीव से उत्पन्न होता है और न अजीव जीव से उत्पन्न होता है। यदि उपनिषद् के विभिन्न विषयों के नाना अभिमतों को। संक्षेप में मूल तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । विस्तार में मूल तत्त्व सार-संक्षेप में प्रस्तुत किया जाए तो निष्कर्ष यह होगा छह हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्ति१. जगत् का मूल तत्त्व है असत् । काय, जीवास्तिकाय और काल । इनमें पांच तत्त्व अजीव और एक २. जगत् का मूल तत्त्व है सत् । जीव हैं। ३. जगत् का मूल तत्त्व है अचेतन । जीव-अजीव के पौर्वापर्य का अभाव सृष्टि-रचना के सन्दर्भ में ४. जगत् का मूल तत्त्व है चेतन या आत्मा । एक नयी अवधारणा प्रस्तुत करता है। सृष्टि-रचना के सन्दर्भ में दर्शन वैदिक ऋषि कहते है-उस समय प्रलय-दशा में असत् भी की धाराओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता हैनहीं था और सत् भी नहीं था। पृथ्वी भी नहीं थी। आकाश भी अद्वैतवाद और द्वैतवाद। अद्वैतवादी दार्शनिक चेतन या अचेतन का नहीं था। आकाश में विद्यमान सात भुवन भी नहीं थे। प्रकृत तत्त्व स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार जीव और को कौन जानता है ? कौन उसका वर्णन करता है ? यह सृष्टि अजीव में से किसी एक तत्त्व का वास्तविक अस्तित्व है। इस विषय किन उपादान कारणों से हुई है ? किस निमित्त कारण से ये विविध में अद्वैतवाद की तीन मुख्य शाखाएं हैं-१. जड़ाद्वैतवाद २. चैतन्यासृष्टियां हुई ? कहां से सृष्टि हुई वह कौन जानता है ? ये सब वे द्वैतवाद ३. जड़चैतन्याद्वैतवाद। ही जानें जो इनके स्वामी परमधाम में रहते हैं। हो सकता है, वे जड़ाद्वैत के अनुसार जीव की उत्पत्ति अजीव से हुई है। भी यह सब नहीं जानते हों ?' अनात्मवादी चार्वाक और क्रमविकासवादी दार्शनिक इसी मत के सृष्टिविषयक इन विभिन्न मतवादों के सन्दर्भ में रोह के प्रश्नों समर्थक है। का मूल्यांकन किया जा सकता है। रोह के प्रश्न और महावीर के चैतन्याद्वैत के अनुसार सृष्टि का आदि कारण ब्रह्म है। वैदिक उत्तर के अध्ययन से अनादित्व का सिद्धांत फलित होता है। ऋषि कहते हैं-अप्रत्यक्ष ब्रह्म में ही सद्भाव प्रतिष्ठित है। इसी सत् लोक-अलोकवाद में सृष्टि के उपादानभूत पृथ्वी आदि निहित हैं, इसी से उत्पन्न होते हैं। ब्रह्म तीनों लोकों से अतीत है। उसने यह सोचा कि मैं किस अलोक का अर्थ है केवल आकाश और लोक का अर्थ है प्रकार लोगों में पैलूं ? तब वह नाम और रूप से लोगों में प्रविष्ट चेतन और अचेतन तत्त्व से संयुक्त आकाश । जैन दर्शन के अनुसार हुआ।" लोक और अलोक का विभाग नैसर्गिक है, अनादिकालीन है। वह किसी ईश्वरीय सत्ता द्वारा कृत नहीं है। लोक की स्वीकृति प्रायः जड़चैतन्याद्वैत के अनुसार जगत् की उत्पत्ति जीव और सभी दर्शनों ने की है। जगत् या सृष्टि को सब मानते हैं। किन्तु अजीव-इन दोनों गुणों के मिश्रण से हुई है। जड़ाद्वैतवाद और चैतन्याद्वैतवाद-ये दोनों कारणानुरूप कार्योत्पत्ति के सिद्धान्त को अजगत् या असृष्टि को कोई दार्शनिक स्वीकार नहीं करता। यह भगवान् महावीर की मौलिक देन है। इससे पक्ष और प्रतिपक्ष तथा स्वीकार नहीं करते। विरोधी युगल का सिद्धान्त फलित हुआ है। इसकी व्याख्या का द्वैतवादी दर्शन जड़ और चैतन्य दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्धान्त है-अनेकान्तवाद। जगत् विरोधी युगलात्मक है। मानते हैं। इनके अनुसार जड़ से चैतन्य या चैतन्य से जड़ उत्पन्न अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद के बिना उसकी व्याख्या नहीं की जा नहीं होता। कारण के अनुरूप ही कार्य का प्रादुर्भाव होता है। जैन सकती। दृष्टि के अनुसार विश्व एक शिल्पगृह है। उसकी व्यवस्था स्वयं उसी १. Greek Thinkers, vol: 1,p.63; The Principal Upnishads, p.33,footnote3. २. छान्दोग्य उपनिषद्, १८,१६१-तंह प्रवाहणोजैवलिर् उवाच-अस्य लोकस्य का गतिर् इत्य् आकाश इति होवाच । सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्य आकाशाद् एव समुत्पद्यन्ते, आकाशं प्रत्यस्तम् यान्त्य् आकाशो ह्य् एवैभ्यो ज्यायान्, आकाशः परायणम् । ३. ऋग्वेद, मंडल १०,अनुवाक ११,सूक्त १२६,श्लोक१,६,७ नासदासीनो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् । किमावरीवः कुह कस्य शर्मत्रम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ॥ को अद्धा वेद न इह प्रवोचत्कृत आजाता कुत इयं विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जननाथा को वेद यत आवभूव ॥ इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो आस्याध्यक्षः परमे व्योमन्सो अङ्गवेद यदि वा न वेद ॥ ४. अथर्ववेद,१७।१:१६--- असति सत् प्रतिष्ठितं सति भूतं प्रतिष्ठितं । भूतं ह भव्य आहितं भव्यं भूते प्रतिष्ठितम् ।। ५. शतपथ ब्राह्मण,१११।२।३ तद् द्वाभ्यामेव प्रत्यवेद रूपेण चैव नाम्ना च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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