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________________ भगवई ३०५. पुब्बिं भंते ! सत्तमे तणुवाए, पच्छा सत्तमे घणवाए ? पुलिं सत्तमे घणवाए, पच्छा सत्तमे तणुवाए ? रोहा ! सत्तमे तणुवाए य सत्तमे घणवाए य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणाणुपुबी एसा रोहा ! ३०६. एवं तहेव नेयव्वं जाव सब्बद्धा ॥ ३०७. एवं उवरिल्लं एक्केकं संजोयंतेणं, जो जो हिद्विल्लो तं तं छतेणं नेयव्वं जाव अतीत- अणागतद्धा, पच्छा सब्बद्धा जाव अापुवि एसा रोहा ! १३३ पूर्वं भदन्त ! सप्तमः तनुवातः पश्चात् सप्तमः घनवातः ? पूर्वं सप्तमः घनवातः पश्चात् सप्तमः तनुवातः ? रोह ! सप्तमः तनुवातः च सप्तमः घनवातः च पूर्वमपि एतौ पश्चादपि एतौ द्वौ वा एतौ शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! Jain Education International एवं तथैव नेतव्यं यावत् सर्वाद्ध्वा । एवम् उपरितनम् एकैकं संयोजयता यद् यद् अधस्तनम् तत् तत् छर्दयता नेतव्यं यावद् अतीत- अनागताध्वा, पश्चाद् सर्वाद्ध्वा यावद् अनानुपूर्वी एषा रोह ! भाष्य १. सूत्र २८८-३०७ मनुष्य ने जब चिन्तन करना प्रारंभ किया तब से ही उसके मन में मूल तत्त्व के प्रति जिज्ञासा बनी हुई है। इस सृष्टि का मूल तत्त्व क्या है ? यह खोज चिर काल से चली आ रही है। उपनिषद् के ऋषि और यूनान के दार्शनिक इस खोज में संलग्न रहे हैं और उन्होंने नाना प्रकार के मत प्रतिपादित किए हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् के अनुसार केवल वही तत्त्व इस वस्तु जगत् का चरम सत्य है, जिससे समस्त वस्तुओं की उत्पत्ति हुई हैं, जो समस्त वस्तुओं की सत्ता का आधार है और जिसमें अन्ततः समस्त वस्तुओं का लय होता है ।' तैत्तिरीय का ऋषि कहता है— पहले असत् था, उससे सत् उत्पन्न हुआ है। बृहदारण्यक में भी असत् से सत् की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद् में असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित है । छान्दोग्य का दूसरा ऋषि कहता है कि असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? पहले एक १. तैत्तिरीय उपनिषद्, भृगुवल्ली प्रकरण, ३1919 तं होवाच यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद् विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्मेति । २. वही, २७- असद् वा इदं अग्र आसीत्, ततो वै सद् अजायत । ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, १1२1१ नैवेह किंचनाग्र आसीत्, मृत्युनैवेदम् आवृतम् आसीत् । ४. छान्दोग्योपनिषद्, ३ । १६/१ – असद् एवेदम् अग्र आसीत्, ततः सद् आसीत् । ५. . वही, ६ । २ कुतस्तु खलु सौम्य एवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायेतेति । सत्त्वेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । श. १: उ. ६: सू.२८८-३०७ ३०५. भन्ते ! क्या पहले सातवां तनुवात और फिर सातवां घनवात बना? क्या पहले सातवां घनवात और फिर सातवां तनुवात बना ? रोह ! सातवां तनुवात और सातवां घनवात पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है— सातवें तनुबात और सातवें घनवात में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। ३०६. इस प्रकार तनुवात के साथ सर्वकाल तक के सब पदों की संयोजना ज्ञातव्य है । ३०७ इस प्रकार अगले प्रत्येक पद की संयोजना करते जाएं और जो-जो पहला पद है उसे छोड़ते चले जाएं यावत् अतीत और अनागत काल पश्चात् सर्वकाल यावत् रोह ! अनागत काल और सर्वकाल पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है । मात्र सत् था और इससे ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। ' सत्कारणवादी ऋषि भी एकमत नहीं है। बृहदारण्यक के अनुसार जगत् का मूल स्रोत जल है। For Private & Personal Use Only ग्रीक दार्शनिक थेलिज (Thales) भी जल को जगत् का मूल स्रोत मानता है। उनके अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में केवल जल का ही अस्तित्व था । उपनिषद् का रैक्क नामक ऋषि वायु में समस्त पदार्थों का निलय मानता है। ग्रीक दार्शनिक एनेक्जीमेनस (Anaximenes ) के अनुसार वायु समस्त वस्तुओं का आदि और अन्त है। ग्रीक दार्शनिक एनेक्जीमेण्डर (Anaximander) के अनुसार थिओस (Theos) नामक उपादान रूप भौतिक पदार्थ जो पूरे आकाश में व्याप्त था, सृष्टि का आदि और अन्त है। यह पृथ्वी, पानी आदि से भिन्न है।" उपनिषद् में अग्रि को मूल तत्त्व मानने का सिद्धांत स्पष्ट प्रतिपादित नहीं है।" हेराक्लाइटस (Heraclitus ) अग्नि को ६. बृहदारण्यकोपनिषद्, १२19 सोऽर्चन् अचरत्, तस्यार्चत आपोऽजायन्त । अर्चते वै मे कम् अभूद् इति; तद् एवार्कस्य अर्कत्वम्..... आपो वा अर्कः.... सा पृथिव्य् अभवत् ..... । ७. Greek Thinkers by Theoder Gomperz, vol. 1, p. 48. छान्दोग्योपनिषद्, ४ | ३ | १-४ ८. ६. Greek Thinkers, vol 1. pp. 51-52. १०. Ibid. p.56; The Principal Upanishads by Dr. S. Radhakrishnan, p. 404. ११. बृहदारण्यक उपनिषद्, एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. १४२-१४४ । www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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