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भगवई
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श.१: उ.६: सू.२८५-३०७ में समाविष्ट नियमों द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के भवसिद्धिक की व्याख्या दूसरे नयों से की गई हैविविध जातीय संयोग से स्वतः निष्पत्र हैं।
१. केवली का सुख सर्वोत्कृष्ट होता है, यह सुनकर जो उसमें श्रद्धा भवसिद्धिक-सिद्धि-और सिद्धवाद
करता है, वह भव्य और जो उसमें श्रद्धा नहीं करता, वह अभव्य ___ भवसिद्धिक, सिद्धि और सिद्ध ये तीनों युगल मूल तत्त्व नहीं हैं, फिर भी इनका अस्तित्व अनादिकालीन है।
२. जिसमें अनन्त-चतुष्टयी (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य) के
विकास की योग्यता होती है, वह भव्य और जिसमें अनन्त-चतुष्टयी भगवान् महावीर के अनुसार जिस प्रकार यह सृष्टि का चक्र
के विकास की योग्यता नहीं होती, वह अभव्य है। पौर्वापर्य-मुक्त चल रहा है, उसी प्रकार सिद्धि का क्रम भी इससे भिन्न
अवकाशान्तर—आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान नहीं है। सिद्धि और असिद्धि ये दोनों शाश्वत भाव हैं।
है। लोक में सात अवकाशान्तर माने गये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में महर्षि पतञ्जलि ने भी सिद्धि और असिद्धि दोनों पहलुओं अवकाशान्तर के स्थान पर 'आकाश' शब्द का प्रयोग मिलता है। पर विचार किया है, दोनों को स्वीकार किया है, पर उनकी व्याख्या अवकाशान्तर आकाश का एक पर्यायवाची नाम है। प्रत्येक पदार्थ अर्हदृष्टि से भिन्न है। उनके अनुसार अनादिकालीन सिद्धि का में अवकाश होता है। परमाणु भी अवकाशशून्य नहीं है। अधिकारी केवल ईश्वर है, क्योंकि वह मुक्त पुरुष की तरह पूर्वबद्ध ___अवकाशान्तर का यह सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान द्वारा समर्थित है।
और प्रकृतिलीन की तरह उत्तरबद्ध नहीं होता। वह सदैव बंधमुक्त परमाणु के दो भाग हैं-इलेक्ट्रोन और प्रोटोन। इन दोनों के बीच होता है। उसकी यह बंधनमुक्ति ही अनादिसिद्धि है।'
में एक अवकाश विद्यमान रहता है। दुनियां के समस्त पदार्थों में से सू. २६६ से जगत् की संरचना के घटक तत्त्वों का अनादित्व यदि अवकाश को निकाल लिया जाए, तो उसकी ठोसता आंवले बतलाया गया है। वे घटक तत्त्व छह हैं—अलोक, अवकाशान्तर, के आकार से बृहत् नहीं होती। तनुवात, घनवात, घनोदधि और पृथ्वी। अलोक पोले गोले के समान तनुवात, घनवात, घनोदधि-इनका शाब्दिक अर्थ क्रमशः इस है।' वह लोक के चारों और व्याप्त है। लोक उसमें समाया हुआ प्रकार हैहै। उपमा की भाषा में इसे (लोक को) आगासथिग्गल-आकाशरूपी तनुवात तरलीभूत वायु वस्त्र की एक कारी या थिगली कहा जा सकता है। अलोक की धनवात घनीभूत वायु सीमा से सटा हुआ है सातवां अवकाशान्तर । उसके ऊपर सातवां घनोदधि-जल की घनीभूत तरल अवस्था। तनुवात, फिर क्रमशः सातवां घनवात, सातवां घनोदधि और सातवीं
प्रत्येक पृथ्वी इन तीनों वलयों से परिक्षिप्त होती है।" तत्त्वार्थपृथ्वी। अवकाशान्तर, तनुवात, घनवात, घनोदधि और पृथ्वी ये सभी
वृत्ति में घनोदधि को भी वातवलय बतलाया गया है।" तत्त्वार्थसात-सात हैं।"
राजवार्तिक में घनोदधि का अर्थ सघन जल किया गया है।" वृत्तिकार के अनुसार इन सूत्रों के द्वारा शून्यवाद, विज्ञानवाद अभयदेवसूरि ने घनोदधि की व्याख्या 'हिमशिला की भांति सघन और ईश्वरवाद का निरसन होता है, अनादित्व का सिद्धान्त स्थापित जल-समूह' की है।"अकलंकदेव के अनुसार घनोदधि, घनवात और होता है।
तनुवात—ये तीन वलय हैं। रलप्रभा आदि पृथ्वियां घनोदधि-प्रतिष्ठित शब्द-विमर्श
हैं, घनोदधि घनवात-प्रतिष्ठित है, घनवात तनुबात-प्रतिष्ठित है, तनुवात भवसिद्धिक-जिसमें मोक्षगमन की योग्यता हो, वह भवसिद्धिक
आकाश-प्रतिष्ठित है और आकाश आत्मप्रतिष्ठित है। इन तीनों वलयों कहलाता है। भव्य इसका पर्यायवाची नाम है। दिगम्बर-साहित्य में
में प्रत्येक वलय की मोटाई बीस हजार योजन बतलाई गई है।"
१. पा.यो.द.१।२४। २. भ.११।६६ अलोए णं भंते ! किंसंठिए पण्णते ?
गोयमा ! झुसिरगोलसंठिए पण्णत्ते ।। ३. पण्ण.१५/५३---आगासथिग्गले णं भंते ! किणा फुडे ? कइहिं वा काएहिं
फुडे? ४. ठाणं,७।१४-२२। ५. भ.वृ.१।३०१-एतानि च सूत्राणि शून्यज्ञानादिवादनिरासेन विचित्रवाह्या
ध्यात्मिकवस्तुसत्ताऽभिधानार्थानि ईश्वरादिकृतत्वनिरासेन चानादित्वाभिधा- नार्थानीति। ६. वही,१।२६२--भविष्यतीति भवा, भवा सिद्धिः--निवृत्तिर्येषां ते भव-
सिद्धिकाः, भव्या इत्यर्थः। ७. प्र.सा.गा.६२
णो सद्दहति सोखं, सुहेसु परमंति विगदघादीणं ।
सुणिदूण ते अभव्वा, भव्या वा तं पडिच्छति ।। ८. नियमसारतात्पर्यवृत्ति,गा.१५६-भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहज___ ज्ञानादिगुणैः भवनयोग्याः भव्याः, एतेषां विपरीताः ह्यभव्याः । ६. त.सू.३।१–घनाम्बु-वाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः । १०. भ.२०।१६। ११. ठाणं,३१२५॥ १२. त.वृ.३।१। १३. त.रा.वा.३।१,पृ.१६० । १४. स्था.वृ.प.१६६---तत्र धनः-स्त्यानो हिमशिलावद् उदधिः- जलनिचयः,
स च इति धनोदधिः। १५. त.रा.वा.३ । १,पृ.१६० सर्वा एता भूमयः घनोदधिवलयप्रतिष्ठाः, घनोदधिवलयं धनवातवलयप्रतिष्ठितम्, घनवातवलयं तनुवातवलयप्रतिष्ठितम्, तनुवातवलयमाकाशप्रतिष्ठितम्, आकाशमात्मप्रतिष्ठितं, तस्यैवाधाराधेयत्वात्
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