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भगवई
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श.१: उ.७: सू.३१८-३३४
सवेणं सम्पूर्ण जीव सम्व-सम्पूर्ण मनुष्य आदि अवयवी। उद्धर्तमान, उद्धृत के सन्दर्भ मेंदेसेणं जीव का एक भाग। देसं-शरीर का एक भाग। सब्वेणं सम्पूर्ण जीव। सवं सम्पूर्ण शरीर। आहार के सन्दर्भ मेंदेसेणं-जीव का एक भाग। देसं आहार्य द्रव्य का एक अंश सव्वेणं सम्पूर्ण जीव। सर्व-सम्पूर्ण आहार्य द्रव्य।
अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत आलापक की व्याख्या में चूर्णि और प्राचीन टीका दोनों के अभिमत का उल्लेख किया है। चूर्णिकार ने देसेणं और सव्वेणं को आत्मप्रदेशों से संबद्ध माना है। देसं और सबं का संबंध उपपद्यमान अवयवी से जोड़ा है। चूर्णिकार के तर्क हैं
१. परिणामी कारण के अवयव से कार्य का अवयव निष्पन्न नहीं होता; इसलिए उत्पत्ति के प्रसंग में देसेणं देसं उववजई—यह विकल्प मान्य नहीं हैं।
२. अपूर्ण परिणामी कारण से पूर्ण कार्य निष्पन्न नहीं होता;
इसलिए देसेणं सव्वं उववजई—यह दूसरा विकल्प भी मान्य नहीं है।
____३. पूर्ण परिणामी कारण से अपूर्ण कार्य निष्पन्न नहीं होता; इसलिए सवेणं देसं उनवजई-यह तीसरा विकल्प भी मान्य नहीं है।
४. पूर्ण परिणामी कारण से पूर्ण कार्यावयवी उत्पन्न होता है। यह भंग सम्मत है।'
टीकाकार ने देसेणं और सवेणं को आत्मप्रदेश से संबद्ध माना है। देसं और सव्यं का संबंध उत्पत्तव्य स्थान के साथ जोड़ा है। टीकाकार ने उत्तरवर्ती दो भंग मान्य किये हैं। इलिका गति में उत्पत्तव्य स्थान के देश में उत्पत्ति हो सकती है, इस अपेक्षा से सवेणं देसं यह भंग सम्मत है। कन्दुकगति की अवस्था में सबेणं सवं उववजई यह भंग सम्मत है।
यह टीकाकार की व्याख्या किसी दूसरी वाचना पर आधारित
आहार के सन्दर्भ में सबेणं देसं और सवेणं सवं-ये दो विकल्प सम्मत हैं। उत्पत्ति के पहले समय में जीव सब आत्म-प्रदेशों से सर्व आहार का ग्रहण करता है; इसलिए सवेणं सव्वं भंग घटित होता है। प्रथम समय के पश्चात् वह आहार्य द्रव्य के देश का ग्रहण करता है; इसलिए सव्वेणं देसं भंग घटित होता है।' उद्वर्तमान अवस्था मृत्यु के पूर्व अन्तर्मुहूर्त की अवस्था है। उसमें सवेणं देसं भंग घटित होता है। मृत्यु के अंतिम समय में सव्वेणं सब भंग घटित हो सकता है। उद्धृत अवस्था में उपपद्यमान अवस्था की भांति ये दोनों भंग घटित किए जा सकते हैं।
३३४. नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे,
नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेषु उपपद्यमानः
३३४. भन्ते ! नैरयिकों में उपपद्यमान नैरयिक
१. भ.वृ.१।३१५-तत्र जीवः किं 'देशेन' स्वकीयावयवेन 'देशेन' नारकावयविनोंऽशतयोत्पद्यते अथवा 'देशेन' देशमाश्रित्योत्पादयित्वेति शेषः, एवमन्यत्रापि । तथा 'देसेणं सव्वं ति देशेन च सर्वेण च यत् प्रवृत्तं तद्देशेन सर्व, तत्र देशेन स्वावयवेन सर्वतः—सर्वात्मना नारकावयवितयोत्पद्यत इत्यर्थः । आहोस्वित् सर्वेण सर्वात्मना देशतो नारकांशतयोत्पद्यते, अथवा 'सर्वेण' सर्वात्मना सर्वतो नारकतयेति प्रश्नः।
___ अत्रोत्तरम्-न देशेन देशतयोत्पद्यते, यतो न परिणामिकारणावयवेन कार्यावयवो निवर्त्यते, तन्तुना पटाप्रतिबद्धपटप्रदेशवत् । यया हि पटदेशभूतेन तन्तुना पटाप्रतिबद्धः पटदेशो न निर्वय॑ते तथा पूर्वावयविप्रतिबद्धेन तद्देशे- नोत्तरावयविदेशो न नियंत इति भावः । ___तथा न देशेन सर्वतयोत्पद्यते, अपरिपूर्णकारणत्वात्, तन्तुना पट इवेति तथा न सर्वेणदेशतयोत्पद्यते, सम्पूर्णपरिणामिकारणत्वात्, समस्तघटकारणैर्घटक- देशवत् । 'सब्बेणं सव्वं उववजई' सर्वेण तु सर्व उत्पद्यते । पूर्णकारणसमवायाद, घटवदिति चूर्णिव्याख्या। २. भ.वृ.१३१ टीकाकारस्त्वेवमाह किमवस्थित एव जीवो देशमपनीय
यत्रोत्पत्तव्यं तत्र देशत उत्पद्यते ? अथवा देशेन सर्वत उत्पद्यते ? अथवा सर्वात्मना यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते ? अथवा सर्वात्मना सर्वत्र ? इति एतेषु पाश्चात्यमङ्गौ ग्राह्यौ। यतः सर्वेण सर्वात्मप्रदेशव्यापारेण इलिकागती यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते, तद्देशेनोत्पत्तिस्थानदेशस्यैव व्याप्तत्वात् । कन्दुकगतौ वा सर्वेण सर्वत्रौत्पद्यते विमुच्यैव पूर्वस्थानमिति। एतच्च टीका
कारव्याख्यानं वाचनान्तरविषयमिति । ३. (क) वही.१।३२०–'सब्वेण वा सव्वं'ति सर्वात्मप्रदेशैरुत्पत्तिसमये आहार
पुद्गलानादत्ते एव प्रथमतः तैलमृततप्ततापिकाप्रथमसमयपतितापूपवदित्युच्यते सर्वमाहारयतीति ।
(ख) म.जो.१।२०।१२,१४-१६/ ४.(क) म.वृ.१।३२० --उत्पत्त्यनन्तरसमयेषु सर्वात्मप्रदेशैराहारपुद्गलान् कांश्चि
दादत्ते कांश्चिद्विमुञ्चति, तप्ततापिकागततैलग्राहकविमोचकापूपवद्, अत उच्यते-देशमाहारयतीति। (ख) म.जो.१।२०।१३,१७,१८॥
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