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________________ १५६ भगवई श.१: उ.७: सू.३५३,३५६ लोगेसु उववजेजा ? गोयमा! अत्येगइए उववजेजा, अत्थेगइए नो उववजेजा। उपपद्येत ? गौतम ! अस्त्येककः उपपधेत, अस्त्येककः । नो उपपद्येत । होता है। गौतम ! कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता । ३५६. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ- ___तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- ३५६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है अत्यंगइए उववजेजा, अत्थेगइए नो उव- अस्त्येककः उपपद्येत, अस्त्येककः नो -कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता? वजेजा? उपपद्येत। गौतम ! सब पर्याप्तियों से पर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय गोयमा ! से णं सण्णी पंचिदिए सब्बाहि गौतम ! स संज्ञी पंचेन्द्रियः सर्वाभिः पर्याप्ति- गर्भगत शिशु तथारूप श्रमण-माहन के पास एक पजत्तीहिं पजत्तए तहारूवस्स समणस्स या भिः पर्याप्तकः तथारूपस्य श्रमणस्य वा भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, अवधारण माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्य धार्मिकं करता है। उससे उसके मन में संवेग-जनित श्रद्धा धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म तओ भवइ सुवचनं श्रुत्वा निशम्य ततो भवति संवेगजात- उत्पन्न होती है। वह तीव्र धर्म-अनुराग से अनुरक्त संवेगजायसहे तिव्वधम्माणुरागरते। श्रद्धस्तीव्रधर्मानुरागरक्तः। हो जाता है। से णं जीवे धम्मकामए पुण्णकामए सग्ग- स जीवः धर्मकामकः पुण्यकामकः स्वर्ग- वह जीव (गर्भगत शिशु) धर्मकामी, पुण्यकामी, कामए मोक्खकामए, धम्मकंखिए पुण्ण- कामकः मोक्षकामकः, धर्मकाङ्क्षितः, पुण्य- स्वर्गकामी और मोक्षकामी, धर्मकांक्षी, पुण्यकांक्षी, कंखिए सग्गकंखिए मोक्खकंखिए, काक्षितः स्वर्गकाङ्क्षितः मोक्षकाक्षितः, स्वर्गकांक्षी और मोक्षकांक्षी तथा धर्मपिपासु, धम्मपिवासिए पुण्णपिवासिए सग्गपिवासिए धर्मपिपासितः पुण्यपिपासितः स्वर्गपिपा- पुण्यपिपासु स्वर्गपिपासु और मोक्षपिपासु होकर मोक्खपिवासिए, तचित्ते तम्मणे तल्लेसे सितः मोक्षपिपासितः, तच्चित्तः तन्मनाः उस धर्म, पुण्य आदि में ही अपने चित्त, मन, तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदबोवउत्ते तल्लेश्यः तदध्यवसितः तत्तीव्राध्यवसानः लेश्या, अध्यवसाय तीव्र अध्यवसान का नियोजन तदप्पियकरणे तन्मावणाभाविए, एयंसि णं तदर्थोपयुक्तः तदर्पितकरणः तद्भावना- ___करता है। वह उसी विषय में उपयुक्त हो जाता अंतरंसि कालं करेज देवलोगेसु उववजइ। भावितः, एतस्मिन् अन्तरे कालं कुर्याद् देव- है। उसके लिए अपने सारे करणों (इन्द्रियों) का से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-अत्ये- लोकेषु उपपद्येत । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- समर्पण कर देता है। वह उसकी भावना से भावित गइए उववजेज्जा, अत्थेगइए नो उवव- मुच्यते-अस्त्येककः उपपद्येत, अस्त्येककः हो जाता है। उस अंतर (धर्माराधन-काल) में जेजा। नो उपपघेत। यदि वह मरणकाल को प्राप्त होता है, तो देवलोकों में उपपन्न होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता। भाष्य निर्माण कर युद्ध करना सभी ज्ञात घटनाओं से विलक्षण घटना है। इसी प्रकार धार्मिक प्रवचन सुनकर धर्मानुराग से अनुरक्त १. सूत्र ३५३-३५६ प्रस्तुत आलापक गर्भविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। गर्भस्थ शिशु के विकास, क्षमता और व्यवहार पर आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में अनेक अनुसंधान हो रहे हैं। अनेक आश्चर्यजनक रहस्य भी उद्घाटित हुए हैं। नोर्थ केरोलिना यूनिवर्सिटी के श्री एंथानी डिकेस्पर तथा उनके सहयोगी श्री विलियम फिफर ने अनेक प्रयोग किए हैं। अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि गर्भस्थ शिशु जिन गीतों को सुनता है, जिन आवाजों को सुनता है, जन्म के पश्चात् वह उनको पहचान जाता है। जर्मन वैज्ञानिक प्रो. अनेर्स्ट पोपेल के अनुसार गर्भस्थ शिशु सपने भी देख सकता है। २८ सप्ताह का अजन्मा शिशु संगीत की थाप पर नाचता है। चरकसंहिता में भी गर्भस्थ शिशु के विकास और व्यवहार की चर्चा मिलती है।' प्रस्तुत प्रकरण में जिस वैक्रिय लब्धि का उल्लेख है, वह आश्चर्यकारी रहस्य है। एक गर्भस्थ शिशु के द्वारा वैक्रिय लब्धि के द्वारा सेना का शब्द-विमर्श पर्याप्ति और पर्याप्त-पर्याप्तियां छह हैं-१. आहारपर्याप्ति २.शरीरपर्याप्ति ३. इन्द्रियपर्याप्ति ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति ५. भाषापर्याप्ति ६. मनःपर्याप्ति। नए जन्म में प्रवेश करने वाला प्राणी जन्म के प्रारम्भ में प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूत की अवधि में इन छहों पौद्गलिक शक्तियों का निर्माण करता है। इनका निर्माण पूर्ण होने पर वह पर्याप्त कहलाता है। वीर्यलयिक-शक्तिसम्पन्न । सूत्रकृतांग नियुक्ति में इसका विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। १. चरकसंहिता, शारीरस्थान,४१५-तस्य यत्कालमेवेन्द्रियाणि संतिष्ठन्ते, तत्कालमेव चेतसि वेदना निर्बन्धं प्राप्नोति, तस्मात्तदा प्रभृति गर्भः स्पन्दते, प्रार्थयते च जन्मान्तरानुभूतं यत् किंचित् तद् द्वैहृदयमाचक्षते वृद्धाः । २. द्रष्टव्य, सूयगडो, प्रथम श्रुतस्कंध के आठवें अध्ययन का आमुख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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