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________________ भगवई १५७ श.१: उ.७: सू.३५३-३५७ वैक्रियलब्धिक नाना प्रकार के रूपनिर्माण में समर्थ योगजनित परिणाम । 'तत्तीव्राध्यवसान' अर्थात् प्रकृत विषय में तीव्र अध्यवसाय शक्ति से सम्पन्न। वाला। वैक्रियसमुद्रात नाना प्रकार के रूपनिर्माण के लिए होने वाला तदर्थोपयुक्त प्रकृत विषय के लिए व्यापृत चेतना वाला। आत्मप्रदेशों का प्रक्षेपण। तदर्पितकरण प्रकृत विषय के लिए समर्पित इन्द्रिय वाला। तचित्त-चित्त का अर्थ है-स्थूल शरीर के साथ व्याप्त तद्भावनामावित-प्रकृत विषय की भावना से भावित। चेतना अथवा बुद्धि । 'तच्चित्त' अर्थात् प्रकृत विषय में संलग्न चित्त संवेग-भववैराग्य अथवा जन्ममरण-जनित भय । वाला । तथारूप विशिष्ट संज्ञा के अनुरूप आचरण वाला। तन्मना-मन का अर्थ है-सब विषयों का ग्रहण करने वाला श्रमण-माहण–श्रमण और माहण की प्रामाणिक परिभाषा तथा स्मृति, कल्पना और चिंतन में सक्षम और चित्त द्वारा संचालित सूयगडो में उपलब्ध है। वहां माहण को सब पाप कर्म से विरत एक योग। 'तन्मना' अर्थात् प्रकृत विषय में संलग्न मन वाला | बतलाया गया है, इसलिए इसका अर्थ श्रावक या व्रती गृहस्थ नहीं तल्लेश्य लेश्या का अर्थ है-भावधारा । 'तल्लेश्य' अर्थात् किया जा सकता। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'श्रावक' अथवा 'ब्राह्मण' प्रकृत विषय में संलग्न लेश्या वाला। किया है। वह उक्त संदर्भ में समीचीन प्रतीत नहीं होता। जयाचार्य तदध्यवसित-अध्यवसाय का अर्थ है-कर्मशरीर के साथ ने इस विषय पर विशेष विमर्श प्रस्तुत किया है। सूयगडो में १४ व्याप्त चेतना। अथवा चेतना का सूक्ष्म परिणाम । 'तदध्यवसित' पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं, उनमें भी 'समण' और 'माहण' अर्थात् प्रकृत विषय में संलग्न अध्यवसाय से युक्त। संगृहीत हैं।' तत्तीव्राध्यवसान-अध्यवसान का अर्थ है-चेतना का सूक्ष्म ३५७. जीवे णं भंते ! गभगए समाणे जीवः भदन्त ! गर्भगतः सन् उत्तानकः वा, ३५७. 'भन्ते ! क्या गर्भगत जीव उत्तानशयन, उत्ताणए वा पासल्लए वा अंबखुजए वा पार्श्वकः वा, आम्रकुब्जकः वा आसीत वा? पार्श्वशयन अथवा आम्रकुब्जक (आम्र की भांति अच्छेन्ज वा ? चिट्ठेन्ज वा ? निसीएज वा? तिष्ठेद् वा ? निषीदेद् वा ? त्वग्वर्तेत वा ? कुब्ज) आसन की मुद्रा में रहता है ? खड़ा होता तुयट्टेज वा ? माउए सुयमाणीए सुबइ ? मातरि स्वपन्त्यां स्वपिति ? जाग्रत्यां जागर्ति? है ? बैठता है ? सोता है ? माता के सोने पर जागरमाणीए जागरइ? सुहियाए सुहिए सुखितायां सुखितो भवति? दुःखितायां सोता है ? उसके जागने पर वह जागता है ? भवइ? दुहियाए दुहिए भवइ ? दुःखितो भवति ? उसके सुखी होने पर वह सुखी होता है ? उसके दुःखी होने पर वह दुःखी होता है ? हंता गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे हन्त गौतम ! जीवः गर्भगतः सन् उत्तानकः ___ हां, गौतम ! गर्भगत जीव उत्तानशयन, पार्श्वउत्ताणए वा पासल्लए वा अंबुखुजए वा बा, पार्श्वकः वा आम्रकुब्जकः वा आसीत शयन अथवा आम्रकुब्जक आसन की मुद्रा में अच्छेज व, चिठेज वा, निसीएज वा, वा, तिष्ठेद वा, निषीदेद् वा, त्वगवर्तेत वा, रहता है, खड़ा होता है, बैठता है, सोता है, माता तुयदेज वा। माउए सुयमाणीए सुवइ, मातरि स्वपन्त्यां स्वपिति, जाग्रत्यां जागर्ति, के सोने पर सोता है, उसके जागने पर वह जागता जागरमाणीए जागरइ, सुहियाए सुहिए सुखितायां सुखितो भवति, दुःखितायां है, उसके सुखी होने पर वह सुखी होता है, उसके भवइ, दुहियाए दुहिए भवइ। दुःखितो भवति। दुखी होने पर वह दुःखी होता है। अहे णं पसवणकालसमयंसि सीसेण या । अथ प्रसवनकालसमये शीर्षेण वा पादेन वा वह जीव प्रसवकाल के समय (यदि) सिर या पैरों पाएहिं वा आगच्छति सममागच्छति, तिरि- आगच्छति सममागच्छति तिर्यग आगच्छति, के द्वारा बाहर आता है, सीधा आता है; (यदि) यमागच्छति विणिहायमावज्जति। वण्ण- विनिघातमापद्यते। वर्णबाह्यानि च तस्य वह टेढा होकर आता है, तो मृत्यु को प्राप्त होता वज्झाणि य कम्माइं बद्धाई पुट्ठाई निहत्ताई कर्माणि बद्धानि स्पृष्टानि निधत्तानि कृतानि है। उस नवजात शिशु के (यदि) वर्णबाह्य कडाई पट्टवियाई अभिनिविट्ठाई अभि- प्रस्थापितानि अभिनिविष्टानि अभिसमन्वा- (अप्रशस्त कोटिवाले) कर्म बद्ध, स्पृष्ट निधत्त, समण्णागयाइं उदिण्णाई-नो उवसंताई गतानि उदीर्णानि–नो उपशान्तानि भवन्ति, कृत, प्रस्थापित, अभिनिविष्ट (तीव्र अनुभाव के १. द्रष्टव्य, भ.३।१५४-१६१। दंते दविए बोसट्टकाए 'समणे ति बच्चे। २. सूय.91१६।३,४-इति विरतसव्वपावकम्मे पेज-दोस-कलह-अब्भक्खाण- ३. भ.वृ.१।३५६–'माहणस्स'त्ति मा हन इत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपेसुण्ण-परपरिवाद-अरति-रति-मायामोस-मिच्छादसणसल्लविरते समिए सहिए पातादि निवृत्तत्वाधः स माहनः अथवा ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावाद् सया जए, णो कुज्झे णो माणी 'माहणे'त्ति बच्चे। ब्राह्मणो देशविरतः। एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च ४. भ.जो.१।२२।२६११७। बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेजं च दोसं च इच्चेव जतो जतो ५. सूय.२१११७२ । आदाणाओ अप्पणो पद्दोस-हेऊ ततो-ततो आदाणाओ पुव्वं पडिविरतो सिया ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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