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________________ श. १: उ.७: सू.३५७, ३५८ भवंति, तओ भवइ दुरूवे दुवण्णे दुग्गंधे दुरसे फासे अणि अकंते अप्पिए असुमे अमणुणे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिस्सरे अकंतस्सरे अप्पियस्सरे असुभस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणाएजवणे पच्चायाए या वि भवइ । वण्णबज्झाणि य से कम्माई नो बद्धाई नो पुट्ठाई नो निहत्ताई नो कडाई नो पट्ठवियाई नो अभिनिविद्वाइं नो अभिसमण्णागयाई नो उदिण्णाई — उवसंता भवति, तओ भवइ सुरूवे सुवणे सुगंधे सुरसे सुफासे इट्टे कंते पिए सुभे मणुण्णे मणामे अहीणस्सरे अदीणस्सरे इट्ठस्सरे कंतस्सरे पियस्सरे सुभस्सरे मणुण्णस्सरे मणामस्सरे आदेजवणे पच्चाया या वि भवइ ॥ १. सूत्र - ३५७ शब्द-विमर्श १५८ ततः भवति दूरूपः दुर्वर्ण: दुर्गन्ध: दूरस: दुःस्पर्शः अनिष्टः अकान्तः अप्रियः अशुभः अमनोज्ञः 'अमणामे' हीनस्वर : दीनस्वरः अशुभस्वरः अमनोज्ञस्वरः 'अमणाम'स्वरः अनादेयवचनः प्रत्याजातश्चापि भवति । वर्णबाह्यानि च तस्य कर्माणि नो बद्धानि नो स्पृष्टानि नो निधत्तानि नो कृतानि नो प्रस्थापितानि नो अभिनिविष्टानि नो अभिसमन्यागतानि नो उदीर्णानि -उपशान्तानि भवन्ति, तस्मात् भवति सुरूपः सुवर्णः सुगन्धः सुरसः सुस्पर्शः इष्टः कान्तः प्रियः शुभः मनोज्ञः 'मणामे' अहीनस्वरः अदीनस्वरः इष्टस्वरः कान्तस्वरः प्रियस्वरः मनोज्ञस्वरः 'मणाम'स्वरः आदेयवचनः प्रत्याजातश्चापि भवति । भाष्य वष्णवज्झ वृतिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-वर्णवध्य और वर्णबाह्य ।' नामकर्म की प्रकृतियों में वर्ण नामकर्म का उल्लेख नहीं है। यहां वर्ण का अर्थ शुक्ल आदि वर्ण से संबद्ध नहीं है, किन्तु इसका अर्थ प्रशस्त होना चाहिए। इस आधार पर वर्णबाह्य का अर्थ 'अप्रशस्त कोटिवाला' किया जा सकता है। बद्ध-कर्म- योग्य पुद्गल जो कर्म रूप में परिणत कर दिये जाते हैं। स्पृष्ट-जिन कर्म- पुद्गलों का आत्मा के साथ संश्लेष हो चुका है। यह प्रज्ञापना के वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि का अभिमत है। ' धवला के अनुसार कर्मों का कर्मों के साथ जो स्पर्श होता है कर्म- स्पर्श है। यहां 'स्पृष्ट' शब्द के द्वारा कर्म स्पर्श विविक्षित है। निघत्त- उद्वर्तना और अपवर्तना इन दो करणों को छोडकर शेष करण न हो सके, उस रूप में परिणत कर देना । ३५८. सेव भंते! सेवं भंते! त्ति ।। Jain Education International १. भ. वृ. १ । ३५७ - 'वण्णवज्झाणि 'त्ति वर्णः श्लाघा वध्यो— हन्तव्यो येषां तानि वर्णवध्यानि अथवा वर्णाद्वाह्यानि वर्णवाह्यानि अशुभानीत्यर्थः । २. आप्टे. वर्ण:- A good quality. ३. प्रज्ञा.वृ.प. ४५६ । ४. . खं. धवला, पु. १३, खं. ५, भा. ३, सू. ३०, पृ. ३४ – कम्माणं कम्मेहिं जो फासो सो कम्पफासो । ५. पण्ण. २३ ।१३। ६. भ. १६ । ४१, ४२ । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । कृत--जीव के द्वारा कृत । पण्णवण्णा में जीवेणं कडस्स' पाठ उपलब्ध है। प्रस्तुत आगम में कर्म को 'चेतकृत' बतलाया गया है।' प्रस्थापित — एक साथ उदय होगा, इस रूप में व्यवस्था, जैसे - मनुष्य गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, सकाय आदि । अभिनिविष्ट तीव्र अनुभाव के रूप में निविष्ट । अभिसमन्यागत–—–— उदयाभिमुख । भगवई रूप में स्थापित ) अभिसमन्वागत ( उदय के अभिमुख) और उदीर्ण हैं - वे उपशांत नहीं होते, तो वह कुत्सित रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला होता है। वह हीन, दीन, अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, और अमनोहर स्वरवाला तथा अनादेय वचन वाला होता है। उस नवजात शिशु के ( यदि ) वर्णबाह्य (अप्रशस्त कोटिवाले) कर्म बद्ध स्पृष्ट, निधत्त, कृत, प्रस्थापित, अभिनिविष्ट अभिसमन्वागत और उदीर्ण नहीं होते --उपशांत होते हैं, तो वह श्रेष्ठ रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला होता है, इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ और मनोहर होता है; अहीन, अदीन, इष्ट, कांत, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ और मनोहर स्वरवाला तथा आदेय वचन वाला होता है। उदीर्ण- उदय प्राप्त । 'बद्ध' और 'स्पृष्ट' – इन दो पदों की व्याख्या मलयगिरि की वृति के आधार पर की गई है। शेष पदों की व्याख्या प्रस्तुत आगम की वृत्ति के आधार पर की गई है। वृत्तिकार ने 'कृत' का अर्थ 'निकाचित' किया है। यह विमर्शनीय है। इसी प्रकार 'उदीर्ण' के अर्थ में उदीरणा करण को भी जोड़ा है। किन्तु पण्णवण्णा के For Private & Personal Use Only ३५८. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है । जीवेन बद्धस्य रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिआत्मप्रदेशैः सह संश्लेषमुपगतस्य । ७. प्रज्ञा.वृ. प. ४५६ मितस्य स्पृष्टस्य, ८. भ. वृ. १ ३५७ निहत्ताई' ति उद्वर्तनापचर्तनकरणवर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, अथवा बद्धानि कथं ? यतः पूर्वं स्पृष्टानीति, 'कडाई 'ति निकाचितानि सर्वकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । 'पट्ठवियाई 'ति मनुष्यगतिपंचेन्द्रियजातित्रसादिनामकर्मसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । 'अभिनिविट्ठाई 'ति तीव्रानुभावतया निविष्टानि । 'अभिसमन्नागयाई 'ति उदयाभिमुखीभूतानीति, ततश्च 'उदिन्नाई'ति 'उदीर्णानि स्वतः उदीरणाकरणेन वोदितानि । www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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