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भगवई
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भूमिका
का स्पष्ट निर्देश है। चार कारण ये हैं
१. गति का अभाव। २. निरुपग्रहता-गतितत्त्व के आलंबन का अभाव । ३. रूक्षता। ४. लोकानुभाव-लोक की सहज सामर्थ्य ।
तीसरे स्थान में परमाणु के गति-स्खलन के कारण बतलाए गए हैं। वहां गतितत्त्व का उल्लेख नहीं है। सब स्थानों पर एक ही प्रकार के कारण निर्दिष्ट नहीं हैं। भिन्न-भिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न कारण निर्दिष्ट हैं।
अन्ययूथिक पंचास्तिकाय के विषय में संदिग्ध थे। उनका तर्क था जिसे हम नहीं जानते-देखते, उसका अस्तित्व कैसे हो सकता है ? भगवान महावीर के श्रमणोपासक मदुक ने उनसे कहा-इन्द्रियज्ञानी जिसे नहीं जानता, नहीं देखता उसका अस्तित्व नहीं होता, ऐसा नहीं है। इससे पंचास्तिकाय की स्थापना के काल का निर्णय नहीं होता।
सूयगडो में क्रियावाद के पन्द्रह अंग बतलाए गए हैं-१. आत्मा २. लोक ३. आगति ४. गति ५. शाश्वत ६. अशाश्वत ७. जाति ८. मरण ६. च्यवन १०. उपपात ११. अधोगमन १२. आश्रव १३. संवर १४. दुःख १५. निर्जरा।
प्रस्तुत आगम का बड़ा भाग क्रियावाद के निरूपण से व्याप्त है। क्रियावाद की व्यवस्था तत्त्वदर्शन के आधार पर हुई है, इसलिए उसमें अस्तिकायवाद और नवतत्त्ववाद दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक के रूप में व्याख्यात हुए हैं।
भगवान् महावीर ने पांच अस्तिकायों का प्रतिपादन किया। वे पंचास्तिकाय कहलाते हैं। उनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों अमूर्त होने के कारण अदृश्य हैं। जीवास्तिकाय अमूर्त होने के कारण दृश्य नहीं है, फिर भी शरीर के माध्यम से प्रकट होने वाली चैतन्य-क्रिया के द्वारा वह दृश्य है। पुद्गलास्तिकाय (परमाणु और स्कन्ध) मूर्त होने के कारण दृश्य है। हमारे जगत् की विविधता जीव और पुद्गल के संयोग से निष्पन्न होती है। डा. वाल्टर शुब्रिग ने लिखा है—जीव-अजीव और पंचास्तिकाय का सिद्धान्त महावीर की देन है। यह उत्तरकालीन विकास नहीं है।' प्रस्तुत आगम में जीव और पुद्गल का इतना विशद निरूपण है जितना प्राचीन धर्मग्रन्थों या दर्शनग्रन्थों में सुलभ नहीं है।
प्रस्तुत आगम का पूर्ण आकार आज उपलब्ध नहीं है, किन्तु जितना उपलब्ध है, उसमें हजारों प्रश्नोत्तर चर्चित हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से आजीवक संघ के आचार्य मंखलिगोशाल, जमालि, शिवराजर्षि, स्कन्दक संन्यासी आदि प्रकरण बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। तत्त्वचर्चा की दृष्टि से जयन्ती, मदुक श्रमणोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, भगवान् पार्श्व के शिष्य कालासवेसियपुत्त, तुंगिया नगरी के श्रावक आदि प्रकरण पठनीय हैं। गणित की दृष्टि से पापित्यीय गांगेय अनगार के प्रश्नोत्तर बहुत मूल्यवान् हैं।
१. ठाणं,४।४६५-चउहि ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचाएंति बहिया
लोगंता गमणयाए, तं जहा—गतिअभावणं, णिरुवाणहयाए, लुक्खताए, लोगाणु- भावेणं।
पाते। २. ठाणं,३।४८६-तिविहे पोग्गलपडिघाते पण्णत्ते, तं जहा-परमाणुपोग्गले
परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहणिज्जा, लुक्खत्ताए वा पडिहणिज्जा, लोगते वा पडिहणिज्जा। ३. १८।१३४-१४२। ४. सूय.१ । १२/२०,२१
अत्ताण जो जाणइ जो य लोग जो आगतिं जाणइऽणागतिं च । जो सासयं जाण असासयं च जातिं मरणं च चयणोववातं ।। अहो वि सत्ताण विउट्टणे च जो आसवं जाणति संवरं च ।
दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च सो भासिउमरिहति किरियवाद ।। ५. The Doctrines of the Jainas,p.126-The five fundamental facts constitute the world, or, rather, the world and the non-world (Viy. 608 a). Their qualities are laid down in Viy. 147 b. They all share in eternity. The space embraces both the world and the non-world, whereas the remaining four are concerned with the expansion of the world. For the dimensions of parts of the world proportional to motion, stop and space sce
Viy. 151a ff. and, nearly consonant, 775 a. All atthikāya except the jiva are inanimate (ajiva), and with the single exception of matter, all are immaterial (aruva). The last two sentences explicitly represent
Mv.'spersonal conception (Viy.324b).(F.n.-Some of the audience had difficulties in understanding this as we are told in two reports (Viy. 323b,750b). Dissenters led by Kalodāi ask Goyama and the layman Madduya respectively for an interpretation. While Goyama is at a loss for an answer, Madduya declares himself incompetent in the matter, but when pressed he shows by pointing out to the wind, sweet scent particles, fire made by rubbing two sticks, persons living beyond the seas, and gods, all being existent without being visible, that something, even though nothing can be said about it except by a Kevalin, yet may exist. Mahavira commends him for not having taught things he does not understand and for thus having evaded giving offence (asayana) to the sacred law, the Arhats and the Kevalins.)
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