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भगवई
१६१ भाष्य
१. सूत्र ४४२,४४३
प्रस्तुत आलापक में चार बाद पूर्वपक्ष के रूप में उल्लिखित हैं-- १. उत्पत्ति-निष्पत्तिवाद २. त्र्यणुकवाद ३. स्फोटवाद ४. अक्रिया
वादः
१. उत्पत्ति - निष्पत्तिवाद — क्षणिकवाद में द्रव्य की त्रैकालिकता मान्य नहीं है, इसलिए उसके अनुसार चलमान और चलित- ये दो अवस्थाएं एक साथ नहीं हो सकती। चलमान से अतिरिक्त कोई चलित अवस्था संभव नहीं है। बौद्ध दर्शन सम्मत क्षणिकवाद अथवा तत्सदृश किसी क्षणभंगुरवाद का सूत्रकार ने पूर्वपक्ष के रूप में उल्लेख किया है।
२. त्र्यणुकवाद - त्र्यणुकवाद वैशेषिक दर्शन के द्रव्योत्पाद की प्रक्रिया का सिद्धान्त है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य का उत्पाद संयोग या संघात से होता है। दो परमाणुओं के संयोग से आरब्ध द्रव्य द्व्यणुक कहलाता है। चार या पांच द्व्यणुक द्रव्यों के संयोग से आरब्ध द्रव्य त्र्यणुक कहलाता है। त्र्यणुक को त्रसरेणु और त्रुटि भी कहा जाता है । द्व्यणुकों से द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती । परमाणु और द्व्यणुक दोनों ही अणुत्व-परिमाण वाले होते हैं । सूत्रकार पूर्व पक्ष को उद्धृत करते हुए बतलाया है—दो परमाणु-पुद्गलों में स्नेहकाय नहीं होता, इसलिए दो परमाणु- पुद्गलों की एक संहति नहीं होती । संभवतः यह अभिमत प्राचीन वैशेषिक मत का रहा हो । अथवा इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि दो परमाणु-पुद्गलों में अणुत्व-परिमाण की निवृत्ति नहीं होती, सूक्ष्म परिणति बनी रहती है। त्र्यणुक में स्थूल परिणति हो जाती है; इसलिए उससे द्रव्य उत्पन्न हो सकता है।
वैशेषिक दर्शन में सृष्टि रचना के सिद्धान्त का नाम 'आरम्भवाद' है। उसके अनुसार — दो परमाणुओं के संयोग से एक नया द्व्यणुक द्रव्य उत्पन्न होता है, जो कारणभूत दो परमाणुओं से भिन्न होने पर भी उनमें व्याप्त होकर रहता है। इसी प्रकार तीन द्व्यणुकों में से एक त्र्यणुक और चार त्र्यणुकों में से एक चतुरणुक — उत्पन्न होता है । इस क्रम से वैशेषिक दर्शन ने पर्वत, नदी, सूर्य आदि स्थूल सृष्टि की रचना की व्यवस्था की । '
१३. स्फोटवाद — बोलने से पूर्व भाषा भाषा है। बोलने के पश्चाद् भी भाषा है। बोलते समय भाषा अभाषा है। इस प्रवाद को 'स्फोटवाद' कहा जा सकता है। स्फोटवाद के अनुसार ध्वनि दो प्रकार की होती है -- प्राकृत और वैकृत। प्राकृत ध्वनि अभिव्यक्त नहीं होती, वैकृत ध्वनि अभिव्यक्त होती है। शब्द के ग्रहण का हेतु प्राकृत ध्वनि है, यही स्फोट है। शब्द के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत — इस स्थिति-भेद का हेतु वैकृत ध्वनि है।
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'स्फोट' शब्द एक पद में वर्तमान सभी वर्णों में होता है।
१. पं. सुखलाल संघवी, भारतीय तत्त्वविद्या, पृ. ५६ ।
२. वाक्यपदीय, पृ. १४२ - इह द्विविधो ध्वनिः प्राकृतो वैकृतश्च । तत्र प्राकृतो नाम येन विना स्फोटरूपमनभिव्यक्तं न परिच्छिद्यते । वैकृतस्तु येनाभिव्यक्तं स्फोटरूपं पुनः पुनरविच्छेदेन प्रचिततरं कालमुपलभ्यते । एवं हि संग्रहकारः पठति-
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फिर भी वह अन्तिम वर्ण में स्पष्ट होता है। एक पद के प्रत्येक वर्ण अर्थ- बोधक नहीं हो सकते। वक्ता द्वारा उच्चारण किये गये वर्ण शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। इसलिए उनका मिलन सम्भव नहीं होता । अतः उन वर्णों से उत्पन्न स्फोट नामक शब्द से ही अर्थ का ज्ञान होता है। प्राकृत शब्द नित्य है। इस अपेक्षा से वह बोलने के पहले भी होता है और बोलने के पश्चात् भी होता है। वैकृत शब्द केवल बोलने के समय ही होता है। अर्थ का बोध प्राकृत शब्द से होता है, वैकृत शब्द से नहीं होता - इस दृष्टिकोण से प्राकृत शब्द को 'भाषा' और वैकृत शब्द को 'अभाषा' माना जा सकता है।
श. १: उ.१० : सू.४४२, ४४३
४. अक्रियावाद - अक्रियावाद पकुध कात्यायन का सिद्धान्त है। बौद्ध पिटकों में छह तीर्थकरों का उल्लेख मिलता है। उनमें एक है— पकुध कात्यायन । उनके अनुसार सुख और दुःख अकृत, अनिर्मित, अकूटस्थ और स्तम्भवत् अचल हैं।"
विस्तृत विवरण के लिए सूयगडो १।१।१३-१६ तथा ठाणं ३ | ३३७ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं।
अकिचं दुक्खं अफुसं दुक्खं आदि पद ठाणं (३ | ३३७) में भी उपलब्ध हैं।
उक्त सिद्धान्त जैन- दर्शन सम्मत नहीं है। इनके विषय में जैन दर्शन का जो दृष्टिकोण है वह सूत्र में उल्लिखित है। उसके अनुसार उत्पत्ति और निष्पत्ति के क्षण को विभक्त नहीं किया जा सकता। इस विषय की विस्तृत मीमांसा के लिए १ ।११,१२ का भाष्य द्रष्टव्य है।
जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य की उत्पत्ति दो परमाणुओं के संयोग से आरब्ध हो जाती है। उसे 'द्विप्रदेशी स्कन्ध' कहा जाता है। तीन परमाणुओं के संयोग से भी द्रव्य (त्रिप्रदेशी स्कन्ध) की उत्पत्ति होती है। इसके भेद से भी द्रव्य की उत्पत्ति होती है। त्रिप्रदेशी स्कन्ध का भेद होने पर एक परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न हो सकता है। पाँच प्रदेशी स्कन्ध दुःख अथवा कर्म-रूप में परिणत नहीं होता और वह शाश्वत भी नहीं होता ।
भाषा वर्गणा के पुद्गल समूचे लोक में व्याप्त रहते हैं। बोलने वाला उन पुद्गल-वर्गणाओं को पहले ग्रहण करता है, फिर भाषा रूप में परिणत करता है। उसके पश्चात् उनका विसर्जन करता हैं। यह विसर्जन-काल ही वर्तमान काल है और विसर्जन-काल में ही भाषा का निर्देश किया जाता है। उसी से अर्थ का प्रत्यय या बोध होता है।
दुःख अकृत नहीं होता। वह शाश्वत नहीं है; इसलिए अकृत भी नहीं है।
अभयदेवसूरि ने भी इस विषय की पूरी चर्चा की है।
शब्दस्य ग्रहणे हेतुः प्राकृतो ध्वनिरिष्यते । स्थितिभेदे निमित्तत्वं वैकृतः प्रतिपद्यते ॥
३. दीघनिकाय, १/२, पृ. २१ ।
४. भ. वृ. १ । ४४२, ४४३ ।
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