SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई १८१ श.१: उ.६: सू.४२६-४३० संजमस्स अटे। आया णे अजो ! संवरे, आया णे अजो! संवरस्स अटे। आया णे अजो ! विवेगे, आया णे अजो! विवेगस्स अटे। आया णे अजो ! विउस्सग्गे, आया णे अजो ! विउस्सग्गस्स अटे॥ संयमस्य अर्थः। आत्मा नः आर्य ! संवरः, आत्मा नः आर्य! संवरस्य अर्थः। आत्मा नः आर्य! विवेकः, आत्मा नः आर्य! विवेकस्य अर्थः। आत्मा नः आर्य ! व्युत्सर्गः, आत्मा नः आर्य! व्युत्सर्गस्य अर्थः। का अर्थ है। आर्य ! आत्मा हमारा संवर है, आर्य ! आत्मा हमारे संवर का अर्थ है। आर्य ! आत्मा हमारा विवेक है, आर्य ! आत्मा हमारे विवेक का अर्थ है। आर्य ! आत्मा हमारा व्युत्सर्ग है, आर्य ! आत्मा हमारे व्युत्सर्ग का अर्थ है। ४२७. तए णं कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे ततः स कालासवैश्यपुत्रः अनगारः स्थविरान् ४२७. तब वैश्यपुत्र कालास अनगार ने भगवान् भगवंते एवं वदासी-जइ मे अजो ! आया भगवतः एवमवादीत् यदि युष्माकम्, स्थविरों से इस प्रकार कहा-आर्य ! यदि आत्मा सामाइए, आया सामाइयस्स अट्टे जाव आर्य! आत्मा सामायिकम्, आत्मा सामा- सामायिक है, आत्मा आपके सामायिक का अर्थ आया विउस्सग्गस्स अटे-अवहटु कोह- यिकस्य अर्थः यावद् आमा ब्युत्सर्गस्य है यावत् आर्य ! आत्मा आपका व्युत्सर्ग है, आत्मा -माण-माया-लोभे किमटुं अज्जो ! गरहह ? अर्थ:-अपहृत्य क्रोध-मान-माया-लोभान् आपके व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो क्रोध, मान, माया किमर्थम् आर्य ! गर्हध्ये ? और लोभ का परित्याग कर आर्य ! आप किसलिए गर्दा करते हैं ? कालासा! संजमट्टयाए। कालास ! संयमार्थम्। कालास ! हम संयम के लिए गर्दा करते हैं। ४२८. से भंते ! किं गरहा संजमे ? अगरहा अथ भदन्त ! किं गर्दा संयमः ? अगर्दा ४२८. भन्ते ! क्या गर्दा संयम है ? अगर्दा संयम संजमे ? संयमः? कालासा ! गरहा संजमे, णो अगरहा। कालास ! गर्दा संयमः, नो अगर्दा संयमः। कालास ! गर्दा संयम है, अगर्दा संयम नहीं है। संजमे । गरहा वि यणं सबं दोसं पविणेति, गर्दा अपि च सर्वं दोषं प्रविनयति, सर्वं बाल्यं गर्हा सर्व बाल-भाव का परिज्ञा के द्वारा प्रत्याख्यान सव्वं बालियं परिणाए। एवं खुणे आया परिज्ञाय । एवं खलु नः आत्मा संयमे उपहितो कर सब दोषों का अपनयन करती है। इस प्रकार संजमे उवहिते भवति । एवं खुणे आया भवति । एवं खलु नः आत्मा संयमे उपचितो हमारा आत्मा संयम में उपहित होता है, इस प्रकार संजमे उवचिए भवति । एवं खुणे आया भवति । एवं खलु नः आत्ला संयमे उपस्थितो हमारा आत्मा संयम में उपचित होता है, इस प्रकार संजमे उवद्विते भवति॥ भवति। हमारा आत्मा संयम में उपस्थित होता है। ४२६. एत्थ णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे अत्र स कालासवैश्यपुत्रः अनगारः संबुद्धः ४२६. इ। बिन्दु पर वह वैश्यपुत्र कालास अनगार संबुद्धे थेरे भगवंते वंदति नमसति, वंदित्ता स्थविरान् भगवतः वन्दते नमस्यति, वन्दित्वासंबुद्ध होकर भगवान् स्थविरों को वंदन-नमस्कार नमंसित्ता एवं वयासी-एएसि णं भंते ! नमस्थित्वा एवमवादीत्-एतेषां भदन्त ! करता है, वन्दन-नमस्कार कर उसने इस प्रकार पयाणं पुदि अण्णाणयाए असवणयाए पदानां पूर्वम् अज्ञानतया अश्रवणतया कहा-भन्ते ! पहले मैंने अज्ञान, अश्रवण, अबोहीए अणभिगमेणं अदिवाणं अस्सुयाणं अबोध्या अनभिगमेन अदृष्टानाम् अश्रुतानाम् अबोधि और अनभिगम के कारण अदृष्ट, अश्रुत, अमुयाणं अविण्णायाणं अब्बोकडाणं अबो- अस्मृतानाम् अविज्ञातानाम् अव्याकृतानाम् अस्मृत, अविज्ञात, अव्याकृत, अव्यवच्छिन्न, छिण्णाणं अणिज्जूढाणं अणुवधारियाणं अव्यवच्छिन्नानाम् अनियूंढानाम् अनुपधारि- अनियूढ और अनुपधारित इन पदों के इस अर्थ एयमद्वे नो सद्दहिए नो पत्तिइए नो रोइए। तानाम् अयमर्थः नो द्धितः नो प्रत्ययितः नो पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं रोचितः। की। इदाणिं भंते ! एतेसि पयाणं जाणयाए इदानीं भदन्त ! एतेषां पदानां ज्ञानतया भन्ते ! अब ज्ञान, श्रवण, बोधि और अभिगम सवणयाए बोहीए अभिगमेणं दिवाणं श्रवणतया बोध्या अभिगमेन दृष्टानां श्रुतानां के द्वारा दृष्ट, श्रुत, स्मृत, विज्ञात, व्याकृत, व्यवसुयाणं मुयाणं विण्णायाणं वोगडाणं स्मृतानां विज्ञातानां व्याकृतानां व्यवच्छिन्नानां च्छिन्न, नियूंढ और उपधारित-इन पदों के इस वोच्छिण्णाणं णिजूढाणं उवधारियाणं निर्मूढानाम् उपधारितानाम् अयमर्थः श्रद्दधामि अर्थ पर मैं श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं, एयमठं सद्दहामि पत्तियामि रोएमि। प्रत्येमि रोचयामि । एवमेतत् तत् यथैतद् यूयं रुचि करता हूं । यह वैसा ही है जैसा आप कह एवमेयं से जहेयं तुब्मे वदह ।। वदथ। ४३०. तए णं ते थेरा भगवंतो काला- सवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी-सद्दहाहि अजो ! पत्तियाहि अजो! रोएहि ततः ते स्थविराः भगवन्तः कालासवैश्यपुत्रम् ४३०. भगवान् स्थविरों ने वैश्यपुत्र कालास अनगार अनगारम् एवमवादिषुः-श्रद्धेहि आर्य ! से इस प्रकार कहा-हम जिस प्रकार यह कह प्रतीहि आर्य ! रोचय आर्य ! तद् यथैतद् रहे हैं उस पर आर्य ! श्रद्धा करो, आर्य ! प्रतीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy