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भगवई
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श.२: उ.१: सू.६३,६४
६३. तए णं से खंदए अणगारे गुण- तत सः स्कन्दकः अनगारः गुणरलसंवत्सरं ६३. वह स्कन्दक अनगार गुणरत्नसंवत्सर तपःकर्म स्यणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं अहाकपं तपःकर्म यथासूत्रं यथाकल्पं यावद् आराध्य की यथासूत्र, यथाकल्प यावत् आराधना कर जहां जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे यत्रैव श्रमणः भगवान महावीरः तत्रैव श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता है, आकर तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं ___ उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करता महावीरं वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता बन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा बहुभिः है, बन्दन-नमस्कार कर अनेक चतुर्थभक्त, षष्ठबहूहिं चउत्थ-छटुट्ठम-दसम-दुवालसेहिं, चतुर्थ-षष्ठ-अष्टम-दशम-द्वादशैः मासार्द्धमास- भक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, अर्धमास और मासमासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं
क्षपणैः विचित्रैः तपःकर्मभिः आत्मानं भाव- क्षपण-इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ यन् विहरति।
आत्मा को भावित करता हुआ विहरण कर रहा
६४. तए णं से खंदए अणगारे तेणं ओरालेणं ततः सः स्कन्दकः अनगारः तेन 'ओरालेणं' ६४. 'वह स्कन्दक अनगार उस प्रधान, विपुल, विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं विपुलेन प्रत्तेन प्रगृहीतेन कल्याणेन शिवेन अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलसिवेणं धनेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं धन्येन मांगल्येन सश्रीकेण उदग्रेण उदात्तेन मय, शोभायित, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, उत्तम, उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं उत्तमेन उदारेण महानुभागेन तपःकर्मणा उदार और महान् प्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठि- शुष्कः रूक्षः निर्मासः अस्थि-चावनद्धः मांसरहित, चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते चम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे किटिकिटिकाभूतः कृशः धमनिसन्ततः जात- समय किट-किट शब्द से युक्त, कृश और धमनियों घमणिसंतए जाए यावि होत्था । जीवंजीवेणं श्चापि आसीत् । जीवंजीवेन गच्छति, जीवं- का जाल-मात्र हो गया। वह प्राण-वल से चलता गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, मासं भासित्ता जीवेन तिष्ठति, भाषां भाषित्वापि ग्लायति, है और प्राण-बल से ठहरता है, वह वचन बोलने वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भाषां भाषमाणः ग्लायति, भाषां भाषिष्ये इति के पश्चाद् भी ग्लान होता है, वचन बोलता हुआ भासिस्सामीति गिलाइ। ग्लायति ।
भी ग्लान होता है और वचन बोलूंगा यह चिन्तन
करता हुआ भी ग्लान होता है। से जहानामए कट्ठसगडिया इ वा, अथ यथानाम काष्ठशकटिका इति बा, जैसे कोई इंधन से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी पत्तसगडिया इवा, पत्त-तिल-भंडगसगडिया पत्रशकटिका इति वा, पत्र-तिल-भाण्डक- हुई गाड़ी, पत्र-सहित तिलों और मिट्टी के बर्तनों इवा, एरंडकट्ठसगडिया इवा, इंगाल- शकटिका इति वा, एरण्डकाष्ठशकटिका इति से भरी हुई गाड़ी, एरण्ड की लकड़ियों से भरी सगडिया इ वा-उण्हे दिण्णा सुक्का वा, अंगारशकटिका इति वा-उष्णे दत्ता हुई गाड़ी तथा कोयलों से भरी हुई गाड़ी ताप समाणी ससदं गच्छइ, ससदं चिट्ठइ, शुष्का सती सशब्दं गच्छति, सशब्दं तिष्ठति, लगने से सूखी हुई, सशब्द चलती है और सशब्द एवामेव खंदए अणगारे ससदं गच्छइ, ससदं एवमेव स्कन्दकः अनगारः सशब्दं गच्छति, ठहरती है, इसी प्रकार स्कन्दक अनगार सशब्द चिदुइ, उवचिए तवणं अवचिए मंस- सशब्दं तिष्ठति, उपचितः तपसा अपचितः । (किट-किट की ध्वनि-सहित) चलता है और सोणिएणं, हुयासणे विव भासरासि- मांस-शोणितेन, हुताशनः इव भस्मराशि- सशब्द ठहरता है, वह तप से उपचित और पडिच्छण्णे तवेणं, तेएणं, तव-तेयसिरीए प्रतिछन्नः तपसा, तेजसा, तपस्तेजःश्रिया मांस-शोणित से अपचित हो गया । वह राख के अतीव-अतीव उवसोभेमाणे-उवसोभेमाणे अतीव-अतीव उपशोभमानः-उपशोभमानः । ढेर से ढकी हुई अग्नि की भांति तप, तेज तथा चिट्ठइ ॥ तिष्ठति ।
तपस्तेज की श्री से' अतीव-अतीव उपशोभित होता हुआ, उपशोभित होता हुआ रहता है ।
भाष्य
१. सूत्र ६४
प्रस्तुत सूत्र में तप के चौदह विशेषण निर्दिष्ट हैं
ओराल–ओराल का अर्थ है प्रधान | वह तप प्रधान होता है, जो आशंसामुक्त हो।
विपुल विस्तीर्ण। लम्बी अवधि तक होने वाला तप।
प्रतइसका मूल 'पयत्त' शब्द है। इसके संस्कृत रूप 'प्रत्त' और 'प्रदत्त' दोनों हो सकते हैं। इसका अर्थ है 'गुरु द्वारा अनुज्ञात'।
प्रगृहीत-संयमपूर्वक आराधित। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'बहुमानपूर्वक आश्रित' किया है।
कल्याण-आरोग्यकर। शिव-निरुपद्रव। धन्य-कृतार्थ। मांगल्य अनिष्ट का उपशमन करने वाला। सश्रीक-आभायुक्त। उदा-उत्तरोत्तर वर्धमान। उदात्त-उत्तमभाव युक्त।
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