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________________ सम्पादकीय भगवई विआहपण्णती का प्रथम भाग पाठक के सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। इसके सम्पूर्ण मूलपाठ का सम्पादन अंगसुत्ताणि भाग २ में हो चुका है। हमने जो सम्पादन-शैली स्वीकृत की है, उसमें पाठ-शोधन और अर्थ-बोध दोनों समवेत हैं। अर्थ-बोध के लिए शुद्ध पाठ अपेक्षित है और पाठ-शुद्धि के लिए अर्थ-बोध अनिवार्य है। प्रस्तुत संस्करण अर्थ-बोध कराने वाला है। इसमें मूल पाठ के अतिरिक्त संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और सूत्रों का हिन्दी भाष्य समवेत है। पाठ-सम्पादन का काम जटिल है। अर्थ-बोध का काम उससे कहीं अधिक जटिल है। कथा-भाग और वर्णन-भाग में तात्पर्य-बोध की जटिलता नहीं है। किन्तु तत्त्व और सिद्धान्त का खण्ड बहुत गम्भीर अर्थ वाला है। उसकी स्पष्टता के लिए हमारे सामने दो आधारभूत ग्रन्थ रहे हैं १. अभयदेव सूरिकृत वृत्ति-इसे अभयदेवसूरि ने स्वयं विवरण ही माना है और उसे पढ़ने पर वह विवरण-ग्रन्थ का बोध ही कराता है, व्याख्या-ग्रन्थ का बोध नहीं देता। २. भगवती-जोड-इसमें श्रीमज्जयाचार्य ने अभयदेवसूरि की वृत्ति का पूरा उपयोग किया है। 'धर्मसी का टबा' का भी अनेक स्थलों पर उपयोग किया है। इनके अतिरिक्त आगम और अपने तत्त्वज्ञान के आधार पर अनेक समीक्षात्मक वार्तिक लिखे हैं। हमने भाष्य के लिए आगम-सूत्रों, श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ-साहित्य, वैदिक और बौद्ध परम्परा के अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है। 'आयारो' का भाष्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। भगवती का भाष्य हिन्दी में लिखा गया है। ठाणं, सूयगडो आदि की सम्पादन-शैली यह रही-मूल पाठ संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा स्थान और अध्ययन की समाप्ति पर टिप्पण अथवा भाष्य। भगवती की सम्पादन-शैली में एक नया प्रयोग किया गया है। प्रत्येक सूत्र अथवा प्रत्येक आलापक (प्रकरण) के साथ भाष्य की समायोजना है। अन्त में छह परिशिष्ट हैं, जैसे १. नामानुक्रम २. भाष्यविषयानुक्रम ३. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४. आधारभूत ग्रन्थ सूची । ५. जिनदास महत्तरकृत चूर्णि-दो शतक । ६. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति-दो शतक । प्रत्येक शतक के पहले एक आमुख है। पाद-टिप्पण में सन्दर्भ-वाक्य उद्धृत हैं। उपलब्ध आगम-साहित्य में भगवती सूत्र सबसे बड़ा ग्रन्थ है। तत्त्वज्ञान का अक्षयकोष है। इसके अतिरिक्त इसमें प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने वाले दूर्लभ सूत्र विद्यमान हैं। इस पर अनेक विद्वानों ने काम किया है। किन्तु जितने श्रम-बिन्दु झलकने चाहिए, उतने नहीं झलक रहे हैं, यह हमारा विनम्र अभिमत है। गुरुदेव की भावना थी कि भगवती पर गहन अध्यवसाय के साथ कार्य होना चाहिए। हमने उस भावना को शिरोधार्य किया है और उसके अनुरूप फलश्रुति भी हुई है। इसका मूल्यांकन गहन अध्ययन करने वाले ही कर पाएगें। हमारा यह निश्चित मत है कि सभी परम्पराओं के ग्रन्थों के व्यापक अध्ययन और व्यापक दृष्टिकोण के बिना प्रस्तुत आगम के आशय को पकड़ना सरल नहीं है। उदाहरण के लिए एक शब्द को प्रस्तुत करना अभीष्ट है। प्रथम शतक के एक सूत्र (३४६) में ‘अवरा' पाठ है। पंडित बेचरदास जी ने उसका अर्थ दूसरी एक नाड़ी (तथा बीजी पण एक नाड़ी छै) किया है।' चरकसंहिता के अनुसार-गर्भस्थ शिशु को रसवाहिनियों से पोषण प्राप्त होता है। गर्भ की नाभि में नाड़ी लगी रहती है, नाड़ी में अपरा (Placenta) लगी रहती है और अपरा का संबंध माता के हृदय के साथ लगा रहता है। माता का हृदय उस अपरा को स्यन्दमान (जिसमें रस-रक्त आदि का वहन होता है) शिराओं द्वारा रस-रक्त से आप्लावित किए रहता है।' १. श्रीमद् भगवती सूत्र बेचरदास जी द्वारा अनुवादित, संपादित, प्रथम खण्ड, पृ. १८२ । २. चरक संहिता, शारीरस्थान, ६।२३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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