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प्रकाशकीय
मुझे यह लिखते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम-प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य सम्पन्न हुआ है, वह मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है।
हम बत्तीस आगमों का पाठान्तर, शब्दसूची तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सुसंपादित मूल पाठ प्रकाशित कर चुके हैं। उसके साथ-साथ आगम-ग्रन्थों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं प्राचीनतम व्याख्या-सामग्री के आधार पर सूक्ष्म ऊहापोह के साथ लिखित विस्तृत मौलिक टिप्पणों से मंडित संस्करण प्रकाशित करने की योजना भी चलती रही है।
इस शृंखला में पांच आगम ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं
१. दसवेआलियं २. उत्तरज्झयणाणि ३. सूयगडो ४. ठाणं ५. समवाओ
प्रस्तुत आगम भगवई विआहपण्णत्ती उसी शृंखला का छठा आगम है। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी एवं अप्रतिम विद्वान् संपादक-भाष्यकार आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जो श्रम किया है, वह ग्रन्थ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवई विआहपण्णत्ती के प्रथम दो शतकों का समावेश है।
संपादन-भाष्य-सहयोगी महाश्रमण मुनि श्री मुदित कुमारजी, मुनि श्री महेन्द्र कुमारजी और मुनि श्री हीरालालजी ने इसे सुसज्जित करने में श्रम किया है। संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी ने सम्पन्न किया है। ग्रन्थ की स्वच्छ प्रति तैयार करने में आदरणीय समणीवृन्द का बहुत सहयोग रहा है।
प्रस्तुत आगम का प्रकाशन कम्प्यूटर द्वारा सेटिंग कर किया गया है जिसमें गणाधिपति श्री तुलसी की शिष्या-द्वय समणी शशीप्रज्ञा एवं प्रतिभाप्रज्ञा ने बहुत परिश्रम किया है। जैन विश्व भारती में श्री बजरंगलाल जैन, कम्प्यूटर पोइंट द्वारा स्थापित कम्प्यूटर विभाग के माध्यम से यह कार्य सम्पन्न हुआ है। आर्थिक सहयोग के लिए भी हम उनके ऋणी हैं।
ऐसे सुसम्पादित आगम ग्रन्थ को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) को प्राप्त हुआ है। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा।
सुजानगढ़ ३०-१-६४
श्रीचन्द रामपुरिया कुलाधिपति, जैन विश्व भारती संस्थान
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