Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आगम-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क १९ (२) श्री स्थानाङ्गसूत्रम् आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितवृत्तिविभूषितम् द्वितीयो विभागः सम्पादकः संशोधकथा पूज्यपादमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः -: प्रकाशक :श्री महावीरजेनविद्यालय मुंबई ४०००३६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शचुंजयतीर्थ-पालीताणा गीरिवर दरिशन विरला पावे Jain Entration International Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain E cation International Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आगम-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क १९ (२) नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितविवरणविभूषितं पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिसन्दृब्धं श्री स्थानाङ्गसूत्रम् द्वितीयो विभागः सम्पादकः संशोधकश्च पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालङ्कारपूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यरत्नपूज्यपादगुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी मुनि जम्बूविजयः सहायकाः मुनिराजश्री धर्मचन्द्रविजय-पुण्डरीकरत्नविजय-धर्मघोषविजयाः -:प्रकाशक: श्री महावीरजैनविद्यालय मुंबई ४०००३६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं संस्करणम् : वीर संवत् २५२९ / विक्रम सं. २०५९ / ई. स. २००३ प्रतयः ५०० मूल्यम् रू. ५५०3०० प्रकाशक: - श्रीमहावीरजैनविद्यालयः ओगस्ट क्रान्तिमार्ग, मुंबई ४०००३६. टाईप सेटींगश्री पार्श्व कोम्प्युटर्स ५८ पटेल सोसायटी, जवाहर चोक, मणिनगर, अमदावाद. फोन : ५४७०५७८ मुद्रक : मुद्रेश पुरोहित सूर्या ऑफसेट आंबली गाँव, बोपल रोड, अहमदाबाद फोन : ०७९ - ३७३२११२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaina-Agama-Series No. 19 (2) STHĀNANGASŪTRA PART II with the commentary by Ācārya Sri Abhayadev-Sūri Mahārāja critically edited by MUNI JAMBŪVIJAYA disciple of His Holiness Munirāja ŠRĪ BHUVANAVIJAYAJİ MAHĀRĀJA o Jag इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. SRI MAHĀVĪRA JAINA VIDYĀLAYA MUMBAI 400 036 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition : Vir Samvat 2529 / Vikram Samvat 2059 / A.D. 2003 Copies : 500 Price : Rs. 550=00 Published by : The Secretary, Sri Mahāvira Jaina Vidyālaya August Kranti Marg, Mumbai-400 036. Composed By Shree Parshva Computers 58, Patel Society, Jawahar Chowk, Maninagar, Ahmedabad. Tel : 5470578 Printed by : Mudresh Purohit Surya Offset Ambli Gam, Bopal Road, Ahmedabad Phone : 079 - 3732112 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धगिरिमंडन श्री ऋषभदेव भगवान श्री शगुंजयतीर्थाधिपति श्री आदीश्वरपरमात्माने नमः Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शंखेश्वरजी तीर्थमा बिराजमान देवाधिदेव श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीँ श्री नाकोड़ा-पार्श्वनाथाय नम : Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्री श्रीं क्लीं ब्ल्यूँ श्री नाकोडा-भैरववीराय नम : श्री नाकोडा-पार्श्वनाथ जिनप्रासाद 2012 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छ श्री श्रमण संघना घणा मोटा भागना श्रमण भगवंतोना गुरुदेव परमपूज्य पूज्यपाद तपरिवप्रवर पं. श्री मणिविजयजी गणी (दादा) जन्म-विक्रमसं. १८५२, भादरवा सुदि, अघार (विरमगाम पासे) दीक्षा-विक्रमसं. १८७७, पाली (मारवाड) पंन्यासपद-विक्रमसं. १९२२, जेठ सुदि १३ अमदावाद स्वर्गवास विक्रमसं. १९३५, आसो सुदि ८ अमदावाद Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद महातपस्वी गणिवर्य पं. श्री मणिविजयजी महाराज (दादा)ना शिष्यरत्न पूज्यपाद संघस्थविर आचार्यदेव श्री १००८ विजय सिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महाराज जन्म : वि. सं. १९११ श्रावण सुदि १५, वळाद (अमदावाद पासे) दीक्षा : वि. सं. १९३४ जेठ वदि २, अमदावाद पंन्यासपद : वि.सं. १९५७, सुरत आचार्यपद : वि. सं. १९७५ महा सुदि ५, महेसाणा स्वर्गवास : वि. सं. २०१५ भाद्रपद वदि १४, अमदावाद For Private & Personal use only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद संघस्थविर आचार्यदेव श्री १००८ विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महाराजना पट्टालंकार पूज्यपाद आचार्यदेवश्री विजयमेघसूरीश्वरजी महाराज जन्म : वि. सं. १९३२ मागशर सुदि 6, देर दीक्षा : वि. सं. १९५८ कारतिक वदि ९, मींयागाम-करजण पंन्यासपद : वि. सं. १९६९ कारतिक वदि ४, छाणी आचार्यपद : वि. सं. १९८१ मागशर सुदि ५, अमदावाद स्वर्गवास : वि. सं. १९९९ आसो सुदि १, अमदावाद ucation International For P ale & Personal use only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ.પૂ.આચાર્યશ્રી વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા. જન્મ તિથિ દિક્ષા તિથિ સ્વર્ગવાસ તિથિ : વિ.સં. ૧૯૨૦ કારતક સુદ બીજ (ભાઈબીજ), વડોદરા. વિ.સં.૧૯૪૩ વૈશાખ સુદ ૧૩, રાધનપુર. વિ.સં.૨૦૧૦ ભાદરવા સુદ ૧૦ મંગળવાર, તા.૨૨/૯/૧૯૫૪, મુંબઈ O For Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज जन्म : वि. सं. १९५२ कारतिक सुदि ५, (कपडवंज) दीक्षा : वि. सं. १९६५ महा वदि ५ (छाणी) स्वर्गवास : वि. सं. २०२७ जेठ वदि ६, (मुंबई) ता. १४-६-१९७१ सोमवार Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय संघस्थविर श्री १००८ आचार्यदेवश्री विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महायजना पट्टालंकार - पूज्यपाद आचार्यदेवश्री विजयमेघसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यरत्न पूज्यपाद गुरुदेव मुनिराजश्री भुवनविजयजी महाराज जन्म : वि. सं. १९५१ श्रावण वदि ५, शनिवार, ता. १०-७-१८९५, मांडल दीक्षा : वि. सं. १९८८ जेठ वदि ६, शुक्रवार, ता. २४-६-१९३२, अमदावाद स्वर्गवास : वि. सं. २०१५ महा सुदि ८, ता. १६-२-१९५९, शंखेश्वरजी तीर्थ Main Eve n tal For Private&Personal use only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद साध्वीजी श्री लाभश्रीजी महाराज (सरकारी उपाश्रयवाला)ना शिष्या पूज्यपाद साध्वीजी श्री मनोहरश्रीजी महाराज pasummummm minामा जन्म : वि. सं. १९५१ मागशर वदि २, शुक्रवार, ता.१४-१२-१८९४ झींझुवाडा दीक्षा : वि. सं. १९९५ महा वदि १२, बुधवार, ता. १५-२-१९३९ अमदावाद स्वर्गवास : वि.सं. २०५१ पोष सुदि १०, बुधवार, ता. ११-१-१९९५ यत्रे ८-५४ वीशानीमाभवन जैन उपाश्रय, सिद्धक्षेत्र पालिताणा. Jan Education international Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुरुस्तुतिः ॥ श्रीसद्गुरुदेवाय नमः । श्रीसद्गुरुः शरणम् ॥ पूज्यपाद अनन्तउपकारी पिताश्री तथा गुरुदेव मुनिराजश्री १००८ भुवनविजयजी महाराज ! बहुपुण्याश्रितं दत्त्वा दुर्लभं नरजन्म मे । लालनां पालनां पुष्टिं कृत्वा वात्सल्यतस्तथा ॥१|| वितीर्य धर्मसंस्कारानुत्तमांश्च गृहस्थितौ । भवद्भिः सुपितृत्वेन सुबहूपकृतोऽसम्यहम् ॥२॥ ततो भवद्भिर्दीक्षित्वा भगवत्यागवर्त्मनि । अहमप्युद्धतो मार्ग तमेवारोह्य पावनम् ॥३॥ ततः शास्त्रोक्तपद्धत्या नानादेशविहारतः । अचीकरन् भवन्तो मां तीर्थयात्राः शुभावहाः ॥४॥ अनेकशास्त्राध्ययनं भवद्भिः कारितोऽस्म्यहम् । ज्ञान-चारित्रसंस्कारैरुत्तमैर्वासितोऽस्मि च ॥५॥ ममात्मश्रेयसे नित्यं भवद्भिश्चिन्तनं कृतम् । व्यापृताश्च ममोन्नत्यै सदा स्वाखिलशक्तयः ॥६॥ ममाविनयदोषाश्च सदा क्षान्ता दयालुभिः । इत्थं भवदनन्तोपकारैरुपकृतोऽस्म्यहम् ॥७॥ मोक्षाध्वसत्पान्थ ! मुनीन्द्र ! हे गुरो ! वचोऽतिगाः वः खलु मय्युपक्रियाः । असम्भवप्रत्युपकारसाधना: स्मृत्वाहमद्यापि भवामि गद्गदः ॥८॥ - तत्रभवदन्तेवासी शिशुर्जम्बूविजयः Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमः पृष्ठाङ्कः १-१३ १-४ પ્રકાશકીય નિવેદન १-८ પૂજ્યપાદઆચાર્યદિવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી)મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૧-૧૦ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર જિન આગમ જયકારા (ગુજરાતી પ્રસ્તાવના) आमुखम् (संस्कृतम्) किञ्चित् प्रास्ताविकम् (हिन्दी) १-२ FOREWARD स्थानाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः १-४ स्थानाङ्गसूत्रम् ३०३-६५० त्रीणि परिशिष्टानि १-१६० 1- 2 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદનના આજથી ૩૪ વર્ષ અગાઉ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે આપણા આચાર્ય ભગવંતો ધર્મગુરુઓ તથા વિદ્વાન શ્રાવકોની ધર્મપિપાસા સંતોષાય તેમજ ધર્મજ્ઞાનના ઊંડાણનો અભ્યાસ શક્ય બને તે માટે જૈન ધર્મના આગમસૂત્રોનું પ્રકાશન શરૂ કર્યુ. જૈન ધર્મના ૨૪મા તીર્થંકર ભગવાન શ્રી મહાવીરસ્વામીના ઉપદેશોનો સંગ્રહ એટલે આગમસૂત્રો. આપણા આગમસૂત્રોનો તલસ્પર્શી અભ્યાસ જૈન ધર્મનું શુદ્ધ સ્વરૂપ બતાવે છે અને તેનું આચરણ મોક્ષમાર્ગનું પ્રેરક બને છે. આગમ ગ્રંથમાળાના મુખ્ય પ્રેરક આગમ પ્રભાકર શ્રુતશીલ-વારિધિ દિવંગત મુનિરાજ પૂજયશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ સાહેબે જ્યોતિષકરંડક ગ્રંથની પ્રાકૃત ભાષામાં રચાયેલી સંક્ષિપ્ત વૃત્તિ (ટિપ્પનકોને સંશોધિત કરેલી છે. આ કાર્ય પૂર્ણ કર્યા પછી એકાદ વર્ષના અંતરે તેઓશ્રી કાળધર્મ પામ્યા. આગમ ગ્રંથમાળાના માર્ગદર્શક કાળધર્મ પામતાં આગમ-પ્રકાશનની પ્રવૃત્તિમાં ઓટ આવશે, શૂન્યાવકાશ સર્જાશે એવી અમોને દહેશત હતી, પરંતુ સમગ્ર ભારતીય દર્શનોના તથા જૈન આગમ ગ્રંથમાળાના મર્મરૂપ વિદ્વવર્ય પૂજ્યપાદ મુનિરાજ શ્રી જંબૂવિજયજી મહારાજ સાહેબે બાકી રહેલાં કાર્યોને આગળ ધપાવવાની અમારી વિનંતી સ્વીકારી એ અમારાં અહોભાગ્ય છે. જૈન આગમ-સૂત્રોના ૧૯(૨) મણકારૂપે “સ્થાનાંગસૂત્ર” – દ્વિતીય ભાગ પ્રકાશિત કરતાં અમે આનંદ અને હર્ષની લાગણી અનુભવીએ છીએ. આશા છે કે આ ગ્રંથો શ્રી ગુરુદેવો અને આપણા સમાજના સુશ્રાવક/શ્રાવિકાને જૈન ધર્મના તલસ્પર્શી અભ્યાસમાં ખૂબજ મદદરૂપ થશે. શ્રુતભક્તિના ક્ષેત્રે આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિ અપાવે એવાં આ સંગીન અને અનુમોદનીય આગમસૂત્રોના સંશોધન અને પ્રકાશન માટે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય જિનાગમ પ્રકાશન ટ્રસ્ટ”ની ખાસ રચના કરવામાં આવી છે જેના હાલના ટ્રસ્ટીઓ નીચે મુજબ છે. ૧. શ્રી શ્રીકાંતભાઈ એસ. વસા ૨. શ્રી અશોકભાઈ કાંતિલાલ કોરા ૩. શ્રી નવનીતભાઈ ખીમચંદ ડગલી ૪. શ્રી રમણીકલાલ પ્રેમચંદ શાહ ૫. શ્રી સેવંતિલાલ કેશવલાલ શાહ ૬. શ્રી જીતેન્દ્રભાઈ બી. શાહ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે અત્યાર સુધીમાં નીચે મુજબનાં આગમ ગ્રંથોનું પ્રકાશન કરેલ છે. ग्रथांक १ नंदिसुत्तं अणुओगद्दाराइं च संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ४०.०० ग्रथांक २ (१) आयारंगसुत्तं संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ४०.०० ग्रथांक २ (२) सूयगडंगसुत्तं संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ४०.०० ग्रथांक ३ ठाणंगसुत्तं समवायंगसुत्तं च संपादक : जम्बूविजयो मुनिः १२०.०० ग्रथांक ४ (१) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-१ संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ४०.०० ग्रथांक ४ (२) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-२ संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ४०.०० ग्रथांक ४ (३) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-३ संपादक : पं.बेचरदास जीवराज दोशी ४०.०० ग्रथांक ९ (१) पण्णवण्णासुत्तं भाग-१ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ३०.०० ग्रथांक ९ (२) पण्णवण्णासुत्तं भाग-२ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ३०.०० ग्रथांक १५ दसवेयालियसुत्तं, उत्तरज्झयणाई, आवस्सयसुत्तं च संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ५०.०० ग्रथांक १७ (१) पइण्णयसुत्ताई भाग-१ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ८०.०० ग्रथांक १७ (२) पड़ण्णयसुत्ताई भाग-२ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ८०.०० ग्रथांक १७ (३) पइण्णयसुत्ताई भाग-३ संपादक : पुण्यविजयो मुनिः ६०.०० ग्रथांक ५ णायाधम्मकहाओ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः १२५.०० ग्रथांक १८ (१) अनुयोगद्धारसूत्रम् भाग-१ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ४५०.०० ग्रथांक १८ (२) अनुयोगद्धारसूत्रम् भाग-२ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ४५०.०० ग्रथांक १९ (१) स्थानागसूत्रम् भाग-१ संपादक : जम्बूविजयो मुनिः ५५०.०० શ્રુતજ્ઞાન પ્રેરિત જિનાગમ સંશોધન કાર્ય અને ભારતના જુદા જુદા સ્થળોના જ્ઞાનભંડારોની સામગ્રીનો ઉપયોગ કરવા દેવા માટે સહાયરૂપ થયા છે તેવા કાર્યકરોનો તથા આ કાર્યમાં પ્રત્યક્ષ અને પરોક્ષરૂપે સહાયરૂપ થનાર મહાનુભાવોનો અંતઃકરણ પૂર્વક આભાર भानीमे छीमे. આગમ ગ્રંથ “સ્થાનાંગસૂત્ર ભાગ-૨”નું પ્રકાશન પૂ. આચાર્ય ભગવંતોને તથા તેમના શિષ્યવૃંદને જૈન ધર્મના શ્રદ્ધાવાન શ્રાવકોને તેમજ જૈન ધર્મના સંશોધનમાં રસ ધરાવનાર અભ્યાસુઓને જૈન ધર્મના ઉંડા અભ્યાસ માટે ઉપયોગી થઈ પડશે એવી આશા સાથે વિરમીએ છીએ. આ પુસ્તકના પ્રકાશન માટે અનહદ જહેમત ઉઠાવવા બદલ અમો આગમ વિશારદ પ્રાંતઃ સ્મરણીય પૂજય મુનિરાજ શ્રી જંબૂવિજયજી મ.સા.ના ઋણી છીએ. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ ઓગષ્ટ ક્રાંતિ માર્ગ, મુંબઈ-૩૬ સુબોધરત્ન ચીમનલાલ ગારડી त. ७-५-२००३ પ્રકાશચંદ્ર પ્રવિણચંદ્ર ઝવેરી માનદ્ મંત્રીઓ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન ઋણ સ્વીકાર જૈન આગમ ગ્રંથોના સંશોધન- સંપાદન અને પ્રકાશનના કાર્યમાં વેગ આપવાના ઉદ્દેશથી, આગમ વિશારદ પૂજયપાદ મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજી મ.સા. સંપાદિત પુસ્તકના પ્રકાશન “સટીક સ્થાનાંગ ભાગ-૨” શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય (મુંબઈ)ની જૈન આગમો પ્રકાશિત કરવાની યોજના માટે રૂા. ૫,૦૦,૦૦૦/- અંકે રૂપિયા પાંચ લાખ પૂરા શ્રી ગોવાલિયા ટેન્ક જૈન સંઘ તરફથી ત્રણેય ભાગના પ્રકાશન માટે મળ્યા છે. આ ઉદાર સહકાર માટે અમો શ્રી ગોવાલીયા ટેન્ક જૈન સંઘ, મુંબઈ-૩દનો અંતઃકરણપૂર્વક આભાર માનીએ છીએ. મુંબઈ-૪૦૦૦૩૬ તા.૭-૫-૨૦૦૩ ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ સુબોધરત્ન ચીમનલાલ ગારડી પ્રકાશચંદ્ર પ્રવીણચંદ્ર ઝવેરી માનદ મંત્રીઓ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ પ્રકાશકીય નિવેદન વિદ્યાતીર્થ વિદ્યાલય - શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય પંજાબકેસરી આચાર્યશ્રી પ.પૂ.વિજય વલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના ઉપદેશથી આજથી સત્યાસી વર્ષ પૂર્વે વિ.સં.૧૯૭૦, ફાગણ સુદી પાંચમને સોમવાર, તા. ૨-૩-૧૯૧૪ના શુભ દિવસે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની મંગલ સ્થાપના કરવામાં આવી. તે સમયે જૈન સમાજ માટે શિક્ષણની જરૂરિયાત બહુ જ હતી. અને ખાસ કરીને ગ્રામ્ય વિસ્તારના વિદ્યાર્થીઓ શિક્ષણથી વંચીત ન રહે તે બાબત પણ મહાનુભાવોના મનમાં હતી. અનેક શહેર અને સ્થળનું અવલોકન કર્યા બાદ મુંબઈ શહેરની પસંદગી કરવામાં આવી. આ સંસ્થા ફકત વિદ્યાર્થીગૃહ ન રહેતાં ચારિત્ર નિર્માણ અને સાંસ્કૃતિક મૂલ્ય અને ધાર્મિક જ્ઞાન પ્રદાનનું કેન્દ્ર બને અને સમાજ સમૃદ્ધ થાય તેવી દષ્ટિ પણ સ્વીકારવામાં આવી હતી. અને સંસ્થાના સ્થાપના સમયે ત્રણ મૂળભૂત મુદ્દાઓ પણ વિચારવામાં આવ્યા હતા. રાત્રિભોજન નિષેધ, અભક્ષ્યનો ત્યાગ અને જિનપૂજા સાથે ધાર્મિક અભ્યાસ વિગેરે ધ્યાનમાં રાખીને પંદર વિદ્યાર્થીઓ સાથે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય” ૧૯૧૫માં ભાડાના મકાનમાં શરૂ કરવામાં આવ્યું. જે આજે વટવૃક્ષ બની ગુજરાત-મહારાષ્ટ્ર તેમજ રાજસ્થાનના મુખ્ય શહેરોમાં નવ શાખાઓ, ૧,૦૦૦ વિદ્યાર્થીઓ અભ્યાસ કરી શકે તેવું અદ્યતન સુવિધાઓ સાથે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય ટુંક સમયમાં શતાબ્દી” તરફ આગળ વધી રહ્યું છે. વિદ્યાર્થીઓના ઉત્તેજન માટે કાર્યશીલ સંસ્થાએ કન્યા કેળવણી માટે ૧૯૪૩માં બંધારણમાં ખાસ સુધારો કરીને કન્યા છાત્રાલય સ્થાપવાનો નિર્ણય કર્યો. પણ એનો અમલ ૧૯૯૨ના અમત મહોત્સવની ઉજવણી પ્રસંગે સંસ્થાના કાર્યશીલ હોદ્દેદારોએ જૈન સમાજ પાસે સંકલ્પ મુક્યો અને અમદાવાદ શહેરમાં ૧૯૯૪માં ૮૮ વિદ્યાર્થિનીઓને નિઃશુલ્ક (રહેવા-જમવાની સગવડતા) સગવડ આપવા સાથે શુભ શરૂઆત કરવામાં આવી. ગુજરાત મહારાષ્ટ્ર પછી હિન્દી ભાષી રાજય તરફ આગળ વધવાનો સંકલ્પ અમૃત મહોત્સવ સમાપન સમારોહ સમયે લેવાઈ ચૂક્યો હતો. જે ૨૦૦૧માં ઉદયપુર શાખાનું ઉદ્ઘાટન કરીને પૂર્ણ થયો શ્રી વાડીલાલ સારાભાઈ વિદ્યાર્થીગૃહ, મુંબઈ-૩૬ના મકાનનું નવનિર્માણ કરવાનું હોવાથી હંગામી ધોરણે સને ૨૦૦૧ માં સી.પી. સેંક, મુંબઈ-૪ ખાતે ૨૬ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપવામાં આવ્યો પણ હજી કન્યા છાત્રાલય માટે કાર્યશીલ હોદ્દેદારો તથા કાર્યવાહકો ગુજરાતના જુદા જુદા શહેરોમાં કન્યા છાત્રાલય ઉભા કરવા માટે દ્રઢ વિશ્વાસ સાથે આગળ વધી રહ્યા છે. સંસ્થાની વિવિધ પ્રવૃત્તિઓ : આ સંસ્થા વિદ્યાશાખા કે કન્યાઓ માટે છાત્રાવાસો ઉભા કરીને સંતોષ ન માનતાં સમાજના યુવા વર્ગને શૈક્ષણિક સહાયની પ્રવૃત્તિઓમાં પણ આગળ રહે છે. તેની વિગત નીચે મુજબ છે. (૧) સંસ્થા દ્વારા પરદેશ જતા વિદ્યાર્થીઓને લોન આપવામાં આવે છે. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન (૨) કોલેજમાં અભ્યાસ કરતી વિદ્યાર્થીનીઓને સંસ્થાના અમદાવાદ ખાતે કન્યા છાત્રાલયમાં ગુણવત્તાના ધોરણે નિઃશુલ્ક પ્રવેશ આપવામાં આવે છે. પ્રવેશથી વંચિત રહી ગયેલ અને અમદાવાદ શહેર સિવાયની કોલેજમાં અભ્યાસ કરતી વિદ્યાર્થિનીઓને અભ્યાસમાં સહાયરૂપ થવા આ સંસ્થા તરફથી ધો.૧૦ થી સ્નાતક સુધીના અભ્યાસ માટે પૂરક રકમની સહાય શિષ્યવૃત્તિ આપવામાં આવે છે. જેમાં છેલ્લાં પાંચ વર્ષમાં આપેલ રકમ અને વિદ્યાર્થીઓની સંખ્યા નીચે દર્શાવેલ છે. ૧૯૯૮-૧૯૯૯ ૮૩ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૦૫૬૦૦/૧૯૯૯-૨૦૦૦ ૯૦ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૦૯૭૦૦/૨૦૦૦-૨૦૦૧ ૧૩૪ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૬૮૦૦૦/૨૦૦૧-૨૦૦૨ ૧૩૪ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૬૭૧૦૦/ ૨૦૦૨-૨૦૦૩ ૧૭૯ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૨૨૨૦૦૦/જૈન સાહિત્ય અને પ્રકાશનને ઉત્તેજન :(૧) સંસ્થા દ્વારા જૈન ધર્મના પુસ્તકોના પ્રકાશનને ઉત્તેજન મળે તે માટે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય જિનાગમ ટ્રસ્ટની રચના કરવામાં આવી છે અને આ ટ્રસ્ટ દ્વારા આગમના ગ્રંથો તૈયાર કરવામાં આવે છે. તેમજ અન્ય પુસ્તકોનું પ્રકાશન પણ સંસ્થા દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવે છે. સાદી અને સરળ ભાષામાં વિવેચનાત્મક અને સંશોધનાત્મક સાહિત્યની વિપુલ સામગ્રી પ્રકટ કરવાની સમયદર્શી આચાર્ય વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મહારાજ અને સંસ્થાના અનેકમુખ ઉત્કર્ષના પુરસ્કર્તા શ્રી મોતીચંદભાઈ કાપડીઆની ભાવના હતી અને આ માટે મોતીચંદભાઈ કાપડીઆએ ગ્રંથમાળાના સંપાદન કાર્યની શરૂઆત કરી અને આજદિન સુધીમાં ૯ પુસ્તકો તથા શ્રી મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈ (સંગ્રાહક અને સંપાદક) ગ્રંથમાળાના જૈન ગુર્જર કવિઓ ભાગ ૧ થી ૧૦ અને અન્ય સાત પુસ્તકો તથા મુનિશ્રી નંદિઘોષ વિજયજી પ્રકાશિત બે પુસ્તકો પ્રકાશિત થયેલ છે. (૨) જૈનસાહિત્યને ઉત્તેજન મળે તે માટે આજદિન સુધીમાં ૧૬ જૈન સાહિત્ય સમારોહનું જુદા જુદા સ્થળે આયોજન કરવામાં આવેલ છે. વિદ્યાલયની વિદ્યાશાખાઓનો વિસ્તાર :(૧) ૧૫ વિદ્યાર્થીઓ સાથે સને ૧૯૧૫માં શરૂ થયેલ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય, ગોવાલીયા ટેન્ક પર સંસ્થાના મકાનમાં ભાવનગર રાજ્યના દીવાન સર પ્રભાશંકર પટનીના શુભ હસ્તે તા.૩૧-૧૦-૧૯૨૫માં ખુલ્લુ મુકવામાં આવ્યું અને ત્યારબાદ સંસ્થાની પ્રગતિ, વિદ્યાશાખાઓની સ્થાપનાનો ઈતિહાસ નીચે મુજબ છે. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ પ્રકાશકીય નિવેદન (૨) ૧૯૪૬ અમદાવાદમાં શ્રી જેસીંગભાઈ ભોળાભાઈ વિદ્યાર્થી ગૃહ શરૂ કરવામાં આવ્યું. (૩) ૧૯૪૭ મહારાષ્ટ્રમાં પૂના શહેરમાં શ્રી ભારત જૈન વિદ્યાલયના નામે શેઠશ્રી ગગલભાઈ હાથીભાઈ જેવા આગેવાનના સહકાર દ્વારા ખુલ્લું મુકવામાં આવ્યું. (૪) ૧૯૫૪ વડોદરા શહેરમાં ચાલતી સંસ્થા શ્રી જૈન વિદ્યાર્થી આશ્રમના સંચાલકોએ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયને સંચાલન સોંપી દીધું. એટલે પ.પૂ. આચાર્યશ્રી વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની જન્મભૂમિમાં સંસ્થાએ કાર્યભાર સંભાળીને નામ આપ્યું શ્રી લહેરચંદ ઉત્તમચંદ વિદ્યાર્થીગૃહ. (૫) ૧૯૬૪ ગુજરાત રાજય સરકારે ખાસ શિક્ષણ સુવિધાઓને ધ્યાનમાં રાખીને વલ્લભવિદ્યાનગર શહેરનો વિકાસ કર્યો. સને ૧૯૫૪માં વડોદરા શાખાની શરૂઆત થયા બાદ દશ વર્ષ પછી આપણી આ પાંચમી સંસ્થા શરૂ કરવામાં આવી. અને આ સંસ્થાને શ્રી લહેરચંદ ઉત્તમચંદ વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં આવ્યું. (૬) ૧૯૭૦ ભાવનગર શહેરમાં સૌરાષ્ટ્ર તરફથી આવતા વિદ્યાર્થીઓની જરૂરીયાતને લક્ષ્યમાં રાખીને શાખા ખુલ્લી મુકવામાં આવી. આ સંસ્થાને શ્રી મણીલાલ દુર્લભજી વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં આવ્યું. (૭) ૧૯૭૨ પ.પૂ.આચાર્યશ્રી વલ્લભસૂરીશ્વરજીના જન્મ શતાબ્દીની વર્ષ ૧૯૭૦ માં જૈન સમાજમાં ધામધુમથી ઉજવણી થઈ હતી. ગુરૂદેવની જન્મ શતાબ્દી નિમિત્તે ઓલ્ડ બોયઝ યુનિયનના પ્રયાસોથી ગુરૂદેવનું નામ જોડીને “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય” અંધેરીમાં શાખા શરૂ કરી. (૮) ૧૯૯૪ સને ૧૯૪૬ના વર્ષથી કરેલો સંકલ્પ અને ૧૯૯૨માં સંસ્થાના અમૃત મહોત્સવ પ્રસંગે કન્યા છાત્રાલય શરૂ કરવાના દઢ નિર્ધારના ફળ સ્વરૂપ સને ૧૯૯૪માં અમદાવાદમાં કન્યા છાત્રાલય શરૂ કરવામાં આવ્યું અને આ શાખાને શ્રીમતી શારદાબેન ઉત્તમલાલ મહેતા કન્યા છાત્રાલય નામ આપવામાં આવ્યું. (૯) ૨૦૦૧ ગુજરાત-મહારાષ્ટ્ર ઉપરાંત અન્ય રાજયમાં શાખા શરૂ કરવાનો સંકલ્પ પુરો થયો. ઉદયપુર મુકામે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય એલ્મની. એસોસીએશન, યુ.એસ.એ.ના સહકારથી ૮૦ વિદ્યાર્થીઓની કેપેસીટી સાથે પૂર્ણ થયો. અને શાખાને ડો. યાવન્તરાજ પુનમચંદજી અને શ્રીમતી સંપૂર્ણ જૈન વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં આવ્યું. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન (૧૦) ૨૦૦૧ સંસ્થાની શ્રી વાડીલાલ સારાભાઈ વિદ્યાર્થીગૃહ, મુંબઈ-૩૬ના મકાનનું નવનિર્માણ કરવાનું હોવાથી વિદ્યાર્થીઓને અગવડતા ન પડે તે માટે શ્રી જૈન ઉદ્યોગગૃહના (સી.પી.ટેક) સ્થિતના મકાનના ચોથા-પાંચમા માળે સને ૨૦૦૧માં ૨૬ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપી, શ્રી સી.પી.ક ખાતે હંગામી ધોરણે વિદ્યાર્થીગૃહ શરૂ કરવામાં આવ્યું. ઉદ્દેશો અને અમલીકરણ તેમજ એકવીસમી સદી તરફ પ્રયાણ : શરૂઆતમાં જે મૂળભૂત નિયમો ઘડવામાં આવ્યા હતા તે અનુસાર આજ રીતે આજે આઠ દાયકાથી સંસ્થા મક્કમપણે એકવીસમી સદી તરફ આગળ વધી રહી છે. જેમાં નીચેના મૂળભૂત નિયમો અમલમાં છે. (૧) દરેક શાખામાં વિદ્યાર્થીઓને નિયમિત જિનપૂજા કરી શકે તે માટે મુંબઈ, અંધેરી, વડોદરા, વલ્લભવિદ્યાનગર તેમજ ભાવનગર શિખરબંધી દેરાસરજી બનાવેલ છે. જયારે - પૂના, અમદાવાદ, ઉદયપુરમાં ઘર દેરાસર છે. પૂનામાં ટુંક સમયમાં શિખરબંધી દેરાસર બાંધવા માટે નિર્ણય લેવાયેલ છે. (૨) ધાર્મિક અભ્યાસક્રમ માટે દરેક શાખામાં ધાર્મિક શિક્ષકો દ્વારા ક્લાસ ચલાવવામાં આવે છે. નિયમિત ધાર્મિક પરિક્ષાઓ લેવામાં આવે છે. અને પ્રોત્સાહનરૂપે વિદ્યાર્થીઓને ઈનામો આપવામાં આવે છે. (૩) વિદ્યાર્થીઓને ધાર્મિક પ્રવાસ, ડેવલપમેન્ટ શિબીરો, ઉગ્ર તપશ્ચર્યાઓને પ્રોત્સાહન માટે સુવિધાઓ આપવામાં આવે છે. (૪) વિદ્યાર્થીઓના સાંસ્કૃતિ વિકાસ માટે સ્પર્ધાઓ, રમત-ગમત તેમજ વ્યાયામના સાધનો ઉપલબ્ધ હોય છે. (૫) શાખાના વિદ્યાર્થીઓ દ્વારા “આંતર શાખા હરિફાઈ યોજવામાં આવે છે. અને પ્રોત્સાહન રૂપે ઈનામો આપવામાં આવે છે. (૬) વિદ્યાર્થીઓને “જનરલ નોલેજ” માટે શાખાઓમાં છાપાં, મેગેજીન-સારાં પુસ્તકો તેમજ વિશાળ લાઈબ્રેરીઓ સ્થાપવામાં આવી છે. (૭) એકવીસમી સદી તરફ જઈ રહેલ વિશ્વમાં આપણે પાછળ ન રહીએ તે માટે વિદ્યાર્થીઓને અદ્યતન ફર્નીચર તેમજ સાત્વીક ભોજન અને કોમ્યુટર શિક્ષણ માટે શાખામાં જ કોમ્યુટર સુવિધા આપવામાં આવી રહી છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય, ૮૭ વર્ષ દરમ્યાન, સમાજના હજારો નવયુવાનોને વિદ્યાના અમૃતનું પાન કરાવી કાર્યદક્ષ અને સ્વાશ્રયી બનાવ્યા અને તેમના જીવનને સેવાભાવના, ધાર્મિકતા તેમજ સંસ્કારિતાથી સુવાસિત બનાવ્યા. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશકીય નિવેદન ઉછરતી પેઢીને વિદ્યાનું અને પ્રેરણાનું પાન કરાવીને સમાજને સમૃદ્ધ, શક્તિશાળી અને સંસ્કારી બનાવનારી વિદ્યાલયની આ મહાપરબ અત્યારે પણ અવિરતપણે ચાલી રહી છે. ८ સમાજના કલ્યાણબંધુ મહાનુભાવો અને પુણ્યામાર્ગના પ્રવાસીઓ ! ઉદાર આર્થિક સહકારરૂપી આપની ભાવનાનાં નીર આ મહાપરબમાં નિરંતર ઉમેરતા રહેશો ! આપની ઉદારતા આપને ધન્ય બનાવશે અને સમાજને સમૃદ્ધ બનાવશે ! આવો બેવડો લાભ લેવાનું રખે કોઈ ચુકતા ! જ્ઞાન પ્રસાર દ્વારા સમજણને વિસ્તારવાનો જે પુરૂષાર્થ કરે તે જગતનો મોટો ઉપકારી. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે આવા પુરૂષાર્થ દ્વારા સમાજને સમૃદ્ધ, શક્તિશાળી અને સુખી બનાવવાનું વિનમ્ર જીવન વ્રત સ્વીકાર્યું છે. જે એ વ્રત પાલનમાં સહાયક થશે તે કૃતકૃત્ય થવાની સાથે સમાજકલ્યાણના સહભાગી બનશે. સૌને સથવારે આપણે તન, મન અને ધનથી વિદ્યાલયની સેવામાં અહર્નિશ ઉભા રહીએ અને યુગપુરૂષના આશીષસહ, ભવ્ય ભૂતકાળના સહારે સુંદર વર્તમાનની કેડી પર કદમ મિલાવી ઉત્કૃષ્ટ ભવિષ્યનું સ્વપ્ર સિદ્ધ કરીએ એજ અભ્યર્થના. મુંબઈ-૩૬ તા.૨૮-૪-૨૦૦૩ લિ.સેવકો ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ સુબોધરત્ન ચીમનલાલ ગારડી પ્રકાશચંદ્ર પ્રવીણચંદ્ર ઝવેરી માનદ્ મંત્રીઓ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ‘બાહ્ય-અત્યંતર તપના સતત આરાધક, કીર્તિકામનાથી અલિપ્ત વયોવૃદ્ધ સૂરીશ્વરજી પૂ. બાપજી મહારાજ (જીવનકાલ - વિક્રમસંવત્ ૧૯૧૧ શ્રાવણ સુદિ ૧૫ થી વિક્રમસં. ૨૦૧૫ ભાદરવા વિંદ ૧૪ સુધી) (લેખક રતિલાલ દીપચંદ દેસાઈ, જૈન પત્ર, ભાવનગર, તા. ૧૭-૧૦-૫૯) વિક્રમની વીસમી અને એકવીસમી સદીમાં દર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્રનું આરાધન કરનાર જે મુનિવરો અને આચાર્યો થઈ ગયા, એમાં સૌથી વયોવૃદ્ધ ગણી શકાય એવા પૂ. આ.શ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી મહારાજ થોડા દિવસો પહેલાં જ કાળધર્મ પામ્યા, એટલે એમનો ટૂંક પરિચય અહીં આપવો ઈષ્ટ છે. પંચમ ગણધર શ્રીસુધર્માસ્વામિજી શતવર્ષાયુ હતા. એ રીતે જેમણે રાત નીવ રવઃ એ ઉક્તિ પ્રમાણે એક સો કે તેથી વધુ વર્ષનું આયુષ્ય ભોગવ્યું હોય એવા કેટલાક પૂર્વાચાર્યો કે યુગપ્રધાનો આપણે ત્યાં થઈ ગયા; જેમકે આર્ય પ્રભવસ્વામિજી ૧૦૫ વર્ષ, આર્ય ધર્મઘોષસૂરિજી ૧૦૧ વર્ષ, આર્ય મહાગિરિજી અને આર્ય સુહસ્તિસૂરિજી વગેરે ૧૦૦ વર્ષ, શ્રી ભદ્રગુપ્તસૂરિજી ૧૦૫ વર્ષ, શ્રી વજ્રસેનસૂરિજી ૧૨૮ વર્ષ, શ્રી નાગહસ્તિસૂરિજી ૧૧૬ વર્ષ, શ્રી રેવતિમિત્રસૂરીજી ૧૯ વર્ષ, શ્રી સિંહસૂરિજી ૧૧૬ વર્ષ, શ્રી નાગાર્જુન ૧૧૧ વર્ષ, આર્ય ભૂતદિન્નસૂરિ ૧૧૯ વર્ષ, શ્રી જિનભદ્રગણિ ક્ષમાશ્રમણ ૧૦૪ વર્ષ, વાચકપ્રવર શ્રી ઉમાસ્વાતિજી ૧૧૦ વર્ષ અને શ્રી વિનયમિત્રસૂરિ ૧૧૫ વર્ષ વગેરે વગેરે. એજ રીતે ઉપર જણાવેલા શ્રમણોમાં એવા પણ છે કે જેમનો દીક્ષાપર્યાય ચાર વીશી કરતાંય લાંબો હતો. જેવા કે આર્ય સુંદિલ અને શ્રી રેવતિમિત્રસૂરિજી ૮૪ વર્ષ, આર્યધર્મસૂરિજી ૮૪ કે ૮૮ વર્ષ, શ્રી વજ્રસ્વામિજી ૮૦ વર્ષ, શ્રી વજ્રસેનસૂરિજી ૧૧૯ વર્ષ, શ્રી નાગહસ્તિસૂરિજી ૯૭ વર્ષ, શ્રી રેવતિમિત્ર ૮૯ વર્ષ, શ્રી સિંહસૂરિજી ૯૮ વર્ષ, શ્રી નાગાર્જુન ૯૭ વર્ષ, આર્ય ભૂતદિન્નસૂરિજી ૧૦૧ વર્ષ, શ્રી ધર્મઘોષસૂરિજી ૯૩ વર્ષ અને શ્રી વિનયમિત્રસૂરિ ૧૦૫ વર્ષ વગેરે વગેરે. સ્વર્ગસ્થ આચાર્ય મહારાજ પણ પાંચ વીશી કરતાં લાંબા આયુષ્યને ધરાવનાર અને ચાર વીશી કરતાં વધારે સમય સુધી દીક્ષાપર્યાયને ધારણ કરનાર આવા બધા વયોવૃદ્ધ અને ચારિત્રવૃદ્ધ પૂર્વ પુરૂષોની હરોળમાં જ બેસી શકે એવા પુરુષ હતા; અને એમની ઉગ્ર અને દીર્ઘ અવિચ્છિન્ન તપસ્યાનો વિચાર કરતાં તો કદાચ એમ જ કહી શકાય કે ૧૦૫ વર્ષની અતિવૃદ્ધ ઉમરે પણ, જીવનની અંતિમ ઘડી સુધી પોતાની તપસ્યાને સાચવી રાખનાર તેઓ ખરેખર, અદ્વિતીય આચાર્ય હશે. આચાર્ય મહારાજનો જન્મ વિ.સં.૧૯૧૧ શ્રાવણ સુદિ ૧૫ ના રક્ષાબંધનના પર્વદિને એમના મોસાળ વળાદમાં થયો હતો, એમનું પોતાનું વતન અમદાવાદમાં-ખેતરપાળની પોળમાં. અત્યારે પણ એમના કુટુંબીઓ ત્યાં રહે છે. એમ કહેવાય છે કે આ પોળની નજીકમાંથી છેક ભદ્રનો કિલ્લો અને એનો ટાવર તે કાળે દેખી શકાતાં હતાં; એના ઉપરથી સમજી શકાય એમ છે કે તે વખતે અમદાવાદ શહેર કેવું હશે ? A:2 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર એમના પિતાશ્રીનું નામ મનસુખલાલ; માતુશ્રીનું નામ ઉજમબાઈ, બંને ધર્મપરાયણ અને પોતાનાં સંતાનોમાં સારા સંસ્કાર પડે એવી લાગણી રાખનારાં. એમને છ પુત્રો અને એક પુત્રી. એમાં આચાર્ય મહારાજ સૌથી નાના પુત્ર. એમનું નામ ચુનીલાલ. ચુનીલાલે અભ્યાસ પૂરો કર્યો અને પિતા તથા ભાઈઓના કામમાં તેઓ મદદગાર થવા લાગ્યા. કોઈ પણ કામમાં એમની નજર પણ એવી પહોંચે અને કામ કરવાની ખંત પણ એટલી. જે જે કામ કરવા લે એમાં પૂરેપૂરો જીવ પણ એવો પરોવી દે કે તે કામમાં ધારી સફળતા મળ્યા વગર ન રહે. કોઈને પણ વહાલા થઈ પડવાનો સારામાં સારો કીમિયો તે કામગરાપણું. જે કામચોર ન હોય એને લોકો હોંશે હોંશે બોલાવે અને ચાહે. ચુનીલાલ પણ આખા કુટુંબમાં પ્રિય થઈ પડેલા. જેને કંઈ પણ કામ હોય એ તરત જ ચુનીલાલને સંભારે અને ચુનીલાલ પણ એ માટે ખડે પગે તૈયાર રહે. પણ આમાં નવાઈની વાત એ હતી કે ચુનીલાલ કોઈ પણ કામમાં આવા ઓતપ્રોત બની જાય, પણ એમની અંતરંગ રસ તો વૈરાગ્યનો જ. ઘરનું અને બહારનું બધું ય કામ કરે, પણ રહે સદા જળકમળની જેમ નિર્લેપ જ. કામ પાર પાડવામાં એમની નિષ્ઠા પૂરવાર થતી અને એનાથી અલિપ્ત રહેવામાં એમની વૈરાગ્યવૃત્તિ જણાઈ આવતી. આ રીતે એમના જીવનમાં કાર્યનિષ્ઠા અને વૈરાગ્ય ભાવનાની ફૂલગુંથણી થઈ હતી. પરિણામે કોઈ પણ કાર્ય કર્યાનું ન તો એમને અભિમાન થતું કે ન તો કોઈની પ્રશંસા સાંભળીને તેઓ ફુલાઈ જતા. મનને સમતાનો પાઠ જાણે એમણે ઘરમાંથી જ શીખવવા માંડ્યો હતો. મન આડું અવળું જવા માગે તો અંતરમાં બેઠેલો વૈરાગ્ય એને લીધે માર્ગે રાખે. નાનપણમાં એમણે અમદાવાદની વિદ્યાશાળામાં શ્રી સુબાજી રવચંદ જેચંદની પાસે ધાર્મિક અભ્યાસ કરેલો. શ્રી સુબાજી ભારે ધર્મપ્રેમી અને સારા શ્રોતા લેખાતા. એ લગભગ 300 વિદ્યાર્થીઓને ધાર્મિક શીખવતા અને ધાર્મિક સંસ્કાર દઢ કરાવતા. ચુનીલાલની ધર્મશ્રદ્ધામાં સુબાજીના શિક્ષણનો પણ નોંધપાત્ર હિસ્સો હતો. ચુનીલાલ ૧૮-૨૦ વર્ષની ઉંમરના થયા અને સૌનાં માતા-પિતાની જેમ, એમનાં માતાપિતાને પણ એમના લગ્નના લહાવા લેવાના મનોરથ થવા લાગ્યા. પણ ચુનીલાલનો આત્મા તો વૈરાગ્યનો ચાહક હતો. એટલે એમનું મન સહજ રીતે લગ્નની દિશામાં કેવી રીતે વળે? માતાપિતા અને કુટુંબીઓને સંસાર ખપતો હતો; વૈરાગી પુત્રને સંયમની તાલાવેલી લાગી હતી; એ બેનો નિકાલ કોણ લાવે ? યૌવનમાં ડગ માંડતી વીસેક વર્ષની વયે આ પ્રશ્ન ઉગ્ર બન્યો. વડીલો કહે પરણાવ્યા વગર રહીએ નહીં; પુત્ર કહે હું પરણું નહીં. છેવટે માતા-પિતાની આજ્ઞાને વિનીત ચુનીલાલે શિરોધાર્ય કરી અને અમદાવાદમાંજ આકાશેઠના કુવાની પોળમાં રહેતા ખરીદિયા કુટુમ્બનાં ચન્દનપ્લેન સાથે તેમનાં લગ્ન થયાં. ચંદનબહેન ચુનીલાલ કરતાં ફક્ત છ મહિને જ મોટાં હતાં; એ પણ ખૂબ ધર્મપ્રેમી. લગ્ન તો કર્યું, પણ અંતરનો વૈરાગ્ય દૂર ન થયો. બે-ત્રણ વર્ષનું ગૃહસ્થ જીવન ભોગવ્યું ન ભોગવ્યું અને વળી પાછી વૈરાગ્યની ભાવના તીવ્ર બની ગઈ. એ તેવીસ વર્ષની ભરયુવાન વયે ચુનીલાલે તો નિશ્ચય જ કરી લીધો કે હવે તો સંયમ લીધે જ છૂટકો. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૩ ફરી પાછો ઘરમાં સંસાર અને વૈરાગ્ય વચ્ચેનો ગજગ્રાહ શરૂ થયો, માતા પિતા અને અન્ય કુટુંબીઓએ ખૂબ વિરોધ કર્યો. આમ દીક્ષા લે તો પત્ની ચંદનબ્લેનની શી સ્થિતિ થાય ? કામગરા ચુનીલાલ ઉપર મોટાભાઈને ખૂબ હેત. એમને તો ચુનીલાલ ચાલ્યા જાય તો પોતાની એક ભુજા કપાઈ જવા જેવું દુઃખ થાય. એટલે આ વિરોધમાં એ સૌથી મોખરે હતા. પણ ચુનીલાલ આ વખતે પાકો નિશ્ચય કરી ચૂક્યા હતા. એમનો આગ્રહ પણ કુટુંબીઓના આગ્રહથી ચઢી જાય એવો હતો. કુટુંબીઓએ અને બીજાઓએ ચુનીલાલને બહુ બહુ સમજાવ્યા, ધાકધમકી પણ આપી, પણ ચુનીલાલ કોઈ રીતે માન્યા નહીં. એક દિવસે તો પોતાની મેળે મસ્તકનું મુંડન કરાવીને એમણે સાધુવેષ પણ પહેરી લીધો ! કુટુંબીઓ સામે થયા તો ત્રણ દિવસ લગી ભૂખ્યા-તરસ્યા એક ઓરડામાં ભરાઈ રહેવાનું એમણે મંજૂર રાખ્યું, પણ પોતાનો નિર્ણય ન છોડ્યો, છેવટે સૌને થયું કે આ વૈરાગી આત્મા હવે કોઈ રીતે ઘરમાં રહેશે નહીં. લગ્ન પ્રસંગે માતા-પિતાનો આગ્રહ સફળ થયો હતો, તો આ વખતે ચુનીલાલનો નિર્ણય સૌને મંજૂર રાખવો પડ્યો હતો. આ રીતે ચુનીલાલે પોતાની અણનમ સંકલ્પ શક્તિનો સૌને પરિચય કરાવ્યો. આ સંકલ્પબળ એમના સમગ્ર જીવનમાં અંત સુધી વ્યાપી રહ્યું હતું. પણ કુટુંબનો આવો સજ્જડ વિરોધ હોય ત્યાં કોણ સાધુ દીક્ષા આપવા તૈયાર થાય ? એટલે પોતાની મેળે સાધુ વેશ પહેરીને ચુનીલાલ ઝાંપડાની પોળના ઉપાશ્રયમાં રહ્યા અને છેવટે જંગમ યુગપ્રધાન સમા તે કાળના મહાપ્રભાવક અને પરમ સાધુપુરુષ શ્રીમણિવિજયજી દાદાએ એમને લવારની પોળમાં સંઘની હાજરીમાં ભાગવતી દીક્ષા આપી. તે યાદગાર દિવસ વિ.સં. ૧૯૩૪ ના જેઠ વદિ બીજ. તે દિવસે ચુનીલાલ મુનીશ્રી સિદ્ધિવિજયજી બની ગયા. પૂ. મણિવિજયજી દાદાના એ સૌથી નાના શિષ્ય. તે વર્ષનું ચોમાસું સિદ્ધિવિજયજીએ પોતાના ગુરૂ મણિવિજયજી દાદાની સાથે અમદાવાદમાં જ કર્યું. પરંતુ ચોમાસું પૂરું થયું, એટલામાં રાંદેરમાં મુનિશ્રી રત્નસાગરજી બીમાર થઈ ગયાના ખબર આવ્યા. મણિવિજયજી દાદા હતા તો માત્ર પંન્યાસ જ; પણ આખા સંઘનું હિત એમના હૈયે વસેલું, અને સૌ કોઈની ચિંતા એ કર્યા કરતા. રત્નસાગરજીની માંદગીના સમાચારથી દાદા ચિંતામાં પડી ગયા; પણ માત્ર ચિંતા કરીને કે મોઢાની સહાનુભૂતિ દર્શાવીને બેસી રહે એવા એ પુરુષ ન હતા. એમણે તરત જ મુનિશ્રી સિદ્ધિવિયજીને સુરત પહોંચીને મુનિશ્રી રત્નસાગરજીની સેવામાં હાજર થઈ જવાની આજ્ઞા ફરમાવી. મુનિ સિદ્ધિવિજયજી તાજા જ દીક્ષિત, ગુરૂ ઉપર એમને અપાર પ્રીતિ; અને ગુરૂસેવાની પૂરેપૂરી તમન્ના. વળી મણિવિજયજી દાદાની ઉંમર પણ ૮૨-૮૩ વર્ષની; અને વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે એમની કાયાનો ડુંગર પણ કયારેક ક્યારેક ડોલતો લાગતો હતો. આ પરિસ્થિતિમાં મુ. સિદ્ધિવિજયજીનું મન ગુરૂજીના સાંનિધ્યનો ત્યાગ કરવા કોઈ રીતે ન માને. પણ ગુરૂની આજ્ઞા થઈ, ત્યાં તો છેવટે માસી TWIમવિવારીયા અથવા કુરીવાજ્ઞા યસી, માનીને એને માથે ચઢાવવી જ રહી. મુનિ સિદ્ધિવિજયજી સત્વરે સુરત શ્રીરત્નસાગરજીની સેવામાં પહોંચી ગયા અને એ ચોમાસું સુરત પાસે Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર રાંદેરમાં કર્યું. ભાગ્યયોગે એ ચોમાસામાં જ (આસો સુદિ ૮ મે) પૂ. મણિવિજય દાદા અમદાવાદમાં સ્વર્ગવાસી થયા; અને મુ સિદ્ધિવિજયજીના મનમાં ગુરૂજીનો અંતિમ વિયોગ, ગુરૂ ગૌતમની જેમ અપાર વેદના જગાવી ગયો. એમની ગુરૂસેવાની ભાવના અધૂરી જ રહી ગઈ. આમ છતાં અમદાવાદના ચાતુર્માસ દરમ્યાન, દીક્ષા પછીના છ એક માસ જેટલા ટુંકા ગાળામાં, એમણે ગુરૂજીની એવી સાચા દિલથી સેવા કરી હતી કે આખી જિંદગી ચાલે એવા ગુરૂના આશીર્વાદ મળી ચૂક્યા હતા અને મુનિ સિદ્ધિવિજયજીનું શિષ્યપણું સફળ થયું હતું. શ્રી રત્નસાગરજી મહારાજ કંઈક આકરા સ્વભાવના અને એમાં લાંબા વખતની બિમારી; છતાં મુ. સિદ્ધિવિજયજીએ સમભાવ અને શાંતિપૂર્વક સેવા કરીને એમનું દિલ જીતી લીધેલું. તે એટલે સુધી કે, પછી કોઈ કાંઈ વાત કરવા આવતું તો રત્નસાગરજી મહારાજ એમને મુ. સિદ્ધિવિજય પાસે જ મોકલી આપતા. આ રીતે એમણે રત્નસાગરજી મુ.ની આઠ વર્ષ સુધી ખડે પગે સેવા કરી અને તેઓ એક આદર્શ વૈયાવચ્ચ કરનાર લેખાયા. ૪ વળી સિદ્ધિવિજયજી સુરતમાં હતા એ દરમ્યાન ત્યાંના બીજા કોઈ ઉપાશ્રયમાં એક ખરતરગચ્છના મુનિ બિમાર પડી ગયા. મહારાજશ્રીને આ વાતની ખબર પડી, એટલે પછી એમનો વૈયાવચ્ચપ્રિય આત્મા નિષ્ક્રિય કેમ રહે ? મુ. સિદ્ધિવિજયજીએ એમની સેવાનું કાર્ય પણ ઉપાડી લીધું. એ રોજ સવારે વ્યાખ્યાન વાંચે; પછી પેલા ખરતરગચ્છના મુનિ પાસે જાય, એમની સેવા કરે; એમને ગોચરી વગેરે લાવી આપે; અને પછી ઉપાશ્રયે પાછા આવીને ખરે બપોરે એકાસણું કરે, કેવું ઉગ્ર તપશ્ચરણ ! પૂ. મણિવિજયજી દાદા પોતાની વૃદ્ધ ઉમર છતાં નવદીક્ષિત મુનિ સિદ્ધિવિજયજીને સુરત રત્નસાગરજીની સેવા કરવા માટે રવાના કરે અને મુ. સિદ્ધિવિજયજી પોતાની અનેક જવાબદારીઓ છતાં એક ખરતરગચ્છના બીમાર મુનિની સેવા કરવાનું સ્વીકારે, એ બીના એટલું બતાવવાને બસ થવી જોઈએ તે કાળે સાધુસમુદાયનાં મન કેવાં ભદ્રપરિણામી અને એકબીજાના સુખે સુખી-દુઃખે દુઃખી થવાની ભાવનાથી સુવાસિત હતાં. સુરતમાં મહારાજશ્રીની પ્રેરણાથી એક પાઠશાળા સ્થાપવાનું નક્કી થયું, તો એમણે એની સાથે સદ્ગત મુ. શ્રી રત્નસાગરજીનું નામ જોડ્યું અને એ રીતે પોતાની નિષ્કામવૃત્તિ અને કીર્તિની લોલુપતાનો અભાવ પ્રત્યક્ષ બતાવી આપ્યાં. સુરતમાં રહ્યા તે દરમ્યાન મુ. સિદ્ધિવિજયજી પૂ. આત્મારામજી મહારાજના સંપર્કમાં આવ્યા અને એમની પાસે સૂસિદ્ધાંતનો, ખાસ કરીને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રનો અભ્યાસ કર્યો. બન્ને વચ્ચે ખૂબ પ્રીતિ હતી અને આત્મીયતાનો સંબંધ હતો. પૂ. આત્મારામજી મહારાજ તો એમને ‘છોટા ચાચા' કહીને બોલાવતા. મુ. સિદ્ધિવિજયજીને અભ્યાસની ખૂબ તાલાવેલી. એ માટે એ ગમે તેવી મહેનત કરવાનું અને ગમે તે કષ્ટ સહન કરવાનું ય ન ચૂકે. એકવાર તેઓ છાણીમાં રહેલા. તે કાળે વડોદરા રાજ્યના રાજારામ શાસ્ત્રી સંસ્કૃતના મોટા વિદ્વાન લેખાય. સિદ્ધિવિજયજીને થયું, આવા પંડિત પાસે કાવ્ય અને ન્યાયનો અભ્યાસ કરવાનું મળે તો કેવું સારું ! પણ રહેવું છાણીમાં અને ભણવું વડોદરામાં, એ કેમ બને ? Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૫ * રોજ છ માઈલ જવું અને છ માઈલ આવવું. બાર માઈલની મજલ કરવી અને સાધુજીવનની ક્રિયાઓ સાથે અધ્યયન પણ કરવું. પણ મુનિ સિદ્ધિવિજ્યજીનું સંકલ્પબળ અજેય કિલ્લા જેવું હતું. એમણે સવારે છાણીથી વડોદરા જવાનું, વડોદરામાં પંડિતજીની સગવડ મુજબ અધ્યયન કરવાનું, અને રોજ છાણી પાછા આવવાનું - એ ક્રમ મહિનાઓ સુધી ચાલુ રાખ્યો. સુરત શહેર મહારાજશ્રીનું ખૂબ રાગી. વિ.સં. ૧૯૫૭ ની સાલમાં ભારે ઉત્સવપૂર્વક એમને સુરતમાં પૂ.પં. શ્રી ચતુરવિજયજીના હસ્તે પંન્યાસ પદવી આપવામાં આવી. આ વખતે પંદર હજાર જેટલી જૈનોની મેદની એકત્ર થઈ હતી, જેમાં દૂર દૂરના શહેરોના જૈન આગેવાનો પણ આવ્યા હતા. એક મહિના સુધી આ ઉત્સવ નિમિત્તે જમણવારો થયા હતા અને તે સમયે એક લાખ રૂપિયાનું ખર્ચ થયું હતું. જે આજે પાંચ લાખ જેટલું ગણાય. એમનો કંઠ ખૂબ મધુર, ભલભલાને મોહી લે એવો. એમનું વ્યાખ્યાન પણ એવું જ આકર્ષક. એમની વાણી સાંભળી સૌ રાજી રાજી થઈ જાય. વિ.સં. ૧૯૭૫ ની સાલમાં વસંતપંચમીના દિવસે મહેસાણામાં એમને આચાર્ય પદવી આપવામાં આવી હતી. જ્ઞાનોપાસના તો જાણે એમના જીવનનું અંગ જ બની ગઈ હતી. એક બાજુ ઉગ્ર અને દીર્ઘ તપસ્યા અને બીજી બાજુ સતત જ્ઞાન સાધના. બાહ્ય અને અત્યંતર તપનો એક જ જીવનમાં આટલો સુમેળ વિરલ ગણાય. પ્રાચીન ધર્મપુસ્તકો હાથે લખાવવાં એ એમની પ્રિયમાં પ્રિય પ્રવૃત્તિ. ગામપરગામના અનેક લહિઆઓ પાસે આવાં પુસ્તકો લખાવે અને એ લખાઈ રહ્યા પછી એકધારા પીઠફલકના આધાર વગર, કલાકોના કલાકો સુધી બેસીને પ્રાચીન મૂળ પ્રતોના આધારે એનું સંશોધન કરે. એમાં કલાકો વીતી જાય તોયે એ ન થાકે, કે ન કંટાળે. પ્રતો લખવા-સુધારવાનાં સાધનો કલમ, શાહી, હડતાલ, વગેરે એમની પાસે પડ્યાં જ હોય. આ માટે એક ઊંચી ખાસ ઘોડી કરાવેલી, તે આજે પણ બાપજી મહારાજની જ્ઞાનસેવાની સાખ પૂરે છે. શાસ્ત્રસંશોધનનું આ કાર્ય છેક ૯૦ વર્ષની ઉમર સુધી, આંખોએ કામ આપ્યું ત્યાં સુધી, તેઓ અવિરતપણે કરતા રહ્યા. આ જ રીતે એમણે જપ, ધ્યાન અને યોગનો (હઠ યોગનો) પણ અભ્યાસ કરેલો. કદાચ એમ કહી શકાય કે એમનું સ્વાસ્થ આટલું સારુરું હતું, એમાં હઠયોગનો પણ કંઈક હિસ્સો હશે. જ્યારે શાસ્ત્રસંશોધનનું કામ થઈ શકે એમ ન હોય ત્યારે તેઓ પોતાના મનને જપ કે ધ્યાનના માર્ગે વાળી લેતા. વળી ઉગ્ર અને દીર્ઘ તપસ્યાને માટે તો બાપજીનું જીવન એક આદર્શ સમું થઈ ગયું હતું. ૧૯૫૭ ની સાલથી તેઓ ચોમાસામાં હંમેશાં એકાંતરે ઉપવાસનું ચોમાસી તપ કરતા હતા અને બહોંતેર વર્ષની ઉમરથી તે છેક અંત સમય સુધી ૩૩ વર્ષ લગી એમણે એકાંતરે ઉપવાસનું વાર્ષિક તપ સતત ચાલુ રાખ્યું હતું. આમાં ક્યારેક બે કે ત્રણ ઉપવાસ પણ કરવા પડતા અને ક્યારેક ૧૦૫ ડીગ્રી જેટલો તાવ આવી જતો તો પણ એ તપમાં ભંગ ન થતો. એમનું આયંબિલ પણ અસ્વાદ વ્રતના નમુનારૂપ થતું. મૂળે તો આંબેલની વસ્તુઓ જ સ્વાદ વગરની અને લૂખી-સુકી હોય. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજ્યસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર આટલા ઉગ્ર અને દીર્ઘ તપસ્વી છતાં તેઓ કદી ક્રોધને વશ નહોતા થતા. હંમેશા સમતાભાવ ધારણ કરતા હતા એ વાત એમના તપસ્વી જીવન પ્રત્યે વિશેષ આદર ઉત્પન્ન કરે એવી છે. બહુ નારાજ થતા ત્યારે તેઓ દુઃખ સાથે માત્ર આટલું જ કહેતા : ‘હત, તારું ભલું થાય !” પણ સમતા અને લાગણીથી ભરેલા આટલા શબ્દો પણ કોઈની લાગણીને સ્પર્શી જવા બસ થઈ પડતા. એમનો એક મુદ્રાલેખ હતો કે મનને જરાય નવરું પડવા ન દેવું, કે જેથી એ નખ્ખોદ વાળવાનું તોફાન કરી બેસે. એમની તપ, જપ, ધ્યાન, સ્વાધ્યાય અને યોગની બધીય પ્રવૃત્તિઓ પાછળ આ આત્મજાગૃતિ જ સતત કામ કરતી રહી છે. આવી અપ્રમત્તતાનો પાઠ શીખવાની બહુ જરૂર લેખાય. એમના હાથે અનેક પ્રતિષ્ઠાઓ અને અંજનશલાકાઓ થઈ છે અને ભાઈ-બહેનોની દીક્ષાઓ તો એમના હાથે સેકડોની સંખ્યામાં થઈ છે. આમ છથાં એમનો પોતાનો શિષ્ય સમુદાય ચાલીશેક સાધુઓનો જ છે, એ બીના એમ બતાવે છે કે તેઓ શિષ્યમોહમાં ફસાયા ન હતા. એમને તો ફક્ત એટલાથી જ સંતોષ અને આનંદ થતો કે અમુક ભાઈ કે બહેનને ધર્મબોધ થયો છે, ભલે પછી એ ગમે તેનાં શિષ્ય-શિષ્યા બને. શિષ્ય માટેની આવી નિરીહવૃત્તિ સાચે જ વિરલ ગણાય. શિષ્યો પ્રત્યે વાત્સલ્ય પણ એમને બહુ. જે કોઈને અભ્યાસ કરવો હોય, એને માટે જોઈતી બધી જ સગવડની ચિંતા તેઓ રાખે. પોતાના જીવનને તો એ પૂર્ણ સ્વાશ્રયી રાખવા જ પ્રયત્ન કરતા. બને તેટલી બીજાની ઓછી સેવા લેવી પડે, એ રીતે એમણે એમના જીવનને કેળવ્યું હતું. પોતાના ગુરૂને એ કદી પણ ન વિસરી શકતા. ૧૯૫૯ ની સાલમાં સાણંદમાં પૂ. મણિવિજયજી દાદાની મૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા થઈ અને પૂ. બાપજી તે વખતે ન જઈ શક્યા તો છેવટે બિમારી અને સખત તાપ હોવા છતાં વિહાર કરીને સાણંદ જઈને ગુરૂપૂર્તિનાં દર્શન કર્યા ત્યારે જ એમને સંતોષ થયો. અને એક અજબ વાત તો જુઓ; વીશેક વર્ષ પહેલાંની આ વાત છે. અમદાવાદના રાજમાર્ગ ઉપર એક વયોવૃદ્ધ સાધુ, બાળક પા-પા ડગલી માંડે એમ, થોડું થોડું ચાલવાનો પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે. એમના દીલમાં ૮૫ વર્ષની જેઈફ ઉંમરે ગિરનાર અને શત્રુંજ્યના પહાડો ચઢીને ત્યાં બિરાજતા દેવાધિદેવનાં દર્શન કરવાના કોડ જાગે છે. એ પૂ. બાપજી, એ ઉંમરે ધીમી ધીમી મજલ કાપીને, ડોળીની મદદ લીધા વગર, એ બન્ને ગિરિરાજોની યાત્રા કરીને પાછા ફર્યા. કોઈએ પાલીતાણામાં ચોમાસું કરવાનું સૂચન કર્યું તો, આટલી ઉંમરે ગિરિરાજની સ્પર્શના મુશ્કેલ અને તીર્થભૂમિની નિરર્થક આશાતના થાય, એ માટે એમણે એનો ઈન્કાર કર્યો. આટલી વૃદ્ધ ઉમરે આટલી જાગૃતિ સૌ કોઈને નમન કરવા પ્રેરે એવી છે. એમની દીક્ષા બાદ પાંચેક વર્ષે એમનાં પત્ની, સાસુ અને સાળાએ પણ દીક્ષા લીધી હતી. એમનાં પત્નીનું નામ ચંદન શ્રીજી રાખ્યું હતું. તેઓનો પણ આજે ત્રણસો જેટલો સાધ્વીપરિવાર છે. વખતને સાચવવામાં પણ બાપજી પૂરા ખબરદાર, નક્કી સમયે નિણત કામ થવું જ જોઈએ. ક્યાંક પૂજામાં જવાનું હોય, અને સામો વખતસર તેડવા ન આવે તો, આચાર્ય હોવા છતાં તેઓ વખતસર Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૭. રવાના થઈ જ ગયા હોય. આત્મસાધકને કાળક્ષેપ કરવો કેમ પાલવે ? મેં પૂ. બાપજીના સમુદાયના જાણીતા વિદ્વાન શ્રી જંબૂવિજયજી મહારાજ તથા અન્ય મુનિરાજ પાસે એમનું ચરિત્ર હોય તો તેની માગણી કરી; તો મને કહેવામાં આવ્યું કે 'પૂ. મણિવિજયજી દાદાના જીવનચરિત્રમાં બાપજીના જીવન સંબંધી કેટલીક માહીતી બે પાનામાં આપવામાં આવી છે, તે સિવાય બીજું કંઈ સાહિત્ય અમારી પાસે નથી.” આ સાંભળીને બાપજીની કીર્તિ પ્રત્યેની નિષ્કામતાની મન ઉપર ભારે અસર થઈ. આપણા પ્રાચીન જ્યોતિર્ધર મહાપુરુષોએ પોતાના જીવનની હકીકતો સાચવી ન રાખી, એ સામે આજના ઈતિહાસકારોની ભારે ફરિયાદ છે. પણ જે આત્મસાધના માટે નીકળ્યા હોય તે પોતાની કીર્તિને સાચવવાની શી ખેવના કરે? તેઓ તો પોતાની જાતને નામનાથી દૂર રાખવામાં જ કૃતાર્થતા માનતા હોય છે. પૂ. બાપજી મહારાજ આવા જ એક કીર્તિના નિષ્કામી પુરુષ હતા. પૂ. બાપજી તો હવે ચાલ્યા ગયા છે; પણ એમના અનેક સગુણો આપણને આપતા ગયા છે એમાનાં બને તેટલા સદ્ગણોના સ્વીકારમાં જ એમનું સાચું સ્મરણ રહેલું છે. કીર્તિની કામનાથી મુક્ત એવા વયોવૃદ્ધ અને તપોવૃદ્ધ બાપજી મહારાજના આત્માને વારંવાર ભાવપૂર્વક વંદના કરીએ.” - રતિલાલ દીપચંદ દેસાઈ અંતિમ ચોમાસું અને સ્વર્ગવાસ સૂર્યાસ્ત પહેલાં ખંતીલો વેપારી દુકાન સમેટે તેમ સં. ૨૦૧૫ ના ચાતુર્માસમાં પૂ. બાપજી પ્રવૃત્તિમાંથી નિવૃત્તિ તરફ ઢળ્યા. અનાદિ અભ્યાસથી જીવને પ્રવૃત્તિ દુષ્કર નથી, નિવૃત્તિમાં મનને વશ કરવું પડે છે, તેથી સંતો જ નિવૃત્તિને વરી શકે છે. પૂર્વ સંકેતની જેમ તેઓના નિશ્રાવત સર્વ સાધુઓ પણ આ વર્ષે અમદાવાદમાં ચોમાસું હતા. ચોમાસાના પ્રારંભમાં ત્રણસો ભાવુકોને નવકારના તપમાં જોડ્યા, પછી બારસો જેટલા આત્માઓને એક દિવસમાં સવાક્રોડનો અરિહંત પદનો જપ કરાવ્યો, પર્યુષણ પહેલાં છઠ અઠમ કરી લીધા, પુનઃ વડાકલ્પનો છઠ કર્યો, પ્રતિવર્ષે જન્મસૂત્રનું વ્યાખ્યાન સંભળાવતા, પણ આ વર્ષે વિવેચનપૂર્વક વિસ્તારથી સંભળાવ્યું. સંવત્સરી દિવસે સવારે વ્યાખ્યાન પીઠે પધારીને સ્વસ્થપણે બે કલાક બારસાસૂત્ર સાંભળ્યું અને સાંજનું પ્રતિક્રમણ પંદરસો જેટલા શ્રાવકોની સાથે સવા ત્રણ કલાક સ્વસ્થ બેસીને કર્યું, એમ છેલ્લી ક્ષમાપના કરી અને કરાવી. જાણે “આ બધું છેલ્લું છે” એમ સમજી ગયા ન હોય! બાપજીની નિશ્રામાં પ્રતિક્રમણ એટલે શાન્તિનો આનંદ. દૂરદૂર રહેનારા ભાવુકો ખેંચાઈને વિદ્યાશાળાએ આવે અને “બાપજીની નિશ્રામાં એક પ્રતિક્રમણ કરવાથી સઘળાં પાપ છૂટી જાય” એવી શ્રદ્ધા ધરાવે. એમ આ વર્ષે અપ્રમત્તભાવે પર્યુષણાની આરાધના કરી ખૂબ હળવા થયા. ભાદરવા સુદ ૮ થી ચાર દિવસ સામાન્ય શરદી થઈ, પુનઃ દશેક દિવસ સારા ગયા, પણ અલ્પાહાર-અણાહારથી ઉત્તરોત્તર અશક્તિ વધતી ગઈ. વદ ૧૧ વધારે અશક્ત જણાયા, પણ વૈદ્ય Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ડોક્ટરોએ તપાસીને કહ્યું, ‘અશક્તિ સિવાય કંઈ નથી.’ પુનઃ વદ ૧૨-૧૩ સ્વસ્થ રહ્યા અને વદી ૧૪ તો સારી સ્વસ્થતા આવી. ઉપવાસ પણ ચોવિહારો કર્યો, સૌને પચ્ચકખાણ ઉચ્ચરાવે, વાતચિત કરે, વાસક્ષેપ કરે, પૂછી વાતના પ્રત્યુત્તરો આપે, કોઈ ન સમજી શકે કે આજે જરા પણ અસ્વસ્થ છે. નિત્યનિયમ પ્રમાણે રાત્રે અઢી કલાક ૫ અને સવારનું પ્રતિક્રમણ પડિલેહણાદિ પણ સારી રીતે કરેલું, એમ સાડા અગીઆર વાગ્યા પછી સવા કલાક નિદ્રા લીધી, એક વાગતાં જાગ્યા અને પ્રતિલિખિત સંથારામાં દેહ છોડવાની ભાવના હોય એમ પ્રતિલેખન કરાવ્યું. અધોવસ્ત્ર બદલ્યું, પણ બેસી ન શક્યા તેથી સુવાડ્યા. બસ, એ સુતા તે સુતા. નેત્રો મીંચ્યા અને સમાધિ લીધી હોય તેમ મૌન કર્યું. પાસેના સાધુઓ મુંઝાયા અને શ્રીનવકારમંત્ર સંભળાવવા માંડ્યો. પગથીયાના ઉપાશ્રયેથી પણ પૂ. મનોહરસૂરિજી મહારાજ વગેરે સૌ આવી ગયા અને થોડી મિનિટો પછી છેલ્લો શ્વાસ પૂરો થયો. મુખ પ્રસન્ન, નહિ કોઈ વિકાર, ન થયો કોઈ અવયવ લાંબો ટૂંકો, ડોક્ટરો દોડી આવ્યા, પણ તે પહેલાં તો જીવનદીપ બૂઝાઈ ગયો હતો. વાયુવેગે શહેરમાં સમાચાર ફેલાયા અને વ્યાપાર-રોજગાર ટપોટપ બંધ કરી હજારો ભાવુકો દોડી આવ્યા. કોલ દ્વારા બહારગામ પણ ચારે બાજુ સમાચાર પહોંચી ગયા. પછી તો દર્શનાર્થે ઉમટેલા માનવગણને પોળમાં પેસવું-નીકળવું પણ મુશ્કેલ થયું. રાત સુધી બે લાખ જેટલા લોકો દર્શનાર્થે આવ્યા અને ગયા. વદિ ના સાડા નવ વાગતાં સ્મશાનયાત્રા કાઢવાનું નક્કી થયું અને તે માટે તૈયારીઓ ચાલુ થઈ. સ્મશાનયાત્રાનું દશ્ય તો જોયું હોય તે જ સમજે. શેઠ આણંદજી કલ્યાણજીની પેઢીના સર્વ સ્થાનિક પ્રતિનિધિઓ વગેરે શહેરના અગ્રગણ્ય સર્વ શ્રાવકો અને બહારગામથી આવેલા ભાવુકો સહિત હજારો માનવોથી રસ્તા ઉભરાયા. કોઈ બીમાર કે પરદેશ ગયેલો જ બાકી રહ્યો હશે. સૌના મુખ ઉપર નિષ્પક્ષ ભક્તિભાવ અને વિરહની અસીમ વેદના. પચાસ હજાર માણસોની મેદનીમાં બાપજીની પાલખી સમુદ્રમાં નાવ તરે તેમ તરતી ચાલી. લાખો સ્ત્રી પુરુષો આખા રસ્તે મેડી માળે જાળીએ અને અટારીએ ચઢી દર્શન કરી કૃતાર્થ થયાં, કોણ જૈન કે કોણ જૈનેતર ! સૌને એક સરખાં આકર્ષણ. સઘળા રસ્તે વાહન વ્યવહાર ખોટવાઈ ગયો. સરકારી પોલીસ ખાતું વ્યવસ્થા માટે છેક સુધી હાજર રહ્યું, પોલીસ ઈન્સ્પેક્ટરે પણ પાલખી ઉપાડીને હર્ષ માન્યો, જગન્નાથજીના મહંત શ્રી નરસિંહદાસજીએ પોતાના આશ્રમે સ્મશાનયાત્રા રોકી, નમસ્કાર કરી ચાદરની ભેટ કરી અને વયથી સમોવડીયા વૃદ્ધ પુરુષની વિદાયનું દુઃખ વ્યક્ત કર્યું. સવા વાગતાં ઝવેરી માણેકલાલ મોહોલાલે અગ્નિસંસ્કાર માટે ભેટ આપેલી નિયત ભૂમિએ પહોંચ્યા અને ચંદનચયમાં પાલખી પધરાવી. રાણપુરના શ્રાવક નરોતમદાસ મોદીએ રડતી આંખે પ્રથમ અગ્નિસંસ્કારનો લ્હાવો લીધો. અનુક્રમે લાખો હૈયાંને ચોધાર રડતાં મૂકી પૂ. બાપજીનો દેહ અગ્નિમાં અદશ્ય થઈ ગયો. આ બાજુ વિદ્યાશાળાએ સર્વ ઉપાશ્રયોથી પૂ. આચાર્યો, પંન્યાસો તથા મુનિવરો પધાર્યા અને ચતુર્વિધ સંઘની મોટી હાજરીમાં સૌએ દેવવંદનની ક્રિયા કરી, “શ્રીસંઘને કટોકટીના સમયે એક યોગ્ય આગેવાનની ખોટ પડી” એવા ઉદ્દગારો ઉચ્ચારીને સૌ તેઓના ગુણોની પ્રશંસા કરીને વિખરાયા. સ્મશાનયાત્રાનું કાર્ય વિધિપૂર્વક પૂર્ણ કરીને સાંજે શ્રાવક ઉપાશ્રયે આવ્યા, તેઓને પણ માંગલિક Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૯ - સંભળાવ્યું, પછી તો મુંબઈ, પાલીતાણા, સુરત, ખંભાત વગેરે અનેક શહેરોના અને ગામોના ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, મહારાષ્ટ્ર, મદ્રાસ, બંગાળ, પંજાબ, મેવાડ, માવળા વગેરે દેશોમાંથી વિરહવેદનાના ઠરાવો, ભક્તિનિમિત્તે મહોત્સવો વગેરે જણાવતા સંખ્યાબંધ તારો અને કાગળો આવવા લાગ્યા. અમદાવાદમાં પણ અનેક સ્થળે મહોત્સવો શરૂ થયા, પૂર્ણ થયા, અદ્યાપિ ચાલુ છે અને બીજા ચાલુ થવાના નિશ્ચય થયા છે. વિદ્યાશાળામાં પણ વિવિધ રચનાપૂર્વકના એક મોટા મહોત્સવની તૈયારી ચાલુ થઈ ગઈ છે. એમ એક શતાબ્દીનું સામ્રાજ્ય ભોગવીને ભવ્ય જીવોના યોગક્ષેમને કરતા પરોપકારી પૂ. ગુરૂદેવ ચાલ્યા ગયા. સંઘમાં ખાલી પડેલું તેઓનું સ્થાન શાસનદેવની કૃપાયે પૂરાય અને ભવ્ય જીવો પ્રભુ શાસનની નિર્મળ આરાધના કરી જીવનને ધન્ય કરે, એજ અભિલાષા. - મુ. ભદ્રંકરવિજય* આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબનો ઉપકાર અને પરિચય (**લેખક-વાગડદેશોદ્ધારક પૂ. આચાર્યદેવ શ્રી વિજ્યકનકસૂરીશ્વરજી મહારાજ) પૂ.પા. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજ્યસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી મહારાજ સાહેબના દર્શનનો પ્રથમ લાભ સં. ૧૯૬૧માં ભોંયણી તીર્થ મુકામે શેઠ શનાભાઈના ઉજમણા વખતે મલ્યો. તેઓશ્રીની સાથે તારંગાજીની યાત્રા કરી અને એ વર્ષનું ચોમાસું પૂજ્યશ્રીનું પાલીતાણા થતાં તેઓશ્રીની સાથે કર્યું. ચાતુર્માસ પછી માગશર સુ. ૧૫ ના મારી દીક્ષા થઈ. પૂ. શ્રી છાણી તરફ પધાર્યા. અમે ત્યાં ગયા અને યોગ કરાવી તેઓશ્રીએ ૧૯૬૨ના મહા વદ ૨ ના વડી દીક્ષા આપી. બાદ ભરૂચની વિનંતી આવતાં મને મુનિશ્રી ધીરવિજ્યજી તથા મુનિશ્રી રંગવિજ્યજી સાથે ત્યાં પં. શેઠ અનુપચંદભાઈ પાસે અભ્યાસ માટે મોકલ્યા, પોતે ઈન્દોરની વિનંતિ આવતાં ત્યાં પધાર્યા. ચોમાસા પછી તેઓશ્રીને ઉજ્જૈનમાં વંદન કર્યા, ૧૯૬૩નું ચોમાસું તેઓશ્રી સાથે રતલામ કર્યું. રતલામમાં સાહેબજીએ ૮૪ દિવસનું મૌન કરી સૂરિમંત્રની આરાધના કરી, ચાતુર્માસ ઉતર્યો કેશરીઆજીની યાત્રાએ પધાર્યા હતા. સં. ૧૯૬૪ના ચાતુર્માસ પછી ઉમતામાં દર્શન કર્યા ત્યાંથી સાહેબની સાથે ભોયણીજી દર્શન કરી મુનિશ્રી મેઘવિજયજી મહારાજ સાથે અમદાવાદ ચોમાસુ મોકલ્યા અને તેઓશ્રીએ ૧૯૬૫નું ચોમાસું મહેસાણા કર્યું. ૧૯૬૬નું ચોમાસુ ભરૂચમાં થયું ત્યાં તેઓશ્રીના હસ્તે આચારાંગ-કલ્પસૂત્ર-નન્દી-અનુયોગદ્વારના જોગ થયા. સં. ૧૯૬૮માં તેઓશ્રીની આજ્ઞાથી અમે મુનિશ્રી તિલકવિજયજી તથા કલ્યાણવિજયજી ત્રણે જોગ કરાવવા છાણી તેઓશ્રી પાસે આવ્યા. ત્યાં ત્રણ મુનિઓની વડી દીક્ષા થઈ. * મંગળદાસ મગનલાલ શાહ સાણંદવાળા (હાલ-અમદાવાદ)એ પ્રકાશિત કરેલી પુસ્તિકામાં આ બધું છપાયેલું છે. તેમાંથી અહીં ઉદ્ભૂત કરેલું છે. ** જામનગરથી તા. ૧૫-૧૨-૧૯૫૯ના પ્રકાશિત થયેલા શ્રી મહાવીર શાસન' પત્રના પૂ.આ.શ્રીમદ્વિજયસિધ્ધિસૂરીશ્વરજી મ. સ્મૃતિ વિશેષાંકમાંથી આ લેખ તથા ચાતુમાસની યાદી ઉદ્ધત કરેલા છે. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર સં. ૧૯૭૫માં મહેસાણામાં તેઓશ્રીની આચાર્ય પદવી વખતે તેઓશ્રીની આજ્ઞાથી અમારે જવાનું થયું. મહા સુદ પના પદવી થઈ હતી, બાદ વિહાર કરી ચૈત્ર સુ. ૧૩ના પાલીતાણામાં પ્રવેશ થયો હતો. ત્યાં સુયગડાંગ, ઠાણાંગ, સમવાયાંગના જોગ કરાવી તેઓશ્રીએ અષાડ સુદ ૩ના ભગવતીજીના જોગમાં પ્રવેશ કરાવેલ. સં. ૧૯૭૬ના કારતક વદ ૫ ના ગણિ-પન્યાસપદવી તેઓશ્રીના હસ્તે થઈ. તે વખતે પાલીતાણામાં તેઓશ્રીની નિશ્રામાં ઉપધાન થયાં હતાં અને માળ પણ તેજ દિવસે હતી. લોદ્રાણીવાલા મેતા રૂપશીભાઈને ક્ષમાવિજયજીના નામે મારા નામની દીક્ષા આપી હતી. સં. ૧૯૮૫માં મહા સુદમાં તેઓશ્રીને વંદન કરવા ગયા હતા ત્યારે અમોને, પંન્યાસજી મનોહરવિજયજી તથા પન્યાસ માણેકસાગરજી ત્રણેને તેઓશ્રીજીએ તથા સાગરજી મહારાજે ઉપાધ્યાય પદવી આપી. ૧૯૮૮નું ચોમાસું અમદાવાદ પગથીયાના ઉપાશ્રયે કર્યું અને ૧૯૮૯ પોષ વદ ૭ના તેઓશ્રીના વરદ હસ્તે અમોને હાજા પટેલની પોળમાં વીશા શ્રીમાળી નાતની વાડીમાં આચાર્ય પદવી આપી કનકસૂરિજી તરીકે જાહેર કર્યા. તે ચોમાસામાં મુનિ ક્ષમાવિજયજી, કાન્તિવિજયજીને મહાનિશીથ અને મુનિ દીપવિજયજીને ઉતરાધ્યયનથી અનુયોગદ્વાર સુધી યોગ વહન તેઓશ્રીની નિશ્રામાં થયા. ૧૯૯૬નું ચોમાસું સાહેબજીની નિશ્રામાં વિદ્યાશાળામાં કર્યું હતું. શ્રીકંચનવિજયજીને કલ્પસૂત્રના યોગ કરાવ્યા હતા. ૧૯૯૯માં અમોને શાહપુર-અમદાવાદ ચાતુર્માસ માટે મોકલ્યા હતા, શ્રી કંચનવિજયજીને વિદ્યાશાળાએ રાખી મહાનિશીથના જોગ કરાવ્યા હતા. સં. ૨૦૭૦, ૨૦૦૬, ૨૦૦૯નાં ચોમાસાં અમદાવાદમાં તેઓશ્રીની નિશ્રામાં કયાં ૨૦૦૦માં મુનિશ્રી દીપવિજયજીને વ્યાખ્યાન માટે બે વર્ષ રાખ્યા બાદ મુનિ કંચનવિજયજીને રોકયા હતા. બીજે ચોમાસે આ. વિજયરામચન્દ્રસૂરીજી મહારાજનો વિદ્યાશાળામાં વ્યાખ્યાનનો લાભ મળતાં કંચનવિજયજીને સોસાયટીમાં મોકલેલ, બાદ પણ બે વર્ષ રાખેલા. તેઓશ્રીના પરિચયથી અમને તેઓશ્રીના અનેકાઅનેક ગુણ જોવા મળ્યા છે. તેઓશ્રીએ ઉપધાન ઊજમણા મુનિવરોને યોગવહન આદિ અનેક ઉપકારો કરેલ છે. તેઓશ્રીના સ્વર્ગવાસથી સંઘમાં મોટી ખોટ પડી છે. તેઓશ્રીને અમારા કોટિ વંદન હો. તેઓશ્રીજી શાશ્વત સુખ પામો એજ શુભ ભાવના. પૂ.બાપજી મ.ની ચાતુર્માસની યાદી સંવત સ્થળ | સંવત સ્થળ પસંવત સ્થળ સંવત સ્થળ ૧૯૩૪ અમદાવાદ | ૧૯૫૨-૫૩ છાણી ૧૯૬૫ મહેસાણા ૧૯૭૯-૮૦ અમદાવાદ ૧૯૩૫ રાંદેર ૧૯૫૪ ખેરાળુ ૧૯૬૬-૬૭ ભરૂચ ૧૯૮૧ સાણંદ ૧૯૩૬-૪૩ સુરત ૧૯૫૫ સુરત(?) |૧૯૬૮-૬૯ છાણી ૧૯૮૨ વડનગર ૧૯૪૪ પાલીતાણા ૧૯૫૬-૫૭ સુરત |૧૯૭૦-૭૧ ભરૂચ ૧૯૮૩ મહેસાણા ૧૯૪૫ ૧૯૫૮ રતલામ |૧૯૭૨ છાણી ૧૯૮૪ પાટણ ૧૯૪૬ અમદાવાદ ૧૯૫૯ પાટડી ૧૯૭૩ અમદાવાદ ૧૯૮૫-૮૬ અમદાવાદ १८४७ પાલીતાણા ૧૯૬૦ અમદાવાદ[૧૯૭૪ મહેસાણા ૧૯૮૭ પાટણ ૧૯૪૮ વિરમગામ ૧૯૬૧ પાલીતાણા ૧૯૭૫ પાલીતાણા ૧૯૮૮-૯૦ અમદાવાદ ૧૯૪૯ ઊંઝા ૧૯૬૨ ઈન્દોર ,૧૯૭૬ રામપુરા ૧૯૯૧ સાણંદ ૧૯૫૦ ભરૂચ ૧૯૬૩ રતલામ | |૧૯૭૭ અમદાવાદ ૧૯૯૨-૯૩ અમદાવાદ ૧૯૫૧ વડોદરા ૧૯૬૪ સાદડી | |૧૯૭૮ સાણંદ ૧૯૯૪ સાણંદ ૧૯૯૫-૨૦૧૫ અમદાવાદ ભરૂચ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વત આચાર્યમહારાજશ્રીમદ્વિજય મેધસૂરીશ્વરજી महारानुं *संक्षिप्त अवनयरित्र (જીવનકાલ-વિક્રમસંવત્ ૧૯૩૨ માગશીર્ષ સુદિ ૮ થી વિક્રમ સં. ૧૯૯૯ આસો સુદિ ૧) नत्वा श्रीपार्श्वशङ्खशं ध्यात्वा गुरुं गुणाकरम् ।। स्मृत्वाऽऽर्हतीं गिरां वच्मि किञ्चिद् गुरुगुणानहम् ॥१॥ જન્મભૂમિ - ભારતભૂમિનો ઈતિહાસ અનેક ઉત્તમ દેશ કાળ વિગેરેથી વિભૂષિત છે. ભારતભૂમિના ઈતિહાસમાં ગુર્જર દેશનું સ્થાન પણ અનેક રીતે ચઢિયાતું છે. કલિકાલસર્વજ્ઞશ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય અને જગદ્ગુરૂ શ્રી વિજયહીરસૂરિજી જેવા સાધુપુરુષોને, કુમારપાલાદિ જેવા ન્યાયી અને જીવદયાપ્રતિપાલક રાજવીઓને, વસ્તુપાલ-તેજપાલ જેવા બુદ્ધિનિધાન અનેક મંત્રીઓને, અને જગડુશાહ જેવા જગ પ્રસિદ્ધ અનેક દાનવીરોને પકાવવાનું માન ગુજરાતને ઘટે છે. એ ગુજરાતના દક્ષિણ વિભાગમાં રાંદેર નામે પ્રસિદ્ધ શહેર છે. તાપી નદીના તીરે રહેલું રાંદેર એક મહાન બંદર હતું. પ્રાચીન ભવ્ય છ જિનમંદિરો, વિશાળ ઉપાશ્રયો અને એવાં બીજાં ધર્મસ્થાનોથી આજે પણ આ નગર વિભૂષિત છે. જે મહાત્માનું જીવન આપણે જોવાનું છે. તે પૂ૦ શ્રી વિજય મેઘસૂરિજી મહારાજની પણ જન્મભૂમિ તરીકે આ રાંદેર યશવંતું છે. અનેક પુણ્ય પવિત્ર આત્માઓના નિવાસસ્થાન શ્રી રાંદેર બંદરમાં જૈનધર્મનાં આરાધક પુણ્યવંત જયચંદભાઈ અને જમનાબાઈ નામે સંસ્કારી અને ધર્મિષ્ઠ શ્રાવક-શ્રાવિકા વસતાં હતાં. જમનાબાઈની કુક્ષિથી ક્રમશઃ હીરાકોર અને નંદકોર નામે બે પુત્રીઓનો જન્મ થયો. કાલક્રમે પુનઃ પણ જમનાબાઈની કુક્ષિમાં એક પુણ્યાત્માએ અવતાર લીધો. વિક્રમની વીસમી સદીનું એ બત્રીસમું વર્ષ હતું. મૃગશીર્ષ માસ અને સુદ ૮ જેવી પુણ્યતિથિએ જમનાબાઈએ ઉત્તમપુત્રને જન્મ આપ્યો. જન્મકાલે મૂળ નક્ષત્ર સાથે ચંદ્રનો યોગ હોવાથી શુભમુહૂર્તે પુત્રનું મૂલચંદ નામ સ્થાપ્યું. મૂલચંદભાઈ પાંચ વર્ષના થયા ત્યાં તો એકાએક જયચંદશેઠ કાલધર્મ પામ્યા. શ્રાટ જમનાબાઈને સખત આઘાત લાગ્યો. યોગ્ય ઉમ્મરે મૂલચંદભાઈને વિદ્યાભ્યાસ શરૂ કરાવ્યો. આઠ વર્ષની ઉમ્મર થઈ ત્યાં તો જમનાબાઈ પણ કાળધર્મ પામ્યાં. પૂર્વે નહિ કલ્પલો એવો તેઓને એકાએક માતા પિતાનો વિરહ થયો. ઘરમાં બે બહેનો અને મૂલચંદભાઈ ત્રણ જ રહ્યાં. માતૃપક્ષના સંબંધી તરીકે તેઓનાં માસીબા અમથી બહેન તેઓ પ્રત્યે સગી માતા જેટલું વાત્સલ્ય ધરાવતાં હતાં. તેઓની પ્રેરણાથી મૂલચંદભાઈને તેઓના (માસીના) પુત્ર પ્રાણજીવનદાસ કપૂરચંદ પોતાના * પૂ.આ.મ.શ્રી વિજ્ય મનોહરસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્ય પૂ.મુ.શ્રી ભદ્રંકરવિજયજી મહારાજે (વર્તમાનમાંઆ.મ.શ્રી વિજયભદ્રંકરસૂરીશ્વરજી મહારાજે) વિ.સં. ૨૦૧૨ માં “સ્વર્ગત આચાર્ય મહારાજ શ્રીમદ્વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું જીવનચરિત્ર' એ નામની લઘુ પુસ્તિકા (૩૮ પાનાંની) લખેલી છે. અને તે શા.ચંદ્રકાન્તભાઈ બકુભાઈ તરફથી પ્રકાશિત થયેલી છે. શરૂઆતમાં કેટલાક વર્ણનાત્મક ભાગ સંક્ષેપીને તે જ પુસ્તિકાનું લખાણ અહીં અક્ષરશઃ આપવામાં આવ્યું છે. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર વતન ભગવામોર લઈ ગયા. મૂલચંદભાઈએ આગળનો અભ્યાસ ત્યાં શરૂ કર્યો. જ્ઞાનાભ્યાસ અને જ્ઞાનદાન તેઓનું જીવનધ્યેય બની ગયું. ભગવામોરમાં સાત ગુજરાતી ધોરણો પસાર કરી વિશેષ અભ્યાસ માટે સુરત આવ્યા. અને ત્યાં થર્ડગ્રેડની (શાલાંત) પરીક્ષા આપી. ત્યાંથી અમદાવાદ જઈ પ્રેમચંદ રાયચંદ ટ્રેનિંગ કોલેજમાં ત્રણ વર્ષ અભ્યાસ કરી વીસ વર્ષની ઉમ્મરે સીનીયર થયા; અર્થાત્ ઉપરી શિક્ષક (હેડ માસ્તર) ની પરીક્ષામાં સફળ થયા. આ અભ્યાસ કરવામાં મૂલચંદભાઈનો ઉદ્દેશ કેવળ અર્થ ઉપાર્જન કરવાનો જ ન હતો; કિન્તુ ન્યાય માર્ગે નિષ્પાપ સ્વાશ્રયી જીવન જીવવાનો ઉદાર આશય પણ હતો. વિદ્યાદાનની કળા તેઓએ હસ્તગત કરી હતી. એ કળાએ ગૃહસ્થાવસ્થામાં તો અનેક જીવોને ઉપકાર કર્યો, પણ સાધુજીવનમાં ય સાધુ-શ્રાવકોને ઘણો ઉપકાર કર્યો. મંદબુદ્ધિવાળાઓને પણ તેઓશ્રી ગંભીર અને તાત્ત્વિક વિષયો બહુ સહેલાઈથી સમજાવી શકતા. લેખકને પણ આ વિષયમાં તેઓશ્રીનો સાક્ષાત અનુભવ થયો છે, જે કદીય ન ભૂલાય તેવો અતિ ઉપકારક છે. જે માતાપિતા પોતાનાં વ્હાલામાં વ્હાલાં સંતાનોને વિદ્યાપ્રાપ્તિ માટે શિક્ષકને સોંપે તે શિક્ષકની, વિદ્યાર્થીએ અને તેના મા-બાપે મૂકેલા વિશ્વાસને અંગે કેટલી મોટી જવાબદારી છે. તે તેઓશ્રી સાચે સાચ સમજતા હતા. દીક્ષાની ભાવના :- સુરતમાં મૂલચંદભાઈને વિ.સં. ૧૯૪૯ માં એટલે સત્તર વર્ષની ઉમ્મરે પૂર્વ મુનિરાજશ્રી રત્નસાગરજીનો પહેલો પરિચય થયો. વૃદ્ધ અને નિર્મળ ચારિત્રવંત તેઓશ્રીએ મૂલચંદભાઈના હૃદયને વૈરાગ્યના રંગથી રંગી દીધું. અને અન્યાય-અધર્મથી ડરતા મૂલચંદભાઈને સાધુતાનો રંગ બરાબર લાગ્યો. શ્રીમૂલચંદભાઈ પ્રથમથી જ સુયોગ્ય (સમજદાર) હોવાથી ગુરૂપરિચયમાં આવતાં જડ-ચેતનનો વિવેક કરી સાધુતાના અર્થી બન્યા. દીક્ષાની દુર્લભતા વૈરાગ્ય થવા માત્રથી સહુથી દીક્ષા લઈ શકાતી નથી. વૈરાગી થયા પછી તો ત્યાગી થતા પહેલાં વિઘ્નોની પરંપરા ઊભી થાય છે. હિતસ્વીપણાનો દાવો કરનારા પણ આડા આવે છે. એથી દૂરના સંબંધી છતાં માતા-પિતા તુલ્ય સ્નેહ-વાત્સલ્ય ધરાવનારા સંબંધીઓનો વિરોધ ઉઠ્યો અને ઈચ્છા પ્રબળ છતાં મૂલચંદભાઈ તત્કાળ દીક્ષા લઈ શક્યા નહિ. કાળક્ષેપ કરવો ઉચિત માની યોગ્ય સમયની રાહ જોતા રોકાઈ ગયા. સાધુપણું ન લેવાય ત્યાં સુધી જ્ઞાન મેળવવું અને આપવું એ જ તેઓએ ઉચિત માન્યું. : જ્ઞાનદાનનું ધ્યેય યોગ્ય ઉમ્મરે સ્વાશ્રયી બનવું જોઈએ.' એ સિદ્ધાંતને અનુસરી હવે પછીથી સ્વોપાર્જિત કમાઈથી નિષ્પાપ જીવન ગુજારવા માટે તેઓએ શિક્ષકનું જીવન પસંદ કર્યું. તુર્ત નોકરી મેળવી લીધી. ભિન્ન ભિન્ન સ્થળે સ્કુલોમાં વિદ્યાભ્યાસ કરાવતાં અનેક જીવોના જીવનઘાટ ઘડ્યા. છેલ્લે તેઓશ્રી સુરતમાં ચાલતી શ્રી રત્નસાગરજી જૈનપાઠશાળાના અધ્યાપક થયા. ત્યાંના વિદ્યાર્થીઓ ઉપર એવો ઉપકાર કર્યો કે વિદ્યાર્થીવર્ગે ખરેખર સંબંધીઓ કરતાં ય વધુ રાગથી તેમને દીક્ષા લેતાં રોક્યા. - વૈરાગ્યની દૃઢતાનો એક પ્રસંગ મૂલચંદભાઈ સંસાર તરફ ઉદાસીન તો હતા જ, તેમાં વળી સંસારની અનિત્યતાના આકરા અનુભવે તેઓને ખૂબ પ્રેરણા આપી. રાંદેરમાં વિ.સં. = Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ૧૯૫૭ માં ભયંકર પ્લેગનો ઉપદ્રવ ચાલ્યો. તે સમયે રાંદેરમાં ૧૨૦૦ જેટલી જૈનોની વસતિ હતી. મૂલચંદભાઈના બાલ્યકાળના પચાસ જેટલા મિત્રો કે જેઓ તે સમયે પૂર્ણયુવાનીમાં હતા તેઓ આ ઉપદ્રવમાં પાણીના પરપોટાની જેમ આંતરે-આંતરે એક પછી એક કાળધર્મ પામી ગયા. મૂલચંદભાઈ વ્હેલામાં વ્હેલી તકે દીક્ષા લઈ લેવાના નિર્ણય ઉપર આવી ગયા. ગુરૂયોગ અને દીક્ષા એ અરસામાં વિ. સં. ૧૯૫૭ માં મુનિરાજ શ્રી સિદ્ધિવિજયજી (વર્તમાનમાં આચાર્ય મહારાજ શ્રીમદ્ વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી) નું ચાતુર્માસ સુરતમાં થયું. વિ.સં. ૧૯૫૭ ના અષાઢ સુદ ૧૧ ના રોજ તેઓશ્રીની યોગ્યતા જોઈ ત્યાં બિરાજમાન પ્રશાન્ત મૂર્તિ પૂ. પન્યાસજી મહારાજ ચતુરવિજયજી ગણિવરના હસ્તે ઘણા સમારોહપૂર્વક સકળ સંઘે તેઓને ગણી-પંન્યાસ પદારૂઢ કરાવ્યા. તે પછી ચોમાસામાં વ્યાખ્યાન શ્રવણ આદિથી પરિચય વધ્યો અને તેઓની પાસે દીક્ષા લેવાની મુલચંદભાઈની ભાવના દૃઢ બની ગઈ. પોતાની ભાવના તેઓએ પૂ. પન્યાસજી મહારાજ શ્રી સિદ્ધિવિજયજી ગણિવરને જણાવી અને તેઓનો ભરયૌવન વયમાં ઉચ્ચ વૈરાગ્ય, ત્યાગ, વિનય, જ્ઞાનનો આદર, વિગેરે ગુણોથી પરિચિત પૂ. પંન્યાસજી મહારાજે તેનો સ્વીકાર પણ કર્યો, ચાતુર્માસ પછી તુર્ત પોતાના પ્રશિષ્ય મુનિરાજ શ્રી સંપતવિજયજી આદિને દીક્ષા માટે વિહાર કરાવ્યો અને તેઓની આજ્ઞાનુસાર વિ.સં. ૧૯૫૮ ના કારતક વદ ૯ ના રોજ શ્રી મીયાગામ (કરજણ)માં ત્યાંના સંઘના સમ્પૂર્ણ ઉત્સાહ વચ્ચે તેઓશ્રીએ મુલચંદભાઈને ભાગવતી દીક્ષાથી વિભૂષિત કરી પૂ. પંન્યાસજી મહારાજશ્રી સિદ્ધિવિજયજી ગણીના શિષ્ય તરીકે મુનિ શ્રી મેઘવિજયજી નામ આપ્યું. ત્યાંથી થોડા દિવસમાં વિહાર કરી છાણી પધાર્યા અને પૂ. પંન્યાસજી મહારાજ આદિ પણ છાણી આવી પહોંચ્યા. નૂતન મુનિ શ્રી મેઘવિજયજીને યોગોદ્દહન કરાવી વડીદીક્ષા ત્યાં આપી. * શાસ્ત્રાભ્યાસની રૂચિ રતલામના સંઘના આગ્રહથી ચાતુર્માસ માટે છાણીથી પૂ. પંન્યાસજી મહારાજ આદિ સર્વ મુનિવરોનો વિહાર માળવા તરફ થયો અને ચોમાસું રતલામમાં રહ્યા. મુનિશ્રી મેઘવિજયજીનું આ પ્રથમ ચાતુર્માસ હતું, ગૃહસ્થાવસ્થામાં શિક્ષકનું સ્થાન અનુભવનારા તેઓએ સાધુતાને પામ્યા પછી એવું વિદ્યાર્થી જીવન બનાવ્યું કે સાંભળવા પ્રમાણે વિદ્યાભ્યાસમાં દત્તચિત્ત બનેલા તેઓ ગૃહસ્થના પરિચયથી તદ્દન દૂર રહ્યા, ત્યાં સુધી કે ચારચાર માસ રહેવા છતાં રતલામના સંઘના ઘણા શ્રાવકો તેઓને જાણી પણ ન શક્યા, કેવો વિદ્યાવ્યાસંગ ? કેવી નિરીહતા ? -- ૩ જીવનની વિશિષ્ટતા :- મુનિ શ્રીમેઘવિજયજી પૂર્વભવે પણ જ્ઞાનની ઉપાસના કરીને જન્મેલા હતા, જેના પરિણામે આ ભવમાં સમ્યગ્-જ્ઞાનનો શુદ્ધ રાગ જીવનભર તેમના આત્માને અજવાળી શક્યો હતો. એના જ પ્રતાપે એક સામાન્ય અવસ્થામાંથી આગળ વધીને તેઓ મહાન બની શક્યા હતા. તેઓના જીવનની વિશિષ્ટતા રિકે વીણવા જેવું ઘણું ઘણું છતાં ‘ગુરૂ સેવાનું ફળ સમાધિ' એ એમના જીવનની અજબ વિશિષ્ટતા હતી, જે અંતકાળે હજારો આત્માઓને આશ્ચર્ય મુગ્ધ કરી રહી હતી. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર ગુરૂકુળવાસ એમની જીવન સાધનાના મુખ્ય પ્રસંગોને વિચારીએ તો સહુથી પ્રથમ ગુરૂકુળવાસ છે. દીક્ષા પછી જીવનભર ગુરૂની સાથે જ રહ્યા અને જ્યારે જ્યારે જુદા વિહારનો પ્રસંગ આવ્યો ત્યારે પણ ગુરૂ આજ્ઞાના પાલન માટે જ, ગુરૂ આજ્ઞાને વશ થઈ પંન્યાસ પદવી પછીનાં ચાર ચાતુર્માસ તેઓને જુદાં કરવાં પડ્યાં હતાં. સદા ગુરૂની સેવામાં રહેવાની તેઓની વૃત્તિ કેટલી ઊંચી હતી, તે તેઓએ કરેલાં ચોમાસાંની નોંધમાંથી સમજાઈ આવે છે, જીવનનાં ૪૨ ચાતુર્માસો પૈકી માત્ર નવ ચોમાસાં જ તેઓ ગુરૂથી જૂદા ક્ષેત્રમાં રહ્યા છે. ગુરૂપરતંત્રતામાં જ સ્વતંત્રતાનો સ્વાદ લેતા ગુરૂભક્ત આત્માઓ જ્ઞાન-ક્રિયાથી વિશિષ્ટ છતાં ગુરૂને છોડી જુદા રહી શકતા નથી. એક નિર્બળ આત્મા જીવનભર ગુરૂ પાસે રહે અને એક શક્તિ-પ્રતિભા સંપન્ન આત્મા રહે એમાં બહુ અંતર છે. ટુંકમાં સાધુ-જીવનનો મુખ્ય ગુણ ગુરૂસેવા તેઓમાં અજોડ હતી, છેલ્લે માંદગીમાં અશક્ત હોવાને કારણે કોઈવાર ગુરૂદર્શન ન થતાં તો પણ દૂર રહ્યારહ્યા ગુરૂ જે દિશામાં હોય તે દિશામાં હાથ જોડી નતમસ્તકે નમી પડતા નજરે દેખાતા. પૂ. ગુરૂમહારાજ પણ સંઘનાં-શાસનનાં કે સમુદાય અંગેના ન્હાનાં-મોટાં કાર્યોમાં તેઓની સલાહને સન્માનતા હતા, તથાપિ પોતે કોઈ કાર્યમાં ગુરૂ આજ્ઞાની લેશ પણ ઉપેક્ષા કરતા નહિ, પૂ. ગુરૂદેવની આજ્ઞાનુસાર સર્વ પ્રવૃત્તિ કરતા, ગુરૂદેવની સેવામાં સ્વયં હોવા ઉપરાંત શારીરિક નાદુરસ્તીને લીધે પોતાના શિષ્ય-પ્રશિષ્યોને રાખીને એ રીતે ગુરૂની વૈયાવચ્ચનો લાભ લેતા. એના ફળ સ્વરૂપ ગુરૂ-પ્રેમ એવો દૃઢ બનાવ્યો હતો કે અંતકાળે ગુરૂના ખોળામાં માથું મૂકી તેઓના ચરણે આત્માને સમર્પિત કરી અંતિમ સમાધિની સાધના કરી શક્યા હતા. એ દૃશ્ય તો જેણે નજરે જોયું હોય તે જ ગુરૂ પ્રેમનું માપ કાઢી શકે. પૂર્ણ વૃદ્ધ ગુરૂદેવ સવારથી તેઓને નિજામણા કરાવવા હાજર રહ્યા હતા, જોડે જ પાટ ઉપર બેસીને શિષ્યનું મસ્તક પોતાના ખોળામાં લઈને જાણે પોતાનું સર્વસ્વ હોય તેમ તેઓને સમાધિસ્થ બનવા માટે વારંવાર જાગ્રત કરી રહ્યા હતા. શિષ્ય પણ સ્વયં જ્ઞાની અને સત્વશાળી છતાં ગુરૂદેવની સામે તો એક અદના સેવકની નીતિ આદરી તેઓના અતુલ ઉપકારનું વારંવાર સ્મરણ કરતા તેઓના એક એક આદેશને ‘તહત્તિ’ કહી સ્વીકારી રહ્યા હતા, છેલ્લા શ્વાસ સુધી ગુરૂના ખોળામાં મસ્તક મૂકી સમાધિ કેળવવાનું આવું અનુપમ ફળ મેળવનાર તરીકે એ મહાત્માની જેટલી પ્રશંસા કરીએ તેટલી ઓછી જ છે. ૪ - સંયમનો રાગ :- સંયમનો રાગ તેઓનો વિશિષ્ટ હતો. સમિતિ-ગુપ્તિના પાલનમાં તેઓશ્રી સદૈવ ખૂબ જાગ્રત રહેતા, સાધુતાને શોભે તેવી ગંભીર અને ઈર્યાસમિતિ પૂર્વકની તેઓની ચાલ જોનારને પણ સંયમની પ્રેરણા આપતી. ભાષામાં મર્યાદા-મધુરતા-મિતાક્ષરતા-નિરવતા-ગંભીરતાહિતસ્વિતા વિગેરે એટલા બધા ગુણો હતા કે સાંભળનારને તૃપ્તિ થતી જ નહિ, પ્રભુત્વ પણ એટલું સુંદર હતું કે તેઓશ્રીના મુખમાંથી નીકળેલો શબ્દ કોઈ ઉત્થાપી શકતું નહિ. તેઓ કદી કોઈનું જરા પણ ઘસાતું ન બોલતા, ન્હાનામાં ન્હાના પણ બીજાના ગુણને જોઈ તેઓ પ્રસન્નતા જાહેર કરતા, એમ છતાં કોઈની ખોટી અહિતકર પ્રશંસા ન થઈ જાય તે માટે પણ તેઓશ્રી ખૂબ જાગ્રત હતા. કડક શબ્દોનો ઉપયોગ કરતાં પણ તેઓનું હ્રદય વાત્સલ્ય અને હિતસ્વિતાથી Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર એવું ભરેલું રહેતું કે સાંભળનારને તે ઉપકારીરૂપે જ સમજાતા. આહાર-પાણી આદિ સંયમોપકારક જરૂરી વસ્તુઓમાં ઓછામાં ઓછા દોષથી કેમ નિર્વાહ થાય તે માટે તેઓની સતત્ કાળજી હતી. માંદગીના પ્રસંગે અપવાદનો આશ્રય કોઈવાર લેવો પડે તો એટલું દુઃખ થતું કે હ્રદય વેદના શબ્દો દ્વારા પ્રગટ થઈ જતી. ઘણીવાર પોતાના શિષ્યપ્રશિષ્યાદિને એ કહી દેતા કે અમારા અશુભોદયે માંદગીના કારણે અમારે દોષ સેવવા પડે છે, તેનું વિના કારણ અનુકરણ તમારાથી ન થઈ જાય તે માટે સાવધ રહેજો. બેસવા-ઉઠવામાં, લેવા-મૂકવામાં, પૂજવા-પ્રમાર્જવાની કાળજી અજબ હતી, ગૃહસ્થ પાસે એક ન્હાનું પણ કામ કરાવવામાં તેઓ ખૂબ સંકોચાતા, વારંવાર સંયમ શુદ્ધિ માટે શિષ્ય વર્ગને કરાતાં તેઓનાં સૂચનો ખરેખર આંતર સંયમનાં બાહ્ય ઝરણાં જ હતાં એમ કહેવું તેમાં અતિશયોક્તિ નથી. શત્રુનું પણ હિત ચિંતવવું, કોઈની સાથે વૈર ન થાય કે કોઈ કારણે થયું હોય તો તે તૂર્ત મટી જાય, એવી તેઓશ્રીની સ્વ-પરહિત માટે સતત કાળજી હતી. સંયમની આ દિષ્ટ પોતાના જીવન પુરતી જ મર્યાદિત ન હતી, પોતાના શિષ્ય-પ્રશિષ્યાદિ, સાધુ-સાધ્વી વર્ગ કે અન્ય સમુદાયના પણ સાધુ સાધ્વી વર્ગ માટે તેઓની આદિષ્ટ હતી, અને તે તેઓના હૃદયની વિશાળતાની પ્રતીતિ કરાવતી હતી. આજે પણ સાધુ સાધ્વી સમાજમાં એવા કેટલાય આત્માઓ છે કે જેઓ પોતાના સંયમની શુદ્ધિ માટે વારંવાર હિતશિક્ષા અને પ્રેરણા આપનાર તેઓશ્રીના ઋણી છે. કેટલાય સાધુ-સાધ્વીઓ તેઓની સંયમ પ્રેરણા પામીને આજે પોતાની જીવન સાધનાનો વિકાસ કરી રહ્યાં છે. અન્ય સમુદાયના પણ યોગ્ય સાધુને જાણીને પોતાનું સર્વ બળ ખર્ચીને પણ તેને આગળ વધારવા તેઓ પ્રયત્ન કરતા, કોઈ સાધુની વિશિષ્ટ યોગ્યતા જાણીને રોમાંચિત થઈ જતા, શાસન રક્ષાનાં કાર્યો કરવાનું શુદ્ધ સામર્થ્ય જ્યાં જ્યાં દેખતાં ત્યાં તેને સર્વ રીતે સહાય કરીને સફળ કરાવવા ઘટતું કરી છૂટતા એમ સંયમ અને શાસનનો રાગ તેમના એક એક વ્યવહારમાં પ્રગટ દેખા દેતો. ભીમ-કાન્ત પ્રકૃતિ :- તેઓનું સંયમી જીવન એવું પ્રભાવશાળી હતું કે તેઓની નિશ્રામાં રહેનાર સાધુ વર્ગ શૈથિલ્યનો આશ્રય કરી શકતો નહિ, વિના પ્રેરણાએ પણ તેમની ભીમપ્રકૃતિથી સાધુઓનું જીવન સહજતયા સુયોગ્ય રહેતું. એમ કહેવું ખોટું નહિ ગણાય કે આજે પણ એમના સમુદાયના સાધુ વર્ગમાં જે કંઈ શિસ્ત પાલન જણાય છે તે તેઓશ્રીની ભીમ પ્રકૃતિનો પ્રભાવ છે. એમ છતાં કાન્ત ગુણને લીધે હૃદય વાત્સલ્ય અને હિતબુદ્ધિથી એટલું ભરેલું રહેતું કે ન્હાનામાં ન્હાના સાધુ પ્રત્યે પણ ખૂબ લાગણી ધરાવતા, ત્યાં કોઈને તેઓશ્રીથી નારાજી તો હોય જ શાની ? સહુને પ્રસન્ન રાખી શકતા, સહુની નાની મોટી જરૂરીયાતોનું પૂર્ણ લક્ષ્ય રાખતા અને યથાશક્ય પુરી પાડવા સંદૈવ જાગ્રત રહેતા. ભાવદયાથી ભરપુર હ્રદયમાં સર્વના આત્મકલ્યાણ માટેની સતત ચિંતા રહેતી અને જે જેટલા પ્રમાણમાં યોગ્યતા ધરાવતો તેને તેની યોગ્યતા પ્રમાણે હંમેશાં સંયમ સાધનામાં સહાય કરતા. ૫ અનુકંપા ભાવદયાની ભૂમિકારૂપ અનુકંપા ભાવ પણ તેઓના હૃદયનો એક શણગાર હતો. જ્યારે જ્યારે જગતને આકસ્મિક આપત્તિઓથી પીડાતું સાંભળતા, ત્યારે તે તે દેશની પીડિત Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર પ્રજાના દુઃખથી તેઓશ્રીનું હૃદય દ્રવી જતું, કોઈ અતિવૃષ્ટિ-અનાવૃષ્ટિ જેવા પ્રસંગે, ભૂમીકંપ કે રેલ સંકટ જેવા પ્રસંગે, પ્રજાકીય બળવા કે હીજરત જેવા પ્રસંગે તે તે માનવો કે પશુઓ વિગેરેનાં દુઃખોનું વર્ણન સાંભળીને ગંભીર થઈ જતા, ઠંડીના પ્રસંગે થરથરતાં કે ભુખ તરસથી ટળવળતાં ભીખારીઓ વિગેરેના અવાજને સાંભળતાં તો ઘણી વખત સાધુઓની સમક્ષ બોલી જતા કે સંયમની વિરાધનાનાં ફળો ભોગવતા દીન દુઃખીઆઓને જોઈ જાગ્રત થાઓ, ઘેર ઘેર ભીખ માગવા છતાં પેટ ભરી શકતા નથી એ ભીખારીઓ આજે પગલે પગલે પૂજાતા સાધુજીવનને ખૂબ સંયમી બનાવવાની પ્રેરણા આપી રહ્યા છે, ઈત્યાદિ. સમ્યગ જ્ઞાનનો આદર :- વીતરાગનાં શાસ્ત્રોનું તેઓના હૃદયમાં ઊંડું માન હતું, ત્યાં સુધી કે માત્ર ભણી ભણાવીને સંતોષ નહિ માનતાં જીવનમાં ઉતરે તેટલું શાસ્ત્ર વચન જીવનમાં ઊતારવા પ્રયત્ન કરતા-કરાવતા. તેઓનું જ્ઞાન માત્ર ઉપલકીયું વાંચન જ ન હતું પણ તલસ્પર્શી બોધસ્વરૂપ હતું. સૂક્ષ્મમાં સૂક્ષ્મ વાતોનો પણ તેમાં અંતિમ ઉકેલ હતો, દ્રવ્યાનુયોગ અને ચરણકરણાનુયોગમાં તેઓને ખૂબ રસ હતો, ગણિતાનુયોગ પણ એટલો સુંદર હતો કે જે વિષયનાં ગણિત સ્લેટ પેનના આધારથી પણ બીજાઓને કષ્ટ સાધ્ય થતાં તે ગણિતને તેઓ આંગળીના ટેરવે ગણાવી શકતા. કર્મ સાહિત્યમાં તેઓ સારો રસ ધરાવતા હતા અને ધર્મકથાનુયોગ તો એટલો સંદર હતો કે એક વાર પણ તેઓના વ્યાખ્યાનને જેણે સાંભળ્યું હશે તે જીવનભર અનુમોદના કર્યા વિના રહી શક્યો નહિ હોય. વૈરાગ્ય વાહિની દેશના-સદાચાર પ્રધાન દષ્ટાન્નોથી રસભરપુર અને સંકલના બદ્ધ વિષયોનું નિરૂપણ-બાળક પણ સમજી શકે તેવી સરળ વાક્ય રચના-પરોપકાર પૂર્ણ મધુર-મીઠા ઉદ્ગાર, ઈત્યાદિ તેઓની દેશનામાં વિશેષતા હતી. યોગ્ય સાધુઓને જાતે ભણાવવાની તેઓશ્રીની સતત કાળજી સ્કૂલબુદ્ધિ જીવોને પણ અભ્યાસમાં ઉત્સાહિત કરી દેતી, શરીર સ્વાથ્ય ટક્યું ત્યાં સુધી ભણાવવાનો ઉદ્યમ ચાલુ જ રાખ્યો હતો. ભણવાનો આદર પણ એટલો જ હતો. છેલ્લાં વર્ષોમાં નેત્રોનું તેજ ઘટી જવા છતાં પૂર્વે કંઠસ્થ કરેલું પુનઃ પુન ગોખીને તૈયાર કરતા, રાત્રીએ પણ સ્વાધ્યાય કરતા, પન્નવણા અને ભગવતી જેવાં આગમશાસ્ત્રોને પણ સરળ રીતે સમજાવી શકતા. ન્યાય દર્શનનો પણ અભ્યાસ તેઓએ કર્યો હતો, સિદ્ધહેમ જેવા વ્યાકરણગ્રંથો પણ સ્વયં ભણાવતા હતા. એમાં ‘સાધુએ વિનયપૂર્વક યોગ્ય ગુરૂની પાસે ભણવું જોઈએ” એ તેઓનું ધ્યેય હતું. ‘વિનય વિના મેળવેલી વિદ્યા આત્મોપકારક બનતી નથી.” એ તેઓશ્રીની દઢ શ્રદ્ધા હતી, તેથી યોગ્ય આત્માઓને ભણાવવા માટે હંમેશા તેઓ તૈયાર રહેતા. અપ્રમાદ : - તેઓશ્રી જ્ઞાન-ક્રિયામાં સતત ઉઘમી હતા, નિયમિત સ્વાધ્યાય-જાપ વિગેરે ચાલુ હતું, માંદગીમાં શરીર તદ્દન અશક્ત બન્યું હતું ત્યારે પણ બધા સાધુઓએ શયન કર્યા પછી પોતે જાગતા અને કલાકો સુધી નવકારવાળી ગણતા, સ્વાધ્યાયાદિ કરતા, દિવસે પણ પઠન-પાઠન ન થઈ શકતું ત્યારે ઘણું ખરું નવકારવાળી ગણવામાં સમયને સફળ કરતા, નિદ્રા અલ્પ હતી, વિકથા તો તેઓના મુખે કદી સાંભળી નથી. રાજખટપટના, આહારાદિકના કે Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર શૃંગારિક વાર્તાલાપને પતનનું કારણ જણાવી નિષેધ કરતા. અલ્પ કષાયી હોઈ તેઓને કોઈની સાથે અણબનાવ કે અબોલા રહેવાનો પ્રસંગ કદી ન આવતો, સામાન્ય વાર્તાલાપમાં પણ આત્મજાગ્રતિની પ્રેરણા જ દેખાતી, ક્રિયાનો આદર ઘણો સારો હતો, પ્રતિક્રમણાદિ અનુષ્ઠાનોમાં ઉપયોગ વિના તેઓને શુષ્કતા લાગતી, વિધિનો આદર તો એટલો સુંદર હતો કે હાના મોટા કોઈ અનુષ્ઠાનમાં પણ તેઓ અવિધિને નિભાવી લેતા નહિ, ગુરૂવંદન કે પચ્ચકખાણ કરવા તેમની પાસે જતા સાધુ-સાધ્વી કે ગૃહસ્થો રખે કંઈ અવિધિ ન થઈ જાય તેનો પૂર્ણ ઉપયોગ રાખતાં એ તેઓની વિધિના આદરની નિશાની હતી, મોટા પદવીધર જેવાની પણ ક્ષતિ સુધારવામાં તે નિડર રહેતા અને તેથી તેમની પાસે જનાર રાજદરબારમાં જવા જેટલી સાવધ બનીને જતો. અશક્ત છતાં જિનમંદિરમાં પણ પ્રત્યેક ખમાસમણ પૂર્ણ પંચાંગ ભેગાં કરીને જ દેતા. તેઓની પ્રત્યેક ક્રિયામાં સ્થિરતા અને આદર પ્રગટ દેખાતાં, દેવવન્દન-ચૈત્યવન્દન કરતાં તન્મય થઈ જતા, ક્રિયાનો એમનો આદર-અપ્રમાદ વિગેરે એવાં સુંદર હતાં કે બીજાને આદર્શ રૂપ બની જતાં. કોઈ પણ પ્રવૃત્તિમાં જિનાજ્ઞા તરફનું તેમનું લક્ષ્ય અખંડ રહેતું, જો કે કોઈ અશાતા વેદનીયના ઉદયે તેઓને મસ્તક શૂળ (શિરોવેદના) કાયમ રહેતી તેથી ઘણી વખત તેઓ મૌનપણે ધ્યાનમાં જ વીતાવતા, પણ એવા પ્રસંગે ય કરણીય અનુષ્ઠાનોમાં સતત જાગ્રત રહેતા, નાદુરસ્ત શરીરે પણ તેઓએ વિ. સં. ૧૯૮૪ માં પાટણમાં મૌનપૂર્વક શ્રીસૂરિમંત્રનું આરાધન કર્યું હતું. ખાસ કહી શકાય કે અશાતાના ઉદયમાં પણ શરીરને જ્ઞાન-ક્રિયામય બનાવી દીધું હતું. તેમની દરેક પ્રવૃત્તિમાં ચૈતન્ય ઝળકતું જ રહેતું, ગતાનગતિક ક્રિયામાત્રથી તેમને સંતોષ ન થતો, પ્રત્યેક અનુષ્ઠાનનું રહસ્ય સમજતા અને સમજાવતા. ઉચ્ચારશુદ્ધિ :- ઉચ્ચાર તો એટલો સ્પષ્ટ અને શુદ્ધ હતો કે તે તે વર્ણનો ઉચ્ચાર યથાસ્થાન કરતા. જોડાક્ષરોના, અનુસ્વાર-વિસર્ગના કે સ્વર-વ્યંજનના ઉચ્ચારો એવા શુદ્ધ અને સ્પષ્ટ કરતા, કે ખરેખર તેઓનો આત્મા જ નહિ, જીહા પણ વ્યાકરણનો બોધ કરાવતી હતી, એમ કહીયે તો ખોટું ન ગણાય. સહિષગુતા :- તેઓશ્રીમાં ઉપસર્ગો અને પરિષહોને સહન કરવાની શક્તિ ઘણી પ્રશંસા પાત્ર હતી. અશાતના ઉદયે તો પીછો જ પકડ્યો હતો, જીવનમાં અમુક વર્ષો કે મહીના એવા થોડા જ ગણાય કે જે વેળા તેઓશ્રી શરીરે કોઈને કોઈ બાધા-પીડા વિનાના હશે, શિરોવેદના કાયમી, નેત્રોનું દર્દ પણ એને જ આભારી હતું, ઝામર-મોતીઆનાં બે બે વાર ઓપરેશન, ચક્ષુઓનું તેજ હણાયા પછી તો કોઈને કોઈ વ્યાધિ ચાલુ જ રહેતો, હ્યુરસીના દર્દની પીડા, પેટનું ઓપરેશન, વિગેરે અનેક પ્રસંગોમાંથી તેઓનું જીવન પસાર થયું હતું. તેમાં કેટલાક પ્રસંગો તો જીવલેણ હતા, હ્યુરસીના દર્દે તેઓના શરીરને હતપ્રહત કરી નાખ્યું હતું. તેમાં વળી અમદાવાદમાં પેટનું ઓપરેશન, વિગેરે કેટલાક પ્રસંગો એવા જીવલેણ હતા કે તેઓના જીવન માટે આશા છૂટી જવા છતાં સંઘનાં પુણ્ય બળે તેઓશ્રી બચી ગયા હતા. એવા અસહ્ય પીડાઓમાં પણ કોઈ દિવસ તેમના મુખે અરેરે ! નો ઉચ્ચાર સાંભળ્યો નથી. બહુ પીડા વધે ત્યારે પણ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર શ્રીનમસ્કાર મહામંત્રનું સ્મરણ-ઉચ્ચારણ સ્વયં કરતા કે તે જ સાંભળવાની માગણી કરતા. એમની આ સહિષ્ણુતાએ તે તે પ્રસંગોને જેનારા ગૃહસ્થોને, વૈદ્ય-ડોક્ટરોને, કે વૈયાવચ્ચ કરનારા સાધુ વર્ગને ખૂબ-ખૂબ અનુમોદના કરાવી ઉપકાર કર્યો છે. માત્ર દ્રવ્યસહિષ્ણુતા જ નહિ, સંયમ અને શાસનના અવિહડ રાગને લીધે ભાવ ઉપસર્ગો પણ તેમણે એવા જ સહન કર્યા છે. સત્યની રક્ષા માટે અપમાન અને અપશબ્દો સાંભળવામાં પણ તેઓ જરાય અકળાયા નથી, એ રીતે સમતા જાળવી તે તે પ્રસંગે શાસનની વફાદારી કેળવી ગયા છે કે આજે પણ તે પ્રસંગો યાદ આવતાં તેમના પૈર્ય સામે મસ્તક નમી પડે છે. માત્ર તેઓએ સહન કર્યું છે એટલું જ નહિ, બીજા સાધુઓને એવા પ્રસંગે સહાય પણ ઘણી કરી છે. તેમના જીવનકાળ દરમ્યાન દેવદ્રવ્ય, દીક્ષા વિરોધ, જડવાદ અને નાસ્તિકતાનો પ્રચાર, ઈત્યાદિ એવા પ્રસંગો ઉપસ્થિત થયા હતા કે જે સમયે સત્યનો પક્ષ કરનારાઓને ઘણું સહન કરવું પડ્યું હતું. તેઓશ્રી પોતાના સ્થાનને અને જવાબદારીને સમજનારા હતા, એથી એ વિકટ પ્રસંગોને પોતાની અતુલ આરાધનાના પ્રસંગો માની ખૂબસ્ચર્ય-પૈર્ય અને માધ્યય્યપૂર્વક સ્વકર્તવ્ય અદા કરી જીવનને અજવાળી ગયા હતા. પદ પ્રદાન :- દશ વર્ષ જેટલા ટુંકા દીક્ષા પર્યાયમાં તો તેઓશ્રીએ ગુરૂભક્તિ સાથે જ્ઞાન અને ક્રિયાથી જીવનને એવું સુંદર બનાવી દીધું હતું કે તેઓના જીવનની સુવાસ ઘણા જીવોને આકર્ષણરૂપ બની હતી. જે કાળે સમાજમાં પદપ્રદાનની બહુ મહત્તા અંકાતી તે કાળમાં તેઓશ્રીના ગુણથી આકર્ષાયેલા સંઘોએ તેઓને પદસ્થ બનાવવાની ભાવનાઓ વ્યક્ત કરી હતી, વારંવાર વિનંતિ થવાને યોગે પૂજ્ય ગુરૂદેવે પણ યોગ્યતા જોઈને ભગવતી સૂત્રના યોગોદ્ધહનાદિ કરાવી વિધિપૂર્વક છાણીમાં તેઓને વિ.સં. ૧૯૬૯ ના કારતક વદ ૪ ના રોજ ૧૧ વર્ષના દીક્ષા પર્યાયમાં ગણી અને પંન્યાસપદથી વિભૂષિત કર્યા હતા. તે પછી પણ વધતી જતી યોગ્યતાએ પૂજ્ય ગુરૂદેવનું અને સંઘનું આકર્ષણ વધારી દીધું હતું. જેના ફલરૂપે રાજનગરના આગેવાન શ્રાવક વર્ગના અતિ આદરને વશ થઈ વિ.સં. ૧૯૮૧ ના માગશર સુદ ૫ ના રોજ પૂ. પરમ ઉપકારી સંઘ સ્થવિર ગુરૂદેવે તેઓશ્રીને આચાર્યપદ ઉપર આરૂઢ કર્યા હતા. પદપ્રદાન દ્વારા ગુરૂદેવે મૂકેલી જવાબદારીથી જરાય મોટાઈ કે ગુરૂતાને વશ થયા વિના ઉત્તરોત્તર વધુ ને વધુ ગુણો કેળવી તેઓ સાચા ગુરૂ બન્યા હતા. શિષ્ય વર્ગ - તેઓનો શિષ્ય-પ્રશિષ્યાદિ સુવિહિત સાધુવર્ગ પણ ઠીક ઠીક હતો. સ્વર્ગવાસ સમયે તેઓશ્રીના વિદ્યમાન શિષ્યો ૧. પૂજ્ય આચાર્ય મ. શ્રીવિજ્યમનોહરસૂરિજી, ૨. પૂ. મુનિરાજ શ્રીસુમિત્રવિજ્યજી, ૩. મુનિરાજ શ્રીવિચક્ષણવિજ્યજી, ૪. મુનિરાજ શ્રી સુબોધવિયજી, ૫. મુનિરાજ શ્રીસુભદ્રવિજયજી, ૬. મુનિરાજ શ્રી દેવેન્દ્રવિજયજી, ૭. મુનિરાજ શ્રીજશવિજયજી, ૮. મુનિરાજ શ્રીઅરૂણવિજયજી, ૯. મુનિરાજ શ્રીભુવનવિજયજી હતા. પ્રશિષ્યો મુનિરાજ શ્રીકુમુદવિજયજી, શ્રીમલયવિજયજી, શ્રીભદ્રંકરવિજયજી, શ્રીવિબુધવિજયજી, શ્રી હેમેન્દ્રવિજયજી, શ્રીમનકવિજયજી, શ્રીવિમળવિજયજી, શ્રીજબૂવિજયજી અને પ્રપ્રશિષ્ય શ્રીમૃગાંકવિજયજી વિગેરે હતા. તેઓશ્રીના સ્વર્ગવાસ પછીના પણ બીજા દીક્ષિતો મલી આજે લગભગ પચીસ મુનિવરો Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર સંવત તેઓશ્રીના ગુરૂદેવ સંઘસ્થવિર આચાર્યદેવ શ્રીદાદા મહારાજ (બાપજી મહારાજ) તથા તેઓશ્રીના શિષ્ય આચાર્યશ્રી વિજયમનોહરસૂરિ મહારાજની આજ્ઞામાં આરાધના કરે છે. વિહાર અને ચાતુર્માસ :- જો કે પ્રથમથી જ ગુરૂભક્તિનો રાગ અને શરીરની નાદુરસ્તીના કારણે તેઓ બહુ દૂર દૂર દેશમાં વિચરી શક્યા નથી, તો પણ મારવાડ-મેવાડ-માળવા-સૌરાષ્ટ્ર અને ગુજરાતના દક્ષિણ ઉત્તર તથા મધ્યપ્રદેશમાં ઠીક ઠીક વિચર્યા છે. તેઓનાં ચાતુર્માસ ઘણાં ગુરૂ મહારાજની સાથે જ થયાં છે, માત્ર ૯ ચાતુર્માસ જુદાં થયાં છે તે પણ ગુરૂઆજ્ઞાના પાલનને ઉદ્દેશીને ચાતુર્માસની યાદી આ પ્રમાણે મળી રહે છે. સંવત સ્થળ સ્થળ ૧૯૫૮ રતલામ ૧૯૭૫ પાલીતાણા ૧૯૫૯ પાટડી ૧૯૭૬ રામપુરા ૧૯૬૦ અમદાવાદ ૧૯૭૭ અમદાવાદ ૧૯૬૧ પાલીતાણા ૧૯૭૮ સાણંદ ૧૯૬૨ ઈન્દોર ૧૯૭૯-૮૦ અમદાવાદ ૧૯૬૩ રતલામ ૧૯૮૧ સાણંદ ૧૯૬૪ સાદડી ૧૯૮૨ સીપોર ૧૯૬૫ અમદાવાદ (ગુરૂદેવ વડનગર) (ગુરૂદેવ મહેસાણા) ૧૯૮૩ મહેસાણા ૧૯૬૬-૬૭ ૧૯૮૪ પાટણ ૧૯૬૮ છાણી ૧૯૮૫-૮૬ અમદાવાદ ૧૯૬૯ અમદાવાદ (ગુરૂદેવ છાણી) ૧૯૮૭ પાટણ ૧૯૭૦ સાણંદ (ગુરૂદેવ ભરૂચ) ૧૯૮૮-૮૯-૯૦ અમદાવાદ ૧૯૭૧ પાટણ (ગુરૂદેવ ભરૂચ) ૧૯૯૧ સાણંદ ૧૯૭૨ અમદાવાદ (ગુરૂદેવ છાણી) ૧૯૯૨-૯૩ અમદાવાદ ૧૯૭૩ અમદાવાદ ૧૯૯૪ સાણંદ ૧૯૭૪ મહેસાણા ૧૯૯૫ થી ૧૯૯૯ અમદાવાદ ભરૂચ તીર્થયાત્રા - મારવાડની પંચતીર્થી, કેસરીયાજી, સૌરાષ્ટ્રનાં બધાં તીર્થો, ગુજરાતનાં ન્હાનાં મોટાં તીર્થો અને સુરત-અમદાવાદ-પાટણ વિગેરેની શહેરયાત્રાઓ તેઓશ્રીએ કરી હતી. સંઘવી છોટાભાઈ લલ્લુભાઈ ઝવેરીએ કાઢેલા અમદાવાદથી શ્રીસિદ્ધાચળજીના છરી પાળતા સંઘમાં તથા શેઠ માણેકલાલ મનસુખભાઈએ વિ.સં. ૧૯૯૧ માં શ્રી શત્રુંજય ગિરિરાજના મહાન શાસન પ્રભાવક છરી પાળતા કાઢેલા સંઘમાં તેઓશ્રીએ યાત્રા કરી હતી. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર અંતિમ આરાધના :- વિ.સં. ૧૯૯૯ નું અમદાવાદ-હાજા પટેલની પોળમાં પગથીયાનાં ઉપાશ્રયનું અંતિમ ચાતુર્માસ લગભગ માંદગીમાં જ પૂર્ણ થયું. તાવ લગભગ ચાલુ જ રહેતો, શરીર ઉતરી ગયું હતું, ભાદ્રપદ માસમાં બીમારીએ ઉગ્રરૂપ પકડ્યું, વૈદ્ય-ડોક્ટરોએ ઘટિત ઉપચારો કરવા છતાં સુધારાની આશા તૂટી ગઈ અને સહુનું દીલ આરાધના કરાવવામાં લાગી ગયું. પરભવના પ્રયાણની તૈયારીઓ શરૂ થઈ ગઈ, બે દિવસ વધુ બગડે, વળી કંઈક સ્વસ્થતા આવે, એમ ભાદ્રપદ પુરો થયો અને છેલ્લી અમાસની રાત્રી આવી. અસ્વસ્થતા વધી અને સહુ મુંઝાયાં, રાત્રે શ્રાવક વર્ગ સ્થળે સ્થળેથી આવવા લાગ્યો, વિદ્યાશાળાએ પૂ. ગુરૂ મહારાજને પણ સમાચાર મલ્યા અને તેઓશ્રી સવારે પગથીયાના ઉપાશ્રયે પધાર્યા. સાધુ-સાધ્વી-શ્રાવકશ્રાવિકા વર્ગથી ઉપાશ્રય ભરાઈ ગયો, રાત્રે અસ્વસ્થ થએલા તે પછી પુનઃ સ્વસ્થ થયા અને સવારનું પ્રતિક્રમણ પૂર્ણ સાવધપણે સુતાં સુતાં કર્યું, પ્રતિલેખનાદિ કર્યા પછી આરાધનાની શરૂઆત થઈ ગઈ તે સમયનું દૃશ્ય ખૂબ અનુમોદનીય હતું, ગુરૂભક્તિથી ભરેલાં હૈયાંએ છેલ્લી ભેટ તરીકે હજારો ઉપવાસ, આયંબિલ-એકાસણાં-સામાયિક, લાકખો પ્રમાણ સ્વાધ્યાય-જીવદયામાં રોકડ રકમ વિગેરે એટલું કહ્યું હતું કે તેની નોંધ અશક્ય બની ગઈ હતી. એક પાટ ઉપર ગુરૂદેવ, લગોલગ બીજી પાટ ઉપર પોતે, આજુબાજુ લગભગ પચાસ સાધુમંડલ, સામી બાજુ સેંકડો સાધ્વીઓ, અને નીચે હજારો પ્રમાણમાં શ્રાવક-શ્રાવિકા વર્ગ હાજર હતો, છતાં શાન્તિ અજબ હતી. તેઓશ્રી આરાધના માટે જેમ એકાગ્રચિત્તે શ્રવણ કરતા હતા તેમ હાજર રહેલો સંઘ પણ એકાગ્ર બની ગયો હતો. તે વખતે તેઓશ્રીના શિષ્યવર્ય આ. શ્રી વિજયમનોહરસૂરિજી ‘સંવેગરંગશાળા’ ગ્રંથમાંથી આત્માના અત્યંતર શત્રુઓ ક્રોધાદિની દુષ્ટતાનું વર્ણન ગ્રંથકારના શબ્દોમાં જ સંભળાવી રહ્યા હતા, અને ‘ભુખ્યો બે હાથે જમે’ તેમ ઉભય કાન માંડી દત્તચિત્તે તેઓશ્રી શ્રવણ કરતા હતા. વૈયાવચ્ચ અને નિર્યામણા એ વાત પણ નોંધ્યા વિના ચાલે તેમ નથી કે આ પૂજ્ય ગુરૂદેવની વૈયાવચ્ચ અને નિર્યામણા અનુમોદનીય થઈ હતી. અંતકાળે સુયોગ્ય અને સહૃદયી આત્માઓ ખડે પગે સેવા માટે તૈયાર રહે, એ પણ સમાધિનું એક અંગ છે, તેઓશ્રીની સેવામાં સહુ આદર ધરાવતા હતા પણ તેઓશ્રીના મુખ્ય શિષ્ય પૂ.આ.શ્રીવિજયમનોહરસૂરિજી, પૂ. ગુરૂભક્ત મુનિ શ્રીસુમિત્રવિજયજી અને તે ઉપરાંત પ્રશિષ્ય મુનિ શ્રીમનકવિજયજીની સેવા નોંધપાત્ર હતી. સદૈવ ગુરૂ સેવામાં આત્મ કલ્યાણ માનનારા એ મુનિવરો નિત્યના પ્રસંગોમાં એક અદના સેવક તરીકે આજ્ઞા ઉઠાવતા, તો પણ છેલ્લી માંદગી પ્રસંગે તો તેઓએ ઉધ કે ઉજાગરા, ભુખ કે તૃષા, કોઈની પણ દરકાર કર્યા વિના અવિરત પણે ખડે પગે વૈયાવચ્ચ કરી જીવન કૃતાર્થ કર્યું હતું. મુનિ શ્રીમનકવિજયજીની સેવા તો અજબ કોટિની હતી, દીક્ષા લીધી ત્યારથી પૂ. ગુરૂદેવે તેમને વૈયાવચ્ચનો ઉચ્ચ અપ્રતિપાતી મંત્ર એવો શીખવ્યો હતો કે ખરેખર, આ કાળમાં મુઠ્ઠી હાડકાંવાળા કૃષશરીરે શ્રમમાં જ આરામનો અનુભવ કરનાર મુનિ શ્રીમનકવિજયજીની સેવા બીજા ઘણા મુનિવરો કરતાં વધુ પ્રશંસા માગી લે છે. તેઓમાં એ ગુણ આદ્યાવિધ અખંડ છે, એમ ૧૦ - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજયમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર તેઓને ઓળખનાર સહુને પણ અનુભવમાં છે. તે ઉપરાંત મુનિ શ્રીસુબોધવિજયજી, મુનિ શ્રીસુભદ્રવિજયજી આદિએ પણ યથાશક્ય વૈયાવચ્ચ કરી ગુરૂના અતુલ ઉપકારની કૃતજ્ઞતા દાખવી હતી. પૂજ્યપાદ્ સ્વર્ગત આચાર્ય ભગવંતના નિર્યામકો ઉત્તમ હતા, મુખ્યમાં પરમ વાત્સલ્યવંત પોતાના જ ગુરૂદેવ વારંવાર ધ્યાનસ્થ રહેવાની પ્રેરણા આપતા હતા, તે ઉપરાંત અત્યંત લઘુતા ગુણનું ભાજન પ્રશમનિધિ પૂ. આ.મ.શ્રી વિજય કનકસૂરિજી મહારાજ, ગીતાર્થ સેવાભાવી પૂ. આ. મ. શ્રી વિજય પ્રેમસૂરિજી મહારાજ, બાજુમાં છેક નજીકમાં તેઓશ્રીના વિનીત મુખ્ય શિષ્ય પૂ.આ.મ.શ્રી વિજયમનોહરસૂરિજી મહારાજ, તેમજ પૂ.આ.મ.શ્રી વિજયજંબૂસૂરિજી મહારાજ, આમ પાંચ-પાંચ આચાર્ય ભગવંતોના સાનિધ્યમાં તેઓશ્રી સુંદર આરાધના કરી રહ્યા હતા, બીજી બાજુ વિદ્વાન શાન્તમૂર્તિ પૂ. પંન્યાસજી શ્રીકલ્યાણવિજયજી મહારાજ પ્રસંગને અનુરૂપ પ્રેરણા આપતા હતા અને એ સિવાય પણ લગભગ ૫૦ જેટલો સુવિહિત સાધુવર્ગ તેઓશ્રીની સમાધિને ઈચ્છતો હાજર હતો. અંતકાળે આવા ઉત્તમ નિર્યામકોનો સંયોગ પ્રાપ્ત થવો એ જીવનની સુંદરતાને માપવાનું મીટર છે. જેણે જીવનભર પૂજ્યભાવ અને વાત્સલ્યથી મોટા-ન્હાનાનાં હૃદયને જીત્યાં હોય છે, એવા પુણ્યાત્માને એ જીવોની હાજરીનો લાભ મળે છે. અને અંતકાળે કેળવાયેલા સદ્ભાવને પરિણામે આગામી જીવનમાં પણ પ્રાયઃ તેઓ એક સ્થાને ઉત્પન્ન થાય છે, એકબીજાની આરાધનામાં સહાયક થાય છે અને સંસારમાં રહે ત્યાં સુધી પ્રાયઃ ભવોભવ ધર્મના સાથીદાર (સંબંધી) બની છેવટે મોક્ષમાં એ સાથને શાશ્વતો બનાવે છે. ૧૧ : અંતિમ ક્ષણો ઃ- એ રીતે નિર્યામકોની વચ્ચે સમાધિને સાધતા તેઓશ્રીને ૨-૫૦ મિનિટે પૂજ્ય ગુરૂદેવે પૂછ્યું-શાન્તિમાં છો ને ? તેઓશ્રીએ પ્રસન્ન ચિત્તે સંજ્ઞાથી હકારાત્મક જવાબ વાળ્યો. મિનિટો વધવા લાગી અને શ્વાસોચ્છ્વાસ ઘટવા લાગ્યા, ગુરૂના ચરણમાં મસ્તક મૂકી પડખે સુતેલા એ પુણ્ય પુરુષનો આત્મા બરાબર ૨-૫૫ મિનિટે જરા પણ પીડાના અનુભવ વિના પરલોકે પહોંચી ગયો. નહિ નેત્ર કે મુખના આકારમાં વિકાર, કે નહિ અવયવોનું લાંબા ટુકાં થયું, શરીરની આકૃતિ ચેતના ગયા પછી પણ તે જ સ્વરૂપમાં ટકી રહી. ઉત્તમ આત્માઓ જીવી જાણે છે તેમ સુંદર સમાધિથી જીવનને સંકેલી પણ શકે છે. શ્વાસ અટકતાં જ ચતુર્વિધ સંઘનાં હૈયાંને શોકે ઘેરી લીધાં. વિજળીના વેગે સમાચાર ફેલાયા, અનેક સ્થળોયે ખબરો પહોંચી ગઈ, સ્મશાન યાત્રા બીજે દિવસે કાઢવાનું નિશ્ચિત થયું અને ભક્તિવંત આત્માઓએ જીવંત દેહની જેમ મૃતક દેહને પણ ભક્તિ-પૂજા કરી સુંદર પાલખી બનાવી તેમાં પધરાવ્યો. સ્મશાન યાત્રા :- આસો સુદ ૨ ની સવારે શહેર અને બહારથી માનવ સમૂહ આવવા લાગ્યો અને લગભગ દશ હજાર જેટલી માનવ મેદની વચ્ચે સ્મશાન યાત્રા નીકળી. તે પુણ્યાત્માના પુણ્યે પક્ષ-પ્રતિપક્ષના ભેદની જાળને તોડી નાખી, સહુને એક સરખી રીતે આકર્ષ્યા, સુરત વિગેરે બહારગામથી પણ ભાવુકો આવી પહોંચ્યા, અને પોળે પોળેથી, પરાં પરાંઓમાંથી રાજનગરનો Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિમેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર શ્રાવક વર્ગ પણ આવ્યો. શહેરના મુખ્ય ગણાતા શ્રીમંત શ્રાવકો-શેઠ કસ્તુરભાઈ લાલભાઈ, શેઠ માણેકલાલ મનસુખભાઈ, શેઠ પન્નાલાલ ઉમાભાઈ, શેઠ ચીમનલાલ લાલભાઈ, શેઠ ભોગીલાલ છોટાલાલ સુતરીયા, શેઠ બકુભાઈ મણીલાલ, શા. કેશવલાલ લલ્લુભાઈ, શેઠ માયાભાઈ સાંકળચંદ, શા. કીકાભાઈ ભગુભાઈ, શા. ગીરધરલાલ છોટાલાલ, શા. મોહનલાલ છોટાલાલ, શા. ભોગીલાલ મગનલાલ સુતરીયા, શા. સારાભાઈ હઠીસીંગ, શા. ચંદ્રકાન્ત છોટાલાલ ગાંધી, શેઠ શાન્તિકુમાર જગાભાઈ, શેઠ જગાભાઈ ભોગીલાલ, શા. ચંદુલાલ તારાચંદ ઝવેરી, શા. ચીમનલાલ મંગળદાસ, શા. સોમચંદ મંગળદાસ, શા. કેશવલાલ મોહનલાલ સંઘવી, શા. મણીલાલ લલ્લુભાઈ તેલી, શા. રતિલાલ નાથાલાલ, શા. ચીમનલાલ કેશવલાલ કડીઆ, શા. જીવણલાલ છોટાલાલ ઝવેરી, શા. જેસીંગભાઈ ઉગરચંદ, શા. અમૃતલાલ જેસીંગભાઈ દલાલ, શા. છગનલાલ લક્ષ્મીચંદ, શા. છોટાલાલ જમનાદાસ, શા. રમણલાલ વજેચંદ, શા. છોટાલાલ ત્રીકમલાલ વકીલ, શા. રતનલાલ જીવાભાઈ, શા. ચીમનલાલ પોપટલાલ, શા. મોહનલાલ વાડીલાલ, સાણંદવાળા શેઠ ચુનીલાલ પદમચંદ વિગેરે, શા. ચંદુલાલ ચુનીલાલ, નરેશચંદ્ર મનસુખરામ, શા. ડાહ્યાભાઈ પ્રેમચંદ, શા. ચીમનલાલ વાડીલાલ, શા. કલ્યાણભાઈ મણીલાલ રાવ, શા. અમૃતલાલ દલસુખભાઈ હાજી, શા. જેસીંગભાઈ કાલીદાસ જરીવાળા, શા. વાડીલાલ દેવચંદ, શા. કાન્તિલાલ ભોગીલાલ નાણાવટી, ઈત્યાદિ દરેક ઉપાશ્રયના અગ્રેસરો વિગેરે તથા બહારગામથી પણ અનેક શ્રાવકો આવ્યા અને બરાબર આઠ વાગતાં “જય જય નંદા જય જય ભદા' ની ઘોષણા પૂર્વક સ્મશાન યાત્રા નીકળી. શહેરના રાજમાર્ગોમાં શેરીયે અને અટારીયે ચઢી જૈન જૈનેતર માનવ સમુહ હજારોની સંખ્યામાં એ પુણ્ય દેહનાં દર્શન કરી કૃતાર્થ થતો હતો, “પુણ્યવાન આત્માનો આધાર દેહ પણ એટલો જ પૂજ્ય બને છે' એમ તે દૃશ્ય જોનારને સાક્ષાત્ અનુભવ થતો હતો. આગળ શેઠ કસ્તુરભાઈ લાલભાઈ દેઘ લઈને ચાલતા હતા અને પાછળ હજારોની સંખ્યામાં પાલખી લઈ ભાવુકો ત્વરાથી ચાલી રહ્યા હતા. રસ્તે જતાં દેઘ તથા પાલખી ઉપાડવાનો લાભ લેવા માટે ભાવુક શ્રાવકો બદલાતા જતા હતા, ખરેખર ! એ દશ્ય જોનારા પણ ભાગ્યવંત આત્માઓ પોતાના આત્માને નિર્મળ કરી રહ્યા હતા. સ્મશાન ભૂમિમાં છેક સુધી હજારો શ્રાવકોની હાજરી રહી હતી. નિર્વિદને અગ્નિસંસ્કારનું કામ પૂર્ણ કરી શોકાચ્છાદિત મુખે પાછા ફરેલા તેઓએ ઉપાશ્રય જઈ પરમ પૂજ્ય દાદામહારાજ શ્રીવિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજીના મુખે મંગલ સાંભળ્યું હતું, તે પ્રસંગના વાતાવરણે દરેકની આંખો ભીની કરી દીધી હતી, ચહેરા ગંભીર બનાવી દીધા હતા અને વાતાવરણ શાન્ત બની ગયું હતું. ઉપાશ્રયમાં પણ પરમ પૂજ્ય દાદા મહારાજની નિશ્રામાં દેવવન્દનની ક્રિયા વિગેરે વિધિ કરવામાં આવ્યો હતો, તેમાં શહેરના સર્વ ઉપાશ્રયોથી પદસ્થો અને મુનિવરો પધાર્યા હતા, સર્વના હૃદય ઉપર સ્વર્ગસ્થના વિરહનો ભાર દેખાતો હતો. ક્રિયા પૂર્ણ થયા પછી પરમ પૂજ્ય દાદામહારાજે હિતશિક્ષારૂપે સંભળાવેલા શબ્દો હૃદયને કોતરી નાખે તેટલા અસરકારક મંગળરૂપ હતા, જેનું સાચું સ્વરૂપ શબ્દોથી આલેખી શકાય તેમ નથી. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્યપાદઆચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર મહોત્સવની ઉજવણી :- તેઓના પવિત્ર જીવનના ઉઘાપન નિમિત્તે શ્રીસંઘે હાજા પટેલની પોળમાં એક મોટો મહોત્સવ ઉજવ્યો હતો. ઉપાશ્રયની સામેની તે વખતની વીશાશ્રીમાળીની વાડીમાં શ્રી શત્રુંજય ગિરિરાજની ભવ્ય તાદશ રચના, ચંડકૌશિક સર્પનો ભગવાન મહાવીરદેવને ઉપસર્ગ, પ્રભુ શ્રી પાર્શ્વનાથ સ્વામિને કમઠનો ઉપસર્ગ, ઈત્યાદિ આબેહુબ રચનાઓ જોનારને તે તે પ્રસંગોનું સાક્ષાત્ સરખું ભાન કરાવતી હતી. તે ઉપરાંત ઉપાશ્રયમાં સુવર્ણમય ગઢોની રચના વિગેરે અનુપમ કોટિનાં દશ્યો રચ્યાં હતાં. એ દશ્યોને જોવા રાત્રિના દશ વાગ્યા સુધી માત્ર શહેરના જ નહિ, સેકડો ગાઉ દૂર દૂરથી પણ રેલ્વે દ્વારા હજારો મનુષ્યો આવતા હતા. દરરોજ ભવ્ય અંગ રચના, સેંકડો શ્રાવકોની હાજરીમાં સર્વ સામગ્રી સહ પૂજા ભણાવવી, વિગેરે દરેક પ્રસંગો જોનારના ચિત્તને આશ્ચર્ય સાથે આનંદ પેદા કરતા હતા. એ સ્મશાન યાત્રા-મહોત્સવ વિગેરેને જોનારાઓ એમ માને છે કે સો વર્ષમાં આવું જોવામાં આવ્યું નથી. ખરેખર ! સ્વર્ગત પૂ.ગુરૂદેવના આત્માની પવિત્રતાનાં એ દશ્યો હતાં એમ કહી શકાય. દેશ-પરદેશમાં પણ તેઓશ્રીના સ્વર્ગવાસ નિમિત્તે ભાવુક આત્માઓએ મહોત્સવો ઉજવવાના સમાચાર મળતા હતા. એમ એ પુણ્યાત્મા ૨૬ વર્ષની વયે દીક્ષિત થયા અને ૪૧ વર્ષ ચારિત્રની નિર્મળ આરાધનાથી સ્વ-પર કલ્યાણ સાધીને ૬૭ વર્ષની ઉમ્મરે સ્વર્ગવાસી થયા. વન્દન હો ! કોડો એ પરમ ઉપકારી ગુરૂદેવને! તેઓના પવિત્ર ચારિત્રને !!! વિ.સં. ૨૦૧૨ વિ.સં. ૨૪૮૨ જેઠ સુદ ૧૦ સોમવાર જૈન વિદ્યાશાળા, અમદાવાદ લી. પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રીવિજયમનોહરસૂરીશ્વરજી શિષ્ય મુ.ભદ્રંકરવિજય Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धाचलमण्डन-श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः । पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयजीपादपद्मभ्यो नमः । જિન આગમ જથsiel (પ્રસ્તાવના) અનંત ઉપકારી અરિહંત પરમાત્માની પરમકૃપાથી તથા પરમપૂજ્ય પરમોપકારી પિતાશ્રી તથા સદ્ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજની પરમકૃપાથી પંચમગણધર ભગવાનું શ્રી સુધર્મસ્વામિ પ્રણીત તથા આચાર્યભગવાન્ શ્રી અભયદેવસૂરિમહારાજ વિરચિત ટીકાસહિત શ્રી સ્થાનાંગસૂત્રના દ્વિતીય વિભાગને અનેક પ્રાચીન-પ્રાચીનતમ હસ્તલિખિત આદર્શોને આધારે સંશોધિત તથા સંપાદિત કરીને શ્રી જૈન આગમોના અભ્યાસી વર્ગ સમક્ષ આજે મારા પરમઉપકારી સંઘમાતા માતૃશ્રી સાધ્વીજી મનોહરશ્રીજી મહારાજના ૧૦૯મા જન્મદિવસે પ્રકાશિત કરતા ઘણો જ આનંદનો અનુભવ થાય છે. આ જ ગ્રંથનો પ્રથમ ભાગ થોડા સમય પૂર્વે જ પ્રકાશિત થયો છે. તેની પ્રસ્તાવનામાં જે જે જણાવવા યોગ્ય હતું તે સંક્ષેપમાં જણાવ્યું છે, વિશેષ કહેવાનું હશે તે તૃતીય વિભાગમાં જણાવાશે. ૭-૮-૯-૧૦ આ ચાર અધ્યયનો તૃતીય વિભાગમાં આવશે. એ રીતે સટીક સ્થાનાંગસૂત્ર ત્રીજા વિભાગમાં સંપૂર્ણ થશે. એક વાત ખાસ જણાવવાની છે. આમ શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજે સ્થાનાંગસૂત્રની ટીકામાં સેંકડો પાઠો ભિન્ન ભિન્ન અનેક ગ્રંથોમાંથી તેમના સામે વિદ્યમાન હસ્તલિખિત આદર્શોમાંથી ઉદ્ધત કર્યા છે. એનો અર્થ સમજવા માટે પ્રથમ પરિશિષ્ટમાં તે તે ગ્રંથોની ટીકાઓ અમે ઉદ્ધત કરી છે, પરંતુ અત્યારે મળતા ગ્રંથોમાં કેટલાય સ્થળે થોડા પાઠભેદ જોવા મળે છે. ઉદાહરણ તરીકે અભયદેવસૂરિ મહારાજે પૃ૦૫૭૫ ૫૦૨૫માં- રવિહવેચાવલ્વે સામ વહિં ૨ નિષ્યવયમો | સી૩ષ્ટસદા ખિq દા વાયર્જિયા || આવો વ્યવહારભાષ્યનો પાઠ ઉદ્ધત કર્યો છે. પૃ૦૫૯૭ પં૦૧માં વમવિયોગને રોષ વ્યવહારમાળો: સમવસેયા: એમ તેમણે જણાવેલું છે. એટલે આ ગાથા વ્યવહારભાષ્યની છે એ નિશ્ચિત છે. શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજેએ ઉદ્ધત કરેલી વ્યવહારભાષ્યની ગાથા અખંડ છે. છંદની દૃષ્ટિએ પણ બરાબર છે. પરંતુ અત્યારે મળતા વ્યવહારભાષ્યમાં તથા તેની મલયગિરિવિરચિત टीम सा था दसविहवेयावच्चे सग्गाम बहिं च वायामो ।। सीउण्हसहा भिक्खू न य हाणी Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના વાયાવિયા આ રીતે ૨૫૩૯મી ગાથાના ઉત્તરાર્ધરૂપે તથા ૨૫૪૦મી ગાથાના પૂર્વાર્ધરૂપે મળે છે. એટલે બંનેના પાઠમાં પણ થોડો ભેદ પડી ગયો છે અને છંદના માત્રામેળની દૃષ્ટિએ પણ પાઠ જુદો છે. અભયદેવસૂરિ મહારાજે વિક્રમસંવત્ ૧૧૨૦માં વૃત્તિ રચી છે. તે પછી લગભગ ૧૦૦ વર્ષે મલયગિરિ મની ટીકા રચાઈ છે. મલયગિરિ મહારાજ જૈન શાસનમાં અતિમહાનું વિખ્યાત ટીકાકાર તરીકે પ્રસિદ્ધ છે. ૧૦૦ વર્ષમાં પાઠ બદલાઈ જાય એ આશ્ચર્યજનક લાગે. પરંતુ અભયદેવસૂરિ મ0 તથા મલયગિરિ મબંનેની સામે જુદી જુદી હસ્તલિખિત આદર્શોની પરંપરા હશે એમ લાગે છે. આવાં આવાં અનેક ઉદાહરણો આ ગ્રંથમાં છે. આ વાતને ધ્યાનમાં રાખીને અભયદેવસૂરિમહારાજે તે તે ગ્રંથોમાંથી ઉદ્ધત કરેલા પાઠો અને અમે પરિશિષ્ટમાં આપેલા. વર્તમાનમાં મળતા ગ્રંથોને આધારે લખેલાં ટિપ્પણોને વાંચવાં એ ખાસ ભલામણ છે. આ.મ.શ્રી અભયદેવસૂરિવિરચિત ટીકામાં જે સાક્ષિપાઠો આવશ્યકનિયુક્તિ આદિમાંથી લીધેલાં છે. તે અમે [ ] આવા ચોરસ કોષ્ઠકમાં જણાવેલું છે તે નિર્યુક્તિસંગ્રહ, નિર્યુક્તિપંચક આદિ આદિ ગ્રંથોમાં જે નિયુક્તિગાથાઓ છપાયેલી છે તેના આધારે જ જણાવ્યું છે. ખરેખર તો, ગ્રંથોમાં નિર્યુક્તિની ગાથાઓ કેટલી છે તથા ભાષ્ય અથવા પ્રક્ષિપ્ત ગાથાઓ તેમાં કેટલી ભળી ગઈ છે. આ વાત સંશોધક અભ્યાસીઓની દૃષ્ટિએ ઘણી જ ઘણી વિચારણા માગે છે. અમે તો અત્યારે નિયુક્તિ તરીકે પ્રસિદ્ધ હોવાને લીધે જ આવશ્યકનિર્યુક્તિ, ઓઘનિર્યુક્તિ, પિંડનિર્યુક્તિ આદિ નામોલ્લેખ કર્યો છે. ખરેખર તો એ ગાથાઓ તે તે નિર્યુક્તિની છે કે કેમ એ વિદ્વાનોએ જ વિચારવાનું છે. તે તે મુદ્રિત ગ્રંથોમાંથી ટિપ્પણીમાં અમે ઉદ્ધત કરેલા પાઠો જ્યાં અમને અતિઅશુદ્ધ લાગ્યા છે ત્યાં બને તો તેના પ્રાચીન હસ્તલિખિત (વ્યવહારભાષ્ય-ટીકા આદિ) ગ્રંથોને આધારે જ તે તે પાઠોને શુદ્ધ કરીને આપવા પણ અમે પ્રયત્ન કર્યો છે. સ્થાનાંગસૂત્રમાં ક્ષેત્ર આદિ સંબંધી ઘણાં જ ઘણાં સૂત્રો આવે છે. જંબૂદ્વીપ આદિ ક્ષેત્રોના તથા તેને લગતા પદાર્થોના નકશાઓ તથા ચિત્રો સામે હોય તો જ તેનો અર્થ બરાબર સમજી શકાય. એટલે સ્થાનાંગના ત્રીજા ભાગમાં નકશાઓ તથા ચિત્રો આપવાની અમારી ભાવના છે. આ ભાગમાં સ્થાનાંગના ચોથા, પાંચમા તથા છઠ્ઠા અધ્યયનોનો સમાવેશ છે. માનસશાસ્ત્ર આદિ દૃષ્ટિએ વિચારતાં, ચોથું અધ્યયન અત્યંત અત્યંત અત્યંત અદ્ભુત છે. આ ભાગમાં ટીકામાં જે પાઠો બીજા ગ્રંથોમાંથી ઉદ્ધત કરેલા છે તેનું વિવરણ, તુલના તથા કથાઓ આદિ પરિશિષ્ટમાં આપેલું છે. પ્રથમભાગની જેમ આમાં પણ અમે ત્રણ પરિશિષ્ટો આપેલાં છે. ધન્યવાદ :- શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની આગમ જૈનગ્રંથમાળાના પ્રણેતા પુણ્યનામધેય આ પ્ર.મુ.શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજને અનેકશઃ વંદન પૂર્વક હૃદયથી શ્રદ્ધાંજલી અર્પણ કરું છું. દ્વાદશારનયચક્રના સંશોધન-સંપાદન દ્વારા આ સંશોધન-સંપાદન ક્ષેત્રમાં અને તેઓ જ લાવ્યા હતા. સ્વ૦ પૂ૦ આગમોદ્ધારક સાગરાનંદસૂરીશ્વરજી મહારાજ કે જેમના ભગીરથ પ્રયાસથી આગમ આદિ વિશાળ જૈન સાહિત્ય પ્રકાશમાં આવ્યું છે તેઓશ્રીને પણ આ પ્રસંગે ભાવપૂર્વક વંદન કરૂં છું. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના મુંબઈના કાર્યવાહકોએ આના અત્યંત દ્રવ્યવ્યયસાધ્ય મુદ્રણની જવાબદારી ઉપાડી છે, અને અમને સદા પ્રોત્સાહન આપ્યું છે. શ્રી સિદ્ધક્ષેત્ર પાલિતાણા નગરમાં, વીસાનીમાની ધર્મશાળામાં, વિક્રમસંવત્ ૨૦૫૧, પોષ સુદિ દસમ બુધવારે ૧૦૧ મા વર્ષે તારીખ ૧૧-૧-૧૯૯૫ ની રાત્રે ૮-૫૪ મીનીટે સ્વર્ગસ્થ થયેલાં મારાં પરમ ઉપકારી પરમપૂજ્ય માતુશ્રી સંઘમાતા સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજ કે જેઓ સ્વ૦ સાધ્વીજીશ્રી લાભશ્રીજી મહારાજ (સરકારી ઉપાશ્રયવાળા)નાં બહેન તથા શિષ્યા છે તેમના સતત આશીર્વાદ એ મારું અંતરંગ બળ તથા મહાનમાં મહાનું સદ્ભાગ્ય છે. મારા વયોવૃદ્ધ અત્યંત વિનીત પ્રથમ શિષ્ય દેવતુલ્ય સ્વ. મુનિરાજશ્રીદેવભદ્રવિજયજી કે જેમનો લોલાડા (શંખેશ્વરજી તીર્થ પાસે) ગામમાં વિક્રમ સંવત્ ૨૦૪૦ માં કાર્તિક સુદિ બીજે, રવિવારે (તા.૩-૧૧-૮૩) સાંજે છ વાગે સ્વર્ગવાસ થયો હતો તેમાં પણ આ પ્રસંગે ખૂબજ સદ્ભાવથી સ્મરણ કરૂં છું. મારા અતિવિનીત શિષ્ય મુનિશ્રી ધર્મચંદ્રવિજયજી તથા તેમના શિષ્ય સેવાભાવી મુનિરાજશ્રી પુંડરીકરત્નવિજયજી તથા તપસ્વી મુનિરાજશ્રી ધર્મઘોષવિજયજી આ કાર્યમાં રાત-દિવસ અતિ અતિ સહાયક રહ્યા છે. આ ગ્રંથના મુદ્રણ આદિમાં હમણાં અમદાવાદમાં રહેતા પણ મૂળ આદરિયાણાના વતની જીતેન્દ્રભાઈ મણીલાલ સંઘવી તથા માંડલના વતની અશોકભાઈ ભાઈચંદભાઈ સંઘવીએ ઘણો ઘણો જ સહકાર આપ્યો છે તે માટે તેઓને ખૂબ ખૂબ ધન્યવાદ ઘટે છે. જેસલમેર, પાટણ તથા ખંભાતના હસ્તલિખિત પ્રાચીનમાં પ્રાચીન તાડપત્રીય પ્રતિઓના ફોટા તથા ઝેરોક્ષ લેવા માટે તે તે સ્થાનના ટ્રસ્ટના કાર્યવાહકોએ અમને સંમતિ આપી અને અનુકૂળતા કરી આપી છે તે માટે તેમને ઘણા ઘણા ધન્યવાદ ઘટે છે. આ બધા અનેક શાસ્ત્રોના ગ્રંથોના પ્રાચીન-અર્વાચીન હસ્તલિખિત આદર્શો મેળવવા માટે અમે લગભગ ૨૫ વર્ષથી નિરંતર પરિશ્રમ કરી રહ્યા છીએ. એ માટે પાટણ, જેસલમેર આદિ સ્થળોએ અમે જાતે જઈને- પ્રસંગ પડે ત્યારે, કોઈને કલ્પના પણ ન આવે એવાં અપાર અપાર કષ્ટ વેઠીને પણ સામગ્રી એકત્રિત કરીએ છીએ. જ્યાં અમારાથી ન પહોંચાય ત્યાં શ્રાવકો દ્વારા પણ ખૂબ ખૂબ ખૂબ મહેનતે મેળવ્યું છે. આ બધાનો એક ઈતિહાસ લખાય એટલી મોટી કથા છે. આ બધા કાર્યોમાં અમે સાધુઓ તો મૃતભક્તિથી કરીએ એ અમારી પવિત્ર ફરજ જ છે. એ અમારી આરાધના જ છે. પણ જે જે શ્રાવકો તથા નિતીનભાઈ ચંદુલાલ બગડીયા (મુંબઈ)ની પ્રેરણાથી આવેલા કીર્તિભાઈ બટુકભાઈ જાદવાણી (કાંદિવલી), તથા વિમલ બીપીનભાઈ પટેલ (અમદાવાદ) આદિ અજૈનોએ પણ જે જે અપાર મૂકસેવા આપી છે તે ખાસ ખાસ ખાસ ધન્યવાદને પાત્ર છે. ગુજરાત યુનિવર્સીટી-અમદાવાદના પ્રાધ્યાપક વ્યાકરણ-સાહિત્યના નામાંક્તિ વિદ્વાન્ વસંતભાઈ ભટ્ટે કેટલાક સાક્ષિપાઠોને શોધી આપવામાં અમને ઘણી જ અમૂલ્ય સહાય કરી છે તે માટે તેમને પણ ખાસ ધન્યવાદ છે. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રસ્તાવના ભૂતકાળમાં મુદ્રિત થયેલા અનેક અનેક વિવિધ ગ્રંથોનો આ સંશોધન-સંપાદનમાં અમે ઉપયોગ કર્યો છે, તેના લેખકો-સંપાદકોના અમે ખૂબ ખૂબ ક્યી છીએ. આ ગ્રંથના સંશોધન-સંપાદનમાં મારા શિષ્યવર્ગે ખૂબ જ ખૂબ સહકાર આપ્યો છે. તેમજ મારાં સંસારી માતુશ્રી સંઘમાતા શતવર્ષાધિકા, સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજના પરમસેવિકા શિષ્યાશ્રી સ્વ૦ સાધ્વીજીશ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજીના શિષ્યા સાધ્વીજીશ્રી જિનેન્દ્રપ્રભાશ્રીજી એ આમાં ઘણો ઘણો સહકાર આપ્યો છે. અમે જે અનેક અનેક તાડપત્રી પ્રતિઓનો ઉપયોગ કર્યો છે તે બધી મોટા ભાગે ફોટા રૂપે છે, અથવા ઝેરોક્ષ રૂપે છે. ફોટાના ઝીણા ઝીણા અક્ષરો વાંચવા, ફોટા તથા ઝેરોક્ષ કોપીમાંથી તે તે સ્થળોના પાઠો શોધી કાઢવા એ સામાન્ય રીતે કોઈની કલ્પનામાં પણ ન આવી શકે એવું અતિ અતિ કષ્ટદાયક કામ છે. આ સાધ્વીજીએ શ્રુતભક્તિથી આવું ઘણું ઘણું કામ અત્યંત હર્ષપૂર્વક કર્યું છે. પ્રફોને વાંચવાં પણ ખૂબ શ્રમ અને ઝીણવટભરી નજર માંગી લે છે. એ કામ આ સાધ્વીજીએ કર્યું છે તથા તેમના પરિવારે પણ ઘણો જ ઘણો સહકાર વિવિધ કાર્યોમાં આપ્યો છે, તે માટે તે ઘણા ધન્યવાદને પાત્ર છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની સંમતિથી જ પૂ૦ સાધુ-સાધ્વીજી મહારાજ તથા જ્ઞાનભંડાર આદિને યથાયોગ ભેટ આપવા માટે આ જ ગ્રંથની ત્રણસો કોપીઓ શ્રી સિદ્ધિ-ભુવન-મનોહર જૈન ટ્રસ્ટ, અમદાવાદ તથા શ્રી જૈન આત્માનંદ સભા, ભાવનગર- વતી વધારે કઢાવેલી છે. આ સંમતિ આપવા માટે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના કાર્યવાહકોને અનેકશઃ અભિનંદન તથા ધન્યવાદ ઘટે છે. આ ગ્રંથનું કમ્પોઝીંગનું જટિલ કામ અજયભાઈ સી. શાહ સંચાલિત શ્રી પાર્શ્વ કોમ્યુટર્સ (અમદાવાદ)ના વિમલકુમાર બિપિનચંદ્ર પટેલે હરિદ્વાર, સમેતશિખરજી, નાકોડાજી વગેરે દૂર દૂરના સ્થળોએ આવીને ખંતપૂર્વક અમારી સમક્ષ કર્યું છે તે માટે તે પણ ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ પુણ્ય કાર્યમાં દેવ-ગુરૂકૃપાએ આમ વિવિધ રીતે સહાયક સર્વેને મારા હજારો હાર્દિક ધન્યવાદ અને અભિનંદન છે. પૂજ્યપાદ અનંત ઉપકારી પિતાશ્રી ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજના કરકમળમાં આ ગ્રંથ રૂપી પુષ્પ મૂકીને તેમના દ્વારા જિનવાણીરૂપી પુષ્પથી જિનેશ્વર પરમાત્માની પૂજા કરીને આજે ધન્યતા અનુભવું છું. શ્રી જૈન શ્વે.નાકોડા પાર્શ્વનાથ તીર્થ, પો.મેવાનગર, તા. બાલોતરા, પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રીમદ્વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરપાલંકારજિલ્લો-બાડમેર, રાજસ્થાન. પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રીમદ્વિજય મેઘસૂરીશ્વરશિષવિક્રમ સં. ૨૦૫૯ પૂજ્યપાદ સરૂદેવ મુનિરાજશ્રીભુવનવિજયાન્તવાસી માગશરવદિ ૨, શનિવાર મુનિ જંબૂવિજય તા.૨૧-૧૨-૨૦૦૨ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री सिद्धाचलमण्डन-श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडापार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडाभैरववीराय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्येभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्मेभ्यो नमः । पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्री भुवनविजयजीपादपद्मभ्यो नमः । आमुखम् । अनन्तोपकारिणां परमकृपालूनां जिनेश्वराणां परमकृपया परमोपकारिणां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां पूज्यपाद मुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च परमकृपया साहाय्येन च सम्पन्नं पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिविरचितया वृत्त्या समलङ्कृतं चतुर्थ-पञ्चम-षष्ठाध्ययनात्मकं पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिपरम्परयाऽऽयातस्य श्री स्थानाङ्गसूत्रस्य द्वितीयविभागं जैनागमरसिकानां पुरतो विन्यस्यन्तो वयमद्यामन्दमानन्दमनुभवामः । यदत्र वक्तव्यं तत् प्रथमे विभागे उक्तप्रायम् । अवशिष्टं तु प्रायः सर्वमपि तृतीये विभागे सप्तमा-ऽष्टम-नवम-दशमाध्ययनात्मके वक्ष्यते। तृतीये विभागे एव स्थानाङ्गसूत्रं संपूर्णं भविष्यतीति आशास्महे । अत्र परिशिष्टत्रयमपि योजितमस्ति । तत्र प्रथमे परिशिष्टे ग्रन्थान्तरेभ्य आ.भ.श्रीअभयदेवसूरिभिरुद्धृतानां पाठानां ग्रन्थान्तरीयटीकाद्यनुसारेण विवरणं तुलनादिकं निर्दिष्टकथादिकं च उपन्यस्तम् । द्वितीये परिशिष्टेऽस्मिन् द्वितीये विभागे उद्धृतानां साक्षिपाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः, तृतीये च परिशिष्टे सम्पादनोपयुक्तग्रन्थसूचिः वर्तते । धन्यवादः- अस्य ग्रन्थस्य संशोधने सम्पादने च यतो यतः किमपि साहायकं लब्धं तेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । विशेषतस्तु इमे सहायकाः- अस्या जैनागमग्रन्थमालायाः प्रकाशने बीजभूताः प्रेरकाश्च स्व० आगमप्रभाकरपूज्यमुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाभागाः । तैरेव च संशोधन-सम्पादनक्षेत्रेऽहं योजितः। अतः कृतज्ञभावेन विशेषेण तेषां चरणयोर्वन्दनं विदधामि । अनेकेभ्यो वर्षेभ्यः प्राक् आगमोद्धारकैराचार्यश्री सागरानन्दसूरिभिः महान् ग्रन्थराशिः महता महता परिश्रमेण जैनसंघस्य पुरस्ताद् मुद्रयित्वा उपन्यस्तः । समग्रोऽपि जैनसंघः तैरुपकृतः। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुखम् अतस्तेषामपि चरणयोः वन्दनं विदधामि । परमोपकारिणी परमपूज्या विक्रमसंवत् २०५१ तमे वर्षे श्री सिद्धक्षेत्रे पालिताणानगरे पौषशुक्लदशम्यां दिवंगता शताधिकवर्षायुष्का मम माता साध्वीजीश्री मनोहरश्रीरिहलोकपरलोक-कल्याणकारिभिराशीर्वचनैर्निरन्तरं मम परमं साहायकं सर्वप्रकारैर्विधत्ते । लोलाडाग्रामे विक्रमसंवत् २०४० कार्तिकशुक्लद्वितीयादिने दिवंगतो ममान्तेवासी वयोवृद्धो देवतुल्यो मुनिदेवभद्रविजयः सदा मे मानसिकं बलं पुष्णाति ।। ___ ममातिविनीतोऽन्तेवासी मुनिधर्मचन्द्रविजयः तच्छिष्यः मुनिपुण्डरीकरत्नविजयः मुनिधर्मघोषविजयश्च अनेकविधेषु कार्येषु महद् महद् साहायकमनुष्ठितवन्तः । एवमेव मम मातुः साध्वीश्रीमनोहरश्रियः शिष्यायाः साध्वीश्रीसूर्यप्रभाश्रियः शिष्यया साध्वीश्रीजिनेन्द्रप्रभाश्रिया एतद्ग्रन्थसंशोधनसम्बन्धिषु सर्वकार्येषु प्रभूतं प्रभूतं साहायकमनुष्ठितम्। श्रीमहावीरजैनविद्यालयस्य कार्यवाहकैः महता द्रव्यव्ययेन साध्यस्य एतन्मुद्रणादिकस्य व्यवस्था स्वीकृता । अतस्तेभ्योऽपि भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । एतेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादा वितीर्यन्ते । देव-गुरुप्रणिपातपूर्वकं प्रभुपूजनम् परमकृपालूनां परमेश्वराणां देवाधिदेवश्री शर्खेश्वरपार्श्वनाथप्रभूणां परमोपकारिणां पूज्यपादानां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां मुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च कृपया साहाय्याच्चैव संपन्नं कार्यमिदमिति तेषां चरणेषु अनन्तशः प्रणिपातं विधाय अस्मिन् तीर्थे विराजमानस्य अत्यन्तं प्रभावशालिनः श्री नाकोडापार्श्वनाथस्य करकमलेऽद्य भक्तिभरनिभरण चेतसा भगवद्वचनात्मकमेव पुष्परूपमेतं ग्रन्थं निधाय अनन्तशः प्रणिपातपूर्वकं भगवन्तं श्री नाकोडापार्श्वनाथं महयाम्येतेन कुसुमेन । श्री जैन श्वेनाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ, इत्यावेदयतिP.O. मेवानगर, Via बालोतरा, पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालंकारजिला-बाडमेर, राजस्थान. पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यविक्रम सं० २०५९, पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी पौषशुद्धदशमी, सोमवासरः, मुनि जम्बूविजयः (ता.१३-१-२००३) मातृस्वर्गवासदिवसः Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसिद्धाचलमण्डन श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः | श्री नाकोडापार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः | श्री गौतमस्वामिने नमः । श्री नाकोडाभैरववीराय नमः । श्री सद्गुरुभ्यो नमः । किञ्चित् प्रास्ताविकम् । अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । अरिहंत परमात्मा अर्थ की देशना देते हैं, और गणधर भगवान उसीके अनुसार सूत्रों की रचना हैं । भगवान महावीर की देशना के आधार से गणधर भगवंतोने द्वादशांगी ( बार अंग सूत्रों) की रचना की थी । यह द्वादशांगी समस्त जैन प्रवचनन जैन शासन की आधार शिला है । द्वादशांगी में भिन्न भिन्न विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है । इस में यह स्थानांग तीसरा अंगसूत्र है । बारहवाँ अंग का विच्छेद तो दो हजार वर्ष पूर्व हो गया है । ग्यारह अंगसूत्रों में विषम काल प्रभाव से कुछ हानि और परिवर्तन भी हुआ है । वल्लभीपुर में भगवान् देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वीरनिर्वाण के बाद ९८० या ९९३ वर्ष में जो सूत्रवाचना पुस्तकारूढ- पुस्तकमें लिपीबद्ध हुई यही वाचना आज विद्यमान है । स्थानांग सूत्र के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं । विक्रम संवत् २०४९ ( इस्वी. १९८५) में श्री महावीर जैन विद्यालय से विशिष्ट संस्करण प्रकाशित हुआ है । इस में प्राचीन - प्राचीनतम ताडपत्र एवं कागज पर लिखित अनेक अनेक प्रतिओं के आधार से संशोधित पाठ दिया है। अनेक पादटिप्पन, पाठान्तर, परिशिष्ट आदि से परिष्कृत इस संस्करण में प्रस्तावना आदि भी विस्तार से है । मूल सूत्र ग्रंथों को समजने के लिये टीका आदि व्याख्या ग्रंथ अति आवश्यक है । स्थानांग आदि नव अंगो का ऐसा विवेचन नहीं था । इसलिये विक्रमकी १२ वीँ शताब्दी के महाविद्वान् आचार्य भगवान् श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने स्थानांग आदि नव अंगसूत्रों पर टीका लिखी थी । इस से नवांगी टीकाकार के नाम से वे अत्यंत विख्यात हैं । इस टीका को अत्यंत प्राचीन हस्तलिखित आदर्शो के आधार से संशोधन करने के लिये प्राचीनप्राचीनतम ताडपत्र लिखित जैसलमेर, खंभात एवं पाटण के आदर्शो का उपयोग कर के यह विक्रम संवत् ११२० में रचित श्री अभयदेवसूरिविरचित टीका का प्रथम विभाग आज देवगुरु कृपा से ही प्रकाशित हो रहा है इसका हमें बडा हर्ष है । स्थानांगसूत्र के दश अध्ययन है । टीका सहित यह ग्रन्थ अति महाकाय होने से तीन विभागो 1 १ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चत् प्रास्ताविकम् में प्रकाशित करने की हमारी विचारणा है । १-२-३ अध्ययनवाला प्रथम विभाग कुछ समय पूर्व ही प्रकाशित हो चुका है। इस द्वितीय विभाग में ४-५-६ अध्ययन आयेंगे । तृतीय विभाग में ७-८-९-१० अध्ययन और अनेक परिशिष्ट प्रकाशित होंगे । तृतीय विभाग में सटीक स्थानांगसूत्र संपूर्ण होगा। परमकृपालु अनन्त अनन्त उपकारी अरिहंत परमात्मा एवं मेरे परम उपकारी परमपूज्य सद्गुरुदेव एवं पिताश्री मुनिराजश्री भुवनविजयजी महाराज की कृपा से ही यह कार्य संपन्न हुआ है। __इस महान कार्य में मेरे शिष्य मुनिराजश्री धर्मचन्द्रविजयजी, पुंडरीकरत्नविजयजी, धर्मघोषविजयजी ने बहुत सहयोग दिया है । ___ धार्मिक, सामाजिक, राजकीय आदि विविध क्षेत्रों मे अत्यंत अग्रेसर, दीर्घदर्शी, सूक्ष्म चिंतक समाज तथा जिन शासन के परम हितैषी तथा श्री जैन शासन की उन्नति जिनका प्राण था ऐसे श्री जैन श्वे. नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ के अध्यक्ष श्री पारसमलजी भंसाली हमें यहाँ नाकोडा तीर्थ में चातुर्मास करने हेतु लाए और नाकोडा तीर्थ में विशाल प्राचीन शास्त्रसंग्रह तथा संशोधन केन्द्र बनवाने की उनकी उत्कृष्ट भावना थी। इस भावना के कारण आजभी यहाँ कार्य चल रहा है। किंतु हृदय की बाईपास सर्जरी करवाने के पश्चात् मुंबई में २६-९-२००२ के दिन उनका आकस्मिक स्वर्गवास होने से यह सटीक स्थानांगसूत्र के प्रकाशन को देखने के लिये हमारे बीच मौजुद नहीं रहे, जिसकी कमी हमें बहुत-बहुत खटक रही हैं। उन्होंने हमको जो अत्यंत उदारता तथा उत्साह से यहाँ संशोधन करने की अनुकुलता प्रदान की वह अविस्मरणीय रहेगा । इसलिये उनको बहुत बहुत अभिनंदन व धन्यवाद । मेरी परमोपकारिणी शतवर्षाधिकायु परमपूज्य माता साध्वीजी (जिन का मेरे उपर अपार आशीर्वाद है) श्री मनोहरश्रीजी महाराज की शिष्या परमसेविका साध्वीजी श्री सूर्यप्रभाश्रीजी महाराज की शिष्या साध्वीजीश्री जिनेन्द्रप्रभाश्रीजी ने इस विराट संशोधन कार्य में अति अति सहयोग दिया है। ___इस कार्य में जिन्हों ने भिन्न भिन्न रूप से सहयोग दिया है, उन सबको मेरा हार्दिक अभिनंदन एवं धन्यवाद । प्रभुकी असीम कृपा से ही संपन्न इस ग्रंथको प्रभु के करकमलों में समर्पण कर आज में धन्यता का अनुभव कर रहा हूँ। श्री जैन श्वे नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ, पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालंकारP.O. मेवानगर, Via बालोतरा, पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यजिला-बाडमेर, राजस्थान. पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी विक्रम सं० २०५९, मुनि जम्बूविजयः वैशाखशुक्लत्रयोदशी, बुधवार, ता. १४-५-२००३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD It gives me immense pleasure, to place before the students and scholors who are interested in jain canonical literture, the second part of the critical edition of the Sthananga-Sūtra with the oldest available Sanskrit commentary composed by Achrya Abhaydevasūri in VikramaSamvat 1120. The text of the Sthananga-Sūtra critically edited by us was already publised by Mahavir Jain Vidyalaya in 1985 A.D. with variant readings in foot-notes and with many appendices etc. The same text has been adopted here, though some slight changes have been done where it was important, moreover an old palm-leaf manuscript was found in Bhandarkar Oriental Reserach Institute, Pune, which is also consulted here. In some cases it is unique. We have done some changes in the text according to this ms. where it was quite necessary. Some variant readings have been given in the footnotes from the same as भां० । To understand the text, the commentary is most necessary. So we have added the commentary composed by Achārya Sri Abhayadeva Sūri in Vikrama Samvat 1120. This is the oldest commentary. Abhayadev Sūri commented on nine Angasūtras, Viz. PAIK, HARIF, rad (@tufa), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत. So he is well-known as Talstatichr. He is reputed as a great authority. The FEHF is devided in ten Adhyayanas. To understand the text, 37446auf quotes many verses or words from other authentic works, hence this commentary is like an occon. As this is a very big work, we have thought to publish it in three parts. The first part containing 1-2-3 adhyayanas has already been published recently. Now the second part containing 4-5-6 adhyayanas is being brought out. The third part will contain 7-8-9-10 adhyayanas and many appendices. -A-4 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD In editing this whole work, I have received a great help from my disciples namely ghentarsforlyst, gf yuszitieri faster and f orfallefales. Areastat fotosyntaff who is the disciple of late realisteft effeteft A who is the disciple of my late Rev. mother teatief 4-16 of VERTET has also helped me very much in every way in critically editing this work. I am extremely greatful to all these. Šri Jain Shwetamber Nakoda Parshvanath Tirth P.O. Mevanagar-344025, Station Balotra, Dist. Badmer, (Rajasthan), INDIA, Muni Jambū vijay disciple of His Holiness Munira ja Sri Bhuvanavijayaji Mahā rā ja Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्काः ३०३-४९८ ३०३-३४८ स्थानाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः सूत्राकाः विषयः २३५-३८८ चतुर्थमध्ययनं 'चतुःस्थानकम्' (चत्वार उद्देशकाः) २३५-२७७ प्रथम उद्देशकः २३५-२३६ चतस्रोऽन्तक्रियाः, चत्वारो वृक्षा वृक्षतुल्याः पुरुषाश्च २३७-२३९ चतम्रो भाषाः, चत्वारि वस्राणि तत्तुल्याः पुरुषाश्च २४०-२४३ चतुर्विधाः पुत्राः, विविधरूपेण चतुर्विधाः पुरुषाः २४४-२४५ चतुर्विधास्तृणवनस्पतिकायिकाः, नारकस्य इहानागमनकारणानि २४६-२४७ निर्ग्रन्थीनां चतुर्विधाः संघाट्यः, ध्यानचतुष्टयम् २४८-२५० देवस्थिति-संवासौ, कषायादिचतुष्टयम्, कर्मचयादिकारणानि २५१-२५३ चतुर्विधाः प्रतिमाः, अस्तिकायाः, फल-फलतुल्यपुरुषचतुष्टयम् २५४-२५५ सत्यासत्ययोश्चातुर्विध्यम्, प्रणिधानचतुष्टयम् २५६ विविधरूपेण चत्वारः पुरुषजाताः २५७-२६५ लोकपालादयश्चतुर्विधा देवाः, चतुर्विधाः प्रमाणादयः २६६-२६८ चतुर्यामो धर्मः, दुर्गति-सुगत्यादिचतुष्टयम् २६९-२७२ हास्योत्पत्तेः कारणानि, अन्तर-भृतक-पुरुषचतुष्टयम् २७३-२७६ चमरादिलोकपालानामग्रमहिष्यः, विकृतयः, कूटागारादि २७७ चतस्रोऽङ्गबाह्याः प्रज्ञप्तयः २७८-३१० द्वितीय उद्देशकः २७८-२८१ चत्वारः प्रतिसलीनाः, विविधरूपेण चत्वारः पुरुषजाताः २८२ चतम्रो विकथाः कथाश्च २८३-२८४ चतुर्विधाः पुरुषाः, इदानीमतिशायिज्ञानदर्शनानुत्पत्तिकारणानि २८५-२८६ अस्वाध्याय-स्वाध्यायसमयाः, लोकस्थितिचातुर्विध्यम् २८७-२८९ पुरुष-गर्हा-पुरुष-स्त्री-पुरुषचतुष्टयम् २९०-२९१ निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्या आलापे निर्दोषत्वम्, तमस्कायनामानि २९२-२९७ पुरुषचतुष्टयम्, माया-मान-लोभादिचातुर्विध्यम् २९८-३०७ मानुषोत्तर-जम्बूद्वीपादिसम्बद्धाश्चतुर्विधाः पदार्थाः ३०८-३०९ चतुर्विधं सत्यम्, आजीविकानां चतुर्विधं तपः ३०३-३०९ ३०९-३११ ३११-३१४ ३१४-३१५ ३१५-३२४ ३२४-३२९ ३२९-३३० ३३०-३३२ ३३२-३३३ ३३३-३४० ३४०-३४२ ३४२-३४४ ३४४-३४८ ३४८ ३४९-३९७ ३४९-३५५ ३५५-३५९ ३५९-३६१ ३६१-३६३ ३६३-३६७ ३६७-३६९ ३६९-३७९ ३७९-३९५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः ३१० ३९६-३९७ ३९८-४४९ ३९८-४०३ ४०३-४१२ ३२२ ४१२-४१३ ४१३-४१४ ४१४-४१७ ४१८ ४१८-४२२ ४२२-४३० ४३०-४३१ ४३१-४३३ ४३३-४४९ संयम-त्यागा-ऽकिञ्चनतानां चातुर्विध्यम् ३११-३८८ तृतीय उद्देशकः ३११-३१५ क्रोधश्चतुर्विधः, पुरुषचतुष्टयम्, आश्वासचतुष्टयम् ३१६-३१९ चत्वारः पुरुषाः, युग्माः, शूराः, पुरुषाः, लेश्याः, पुरुषाः ३२०-३२१ चतुर्विधा आचार्याः, अन्तेवासिनः, निर्ग्रन्थाः, निर्ग्रन्थ्यः श्रमणोपासकाः, श्रमणोपासिकाश्च चतुर्विधाः श्रमणोपासकाः, तेषां स्थितिः ३२३ अधुनोत्पन्नदेवस्य इहानागमनागमनकारणानि ३२४ लोकान्धकार-लोकोद्योत-देवेन्द्राद्यागमनकारणानि ३२५-३२६ चतम्रो दुःखशय्याः सुखशय्याश्च, अवाचनीया वाचनीयाश्च ३२७-३३१ पुरुषजाताः, समानप्रायाः, द्विशरीराः, पुरुषाः, प्रतिमाः ३३२-३३३ जीवस्पृष्टानि कर्मोन्मिश्राणि शरीराणि, अस्तिकायाः, बादरकायाः ३३४ तुल्यप्रदेशाः, दुर्दशैं शरीरम्, इन्द्रियार्थाः लोकबहिरगमनहेतवः ३३५-३३८ ज्ञाता-ऽऽहरणादिचातुर्विध्यम्, अन्धकारस्योद्योतस्य च हेतवः ३३९-३८८ चतुर्थ उद्देशकः ३३९-३४२ प्रसर्पकाः, आहारः, आशीविषाः, व्याधयः, चिकित्साः, चिकित्सकाः ३४३-३४५ पुरुषजाताः, वादिसमवसरणानि, पुरुषजाताः ३४६-३५२ मेघाः, आचार्याः, भिक्षाकाः, पुरुषजाताः, चतुष्पदाः, पक्षिणः, क्षुद्रप्राणाः,भिक्षाकाः, पुरुषजाताः ३५३-३५४ संवासाः, अपध्वंसाः, तत्कारणानि ३५५-३६२ चतुर्विधाः प्रव्रज्याः, संज्ञाः, कामाः, पुरुषजाताः, उपसर्गाः, कर्माणि ३६३-३६६ चतुर्विधः सङ्गः, बुद्धिः, मतिः, जीवाः, पुरुषजाताः ३६७-३७० चतुर्गत्यागतिकाः चतुर्विधः संयमः, असंयमः, क्रियाः, सतां गुणानां नाश-दीपनहेतवः ३७१-३७३ शरीरोत्पत्तिकारणानि, धर्मद्वाराणि, नारकादिगतिकारणानि ३७४-३७५ वाद्य-नाट्य-गेय-माल्या-ऽलङ्कारा-ऽभिनयाः, विमानानि, शरीराणि ३७६-३८० उदकगर्भाः, मनुषीगर्भाः, उत्पादपूर्ववस्तूनि, काव्यानि, समुद्घाताः ३८१-३८५ चतुर्दशपूर्विसम्पद्, वादिसम्पद्, कल्पसंस्थानानि, समुद्राः, आवर्ताः ४५०-४९८ ४५०-४५४ ४५४-४६० ४६०-४६९ ४६९-४७२ ४७२-४८३ ४८३-४८८ ४८८-४८९ ४८९-४९१ ४९१-४९२ ४९२-४९५ ४९५-४९७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९७-४९८ ४९९-६०१ ४९९-५३० ४९९-५०३ ५०३-५०७ ५०७-५१७ ५१७-५१९ ५२०-५२२ ५२२-५२६ ५२६-५३० ५३१-५६९ विषयानुक्रमः ३८६-३८८ चतुस्ताराणि नक्षत्राणि, कर्मचयादिकारणानि, चतुष्प्रदेशिकस्कन्धादयः ३८९-४७४ पञ्चममध्ययनं ‘पञ्चस्थानकम्' (त्रय उद्देशकाः) ३८९-४११ प्रथम उद्देशकः ३८९-३९१ पञ्च महाव्रतानि, अणुव्रतानि, वर्णादयः, सद्गति-दुर्गतिकारणानि ३९२-३९४ प्रतिमाः, स्थावरकायाः, तदधिपतयः, अवधिदर्शनक्षोभकारणानि ३९५-३९८ शरीराणि, जिनानाश्रित्य वस्तुतत्त्वस्य दुराख्येयत्वादि, प्रशस्ताप्रशस्तानि स्थानानि, महानिर्जराकारणानि, विसंभोगिकादिकारणानि ३९९-४०० गणविग्रहा-ऽविग्रहकारणानि, निषद्याः, आर्जवस्थानानि ४०१-४०५ ज्योतिष्काः, देवाः, परिचारणाः, चमर-बल्योरग्रमहिष्यः, इन्द्राणां सांग्रामिकाण्यनीकानि तदधिपतयश्च, देव-देवीस्थितिः ४०६-४०९ प्रतिघाताः, आजीवाः, राजचिह्नानि, परीषहसहनकारणानि ४१०-४११ हेतवोऽहेतवश्च, केवलिन: पञ्चानुत्तराः, तीर्थकृतां नक्षत्राणि ४१२-४४० द्वितीय उद्देशकः ४१२-४१५ नद्युत्तारे प्रथमप्रावृडादौ विहारकरणे च कारणानि अनुद्घातिकाः, श्रमणस्य राजान्तःपरप्रवेशे कारणानि पुरुषेण सहासंवासेऽपि स्रिया गर्भधारणे कारणानि, एवं पुरुषेण सह संवासेऽपि स्त्रिया गर्भधारणे कारणानि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीनामेकत्र स्थानादावपि कारणवशानिर्दोषत्वम् ४१८-४१९ आम्रवस्य संवरस्य च द्वाराणि, दण्डाः, क्रियाः, परिज्ञाः ४२०-४२३ पञ्चविधो व्यवहारः, पञ्च जागराः सुप्ताश्च, कर्मादान-वमनहेतवः ४२४-४२६ दत्तयः, उपघातः, विशोधिः, दुर्लभ-सुलभबोधित्वकारणानि ४२७-४३० प्रतिसंलीनाः, अप्रतिसंलीनाः, संवरासंवरौ, संयमासंयमौ ४३१-४३३ तृणवनस्पतिकायिकाः, आचारः, आचारप्रकल्पः, आरोपणाः ४३४ जम्बूद्वीपादौ विद्यमानाः पञ्च पञ्च पदार्थाः ४३५-४३६ ऋषभस्वाम्यादेः पञ्चधनुःशतोच्चत्वम्, सुप्तविबोधकारणानि ४३७-४३८ निर्ग्रन्थीग्रहणकारणानि, आचार्योपाध्याययोरतिशयाः ४३९-४४० आचार्योपाध्याययोर्गणापक्रमणकारणानि, ऋद्धिमन्तो मनुष्याः ४४१-४७४ तृतीय उद्देशकः ४४१-४४५ अस्तिकायाः, गतयः, इन्द्रियार्थाः, मुण्डाः, बादराः, निर्ग्रन्थाः ५३१-५३७ ४१६ ४१७ ५३७-५४० ५४०-५४२ ५४२-५४५ ५४५-५४९ ५४९-५५२ ५५३-५५७ ५५७-५५८ ५५८-५६१ ५६१ ५६१-५६७ ५६७-५६९ ५६९-६०१ ५६९-५७८ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८-५८३ ५८३-५८४ ५८४-५८६ ५८६-५८७ ५८७-५९३ ५९३-५९९ ५९९-६०० ६००-६०१ ६०२-६५० विषयानुक्रमः ४४६-४४९ वस्त्राणि, रजोहरणानि, निश्रास्थानानि, निधयः, शौचानि ४५०-४५१ छद्मस्थाज्ञेयाः केवलिज्ञेयाः पदार्थाः, महातिमहान्तः पदार्थाः ४५२-४५५ पुरुषजाताः, वनीपकाः आचेलक्यस्य पञ्चभिः कारणैः प्रशस्तत्वम् ४५६-४५८ उत्कलाः, समितयः, जीवाः, पञ्चगत्यागतिकाः, सर्वजीवाः ४५९-४६३ योनिस्थितिः-संवत्सर-निर्याणमार्ग-छेदना-ऽऽनन्तर्या-ऽनन्तकानि ४६४-४६६ ज्ञानानि ज्ञानावरणीयकर्माणि स्वाध्यायः प्रत्याख्यानं प्रतिक्रमणम् ४६७-४६९ सूत्रवाचन-शिक्षणकारणानि, विमानानि, शरीराणि, जम्बूद्वीपनद्यः ४७०-४७४ तीर्थकराः, सभाः, पञ्चताराणि नक्षत्राणि, कर्मचयादिकारणानि पञ्चप्रदेशिकस्कन्धादयः ४७५-५४० षष्ठमध्ययनं 'षट्स्थानकम्' ४७५-४७७ गणधारणाधुपयोगीनि षट् स्थानानि ४७८-४७९ षट् छद्मस्थो न जानाति, जिनस्तु जानाति, जीवशक्त्यभावः ४८०-४८४ षड् जीवनिकायाः, तारकाकारग्रहाः, जीवानामनेकधा षविधत्वम् ४८५-४८९ षण्णामसुलभत्वम्, इन्द्रियार्थ-संवरादयः षट् षट् पदार्थाः ४९०-४९७ षड्विधा मनुष्यादयः ४९८-४९९ षड्विधा लोकस्थित्यादयः ५००-५०१ षड् आहारग्रहणाग्रहणहेतवः, उन्मादहेतवश्च ५०२-५०९ प्रमाद-प्रमादप्रतिलेखना-लेश्याः, इन्द्राग्रमहिष्यादि ५१०-५१३ अवग्रहेहापायधारणाः, बाह्याभ्यन्तरतपः, विवादः, प्राणाः ५१४-५१७ गोचरचर्या, महानिरय-विमानप्रस्तटादि ५१८-५२१ अभिचन्द्रः, भरतचक्री, पार्थादितीर्थकृतां वक्तव्यता, संयमासंयमौ ५२२-५२४ जम्बूद्वीपादिसम्बद्धाः पदार्थाः, ऋतवः, अवमरात्रातिरात्रौ ५२५-५३० अर्थावग्रहाः, अवधिज्ञानानि, अवचनानि, कल्पप्रस्तारादि ५३१-५३५ भगवतो महावीरस्य वक्तव्यता, विमानादि, विरहमानम् ५३६-५३८ आयुर्बन्धः, भावाः, प्रतिक्रमणानि, षट्ताराणि ५३९-५४० नक्षत्राणि, कर्मचयादि, षट्प्रदेशिकस्कन्धादि त्रीणि परिशिष्टानि प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि द्वितीयं परिशिष्टम्- स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः तृतीयं परिशिष्टम्- स्थानाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः ६०२-६०४ ६०४-६०५ ६०५-६०७ ६०७-६०९ ६०९-६१३ ६१३-६१५ ६१५-६१७ ६१७-६२० ६२१-६२५ ६२५-६२९ ६३०-६३१ ६३१-६३२ ६३३-६४० ६४०-६४३ ६४३-६५० ६५० १-१६० १-१४१ १४२-१५७ १५८-१६० Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ आ.श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकाविभूषितं स्थानाङ्गसूत्रम् । अथ चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । [ प्रथम उद्देशकः । ] [सू० २३५] चत्तारि अंतकिरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहातत्थ खलु इमा पढमा अंतकिरिया- अप्पकम्मपच्चायाते यावि भवति, 5 से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वतिते संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी, तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति, णो तधप्पगारा वेयणा भवति, तधप्पगारे पुरिसजाते दीहेणं परितातेणं सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणमंतं करेइ, जहा से भैरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी, पढमा अंतकिरिया १। ' अहावरा दोच्चा अंतकिरिया- महाकम्मपच्चायाते यावि भवति, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारितं पव्वतिते संजमबहले संवरबहले जाव उवधाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी, तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति, तहप्पगारा वेयणा भवति, तहप्पगारे पुरिसजाते निरुद्धणं परितातेणं सिज्झति जाव अंतं करेति, जहा से गतसूमाले अणगारे, दोच्चा अंतकिरिया । अहावरा तच्चा अंतकिरिया- महाकम्मपच्चायाते यावि भवति, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते, जहा दोच्चा, नवरं दीहेणं परितातेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेति, जहा से सणंकुमारे राया चाउरंतचक्कवट्टी, तच्चा अंतकिरिया ३।। ___ अहावरा चउत्था अंतकिरिया- अप्पकम्मपच्चायाते यावि भवति, से णं 20 मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते संजमबहले जाव तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति, णो तहप्पगारा वेयणा भवति, तहप्पगारे पुरिसजाते णिरुद्धणं परितातेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेति, जहा सा मरुदेवा भगवती, चउत्था अंतकिरिया ४। _[टी०] व्याख्यातं तृतीयमध्ययनम्, अधुना सङ्ख्याक्रमसंबद्धमेव चतुःस्थानकाख्यं 25 चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायं पूर्वेण सह विशेषसम्बन्धः- अनन्तराध्ययने विचित्रा । १. भरतचक्रवर्तिनः कथा अन्याश्च सूत्रे टीकायां च सूचिताः सर्वा अपि कथाः प्रथमपरिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्याः॥ 15 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जीवाजीवद्रव्यपर्याया उक्ता इहापि त एवोच्यन्ते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुरुद्देशकस्य चतुरनुयोगद्वारस्य सूत्रानुगमे प्रथमोद्देशकादिसूत्रमेतत्- चत्तारि अंतकिरियेत्यादि । अस्य चायमभिसम्बन्धः- अनन्तरोद्देशकस्योपान्तसूत्रे कर्मणश्चयायुक्तमिह तु 5 कर्मणस्तत्कार्यस्य वा भवस्यान्तक्रियोच्यत इति । अथवा श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातम् [ सू०१] इत्यभिधाय यत्तदाख्यातं तदभिहितं तथेदमपरं तेनैवाख्यातं यत्तदुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या- अन्तक्रिया भवस्यान्तकरणम्, तत्र यस्य न तथाविधं तपो नापि परीषहादिजनिता तथाविधा वेदना दीर्घेण च प्रव्रज्यापर्यायेण सिद्धिर्भवति तस्यैका १, यस्य तु तथाविधे तपोवेदने अल्पेनैव च प्रव्रज्यापर्यायेण 10 सिद्धिः स्यात् तस्य द्वितीया २, यस्य च प्रकृष्टे तपोवेदने दीर्घेण च पर्यायेण सिद्धिस्तस्य तृतीया ३, यस्य पुनरविद्यमानतथाविधतपोवेदनस्य हूस्वपर्यायेण सिद्धिस्तस्य चतुर्थीति, अन्तक्रियाया एकस्वरूपत्वेऽपि सामग्रीभेदात् चातुर्विध्यमिति समुदायार्थः । __ अवयवार्थस्त्वयम्- चतस्रोऽन्तक्रियाः प्रज्ञप्ता भगवतेति गम्यते, तत्रेति सप्तमी निर्धारणे, तासु चतसृषु मध्ये इत्यर्थः, खलुक्यालङ्कारे, इयमनन्तरं वक्ष्यमाणत्वेन 15 प्रत्यक्षासन्ना प्रथमा, इतरापेक्षया आद्या अन्तक्रिया, इह कश्चित् पुरुषः देवलोकादौ यात्वा ततोऽल्पैः स्तोकैः कर्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः प्रत्यागतो मानुषत्वम् इति अल्पकर्मप्रत्यायातो य इति गम्यते, अथवा एकत्र जनित्वा ततोऽल्पकर्मा सन् यः प्रत्यायातः स तथा, लघुकर्मतयोत्पन्न इत्यर्थः, चकारो वक्ष्यमाणमहाकापेक्षया समुच्चयार्थः, अपि: सम्भावने, सम्भाव्यतेऽयमपि पक्ष इत्यर्थः, भवति स्यात्, स 20 इति असौ, णं वाक्यालङ्कारे, मुण्डो भूत्वा द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतो रागाद्यपनयनेन अगाराद् द्रव्यतो गेहाद्भावतः संसाराभिनन्दिदेहिनामावासभूतादविवेकगेहाद् निष्क्रम्येति गम्यते, अनगारिताम्, अगारी गृही असंयतः, तत्प्रतिषेधादनगारी संयतः, तद्भावस्तत्ता, तां साधुतामित्यर्थः, प्रव्रजितः प्रगतः, प्राप्त इत्यर्थः, अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया निर्ग्रन्थतया प्रव्रजित: प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः, किंभूत इत्याह संजमबहुले त्ति संयमेन 25 पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणेन बहुलः प्रचुरो यः स तथा, संयमो वा बहुलो यस्य स तथा, १. संबद्धस्यास्य जे१ पा० ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २३५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । । ३०५ एवं संवरबहुलोऽपि, नवरमाश्रवनिरोधः संवरः, अथवा इन्द्रिय-कषायनिग्रहादिभेदः, एवं च संयमबहुलग्रहणं प्राणातिपातविरतेः प्राधान्यख्यापनार्थम्, यतः एवं चिय एत्थ वयं निद्दिटुं जिणवरेहिं सव्वेहिं । पाणाइवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खट्ठा ॥१॥ [ ] इति । एतच्च द्वितयमपि रागाद्युपशमयुक्तचित्तवृत्तेर्भवति, अत आह- समाधिबहुल:, 5 समाधिस्तु प्रशमवाहिता ज्ञानादिर्वा, समाधिः पुनर्निःस्नेहस्यैव भवतीत्याह- लूहे रूक्षः शरीरे मनसि च द्रव्य-भावस्नेहवर्जितत्वेन परुषः, लूषयति वा कर्मामलमपनयतीति लूषः, कथमसावेवं संवृत्त इत्याह- यतः तीरट्ठी, तीरं पारं भवार्णवस्यार्थयत इत्येवंशीलस्तीरार्थी तीरस्थायी वा तीरस्थितिरिति वा प्राकृतत्वात् तीरट्ठीति, अत एव उवहाणवं ति उपधीयते उपष्टभ्यते श्रुतमनेनेति उपधानं श्रुतविषयस्तपउपचार इत्यर्थः, 10 तद्वान्, अत एव दुक्खक्खवे त्ति दुःखम् असुखं तत्कारणत्वाद्वा कर्म तत् क्षपयतीति दुःखक्षपः, कर्मक्षपणं च तपोहेतुकमित्यत आह- तवस्सीति, तपोऽभ्यन्तरं कर्मेन्धनदहनज्वलनकल्पमनवरतशुभध्यानलक्षणमस्ति यस्य स तपस्वी, तस्स णं ति यश्चैवंविधस्तस्य, णं वाक्यालङ्कारे, नो तथाप्रकारम् अत्यन्तघोरं वर्द्धमानजिनस्येव तपः अनशनादि भवति, तथा नो तथाप्रकारा अतिघोरैवोपसर्गादिसम्पाद्या वेदना 15 दुःखासिका भवति, अल्पकर्म प्रत्यायातत्वादिति, ततश्च तत्तथाप्रकारमल्पकर्मप्रत्यायातादिविशेषणकलापोपेतं पुरुषजातं पुरुषप्रकारो दीर्पण बहुकालेन पर्यायेण प्रव्रज्यालक्षणेन करणभूतेन सिध्यति अणिमादियोगेन निष्ठितार्थो वा विशेषतः सिद्धिगमनयोग्यो वा भवति, सकलकर्मनायकमोहनीयघातात्, ततो घातिचतुष्टयघातेन बुध्यते केवलज्ञानभावात् समस्तवस्तूनि, ततो मुच्यते भवोपग्राहिकर्मभिः, ततः 20 परिनिर्वाति सकलकर्मकृतविकारव्यतिकरनिराकरणेन शीतीभवतीति, किमुक्तं भवतीत्याह- सर्वदःखानामन्तं करोति, शारीर-मानसानामित्यर्थः, अतथाविधतपोवेदनो दीर्घेणापि पर्यायेण किं कोऽपि सिद्धः ? इति शङ्कापनोदार्थमाह– जहा से इत्यादि, यथाऽसौ यः प्रथमजिनप्रथमनन्दनो नन्दनशताग्रजन्मा भरतो राजा, चत्वारोऽन्ताः पर्यन्ताः पूर्व-दक्षिण-पश्चिमसमुद्र-हिमवल्लक्षणा यस्याः पृथिव्याः सा चतुरन्ता, तस्या अयं 25 स्वामित्वेनेति चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती चेति स तथा, स हि प्राग्भवे लघूकृतका Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सर्वार्थसिद्धविमानाच्च्युत्वा चक्रवर्त्तितयोत्पद्य राज्यावस्थ एव केवलमुत्पाद्य कृतपूर्वलक्षप्रव्रज्यः अतथाविधतपोवेदन एव सिद्धिमुपगत इति प्रथमान्तक्रियेति १ । अहावरे त्ति ( ति ? ) अथ अनन्तरमपरा पूर्वापेक्षयाऽन्या द्वितीयस्थानेऽभिधानात् द्वितीया महाकर्म्मभिः गुरुकर्म्मभिर्महाकर्मा सन् प्रत्यायातः प्रत्याजातो वा यः स तथा, 5 तस्स णमिति, तस्य महाकर्म्मप्रत्याजातत्वेन तत्क्षपणाय तथाप्रकारं घोरं तपो भवति, एवं वेदनाऽपि, कर्मोदयसम्पाद्यत्वादुपसर्गादीनामिति, निरुद्धेनेति अल्पेन, यथाऽसौ गजसुकुमारो विष्णुलघुभ्राता, स हि भगवतोऽरिष्टनेमिजिननाथस्यान्तिके प्रव्रज्यां प्रतिपद्य श्मशाने कृतकायोत्सर्गलक्षणमहातपाः शिरोनिहितजाज्वल्यमानाऽङ्गारजनितात्यन्तवेदनोऽल्पेनैव पर्यायेण सिद्धवानिति, शेषं कण्ठ्यम् २ | 10 अहावरेत्यादि कण्ठ्यम्, यथाऽसौ सनत्कुमार इति चतुर्थचक्रवर्त्ती, स हि महातपा महावेदनश्च सरोगत्वात् दीर्घतरपर्यायेण सिद्ध:, तद्भवे सिद्ध्यभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति ३ । ३०६ अहावरेत्यादि कण्ठ्यम्, यथाऽसौ मरुदेवी प्रथमजिनजननी, सा हि स्थावरत्वेऽपि क्षीणप्रायकर्म्मत्वेनाल्पकर्मा अविद्यमानतपोवेदना च सिद्धा, गजवरारूढाया एवायुः समाप्तौ 15 सिद्धत्वादिति ४ । एतेषां च दृष्टान्त - दाष्टन्तिकानामर्थानां न सर्वथा साधर्म्यमन्वेषणीयम्, देशदृष्टान्तत्वादेषाम्, यतो मरुदेव्या मुण्डे भवित्तेत्यादिविशेषणानि कानिचिन्न घटन्ते, अथवा फलतः सर्वसाधर्म्यमपि मुण्डनादिकार्यस्य सिद्धत्वस्य सिद्धत्वादिति । [सू० २३६ ] चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तंजहा- उन्नते णाममेगे उन्नते १, उन्नते णाममेगे पणते २, पणते णाममेगे उन्नते ३, पणते नाममेगे पणते 20 ४,१ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- उन्नत्ते नाममेगे उन्नते तहेव, जाव पणते नाममेगे पणते, २ चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तंजहा- उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणते १, उण्णते नाममेगे पणतपरिणते २, पणते णाममेगे उन्नतपरिणते ३, पणए नाममेगे पणयपरिणए ४,३ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्त्रत्ता, तंजहा- उन्नते 25 नाममेगे उन्नतपरिणते, चउभंगो ४, ४ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ [सू० २३६] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । । चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तंजहा- उन्नते णाममेगे उन्नतरूवे, तहेव चउभंगो ४, ५ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- उन्नते नामं० ४, ६। चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- उन्नते नाममेगे उन्नतमणे, उन्न० ४, ७ । एवं संकप्पे ८, पन्ने ९, दिट्ठी १०, सीलाचारे ११, ववहारे १२, परक्कमे १३, एगे पुरिसजाए, पडिवक्खो नत्थि ।। 5 __ चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तंजहा- उजू नाममेगे उज्जू, उजू नाममेगे वंके, चउभंगो ४, १४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- उज्जू नाममेगे ४, १५ । एवं जहा उन्नतपणतेहिं गमो तहा उज्जुवंकेहि वि भाणियव्वो जाव परक्कमे २६ । [टी०] पुरुषविशेषाणामन्तक्रियोक्ता, अधुना तेषामेव स्वरूपनिरूपणाय 10 दृष्टान्तदान्तिकसूत्राणि षड्विंशतिमाह-चत्तारि रुक्खेत्यादि कण्ठ्यम्, किन्तु वृश्च्यन्ते छिद्यन्ते इति वृक्षाः, ते विवक्षया चत्वारः प्रज्ञप्ता भगवता, तत्र उन्नतः उच्चो द्रव्यतया, नामेति सम्भावने वाक्यालङ्कारे वा, एकः कश्चिद् वृक्षविशेषः, स एव पुनरुन्नतो जात्यादिभावतोऽशोकादिरित्येको भङ्गः, उन्नतो नाम द्रव्यत एव एकः अन्यः प्रणतो. जात्यादिभावैर्हीनो निम्बादिरित्यर्थः इति द्वितीयः, प्रणतो नामैको द्रव्यतः खर्च 15 इत्यर्थः, स एव उन्नतो जात्यादिना भावेनाशोकादिरिति तृतीयः, प्रणतो द्रव्यत एव खर्चःस एव प्रणतो जात्यादिहीनो निम्बादिरिति चतुर्थः, अथवा पूर्वमुन्नतः तुङ्गः अधुनाऽप्युन्नतस्तुङ्ग एवेत्येवं कालापेक्षया चतुर्भङ्गीति १, एवमित्यादि, एवमेव वृक्षवच्चत्वारि पुरुषजातानि पुरुषप्रकारा अनगारा अगारिणो वा, उन्नतः पुरुषः कुलैश्वर्यादिभिलौकिकगुणैः शरीरेण वा गृहस्थपर्याये, पुनरुन्नतो लोकोत्तरैर्ज्ञानादिभिः 20 प्रव्रज्यापर्याये, अथवा उन्नत उत्तमभवत्वेन पुनरुन्नतः शुभगतित्वेन कामदेवादिवदित्येकः, तहेव त्ति वृक्षसूत्रमिवेदम्, जाव त्ति यावत् पणए नामं एगे पणए त्ति चतुर्थभङ्गकस्तावद् वाच्यम्, तत्र उन्नतस्तथैव प्रणतस्तु ज्ञान-विहारादिहीनतया दुर्गतिगमनाद्वा, शिथिलत्वे शैलकराजर्षिवत् ब्रह्मदत्तवद्वेति द्वितीयः, तृतीयः पुनरागतसंवेगः शैलकवत् मेतार्यवद्वा, चतुर्थ उदायिनृपमारकवत् कालशौकरिकवद्वेति २ । 25 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे एवं दृष्टान्त-दार्टान्तिकसूत्रे सामान्यतोऽभिधाय तद्विशेषसूत्राण्याह- उन्नत: तुङ्गतया एको वृक्षः उन्नतपरिणत: अशुभरसादिरूपमनुन्नतत्वमपहाय शुभरसादिरूपोन्नततया परिणत इत्येकः, द्वितीये भङ्गे प्रणतपरिणत उक्तलक्षणोन्नतत्वत्यागात्, एतदनुसारेण तृतीय-चतुर्थो वाच्यौ । विशेषसूत्रता चास्य पूर्वमुन्नतत्व-प्रणतत्वे सामान्येनाभिहिते इह 5 तु पूर्वावस्थातोऽवस्थान्तरगमनेन विशेषिते इति, एवं दार्टान्तिकेऽपि परिणतसूत्रमवगन्तव्यमिति ४ । परिणामश्चाऽऽकार-बोध-क्रियाभेदात् त्रिधा, तत्राऽऽकारमाश्रित्य रूपसूत्रम्, तत्र उन्नतरूपः संस्थाना-ऽवयवादिसौन्दर्यात् ५ । गृहस्थपुरुषोऽप्येवम्, प्रव्रजितस्तु संविग्नसाधुनेपथ्यधारीति ६ । 10 बोधपरिणामापेक्षाणि चत्वारि सूत्राणि, तत्र उन्नतो जात्यादिगुणैरुच्चतया वा उन्नतमनाः प्रकृत्या औदार्यादियुक्तमनाः, एवमन्येऽपि त्रयः ७ । एवमिति सङ्कल्पादिसूत्रेषु चतुर्भङ्गिकातिदेशोऽकारि लाघवार्थम्, सङ्कल्पो विकल्पो मनोविशेष एव विमर्श इत्यर्थः, उन्नतत्वं चास्यौदार्यादियुक्ततया सदर्थविषयतया वा ८ । प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञा, सूक्ष्मार्थविवेचकत्वमित्यर्थः, तस्याश्चोन्नतत्वमविसंवादितया ९। तथा दर्शनं दृष्टिः चक्षुर्ज्ञानं 15 नयमतं वा, तदुन्नतत्वमप्यविसंवादितयैवेति १० । क्रियापरिणामापेक्षमतः सूत्रत्रयम्, तत्र शीलाचारः, शीलं समाधिस्तत्प्रधानस्तस्य वाऽऽचारः अनुष्ठानं शीलेन वा स्वभावेनाचार इति, उन्नतत्वं चास्यादूषणतया, वाचनान्तरे तु शीलसूत्रमाचारसूत्रं च भेदेनाधीयत इति ११, व्यवहारः अन्योन्यदान-ग्रहणादिर्विवादो वा, उन्नतत्वमस्य श्लाघ्यत्वेनेति १२ । पराक्रमः पुरुषकारविशेषः परेषां वा 20 शत्रूणामाक्रमणम्, तस्योन्नतत्वमप्रतिहतत्वेन शोभनविषयत्वेन चेति १३, उन्नतविपर्ययः सर्वत्र प्रणतत्वं भावनीयमिति, एगे पुरीत्यादि, एतेषु मनःप्रभृतिषु सप्तसु चतुर्भङ्गिकासूत्रेषु एक एव पुरुषजातालापकोऽध्येतव्यः, प्रतिपक्षो द्वितीयपक्षो दृष्टान्तभूतः वृक्षसूत्रं नास्ति, नाध्ये तव्यमिति यावत्, इह मनःप्रभृतीनां दाान्तिक पुरुषधर्माणां दृष्टान्तभूतवृक्षेष्वसम्भवादिति ।। 25 उज्जु त्ति ऋजुः अवक्रो नामेति पूर्ववदेकः कश्चिद् वृक्षः तथा ऋजुः Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २३७-२३८] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ३०९ अविपरीतस्वभाव औचित्येन फलादिसम्पादनादित्येकः, द्वितीये द्वितीयं पदं वङ्क इति वक्रः, फलादौ विपरीतः, तृतीये प्रथमपदं वक्रः कुटिलः, चतुर्थः सुज्ञानः, अथवा पूर्वम् ऋजुरवक्रः, पश्चादपि ऋजुः अवक्रोऽथवा मूले ऋजुरन्ते च ऋजुरित्येवं चतुर्भङ्गी कार्येत्येष दृष्टान्तः १, पुरुषस्तु ऋजुः अवक्रो बहिस्तात् शरीरगति-वाक्-चेष्टादिभिस्तथा ऋजुरन्तर्निज्यत्वेन सुसाधुवदित्येकः, तथा ऋजुस्तथैव वङ्क इति तु वक्रः अन्तर्मायित्वेन 5 मायिकारणवशप्रयुक्तार्जवभावदुःसाधुवदिति द्वितीयः, तृतीयस्तु कारणवशाद्दर्शितबहिरनार्जवोऽन्तर्निर्माय इति प्रवचनगुप्तिरक्षाप्रवृत्तसाधुवदिति, चतुर्थ उभयतो वक्रः, तथाविधशठवदिति, कालभेदेन वा व्याख्येयम् २ । __ अथ ऋजु- ऋजुपरिणत इत्यादिका एकादश चतुर्भङ्गिका लाघवार्थमतिदेशेनाहएवमित्यनेन ऋजुर्नाम ऋजुरित्यादिनोपदर्शितक्रमभङ्गकक्रमेण यथेति येन प्रकारेण, 10 परिणत-रूपादिविशेषणनवकविशेषिततयेत्यर्थः, उन्नत-प्रणताभ्यां परस्परं प्रतिपक्षभूताभ्यां गमः सदृशपाठः कृतः, तथा तेन प्रकारेण परिणतरूपादिविशेषिताभ्यामित्यर्थः, ऋजुवक्राभ्यामपि भणितव्यः, कियान् स इत्याहजाव परक्कमे त्ति, ऋजुवक्रवृक्षसूत्रात् त्रयोदशसूत्रं यावदित्यर्थः, तत्र च ऋजु २ ऋजुपरिणत २ ऋजुरूप २ लक्षणानि षट् सूत्राणि वृक्षदृष्टान्त-पुरुषदार्टान्तिकस्वरूपाणि, 15 शेषाणि तु मनःप्रभृतीनि सप्त अदृष्टान्तानीति १३ ।। [सू० २३७] पडिमापडिवन्नस्स णमणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासातो भासित्तए, तंजहा- जायणी, पुच्छणी, अणुन्नवणी, पुट्ठस्स वागरणी । [सू० २३८] चत्तारि भासाजाता पन्नत्ता, तैजहा- सच्चमेगं भासज्जातं, बीतियं मोसं, ततियं सच्चमोसं, चउत्थं असच्चमोसं ४ । [टी०] पुरुषविचार एवेदमाह- पडिमेत्यादि स्फुटम्, परं प्रतिमा भिक्षुप्रतिमा द्वादश समयप्रसिद्धास्ताः प्रतिपन्नः अभ्युपगतवान् यस्तस्य, याच्यतेऽनयेति याचनी पानकादेः दाहिसि मे एत्तो अन्नतरं पाणगजाय [ ] मित्यादिसमयप्रसिद्धक्रमेण, तथा प्रच्छनी मार्गादेः कथञ्चित् सूत्रार्थयोर्वा, तथा अनुज्ञापनी अवग्रहस्य, तथा पृष्टस्य केनाप्यर्थादेर्व्याकरणी प्रतिपादनीति । १. ऋजुः परिणत खं० । 'ऋजुः ऋजुपरिणतः' इति पाठोऽप्यत्र संभवेत् ॥ २. °भ्यां भणितव्यः जे१ खं०॥ 20 25 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे भाषाप्रस्तावाद् भाषाभेदानाह - चत्तारि भासेत्यादि, जातम् उत्पत्तिधर्म्मकम्, तच्च व्यक्तिवस्तु, अतो भाषाया जातानि व्यक्तिवस्तूनि भेदा: प्रकाराः भाषाजातानि, तत्र सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा, तेभ्यो हितं सत्यमेकं प्रथमं सूत्रक्रमापेक्षया, भाष्यते सा तया वा भाषणं वा भाषा काययोगगृहीतवाग्योग निसृष्टभाषाद्रव्यसंहतिः तस्या जातं 5 प्रकारो भाषाजातम् ‘अस्त्यात्मे' त्यादिवत्, द्वितीयं सूत्रक्रमादेव मोसं ति प्राकृतत्वान्मृषा अनृतं ‘नास्त्यात्मे’त्यादिवतु, तृतीयं सत्यमृषा तदुभयस्वभावम् ‘आत्माऽस्त्यकर्ते’त्यादिवत्, चतुर्थमसत्यमृषा अनुभयस्वभावं 'देही' त्यादिवदिति, भवतश्चात्र गाथे ३१० सच्चा हिया सतामिह संतो मुणओ गुणा पयत्था वा । तव्विवरीया मोसा मीसा जा तदुभयसहावा ॥ १ ॥ अहिगया जातीसु वि सद्दो च्चिय केवलो असच्चमुसा । एया सभेयलक्खण सोदाहरणा जहा सुते ||२|| [विशेषाव० ३७६-३७७] त्ति [सू० २३९] चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा - सुद्धे णामं एगे सुद्धे १, सुद्धे मंगे असुद्धे २, असुद्धे णामं एगे सुद्धे ३, असुद्धे णामं एगे असुद्धे 15 ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - सुद्धे णामं एगे सुद्धे, चउभंगो ४ । एवं परिणत -रूवे वत्था सपडिवक्खा । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - सुद्धे णामं एगे सुद्धमणे, चउभंगो ४। एवं संकप्पे जाव परक्कमे । 10 [टी०] पुरुषभेदनिरूपणायैवेयं त्रयोदशसूत्री चत्तारि वत्थेत्यादि स्पष्टा, नवरं शुद्धं 20 वस्त्रं निर्मलतन्त्वादिकारणारब्धत्वात् पुनः शुद्धमागन्तुकमलाभावादिति, अथवा पूर्वं शुद्धमासीदिदानीमपि शुद्धमेव, विपक्षौ सुज्ञानावेवेति, अथ दाष्टन्तिकयोजना एवमेवेत्यादि, शुद्ध जात्यादिना पुनः शुद्धो निर्मलज्ञानादिगुणतया कालापेक्षया वेति चउभंगो त्ति चत्वारो भङ्गाः समाहृताः चतुर्भङ्गी चतुर्भङ्गं वा, पुल्लिङ्गता चात्र प्राकृतत्वात्, तदयमर्थः– वस्त्रवच्चत्वारो भङ्गाः पुरुषेऽपि वाच्या इति । एवमिति यथा शुद्धात् शुद्धपदे 25 परे चतुर्भङ्गं सदाष्टन्तिकं वस्त्रमुक्तमेवं शुद्धपदप्राक्पदे परिणतपदे रूपपदे च चतुर्भङ्गानि १. °निसृष्टा भाषा जे२ ॥ २. 'मसत्यामृषा पासं० जे२ । ३. पृ०३०७ पं०५ अनुसारेण त्रयोदश सूत्राणि ज्ञेयानि ।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २४०-२४१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ३११ वस्त्राणि सपडिवक्ख त्ति सप्रतिपक्षाणि सदार्टान्तिकानि वाच्यानीति, तथाहि- ‘चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा- सुद्धे नाम एगे सुद्धपरिणए' चतुर्भङ्गी, एवमेवेत्यादि पुरुषजातसूत्रचतुर्भङ्गी। ‘एवं सुद्धे नाम एगे सुद्धरूवे' चतुर्भङ्गी, एवं पुरुषेणापि, व्याख्या तु पूर्ववत् । __ चत्तारीत्यादि, शुद्धो बहिः, शुद्धमना अन्तः, एवं शुद्धसङ्कल्पः शुद्धप्रज्ञः शुद्धदृष्टिः 5 शुद्धशीलाचार: शुद्धव्यवहारः शुद्धपराक्रम इति वस्त्रवर्जाः पुरुषा एव चतुर्भङ्गवन्तो वाच्याः, व्याख्या च प्रागिवेति, अत एवाह- एवमित्यादि । [सू० २४०] चत्तारि सुता पन्नत्ता, तंजहा- अतिजाते अणुजाते अवजाते कुलिंगाले । [टी०] पुरुषभेदाधिकार एवेदमाह- चत्तारि सुतेत्यादि । सुताः पुत्राः अइजाए 10 त्ति पितुः सम्पदमतिलय जातः संवृत्तोऽतिक्रम्य वा तां यातः प्राप्तो विशिष्टतरसम्पदम्, समृद्धतर इत्यर्थः, इत्यतिजातोऽतियातो वा, ऋषभवत् । तथा अणुजाए त्ति अनुरूपः, सम्पदा पितुस्तुल्यो जातोऽनुजातः, अनुगतो वा पितृविभूत्याऽनुयातः, पितृसम इत्यर्थः, महायशोवत्, आदित्ययशसा पित्रा तुल्यत्वात्तस्य । तथा अवजाए त्ति अप इत्यपसदो हीनः पितुः सम्पदो जातोऽपजातः, पितुः सकाशादीषद्धीनगुण इत्यर्थः, 15 आदित्ययशोवत्, भरतापेक्षया तस्य हीनत्वात् । तथा कुलिंगाले त्ति कुलस्य स्वगोत्रस्याङ्गार इवाङ्गारो दूषकत्वादुपतापकत्वाद्वेति कण्डरीकवत्, एवं शिष्यचातुर्विध्यमप्यवसेयम्, सुतशब्दस्य शिष्येष्वपि प्रवृत्तिदर्शनात्, तत्रातिजातः सिंहगिर्यपेक्षया वैरस्वामिवत्, अनुजातः शय्यंभवापेक्षया यशोभद्रवत्, अपजातो भद्रबाहुस्वाम्यपेक्षया स्थूलभद्रवत्, कुलाङ्गार: कूलवालकवदुदायिनृपमारकवद्वेति। 20 [सू० २४१] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- सच्चे नामं एगे सच्चे, सच्चे नामं एगे असच्चे ४, एवं परिणते जाव परक्कमे । ___ चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा- सुती नामं एगे सुती, सुई नामं एगे असुई, चउभंगो ४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- सुती णामं एगे सुती, चउभंगो । एवं जहेव सुद्धेणं वत्थेणं भणितं तहेव सुतिणा वि, जाव 25 परक्कमे । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] तथा चत्तारीत्यादि, सत्यो यथावद्वस्तुभणनाद् यथाप्रतिज्ञातकरणाच्च, पुनः सत्यः संयमित्वेन सद्भ्यो हितत्वाद्, अथवा पूर्वं सत्य आसीदिदानीमपि सत्य एवेति चतुर्भङ्गी । एवंप्रकारसूत्राण्यतिदिशन्नाह - एवमित्यादि व्यक्तम्, नवरमेवं सूत्राणि - । 'चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - सच्चे नामं एगे सच्चपरिणए ४, एवं सच्चरूवे ४, सच्चमणे 5 ४, सच्चसंकप्पे ४, सच्चपन्ने ४, सच्चदिट्ठी ४, सच्चसीलायारे ४, सच्चववहारे ४, सच्चपरक्कमे' त्ति ४ ३१२ पुरुषाधिकार एवेदमपरमाह- चत्तारि वत्थेत्यादि, शुचि पवित्र स्वभावेन, पुनः शुचि संस्कारेण कालभेदेन वेति पुरुषचतुर्भयां शुचिः पुरुषोऽपूतिशरीरतया पुनः शुचिः स्वभावेनेति । 'सुइपरिणए सुइरूवे' इत्येतत् सूत्रद्वयं दृष्टान्त दाष्टन्तिकोपेतम्, 10 सुइमणे इत्यादि च पुरुषमात्राश्रितमेव सूत्रसप्तकमतिदिशन्नाह - एवमित्यादि कण्ठ्यम् । [सू० २४२] चत्तारि कोरवा पन्नत्ता, तंजहा- अंबपलंबकोरवे तालपलंबकोरवे वल्लिपलंबकोरवे मेंढविसाणकोरवे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्त्रत्ता, तंजहा- अंबपलंबकोरवसमाणे तालपलंबकोरवसमाणे वल्लिपलंबकोरवसमाणे मेंढविसाणकोरवसमाणे । 15 [टी०] पुरुषाधिकार एवेदमपरमाह- चत्तारि कोरवेत्यादि, तत्र आम्रः चूतः, तस्य प्रलम्बः फलम्, तस्य कोरकं तन्निष्पादकं मुकुलम् आम्रप्रलम्बकोरकम्, एवमन्येऽपि, नवरं तालो वृक्षविशेषः, वल्ली कालिङ्ग्यादिका, मेंढविषाणा मेषशृङ्गसमानफला वनस्पतिजातिः, आउलिविशेष इत्यर्थः, तस्याः कोरकमिति विग्रहः, एतान्येव चत्वारि दृष्टान्ततयोपात्तानीति चत्वारीत्युक्तम्, न तु चत्वार्येव लोके कोरकाणि, 20 बहुतरोपलम्भादिति, एवेत्यादि सुगमम्, नवरमुपनय एवम् - यः पुरुषः सेव्यमान उचितकाले उचितमुपकारफलं जनयत्यसावाम्रप्रलम्बकोरकसमानः, यस्त्वतिचिरेण सेवकस्य कष्टेन महदुपकारफलं करोति स तालप्रलम्बकोरकसमानः, यस्तु अक्लेशेनाचिरेण च ददाति स वल्लीप्रलम्बकोरकसमानः, यस्तु सेव्यमानोऽपि शोभनवचनान्येव ब्रूते उपकारं तु न कञ्चन करोति स मेण्ढविषाणकोरकसमानः, 25 तत्कोरकस्य सुवर्णवर्णत्वादखाद्यफलदायकत्वाच्चेति । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ [सू० २४३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः ।। [सू० २४३] चत्तारि घुणा पन्नत्ता, तंजहा- तयक्खाते, छल्लिक्खाते, कट्ठक्खाते, सारक्खाते । एवामेव चत्तारि भिक्खागा पन्नत्ता, तंजहा- तयक्खायसमाणे जाव सारक्खातसमाणे। तयक्खातसमाणस्स णं भिक्खागस्स सारक्खातसमाणे तवे पण्णत्ते, सारक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स तयक्खातसमाणे तवे पण्णते, छल्लिक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स कट्ठक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते, 5 कट्ठक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स छल्लिक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते। [टी०] पुरुषाधिकार एव घुणसूत्रम्- त्वचं बाह्यवल्कं खादतीति त्वक्खादः, एवं शेषा अपि, नवरं छल्लि त्ति अभ्यन्तरं वल्कम्, काष्ठं प्रतीतम्, सारः काष्ठमध्यमिति दृष्टान्तः, एवमेवेत्याधुपनयसूत्रम्, भिक्षणशीला भिक्षणधर्माणो भिक्षणे साधवो वा भिक्षाकाः, त्वक्खादेन घुणेन समानोऽत्यन्तं सन्तोषितया आयामाम्लादि- 10 प्रान्ताहारभक्षकत्वात् त्वक्खादसमानः, एवं छल्लीखादसमानोऽलेपाहारकत्वात्, काष्ठखादसमानो निर्विकृतिकाहारतया, सारखादसमानः सर्वकामगुणाहारत्वादिति । एतेषां चतुर्णामपि भिक्षाकाणां तपोविशेषाभिधानसूत्रं तयक्खायेत्यादि । सुगमम्, केवलमयं भावार्थः- त्वक्कल्पासाराहाराभ्यवहर्तुनिरभिष्वङ्गत्वात् कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो भवतीत्यतोऽपदिश्यते सारक्खायसमाणे तवे त्ति, सारखादघुणस्य सारखादत्वादेव 15 समर्थत्वात् वज्रतुण्डत्वाच्चेति । सारखादसमानस्योक्तलक्षणस्य साभिष्वङ्गतया त्वक्खादसमानं कर्मसारभेदं प्रत्यसमर्थं तपः स्यात्, त्वक्खादकघुणस्य हि तत्त्वादेव सारभेदनं प्रत्यसमर्थत्वादिति । तथा छल्लीखादघुणसमानस्य भिक्षाकस्य त्वक्खादघुणसमानापेक्षया किञ्चिद्विशिष्टभोजित्वेन किञ्चित्साभिष्वङ्गत्वात् सारखादकाष्ठखादघुणसमानापेक्षया त्वसारभोजित्वेन निरभिष्वङ्गत्वाच्च कर्मभेदं प्रति 20 काष्ठखादघुणसमानं तपः प्रज्ञप्तम्, नातितीव्रम्, सारखादघुणवत्, नाप्यतिमन्दादि, त्वक् छल्लीखादघुणवदिति भावः, तथा काष्ठखादघुणसमानस्य साधोः सारखादघुणसमानापेक्षया असारभोजित्वेन निरभिष्वङ्गत्वात् त्वक् छल्लीखादघुणसमानापेक्षया सारतरभोजित्वेन साभिष्वङ्गत्वाच्च छल्लीखादघुणसमानं तपः प्रज्ञप्तम्, कर्मभेदं प्रति न सारखादकाष्ठखादघुणवदतिसमर्थादि नापि त्वक्खादघुणवदतिमन्दमिति 25 -A-5 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे भावः, प्रथमविकल्पे प्रधानतरं तपो द्वितीयेऽप्रधानतरम्, तृतीये प्रधानम्, चतुर्थेऽप्रधानमिति । [सू० २४४] चउब्विहा तणवणस्सतिकाइया पन्नत्ता, तंजहा- अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंधबीया ।। 5 [टी०] अनन्तरं वनस्पत्यवयवखादका घुणाः प्ररूपिता इति वनस्पतिमेव प्ररूपयन्नाह चउव्विहेत्यादि, वनस्पतिः प्रतीतः, स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, त एव वनस्पतिकायिकाः, तृणप्रकारा वनस्पतिकायिकास्तुणवनस्पतिकायिका बादरा इत्यर्थः, अग्रं बीजं येषां ते अग्रबीजा: कोरण्टकादयः, अग्रे वा बीजं येषां तेऽग्रबीजाः व्रीह्यादयः, मूलमेव बीजं येषां ते मूलबीजा: उत्पलकन्दादयः, एवं पर्वबीजा इक्ष्वादयः, 10 स्कन्धबीजाः सल्लक्यादयः, स्कन्धः स्थुडमिति, एतानि च सूत्राणि नान्यव्यवच्छे दनपराणि, तेन बीजरुह-सम्मूर्छ नजादीनां नाभावो मन्तव्यः, सूत्रान्तरविरोधादिति । [सू० २४५] चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने णेरइए णिरयलोगंसि इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते, णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते । 15 अहुणोववन्ने णेरइए णिरयलोगंसि समुन्भूयं वेयणं वेयमाणे इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते,, णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते । अहुणोववन्ने णेरइए निरयलोगंसि णिरयपालेहिं भुजो भुजो अहिट्ठिजमाणे इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते, णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते । अहणोववन्ने णेरइए णिरयवेयणिजंसि कम्मंसि अक्खीणंसि अवेतितंसि अणिजिन्नंसि 20 इच्छेजा [माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते], नो चेव णं संचाएइ [हव्वमागच्छित्तते] ३॥ एवं णिरयाउअंसि कम्मंसि अक्खीणंसि जाव णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते ४। इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने नेरतिते जाव नो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तए । [टी०] अनन्तरं वनस्पतिजीवानां चतु:स्थानकमुक्तम्, अधुना 25 जीवसाधर्म्यान्नारकजीवानाश्रित्य तदाह- चउहीत्यादि सुगमम्, केवलं ठाणेहिं ति १. कोरिण्ट' पा० जे२ ॥ २. स्कन्धश्च स्थुड जे१ ॥ ३. समहब्भूयं भां० ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ [सू० २४६] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । कारणैः, अहुणोववन्ने त्ति अधुनोपपन्नः अचिरोपपन्नः, निर्गतमयं शुभमस्मादिति निरयो नरकः, तत्र भवो नैरयिकः, तस्य चानन्योत्पत्तिस्थानतां दर्शयितुमाह-निरयलोके, तस्मादिच्छेन्मानुषाणामयं मानुषस्तं लोकं क्षेत्रविशेष हव्वं शीघ्रमागन्तुम्, नो चेव त्ति नैव, णं वाक्यालङ्कारे, संचाएइ सम्यक् शक्नोति आगन्तुम् । समुन्भूयं ति समुद्भूताम् अतिप्रबलतयोत्पन्नाम्, पाठान्तरेण सम्मुखभूताम् एकहेलोत्पन्नाम्, 5 पाठान्तरेणामहतो महतो भवनं महद्भूतम्, तेन सह या सा समहद्भूता ताम्, संमूहोद्भूतां वा वेदनां दुःखरूपां वेदयमानः अनुभवन् इच्छेदिति मनुष्यलोकागमनेच्छायाः कारणम् १, एतदेव चाशकनस्य, तीव्रवेदनाभिभूतो हि न शक्त आगन्तुमिति । तथा निरयपालैः अम्बादिभिः भूयो भूयः पुनः पुनरधिष्ठीयमानः समाक्रम्यमाणः आगन्तुमिच्छेदित्यागमनेच्छाकारणमेतदेव चागमनाशक्तिकारणम्, तैरत्यन्ता- 10 क्रान्तस्यागन्तुमशक्तत्वादिति २, तथा निरये वेद्यते अनुभूयते यत् निरययोग्यं वा यद्वेदनीयं तन्निरयवेदनीयम् अत्यन्ताशुभनामकादि असातवेदनीयं वा तत्र कर्मणि अक्षीणे स्थित्या अवेदिते अननुभूतानुभागतया अनिर्जीणे जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशटिते इच्छेत् मानुषं लोकमागन्तुं न च शक्नोति, अवश्यवेद्यकर्म निगडनियन्त्रितत्वादित्यागमनाशकन एव कारणमिति ३, तथा एवमिति 'अहुणोववन्ने' 15 इत्याद्यभिलापसंसूचनार्थम्, निरयायुष्के कर्मणि अक्षीणे यावत्करणात् 'अवेइए' इत्यादि दृश्यमिति ४, निगमयन्नाह- इच्चे एहिं ति, इति एवंप्रकारेतैः प्रत्यक्षैरनन्तरोक्तत्वादिति । [सू० २४६] कप्पंति णिग्गंथीणं चत्तारि संघाडीओ धारित्तए वा परिहरित्तते वा, तंजहा- एगं दुहत्थवित्थारं, दो तिहत्थवित्थाराओ, एगं चउहत्थवित्थारं। 20 [टी०] अनन्तरं नारकस्वरूपमुक्तम्, ते चासंयमोपष्टम्भकपरिग्रहादुत्पद्यन्त इति तद्विपक्षभूतं परिग्रहविशेष चतुःस्थानकेऽवतारयन्नाह– कप्पंतीत्यादि, कल्पन्ते युज्यन्ते निर्गता ग्रन्थाद् बन्धहेतोर्हिरण्यादेर्मिथ्यात्वादेश्चेति निर्ग्रन्थ्यः साध्व्यस्तासां सङ्घाट्यः उत्तरीयविशेषरूपा धारयितुं वा परिग्रहे परिहर्तुं वा परिभोक्तुमिति, द्वौ हस्तौ विस्तारः पृथुत्वं यस्याः सा तथा, कल्पन्त इति क्रियापेक्षया कर्तृत्वात् संघाटीनाम्, एगं 25 १. समहो' पासं० जे२ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दुहत्थवित्थारं, एगं चउहत्थवित्थारं ति प्रथमा स्यात्तदर्थे च प्राकृतत्वात् द्वितीयोक्ता, धारयन्ति परिभुञ्जते वेति प्रत्ययपरिणामेन वा क्रियानुस्मृतेः द्वितीयैव, तत्र प्रथमा उपाश्रये भोग्या, त्रिहस्तविस्तारयोरेका भिक्षागमने द्वितीया विचारभूमिगमने, चतुर्थी समवसरणे, उक्तं च5 संघाडीओ चउरो तत्थ दुहत्था उवसयम्मि ॥ दुन्नि तिहत्थायामा भिक्खट्ठा एग एग उच्चारे । ओसरणे चउहत्थाऽनिसण्णपच्छायणी मसिणा ॥ [बृहत्कल्प० ४०८९-४०९०] इति । [सू० २४७] चत्तारि झाणा पन्नत्ता, तंजहा- अहे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे। 10 अट्टे झाणे चउविहे पन्नत्ते, तंजहा- अमणुनसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति १, मणुनसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति २, आतंकसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति ३, परिजुसितकामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसतिसमण्णागते यावि भवति ४ । अदृस्स णं झाणस्स 15 चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तंजहा- कंदणता, सोतणता, तिप्पणता, परिदेवणता। रोद्दे झाणे चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा- हिंसाणुबंधि, मोसाणुबंधि, तेणाणुबंधि, सारक्खणाणुबंधि । रोद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तंजहाओसण्णदोसे, बहुदोसे, अन्नाणदोसे, आमरणंतदोसे । धम्मे झाणे चउव्विहे चउप्पदोयारे पन्नत्ते, तंजहा- आणाविजते, अवायविजते, 20 विवागविजते, संठाणविजते । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तंजहा- आणारुई, णिसग्गरुई, सुत्तरुई, ओगाढरुई । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पन्नत्ता, तंजहा- वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नत्ताओ, तंजहा एगाणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा । 25 सुक्के झाणे चउव्विहे चउप्पओआरे पन्नत्ते, तंजहा- पुहत्तवितक्के सवियारी १. हत्था अनिसण्ण' जे१ । हत्था निसन्न पामू० जे२ ॥ २. असमणुण्णसंप भां० ॥ ३. परिझूसियकाम' भां० ॥ ४. 'प्पडोयारे भां० ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २४७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ३१७ १, एगत्तवितक्के अवियारी २, सुहुमकिरिए अणियट्टी ३, समुच्छिन्नकिरिए अप्पडिवाती ४। सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तंजहाअव्वहे, असम्मोहे, विवेगे, विउस्सग्गे । सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पन्नत्ता, तंजहा- खंती, मुत्ती, मद्दवे, अज्जवे । सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- अणंतवत्तियाणुप्पेहा, 5 विप्परिणामाणुप्पेहा, असुभाणुप्पेहा, अवायाणुप्पेहा । [टी०] नारकत्वं ध्यानविशेषाद्,ध्यानविशेषार्थमेव च संघाट्यादिपरिग्रह इति ध्यानं प्रकरणत आह, सुगमं चैतत्, नवरं ध्यातयो ध्यानानि, अन्तर्मुहूर्त्तमानं कालं चित्तस्थिरतालक्षणानि, उक्तं चअंतोमुहत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । 10 छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ [ध्यानश० ३] त्ति । तत्र ऋतं दुःखं तस्य निमित्तं तत्र वा भवं ऋते वा पीडिते भवमार्तं ध्यानं दृढोऽध्यवसायः, हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम्, श्रुत-चरणधर्मादनपेतं धर्म्यम्, शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा क्लमयतीति शुक्लम् । चउव्विहे त्ति चतस्रो विधा भेदा यस्य तत्तथा, अमनोज्ञस्य अनिष्टस्य, असमणुनस्स त्ति पाठान्तरे अस्वमनोज्ञस्य 15 अनात्मप्रियस्य शब्दादिविषयस्य तत्साधनवस्तुनो वा सम्प्रयोगः सम्बन्धस्तेन सम्प्रयुक्तः सम्बद्धः अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तः अस्वमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो वा, य इति गम्यते, तस्येति अमनोज्ञशब्दादेर्विप्रयोगाय विप्रयोगार्थं स्मृति: चिन्ता तां समन्वागत: समनुप्राप्तो भवति यः प्राणी सोऽभेदोपचारादार्त्तमिति, चापीति शब्द उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चयार्थः, अथवा अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो यः प्राणी तस्य प्राणिनः विप्रयोगे 20 प्रक्रमादमनोज्ञशब्दादिवस्तूनां वियोजने स्मृति: चिन्तनम्, तस्याः समन्वागतं समागमनं समन्वाहारो विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतम्, चापीति तथैव, भवति आर्त्तध्यानमिति प्रक्रमः, अथवा अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्ते प्राणिनि तस्येति अमनोज्ञशब्दादेर्विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतमार्तध्यानमिति, उक्तं च आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः [तत्त्वार्थ० ९ ।३१] 25 इति प्रथमम्, एवमुत्तरत्रापि, नवरं मनोज्ञं वल्लभं धन-धान्यादि, अविप्रयोगः Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अवियोग इति द्वितीयमार्त्तमिति । तथा आतङ्को रोग इति तृतीयम् । तथा परिजुसिय त्ति निषेविताः ये कामाः कमनीयाः भोगाः शब्दादयः, अथवा कामौ शब्द-रूपे भोगाः गन्ध-रस-स्पर्शाः कामभोगाः, कामानां वा शब्दादीनां यो भोगस्तैस्तेन वा सम्प्रयुक्तः, पाठान्तरे तु तेषां तस्य वा सम्प्रयोगस्तेन सम्प्रयुक्तो 5 यः स तथा, अथवा परिझुसिय त्ति परिक्षीणो जरादिना स चासौ कामभोगसम्प्रयुक्तश्च यस्तस्य तेषामेवाऽविप्रयोगस्मृतेः समन्वागतं समन्वाहारः, तदपि भवत्यात ध्यानमिति चतुर्थम् । द्वितीयं वल्लभधनादिविषयं चतुर्थं तत्सम्पाद्यशब्दादिभोगविषयमिति भेदोऽनयोर्भावनीयः, शास्त्रान्तरे तु द्वितीय-चतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम्, चतुर्थं तु तत्र निदानमुक्तम्, उक्तं च10 अमणुन्नाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स। वस्तूनि शब्दादिसाधनानि, दोसो त्ति द्वेषः। धणियं वियोगचिंतणमसंपयोगाणुसरणं च ॥ तह सूल-सीसरोगाइवेयणाए वियोगपणिहाणं । तयसंपयोगचिंता तप्पडियाराउलमणस्स ॥ इट्ठाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स । 15 अवियोगज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ॥ देविंद-चक्कवट्टित्तणाइगुणरिद्धिपत्थणामइयं । अहमं नियाणचिंतणमन्नाणाणुगयमच्चंतं ॥ [ध्यानश० ६-९] ति । आर्तध्यानलक्षणान्याह- लक्ष्यते निर्णीयते परोक्षमपि चित्तवृत्तिरूपत्वादार्तध्यानमेभिरिति लक्षणानि, तत्र क्रन्दनता महता शब्देन विरवणम्, शोचनता दीनता, 20 तेपनता तिपेः क्षरणार्थत्वादश्रुविमोचनम्, परिदेवनता पुनः पुनः क्लिष्टभाषणमिति, एतानि चेष्टवियोगा-ऽनिष्टसंयोग-रोगवेदनाजनितशोकरूपस्यैवार्तस्य लक्षणानि, यत आहतस्सक्वंदण-सोयण-परिदेवण-ताडणाई लिंगाई । इट्ठाणिट्ठवियोगा-ऽवियोग-वियणानिमित्ताई ॥ [ध्यानश० १५] ति । 25 निदानस्यान्येषां च लक्षणान्तरमस्ति, आह च १. “तिपङ क्षरणे" - है०धा० ७५० । तुलना- पा०धा० ३६२ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २४७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ३१९ निंदइ निययकयाई पसंसइ सविम्हओ विभूतीओ । पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होइ ॥ [ध्यानश० १६] त्ति । __ अथ रौद्रध्यानभेदा उच्यन्ते, हिंसां सत्त्वानां वध-बन्धनादिभिः प्रकारैः पीडामनुबध्नाति सततप्रवृत्तां करोतीत्येवंशीलं यत् प्रणिधानं हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तद्धिंसानुबन्धि रौद्रध्यानम् इति प्रक्रम इति, उक्तं च 5 सत्तवहवेहबंधणडहणंकणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गहघत्थं णिग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥ [ध्यानश० १९] ति । तथा मृषा असत्यम्, तदनुबध्नाति पिशुना-ऽसभ्याऽसद्भूतादिभिर्वचनभेदैस्तन्मृषानुबन्धि, आह चपिसुणा-ऽसब्भा-ऽसब्भूय-भूयघायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोऽतिसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ॥ [ध्यानश० २०] त्ति । तथा स्तेनस्य चौरस्य कर्म स्तेयं तीव्रक्रोधाद्याकुलतया तदनुबन्धवत् स्तेयानुबन्धि, आह चतह तिव्वकोह-लोहाउलस्स भूतोवघायणमणज्जं । परदव्वहरणचित्तं परलोगावायनिरवेक्खं ॥ [ध्यानश० २.] ति । __ संरक्षणे सर्वोपायैः परित्राणे विषयसाधनधनस्यानुबन्धो यत्र तत् संरक्षणानुबन्धि, यदाह सद्दाइविसयसाहणधणसंरक्खणपरायणमणिटुं । सव्वाहिसंकण-परोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥ [ध्यानश० २२] ति । अथैतल्लक्षणान्युच्यन्ते- ओसन्नदोसे त्ति हिंसादीनामन्यतरस्मिन् ओसन्नं प्रवृत्ते: 20 प्राचुर्यं बाहुल्यं यत् स एव दोषः, अथवा ओसन्नं ति बाहुल्येनानुपरतत्वेन दोषो हिंसादीनां चतुर्णामन्यतर ओसन्नदोषः, तथा बहुष्वपि सर्वेष्वपि हिंसादिषु दोषः प्रवृत्तिलक्षणो बहुदोषः, बहुर्वा बहुविधो हिंसानृतादिरिति बहुदोषः, तथा अज्ञानात् कुशास्त्रसंस्कारात् हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्ध्याऽभ्युदयार्थं या प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः, अथवा उक्तलक्षणमज्ञानमेव दोषोऽज्ञानदोष इति, 25 अन्यत्र नानाविधदोष इति पाठस्तत्र नानाविधेषु त्वक्तक्षणादिषु हिंसाधुपायेषु १. दृश्यतां तत्त्वार्थसिद्ध० ९।३६ ॥ 15 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दोषोऽसकृत्प्रवृत्तिरिति नानाविधदोष इति, तथा मरणमेवान्तो मरणान्तः, आ मरणान्तादामरणान्तम् असञ्जातानुतापस्य कालसौकरिकादेरिव या हिंसादिषु प्रवृत्तिः सैव दोष आमरणान्तदोषः । । ___ अथ धर्म्यं चतुर्विधमिति स्वरूपेण, चतुर्षु पदेषु स्वरूप-लक्षणा-ऽऽलम्बना5 ऽनुप्रेक्षालक्षणेष्ववतारो विचारणीयत्वेन यस्य तच्चतुष्पदावतारम्, चतुर्विधस्यैव पर्यायो वाऽयमिति, क्वचित् चउप्पडोयारमिति पाठस्तत्र चतुर्षु पदेषु प्रत्यवतारो यस्येति विग्रह इति । आणाविजए त्ति आ अभिविधिना ज्ञायन्तेऽर्था यया साऽऽज्ञा प्रवचनम्, सा विचीयते निर्णीयते पर्यालोच्यते वा यस्मिंस्तदाज्ञाविचयं धर्मध्यानमिति, प्राकृतत्वेन विजयमिति, आज्ञा वा विजीयते अधिगमद्वारेण परिचिता क्रियते 10 यस्मिन्नित्याज्ञाविजयम्, एवं शेषाण्यपि, नवरम् अपाया रागादिजनिताः प्राणिनामैहिकामुष्मिका अनर्थाः, विपाकः फलं कर्मणां ज्ञानाद्यावारकत्वादि, संस्थानानि लोक-द्वीप-समुद्र-जीवादीनामिति, आह च आप्तवचनं प्रवचनमाज्ञा विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आश्रव-विकथा-गौरव-परीषहाद्यैरपायस्तु ॥ अशुभ-शुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विपाकविचय: स्यात् । द्रव्य-क्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु ॥ [प्रशम० २४८-२४९] इति । एतल्लक्षणान्याह- आणारुइ त्ति आज्ञा सूत्रव्याख्यानं नियुक्त्यादि तत्र तया वा रुचिः श्रद्धानम् आज्ञारुचिः, एवमन्यत्रापि, नवरं निसर्गः स्वभावोऽनुपदेशस्तेन, तथा सूत्रम् आगमः तत्र तस्माद्वा, तथा अवगाहनमवगाढम् द्वादशाङ्गावगाहो विस्तराधिगम 20 इति सम्भाव्यते, तेन रुचिः, अथवा ओगाढ त्ति साधुप्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधूपदेशाद् रुचिः , उक्तं च आगमउवएसेणं निसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाइस्स तं लिंग ॥ [ध्यानश० ६७] ति । तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यक्त्वं धर्मस्य लिङ्गमिति हृदयम् । धर्मस्यालम्बनान्युच्यन्ते, 25 धर्मध्यानसौधारोहणार्थमालम्ब्यन्त इत्यालम्बनानि, वाचनं वाचना विनेयाय निर्जरायै १. धर्म पामू० ॥ २. त्ति अभि° जे१ पा० जे२ ॥ ३. "विचयं ध्यानमिति जे१ ॥ 15 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २४७] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । सूत्रदानादि, तथा शङ्किते सूत्रादौ शङ्कापनोदाय गुरोः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना, प्रतिशब्दस्य धात्वर्थमात्रार्थत्वादिति, तथा पूर्वाधीतस्यैव सूत्रादेरविस्मरण- निर्जरार्थमभ्यासः परिवर्त्तनेति, अनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा सूत्रार्थानुस्मरणमिति । अथानुप्रेक्षा उच्यन्ते - अन्विति ध्यानस्य पश्चात् प्रेक्षणानि पर्यालोचनान्यनुप्रेक्षाः, तत्र एकोऽहं न च मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं नासौ भावीति यो मम ॥ [ इत्येवमात्मन एकस्य एकाकिनोऽसहायस्याऽनुप्रेक्षा भावना एकानुप्रेक्षा । तथा ] काय: सन्निहितापायः सम्पदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः सर्व्वमुत्पादि भङ्गरम् ॥ [ इत्येवं जीवितादेरनित्यस्यानुप्रेक्षा अनित्यानुप्रेक्षेति, तथा जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदन | जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥ [ प्रशम० १५२] एवमशरणस्य अत्राणस्यात्मनोऽनुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षेति, तथा माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ॥ [ प्रशम० १५६ ] इत्येवं संसारस्य चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा संसाराप्रेक्षेति । ३२१ 5 10 अथ शुक्लमाह - पुहत्तवियक् त्ति पृथक्त्वेन एकद्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन, पृथुत्वेन वा विस्तीर्णभावेनेत्यन्ये, वितर्को विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो 20 नानानयानुसरणलक्षणो यस्मिंस्तत्तथा, पूज्यैस्तु वितर्कः श्रुतालम्बनतया श्रुतमित्युपचारादधीत इति, तथा विचरणम् अर्थाद् व्यञ्जने व्यञ्जनादर्थे तथा मनः प्रभृतीनां योगानामन्यतरस्मादन्यतरस्मिन्निति विचारो विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्तिः [ तत्त्वार्थ० ९।४६] इति वचनात्, सह विचारेण सविचारि, सर्वधनादित्वादिन्समासान्तः, उक्तं चउप्पायठितिभंगाई पज्जयाणं जमेगदव्वम्मि | नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं ॥ १. उमास्वातिभिरित्यर्थः । “वितर्कः श्रुतम्”- तत्त्वार्थ० ९ ४५ || 15 25 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ 10 सवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं पढमसुक्कं । होति पुंहुत्तवियक्कं सवियारमरागभावस्स ॥ [ ध्यानश० ७७-७८] इत्येको भेदः । तथा एगत्तवियक् त्ति एकत्वेन अभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालम्बनतयेत्यर्थो वितर्कः पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो 5 वा यस्य तदेकत्ववितर्कम्, तथा न विद्यते विचारोऽर्थ - व्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र सञ्चरणलक्षणो निवातगृहगतप्रदीपस्येव यस्य तदविच पूर्ववदिति, उक्तं च जं पुण सुनिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायठिडुभंगाइयाणमेगम्मि पज्जा ॥ अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं बिइयसुक्कं । पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवियक्कमवियारं ॥ [ ध्यानश० ७९-८०] इति द्वितीयः । तथा सुहुमकिरिए त्ति निर्वाणगमनकाले के वलिनो निरुद्धमनोवाग्योगस्यार्द्धनिरुद्धकाययोगस्यैतद्, अतः सूक्ष्मा क्रिया कायिकी उच्छ्वासादिका यस्मिंस्तत्तथा, न निवर्त्तते न व्यावर्त्तत इत्येवंशीलमनिवर्त्ति प्रवर्द्धमानतरपरिणामादिति, 15 भणितं च आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियहिं तइयं तणुकायकिरियस्स ।। [ध्यानश० ८१] इति तृतीयः । तथा, समुच्छिन्नकिरिए त्ति समुच्छिन्ना क्षीणा क्रिया कायिक्यादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मिंस्तत्तथा, अप्पडिवाए त्ति अनुपरतिस्वभावमिति चतुर्थः, आह 20 हि तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलो व्व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं ॥ [ ध्यानश० ८२] ति । इह चान्त्ये शुक्लभेदद्वये अयं क्रमः- केवली किलान्तर्मुहुर्त्तभाविनि परमपदे, भवोपग्राहिकर्म्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिषु सत्सु योगनिरोधं 25 करोति, तत्र च - १. पुहत्त पा० जे२ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ [सू० २४७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । पज्जत्तमेत्तसन्निस्स जत्तियाइं जहन्नजोगिस्स । होंति मणोदव्वाइं तव्वावारो य जम्मेत्तो ॥ तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंभमाणो सो । मणसो सव्वनिरोहं कुणइ असंखेज्जसमएहिं ॥ पज्जत्तमेत्तबेंदियजहन्नवइजोगपज्जया जे उ । तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंभंतो ॥ सव्ववइजोगरोहं संखातीएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो अ सुहुमपणगस्स पढमसमओववन्नस्स ॥ जो किर जहन्नजोगो तदसंखेज्जगुणहीणमेक्वेक्के । समए निरंभमाणो देहतिभागं च मुंचंतो ॥ रुंभइ स काययोगं संखातीतेहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेइ ॥ [विशेषाव० ३०५९-३०६४] शैलेशस्येव मेरोरिव या स्थिरता सा शैलेशीति, हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भन्नंति । अच्छइ सेलेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥ ___ 15 तणुरोहारंभाओ झायइ सुहुमकिरियाणियटिं सो । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइं सेलेसिकालम्मि ॥ [विशेषाव० ३०६८-३०६९] इति । अथ शुक्लध्यानलक्षणान्युच्यन्ते- अव्वहे त्ति देवादिकृतोपसर्गादिजनितं भयं चलनं वा व्यथा, तस्या अभावो अव्यथम्, तथा देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्मपदार्थविषयस्य च संमोहस्य मूढताया निषेधादसम्मोहः, तथा देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां 20 विवेचनं बुद्ध्या पृथक्करणं विवेकः, तथा निःसङ्गतया देहोपधित्यागो व्युत्सर्ग इति। अत्र विवरणगाथेचालिज्जइ बीहेइ व धीरो न परीसहोवसग्गेहिं १ । सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु २ ॥ देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे ३ । देहोवहिवुस्सग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ ४ ॥ [ध्यानश० ९१-९२] त्ति । आलम्बनसूत्र व्यक्तम्, तत्र गाथा 25 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अह खंतिमद्दवज्जवमुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । आलंबणाई जेहि उ सुक्कज्झाणं समारुहइ ॥ [ध्यानश० ६९] त्ति । अथ तद्नुप्रेक्षा उच्यन्ते- अणंतवत्तियाणुप्पेह त्ति अनन्ता अत्यन्तं प्रभूता वृत्ति: वर्त्तनं यस्यासावनन्तवृत्तिः, अनन्ततया वा वर्तत इत्यनन्तवर्ती, तद्भावस्तत्ता, 5 भवसन्तानस्येति गम्यते, तस्या अनुप्रेक्षा अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा वेति, यथा एस अणाई जीवो संसारो सागरो व्व दुत्तारो । नारय-तिरिय-नरा-ऽमरभवेसु परिहिंडए जीवो ॥ [ ] इति । एवमुत्तरत्रापि समासः, नवरं विपरिणामे त्ति विविधेन प्रकारेण परिणमनं विपरिणामो 10 वस्तूनामिति गम्यते, यथा सव्वट्ठाणाई असासयाई इह चेव देवलोगे य । सुरअसुरनराईणं रिद्धिविसेसा सुहाइं च ॥ [मरण० प्रकी० ५७५] असुभे त्ति अशुभत्व संसारस्येति गम्यते, यथाधी संसारो जम्मिजुयाणओ परमरूवगव्वियओ । मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कडेवरे नियए ॥ [मरण० प्रकी० ६००] तथा अवाये त्ति अपाया आश्रवाणामिति गम्यते, यथाकोहो य माणो य अणिग्गहीया माया य लोभो य पवट्टमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ [दशवै०८।४०] इह गाथा आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च । 20 भवसंताणमणंतं वत्थूणं विपरिणामं च ॥ [सम्बोधप्र० १४०५] इति ।। [सू० २४८] चउव्विहा देवाण ठिती पन्नत्ता, तंजहा- देवे णामेगे १, देवसिणाते नामेगे २, देवपुरोहिते नागे ३, देवपजलणे नामेगे ४। चउव्विधे संवासे पन्नत्ते, तंजहा- देवे णामेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेजा, देवे णामेगे छवीते सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, छवी णामेगे देवीए सद्धिं संवासं 25 गच्छेज्जा, छवी णामेगे छवीते सद्धिं संवासं गच्छेजा ।। [टी०] ध्यानाद् देवत्वमपि स्यादतो देवस्थितिसूत्रम्, स्थितिः क्रमो मर्यादा राजामात्यादिमनुष्यस्थितिवदेव । देव: सामान्यो नामेति वाक्यालङ्कारे एकः कश्चित्, 15 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २४९] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ३२५ स्नातकः प्रधानः, देव एव देवानां वा स्नातक इति विग्रहः, एवमुत्तरत्रापि, नवरं पुरोहितः शान्तिकर्मकारी, पज्जलणे त्ति प्रज्वलयति दीपयति वर्णवादकरणेन मागधवदिति प्रज्वलन इति । देवस्थितिप्रस्तावात् तद्विशेषभूतसंवाससूत्रम्, एतच्च व्यक्तम्, किन्तु संवासो मैथुनार्थं संवसनम्, छवि त्ति त्वक्, तद्योगादौदारिकशरीरं तद्वती नारी तिरश्ची वा तद्वान्नरस्तिर्यङ् 5 वा छविरित्युच्यते । [सू० २४९] चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तंजहा-कोधकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए । एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं २४ । चउपतिट्ठिए कोधे पन्नत्ते, तंजहा-आतपतिट्ठिए, परपतिट्ठिए, तदुभयपतिट्ठिए, अपतिट्ठिए । एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं २४ । एवं जाव लोभे 10 वेमाणियाणं २४ । चउहिं ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिता, तंजहा-खेत्तं पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा, सरीरं पडुच्चा, उवहिं पडुच्चा । एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं २४ । एवं जाव लोभे वेमाणियाणं २४ । चउव्विधे कोधे पन्नत्ते, तंजहा-अणंताणुबंधिकोधे, अपच्चक्खाणे कोधे, 15 पच्चक्खाणावरणे कोधे, संजलणे कोधे । एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं २४ । एवं जाव लोभे वेमाणियाणं २४ । __ चउव्विहे कोधे पन्नत्ते, तंजहा-आभोगणिव्वत्तिते, अणाभोगणिव्वत्तिते, उवसंते, अणुवसंते । एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं २४ । एवं जाव लोभे जाव वेमाणियाणं २४ । 20 [टी०] अनन्तरं संवास उक्तः, स च वेदलक्षणमोहोदयादिति मोहविशेषभूतकषायप्रकरणमाह- चत्तारि कसायेत्यादि, तत्र कृषन्ति विलिखन्ति कर्मक्षेत्रं सुखदुःखफलयोग्यं कुर्वन्ति कलुषयन्ति वा जीवमिति निरुक्तिविधिना कषायाः, उक्तं च १. सू० १११ । अत्रापि प्रथमपरिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् ॥ २. °बंधे कोधे क० पा० ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सुहदुक्खबहुसईयं कम्मक्खेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जं च जीवं तेण कसाय त्ति वुच्चंति ॥ [ ] अथवा कषति हिनस्ति देहिन इति कषं कर्म भवो वा, तस्याऽऽया लाभहेतुत्वात् कषं वा आययन्ति गमयन्ति देहिन इति कषायाः, उक्तं च5 कम्मं कसं भवो वा कसमाओ सिं जओ कसायातो। कसमाययंति व जओ गमयंति कसं कसाय त्ति ॥ [विशेषाव० १२२८, २९७८] त्ति । तत्र क्रोधनं क्रुध्यति वा येन स क्रोधः क्रोधमोहनीयोदयसम्पाद्यो जीवस्य परिणतिविशेषः क्रोधमोहनीयकर्मैव वेति, एवमन्यत्रापि, नवरं जात्यादिगुणवानहमेवेत्येवं मननम् अवगमनं मन्यते वाऽनेनेति मानः, तथा मानं हिंसनं वञ्चनमित्यर्थो मीयते 10 वाऽनयेति माया, तथा लोभनम् अभिकाङ्क्षणं लुभ्यते वाऽनेनेति लोभः । एवमिति यथा सामान्यतश्चत्वारः कषायास्तथा विशेषतो नारकाणामसुराणां यावच्चतुर्विंशतितमे पदे वैमानिकानामिति । चउप्पइट्ठिए त्ति चतुर्षु आत्मपरोभयतदभावेषु प्रतिष्ठितः चतुःप्रतिष्ठितः, तत्र आयपइट्ठिए त्ति आत्मापराधेनैहिकापायदर्शनादात्मविषय आत्मप्रतिष्ठितः, परेणा15 क्रोशादिनोदीरितः परविषयो वा परप्रतिष्ठितः, आत्म-परविषय उभयप्रतिष्ठितः, आक्रोशादिकारणनिरपेक्षः केवलं क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सोऽप्रतिष्ठितः, उक्तं च सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु ।। सोपक्रमं च निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुष्कम् ॥ [ ] इति । 20 अयं च चतुर्थभेदो जीवप्रतिष्ठितोऽपि आत्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठित उक्तः, न तु सर्वथा अप्रतिष्ठितः, चतुःप्रतिष्ठितत्वस्याभावप्रसङ्गादिति । एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियाणां कोपस्यात्मादिप्रतिष्ठितत्वं पूर्वभवे तत्परिणामपरिणतमरणेनोत्पन्नानामिति । एवं मानमाया-लोभैर्दण्डकत्रयमपरमध्येतव्यमिति । क्षेत्रं नारकादीनां ४ स्वं स्वमुत्पत्तिस्थानं प्रतीत्य आश्रित्य, एवं वस्तु सचेतनादि ३ वास्तु वा गृहम्, शरीरं दुःसंस्थितं विरूपं १. “मीङ् हिंसायाम्'- पा० धा० ११३७, “मीञ् हिंसायाम्' -पा०धा० १४७७ ।. तुलना- है०धा० ३।१०३, ८1५ ॥ २. प्रथम परिशिष्टे टिप्पनं द्रष्टव्यम् ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ [सू० २४९] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । वा, उपधिर्यद्यस्योपकरणम्, एकेन्द्रियादीनां भवान्तरापेक्षयेति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । अनन्तं भवमनुबध्नाति अविच्छिन्नं करोतीत्येवंशीलोऽनन्तानुबन्धी अनन्तो वाऽनुबन्धोऽस्येत्यनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनसहभाविक्षमादिस्वरूपोपशमादिचरणलवविबन्धी, चारित्रमोहनीयत्वात् तस्य, न चोपशमादिभिरेव चारित्री 5 अल्पत्वाद्यथाऽमनस्को न संज्ञी किन्तु महता मूलगुणादिरूपेण चारित्रेण चारित्री, मनःसंज्ञया संज्ञिवत्, अत एव त्रिविधं दर्शनमोहनीयं पञ्चविंशतिविधं चारित्रमोहनीयमिति। _ ननु पंढमिल्ल्याण उदए नियमे [आव०नि० १०८]त्यादि विरुध्यते, चारित्रावारकस्य सम्यक्त्वावारकत्वानुपपत्तेः, अत एव सप्तविधं दर्शनमोहनीयमेकविंशतिविधं चारित्रमोहनीयमिति मतं सङ्गतमाभातीति, अत्रोच्यते, पढमिल्लुयाणे त्यादि यदुक्तं 10 तदनन्तानुबन्धिनां न सम्यक्त्वावारकतया किन्तु सम्यक्त्वसहभाव्युपशमाद्यावारकतया, अन्यथाऽनन्तानुबन्धिभिरेव सम्यक्त्वस्यावृतत्वात् किमपरेण मिथ्यात्वेन प्रयोजनम् ?, आवृतस्याप्यावरणेऽनवस्थाप्रसङ्गात्, तस्माद्यथा केवलियनाणलंभो नन्नत्थ खए कसायाणं [आव०नि० १०४] ति इह कषायाणां केवलज्ञानस्यानावारकत्वेऽपि कषायक्षयः केवलज्ञानकारणतयोक्तः, तस्मिन्नेव तस्य भावाद्, एवमनन्तानुबन्धिक्षयोपशम एव 15 सम्यक्त्वलाभ उच्यते, तस्मिन् सति तस्य भावाद्, यतो नानन्तानुबन्धिषूदितेषु मिथ्यात्वं क्षयोपशममुपयाति, तदभावाच्च न सम्यक्त्वमिति, यच्च सप्तविधं सम्यग्दर्शनमोहनीयमिति मतान्तरं तत् सम्यक्त्वसहचरितत्वेनोपशमादिगुणानां सम्यक्त्वोपचारादिति मन्यामह इति । ___ न विद्यते प्रत्याख्यानम् अणुव्रतादिरूपं यस्मिन् सोऽप्रत्याख्यानो देशविरत्यावारकः, 20 प्रत्याख्यानम् आ मर्यादया सर्वविरतिरूपमेवेत्यर्थो वृणोतीति प्रत्याख्यानावरणः सज्वलयति दीपयति सर्वसावधविरतिमपीन्द्रियार्थसम्पाते वा सज्वलति दीप्यत इति सज्वलनः यथाख्यातचारित्रावारकः, एवं मान-माया-लोभेष्वप्यनन्तानुबन्ध्यादिभेदचतुष्टयमध्येतव्यमिति, एषां निरुक्तिः पूज्यैरियमुक्ता१. 'पढमिल्ल्याण उदए नियमा संजोयणाकसायाणं । सम्मइंसणलंभं भवसिद्धिया वि न लहंति ॥' इति सम्पूर्णा गाथा ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो जन्मानि भूतये । अतोऽनन्तानुबन्ध्याख्या क्रोधाद्याद्येषु दर्शिता ॥ नाल्पमप्युत्सहेद्येषाम् प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो द्वितीयेषु निवेशिता ॥ सर्वसावद्यविरतिः प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥ शब्दादीन् विषयान् प्राप्य सज्वलन्ति यतो मुहुः । अत: सज्वलनाह्वानं चतुर्थानामिहोच्यते ॥ [ ] इति । एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । आभोगणिव्वत्तिए त्ति आभोगो ज्ञानं तेन 10 निर्वतितो यज्जानन् कोपविपाकादि रुष्यति, इतरस्तु यदजानन्निति, उपशान्तः अनुदयावस्थः, तत्प्रतिपक्षोऽनुपशान्तः, एके न्द्रियादीनामाभोगनिर्वर्तितः संज्ञिपूर्वभवापेक्षया, अनाभोगनिवर्त्तितस्तु तद्भवापेक्षयाऽपि, उपशान्तो नारकादीनां विशिष्टोदयाभावात्, अनुपशान्तो निर्विचार एवेति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । [सू० २५०] जीवा णं चउहि ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु, तंजहा15 कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं । एवं जाव वेमाणियाणं २ । एवं चिणंति एस दंडओ, एवं चिणिस्संति एस दंडओ, एवमेतेणं तिनि दंडगा । एवं उवचिणिंसु उवचिणंति उवचिणिस्संति, बंधिंसु ३, उदीरिंसु ३, वेदेंसु ३, निजरेंसु णिज्जरेंति निजरिस्संति, जाव वेमाणियाणं । एवमेक्केक्के पदे तिन्नि तिन्नि दंडगा भाणियव्वा जाव निजरिस्संति । 20 [टी०] इदानीं कषायाणामेव कालत्रयवर्तिनः फलविशेषा उच्यन्ते– जीवा णमित्यादि गतार्थम्, नवरं चयनं कषायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम्, उपचयनं चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेकः, स चैवम्- प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिकं निषिञ्चति, ततो द्वितीयायां विशेषहीनम्, एवं यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति, उक्तं च मोत्तूण सगमवाहं पढमाइ ठिईए बहुतरं दव्वं । सेसे विसेसहीणं जावुक्कोसंति सव्वेसिं ॥ [ ] ति । १. "क्कस्संति सव्वासिं जे१ । 'क्कोस्सिंति सव्वेसिं खं० । कस्संति सव्वेसिं पामू०, क्कोस्सिंति सव्वासिं पासं०॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २५१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । पुनरपि बन्धनं तस्यैव ज्ञानावरणीयादितया निषिक्तस्य कषायपरिणतिविशेषान्निकाचनमिति, उदीरणम् अनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणमिति, वेदनं स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्म्मण उदीरणाकरणेन वोदयभावमुपनीतस्यानुभवनमिति, निर्जरा कर्म्मणोऽकर्म्मत्वभवनमिति, इह च देशनिर्जरैव ग्राह्या, सर्वनिर्जरायाश्चतुर्विंशतिदण्डकेऽसम्भवात् क्रोधादीनां च तदकारणत्वात्, क्रोधादिक्षयस्यैव तत्कारणत्वादिति, इह प्रज्ञापनाधीता सङ्ग्रहगांथा आयपट्ठिय १ खेत्तं पडुच्च २ णंताणुबंधि ३ आभोगे ४ । चिण उवचिण बंध उदीर वेय तह निज्जरा चेव ॥ [ प्रज्ञापना० ४१८ ] ति । [सू० २५१] चत्तारि पडिमाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - समाहिपडिमा, उवहाणपडिमा, विवेगपडिमा विउसग्गपडिमा । चत्तारि पडिमाओ पन्नत्ताओ, 10 तंजहा- भद्दा, सुभद्दा, महाभद्दा, सव्वतोभद्दा । चत्तारि पडिमातो पन्नत्ताओ, तंजा - खुड्डिया मोयपडिमा महल्लिया मोयपडिमा, जवमज्झा, वइरमज्झा। , [टी०] अनन्तरं निर्जरोक्ता, सा च विशिष्टा प्रतिमाद्यनुष्ठानाद्भवतीति प्रतिमासूत्रम्, तद् द्विस्थानकाधीतमपीहाधीयते, चतुःस्थानकानुरोधादिति, व्याख्याऽप्यस्य पूर्ववदनुसर्त्तव्या, किन्तु स्मरणाय किञ्चिदुच्यते- समाधिः श्रुतं चारित्रं च तद्विषया 15 प्रतिमा प्रतिज्ञा अभिग्रहः समाधिप्रतिमा, द्रव्यसमाधिर्वा प्रसिद्ध:, तद्विषया प्रतिमा अभिग्रहः समाधिप्रतिमा, एवमन्या अपि, नवरमुपधानं तपः, विवेकः अशुद्धाऽतिरिक्तभक्त-पान-वस्त्र- शरीर - तन्मलादित्यागः, विउसग्गे त्ति कायोत्सर्गः । तथा पूर्वादिदिचतुष्टयाभिमुखस्य प्रत्येकं प्रहरचतुष्टयमानः कायोत्सर्गे भद्रेति, अहोरात्रद्वयेन चास्याः समाप्तिरिति, सुभद्राऽप्येवंभूतैव सम्भाव्यते, न च दृष्टेति न लिखितेति, एवमेव 20 चाहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गे महाभद्रा, चतुर्भिश्चाहोरात्रैरियं समाप्यते, यस्तु दिग्दशकाभिमुखस्याहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गः सा सर्व्वतोभद्रा, सा च दशभिरहोरात्रैः समाप्यत इति । मोयप्रतिमा प्रश्रवणप्रतिज्ञा, सा च क्षुल्लिका या षोडशभक्तेन समाप्यते महती तु याऽष्टादशभक्तेनेति, यवमध्या या यववद्दत्ति-कवलादिभिराद्यन्तयोर्हीना मध्ये १. 'दक्षेपणमिति जे१ खं० पा० ॥ २. प्रज्ञापनासूत्रे चतुर्दशपदसमाप्तौ गाथेयं वर्तते ॥ ३. विस जे२ ॥ “व्युत्सर्गो विउसग्गो" - प्राकृतव्या०टी० २ १७४ ॥ ४. सू० ७७ ॥ ५. विसग्गे जे१ ॥ Af ३२९ 5 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे च वृद्धेति, वज्रमध्या तु याऽऽद्यन्तवृद्धा मध्ये हीना चेति । [सू० २५२] चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पन्नत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए । चत्तारि अस्थिकाया अरूविकाया पन्नत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, 5 जीवत्थिकाए । [टी०] प्रतिमाश्च जीवास्तिकाये एवेति तद्विपर्ययस्वरूपाजीवास्तिकायसूत्रम्अत्थिकाय त्ति, ‘अस्ति' इत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना, अतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति, अस्तिशब्देन प्रदेशाः क्वचिदुच्यन्ते, ततश्च तेषां वा कायाः अस्तिकायाः, ते चाऽजीवकायाः अचेतनत्वात्। 10 अस्तिकाया मूर्तमूर्त्ता भवन्तीत्यमूर्तप्रतिपादनायाऽरूप्यस्तिकायसूत्रम्, रूपं मूर्त्तिवर्णादिमत्त्वम्, तदस्ति येषां ते रूपिणः, तत्पर्युदासादरूपिणः अमूर्त्ता इति । _ [सू० २५३] चत्तारि फला पन्नत्ता, तंजहा-आमे णामं एगे आममहुरे १, आमे णामेगे पक्कमहुरे २, पक्के णामेगे आममहुरे ३, पक्के णामेगे पक्कमहुरे ४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-आमे णामेगे 15 आममहुरफलसमाणे ४ । [टी०] अनन्तरं जीवास्तिकाय उक्तः, तद्विशेषभूतपुरुषनिरूपणाय फलसूत्रम्, आमम् अपक्कं सत् आममिव मधुरम् आममधुरमीषन्मधुरमित्यर्थः, तथा आमं सत् पक्वमिव मधुरमत्यन्तमधुरमित्यर्थः, तथा पक्वं सत् आममधुरं प्राग्वत्, तथा पक्वं सत् पक्वमधुरं प्राग्वदेवेति, पुरुषस्तु आमो वयः-श्रुताभ्यामव्यक्तः आममधुरफलसमानः, 20 उपशमादिलक्षणस्य माधुर्यस्याल्पस्यैव भावात्, तथा आम एव पक्वमधुरफलसमानः पक्वफलवन्मधुरस्वभावः, प्रधानोपशमादिगुणयुक्तत्वादिति, तथा पक्वोऽन्यो वयः-श्रुताभ्यां परिणतः आममधुरफलसमानः, उपशमादिमाधुर्यस्याल्पत्वात्, तथा पक्वस्तथैव, पक्वमधुरफलसमानोऽपि तथैवेति । [सू० २५४] चउव्विहे सच्चे पत्नत्ते, तंजहा-काउजुयया, भासुजुयया, 25 भावुजुयता, अविसंवायणाजोगे । १. मध्यहीना जे१ खं० ॥ २. काय एवेति जे१ खं० ॥ ३. अस्तीत्यत्र त्रि जे१ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २५४-२५५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । चउव्विहे मोसे पन्नत्ते, तंजहा - काय अणुज्जुयता, भासअणुज्नुयता, भावअणुज्जुयता, विसंवादणाजोगे । [सू० २५५ ] चउव्विहे पणिहाणे पन्नत्ते, तंजहा-मणपणिधाणे, वइपणिधाणे, कायपणिधाणे, उवकरणपणिधाणे । एवं णेरइयाणं, पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाणं । ३३१ चउव्विहे सुप्पणिहाणे पन्नत्ते, तंजहा - मणसुप्पणिहाणे जाव उवगरणसुप्पणिहाणे । एवं संजयमणुस्साण वि । चउव्विहे दुप्पणिहाणे पन्नत्ते, तंजहा - मणदुप्पणिहाणे जाव उवकरणदुप्पणिहाणे । एवं पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाणं । [टी०] अनन्तरं पक्कमधुर उक्तः, स च सत्यगुणयोगात् भवतीति सत्यं तद्विपर्ययं 10 च मृषा तथा सत्यासत्यनिमित्तं प्रणिधानं प्रतिपिपादयिषुः सूत्राण्याह- चउव्विहे सच्चे इत्यादीनि गतार्थानि, नवरमृजुकस्य अमायिनो भावः कर्म वा ऋजुकता, कायस्य ऋजुकता कायर्जुकता, एवमितरे अपि, नवरं भावो मन इति, कायर्जुकतादयश्च शरीर-वाङ्-मनसां यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्थाः प्रवृत्तयः, तथा अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिकं यद्वदति कस्मैचित् किञ्चिदभ्युपगम्य वा यन्न करोति सा विसंवादना, तद्विपक्षेण योगः सम्बन्धोऽविसंवादनायोग इति । मोसे त्ति मृषाऽसत्यम् । कायस्यानृजुकतेत्यादि वाक्यम् । प्रणिधिः प्रणिधानं प्रयोगः, तत्र मनसः प्रणिधानम् आर्त्त - रौद्र-धर्मादिरूपतया प्रयोगो मनः प्रणिधानम्, एवं वाक्काययोरपि, उपकरणस्य लौकिक - लोकोत्तररूपस्य वस्त्र-पात्रादेः संयमासंयमोपकाराय प्रणिधानं प्रयोग उपकरणप्रणिधानम् । 5 15 एवमिति यथा सामान्यतस्तथा नैरयिकाणामिति, तथा चतुर्विंशतिदण्डकपठितानां मध्ये ये पञ्चेन्द्रियास्तेषामपि वैमानिकान्तानामेवमेवेति, एके न्द्रियादीनां मनः प्रभृतीनामसम्भवेन प्रणिधानासम्भवादिति । प्रणिधानविशेषः सुप्रणिधानं दुष्प्रणिधानं चेति तत्सूत्राणि, शोभनं संयमार्थत्वात् प्रणिधानं मनःप्रभृतीनां प्रयोजनं सुप्रणिधानमिति । इदं च सुप्रणिधानं चतुर्विंशतिदण्डकनिरूपणायां मनुष्याणां तत्रापि संयतानामेव भवति, 25 20 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चारित्रपरिणतिरूपत्वात् सुप्रणिधानस्येत्याह– एवं संजयेत्यादि । दुष्प्रणिधानसूत्रं सामान्यसूत्रवत्, नवरं दुष्प्रणिधानम् असंयमार्थं मनःप्रभृतीनां प्रयोग इति । [सू० २५६] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-आवातभद्दते णामेगे णो संवासभद्दते १, संवासभद्दते णामेगे णो आवातभद्दए २, एगे आवातभद्दते 5 वि संवासभद्दते वि ३, एगे णो आवातभद्दते नो संवासभद्दए ४ [१] । ___ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अप्पणो णामेगे वजं पासति, णो परस्स १, परस्स णामेगे वजं पासति ४ [२] ।। चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अप्पणो णामेगे वजं उदीरेति, णो परस्स ४ [३] । 10 चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अप्पणो नामेगे वजं उवसामेति, णो परस्स ४ [४] । ___ चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-अब्भुढेइ णामेगे णो अन्भुट्ठावेति [५] । एवं वंदति णामेगे णो वंदावेति [६] । एवं सक्कारेति [७], सम्माणेति [८], पूएइ [९], वाएइ [१०], पडिच्छति [११], पुच्छति [१२], वागरेति [१३] । 15 सुत्तधरे णामेगे णो अत्थधरे, अत्थधरे णामेगे णो सुत्तधरे ४ [१४] । टी०] पुरुषाधिकारादेवापरथा पुरुषसूत्राणि चतुर्दश सुगमानि, नवरमापतनमापातः प्रथममीलकः, तत्र भद्रको भद्रकारी दर्शना-ऽऽलापादिना सुखकरत्वात्, संवासः चिरं सहवासस्तस्मिन्नभद्रको हिंसकत्वात् संसारकारणनियोजकत्वाद्वेति, संवासभद्रकः सह संवसतामत्यन्तोपकारितया, नो आपातभद्रकः अनालाप-कठोरालापादिना, एवं 20 द्वावन्यौ। __ वज्जं ति वर्ग्यत इति वर्ण्यम्, अवद्यं वा अकारलोपात्, वज्रवद्वजं वा गुरुत्वाद्धिंसाऽनृतादि पापं कर्म, तदात्मनः सम्बन्धि कलहादौ पश्यति, पश्चात्तापान्वितत्वात्, न परस्य, तं प्रत्युदासीनत्वात् । अन्यस्तु परस्य, नात्मनः, साभिमानत्वात् । इतर उभयोः निरनुशयत्वेन यथावद्वस्तुबोधात् । अपरस्तु नोभयोर्विमूढत्वात् इति । दृष्ट्वा चैक १. इतः परम्- अन्यस्तु नात्मनो न परस्य इति जे१ मध्येऽधिकः पाठः ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ [सू० २५७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । आत्मनः सम्बन्धि अवद्यमुदीरयति भणति यदुत मया कृतमेतदिति, उपशान्तं वा पुनः प्रवर्तयति, अथवा वज्रं कर्म, तदुदीरयति पीडोत्पादनेन उदये प्रवेशयतीति, एवमुपशमयति निवर्त्तयति पापं कर्म वा। अब्भुढेइ त्ति अभ्युत्थानं करोति न कारयति परेण, संविग्नपाक्षिको लघुपर्यायो वा, कारयत्येव गुरुः, उभयवृत्तिवृषभादिः, अनुभयवृत्तिर्जिनकल्पिकोऽविनीतो वेति । एवं वन्दनादिसूत्रेष्वपि, नवरं वन्दते 5 द्वादशावर्तादिना, सत्करोति वस्त्रादिदानेन, सन्मानयति स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणेन, पूजयति उचितपूजाद्रव्यैरिति, वाचयति पाठयति, नो वायावेइ आत्मानमन्येनेति उपाध्यायादिः, द्वितीये शैक्षकः, तृतीये क्वचित् ग्रन्थान्तरेऽनधीती, चतुर्थे जिनकल्पिकः। एवं सर्वत्रोदाहरणं स्वबुद्ध्या योजनीयम्, प्रतीच्छतीति सूत्रार्थों गृह्णाति, पृच्छति प्रश्नयति सूत्रादि, व्याकरोति ब्रूते तदेवेति । सूत्रधरः पाठकः, अर्थधरो बोद्धा, 10 अन्यस्तूभयधरः, चतुर्थस्तु जड इति । [सू० २५७] चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चत्तारि लोगपाला पन्नत्ता, तंजहा-सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे । एवं बलिस्स वि सोमे जमे वेसमणे वरुणे । धरणस्स कालवाले, कोलवाले, सेलवाले, संखवाले । भूताणंदस्स 15 कालवाले, कोलवाले, संखवाले, सेलवाले । वेणुदेवस्स चित्ते, विचित्ते, चित्तपक्खे, विचित्तपक्खे । वेणुदालिस्स चित्ते, विचित्ते, विचित्तपक्खे, चित्तपक्खे । हरिस्स पभे, सुप्पभे, पभकंते, सुप्पभकंते, । हरिसहस्स पभे, सुप्पभे, सुप्पभकंते, पभकंते । __ अग्गिसिहस्स तेऊ, तेउसिहे, तेउकंते, तेउप्पभे । अग्गिमाणवस्स तेऊ, तेउसिहे, तेउप्पभे, तेउकंते । पुनस्स रुते, रुतंसे, रुतकंते, रुतप्पभे । एवं विसिट्ठस्स रुते, रुतंसे, रुयप्पभे, रुयते । 20 १. गृह्णातीति जे१ ॥ २. पाले क० भां० विना । एवमग्रेऽपि ॥ दृश्यतां सू० २७३ टीका ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जलकंतस्स जले, जलरते, जलकंते, जलप्पभे । जलप्पभस्स जले, जलरते, जलप्पभे, जलकंते । अमितगतिस्स तुरियगती, खिप्पगती, सीहगती, सीहविक्कमगती । अमितवाहणस्स तुरियगती, खिप्पगती, सीहविक्कमगती, सीहगती वेलंबस्स काले, महाकाले, अंजणे, रिट्ठे । पभंजणस्स काले, महाकाले, रिट्ठे, अंजणे । ३३४ घोसस्स आवत्ते, वियावत्ते, णंदियावत्ते, महाणंदियावत्ते । महाघोसस्स आवत्ते, वियावत्ते, महाणंदियावते, णंदियावत्ते । सक्क्स्स सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे । ईसाणस्स सोमे, जमे, वेसमणे 10 वरुणे । एवं एगंतरिता जावच्चुतस्स । चउव्विहा वाउकुमारा पन्नत्ता, तंजहा - काले, महाकाले, वेलंबे, पभंजणे । चउव्विहा देवा पन्नत्ता, तंजहा - भवणवासी, वाणमंतरा, जोतिसिया विमाणवासी । [टी०] पुरुषाधिकारादेव देवविशेषपुरुषनिरूपणपराणि लोकपालादिसूत्राणि कण्ठ्यानि, 15 नवरम् इन्द्रः परमैश्वर्ययोगात् प्रभुर्महान् वा गजेन्द्रवत्, राजा तु राजनाद् दीपनात्, शोभावत्त्वादित्यर्थः आराध्यत्वाद्वा, एकार्थौ वैताविति, दाक्षिणात्येषु यो नामतस्तृतीयो लोकपालः स औदीच्येषु चतुर्थश्चतुर्थस्त्वितर इति, एवम् एक्वंतरिय त्ति, यन्नामानः शक्रस्य तन्नामान एव सनत्कुमार- ब्रह्मलोक-शुक्र- प्राणतेन्द्राणां तथा यन्नामान ईशानस्य तन्नामान एव माहेन्द्र - लान्तक - सहस्रारा - ऽच्युतेन्द्राणामिति । कालादयः 20 पातालकलशस्वामि इति । [सू० २५८ ] चउव्विहे पमाणे पन्नत्ते, तंजहा - दव्वप्पमाणे, खेत्तप्पमाणे, कालप्पमाणे, भावप्पमाणे । [0] चतुर्विधा देवा इत्युक्तम्, एतच्च सङ्ख्याप्रमाणमिति प्रमाणप्ररूपणसूत्रम्, तत्र प्रमितिः प्रमीयते वा परिच्छिद्यते येनार्थस्तत् प्रमाणम्, तत्र द्रव्यमेव प्रमाणं १. तुलना - अनुयोगद्वारे सू० ३१३-५२० ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २५९-२६०] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ३३५ दण्डादिद्रव्येण वा धनुरादिना शरीरादेव्यैर्वा दण्ड-हस्ता-ऽगुलादिभिः द्रव्यस्य वा जीवादेः द्रव्याणां वा जीव-धर्मा-ऽधर्मादीनां द्रव्ये वा परमाण्वादौ पर्यायाणां द्रव्येषु वा तेष्वेव तेषामेव प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम्, एवं यथायोगं सर्वत्र विग्रहः कार्यः, तत्र द्रव्यप्रमाणं द्विधा- प्रदेशनिष्पन्नं विभागनिष्पन्नं च, तत्र आद्यं परमाण्वाद्यनन्तप्रदेशिकान्तम्, विभागनिष्पन्नं पञ्चधा मानादि, तत्र मानं धान्यमानं सेतिकादि, रसमानं कर्षादि १, 5 उन्मानं तुलाकर्षादि २, अवमानं हस्तादि ३, गणितमेकादि ४, प्रतिमानं गुञ्जा-वल्लादीति ५ । क्षेत्रम् आकाशम्, तस्य प्रमाणं द्विधा-प्रदेशनिष्पन्नादि, तत्र प्रदेशनिष्पन्नमेकप्रदेशावगाढादि असङ्ख्येयप्रदेशावगाढान्तम्, विभागनिष्पन्नमङ्गुलादि । काल: समयः, तन्मानं द्विधा- प्रदेशनिष्पन्नमेकसमयस्थित्यादि असङ्ख्येयसमयस्थित्यन्तम्, विभागनिष्पन्नं समयावलिकेत्यादि, क्षेत्र-कालयोर्द्रव्यत्वे सत्यपि भेदनिर्देशो 10 जीवादिद्रव्यविशेषकत्वेनाऽनयोस्तत्पर्यायताऽपीति द्रव्याद्विशिष्टताख्यापनार्थः । भाव एव भावानां वा प्रमाणं भावप्रमाणं गुण-नयसङ्ख्याभेदभिन्नम्, तत्र गुणा जीवस्य ज्ञानदर्शन-चारित्राणि, तत्र ज्ञानं प्रत्यक्षाऽनुमानोपमाना-ऽऽगमरूपं प्रमाणमिति, नया नैगमादयः, सङ्ख्या एकादिकेति ।। [सू० २५९] चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रूया, 15 रूयंसा, सुरूवा, रूयावती । चत्तारि विज्जुकुमारिमहत्तरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-चित्ता, चित्तकणगा, सतेरा, सोतामणी । [सू० २६०] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो मज्झिमपरिसाते देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पनत्ता। ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरणो मज्झिमपरिसाते देवीणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पन्नत्ता । 20 [टी०] देवाधिकारे एवेदं सूत्रचतुष्टयम्- चत्तारि दिसा इत्यादि सुगमम्, नवरं दिक्कुमार्यश्च ता महत्तरिकाश्च प्रधानतमास्तासां वा महत्तरिका दिक्कुमारीमहत्तरिकाः, एता मध्यरुचकवास्तव्या अर्हतो जातमात्रस्य नालकल्पनादि कुर्वन्तीति । विद्युत्कुमारीमहत्तरिकास्तु विदिग्रुचकवास्तव्याः, एताश्च भगवतो जातमात्रस्य १. जीवधर्मादीनां जे१ ॥ २. प्रमाणं गुण-नय जे१ खं० ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चतसृष्वपि दिक्षु स्थिता दीपिकाहस्ता गायन्तीति । [सू० २६१] चउव्विहे संसारे पन्नत्ते, तंजहा-दव्वसंसारे, खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भावसंसारे । [टी०] एते च देवाः संसारिण इति संसारसूत्रम्, तत्र संसरणम् इतश्चेतश्च परिभ्रमणं 5 संसारः । तत्र संसारशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्याणां वा जीव-पुद्गललक्षणानां यथायोगं भ्रमणं द्रव्यसंसारः । तेषामेव क्षेत्रे चतुर्दशरज्ज्वात्मके यत् संसरणं स क्षेत्रसंसारः, यत्र वा क्षेत्रे संसारो व्याख्यायते तदेव क्षेत्रमभेदोपचारात् संसारो यथा रसवती गुणनिकेत्यादि। कालस्य दिवस-पक्ष-मासर्वयन-संवत्सरादिलक्षणस्य संसरणं चक्रन्यायेन भ्रमणं पल्योपमादिकालविशेषविशेषितं वा यत् कस्यापि जीवस्य नरकादिष 10 स कालसंसारः, यस्मिन् वा काले पौरुष्यादिके संसारो व्याख्यायते स कालोऽपि संसार उच्यते अभेदाद्यथा प्रत्युपेक्षणाकरणात् कालोऽपि प्रत्युपेक्षणेति । तथा संसारशब्दार्थज्ञः तत्रोपयुक्तो जीव-पुद्गलयोर्वा संसरणमात्रमुपसर्जनीकृतसम्बन्धिद्रव्यं भावानां वौदयिकादीनां वर्णादीनां वा संसरणपरिणामो भावसंसार इति । [सू० २६२] चउव्विहे दिट्टिवाते पन्नत्ते, तंजहा-परिकम्मं, सुत्ताइं, पुव्वगए, 15 अणुजोगे। टी०] अयं च द्रव्यादिसंसारोऽनेकनयैर्दृष्टिवादे विचार्यते इति दृष्टिवादसूत्रम्चउव्विहे दिट्ठिवाए इत्यादि, तत्र दृष्टयो दर्शनानि नया उद्यन्ते अभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यस्मिन्नसौ दृष्टिवादो दृष्टिपातो वा द्वादशमङ्गम्, तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासंपादनसमर्थं परिकर्म गणितपरिकर्मवत्, तच्च सिद्धसेनिकादि, 20 सूत्राणीति ऋजुसूत्रादीनि द्वाविंशतिर्भवन्ति, इह सर्वद्रव्य-पर्याय-नयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणीति, समस्तश्रुतात् पूर्वं करणात् पूर्वाणि, तानि चोत्पादपूर्वादीनि चतुर्दशेति, एतेषां चैवं नाम-प्रमाणानि, तद्यथा उप्पाय १ अग्गेणीय २ वीरियं ३ अत्थिनत्थि उ पवायं ४ । णाणपवायं ५ सच्चं ६ आयपवायं च ७ कम्मं च ८ ॥ १. 'मास-ऋतु-अयन' इति पदच्छेदः ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ [सू० २६३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । पुव्वं पच्चक्खाणं ९ विज्जणुवायं १० अवंझ ११ पाणाउं १२ । किरियाविसालपुव्वं १३ चोद्दसमं बिंदुसारं तु १४ ॥ उप्पाये पयकोडी १ अग्गेणीयम्मि छन्नउइलक्खा २ । विरियम्मि सयरिलक्खा ३ सट्ठिलक्खा उ अत्थिणथिम्मि ४ ॥ एगा पउणा कोडी णाणपवायम्मि होइ पुव्वम्मि ५ । एगा पयाण कोडी छच्च पया सच्चवायम्मि ६ ॥ छव्वीसं कोडीओ आयपवायम्मि होइ पयसंखा ७ । कम्मपवाए कोडी असीती लक्खेहिं अब्भहिआ ८ ॥ चुलसीइ सयसहस्सा पच्चक्खाणम्मि वन्निया पुव्वे । एक्का पयाण कोडी दससहसहिया य अणुवाए १० ॥ छव्वीसं कोडीओ पयाण पुव्वे अवंझणामम्मि ११ । पाणाउम्मि य कोडी छप्पणलक्खेहिं अब्भहिया १२ ॥ नवकोडीओ संखा किरियविसालम्मि वन्निया गुरुणा १३ । अद्धत्तेरसलक्खा पयसंखा बिंदुसारम्मि ॥ [ ] त्ति । तेषु गतं प्रविष्टं यत् श्रुतं तत् पूर्वगतं पूर्वाण्येव, अङ्गप्रविष्टमङ्गानि यथेति । योजनं 15 योगः अनुरूपोऽनुकूलो वा सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सह योग इत्यनुयोगः, स चैकस्तीर्थकराणां प्रथमसम्यक्त्वावाप्ति-पूर्वभवादिगोचरो यः स मूलप्रथमानुयोगोऽभिधीयते, यस्तु कुलकरादिवक्तव्यतागोचरः स गण्डिकानुयोग इति । [सू० २६३] चउव्विहे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तंजहा-णाणपायच्छित्ते, दंसणपायच्छित्ते, चरित्तपायच्छित्ते, वियत्तकिच्चे १ ।। 20 चउविहे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तंजहा-पडिसेवणापायच्छित्ते, संजोयणापायच्छित्ते, आरोवणापायच्छित्ते, पलिउंचणापायच्छित्ते २ । [टी०] पूर्वगतमनन्तरमुक्तम्, तत्र च प्रायश्चित्तप्ररूपणाऽऽसीदिति प्रायश्चित्तसूत्रद्वयम्, तत्र ज्ञानमेव प्रायश्चित्तम, यतस्तदेव पापं छिनत्ति प्रायः चित्तं वा शोधयतीति निरुक्तवशात् ज्ञानप्रायश्चित्तमिति, एवमन्यत्रापि । वियत्तकिच्चे त्ति व्यक्तस्य भावतो गीतार्थस्य 25 कृत्यं करणीयं व्यक्तकृत्यं प्रायश्चित्तमिति, गीतार्थो हि गुरु-लाघवपर्यालोचनेन यत् किञ्चन करोति तत् सर्वं पापविशोधकमेव भवतीति, अथवा ज्ञानाद्यतिचारविशुद्धये यानि १. चियत्त पा० ला० । चीयत्त' भा० ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ३३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे प्रायश्चित्तान्यालोचनादीनि विशेषतोऽभिहितानि तानि तथाऽपदिश्यन्ते, वियत्त त्ति विशेषेण अवस्थाद्यौचित्येन विशेषानभिहितमपि दत्तं वितीर्णमभ्यनुज्ञातमित्यर्थः, यत् किञ्चिन्मध्यस्थगीतार्थेन कृत्यम् अनुष्ठानं तद् विदत्तकृत्यं प्रायश्चित्तमेव, चियत्तकिच्चे त्ति पाठान्तरतस्तु प्रीतिकृत्यं वैयावृत्यादीति । प्रतिषेवणम् आसेवनमकृत्यस्येति 5 प्रतिषेवणा, सा च द्विधा परिणामभेदात् प्रतिषेवणीयभेदाद्वा, तत्र परिणामभेदात् पडिसेवणा उ भावो सो पुण कुसलो व्व होज्जऽकुसलो वा । कुसलेण होइ कप्पो अकुसलपरिणामओ दप्पो ॥ [व्यवहारभा० ३९] प्रतिषेवणीयभेदात्तुमूलगुण-उत्तरगुणे दुविहा पडिसेवणा समासेणं १ । मूलगुणे पंचविहा पिंडविसोहाइगी इयरा ॥ [व्यवहारभा० ४१] तस्यां प्रायश्चित्तमालोचनादि, तच्चेदम्आलोयण १ पडिकमणे २ मीस ३ विवेगे ४ तहा विउसग्गे ५ । तव ६ छेय ७ मूल ८ अणवट्ठया य ९ पारंचिये १० चेव ॥ [व्यवहारनि० १६ भा० ५३] त्ति प्रतिषेवणाप्रायश्चित्तम् १, संयोजनम् एकजातीयातिचारमीलनं संयोजना यथा 15 शय्यातरपिण्डो गृहीतः सोऽप्युदकाहस्तादिना सोऽप्यभ्याहृतः सोऽप्याधाकर्मिकस्तत्र यत् प्रायश्चित्तं तत् संयोजनाप्रायश्चित्तम्, तथा आरोपणमेकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताध्यारोपणमारोपणा, यथा पञ्चरात्रिन्दिवप्रायश्चित्तमापन्नः पुनस्तत्सेवने दशरात्रिन्दिवं पुनः पञ्चदशरात्रिन्दिवमेवं यावत् षण्मासान् ततस्तस्याधिकं तपो देयं न भवति अपि तु शेषतपांसि तत्रैवान्तर्भावनीयानि, इह तीर्थे षण्मासान्तत्वात् 20 तपस इति, उक्तं च पंचाईयारोवण नेयव्वा जाव होंति छम्मासा । तेण पर मासियाणं छण्होवरि झोसणं कुज्जा ॥ [व्यवहारभा० १४१] इति । आरोपणया प्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तमिति । तथा परिकुञ्चनम् अपराधस्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणने परिकुञ्चना परिवञ्चना वा, 25 उक्तं च १. किंचन मध्य जे१ ॥ २. आव० नि० १४३२ ॥ ३. छण्हुवरिं पा० जे२ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ [सू० २६४] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । दव्वे खेत्ते काले भावे पलिउंचणा चउवियप्प [व्यवहारभा० १५०] त्ति । तथाहिसच्चित्ते अचि(च्चि)त्तं १ जणवयपडिसेवियं च अद्धाणे २। सुब्भिक्खे दुब्भिक्खे ३ हटेण तहा गिलाणेणं ४ ॥ [व्यवहारभा० १५१] ति । तस्याः प्रायश्चित्तं परिकुञ्चनाप्रायश्चित्तम्, विशेषोऽत्र व्यवहारपीठादवसेय इति। [सू० २६४] चउव्विहे काले पन्नत्ते, तंजहा-पमाणकाले, अधाउणिव्वत्ति- 5 काले, मरणकाले, अद्धाकाले ।। [टी०] प्रायश्चित्तं च कालापेक्षया दीयत इति कालनिरूपणासूत्रम्, तत्र प्रमीयते परिच्छिद्यते येन वर्षशत-पल्योपमादि तत् प्रमाणम्, तदेव काल: प्रमाणकालः, स च अद्धाकालविशेष एव दिवसादिलक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तीति, उक्तं च दुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई य । चउपोरिसिओ दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥ [आव० नि० ७३०, विशेषाव०२०६९] इति, यथा यत्प्रकारं नारकादिभेदेनाऽऽयुः कर्मविशेषो यथायुस्तस्य रौद्रादिध्यानादिना निर्वृत्तिः बन्धनं तस्याः सकाशाद्य: कालो नारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां स यथायुर्निर्वृत्तिकाल:, अथवा यथाऽऽयुषो निर्वृत्तिस्तथा य: कालो नारकादिभवेऽवस्थानं स तथेति, अयमप्यद्धाकाल एवायुष्ककर्मानुभवविशिष्टः, सर्वसंसारिजीवानां वर्तनादिरूप 15 इति, उक्तं च आउयमेत्तविसिट्ठो स एव जीवाण वत्तणादिमओ । भन्नइ अहाउकालो वत्तइ जो जच्चिरं जेणं ॥ [विशेषाव० २०३७] ति । मरणस्य मृत्योः काल: समयो मरणकाल:, अयमप्यद्धासमयविशेष एव, मरणविशिष्टो मरणमेव वा कालो मरणपर्यायत्वादिति, उक्तं च 20 कालो त्ति मयं मरणं जहेह मरणं गओ त्ति कालगओ। तम्हा स कालकालो जो जस्स मओ मरणकालो ॥ [विशेषाव० २०६६] त्ति । तथा अद्धैव काल: अद्धाकाल:, कालशब्दो हि वर्ण-प्रमाणकालादिष्वपि वर्त्तते, ततोऽद्धाशब्देन विशि(शे?)ष्यत इति, अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्ती समयादिरूपोऽवसेय:, उक्तं च 25 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो । अद्धाकालो भन्नइ समयक्खेत्तम्मि समयाई ॥ समयावलियमुहुत्ता दिवस-महोरत्त-पक्ख-मासा य । संवच्छर-जुग-पलिया सागर-ओसप्पि-परियट्टा ॥ [विशेषाव० २०३५-३६] इति । 5 [सं० २६५] चउव्विहे पोग्गलपरिणामे पन्नत्ते, तंजहा-वनपरिणामे गंधपरिणामे रसपरिणामे फासपरिणामे । [टी०] द्रव्यपर्यायभूतस्य कालस्य चतु:स्थानकमुक्तम्, इदानीं पर्यायाधिकारात् पुद्गलानां पर्यायभूतस्य परिणामस्य तदाह- चउव्विहे त्यादि, परिणाम: अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम्, उक्तं च10 परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न तु सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाश: परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ [ ] इति । __तत्र वर्णस्य कालादे: परिणामः अन्यथा भवनं वर्णेन वा कालादिनेतरत्यागेन पुद्गलस्य परिणामो वर्णपरिणाम:, एवमन्येऽपि । [सू० २६६] भरहेरवतेसु णं वासेसु पुरिम-पच्छिमवज्जा मज्झिमगा बावीसं 15 अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति, तंजहा-सव्वातो पाणातिवातातो वेरमणं, एवं मुसावादाओ [वेरमणं, सव्वातो] अदिन्नादाणाओ [वेरमणं], सव्वातो बहिद्धादाणातो वेरमणं । __ सव्वेसु वि णं महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउजामं धम्मं पण्णवयंति, तंजहा-सव्वातो पाणातिवाताओ वेरमणं जाव सव्वातो बहिद्धादाणाओ 20 वेरमणं । [टी०] अजीवद्रव्यपरिणाम उक्तः, अधुना तु जीवद्रव्यस्य परिणामा विचित्राः सूत्रप्रपञ्चेनाभिधीयन्ते, तत्र च भरतेत्यादिसूत्रद्वयं व्यक्तमेव, किन्तु पुरिम-पश्चिमवर्जाः, किमुक्तं भवति ? मध्यमका इति, ते चाष्टादयोऽपि भवन्तीत्युच्यते-द्वाविंशतिरिति। चत्वारो यमा एव यामा निवृत्तयो यस्मिन् स तथा । बहिद्धादाणाओ त्ति बहिद्धा 25 मैथुनं परिग्रहविशेष:, आदानं च परिग्रहस्तयोर्द्वन्द्वैकत्वम्, अथवा आदीयत इत्यादानं परिग्राह्य वस्तु, तच्च धर्मोपकरणमपि भवतीत्यत आह- बहिस्तात् धर्मोपकरणाद् १. आव० नि० ६६३ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २६७ ] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । बहिर्यदिति, इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यत इति प्रत्याख्येयस्य प्राणातिपातादेश्चतुर्विधत्वात् चतुर्यामता धर्म्मस्येति, इयं चेह भावना - मध्यमतीर्थकराणां विदेहकानां च चतुर्यामधर्म्मस्य पूर्व-पश्चिमतीर्थकरयोश्च पञ्चयामधर्मस्य प्ररूपणा शिष्यापेक्षा, परमार्थतस्तु पञ्चयामस्यैवोभयेषामप्यसौ, यतः प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थसाधव ऋजुजडा वक्रजडाश्चेति, तत्त्वादेव परिग्रहो वर्जनीय इत्युपदिष्टे 5 मैथुनवर्जनमवबोद्धुं पालयितुं च न क्षमाः, मध्यम-विदेहजतीर्थकरतीर्थसाधवस्तु ऋजुप्रज्ञत्वात् तद् बोद्धुं वर्जयितुं च क्षमा इति, भवतश्चात्र श्लोकौ - पुरिमा उज्जुजड्डा उ वंकजड्डा उ पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपन्ना उ तेण धम्मे दुहा कए || पुरिमाणं दुव्विसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालए । कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसुज्झे सुपालए || [ उत्तरा० २३।२६-२७] इति । [सू० २६७ ] चत्तारि दुग्गतीतो पन्नत्ताओ, तंजहा - णेरइयदुग्गती, तिरिक्खजोणियदुग्गती, मणुस्सदुग्गई, देवदुग्गई । चत्तारि सोग्गईओ पन्नत्ताओ, तंजहा- सिद्धसोग्गती, देवसोग्गती, मणुयसोग्गती, सुकुलपच्चायाति । चत्तारि दुग्गता पन्नत्ता, तंजहा - नेरइयदुग्गता, तिरिक्खजोणियदुग्गता, मणुस्सदुग्गता, देवदुग्गता । चत्तारि सोग्गता पन्नत्ता, तंजहा- सिद्धसोग्गता जाव सुकुलपच्चायाया । [टी०] अनन्तरोक्तेभ्यः प्राणातिपातादिभ्योऽनुपरतोपरतानां दुर्गति-सुगती भवतः, तद्वन्तश्च ते दुर्गतेतरा भवन्तीति दुर्गति सुगत्यात्मकपरिणामयोर्दुर्गत सुगतानां च भेदान् 20 सूत्रचतुष्टयेनाह— चत्तारीत्यादि गतार्थम् । नवरं मनुष्यदुर्गतिः निन्दितमनुष्यापेक्षया, देवदुर्गतिः किल्बिषिकाद्यपेक्षयेति । सुकुलपच्चायाइ त्ति देवलोकादौ गत्वा सुकुले इक्ष्वाक्वादौ प्रत्यायातिः प्रत्यागमनं प्रत्याजातिर्वा प्रतिजन्मेति, इयं च तीर्थकरादीनामेवेति मनुष्यसुगतेर्भोगभूमिजादिमनुजत्वरूपाया भिद्यते, दुर्गतिरेषामस्तीत्यंचि प्रत्यये दुर्गता दुःस्था वा दुर्गता:, एवं सुगताः । १. तुलना - बृहत्कल्पभा० ६४०३ ॥ २. “ अर्शआदिभ्योऽच्” पा० ५/२/१२७ ॥ ३४१ 10 15 25 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० २६८] पढमसमयजिणस्स णं चत्तारि कम्मंसा खीणा भवंति, तंजहाणाणावरणिजं, दंसणावरणिजं, मोहणिजं, अंतराइतं । उप्पन्ननाणदंसणधरे णं अरहा जिणे केवली चत्तारि कम्मंसे वेदेति, तंजहावेदणिजं, आउयं, णामं, गोतं । 5 पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिज्जति, तंजहा-वेयणिज्जं, आउयं, णामं, गोतं । [टी०] अनन्तरं सिद्धसुगता उक्ता:, ते चाष्टकर्मक्षयात् भवन्त्यत: क्षयपरिणामस्य क्रममाह- पढमेत्यादि सूत्रत्रयं व्यक्तम्, परं प्रथम: समयो यस्य स तथा स चासौ जिनश्च सयोगिकेवली प्रथमसमयजिनस्तस्य कर्मण: सामान्यस्यांशाः ज्ञानावरणीयादयो 10 भेदा इति । उत्पन्ने आवरणक्षयाज्जाते ज्ञान-दर्शने विशेष-सामान्यबोधरूपे धारयतीत्युत्पन्नज्ञान-दर्शनधरोऽनेनाऽनादिसिद्धकेवलज्ञानवत: सदाशिवस्यासद्भावं दर्शयति, न विद्यते रहः एकान्तो गोप्यमस्य सकलसन्निहित-व्यवहित-स्थूल-सूक्ष्मपदार्थसार्थसाक्षात्कारित्वादित्यरहा, देवादिपूजाऽर्हत्वेनार्हन् वा, रागादिजेतृत्वाजिनः, केवलानि परिपूर्णानि ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवलीति । सिद्धत्वस्य कर्मक्षपणस्य 15 च एकसमये सम्भवात् प्रथमसमयसिद्धस्येत्यादि व्यपदिश्यते । [सू० २६९] चउहिं ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिता, तंजहा-पासेत्ता, भासेत्ता, सुणेत्ता, संभरेत्ता । [टी०] असिद्धानां तु हास्यादयो विकारा भवन्तीति हास्य तावच्चतु:स्थानकावतारित्वादाह- चउहीत्यादि, हसनं हास: हासमोहोदयजनितो 20 विकारः, तस्योत्पत्ति: उत्पादः हासोत्पत्तिः । पासित्त त्ति दृष्ट्वा विदूषकादिचेष्टां चक्षुषा, तथा भाषित्वा वाचा किञ्चिच्चसूरिवचनम्, तथा श्रुत्वा श्रोत्रेण परोक्तं तथाविधवाक्यम्, तथा तथाविधमेव चेष्टा-वाक्यादिकं स्मृत्वा, हसतीति शेष:, एवं दर्शनादीनि हासकारणानि भवन्तीति । [सू० २७०] चउव्विहे अंतरे पन्नत्ते, तंजहा-कटुंतरे, पम्हंतरे, लोहंतरे, 25 पत्थरंतरे। १. करणानि जे१,२ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ [सू० २७१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । एवामेव इथिए वा पुरिसस्स वा चउव्विहे अंतरे पन्नत्ते, तंजहा-कटुंतरसमाणे, पम्हंतरसमाणे, लोहंतरसमाणे, पत्थरंतरसमाणे । [टी०] असिद्धानामेव धर्मान्तरनिरूपणाय दृष्टान्त-दार्टान्तिकार्थवत् सूत्रद्वयम्, चउव्विहे इत्यादि, काष्ठस्य च काष्ठस्य चेति काष्ठयोरन्तरं विशेषो रूपनिर्माणादिभिरिति काष्ठान्तरम्, एवं पक्ष्म कर्पासरूतादि, पक्ष्मणोरन्तरं विशिष्टसौकुमार्यादिभिः, 5 लोहान्तरम् अत्यन्तच्छे दकत्वादिभिः, प्रस्तरान्तरं पाषाणान्तरं चिन्तितार्थप्रापणादिभिरिति, एवमेव काष्ठाद्यन्तरवत्, स्त्रिया वा स्त्र्यन्तरापेक्षया, पुरुषस्य वा पुरुषान्तरापेक्षया, वाशब्दौ स्त्रीपुंसयोश्चातुर्विध्यं प्रति निर्विशेषताख्यापनार्थी, काष्ठान्तरेण समानं तुल्यमन्तरं विशेषो विशिष्टपदवीयोग्यत्वादिना, पक्ष्मान्तरसमानं वचनसुकुमारतयैव, लोहान्तरसमानं स्नेहच्छेदेन परीषहादौ निर्भङ्गत्वादिभिश्च, 10 प्रस्तरान्तरसमानं चिन्तातिक्रान्तमनोरथपूरकत्वेन विशिष्टगुणवद्वन्द्यपदवीयोग्यत्वादिना चेति । [सू० २७१] चत्तारि भयगा पन्नत्ता, तंजहा-दिवसभयते, जत्ताभयते, उच्चत्तभयते, कब्बालभयते । [टी०] अनन्तरमन्तरमुक्तमिति पुरुषविशेषान्तरनिरूपणाय भृतकसूत्रम्, तत्र भ्रियते 15 पोष्यते स्मेति भृतः, स एवानुकम्पितो भृतकः, कर्मकर इत्यर्थः, प्रतिदिवसं नियतमूल्येन कर्मकरणार्थं यो गृह्यते स दिवसभृतकः १, यात्रा देशान्तरगमनं तस्यां सहाय इति भ्रियते य: स यात्राभृतकः २, मूल्य-कालनियमं कृत्वा यो नियतं यथावसरं कर्म कार्यते स उच्चताभृतक: ३, कब्बाडभृतकः क्षितिखानक: ओड्डादिः, यस्य स्वं कzिते 'द्विहस्ता त्रिहस्ता वा त्वया भूमि: खनितव्या, एतावत्ते धनं दास्यामि' इत्येवं 20 नियम्येति। इह गाथे दिवसभयओ उ घेप्पड़ छिन्नेण धणेण दिवसदेवसियं । जत्ता उ होइ गमणं उभयं वा आगमनं चेत्यर्थः एत्तियधणेणं ॥ कब्बाल ओड्डमाई हत्थमियं कम्म एत्तियधणेणं । एच्चिर कालुच्चत्ते कायव्वं कम्म जं बेंति ॥ [निशीथभा० ३७१९-२०] ___ 25 १. ओडादिः खं० ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० २७२] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-संपागडपडिसेवी णामेगे णो पच्छन्नपडिसेवी, पच्छन्नपडिसेवी णामेगे णो संपागडपडिसेवी एगे संपागडपडिसेवी वि पच्छन्नपडिसेवी वि, एगे णो संपागडपडिसेवी णो पच्छन्नपडिसेवी । 5 [टी०] उक्तं लौकिकस्य पुरुषविशेषस्यान्तरम्, अधुना लोकोत्तरस्य तस्यान्तरप्रतिपादनाय प्रतिषेविसूत्रम्, तत्र सम्प्रकटम् अगीतार्थसमक्षमकल्प्यभक्तादि प्रतिषेवितुं शीलं यस्य स सम्प्रकटप्रतिसेवीत्येवं सर्वत्र, नवरं प्रच्छन्नमगीतार्थासमक्षम्, अत्र चाद्ये भङ्गकत्रये पुष्टालम्बनो बकुशादि: निरालम्बनो वा पार्श्वस्थादिर्द्रष्टव्य:, चतुर्थे तु निर्ग्रन्थ: स्नातको वेति । 10 [सू० २७३] चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कणगा, कणगलता, चित्तगुत्ता, वसुंधरा। एवं जमस्स वरुणस्स वेसमणस्स । बलिस्स णं वतिरोयणिंदस्स वतिरोयणरन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-मित्तगा, सुभद्दा, विजुता, असणी । एवं 15 जमस्स वेसमणस्स वरुणस्स ।। धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो कालवालस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-असोगा, विमला, सुप्पभा, सुदंसणा । एवं जाव संखवालस्स । भूताणंदस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो कालवालस्स महारनो 20 चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-सुणंदा, सुभद्दा, सुजाता, सुमणा। एवं जाव सेलवालस्स ।। जहा धरणस्स एवं सव्वेसिं दाहिणिंदलोगपालाणं जाव घोसस्स । जहा भूताणंदस्स एवं जाव महाघोसस्स लोगपालाणं । कालस्स णं पिसातिंदस्स पिसायरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, 25 तंजहा-कमला, कमलप्पभा, उप्पला, सुदंसणा । एवं महाकालस्स वि । १. संप्रकटसेवी खं० पामू० जे२ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २७३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । सुरुवस्स णं भूतिंदस्स भूतरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहारूववती, बहुरूवा, सुरूवा, सुभगा, एवं पडिव । पुण्णभस्स णं जक्खिंदस्स जक्खरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - पुत्ता, बहुपुत्तिता, उत्तमा, तारगा । एवं माणिभद्द व । भीमस्स णं रक्खसिंदस्स रक्खसरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - पउमा, वसुमती, कणगा, रतणप्पभा । एवं महाभीमस्स वि । किंनरस्स णं किंनरिंदस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - वडेंसा, केतुमती, रतिसेणा, रतिप्पभा, एवं किंपुरिसस्स वि । सप्पुरिसस्स णं किंपुरिसिंदस्स किंपुरिसरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - रोहिणी, णवमिता, हिरी, पुप्फवती, एवं महापुरिसस्स वि । अतिकायस्स णं महोरगिंदस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहाभुयगा, भुयगवती, महाकच्छा, फुडा एवं महाकायस्स वि । गीतरतिस्स णं गंधव्विंदस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहासुघोसा, विमला, सुस्सरा, सरस्सती, एवं गीयजस्व । चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, 15 तंजहा - चंदप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा । एवं सूरस्स वि, णवरं सूरप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा । इंगालगस्स णं महग्गहस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - विजया, वेजयंती, जयंती, अपराजिता । एवं सव्वेसिं महग्गहाणं जाव भावके उस्स। ३४५ 5 10 सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा- रोहिणी, मयणा, चित्ता, सोमा । एवं जाव वेसमणस्स । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - पुढवी, राती, रयणी, विज्जू । एवं जाव व॑रुणस्स । [टी०] अन्तराधिकारादेव देवपुरुषाणां स्त्रीकृतमन्तरं प्रतिपादयन् 25 चमरस्सेत्यादिकमग्रमहिषीसूत्रप्रपञ्चमाह, कण्ठ्यश्चायम्, नवरं महारन्नोत्त 20 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे लोकपालस्याग्रभूता: प्रधाना महिष्यो राजभार्या अग्रमहिष्य इति, वइरोयण त्ति विविधैः प्रकारै रोचन्ते दीप्यन्त इति विरोचनास्त एव वैरोचना: उत्तरदिग्वासिनोऽसुरा:, तेषामिन्द्रः । धरणसूत्रे एवमिति कालवालस्येव कोलवाल-शैलपालशङ्खपालानामेतन्नामिका एव चतम्रश्चतम्रो भार्याः, एतदेवाह- जाव संखवालस्स त्ति। 5 भूतानन्दसूत्रे एवमिति यथा कालवालस्य तथान्येषामपि, नवरं तृतीयस्थाने चतुर्थो वाच्यः, धरणस्य दक्षिणनागकुमारनिकायेन्द्रस्य लोकपालानामग्रमहिष्यो यथा यन्नामिकास्तथा तन्नामिका एव सर्वेषां दाक्षिणात्यानां शेषाणामष्टानां वेणुदेव-हरिकान्तअग्निशिख-पूर्ण-जलकान्त-अमितगति-वेलम्बघोषाख्यानामिन्द्राणां ये लोकपाला: सूत्रे दर्शितास्तेषां सर्वेषामिति, यथा च भूतानन्दस्यौदीच्यनागराजस्य तथा 10 शेषाणामष्टानामौदीच्येन्द्राणां वेणुदालि-हरिस्सहा-ऽग्निमानव-विशिष्ट-जलप्रभा ऽमितवाहन-प्रभञ्जन-महाघोषाख्यानां ये लोकपालास्तेषामपीति, एतदेवाह- जहा धरणस्सेत्यादि । [सू० २७४] चत्तारि गोरसविगतीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-खीरं, दहि, सप्पिं, णवणीतं १॥ 15 चत्तारि सिणेहविगतीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-तेल्लं, घयं, वसा, णवणीतं २। चत्तारि महाविगतीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-महु, मंसं, मजं, णवणीतं ३॥ [टी०] उक्तं सचेतनानामन्तरम्, अथान्तराधिकारादेवाचेतनविशेषाणां विकृतीनां गोरस-स्नेह-महत्त्वलक्षणमन्तरं सूत्रत्रयेणाह- चत्तारीत्यादि, गवां रसो गोरस:, व्युत्पत्तिरेवेयं गोरसशब्दस्य, प्रवृत्तिस्तु महिष्यादीनामपि दुग्धादिरूपे रसे, विकृतयः 20 शरीर-मनसो: प्रायो विकारहेतुत्वादिति, शेषं प्रकटम्, नवरं सर्पि: घृतम्, नवनीतं म्रक्षणम् । स्नेहरूपा विकृतय: स्नेहविकृतयः, वसा अस्थिमध्यरस: । महाविकृतयो महारसत्वेन महाविकारकारित्वात्, महत: सत्त्वोपघातस्य कारणत्वाच्चेति, इह विकृतिप्रस्तावाद् विकृतयो वृद्धगाथाभि: प्ररूप्यन्ते खीरं ५ दहि ४ णवणीयं ४ घयं ४ तहा तेल्लमेव ४ गुड २ मजं २ । 25 महु २ मंसं ३ चेव तहा ओगाहिमगं च दसमा उ ॥ १. पालसूत्रे लोकपाला दर्शिता' जे१ ॥ २. ववशिष्ठज' जे१ ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ [सू० २७५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । गोमहिसुटिपसूणं एलगखीराणि पंच चत्तारि । दहिमाइयाई जम्हा उट्टीणं ताणि णो हुंति ॥ चत्तारि होति तेल्ला तिल-अयसि-कुसुंभ-सरिसवाणं च । विगईओ सेसाई डोलाईणं न विगईओ ॥ दवगुल-पिंडगुला दो मजं पुण कट्ठ-पिट्ठनिप्फन्नं । मच्छिय-कोत्तिय-भामरभेयं च तिहा महं होइ ॥ जल-थल-खहयरमंसं चम्मं च ससोणियं तिहेयं पि । आइल्ल तिन्नि चलचल ओगाहिमगं च विगईओ ॥ आदिमानि त्रीणि चलचल त्ति पक्वानि विकृतिरित्यर्थः, सेसा न होंति विगई अजोगवाहीण ते उ कप्पंती । 10 परिभुजंति न पायं जं निच्छयओ न नजति ॥ एगेण चेव तवओ पूरिजति पूयएण जो ताओ । बीओ वि स पुण कप्पइ निव्विगई लेवडो नवरं ॥ [पञ्चव० ३७१-३७७] इत्यादि । [सू० २७५] चत्तारि कूडागारा पन्नत्ता, तंजहा-गुत्ते णामं एगे गुत्ते, गुत्ते णामं एगे अगुत्ते, अगुत्ते णाम एगे गुत्ते, अगुत्ते णामं एगे अगुत्ते । एवामेव 15 चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-गुत्ते णाममेगे गुत्ते ४ ।। __ चत्तारि कूडागारसालाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-गुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा, गुत्ता णाममेगा अगुत्तदुवारा, अगुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा, अगुत्ता णाममेगा अगुत्तदुवारा । एवामेव चत्तारि इत्थीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-गुत्ता नाममेगा गुतिंदिता, गुत्ता णाममेगा अगुत्तिंदिता ४ । 20 [टी०] अचेतनान्तराधिकारादेव गृहविशेषान्तरं दृष्टान्ततयाऽभिधित्सुः पुरुषस्त्रियोश्चान्तरं दार्टान्तिकतया अभिधातुकाम: सूत्रचतुष्टयमाह- चत्तारि कूडेत्यादि, कूटानि शिखराणि स्तूपिकाः, तद्वन्त्यगाराणि गेहानि, अथवा कूटं सत्त्वबन्धनस्थानम्, तद्वदगाराणि कूटागाराणि, तत्र गुप्तं प्राकारादिवृतं भूमिगृहादि वा पुनर्गुप्तं स्थगितद्वारतया पूर्वकालापरकालापेक्षया वेति, एवमन्येऽपि त्रयो भङ्गा बोद्धव्याः, पुरुषस्तु गुप्तो 25 १. 'चलेत्येवं पक्वानि पा० जे२ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नेपथ्यादिनाऽन्तर्हितत्वेन पुनर्गुप्तो गुप्तेन्द्रियत्वेन, अथवा गुप्त: पूर्वं पुनर्गुप्तोऽधुनापीति, विपर्यय ऊह्यः । तथा कूटस्येव आकारो यस्या: शालाया गृहविशेषस्य सा तथा, अयं च स्त्रीलिङ्गदृष्टान्त:, स्त्रीलक्षणदार्टान्तिकार्थसाधर्म्यवशात्, तत्र गुप्ता परिवारावृता गृहान्तर्गता 5 वस्त्राच्छादिताङ्गा गूढस्वभावा वा गुप्तेन्द्रिया तु निगृहीतानौचित्यप्रवृत्तेन्द्रिया, एवं शेषभङ्गा ऊह्याः । [सू० २७६] चउव्विहा ओगाहणा पन्नत्ता, तंजहा-दव्वोगाहणा, खेत्तोगाहणा, कालोगाहणा, भावोगाहणा । [टी०] अनन्तरं गुप्तेन्द्रियत्वमुक्तम् इन्द्रियाणि चावगाहनाश्रयाणीत्यवगाहना10 निरूपणसूत्रम्, अवगाहन्ते आसते यस्याम् आश्रयन्ति वा यां जीवा: साऽवगाहना शरीरम्, द्रव्यतोऽवगाहना द्रव्यावगाहना, एवं सर्वत्र, तत्र द्रव्यतोऽनन्तद्रव्या, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयप्रदेशावगाढा, कालतोऽसङ्ख्ये यसमयस्थितिका, भावतो वर्णाद्यनन्तगुणेति, अथवाऽवगाहना विवक्षितद्रव्यस्याधारभूता आकाशप्रदेशा:, तत्र द्रव्याणामवगाहना द्रव्यावगाहना, क्षेत्रमेवावगाहना क्षेत्रावगाहना, कालस्यावगाहना 15 समयक्षेत्रलक्षणा कालावगाहना, भाववतां द्रव्याणामवगाहना भावावगाहना भावप्राधान्यादिति । आश्रयणमानं वाऽवगाहना, तत्र द्रव्यस्य पर्यायैरवगाहनाऽऽश्रयणं द्रव्यावगाहना, एवं क्षेत्रस्य कालस्य भावानां द्रव्येणेति, अन्यथा वोपयुज्य व्याख्येयमिति। [सू० २७७] चत्तारि पन्नत्तीओ अंगबाहिरियातो पन्नत्ताओ, तंजहा-चंदपन्नत्ती, सूरपन्नत्ती, जंबूदीवपन्नत्ती, दीवसागरपन्नत्ती । ॥ चउट्ठाणस्स पढमो उद्देसओ ॥ [टी०] अवगाहनायाश्च प्ररूपणा प्रज्ञप्तिष्विति तच्चतुःस्थानकसूत्रम्, तत्र प्रज्ञाप्यन्ते प्रकर्षण बोध्यन्ते अर्था यासु ता: प्रज्ञप्तय:, अङ्गानि आचारादीनि, तेभ्यो बाह्या: अङ्गबाह्याः, यथार्थाभिधानाश्चैता: कालिकश्रुतरूपाः; तत्र सूरप्रज्ञप्ति-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती पञ्चम-षष्ठाङ्गयोरुपाङ्गभूते, इतरे तु प्रकीर्णकरूपे इति, व्याख्याप्रज्ञप्तिरस्ति पञ्चमी 25 केवलं साऽङ्गप्रविष्टेत्येताश्चतम्र उक्ताः ॥ ॥ इति चतुःस्थानकस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ [अथ द्वितीय उद्देशक:] [सू० २७८] चत्तारि पडिसंलीणा पन्नत्ता, तंजहा-कोधपडिसंलीणे माणपडिसंलीणे मायापडिसंलीणे लोभपडिसंलीणे । चत्तारि अपडिसंलीणा पन्नत्ता, तंजहा-कोधअपडिसंलीणे जाव लोभअपडिसंलीणे । चत्तारि पडिसंलीणा पन्नत्ता, तंजहा-मणपडिसंलीणे वतिपडिसंलीणे 5 कायपडिसंलीणे इंदियपडिसंलीणे । चत्तारि अपडिसंलीणा पन्नत्ता, तंजहामणअपडिसंलीणे जाव इदियअपडिसंलीणे ४ । [टी०] व्याख्यातश्चतु:स्थानकस्य प्रथमोद्देशकोऽधुना द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायं पूर्वेण सहाभिसम्बन्ध:-अनन्तरोद्देशके जीवादिद्रव्य-पर्यायाणां चतु:स्थानकमुक्तमिहापि तेषामेव तदेवोच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रचतुष्टयम्- चत्तारि 10 पडिसंलीणेत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्ध:- अनन्तरसूत्रे प्रज्ञप्तय उक्ता:, ताश्च प्रतिसंलीनैरेव बुध्यन्त इति प्रतिसंलीनाः सेतरा: अनेनाभिधीयन्त इत्येवंसम्बन्धमिदं सुगमम्, नवरं क्रोधादिकं वस्तु वस्तु प्रति सम्यग्लीना निरोधवन्त: प्रतिसंलीनाः, तत्र क्रोधं प्रति उदयनिरोधेनोदयप्राप्तविफलीकरणेन च प्रतिसंलीन: क्रोधप्रतिसंलीन:, उक्तं चउदयस्सेव निरोहो उदयप्पत्ताण वाऽफलीकरणं । जं एत्थ कसायाणं कसायसंलीणया एसा ॥ कुशलमनउदीरणेनाऽकुशलमनोनिरोधेन च मनः प्रतिसंलीनं यस्य स मनसा वा प्रतिसंलीनो मनःप्रतिसंलीन:, एवं वाक्कायेन्द्रियेष्वपि, नवरं शब्दादिषु मनोज्ञा-ऽमनोज्ञेषु राग-द्वेषपरिहारी इन्द्रियप्रतिसंलीन इति, अत्र गाथा 20 अपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं । कजम्मि य विही गमणं जोगे संलीणया भणिया ॥ सद्देसु य भद्दय-पावएसु सोयविसयमुवगएसु । तुट्टेण व रुटेण व समणेण सया न होयव्वं ॥ [ ] एवं शेषेन्द्रियेष्वपि वक्तव्या इति । एवं मन:प्रभृतिभिरसंलीनो भवति विपर्ययादिति। 25 १. संबद्धस्या जे१ पा० ॥ २. संबद्धमिदं जे१,२ ॥ 15 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० २७९] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - दीणे णाममेगे दीणे, दीणे णाममेगे अदीणे, अदीणे णाममेगे दीणे, अदीणे णाममेगे अदीणे १ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - दीणे णाममेगे दीणपरिणते, दीणे णामं एगे अदीणपरिणते, अदीणे णामं एगे दीणपरिणते, अदीणे णाममेगे 5 अदीणपरिणते २ । ३५० चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - दीणे णाममेगे दीणरूवे, ह्व [=४], ३ । एवं दीणमणे ४, दीणसंकप्पे ५, दीणपत्रे ६, दीणदिट्ठी ७, दीणसीलाचारे ८, दीणववहारे ९ | चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- दीणे णाममेगे दीणपरक्कमे, दीणे 10 णाममेगे अदीण [ परक्कमे], [ ४ ], १०। एवं सव्वेसिं चउभंगो भाणितव्वो । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - दीणे णाममेगे दीणवित्ती ४, ११। एवं दीणजाती १२, दीणभासी १३, दीणोभासी १४ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - दीणे णाममेगे दीणसेवी, ह्व [= ४] १५ । एवं दीणे णाममेगे दीणपरियाए ह्व [ = ४], १६ । एवं दीणे णाममेगे 15 दीणपरियाले ह्व [ = ४], १७ । सव्वत्थ चउभंगो | " [टी०] असंलीनमेव प्रकारान्तरेण सप्तदशभिश्चतुर्भङ्गीरूपैर्दीनसूत्रैराह - दीनो दैन्यवान् क्षीणोर्जितवृत्तिः पूर्वं पश्चादपि दीन एव, अथवा दीनो बहिर्वृत्त्या पुनर्द्दनोऽन्तर्वृत्येत्यादिश्चतुर्भङ्गी, तथा दीनो बहिर्वृत्त्या म्लानवदनत्वादिगुणयुक्तशरीरेणेत्यर्थः एवं प्रज्ञासूत्रं यावदादिपदं व्याख्येयम्, दीनपरिणतः अदीनः 20 सन् दीनतया परिणतोऽन्तर्वृत्त्येत्यादिश्चतुर्भङ्गी २, तथा दीनरूपो मलिनजीर्णवस्त्रादिनेपथ्यापेक्षया ३, तथा दीनमनाः स्वभावत एवानुन्नतचेताः ४, दीनसङ्कल्प उन्नतचित्तस्वाभाव्येऽपि कथञ्चिद्दीनविमर्श: ५, तथा दीनप्रज्ञः हीनसूक्ष्मार्थालोचन: ६, तथा दीनश्चित्तादिभिरेवमुत्तरत्राप्यादिपदम्, तथा दीनदृष्टिर्विच्छायचक्षुः ७, तथा दीनशीलसमाचार: हीनधर्मानुष्ठान: ८, तथा 25 दीनव्यवहारो हीनान्योन्यदान- प्रतिदानादिक्रिय: हीनविवादो वा ९, तथा दीनपराक्रम १. कथंचित्तद्दीनवि पा० । कथंचिद्धीनवि खं० ॥ २. दीनान्यो पा० जे२ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ [सू० २८०-२८१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । हीनपुरुषकार इति १०, तथा दीनस्येव वृत्ति: वर्त्तनं जीविका यस्य स दीनवृत्ति: ११, तथा दीनं दैन्यवन्तं पुरुषं दैन्यवद्वा यथा भवति तथा याचत इत्येवंशीलो दीनयाची, दीनं वा यातीति दीनयायी, दीना वा हीना जातिरस्येति दीनजाति: १२, तथा दीनवद्दीनं वा भाषते दीनभाषी १३, दीनवदवभासते प्रतिभाति अपभाषते वा याचत इत्येवंशीलो दीनावभासी दीनापभाषी वा १४, तथा दीनं नायकं सेवत इति 5 दीनसेवी १५, तथा दीनस्येव पर्याय: अवस्था प्रव्रज्यादिलक्षणो यस्य स दीनपर्यायः १६, दीनपरियाले त्ति दीन: परिवारो यस्य स तथा १७, सव्वत्थ चउभंगो त्ति सर्वसूत्रेषु चत्वारो भङ्गा द्रष्टव्या इति । [सू० २८०] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अज्जे णाममेगे अजे ४, 10 - चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अज्जे णाममेगे अजपरिणते ४, २ । एवं अजरूवे ३, अजमणे ४, अजसंकप्पे ५, अजपन्ने ६, अजदिट्ठी ७, अज्जसीलाचारे ८, अजववहारे ९, अजपरक्कमे १०, अजवित्ती ११, अजजाती १२, अज्जभासी १३, अज्जओभासी १४, अज्जसेवी १५, एवं अज्जपरियाए १६, अजपरियाले १७, एवं सत्तरस आलावगा जहा दीणेणं 15 भणिया तहा अजेण वि भाणियव्वा ।। __ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अजे णाममेगे अज्जभावे, अज्जे नाममेगे अणज्जभावे, अणजे नाममेगे अज्जभावे, अणजे नाममेगे अणज्जभावे १८। [टी०] पुरुषजाताधिकारवत्येवेयमष्टादशसूत्री गतार्था नवरम्, आर्यो नवधा, यदाह खेत्ते जाई कुल कम्म सिप्प भासाए नाणचरणे य । दंसणआरिय णवहा मेच्छा सग-जवण-खसमाइ ॥ [ ] त्ति । __ तत्र आर्यः क्षेत्रत: पुनरार्य: पापकर्मबहिर्भूतत्वेनाऽपाप इत्यर्थः, एवं सप्तदश सूत्राणि नेयानि । तथा आर्यभावः क्षायिकादिज्ञानादियुक्तः अनार्यभाव: क्रोधादिमानिति । [सू० २८१] [१] चत्तारि उसभा पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बलसंपन्ने, रूवसंपन्ने । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने 25 जाव रूवसंपन्ने १ । 20 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चत्तारि उसभा पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने णामं एगे नो कलसंपण्णे, कुलसंपन्ने नामं एगे नो जाइसंपन्ने, एगे जातिसंपन्ने वि कुलसंपन्ने वि, एगे नो जातिसंपन्ने नो कुलसंपन्ने । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा जातिसंपन्ने ट्क [= ४], २ । 5 चत्तारि उसभा पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने नामं एगे नो बलसंपन्ने ट्क = ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसज्जाया पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने [= ४],३। चत्तारि उसभा पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने नामं एगे नो रूवसंपन्ने ट्क [= ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने नामं एगे नो रूवसंपन्ने, रूवसंपन्ने नामं एगे ह्व [= ४], ४ । 10 चत्तारि उसभा पन्नत्ता, तंजहा-कुलसंपन्ने नामं एगे नो बलसंपन्ने, बलसंपन्ने नाम एगे ह [= ४] । एवामेव चतारि पुरिसज्जाया पन्नत्ता, तंजहा-कुलसंपन्ने नाममेगे नो बलसंपन्ने ह्व [= ४], ५ । चत्तारि उसभा पन्नत्ता, तंजहा-कुलसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपन्ने त [= ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-कुलसंपन्ने णाममेगे णो 15 रूवसंपन्ने ह्व [= ४], ६ । चत्तारि उसभा पन्नत्ता, तंजहा-बलसंपन्ने णामं एगे नो रूवसंपन्ने त [= ४] । एवामेव चतारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-बलसंपन्ने णाममेगे नो रूवसंपन्ने ह्व [= ४], ७ । [२] चत्तारि हत्थी पन्नत्ता, तंजहा-भद्दे, मंदे, मिते, संकिन्ने । एवामेव 20 चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-भद्दे, मंदे, मिते, संकिने । चत्तारि हत्थी पन्नत्ता, तंजहा-भद्दे णाममेगे भद्दमणे, भद्दे णाममेगे मंदमणे, भद्दे णाममेगे मियमणे, भद्दे नाममेगे संकिन्नमणे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-भद्दे णाममेगे भद्दमणे, भद्दे णाममेगे मंदमणे, भद्दे णाममेगे मियमणे, भद्दे णाममेगे संकिन्नमणे । 25 चत्तारि हत्थी पन्नत्ता, तंजहा-मंदे णाममेगे भद्दमणे, मंदे नाममेगे मंदमणे, १. वराहमिहिरविरचितायां बृहत्संहितायां ६६तमेऽध्याये वर्णितं हस्तिस्वरूपं प्रथमपरिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् ।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ [सू० २८१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । मंदे णाममेगे मितमणे, मंदे णाममेगे संकिन्नमणे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-मंदे णाममेगे भद्दमणे तं चेव । चत्तारि हत्थी पन्नत्ता, तंजहा-मिते णाममेगे भद्दमणे, मिते णाममेगे मंदमणे, मिते णाममेगे मितमणे, मिते णाममेगे संकिन्नमणे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-मिते णाममेगे भद्दमणे तं चेव । __चत्तारि हत्थी पन्नत्ता, तंजहा-संकिण्णे नाममेगे भद्दमणे, संकिन्ने नाममेगे मंदमणे, संकिन्ने नाममेगे मियमणे, संकिन्ने णाममेगे संकिन्नमणे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-संकिन्ने नाममेगे भद्दमणे तं चेव जाव संकिन्ने नाममेगे संकिन्नमणे । मधुगुलियपिंगलक्खो अणुपुव्वसुजायदीहणंगूलो । पुरओ उदग्गधीरो सव्वंगसमाधितो भद्दो ॥१५॥ चलबहलविसमचम्मो थुल्लसिरो थूलएण पेएण । थूलणह-दंत-वालो हरिपिंगललोयणो मंदो ॥१६॥ तणुओ तणुतग्गीवो तणुयततो तणुयदंत-णह-वालो । भीरू तत्थुव्विग्गो तासी य भवे मिते णामं ॥१७॥ एतेसिं हत्थीणं थोव-थोवं तु जो अणुहरति हत्थी । रूवेण व सीलेण व सो संकिन्नो त्ति णायव्वो ॥१८॥ भद्दो मज्जति सरए मंदो उण मज्जते वसंतम्मि । मिओ मजति हेमंते संकिनो सव्वकालम्मि ॥१९॥ टी०] पुरुषजातप्रकरणमेव दृष्टान्त-दार्टान्तिकार्थोपेतमा विकथासूत्रादभिधीयते, 20 पाठसिद्धं चैतत्, नवरम् ऋषभा बलीवः, जाति: गुणवन्मातृकत्वम्, कुलं गुणवत्पितृकत्वम्, बलं भारवहनादिसामर्थ्यम्, रूपं शरीरसौन्दर्यमिति, पुरुषास्तु स्वयं भावयितव्या: २, अनन्तरदृष्टान्तसूत्राणि तु सपुरुषदार्टान्तिकानि जात्यादीनि चत्वारि पदानि भुवि विन्यस्य षण्णां द्विकसंयोगानां जाइसंपन्ने नो कुलसंपन्ने इत्यादिना स्थानभङ्गकक्रमेण षडेव चतुर्भङ्गिका: कृत्वा समवसेयानि । 15 25 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे हस्तिसूत्रे भद्रादयो हस्तिविशेषा वक्ष्यमाणलक्षणा वनादिविशेषिताश्च, यदाहभद्रो मन्दो मृगश्चेति विज्ञेयास्त्रिविधा गजाः । वनप्रचार १ सारूप्य २ सत्त्वभेदोपलक्षिता: ३ ॥ [ ] इति । तत्र भद्रो हस्ती भद्र एव धीरत्वादिगुणयुक्तत्वात्, मन्दो मन्द एव धैर्य-वेगादिगुणेषु 5 मन्दत्वात्, मृगो मृग एव तनुत्व-भीरुत्वादिना, सङ्कीर्णः किञ्चिद् भद्रादिगुणयुक्तत्वात् सङ्कीर्ण एवेति, पुरुषोऽप्येवं भावनीयः, उत्तरसूत्राणि तु चत्वारि सदान्तिकानि भद्रादिपदानि चत्वारि तदध: क्रमेण चत्वार्येव भद्रमन:प्रभृतीनि च विन्यस्य भद्दे नामं एगे भहमणे इत्यादिना क्रमेण समवसेयानि. भ । म मृ । स नरा '| भम मम मिम संम' जात्याकाराभ्यां प्रशस्तस्तथा भद्रं मनो यस्याथवा भद्रस्येव मनो यस्य स तथा, धीर 10 इत्यर्थः, मन्दं मन्दस्येव वा मनो यस्य स तथा, नात्यन्तधीरः, एवं मृगमना भीरुरित्यर्थः, सङ्कीर्णमना भद्रादिचित्रलक्षणोपेतमना विचित्रचित्त इत्यर्थः, पुरुषास्तु वक्ष्यमाणभद्रादिलक्षणानुसारेण प्रशस्ताप्रशस्तस्वरूपा मन्तव्या इति । भद्रादिलक्षणमिदम्- मह गाहा, मधुगुटिकेव क्षौद्रवटिकेव पिङ्गले पिङ्गे अक्षिणी लोचने यस्य स तथा, अनुपूर्वेण परिपाट्या सुष्ठ जात: उत्पन्नो य: सोऽनुपूर्वसुजातः, 15 स्वजात्युचितकालक्रमजातो हि बल-रूपादिगुणयुक्तो भवति स चासौ दीर्घलाङ्गुलश्च दीर्घपुच्छ इति स तथा, अनुपूर्वेण वा स्थूल-सूक्ष्म-सूक्ष्मतरलक्षणेन सुजातं दीर्घ लाशूलं यस्य स तथेति, पुरत: अग्रभागे उदग्र: उन्नतः, तथा धीर: अक्षोभः, तथा सर्वाण्यङ्गानि सम्यक् प्रमाणलक्षणोपेतत्वेन आहितानि व्यवस्थितानि यस्य स सर्वाङ्गसमाहितो भद्रो नाम गजविशेषो भवतीति । चल गाहा, चलं श्लथं बहलं 20 स्थूलं विषमं वलियुक्तं चर्म यस्य स तथा, स्थूलशिराः, स्थूलकेन पेएण त्ति पेचकेन पुच्छमूलेन युक्तः, स्थूलनख-दन्त-वालो हरिपिङ्गललोचन: सिंहवत् पिङ्गाक्षो मन्दो गजविशेषो भवतीति । तणुगाहा, तनुकः कृश: तनुग्रीवः तनुत्वक् तनुचर्मा तनुकदन्तनखवालः, भीरुः भयशीलः स्वभावतः, त्रस्तो भयकारणवशात् स्तब्धकर्णकरणादिलक्षणोपेतो भीत एव, उद्विग्न: कष्टविहारादावुद्वेगवान्, स्वयं त्रस्त: १. गुडिकेव जे१ पा० जे२ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २८२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ३५५ परानपि त्रासयतीति त्रासी च भवेन्मृगो नाम गजभेद इति, एएसिं गाहा भो गाहा कण्ठ्ये । तथा दंतेहि हणइ भद्दो मंदो हत्थेण आहणइ हत्थी । गत्ताधरेहि य मिओ संकिन्नो सव्वओ हणइ ॥ [ ] त्ति । [सू० २८२] [१] चत्तारि विकहाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - इत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा, रायकहा । इत्थिकहा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा - इत्थीणं जाइकहा, इत्थीणं कुलकहा, इत्थीणं रूवकहा, इत्थीणं णेवत्थकहा । भत्तकहा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा - भत्तस्स आवावकहा, भत्तस्स णिव्वावकहा, भत्तस्स आरंभकहा, भत्तस्स निट्ठाणकहा । देसकहा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा- देसविहिकहा, देसविकप्पकहा, 10 देसच्छंदकहा, देसनेवत्थकहा । रायकहा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा - रन्नो अतिताणकहा, रन्नो निज्जाणकहा, रन्नो बलवाहणकहा, रन्नो कोस- कोट्ठागारकहा । [२] चउव्विहा कहा पन्नत्ता, तंजहा - अक्खेवणी, विक्खेवणी, संवेगणी, निव्वेगणी । 5 अक्खेवणी कहा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा - आयारक्खेवणी, ववहारक्खेवणी, पन्नत्तिक्खेवणी, दिट्ठिवात अक्खेवणी । विक्खेवणी कहा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा - ससमयं कहेति, ससमयं कत्ता परसमयं कहेति १, परसमयं कहेत्ता ससमयं ठावतित्ता भवति २, सम्मावतं कहेति, सम्मावातं कहेत्ता मिच्छावातं कहेति ३, मिच्छावातं कहेत्ता 20 सम्मावतं ठावतित्ता भवति ४ । संवेगणी कथा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा - इहलोगसंवेगणी, परलोगसंवेगणी, आतसरीरसंवेगणी, परसरीरसंवेगणी । णिव्वेगणी कहा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा - इहलोगे दुच्चिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ९, इहलोगे दुच्चिन्ना कम्मा परलोगे 25 15 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति २, परलोगे दुच्चिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ३, परलोगे दुच्चिन्ना कम्मा परलोगे दहफलविवागसंजुत्ता भवंति ४ । इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति १, इहलोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे 5 सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति २, एवं चउभंगो तहेव । [टी०] अनन्तरं संकीर्णः सङ्कीर्णमना इत्यत्र मन:स्वरूपमुक्तम्, अथ वाच: स्वरूपभणनाय विकथाकथाप्रकरणमाह, सुगमम्, नवरं विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा वचनपद्धतिर्विकथा, तत: स्त्रीणां स्त्रीषु वा कथा स्त्रीकथा, इयं च कथेत्युक्तापि स्त्रीविषयत्वेन संयमविरुद्धत्वाद्विकथेति भावनीयेति, एवं भक्तस्य भोजनस्य, देशस्य 10 जनपदस्य, राज्ञो नृपस्येति । ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा वा सा जात्या जातेर्वा कथेति जातिकथा, यथाधिग्ब्राह्मणीर्धवाभावे या जीवन्ति मृता इव । धन्या मन्ये जने शूद्री: पतिलक्षेऽप्यनिन्दिता: ॥ [ ] इति । एवम् उग्रादिकुलोत्पन्नानामन्यतमाया यत् प्रशंसादि सा कुलकथा, यथाअहो चौलुक्यपुत्रीणां साहसं जगतोऽधिकम् । पत्युप॑त्यौ विशन्त्यग्नौ याः प्रेमरहिता अपि ॥ [ ] इति । तथा अन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमाया रूपस्य यत् प्रशंसादि सा रूपकथा, यथाचन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी सद्गी पीनघनस्तनी । किं लाटी नो मता साऽस्य देवानामपि दुर्लभा? ॥ [ ] इति । 20 तासामेव अन्यतमाया: कच्छाबन्धादिनेपथ्यस्य यत् प्रशंसादि सा नेपथ्यकथेति, यथाधिनारीरौदीच्या बहुवसनाच्छादिताङ्गलतिकत्वात् । यद्यौवनं न यूनां चक्षुर्मोदाय भवति सदा ॥ [ ] इति । स्त्रीकथायां चैते दोषा:१. अम्रीप्र पा० ॥ 15 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ [सू० २८२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । आय-परमोहुदीरणं उड्डाहो सुत्तमाइपरिहाणी । बंभवयस्स अगुत्ती पसंगदोसा य गमणादी ॥ [निशीथभा० १२१] उन्निष्क्रमणादय इत्यर्थः । तथा शाक-घृतादीन्येतावन्ति तस्यां रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवंरूपा कथा आवापकथा, एतावन्तस्तत्र पक्कापक्कान्नभेदा व्यञ्जनभेदा वेति निर्वापकथेति, तित्तिरादीनामियतां तत्रोपयोग इत्यारम्भकथा, एतावत् द्रविणं 5 तत्रोपयुज्यत इति निष्ठानकथेति, उक्तं चसागघयादावावो पक्कापक्को य होइ निव्वावो । आरंभ तित्तिराई णिट्ठाणं जा सयसहस्सं ॥ [निशीथभा० १२३] इति । इह चामी दोषा:आहारमंतरेण वि गेहीओ जायए सइंगालं । अजिइंदिय ओदरियावाओ उ अणुन्नदोसा य ॥ [निशीथभा० १२४] इति । तथा देशे मगधादौ विधि: विरचना भोजन-मणि-भूमिकादीनां भुज्यते वा यद्यत्र प्रथमतयेति देशविधिः, तत्कथा देशविधिकथा, एवमन्यत्रापि । नवरं विकल्प: सस्यनिष्पत्ति: वप्र-कूपादि-देवकुल-भवनादिविशेषश्चेति, छन्दो गम्यागम्यविभागो यथा लाटदेशे मातुलभगिनी गम्या अन्यत्रागम्येति, नेपथ्यं स्त्री-पुरुषाणां वेष: स्वाभाविको 15 विभूषाप्रत्ययश्चेति । इह दोषा: रागद्दोसुप्पत्ती सपक्ख-परपक्खओ य अहिगरणं । बहुगुण इमो त्ति देसो सोउं गमणं च अन्नेसिं ॥ [निशीथभा० १२७] ति । तथा अतियानं नगरादौ प्रवेशः, तत्कथा अतियानकथा, यथासियसिंधुरखंधगओ सियचमरो सेयछत्तछन्नणहो । जणणयणकिरणसेओ एसो पविसइ पुरे राया ॥ [ ] इति । एवं सर्वत्र, नवरं निर्याणं निर्गमः, तत्कथा यथावज्जंतायोज्जममंदबंदिसई मिलंतसामंतं ।। संखुद्धसेन्नमुद्धयचिंधं नयरा निवो नीइ ॥ [ ] बलं हस्त्यादि, वाहनं वेगसरादि, तत्कथा यथाहेसंतहयं गजंतमयगलं घणघणंतरहलक्खं । कस्सऽन्नस्स वि सेन्नं णिन्नासियसत्तुसिन्नं भो ! ॥ [ ] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कोशो भाण्डागारम्, कोष्ठागारं धान्यागारमिति, तत्कथा यथापुरिसपरंपरपत्तेण भरियविस्संभरेण कोसेणं । णिजियवेसमणेणं तेण समो को निवो अन्नो? ॥ [ ] त्ति । इह चैते दोषा:चारिय चोरा १ भिमरे २ हिय १ मारिय २ संक काउकामा वा । भुत्ताभुत्तोहाणे करेज वा आससपओगं ॥ [निशीथभा० १३०] भुक्तभोगोऽभुक्तभोगो वा अवधावनं कुर्यादित्यर्थः । आक्षिप्यते मोहात् तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताऽनयेत्याक्षेपणी, तथा विक्षिप्यते सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोताऽनयेति विक्षेपणी, संवेगयति संवेगं करोतीति 10 संवेगनी संवेद्यते वा संबोध्यते संवेज्यते वा संवेगं ग्राह्यते श्रोताऽनयेति संवेदनी संवेजनी वेति, निर्विद्यते संसारादेनिविण्ण: क्रियते अनयेति निर्वेदनीति । आचारो लोचा-ऽस्नानादिः, तत्प्रकाशनेन आक्षेपणी आचाराक्षेपणीति, एवमन्यत्रापि, नवरं व्यवहारः कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षण:, प्रज्ञप्ति: संशयापन्नस्य श्रोतुर्मधुरवचनैः प्रज्ञापनम्, दृष्टिवादः श्रोत्रपेक्षया नयानुसारेण सूक्ष्मजीवादिभावकथनम्, 15 अन्ये त्वभिदधति आचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराद्यभिधानादिति, अस्याश्चायं रस: विजाचरणं च तवो पुरिसक्कारो य समिइगुत्तीओ । उवइस्सइ खलु जं सो कहाए अक्खेवणीय रसो ॥ [दशवै० नि० १९५] इति । स्वसमयं स्वसिद्धान्तं कथयति, तद्गुणानुद्दीपयति पूर्वम्, ततस्तं कथयित्वा परसमयं 20 कथयति, तद्दोषान् दर्शयतीत्येका । एवं परसमयकथनपूर्वकं स्वसमयं स्थापयिता स्वसमयगुणानां स्थापको भवतीति द्वितीया । सम्मावायमित्यादि, अस्यायमर्थ:परसमयेष्वपि घुणाक्षरन्यायेन यो यावान् जिनागमतत्त्ववादसदृशतया सम्यग् अविपरीततत्त्वानां वाद: सम्यग्वाद: तं कथयति, तं कथयित्वा तेष्वेव यो जिनप्रणीततत्त्वविरुद्धत्वान्मिथ्यावादस्तं दोषदर्शनत: कथयतीति तृतीया । परसमयेष्वेव मिथ्यावादं 25 कथयित्वा सम्यग्वादं स्थापयिता भवतीति चतुर्थी । अथवा सम्यग्वाद: अस्तित्वम्, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २८३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ३५९ मिथ्यावादो नास्तित्वम्, तत्र आस्तिकवादिदृष्टीरुक्त्वा नास्तिकवादिदृष्टीणतीति तृतीया, एतद्विपर्ययाच्चतुर्थीति । इहलोको मनुष्यजन्म, तत्स्वरूपकथनेन संवेगनी इहलोकसंवेगनी, सर्वमिदं मानुषत्वमसारमध्रुवं कदलीस्तम्भसमानमित्यादिरूपा । एवं परलोकसंवेदनी देवादिभवस्वभावकथनरूपा देवा अपा -विषाद-भय-वियोगादिदुःखैरभिभूता:, किं 5 पुनस्तिर्यगादय इति । आत्मशरीरसंवेगनी यदेतदस्मदीयं शरीरमेतदंशुचिकारणजातमशुचिद्वारविनिर्गतमिति न प्रतिबन्धस्थानमित्यादिकथनरूपा, एवं परशरीरसंवेगनी, अथवा परशरीरं मृतकशरीरमिति । इहलोके दुश्चीर्णानि चौर्यादीनि कर्माणि क्रिया इहलोके दुःखमेव कर्मद्रुमजन्यत्वात् फलं दुःखफलं तस्य विपाकः अनुभवो दुःखफलविपाकस्तेन 10 संयुक्तानि दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति चौरादीनामिवेत्येका, एवं नारकाणामिवेति द्वितीया, आ गर्भात् व्याधि-दारिद्र्याभिभूतानामिवेति तृतीया, प्राक्कृताशुभकर्मोत्पन्नानां नरकप्रायोग्यं बध्नतां काक-गृध्रादीनामिव चतुर्थीति । इहलोए सुचिन्नेत्यादि चतुर्भङ्गी तीर्थकरदानदातृ १ सुसाधु २ तीर्थकर ३ देवभवस्थतीर्थकरादीना ४ मिव भावनीयेति । [सू० २८३] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-किसे णाममेगे किसे, किसे णाममेगे दढे, दढे णाममेगे किसे, दढे णाममेगे दढे । चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-किसे णाममेगे किससरीरे, किसे णाममेगे दढसरीरे, दढे णाममेगे किससरीरे, दढे णाममेगे दढसरीरे ४ । __चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-किससरीरस्स नाममेगस्स णाणदंसणे 20 समुप्पज्जति णो दढसरीरस्स, दढसरीरस्स णाम एगस्स णाणदंसणे समुप्पज्जति णो किससरीरस्स, एगस्स किससरीरस्स वि णाणदंसणे समुप्पजति दढसरीरस्स वि, एगस्स नो किससरीरस्स णाणदंसणे समुप्पजति णो दढसरीरस्स । [टी०] उक्तो वाग्विशेषोऽधुना पुरुषजातप्रधानतया कायविशेषमाह- चत्तारि १. "दशुचि अशुचिकारण खं० ॥ 15 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुरिसेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं कृशः तनुशरीरः पूर्वं पश्चादपि कृश एव, अथवा कृशो भावेन हीनसत्त्वादित्वात् पुन: कृश: शरीरादिभिः, एवं ढूंढोऽपि विपर्ययादिति, पूर्वसूत्रार्थविशेषाश्रितमेव द्वितीयं सूत्रम्, तत्र कृशो भावत:, शेषं सुगमम् । कृशस्यैव चतुर्भङ्ग्या ज्ञानोत्पादमाह- चत्तारीत्यादि व्यक्तम्, किन्तु कृशशरीरस्य 5 विचित्रतपसा भावितस्य शुभपरिणामसम्भवेन तदावरणक्षयोपशमादिभावात् ज्ञानञ्च दर्शनञ्च ज्ञानदर्शनं ज्ञानेन वा सह दर्शनं ज्ञानदर्शनं छाद्यस्थिकं कैवलिकं वा तत् समुत्पद्यते, न दृढशरीरस्य, तस्य हि उपचितत्वेन बहुमोहतया तथाविधशुभपरिणामाभावेन क्षयोपशमाद्यभावादित्येकः, तथाऽमन्दसंहननस्याल्पमोहस्य दृढशरीरस्यैव ज्ञानदर्शनमुत्पद्यते, स्वस्थशरीरतया मन:स्वास्थ्येन शुभपरिणामभावत: 10 क्षयोपशमादिभावात् न कृशशरीरस्याऽस्वास्थ्यादिति द्वितीयः, तथा कृशस्य दृढस्य वा तदुत्पद्यते विशिष्टसंहननस्याल्पमोहस्योभयथापि शुभपरिणामभावात् कृशत्व-दृढत्वे नापेक्षत इति तृतीयः, चतुर्थः सुज्ञान: । [सू० २८४] चउहिं ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अस्सिं समयंसि अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पजिउकामे वि न समुप्पज्जेजा, तंजहा-अभिक्खणं 15 अभिक्खणमित्थिकहं भत्तकहं देसकहं रायकहं कत्ता भवति १, विवेगेणं विउसग्गेणं णो सम्ममप्पाणं भाविता भवति २, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरितं जागरतित्ता भवति ३, फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्मं गवेसित्ता भवति ४, इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा जाव नो समुप्पज्जेजा । 20 चउहिं ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पजिउकामे समुप्पजेजा, तंजहा-इत्थीकहं भत्तकहं देसकहं रायकहं णो कहेत्ता भवति, विवेगेणं विउसग्गेणं सम्ममप्पाणं भावेत्ता भवति, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरितं जागरतित्ता भवति, फासुयस्स एसणिजस्स उंछस्स सामुदाणियस्स सम्मं गवेसित्ता भवति, इच्चेतेहिं चउहिं 25 ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा जाव समुप्पजेजा । १. दृढो विपर्यया जे१ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ 10 [सू० २८५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः ।। [टी०] ज्ञानदर्शनयोरुत्पाद: उक्तोऽधुना तद्व्याघात उच्यते, तत्र- चउहीत्यादि सूत्रं स्फुटम्, परं निर्ग्रन्थीग्रहणात् स्त्रिया अपि केवलमुत्पद्यत इत्याहेति । अस्मिन्निति अस्मिन् प्रत्यक्ष इवानन्तरप्रत्यासन्ने समये अइसेसे त्ति शेषाणि मत्यादि- चक्षुर्दर्शनादीनि अतिक्रान्तं सर्वावबोधादिगुणैर्यत्तदतिशेषमतिशयवत् केवलमित्यर्थः, समुत्पत्तुकाममपीति इहेवार्थो द्रष्टव्य:, ज्ञानादेरभिलाषाभावात् । कथयितेति 5 शीलार्थिकस्तृन्, तेन द्वितीया न विरुद्धेति। विवेकेनेति अशुद्धादित्यागेन विउसग्गेणं ति कायव्युत्सर्गेण । पूर्वरात्रश्च रात्रे: पूर्वो भागो अपररात्रश्च रात्रेरपरो भाग: तावेव काल: स एव समय: अवसरो जागरिकाया: पूर्वरात्रापररात्रकालसमयस्तस्मिन्, कुटुम्बजागरिकाव्यवच्छेदेन धर्मप्रधाना जागरिका निद्राक्षयेण बोधो धर्मजागरिका, भावप्रत्युपेक्षेत्यर्थः, यथा किं कय किं वा सेसं किं करणिजं तवं च न करेमि । पुव्वावरत्तकाले जागरओ भावपडिलेहा ॥ [ओघनि० २६२] इति । अथवा को मम कालो ? किमेयस्स उचियं ? असारा विसया नियमगामिणो विरसावसाणा भीसणो मच्चू। [ ] इत्यादिरूपा, विभक्तिपरिणामात् तया जागरिता जागरको भवति, अथवा धर्मजागरिकां जागरिता कर्तेति द्रष्टव्यमिति । तथा प्रगता असव: उच्छ्वासादय: 15 प्राणा यस्मात् स प्रासुको निर्जीवस्तस्य, एष्यते गवेष्यते उद्गमादिदोषरहिततयेत्येषणीय: कल्प्यस्तस्य, उञ्छ्यते अल्पाल्पतया गृह्यत इत्युञ्छो भक्त-पानादिस्तस्य, समुदाने भिक्षणे याच्ञायां भव: सामुदानिकः तस्य, नो सम्यग् गवेषयिता अन्वेष्टा भवति, इत्येवंप्रकारैः एतैरनन्तरोदितैरित्यादि निगमनम्, एतद्विपर्ययसूत्रं कण्ठ्यम् । [सू० २८५] नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवतेहिं 20 सज्झायं करेत्तए, तंजहा-आसाढपाडिवते, इंदमहपाडिवते, कत्तियपाडिवते, सुगिम्हपाडिवते १॥ णो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, १. इत्याह अस्मिन्निति पामू० जे२ ॥ २. 'समुत्पत्तुकाममिव' इति भावः। ३. “आक्वेस्तच्छील-तद्धर्म तत्साधुकारिषु ।३।२।१३४। तृन् ।३।२।१३५। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम् ।२।३।६९।"- पा० ॥ ४. एतरित्यादि निग' जे१ खं० ॥ -A-8 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ तंजहा - पढमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्डर | कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तंजहापुव्वण्ह, अवरण्हे, पओसे, पच्चूसे २ | [टी०] निर्ग्रन्थप्रस्तावात्तदकृत्यनिषेधाय सूत्रे नो कप्पड़ इत्यादिके कण्ठ्ये, केवलं 5 महोत्सवानन्तरवृत्तित्वेनोत्सवानुवृत्त्या शेषप्रतिपद्विलक्षणतया महाप्रतिपदस्तासु, इह च देशविशेषरूढ्या पाडिवएहिं ति निर्देश:, स्वाध्यायो नन्द्यादिसूत्रविषयो वाचनादि:, अनुप्रेक्षा तु न निषिध्यते, आषाढस्य पौर्णमास्या अनन्तरा प्रतिपदाषाढप्रतिपदेवमन्यत्रापि, नवरमिन्द्रमहः अश्वयुक्पौर्णमासी, सुंग्रीष्मः चैत्रपौर्णमासीति, इह च यत्र विषये यतो दिवसान्महामहाः प्रवर्त्तन्ते तत्र तद्दिवसात् स्वाध्यायो न विधीयते महसमाप्तिदिनं 10 यावत् तच्च पौर्णमास्येव, प्रतिपदस्तु क्षणानुवृत्तिसम्भवेन वर्ज्यन्त इति, उक्तं चआसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धव्वे | एए महामहा खलु सव्वेसिं जाव पाडिवया ॥ [ आव० नि० १३५२ ] इति । अकालस्वाध्याये चामी दोषा: 15 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सुयणाणम्मि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य । विज्जासाहणवेगुन्नधम्मया एव मा कुणसु ॥ [ आव० नि० १४२२] इति, विद्यासाधनवैगुण्यसाधर्म्येणैवेत्यर्थः । प्रथमा सन्ध्या अनुदिते सूर्ये, पश्चिमा अस्तमयसमये । उक्तविपर्ययसूत्रं कण्ठ्यम्, किन्तु पुव्वण्हे अवरण्हे त्ति दिनस्याऽऽद्यचरमप्रहरयोः, पओसे पच्चूसे तिरात्रेरिति । [सू० २८६] चउव्विहा लोगट्ठिती पन्नत्ता, तंजहा - आगासपतिट्ठिए वाते, 20 वातपतिट्ठिए उदधी, उदधिपतिट्ठिया पुढवी, पुढविपइट्ठिया तसा थावरा पाणा । [ टी० ] स्वाध्यायप्रवृत्तस्य च लोकस्थितिपरिज्ञानं भवतीति तामेव प्रतिपादयन्नाह— चउव्विहेत्यादि, लोकस्य क्षेत्रलक्षणस्य स्थितिः व्यवस्था लोकस्थिति:, आकाशप्रतिष्ठितो वातो घनवात-तनुवातलक्षणः, उदधि: घनोदधिः, पृथिवी रत्नप्रभादिका, त्रसा द्वीन्द्रियादयस्ते पुनर्ये रत्नप्रभादिपृथिवीष्वप्रतिष्ठितास्तेऽपि विमान25 पर्वतादिपृथिवीप्रतिष्ठितत्वात् पृथिवीप्रतिष्ठिता एव, विमान - पृथिवीनां १. सुग्रैष्मः जे१ ॥ २. 'साधनावैगु खं० ॥ ३. पृथ्वी जे१ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ 5 10 [सू० २८७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । चाकाशादिप्रतिष्ठितत्वं यथासम्भवमवसे यम्, अविवक्षा वेह विमानादिगतदेवादिवसानामिति, स्थावरास्त्विह बादरवनस्पत्यादयो ग्राह्याः, सूक्ष्माणां सकललोकप्रतिष्ठितत्वात्, शेषं सुगममिति । [सू० २८७] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-तहे नाममेगे, नोतहे नाममेगे सोवत्थी नाममेगे, पधाणे नाममेगे ४, १।। चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-आयंतकरे नाममेगे णो परंतकरे १, परंतकरे णाममेगे णो आतंतकरे २, एगे आतंतकरे वि परंतकरे वि ३, एगे णो आतंतकरे णो परंतकरे ४, २ । ___ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-आतंतमे नाममेगे नो परंतमे, परंतमे नामं एगे ह्व [= ४], ३ । चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-आयंदमे नाममेगे णो परंदमे ह्व [= ४], ४ । [टी०] अनन्तरं त्रसा: प्राणा उक्ताः, अधुना त्रसप्राणविशेषस्य चत्तारीत्यादिभिश्चतुर्भिश्चतुर्भङ्गीसूत्रैः स्वरूपं दर्शयति, कण्ठ्यानि चैतानि, केवलं तह त्ति सेवक: सन् यथैवादिश्यते तथैव य: प्रवर्त्तते स तथः, अन्यस्तु नो तथैवान्यथापीत्यर्थ इति 15 नोतथः, तथा स्वस्तीत्याह चरति वा सौवस्तिकः प्राकृतत्वात् ककारलोपे दीर्घत्वे च सोवत्थी माङ्गलिकाभिधायी मागधादिरन्य:, एतेषामेवाराध्यतया प्रधान: प्रभुरन्य इति । आयंतकरे त्ति आत्मनोऽन्तम् अवसानं भवस्य करोतीत्यात्मान्तकरः, नो परस्य भवान्तकरो धर्मदेशनाऽनासेवकः प्रत्येकबुद्धादि: १, तथा परस्य भवान्तं करोति मार्गप्रवर्त्तनेन परान्तकरो नात्मान्तकरोऽचरमशरीर आचार्यादिः २, तृतीयस्तु 20 तीर्थकरोऽन्यो वा ३, चतुर्थो दुःषमाचार्यादि:४, अथवाऽऽत्मनोऽन्तं मरणं करोतीति आत्मान्तकरः, एवं परान्तकरोऽपि, इह प्रथम आत्मवधकः, द्वितीयः परवधकः, तृतीय उभयहन्ता, चतुर्थस्त्ववधक इति, अथवाऽऽत्मतन्त्रः सन् कार्याणि करोतीत्यात्मतन्त्रकरः, एवं परतन्त्रकरोऽपि, इह तु प्रथमो जिनः, द्वितीयो भिक्षुः, तृतीय आचार्यादिः, चतुर्थ: कार्यविशेषापेक्षया शठयतिः, अथवा आत्मतन्त्रम् आत्मायत्तं 25 १. तहिए नाममेगे अतहिए नाममेगे भां० ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे धन-गच्छादि करोतीत्यात्मतन्त्रकरः, एवमितरोऽपि, भङ्गयोजना स्वयमूह्येति । तथा आत्मानं तमयति खेदयतीत्यात्मतम: आचार्यादिः, परं शिष्यादिकं तमयतीति परतमः, सर्वत्र प्राकृतत्वाद्नुस्वारः, अथवा आत्मनि तम: अज्ञानं क्रोधो वा यस्य स आत्मतमा:, एवमितरोऽपि, तथा आत्मानं दमयति शमवन्तं करोति शिक्षयति वेत्यात्मदम: 5 आचार्योऽश्वदमकादिर्वा, एवमितरोऽपि, नवरं पर: शिष्योऽश्वादिर्वा । [सू० २८८] चउम्विधा गरहा पन्नत्ता, तंजहा-उवसंपजामित्तगा गरहा, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा, जं किंचि मिच्छामीत्तेगा गरहा, एवं पि पन्नत्तेगा गरहा । [टी०] दमश्च गर्दागर्हात: स्यादिति गर्हासूत्रम्, तत्र गुरुसाक्षिका आत्मनो निन्दा 10 गर्दा, तत्र उपसंपद्ये आश्रयामि गुरुं स्वदोषनिवेदनार्थम् अभ्युपगच्छामि वोचितं प्रायश्चित्तम् इतीति एवंप्रकार: परिणाम एका गति, गर्हात्वं चास्योक्तपरिणामस्य गर्हाया: कारणत्वेन कारणे कार्योपचाराद् गर्दासमानफलत्वाच्च द्रष्टव्यमिति । अभिधीयते हि भगवत्याम् निग्गंथेणं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पिण्डलाभप्रतिज्ञयेत्यर्थः, पविटेणं अन्नयरे 15 अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि पडिक्कमामि निंदामि जाव पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोइस्सामि०, से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणा य पुव्वमेव कालं करेजा से णं भंते! किं आराहए विराहए ? गोयमा ! आराहए नो विराहए [भगवती० ८।६७] त्ति । तथा वितिगिच्छामि त्ति वीति विशेषेण विविधप्रकारैर्वा चिकित्सामि प्रतिकरोमि 20 निराकरोमि गर्हणीयान् दोषान् इतीति एवंविकल्पात्मिका एकाऽन्या गर्दा, तत एवेति, तथा जं किंचि मिच्छामीति यत् किञ्चनानुचितं तन्मिथ्या विपरीतं दुष्ठ मे मम इतीत्येवं वासनागर्भवचनरूपा एकाऽन्या गर्हा, एवंस्वरूपत्वादेव गर्हाया:, तथा एवमपीति अनेनापि स्वदोषगर्हणप्रकारेणापि प्रज्ञप्ता अभिहिता जिनैर्दोषशुद्धिरिति प्रतिपत्तिरेका गर्हा, एवंविधप्रतिपत्तेर्गत्कारणत्वादिति, एवं पि पन्नत्तेगा गरिहेति पाठे 25 व्याख्यानमिदम्, एवं पि पन्नत्ते एगा इति पाठे त्विदम-यत किञ्चनावद्यं तन्मिथ्येत्येवं १. 'मि एगा भां० ॥ २. मी एगा भां० ॥ ३. मीतेगा भां० ॥ ४. 'नत्ते एगा भां० ॥ ५. त एवेति जे१ ॥ ६. 'मीति त्ति यत् पा० जे२ ।। ७. इत्येवं पा० जे२ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २८९ ] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । प्रतिपत्तव्यमित्येवमपि प्रज्ञप्ते प्ररूपिते सत्येका गर्हा भवति, एवंविधप्ररूपणायाः प्रज्ञापनीयस्य गर्हाकारणत्वात्। अथवा उपसंपद्ये प्रतिषेधाम्यहमतिचारानित्येवं स्वदोषप्रतिपत्तिरेका गर्हा, तथा विचिकित्सामि शङ्के अशङ्कनीयानपि जिनभाषितभावान् गुर्वादीन् वा दोषवत्तयेत्येवंप्रकारा अपि गर्हा स्वदोषप्रतिपत्तिरूपत्वादेवेति, तथा यत् किञ्चन 5 साधूनामनुचितं तदिच्छामि साक्षादकरणेऽपि मनसाऽभिलषामि, इह मकार आगमिकः प्राकृतत्वादिति, अथवा यत्किञ्चन साधुकृत्यमाश्रित्य मिथ्या विपर्यस्तोऽस्मि भवामि मिथ्या करोमि वा मिथ्ययामीति, मिच्छामि म्लेच्छवदाचरामि वा म्लेच्छामीति मिच्छामि, शेषं पूर्ववत् । तथा असदनुष्ठानप्रवृत्तः प्रेरितः सन् केनापि स्वकीयचित्तसमाधानार्थं वा स्वकीयासदनुष्ठानसमर्थनाय क्लिष्टचित्ततयैवं प्ररूपयामि भावयामि वा यदुत एवमपि 10 प्रज्ञप्ति: प्ररूपणाऽस्ति जिनागमे, पाठान्तरे त्वेवमपि प्रज्ञप्तोऽयं भाव इत्यस्थानाभिनिवेशी उत्सूत्रप्ररूपको वाऽहमित्येका गर्हा, एवं स्वदोषप्रतिपत्तिरूपा गर्हा सर्वत्रेति । [सू० २८९ ] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा- अप्पणो नाममेगे अलमंथू भवति, णो परस्स, परस्स नाममेगे अलमंथू भवति णो अप्पणो, एगे अप्पणो वि अलमंथू भवति परस्स वि, एगे नो अप्पणो अलमंथू भवति 15 णो परस्स १ । चत्तारि मग्गा पन्नत्ता, तंजहा - उज्जू नाममेगे उज्जू, उज्जू नाममेगे वंके, वंके नाममेगे उज्जू, वंके नाममेगे वंके २ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजा - उज्जू नाममेगे उज्जू ह्व [ = ४], ३ । चत्तारि मग्गा पन्नत्ता, तंजहा - खेमे नाममेगे खेमे, खेमे णाममेगे अखेमे 20 ह्व [= ४], ४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - खेमे णाममेगे खेमे ह्व [ = ४], ५ । चत्तारि मग्गा पन्नत्ता, तंजहा - खेमे णाममेगे खेमरूवे, खेमे णाममेगे अखेमरूवे ह्व [= ४], ६ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजाखेमे नाममेगे खेमरूवे ह्व [ = ४], ७ । चत्तारि संबुक्का पन्नत्ता, तंजहा - वामे नाममेगे वामावत्ते, वामे नाममेगे ३६५ 25 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दाहिणावत्ते, दाहिणे नाममेगे वामावत्ते, दाहिणे नाममेगे दाहिणावत्ते ८ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-वामे नाममेगे वामावत्ते ह [= ___ चत्तारि धूमसिहाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-वामा नाममेगा वामावत्ता ह्व [= 5 ४], १० । ___ एवामेव चत्तारि इत्थीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-वामा णाममेगा वामावत्ता ह्व [= ४], ११ । चत्तारि अग्गिसिहाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-वामा णाममेगा वामावत्ता ह्व [= ४], १२ । 10 एवामेव चत्तारि इत्थीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-वामा णाममेगा वामावत्ता ह्व [= ४], १३ । ___ चत्तारि वायमंडलिया पन्नत्ता, तंजहा-वामा णाममेगा वामावत्ता ह (= ४], १४ । ___ एवामेव चत्तारि इत्थीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-वामा णाममेगा वामावत्ता 15 ह्व [= ४], १५ ।। चत्तारि वणसंडा पन्नत्ता, तंजहा-वामे नाममेगे वामावत्ते ह [= ४], १६। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-वामे णाममेगे वामावत्ते ह्र [= ४], १७ । [टी०] गर्दा च दोषवर्जकस्यैव सम्यग् भवति नेतरस्येति दोषवर्जक20 जीवस्वरूपनिरूपणाय सप्तदश चतुर्भङ्गीसूत्राणि व्यक्तानि च, केवलम् अलमस्तु निषेधो भवतु य एवमाह सोऽलमस्त्वित्युच्यते, निषेधक इत्यर्थः, स चात्मनो दुर्णयेषु प्रवर्त्तमानस्यैको निषेधकः, अथवा अलमंथु त्ति समयभाषया समर्थोऽभिधीयते, तत: आत्मनो निग्रहे समर्थः कश्चिदिति १। एको मार्ग ऋजुरादावन्तेऽपि ऋजुः, अथवा ऋजुः प्रतिभाति तत्त्वतोऽपि ऋजुरेवेति २। पुरुषस्तु ऋजुः पूर्वापरकालापेक्षया, 25 अन्तस्तत्त्वबहिस्तत्त्वापेक्षया वेति, क्वचित्तु उज्जू नाम एगे उज्जूमणे त्ति पाठः, सोऽपि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ [सू० २९०] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः ।। बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वापेक्षया व्याख्येय: ३। क्षेमो नामैको मार्ग आदौ निरुपद्रवतया पुन: क्षेमोऽन्ते तथैव, प्रसिद्धि-तत्त्वाभ्यां वा ४। एवं पुरुषोऽपि क्रोधाद्युपद्रवरहिततया क्षेम इति ५। क्षेमो भावतोऽनुपद्रवत्वेन क्षेमरूप आकारेण मार्ग: ६। पुरुषस्तु प्रथमो भावद्रव्यलिङ्गयुक्त: साधुः, द्वितीय: कारणिको द्रव्यलिङ्गवर्जित: साधुरेव, तृतीयो निह्नवः, चतुर्थोऽन्यतीर्थिको गृहस्थो वेति ७, शम्बूकाः शङ्खा:, वामो वामपार्श्वव्यवस्थितत्वात् 5 प्रतिकूलगुणत्वाद्वा, वामावर्त्तः प्रतीतः, एवं दक्षिणावर्तोऽपि, दक्षिणो दक्षिणपार्श्वनियुक्तत्वादनुकूलगुणत्वाद्वेति ८, पुरुषस्तु वाम: प्रतिकूलस्वभावतया वाम एवावर्त्तते प्रवर्त्तत इति वामावर्तो विपरीतप्रवृत्तेरेकः, अन्यो वाम एव स्वरूपेण, कारणवशाद् दक्षिणावर्त्तः अनुकूलप्रवृत्तिः, अन्यस्तु दक्षिणोऽनुकूलस्वभावतया, कारणवशात् वामावर्त्तः अननुकूलवृत्तिरिति, एवं चतुर्थोऽपीति ९, धूमशिखा वामा 10 वामपार्श्ववर्तितया अननुकूलस्वभावतया वा वामत एवावर्त्तते या तथा वलनात् सा वामावर्त्ता १०, स्त्री पुरुषवद् व्याख्येया ११, कम्बुदृष्टान्ते सत्यपि धूमशिखादिदृष्टान्तानां स्त्रीदाान्तिके शब्दसाधर्म्यणोपपन्नतरत्वाद् भेदेनोपादानमिति । एवमग्निशिखापि १२-१३। वातमण्डलिका मण्डलेनोर्ध्वप्रवृत्तो वायुरिति, इह च स्त्रियो मालिन्योपतापचापल्यस्वभावा भवन्तीत्यभिप्रायेण तासु धूमशिखादिदृष्टान्तत्रयोपन्यास इति, 15 उक्तं च चवला मइलणशीला सिणेहपरिपूरिया वि तावेइ । दीवयसिह व्व महिला लद्धप्पसरा भयं देइ ॥ [ ] इति, १४-१५। वनखण्डस्तु शिखावत्, नवरं वामावर्तो वामवलनेन जातत्वाद् वायुना वा तथा धूयमानत्वादिति १६, पुरुषस्तु पूर्ववदिति १७ । 20 [सू० २९०] चउहि ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गंथिं आलवमाणे वा संलवमाणे वा णातिक्कमति, तंजहा-पंथं पुच्छमाणे वा १, पंथं देसमाणे वा २, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दलयमाणे वा ३, दवावेमाणे वा ४। [टी०] अनुकूलस्वभावोऽनुकूलप्रवृत्तिश्चानन्तरं पुरुष उक्तः, एवंभूतश्च निर्ग्रन्थ: सामान्येनानुचितप्रवृत्तावपि न स्वाचारमतिक्रामतीति दर्शयन्नाह- चउहीत्यादि स्फुटम्, 25 किन्त्वालपन् ईषत् प्रथमतया वा जल्पन संलपन् मिथो भाषणेन नातिक्रामति न १. लवृत्तिः पा० ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे लङ्घयति निर्ग्रन्थाचारम्, एगो एगिथिए सद्धिं नेव चिट्टे न संलवे [उत्तरा० १।२६] विशेषत: साध्व्या, इत्येवंरूपम्, मार्गप्रश्नादीनां पुष्टालम्बनत्वादिति । तत्र मार्ग पृच्छन्, प्रश्ननीयसाधर्मिकगृहस्थपुरुषादीनामभावे- हे आर्ये ! कोऽस्माकमितो गच्छतां मार्ग इत्यादिना क्रमेण, मार्ग वा तस्या देशयन्- धर्मशीले ! अयं मार्गस्ते इत्यादिना क्रमेण, 5 अशनादि वा ददद्– धर्मशीले ! गृहाणेदमशनादीत्येवम्, तथा अशनादि दापयन्आर्ये ! दापयाम्येतत्तुभ्यम् आगच्छेह गृहादावित्यादिविधिनेति । [सू० २९१] तमुक्कायस्स णं चत्तारि नामधेजा पन्नत्ता, तंजहा-तमे ति वा, तमुक्काते ति वा, अंधगारे ति वा, महंधगारे ति वा । तमुक्कायस्स णं चत्तारि णामधेजा पन्नत्ता, तंजहा-लोगंधगारे ति वा, 10 लोगतमसे ति वा, देवंधगारे ति वा, देवतमसे ति वा २॥ तमुक्कायस्स णं चत्तारि नामधेजा पन्नत्ता, तंजहा-वातफलिहे ति वा, वातफलिहखोभे ति वा, देवारण्णे ति वा, देववूहे ति वा ३॥ तमुक्काते णं चत्तारि कप्पे आवरित्ता चिट्ठति, तंजहा-सोधम्ममीसाणं सणंकुमारं माहिंदं ४। [टी०] तथा तमस्कायं तम इत्यादिभि: शब्दैः व्याहरन्नातिक्रामति भाषाचारं यथार्थत्वादिति तानाह- तमुक्कायेत्यादि सूत्रत्रयं सुगमम्, नवरं तमस: अप्कायपरिणामरूपस्यान्धकारस्य कायः प्रचयस्तमस्कायः, यो ह्यसङ्ख्याततमस्यारुणवराभिधानद्वीपस्य बाह्यवेदिकान्तादरुणोदाख्यं समुद्रं द्विचत्वारिंशद् योजनसहस्राण्यवगाह्योपरितनाजलान्तादे कप्रदेशिकया श्रेण्या समुत्थितः 20 सप्तदशैकविंशत्यधिकानि योजनशतानि ऊर्ध्वमुत्पत्य ततः तिर्यक् प्रविस्तृणन् सौधर्मादींश्चतुरो देवलोकानावृत्योर्ध्वमपि च ब्रह्मलोकस्य रिष्टं विमानप्रस्तटं सम्प्राप्त:, तस्य नामान्येव नामधेयानि, तम इति तमोरूपत्वादितिरुपप्रदर्शने, वा विकल्पे, तमोमात्ररूपताभिधायकान्याद्यानि चत्वारि नामधेयानि, तथाऽपराणि चत्वार्येवात्यन्तिकतमोरूपताभिधायकानीति, लोके अयमेवान्धकारो नान्योऽस्तीदृश इति 25 लोकान्धकारः, देवानामप्यन्धकारोऽसौ, तच्छरीरप्रभाया अपि तत्राप्रभवनादिति १. इत्यादिक्रमेण जे१ ॥ २. देवफलिहे ति वा देवपरिखोभे ति वा भां० ॥ ३. देवरन्ने भां० विना ॥ 15 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २९२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । देवान्धकार:, अत एव ते बलवतो भयेन तत्र नश्यन्तीति श्रुतिरिति, तथाऽन्यानि चत्वारि कार्याश्रयाणि - वातस्य परिहननात् परिघः अर्गला, परिघ इव परिघः, वातस्य परिघो वातपरिघः, तथा वातं परिघवत् क्षोभयति हतमार्गं करोतीति वातपरिघक्षोभः, वात एव वा परिघस्तं क्षोभयति यः स तथा, पाठान्तरेण वातपरिक्षोभ इति, क्वचिद्देवपरिघो देवपरिक्षोभ इति चाद्यपदद्वयस्थाने पठ्यते, देवानामरण्यमिव बलवद्भयेन 5 नॅशनस्थानत्वाद् यः स देवारण्यमिति, देवानां व्यूहः सागरादिसाङ्ग्रामिकव्यूह इव यो दुरधिगमत्वात् स देवव्यूह इति । तमस्कायस्वरूपप्रतिपादनायैव तमुक्काये णमित्यादि सूत्रं गतार्थम्, किन्तु सौधर्मादीनावृणोत्यसौ कुक्कुटपञ्जरसंस्थानसंस्थितस्य तस्य प्रतिपादनाद्, उक्तं च- तमुक्काए णं भंते! किंसंठिए पन्नत्ते ?, गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिए उप्पिं कुक्कुटपंजरसंठिए पन्नत्ते [ भगवती० ६ | ५ | ३ ] त्ति । [सू० २९२] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा - संपागडपडिसेवी णाममेगे, पच्छन्नपडिसेवी णाममेगे, पडुप्पन्ननंदी नाममेगे, णिस्सरणणंदी णाममेगे १ । चत्तारि सेणाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- जतित्ता णाममेगे णो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता णाममेगे णो जतित्ता, एगा जतित्ता वि पराजिणित्ता वि, एगा नो जतित्ता नो पराजिणित्ता २ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - 15 जतित्ता नाममेगे नो पराजिणित्ता ह्व [= ४], ३ । चत्तारि सेणाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - जतित्ता णाममेगा जयति, जतित्ता णाममेगा पराजिणति, पराजिणित्ता णाममेगा जयति, पराजिणित्ता नाममेगा पराजिणति ४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- जतित्ता नाममेगे जयति ह्व [ = ४], ५ । [टी०] अनन्तरं तमस्कायो वचनपर्यायैरुक्तः, अधुना अर्थपर्यायैः पुरुषं निरूपयता पञ्चसूत्री गदिता सुगमा च, नवरं कश्चित् साधुर्गच्छवासी सम्प्रकटमेव अगीतार्थप्रत्यक्षमेव प्रतिसेवते मूलगुणानुत्तरगुणान् वा दर्पतः कल्पेन वेति सम्प्रकटप्रतिसेवीत्येकः, एवमन्यः प्रच्छन्नं प्रतिसेवत इति प्रच्छन्नप्रतिसेवी, अन्यस्तु प्रत्युत्पन्नेन लब्धेन वस्त्र - - शिष्यादिना प्रत्युत्पन्नो वा जातः सन् शिष्याचार्यादिरूपेण नन्दति यः स प्रत्युत्पन्ननन्दी, अथवा 25 नन्दनं नन्दिः आनन्दः, प्रत्युत्पन्नेन नन्दिर्यस्य स प्रत्युत्पन्ननन्दि:, तथा प्राघूर्णक १. नाशन खं० ॥ ३६९ 10 20 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० __ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे शिष्यादीनामात्मनो वा निःसरणेन गच्छादेर्निर्गमेन नन्दति यो नन्दियं यस्य स तथा, पाठान्तरे तु प्रत्युत्पन्नं यथालब्धं सेवते भजते, नानुचितं विवेचयतीति प्रत्युत्पन्नसेवीति। जइत्त त्ति जेत्री जयति रिपुबलमेका, न पराजेत्री न पराजयते रिपुबलान्न भज्यते, द्वितीया तु पराजेत्री परेभ्यो भङ्गभाक्, अत एव नो जेत्रीति, तृतीया 5 कारणवशादुभयस्वभावेति, चतुर्थी त्वविजिगीषुत्वादनुभयरूपेति । पुरुष: साधु:, स जेता परीषहाणां न तेभ्य: पराजेता उद्विजते इत्यर्थो महावीरवदित्येकः, द्वितीय: कण्डरीकवत्, तृतीयस्तु कदाचिज्जेता कदाचित् कर्मवशात् पराजेता शैलकराजर्षिवत्, चतुर्थस्त्वनुत्पन्नपरीषहः । जित्वा एकदा रिपुबलं पुनरपि जयतीत्येका, अन्या जित्वा पराजयते भज्यते, अन्या पराजित्य परिभज्य पुनर्जयति, चतुर्थी तु 10 पराजित्य परिभज्यैकदा पुन: पराजयते, पुरुषस्तु परीषहादिष्वेवं चिन्तनीय इति । [सू० २९३] [१] चत्तारि केतणा पन्नत्ता, तंजहा-वंसीमूलकेतणते मेंढविसाणकेतणते गोमुत्तिकेतणते अवलेहणितकेतणते । एवामेव चउविधा माया पन्नत्ता, तंजहा-वंसीमूलकेतणासमाणा जाव अवलेहणितासमाणा । वंसीमूलकेतणासमाणं मायं अणुपविढे जीवे कालं करेति णेरइएसु उववजति, 15 मेंढविसाणकेतणासमाणं मायमणुपविढे जीवे कालं करेति तिरिक्खजोणितेसु उववजति, गोमुत्ति जाव कालं करेति मणुस्सेसु उववजति, अवलेहणिता जाव देवेसु उववज्जति । १. [१] चत्तारि राईओ पन्नत्ताओ, तंजहा- पव्वयराई, पुढविराई, वालुयराई, उदगराई । एवामेव इत्थियाए वा पुरिसस्स वा चउव्विहे कोहे पन्नत्ते, तंजहा- पव्वयराईसामाणे जाव उदगराईसमाणे । पव्वयराईसमाणं कोहं अणुपविढे जीवे कालं करेति नेरइएसु उववजति । पुढविराईसमाणं कोहं अणुपविढे जीवं कालं करेति तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति । वालुयाराई जाव कालं करेति मणुस्सेसु उववजति । उदगराईसमाणं जाव देवेसु उववजाति] [२] चत्तारि थंभा पन्नत्ता, तंजहा- सेलथंभे, अट्ठिथंभे, दारुथंभे, तिणिसलताथंभे। एवामेव चउविहे माणे पन्नत्ते, तंजहा सेलथंभसमाणे जाव तिणिसलतार्थभसमाणे। सेलथंभसमाणं माणं अणुप्पविटे जीवे कालं करेति नेरइएसु उववज्जति एवं जाव तिणिसलतार्थभसमाणं माणं अणुप्पविटे जीवे कालं करेति देवेसु उववजति । [३] चत्तारि केयणा पन्नत्ता, तंजहा- वंसीमूलकेयणे, मिंढविसाणकेयणे, गोमुत्तियाकेयणे, अवलेहणियाकेयणे। एवामेव चउव्विहा माया पन्नत्ता, तंजहा- वंसीमूलकेयणसमाणा जाव अवलेहणियाकेयणसमाणा, वंसीमूलकेयणसमाणं मायं अणुप्पविढे जीवे कालं करेति नेरइएसु उववजति एवं जाव अवलेहणियाकेयणसमाणं मायं जाव देवेसु उववजइ। [४] चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहाकिमिरागरत्ते, कद्दमरागरत्ते, खंजणरागरत्ते, हलिद्दारागरत्ते । एवामेव चउव्विहे लोभे पन्नत्ते, तंजहाकिमिरागरत्तवत्थसामाणे, कद्दमरागरत्तवत्थसामाणे, खंजणरागरत्तवत्थसामाणे, हलिद्दरागारत्त]वत्थसमाणे । किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभं अणुप्पवितु जीवे कालं करेति नेरइएसु उववजइ तहेव जाव हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणं लोभं अणुप्पविढे जीवे कालं करेति देवेसु उववजति । चउव्विहे संसारे पन्नत्ते भां० ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २९३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । [२] चत्तारि थंभा पन्नत्ता, तंजहा - सेलथंभे अट्ठिथंभे दारुथंभे तिणिसलतार्थभे । एवामेव चउव्विधे माणे पन्नत्ते, तंजहा - सेलथंभसमाणे जाव तिणिसलताथंभसमाणे । सेलथंभसमाणं माणं अणुपविट्ठे जीवे कालं करेति नेरतिसु उववज्जति, एवं जाव तिणिसलताथंभसमाणं माणं अणुपविट्ठे जीवे कालं करेति देवेसु उववज्जति । [३] चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा - किमिरागरत्ते, कद्दमरागरत्ते, खंजणरागरत्ते हलिद्दारारत्ते । एवामेव चउव्विधे लोभे पन्नत्ते, तंजहा - किमिरागरत्तवत्थसमाणे, कद्दमरागरत्तवत्थसमाणे, खंजणरागरत्तवत्थसमाणे, हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणे । किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ नेरइएस उववज्जति, तहेव जाव हलिद्दारागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्ठे जीवे कालं करेति देवेसु 10 उववज्जति । ३७१ [टी०] जेतव्याश्चेह तत्त्वतः कषाया एवेति तत्स्वरूपं दर्शयितुकामः क्रोधस्योत्तरत्रोपदर्शयिष्यमाणत्वान्मायादिकषायत्रयप्रकरणमाह - चत्तारीत्यादि प्रकटम्, किन्तु केतनं सामान्येन वक्रं वस्तु पुष्पकरण्डस्य वा सम्बन्धि मुष्टिग्रहणस्थानं वंशविदलकम्, तच्च वक्रं भवति, केवलमिह सामान्येन वक्रं वस्तु केतनं गृह्यते, तत्र 15 वंशीमूलं च तत् केतनं च वंशीमूलकेतनमेवं सर्वत्र, नवरं मेण्ढविषाणं मेषशृङ्गम्, गोमूत्रिका प्रतीता, अवलेहणिय त्ति अवलिख्यमानस्य वंशशलाकादेर्या प्रतन्वी त्वक् साऽवलेखनिकेति, वंशीमूलकेतनकादिसमता तु मायायास्तद्वतामनार्जवभेदात्, तथाहियथा वंशीमूलमतिगुपिलवक्रमेवं कस्यचिन्मायाऽपीत्येवमल्पा-ऽल्पतराऽल्पतमानार्जवत्वेनान्याऽपि भावनीयेति, इयं चानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान- 20 प्रत्याख्यानावरण-सञ्ज्वलनरूपा क्रमेण ज्ञेया, प्रत्येकमित्यन्ये, तेनैवानन्तानुबन्धिन्या उदयेऽपि देवत्वादि न विरुध्यते, एवं मानादयोऽपि । वाचनान्तरे तु पूर्वं क्रोधमानसूत्राणि, तत्र क्रोधसूत्राणि चत्तारि राईओ पन्नत्ताओ, तं०- पव्वयराई, पुढविराई, रेणुराई, जलराई, एवामेव चउव्विहे कोहे इत्यादि मायासूत्राणीवाधीतानीति । फलसूत्रे अनुप्रविष्टः तदुदयवर्त्तीति, शिलाविकारः शैलः, स चासौ स्तम्भश्च स्थाणुः 25 १. सू० ३११ ।। २. सूत्राणि ततो मायासूत्राणि तत्र क्रोधसूत्राणि पा० जे२ ॥ ३. जलराई रेणुराई जे १ ॥ 5 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे शैलस्तम्भः, एवमन्येऽपि, नवरम् अस्थि दारु च प्रतीतम्, तिनिशो वृक्षविशेषस्तस्य लता कम्बा तिनिशलता, सा चात्यन्तमद्वीति, मानस्यापि शैलस्तम्भादिसमानता तद्वतो नमनाभावविशेषात् ज्ञेयेति, मानोऽप्यनन्तानुबन्ध्यादिरूप: क्रमेण दृश्यः, तत्फलसूत्रं व्यक्तम्, कृमिरागे वृद्धसम्प्रदायोऽयम्-मनुष्यादीनां रुधिरं गृहीत्वा केनापि योगेन युक्तं 5 भाजने स्थाप्यते, ततस्तत्र कृमय उत्पद्यन्ते ते च वाताभिलाषिण: छिद्रनिर्गता आसन्ना भ्रमन्तो निहरिलाला मुञ्चन्ति, ता: कृमिसूत्रं भण्यते, तच्च स्वपरिणामरागरञ्जितमेव भवति, अन्ये भणन्ति- ये रुधिरे कृमय उत्पद्यन्ते तान् तत्रैव मृदित्वा कचवरमुत्तार्य तद्रसे कञ्चिद् योग प्रक्षिप्य पट्टसूत्रं रञ्जयन्ति, स च रस: कृमिरागो भण्यते अनुत्तारीति, तत्र कृमीणां रागो रञ्जकरस: कृमिरागः, तेन रक्तं कृमिरागरक्तम्, एवं सर्वत्र, नवरं 10 कईमो गोवाटादीनाम् खञ्जनं दीपादीनाम्, हरिद्रा प्रतीतैवेति, कृमिरागादिरक्तवस्त्रसमानता च लोभस्य अनन्तानुबन्ध्यादितद्भेदवतां जीवानां क्रमेण दृढ-हीन-हीनतरहीनतमानुबन्धत्वात्, तथाहि- कृमिरागरक्तं वस्त्रं दग्धमपि न रागानुबन्धं मुञ्चति, तद्भस्मनोऽपि रक्तत्वाद्, एवं यो मृतोऽपि लोभानुबन्धं न मुञ्चति तस्याभिधीयते लोभ: कृमिरागरक्तवस्त्रसमानोऽनन्तानुबन्धी चेति, एवं सर्वत्र भावना कार्येति । फलसूत्रं 15 स्पष्टम्। इह कषायप्ररूपणागाथा: जल-रेणु-पुढवि-पव्वयराईसरिसो चउव्विहो कोहो । तिणिसलया-कट्ठट्ठिय-सेलत्थंभोवमो माणो ॥ मायाऽवलेहि-गोमुत्ति-मेंढसिंग-घणवंसिमूलसमा । लोभो हलिद्द-खंजण-कद्दम-किमिरागसारिच्छो ॥ 20 पक्ख-चउमास-वच्छर-जावज्जीवाणुगामिणो कमसो । देव-नर-तिरिय-नारयगइसाहणहेयवो भणिया ॥ [विशेषाव० २९९०-९२] इति । [सू० २९४] चउव्विहे संसारे पन्नत्ते, तंजहा-णेरतियसंसारे जाव देवसंसारे। चउव्विहे आउते पन्नत्ते, तंजहा-णेरतिताउते जाव देवाउते । चउव्विहे भवे पन्नत्ते, तंजहा-निरतभवे जाव देवभवे । 25 [टी०] अनन्तरं कषाया: प्ररूपिता:, कषायैश्च संसारो भवतीति संसारस्वरूपमाह चउव्विहे इत्यादि व्यक्तम्, किन्तु संसरणं संसारः मनुष्यादिपर्यायान्नारकादिपर्यायगमनमिति, नैरयिकप्रायोग्येष्वायुर्नामगोत्रादिषु कर्मसूदयगतेषु जीवो नैरयिक इति १. विहेत्यादि जे१ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ [सू० २९५-२९६] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । व्यपदिश्यते, उक्तं च- नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजइ अनेरइए नेरइएसु उववजह ? गोयमा! नेरइए नेरइएसु उववज्जइ [प्रज्ञापना० १७।३।११९९] इति, ततो नैरयिकस्य संसरणम् उत्पत्तिदेशगमनमपरापरावस्थागमनं वा नैरयिकसंसारः, अथवा संसरन्ति जीवा यस्मिन्नसौ संसारो गतिचतुष्टयम्, तत्र नैरयिकस्यानुभूयमानगतिलक्षण: परम्परया चतुर्गतिको वा संसारो नैरयिकसंसार:, एवमन्येऽपि । 5 उक्तरूपश्च संसार आयुषि सति भवतीति आयु:सूत्रम्, तत्र एति च याति चेत्यायु: कर्मविशेष इति, तत्र येन निरयभवे प्राणी ध्रियते तन्निरयायुः, एवमन्यान्यपि । उक्तरूपं चायुर्भवे स्थितिं कारयतीति भवसूत्रं कण्ठ्यम्, केवलं भवनं भव: उत्पत्तिः, निरये भवो निरयभवः, मनुष्येषु मनुष्याणां वा भवो मनुष्यभव:, एवमन्यावपि । [सू० २९५] चउव्विहे आहारे पन्नत्ते, तंजहा-असणे, पाणे, खाइमे, साइमे १। 10 चउव्विहे आहारे पन्नत्ते, तंजहा- उवक्खरसंपन्ने, उवक्खडसंपन्ने, सभावसंपन्ने, परिजुसितसंपन्ने २॥ [टी०] भवेषु च सर्वेष्वाहारका जीवा: इत्याहारसूत्रे, तत्राहियत इत्याहारः, अश्यत इत्यशनम् ओदनादि, पीयत इति पानं सौवीरादि, खाद: प्रयोजनमस्येति खादिमं फलवर्गादि, स्वाद: प्रयोजनमस्येति स्वादिमं ताम्बूलादि, उपस्क्रियतेऽनेत्युपस्करो 15 हिङ्ग्वादिस्तेन सम्पन्नो युक्त उपस्करसम्पन्नः, तथा उपस्करणमुपस्कृतं पाक इत्यर्थस्तेन सम्पन्नः ओदन-मण्डकादिः उपस्कृतसम्पन्नः, पाठान्तरेण नोउवक्खरसंपन्नो हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृत ओदनादिः, स्वभावेन पाकं विना सम्पन्नः सिद्ध: द्राक्षादिः स्वभावसम्पन्नः, परिजुसिय त्ति पर्युषितं रात्रिपरिवसनम्, तेन सम्पन्न: पर्यषितसम्पन्न इंड्डुरिकादिः, यतस्ता: पर्युषितकलनीकृता: अम्लरसा भवन्ति, आरनालास्थिता- 20 म्रफलादिति । [सू० २९६] चउव्विधे बंधे पन्नत्ते, तंजहा-पगतिबंधे, ठितिबंधे, अणुभावबंधे, पदेसबंधे । चउम्विधे उवक्कमे पन्नत्ते, तंजहा-बंधणोवक्कमे, उदीरणोवक्कमे १. 'उववज्जति, णो अणेरइए णेरइएसु उववजति' इति सम्पूर्ण सूत्रं प्रज्ञापनासूत्रे सप्तदशे लेश्यापदे तृतीय उद्देशके ॥ २. उवकरणसंपन्ने भां० ॥ ३. इड्डुरि खं० ॥ ४. आम्ल पा० ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे उवसामणोवक्कमे, विप्परिणामणोवक्कमे । बंधणोवक्कमे चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहापगतिबंधणोवक्कमे, ठितिबंधणोवक्कमे, अणुभावबंधणोवक्कमे, पदेसबंधणोवक्कमे। उदीरणोवक्कमे चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-पगतिउदीरणोवक्कमे ठितिउदीरणोवक्कमे अणुभावउदीरणोवक्कमे पदेसउदीरणोवक्कमे । उवसाम5 णोवक्कमे चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-पगतिउवसामणोवक्कमे, ठितिउवसामणोवक्कमे, अणुभावउवसामणोवक्कमे पतेसुवसामणोवक्कमे। विप्परिणामणोवक्कमे चउविहे पन्नत्ते, तंजहा- पगतिविप्परिणामणोवक्कमे, ठितिविप्परिणामणोवक्कमे, अणुभावविप्परिणामणोवक्कमे पतेसविप्परिणामणोवक्कमे । चउविहे अप्पाबहुए पन्नत्ते, तंजहा-पगतिअप्पाबहुए ठितिअप्पाबहुए 10 अणुभावअप्पाबहुए पतेसअप्पाबहुते । __ चउव्विहे संकमे पन्नत्ते, तंजहा-पगतिसंकमे ठितिसंकमे अणुभावसंकमे पएससंकमे । चउविहे णिधत्ते पन्नत्ते, तंजहा-पगतिणिधत्ते ठितिणिधत्ते अणुभावणिधत्ते पएसणिधत्ते । 15 चउव्विहे णिगातिते पन्नत्ते, तंजहा-पगतिणिगातिते, ठितिणिगातिते, अणुभावणिगातिते, पएसणिगातिते । [टी०] अनन्तरोदिता: संसारादयो भावा: कर्मवतां भवन्तीति चउव्विहे बंधे इत्यादि कर्मप्रकरणमारादेककसूत्रात्, प्रकटं चैतत्, नवरं सकषायत्वात् जीवस्य कर्मणो योग्यानां पुद्गलानां बन्धनम् आदानं बन्धः, तत्र कर्मण: प्रकृतयः अंशा भेदा 20 ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां प्रकृतेर्वा अविशेषितस्य कर्मणो बन्ध: प्रकृतिबन्धः, तथा स्थिति: तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नम्, तस्या बन्धो निर्वर्तनं स्थितिबन्धः, तथा अनुभावो विपाक: तीव्रादिभेदो रस इत्यर्थः, तस्य बन्धोऽनुभावबन्धः, तथा जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां बन्धः सम्बन्धनं प्रदेशबन्धः, परिमितप्रमाणगुडादिमोदकबन्धवदिति । 25 एवं च मोदकदृष्टान्तं वर्णयन्ति वृद्धा:-यथा किल मोदकः कणिक्का-गुड-घृत कटुभाण्डादिद्रव्यबद्धः सन् कोऽपि वातहरः, कोऽपि पित्तहर:, कोऽपि कफहर:, कोऽपि १. सू० २९७ ॥ २. प्रकृति नियत जे१ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २९६ ] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । मारकः, कोऽपि बुद्धिकरः, कोऽपि व्यामोहकरः, एवं कर्म्मप्रकृतिः काचिज्ज्ञानमावृणोति काचिद्दर्शनं काचित् सुखदुःखादिवेदनमुत्पादयतीति, तथा तस्यैव मोदकस्य यथा अविनाशभावेन कालनियमरूपा स्थितिर्भवति, एवं कर्म्मणोऽपि तद्भावेन नियतकालावस्थानं स्थितिबन्ध:, तथा तस्यैव मोदकस्य यथा स्निग्ध- मधुरादिरेकगुणद्विगुणादिभावेन रसो भवति, एवं कर्म्मणोऽपि देश- सर्वघाति -: - शुभा - ऽशुभ- तीव्र- 5 मन्दादिरनुभागबन्ध:, तथा तस्यैव मोदकस्य यथा कणिक्कादिद्रव्याणां परिमाणवत्त्वम् एवं कर्म्मणोऽपि पुद्गलानां प्रतिनियतप्रमाणता प्रदेशबन्ध इति । १ उपक्रम्यते क्रियतेऽनेनेत्युपक्रमः कर्मणो बद्धत्वोदीरितत्वादिना परिणमनहेतुर्जीवस्य शक्तिविशेषो योऽन्यत्र करणमिति रूढः, उपक्रमणं वोपक्रमो बन्धनादीनामारम्भ:, स्यादारम्भ उपक्रमः [अमरको० ६८९ ] इति वचनादिति, तत्र बन्धनं कर्म्मपुद्गलानां 10 जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धनम्, इदं च सूत्रमात्रबद्धलोहशलाकासम्बन्धोपममवगन्तव्यम्, तस्योपक्रम उक्तार्थो बन्धनोपक्रमः, आसकलितावस्थस्य वा कर्म्मणो बद्धावस्थीकरणं बन्धनम्, तदेवोपक्रमो वस्तुपरिकर्म्मरूपो बन्धनोपक्रमः, वस्तु परिकर्म्म वस्तु विनाशरूपस्याप्युपक्रमस्याभिहितत्वादिति एवमन्यत्रापि, नवरमप्राप्तकालफलानां कर्म्मणामुदये प्रवेशनमुदीरणा, उक्तं च जं करणेणोकड्डिय उदए दिज्जइ उदीरणा एसा । २ ३७५ " पगइ-ठिती- अणुभाग-प्पएस- मूलुत्तरविभागा ॥ [ कर्मप्र० ४ | १ ] तथा उदयोदीरणा-निधत्त-निकाचनाकरणानामयोग्यत्वेन कर्म्मणोऽवस्थापनमुपशमनेति, उक्तं च- उव्वट्टण-ओवट्टण-संकमणाई च नेऽन्नकरणाई [कर्मप्र० ५।६७] ति उपशमनायां सन्तीति प्रक्रमः । तथा विविधैः प्रकारै: कर्म्मणां 20 सत्तोदयक्षयक्षयोपशमोद्वर्त्तनापवर्त्तनादिभिरेतद्रूपतयेत्यर्थः, गिरिसरिदुपलन्यायेन द्रव्यक्षेत्रादिभिर्वा करणविशेषेण वाऽवस्थान्तरापादनं विपरिणामना, इह च विपरिणामना बन्धनादिषु तदन्येष्वप्युदयादिष्वस्तीति सामान्यरूपत्वाद् भेदेनोक्तेति । बन्धनोपक्रमो बन्धनकरणं चतुर्द्धा, तत्र प्रकृतिबन्धनस्योपक्रमो जीवपरिणामो योगरूपः, तस्य प्रकृतिबन्धहेतुत्वादिति, स्थितिबन्धनस्यापि स एव, नवरं कषायरूपः, 25 १. “ पारम्पर्योपदेशे स्यादैतिह्यमितिहाव्ययम् । उपज्ञा ज्ञानमाद्यं स्यात् ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः ॥ ६८९ || अमरकोषे ॥ २. पगईठि पा० जे२ ॥ ३. न अन्न खं० पा० जे२ ॥ 15 - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे स्थितेः कषायहेतुकत्वादिति, अनुभागबन्धनोपक्रमोऽपि परिणाम एव, नवरं कषायरूपः, प्रदेशबन्धनोपक्रमस्तु स एव योगरूप इति, यत उक्तम्- जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ [बन्धशतके ९९] इति, प्रकृत्यादिबन्धनानामारम्भा वा उपक्रमा इति, एवमन्यत्रापि । यन्मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा दलिकं वीर्यविशेषेणाकृष्योदये दीयते 5 सा प्रकृत्युदीरणेति, वीर्यादेव या प्राप्तोदयया स्थित्या सहाप्राप्तोदया स्थितिरनुभूयते सा स्थित्युदीरणेति । तथैव प्राप्तोदयेन रसेन सहाप्राप्तोदयो रसो यो वेद्यते साऽनुभागोदीरणेति। तथा प्राप्तोदयैर्नियतपरिमाणकर्मप्रदेशैः सहाप्राप्तोदयानां नियतपरिमाणानां कर्मप्रदेशानां यद् वेदनं सा प्रदेशोदीरणेति । इहापि कषाय - योगरूपः परिणाम आरम्भो वोपक्रमार्थः, प्रकृत्युपशमनोपक्रमादयश्चत्वारोऽपि सामान्योपशमनोपक्रमानुसारेणावगन्तव्याः, 10 प्रकृतिविपरिणामनोपक्रमादयोऽपि सामान्यविपरिणामनोपक्रमलक्षणानुसारेणावबोद्धव्याः, उपक्रमस्तु प्रकृत्यादित्वेन पुद्गलानां परिणमनसमर्थं जीववीर्यमिति । अप्पाबहुए त्ति अल्पं च स्तोकं बहु च प्रभूतमल्पबहु, तद्भावोऽल्पबहुत्वम्, दीर्घत्वा-ऽसंयुक्तत्वे च प्राकृतत्वादिति, प्रकृतिविषयमल्पबहुत्वं बन्धाद्यपेक्षया, यथा सर्वस्तोकप्रकृतिबन्धक उपशान्तमोहादिः, एकविधबन्धकत्वाद्, बहुतरबन्धकः 15 उपशमका दिसूक्ष्मसम्परायः, षड्विधबन्धकत्वात्, बहुतरबन्धकः सप्तविधबन्धकस्ततोऽष्टविधबन्धक इति, स्थितिविषयमल्पबहुत्वं यथा - सव्वत्थोवो संजयस्स जहन्नओ ठितीबंधो, एगिंदियबायरपज्जत्तगस्स जहन्नओ ठिईबंधो असंखेज्जगुणो [ ] इत्यादि, अनुभागं प्रत्यल्पबहुत्वं यथा - सव्वत्थोवाई अणंतगुणवट्टिट्ठाणाणि, अंसंखेज्जगुणवड्ढिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि, संखेज्जगुणवट्टिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि जाव 20 अणंतभागवड्ढिट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि [ ] । प्रदेशाल्पबहुत्वं यथा - अट्ठविहबंध आउयभागो थोवो, नामगोयाणं तुल्लो विसेसाहिओ, नाणदंसणावरणंतरायाणं तुल्लो विसेसाहिओ, मोहस्स विसेसाहिओ, वेयणीयस्स विसेसाहिओ [ ] इति । यां प्रकृतिं बध्नाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं वीर्यविशेषेण यत् परिणमयति स सङ्क्रमः, उक्तं च १. 'णामनालक्षणा जे१ । २. 'शामका' जे१ ॥ ३ गुणाई जे१ खं० ॥ ४. गुणाई जे१ ॥ ३७६ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ 10 [सू० २९७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । सो संकमो त्ति भन्नइ जब्बंधणपरिणओ पओगेणं । पययंतरत्थदलियं परिणमयइ तदणुभावे जं ॥ [कर्मप्र० २।१] इति । तत्र प्रकृतिसङ्क्रम: सामान्यलक्षणावगम्य एवेति, मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा स्थितेर्यदुत्कर्षणम् अपकर्षणं वा प्रकृत्यन्तरस्थितौ वा नयनं स स्थितिसङ्क्रम इति, उक्तं च 5 ठितिसंकमो त्ति वुच्चइ मूलुत्तरपगतीओ उ जा हि ठिती । उव्वट्टिया व ओवटिया व पगई णिया वऽनं ॥ [कर्मप्र० २।२८] इति । अनुभागसंक्रमोऽप्येवमेव, यदाहतत्थट्ठपयं उव्वट्टिया व ओवट्टिया व अविभागा । अणुभागसंकमो एस अन्नपगई णिया वावि ॥ [कर्मप्र० २।४६] त्ति ।। अट्ठपयं ति अनुभागसङ्क्रमस्वरूपनिर्धारणम्, अविभाग त्ति अनुभागाः, निय त्ति नीता इति । यत् कर्मद्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणाम्यते स प्रदेशसङ्क्रमः, उक्तं च जं दलियमन्नपगई णिज्जइ सो संकमो पएसस्स । [कर्मप्र० २।६०] त्ति । निधानं निहितं वा निधत्तम्, भावे कर्मणि वा क्तप्रत्यये निपातनात्, उद्वर्त्तनाऽपवर्त्तनावर्जितानां शेषकरणानामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनमुच्यते, नितरां काचनं 15 बन्धनं निकाचितं कर्मणः सर्वकरणानामयोग्यत्वेनावस्थापनम्, उक्तं चोभयसंवादि संकमणं पि निहत्तीऍ णत्थि सेसाणि चत्ति इयरस्स । [कर्मप्र० ६१] त्ति । इयरस्सत्ति निकाचनाकरणस्येति । अथवा पूर्वबद्धस्य कर्मणस्तप्त-संमीलितलोहशलाकासम्बन्धसमानं निधत्तम्, तप्त-मिलित-संकुट्टितलोहशलाकासम्बन्धसमानं निकाचितमिति, प्रकृत्यादिविशेषस्तूभयत्रापि सामान्यलक्षणानुसारेण नेय इति, विशेषतो 20 बन्धादिस्वरूपजिज्ञासुना कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणिरनुसरणीयेति । [सू० २९७] चत्तारि एक्का पन्नत्ता, तंजहा- देवियएक्कय, माउयएक्कए, पज्जवेक्कए, संगहेक्कए । चत्तारि कती पन्नत्ता, तंजहा- दवितकती, माउयकती, पजवकती, संगहकती। १. जं बंध पा० जे२ ॥ २. °णमई जे१ ॥ ३. दविए एक्कते माउए एक्कते पजवे एक्कते संगहे एक्कते भां० विना । अत्रेदं बोध्यम्- हस्तलिखितादर्शेष ‘ए-य-प' इत्येषामक्षराणां सदशप्रायत्वात् भां० मध्ये दवि एक्कए माउए एक्कए इत्यपि पठितुं शक्यते ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चत्तारि सव्वा पन्नत्ता, तंजहा-नामसव्वते, ठवणसव्वए, आदेससव्वते, निरवसेससव्वते । [टी०] इहानन्तरमल्पबहुत्वमुक्तम्, तत्रात्यन्तमल्पमेकं शेषं त्वपेक्षया बहु इत्यल्पबहुत्वाभिधायिन एक-कति-सर्वशब्दान् चतुःस्थानकेऽवतारयन् चत्तारीत्यादि 5 सूत्रत्रयमाह । एकसङ्ख्योपेतानि द्रव्यादीनि स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादेककानि, तत्र द्रव्यमेवैककं द्रव्यैककं सचित्तादिभेदात् त्रिविधमिति, मांउएक्कए त्ति मातृकापदैककम्, एकं मातृकापदम्, तद्यथा उप्पन्ने इ वेत्यादि, इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति, तद्यथा- उप्पन्ने इ वा विगए इ वा धुवे इ वेति, अमूनि च 10 मातृकापदानीव अ आ इत्येवमादीनि सकलशब्दशास्त्रार्थव्यापारव्यापकत्वान्मातृका पदानीति, पर्यायैककः एकः पर्यायः, पर्यायो विशेषो धर्म इत्यनर्थान्तरम्, स चानादिष्टो वर्णादिरादिष्टः कृष्णादिरिति, सङ्ग्रहैककः शालिरिति, अयमर्थः- सङ्ग्रहः समुदायः, तमाश्रित्यैकवचनगर्भशब्दप्रवृत्तिः, तथा चैकोऽपि शालिः शालिरित्युच्यते, बहवोऽपि शालयः शालिरिति, लोके तथादर्शनादिति, क्वचित् पाठः दविए एक्कए 15 इत्यादि, तत्र द्रव्ये विषयभूते एकक इत्यादि व्याख्येयमिति । कतीति प्रश्नगर्भापरिच्छेदवत्सङ्ख्यावचनो बहुवचनान्तः, तत्र द्रव्याणि च तानि कति च द्रव्यकति, कति द्रव्याणीत्यर्थः, द्रव्यविषयो वा कतिशब्दो द्रव्यकतिः, एवं मातृकापदादिष्वपि, नवरं सङ्ग्रहाः शालि-यव-गोधूमा इत्यादि । नाम च तत्सर्वं च नामसर्वम्, सचेतनादेर्वा वस्तुनो यस्य समिति नाम 20 तन्नामसर्वं नाम्ना सर्वं 'सर्वम्' इति वा नाम यस्येति विग्रहाद, नामशब्दस्य च पूर्वनिपातः, तथा स्थापनया सर्वमेतदिति कल्पनया अक्षादि द्रव्यं सर्वं स्थापनासर्वम्, स्थापनैव वा अक्षादिद्रव्यरूपा सर्वं स्थापनासर्वम्, आदेशनमादेश: उपचारो व्यवहारः, स च बहुतरे प्रधाने वा आदिश्यते देशेऽपि, यथा विवक्षितं घृतमभिसमीक्ष्य बहुतरे भुक्ते स्तोके च शेषे उपचारः क्रियते ‘सर्वं घृतं भुक्तम्', प्रधानेऽप्युपचार: 25 यथा ग्रामप्रधानेषु गतेषु पुरुषेषु ‘सो ग्रामो गतः' इति व्यपदिश्यते इति, अत आदेशतः सर्वमादेशसर्वम् उपचारसमित्यर्थः, तथा निरवशेषतया अपरिशेषव्यक्तिसमाश्रयेण १. माउपकय त्ति जे१ ॥ २. वत्ति पा० जे२ ।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २९८-२९९] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ३७९ सर्वं निरवशेषसर्वम्, यथा अनिमिषाः सर्वे देवाः, न हि देवव्यक्तिरनिमिषत्वं काचिद् व्यभिचरतीत्यर्थः, सर्वत्र ककार: स्वार्थिको द्रष्टव्यः । [सू० २९८] माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स चउद्दिसिं चत्तारि कूडा पन्नत्ता, तंजहा-रयणे, रतणुच्चते, सव्वरयणे, रतणसंचये । [टी०] अनन्तरं सर्वं प्ररूपितम्, तत्प्रस्तावात् सर्वमनुष्यक्षेत्रपर्यन्तवर्तिनि पर्वते 5 सर्वासु तिर्यग्दिक्षु कूटानि प्ररूपयन्नाह- माणुसुत्तरस्सेत्यादि स्फुटम्, किन्तु चउद्दिसिं ति चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक्, तस्मिंश्चतुर्दिशि, अनुस्वारः प्राकृतत्वादिति, कूटानि शिखराणि, इह च दिग्ग्रहणेऽपि विदिक्ष्विति द्रष्टव्यम्, तत्र दक्षिणपूर्वस्यां दिशि रत्नकूटं गरुडस्य वेणुदेवस्य निवासभूतम्, तथा दक्षिणापरस्यां दिशि रत्नोच्चयकूटं वेलम्बसुखदमित्यपरनामकं वेलम्बस्य वायुकुमारेन्द्रस्य सम्बन्धि, तथा पूर्वोत्तरस्यां 10 दिशि सर्वरत्नकूटं वेणुदालिसुपर्णकुमारेन्द्रस्य, तथा अपरोत्तरस्यां रत्नसञ्चयकूटं प्रभञ्जनापरनामकं प्रभञ्जनवायुकुमारेन्द्रस्येति, एवं चैतद् व्याख्यायते द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहण्यनुसारेण, यतस्तत्रोक्तम् दक्खिणपुव्वेण रयणकूडं गरुलस्स वेणुदेवस्स । सव्वरयणं च पुव्वुत्तरेण तं वेणुदालिस्स ॥ रयणस्स अवरपासे तिन्नि वि समइच्छिऊण कूडाइं । कूडं वेलंबस्स उ विलंबसुहयं सया होइ ॥ सव्वरयणस्स अवरेण तिन्नि समइच्छिऊण कूडाइं । कूडं पभंजणस्स उ पभंजणं आढियं होइ ॥ [द्वीपसागर० १६-१८] त्ति । इह चतुःस्थानकानुरोधेन चत्वार्युक्तानि, अन्यथा अन्यान्यपि द्वादश सन्ति, 20 पूर्वदक्षिणापरोत्तरासु त्रीणि त्रीणि, द्वादशापि चैकैकदेवाधिष्ठितानीति, उक्तं च पुव्वेण तिन्नि कूडा दाहिणओ तिण्णि तिण्णि अवरेणं ।। उत्तरओ तिन्नि भवे चउद्दिसिं माणुसनगस्स ॥ [द्वीपसागर० ६] त्ति । [सू० २९९] जंबूदीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु तीताते उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाते समाते चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो होत्था । 25 १. सर्वदेवा जे१ ॥ 15 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ जंबूदीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु इमीए ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुत्था । जंबूदीवे दीवे [भरहेरवएसु वासेसु] आगमेस्साते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते संमाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो भविस्सइ । 5 जंबूदीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरुवजाओ चत्तारि अकम्मभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-हेमवते, हेरन्नवते, हरिवस्से, रम्मगवस्से । तत्थ णं चत्तारि वट्टवेयड्डपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-सद्दावई, वियडावई, गंधावई, मालवंतपरिताते। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टितीता परिवसंति, तंजहा-साती, पभासे, अरुणे, पउमे ।। 10 जंबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे चउविधे पन्नत्ते, तंजहा-पुव्वविदेहे अवरविदेहे देवकुरा, उत्तरकुरा । सव्वे वि णं णिसढ-णीलवंता वासहरपव्वता चत्तारि जोयणसयाई उड्ढउच्चत्तेणं चत्तारि गाउअसताई उव्वेहेणं पन्नत्ता । जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीताए महानदीए उत्तरे कुले 15 चत्तारि वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-चित्तकूडे, पम्हकूडे, णलिणकूडे, एगसेले। जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीताए महानदीए दाहिणे कूले चत्तारि वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा- तिकूडे, वेसमणकूडे, अंजणे, मातंजणे । जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओदाए महाणतीए दाहिणे 20 कूले चत्तारि वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा- अंकावती, पम्हावती, आसीविसे, सुहावहे । __जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओदाए महाणतीए उत्तरे कूले चत्तारि वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-चंदपव्वते, सूरपव्वते, देवपव्वते, णागपव्वते । 25 जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स चउसु विदिसासु चत्तारि वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-सोमणसे, विजुप्पभे, गंधमायणे, मालवंते । १. समाए नास्ति भां० ॥ २. 'वरिसे क० भां० ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० २९९] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ३८१ जंबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे जहन्नपते चत्तारि अरहंता चत्तारि चक्कवट्टी चत्तारि बलदेवा चत्तारि वासुदेवा उप्पजिंसु वा उप्पज्जति वा उप्पजिस्संति वा। जंबूदीवे दीवे मंदरे पव्वते चत्तारि वणा पन्नत्ता, तंजहा-भद्दसालवणे नंदणवणे सोमणसवणे पंडगवणे । 5 जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वते पंडगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पंडुकंबलसिला अइपंडुकंबलसिला रत्तकंबलसिला अतिरत्तकंबलसिला। मंदरचूलिया णं उवरिं चत्तारि जोयणाइं विक्खंभेणं पन्नत्ता, एवं धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे वि कालं आदि करेत्ता जाव मंदरचूलिय त्ति, एवं 10 जाव पुक्खरवरदीवड्ढपच्चत्थिमद्धे जाव मंदरचूलिय त्ति जंबूदीवगआवस्सगं तु कालाओ चूलिया जाव धायइसंडे पुक्खरवरे य पुव्वावरे पासे ॥२०॥ [टी०] अनन्तरं मानुषोत्तरे कूटद्रव्याणि प्ररूपितानि, अधुना तेनावृतक्षेत्रद्रव्याणां चतुःस्थानकावतारं जंबूदीवे इत्यादिना चत्तारि मंदरचूलियाओ एतदन्तेन ग्रन्थेनाह, 15 व्यक्तश्चायम्, नवरं चित्रकूटादीनां वक्षारपर्खतानां षोडशानामिदं स्वरूपम् पंचसए बाणउए सोलस य सहस्स दो कलाओ य । विजया १ वक्खारं २ तरनईण ३ तह वणमुहायामो ४ ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३६४] त्ति। तथा- जत्तो वासहरगिरी तत्तो जोयणसयं समवगाढा । चत्तारि जोयणसए उव्विद्धा सव्वरयणमया ॥ जत्तो पुण सलिलाओ तत्तो पंचसयगाउउव्वेहो । पंचेव जोयणसए उव्विद्धा आसखंधणिभा ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३७१-७२] इति । विष्कम्भश्चैषामेवम् विजयाणं विक्खंभो बावीससयाई तेरसहियाइं । पंचसए वक्खारा पणुवीससयं च सलिलाओ ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३७०] त्ति । 25 पद्यते गम्यते इति पदं सङ्ख्यास्थानम्, तच्चानेकधेति जघन्यं सर्व्वहीनं पदं 20 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जघन्यपदं तत्र विचार्ये सति अवश्यंभावेन चत्वारोऽर्हदादय इति । भूम्यां भद्रशालवनम्, मेखलायुगले च नन्दन - सौमनसे, शिखरे पण्डकवनमिति । अत्र गाथाः बावीस सहस्साइं पुव्वावरमेरुभद्दसालवणं । अड्डाइज्जसया उण दाहिणपासे य उत्तरओ ॥ पंचेव जोयणसए उडुं गंतूण पंचसयपिहुलं । नंदणवणं सुमेरुं परिक्खिवित्ता ठियं रम्मं ॥ बासट्ठि सहस्साइं पंचेव सयाइं नंदणवणाओ । उडुं गंतूण वणं सोमणसं नंदणसरिच्छं || सोमणसाओ तीसं छच्च सहस्से विलग्गिऊण गिरिं । विमलजलकुंडगहणं हवइ वणं पंडगं सिहरे ॥ चत्तारि जोयणसया चउणउया चक्कवालओ रुंद । इगतीस जोयणसया बावट्ठी परिरओ तस्स || [बृहत्क्षेत्र० ३१७, ३२७, ३३८,३४६, ३४७] त्ति। तीर्थकराणामभिषेकार्थाः शिला अभिषेकशिलाः चूलिकायाः पूर्वदक्षिणापरोत्तरासु दिक्षु क्रमेणावगम्या इति, उवरिं ति अग्रे, विक्खंभेणं ति विस्तरेणेति । यथा जंबूदीवे 15 दीवे भरहेरवएसु वासेसु इत्यादिभिः सूत्रैः कालादयधूलिकान्ता अभिहिताः एवं धातकीखण्डस्य पूर्वार्द्धे पश्चिमार्द्धे पुष्करार्द्धस्यापि पूर्वार्द्ध पश्चिमार्द्धे च वाच्याः, एकमेरुसम्बद्धवक्तव्यतायाः चतुर्ष्वप्यन्येषु समानत्वाद्, एतदेवाह - एवमित्यादि । अमुमेवातिदेशं सङ्ग्रहगाथया आह- जंबूदीवेत्यादि, जम्बूद्वीपस्येदं जम्बूद्वीपकं तं वा गच्छतीति जम्बूद्वीपगम्, जम्बूद्वीपे यदिति क्वचित् पाठः, अवश्यंभावित्वाद् 20 वाच्यत्वाद्वाऽऽवश्यकं जम्बूद्वीपगतावश्यकं वा वस्तुजातम्, तुः पूरणे, किमादि किमन्तं चेत्याह कालात् सुषमसुषमालक्षणादारभ्य चूलिकां मन्दरचूलिकां यावत् यत्तदिति गम्यते, धातकीखण्डे पुष्करवरे च द्वीपे यौ पूर्वापरौ पार्श्वो प्रत्येकं पूवार्द्धमपरार्द्धं च तयोः, पूर्वापरेषु वर्षेषु वा क्षेत्रेष्वन्यूनाधिकं द्रष्टव्यमिति शेष इति । [सू० ३००] जंबूदीवस्स णं दीवस्स चत्तारि दारा पन्नत्ता, तंजहा - विजये, 25 वेजयंते, जयंते, अपराजिते । ते णं दारा चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावतितं चेव पवेसेणं पन्नत्ता, तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव १. विलक्खिउण जे१ ॥ २. विक्खंभेणं विस्तरेणेति जे१ ॥ 5 10 ३८२ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ अपराजिते । [सू० ३००-३०१] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । द्वितीय उद्देशक: । पलिओवमट्टितीता परिवसंति, तंजहा - विजते, वेजयंते, जयंते, [20] विजयादीनि क्रमेण पूर्वादिदिक्षु, विष्कम्भो द्वारशाखयोरन्तरम्, प्रवेशः कुड्यस्थूलत्वमष्ट योजनान्युच्चत्वमिति, उक्तं च– चउजोयणवित्थिन्ना अट्ठेव य जोयणाणि उव्विद्धा । उभओ वि कोसकोसं कुड्डा बाहल्लओ तेसिं ॥ [बृहत्क्षेत्र० १७] ति, क्रोशं शाखाबाहल्यमित्यर्थः । पलिओ मट्ठिया सुरगणपरिवारिया सदेवीया । एएसु दारनामा वसंति देवा महिड्डीया ॥ [ बृहत्क्षेत्र० १९ ] ति । [सू० ३०१] जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुदं तिन्नि तिन्नि जोयणसताई 10 ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पन्नत्ता, तंजहा- एगूरूयदीवे, आभासितदीवे, वेसाणितदीवे, गंगोलियदीवे। तेसु णं दीवेसु चउव्विहा मणुस्सा परिवसंति, तंजहा - एगूरूता, आभासिता, वेसाणिता, गंगोलिया । 5 तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्दं चत्तारि चत्तारि जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पन्नत्ता, तंजहा - हयकन्नदीवे, गयकन्नदीवे, 15 गोकन्नदीवे, सक्कुलिकन्नदीवे । तेसु णं दीवेसु चउव्विधा मणुस्सा परिवसंति, तंजहा-हयकन्ना, गयकन्ना, गोकन्ना, सक्कुलिकन्ना । सिणं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं पंच पंच जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पन्नत्ता, तंजहा - आयंसमुहदीवे, मेंढमुहदीवे, अयोमुहदीवे, गोमुहदीवे । तेसु णं दीवेसु चउव्विहा मणुस्सा भाणियव्वा । 20 तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं छ छ जोयणसयाई, ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पन्नत्ता, तंजहा - आसमुहदीवे, हत्थिमुहदीवे, सीहमुहदीवे, वग्घमुहदीवे । तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणियव्वा । सिणं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं सत्त सत्त जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पन्नत्ता, तंजहा - आसकन्नदीवे, 25 १. णंगोली क० भा० ला० ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे हत्थिकन्नदीवे, अकन्नदीवे, कन्नपाउरणदीवे । तेसु णं दीवेसु मणुया भाणियव्वा । तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं अट्ठट्ठ जोयणसयाइं ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पन्नत्ता, तंजहा - उक्कामुहदीवे, मेहमुहदीवे, विज्जुमुहदीवे, विज्जुदंतदीवे । तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणियव्वा । तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं णव णव जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पन्नत्ता, तंजहा- घणदंतदीवे, लट्ठदंतदीवे, गूढदंतदीवे, सुद्धदंतदीवे । तेसु णं दीवेसु चउविधा मणुस्सा परिवसंति, तंजहा - घणदंता, लट्ठदंता, गूढदंता, सुद्धदंता । ३८४ जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासहरपव्वयस्स चउसु 10 विदिसासु लवणसमुदं तिन्नि तिन्नि जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पन्नत्ता, तंजहा - एगूरूयदीवे, सेसं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव सुद्धदंता । [0] चुल्लहिमवंतस्स त्ति महाहिमवदपेक्षया लघोर्हिमवतः, तस्य हि प्राग्भागाऽपरभागयोः प्रत्येकं शाखाद्वयमस्तीत्युच्यते चउसु विदिसासु विदिक्षु पूर्वोत्तराद्यासु 15 लवणसमुद्रं त्रीणि त्रीणि योजनशतान्यवगाह्य उल्लङ्घ्य ये शाखाविभागा वर्त्तन्ते एत्थ ति एतेषु शाखाविभागेषु अन्तरे मध्ये समुद्रस्य द्वीपाः, अथवा अन्तरं परस्परविभागः, तत्प्रधाना द्वीपा अन्तरद्वीपाः, तत्र पूर्वोत्तरायामेकोरुकाभिधानो योजनशतत्रयायामविष्कम्भो द्वीप:, एवमाभाषिक-वैषाणिक - लाङ्गूलिकद्वीपा अपि क्रमेणाग्नेयी-नैर्ऋती-वायव्यास्विति, चतुर्विधा इति समुदायापेक्षया न त्वेकैकस्मिन्निति, 20 अतः क्रमेणैते योज्याः, द्वीपनामतः पुरुषाणां नामान्येव, तु सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरा दर्शनमनोरमाः, स्वरूपतो नैकोरुकादय एवेति, तथा एतेभ्य एव चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य प्रतिविदिक् चतुर्योजनशतायाम - विष्कम्भा द्वितीयाश्चत्वार एव, एवं येषां यावदन्तरं तेषां तावदेवायाम - विष्कम्भप्रमाणं यावत् सप्तमानां नवशतान्यन्तरं तावदेव च तत्प्रमाणमिति, सर्वेऽप्यष्टाविंशतिरेते, एतन्मनुष्यास्तु युग्मप्रसवाः १. स्वरूपतो नैकोरुकादयो नैकसक्थिका एवेति भावः ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० ३०२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ३८५ पल्योपमासङ्ख्येयभागायुषोऽष्टधनुःशतोच्चाः, तथैरावतक्षेत्रविभागकारिणः शिखरिणोऽप्येवमेव पूर्वोत्तरादिविदिक्षु क्रमेणैतन्नामिकैवान्तरद्वीपानामष्टाविंशतिरिति, अन्तरद्वीपप्रकरणार्थसङ्ग्रहगाथा: चुल्लहिमवंत पुव्वावरेण विदिसासु सागरं तिसए । गंतूणंतरदीवा तिन्नि सए होंति वित्थिना ॥ अउणावन्न नवसए किंचूणे परिहि तेसिमे नामा । एगूरुग आभासिय वेसाणी चेव नंगूली ॥ एएसिं दीवाणं परओ चत्तारि जोयणसयाई । ओगाहिऊण लवणं सपडिदिसिं चउसयपमाणा ॥ चत्तारंतरदीवा हय-गय-गोकन-सक्कुलीकण्णा । एवं पंच सयाई छ सत्त अट्टेव नव चेव ॥ ओगाहिऊण लवणं विक्खंभोगाहसरिसया भणिया । चउरो चउरो दीवा इमेहिं नामेहिं नायव्वा ॥ आयंसग मेंढमुहा अओमुहा गोमुहा य चउरेते । अस्समुहा हत्थिमुहा सीहमुहा चेव वग्घमुहा ॥ तत्तो अ अस्सकंण्णा हत्थियकण्णा य कण्णपाउरणा । उक्कामुह मेहमुहा विज्जुमुहा विज्जुदंता य ॥ घणदंत लट्ठदंता निगूढदंता य सुद्धदंता य । वासहरे सिहरम्मि वि एवं चिय अट्ठवीसा वि ॥ अंतरदीवेसु नरा धणुसयअठूसिया सया मुइया । पालिंति मिहुणधम्मं पल्लस्स असंखभागाऊ ॥ चउसढि पिट्टिकरंडयाण मणुयाणऽवच्चपालणया । अउणासीइं तु दिणा चउत्थभत्तेण आहारो ॥ [बृहत्क्षेत्र० २।५५-६२,७३-७४] इति । [सू० ३०२] जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेदियंतातो चउद्दिसिं लवणसमुदं पंचाणउइं पंचाणउइं जोयणसहस्साइं ओगाहेत्ता एत्थ णं 25 १. कण्णा सीहाकण्णा य खं० ॥ २. अत्र ‘हत्थि-अकण्णा य' इति भावः प्रतीयते । 'तत्तो य आसकन्ना हरिकनाकनकनपाउरणा' इति बृहत्क्षेत्रसमासे पाठः । “अश्वकर्ण-हरिकर्णा-कर्ण-कर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपाः" इति मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ ॥ ३. याणि खं० पा० । 'चउसठ्ठी पिट्ठकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो। भत्तस्स चउत्थस्स य उणसीइ दिणाणि पालणया ॥७४॥' इति बृहत्क्षेत्रसमासे गाथा ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे महतिमहालता महारंजरसंठाणसंठिता चत्तारि महापायाला पन्नत्ता, तंजहावलतामुहे, केउते, जूवए, ईसरे । एत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलिओवमट्टितीता परिवसंति, तंजहा-काले, महाकाले, वेलंबे, पभंजणे । जंबदीवस्स णं दीवस्स बाहिरिल्लातो वेतितंताओ चउद्दिसिं लवणसमुदं 5 बातालीसं बातालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहेत्ता एत्थ णं चउण्हं वेलंधरनागराईणं चत्तारि आवासपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-गोथूभे, दोभासे, संखे, दगसीमे । तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलिओवमट्टितीता परिवसंति, तंजहा-गोथूभे, सिवए, संखे, मणोसिलए । जंबूदीवस्स णं दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइतंताओ चउसु विदिसासु 10 लवणसमुदं बायालीसं बायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहेत्ता एत्थ णं चउण्हं अणुवेलंधरणागरातीणं चत्तारि आवासपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-कक्कोडए विजुजिब्भे केलासे अरुणप्पभे । तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलिओवमट्टितीता परिवति, तंजहा-कक्कोडए कद्दमए केलासे अरुणप्पभे। [टी०] एत्थ णं ति मध्यमेषु दशसु योजनसहस्रेषु महामहान्त इति वक्तव्ये 15 समयभाषया महइमहालया इत्युक्तम्, महच्च तदरञ्जरं च, अरञ्जरम् उदकुम्भ इत्यर्थः, महारञ्जरम्, तस्य संस्थानेन संस्थिता ये ते तथा, तदाकारा इत्यर्थः, महान्तस्तदन्यक्षुल्लकव्यवच्छेदेन पातालमिवागाधत्वात् गम्भीरत्वात् पाताला: पातालव्यवस्थितत्वाद्वा पातालाः, महान्तश्च ते पातालाश्चेति महापातालाः, वडवामुखः केतुको यूपक ईश्वरश्चेति, क्रमेण पूर्वादिदिक्ष्विति, एते च मुखे मूले च दश सहस्राणि 20 योजनानाम्, मध्ये उच्चस्त्वेन च लक्षमिति, एषामुपरितनभागे जलमेव मध्ये वायुरेवेति, एतन्निवासिनो देवाः वायुकुमाराः कालादय इति, इह गाथा:पणनउइ सहस्साइं ओगाहित्ताण चउद्दिसिं लवणं । चउरोऽलंजरसंठाणसंठिया होंति पायाला ॥ वलयामुह केऊए जूयग तह इस्सरे य बोद्धव्वे । सव्ववइरामयाणं कुड्डा एएसिं दससइया ॥ १. महालंजर' भां० विना । महालिंजर जे० पासं० ॥ २. तत्थ भां० विना ।। ३. "सिलाते क० भां० विना ।। ४. अलंजरं जे१ खं० ॥ 25 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३०२] जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिं च होंति विच्छिन्ना । मझे य सयसहस्सं तत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥ पलिओ मट्ठिया एएसिं अहिवई सुरा इणमो । काले य महाकाले वेलंब पभंजणे चेव ॥ नेवि पायाला खुड्डालंजरगसंठिया लवणे । असया चुलसीया सत्त सहस्सा य सव्वे वि ॥ जोयणसयवित्थिन्ना मूलुवरिं दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं दस जोयणिया य सिं कुड्डा ॥ पायालाण भाग सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि बोद्धव्वा । मिभागे वाऊ मज्झे वाऊ य उदगं च ॥ उवरिं उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउ संखुभिओ । चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । वामे वमयतीत्यर्थः, उदगं तेण य परिवहइ जलनिही खुहिओ || परिसंठियम्मि पवणे पुणरवि उदगं तमेव संठाणं । ३८७ 5 वच्चइ तेणं उदही परिहायइऽणुक्रमेणेवं ॥ [ बृहत्क्षेत्र० २।४ - ६,११ - १६] ति । वेलां लवणसमुद्रशिखामन्तर्विशन्तीं बहिर्वा यान्तीमग्रशिखां च धारयन्तीति 15 संज्ञात्वाद्वेलंधरास्ते च ते नागराजाश्च नागकुमारवराः वेलंधरनागराजास्तेषामावासपर्वताः पूर्वादिदिक्षु क्रमेण गोस्तूपादयः, विदिक्षु पूर्वोत्तरादिषु वेलंधराणां पश्चाद्वृत्तयोऽनुनायकत्वेन नागराजा अनुवेलंधरनागराजाः, वेलंधरवक्तव्यतागाथाः दसजोयणसहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलससहस्सउच्चा सहस्समेगं तु ओगाढा || समाद् भूभागादिति भावः, देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे । दिवा रात्रौ चेत्यर्थः, अइरेगं अगं परिवड्ड हायए वा वि ॥ अभिंतरियं वेलं धरेंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीस सहस्सा अन्तर्व्विशन्तीमित्यर्थः, दुसत्तरि सहस्स बाहिरियं ॥ बहिर्गच्छन्तीमित्यर्थः, सट्टिं नागसहस्सा धरिंति अग्गोदगं शिखाग्रमित्यर्थः समुद्दस्स । वेलंधर आवासा लवणे य चउद्दिसिं चउरो ॥ [ बृहत्क्षेत्र० २।१७-२०] १. विभागा - बृहत्क्षेत्र० ॥ 10 20 25 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुव्वाइअणुक्कमसो गोथुभ-दगभास-संख-दगसीमा । गोथुभ सिवए संखे मणोसिले नागरायाणो ॥ अणुवेलंधरवासा लवणे विदिसासु संठिया चउरो । कक्कोडे विजुप्पभे केलासऽरुणप्पभे चेव ॥ कक्कोडय कद्दमए केलासऽरुणप्पभे य रायाणो । बायालीस सहस्से गंतुं उदहिम्मि सव्वे वि ॥ चत्तारि जोयणसए तीसे कोसं च उग्गया भूमी । सत्तरस जोयणसए इगवीसे ऊसिया सव्वे ॥ [बृहत्क्षेत्र० २०२१-२४] इति [सू० ३०३] लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा 10 पभासिस्संति वा, चत्तारि सूरिता तवतिंसु वा तवतंति वा तवतिस्संति वा। चत्तारि कत्तियाओ जाव चतारि भरणीओ, चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा, चत्तारि अंगारया जाव चत्तारि भावकेऊ । [टी०] पभासिंसु त्ति चन्द्राणां सौम्यदीप्तिकत्वाद्वस्तुप्रभासनमुक्तमादित्यानां तु खररश्मित्वात् तवइंसु त्ति तापनमुक्तमिति । चतुःसङ्ख्यत्वाच्चन्द्राणां तत्परिवारस्यापि 15 नक्षत्रादेश्चतुःसङ्ख्यत्वमेवेत्याह-चतस्र: कृत्तिका नक्षत्रापेक्षया न तु तारकापेक्षयेति, एवमष्टाविंशतिरपि, अग्निरिति कृत्तिकानक्षत्रस्य देवता यावद्यम इति भरण्या देवता, अङ्गारक आद्यो ग्रह: भावकेतुरित्यष्टाशीतितम इति, शेषं यथा द्विस्थानके । [सू० ३०४] लवणस्स णं समुद्दस्स चत्तारि दारा पन्नत्ता, तंजहा-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिते । ते णं दारा चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं 20 तावतितं चेव पवेसेणं पन्नत्ता । तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिता जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तंजहा-विजते जाव अपराजिते । _ [सू० ३०५] धायइसंडे णं दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते । [सू० ३०६] जंबूदीवस्स णं दीवस्स बहिता चत्तारि भरहाइं चत्तारि एरवयाई, 25 एवं जहा सदुद्देसते तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव चत्तारि मंदरा चत्तारि मंदरचूलिआओ । १. दृश्यतां सू०९५ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ [सू० ३०७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । [टी०] समुद्रद्वारादि जम्बूद्वीपद्वारादिवदिति । चक्रवालस्य वलयस्य विष्कम्भो विस्तर: । जम्बूद्वीपाद् बहिर्धातकीखण्ड-पुष्करार्द्धयोरित्यर्थः । शब्दोपलक्षित उद्देशक: शब्दोद्देशको द्विस्थानकस्य तृतीय इत्यर्थः, केवलं तत्र द्विस्थानकानुरोधेन दो भरहाई इत्याधुक्तमिह तु चत्तारीत्यादि । _ [सू० ३०७] गंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे 5 चउद्दिसिं चत्तारि अंजणगपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-पुरिथिमिल्ले अंजणगपव्वते, दाहिणिल्ले अंजणगपव्वते, पच्चत्थिमिल्ले अंजणगपव्वते, उत्तरिल्ले अंजणगपव्वते ४ । __ ते णं अंजणगपव्वता चउरासीति जोयणसहस्साइं उर्दउच्चत्तेणं, एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, तदणंतरं च 10 णं माताते माताते परिहातेमाणा परिहातेमाणा उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं पण्णत्ता, मूले एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, उवरिं तिन्नि तिनि जोयणसहस्साई एगं च बावटुं जोयणसतं परिक्खेवेणं, मूले वित्थिन्ना, मज्झे संखित्ता, उप्पिं तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता, सव्वअंजणमया अच्छा जाव पडिरूवा ।। तेसि णं अंजणगपव्वताणं उवरि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पन्नत्ता, तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि सिद्धाययणा पण्णत्ता, ते णं सिद्धाययणा एगं जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं बावत्तरि जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं । तेसिं णं सिद्धाययणाणं चउद्दिसिं चत्तारि दारा पन्नत्ता, तंजहा-देवदारे, 20 असुरदारे, णागदारे, सुवन्नदारे । तेसु णं दारेसु चउव्विहा देवा परिवसंति, तंजहा- देवा, असुरा, नागा, सुवण्णा । तेसि णं दाराणं पुरतो चत्तारि मुहमंडवा पन्नत्ता । तेसि णं मुहमंडवाणं १. दृश्यतां सू०९९-१०३ ॥ 15 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पन्नत्ता । तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि वइरामया अक्खाडगा पन्नत्ता । तेसि णं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि मणिपेढियातो पन्नत्ताओ । तासि णं मणिपेढिताणं उवरिं चत्तारि सीहासणा पन्नत्ता । तेसि णं सीहासणाणं उवरिं 5 चत्तारि विजयदूसा पन्नत्ता । तेसि णं विजयदूसगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि वइरामता अंकुसा पन्नत्ता । तेसु णं वतिरामतेसु अंकुसेसु चत्तारि कुंभिका मुत्तादामा पन्नत्ता । ते णं कुंभिका मुत्तादामा पत्तेयं पत्तेयं अन्नेहिं तदद्धउच्चत्तपमाणमेत्तेहिं चउहिं अद्धकुंभिकेहिं मुत्तादामेहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता । 10 तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढिताओ पण्णत्ताओ । तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि चेतितथूभा पण्णत्ता । तेसि णं चेतितथूभाणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसिं चत्तारि मणिपेढिताओ पन्नत्ताओ । तासि णं मणिपेढिताणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमातो सव्वरतणामईतो संपलियंकणिसन्नाओ थूभाभिमुहीओ चिट्ठति, तंजहा-रिसभा, वद्धमाणा, 15 चंदाणणा, वारिसेणा । तेसि णं चेतितथूभाणं पुरतो चत्तारि मणिपेढिताओ पन्नत्ताओ । तासि णं मणिपेढिताणं उवरिं चत्तारि चेतितरुक्खा पन्नत्ता । तेसि णं चेतितरुक्खाणं परओ चत्तारि मणिपेढिताओ पन्नत्ताओ। तासि णं मणिपेढिताणं उवरिं चत्तारि महिंदज्झया पन्नत्ता। तेसि णं महिंदज्झताणं पुरओ चत्तारि णंदातो पोक्खरणीओ 20 पन्नत्ताओ । तासि णं पोक्खरणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसिं चत्तारि वणसंडा पन्नत्ता, तंजहा-पुरथिमेणं, दाहिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं, पुव्वेण असोगवणं दाहिणओ होति सत्तवण्णवणं । अवरेण चंपगवणं चूतवणं उत्तरे पासे ॥२१॥ तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि 25 णंदाओ पोक्खरणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-णंदुत्तरा, णंदा, आणंदा, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ [सू० ३०७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । णंदिवद्धणा। तातो णं णंदातो पोक्खरणीओ एगं जोयणसयसहस्सं आयामेणं, पन्नासं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, दस जोयणसयाइं उव्वेहेणं, तासि णं पोक्खरणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पन्नत्ता । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो चत्तारि तोरणा पन्नत्ता, तंजहा-पुरत्थिमेणं दाहिणेणं पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं । तासि णं पोक्खरणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउदिसिं 5 चत्तारि वणसंडा पनत्ता, तंजहा-पुरस्थि[मेणं] दाहि[णेणं] पच्च[त्थिमेणं] उत्तरेणं, पुव्वेण असोगवणं जाव चूयवणं उत्तरे पासे ॥ __तासि णं पुक्खरणीणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि दधिमुहगपव्वता पन्नत्ता। ते णं दधिमुहगपव्वता चउसहि जोयणसहस्साई उटुंउच्चत्तेणं, एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, सव्वत्थ समा, पल्लगसंठाणसंठिता, दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, 10 एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सव्वरयणामता अच्छा जाव पडिरूवा । तेसि णं दधिमुहगपव्वताणं उवरि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पन्नत्ता, सेसं जहेव अंजणगपव्वताणं तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं जाव चूतवणं उत्तरे पासे ॥ ___ तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले अंजणगपव्वते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदाओ 15 पुक्खरिणीतो पण्णत्ताओ, तंजहा-भद्दा, विसाला, कुमुदा, पोंडरिगिणी । तातो णं णंदातो पोक्खरणीतो एकं जोयणसयसहस्सं सेसं तं चेव जाव दधिमुहगपव्वता जाव वणसंडा । तत्थ णं जे से पच्चत्थिमिल्ले अंजणगपव्वते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदाओ पोक्खरणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-णंदिसेणा, अमोहा, गोथूभा, सुदंसणा। 20 सेसं तं चेव तहेव दधिमुहगपव्वता तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंडा । तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणगपव्वते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदातो पुक्खरणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-विजया, वेजयंती, जयंती, अपराजिता । तातो णं पुक्खरिणीओ एगं जोयणसयसहस्सं तं चेव पमाणं तहेव दधिमुहगपव्वता तहेव सिद्धायतणा जाव वणसंडा ।। १. भूमी भां० पा० ला० ॥ 25 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे णंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउसु विदिसासु चत्तारि रतिकरगपव्वता पन्नत्ता, तं जहा - उत्तरपुरत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते, दाहिणपुरत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते, दाहिणपच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते, उत्तरपच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते । ते णं रतिकरगपव्वता दस 5 जोयणसयाई उउच्चत्तेणं, दस गाउतसताइं उव्वेहेणं, सव्वत्थ समा, झल्लरिसंठाणसंठिता, दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सव्वरतणामता अच्छा जाव पडिरूवा । तत्थ णं जे से उत्तरपुरत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते तस्स णं चउदिसिमीसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो चउहमग्गमहिसीणं जंबूदीवपमाणातो चत्तारि रायहाणीओ 10 पन्नत्ताओ, तंजहा - णंदुत्तरा, गंदा, उत्तरकुरा, देवकुरा, कण्हाते कहराती रामाते रामरक्खियाते । तत्थ णं जे से दाहिणपुरत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते तस्स णं चउदिसिं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो चउण्हमग्गमहिसीणं जंबूदीवपमाणातो चत्तारि रायहाणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-समणा, सोमणसा, अच्चिमाली, मणोरमा, पउमाते, 15 सिवाते, सुतीते, अंजूए । तत्थ णं जे से दाहिणपच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते तस्स णं चउदिसिं सक्क्स्स देविंदस्स देवरन्नो चउण्हमग्गमहिसीणं जंबूदीवप्पमाणमेत्तातो चत्तारि रायहाणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा- भूता, भूतवडेंसा, गोथूभा, सुंदसणा, अमलाते अच्छराते णवमिताते रोहिणीते । 20 तत्थ णं जे से उत्तरपच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते तस्स णं चउदिसिमीसाणस्स [देविंदस्स देवरन्नो] चउण्हमग्गमहिसीणं जंबूदीवप्पमाणमेत्तात्तो चत्तारि रायहाणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - रयणा, राणुच्चता, सव्वरतणा, रतणसंचया, वसूते, वसुगुत्ताते, वसुमित्ताते, वसुंधरा । [टी०] उक्तं मनुष्यक्षेत्रवस्तूनां चतुः स्थानकमधुना क्षेत्रसाधर्म्यान्नन्दीश्वरद्वीपवस्तूनामा 25 सत्यसूत्राच्चतुःस्थानकं नंदीसरस्सेत्यादिना ग्रन्थेनाह, सूत्रसिद्धश्चायम्, केवलम् - १. वसू भां० ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ [सू० ३०७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । जम्बू १ लवणे धायइ २ कालोये पुक्खराइ ३ जुयलाई । वारुणि ४ खीर ५ घतेक्खु ६-७ नंदीसर ८ अरुण ९ दीवुदही ॥ [बृहत्सं० ९२] ति गणनयाऽष्टमो नन्दीश्वरः, स एव वरः, अमनुष्यद्वीपापेक्षया बहुतरजिनभवनादिसद्भावेन तस्य वरत्वादिति, तस्य चक्रवालविष्कम्भस्य प्रमाण १६३८४०००००, उक्तं च तेवढे कोडिसयं चउरासीइं च सयसहस्साई । नंदीसरवरदीवे विक्खंभो चक्कवालेणं ॥ [द्वीपसागर० २५] ति, मध्यश्चासौ देशभागश्च देशावयवो मध्यदेशभागः, स च नात्यन्तिक इति बहुमध्यदेशभागो न प्रदेशादिपरिगणनया निष्टङ्कितः, अपि तु प्राय इति, अथवा अत्यन्तं मध्यदेशभागो बहुमध्यदेशभाग इति, तत्र । इहाऽञ्जनका: मूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेणेत्युक्तम्, द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहण्यां तूक्तम्- 10 चुलसीति सहस्साई उव्विद्धा ओगया सहस्समहे । धरणितले वित्थिन्ना य ऊणगा ते दससहस्सा ॥ नव चेव सहस्साई पंचेव य होंति जोयणसयाई । अंजणगपव्वयाणं मूलम्मि उ होइ विक्खंभो ॥ कन्दस्येत्यर्थः, नव चेव सहस्साइं चत्तारि य होंति जोयणसयाइं । 15 अंजणगपव्वयाणं धरणियले होइ विक्खंभो ॥ [द्वीपसागर० २७, २९, ३१] इति, तदिदं मतान्तरमित्यवसेयम्, एवमन्यत्रापि, मतान्तरबीजानि तु केवलिगम्यानीति । गोपुच्छसंठाण त्ति गोपुच्छो ह्यादौ स्थूलोऽन्ते सूक्ष्मस्तद्वत्तेऽपीति, सव्वंजणमय त्ति अञ्जनं कृष्णरत्नविशेष:, तन्मयाः, सर्व एवानन्यमयत्वेन सर्वथैवाञ्जनमया: सर्वाञ्जनमयाः, परमकृष्णा इति भावः, उक्तं चभिंगंगरुइलकज्जलअंजणधाउसरिसा विरायंति । गगणतलमणुलिहंता अंजणगा पव्वया रम्मा ॥ [द्वीपसागर० ३७] इति । अच्छाः आकाशस्फटिकवत्, सण्हा श्लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पन्ना: श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत्, लण्हा श्लक्ष्णा मसृणा इत्यर्थः, घुण्टितपटवत्, तथा घृष्टा इव घृष्टाः, खरशानया पाषाणप्रतिमावत्, मृष्टा इव मृष्टाः, सुकुमारशानया पाषाणप्रतिमेव, 25 १. अथवा मध्यदेशभाग एव बहुमध्यदेशभाग इति जे१ ॥ २. ते गया -द्वीपसागर० ॥ ३. अणूणगे ते दससहस्से -द्वीपसागर० ॥ ४. दो चेव सया हवंति उ अपुण्णा । -द्वीपसागर० ।। -A-10 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे शोधिता वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव नीरजस: रजोरहितत्वात्, निर्मला: कठिनमलाभावात् धौतवस्त्रवद्वा, निष्पङ्का आर्द्रमलाभावात् अकलङ्कत्वाद्वा, निक्कंकडच्छाया, निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणेत्यर्थः छाया शोभा येषां ते तथा, अकलङ्कशोभा वा, सप्रभा देवान्दकत्वादिप्रभावयुक्ताः, अथवा स्वेन आत्मना प्रभान्ति 5 न परत इति स्वप्रभाः, यत: संमरिचीया सह मरीचिभि: किरणैर्ये ते तथा, अत एव सउज्जोया सहोद्योतेन वस्तुप्रभासनेन वर्त्तन्ते ये ते तथा, पासाईय त्ति प्रासादीया: मनस: प्रसादकरा:, दर्शनीयास्तांश्चक्षुषा पश्यन्नपि न श्रमं गच्छतीत्यर्थः, अभिरूपाः कमनीया:, प्रतिरूपा: द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीया इति यावत्शब्दसङ्ग्रहः । बहुसमाः अत्यन्तसमा रमणीयाश्चेति । सिद्धानि शाश्वतानि सिद्धानां वा 10 शाश्वतीनामर्हत्प्रतिमानामायतनानि स्थानानि सिद्धायतनानि, उक्तं च अंजणगपव्वयाणं सिहरतलेसुं हवंति पत्तेयं । अरहंताययणाई सीहणिसायाइं तुंगाइं ॥ [द्वीपसागर० ३९] मुखे द्वारे आयतनस्य मण्डपा मुखमण्डपा: पट्टशालारूपा:, प्रेक्षा प्रेक्षणकम्, तदर्थं गृहरूपा: मण्डपा: प्रेक्षागृहमण्डपाः प्रसिद्धस्वरूपाः, वैरं वज्रं रत्नविशेषस्तन्मया: 15 आखाटका: प्रेक्षाकारिजनासनभूता: प्रतीता एव । विजयदूष्याणि वितानकरूपाणि वस्त्राणि, तन्मध्यभाग एवाऽङ्कुशा: अवलम्बननिमित्तम्, कुम्भो मुक्ताफलानां परिमाणतया विद्यते येषु तानि कुम्भिकानि मुक्तादामानि मुक्ताफलमाला:, कुम्भप्रमाणं च- दो असतीओ पसती, दो पसतीओ सेतिया, चत्तारि सेतियाओ कुडवो, चत्तारि कुडवा पत्थो, चत्तारि पत्था आढयं, चत्तारि आढया दोणो, सट्ठी आढयाई जहन्नो कुंभो, असीइ 20 मज्झिमो, सयमुक्कोसो [अनुयोगद्वार० सू० ३१८] इति । तदद्ध त्ति तेषामेव मुक्तादाम्नामर्द्धमुच्चत्वस्य प्रमाणं येषां तानि तदर्बोच्चत्वप्रमाणानि, तान्येव तन्मात्राणि, तैः, अद्धकुंभिकेहिं ति मुक्तफलार्द्धकुम्भवद्भिः, सर्वत: सर्वासु दिक्षु, किमुक्तं भवति? समन्तादिति । चैत्यस्य सिद्धायतनस्य प्रत्यासन्ना: स्तूपाः प्रतीताश्चैत्यस्तूपाश्चित्ताल्हादकत्वाद्वा चैत्या:(त्त्याः?) स्तूपा: चैत्यस्तूपा: । संपर्यङ्कनिषण्णाः 25 पद्मासननिषण्णाः , एवं चैत्यवृक्षा अपि, महेन्द्रा इति अतिमहान्त: समयभाषया, ते १. समरीया खंमू० जे२, समिरीया खसं० पा० ॥ २. याश्च ये ते तथा, सिद्धानि पा० जे२ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३०७ चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । च ते ध्वजाश्चेति, अथवा महेन्द्रस्येव शक्रादेर्ध्वजा महेन्द्रध्वजाः । शाश्वतपुष्करिण्य: सर्वा अपि सामान्येन नन्दा इत्युच्यन्ते । सत्तिवन्नवणं ति सप्तच्छदवनमिति । तिसोमा(वा?)णपडिरूवग त्ति एकद्वार प्रति निर्गमप्रवेशार्थं त्रिदिगभिमुखास्तिम्र: सोपानपङ्क्तयः । दधिवत् श्वेतं मुखं शिखरं रजतमयत्वात् येषां ते तथा, उक्तं चसंखदलविमलनिम्मलदहिघण-गोखीर-हारसंकासा । 5 गगणतलमणुलिहंता सोहंते दहिमुहा रम्मा ॥ [द्वीपसागर० ५०] इति । बहुमध्यदेशभागे उक्तलक्षणे विदिक्षु पूर्वोत्तराद्यासु रतिकरणाद् रतिकरा: ४, राजधान्यः क्रमेण कृष्णादीनामिन्द्राणीनामिति, तत्र दक्षिणलोकार्द्धनायकत्वाच्छक्रस्य पूर्वदक्षिणदक्षिणापरविदिग्द्वयरतिकरयोस्तस्येन्द्राणीनां राजधान्य इतरयोरीशानस्योत्तरलोकार्द्धाधिपतित्वात् तस्येति । एवं च नन्दीश्वरे द्वीपे अञ्जनक ४-दधिमुखेषु १६ 10 विंशतिर्जिनायतनानि भवन्ति, अत्र च देवा: ४ चातुर्मासिकप्रतिपत्सु सांवत्सरिकेषु चान्येषु च बहुषु जिनजन्मादिषु देवकार्येषु समुदिता अष्टाहिकामहिमा: कुर्वन्त: सुखंसुखेन विहरन्तीत्युक्तं जीवाभिगमे, ततो यद्यन्यान्यप्यतथाविधानि सन्ति सिद्धायतनानि तदा न विरोध:, सम्भवन्ति च तानि उक्तनगरीषु विजय नगर्या मिवेति, तथा दृश्यते च । पञ्चदशस्थानोद्धारलेश: सोलस दहिमुहसेला कुंदामलसंखचंदसंकासा । कणयनिभा बत्तीसं रइकरगिरि बाहिरा तेसिं ॥ [ ] द्वयोर्द्वयोर्वाप्योरन्तराले बहिःकोणयोः प्रत्यासन्नौ द्वौ द्वावित्यर्थः । अंजणगाइगिरीणं णाणामणिपज्जलंतसिहरेसु । बावन्नं जिणणिलया मणिरयणसहस्सकूडवरा ॥ [ ] इति । तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति । १. प्रदेशार्थं जे१ खं० ॥ २. 'तत्थ णं बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया देवा तिहिं चाउमासिएहिं पज्जोसवणाए य अट्ठविहाओ य महिमाओ करेंति, अन्नेसु य बहुसुं जिणजम्मण-निक्खमण-नाणुप्पाद-परिनिव्वाणमादिएसु एव कज्जेसु देवसमितीसु य देवसमवाएसु य देवसमुदएसु य समुवागता समाणा पमुदितपक्कीलिता अठ्ठाहियारूवाओ महामहिमाओ करेमाणा सुहंसुहेणं विहरंति' इति जीवाभिगमसूत्रे तृतीयस्यां प्रतिपत्तौ पाठः, सू० २९४ ॥ ३. न्यपि तथा जेसं१ खंसं०, पासं० ॥ ४. संभवंति च तानि उक्तनगरीषु विजयनगर्यामिवेति तथा इति पाठः खं० जेसं१ पामू० मध्ये नास्ति ॥ ५. नगर्यापितेति तथा जे१ ॥ 15 20 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ३०८] चउब्विहे सच्चे पन्नत्ते, तंजहा-णामसच्चे, ठवणसच्चे, दव्वसच्चे, भावसच्चे । [टी०] एतच्च पूर्वोक्तं सर्वं सत्यं जिनोक्तत्वात् इति सत्यसम्बन्धेन सत्यसूत्रम् । नाम-स्थापनासत्ये सुज्ञाने, द्रव्यसत्यमनुपयुक्तस्य सत्यमपि, भावसत्यं तु यत् 5 स्वपरानुपरोधेनोपयुक्तस्येति । [सू० ३०९] आजीवियाणं चउविहे तवे पन्नत्ते, तंजहा- उग्गतवे, घोरतवे, रसणिजूहणता, जिभिंदियपडिसंलीणता ।। [टी०] सत्यं चारित्रविशेष इति चारित्रविशेषानुद्देशकान्तं यावदाह- आजीविएत्यादि, आजीविकानां गोशालकशिष्याणाम् । उग्रं तप: अष्टमादि, वचन उरमिति पाठः 10 तत्र उरं शोभनम् इहलोकाद्याशंसारहितत्वेनेति, घोरम् आत्मनिरपेक्षम्, रसनिजूहणया घृतादिरसपरित्याग:, जिह्वेन्द्रियप्रतिसंलीनता मनोज्ञा-ऽमनोज्ञेष्वाहारेषु राग-द्वेषपरिहार इति, आर्हतानां तु द्वादशधेति । [सू० ३१०] चउव्विहे संजमे पन्नत्ते, तंजहा-मणसंजमे, वतिसंजमे, कायसंजमे, उवकरणसंजमे । 15 चउव्विधे चिताते पन्नत्ते, तंजहा-मणचियाते, वतिचियाते, कायचियाते, उवकरणचियाते । चउब्विहा अकिंचणता पन्नत्ता, तंजहा-मणअकिंचणता, वतिअकिंचणता, कायअकिंचणता, उवकरणअकिंचणता ।। ॥ द्वितीयोद्देशकः ॥ 20 टी०] मनोवाक्कायानामकुशलत्वेन निरोधा: कुशलत्वेन तूदीरणानि संयमा:, उपकरणसंयमो महामूल्यवस्त्रादिपरिहारः, पुस्तक-वस्त्र-तृण-चर्मपञ्चकपरिहारो वा, तत्र गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडी य । १. इमाः सर्वा अपि गाथा आ० श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकवृत्तौ प्रथमेऽध्ययने प्रथमगाथाव्याख्यायाम् आवश्यकवृत्तौ च [सत्तरसविहे असंजमे इत्यस्य व्याख्यायां] समुद्धृताः । बाहल्ल० इत्यादयश्चतम्रो गाथा बृहत्कल्पभाष्य [३८२२]- वृत्तौ प्रवचनसारोद्धारे [६६४-६६८] च वर्तन्ते । निशीथभाष्येऽपि ४०००४०२० गाथासु एतद्वर्णनमुपलभ्यते, तदपि तुलनार्थं द्रष्टव्यम् ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ [सू० ३१०] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । एयं पोत्थयपणगं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ बाहल्लपुहत्तेहिं गंडी पोत्थो उ तुल्लओ दीहो । कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेयव्वो ॥ चउरंगुलदीहो वा वट्ठागिति मुट्ठिपोत्थओ अहवा । चउरंगुलदीहो च्चिय चउरंसो सो उ विन्नेओ ॥ संपुडगो दुगमाइफलगा वोच्छं छिवाडि एत्ताहे । तणुपत्तूसियरूवा होइ छिवाडी बुहा बेंति ॥ दीहो वा हस्सो वा जो पिहलो होइ अप्पबाहल्लो । तं मुणियसमयसारा छिवाडिपोत्थं भणंतीह ॥ [ ] वस्त्रपञ्चकं द्विधा, अप्रत्युपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षितभेदात्, तत्रअप्पडिलेहियदूसे तूलि उवहाणगं च नायव्वं । गंडुवहाणालिंगिणि मसूरए चेव पोत्तमए ॥ पल्हवि कोयवि पावार नवतए तह य दाढिगालीओ। दुप्पडिलेहियदूसे एयं बीयं भवे पणगं ॥ पल्हवि हत्थुत्थरणं तु कोयवो रूयपूरिओ पडओ । दढगालि धोयपोत्ती सेस पसिद्धा भवे भेया ॥ तणपणगं पुण भणियं जिणेहिं कम्मट्ठगंठिमहणेहिं । साली वीही कोद्दव रालग रन्ने तणाइं च ॥ चर्मपञ्चकमिदम्अय एल गावि महिसी मिगाण अजिणं तु पंचमं होइ । तलिया खल्लगवज्झो कोसग कत्ती य बीयं तु ॥ [ ] इति । चियाए त्ति त्यागो मन:प्रभृतीनां प्रतीत एव, अथवा मन:प्रभृतिभिरशनादे: साधुभ्यो दानं त्यागः, एवमुपकरणेन पात्रादिना भक्तादेस्तस्य वा त्याग उपकरणत्यागः, न विद्यते किञ्चन द्रव्यजातमस्येत्यकिञ्चनस्तद्भावो अकिञ्चनता, निष्परिग्रहतेत्यर्थः, सा च मन:प्रभृतिभिरुपकरणापेक्षया च भवतीति तथोक्तेति ॥ इति चतु:स्थानकस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्त: ॥ 15 20 25 १. इति पा० जे२ मध्ये नास्ति ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [अथ तृतीय उद्देशक:] [सू० ३११] [१] चत्तारि रातीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पव्वयराती, पुढविराती, वालुयराती, उदगराती। एवामेव चउव्विहे कोहे पन्नत्ते, तंजहा-पव्वतरातिसमाणे पुढविरातिसमाणे, वालुयरातिसमाणे, उदगरातिसमाणे । पव्वतरातिसमाणं 5 कोहं अणुपविढे जीवे कालं करेति णेरतितेसु उववजति, पुढविरातिसमाणं कोहमणुपविढे तिरिक्खजोणितेसु उववजति, वालुयरातिसमाणं कोहं अणुपविढे समाणे मणुस्सेसु उववज्जति, उदगरातिसमाणं कोहमणुपविढे समाणे देवेसु उववज्जति १॥ [२] चत्तारि उदगा पन्नत्ता, तंजहा-कद्दमोदए, खंजणोदए, वालुओदए, 10 सेलोदए। एवामेव चउव्विहे भावे पन्नत्ते, तंजहा-कद्दमोदगसमाणे, खंजणोदगसमाणे, वालुओदगसमामे, सेलोदगसमाणे । कद्दमोदगसमाणं भावमणुपविढे जीवे कालं करेति णेरतितेसु उववजति, एवं जाव सेलोदगसमाणं भावमणुपविढे जीवे कालं करेति देवेसु उववजति । [टी०] व्याख्यातो द्वितीयोद्देशकः, अथ तृतीय आरभ्यते, अस्य चायं पूर्वेण 15 सहाभिसम्बन्धः, पूर्वत्र जीवक्षेत्रपर्याया उक्ताः, इह तु जीवपर्याया उच्यन्ते, इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रद्वयं चत्तारीत्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्ध:-पूर्वं चारित्रमुक्तं तत्प्रतिबन्धकश्च क्रोधादिभाव इति क्रोधस्वरूपप्ररूपणायेदमुच्यते, तदेवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या- राजी रेखा, शेष क्रोधव्याख्यानं मायादिवत्, मायादिप्रकरणाच्चान्यत्र क्रोधविचारो विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति, द्वितीयं सुगममेव । 20 अयं च क्रोधो भावविशेष एवेति भावप्ररूपणाय दृष्टान्तादिसूत्रद्वयमाह-चत्तारीत्यादि प्रसिद्धम, किन्तु कईमो यत्र प्रविष्ट: पादादिर्नाक्रष्टं शक्यते कष्टेन वा शक्यते, खञ्जनं दीपादिखञ्जनतुल्य: पादादिलेपकारी कर्दमविशेष एव, वालुका प्रतीता सा तु लग्नापि जलशोषे पादादेरल्पेनैव प्रयत्नेनापैतीत्यल्पलेपकारिणी, शैलास्तु पाषाणा: श्लक्ष्णरूपास्ते पादादेः स्पर्शनेनैव किञ्चिद् दुःखमुत्पादयन्ति, न तु तथाविधं लेपमुपजनयन्ति, १. एतत्सूत्र[१]स्थाने भां० मध्ये ईदृशः पाठः- चत्तारि आवत्ता पन्नत्ता, तंजहा- खरावत्ते, उन्नयावत्ते, गूढावत्ते, आमिसावत्ते । एवामेव इत्थियाए वा पुरिसस्स वा चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तंजहा- खरावत्तसमाणे कोहे, उन्नयावत्तसमाणे माणे, गूढावत्तसमाणा माया, आमिसावत्तसमाणे लोहे । ॥ २-३. संबद्धस्यास्य पा०॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३१२-३१५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । कर्द्दमादिप्रधानान्युदकानि कर्द्दमोदकादीन्युच्यन्ते । भावो जीवस्य रागादिपरिणामः तस्य कर्द्दमोदकादिसाम्यं तत्स्वरूपानुसारेण कर्म्मलेपमङ्गीकृत्य मन्तव्यमिति । [सू० ३१२] चत्तारि पक्खी पन्नत्ता, तंजहा - रुतसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने, रूवसंपन्ने नाममेगे नो रुतसंपन्ने, एगे रुतसंपन्ने वि रूवसंपन्ने वि, एगो नो रुतसंपन्ने णो रूवसंपन्ने । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - रुतसंपन्ने 5 नाममेगे णो रूवसंपन्ने ट्क [= ४] | I चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा- पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेइ, पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तितं करेति, अप्पत्तियं करेमीतेगे पत्तितं करेति, अप्पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्तितं करेति । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - अप्पणो णाममेगे पत्तितं करेति णो 10 परस्स, परस्स नाममेगे पत्तियं करेति णो अप्पणो ह्व [ ४ ] । चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा - पत्तितं पवेसामीतेगे पत्तितं पवेसेति, पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तितं पवेसेति ट्क [= ४] | चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - अप्पणो नाममेगे पत्तितं पवेसेति णो परस्स, परस्स ह्व [= ४] | [सू० ३१३] चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तंजहा - पत्तोवए, पुप्फोवए, फलोवर, छायोवए । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा - पत्तोवारुक्खसामाणे, पुप्फोवारुक्खसामाणे, फलोवारुक्खसामाणे, छातोवारुक्खसामाणे । ३९९ [सू० ३१४] भारं णं वहमाणस्स चत्तारि आसासा पन्नत्ता, तंजहा - जत्थ णं अंसातो असं साहरति तत्थ वि य से एगे आसासे पण्णत्ते १, जत्थ 20 वि य णं उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेति तत्थ वि य से एगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थ वि य णं णागकुमारावासंसि वा सुवन्नकुमारावासंसि वा ari dare a य से एगे आसासे पण्णत्ते ३, जत्थ वि य णं आवकधाते चिट्ठति तत्थ वय से एगे आसासे पण्णत्ते ४ । एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पन्नत्ता, तंजहा - जत्थ णं सीलव्वत-: - गुणव्वत-- वेरमण - 25 15 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं पडिवजति तत्थ वि अ से एगे आसासे पण्णत्ते १, जत्थ वि य णं सामातितं देसावगासितमणुपालेति तत्थ वि य से एगे आसासे पन्नत्ते २, जत्थ वि य णं चाउद्दसट्टमुद्दिट्टपुनमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्मं अणुपालेति तत्थ वि य से एगे आसासे पण्णत्ते ३, जत्थ वि य 5 णं अपच्छिममारणंतितसंलेहणाझूसणाझूसिते भत्तपाणपडितातिक्खिते पाओवगते कालमणवकंखमाणे विहरति तत्थ वि य से एगे आसासे पन्नत्ते ४ । [सू० ३१५] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-उदितोदिते णाममेगे, उदितत्थमिते णाममेगे, अत्थमितोदिते णाममेगे, अत्थमियत्थमिते णाममेगे। 10 भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी णं उदितोदिते, बंभदत्ते णं राया चाउरंतचक्कवट्टी उदितत्थमिते, हरितेसबले णमणगारे णमत्थमिओदिते, काले णं सोयरिए अत्थमितत्थमिते । [टी०] अनन्तरं भाव उक्तोऽधुना तद्वत: पुरुषान् सदृष्टान्तान् चत्तारि पक्खीत्यादिना अत्थमियत्थमियेत्येतदन्तेन ग्रन्थेनाह, व्यक्तश्चायम्, नवरं रुतं रूपं च सर्वेषामेव 15 पक्षिणामस्त्यतस्ते विशिष्टे एवेह ग्राह्ये, ततो रुतं मनोज्ञशब्दस्तेन सम्पन्न: एक: पक्षी, न च रूपेण मनोज्ञेनैव कोकिलवत् । रूपसम्पन्नो न रुतसम्पन्नः, प्राकृतशुकवत्, उभयसम्पन्नो मयूरवत्, अनुभयस्वभाव: काकवदिति । पुरुषोऽत्र यथायोगं मनोज्ञशब्द: प्रशस्तरूपश्च प्रियवादित्व-सद्वेषत्वाभ्यां साधुर्वा सिद्धसिद्धान्तप्रसिद्धशुद्धधर्म देशनादिस्वाध्यायप्रबन्धवान् लोचविरलवालोत्तमाङ्गता-तपस्तनुतनुत्व-मलमलिनदेहता20 ऽल्पोपकरणतादिलक्षणसुविहितसाधुरूपधारी वा योज्य इति । पत्तियं ति प्रीतिरेव प्रीतिकं स्वार्थिककप्रत्ययोपादानेऽपि रूढेर्नपुंसकतेति, तत् करोमि, प्रत्ययं वा करोमीति परिणत: प्रीतिकमेव प्रत्ययमेव वा करोति, स्थिरपरिणामत्वात् उचितप्रतिपत्तिनिपुणत्वात् सौभाग्यवत्त्वाद्वेति, अन्यस्तु प्रीतिकरणे परिणतोऽप्रीतिं करोति उक्तवैपरीत्यादिति, अपरोऽप्रीतौ परिणत: प्रीतिमेव करोति, १. सद्वेषः सुन्दरवेष इत्यर्थः ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३१२-३१५] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । सञ्जातपूर्वभावनिवृत्तित्वात् परस्य वा अप्रीतिहेतुतोऽपि प्रीत्युत्पत्तिस्वभावत्वादिति, चतुर्थः सुज्ञानः । आत्मन एकः कश्चित् प्रीतिकम् आनन्दं भोजनाच्छादनादिभिः करोति उत्पादयति आत्मार्थप्रधानत्वान्न परस्य, अन्यः परस्य परार्थप्रधानत्वान्नात्मनः, अपर उभयस्याप्युभयार्थप्रधानत्वाद्, इतरो नोभयस्याप्युभयार्थशून्यत्वादिति । आत्मनः प्रत्ययं 5 प्रतीतिं करोति न परस्येत्याद्यपि व्याख्येयमिति । पत्तियं पवेसेमि त्ति प्रीतिकं प्रत्ययं वाऽयं करोतीत्येवं परस्य चित्ते विनिवेशयामीति परिणतस्तथैवैकः प्रवेशयतीत्येक इति सूत्रशेषोऽनन्तरसूत्रं च पूर्ववत् । पत्राणि पर्णान्युपगच्छतीति पत्रोपगो बहलपत्र इत्यर्थः, एवं शेषा अपि, पत्रोपगादिवृक्षसमानता तु पुरुषाणां लोकोत्तराणां लौकिकानां चार्थिषु 10 तथाविधोपकाराकरणेन स्वस्वभावलाभ एव पर्यवसितत्वात् १, सूत्रदानादिना उपकारकत्वात् २, अर्थदानादिना महोपकारकत्वात् ३, अनुवर्त्तना - ऽपायसंरक्षणादिना सततोपसेव्यत्वाच्च ४ क्रमेण द्रष्टव्येति । भारं धान्यमुक्तोल्यादिकं वहमानस्य देशाद्देशान्तरं नयतः पुरुषस्य आश्वासा विश्रामाः, भेदश्च तेषामवसरभेदेनेति, यत्रावसरे अंसाद् एकस्मात् स्कन्धादंसमिति 15 स्कन्धान्तरं संहरति नयति भारमिति प्रक्रमः तत्रावसरे, अपिचेति उत्तराश्वासापेक्षा समुच्चये, से तस्य वोढुरिति १, परिष्ठापयति व्युत्सृजति २, नागकुमारावासादिकमुपलक्षणम्, अतोऽन्यत्र वाऽऽयतने वासमुपैतीति रात्रौ वसति ३, यावती यत्परिमाणा कथा मनुष्योऽयं देवदत्तादिर्वाऽयमिति व्यपदेशलक्षणा यावत्कथा, तया, यावज्जीवमित्यर्थः, तिष्ठति वसति इत्ययं दृष्टान्तः ४ । एवमेवेत्यादि दान्तिकः, श्रमणान् साधूनुपास्ते इति श्रमणोपासकः श्रावकस्तस्य सावद्यव्यापारभाराक्रान्तस्य आश्वासाः तद्विमोचनेन विश्रामाः चित्तस्याश्वासनानि स्वास्थ्यानि 'इदं मे परलोक भीतस्य त्राणम्' इत्येवंरूपाणीति, स हि जिनागमसङ्गमावदातबुद्धितया आरम्भ - परिग्रहौ दुःखपरम्पराकारिसंसारकान्तारकारणभूततया परित्याज्यावित्याकलयन् करणभटवशतया तयोः प्रवर्त्तमानो महान्तं खेदसन्तापं भयं चोद्वहति, भावयति चैवम्१. दृश्यताम् अनुयोगद्वारसूत्रम् ३१९ ॥ ४०१ 20 25 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे हियए जिणाण आणा चरियं मह एरिसं अउन्नस्स । एयं आलप्पालं अव्वो दूरं विसंवयइ ॥ हयमम्हाणं नाणं हयमम्हाणं मणुस्समाहप्पं । जे किल लद्धविवेया वि चेट्ठिमो बालबाल व्व ॥ [ ] त्ति ।। यत्रावसरे शीलानि समाधानविशेषाः ब्रह्मचर्य विशेषा वा, व्रतानि स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि, अन्यत्र तु शीलानि अणुव्रतानि व्रतानि सप्त शिक्षाव्रतानि, तदिह न व्याख्यातम्, गुणव्रतादीनां साक्षादेवोपादानादिति, गुणव्रते दिग्व्रतोपभोगपरिभोगव्रतलक्षणे, विरमणानि अनर्थदण्डविरतिप्रकारा रागादिविरतयो वा, प्रत्याख्यानानि नमस्कारसहितादीनि, पोषधः पर्वदिनमष्टम्यादि, तत्रोपवसनम् 10 अभक्तार्थः पोषधोपवासः, एतेषां द्वन्द्वस्तान् प्रतिपद्यते अभ्युपगच्छति तत्रापि च से तस्यैक आश्वासः प्रज्ञप्तः १, यत्रापि च सामायिकं सावधयोगपरिवर्जननिरवद्ययोगप्रतिसेवनलक्षणं यद्व्यवस्थितः श्राद्धः श्रमणभूतो भवति, तथा देशे दिग्व्रतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य विभागे अवकाशः अवस्थानमवतारो विषयो यस्य तद्देशावकाशम्, तदेव देशावकाशिकं दिव्रतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदिनं 15 सक्षेपकरणलक्षणं सर्वव्रतसक्षेपकरणलक्षणं वा अनुपालयति प्रतिपत्त्य नन्तरमखण्डमासेवत इति, तत्रापि च तस्यैक आश्वासः प्रज्ञप्त इति २, उद्दिष्टेत्यमावास्या, परिपूर्णमिति अहोरात्रं यावत् आहार-शरीरसत्कारत्याग-ब्रह्मचर्याऽव्यापारलक्षणभेदोपेतमिति ३, यत्रापि च पश्चिमैवामङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमा सा चासौ मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी सा चेत्यपश्चिममारणान्तिकी सा चासौ 20 संलिख्यतेऽनया शरीर-कषायादीति संलेखना तपोविशेषः सा चेति अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना, तस्याः झूसण त्ति जोषणा सेवनालक्षणो यो धर्मस्तया झूसिय त्ति जुष्टः सेवितः, अथवा क्षपितः क्षपितदेहो यः स तथा, तथा भक्त-पाने प्रत्याख्याते येन स तथा, पादपवत् उपगतो निश्चेष्टतया स्थितः पादपोपगतः, अनशनविशेष प्रतिपन्न इत्यर्थः, कालं मरणकालम् अनवकासन् तत्रानुत्सुक इत्यर्थः, 25 विहरति तिष्ठति । उदितश्चासौ उन्नतकुल-बल-समृद्धि-निरवद्यकर्मभिरभ्युदयवान् उदितश्च ... Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ [सू० ३१६] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः ।। परमसुखसंदोहोदयेनेत्युदितोदितो यथा भरतः, उदितोदितत्वं चास्य प्रसिद्धम् १, तथा उदितश्चासौ तथैव अस्तमितश्च भास्कर इव सर्वसमृद्धिभ्रष्टत्वात् दुर्गतिगतत्वाच्चेत्युदितास्तमितो ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीव, स हि पूर्वमुदित उन्नतकुलोत्पन्नत्वादिना स्वभुजोपार्जितसाम्राज्यत्वेन च पश्चादस्तमितः अतथा-विधकारणकुपितब्राह्मणप्रयुक्तपशुपालधनुर्गोलिकाप्रक्षेपणोपायप्रस्फोटिताक्षिगोलकतया 5 मरणानन्तराप्रतिष्ठानमहानरकमहावेदनाप्राप्ततया चेति २, तथा अस्तमितश्चासौ हीनकुलोत्पत्ति-दुर्भगत्व-दुर्गतत्वादिना उदितश्च समृद्धि-कीर्ति-सुगतिलाभादिनेति अस्तमितोदितो यथा हरिकेशबलाभिधानोऽनगारः, स हि जन्मान्तरोपात्तनीचैर्गोत्रकर्मवशावाप्तहरिकेशाभिधानचाण्डालकुलतया दुर्भगतया दरिद्रतया च पूर्वमस्तमितादित्य इवानभ्युदयवत्त्वादस्तमित इति, पश्चात्तु प्रतिपन्नप्रव्रज्यो 10 निष्प्रकम्पचरणगुणावर्जितदेव-कृतसान्निध्यतया प्राप्तप्रसिद्धितया सुगतिगततया च उदित इति ३, तथा अस्तमितश्चासौ सूर्य इव दुष्कुलतया दुष्कर्मकारितया च कीर्त्तिसमृद्धिलक्षणतेजोवर्जितत्वादस्तमितश्च दुर्गतिगमनादित्यस्तमितास्तमितः, यथा कालाभिधानः सौकरिकः, स हि सूकरैश्चरति मृगयां करोतीति यथार्थः सौकरिक एव दुष्कुलोत्पन्नः प्रतिदिनं महिषपञ्चशतीव्यापादक इति पूर्वमस्तमितः पश्चादपि मृत्वा 15 सप्तमनरकपृथिवीं गत इति अस्तमित एवेति ४। भरहेत्यादि तु उदाहरणसूत्रं भावितार्थमेवेति । __ [सू० ३१६] चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तंजहा-कडजुम्मे, तेयोए, दावरजुम्मे, कलिओए । नेरतिताणं चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तंजहा-कडजुम्मे तेओए दावरजुम्मे, कलितोए । एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं, एवं 20 पुढविकाइयाणं आउ[काइयाणं] तेउ[काइयाणं] वाउ [काइयाणं] वणस्सति[काइयाणं] बेंदिताणं तेदियाणं चउरिंदियाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वाणमंतरजोइसियाणं वेमाणियाणं सव्वेसिं जधा नेरतिताणं । [टी०] य एवं विचित्रभावैश्चिन्त्यन्ते जीवाः सर्व एव चतुर्पु राशिष्ववतरन्तीति तान् दर्शयन्नाह- चत्तारि जुम्मेत्यादि, जुम्म त्ति राशिविशेषः, यो हि राशिश्चतुष्कापहारेण 25 १. बादर भां० । वावर क० पा० ॥ २. कलिजोगे भां० क० ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अपहियमाणश्चतुःपर्यवसितो भवति स कृतयुग्म इत्युच्यते, यस्तु त्रिपर्यवसितः स योजः, द्विपर्यवसितो द्वापरयुग्मः, एकपर्यवसितः कल्योज इति, इह गणितपरिभाषायां समराशिर्युग्ममुच्यते विषमस्तु ओज इति, इयं च समयस्थितिः, लोके तु कृतयुगादीनि एवमुच्यन्ते5 द्वात्रिंशत् सहस्राणि कलौ लक्षचतुष्टयम् । वर्षाणां द्वापरादौ स्यादेतद् द्वित्रिचतुर्गुणम् ॥ [ ] इति । उक्तराशीन्नारकादिषु निरूपयन्नाह– नेरइएत्यादि सुगमम्, नवरं नारकादयश्चतुर्द्धाऽपि स्युः, जन्म-मरणाभ्यां हीनाधिकत्वसंभवादिति । [सू०३१७] चत्तारि सूरा पन्नत्ता, तंजहा-खंतिसूरे, तवसूरे, दाणसूरे, जुद्धसूरे। 10 खंतिसूरा अरहंता, तवसूरा अणगारा, दाणसूरे वेसमणे, जुद्धसूरे वासुदेवे। [टी०] पुनर्जीवानेव भावैर्निरूपयन्नाह- चत्तारि सूरेत्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यम्, किन्तु शूरा वीराः, क्षान्तिशूरा अर्हन्तो महावीरवत्, तप:शूरा अनगारा: दृढप्रहारिवत्, दानशूरो वैश्रमण उत्तराशालोकपालस्तीर्थकरादिजन्म-पारणकादिरत्नवृष्टिपातनादिनेति, उक्तं च वेसमणवयणसंचोइया उ ते तिरियजंभगा देवा । कोडिग्गसो हिरन्नं रयणाणि य तत्थ उवणेति ॥ [आव० नि० भा० ६८] त्ति ।। युद्धशूरो वासुदेवः कृष्णवत्, तस्य षष्ठयधिकेषु त्रिषु सङ्ग्रामशतेषु लब्धजयत्वादिति । [सू० ३१८] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-उच्चे णाममेगे उच्चछंदे, 20 उच्चे णाममेगे णीतछंदे, णीते णाममेगे उच्चछंदे, णीते णाममेगे णीतछंदे। [टी०] उच्चः पुरुषः शरीर-कुल-विभवादिभिः, तथा उच्चच्छन्दः उन्नताभिप्रायः औदार्यादियुक्तत्वात्, नीचच्छन्दस्तु विपरीतः, नीचोऽप्युच्चविपर्ययादिति । [सू० ३१९] असुरकुमाराणं चत्तारि लेस्सातो पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा, णीललेसा, काउलेसा, तेउलेसा। एवं जाव थणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं 25 आउ[काइयाणं] वणस्सइकाइयाणं वाणमंतराणं सव्वेसिं जहा असुरकुमाराणं। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३१९] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । चत्तारि जाणा पन्नत्ता, तंजहा- जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा- जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते ट्रक [= ४] । चत्तारि जाणा पन्नत्ता, तंजहा- जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते, जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते ट्रक [= ४] | एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- 5 जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते ट्क [= ४] । चत्तारि जाणा पन्नत्ता, तंजहा- जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे ट्क [= ४] | एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे ट्क [= ४] । चत्तारि जाणा पन्नत्ता, तंजहा- जुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे ट्क [ = ४] | एवामेव 10 चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- जुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे ट्क [= ४] | चत्तारि जुग्गा पन्नत्ता, तंजहा - जुत्ते नाममेगे जुत्ते ट्रक [ = ४] | एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा- जुत्ते णाममेगे जुत्ते ट्क [=४] | एवं जधा जाणेण चत्तारि आलावगा तथा जुग्गेण वि, पडिवक्खो तहेव पुरिसजाता सो त । ४०५ चत्तारि सारथी पन्नत्ता, तंजहा- जोयावइत्ता णामं एगे नो विजोयावइत्ता, विजोयावइत्ता नामं एगे नो जोयावइत्ता, एगे जोयावइत्ता वि विजोयावइत्ता वि, एगे नो जोयावइत्ता नो विजोयावइत्ता । चत्तारि हया पन्नत्ता, तंजहा - जुत्ते णामं एगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते ट्रक [= ४] | एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - जुत्ते णाममेगे जुत्ते 20 ट्क [= ४] | एवं जुत्तपरिणते, जुत्तरूवे, जुत्तसोभे । सव्वेसिं पडिवक्खो पुरिसजाता । चत्तारि गया पन्नत्ता, तंजहा - जुत्ते णाममेगे जुत्ते ट्क [४] | एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - जुत्ते णाममेगे जुत्ते ट्क [= ४] | एवं जहा हयाणं तहा गयाणं वि भाणियव्वं, पडिवक्खो तहेव पुरिसजाता । 15 25 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चत्तारि जुग्गारिता पन्नत्ता, तंजहा - पंथजाती णाममेगे णो उप्पधजाती, उप्पधजाती णाममेगे णो पंथजाती, एगे पंथजाती वि उप्पहजाती वि, एगे णो पंथजाती णो उप्पहजाती । चत्तारि पुप्फा पन्नत्ता, तंजहा - रूवसंपन्ने नाममेगे णो गंधसंपन्ने, गंधसंपन्ने 5 णाममेगे नो रूवसंपन्ने, एगे रूवसंपन्ने वि गंधसंपन्ने वि, एगे णो रूवसंपन्ने o गंधसंपन्ने । एवमेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - रूवसंपन्ने णाममेगे णो सीलसंपन्ने ट्रक [= ४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - जातिसंपन्ने नाममेगे नो कुलसंपन्ने ट्रक [४], १ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - जातिसंपन्ने नामं एगे णो बलसंपन्ने, बलसंपन्ने नामं एगे णो जातिसंपन्ने ट्रक [ ४ ], २ । एवं जातीते त रूवेण त चत्तारि आलावगा ३ । एवं जातीते त सुतेण त ट्क [ ४ ], ४ । एवं जाती त सीलेण त ट्क [ = ४], ५ । एवं जातीते त चरित्तेण त ट्रक [= ४], ६ । ४०६ 15 = चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा - कुलसंपन्ने नामं एगे नो बलसंपन्ने ट्क [= ४], ७ । एवं कुलेण त रूवेण त ट्क [ ४ ], ८ । कुलेण त सुतेण त ट्क [= ४], ९ । कुलेण त सीलेण त ट्क [ = ४] १० । कु चरित्तेण त ट्क [ = ४], ११ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - बलसंपन्ने नाममेगे नो रूवसंपन्ने ट्रक 20 [= ४], १२ एवं बलेण त सुतेण त ट्क [ = ४], १३ । एवं बण त सीलेण त ट्क [ = ४], १४ । एवं बलेण त चरित्तेण त ट्क [= ४], १५ । चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा - रूवसंपन्ने नाममेगे नो सुयसंपन्ने ट्रक [ = ४], १६ । एवं रूवेण त सीलेण त ट्क [ ४ ], १७ । रूवेण त चरित्तेण 25 त ट्क [= ४], १८ । १. जुग्गायरिया भां० ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ [सू० ३१९] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-सुयसंपन्ने नाममेगे णो सीलसंपन्ने ट्क [= ४], १९ । एवं सुतेण त चरित्तेण त ट्क [= ४], २० । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-सीलसंपन्ने नाममेगे नो चरित्तसंपन्ने ट्क [= ४], २१ । एते एक्कवीसं भंगा भाणितव्वा । चत्तारि फला पत्नत्ता, तंजहा-आमलगमहुरे, मुद्दितामहुरे, खीरमहुरे, 5 खंडमहुरे। एवामेव चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा-आमलगमहुरफलसमाणे जाव खंडमहुरफलसमाणे ।। चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-आतवेतावच्चकरे नाममेगे नो परवेतावच्चकरे ह्व [= ४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-करेति नाममेगे वेयावच्चं णो पडिच्छइ, 10 पडिच्छइ नाममेगे वेयावच्चं नो करेति ह [= ४] ।। चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अट्ठकरे णाममेगे णो माणकरे, माणकरे णाममेगे णो अट्ठकरे, एगे अट्ठकरे वि माणकरे वि, एगे णो अट्ठकरे णो माणकरे । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-गणट्ठकरे णाममेगे णो माणकरे ह्व 15 [= ४] । ___ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-गणसंगहकरे णाममेगे णो माणकरे ह्व [= ४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-गणसोभकरे णामं एगे णो माणकरे ह्व [= ४] । 20 ___ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-गणसोहिकरे णाममेगे नो माणकरे ह्व [= ४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-रूवं नाममेगे जहति नो धम्मं, धम्म नाममेगे जहति नो रूवं, एगे रूवं पि जहति धम्मं पि जहति, एगे नो रूवं जहति नो धम्मं । 25 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-धम्मं नाममेगे जहति नो गणसंथिति ह्व [= ४] । __ चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-पियधम्मे नाममेगे नो दढधम्मे. दढधम्मे नाममेगे नो पियधम्मे, एगे पियधम्मे वि दढधम्मे वि, एगे नो 5 पियधम्मे नो दढधम्मे । टी०] अनन्तरमुच्चेतराभिप्राय उक्तः, स च लेश्याविशेषाद् भवतीति लेश्यासूत्राणि सुगमानि च, नवरम् असुरादीनां चतस्रो लेश्या द्रव्याश्रयेण भावतस्तु षडपि सर्वदेवानाम्, मनुष्य-पञ्चेन्द्रियतिरश्चां तु द्रव्यतो भावतश्च षडपीति, पृथिव्यब्-वनस्पतीनां हि तेजोलेश्या भवति देवोत्पत्तेरिति तेषां चतस्र इति । उक्तलेश्याविशेषेण च विचित्रपरिणामा मानवाः 10 स्युरिति यानादिदृष्टान्तचतुर्भङ्गिकाभिरन्यथा च पुरुषचतुर्भङ्गिका यानसूत्रादिना श्रावकसूत्रावसानेन ग्रन्थेन दर्शयन्नाह- चत्तारीत्यादि, कण्ठ्यश्चायम्, नवरं यानं शकटादि, तद् युक्तं बलीवादिभिः, पुनर्युक्तं सङ्गतं समग्रसामग्रीकं वा पूर्वापरकालापेक्षया वा इत्येकम्, अन्यत् युक्तं तथैवाऽयुक्तं तूक्तविपरीतत्वादिति, एवमितरौ, पुरुषस्तु युक्तो धनादिभिः, पुनर्युक्त उचितानुष्ठानैः सद्भिर्वा, पूर्वकाले वा युक्तो धन-धर्मानुष्ठानादिभिः 15 पश्चादपि तथैवेति चतुर्भङ्गी, अथवा युक्तो द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन चेति प्रथम: साधु:, द्रव्यलिङ्गेन नेतरेणेति द्वितीयो निह्नवादिः, न द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन तु युक्त इति तृतीय: प्रत्येकबुद्धादिः, उभयवियुक्तश्चतुर्थो गृहस्थादिरिति, एवं सूत्रान्तराण्यपि । नवरं युक्तं गोभिः, युक्तपरिणतं तु अयुक्तं सत् सामग्र्या युक्ततया परिणतमिति, पुरुष: पूर्ववत्। युक्तरूपं सङ्गतस्वभावं प्रशस्तं वा युक्तं युक्तरूपमिति । पुरुषपक्षे युक्तो धनादिना 20 ज्ञानादिगुणैर्वा युक्तरूप: उचितवेष: सुविहितनेपथ्यो वेति । तथा युक्तं तथैव, युक्तं शोभते युक्तस्य वा शोभा यस्य तद्युक्तशोभमिति, पुरुषस्तु युक्तो गुणैस्तथा युक्ता उचिता शोभा यस्य स तथेति । __ युग्यं वाहनमश्वादि, अथवा गोल्लविषये जम्पानं द्विहस्तप्रमाणं चतुरस्रं सवेदिकमुपशोभितं युग्यकमुच्यते तद् युक्तमारोहणसामग्र्या पर्याणादिकया पुनर्युक्तं १. तत् जे१ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३१९] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः ।। ४०९ वेगादिभिरित्येवं यानवद् व्याख्येयम्, एतदेवाह– एवं जहेत्यादि, प्रतिपक्षो दान्तिकस्तथैव, कोऽसावित्याह- पुरिसजाय त्ति पुरुषजातानि, एवं परिणत-रूपशोभसूत्रचतुर्भङ्गिका: सप्रतिपक्षा वाच्या:, यावच्छोभसूत्रचतुर्भङ्गी यथा ‘अजुत्ते नाम एगे अजुत्तसोभे', एतदेवाह- जाव सोभे त्ति। __ सारथि: शाकटिकः, योजयिता शकटे गवादीनाम्, न वियोजयिता मोक्ता, 5 अन्यस्तु वियोजयिता न तु योजयितेति, एवं शेषावपि, नवरं चतुर्थः खेटयत्येवेति, अथवा योकत्रयन्तं प्रयुङ्क्ते यः स योक्त्रापयिता, वियोकत्रयत: प्रयोक्ता तु वियोक्त्रापयितेति, लोकोत्तरपुरुषविवक्षायां तु सारथिरिव सारथिर्योजयिता संयमयोगेषु साधूनां प्रवर्त्तयिता, वियोजयिता तु तेषामेवानुचितानां निवर्तयितेति, यानसूत्रवत् हय-गजसूत्राणीति । जुग्गारिय त्ति युग्यस्य चर्या वहनं गमनमित्यर्थः, क्वचित्तु जुग्गायरिय त्ति पाठः, 10 तत्रापि युग्याचर्येति । पथयायि एकं युग्यं भवति नोत्पथयायीत्यादिश्चतुर्भङ्गी, इह च युग्यस्य चर्याद्वारेणैव निर्देशे चतुर्विधत्वेनोक्तत्वात् तच्चर्याया एवोद्देशोक्तं चातुर्विध्यमवसेयमिति । भावयुग्यपक्षे तु युग्यमिव युग्यं संयमयोगभरवोढा साधु:, स च पथियाय्यप्रमत्तः, उत्पथयायी लिङ्गावशेष:, उभययायी प्रमत्तः, चतुर्थ: सिद्धः, क्रमेण सदसदुभयानुभयानुष्ठानरूपत्वात् । अथवा पथ्युत्पथयो: स्वपरसमयरूपत्वाद् यायित्वस्य 15 च गत्यर्थत्वेन बोधपर्यायत्वात् स्वसमय-परसमयबोधापेक्षयेयं चतुर्भङ्गी नेयेति । ___ एकं पुष्पं रूपसम्पन्नं न गन्धसम्पन्नमाकुलीपुष्पवत्, द्वितीयं बकुलस्येव, तृतीयं जातेरिव, चतुर्थं बदर्यादेरिवेति । पुरुषो रूपसम्पन्नो रूपवान् सुविहितरूपयुक्तो वेति जाति ६ कुल ५ बल ४ रूप ३ श्रुत २ शील १ चारित्रलक्षणेषु सप्तसु पदेषु एकविंशतौ द्विकसंयोगेषु एकविंशतिरेव चतुर्भङ्गिका: कार्या: सुगमाश्चेति ।। 20 ____ आमलकमिव मधुरं यदन्यत् आमलकमेव वा मधुरमामलकमधुरम्, मुद्दिय त्ति १. तानीत्येवं पा० जे२ ॥ २. 'यायि एवंपीत्यादिचतुर्भङ्गी जे१ ॥ ३. "त्वाच्चर्याया' खं० जेसं१ ॥ ४. पथया जे१ ॥ ५. द्वितीयं च बकु पा० ॥ ६. १ जाति० कुल०, २ जाति० बल०, ३ जाति० रूप०, ४ जाति० श्रुत०, ५ जाति० शील०, ६ जाति० चारित्र० । १ कुल० बल०, २ कुल० रूप०, ३ कुल० श्रुत०, ४ कुल० शील०, ५ कुल० चारित्र० । १ बल० रूप०, २ बल० श्रुत०, ३ बल० शील०, ४ शील. चारित्र० । १ रूप० श्रुत०, २ रूप० शील०, ३ रूप० चारित्र० । १ श्रुत० शील०, २ श्रुत० चारित्र०, १ शील. चारित्र० इति सप्तसु पदेषु एकविंशतिः चतुर्भङ्गिकाः ॥ -A-11 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मृद्वीका द्राक्षा तद्वत् सैव वा मधुरं मृद्वीकामधुरम्, क्षीरवत् खण्डवच्च मधुरमिति विग्रहः, यथैतानि क्रमेणेषद्-बहु-बहुतर-बहुतममाधुर्यवन्ति तथा ये आचार्या ईषद्बहु-बहुतर-बहुतमोपशमादिगुणलक्षणमाधुर्यवन्तस्ते तत्समानतया व्यपदिश्यन्त इति । __ आत्मवैयावृत्यकरोऽलसो विसम्भोगिको वा, परवैयावृत्यकरः स्वार्थनिरपेक्ष:, स्व5 परवैयावृत्यकर: स्थविरकल्पिक: कोऽपि, उभयनिवृत्तोऽनशनविशेषप्रतिपन्नकादिरिति। करोत्येवैको वैयावृत्यं नि:स्पृहत्वात् १, प्रतीच्छत्येवान्य आचार्यत्व-ग्लानत्वादिना २, अन्य: करोति प्रतीच्छति च स्थविरविशेष: ३, उभयनिवृत्तस्तु जिनकल्पिकादिरिति ४। अट्ठकरे त्ति अर्थान् हिताहितप्राप्तिपरिहारादीन् राजादीनां दिग्यात्रादौ तथोपदेशत: करोतीत्यर्थकरः मन्त्री नैमित्तिको वा, स चार्थकरो नामैको न मानकरः, 10 कथमहमनभ्यर्थितः कथयिष्यामीत्यवलेपवर्जितः, एवमितरे त्रयः, अत्र च व्यवहारभाष्यगाथा पुट्ठापुट्ठो पढमो जत्ताइ हियाहियं परिकहेइ । तइओ पुट्ठो सेसा उ णिप्फला एव गच्छे वि ॥ [व्यवहारभा० ४५६८] इति । गणस्य साधुसमुदायस्याऽर्थान् प्रयोजनानि करोतीति गणार्थकरः 15 आहारादिभिरुपष्टम्भकः, न च मानकरोऽभ्यर्थनानपेक्षत्वात्, एवं त्रयोऽन्ये, उक्तं च आहारउवहिसयणाइएहिं गच्छस्सुवग्गहं कुणइ । बीओ न जाइ माणं दोन्नि वि तइओ न उ चउत्थो ॥ [व्यवहारभा० ४५७०] इति । अथवा- नो माणकरो त्ति गच्छार्थकरोऽहमिति न माद्यतीति । अनन्तरं गणस्यार्थ उक्तः, स च सङ्ग्रहोऽत आह– गणसंगहकरे त्ति गणस्याहारादिना 20 ज्ञानादिना च सङ्ग्रहं करोतीति गणसङ्ग्रहकरः, शेषं तथैव, उक्तं च सो पुण गच्छस्सऽट्ठो उ संगहो तत्थ संगहो दुविहो । दव्वे भावे नियमाउ होंति आहार-णाणादी ॥ [व्यवहारभा० ४५७१] १. सम्प्रति तु व्यवहारभाष्ये गाथा एवंरूपा उपलभ्यन्ते- “पुट्ठापुट्ठो पढम उ साहती न उ करेति माणं तु। बितिओ माणं करेति पुट्ठो वि न साहती किंचि ॥४५६८॥ ततिओ पुट्ठो साहति नोऽपुट्ठ चउत्थमेव सेवति तु। दो सफला दो अफला एवं गच्छे वि नातव्वा ॥४५६९॥ आहारोवहिसयणाइएहि गच्छस्सुवग्गहं कुणती । बितिओ माणं उभयं च ततियओ नोभय चउत्थो ॥४५७०॥ सो पुण गणस्स अट्ठो संगहकर तत्थ संगहो दुविधो। दव्वे भावे नियमाउ दोन्नि आहार-नाणादी ॥४५७१।।" Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३१९] आहारोपधि- शय्या - ज्ञानादीनीत्यर्थः । गणस्यानवद्यसाधुसामाचारीप्रवर्त्तनेन वादि- धर्मकथि-नैमित्तिक-विद्यासिद्धत्वादिना वा शोभाकरणशीलो गणशोभाकरः, नो मानकरोऽभ्यर्थनाऽनपेक्षितया मदाभावेन वा । चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । गणस्य यथायोगं प्रायश्चित्तदानादिना शोधिं शुद्धिं करोतीति गणशोधिकरः, अथवा 5 शङ्किते भक्तादौ सति गृहिकुले गत्वाऽनभ्यर्थितो भक्तशुद्धिं करोति यः स प्रथमः, यस्तु मानान्न गच्छति स द्वितीयः, यस्त्वभ्यर्थितो गच्छति स तृतीय:, यस्तु नाभ्यर्थनापेक्षी नापि तत्र गन्ता स चतुर्थ इति । रूपं साधुनेपथ्यं जहाति त्यजति कारणवशात् न धर्मं चारित्रलक्षणं बोटिकमध्यस्थितमुनिवत्, अन्यस्तु धर्म्यं न रूपं निह्नववत्, उभयमपि उत्प्रव्रजितवत्, 10 नोभयं सुसाधुवत् । ४११ धर्मं त्यजत्येको जिनाज्ञारूपं न गणसंस्थितिं स्वगच्छकृतां मर्यादाम्, कैश्चिदाचार्यैः तीर्थकरानुपदेशेन संस्थितिः कृता यथा नास्माभिर्महाकल्पाद्यतिशयश्रुतमन्यगणसत्काय देयमिति, एवं च योऽन्यगणसत्काय न तद्ददाति स धर्मं त्यजति न गणस्थितिम्, जिनाज्ञाननुपालनात्, तीर्थकरोपदेशो ह्येवम्- सर्वेभ्यो योग्येभ्यः श्रुतं 15 दातव्यमिति प्रथमः, यस्तु ददाति स द्वितीय:, यस्त्वयोग्येभ्यः तद्ददाति स तृतीय:, यस्तु श्रुताव्यवच्छेदार्थं तदव्यवच्छेदसमर्थस्य परशिष्यस्य स्वकीयदिग्बन्धं कृत्वा श्रुतं ददाति तेन न धर्म्मो नापि गणसंस्थितिस्त्यक्तेति स चतुर्थ इति, उक्तं च सयमेव दिसबंधं काऊण पडिच्छगस्स जो देइ । उभयमवलंबमाणं कामं तु तयं पि पूएमो ॥ [ व्यवहारभा० ४५८४] त्ति । प्रियो धर्म्मो यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च प्रतिपत्तेः स प्रियधर्म्मा, न च दृढो धर्म्मो यस्य, आपद्यपि तत्परिणामाविचलनात्, अक्षोभत्वादित्यर्थः, स दृढधर्मेति, उक्तं च इह दसविहवेयावच्चे अन्नतरे खिप्पमुज्जमं कुणति । अच्वंतमणेव्वाणिं धिइविरियकिसो पढमभंगो ॥ [ व्यवहारभा० ४५८७] अन्यस्तु दृढधर्म्मा अङ्गीकृतापरित्यागात् न तु प्रियधर्म्मा कष्टेन धर्म्मप्रतिपत्तेः, इतरौ 20 25 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सुज्ञानौ, उक्तं च दुक्खेण उ गाहिजइ बीओ गहियं तु नेइ जा तीरं । उभयत्तो कल्लाणो तइओ चरिमो उ पडिकुट्ठो ॥ व्यवहारभा० ४५८८] इति, [सू० ३२०] चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा-पव्वावणायरिते नाममेगे 5 णो उवट्ठावणायरिते, उवट्ठावणायरिते णाममेगे णो पव्वावणायरिते, एगे पव्वावणातरिते वि उवट्ठावणातरिते वि, एगे नो पव्वावणातरिते नो उवट्ठावणातरिते धम्मायरिए । चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा-उद्देसणायरिए णाममेगे णो वायणायरिए ४ धम्मायरिए । 10 चत्तारि अंतेवासी पन्नत्ता, तंजहा-पव्वावणंतेवासी नामं एगे णो उवट्ठावणंतेवासी ४ धम्मंतेवासी । चत्तारि अंतेवासी पन्नत्ता, तंजहा-उद्देसणंतेवासी नामं एगे नो वायणंतेवासी ४ धम्मंतेवासी । [सू० ३२१] चत्तारि निग्गंथा पन्नत्ता, तंजहा-रायणिते समणे निग्गंथे 15 महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिते धम्मस्स अणाराधते भवति १, राइणिते समणे निग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिते आतावी समिते धम्मस्स आराहते भवति २, ओमरातिणिते समणे निग्गंथे महाकम्मे महाकिरिते अणातावी असमिते धम्मस्स अणाराहते भवति ३, ओमरातिणिते समणे निग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिते आतावी समिते धम्मस्स आराहते भवति ४। 20 चत्तारि णिग्गंथीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रातिणिया समणी निग्गंथी एवं चेव चत्तारि समणोवासगा पन्नत्ता, तंजहा-रायणिते समणोवासए महाकम्मे तहेव ४ । __ चत्तारि समणोवासियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रायणिता समणोवासिता 25 महाकम्मा तहेव चत्तारि गमा । १. उभयित्तो जेमू१, उभयत्तो जेसं१ । उभयंतो खं० पा० जे२ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ [सू० ३२२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । [टी०] आचार्यसूत्रचतुर्थभङ्गे यो न प्रव्राजनया न चोत्थापनयाचार्य: स क इत्याहधर्माचार्य इति, प्रतिबोधक इत्यर्थः, आह च धम्मो जेणुवइट्ठो सो धम्मगुरू गिही व समणो वा । को वि तिहिं संपउत्तो दोहि वि एक्केक्कगेणेव ॥ [ ] इति, त्रिभिरिति प्रव्राजनोत्थापनाधर्माचार्यत्वैरिति ।। उद्देशनम् अङ्गादेः पठनेऽधिकारित्वकरणम्, तत्र तेन वाऽऽचार्यो गुरु: उद्देशनाचार्य:, उभयशून्य: को भवतीत्याह-धर्माचार्य इति । ___ अन्ते गुरो: समीपे वस्तुं शीलमस्यान्तेवासी शिष्य:, प्रव्राजनया दीक्षया अन्तेवासी प्रव्राजनान्तेवासी, दीक्षित इत्यर्थः, उत्थापनान्तेवासी महाव्रतारोपणत: शिष्य इति. चतुर्थभङ्गकस्थः क इत्याह-धर्मान्तेवासी धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यः, 10 धम्मार्थितयोपसम्पन्नो वेत्यर्थः, यो नोद्देशनान्तेवासी न वाचनान्तेवासीति चतुर्थः, स क इत्याह-धर्मान्तेवासीति । निर्गता बाह्याभ्यन्तरग्रन्थान्निर्ग्रन्थाः साधवः, रत्नानि भावतो ज्ञानादीनि, तैर्व्यहरतीति रात्निकः, पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः, श्रमणो निर्ग्रन्थः । महान्ति गुरूणि स्थित्यादिभिस्तथाविधप्रमादाद्यभिव्यङ्ग्यानि कर्माणि यस्य स महाका, महती 15 क्रिया कायिक्यादिका कर्मबन्धहेतुर्यस्य स महाक्रियः, न आतापयति आतापनां शीतादिसहनरूपां करोतीत्यनातापी मन्दश्रद्धत्वादिति, अत एवाऽसमित: समितिभिः, स चैवंभूतो धर्मस्यानाराधको भवतीत्येकः, अन्यस्तु पर्यायज्येष्ठ एवाल्पकर्मा लघुका अल्पक्रिय इति द्वितीयः, अन्यस्तु अवमो लघु: पर्यायेण रात्निको अवमरात्निकः । एवं निर्ग्रन्थिका-श्रमणोपासक-श्रमणोपासिकासूत्राणि । चत्तारि गम 20 त्ति त्रिष्वपि सूत्रेषु चत्वार आलापका भवन्तीति । [सू० ३२२] चत्तारि समणोवासगा पन्नत्ता, तंजहा-अम्मापितिसमाणे, भातिसमाणे, मित्तसमाणे, सवत्तिसमाणे । चत्तारि समणोवासगा पन्नत्ता, तंजहा-अद्दागसमाणे, पडागसमाणे, खाणुसमाणे, खरकटयसमाणे । 25 समणस्स णं भगवतो महावीरस्स समणोवासगाणं सोधम्मे कप्पे अरुणाभे Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे विमाणे चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता । - [टी०] अम्मापिइसमाणे मातापितृसमान:, उपचारं विनापि साधुषु एकान्तेनैव वत्सलत्वात् । भ्रातृसमान: अल्पतरप्रेमत्वात् तत्त्वविचारादौ निष्ठरवचनादप्रीते: तथाविधप्रयोजने त्वत्यन्तवत्सलत्वाच्चेति । मित्रसमान: सोपचारवचनादिना विना 5 प्रीतिक्षते:, तत्क्षतौ चाऽऽपद्यप्युपेक्षकत्वादिति । समान: साधारण: पतिरस्या: सपत्नी, यथा सा सपत्न्या ईर्ष्यावशादपराधान् वीक्षते एवं य: साधुषु दूषणदर्शनतत्परोऽनुपकारी च स सपत्नीसमानोऽभिधीयत इति ।। __ अद्दाग त्ति आदर्शसमानो यो हि साधुभि: प्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान् भावान् यथावत् प्रतिपद्यते सन्निहितार्थानादर्शकवत् स आदर्शसमानः । यस्यानवस्थितो 10 बोधो विचित्रदेशनावायुना सर्वतोऽपह्रियमाणत्वात् पताकेव स पताकासमान इति । यस्तु कुतोऽपि कदाग्रहान्न गीतार्थदेशनया चाल्यते सोऽनमनस्वभावबोधत्वेनाऽप्रज्ञापनीयः स्थाणुसमान इति । यस्तु प्रज्ञाप्यमानो न केवलं स्वाग्रहान्न चलति अपि तु प्रज्ञापकं दुर्वचनकण्टकैर्विध्यति स खरकण्टकसमान:, खरा निरन्तरा निष्ठुरा वा कण्टा: कण्टका यस्मिंस्तत् खरकण्टं बब्बूलादिडालं खरणमिति लोके यदुच्यते तच्च विलग्नं 15 चीवरं न केवलमविनाशितं न मुञ्चत्यपि तु तद्विमोचकं पुरुषादिं हस्तादिषु कण्टकैः विध्यतीति, अथवा खरण्टयति लेपवन्तं करोति यत् तत् खरण्टम् अशुच्यादि, तत्समानः, यो हि कुबोधापनयनप्रवृत्तं संसर्गमात्रादेव दूषणवन्तं करोति कुबोधकुशीलतादुष्प्रसिद्धिजनकत्वेनोत्सूत्रप्ररूपकोऽयमित्यसद्दूषणोद्भावकत्वेन वेति । __ श्रमणोपासकाधिकारादिदमाह- समणस्सेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं श्रमणोपासकाना20 मानन्दादीनामुपासकदशाभिहितानामिति । [सू० ३२३] चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते, णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते, तंजहाअहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने, से णं माणुस्सए कामभोगे णो आढाति णो परियाणाति णो 25 अटुं बंधइ णो णिताणं पगरेति णो ठितिपगप्पं पगरेति १ । अहुणोववन्ने Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ४१५ देवे देवलोगे दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते ४, तस्स णं माणुस्सते पेमे वोच्छिन्ने दिव्वे संकंते भवति २ । अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते ४, तस्स णं एवं भवति - इयहिं गच्छं मुहुत्तेणं गच्छं, तेणं कालेणमप्पाउया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति ३ । अहुणोववन्ने देवे देवलोगे दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते ४, तस्स णं माणुस्सए गंधे 5 पडिले पडिलोमे तावि भवति, उड्डुं पि य णं माणुस्सए गंधे जाव चत्तारि पंच जोयणसताई हव्वमागच्छति ४ । इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोएस इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तते, णो चेव णं संचाि हव्वमागच्छित्तते चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुसं लोगं 10 हव्वमागच्छित्तते, संचाएइ हव्वमागच्छित्तए, तंजहा - अहुणोववन्ने देवे देवलोएस दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते जाव अणज्झोववन्ने, तस्स णं एवं भवतिअत्थि खलु मम माणुस्सए भवे आयरिते ति वा उवज्झाए ति वा पवित्ती वा थेरेति वा गणी ति वा गणधरे ति वा गणावच्छेतिते ति वा जेसिं पभावेणं एइमा एतारूवा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागता, 15 तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि जाव पज्जुवासामि १ । अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु जाव अणज्झोववन्ने, तस्स णमेवं भवति - एस णं माणुस्सए भवे णी वा वस्सी वा अतिदुक्करदुक्करकारते, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि जाव पज्जुवासामि २ । अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु जाव अणज्झोववन्ने, तस्स णमेवं भवति-अत्थि णं मम माणुस्सए भवे माता ति वा जाव सुण्हा 20 ति वा, तं गच्छामि णं तेसिमंतितं पाउब्भवामि, पासंतु ता मे इममेतारूवं दिव्वं देविद्धिं दिव्वं देवजुतिं लद्धं पत्तं अभिसमन्नागतं ३ । अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु जाव अणज्झोववन्ने, तस्स णमेवं भवति - अत्थि णं मम माणुस्सए भवे मित्ते ति वा सही ति वा सुही ति वा सहाए ति वा संगतिए ति वा, तेसिं च णं अम्हे अन्नमन्नस्स संगारे पडिसुते भवति 'जो मे पुव्विं चयति से संबोहेतव्वे' 25 ४ । इच्चेतेहिं जाव संचातेति हव्वमागच्छित्तए । १. ता इमे एता भां० क० पा० ला० ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] देवाधिकारादेवेदमाह- चउहीत्यादि, त्रिस्थानके तृतीयोद्देशके प्रायो व्याख्यातमेवेदं तथापि किञ्चिदुच्यते, चउहिं ठाणेहिं नो संचाएइ त्ति सम्बन्धः, तथा देवलोकेषु देवमध्ये इत्यर्थः, हव्वं शीघ्रं संचाएइ शक्नोति, कामभोगेषु मनोज्ञशब्दादिषु मूर्च्छित इव मूर्च्छितो मूढस्तत्स्वरूपस्यानित्यत्वादेर्विबोधाक्षमत्वात्, गृद्धः तदाकाङ्क्षावान् 5 अतृप्त इत्यर्थः, ग्रथित इव ग्रथितस्तद्विषयस्नेहरज्जुभिः सन्दर्भित इत्यर्थः, अध्युपपन्न: अत्यन्तं तन्मना इत्यर्थः, नाद्रियते न तेष्वादरवान् भवति, न परिजानाति एतेऽपि वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते, तथा तेष्विति गम्यते, नो अर्थं बध्नाति एतैरिदं प्रयोजनमिति निश्चयं करोति, तथा नो तेषु निदानं प्रकरोति एते मे भूयासुरित्येवमिति, तथा नो तेषु स्थितिप्रकल्पम् अवस्थानविकल्पनम् ‘एतेष्वहं तिष्ठामि, एते वा मम तिष्ठन्तु 10 स्थिरा भवन्तु'इवत्येवंरूपं स्थित्या वा मर्यादया प्रकृष्ट: कल्प: आचार: स्थितिप्रकल्पस्तं प्रकरोति कर्तुमारभते, प्रशब्दस्यादिकर्मार्थत्वादिति, एवं दिव्यविषयप्रसक्तिरेकं कारणम्। तथा यतोऽसावधुनोत्पन्नो देव: कामेषु मूर्च्छितादिविशेषणोऽतस्तस्य मानुष्यकमित्यादि इति दिव्यप्रेमसङ्क्रान्ति: द्वितीयम् । तथाऽसौ देवो यतो भोगेषु मूर्च्छितादिविशेषणो भवति ततस्तत्प्रतिबन्धात् तस्स णमित्यादि इति देवकार्यायत्ततया मनुष्यकार्यानायत्तत्वं 15 तृतीयम् । तथा दिव्यभोगमूर्च्छितादिविशेषणात्तस्य मनुष्याणामयं मानुष्य: स एव मानुष्यको गन्धः प्रतिकूलो दिव्यगन्धविपरीतवृत्तिः प्रतिलोमश्चापि इन्द्रियमनसोरनाह्लादकत्वात्, एकार्थौ वैतौ अत्यन्तामनोज्ञताप्रतिपादनायोक्ताविति, यावदिति परिमाणार्थः, चत्तारि पंचेति विकल्पदर्शनार्थं कदाचित् भरतादिष्वेकान्तसुषमादौ चत्वार्येवान्यदा तु पञ्चापि, मनुष्य-पञ्चेन्द्रियतिरश्चां बहुत्वेनौदारिकशरीराणां तदवयव20 तन्मलानां च बहुत्वेन दुरभिगन्धप्राचुर्यादिति, आगच्छति मनुष्यक्षेत्रादाजिगमिषू देवं प्रतीति, इदं च मनुष्यक्षेत्रस्याशुभस्वरूपत्वमेवोक्तम्, न च देवोऽन्यो वा नवभ्यो योजनेभ्यः परतः आगतं गन्धं जानातीति, अथवा अत एव वचनात् यदिन्द्रियविषयप्रमाणमुक्तं तदौदारिकशरीरेन्द्रियापेक्षयैव सम्भाव्यते, कथमन्यथा विमानेषु योजनलक्षादिप्रमाणेषु दूरस्थिता देवा घण्टाशब्दं शृणुयुर्यदि परं प्रतिशब्दद्वारेणान्यथा 25 वेति नरभवाशुभत्वं चतुर्थमनागमनकारणमिति, शेषं निगमनम् । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ४१७ आगमनकारणानि प्राय: प्राग्वत् तथापि किञ्चिदुच्यते, कामभोगेष्वमूर्च्छितादिविशेषणो यो देवस्तस्य एवमिति एवंभूतं मनो भवति यदुत अस्ति मे, किन्तदित्याह- आचार्य इति वा आचार्य एतद्वास्ति, इतिः उपप्रदर्शने, वा विकल्पे, एवमुत्तरत्रापि, क्वचिदितिशब्दो न दृश्यते तत्र तु सूत्रं सुगममेवेति, इह च आचार्य: प्रतिबोधकप्रव्राजकादिरनुयोगाचार्यो वा, उपाध्याय: सूत्रदाता, प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु 5 वैयावृत्यादिष्विति प्रवर्ती, प्रवर्त्तिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदत: स्थिरीकरोतीति स्थविरः, गणोऽस्यास्तीति गणी गणाचार्यः, गणधरो जिनशिष्यविशेष: आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेष: समयसिद्धः, गणस्यावच्छेदो देशोऽस्यास्तीति गणावच्छेदिकः, यो हि तं गृहीत्वा गच्छावष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति। इम त्ति इयं प्रत्यक्षासन्ना, एतदेव रूपं यस्या न कालान्तरादावपि रूपान्तरभाक् सा 10 तथा, दिव्या स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा, देवर्द्धिः विमानरत्नादिका, द्यतिः शरीरादिसम्भवा युतिर्वा युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा, लब्धा उपार्जिता जन्मान्तरे, प्राप्ता इदानीमुपनता, अभिसमन्वागता भोग्यावस्थां गता, तं ति तस्मात्तान् भगवतः पूज्यान वन्दे स्तुतिभिः, नमस्यामि प्रणामेन, सत्करोमि आदरकरणेन वस्त्रादिना वा, सन्मानयाम्युचितप्रतिपत्त्या, कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति बुद्ध्या पर्युपासे 15 सेवामीत्येकम् । तथा ज्ञानी श्रुतज्ञानादिनेत्यादि द्वितीयम् । तथा ‘भाया इ वा भजा इ वा भइणी इ वा पुत्ता इ वा धूया इ वे'ति यावच्छब्दाक्षेपः, स्नुषा पुत्रभार्या, तं तस्मात्तेषामन्तिकं समीपं प्रादुर्भवामि प्रकटीभवामि, ता तावत्, मे मम, इमे इति पाठान्तरम्, इति तृतीयम् । तथा मित्रं पश्चात्स्नेहवत्, सखा बालवयस्य:, सुहृत् सज्जनो हितैषी, सहाय: सहचरस्तदेककार्यप्रवृत्तो वा, सङ्गतं विद्यते यस्यासौ सङ्गतिक: 20 परिचितस्तेषाम्, अम्हे त्ति अस्माभिः अन्नमन्नस्स त्ति अन्योन्यं संगारे त्ति सङ्केत: प्रतिश्रुत: अभ्युपगतो भवति स्मेति, जे मे त्ति योऽस्माकं पूर्वं च्यवते देवलोकात् स सम्बोधयितव्य इति चतुर्थम्, इदं च मनुष्यभवे कृतसङ्केतयोरेकस्य पूर्वलक्षादिजीविषु भवनपत्यादिषूत्पद्य च्युत्वा च नरतयोत्पन्नस्याऽन्य: पूर्वलक्षादि जीवित्वा सौधादिषूत्पद्य सम्बोधनार्थं यदेहागच्छति तदाऽवसेयमिति । इत्येतैरित्यादि निगमनमिति । 25 १. जे मित्ति खं० । जे मोत्ति पा० ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ३२४] चउहिं ठाणेहिं लोगंधगारे सिया, तंजहा-अरहंतेहिं वोच्छिजमाणेहिं, अरहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिजमाणे, पुव्वगते वोच्छिज्जमाणे, जायतेजे वोच्छिज्जमाणे । चउहिं ठाणेहिं लोउज्जोते सिता, तंजहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं, अरहंतेहिं 5 पव्वयमाणेहिं, अरहंताणं णाणुप्पयमहिमासु, अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु। एवं देवंधगारे देवुजोते देवसंनिवाते देवुक्कुलिता देवकहकहते । चउहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोगं हव्वमागच्छंति, एवं जधा तिट्ठाणे, जाव लोगंतिता देवा माणुसं लोगं हव्वमाच्छेज्जा, तंजहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं जाव अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु । [टी०] अनन्तरं देवागम उक्तस्तत्र तत्कृतोड्योतो भवतीति तद्विपक्षमन्धकारं लोके आह- चउहीत्यादि व्यक्तम्, किन्तु लोकेऽन्धकारं तमिदं द्रव्यतो भावतश्च पदत्रये स्यात्, सम्भाव्यते ह्यर्हदादिव्यवच्छेदे द्रव्यतोऽन्धकारम्, उत्पातरूपत्वात् तस्य, छत्रभङ्गादौ रजउद्घातादिवदिति, वह्निव्यवच्छेदेऽन्धकारं द्रव्यत एव तथास्वभावात् दीपादेरभावाद्वा, भावतोऽपि वा, एकान्तदुःषमादावागमादेरभावादिति । 15 पूर्वं देवागम उक्तः, अतो देवाधिकारवन्तमा दु:खशय्यासूत्रात् सूत्रप्रपञ्चमाह चउहीत्यादि, सुगमश्चायम्, नवरं लोकोझ्योतश्चतुर्ध्वपि स्थानेषु देवागमात्, जन्मादित्रये तु स्वरूपेणापि, एवमिति यथा लोकान्धकार तथा देवान्धकारमपि चतुर्भि: स्थानैः, देवस्थानेष्वपि ह्यर्हदादिव्यवच्छेदकाले वस्तुमाहात्म्यात् क्षणमन्धकारं भवतीति, एवं देवोढ्योतोऽर्हतां जन्मादिष्विति, देवसन्निपातो देवसमवायः, एवमेव देवोत्कलिका 20 देवलहरिः, एवमेव देवकहकहे त्ति देवप्रमोदकलकल: । एवमेव देवेन्द्रा मनुष्यलोकमागच्छेयुः अर्हतां जन्मादिष्वेवेति यथा त्रिस्थानके प्रथमोद्देशके तथा देवेन्द्रागमनादीनि लोकान्तिकसूत्रावसानानि वाच्यानि, केवलमिह परिनिर्वाणमहिमास्विति चतुर्थमिति । [सू० ३२५] [१] चत्तारि दुहसेजाओ पन्नत्ताओ, तंजहा तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा, तंजहा-से णं मुंडे भवित्ता अगारातो १. सू० १४२ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ४१९ अणगारितं पव्वतिते निग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितिगिंच्छिते भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने निग्गंथं पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो रोएइ, निग्गंथं पावयणं असद्दहमाणे अपत्तितमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावतं नियच्छति, विणिघातमावजति, पढमा दुहसेजा १ । ___ अहावरा दोच्चा दुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगारातो जाव पव्वतिते 5 सएणं लाभेणं णो तुस्सति, परस्स लाभमासाएति पीहेति पत्थेति अभिलसति, परस्स लाभमासाएमाणे जाव अभिलसमाणे मणं उच्चावयं नियच्छति, विणिघातमावज्जति, दोच्चा दुहसेज्जा २ । अहावरा तच्चा दुहसेजा - से णं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए दिव्वमाणुस्सए कामभोगे आसाएइ जाव अभिलसति, दिव्व-माणुस्सए कामभोगे 10 आसाएमाणे जाव अभिलसमाणे मणं उच्चावयं नियच्छति, विणिघातमावजति, तच्चा दुहसेज्जा ३ । अहावरा चउत्था दुहसेज्जा- से णं मुंडे भवेत्ता जाव पव्वतिते, तस्स णमेवं भवति-जया णं अहमगारवासमावसामि तदा णमहं संवाहण-परिमद्दणगातब्भंग-गातुच्छोलणाई लभामि, जप्पभितिं च णं अहं मुंडे जाव पव्वतिते 15 तप्पभितिं च णं अहं संवाधण जाव गातुच्छोलणाई णो लभामि, से णं संवाधण जाव गातुच्छोलणाई आसाएति जाव अभिलसति, से णं संवाधण जाव गातुच्छोलणाई आसाएमाणे जाव मणं उच्चावतं नियच्छति विणिघायमावज्जति, चउत्था दुहसेज्जा ४ । [२] चत्तारि सुहसेजाओ पन्नत्ताओ, तंजहातत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा - से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वतिए निग्गंथे पावयणे निस्संकिते णिक्कंखिते निव्वितिगिंच्छिए नो भेदसमावन्ने नो कलुससमावन्ने निग्गंथं पावयणं सद्दहति पत्तियति रोतेति, निग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पत्तितमाणे रोतेमाणे नो मणं उच्चावतं नियच्छति, णो विणिघातमावजति, पढमा सुहसेजा १ । 25 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अहावरा दोच्चा सुहसेज्जा - से णं मुंडे जाव पव्वतिते सतेणं लाभेणं तुस्सति, परस्स लाभं णो आसाएति णो पीहेति णो पत्थेति णो अभिलसति, परस्स लाभमणासाएमाणे जाव अणभिलसमाणे नो मणं उच्चावतं णियच्छति, णो विणिघातमावजति, दोच्चा सुहसेज्जा २ ।। 5 अहावरा तच्चा सुहसेजा-से णं मुंडे जाव पव्वतिते दिव्व-माणुस्सए कामभोगे णो आसाएति जाव नो अभिलसति, दिव्व-माणुस्सए कामभोगे अणासाएमाणे जाव अणभिलसमाणे नो मणं उच्चावतं नियच्छति, णो विणिघातमावजति, तच्चा सुहसेज्जा ३ । अहावरा चउत्था सुहसेज्जा- से णं मुंडे जाव पव्वतिते, तस्स णं एवं 10 भवति, जइ ताव अरहंता भगवंतो हट्ठा अरोगा बलिया कल्लसरीरा अन्नयराइं उरालाई कल्लाणाई विउलाई पयताई पग्गहिताई महाणुभागाई कम्मक्खयकरणाई तवोकम्माइं पडिवजंति, किमंग पुण अहं अब्भोवगमिओवक्कमियं वेदणं नो सम्मं सहामि खमामि तितिक्खेमि अहियासेमि, ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं सम्ममसहमाणस्स 15 अक्खममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणधियासेमाणस्स किं मन्ने कज्जति ?, एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जति, ममं च णं अब्भोवगमिओ० जाव सम्म सहमाणस्स जाव अधियासेमाणस्स किं मन्ने कज्जति ?, एगंतसो मे निज्जरा कज्जति, चउत्था सुहसेज्जा ४ । [टी०] पूर्वमहतां जन्मादिव्यतिकरेण देवागम उक्तः, अधुना अर्हतामेव प्रवचनार्थे 20 दुःस्थितस्य साधो: दु:खशय्या इतरस्येतरा भवन्तीति सूत्रद्वयेनाह- चत्तारीत्यादि, चतस्रः चतु:सङ्ख्या दुःखदा: शय्या दुःखशय्याः, ताश्च द्रव्यतोऽतथाविधखट्वादिरूपा: भावतस्तु दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावा: प्रवचनाश्रद्धान १ परलाभप्रार्थन २ कामाशंसन ३ स्नानादिप्रार्थन ४ विशेषिता: प्रज्ञप्ताः । तत्रेति तासु मध्ये से इति स कश्चित् गुरुकर्मा, अथार्थो वा अयम्, स च वाक्योपक्षेपे, प्रवचने शासने, दीर्घत्वं च प्रेकटादित्वादिति, १. 'खट्वारूपाः जे१ खं० ॥ २. दृश्यतां पृ० ७३ पं० ६-७ टि० १ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । शङ्कितः एकभावविषयसंशययुक्तः, काङ्क्षितो मतान्तरमपि साध्वितिबुद्धिः, विचिकित्सितः फलं प्रति शङ्कावान्, भेदसमापन्नो बुद्धेर्द्वैधीभावापन्न एवमिदं सर्वं जिनशासनोक्तमन्यथा वेति, कलुषसमापन्नो नैतदेवमिति विपर्यस्त इति, न श्रद्धत्ते सामान्येनैवमिदमिति, नो प्रत्येति प्रतिपद्यते प्रीतिद्वारेण, नो रोचयति अभिलाषातिरेकेणासेवनाभिमुखतयेति, मनः चित्तमुच्चावचम् असमञ्जसं निगच्छति 5 याति, करोतीत्यर्थः, ततो विनिघातं धर्मभ्रंशं संसारं वा आपद्यते, एवमसौ श्रामण्यशय्यायां दुःखमास्त इत्येका । तथा स्वकेन स्वकीयेन लभ्यते लम्भनं वेति लाभ: अन्नादिरन्नादेर्वा, तेन आशां करोतीत्याशयति स नूनं मे दास्यतीत्येवमिति आस्वादयति वा लभते चेत् भुङ्क्त एव, स्पृहयति वाञ्छ्यति, प्रार्थयति याचते, अभिलषति लब्धेऽप्यधिकतरं वाञ्छतीत्यर्थः, शेषमुक्तार्थम्, एवमप्यसौ दुःखमास्त 10 इति द्वितीया। तृतीया कण्ठ्या । अगारवासो गृहवासस्तमावसामि तत्र वर्ते, सम्बाधनं शरीरस्यास्थिसुखत्वादिना नैपुण्येन मर्द्दनविशेष:, परिमर्द्दनं तु पिष्टादेर्मलनमात्रम्, परिशब्दस्य धात्वर्थमात्रवृत्तित्वात्, गात्राभ्यङ्गः तैलादिनाऽङ्गम्रक्षणम्, गात्रोत्क्षालनम् अङ्गधावनमेतानि लभे, न कश्चित् निषेधयतीति, शेषं कण्ठ्यमिति चतुर्थी । दुःखशय्याविपरीताः सुखशय्याः प्रागिवावगम्याः, नवरं हट्ठ त्ति शोकाभावेन हृष्टा 15 इव हृष्टाः, अरोगा ज्वरादिवर्जिताः, बलिकाः प्राणवन्तः, कल्यशरीराः पटुशरीराः, अन्यतराणि अनशनादीनां मध्ये एकतराणि उदाराणि आशंसादोषरहिततयोदारचित्तयुक्तानि कल्याणानि मङ्गलस्वरूपत्वात् विपुलानि बहुदिनत्वात् प्रयतानि प्रकृष्टसंयमयुक्तत्वात् प्रगृहीतानि आदरप्रतिपन्नत्वात् महानुभागानि अचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् ऋद्धिविशेषकारणत्वात्, कर्मक्षयकरणानि मोक्षसाधकत्वात्, 20 तप:कर्माणि तपःक्रियाः प्रतिपद्यन्ते आश्रयन्ति, किमंग पुण त्ति किं प्रश्ने, अङ्गेत्यात्मामन्त्रणेऽलङ्कारे वा, पुनरिति पूर्वोक्तार्थवैलक्षण्यदर्शने, शिरोलोचब्रह्मचर्यादीनामभ्युपगमे भवा आभ्युपगमिकी, उपक्रम्यतेऽनेनायुरित्युपक्रमो ज्वराऽतीसारादिस्तत्र भवा या सौपक्रमिकी, सा चासौ सा चेति आभ्युपगमिकौपक्रमिकी, तां वेदनां दुःखं सहामि तदुत्पत्तावविमुखतया अस्ति च सहिरवैमुख्यार्थे यथाऽसौ 25 " ४२१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे भटस्तं भटं सहते, तस्मान्न भज्यत इति भावः, क्षमे आत्मनि परे वाऽविकोपतया, तितिक्षामि अदैन्यतया, अध्यासयामि सौष्ठवातिरेकेण तत्रैव वेदनायामवस्थानं करोमीत्यर्थः, एकार्था वैते शब्दा:, किं मन्ने त्ति मन्ये निपातो वितर्कार्थः, क्रियते भवतीत्यर्थः, एगंतसो त्ति एकान्तेन सर्वथेत्यर्थ इति । 5 [सू० ३२६] चत्तारि अवातणिजा पन्नत्ता, तंजहा-अविणीते, वीईपडिबद्धे, अविओसवितपाहुडे, मायी १ । ___ चत्तारि वातणिज्जा पन्नत्ता, तंजहा-विणीते, अवितीपडिबद्ध, वितोसवितपाहुडे, अमाती २ ।। [टी०] एते च दुःख-सुखशय्यावन्तो निर्गुणाः सगुणाश्च, अतस्तद्विशेषाणामेव 10 वाचनीयावाचनीयत्वदर्शनाय सूत्रद्वयं कण्ठ्यम्, नवरं वीइ त्ति विकृति: क्षीरादिका । अव्यवशमितप्राभृत इति प्राभृतम् अधिकरणकारी कोप इति । [सू० ३२७] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-आतंभरे नाममेगे नो परंभरे, परंभरे नाममेगे नो आतंभरे, एगे आतंभरे वि परंभरे वि, एगे नो आतंभरे नो परंभरे । 15 चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-दुग्गए नाममेगे दुग्गए, दुग्गते नाममेगे सुग्गते, सुग्गते नाममेगे दुग्गते, सुग्गते नाममेगे सुग्गते । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-दुग्गते नाममेगे दुव्वए, दुग्गते नाममेगे सुव्वते, सुग्गते नाममेगे दुव्वते, सुग्गते नाममेगे सुव्वते । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-दुग्गते नाममेगे दुप्पडिताणंदे, दुग्गते 20 नाममेगे सुप्पडिताणंदे ह्व [४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-दुग्गते नाममेगे दुग्गतिगामी, दुग्गते नाममेगे सुग्गतिगामी ह्व [= ४] ।। चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-दुग्गते नाममेगे दुग्गतिं गते, दुग्गते नाममेगे सुग्गतिं गते ह [= ४] । १. वा विकोपतया इति पाठो जे१ खं० पामू० मध्ये वर्तते, ततो 'विकोपतया' इति पाठस्य स्वीकारे 'विगतकोपतया' इत्यर्थो ज्ञेयः ॥ २. निर्गुणसगुणा: अत खं० पा० ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ४२३ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-तमे नाममेगे तमे, तमे नाममेगे जोती, जोती णाममेगे तमे, जोती णाममेगे जोती । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-तमे नाममेगे तमबले, तमे नाममेगे जोतीबले, जोती नाममेगे तमबले, जोती नाममेगे जोतीबले । चत्तारि पुरिसजाता, पन्नत्ता, तंजहा-तमे नाममेगे तमबलपलजणे, तमे 5 नाममेगे जोतीबलपलजणे ह्व [= ४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-परिन्नातकम्मे णाममेगे नो परिन्नातसन्ने, परिन्नातसन्ने णाममेगे णो परिन्नातकम्मे, एगे परिन्नातकम्मे वि ह [ ४]। चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-परिन्नातकम्मे णाममेगे नो परिन्नातगिहावासे, परिन्नायगिहावासे णामं एगे णो परिन्नातकम्मे ह [= ४]। 10 चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-परिन्नातसन्ने णाममेगे नो परिन्नातगिहावासे, परिन्नातगिहावासे णामं एगे ह्व [= ४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-इहत्थे णाममेगे नो परत्थे, परत्थे नाममेगे नो इहत्थे ह [= ४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-एगेणं णाममेगे वडति एगेणं हायति, 15 एगेणं णाममेगे वड्डइ दोहिं हायति, दोहिं णाममेगे वहति एगेणं हातति, दोहिं नाममेगे वडति दोहिं हायति । [टी०] अनन्तरं वाचनीयावाचनीया: पुरुषा उक्ता इति पुरुषाधिकारात् तद्विशेषप्रतिपादनपरं चतुर्भङ्गिकाप्रतिबद्धं सूत्रप्रबन्धमाह- चत्तारीत्यादि। आत्मानं बिभर्ति पुष्णातीत्यात्मम्भरिः, प्राकृतत्वादायंभरे, तथा परं बिभर्तीति परम्भरिः, प्राकृतत्वात् 20 परंभरे इति, तत्र प्रथमभङ्गे स्वार्थकारक एव, स च जिनकल्पिकः । द्वितीय: परार्थकारक एव, स च भगवानहन्, तस्य विवक्षया सकलस्वार्थसमाप्ते: परप्रधानप्रयोजनप्रापणप्रवणप्राणितत्वात् । तृतीये स्व-परार्थकारी, स च स्थविरकल्पिक: विहितानुष्ठानत: १. एगे णाम एगेण वट्ठति एगेण हायति, एगे णामं एगे वहति दोहिं हायति भां० ॥ २. दोहिं नामं एगे हायति दोहिं वड्डति भां० ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे स्वार्थकरत्वाद्विधिवत् सिद्धान्तदेशनातश्च परार्थसम्पादकत्वात् । चतुर्थे तूभयानुपकारी, स च मुग्धमति: कश्चिद् यथाच्छन्दो वेति । एवं लौकिकपुरुषोऽपि योजनीय: । उभयानुपकारी च दुर्गत एव स्यादिति दुर्गतसूत्रम्, दुर्गतो दरिद्रः, पूर्वं धनविहीनत्वात् ज्ञानादिरत्नविहीनत्वाद्वा पश्चादपि तथैव दुर्गत एवेति, अथवा दुर्गतो द्रव्यत: पुनर्दुगतो 5 भावत इति प्रथम:, एवमन्ये त्रयः, नवरं सुगतो द्रव्यतो धनी भावतो ज्ञानादिगुणवानिति। दुर्गत: कोऽपि व्रती स्यादिति दुव्रतसूत्रम्, दुर्गतो दरिद्रः, दुव्रत: असम्यग्वतोऽथवा दुर्व्यय: आयानपेक्षव्यय: कुस्थानव्ययो वेत्येकः, अन्यो दुर्गतः सन् सुव्रतो निरतिचारनियम:, सुव्ययो वौचित्यप्रवृत्तेरिति, इतरौ प्रतीतौ। दुर्गतस्तथैव, दुष्प्रत्यानन्दः उपकृतेन कृतमुपकारं यो नाभिमन्यते, यस्तु मन्यते तं स सुप्रत्यानन्द इति । 10 दुर्गतो दरिद्रः सन् दुर्गतिं गमिष्यतीति दुर्गतिगामीत्येवमन्येऽपि, नवरं सुगति गमिष्यतीति सुगतिगामी । सुगत: ईश्वर इति । दुर्गतस्तथैव, दुर्गतिं गतः यात्राजनकुपिततन्मारणप्रवृत्तद्रमकवत्, एवमन्ये त्रयः । तम इव तम: पूर्वमज्ञानरूपत्वादप्रकाशत्वाद्वा पश्चादपि तम एवेत्येकः, अन्यस्तु तमः पूर्वम्, पश्चाज्ज्योतिरिव ज्योतिरुपार्जितज्ञानत्वात् प्रसिद्धिप्राप्तत्वाद्वा, शेषौ सुज्ञानौ। 15 तम: कुकर्मकारितया मलिनस्वभावः, तम: अज्ञानं बलं सामर्थ्य यस्य, तम: अन्धकारं वा तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा, असदाचारवानज्ञानी रात्रिचरो वा चौरादिरित्येकः। तथा तमस्तथैव, ज्योति: ज्ञानं बलं यस्य, आदित्यादिप्रकाशो वा ज्योतिस्तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा, अयं चासदाचारो ज्ञानवान् दिनचारी वा चौरादिरिति द्वितीयः। ज्योति: सत्कर्मकारितयोज्ज्वलस्वभावः, तमोबलस्तथैव, अयं च सदाचारवान् 20 [अ?]ज्ञानी कारणान्तराद्वा रात्रिचर इति तृतीयः । चतुर्थः सुज्ञान:, अयं च सदाचारवान् ज्ञानी दिनचरो वेति । ___ तथा तमस्तथैव, तमबलपलज्जणे त्ति तमो मिथ्याज्ञानम् अन्धकारं वा तदेव बलं तत्र, अथवा तमसि उक्तरूपे बले च सामर्थ्य प्ररज्यते रतिं करोतीति तमोबलप्ररञ्जन:, एवं ज्योतिर्बलप्ररञ्जनोऽपि, नवरं ज्योतिः सम्यग्ज्ञानमादित्यादिप्रकाशो वेति, १. 'अयं च सदाचारवान् अज्ञानी, ज्ञानी कारणान्तराद्वा रात्रिचरः' इत्यपि पाठोऽत्र संभवेत् ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२७] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । एवमितरावपि, इहापि त एव पूर्वसूत्रोक्ताः पुरुषविशेषाः प्ररञ्जनविशेषिता: द्रष्टव्याः । अथवा तमस्तथैवाप्रसिद्धो वा तमोबलेन अन्धकारबलेन सञ्चरन् प्रलज्जते इति तमोबलप्रलज्जनः प्रकाशचारी, एवमितरेऽपि, नवरं द्वितीयोऽन्धकारचारी, तृतीयः प्रकाशचारी, चतुर्थः कुतोऽपि कारणादन्धकारचार्येवेति । पज्जलणे त्ति क्वचित्पाठः, तत्राज्ञानबलेनान्धकारबलेन वा ज्ञानबलेन प्रकाशबलेन वा प्रज्वलति दर्पितो 5 भवत्यवष्टम्भं करोति यः स तथेति । परिज्ञातानि ज्ञपरिज्ञया स्वरूपतोऽवगतानि प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृतानि कर्माणि कृष्यादीनि येन स परिज्ञातकर्मा, नो न च परिज्ञाता: संज्ञा आहारसंज्ञाद्या येन स परिज्ञातसंज्ञः, अभावितावस्थः प्रव्रजितः श्रावको वेत्येकः । परिज्ञातसंज्ञः सद्भावनाभावितत्वात्, न परिज्ञातकर्म्मा कृष्याद्यनिवृत्तेः श्रावक इति द्वितीयः । तृतीयः साधुश्चतुर्थोऽसंयत इति । परिज्ञातकर्मा सावद्यकरण- 10 कारणा-ऽनुमतिनिवृत्तः कृष्यादिनिवृत्तो वा न परिज्ञातगृहावासोऽप्रव्रजित इत्येकः । अन्यस्तु परिज्ञातगृहावासो न त्यक्तारम्भो दुष्प्रव्रजित इति द्वितीयः । तृतीयः साधुश्चतुर्थोऽसंयतः । त्यक्तसंज्ञो विशिष्टगुणस्थानकत्वादत्यक्तगृहावासो गृहस्थत्वादेकः १, अन्यस्तु परिहृतगृहावासो यतित्वादभावितत्वान्न परिहृतसंज्ञः २, अन्य उभयथा ३, अन्यो 15 नोभयथेति । इहैव जन्मन्यर्थः प्रयोजनं भोगसुखादि आस्था वा इदमेव साध्विति बुद्धिर्यस्य स इहार्थ इहास्थो वा भोगपुरुष इहलोकप्रतिबद्धो वा १, परत्रैव जन्मान्तरे अर्थ आस्था वा यस्य स परार्थः परास्थो वा साधुर्बालतपस्वी वा २, इह च परत्र च यस्यार्थ आस्था वा स सुश्रावक उभयप्रतिबद्धो वा ३, उभयप्रतिषेधवान् सौकरिकादिर्मूढो वेति ४। 20 अथवा इहैव विवक्षिते ग्रामादौ तिष्ठतीति इहस्थस्तत्प्रतिबन्धान्न परस्थः १, अन्यस्तु परत्र प्रतिबन्धात् परस्थः २, अन्यस्तूभयस्थः ३, अन्यः सर्वाप्रतिबद्धत्वादनुभयस्थः साधुरिति ४। एकेनेति श्रुतेन एकः कश्चिद्वर्द्धते, एकेनेति सम्यग्दर्शनेन हीयते, यथोक्तम् १. इहैव च जन्म १ ॥ -A-12 ४२५ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जह जह बहुस्सुओ संमओ य सीसगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धतपडिणीओ॥ [सम्मति० ३६६] इत्येकः । तथा एकेन श्रुतेनैवान्यो वर्द्धते, द्वाभ्यां सम्यग्दर्शन-विनयाभ्यां हीयते इति द्वितीयः। द्वाभ्यां श्रुता-ऽनुष्ठानाभ्यामन्यो वर्द्धते, एकेन सम्यग्दर्शनेन हीयते इति तृतीयः । 5 द्वाभ्यां श्रुता-ऽनुष्ठानाभ्यामन्यो वर्द्धते, द्वाभ्यां सम्यग्दर्शन-विनयाभ्यां हीयत इति चतुर्थः। अथवा ज्ञानेन वर्द्धते रागेण हीयते इत्येकः, अन्यो ज्ञानेन वर्द्धते राग-द्वेषाभ्यां हीयते इति द्वितीय:, अन्यो ज्ञान-संयमाभ्यां वर्द्धते रागेण हीयते इति तृतीय:, अन्यो ज्ञान-संयमाभ्यां वर्द्धते राग-द्वेषाभ्यां हीयत इति चतुर्थः । अथवा क्रोधेन वर्द्धते मायया हीयते, कोपेन वर्द्धते माया-लोभाभ्यां हीयते, क्रोध-मानाभ्यां वर्द्धते मायया हीयते, 10 क्रोध-मानाभ्यां वर्द्धते माया-लोभाभ्यां हीयत इति । [सू० ३२८] चत्तारि पकंथका पन्नत्ता, तंजहा-आइन्ने नाममेगे आइन्ने, आइन्ने नाममेगे खुलुंके, खुलुंके नाममेगे आइन्ने, खुलुंके नाममेगे खुलुके। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-आइन्ने नाममेगे आइन्ने, चउभंगो। चत्तारि पकंथगा पन्नत्ता, तंजहा-आतिन्ने नाममेगे आतिन्नत्ताते वहति, 15 आतिन्ने नाममेगे खुलुंकत्ताते विहरति ह [= ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-आइन्ने नाममेगे आइन्नत्ताए वहति, चउभंगो । चत्तारि पकंथगा पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने नाममेगे णो कुलसंपन्ने ह [= ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने नाममेगे चउभंगो । 20 चत्तारि कंथगा पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने नाममेगे णो बलसंपन्ने ह [= ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने नाममेगे णो बलसंपन्ने ह [= ४] । १. “यथा यथा बहुश्रुतः सम्यगपरिभावितार्थानेकशास्त्रश्रवणमात्रतः तथाविधाऽपराऽविदितशास्त्राभिप्रायजनसंमतश्च शास्त्रज्ञत्वेन अत एव श्रुतविशेषानभिज्ञैः शिष्यगणैः समन्तात् परिवृतश्च अविनिश्चितश्च समये तथाविधपरिवारदात् समयपर्यालोचनेऽनादृतत्वात् तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्रकाशकार्हदागमप्रतिपक्षः निस्सारप्ररूपणया अन्यागमेभ्योऽपि भगवदागममधः करोतीति यावत्" ॥३॥६६॥ २. चत्तारि कंथका भां० ।। ३. आइण्णयाए क० ॥ ४. विहरति भां० विना ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३२८-३२९] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ४२७ चत्तारि कंथगा पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपन्ने ह्व [= ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने ह्व [= ४] । चत्तारि कंथगा पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने ह्व [ ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-जातिसंपन्ने ह्व [= ४] । 5 एवं कुलसंपन्नेण त बलसंपन्नेण त ४, कुलसंपन्नेण त रूवसंपन्नेण त ह [= ४], कुलसंपन्नेण त जयसंपन्नेण त ह [= ४], एवं बलसंपन्नेण त रूवसंपन्नेण त ह [= ४], बलसंपन्नेण त जयसंपन्नेण त ह [= ४] । सव्वत्थ पुरिसजाता पडिवक्खो । __ चत्तारि कंथगा पन्नत्ता, तंजहा-रूवसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने ४, 10 एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-रूवसंपन्ने नाममेगे णो जयसंपन्ने ४ । [टी०] प्रकन्थकाः, पाठान्तरत: कन्थका वा अश्वविशेषाः । आकीर्णो व्याप्तो जवादिगुणैः पूर्वं पश्चादपि तथैव, अन्यस्त्वाकीर्ण: पूर्वं पश्चात् खुलुङ्को गलिरविनीत इति, अन्यः पूर्वं खुलुङ्कः पश्चादाकीर्णो गुणवानिति, चतुर्थः पूर्वं पश्चादपि खुलुङ्क 15 एवेति । आकीर्णो गुणवान् आकीर्णतया गुणवत्तया विनय-वेगादिभिरित्यर्थः, वहति प्रवर्त्तते, विहरतीति पाठान्तरम्, आकीर्णोऽन्यः, आरोहदोषेण खुलुङ्कतया गलितया वहति, अन्यस्तु खुलुङ्कः आरोहकगुणात् आंकीर्णतया वहति, चतुर्थः प्रतीत:, सूत्रद्वयेऽपि पुरुषा दार्टान्तिका योज्या:, सूत्रे तु क्वचिनोक्ता:, विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति, जाति ४ कुल ३ बल २ रूप १ जयपदेषु देशभिर्द्विकसंयोगैर्दशैव प्रकन्थक- 20 दृष्टान्तचतुर्भङ्गीसूत्राणि, प्रत्येकं तान्येवानुसरन्ति दश दार्टान्तिकपुरुषसूत्राणि भवन्तीति, . नवरं जय: पराभिभव इति ।। [सू० ३२९] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-सीहत्ताते णाममेगे निक्खंते १. आकीर्णगुणतया पा० ।। २. १ जाति० कुल०, २ जाति० बल०, ३ जाति० रूप०, ४ जाति० जय०। १ कुल० बल०, २ कुल० रूप०, ३ कुल० जय० । १ बल० रूप०, २ बल० जय० । १ रूप० जय० इति पञ्चसु पदेषु दश द्विकसंयोगाः ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सीहत्ताते विहरइ, सीहत्ताते नाममेगे निक्खंते सियालत्ताए विहरड़, सियालत्ताए नाममेगे निक्खते सीहत्ताए विहरड़, सियालत्ताए नाममेगे निक्खते सियालत्ताए विहरs | [टी०] सिंहतया ऊर्जवृत्त्या निष्क्रान्तो गृहवासात् तथैव च विहरति उद्यतविहारेणेति । 5 शृगालतया दीनवृत्त्येति । 10 ४२८ [सू० ३३०] चत्तारि लोगे समा पन्नत्ता, तंजहा - अप्पतिट्ठाणे नरए, जंबूदी दीवे, पालते जाणविमाणे, सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे १ । चत्तारि लोगे समा सपक्खिं सपडिदिसिं पन्नत्ता, तंजहा - सीमंतए नरए, समयक्खेत्ते, उडुविमाणे, ईसीपब्भारा पुढवी २ । [टी०] पूर्वं पुरुषाणामश्वादिभिर्जात्यादिगुणेन समतोक्ता, अधुना अप्रतिष्ठानादीनां तामेव प्रमाणत आह— चत्तारीत्यादि सूत्रद्वयं प्रायो व्याख्यातार्थं तथाप्युच्यते, अप्रतिष्ठानो नरकावासः सप्तम्यां नरकपृथिव्यां पञ्चानां कालादीनां नरकावासानां मध्यवर्त्ती सच योजनलक्षम् | पालकं पालकदेवनिर्मितं सौधर्मेन्द्रसम्बन्धि यानञ्च तद्विमानञ्च यानाय वा गमनाय विमानं यानविमानम्, न तु शाश्वतमिति । सर्वार्थ सिद्धं 15 पञ्चानामनुत्तरविमानानां मध्यममिति 25 चत्वारो लोके समा भवन्ति, कथमित्याह -- सपक्खिं सपडिदिसिं ति समाना: पक्षाः पार्श्वा दिशो यस्मिन् तत् सपक्षम्, इहेकार: प्राकृतत्वेन, तथा समाना: प्रतिदिशो विदिशो यस्मिंस्तत् सप्रतिदिक्, तद् यथा भवत्येवं समा भवन्तीति, सदृशाः पक्षैरिति सपक्षमित्यव्ययीभावो वेति, पृथु - सङ्कीर्णयोर्हि द्रव्ययोरधउपरिविभागेन 20 स्थितयोस्तुल्यमानयोर्वा विषमताव्यवस्थितयोर्न समा दिशो विदिशश्च भवन्तीत्यत्यन्तसमताख्यापनार्थमिदं विशेषणद्वयमिति । सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाण इति । समयः कालस्तदुपलक्षितं क्षेत्र समयक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः । उडुविमानं सौधर्मे प्रथमप्रस्तट एवेति । ईषद् अल्पो रत्नप्रभाद्यपेक्षया प्राग्भारः उच्छ्रयादिलक्षणो यस्यां सेषत्प्राग्भारा । [सू० ३३१] उड्डलोगे णं चत्तारि बिसरीरा पन्नत्ता, तंजहा - पुढविकाइया, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३३३-३३१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ४२९ आउ [काइया], वणस्सति [काइया], उराला तसा पाणा । अहेलोगे णं चत्तारि बिसरीरा पन्नत्ता, तंजहा-एवं चेव । एवं तिरियलोए वि ४ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते। चत्तारि सेज्जपडिमाओ पन्नत्ताओ १। चत्तारि वत्थपडिमाओ पन्नत्ताओ २॥ चत्तारि पातपडिमाओ पन्नत्ताओ ३॥ चत्तारि ठाणपडिमाओ पन्नत्ताओ ४। 5 [टी०] ईषत्प्राग्भारा ऊर्ध्वलोके भवतीति ऊर्ध्वलोकप्रस्तावादिदमाह- उड्ढेत्यादि, द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः, एकं पृथिवीकायिकादिशरीरमेव द्वितीयं जन्मान्तरभावि मनुष्यशरीरं ततस्तृतीयं केषाञ्चिन्न भवत्यनन्तरमेव सिद्धिगमनात् । ओराला तस त्ति उदारा: स्थूला द्वीन्द्रियादयो न तु सूक्ष्मास्तेजोवायुलक्षणा:, तेषामनन्तरभवे मानुषत्वाप्राप्त्या सिद्धिर्न भवतीति शरीरान्तरसम्भवात् । तथोदारत्रसग्रहणेन 10 द्वीन्द्रियादिप्रतिपादनेऽपीह द्विशरीरतया पञ्चेन्द्रिया एव ग्राह्या:, विकलेन्द्रियाणामनन्तरभवे सिद्धेरभावाद्, उक्तं च- विगला लभेज विरइं ण हु किंचि लभेज सुहुमतसा [बृहत्सं० २९७] इति। लोकसम्बन्धायाते अधोलोक-तिर्यग्लोकयोरतिदेशसूत्रे गतार्थे इति । तिर्यग्लोकाधिकारात् तदुद्भवं संयतादिपुरुषं भेदैराह- चत्तारीत्यादि, ह्रिया लज्जया सत्त्वं परीषहादिसहने रणाङ्गणे वा अवष्टम्भो यस्य स ह्रीसत्त्वः । तथा ह्रिया हसिष्यन्ति 15 मामुत्तमकुलजातं जना इति लज्जया मनस्येव, न काये रोमहर्ष-कम्पादिभयलिङ्गोपदर्शनात्, सत्त्वं यस्य स ह्रीमनःसत्त्वः । चलम् अस्थिरं परीषहादिसम्पाते ध्वंसात् सत्त्वं यस्य स चलसत्त्व: । एतद्विपर्ययात् स्थिरसत्त्व इति। स्थिरसत्त्वोऽनन्तरमुक्तः, स चाभिग्रहान् प्रतिपद्य पालयतीति दर्शनाय सूत्रचतुष्टयमिदम्चत्तारि सिज्जेत्यादि सुगमम्, नवरं शय्यते यस्यां सा शय्या संस्तारकः, तस्या: प्रतिमा 20 अभिग्रहा: शय्याप्रतिमाः, तत्रोद्दिष्ट फलकादीनामन्यतमत् ग्रहीष्यामि नेतरदित्येका, यदेव प्रागुद्दिष्टं तदेव यदि द्रक्ष्यामि तदा तदेव ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्वितीया, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत आनीय तत्र शयिष्य इति तृतीया, तदपि फलकादिकं यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि नान्यथेति चतुर्थी, १. तदर्श जे२ । तदर्श पामू०, तद्दर्श पासं० ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोर्गच्छनिर्गतानामग्रहः, उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तर्गतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्त इति । वस्त्रप्रतिमा वस्त्रग्रहणविषये प्रतिज्ञाः, कार्पासिकादीत्येवमुद्दिष्टं वस्त्रं याचिष्ये इति प्रथमा, तथा प्रेक्षितं वस्त्रं याचिष्ये नापरमिति द्वितीया, तथाऽऽन्तरपरिभोगेनोत्तरीयपरिभोगेन 5 वा शय्यातरेण परिभुक्तप्रायं वस्त्रं ग्रहीष्यामीति तृतीया, तथा तदेवोत्सृष्टधर्मकं ग्रहीष्यामीति चतुर्थी। पात्रप्रतिमा उद्दिष्टं दारुपात्रादि याचिष्ये १, तथा प्रेक्षितम् २, तथा दातुः स्वाङ्गिकं परिभुक्तप्रायं द्वि-त्रेषु वा पात्रेषु पर्यायेण परिभुज्यमानं पात्रं याचिष्य इति तृतीया, उज्झितधर्मकमिति चतुर्थी। 10 स्थानं कायोत्सर्गाद्यर्थ आश्रयः, तत्र प्रतिमा: स्थानप्रतिमाः, तत्र कस्यचिद् भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति यथा-अहमचित्तं स्थानमुपाश्रयिष्यामि तत्र चाऽऽकुञ्चनप्रसारणादिकां क्रियां करिष्ये, तथा किञ्चिदचित्तं कुड्यादिकमवलम्बयिष्ये, तथा तत्रैव स्तोकपादविहरणं समाश्रयिष्यामीति प्रथमा प्रतिमा, द्वितीया त्वाकु ञ्चन प्रसारणादिक्रियामवलम्बनं च करिष्ये न पादविहरणमिति, तृतीया त्वाकुञ्चन-प्रसारणमेव 15 नावलम्बन-पादविहरणे इति, चतुर्थी पुनर्यत्र त्रयमपि न विधत्ते । [सू० ३३२] चत्तारि सरीरगा जीवफुडा पन्नत्ता, तंजहा-वेउव्विए, आहारए, तेयए, कम्मए १॥ चत्तारि सरीरगा कम्मुम्मीसगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिए, वेउव्विए, आहारए, तेयए २॥ [टी०] अनन्तरं शरीरचेष्टानिरोध उक्त इति शरीरप्रस्तावादिदं सूत्रद्वयं चत्तारीत्यादि 20 व्यक्तम्, किन्तु जीवेन स्पृष्टानि व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि, जीवेन हि स्पृष्टान्येव वैक्रियादीनि भवन्ति, न तु यथा औदारिकं जीवमुक्तमपि भवति मृतावस्थायां तथैतानीति, कम्मुम्मीसग त्ति कार्मणेन शरीरेणोन्मिश्रकाणि न केवलानि, यथौदारिकादीनि त्रीणि वैक्रियादिभिरमिश्राण्यपि भवन्ति नैवं कार्मणेनेति भावः । [सू० ३३३] चउहिं अत्थिकाएहिं लोगे फुडे पन्नत्ते, तंजहा-धम्मत्थिकाएणं, 25 अधम्मत्थिकाएणं, जीवत्थिकाएणं, पोग्गलत्थिकाएणं । चउहिं बादरकातेहिं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३३३-३३४] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ४३१ उववजमाणेहिं लोगे फुडे पन्नत्ते, तंजहा-पुढविकाइएहिं आ[काइएहिं] वाउ[काइएहिं], वणस्सइकाइएहिं । [टी०] शरीराणि कार्मणेनोन्मिश्राणीत्युक्तमुन्मिश्राणि च स्पृष्टान्येवेति स्पृष्टप्रस्तावात् सूत्रद्वयं चउहीत्यादि गतार्थम्, केवलं फुडे त्ति स्पृष्टः प्रतिप्रदेशं व्याप्त:, सूक्ष्माणां पञ्चानामपि सर्वलोकात् सर्वलोके उत्पादात् बादरतैजसानां तु सर्वलोकादुवृत्य मनुष्यक्षेत्रे 5 ऋजुगत्या वक्रगत्या वोत्पद्यमानानां द्वयोरूर्ध्वकपाटयोरेव बादरतेजस्त्वव्यपदेशस्येष्टत्वाच्च चउहिं बादरकाएहिं इत्युक्तम्, बादरा हि पृथिव्यम्बु-वायु-वनस्पतय: सर्वतो लोकादुहृत्य पृथिव्यादि-घनोदध्यादि-घनवातवलयादि-घनोदध्यादिषु यथास्वमुत्पादस्थानेष्वन्यतरगत्योत्पद्यमाना अपर्याप्तकावस्थायामतिबहुत्वात् सर्वलोकं प्रत्येकं स्पृशन्ति, पर्याप्तास्त्वेते बादरतेजस्कायिकास्त्रसाश्च लोकासङ्ख्येयभागमेव 10 स्पृशन्तीति, उक्तं च प्रज्ञापनायाम्- एत्थ णं बादरपुढविकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, तथा बादरपुढविकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं सव्वलोए, एवमब्वायु-वनस्पतीनाम्, तथा बादरतेउकाइयाणं पजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, बादरतेउकाइयाणं अपजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, लोयस्स दोसु उड्डकवाडेसु तिरियलोयतढे य त्ति द्वयोरूर्ध्वकपाटयोरूर्ध्वकपाटस्थतिर्यग्लोके 15 चेत्यर्थः, तिर्यग्लोकस्थालके चेत्यन्ये, तथा कहिन्नं भंते ! सुहुमपुढविकाइयाणं पजत्तगाणं अपजत्तगाण य ठाणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! सुहुमपुढविकाइया जे पजत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावन्नगा पन्नत्ता समणाउसो ! त्ति, एवमन्येऽपि, एवं बेइंदियाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे त्ति, एवं शेषाणामपीति।। 20 - [सू० ३३४] चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पन्नत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे । चउण्हमेगं सरीरं नो सुपस्सं भवइ, तंजहा-पुढविकाइयाणं, आउ[काइयाणं] तेऊ[काइयाणं], वणस्सइकाइयाणं । १. "त्वाच्चरहिं जे१ । 'त्वात् चउहिं जे२ ॥ २. द्वितीयपदे प्रारम्भे ॥ ३. "तट्टे जे२ । 'तडे जेसं१ खंसं०॥ ४. चउण्हं एक्कसरीरं दप्पस्सं भवति भां० ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चत्तारि इंदियत्था पुट्ठा वेदेति, तंजहा-सोतिंदियत्थे, घाणिंदियत्थे, जिभिंदियत्थे, फासिंदियत्थे । चउहिं ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचातेंति बहिया लोगंता गमणताते, तंजहा-गतिअभावेणं, णिरुवग्गहतात. लुक्खताते, लोगाणुभावेणं। 5 [टी०] चतुर्भिर्लोकः स्पृष्ट इत्युक्तमिति लोकप्रस्तावात य धर्मास्तिकायादीनां चान्योन्यं प्रदेशत: समतामाह- चत्तारीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं प्रशाग्रेण प्रदेशपरिमाणेनेति तुल्याः समाः सर्वेषामेषामसङ्ख्यातप्रदेशत्वात् . लोयागासे त्ति आकाशस्यानन्तप्रदेशत्वेन धर्मास्तिकायादिभिः सहाऽतुल्यताप्रसक्तेर्लोकग्रहणम् । एगजीवे त्ति सर्वजीवानामनन्तप्रदेशत्वाद्विवक्षिततुल्यताऽभावप्रसङ्गादेकग्रहणमिति । 10 पूर्वं पृथिव्यादिभिः स्पृष्टो लोक इत्युक्तमिति पृथिव्यादिप्रस्तावादिदमाह - चउण्हमित्यादि कण्ठ्यम्, किन्तु नो पस्सं ति चक्षुषा नो दृश्यमतिसूक्ष्मत्वात्, क्वचित् सुपस्सं ति पाठः, तत्र न सुखदृश्यं न चक्षुःप्रत्यक्षदृश्यमनुमानादिभिस्तु दृश्यमपीत्यर्थः, बादरवायूनां तथा सूक्ष्माणां पञ्चानामपि तदेकमनेकं वा अदृश्यमिति चतुर्णामित्युक्तम्, वनस्पतय इह साधारणा एव ग्राह्या:, प्रत्येकशरीरस्यैकस्यापि दृश्यत्वादिति । पृथिव्यादीनां शरीरस्य चक्षुरिन्द्रियाविषयत्वमुक्तमितीन्द्रियविषयप्रस्तावादिदमाहचत्तारि इंदियेत्यादि स्पष्टम्, किन्तु इन्द्रियैरर्यन्ते अधिगम्यन्त इतीन्द्रियार्थाः शब्दादय:, पुट्ठ त्ति स्पृष्टा: इन्द्रियसम्बद्धा वेएंति त्ति वेद्यन्ते आत्मना ज्ञायन्ते, नयन-मनोवर्जानां श्रोत्रादीनां प्राप्तार्थपरिच्छेदस्वभावत्वादिति, उक्तं च पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुढे तु । 20 गंधं रसं च फासं च बद्धपुढे वियागरे ॥ [आव० नि० ५] इति । अनन्तरं जीव-पुद्गलयोरिन्द्रियद्वारेण ग्राहक-ग्राह्यभाव उक्तोऽधुना तयोर्गतिधर्मी चिन्तयन्नाह- चउहीत्यादि व्यक्तम्, परमन्येषां गतिरेव नास्तीति जीवा य पुग्गला येत्युक्तम्, नो संचाएंति न शक्नुवन्ति, नालम्, बहिय त्ति बहिस्ताल्लोकान्तात् अलोके इत्यर्थः, गमनतायै गमनाय, गन्तुमित्यर्थः । गत्यभावेन लोकान्तात् परतस्तेषां 25 गतिलक्षणस्वभावाभावादधो दीपशिखावत्, तथा निरुपग्रहतया धर्मास्तिकायाभावेन १. पुढे वेदेति भां० ॥ २. बाहिं लोगतां भां० ॥ ३. हत्ताए भां० ॥ ४. चक्षुषः प्रत्यक्ष पा० जे२ ।। ५. दृश्यमेवेत्यर्थः पा० ॥ 15 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३३५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ४३३ तजनितगत्युपष्टम्भाभावात् गन्त्र्यादिरहितपङ्गुवत्, तथा रूक्षतया सिकतामुष्टिवत्, लोकान्तेषु हि पुद्गला रूक्षतया तथा परिणमन्ति यथा परतो गमनाय नालम्, कर्मपुद्गलानां तथाभावे जीवा अपि, सिद्धास्तु निरुपग्रहतयैवेति, लोकानुभावेन लोकमर्यादया विषयक्षेत्रादन्यत्र मार्तण्डमण्डलवदिति । [सू० ३३५] चउव्विहे गाते पन्नत्ते, तंजहा-आहरणे, आहरणतद्देसे, 5 आहरणतद्दोसे, उवन्नासोवणते १ । आहरणे चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-अवाते, उवाते, ठवणाकम्मे, पडुप्पन्नविणासी, २ । आहरणतद्देसे चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-अणुसिट्ठी, उवालंभे, पुच्छा, निस्सावयणे ३ । आहरणतदोसे चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-अधम्मजुत्ते, पडिलोमे, अंतोवणीते, दुरोवणीते ४ । उवन्नासोवणए चउब्विहे पन्नत्ते, तंजहा-तव्वत्थुते, तदन्नवत्थुते, पडिणिभे, हेतू ५ । [टी०] अनन्तरोक्ता अर्था उक्तवन्निदर्शनत: प्राय: प्राणिनां प्रतीतिपथपातिनो भवन्तीति 15 निदर्शनभेदप्रतिपादनाय पञ्चसूत्री । तत्र ज्ञायते अस्मिन् सति दार्टान्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे क्तप्रत्ययोपादानात् ज्ञातं दृष्टान्तः, साधनसद्भावे साध्यस्यावश्यंभाव: साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमभाव इत्युपदर्शनलक्षणः, यदाह साध्येनानुगमो हेतो: साध्याभावे च नास्तिता। ख्याप्यते यत्र दृष्टान्त: स साधर्म्यतरो द्विधा ॥ [प्रमाणसमु० ४।२] इति ।। तत्र साधर्म्यदृष्टान्तोऽग्निरत्र धूमाद्यथा महानसे इति, वैधर्म्यदृष्टान्तस्तु अग्न्यभावे धूमो न भवति यथा जलाशये इति । अथवा आख्यानकरूपं ज्ञातम्, तच्च चरित-कल्पितभेदात् द्विधा, तत्र चरितं यथा निदानं दु:खाय ब्रह्मदत्तस्येव, कल्पितं यथा प्रमादवतामनित्यं यौवनादीति देशनीयम्, यथा पाण्डुपत्रेण किशलयानां देशितम्, तथाहि जह तुब्भे तह अम्हे तुब्भे वि य होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥ [उत्तरा० नि० ३०७] इति । 20 25 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे . अथवोपमानमात्रं ज्ञातं सुकुमार: कर: किशलयमिवेत्यादिवत्, अथवा ज्ञातम् उपपत्तिमात्रं ज्ञानहेतुत्वात्, ‘कस्माद्यवा: क्रीयन्ते ? यस्मान्मुधा न लभ्यन्ते' इत्यादिवदिति, एवमनेकधा साध्यप्रत्यायनस्वरूपं ज्ञातमुपाधिभेदात् चतुर्विधं दर्शयति, तत्र आ अभिविधिना ह्रियते प्रतीतौ नीयते अप्रतीतोऽर्थोऽनेनेत्याहरणम्, यत्र समुदित एव 5 दार्टान्तिकोऽर्थः उपनीयते यथा पापं दु:खाय ब्रह्मदत्तस्येवेति । तथा तस्य आहरणार्थस्य देशस्तद्देशः स चासावुपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्य पूर्वनिपाते आहरणतद्देश इति, भावार्थश्चात्र- यत्र दृष्टान्तार्थदेशेनैव दार्टान्तिकार्थस्योपनयनं क्रियते तत्तद्देशोदाहरणमिति, यथा चन्द्र इव मुखमस्या इति, इह हि चन्द्रे सौम्यत्वलक्षणेनैव देशेन मुखस्योपनयनं नानिष्टेन नयन10 नासावर्जितत्व-कलङ्कादिनेति । ___ तथा तस्यैव आहरणस्य सम्बन्धी साक्षात् प्रसङ्गसम्पन्नो वा दोषस्तद्दोषः, स चासौ धर्मे धर्मिण: उपाचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वेन पूर्वनिपातादाहरणतद्दोष इति, अथवा तस्य आहरणस्य दोषो यस्मिंस्तत्तथा, शेषं तथैव, अयमत्र भावार्थ:-यत् साध्यविकलत्वादिदोषदुष्टं तत् तद्दोषाहरणम्, यथा 'नित्यः शब्दोऽमूर्त्तत्वात्, घटवत्', 15 इह साध्यसाधनवैकल्यं नाम दृष्टान्तदोषः, यच्चासभ्यादिवचनरूपं तदपि तद्दोषाहरणम्, यथा सर्वथाऽहमसत्यं परिहरामि गुरुमस्तककर्त्तनवदिति, यद्वा साध्यसिद्धिं कुर्वदपि दोषान्तरमुपनयति तदपि तदेव, यथा सत्यं धर्ममिच्छन्ति लौकिकमुनयोऽपि... वरं कूपशताद्वापी वरं वापीशतात् क्रतुः ।। वरं क्रतुशतात् पुत्रः सत्यं पुत्रशताद्वरम् ॥ [नारद० १।२१२] इति वचनवक्तृनारदवदिति, 20 अनेन च श्रोतुः पुत्र-क्रतुप्रभृतिषु प्राय: संसारकारणेषु धर्मप्रतीतिराहितेति आहरणतद्दोषतेति, यथा वा 'बुद्धिमता केनापि कृतमिदं जगत्, सन्निवेशविशेषवत्त्वात्, घटवत्, स चेश्वरः' इति, अनेन हि स बुद्धिमान् कुम्भकारतुल्योऽनीश्वरः सिध्यतीति, ईश्वरश्च स विवक्षित इति। ___ तथा वादिना अभिमतार्थसाधनाय कृते वस्तूपन्यासे तद्विघटनाय य: प्रतिवादिना 25 विरुद्धार्थोपनय: क्रियते पर्यनुयोगोपन्यासे वा य उत्तरोपनय: स उपन्यासोपनयः, १. "अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसहस्रात्तु सत्यमेव विशिष्यते ॥१।२११॥ वरं कूपशताद् वापी.... ॥१॥२१२॥” इति नारदस्मृतौ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३३५] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । उत्तररूपमुपपत्तिमात्रमपि ज्ञातभेदो ज्ञानहेतुत्वादिति यथा अकर्त्ताऽऽत्मा अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्युक्ते अन्य आह- आकाशवदेवाऽभोक्तेत्यपि प्राप्तमनिष्टं चैतदिति । यथा वा मांसभक्षणमदुष्टं प्राण्यङ्गत्वादोदनादिवत्, अत्राऽऽहाऽन्यः - ओदनादिवदेव श्वस्वपुत्रादिमांसभक्षणमप्यदुष्टमिति, यथा वा त्यक्तसङ्गा वस्त्र - पात्रादिसङ्ग्रहं न कुर्वन्ति ऋषभादिवत्, अत्राह- कुण्डिकाद्यपि ते न गृह्णन्ति तद्वदेवेति । तथा ' कस्मात् कर्म 5 कुरुषे ? यस्माद् धनार्थी'ति । इह प्रथमं ज्ञातं समग्रसाधर्म्यं द्वितीयं देशसाधर्म्यं तृतीयं सदोषं चतुर्थं प्रतिवाद्युत्तररूपमित्ययमेषां स्वरूपविभाग इति । इह देशत: संवादगाथाचरियं च कप्पियं वा दुविहं तत्तो चउव्विक्वेक्कं । , आहरणे तसे तोसे चेवुवन्नासे ॥ [ दशवै० नि० ५३] इति । अवायेत्ति अपायः अनर्थ:, स यत्र द्रव्यादिष्वभिधीयते यथैतेषु 10 द्रव्यादिविशेषेष्वस्त्यपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषेष्विव, हेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमपाय इति, स च चतुर्धा द्रव्यादिभिः । तत्र द्रव्यात् द्रव्ये वाऽपायो द्रव्यमेव वा तत्कारणत्वादपायो द्रव्यापायः, एतद्धेयतासाधकं एतत्साधकं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते, तत्प्रयोगः- द्रव्यापायः परिहार्यस्तत्र वाऽपायो वर्त्तते, देशान्तरगमनोपार्जितद्रविणयोस्तल्लोभात् 15 परस्परमारणपरिणतयोः स्वग्रामाद् बहिः प्राप्तावनुतापात् हृदत्यक्तमत्स्यगिलिततद्वित्तयोर्मत्स्यबन्धकपार्श्वात् गृहीतस्य तस्य मत्स्यस्य विदारणेऽवाप्ततद्द्रव्यलुब्धभगिन्या मत्स्यच्छेदकशस्त्राभिघातेन तदुद्दालनप्रवृत्तमारितमातृकयोस्तथाविधव्यतिकरदर्शनोत्पन्नसंवेगात् प्रतिपन्नप्रव्रज्ययोर्भ्रातृवणिजोरिव, तत्परिहारश्च प्रव्रज्यया तत्त्यागादिति, आहरणता चास्य देशेनोपनयस्याविवक्षणादिति । तथा क्षेत्रात् क्षेत्रे वा क्षेत्रमेव वाऽपाय: क्षेत्रापायः, शेषं तथैव, एवमुत्तरत्रापि, तत्प्रयोगः- अपायवत् क्षेत्रं वर्जयेत् जरासन्धाभिधानप्रतिवासुदेवात् सम्भावितापायां मथुरानगरीं यथा दशार्हचक्रं वर्जयामासेति, अथवा सम्भवत्यपायः सप्रत्यनीकक्षेत्रे ससर्पगृहवत् । १. गादीति खं० ॥ ४३५ 20 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कालापायो यथा-सापायकालवर्जने यतेत, द्वैपायनो द्वारकामा वर्षद्वादशकाद्धक्ष्यतीति श्रुतनेमिनाथवचनो द्वादशवर्षलक्षणसापायकालपरिजिहीर्षयोत्तरापथप्रवृत्तो द्वैपायनो यथेति, अथवा सापायोऽपि भवति कालो भंद्रादिवदिति । तथा भावापायो यथा भावापायं परिहरेत् महानागवत् नागदत्तक्षुल्लकवद्वेति, तथाहि5 किल कश्चित् क्षपकः प्रस्तुतपारणक: सक्षुल्लकः समारब्धभिक्षार्थभ्रमणक: कथञ्चिन्मारितमण्डूकिक: क्षुल्लकप्रेरितोऽप्रतिपन्नतद्वचन: पुनरावश्यककाले स्मारिततदर्थः समुत्पन्नकोपः क्षुल्लकोपघातायाभ्युत्थितो वेगादागच्छन् स्तम्भ आपतितो मृतो ज्योतिष्केषूत्पन्नोऽनन्तरं च्युतो जातिस्मरदृष्टिविषसप्तयोत्पन्न: सर्पदष्टमृतपुत्रेण च सर्पेषु कुपितेन राज्ञाऽऽदिष्टजनमार्यमाणेषु नागेषु नागविनाशकनरेण केनाप्योषधिबलादाकृष्यमाणो 10 दृष्टकोपविपाकतया च मदृष्टिविषेण मा घातकपुरुषविघातो भवत्विति भावनया पुच्छतो निर्गच्छन् यथानिर्गमं च खण्ड्यमान: कोपलक्षणभावापायं परिहतवानिति, तथा स एवानन्तरं नागदत्ताभिधानराजसुततयोत्पन्नो बालत्व एव प्रतिपन्नप्रव्रज्यो - ऽत्यन्तसंविग्नस्तिर्यग्भवाभ्यासाच्चात्यन्तक्षुधालुरादित्योदयादस्तमयं यावद् भोजनशीलोऽसाधारणगुणावर्जितदेवताभिवन्दितोऽत एव तद्गच्छगतमासादिक्षपक15 चतुष्टयस्याविषयीभूतो विनयार्थं तेषामुपदर्शितस्वार्थानीतभोजन: तैश्च मत्सराद् भोजनमध्यनिष्ठयूतनिष्ठीवनोऽत्यन्तोपशान्तचित्तवृत्तितया यः सञ्जातके वल: पुनर्देवतावन्दितस्तेषामपि क्षपकाणां संवेगहेतुत्वेन केवलज्ञानदर्शनसमृद्धिसम्पादक: कोपरूपं भावापायं परिजहारेति, अथवा कोपादिलक्षणो भावोऽपायो भवति क्षपकस्येवेति, गाथे इह20 दव्वावाए दुन्नि उ वाणियगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणयमेक्कमिक्कं दहम्मि मच्छेण निव्वेओ ॥ खेत्तम्मि अवक्कमणं दसारवग्गस होइ अवरेणं । दीवायणो य काले भावे मंडुक्कियाखमओ ॥ [दशवै० नि० ५५-५६] त्ति । उवाए त्ति उपाय:, उपेयं प्रति पुरुषव्यापारादिका साधनसामग्री, स यत्र द्रव्यादावुपये 25 अस्तीत्यभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेषु साधनीयेष्वस्त्युपायो १. भद्रा = विष्टिकरणम्, ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धः अशुभः कालविशेषः ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३३५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः ।। __ ४३७ विवक्षितद्रव्यादिविशेषवत्, उपादेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमुपाय इति, सोऽपि द्रव्यादिभिश्चतुर्थैव । तत्र द्रव्यस्य सुवर्णादेः प्रासुकोदकादेर्वा द्रव्यमेव वा उपायो द्रव्योपाय:, एतत्साधनमेतदुपादेयतासाधनं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते, तत्प्रयोगश्चैवम्-अस्ति सुवर्णादिषूपाय:, उपायेनैव वा सुवर्णादौ प्रवर्तितव्यम्, तथाविधधातुवादसिद्धादिवदिति। 5 __ एवं क्षेत्रोपाय: क्षेत्रपरिकर्मणोपायः, यथा अस्त्यस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो लाङ्गलादिस्तथाविधसाधुव्यापारो वा तेनैव वा प्रवर्तितव्यमत्र तथाविधान्यक्षेत्रवदिति, ___ एवं कालोपाय: कालज्ञानोपायः, यथा अस्ति कालस्य ज्ञाने उपाय: धान्यादेरिव, जानीहि वा कालं घटिकाच्छायादिनोपायेन तथाभूतगणितज्ञवदिति । एवं भावोपायः, यथा भावज्ञाने उपायोऽस्ति भावं वोपायतो जानीहि, 10 बृहत्कुमारिकाकथाकथनेन विज्ञातचौरादिभावाभयकुमारवदिति । तथाहि-किल राजगृहनगरस्वामिनः श्रेणिकराजस्य पुत्रोऽभयकुमाराभिधानो देवताप्रसादलब्धसर्वर्तुकफलादिसमृद्धारामस्याम्रफलानाम् अकालाम्रफलदोहदवद्भार्यादोहदपूरणार्थं चण्डालचौरेणापहरणे कृते चौरपरिज्ञानार्थं नाट्यदर्शननिमित्तमिलितबहुजनमध्ये बृहत्कुमारिकाकथामचकथत्, तथाहि-काचिद् बृहत्कुमारिका वाञ्छितवरलाभाय 15 कामदेवपूजार्थमारामे पुष्पाणि चोरयन्ती आरामपतिना गृहीता सद्भावकथने विवाहितया पत्या अपरिभुक्तया मत्पार्श्वे समागन्तव्यमित्यभ्युपगमं कारयित्वा मुक्ता, तत: कदाचित् विवाहिता सती पतिमापृच्छ्य रात्रावारामपतिपार्श्वे गच्छन्ती चौर-राक्षसाभ्यां गृहीता सद्भावकथने प्रतिनिवृत्तया भवत्पार्श्वे आगन्तव्यमितिकृताभ्युपगमा मुक्ता आरामे गता आरामिकेण सत्यप्रतिज्ञेत्यखण्डितशीला विसर्जिता इतराभ्यामपि तथैव विसर्जिता 20 पतिसमीपमागतेति, ततो भो लोका: ! पत्यादीनां मध्ये को दुष्करकारक इति चासौ पप्रच्छ, तत ईष्यालुप्रभृतय: पत्यादीन् दुष्करकारित्वेनाभिदधुः, चौरचाण्डालस्तु चौरानिति, ततोऽसावनेनोपायेन भावमुपलक्ष्य चौर इति कृत्वा तं बन्धयामासेति, अत्रापि गाथे१. वा तस्य यत्रा' जे१ । वा यत्रा' खं० ॥ २. चांडाल पा० जे२ ॥ ३. चंडाल पामू० जे२ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे एमेव चउविगप्पो होइ उवाओ वि तत्थ दव्वम्मि । धाउव्वाओ पढमो णंगलकुलिएहिं खेत्तं तु ॥ कालो वि नालियाईहिं होइ भावम्मि पंडिओ अभओ । चोरस्स कए णट्टिय वड्डकुमारिं परिकहिंसु ॥ [दशवै० नि० ६१-६२] इति । 5 ठवणाकम्मे त्ति स्थापनं प्रतिष्ठापनं स्थापना, तस्या: कर्म करणं स्थापनाकर्म, येन ज्ञातेन परमतं दूषयित्वा स्वमतस्थापना क्रियते तत् स्थापनाकर्मेति भावः, तच्च द्वितीयाङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनं पुण्डरीकाख्यम्, तत्र ह्युक्तम्- अस्ति काचित् पुष्करिणी कईमप्रचुरजला, तन्मध्यदेशे महापुण्डरीकम्, तदुद्धरणार्थं चतसृभ्यो दिग्भ्यश्चत्वारः पुरुषा: सकर्दममार्गः प्रवेष्टमारब्धाः, ते चाकृततदुद्धरणा एव पके 10 निमग्नाः, अन्यस्तु तटस्थोऽसंस्पृष्टकर्दम एवामोघवचनतया तदुद्धृतवानिति ज्ञातम्, उपनयश्चायमत्र-कर्दमस्थानीया विषया:, पुण्डरीकं राजादिव्यपुरुष:, चत्वारः पुरुषा: परतीर्थिका:, पञ्चम: पुरुष: साधुः, अमोघवचनं धर्मदेशना, पुष्करिणी संसार:, तदुद्धारो निर्वाणमिति, अनेन च ज्ञातेन विषयाभिष्वङ्गवतां तीर्थिकानां भव्यस्य संसारानुत्तारकत्वं साधोश्च तद्विपर्ययं वदता आचार्येण परमतदूषणेन स्वमतं स्थापितमतो भवतीदं ज्ञातं 15 स्थापनाकर्मेति। अथवाऽऽपन्नं दूषणमपोह्य स्वाभिमतस्थापना कार्येत्येवंविधार्थप्रतिपत्तिर्यतो जायते तत् स्थापनाकर्म, किल मालाकारेण केनापि राजमार्गपुरीषोत्सर्गलक्षणापराधापोहाय तत्स्थाने पुष्पपुञ्जकरणेन किमिदमिति पृच्छतो लोकस्य हिंगुशिवो देवोऽयमिति वदता व्यन्तरायतनस्थापना कृतेति, एतस्मात् किलाख्यानकादुक्तार्थः प्रतीयत इतीदं 20 स्थापनाकर्मेति । तथा नित्यानित्यं वस्त्वित्यसङ्गतं जिनमतं विरुद्धधर्माध्यासादिति दूषणमापन्नम्, एतद्व्यपोहायोच्यते- विरुद्धधर्माध्यासो न भेदनिबन्धनं विकल्पस्येव, विकल्पो हि क्रमभाविवर्णोल्लेखवान् विरुद्धधर्मोपेतो भवति, न च कथञ्चिदेको न भवति, खण्डशो विभक्तस्य तस्य स्वरूपलाभाभावात् प्रवृत्ति-निवृत्त्योरकारणता स्यादसमञ्जसं चैवमिति, एवं च विरुद्धधर्माध्यासस्य कथञ्चिदभेदकत्वे सति न केवलं १. महत्पुण्ड पा० जे२ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३३५] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । नित्यानित्यं न भवतीति दूषणमपोढमपि तु सर्वमनेकान्तात्मकमिति विकल्पज्ञातेन स्वमतं प्रसाधितम्, अतो विकल्पज्ञातं स्वमतस्थापनेन स्थापनाकर्मेति, अत्र निर्युक्तिगाथाठवणाकम्मं एक्वं अभेदमित्यर्थः, दिट्ठतो तत्थ पुंडरीयं तु । अहवा वि सन्नढक्कण हिंगुसिवकयं उदाहरणं ॥ [ दशवै० नि० ६७] ति । सव्यभिचारो वा हेतुर्यः सहसोपन्यस्तस्तस्य समर्थनार्थं यो दृष्टान्तः पुनरुपन्यस्यते 5 स स्थापनाकर्मेति, उक्तं च ४३९ सव्वभिचारं हेतुं सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उववूहइ सप्पसरं सामत्थं चऽप्पणो णाउं ॥ [ दशवै० नि० ६८ ] इति । तद्यथा- अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, अथ वर्णात्मके शब्दे कृतकत्वं न विद्यते वर्णानां नित्यतयाऽभिमतत्वादिति व्यभिचारः, समर्थना पुनर्वर्णात्मा शब्दः कृतकः, 10 निजकारणभेदेन भिद्यमानत्वात्, घटपटादिवत्, घटादिदृष्टान्तेन हि वर्णानां कृतकत्वं स्थापितमिति भवत्ययं स्थापनाकर्मेति । पडुप्पन्नविणासि त्ति प्रत्युत्पन्नस्य तत्कालोत्पन्नवस्तुनो विनाशोऽभिधेयतया यत्रास्ति तत् प्रत्युत्पन्नविनाशीति, यथा केनापि वणिजा दुहित्रादिस्त्रीपरिवारशीलविनाशरक्षार्थं तदासक्तिनिमित्तस्वगृहासन्नराजगान्धर्विकगुणनिकायाः स्वगृहे कुलदेवतानिवेशनाद् 15 गुणनिकाकाले तस्या देवताया अग्रतः आतोद्यनादव्याजेन राजापराधपरिहारेण विनाशः कृतः, एवं गुरुणा शिष्यान् क्वचिद् वस्तुन्यध्युपपद्यमानानुपलम्य तस्य तदासक्तिनिमित्तत्वमुपहन्तव्यमित्येवं प्रत्युत्पन्नविनाशनीयताज्ञापकत्वात् प्रत्युत्पन्नविनाशिज्ञातता गान्धर्विकाख्यानकस्यावगन्तव्येति, उक्तं च होंति पडुप्पन्नविणासणम्मि गंधव्विया उदाहरणं । सीसो वि कत्थ जई अज्झोवज्जेज तो गुरुणा ॥ वारेयव्वो उवाएणं [दशवै० नि० ६९-७०] ति । अथवा अकर्त्ताऽऽत्मा अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्युत्पन्ने आत्मनोऽकर्तृत्वापत्तिलक्षणे दूषणे तद्विनाशायोच्यते- कर्तैवात्मा कथञ्चिन्मूर्त्तत्वाद् देवदत्तवदिति । व्याख्यातमाहरणम्, आहरणता चैतद्भेदानां देशेन दोषवत्तया चोपनयनाभावादिति । अथाहरणतद्देशो व्याख्यायते, स च चतुर्द्धा, तत्र अनुशासनमनुशास्तिः 20 25 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहणम्, सा विधेयेति यत्रोपदिश्यते साऽनुशास्ति:, यथा गुणवन्तोऽनुशासनीया भवन्ति, यथा साधुलोचनपतितरजःकणापनयनेन लोकसम्भावितशीलकलङ्का तत्क्षालनायाराऽऽधितदेवताकृतप्रातिहार्या चालनीव्यवस्थापितोदकाच्छोटनोद्घाटितचंपागोपुरत्रया सुभद्रा अहो शीलवतीति 5 महाजनेनानुशासितेति, उक्तं च आहरणं तद्देसे चउहा अणुसट्टि तह उवालंभो । पुच्छा निस्सावयणं होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए ॥ साहुक्कारपुरोगं जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । वेयावच्चाईसु वि एव जयंतेववूहेजा ॥ [दशवै० नि० ७३-७४] इति । 10 इह च तथाविधवैयावृत्यकरणादिनाप्युपनयः सम्भवति तत्त्यागेन च महाजनानुशास्तिमात्रेणोपनयः कृत इत्याहरणतद्देशतेति, एवमनभिमतांशत्यागादभिमतांशोपनयनमुत्तरेष्वपि भावनीयमिति। तथा उपालम्भनम् उपालम्भो भङ्ग्यन्तरेणानुशासनमेव स यत्राभिधीयते स उपालम्भो यथा क्वचिदपराधवृत्तयो विने या उपालम्भनीयाः, यथा महावीरसमवसरणे 15 सविमानागतचन्द्रा-ऽऽदित्योड्योतेन कालविभागमजानती मृगापतिनाम्नी साध्वी स्थिता ततस्तद्गमनेऽतिकालोऽयमिति सम्भ्रान्ता सह साध्वीभिरार्यचन्दनासमीपं गता, तया चोपालब्धा अयुक्तमिदं भवादृशीनामुत्तमकुलजातानामिति ।। तथा पृच्छा प्रश्नः किं कथं केन कृतमित्यादि, सा यत्र विधेयतयोपदिश्यते सा पृच्छा, यथा प्रच्छनीया ज्ञानिनो निर्णयार्थिभिर्यथा भगवान् कोणिकेन पृष्टः, तथाहि20 किल कोणिकः श्रेणिकराजपुत्र: श्रमणं भगवन्तं महावीरं पप्रच्छ, तद्यथा-भदन्त ! चक्रवर्तिनोऽपरित्यक्तकामा मृता: क्वोत्पद्यन्ते ?, भगवताऽभिहितम्– सप्तमनरकपृथिव्याम्, ततोऽसौ बभाण- अहं क्वोत्पत्स्ये ?, स्वामिनोक्तम्- षष्ठ्याम्, स उवाच- अहं किं न सप्तम्याम् ? स्वामिना जगदे– सप्तम्यां चक्रवर्त्तिनो यान्ति, ततोऽसावभिदधौ– किमहं न चक्रवर्ती ?, यतो ममापि हस्त्यादिकं तत्समानमस्ति, स्वामिना प्रत्यूचे- तव रत्न१. वृत्त्य जे१ खं० ॥ २. सर्वेषु हस्तलिखितादर्शेषु मृगापति' इत्येव पाठः ॥ ३. मने अति जे१ । 'मनेति पा० जे२ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ [सू० ३३५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । निधयो न सन्ति, ततोऽसौ कृत्रिमाणि रत्नानि कृत्वा भरतक्षेत्रसाधनप्रवृत्तः किरिमालकयक्षेण गुहाद्वारे व्यापादित: षष्ठी गत इति । तथा निस्सावयणे त्ति निश्रया वचनं निश्रावचनम्, अयमर्थ:-कमपि सुशिष्यमालम्ब्य यदन्यप्रबोधार्थं वचनं तन्निश्रावचनम्, तद्यत्र विधेयतयोच्यते तदाहरणं निश्रावचनम्, यथा असहनान् विनेयान् माईवसम्पन्नमन्यमालम्ब्य किञ्चिद् ब्रूयात्, गौतममाश्रित्य 5 भगवानिवेति, तथाहि- किल गौतमं तापसादिप्रव्रजितानां केवलोत्पत्तावनुत्पन्नकेवलत्वेनाधृतिमन्तं 'चिरसंश्लिष्टोऽसि गौतम ! चिरपरिचितोऽसि गौतम ! मा त्वमधृति कार्षीः' इत्यादिना वचनसन्दोहेनानुशासयता अन्येऽप्यनुशासिताः, तदनुशासनार्थं द्रुमपत्रकाध्ययनं च प्रणिन्ये इति, उक्तं चपुच्छाए कोणिए खलु निस्सावयणम्मि गोयमस्सामि । [दशवै० नि० ७८] त्ति ॥ 10 व्याख्यातं तद्देशोदाहरणम्, तद्दोषोदाहरणमथ व्याख्यायते, तच्च चतुर्द्धा, तत्र अहम्मजुत्ते त्ति यददाहरणं कस्यचिदर्थस्य साधनायोपादीयते केवलं पापाभिधानस्वरूपं येन चोक्तेन प्रतिपाद्यस्याधर्मबुद्धिरुपजन्यते तदधर्मयुक्तम्, तद्यथा-उपायेन कार्याणि कुर्यात् कोलिकनलदामवत्, तथाहि-पुत्रखादकमत्कोटकमार्गेणोपलब्धबिलवासानामशेषमत्कोटकानां तप्तजलस्य बिले प्रक्षेपणतो मारणदर्शनेन रञ्जितचित्त- 15 चाणक्यावस्थापितेन चौरग्राहनलदामाभिधानकुविन्देन चौर्यसहकारितालक्षणोपायेन विश्वासिता मिलिताश्चौरा विषमिश्रभोजनदानत: सर्वे व्यापादिता इति, आहरणतद्दोषता चास्याधर्मयुक्तत्वात् तथाविधश्रोतुरधर्मबुद्धिजनकत्वाच्चेति, अत एव नैवंविधमुदाहर्त्तव्यं यतिनेति । पडिलोमे त्ति प्रतिकूलम्, यत्र प्रातिकूल्यमुपदिश्यते यथा शठं प्रति शंठत्वं कुर्यात्, 20 यथा चण्डप्रद्योते तदपहरणार्थं तदपहृताभयकुमारश्चकारेति, तद्दोषता चास्य श्रोतु: परापकारकरणनिपुणबुद्धिजनकत्वात्, अथवा घुष्टप्रतिवादिना द्वावेव राशी जीवश्चाऽजीवश्चेत्युक्ते तत्प्रतिघातार्थं कश्चिदाह- तृतीयोऽप्यस्ति नोजीवाख्यो गृहकोकिलादिच्छिन्नपुच्छवदिति, अस्यापि तद्दोषताऽपसिद्धान्ताभिधानादिति । १. उत्तराध्ययनसूत्रे दशममध्ययनम् ॥ २. कोकिलिकादि पा० जे२ ।। -A-13 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे - अत्तोवणीए त्ति आत्मैवोपनीत: तथा निवेदितो नियोजितो यस्मिंस्तत्तथा, येन ज्ञातेन परमतदूषणायोपात्तेनात्ममतमेव दुष्टतयोपनीयते यथा पिङ्गलेनात्मा तदात्मोपनीतम्, तथाहि- कथमिदं तडागमभेदं भविष्यतीति राज्ञा पृष्टः पिङ्गलाभिधान: स्थपतिरवोचत् भेदस्थाने कपिलादिगुणे पुरुषे निखाते सतीति, अमात्येन तु स एव तत्र तद्गुणत्वान्निखात 5 इति तेनात्मैव नियुक्तः, स्ववचनदोषात्, तदेवंविधमात्मोपनीतमिति, अत्रोदाहरणम्यथा सर्वे सत्त्वा न हन्तव्या इत्यस्य पक्षस्य दूषणाय कश्चिदाह- अन्यधर्मस्थिता हन्तव्या विष्णुनेव दानवा इत्येवंवादिना आत्मा हन्तव्यतयोपनीतो धर्मान्तरस्थितपुरुषाणामिति, तद्दोषता तु प्रतीतैवास्येति । ___ दुरुवणीए त्ति दुष्टमुपनीतं निगमितं योजितमस्मिन्निति दुरुपनीतं परिव्राजकवाक्यवद्, 10 यथा हि किल कश्चित् परिव्राजको जालव्यग्रकरो मत्स्यबन्धाय चलित:, केनचिद् धूर्तेन किञ्चिदुक्तस्तेन च तस्योत्तरमसङ्गतं दत्तम्, अत्र च वृत्तम् कन्थाऽऽचार्याऽघना ते ननु शफरिवधे जालमनासि मत्स्यान् ?, ते मे मद्योपदंशा: पिबसि ननु ? युतो वेश्यया, यासि वेश्याम् ? । दत्त्वाऽरीणां गलेऽहिं क्व नु तव रिपवो ? येषु सन्धिं छिनधि, 15 चौरस्त्वम् ? द्यूतहेतो: कितव इति कथम् ? येन दासीसुतोऽस्मि ॥ [ ] इत्येवं प्रकृतसाध्यानुपयोगि स्वमतदूषणावह वा यत्तद्दार्टान्तिकेन सह साधाभावाद् दुरुपनीतमिति, यथा नित्यः शब्दो घटवद्, इह घटे नित्यत्वं नास्त्येवेति कुतस्तत्साधाच्छब्दस्य नित्यत्वमस्तु ?, अपि त्वनित्यत्वात् घटस्य तत्साधाच्छब्दस्यानित्यत्वमेवानभिमतं सिध्यतीति साध्यानुपयोगीदमुदाहरणम्, तथा 20 सन्तानोच्छेदो मोक्षो दीपस्येवेत्यभ्युपगमे दीपदृष्टान्तादनादिमतोऽपि सन्तानस्यावस्तुता प्रतीयते, तथाहि- दीपस्यात्मनश्च सन्तानोच्छेद उत्तरक्षणाजनकत्वात्, तत्त्वे चार्थक्रियाकारित्वलक्षणसत्त्वाभावादन्त्यक्षणस्यावस्तुत्वम्, अवस्तुजनकत्वात् पूर्वक्षणस्यापि, तत एव पूर्वतरस्यापीत्येवं समस्तस्यापि सन्तानस्यावस्तुत्वम्, अथ क्षणान्तरानारम्भेऽपि स्वगोचरज्ञानजननलक्षणाक्रियाकारित्वादन्त्यक्षणो वस्तु भविष्यति, 25 नैवम्, एवं हि भूतभाविपर्यायपरम्पराऽपि योगिज्ञानं स्वविषयमुत्पादयतीति वस्तुत्वं १. शफरवधे पासं० जे२ ।। २. सिध्यति साध्या जे१ ।। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ [सू० ३३५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । स्वीकुर्यात्, तन्न क्षणान्तरानारम्भे वस्तुत्वमित्यतो भवति दीपज्ञातं स्वमतदूषणावहमिति, अथवा अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति वक्तव्ये सम्भ्रमादनित्यो घटः कृतकत्वाच्छब्दवदिति वदतो दुरुपनीतं विपर्ययोपनयनादिति, अत्र गाथाःपढमं अहम्मजुत्तं पडिलोमं अत्तणो उवन्नासो । दुरुवणियं च चउत्थं अहम्मजुत्तम्मि नलदामो ॥ पडिलोमे जह अभओ पज्जोयं हरइ अवहिओ संतो ॥ त्ति । अत्तउवन्नासम्मि य तलायभेयम्मि पिंगलो थवई । अणिमिसगेण्हणभिक्खुग दुरुवणीए उदाहरणं ॥ [दशवै० नि० ८१-८३] इति । उक्त आहरणतद्दोषः, अधुनोपन्यासोपनय उच्यते, स च चतुर्द्धा, तत्र तव्वत्थुए त्ति तदेव परोपन्यस्तसाधनं वस्त्विति उत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तद्वस्तुकः, 10 अथवा तदेव परोपन्यस्तं वस्तु तद्वस्तु, तदेव तद्वस्तुकम्, तद्युक्त उपन्यासोपनयोऽपि तद्वस्तुक इत्युच्यते एवमुत्तरत्रापि, यथा कश्चिदाह- समुद्रतटे महान् वृक्षोऽस्ति, तच्छाखा जल-स्थलयोरुपरि स्थिताः, तत्पत्राणि च यानि जले निपतन्ति तानि जलचरा जीवा भवन्ति यानि च स्थले निपतन्ति तानि स्थलचरा इति, अन्यस्तदुपन्यस्तमेव तरुपत्रपतनवस्तु गृहीत्वा तदुक्तं विघटयति, यदत- यानि पुनर्मध्ये तेषां का वार्तेति ? 15 एतदुपपत्तिमात्रमुत्तरभूतं तद्वस्तुक उपन्यासोपनयः, ज्ञातत्वं चास्य ज्ञाननिमित्तत्वात्, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेतत्, तथाहि- एवं प्रयोगोऽस्य- जल-स्थलपतितपत्राणि न जलचरादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, जल-स्थलमध्यपतितपत्रवत्, तन्मध्यपतितपत्राणां हि जल-स्थलपतितपत्रजलचरत्वादिप्राप्तिवदुभयरूपप्रसङ्गः, न चोभयरूपाः सत्त्वा अभ्युपगता इति, अथवा नित्यो जीव अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्युक्ते आह– अनित्य एवास्तु अमूर्त्तत्वात् 20 कर्मवदिति । तथा तयन्नवत्थुए त्ति तस्मात् परोपन्यस्ताद् वस्तुनोऽन्यदुत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुको यथा जले पतितानि जलचरा इत्युक्ते एतद्विघटनाय पतनादन्यदुत्तरमाह यानि पुनः पातयित्वा खादति नयति वा तानि किं भवन्ति ?, न किञ्चिदित्यर्थोऽयमपि ज्ञापकतया ज्ञातमुक्तः, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेषः, तथाहि- 25 न जल-स्थलपतितानि पत्राणि जलचरादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, मनुष्याद्याश्रितानीव, Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ४४४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अयमभिप्रायो यथा जलाद्याश्रितत्वात् जलचरादितया तानि सम्पद्यन्ते तथा मनुष्याद्याश्रिततया मनुष्यादिभवयूकादितयाऽपि सम्पद्यन्ताम्, आश्रितत्वस्याविशेषात्, न च तानि तथाऽभ्युपगम्यन्त इति जलादिगतानामपि जलचरत्वाद्यसम्भव इति । तथा पडिनिभे त्ति यत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तवस्तुनः सदृशं 5 वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिभः, यथा कोऽपि प्रतिजानीने यदुत यो मामपूर्वं श्रावयति तस्मै लक्षमूल्यमिदं करोटकं ददामीति, स च श्रावितोऽपि तन्नापूर्वमिति प्रतिपद्यते, तत एकेन सिद्धपुत्रेणोक्तम् तुज्झ पिया मज्झ पिउणो धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । ___ जइ सुयपुव्वं दिज्जउ अह न सुयं खोरयं देहि ॥ [दशवै० नि० ८६] इति ।। 10 प्रतिनिभता चास्य सर्वस्मिन्नप्युक्ते 'श्रुतपूर्वमेवेदं मम' इत्येवमसत्यं वचो ब्रुवाणस्य परस्य निग्रहाय ‘तव पिता मम पितुर्धारयति लक्षम्' इत्येवंविधस्य द्विपाशरज्जुकल्पस्यासत्यस्यैव वचस उपन्यस्तत्वादिति, अस्य चोपपत्तिमात्र-रूपस्याप्यर्थज्ञापकतया ज्ञातत्वमुक्तमिति, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेषः, तथाहि- अत्रायं प्रयोगः- नास्त्यश्रुतपूर्वं किञ्चित् श्लोकादि ममेत्येवमभिमानधन ! ब्रूमो वयम्- अस्ति तवाश्रुतपूर्वं वचनं तव 15 पिता मम पितु रयत्यन्यूनं शतसहस्रमिति यथेति । तथा हेउ त्ति यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुत्तरतयाऽभिधीयते स हेतुरिति, यथा केनापि कश्चित् पर्यनुयुक्तः- अहो किं यवाः क्रीयन्ते त्वया ?, स त्वाह- येन मुधैव न लभ्यन्ते इति, तथा कस्मात् ब्रह्मचर्यादिकष्टमनुष्ठीयते ?, यस्मादकृततपसां नरकादौ गुरुतरा वेदना भवतीति, इदमपि उपपत्तिमात्रमेव ज्ञातत्वेनोक्तमर्थज्ञापकत्वादिति । 20 अथवाऽयमपि यथारूढं ज्ञातमेव, तथाहि- अस्यैवं प्रयोग:- कस्मात् त्वया प्रव्रज्या क्रियत इति पृष्टः सन् केनापि साधुराह– यतस्तां विना मोक्षो न भवति, एतत्समर्थनायैव साधुस्तमाह– भो यवग्राहिन् ! किमिति त्वया यवाः क्रीयन्ते ?, स त्वाह- येन मुधा न लभ्यन्ते, साधोश्चायमभिप्रायो यथा मुधालाभाभावात् तान् क्रीणासि त्वमेवमहं तां विना तदभावात्तां करोमीति, इह च मुधा यवालाभस्य क्रयणे हेतोः सतो १. कटोरकं पा० जे२ ॥ २. धम पामू० । धन: पासं० । धर्मो जे२ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ 10 [सू० ३३६] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । दृष्टान्ततयोपन्यस्तत्वाद्धेतूपन्यासोपनयज्ञाततेति, इह च किञ्चिद्विशेषेणैवंविधा ज्ञातभेदाः सम्भवन्त्यन्येऽपि किन्तु ते न विवक्षिताः, अन्तर्भावो वा कथञ्चित् गुरुभिर्विवक्षितो न च तं वयं सम्यग् जानीम इति । [सू०३३६] हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-जावते, थावते, वंसते, लूसते १॥ अहवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे २। 5 अहवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ, णत्थि तं णत्थि सो हेऊ ३। [टी०] अथ ज्ञातानन्तरं ज्ञातवद्धतोः साध्यसिद्ध्यङ्गत्वात् तद्भेदान् हेऊ इत्यादिना सूत्रत्रयेणाह, व्यक्तं चैतत्, नवरं हिनोति गमयति ज्ञेयमिति हेतुः अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणः, उक्त च अन्यथाऽनुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रसिद्धि-सन्देह-विपर्यासैस्तदाभता ॥ [न्याया० २२] इति । प्रागुक्तश्च हेतुः पर्यनुयुक्तस्योत्तररूपमुपपत्तिमात्रम्, अयं तु साध्यं प्रत्यन्वयव्यतिरेकवान् तथाविधदृष्टान्तस्मृततद्भाव इति, स चैकलक्षणोऽपि किञ्चिद्विशेषाच्चतुर्द्धा, तत्र जावए त्ति यापयति वादिनः कालयापनां करोति, यथा काचिदसती एकैकरूपकेण 15 एकैकमुष्ट्रलिण्डं दातव्यमिति दत्तशिक्षस्य पत्युस्तद्विक्रयार्थमुज्जयनीप्रेषणोपायेन विटसेवायां कालयापनां कृतवतीति यापकः, उक्तं च उन्भामिया य महिला जावगहेउम्मि उट्टलिंडाइं ॥ [दशवै० नि० ८८] ति । । इह वृद्धाख्यातम्- प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा तथा विशेषणबहलो हेतुः कर्त्तव्यो यथा कालयापना भवति, ततोऽसौ नावगच्छति प्रकृतमिति, स चेदृशः सम्भाव्यते- 20 सचेतना वायवः, अपरप्रेरणे सति तिर्यगनियतत्वाभ्यां गतिमत्त्वात्, गोशरीरवदिति, अयं हि हेतुर्विशेषणबहुलतया परस्य दुरधिगमत्वात् वादिनः कालयापनां करोति, स्वरूपमस्यानवबुध्यमानो हि परो न झगित्येवानैकान्तिकत्वादिदूषणोद्भावनाय प्रवर्तितुं शक्नोति, अतो भवत्यस्माद् वादिनः कालयापनेति । अथवा योऽप्रतीतव्याप्तिकतया व्याप्तिसाधकप्रमाणान्तरसव्यपेक्षत्वान्न झगित्येव साध्यप्रतीतिं करोति अपि तु 25 कालक्षेपेणेत्यसौ साध्यप्रतीतिं प्रति कालयापनाकारित्वाद्यापकः, यथा क्षणिकं वस्त्विति Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पक्षे बौद्धस्य सत्त्वादिति हेतुः, नहि सत्त्वश्रवणादेव क्षणिकत्वं प्रत्येति पर इत्यतो बौद्धः सत्त्वं क्षणिकत्वेन व्याप्तमिति प्रसाधयितुमुपक्रमते, तथाहि- सत्त्वं नामार्थक्रियाकारित्वमेव, अन्यथा वन्ध्यासुतस्यापि सत्त्वप्रसङ्गः, अर्थक्रिया तु नित्यस्यैकरूपत्वान्न क्रमेण नापि यौगपोन क्षणान्तरे अकर्तृत्वप्रसङ्गादित्यतोऽर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमक्षणिकान्निवर्तमानं 5 क्षणिक एवावतिष्ठत इत्येवं क्षेपेण साध्यसाधने कालयापनाकारित्वाद् यापकः सत्त्वलक्षणो हेतुरिति.। तथा स्थापयति पक्षमक्षेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात् समर्थयति, यथा परिव्राजकधूर्ते लोकमध्यभागे दत्तं बहुफलं भवति तं चाहमेव जानामीति मायया प्रतिग्राममन्यान्यं लोकमध्यं प्ररूपयति सति तन्निग्रहाय कश्चित् श्रावको लोकमध्यस्यैकत्वात् कथं बहुषु 10 ग्रामादिषु तत्सम्भव इत्येवंविधोपपत्त्या त्वद्दर्शितो भो लोकमध्यभागो न भवतीति पक्षं स्थापितवानिति स्थापको हेतुः, उक्तं च लोगस्स मज्झजाणण थावगहेऊ उदाहरणं [दशवै० नि० ८८] ति । स चायम्- अग्निरत्र धूमात्, तथा नित्यानित्यं वस्तु द्रव्य-पर्यायतस्तथैव प्रतीयमानत्वादिति, अनयोश्च प्रतीतव्याप्तिकतया अकालक्षेपेण साध्यस्थापनात् 15 स्थापकत्वमिति । ___ तथा व्यंसयति परं व्यामोहयति शकटतित्तिरीग्राहकधूर्त्तवद् यः स व्यंसक इति, तथाहि- कश्चिदन्तराललब्धमृततित्तिरीयुक्तेन शकटेन नगरं प्रविष्टः उक्तो धूर्तेन यथाशकटतित्तिरी कथं लभ्यते ?, स च किलायं शकटस्य सत्कां तित्तिरी याचत इत्यभिप्रायादवोचत् तर्पणालोडिकयेति सक्त्वालोडनेन, जलाद्यालोडितसक्तुभिरित्यर्थः, 20 ततो धूर्तः साक्षिण आहृत्य सतित्तिरीकं शकटं जग्राह, उक्तवांश्च मदीयमेतद्, अनेनैव शकटतित्तिरीति दत्तत्वात्, मया तु शकटसहिता तित्तिरी शकटतित्तिरीति गृहीतत्वादिति, ततो विषण्णः शाकटिक इति, अत्रोक्तम् सा सगडतित्तिरी वंसगम्मि हेउम्मि होइ णायव्वा॥ [दशवै० नि० ८९] इति । स चैवम्- अस्ति जीवोऽस्ति घट इत्यभ्युपगमे जीव-घटयोरस्तित्वमविशेषेण वर्त्तते 25 ततस्तयोरेकत्वं प्राप्तमभिन्नशब्दविषयत्वादिति व्यंसको हेतुः, घटशब्दविषय Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ [सू० ३३६] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । घटस्वरूपवत्, अथास्तित्वं जीवादौ न वर्त्तते ततो जीवाद्यभावः स्यादस्तित्वाभावादिति व्यंसकः प्रतिवादिनो व्यामोहकत्वादिति । तथा लूसए त्ति लूषयति मुष्णाति व्यंसकापादितमनिष्टमिति लूषको हेतुः, स एव शाकटिकः, यथा धूर्तान्तरशिक्षितेन हि शाकटिकेन तेन याचितोऽसौ धूर्तः- तर्हि देहि मे तर्पणालोडिकामिति, ततो धूर्तेनोक्ता स्वभार्या देह्यस्मै सक्तूनालोड्येति, तां च तथा 5 कुर्वन्तीं तद्भार्यां गृहीत्वाऽसौ प्रस्थितोऽवादीच्च धूर्तमभि मदीयेयम्, तर्पणमिति सक्तूनालोडयतीति तर्पणालोडिकेति भवतैव दत्तत्वादिति, स चायम्- यदि जीवघटयोरस्तित्ववृत्त्या एकत्वं सम्भावयसि तदा सर्वभावानामे कत्वं स्यात्, सर्वेष्वप्यस्तित्ववृत्तेरविशेषात्, न चैवमिति, इहास्तित्ववृत्तेरविशेषादित्ययं लूषको जीवघटयोरेकत्वापादनलक्षणस्याभावापत्तिलक्षणस्य वाऽनिष्टस्य परापादितस्यानेन 10 लूषितत्वादिति । अथवेति हेतोः प्रकारान्तरताद्योतको विकल्पार्थो हिनोति गमयति प्रमेयमर्थं स वा हीयते अधिगम्यते अनेनेति हेतुः, प्रमेयस्य प्रमितौ कारणम्, प्रमाणमित्यर्थः, चतुर्विधः स्वरूपादिभेदात्, तत्र पच्चक्खे त्ति अश्नाति अश्नुते व्याप्नोत्यानित्यक्षः आत्मा, तं प्रति यद्वर्त्तते ज्ञानं तत् प्रत्यक्षं निश्चयतोऽवधि-मनःपर्याय-केवलानि, अक्षाणि वेन्द्रियाणि 15 प्रति यत्तत् प्रत्यक्ष व्यवहारतस्तच्चक्षुरादिप्रभवमिति, लक्षणमिदमस्य अपरोक्षतयाऽर्थस्य, ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरज् ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥ [न्याया० ४] ग्रहणापेक्षयेति भावः । अन्विति लिङ्गदर्शन-सम्बन्धानुस्मरणयोः पश्चान्मानं ज्ञानमनुमानम्, एतल्लक्षणमिदम्साध्याविनाभुवो लिङ्गात्, साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । 20 अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवद् ॥ [न्याया० ५] इति, एतच्च साध्याविनाभूतहेतुजन्यत्वेनाप्युपचाराद्धेतुरिति । तथा उपमानमुपमा, सैवौपम्यम्, अनेन गवयेन सदृशोऽसौ गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपम्, उक्तं च गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं गवयं वीक्षते यदा । भूयोऽवयवसामान्यभाजं वर्तुलकण्ठकम् ॥ 25 १. त्यक्षमात्मा जे१ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ तस्यामेव त्ववस्थायां यद्विज्ञानं प्रवर्त्तत्ते । पशुनैतेन तुल्योऽसौ गोपिण्ड इति सोपमा ॥ [ अथवा श्रुतातिदेशवाक्यस्य समानार्थोपलम्भने संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमानमुच्यत इति। आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः आप्तवचनसम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः, 5 उक्तं च 10 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दृष्टेष्टाव्याहताद् वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः । तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्त्तितम् ॥ ] इति, आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ [ न्याया० ८ - ९] इति । इहाऽन्यथानुपपन्नत्वलक्षणहेतुजन्यत्वादनुमानमेव कार्ये कारणोपचाराद्धेतुः, स च चतुर्विधः, चतुर्भङ्गीरूपत्वात्, तत्र अस्ति विद्यते तदिति लिङ्गभूतं धूमादिवस्तु इति कृत्वा, अस्ति सः अग्न्यादिकः साध्योऽर्थ इत्येवं हेतुरिति अनुमानम् । तथा अस्ति तदग्न्यादिकं वस्त्वतो नास्त्यसौ तद्विरुद्धः शीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति । तथा नास्ति तदग्न्यादिकमतः शीतकालेऽस्ति स शीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति । 15 तथा नास्ति तद् वृक्षत्वादिकमिति नास्ति शिंशपात्वादिकोऽर्थ इत्यपि हेतुरनुमानमिति, इह च शब्दे कृतकत्वस्यास्तित्वादस्त्यनित्यत्वं घटवत्तथा धूमस्यास्तित्वादिहास्त्यग्निर्महानस इवेत्यादिकं स्वभावानुमानं कार्यानुमानं च प्रथमभङ्गकेन सूचितम् १, तथा अग्नेरस्तित्वाद् धूमास्तित्वाद्वा नास्ति शीतस्पर्श इत्यादि विरुद्धोपलम्भानुमानं विरुद्धकार्योपलम्भानुमानं च तथाऽग्नेर्धूमस्य वाऽस्तित्वान्नास्ति शीतस्पर्शजनित20 दन्तवीणा-रोमहर्षादिः पुरुषविकारो महानसवदित्यादि कारणविरुद्धोपलम्भानुमानं कारणविरुद्धकार्योपलम्भानुमानं च द्वितीयभङ्गकेनाभिहितम् २, तथा छत्रादेरग्नेर्वा नास्तित्वादस्ति क्वचित् कालादिविशेषे आतपः शीतस्पर्शो वा पूर्वोपलब्धप्रदेश इवेत्यादिकं विरुद्धकारणानुपलम्भानुमानं विरुद्धानुपलम्भानुमानं च तृतीयभङ्गकेनोपात्तम् ३, तथा दर्शनसामग्र्यां सत्यां घटोपलम्भस्य नास्तित्वान्नास्तीह घटो विवक्षितप्रदेशवदित्यादि 25 स्वभावानुपलब्ध्यनुमानं तथा धूमस्य नास्तित्वान्नास्त्यविकलो धूमकारणकलापः Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३३७-३३८] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । प्रदेशान्तरवेदित्यादि कार्यानुपलब्ध्यनुमानं तथा वृक्षनास्तित्वात् शिंशपा नास्तीत्यादि व्यापकानुपलम्भानुमानं तथाऽग्नेर्नास्तित्वाद्भूमो नास्तीत्यादि कारणानुपलम्भानुमानं च चतुर्थभङ्गकेनावरुद्धमिति ४ । न च वाच्यं न जैनप्रक्रियेयम्, सर्वत्र जैनाभिमता• न्यथानुपपन्नत्वरूपस्य हेतुलक्षणस्य विद्यमानत्वादिति। [सू० ३३७] चउव्विहे संखाणे पन्नत्ते, तंजहा - पडिकम्मं, ववहारे, रासी । [ टी०] अनन्तरं हेतुशब्देन ज्ञानविशेष उक्तस्तदधिकाराद् ज्ञानविशेषनिरूपणायाहचउव्विहेत्यादि, सङ्ख्यायते गण्यते अनेनेति सङ्ख्यानं गणितमित्यर्थः, तत्र परिकर्म सङ्कलनादिकं पाटीप्रसिद्धम्, एवं व्यवहारोऽपि मिश्रकव्यवहारादिरनेकधा, रज्जुरिति रज्जुगणितं क्षेत्र गणितमित्यर्थः, राशिरिति त्रैराशिक-पञ्चराशिकादीति । [सू० ३३८ ] अहेलोगे णं चत्तारि अंधगारं करेंति, तंजहा- णरगा, णेरइया, पावाई कम्माई, असुभा पोग्गला १। तिरियलोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति, तंजहा - चंदा, सूरा, मणी, जोती २ | उड्डलोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति, तंजहा- देवा, देवीओ, विमाणा, आभरणा ३। १. 'वदिति कार्या' जे१ ॥ ४४९ रज्जू, 5 ॥ चउट्ठाणस्स ततिओ उद्देसओ समत्तो ॥ [ टी०] रज्जुरिति क्षेत्रगणितमुक्तमिति क्षेत्रसम्बन्धाल्लोकलक्षणक्षेत्रस्य त्रिधा विभक्तस्यान्धकारोयोतावाश्रित्य सूत्रत्रयेण प्ररूपणामाह - अहे इत्यादि सुगमम्, किन्तु अधोलोके उक्तलक्षणे चत्वारि वस्तूनीति गम्यते, नरका नारकावासाः, नैरयिका नारकाः, एते कृष्णस्वरूपत्वात् अन्धकारं कुर्वन्ति, पापानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि 20 मिथ्यात्वाज्ञानलक्षणभावान्धकारकारित्वादन्धकारं कुर्वन्तीत्युच्यते, अथवा अन्धकारस्वरूपे अधोलोके प्राणिनामुत्पादकत्वेन पापानां कर्म्मणामन्धकारकर्तृत्वमिति, तथा अशुभाः पुद्गलाः तमिश्रभावेन परिणता इति । मणि त्ति मणयः चन्द्रकान्ताद्याः, जोइ ज्योतिरग्निरिति । ॥ चतुः स्थानकस्य तृतीयोदेशको विवरणतः समाप्तः ।। 10 15 25 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० [अथ चतुर्थ उद्देशकः] [सू० ३३९] चत्तारि पसप्पगा पन्नत्ता, तंजहा-अणुप्पन्नाणं भोगाणं उप्पाएत्ता एगे पसप्पते, पुव्वुप्पन्नाणं भोगाणं अविप्पतोगेणं एगे पसप्पते, अणुप्पन्नाणं सोक्खाणं उप्पाएत्ता एगे पसप्पए, पुव्वुप्पन्नाणं सोक्खाणं अविप्पयोगेणं एगे 5 पसप्पए । [टी०] व्याख्यातस्तृतीयोद्देशकः, तदनन्तरं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःइहानन्तरोद्देशके विविधा भावाश्चतु:स्थानकतयोक्ता इहापि त एव तथोच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रं चत्तारि पसप्पगेत्यादि । अस्य चानन्तरसूत्रेण सहाऽयं सम्बन्धः- अनन्तरसूत्रे देवा देव्यश्च निर्दिष्टाः, ते च भोगवन्तः सुखिताश्च 10 भवन्तीति भोगान् सुखानि चाश्रित्य प्रसर्पकभेदाभिधानायेदमुच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या- प्रकर्षेण सर्पन्ति गच्छन्ति भोगाद्यर्थं देशानुदेशं सञ्चरन्ति आरम्भ-परिग्रहतो वा विस्तारं यान्तीति प्रसर्पकाः, अणुप्पन्नाणं ति द्वितीयार्थे षष्ठीति अनुत्पन्नान् असम्पन्नान् भोगान् शब्दादीन् तत्कारणद्रविणा-ऽङ्गनादीन् वा उप्पाएत्त त्ति उत्पादयितुं सम्पादनाय अथवाऽनुत्पन्नानां भोगानामुत्पादयिता उत्पादकः सन् एकः कोऽपि प्रसर्पति 15 प्रगच्छति, प्रसर्पको वा प्रगन्ता भवतीति गम्यते, प्रसर्पन्ति च भोगाद्यर्थिनो देहिनः, उक्तं च धावेइ रोहणं तरइ सागरं भमइ गिरिनिगुंजेसु । मारेइ बंधवं पि हु पुरिसो जो होज्ज धणलुद्धो । अडइ बहुं वहइ भरं सहइ छुहं पावमायरइ धट्ठो । 20 कुल-सील-जातिपच्चयट्टिइं च लोभहुओ चयइ ॥ [ ] त्ति । तथा पूर्वोत्पन्नानां पाठान्तरेणात्युत्पन्नानां वा अविप्पयोगेणं ति अविप्रयोगाय रक्षणार्थमिति । सौख्यानामिति भोगसम्पाद्यानन्दविशेषाणाम्, शेषं सुगमम् । [सू० ३४०] जेरतिताणं चउव्विहे आहारे पन्नत्ते, तंजहा-इंगालोवमे, मुम्मुरोवमे, सीतले, हिमसीतले । 25 तिरिक्खजोणियाणं चउब्विहे आहारे पन्नत्ते, तंजहा-कंकोवमे, बिलोवमे, १. उप्पायत्त जे१ ॥ २. धिट्ठो पासं० जे२ ॥ ३. `ण प्रत्यु जेसं० १।। ४. रक्षार्थ' जे१ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ [सू० ३४०-३४१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । पाणमंसोवमे, पुत्तमंसोवमे । मणुस्साणं चउव्विहे आहारे पन्नत्ते, तंजहा-असणे जाव सातिमे २॥ देवाणं चउव्विहे आहारे पन्नत्ते, तंजहा-वनमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते ३। टी०] भोगसौख्यार्थं च प्रसर्पन्तः कर्म बद्ध्वा नारकत्वेनोत्पद्यन्त इति नारकानाहारतो निरूपयन्नाह– नेरइयाणमित्यादि व्यक्तम्, केवलम् अङ्गारोपमः अल्पकालदाहत्वात्, 5 मुर्मुरोपमः स्थिरतरदाहत्वात्, शीतलः शीतवेदनोत्पादकत्वात्, हिमशीतलोऽत्यन्तशीतवेदनाजनकत्वात्, अधोऽध इति क्रम इति । ___ आहाराधिकारात् तिर्यग्-मनुष्य-देवानामाहारनिरूपणाय सूत्रत्रयं तिरिक्खजोणियाणमित्यादि व्यक्तम्, नवरं कङ्कः पक्षिविशेषः, तस्याहारेणोपमा यत्र स मध्यपदलोपात् कङ्कोपमः, अयमर्थः- यथा हि कङ्कस्य दुर्जरोऽपि स्वरूपेणाहारः 10 सुखभक्ष्यः सुखपरिणामश्च भवति एवं यस्तिरश्चां सुभक्षः सुखपरिणामश्च स कङ्कोपम इति। तथा बिले प्रविशद् द्रव्यं बिलमेव, तेनोपमा यत्र स तथा, बिले हि अलब्धरसास्वादं झगिति यथा किल किञ्चित् प्रविशति एवं यस्तेषां गलबिले प्रविशति स तथोच्यते। पाणो मातङ्गः, तन्मांसमस्पृश्यत्वेन जुगुप्सया दुःखाद्यं स्यादेवं यस्तेषां दुःखाद्यः स पाणमांसोपमः । पुत्रमांसं तु स्नेहपरतया दुःखाद्यतरं स्यादेवं यो दुःखाद्यतर: स 15 पुत्रमांसोपमः। क्रमेण चैते शुभ-समा-ऽशुभा-ऽशुभतरा वेदितव्याः । वर्णवानित्यादौ प्रशंसायामतिशायने वा मतुबिति । [सू० ३४१] चत्तारि जातिआसीविसा पन्नत्ता, तंजहा-विच्छतजाइआसीविसे मंडुक्कजाइआसीविसे उरगजातिआसीविसे मणुस्सजातिआसीविसे । विच्छुयजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते ?, पभू णं 20 विच्छुयजातिआसीविसे अड्ढभरहप्पमाणमेत्तं बोंदिं विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करेत्तए ? विसए से विसट्ठताए, नो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा करेस्संति वा । मंडुक्कजातिआसीविसस्स पुच्छा, पभू णं मंडुक्कजातिआसीविसे भरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणयं विसट्टमाणिं, १. “भूम-निन्दा-प्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने । संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ।।" - पा० सिद्धान्तकौमुदी पाश९४॥ २. विसपरिगतं भां० ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सेसं तं चेव जाव करेस्संति वा । उरगजातिपुच्छा, पभू णं उरगजातिआसीविसे जंबूदीवप्पमाणमेत्तं बोंदिं विसेणं, सेसं तं चेव जाव करेस्संति वा । मणुस्सजातिपुच्छा, पभू णं मणुस्सजातिआसीविसे समयखेत्तप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करेत्तए ? विसते से विसट्ठताते, नो चेव 5 णं जाव करेस्संति वा । [टी०] आहारो हि भक्षणीय इति भक्षणाधिकारादासीविषसूत्रम्, सुगमं चेदम्, नवरम् आसीविस त्ति आस्यो दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आसीविषाः, ते च कर्मतो जातितश्च, तत्र कर्मतस्तिर्यङ्-मनुष्याः कुतोऽपि गुणादासीविषाः स्युः, देवाश्चा सहस्राराच्छापादिना परव्यापादनादिति, उक्तं च10 आसी दाढा तग्गवमहाविसाऽऽसीविसा दुविहभेया । ते कम्म-जाइभेएण णेगहा चउब्विहविगप्पा ॥ [विशेषाव० ७९१] इति । जातित आसीविषा जात्यासीविषा: वृश्चिकादयः । केवइय त्ति कियान् विषयो गोचरो विषस्येति गम्यते, प्रभुः समर्थः, अर्द्धभरतस्य यत् प्रमाणं सातिरेकत्रिषष्ट्यधिक योजनशतद्वयलक्षणं तदेव मात्रा प्रमाणं यस्याः साऽर्द्धभरतप्रमाणमात्रा, तां बोंदिं 15 शरीरं विषेण स्वकीयासीप्रभवेण करणभूतेन विषपरिणतां विषरूपापन्नां विषपरिगतामिति क्वचित् पाठः, तद्व्याप्तामित्यर्थः, विसट्टमाणिं विकसन्तीं विदलन्ती कर्तुं विधातुम् । विषयः स: गोचरोऽसौ, अथवा से तस्य वृश्चिकस्य, विषमेवार्थो विषार्थस्तद्भावस्तत्ता तस्या विषार्थतायाः विषत्वस्य तस्यां वा, नो चेव त्ति नैवेत्यर्थः, सम्पत्त्या एवंविधबोन्दिसम्प्राप्तिद्वारेण, करिंसु त्ति अकार्रवृश्चिका इति गम्यते, इह 20 चैकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचननिर्देशो वृश्चिकासीविषाणां बहुत्वज्ञापनार्थम्, एवं कुर्वन्ति करिष्यन्ति, त्रिकालनिर्देशश्चामीषां त्रैकालिकत्वज्ञापनार्थः, समयक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रम् । [सू० ३४२] चउब्विहे वाही पन्नत्ते, तंजहा-वातिते, पित्तिते, सिंभिते, संनिवातिते । १. दाशी जे१ ॥ २. आशीजे १,२ ॥ ३. जात्याशी जे१, २, पा० ॥ ४. याशी जे१ ॥ ५. पृ० ४५१ टि० २ ॥ ६. काशी जे१ पा० । तालपत्रोपरि लिखितेषु प्राचीनेष्वादशेषु आसी इति आशी इति वा पाठो यत्र यथोपलभ्यते तद् निर्दिष्टमत्रास्माभिः । अत आसी' इति आशी' इति उभयोः पाठयोः कः स्वीकार्य इति स्वयमेव निर्णेतव्यं सुधीभिः ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ [सू० ३४२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । चउव्विहा तिगिच्छा पन्नत्ता, तंजहा-वेजो, ओसधाई, आउरे, परिचारते। चत्तारि तिगिच्छगा पन्नत्ता, तंजहा-आततिगिच्छते नाममेगे णो परतिगिच्छते १, परतिगिच्छए नाममेगे ह्व = ४] । [टी०] विषपरिणामो हि व्याधिरिति तदधिकाराद् व्याधिभेदानाह- चउव्विहेत्यादि कण्ठ्यम्, केवलं वातो निदानमस्येति वातिकः, एवं सर्वत्र, नवरं सन्निपातः संयोगो 5 द्वयोस्रयाणां वेति, वातादिस्वरूपं चैतत् तत्र रूक्षो १ लघुः २ शीत: ३ खरः ४ सूक्ष्म ५ श्चलो ६ऽनिलः । पित्तं सस्नेह १ तीक्ष्णो २ ष्णं ३ लघु ४ विश्रं ५ सरं ६ द्रवम् ७ ॥ कफो गुरु १ हिम: २ स्निग्धः ३ प्रक्लेदी ४ स्थिर ५ पिच्छिल: ६ । सन्निपातस्तु सङ्कीर्णलक्षणो व्यादिमीलकः ॥ [ ] वातादीनां कार्याणि पुनरिमानिपारुष्यसङ्कोचनतोदशूलश्यामत्वमङ्गव्यथचेष्टभङ्गाः । सुप्तत्वशीतत्वखरत्वशोषा: कर्माणि वायोः प्रवदन्ति तज्ज्ञा : ॥ परिस्रवस्वेदविदाहरागा वैगन्ध्यसङ्क्लेदविपाककोपाः । प्रलापमूर्छाभ्रमिपीतभावा: पित्तस्य कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः ॥ श्वेतत्वशीतत्वगुरुत्वकण्डूस्नेहोपदेहस्तिमितत्वलेपाः । उत्सेधसम्पातचिरक्रियाश्च कफस्य कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः ॥ [ ] इति । अनन्तरं व्याधिरुक्तः, अधुना तस्यैव चिकित्सां चिकित्सकांश्च सूत्रद्वयेनाहचउव्विहेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं चिकित्सा रोगप्रतीकारः, तस्याश्चातुर्विध्यं कारणभेदादिति, एतत्सूत्रसंवादकमुक्तमपरैरपिभिषग् १ द्रव्याण्यु २ पस्थाता ३ रोगी ४ पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टम्, प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ॥ दक्षो १ विज्ञातशास्त्रार्थो २ दृष्टका ३ शुचि ४ भिषक् । बहुकल्पं १ बहुगुणम् २ सम्पन्नं ३ योग्यमौषधम् ४ ॥ अनुरक्तः १ शुचि २ दक्षो ३ बुद्धिमान् ४ परिचारकः । आढ्यो १ रोगी भिषग्वश्यो २ ज्ञापकः ३ सत्त्ववानपि ४ ॥ [ ] इति । इयं द्रव्यरोगचिकित्सा, मोहभावरोगचिकित्सा त्वेवम्,१. खरं जे१ ॥ 15 25 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे निव्विगइ निब्बलोमे तवउद्धट्ठाणमेव उन्भामे । वेयावच्चाहिंडण मंडलि कप्पट्टियाहरणं ॥ [निशीथ० ५७४] ति, निर्बलं वल्लादि, अवमम् ऊनम्, उद्भ्रामो भिक्षाभ्रमणम्, आहिंडणं देशेषु, मण्डली सूत्रार्थयोः, कप्पट्ठिया श्रेष्ठिवधूरिति । चिकित्सका द्रव्यतो ज्वरादिरोगान् 5 प्रति भावतो रागादीन् प्रतीति, तत्रात्मनो ज्वरादेः कामादेर्वा चिकित्सकः प्रतिकर्तेत्यात्मचिकित्सक इति । सू० ३४३] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-वणकरे णाममेगे नो वणपरिमासी, वणपरिमासी नाममेगे णो वणकरे, एगे वणकरे वि वणपरिमासी वि, एगे णो वणकरे णो वणपरिमासी । 10 चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-वणकरे नाममेगे णो वणसारक्खी ह [= ४] । ___ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-वणकरे नामं एगे णो वणसरोही ह्व [= ४] । - [टी०] अथात्मचिकित्सकान् भेदतः सूत्रत्रयेणाह– चत्तारीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं 15 व्रणं देहे क्षतं स्वयं करोति रुधिरादिनिर्गालनार्थमिति व्रणकरः, नो नैव व्रणं परिमृशतीत्येवंशीलो व्रणपरिमीत्येकः, अन्यस्त्वन्यकृतं व्रणं परिमृशति, न च तत् करोतीति, एवं भावव्रणम् अतिचारलक्षणं करोति कायेन, न च तदेव परिमृशति पुनः पुनः संस्मरणेन स्पृशति । अन्यस्तु तत् परिमृशत्यभिलाषान्न च करोति कायतः संसारभयादिभिरिति । 20 व्रणं करोति न च तत् पट्टबन्धादिना संरक्षति, अन्यस्तु कृतं संरक्षति न च करोति, भावव्रणं त्वाश्रित्यातिचारं करोति न च तं सानुबन्धं भवन्तं कुशीलादिसंसर्गतन्निदानपरिहारतो रक्षत्येकः, अन्यस्तु पूर्वकृतातिचारं निदानपरिहारतो रक्षति नवं च न करोति । ___ नो नैव व्रणं संरोहयत्यौषधदानादिनेति व्रणरोही, भावव्रणापेक्षया तु नो 25 व्रणरोही प्रायश्चित्ताप्रतिपत्तेः, व्रणसंरोही पूर्वकृतातिचारप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या, नो १. सारोही जे० पा० ला० ॥ २. 'शतीति जे१ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ [सू० ३४४] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । व्रणकरोऽपूर्वातिचाराकारित्वादिति । [सू० ३४४] चत्तारि वणा पन्नत्ता, तंजहा-अंतोसल्ले नाममेगे णो बाहिंसल्ले ४, १ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अंतोसल्ले णाममेगे णो बाहिंसल्ले ह [= ४], २ । ___ चत्तारि वणा पन्नत्ता, तंजहा-अंतो दुढे नाम एगे णो बाहिं दुढे, बाहिं 5 दुढे नामं एगे नो अंतो दुढे ह [= ४], ३ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-अंतो दुढे नाममेगे नो बाहिं दुढे ह [= ४], ४ । __ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-सेजंसे णाममेगे सेजसे, सेजसे नाममेगे पावंसे, पावंसे णामं एगे सेजंसे, पावंसे णाममेगे पावंसे १ । चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-सेजंसे णाममेगे सेजंसे त्ति सालिसए, 10 सेजसे णाममेगे पावंसे त्ति सालिसते ह्व [= ४], २ ।। __ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-सेयंसे त्ति णाममेगे सेयंसे त्ति मन्नति, सेयंसे त्ति णाममेगे पावंसे त्ति मन्नति ह = ४], ३ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-सेयंसे णाममेगे सेयंसे त्ति सालिसते मन्नति, सेयंसे णाममेगे पावंसे त्ति सालिसते मन्नति ह [= ४], ४। 15 चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-आघवतित्ता णाममेगे णो परिभावतित्ता, परिभावतित्ता णाममेगे णो आघवतित्ता ह्व [= ४], ५ । चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-आघवतित्ता णाममेगे नो उंछजीविसंपन्ने, उंछजीविसंपन्ने णाममेगे णो आघवतित्ता ह्व [= ४], ६ । चउव्विहा रुक्खविगुव्वणा पन्नत्ता, तंजहा-पवालत्ताए, पत्तत्ताए, पुप्फत्ताए, 20 फलत्ताए । [टी०] उक्ता आत्मचिकित्सकाः, अथ चिकित्स्यं व्रणं दृष्टान्तीकृत्य पुरुषभेदानाहचत्तारीत्यादि चतुःसूत्री सुगमा, नवरम् अन्त: मध्ये शल्यं यस्य, अदृश्यमानमित्यर्थः तत्तथा १, बाहिंसल्ले त्ति यच्छल्यं व्रणस्यान्तरल्पं बहिस्तु बहु तद्बहिरिव बहिरित्युच्यते, अतो बहिः शल्यं यस्य तत्तथा, यदि पुनः सर्वथैव तत्ततो बहिः स्यात् तदा शल्यतैव 25 न स्याद्, उद्धृतत्वे वा भूतभावितया स्यादपीति २, यत्र पुनरन्तर्बहु बहिरप्युपलभ्यते Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तदुभयशल्यम् ३, चतुर्थः शून्य इति ४ । गुरुसमक्षमनालोचितत्वेनाऽन्तः शल्यम् अतिचाररूपं यस्य स तथा, बहिः शल्यम् आलोचिततया यस्य स तथा, अन्तर्बहिश्च शल्यमालोचितानालोचितत्वेन यस्य स तथा, चतुर्थः शून्यः । अन्तर्दुष्टं व्रणं लूतादिदोषतः, न बही रागाद्यभावेन सौम्यत्वात् ४, पुरुषस्तु 5 अन्तर्दुष्टः शठतया संवृताकारत्वान्न बहिरित्येकः, अन्यस्तु कारणेनोपदर्शितवाक्पारुष्यादित्वाद् बहिरेवेति ४। पुरुषाधिकारात् तद्भेदप्रतिपादनाय षट्सूत्री कण्ठ्या च, किन्तु अतिशयेन प्रशस्यः श्रेयानेकः प्रशस्यभावः सद्बोधत्वात्, पुनः श्रेयान् प्रशस्तानुष्ठानत्वात् साधुवदित्येकः १, अन्यस्तु श्रेयांस्तथैव, अतिशयेन पापः पापीयान् स चाविरतत्वेन दुरनुष्ठायित्वादिति 10 २, अन्यस्तु पापीयान् भावतो मिथ्यात्वादिभिरुपहतत्वात् कारणवशात् सदनुष्ठायित्वाच्च श्रेयान् उदायिनृपमारकवत् ३, चतुर्थः स एव कृतपाप इति ४ । अथवा श्रेयान् गृहस्थत्वे निष्क्रमणकाले वा, पुनः श्रेयान् प्रव्रज्यायां विहारकाले वेत्येवमन्येऽपि । श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु श्रेयान् प्रशस्यतर इत्येवंबुद्धिजनकत्वेन सदृशकः अन्येन श्रेयसा तुल्यो न तु सर्वथा श्रेयानेवेत्येकः १, अन्यस्तु भावतः श्रेयानपि द्रव्यतः 15 पापीयानित्येवंबुद्धिजनकत्वेन सदृशकः अन्येन पापीयसा समानो न तु पापीयानेवेति द्वितीयः २, भावतः पापीयानप्यन्यः संवृताकारतया श्रेयानित्येवं सदृशकोऽन्येन श्रेयसेति तृतीयः ३, चतुर्थः सुज्ञानः ४। श्रेयानेकः सद्वृत्तत्वात् श्रेयानित्येवमात्मानं मन्यते यथावद् बोधात् लोकेन वा मन्यते विशदशुभानुष्ठानाद्, इह च मन्निज्जइति वक्तव्ये प्राकृतत्वेन मन्नइ इत्युक्तम् 20 १, श्रेयानप्यन्य आत्मन्यरुचिपरायणत्वात् पापीयानित्यात्मानं मन्यते, स एव वा पूर्वोपलब्धतद्दोषेण जनेन मन्यते दृढप्रहारिवत् २, पापीयानप्यपरो मिथ्यात्वाद्युपहततया श्रेयानित्यात्मानं मन्यते, कुतीर्थिकवत्, तद्भक्तेन वेति ३, पापीयानन्योऽविरतिकत्वात् पापीयानित्यात्मानं मन्यते, सद्बोधत्वात्, असंयतो वा मन्यते संयतलोकेनेति ४ । श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु किञ्चित्सदनुष्ठायित्वात् श्रेयानित्येवंविकल्पजनकत्वेन १. रोगा पा० ॥ २. मन्नइत्यु जे१ खं० । मन्नईत्यु पा० ॥ ४५६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ [सू० ३४५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः ।। संदृशकोऽन्येन श्रेयसा मन्यते ज्ञायते जनेनेति, विभक्तिपरिणामाद्वा सदृशकमात्मानं मन्यत इति, एवं शेषाः । आघवइत्तेति आख्यायकः प्रज्ञापकः प्रवचनस्य एकः कश्चिन्न च प्रविभावयिता प्रभावकः शासनस्य उदारक्रिया-प्रतिभादिरहितत्वात्, प्रविभाजयिता वा प्रवचनार्थस्य नयोत्सर्गादिभिर्विवेचयितेति । अथवा आख्यायकः सूत्रस्य प्रविभावयिता प्रविभाजयिता 5 वाऽर्थस्येति । आख्यायक एकः सूत्रार्थस्य न चोञ्छजीविकासम्पन्नो नैषणादिनिरत इत्यर्थः, स चापद्गतः संविग्नः संविग्नपाक्षिको वा, यदाह होज्ज हु वसणं पत्तो सरीरदुब्बल्लयाए असमत्थो । चरणकरणे असुद्धे सुद्धं मग्गं परूवेज्जा ॥ तथा- ओसन्नो वि विहारे कम्मं सिढिलेइ सुलभबोही य ।। ___ 10 चरणकरणं विसुद्धं उववूहंतो परूवेंतो ॥ [निशीथ० ५४३५-३६] इत्येकः, द्वितीयो यथाच्छन्दः, तृतीयः साधुः, चतुर्थो गृहस्थादिरिति । पूर्वसूत्रे साधुलक्षणपुरुषस्याख्यायकत्वोञ्छजीविकासम्पन्नत्वलक्षणा गुणविभूषोक्ता अधुना तत्साम्याद् वृक्षविभूषामाह- चउव्विहेत्यादि, अथवा पूर्वमुञ्छजीविकासंपन्न: साधुपुरुष उक्तः, तस्य च वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधप्रयोजने वृक्षं विकुर्वतो यद्विधा 15 तद्विक्रिया स्यात्तामाह- चउव्विहेत्यादि पातनयैवोक्तार्थम्, नवरं प्रवालतयेति नवाङ्कुरतयेत्यर्थः । [सू० ३४५] चत्तारि वादिसमोसरणा पन्नत्ता, तंजहा-किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणियवादी, वेणइयवादी । णेरइयाणं चत्तारि वादिसमोसरणा पन्नत्ता, तंजहा-किरियावादी जाव 20 वेणतियवादी, एवमसुरकुमाराण वि जाव थणितकुमाराणं, एवं विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं । [टी०] एते हि पूर्वोक्ता आख्यायकादयः पुरुषास्तीर्थिका इति तेषां स्वरूपाभिधानायाहचत्तारीत्यादि । वादिनः तीर्थकाः, समवसरन्ति अवतरन्त्येष्विति समवसरणानि विविधमतमीलकाः, तेषां समवसरणानि वादिसमवसरणानि, क्रियां 25 १. सदृशो जे१ ॥ २. सदृक्षमा खं० ॥ |-A-14 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे 'जीवाजीवादिरर्थोऽस्ती' त्येवंरूपां वदन्तीति क्रियावादिन आस्तिका इत्यर्थः, तेषां यत् समवसरणं तत्त एवोच्यन्ते अभेदादिति, तन्निषेधादक्रियावादिनो नास्तिका इत्यर्थः, अज्ञानमभ्युपगमद्वारेण येषामस्ति ते अज्ञानिकाः, त एव वादिनोऽज्ञानिकवादिनः, अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंप्रतिज्ञा इत्यर्थः, विनय एव वैनयिकम्, तदेव निःश्रेयसायेत्येवंवादिनो 5 वैनयिकवादिन इति, एतद्भेदसङ्ख्या चेयम् ४५८ असियसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा | [ सूत्र० नि० ११९] इति । तत्राशीत्यधिकं शतं क्रियावादिनां भवति, इदं चामुनोपायेनावगन्तव्यम् - जीवाऽजीवा-ऽऽश्रव-संवर-बन्ध-निर्जरा- पुण्या-ऽपुण्य- मोक्षाख्यान् नव पदार्थान् विरचय्य 10 परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्व- परभेदावुपन्यसनीयौ, तयोरधो नित्या -ऽनित्यभेदौ, तयोरप्यधः कालेश्वरा-ऽऽत्म-नियति-स्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनश्चेत्थं विकल्पाः कर्त्तव्याः– अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चायम्विद्यते खल्वयमात्मा स्वेन रूपेण न परापेक्षया ह्रस्वत्व-दीर्घत्वे इव, नित्यश्च कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिनः, तृतीयों विकल्प आत्मवादिनः पुरुष 15 एवेदं ग्नि [ ]मित्यादिप्रतिपत्तुरिति, चतुर्थो नियतिवादिनः, नियतिश्च पदार्थानामवश्यन्तया यद्यथाभवने प्रयोजककर्त्रीति, पञ्चमः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यजहता लब्धाः पञ्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्चैव लभ्यन्ते, तत्र परत इत्यस्यायमर्थः - इह सर्वपदार्थानां पररूपापेक्षः स्वरूपपरिच्छेदो यथा ह्रस्वत्वाद्यपेक्षो दीर्घत्वादिपरिच्छेदः, एवमेव चात्मनः स्तम्भ- कुम्भादीन् समीक्ष्य तद्व्यतिरिक्ते हि वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्त्तत इत्यतो यदात्मनः 20 स्वरूपं तत् परत् एवावधार्यते न स्वत इति, नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एवं विंशतिर्जीवपदार्थेन लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनामिति, एते च विकल्पा एकैकशो न लभ्यन्ते शीलाङ्गवदिति । तथा अक्रियावादिनां चतुरशीतिर्द्रष्टव्या, एवं चेयम् - पुण्यापुण्यविवर्जित25 पदार्थसप्तकन्यासस्तथैव, जीवस्याधः स्व- पररूपविकल्पद्वयोपन्यासः, असत्त्वादात्मनो १. 'च्यते पा० जे२ ॥ २: दृश्यताम् ६०७ तम सूत्रटीका टिप्पनं च । ऋग्वेदे यजुर्वेदे चेदं वर्तते ॥ ३. 'वादिनां तु चतु पा० २ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३४५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४५९ नित्यानित्यभेदौ न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, इयं चानभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिरिति, पश्चाद्विकल्पाभिलापः-नास्ति जीवः स्वतः कालत इत्येको विकल्पः, एवमीश्वरादिभिरपि यदृच्छावसानैः सर्वे षड् विकल्पाः, तथा नास्ति जीवः परतः कालत इति षडेव विकल्पा इत्येकत्र द्वादश, एवमजीवादिष्वपि षट्सु प्रत्येकं द्वादश विकल्पाः, एवं च द्वादश सप्तगुणाश्चतुरशीतिविकल्पाः नास्तिकानामिति। 5 अज्ञानिकानां तु सप्तषष्टिर्भवति, इयं चामुनोपायेन द्रष्टव्या- तत्र जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् पूर्ववत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादय उपन्यसनीयाः, सत्त्व १ मसत्त्वं २ सदसत्त्वम् ३ अवाच्यत्वं ४ सदवाच्यत्वम् ५ असदवाच्यत्वं ६ सदसदवाच्यत्व ७ मिति, त एते नव सप्तकाः त्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्तु चत्वार एवाद्या विकल्पाः, तद्यथा सत्त्व १ मसत्त्वं २ सदसत्त्व ३ मवाच्यत्वं ४ चेति, त्रिषष्टिमध्ये 10 क्षिप्ताः सप्तषष्टिर्भवन्ति, विकल्पाभिलापश्चैवम्- को जानाति जीवः सन्निति किं वा तेन ज्ञातेनेत्येको विकल्पः, एवमसदादयोऽपि वाच्याः, तथा सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति किं वाऽनया ज्ञातया ? एवमसती सदसती अवक्तव्या चेति, सत्त्वादिसप्तभङ्ग्याश्चायमर्थः- स्वरूपमात्रापेक्षया वस्तुनः सत्त्वम् १, पररूपमात्रापेक्षया . त्वसत्त्वम् २, तथा एकस्य घटादिद्रव्यदेशस्य ग्रीवादेः सद्भावपर्यायेण 15 ग्रीवात्वादिनाऽऽदिष्टस्य सत्त्वात् तथा घटादिद्रव्यदेशस्यैवापरस्य बुध्नादेरसद्भावपर्यायेण वृत्तत्वादिना परगतपर्यायेणैवादिष्टस्यासत्त्वाद् वस्तुनः सदसत्त्वम् ३, तथा सकलस्यैवाखण्डितस्य घटादिवस्तुनोऽर्थान्तरभूतैः पटादिपर्यायै र्निजैश्चो चं कुण्डलौष्ठायतवृत्तग्रीवादिभिर्युगपद्विवक्षितस्य सत्त्वेनासत्त्वेन वा वक्तुमशक्यत्वात् तस्य घटादेव्यस्यावक्तव्यत्वम् ४, तथा घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य सद्भावपर्यायैरादिष्टस्य 20 सत्त्वादपरस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टतया सत्त्वेनासत्त्वेन वा वक्तुमशक्यत्वात् घटादिद्रव्यस्य सदवक्तव्यत्वमिति ५, तथा तस्यैव घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य परपर्यायैरादिष्टस्यासत्त्वादपरदेशस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टत्वेन तथैव वक्तुमशक्यत्वात् तस्य घटादेरसदवक्तव्यत्वम् ६, तथा घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य स्वपर्यायैरादिष्टत्वेन सत्त्वादपरस्य १. जीवादीन् जे१ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथैव - परपर्यायैरादिष्टतया असत्त्वादन्यस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टस्य वक्तुमशक्यत्वेनावक्तव्यत्वात् तस्य घटादिद्रव्यस्य सदसदवक्तव्यत्वमिति ७, इह च प्रथम द्वितीय-चतुर्था अखण्डवस्त्वाश्रिताः शेषाश्चत्वारो वस्तुदेशाश्रिता दर्शिताः, तथाऽन्यैस्तृतीयोऽपि विकल्पोऽखण्डवस्त्वाश्रित एवोक्तः, तथाहि - अखण्डस्य वस्तुनः 5 स्वपर्यायैः परपर्यायैश्च विवक्षितस्य सदसत्त्वमिति, अत एवाभिहितमाचारटीकायाम्इह चोत्पत्तिमङ्गीकृत्योत्तरं विकल्पत्रयं न सम्भवति, पदार्थावयवापेक्षत्वात् तस्योत्पत्तेश्चावयवाभावात् [ आचाराङ्गटी० ] इति । एवमज्ञानिकानां सप्तषष्टिर्भवतीति । वैनयिकानां च द्वात्रिंशत्, सा चैवमवसेया- सुर-नृपति-यति- ज्ञाति- स्थविराऽधम-मातृ-पितॄणां प्रत्येकं कायेन वाचा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य 10 इत्येते चत्वारो भेदाः सुरादिष्वष्टासु स्थानेषु भवन्ति, ते चैकत्र मीलिता द्वात्रिंशदिति, सर्वसङ्ख्या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानीति, उक्तं च पूज्यैः– आस्तिकमतमात्माद्या ९ नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः । कालनियतिस्वभावेश्वरात्मकृतकाः स्वपरसंस्थाः ॥ कालयदृच्छानियतीश्वरस्वभावात्मतश्चतुरशीतिः । ४६० 15 नास्तिकवादिगणमतं न सन्ति सप्त स्वपरसंस्थाः ॥ अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिं सदसद्द्द्वैताऽवाच्यां च को वेत्ति ? ॥ वैनयिकमतं विनयश्चेतोवाक्कायदानतः कार्यः । 20 सुर-नृपति-यति- ज्ञाति- स्थविरा -ऽधम- मातृ-पितृषु सदा ॥ [ ] इति । एतान्येव समवसरणानि चतुर्विंशतिदण्डके निरूपयन्नाह - नेरइयाणमित्यादि सुगमम्, नवरं नारकादिपञ्चेन्द्रियाणां समनस्कत्वाच्चत्वार्यप्येतानि सम्भवन्ति, विगलेंदियवज्जं ति एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाणाममनस्कत्वान्न सम्भवन्ति । [सू० ३४६] चत्तारि मेहा पन्नत्ता, तंजहा - गजित्ता णाममेगे णो वासित्ता, वासित्ता णाममेगे णो गज्जित्ता, एगे गज्जित्ता वि वासित्ता वि, एगे णो गज्जित्ता १. “ सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति किं वाऽनया ज्ञातया ? एवमसती सदसती अवक्तव्या भावोत्पत्तिरिति को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातयेति । शेषविकल्पत्रयमुत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षम्, अतोऽत्र न सम्भवतीति नोक्तम्” इति शीलाङ्काचार्यविरचितायामाचाराङ्गटीकायां प्रथमश्रुत स्कन्धे प्रथमाध्ययने प्रथमे उद्देशके ॥ २ तेनैकत्र जे१ ॥ ३. त्मनश्च जे१ विना ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३४६-३५२] चतुर्थमध्ययनं चतुः स्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । वासिता १ । एवमेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - गज्जित्ता णाममेगे णो वासित्ता [ = ४], २ । चत्तारि मेहा पन्नत्ता, तंजहा - गजित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता, विज्जुयाइत्ता णाममेगे ह्व [ = ४], ३ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - गजित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता ह्व [= ४], ४ । 5 चत्तारि मेहा पन्नत्ता, तंजहा - वासित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता ह्व [= ४], ५ । एवमेव चत्तारि पुरिसजाता [ पन्नत्ता, तंजहा - ] वासित्ता णाममेगे णो विज्जुयाइत्ता [= ४], ६ । चत्तारि मेहा पन्नत्ता, तंजहा कालवासी णाममेगे णो अकालवासी ह्व [= ४], ७ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - कालवासी णाममेगे 10 नो अकालवासी ह्व [ ४ ], ८ । चत्तारि मेहा पन्नत्ता, तंजहा - खेत्तवासी णाममेगे णो अखेत्तवासी ह्व [= ४], ९ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - खेत्तवासी णाममेगे णो अखेत्तवासी ह्व [= ४], १० । चत्तारि मेहा पन्नत्ता, तंजहा जणतित्ता णाममेगे णो णिम्मवतित्ता, 15 णिम्मवतित्ता णाममेगे णो जणतित्ता ह्व [ = ४], ११ । एवामेव चत्तारि अम्मापियरो पन्नत्ता, तंजहा - जणतित्ता णाममेगे णो णिम्मवतित्ता व [ = ४], १२ । चत्तारि मेहा पन्नत्ता, तंजहा- देसवासी णाममेगे णो सव्ववासी [ = ४], १३ । एवामेव चत्तारि रायाणो पन्नत्ता, तंजहा- देसाधिवती णाममेगे णो सव्वाधिवती ह्व [ = ४], १४ । [सू० ३४७] चत्तारि मेहा पन्नत्ता, तंजहा पुक्खलसंवहते, पज्जुने, जीमूते, झिम्मे । पुक्खलसंवट्टते णं महामेहे एगेणं वासेणं दस वाससहस्साइं भावेति, पज्जुने णं महामेहे एगेणं वासेणं दस वाससताइं भावेति, जीमूते णं महामेहे एगेणं वासेणं दस वासाइं भावेति, झिम्मे णं महामेहे बहूहिं वासेहिं एगं वासं भावेति वा ण वा भावेति १५ । [सू० ३४८] चत्तारि करंडगा पन्नत्ता, तंजहा- सोवागकरंडते, वेसिताकरंडते, ४६१ 20 25 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे गाहावतिकरंडते, रायकरंडते १६ । एवामेव चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहासोवागकरंडगसमाणे, वेसिताकरंडगसमाणे, गाहावतिकरंडगसमाणे, रायकरंडगसमाणे १७ । [सू० ३४९] चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तंजहा-साले नाममेगे सालपरियाते, 5 साले नाममेगे एरंडपरियाए, एरंडे नामं एगे सालपरियाए, एरंडे नाम एगे एरंडपरियाए, १८ । एवामेव चत्तारि आयरिया पन्नत्ता, तंजहा-साले णाममेगे सालपरिताते, साले णाममेगे एरंडपरिताते, एरंडे णाममेगे० ह [= ४], १९। __ चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तंजहा-साले णाममेगे सालपरियाले, साले णामं एगे एरंडपरियाले, एरंडे नाम एगे ह्व [= ४], २० । एवामेव चत्तारि आयरिया 10 पन्नत्ता, तंजहा-साले नाममेगे सालपरियाले, साले णामं एगे एरंडपरियाले ह्व = ४], २१। सालदुममज्झयारे जह साले णाम होति दुमराया । इय सुंदर आयरिए सुंदरसीसे मुणेतव्वे ॥२२॥ एरंडमज्झयारे जह साले णाम होति दुमराया । 15 इय सुंदर आयरिए मंगुलसीसे मुणेयव्वे ॥२३॥ सालदुममज्झयारे एरंडे णाम होति दुमराया । इय मंगुल आयरिए सुंदरसीसे मुणेयव्वे ॥२४॥ एरंडमज्झयारे एरंडे णाम होइ दुमराया ।। इय मंगुल आयरिए मंगुलसीसे मुणेयव्वे ॥२५॥ 20 [सू० ३५०] चत्तारि मच्छा पन्नत्ता, तंजहा-अणुसोतचारी, पडिसोतचारी, अंतचारी, मज्झचारी २२ । एवामेव चत्तारि भिक्खागा पन्नत्ता, तंजहाअणुसोयचारी, पडिसोयचारी, अंतचारी, मज्झचारी २३ । चत्तारि गोला पन्नत्ता, तंजहा-मधुसित्थगोले, जउगोले, दारुगोले, मट्टियागोले २४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा25 मधुसित्थगोलसमाणे ह्व [= ४], २५ । चत्तारि गोला पन्नत्ता, तंजहा-अयगोले, तउगोले, तंबगोले, सीसगोले Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३४६-३५२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । २६ । एवमेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - अयगोलसमाणे जाव सीसगोलसमाणे २७ । चत्तारि गोला पन्नत्ता, तंजहा - हिरण्णगोले, सुवन्नगोले, रयणगोले, वइरगोले २८ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा - हिरण्णगोलसमाणे जाव वइरगोलसमाणे २९ । ४६३ चत्तारि पत्ता पन्नत्ता, तंजहा - असिपत्ते, करपत्ते, खुरपत्ते, कलंबचीरितापत्ते ३० । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्त्रत्ता, तंजहा - असिपत्तसमाणे जाव कलंबचीरितापत्तसमाणे ३१ । चत्तारि कडा पन्नत्ता, तंजहा - सुंठकडे, विदलकडे, चम्मकडे, कंबलकडे ३२ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - सुंठकडसमाणे जाव 10 कंबलकडसमाणे ३३ । [सू० ३५१] चउव्विहा चउप्पया पन्नत्ता, तंजहा- एगखुरा, दुखुरा, गंडीपदा, सणप्फदा ३४ । चउव्विहा पक्खी पन्नत्ता, तंजहा- चम्मपक्खी, लोमपक्खी, सामुग्गपक्खी, विततपक्खी ३५ । चउव्विहा खुद्दपाणा पन्नत्ता, तंजहा - बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ३६ । 5 [सू० ३५२ ] चत्तारि पक्खी पन्नत्ता, तंजहा - णिवतित्ता णाममेगे नो परिवतित्ता, परिवतित्ता नामं एगे नो निवतित्ता, एगे निवतित्ता वि परिवतित्ता वि, एगे नो निवतित्ता नो परिवतित्ता ३७ । एवामेव चत्तारि भिक्खागा 20 पन्नत्ता, तंजहा - णिवतित्ता णाममेगे नो परिवतित्ता [ = ४], ३८ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा - णिक्कट्ठे णाममेगे णिक्कट्ठे, निक्कट्ठे नाममेगे अणिक्कट्ठे ह्व [= ४], ३९ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- णिक्कट्टे णाममेगे णिक्कट्टप्पा, णिक्कट्टे नाममेगे अणिक्कट्टप्पा ह्व [ ४ ], ४० । 15 25 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-बुहे नाममेगे बुहे, बुहे नाममेगे अबुहे ह्व [= ४], ४१ । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-बुधे नाममेगे बुधहियए ह्व [= ४], ४२ । 5 चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-आताणुकंपते णाममेगे नो पराणुकंपते ह्व [= ४], ४३ । [टी०] पुरुषाधिकारात् पुरुषविशेषप्रतिपादनाय प्रायः सदृष्टान्तसूत्राणि पुरुषसूत्राणि त्रिचत्वारिंशतं चत्तारि मेहेत्यादीन्याह, सुगमानि च, नवरं मेघाः पयोदाः । गर्जिता गर्जिकृत् नो वर्षिता न प्रवर्षणकारीति १ । एवं कश्चित् पुरुषो गर्जितेव गर्जिता दान10 ज्ञान-व्याख्याना-ऽनुष्ठान-शत्रुनिग्रहादिविषये उच्चैः प्रतिज्ञावान् नो नैव वर्षितेव वर्षिता वर्षकोऽभ्युपगतसम्पादक इत्यर्थः, अन्यस्तु कार्यकर्ता न चोच्चैः प्रतिज्ञावानिति, एवमितरावपि नेयाविति २। विज्जुयाइत्त त्ति विद्युत्कर्ता ३ । एवं पुरुषोऽपि कश्चिदुच्चैः प्रतिज्ञाता न च विद्युत्कारतुल्यस्य दानादिप्रतिज्ञातार्थारम्भाडम्बरस्य कर्ता, अन्यस्तु आरम्भाडम्बरस्य 15 कर्ता न प्रतिज्ञातेति, एवमन्यावपीति ४ । वर्षिता कश्चिद् दानादिभिर्न तु तदारम्भाडम्बरकर्ता, अन्यस्तु विपरीतोऽन्य उभयथाऽन्यो न किञ्चिदिति ६ । कालवर्षी अवसरवर्षीति, एवमन्येऽपि ७ । पुरुषस्तु कालवर्षीव कालवर्षी अवसरे दान-व्याख्यानादिपरोपकारार्थप्रवृत्तिक एकः, अन्यस्त्वन्यथेति, एवं शेषौ ८ । क्षेत्रं धान्याद्युत्पत्तिस्थानम् ९ । पुरुषस्तु क्षेत्रवर्षीव क्षेत्रवर्षी पात्रे दान-श्रुतादीनां निक्षेपकः, 20 अन्यो विपरीतः, अन्यस्तथाविधविवेकविकलतया महौदार्यात् प्रवचनप्रभावनादिकारणतो वा उभयस्वरूपः, अन्यस्तु दानादावप्रवृत्तिक इति १० । जनयिता मेघो यो वृष्ट्या धान्यमुद्गमयति, निर्मापयिता तु यो वृष्ट्यैव सफलतां नयतीति ११ । एवं मातापितरावपीति प्रसिद्धम्, एवमाचार्योऽपि शिष्यं प्रत्युपनेतव्य इति १२ । विवक्षितभरतादिक्षेत्रस्य प्रावृडादिकालस्य वा देशे आत्मनो वा देशेन वर्षतीति १. 'मानि नवरं जे१ खं० ॥ २. अन्यश्चारंभा" जे१ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३४६-३५२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४६५ देशवर्षी १ । यस्तु तयोः सर्वयोः सर्वात्मना वा वर्षति स सर्ववर्षी २ । यस्तु क्षेत्रतो देशे कालतः सर्वत्रात्मनो वा सर्वः २, अथवा कालतो देशे क्षेत्रतः सर्वत्र ३ आत्मनो वा सर्वः ४, अथवा आत्मनो देशेन क्षेत्रतः ५, कालतो वा सर्वत्र ६, अथवा क्षेत्रकालतो देशेन आत्मनः सर्वः ७, अथवा क्षेत्रतो देशे, आत्मनो देशेन कालतः सर्वत्र ८, अथवा कालतो देशे आत्मनो देशेन क्षेत्रतः सर्वत्रे ९ त्येवं नवभिर्विकल्पैर्वर्षति 5 स देशवर्षी सर्ववर्षी चेति ३ । चतुर्थः सुज्ञान इति १३ । राजा तु यो विवक्षितक्षेत्रस्य मेघवद्देश एव योग-क्षेमकारितया प्रभवति स देशाधिपतिर्न सर्वाधिपतिः स च पल्लीपत्यादिः, यस्तु न पल्ल्यादौ देशेऽन्यत्र तु सर्वत्र प्रभवति स सर्वाधिपतिर्न देशाधिपतिः, यस्तूभयत्र स उभयाधिपतिः, अथवा देशाधिपतिर्भूत्वा सर्वाधिपतिर्यो भवति वासुदेवादिवत् स देशाधिपतिश्च सर्वाधिपतिश्चेति, चतुर्थो राज्यभ्रष्ट इति १४ । 10 पुक्खलेत्यादि, एगेणं वासेणं ति एकया वृष्ट्या भावयतीति उदकस्नेहवती करोति, धान्यादिनिष्पादनसमर्थामिति यावत्, भुवमिति गम्यते । जिह्मस्तु बहुभिर्वर्षणैरेकमेव वर्षम् अब्दं यावत् भुवं भावयति नैव वा भावयति रूक्षत्वात्तज्जलस्येति १५। अत्रान्तरे मेघानुसारेण पुरुषाः पुष्कलावतंसमानादय: पुरुषाधिकारत्वात् अभ्यूह्या इति, तत्र सकृदुपदेशेन दानेन वा प्रभूतकालं 15 यावच्छुभस्वभावमीश्वरं वा देहिनं य: करोत्यसावाद्यमेघसमान:, एवं स्तोकतरस्तोकतमकालापेक्षया द्वितीय-तृतीयमेघसमानौ, असकृदुपदेशादिना देहिनमल्पकालं यावदुपकुर्वन्ननुपकुर्वन् वा चतुर्थमेघसमान इति । करण्डको वस्त्राभरणादिस्थानं जनप्रतीत:, श्वपाककरण्डक: चाण्डालकरण्डकः, स च प्रायश्चर्मपरिकम्र्मोपकरणवर्धादिचर्मांशस्थानतया अत्यन्तमसारो भवति, 20 वेश्याकरण्डकस्तु जतुपूरितस्वर्णाभरणादिस्थानत्वात् किञ्चित्ततः सारोऽपि वक्ष्यमाणकरण्डकापेक्षया त्वसार एवेति, गृहपतिकरण्डकः श्रीमत्कौटुम्बिककरण्डक:, स च विशिष्टमणि-सुवर्णाभरणादियुक्तत्वात् सारतरः, राजकरण्ड कस्तु अमूल्यरत्नादिभाजनत्वात् सारतम इति १६, एवमाचार्यो य: षट्प्रज्ञक १. 'सर्वत्र १ आत्मनो वा सर्वः २' इत्येवं विकल्पद्वयम् ॥ २. चंडाल खं० पा० जे२ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे गाथादिरूपसूत्रार्थधारी विशिष्टक्रियाविकलश्च स प्रथम: अत्यन्तासारत्वात्, यस्तु दुरधीतश्रुतलवोऽपि वागाडम्बरेण मुग्धजनमावर्जयति स द्वितीय: परीक्षाऽक्षमतया असारत्वादेव, यस्तु स्वसमय-परसमयज्ञ: क्रियादिगुणयुक्तश्च स तृतीय: सारतरत्वात्, यस्तु समस्ताचार्यगुणयुक्ततया तीर्थकरकल्प: स चतुर्थः सारतमत्वात् सुधर्मादिवदिति 5 १७ । सालो नामैक: सालाभिधानवृक्षजातियुक्तत्वात्, सालस्यैव पर्याया धर्मा बहलच्छायत्वा-ऽऽसेव्यत्वादयो यस्य स: सालपर्याय इत्येकः, सालो नामैक इति तथैव एरण्डस्येव पर्याया धर्मा अबहलच्छायत्वा-ऽसेव्यत्वादयो यस्य स एरण्डपर्याय इति द्वितीयः, एरण्डो नामैक एरण्डाभिधानवृक्षजातीयत्वात् सालपर्यायो 10 बहलच्छायत्वादिधर्मयुक्तत्वादिति तृतीयः, एरण्डो नामैकस्तथैव एरण्डपर्याय: अबहलच्छायत्वाद्येरण्डधर्मयुक्तत्वादिति चतुर्थः १८, आचार्यस्तु साल इव सालः, यथा हि साल: जातिमानेवमाचार्योऽपि य: सत्कुल: सद्गुरुकुलश्च स साल एवोच्यते, तथा सालपर्याय: सालधा, यथा हि साल: सच्छायत्वादिधर्मयुक्त एवं यो ज्ञानक्रियाप्रभवयश:प्रभृतिगुणयुक्तो भवति स तथोच्यते इत्येकः, तथा सालो नामैक इति 15 तथैव, एरण्डपर्यायस्तूक्तविपर्ययादिति द्वितीय:, एवमितरावपीति १९, तथा सालस्तथैव, साल एव परिवारः परिकरो यस्य स सालपरिवारः, एवं शेषत्रयमिति २०, आचार्यस्तु साल इव सालो गुरुकुल-श्रुतादिभिरुत्तमत्वात्, सालपरिवारः सालकल्पमहानुभावसाधुपरिकरत्वात्, तथा एरण्डपरिवार: एरण्डकल्पनिर्गुणसाधुपरिकरत्वात्, एवमेरण्डोऽपि श्रुतादिभिहीनत्वादिति, चतुर्थः सुज्ञानः। उक्तचतुर्भङ्ग्या एव भावनार्थं 20 सालदुमेत्यादि गाथाचतुष्कं व्यक्तम्, नवरं मङ्गुलम् असुन्दरम् २१ ।। ___ अनुश्रोतसा चरतीत्यनुश्रोतश्चारी नद्यादिप्रवाहगामी, एवमन्ये त्रय: २२, एवं भिक्षाकः साधुः, यो ह्यभिग्रहविशेषादुपाश्रयसमीपात् क्रमेण कुलेषु भिक्षते सोऽनुश्रोतश्चारिमत्स्यवदनुश्रोतश्चारी प्रथमः, यस्तूत्क्रमेण गृहेषु भिक्षमाण उपाश्रयमायाति स द्वितीयः, यस्तु क्षेत्रान्तेषु भिक्षते स तृतीय:, क्षेत्रमध्ये चतुर्थ: २३ । १. शालो जे१ । एवमग्रेऽपि सर्वत्र ॥ २. °च्छायात्वसेव्य खं० ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३४६-३५२] चतुर्थमध्ययनं चतु: स्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४६७ मधुसिक्थं मदनम्, तस्य गोलो वृत्तपिण्डो मधुसिक्थगोल:, एवमन्येऽपि, नवरं जतु लाक्षा, दारु- मृत्तिके प्रसिद्धे इति २४, यथैते गोला मृदु- कठिन - कठिनतरकठिनतमाः क्रमेण भवन्त्येवं ये पुरुषाः परीषहादिषु मृदु-दृढ-दृढतर- दृढतमसत्त्वा भवन्ति मधुसिक्थगोलसमाना इत्यादिभिर्व्यपदेशैर्व्यपदिश्यन्त इति २५ । अयोगोलादयः प्रतीताः २६, एतैश्चायोगोलकादिभिः क्रमेण गुरु- गुरुतर - गुरुतमा- 5 ऽत्यन्तगुरुभिः आरम्भादिविचित्र प्रवृत्त्युपार्जितकर्म्मभारा ये पुरुषा भवन्ति तेऽयोगोलसमाना इत्यादिव्यपदेशवन्तो भवन्ति पितृ - मातृ-पुत्र - कलत्रगतस्नेहभारतो वेति २७ । हिरण्यादिगोलेषु क्रमेणाल्पगुण गुणाधिक-गुणाधिकतर गुणाधिकतमेषु पुरुषाः समृद्धितो ज्ञानादिगुणतो वा समानतया योज्याः २९ । पत्राणि पर्णानि, तद्वत् प्रतनुतया यानि अस्यादीनि तानि पत्राणीति, असि: खड्ग:, 10 स एव पत्रमसिपत्रम्, करपत्रं क्रकचं येन दारु छिद्यते, क्षुर: छुरः, स एव पत्रं क्षुरपत्रम्, कदम्बचीरिकेति शस्त्रविशेष इति ३०, तत्र द्राक् छेदकत्वादसेर्य: पुरुषो द्रागेव स्नेहपाशं छिनत्ति सोऽसिपत्रसमानः, अवधारितदेववचनसनत्कुमारचक्रवर्त्तिवत्, यस्तु पुनः पुनरुच्यमानो भावनाभ्यासात् स्नेहतरं छिनत्ति स करपत्रसमानः, तथाविधश्रावकवत्, करपत्रस्य हि गमनागमनाभ्यां कालक्षेपेण छेदकत्वादिति, यस्तु 15 श्रुतधर्म्ममार्गोऽपि सर्वथा स्नेहच्छेदासमर्थो देशविरतिमात्रमेव प्रतिपद्यते स क्षुरपत्रसमानः, क्षुरो हि केशादिकमल्पमेव छिनत्तीति, यस्तु स्नेहच्छेदं मनोरथमात्रेणैव करोति स चतुर्थ: अविरतसम्यग्दृष्टिरिति, अथवा यो गुर्वादिषु शीघ्र - मन्द मन्दतर- मन्दतमतया स्नेहं छिनत्ति स एवमपदिश्यते ३१ । कम्बादिभिरातान-वितानभावेन निष्पाद्यते यः स कटः, कट इव कट इत्युपचारात् 20 तन्त्वादिमयोऽपि कट एवेति तत्र सुंठकडे त्ति तृणविशेषनिष्पन्नः, विदलकडे वंशशकलकृतः, चम्मकडे त्ति वर्धव्यूतमञ्चकादिः, कंबलकडे त्ति कम्बलमेवेति ३२ । एतेषु चाल्पप-बहु-बहुतर-बहुतमावयवप्रतिबन्धेषु पुरुषा योजनीयाः, तथाहियस्य गुर्वादिष्वल्पः प्रतिबन्धः स्वल्पव्यलीकादिनापि विगमात् स सुण्ठकटसमान इत्येवं सर्वत्र भावनीयमिति ३३ । १. शिक्थ जे१ ॥ 25 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चतुष्पदाः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः, एकः खुरः पादे पादे येषां ते एकखुराः अश्वादयः, एवं द्वौ खुरौ येषां ते तथा, ते च गवादयः, गण्डी सुवर्णकारादीनामधिकरण गण्डिका, तद्वत् पदानि येषां ते तथा, ते च हस्त्यादयः, सणप्पय त्ति सनखपदाः नाखराः सिंहादयः, इहोत्तरसूत्रद्वये च जीवानां पुरुषशब्दवाच्यत्वात् पुरुषाधिकारतेति 5 ३४ । चर्ममयपक्षाः पक्षिणश्चर्म्मपक्षिणो वल्गुलीप्रभृतयः, एवं लोमपक्षिणो हंसादय:, समुद्रकवत् पक्षौ येषां ते समुद्रकपक्षिणः, समासान्त इन्, ते च बहिद्वीप - समुद्रेषु, एवं विततपक्षिणोऽपीति ३५ । ४६८ क्षुद्रा अधमा अनन्तरभवे सिद्ध्यभावात् प्राणा उच्छ्वासादिमन्तः क्षुद्रप्राणा:, संमूर्च्छन निर्वृत्ता: सम्मूर्च्छिमाः, तिरश्चां सत्का योनिर्येषां ते तथा, ततः पदत्रयस्य 10 कर्मधारये सति सम्मूर्च्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका इति भवति ३६ । निपतिता नीडादवतरीता अवतरीतुं शक्तो नामैक: पक्षी धृष्टत्वादज्ञत्वाद्वा न तु परिव्रजिता न परिव्रजितुं शक्तो बालत्वादित्येकः, एवमन्यः परिव्रजितुं शक्तः पुष्टत्वान्न तु निपतितुं भीरुत्वात्, अन्यस्तूभयथा, चतुर्थस्तूभयप्रतिषेधवानतिबालत्वादिति ३७। निपतिता भिक्षाचर्यायामवतरीता भोजनाद्यर्थित्वान्न तु परिव्रजिता परिभ्रमको 15 ग्लानत्वादलसत्वाल्लज्जालुत्वाद्वेत्येकः, अन्यः परिव्रजिता परिभ्रमणशील आश्रयान्निर्गतः सन् न तु निपतिता भिक्षार्थमवतरीतुमशक्तः सूत्रार्थासक्तत्वादिना, शेषौ स्पष्टौ ३८ । निष्कृष्टः निष्कर्षितः तपसा कृशदेह इत्यर्थः, पुनर्निष्कृष्टो भावतः कृशीकृतकषायत्वादेवमन्ये त्रय इति ३९ । एतद्भावनार्थमेवानन्तरं सूत्रम् - निष्कृष्टः कृशशरीरतया, तथा निष्कृष्टः आत्मा कषायादिनिर्म्मथनेन यस्य स तथेत्येवमन्ये त्रय 20 इति । अथवा निष्कृष्टस्तपसा कृशीकृतः पूर्वं पश्चादपि तथैवेत्येवमाद्यसूत्रं व्याख्येयम्, द्वितीयं तु यथोक्तमेवेति ४० । बुधो बुधत्वकार्यभूतसत्क्रियायोगात्, उक्तं च पठकः पाठकश्चैव ये चान्ये तत्त्वचिन्तकाः । सर्वे ते व्यसनिनो राजन् ! यः क्रियावान् स पण्डितः ॥ [ ] इति । पुनर्बुधः सविवेकमनस्त्वादित्येकः । अन्यो बुधस्तथैव, अबुधस्त्वविविक्तमनस्त्वात् । 25 अपरस्त्वबुधोऽसत्क्रियत्वात्, बुधो विवेकवच्चित्तत्वात् । चतुर्थ उभयनिषेधादिति ४१ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३५३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४६९ अनन्तरसूत्रेणैतदेव व्यक्तीक्रियते- बुधः सक्रियत्वात् बुधं हृदयं मनो यस्य स बुधहृदयो विवेचकमनस्त्वात्, अथवा बुधः शास्त्रज्ञत्वात् बुधहृदयस्तु कार्येष्वमूढलक्षत्वादित्येकः, एवमन्ये त्रय ऊह्या: ४२ । । आत्मानुकम्पक: आत्महितप्रवृत्त: प्रत्येकबुद्धो जिनकल्पिको वा परानपेक्षो वा निघृणः, परानुकम्पको निष्ठितार्थतया तीर्थकर: आत्मानपेक्षो वा दयैकरसो मेतार्यवत्, उभयानुकम्पक: स्थविरकल्पिकः, उभयाननुकम्पक: पापात्मा कालशौकरिकादिरिति ४३ । [सू० ३५३] चउव्विहे संवासे पन्नत्ते, तंजहा-दिव्वे, आसुरे, रक्खसे, माणुसे १ । ___ चउव्विधे संवासे पन्नत्ते, तंजहा-देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, 10 देवे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति १ । चउव्विधे संवासे पन्नत्ते, तंजहा-देवे नाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, देवे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे णाममेगे ह [= ४], २। 15 __ चउव्विधे संवासे पन्नत्ते, तंजहा-देवे नाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, देवे नाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति ह [= ४], ३ । चउव्विधे संवासे पन्नत्ते, तंजहा-असुरे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति, असुरे णाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति ह [= ४], ४ । चउव्विधे संवासे पन्नत्ते, तंजहा-असुरे णाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं 20 गच्छति, असुरे णाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति ह्व [= ४], ५ । - चउव्विधे संवासे पन्नत्ते, तंजहा-रक्खसे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे नाममेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छति ह [= ४], ६। [टी०] अनन्तरं पुरुषभेदा उक्ताः, अधुना तद्व्यापारविशेषं तद्वेदसम्पाद्यमभिधित्सुः १. सौक जे२ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सूत्रसप्तकमाह- चउव्विहे संवासेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं स्त्रिया सह संवसनं शयनं संवासः, द्यौः स्वर्गः, तद्वासी देवोऽप्युपचाराद् द्यौस्तत्र भवो दिव्यो वैमानिकसम्बन्धीत्यर्थः, असुरस्य भवनपतिविशेषस्यायमासुर एवमितरौ, नवरं राक्षसो व्यन्तरविशेष: । चतुर्भङ्गिकासूत्राणि देव ३ | असुर २ | राक्षस १ | मनुष्य 5 देवासुरेत्येवमादिसंयोगत: षट् संभवन्ति ।। वान्त । देवी | असुरी | राक्षसी | नारी [सू० ३५४] चउव्विहे अवद्धंसे पन्नत्ते, तंजहा-आसुरे, आभिओगे, संमोहे, देवकिब्बिसे । चउहिं ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताते कम्मं पगरेंति, तंजहा-कोधसीलताते, पाहुडसीलताते, संसत्ततवोकम्मेणं, निमित्ताजीवताते । । 10 चउहि ठाणेहिं जीवा आभिओग्गत्ताते कम्मं पगरेंति, तंजहा-अत्तुक्कोसेणं, परपरिवातेणं, भूतिकम्मेणं, कोउयकरणेणं । चउहिं ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताते कम्मं पगरेंति, तंजहा-उम्मग्गदेसणाए मग्गंतराएणं, कामासंसपओगेणं, भिज्झानियाणकरणेणं । चउहि ठाणेहिं जीवा देवकिब्बिसियत्ताते कम्मं पगरेंति, तंजहा-अरहंताणं 15 अवन्नं वदमाणे, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे, आयरियउवज्झायाणमवन्नं वदमाणे, चाउवनस्स संघस्स अवन्नं वदमाणे । [टी०] पुरुषक्रियाधिकारादेवापध्वंससूत्रम्, तत्रापध्वंसनमपध्वंस: चारित्रस्य तत्फलस्य वा असुरादिभावनाजनितो विनाशः, तत्रासुरभावनाजनित आसुरः, येषु वाऽनुष्ठानेषु वर्तमानोऽसुरत्वमर्जयति तैरात्मनो वासनमासुरभावना, एवं भावनान्तरमपि, 20 अभियोगभावनाजनित आभियोगः, सम्मोहभावनाजनितः साम्मोहः, देवकिल्बिषभावनाजनितो दैवकिल्बिष इति, इह च कन्दर्पभावनाजनित: कान्दोऽपध्वंस: पञ्चमोऽस्ति, स च सन्नपि नोक्तः, चतुःस्थानकानुरोधात्, भावना हि पञ्चाऽऽगमेऽभिहिता:, आह च १. षड् भवन्ति पा० जे२ ॥ २. दृश्यतां पृ० ४६४ टि० २ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ 5 [सू० ३५४] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । कंदप्प २ देवकिब्बिस २ अभिओगा ३ आसुरा य ४ संमोहा ५ । एसा उ संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिया ॥ [बृहत्कल्प० १२९३] आसां च मध्ये यो यस्यां भावनायां वर्तते स तद्विधेषु देवेषु गच्छति चारित्रलेशप्रभावात्, उक्तं च जो संजओ वि एयासु अप्पसत्थासु वटइ कहिं(हं?)चि । सो तविहेसु गच्छइ सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥ [बृहत्कल्प० १२९४] इति । __ आसुरादिरपध्वंस उक्तः, स चासुरत्वादिनिबन्धन इत्यसुरादिभावनास्वरूपभूतान्यसुरादित्वसाधनकर्मणां कारणानि सूत्रचतुष्टयेनाह- चउहिं ठाणेहीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् असुरेषु भव आसुर: असुरविशेषः, तद्भाव: आसुरत्वम्, तस्मै आसुरत्वाय तदर्थमित्यर्थः, अथवा असुरतायै असुरतया वा कर्म तदायुष्कादि 10 प्रकुर्वन्ति कर्तुमारभन्ते, तद्यथा-क्रोधनशीलतया कोपस्वभावत्वेन, प्राभृतशीलतया कलहनस्वरूपतया, संसक्ततपःकर्मणा आहारोपधिशय्यादिप्रतिबद्धभावतपश्चरणेन, निमित्ताजीवनतया त्रैकालिकलाभालाभादिविषयनिमित्तोपात्ताहाराद्युपजीवनेनेति, अयमर्थोऽन्यत्रैवमुक्त:अणुबद्धविग्गहो च्चिय संसत्ततवो निमित्तमाएसी । 15 निक्किव णिराणुकंपो आसुरियं भावणं कुणइ ॥ [बृहत्कल्प० १३१५] इति । तथा अभियोगं व्यापारणमर्हन्तीत्य॑भियोग्या: किङ्करदेवविशेषाः, तद्भावस्तत्ता, तस्यै तया वेति, आत्मोत्कर्षेण आत्मगुणाभिमानेन, परपरिवादेन परदोषपरिकीर्तनेन, भूतिकर्मणा ज्वरितादीनां भूत्यादिभी रक्षादिकरणेन, कौतुककरणेन सौभाग्यादिनिमित्तं परस्नपनकादिकरणेनेति, इयमप्येवमन्यत्र कोउय भूईकम्मे पसिणा इयरे निमित्तमाजीवी । इढिरससायगुरुओ अभिओगं भावणं कुणइ ॥ [बृहत्कल्प० १३०८] इति । प्रश्नोऽङ्गुष्ठप्रश्नादिः, इतरः स्वप्नविद्यादिरिति । तथा सम्मुह्यतीति सम्मोहः मूढात्मा देवविशेष एव, तद्भावस्तत्ता, तस्यै सम्मोहतायै सम्मोहत्वाय सम्मोहतया वेति, उन्मार्गदेशनया सम्यग्दर्शनादिरूपभावमार्गातिक्रान्त- 25 १. संबंधतया पा० जे२ ॥ २. चिय पा० जे२ ॥ ३. 'त्याभि' पा० जे२ ॥ 20 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे धर्मप्रथनेन, मार्गान्तरायेण मोक्षाध्वप्रवृत्ततद्विघ्नकरणेन, कामाशंसाप्रयोगेण शब्दादावभिलाषकरणेन, भिज त्ति लोभो गृद्धिस्तेन निदानकरणम् ‘एतस्मात् तप:प्रभृतेश्चक्रवर्त्यादित्वं मे भूयात्' इति निकाचनाकरणम्, तेनेति, इयमप्येवमन्यत्र उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ मग्गविप्पडीवत्ती । 5 मोहेण य मोहेत्ता संमोहं भावणं कुणइ ॥ [बृहत्कल्प० १३२१] इति । देवानां मध्ये किल्बिष: पापोऽत एवास्पृश्यादिधर्मको देवश्चासौ किल्बिर्षश्चेति वा देवकिल्बिष:, शेषं तथैव, अवर्ण: अश्लाघा असद्दोषोद्घट्टनमित्यर्थः, अयमर्थोऽन्यत्रैवमुच्यते नाणस्स केवलीणं धम्मायरियाण सव्वसाहूणं । 10 भासं अवन्न माई किब्बिसियं भावणं कुणइ ॥ [बृहत्कल्प० १३०२] इति । इह कन्दर्पभावना नोक्ता चतु:स्थानकत्वादिति, अवसरश्चायमस्या इति सा प्रदर्श्यतेकंदप्पे कुक्कुइए दवसीले यावि हासणकरे य । विम्हाविंतो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ [बृहत्कल्प० १२९५] इति । कन्दर्प: कन्दर्पकथावान्, कुत्कुचितो भाण्डचेष्टः, द्रवशीलो दर्पात् द्रुतगमन15 भाषणादिः, हासनकरो वेष-वचनादिना स्व-परहासोत्पादकः, विस्मापकः इन्द्रजाली। [सू० ३५५] चउव्विधा पव्वजा पन्नत्ता, तंजहा-इहलोगपडिबद्धा, परलोगपडिबद्धा, दुहतोलोगपडिबद्धा, अपडिबद्धा १ । चउव्विहा पव्वजा पत्नत्ता, तंजहा-पुरओ पडिबद्धा, मग्गओ पडिबद्धा, दुहतो पडिबद्धा, अपडिबद्धा २ । 20 चउव्विहा पव्वज्जा पन्नत्ता, तंजहा-ओवातपव्वज्जा, अक्खातपव्वज्जा, संगारपव्वज्जा, विहगपव्वज्जा ३ । चउव्विहा पव्वजा पन्नत्ता, तंजहा-तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, मोयावइत्ता, परिपूयावइत्ता ४ । १. णेन । भि' जे१ । °णेनाभि खं० पा० जे२ । एतदनुसारेण अभिज्जानियाणकरणेणं इति पाठोऽप्यत्र मूले संभवेत् ॥ २. करणेन वास्मात् पा० जे२ ॥ ३. "षिकश्चेति जे१ ॥ ४. कुतुकुचि जे१ । कुकुचि' खं० ॥ ५. ओयावयित्ता पूयावयित्ता बुयावयित्ता परिवुयावयित्ता भा० ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ [सू० ३५५] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । चउव्विहा पव्वजा पन्नत्ता, तंजहा-नडखइया, भडखइया, सीहखइया, सियालखइया ५ ।। चउव्विहा किसी पन्नत्ता, तंजहा-वाविता, परिवाविया, प्रिंदिता, परिणिंदिता ६ । एवामेव चउव्विहा पव्वजा पनत्ता, तंजहा-वाविता, परिवाविता, प्रिंदिता, परिणिंदिता ७ ।। 5 चउव्विहा पव्वजा पन्नत्ता, तंजहा-धन्नपुंजितसमाणा, धनविरल्लितसमाणा, धन्नविक्खित्तसमाणा, धन्नसंकड्डितसमाणा ८ । [टी०] अयं चापध्वंस: प्रव्रज्यान्वितस्येति प्रव्रज्यानिरूपणाय चउब्विहा पव्वज्जेत्यादि सूत्राष्टकं कण्ठ्यम्, किन्तु इहलोकप्रतिबद्धा निर्वाहादिमात्रार्थिनाम्, परलोकप्रतिबद्धा जन्मान्तरकामाद्यर्थिनाम्, द्विधालोकप्रतिबद्धोभयार्थिनाम्, 10 अप्रतिबद्धा विशिष्टसामायिकवतामिति । पुरत: अग्रत: प्रव्रज्यापर्यायभाविषु शिष्या-ऽऽहारादिषु या प्रतिबद्धा सा तथोच्यते, एवं मार्गत: पृष्ठतः स्वजनादिषु, द्विधाऽपि काचित्, अप्रतिबद्धा पूर्ववत् । ओवाय त्ति अवपात: सद्गुरूणां सेवा, ततो या प्रव्रज्या साऽवपातप्रव्रज्या, आख्यातस्य ‘प्रव्रज' इत्याद्युक्तस्य या स्यात् साऽऽख्यातप्रव्रज्या आर्यरक्षितभ्रातु: 15 फल्गुरक्षितस्येवेति, संगार त्ति सङ्केतः, तस्माद्या सा तथा मेतार्यादीनामिव, यदिवा 'यदि त्वं प्रव्रजसि तदाऽहमपि' इत्येवं सङ्केततो या सा तथेति, विहगगइ त्ति विहगगत्या पक्षिन्यायेन परिवारादिवियोगेनैकाकिनो देशान्तरगमनेन च या सा विहगगतिप्रव्रज्या, क्वचिद् विहगपव्वजे ति पाठस्तत्र विहगस्येवेति दृश्यमिति, विहतस्य वा दारिद्र्यादिभिररिभिर्वेति । 20 तुयावइत्त त्ति तोदं कृत्वा तोदयित्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते, ओयावइत्त त्ति क्वचित् पाठस्तत्र ओजो बलं शारीरं विद्यादिसत्कं वा तत् कृत्वा प्रदर्श्य या दीयते सा ओजयित्वेत्यभिधीयते, पुयावइत्त त्ति प्लुङ गतौ पा० धा० ९५८] इति वचनात् प्लावयित्वा अन्यत्र नीत्वाऽऽर्यरक्षितवत, १. इमाः सर्वाऽपि कथाः प्रथमभागे प्रथमपरिशिष्टे द्रष्टव्याः ।। 1-A-15 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पूतं वा दूषणव्यपोहेन कृत्वा या सा पूतयित्वेति, बुयावइत्त त्ति सम्भाष्य गौतमेन कर्षकवत्, वचनं वा पूर्वपक्षरूपं कारयित्वा निगृह्य च प्रतिज्ञावचनं वा कारयित्वा या सा तथोक्ता, क्वचित् मोयावइत्त त्ति पाठस्तत्र मोचयित्वा साधुना तैलार्थदासत्वप्राप्तभगिनीवदिति, परिवुयावइत्त त्ति घृतादिभिः परिप्लुतभोजन: परिप्लुत 5 एव तं कृत्वा परिप्लुतयित्वा सुहस्तिना रङ्कवत् या सा तथोच्यत इति । नटस्येव संवेगविकलधर्मकथाकरणोपार्जितभोजनादीनां खइय त्ति खादितं भक्षणं यस्यां सा नटखादिता, नटस्येव वा खइव त्ति संवेगशून्यधर्मकथनलक्षणो हेवाक: स्वभावो यस्यां सा तथा, एवं भटादिष्वपि, नवरं भट: तथाविधबलोपदर्शनलब्धभोजनादे: खादिता आरभटवृत्तिलक्षणहेवाको वा, सिंह: पुन: शौर्यातिरेकादवज्ञयोपात्तस्य 10 यथारब्धभक्षणेन वा खादिता तथाविधप्रकृतिर्वा, शृगालस्तु न्यग्वृत्त्योपात्तस्यान्यान्यस्थानभक्षणेन वा खादिता तत्स्वभावो वेति ।। कृषि: धान्यार्थं क्षेत्रकर्षणम्, वाविय त्ति सकृद्धान्यवपनवती, परिवाविय त्ति द्विस्त्रिर्वा उत्पाट्य स्थानान्तरारोपणत: परिवपनवती शालिकृषिवत्, निंदिय त्ति एकदा विजातीयतृणाद्यपनयनेन शोधिता निदाता, परिनिंदिय त्ति द्विस्त्रिर्वा तृणादिशोधनेनेति, 15 प्रव्रज्या तु वाविया सामायिकारोपणेन, परिवाविया महाव्रतारोपणेन निरतिचारस्य सातिचारस्य वा मूलप्रायश्चित्तदानतः, 'निंदिया सकृदतिचारालोचनेन, परिणिंदिया पुन: पुनरिति । धन्नपुंजियसमाण त्ति खले लून-पून-विशुद्ध-पुञ्जीकृतधान्यसमाना सकलातिचारकचवरविरहेण लब्धस्वस्वभावत्वात् एका, अन्या तु खलक एव यद्विरेल्लितं विसारितं 20 वायुना पूनमपुञ्जीकृतं धान्यं तत्समाना या हि लघुनापि यत्नेन स्वस्वभावं लप्स्यत इति, अन्या तु यद्विकीर्ण गोखुरक्षुण्णतया विक्षिप्तं धान्यं तत्समाना या हि सहजसमुत्पन्नातिचारकचवरयुक्तत्वात् सामग्र्यन्तरापेक्षितया कालक्षेपलभ्यस्वस्वभावा सा धान्यविकीर्णसमानोच्यते, अन्या तु यत् सङ्कर्षितं क्षेत्रादाकर्षितं खलमानीतं धान्यं तत्समाना, या हि बहुतरातिचारोपेतत्वाद् बहुतरकालप्राप्तव्यस्वस्वभावा सा १. निद्दिय जे१ ॥ २. निहिय जे१ ॥ ३-४. निद्दिया जे१ खं० ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३५६] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४७५ धान्यसङ्कर्षितसमानेति, इह च पुञ्जितादेर्धान्यविशेषणस्य परनिपात: प्राकृतत्वादिति॥ [सू० ३५६] चत्तारि सन्नाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आहारसन्ना, भयसन्ना, मेहणसन्ना, परिग्गहसन्ना १ ।। चउहिं ठाणे हिं आहारसन्ना समुप्पजति, तंजहा-ओमकोढताते, छुहावेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं, मतीते, तदह्रोवओगेणं २ । चउहि ठाणेहिं भयसन्ना समुप्पजति, तंजहा-हीणसत्तताते, भयवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीते, तदट्ठोवओगेणं ३ । चउहि ठाणेहिं मेहुणसन्ना समुप्पजति, तंजहा-चितमंससोणिययाए, मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं, मतीते, तदट्ठोवओगेणं ४ । चउहिं ठाणेहिं परिग्गहसन्ना समुप्पजति, तंजहा-अविमुत्तयाए, 10 लोभवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं, मतीते, तदट्ठोवओगेणं ५ । [टी०] इयं च प्रव्रज्या एवं विचित्रा संज्ञावशाद्भवतीति संज्ञानिरूपणाय सूत्रपञ्चकं चत्तारीत्यादि व्यक्तम्, केवलं संज्ञानं संज्ञा चैतन्यम्, तच्चासातवेदनीयमोहनीयकम्र्मोदयजन्यविकारयुक्तमाहारसंज्ञादित्वेन व्यपदिश्यत इति, तत्राहारसंज्ञा आहाराभिलाष:, भयसंज्ञा भयमोहनीयसम्पाद्यो जीवपरिणामः, मैथुनसंज्ञा 15 वेदोदयजनितो मैथुनाभिलाष:, परिग्रहसंज्ञा चारित्रमोहोदयजनित: परिग्रहाभिलाष इति। अवमकोष्ठतया रिक्तोदरतया, मत्या आहारकथाश्रवणादिजनितया, तदर्थोपयोगेन सततमाहारचिन्तयेति । हीनसत्त्वतया सत्त्वाभावेन, मति: भयवार्ताश्रवण-भीषणदर्शनादिजनिता बुद्धिः, तया, तदर्थोपयोगेन इहलोकादिभयलक्षणार्थपर्यालोचनेनेति । 20 चिते उपचिते मांस-शोणिते यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता, तया चित- । मांसशोणिततया, मत्या सुरतकथाश्रवणादिजनितबुद्ध्या, तदर्थोपयोगेन मैथुनलक्षणार्थानुचिन्तनेनेति ।। अविमुक्ततया सपरिग्रहतया, मत्या सचेतनादिपरिग्रहदर्शनादिजनितबुद्ध्या, तदर्थोपयोगेन परिग्रहानुचिन्तनेनेति । 25 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ३५७] चउब्विहा कामा पन्नत्ता, तंजहा-सिंगारा, कलुणा, बीभच्छा, रोहा । सिंगारा कामा देवाणं, कलुणा कामा मणुयाणं, बीभच्छा कामा तिरिक्खजोणियाणं, रोद्दा कामा जेरइयाणं । __[टी०] संज्ञा हि कामगोचरा भवन्तीति कामनिरूपणसूत्रं व्यक्तं च, किन्तु कामा: 5 शब्दादय:, शृङ्गारा देवानाम् ऐकान्तिकात्यन्तिकमनोज्ञत्वेन प्रकृष्टरतिरसास्पदत्वादिति, रतिरूपो हि शृङ्गारः, यदाह- व्यवहारः पुं-नार्योरन्योन्यं रक्तयो रतिप्रकृति: शृङ्गारः [काव्यालं० १२।५] इति। मनुष्याणां करुणा मनोज्ञत्वस्यातथाविधत्वात्तुच्छत्वेन क्षणदृष्टनष्टत्वेन शुक्र-शोणितादिप्रभवदेहाश्रितत्वेन च शोचनात्मकत्वात्, करुणो हि रस: शोकस्वभाव:, करुणः शोकप्रकृतिः [काव्यालं० १५॥३] इति वचनादिति । तिरश्चां बीभत्सा 10 जुगुप्सास्पदत्वात्, बीभत्सरसो हि जुगुप्सात्मकः, यदाह- भवति जुगुप्साप्रकृतिर्बीभत्स: काव्यालं० १५।५] इति । नैरयिकाणां रौद्रा दारुणा अत्यन्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात्, रौद्ररसो हि क्रोधरूपः, यत आह- रौद्रः क्रोधप्रकृतिः [काव्यालं० १५।१३] इति । . [सू० ३५८] चत्तारि उदगा पन्नता, तंजहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदए, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदए, गंभीरे णाममेगे 15 गंभीरोदए १ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-उत्ताणे नाममेगे उत्ताणहिदए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरहिदए ह्व [= ४], २ । ___ चत्तारि उदगा पन्नत्ता, तंजहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ह्व [= ४], ३ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ह [3 20 ४], ४ । __चत्तारि उदही पन्नत्ता, तंजहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदही, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदही ह [= ४], ५ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहाउत्ताणे णाममेगे उत्ताणहियए ह्व [= ४], ६ । चत्तारि उदही पन्नत्ता, तंजहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी, उत्ताणे 25 णाममेगे गंभीरोभासी ह्व [= ४], ७ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७७ [सू० ३५८] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । तंजहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी ह्व [= ४], ८ । [टी०] एते च कामा: तुच्छ-गम्भीरयोर्बाधकेतरा इति तावभिधित्सुः सदृष्टान्तान्यष्टौ सूत्राण्याह चत्तारीत्यादीनि व्यक्तानि च, किन्तु उदकानि जलानि प्रज्ञप्तानि, तत्रोत्तानं नामैकं तुच्छत्वात् प्रतलमित्यर्थः, पुनरुत्तानं स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वाददकं जलम्, उत्ताणोदये त्ति व्यस्तोऽयं निर्देश: प्राकृतशैलीवशात् समस्त इवावभासते, न 5 च मूलोपात्तेनोदकशब्देनायं गतार्थो भविष्यतीति वाच्यम्, तस्य बहुवचनान्तत्वेनेहासम्बध्यमानत्वात्, साक्षादुदकशब्दे च सति किं तस्य वचनपरिणामादनुकर्षणेनेत्येवमुदधिसूत्रेऽपि भावनीयमिति १। तथोत्तानं तथैव, गम्भीरमुदकं गडुलत्वादनुपलभ्यमानस्वरूपम् २, तथा गम्भीरम् अगाधं प्रचुरत्वादुत्तानमुदकं स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वात् ३, तथा गम्भीरमगाधत्वात् 10 पुनर्गम्भीरमुदकं गडुलत्वादिति ४ । पुरुषस्तु उत्तान: अगम्भीरो बहिर्दर्शितमददैन्यादिजन्यविकृतकायवाक्चेष्टत्वादुत्तानहृदयस्तु दैन्यादियुक्तगुह्यधरणासमर्थचित्तत्वादित्येकः । अन्य उत्तान: कारणवशाद्दर्शितविकृतचेष्टत्वात् गम्भीरहृदयस्तु स्वभावेनोत्तानहृदयविपरीतत्वात् । तृतीयस्तु गम्भीरो दैन्यादिव(म?)त्त्वेऽपि कारणवशात् संवृताकारतया, उत्तानहृदयस्तथैव । चतुर्थः प्रथमविपर्ययादिति । तथा उत्तानं 15 प्रतलत्वादुत्तानमवभासते स्थानविशेषात् १। तथोत्तानं तथैव, गम्भीरम् अगाधमवभासते सङ्कीर्णाश्रयत्वादिना २। तथा गम्भीरम् अगाधमुत्तानावभासि तु विस्तीर्णस्थानाश्रयत्वादिना ३। तथा गम्भीरम् अगाधं गम्भीरावभासि तथाविधस्थानाश्रितत्वादिनैवेति ४, पुरुषस्तूत्तान: तुच्छः, उत्तान एवावभासते प्रदर्शिततुच्छत्वविकारत्वाद्, द्वितीय: संवृतत्वात्, तृतीय: कारणतो दर्शितविकारत्वात्, 20 चतुर्थः सुज्ञान: । तथा उदकसूत्रद्वयवदुदधिसूत्रद्वयमपि सदार्टान्तिकमवसेयमिति, अथवा उत्तान: सगाधत्वादेक उदधिः उदधिदेश: पूर्वम्, पश्चादपि उत्तान एव वेलाया बहिःसमुद्रेष्वभावात्, द्वितीयस्तूत्तान: पूर्वं पश्चाद् गम्भीरो वेलाऽऽगमेनागाधत्वात्, तृतीयस्तु गम्भीरः पूर्वं पश्चात् वेलाविगमेनोत्तान उदधिः, चतुर्थः सुज्ञान: । १. संबंध्य जे१ ॥ २. "द्वयमपि सदार्टी' जे१ खं० ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ३५९] चत्तारि तरगा पन्नत्ता, तंजहा-समुदं तरामीतेगे समुदं तरति, समुदं तरामीतेगे गोप्पतं तरति, गोप्पतं तरामीतेगे ह [= ४], १ ।। चत्तारि तरगा पन्नत्ता, तंजहा-समुदं तरित्ता नाममेगे समुद्दे विसीतति, समुदं तरेत्ता णाममेगे गोप्पते विसीतति, गोप्पतं ह्व [= ४], २ ।। 5 [सू० ३६०] चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तंजहा-पुण्णे नाममेगे पुन्ने, पुन्ने नाममेगे तुच्छे, तुच्छे णाममेगे पुण्णे, तुच्छे णाममेगे तुच्छे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-पुण्णे नाममेगे पुन्ने ह्व [= ४] । ___चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तंजहा-पुन्ने नाममेगे पुण्णोभासी, पुण्णे नाममेगे तुच्छोभासी ह [= ४], एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पनत्ता, तंजहा-पुन्ने 10 णाममेगे पुनोभासी ह [= ४] । ___ चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तंजहा-पुण्णे नाममेगे पुनरूवे, पुन्ने नाममेगे तुच्छरूवे ह्व [= ४] । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-पुण्णे नाममेगे पुनरूवे ह्व [= ४] । चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तंजहा-पुन्ने वि एगे पियट्टे, पुन्ने वि एगे अवदले, 15 तुच्छे वि एगे पियट्टे, तुच्छे वि एगे अवदले । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-पुण्णे वि एगे पियढे तहेव । __ चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तंजहा-पुन्ने वि एगे विस्संदति, पुन्ने वि एगे णो विस्संदति, तुच्छे वि एगे विस्संदइ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तंजहा-पुन्ने वि एगे विस्संदति तहेव । 20 चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तंजहा-भिन्ने, जजरिए, परिस्साई, अपरिस्साई । एवामेव चउब्विहे चरित्ते पन्नत्ते, तंजहा-भिन्ने जाव अपरिस्साई । चत्तारि कुंभा पन्नत्ता, तंजहा-महुकुंभे नाम एगे महुप्पिहाणे, महुकुंभे णाम एगे विसप्पिहाणे, विसकुंभे नामं एगे महुप्पिहाणे, विसकुंभे णाममेगे विसप्पिहाणे । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-मधुकुंभे नाम एगे 25 मधुप्पिहाणे ह्र [= ४] । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ [सू० ३५९] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । हिययमपावमकलुसं जीहा वि य मधुरभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विजति से मधुकुंभे मधुपिहाणे ॥२६॥ हिययमपावमकलुसं जीहा वि य कडुयभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति से मधुकुंभे विसपिधाणे ॥२७॥ जं हिययं कलुसमयं जीहा वि य मधुरभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विजति से विसकुंभे मधुपिधाणे ॥२८॥ जं हिययं कलुसमयं जीहा वि य कडुयभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विजति से विसकुंभे विसपिधाणे ॥२९॥ [टी०] समुद्रप्रस्तावात्तत्तरकान् सूत्रद्वयेनाह- चत्तारि तरगेत्यादि व्यक्तम्, नवरं तरन्तीति तरा:, त एव तरका:, समुद्र समुद्रवद् दुस्तरं सर्वविरत्यादिकं कार्यं तरामि 10 करोमीत्येवमभ्युपगम्य तत्र समर्थत्वादेकः समुद्रं तरति तदेव समर्थयतीत्येकः, अन्यस्तु तदभ्युपगम्यासमर्थत्वात् गोष्पदं तत्कल्पं देशविरत्यादिकमल्पतमं तरति निर्वाहयतीति, अन्यस्तु गोष्पदप्रायमभ्युपगम्य वीर्यातिरेकात् समुद्रप्रायमपि साधयतीति, चतुर्थः प्रतीत: १। समुद्रप्रायं कार्यं तरीत्वा निर्वाह्य समुद्रप्राये प्रयोजनान्तरे विषीदति न तन्निर्वाहयतीति विचित्रत्वात् क्षयोपशमस्येति, एवमन्ये त्रय इति २। 15 पुरुषानेव कुम्भदृष्टान्तेन प्रतिपिपादयिषुः सूत्रप्रपञ्चमाह, सुगमश्चायम्, नवरं पूर्णः सकलावयवयुक्तः प्रमाणोपेतो वा पुन: पूर्णो मध्वादिभृतः, द्वितीये भङ्गे तुच्छो रिक्तः, तृतीये तुच्छः अपूर्णावयवो लघुर्वा, चतुर्थः सुज्ञान:, अथवा पूर्णो भृत: पूर्वं पश्चादपि पूर्ण इत्येवं चत्वारोऽपि १, पुरुषस्तु पूर्णो जात्यादिभिर्गुणैः, पुन: पूर्णो ज्ञानादिभिरिति, अथवा पूर्णो धनेन गुणैर्वा पूर्वं पश्चादपि तैः पूर्ण एवेत्येवं शेषा अपि २। 20 पूर्णोऽवयवैर्दध्यादिना वा पूर्ण एवावभासते द्रष्टणामिति पूर्णावभासीत्येकः, अन्यस्तु पूर्णोऽपि कुतश्चिद्धेतोर्विवक्षितप्रयोजनासाधकत्वादेस्तुच्छोऽवभासते, एवं शेषौ ३ । पुरुषस्तु पूर्णो धन-श्रुतादिभिस्तद्विनियोगाच्च पूर्ण एवावभासते, अन्यस्तु तदविनियोगात्तुच्छ एवावभासते, अन्यस्तु तुच्छोऽपि कथमपि प्रस्तावोचितप्रवृत्तेः १. 'वात्तरका जेसं१ खं० ॥ २. यवैर्द्रव्यादिना जे१ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पूर्णवदवभासते, अपरस्तु तुच्छो धन-श्रुतादिरहितोऽत एव तदविनियोजकत्वात् तुच्छावभासीति ४। _ तथा पूर्णो नीरादिना पुन: पूर्णं पुण्यं वा पवित्रं रूपं यस्य स तथेति प्रथमः, द्वितीये तुच्छं हीनं रूपम् आकारो यस्य स तुच्छरूपः, एवं शेषौ ५। पुरुषस्तु पूर्णो ज्ञानादिभि: 5 पूर्णरूप: पुण्यरूपो वा विशिष्टरजोहरणादिद्रव्यलिङ्गसद्भावात् सुसाधुरिति, द्वितीयभङ्गे तुच्छरूप: कारणात् त्यक्तलिङ्ग: सुसाधुरेवेति, तृतीये तुच्छो ज्ञानादिविहीनो निह्नवादिः, चतुर्थो ज्ञानादिद्रव्यलिङ्गहीनो गृहस्थादिरिति ६। __तथा पूर्णस्तथैव, अपिस्तुच्छापेक्षया समुच्चयार्थः, एकः कश्चित्, प्रियाय प्रीतये अयमिति प्रियार्थ: कनकादिमयत्वात् सार इत्यर्थः, तथा अपदलम् अपशदं द्रव्यं 10 कारणभूतं मृत्तिकादि यस्यासावपदल: अवदलति वा दीर्यत इत्यवदल: आमपक्वतयाऽसार इत्यर्थः, तुच्छोऽप्येवमिति ७ । पुरुषो धन-श्रुतादिभि: पूर्णः, प्रियार्थः कश्चित् प्रियवचनदानादिभि: प्रियकारी सार इति, अन्यस्तु न तथेत्यपदल: परोपकारं प्रत्ययोग्य इति, तुच्छोऽप्येवमेवेति ८ ।। पूर्णोऽपि जलादेर्विष्यन्दते श्रवति, इह तुच्छः तुच्छजलादिः स एव विष्यन्दते, 15 अपि: सर्वत्र समुच्चये प्रतियोग्यपेक्षयेति ९ । पुरुषस्तु पूर्णोऽप्येको विष्यन्दते धनं ददाति श्रुतं वा, अन्यो नेति, तुच्छोऽपि अल्पवित्तादिरपि धन-श्रुतादि विष्यन्दतेऽन्यो नैवेति तथा भिन्न: स्फुटितः, जर्जरितो राजीयुक्तः, परिश्रावी दुष्पक्वत्वात् क्षरकः, अपरिश्रावी कठिनत्वादिति ११ । चारित्रं तु भिन्नं मूलप्रायश्चित्तापत्त्या, जर्जरितं 20 छेदादिप्राप्त्या, परिश्रावि सूक्ष्मातिचारतया, अपरिश्रावि निरतिचारतयेति, इह च पुरुषाधिकारेऽपि यच्चारित्रलक्षणपुरुषधर्मभणनं तद्धर्म-धर्मिणोः कथञ्चिदभेदादनवद्यमवगन्तव्यमिति १२ । ___ तथा मधुनः क्षौद्रस्य कुम्भो मधुकुम्भः, मधुभृतं मध्वेव वा पिधानं स्थगनं यस्य ____स मधुपिधानः, एवमन्ये त्रय: १३ । 25 पुरुषसूत्रं स्वयमेव हिययमित्यादिगाथाचतुष्टयेन भावितमिति, तत्र हृदयं मन: अपापम् १. तु तुच्छ जे१ ॥ २. दीयंत जे१ ॥ ३. जलादेवि जेमू१ । जलादि वि जेसं१ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ 5 [सू० ३६१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । अहिंस्रमकलुषम् अप्रीतिवर्जितमिति, जिह्वाऽपि च मधुरभाषिणी नित्यं यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो मधुकुम्भ इव मधुकुम्भो मधुपिधान इव मधुपिधान इति प्रथमभङ्गयोजना, तृतीयगाथायां यद् हृदयं कलुषमयम् अप्रीत्यात्मकमुपलक्षणत्वात् पापं च जिह्वा या मधुरभाषिणी नित्यं तत् सा चेति गम्यते यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो विषकुम्भो मधुपिधानस्तत्साधर्म्यादिति १४ । [सू० ३६१] चउव्विहा उवसग्गा पन्नत्ता, तंजहा-दिव्वा, माणुसा, तिरिक्खजोणिया, आतसंचेयणिज्जा १ । दिव्वा उवसग्गा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा-हासा, पओसा, वीमंसा, पुढोवेमाता २ । माणुसा उवसग्गा चउव्विधा पन्नत्ता, तंजहा-हासा, पओसा, वीमंसा, 10 कुसीलपडिसेवणया ३ । __ तिरिक्खजोणिया उवसग्गा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा-भता, पदोसा, आहारहेडं, अवच्चलेणसारक्खणया ४ । आतसंचेयणिज्जा उवसग्गा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा-घट्टणता, पवडणता, थंभणता, लेसणता ५ । . 15 [टी०] अत्र च चतुर्थः पुरुष उपसर्गकारी स्यादित्युपसर्गप्ररूपणाय चउव्विहा उवसग्गेत्यादि सूत्रपञ्चकमाह, कण्ठ्यं चेदम्, नवरमुपसर्जनान्युपसृज्यते वा धर्मात् प्रच्याव्यते जन्तुरेभिरुपसगर्गा बाधाविशेषाः, ते च कर्तृभेदाच्चतुर्विधाः, आह च उवसजणमुवसग्गो तेण तओ य उवसिज्जए जम्हा । सो दिव्वमणुयतेरिच्छआयसंचेयणाभेओ ॥ [विशेषाव० ३००५] इति, आत्मना संचेत्यन्ते क्रियन्त इत्यात्मसंचेतनीयाः, तत्र दिव्याः हास त्ति हासाद् भवन्ति, हाससम्भूतत्वाद्वा हासा उपसर्गा एवेत्येवमन्यत्रापि, यथा भिक्षार्थं ग्रामान्तरप्रस्थितक्षुल्लकैय॑न्तर्या उपयाचितं प्रतिपन्नं 'यदीप्सितं लप्स्यामहे तदा तवोण्डेरकादि दास्यामः' इति, लब्धे च तत्र तवेदमिति भणित्वा तदुण्डेरकादि तैः स्वयमेव भक्षितम्, देवतया च हासेन तद्रूपमावृत्य क्रीडितम्, अनागच्छत्सु च क्षुल्लकेषु 25 व्याकुले गच्छे निवेदितमाचार्याणां देवतया क्षुल्लकवृत्तम्, ततो वृषभैरुण्डेरकादि याचित्वा 20 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तस्यै दत्तम्, तया तु ते दर्शिता इति । प्रद्वेषाद्यथा सङ्गमको महावीरस्योपसर्गानकरोत्। विमर्षात् यथा क्वचिद्देवकुलिकायां वर्षासूषित्वा साधुषु गतेषु तदीय एवान्यः पश्चादागतस्तत्रोषित:, तं च देवता किंस्वरूपोऽयमिति विमर्षादुपसर्गितवतीति । पृथग् भिन्ना विविधा मात्रा हासादिवस्तुरूपा येषु ते पृथग्विमात्रा, अथवा पृथग् विविधा 5 मात्रा विमात्रा, तया इत्येतल्लप्ततृतीयैकवचनं पदं दृश्यम्, तथाहि-हासेन कृत्वा प्रद्वेषण करोतीत्येवं संयोगा:, यथा सङ्गमक एव विमर्षेण कृत्वा प्रद्वेषेण कृतवानिति । तथा मानुष्या हासात्, यथा गणिकादुहिता क्षुल्लकमुपसर्गितवती सा च तेन दण्डेन ताडिता, विवादे च राज्ञः श्रीगृहदृष्टान्तो निवेदितस्तेनेति । प्रद्वेषाद्यथा गजसुकुमारः सोमिलब्राह्मणेन व्यपरोपित: । विमर्षाद्यथा चाणक्योक्तचन्द्रगुप्तेन धर्मपरीक्षार्थं 10 लिङ्गिनोऽन्त:पुरे धर्ममाख्यापिता: क्षोभिताश्च, साधवस्तु क्षोभितुं न शकिता इति । कुशीलम् अब्रह्म, तस्य प्रतिषेवणं कुशीलप्रतिषेवणम्, तद्भाव: कुशीलप्रतिषेवणता उपसर्गः, कुशीलस्य वा प्रतिषेवणं येषु ते कुशीलप्रतिषेवणकाः, अथवा कुशीलप्रतिषेवणयेति व्याख्येयम्, यथा सन्ध्यायां वसत्यर्थं प्रोषितस्येालोहे प्रविष्टः साधुश्चतसृभिरीर्ष्यालुजायाभिर्दत्तावास: प्रत्येकं चतुरोऽपि यामानुपसर्गितो न च क्षुभितः। 15 तथा तैरश्चा भयात् श्वादयो दशेयुः, प्रद्वेषाच्चण्डकौशिको भगवन्तं दष्टवान्, आहारहेतोः सिंहादयः, अपत्य-लयनसरंक्षणाय काक्यादय उपसर्गयेयुरिति ।। तथा आत्मसंचेतनीयाः घट्टनता घट्टनया वा यथाऽक्षणि रज: पतितं ततस्तदक्षि हस्तेन मलितं दुःखितुमारब्धमथवा स्वयमेवाक्षणि गले वा मांसाङ्कुरादि जातं घट्टयतीति १, प्रपतनता प्रपतनया वा यथा अप्रयत्नेन सञ्चरत: प्रपतनात् दु:खमुत्पद्यते, स्तम्भनता 20 स्तम्भनया वा यथा तावदुपविष्टः स्थितो यावत् सुप्त: पादादिः स्तब्धो जात:, श्लेषणता श्लेषणया वा यथा पादमाकुञ्च्य स्थितो वातेन तथैव पादो लगित इति, भवन्ति चात्र गाथा:हास १ प्पदोस २ वीमंसओ ३ विमायाय ४ वा भवे दिव्यो । एवं चिय माणुस्सो कुसीलपडिसेवण चउत्थो ॥ 25 तिरिओ भय १ प्पओसा २ ऽऽहारा ३ ऽवच्चादिरक्खणत्थं वा ४। घट्टण १ थंभण २ पवडण ३ लेसणओ वाऽऽयसंचेओ ४ ॥ [विशेषाव० ३००६-७] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३६२] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४८३ दिव्वम्मि वंतरी १ संगमे २ गजइ ३ लोभणादीया ४। इत्युत्तरार्द्धम्, गणिया १ सोमिल २ धम्मोवएसणे ३ सालुजोसियाईया ४। तिरियम्मि साण १ कोसिय २ सीहा अचिरसूवियगवाई ॥ कणुग १ कुडणा २ भिपयणाइ ३ गत्तसंलेसणादओ ४ नेया ।। आओदाहरणा वाय १ पित्त २ कफ ३ सन्निवाया व ॥ [ ] त्ति [सू० ३६२] चउव्विहे कम्मे पन्नत्ते, तंजहा-सुभे नाममेगे सुभे, सुभे नाममेगे असुभे, असुभे नाम० ह [= ४] । चउव्विहे कम्मे पन्नत्ते, तंजहा-सुभे णाममेगे सुभविवागे, सुभे णाममेगे असुभविवागे, असुभे नाममेगे सुभविवागे, असुभे नाममेगे असुभविवागे। __ चउविहे कम्मे पन्नत्ते, तंजहा-पगडीकम्मे, ठितीकम्मे, अणुभावकम्मे, 10 पदेसकम्मे । [टी०] उपसर्गसहनात् कर्मक्षयो भवतीति कर्मस्वरूपप्रतिपादनायाहचउव्विहेत्यादि सूत्रत्रयं व्यक्तम्, नवरं क्रियत इति कर्म ज्ञानावरणीयादि, तत् शुभं पुण्यप्रकृतिरूपं पुनः शुभं शुभानुबन्धित्वात् भरतादीनामिव । शुभं तथैव, अशुभमशुभानुबन्धित्वात् ब्रह्मदत्तादीनामिव । अशुभं पापप्रकृतिरूपं शुभं 15 शुभानुबन्धित्वात् दुःखितानामकामनिर्जरावतां गवादीनामिव । अशुभं तथैव, पुनरशुभमशुभानुबन्धित्वात् मत्स्यबन्धादीनामिवेति । तथा शुभं सातादि सातादित्वेनैव बद्धं तथैवोदेति यत्तत् शुभविपाकम्, यत्तु बद्धं शुभत्वेन सङ्क्रमकरणवशात्तूदेत्यशुभत्वेन तद् द्वितीयम्, भवति च कर्मणि कर्मान्तरानुप्रवेश:, सङ्क्रमाभिधानकरणवशाद्, उक्तं च 20 मूलप्रकृत्यभिन्ना: सङ्क्रमयति गुणत उत्तरा: प्रकृतीः । नन्वात्माऽमूर्तत्वादध्यवसानप्रयोगेण ॥ [ ] इति । तथा मतान्तरम्मोत्तूण आउयं खलु दंसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पयडीणं उत्तरविहिसंकमो भणिओ ॥ [ ] यद्बद्धमशुभतयोदेति च शुभतया तत्तृतीयम्, चतुर्थं प्रतीतमिति । तृतीयं 25 कर्मसूत्रमत्रत्यद्वितीयोद्देशकबन्धसूत्रवज्ज्ञेयमिति । १. त्रयं कंम्यं जे१ ॥ २. सू० २९६ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ३६३] चउव्विहे संघे पन्नत्ते, तंजहा - समणा, समणीओ, सावगा, साविगाओ । [सू० ३६४ ] चउव्विहा बुद्धी पन्नत्ता, तंजहा - उप्पत्तिया, वेणड्या, कम्मया, पारिणामिया | चउव्विधा मती पन्नत्ता, तंजहा - उग्गहमती, ईहामती, अवायमती, धारणामती । अहवा चउव्विहा मती पन्नत्ता, तंजहा - अरंजरोदगसमाणा, वियरोदगसमाणा, सरोदगसमाणा, सागरोदगसमाणा । [टी०] चतुर्विधकर्म्मस्वरूपं सङ्घ एव वेत्तीति सङ्घसूत्रम्, सच 10 सर्वविद्वचनसंस्कृतबुद्धिमानिति बुद्धिसूत्रम्, बुद्धिश्च मतिविशेष इति मतिसूत्रे, सुगमानि चैतानि, नवरं सङ्घ गुणरत्नपात्रभूतसत्त्वसमूहः, तत्र श्राम्यन्ति तपस्यन्तीति श्रमणाः, अथवा सह मनसा शोभनेन निदानपरिणामलक्षणपापरहितेन च चेतसा वर्त्तन्त इति समनसः, तथा समानं स्वजन-परजनादिषु तुल्यं मनो येषां ते समनस:, उक्तं चतो समणो जड़ सुमणो भावेण य जड़ न होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसुं ॥ [ दशवे० नि० १५६ ] अथवा समिति समतया शत्रु - मित्रादिष्वणन्ति प्रवर्त्तन्त इति समणाः, आह चत् य सि कोइ सो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नो वि पज्जाओ ॥ [ दशवै० नि० १५५ ] इति । प्राकृततया सर्वत्र समण त्ति, एवं समणीओ, तथा शृण्वन्ति जिनवचनमिति श्रावका:, 20 उक्तं च 15 ४८४ अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्धसम्पत्, परं समाचारमनुप्रभातम् । शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ॥ [ ] इति । अथवा श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्रा:, तथा वपन्ति गुणवत्सत्त्वक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति क्लिष्टकर्म्मरजो 25 विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्म्मधारये श्रावका इति भवति, यदाह १३२, आव० नि० ८६७ ॥ २. गाथेयम् - अनुयोगद्वार० सू० ॥ १. गाथेयम् - अनुयोगद्वार० सू० ५९९ - गा० ५९९ - गा० १३०, आव० नि० ८६८ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३६४] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादथापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ॥ [ एवं श्राविका अपीति । तथा उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी ननु क्षयोपशमः कारणमस्याः, सत्यम्, किन्तु स खल्वन्तरङ्गत्वात् सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्र- 5 कर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, अपि च- बुद्ध्युत्पादात् पूर्वं स्वयमदृष्टोऽन्यतश्चाश्रुतो मनसाऽप्यनालोचितस्तस्मिन्नेव क्षणे यथावस्थितोऽर्थो गृह्यते यया सा लोकद्वयाविरुद्धैकान्तिकफलवती बुद्धिरौत्पत्तिकीति, यदाह पुव्वमदिट्ठमसुयमचेड़यतक्खणविसुद्धगहियत्था । अव्वाहयफलजोगा बुद्धी उप्पत्तिया नाम ॥ [ आव० नि० ९३९] इति, ] इति, यदाह नटपुत्ररोहकादीनामिवेति । तथा विनयो गुरुशुश्रूषा, स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी, अपि चकार्यभरनिस्तरणसमर्था धर्मार्थकामशास्त्राणां गृहीतसूत्रार्थसारा लोकद्वयफलवती चेयमिति, ४८५ भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेयाला । उभओ लोगफलवती विणयसमुत्था हवड़ बुद्धि || [ आव० नि० ९४३] त्ति, नैमित्तिकसिद्धपुत्रशिष्यादीनामिवेति । अनाचार्यकं कर्म्म, साचार्यकं शिल्पम्, कादाचित्कं वा कर्म्म, नित्यव्यापारस्तु शिल्पमिति, कर्म्मणो जाता कर्म्मजा, अपिच - कर्माभिनिवेशोपलब्धकर्म्मपरमार्था कर्म्माभ्यास-विचाराभ्यां विस्तीर्णा प्रशंसाफलवती चेति, यदाह उवओगट्टिसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहुक्कारफलवती कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी ॥ [ आव० नि० ९४६ ] इति, हैरण्यक - कर्षकादीनामिवेति । 10 15 परिणामः सुदीर्घकालपूर्वापरार्थावलोकनादिजन्य आत्मधर्म्मः स प्रयोजनमस्यास्तत्प्रधाना वेति पारिणामिकी, अपिच - अनुमानकारणमात्रदृष्टान्तै: 25 १. 'मवेइ' जे१ विना ॥ 20 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे साध्यसाधिका वयोविपाके च पुष्टीभूता अभ्युदयमोक्षफला चेति, यदाह अणुमाणहेउदिटुंतसाहिया वयविवागपरिणामा । हियनिस्सेसफलवती बुद्धी परिणामिया नाम ॥ [आव० नि० ९४८] इति, अभयकुमारादीनामिवेति । 5 तथा मननं मति: तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षस्यानिद्देश्यस्य रूपादे: अव इति प्रथमतो ग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः, स एव मतिरवग्रहमतिरेवं सर्वत्र, नवरं तदर्थविशेषालोचनमीहा, प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽवायः, अवगतार्थविशेषधरणं धारणेति, उक्तं च सामन्नत्थावग्गहणमोग्गहो भेयमग्गणमिहेहा । 10 तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्स ॥ [विशेषाव० १८०] इति । तथा अरञ्जरम् उदकुम्भो अलञ्जरमिति यत् प्रसिद्धं तत्रोदकं यत्तत्समाना प्रभूतार्थग्रहणोत्प्रेक्षणधरणसामर्थ्याभावेनाल्पत्वादस्थिरत्वाच्च, अरञ्जरोदकं हि सक्षिप्त शीघ्रनिष्ठं चेति, विदरो नदीपुलिनादौ जलार्थो गर्तः, तत्र यदुदकं तत्समाना अल्पत्वादपरापरार्थोहनमात्रसमर्थत्वात् झगिति अनिष्ठितत्वाच्च, तदुदकं ह्यल्पं 15 तथाऽपरापरमल्पमल्पं स्यन्दते, अत एव च क्षिप्रमनिष्ठितं चेति, सरउदकसमाना तु विपुलत्वाद् बहुजनोपकारित्वादनिष्ठितत्वाच्च, प्राय: सरोजलस्याप्येवंभूतत्वादिति, सागरोदकसमाना पुनः सकलपदार्थविषयत्वेनात्यन्तविपुलत्वादक्षयत्वादलब्धमध्यत्वाच्च, सागरजलस्यापि ह्येवंभूतत्वादिति ।। [सू० ३६५] चउव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा-णेरइता, 20 तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा । चउव्विहा सव्वजीवा पत्नत्ता, तंजहा-मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, अजोगी। अहवा चउव्विहा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-इत्थिवेदगा, पुरिसवेदगा, णपुंसकवेदगा, अवेदगा । 25 अहवा चउब्विहा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-चक्खुदसणी अचक्खुदंसणी ओहिदसणी, केवलदसणी । १. महेहा जे१ खं० ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ [सू० ३६६] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः ।। अहवा चउव्विहा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-संजता, असंजता, संजतासंजता, णोसंजता णोअसंजता णोसंजतासंजता । [टी०] यथोक्तमतिमन्तो जीवा एव भवन्तीति जीवसूत्राणि पञ्च व्यक्तानि चैतानि, नवरं मनोयोगिनः समनस्का योगत्रयसद्भावेऽपि तस्य प्राधान्यादेवं वाग्योगिनो द्वीन्द्रियादय: काययोगिन एकेन्द्रिया अयोगिनो निरुद्धयोगा: सिद्धाश्चेति । अवेदका: 5 सिद्धादयः। चक्षुषः सामान्यार्थग्रहणमवग्रहेहारूपं दर्शनं चक्षुर्दर्शनम्, तद्वन्तश्चतुरिन्द्रियादयः, अचक्षुः स्पर्शनादि, तद्दर्शनवन्त एकेन्द्रियादय इति । संयता: सर्वविरता:, असंयता अविरता:, संयतासंयता देशविरता:, त्रयप्रतिषेधवन्त: सिद्धा इति । [सू० ३६६] चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-मित्ते नाममेगे मित्ते, मित्ते नाममेगे अमित्ते, अमित्ते नाममेगे मित्ते, अमित्ते णाममेगे अमित्ते । 10 चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-मित्ते णाममेगे मित्तरूवे, चउभंगो । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-मुत्ते णाममेगे मुत्ते, मुत्ते णाममेगे अमुत्ते [ह्व = ४] । चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा-मुत्ते णाममेगे मुत्तरूवे ह्व [= ४] । [टी०] जीवाधिकाराज्जीवविशेषान् पुरुषभेदान् चतु:सूत्र्याऽऽह- चत्तारीत्यादिः, 15 स्पष्टा चेयम्, नवरं मित्रमिहलोकोपकारित्वात् पुनर्मित्रं परलोकोपकारित्वात् सद्गुरुवत्, अन्यस्तु मित्रं स्नेहवत्त्वादमित्रः परलोकसाधनविध्वंसात् कलत्रादिवत्, अन्यस्त्वमित्र: प्रतिकूलत्वान्मित्रं निर्वेदोत्पादनेन परलोकसाधनोपकारकत्वादविनीतकलत्रादिवत्, चतुर्थोऽमित्रः प्रतिकूलत्वात् पुनरमित्र: सङ्क्लेशहेतुत्वेन दुर्गतिनिमित्तत्वात्, पूर्वापरकालापेक्षया वेदं भावनीयमिति । तथा मित्रमन्त:स्नेहवृत्त्या मित्रस्येव रूपम् 20 आकारो बायोपचारकरणात् यस्य स मित्ररूप इति एकः, द्वितीयोऽमित्ररूपो बाह्योपचाराभावात्, तृतीय: अमित्र: स्नेहवर्जितत्वादिति, चतुर्थः प्रतीत: । तथा मुक्तः त्यक्तसङ्गो द्रव्यतः, पुनर्मुक्तो भावतोऽभिष्वङ्गाभावात् सुसाधुवत् । द्वितीयोऽमुक्तः साभिष्वङ्गत्वात् रङ्कवत् । तृतीयोऽमुक्तो द्रव्यतः, भावतस्तु मुक्तो राज्यावस्थोत्पन्नकेवलज्ञानभरतचक्रवर्त्तिवत्। चतुर्थो गृहस्थ:। कालापेक्षया वेदं दृश्यमिति। 25 १. "त्यादि पा० जे२ ॥ २. मित्रस्यैव खं० पा० ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मुक्तो निरभिष्वङ्गतया मुक्तरूपो वैराग्यपिशुनाकारतया यतिरिवेत्येकः, द्वितीयोऽमुक्तरूप उक्तविपरीतत्वाद् गृहस्थावस्थायां महावीर इव तृतीयोऽमुक्तः साभिष्वङ्गत्वाच्छठयतिवत्, चतुर्थो गृहस्थ इति । [सू० ३६७] पंचेंदियतिरिक्खजोणिया चउगइया चउआगड़या पन्नत्ता, तंजहा - 5 पंचेंदियतिरिक्खजोणिए पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणे णेरइएहिंतो वा तिरिक्खजोणिएहिंतो वा मणुस्सेहिंतो वा देवेहिंतो वा उववज्जेज्जा, चेव णं से पंचेंदियतिरिक्खजोणिए पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्तं विप्पजहमाणे रतितत्ताते वा जाव देवत्ताते वा गच्छेज्जा १ । 10 ४८८ मणुस्सा चउगइया चउआगइया एवं चेव मणुस्सा वि २ । [सू० ३६८ ] बेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स चउविहे संजमे कज्जति, तंजहा - जिब्भामयातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति, फासामयातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति एवं चेव १ । बेइंदिया णं जीवा समारभमाणस्स चउविधे असंजमे कज्जति, तंजहाजिब्भामयातो सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता 15 भवति, फासामयातो सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवति एवं चेव २| 20 [सू० ३६९] सम्मद्दिट्ठिताणं णेरइयाणं चत्तारि किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- आरंभिता, परिग्गहिता, मातावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया । सम्मद्दिट्ठिताणमसुरकुमाराणं चत्तारि किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - एवं चेव । एवं विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणियाणं । [टी०] जीवाधिकारिकं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यसूत्रद्वयं सुगमम्, एवं द्वीन्द्रियसूत्रद्वयमपि, नवरं द्वीन्द्रियान् जीवान् असमारभमाणस्य अव्यापादयतः, जिह्वाया विकारो जिह्वामयम्, तस्मात् सौख्याद् रसोपलम्भानन्दरूपादव्यपरोपयिता अभ्रंशयिता, तथा जिह्वामयं जिह्वेन्द्रियहानिरूपं यद् दुःखं तेनाऽसंयोजयितेति । जीवाधिकारादेव सम्यग्दृष्टिजीवक्रियासूत्राणि सुगमानि चैतानि, नवरं सम्यग्दृष्टीनां 25 चतस्रः क्रिया मिथ्यात्वक्रियाया अभावात् । एवं विगलिंदियवज्जं ति, एक-द्वि-त्रिचतुरिन्द्रियाणां पञ्चापि, तेषां मिथ्यादृष्टित्वात्, द्वीन्द्रियादीनां च सासादनसम्यक्त्व Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३७०-३७१] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । स्याल्पत्वेनाविवक्षितत्वादिति, एवं चेह विकलेन्द्रियवर्जनेन षोडश क्रियासूत्राणि वैमानिकान्तानि भवन्तीति । [सू० ३७०] चउहिं ठाणेहिं संते गुणे नासेज्जा, तंजहा - कोधेणं, पडिनिवेसेणं, अकयण्णुताए, मिच्छत्ताभिनिवेसेणं । चउहिं ठाणेहिं असंते गुणे दीवेज्जा, तंजहा- अब्भासवत्तितं, 5 परच्छंदाणुवत्तितं, कज्जहेउं, कतपडिकतितेति । [टी०] अनन्तरं क्रिया उक्तास्तद्वांश्च सद्भूतान् परगुणान् नाशयति प्रकाशयति चेत्येवमर्थं सूत्रद्वयम्, तच्च सुगमम्, नवरं सतो विद्यमानान् गुणान् नाशयेदिव नाशयेत् अपलपति, न मन्यते, क्रोधेन रोषेण, तथा प्रतिनिवेशेन 'एष पूज्यते अहं तु न' इत्येवं परपूजाया असहनलक्षणेन, कृतमुपकारं परसम्बन्धिनं न जानातीत्यकृतज्ञः, तद्भावस्तत्ता, तया, मिथ्यात्वाभिनिवेशेन बोधविपर्यासेन, उक्तं च 10 रोसेण पडिनिवेसेण तहय अकयण्णुमिच्छभावेणं । संतगुणेनासित्ता भाइ अगुणे असंते वा ॥ [ ] इति । असत: अविद्यमानान्, क्वचित् संते त्ति पाठस्तत्र च सतो विद्यमानान् गुणान् दीपयेत् वदेदित्यर्थः, अभ्यासो हेवाको वर्णनीयासन्नता वा प्रत्ययो निमित्तं यत्र दीपने 15 तदभ्यासप्रत्ययम्, दृश्यते ह्यभ्यासान्निर्विषयापि निष्फलापि च प्रवृत्ति:, सन्निहितस्य च प्रायेण गुणानामेव ग्रहणमिति, तथा परच्छन्दस्य पराभिप्रायस्यानुवृत्तिः अनुवर्त्तना यत्र तत् परच्छन्दानुवृत्तिकं दीपनमेव, तथा कार्यहेतो: प्रयोजननिमित्तं चिकीर्षितकार्यं प्रत्यानुकूल्यकरणायेत्यर्थः, तथा कृते उपकृते प्रतिकृतं प्रत्युपकारः तद्यस्यास्ति स कृतप्रतिकृतिक:, इति वा कृतप्रत्युपकर्तेति हेतोरित्यर्थः, अथवा कृतप्रतिकृतये 20 इति वा एकेनैकस्योपकृतं गुणा वोत्कीर्त्तिताः स तस्यासतोऽपि गुणान् प्रत्युपकारार्थमुत्कीर्त्तयतीत्यर्थः, इतिरुपप्रदर्शने, वा विकल्पे । ४८९ [सू० ३७१] णेरइयाणं चउहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिता, तंजहा - कोधेणं, माणेणं, माया, लोभेणं । एवं जाव वेमाणियाणं १ । णेरइयाणं चउट्ठाणनिव्वत्तिते सरीरए पन्नत्ते, तंजहा- कोहनिव्वत्तिए जाव 25 लोभव्विति । एवं जाव वेमाणियाणं २ | १. ठाणेहिं संते भां० विना ॥ -A-16 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] इदं च गुणनाशनादि शरीरेण क्रियत इति शरीरस्योत्पत्ति-निर्वृत्तिसूत्राणां दण्डकद्वयम्, कण्ठ्यं चैतत्, नवरं क्रोधादयः कर्मबन्धहेतवः, कर्म च शरीरोत्पत्तिकारणमिति कारणकारणे कारणोपचारात् क्रोधादय: शरीरोत्पत्तिनिमित्ततया व्यपदिश्यन्त इति चउहिं ठाणेहिं सरीरेत्याद्युक्तम्, क्रोधादिजन्यकर्मनिवर्तितत्वात् 5 क्रोधादिनिर्वर्तितं शरीरमित्यपदिष्टम्, इह चोत्पत्तिरारम्भमात्रं निर्वृत्तिस्तुं निष्पत्तिरिति। [सू० ३७२] चत्तारि धम्मदारा पन्नत्ता, तंजहा-खंती, मुत्ती, अजवे, मद्दवे। [टी०] क्रोधादय: शरीरनिर्वृत्तेः कारणानीत्युक्तम्, तन्निग्रहास्तु धर्मस्येत्याह- चत्तारि धम्मेत्यादि, धर्मस्य चारित्रलक्षणस्य द्वाराणीव द्वाराणि उपाया: । [सू० ३७३] चउहि ठाणेहिं जीवा रतियत्ताए कम्मं पकरेंति, तंजहा10 महारंभताते, महापरिग्गहताते, पंचेंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं १ . चउहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहामाइल्लताते, णियडिल्लताते, अलियवयणेणं, कूडतुलकूडमाणेणं २ चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताते कम्मं पकरेंति, तंजहा-पगतिभद्दताते, पगतिविणीयताए, साणुक्कोसताते, अमच्छरितताते ३। 15 चउहिं ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तंजहा-सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिजराए ४।। [टी०] क्षान्त्यादीनि धर्मद्वाराणीत्युक्तम्, अथारम्भादीनि नारकत्वादिसाधनकर्मणो द्वाराणीति विभागत: चउहिं ठाणेहीत्यादिना सूत्रचतुष्टयेनाह, कण्ठ्यं चैतत्, नवरं नेरइयत्ताए त्ति नैरयिकत्वाय नैरयिकतायै नैरयिकतया वा कर्म आयुष्कादि, 20 नेरइयाउयत्ताए त्ति पाठान्तरे नैरयिकायुष्कतया नैरयिकायुष्करूपं कर्म कर्मदलिकमिति, महान् इच्छापरिमाणेनाकृतमर्यादतया बृहन् आरम्भः पृथिव्याधुपमर्दलक्षणो यस्य स महारम्भ: चक्रवर्त्यादिः, तद्भावस्तत्ता, तया महारम्भतया, एवं महापरिग्रहतयाऽपि, नवरं परिगृह्यत इति परिग्रहो हिरण्य-सुवर्ण-द्विपद-चतुष्पदादिरिति, कुणिममिति मांसम्, तदेवाहारो भोजनम्, तेन । माइल्लयाए त्ति मायितया, माया च मन:कुटिलता, 25 नियडिल्लयाए त्ति निकृतिमत्तया, निकृतिश्च वञ्चनार्थं कायचेष्टाद्यन्यथाकरणलक्षणा अत्युपचारलक्षणा वा, तद्वत्तया, कूटतुलाकूटमानेन यो व्यवहारः स कूटतुलाकूटमान Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३७४] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४९१ एवोच्यते, अतस्तेनेति । प्रकृत्या स्वभावेन भद्रकता परानुपतापिता या सा प्रकृतिभद्रकता, तया, सानुक्रोशतया सदयतया, मत्सरिकता परगुणासहिष्णुता, तत्प्रतिषेधोऽमत्सरिकता, तयेति । सरागसंयमेन सकषायचारित्रेण, वीतरागसंयमिनामायुषो बन्धाभावात्, संयमासंयमो द्विस्वभावत्वाद्देशसंयम:, बाला इव बाला मिथ्यादृशस्तेषां तपःकर्म तप:क्रिया बालतपःकर्म, तेन, अकामेन निर्जरां 5 प्रत्यनभिलाषेण निर्जरा कर्मनिर्जरणहेतुर्बुभुक्षादिसहनं यत् सा अकामनिर्जरा, तया। [सू० ३७४] चउव्विहे वजे पन्नत्ते, तंजहा-तते, वितते, घणे, झुसिरे १। चउव्विहे नहे पन्नत्ते, तंजहा-अंचिते, रिभिते, आरभडे, भसोले २॥ चउव्विहे गेए पन्नत्ते, तंजहा-उक्खित्तए, पत्तए, मंदए, रोविंदए । चउव्विहे मल्ले पन्नत्ते, तंजहा-गंथिमे, वेढिमे, पूरिमे, संघातिमे ४। 10 चउव्विहे अलंकारे पन्नत्ते, तंजहा-केसालंकारे, वत्थालंकारे, मल्लालंकारे, आभरणालंकारे ५। ___ चउब्विहे अभिणते पन्नत्ते, तंजहा-दिलृतिते, पाडंसुते, सामंतोवातणिते, लोगमज्झावसिते ६। [टी०] अनन्तरं देवोत्पत्तिकारणान्युक्तानि, देवाश्च वाद्य-नाट्यादिरतयो भवन्तीति 15 वाद्यादिभेदाभिधानाय षट्सूत्री, तत्र वजे त्ति वाद्यम्, तत्र तंतं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि वंशादि शुषिरं मतम् ॥ [ ] इति । नाट्य-गेया-ऽभिनयसूत्राणि सम्प्रदायाभावान्न विवृतानि । मालायां साधु माल्यं पुष्पम्, तद्रचनापि माल्यम्, ग्रन्थः सन्दर्भ: सूत्रेण ग्रन्थनम्, 20 तेन निर्वृत्तं ग्रन्थिमं मालादि, वेष्टनं वेष्टः, तेन निर्वृत्तं वेष्टिमं मुकुटादि, पूरेण पूरणेन निर्वृत्तं पूरिमं मृन्मयमनेकच्छिद्रं वंशशलाकादिपञ्जरं वा यत् पुष्पैः पूर्यत इति, सङ्घातेन निर्वृत्तं सङ्घातिमं यत् परस्परत: पुष्पनालादिसङ्घातनेनोपजन्यत इति । अलक्रियते भूष्यतेऽनेनेत्यलङ्कारः, केशा एवालङ्कार: केशालङ्कारः, एवं सर्वत्र । १. दृश्यतां सू०७३ टि०३ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ३७५] सणंकुमार-माहिंदेसु णं कप्पेसु विमाणा चउवण्णा पन्नत्ता, तंजहा-णीला, लोहिता, हालिद्दा, सुक्किला १। ___महासुक्क-सहस्सारेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं चत्तारि रतणीओ उडुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता २॥ 5 [टी०] देवाधिकारवत्येव सणंकुमारेत्यादिका द्विसूत्री, सुगमा चेयम्, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि, कल्पान्तरेषु त्वन्यथा, तदुक्तम् सोहम्मे पंचवण्णा एक्कगहाणी उ जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा तेण परं पुंडरीयाओ ॥ [बृहत्सं० १३२] द्वयोर्द्वयो: कल्पयोर्वर्णस्य हानि: कार्येत्यर्थः । तत्र भवे धार्यते तदिति तं वा भवं 10 धारयतीति भवधारणीयं यज्जन्मतो मरणावधि । कृतमुष्टिकस्तु रत्नि: स एव वितताङ्गुलिरनिः [ ] इति वचने सत्यपि रत्निशब्देनेह सामान्येन हस्तोऽभिधीयत इति, शुक्र-सहस्रारयोश्चतुर्हस्ता देवा अन्यत्र त्वन्यथा, यत आह भवण १० वण ८ जोइस ५ सोहम्मीसाणे सत्त होंति रयणीओ । एक्वेक्कहाणि सेसे दु दुगे य दुगे चउक्के य ॥ 15 गेविज्जेसुं दोन्नी एक्का रयणी अणुत्तरसुरेसु [बृहत्सं० १४३-४४] त्ति । भवधारणीयान्येवम्, उत्तरवैक्रियाणि तु लक्षमपि सम्भवन्ति, उत्कृष्टेनैतत्, जघन्यतस्त्वगुलासङ्ख्येयभागप्रमाणान्युत्पत्तिकाले भवधारणीयानि भवन्त्युत्तरवैक्रियाणि त्वगुलसङ्ख्येयभागप्रमाणानीति । [सू० ३७६] चत्तारि दंगगब्भा पन्नत्ता, तंजहा-उस्सा, महिया, सीता, 20 उसिणा। चत्तारि उदगगब्भा पन्नत्ता, तंजहा-हेमगा, अब्भसंथडा, सीतोसिणा, पंचरूविता माहे तु हेमगा गब्भा, फग्गुणे अब्भसंथडा । सीतोसिणा उ चेत्ते, वतिसाहे पंचरूविता ॥३०॥ १. तुलना- “प्रकोष्ठे विस्तृतकरे हस्तः, मुष्ट्या तु बद्धया । स रत्निः स्यात् अरत्निस्तु, निष्कनिष्ठेन मुष्टिना ॥६२३॥” इति अमरकोषे । २. उदगम्भा भां० ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ 10 [सू० ३७७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । [टी०] अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ता, देवाश्चाप्कायतयाऽप्युत्पद्यन्ते इत्युदकगर्भप्रतिपादनाय चत्तारीत्यादि सूत्रद्वयमाह । दगगब्भ त्ति दकस्य उदकस्य गर्भा इव गर्भा दकगर्भाः कालान्तरे जलवर्षणस्य हेतवः, तत्संसूचका इति तत्त्वमिति, अवश्यायः क्षपाजलम्, महिका धूमिका, शीतान्यात्यन्तिकानि, एवमुष्णा धर्माः, एते हि यत्र दिन उत्पन्नास्तस्मादुत्कर्षेणाव्याहता: सन्त: षड्भिर्मासैरुदकं प्रसुवते, अन्यैः पुनरेवमुक्तम्- 5 पवनाभ्रवृष्टिविद्युद्गर्जितशीतोष्णरश्मिपरिवेषाः । जलमत्स्येन सहोक्ताः दशधा धातुप्रजनहेतुः ॥ [ ] तथा- शीता वाताश्च बिन्दुश्च गर्जितं परिवेषणम् । सर्वगर्भेषु शंसन्ति निर्ग्रन्था: साधुदर्शना: ॥ [भद्रबाहु० १२।८] तथा- सप्तमे सप्तमे मासे सप्तमे सप्तमे ऽहनि । गर्भाः पाकं नियच्छन्ति यादृशास्तादृशं फलम् ॥ [भद्रबाहु० १२।४] हिमं तुहिनम्, तदेव हिमकम्, तस्यैते हैमका हिमपातरूपा इत्यर्थः, अब्भसंथड त्ति अभ्रसंस्थितानि, मेधैराकाशाच्छादनानीत्यर्थः, आत्यन्तिके शीतोष्णे, पञ्चानां रूपाणां गर्जित-विधु-जल-वाता-ऽभ्रलक्षणानां समाहार: पञ्चरूपम्, तदस्ति येषां ते पञ्चरूपिका उदकगर्भाः, इह मतान्तरमेवम् पौषे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः । नात्यर्थं मार्गशीर्षे शीतं पौषेऽतिहिमपातः ॥ माघे प्रबलो वायुस्तुषारकलुषद्युती रविशशाङ्कौ । अतिशीतं सघनस्य च भानोरस्तोदयौ धन्यौ ॥ फाल्गुनमासे रूक्षश्चण्ड: पवनोऽभ्रसम्प्लवा: स्निग्धाः । परिवेषाश्चासकला: कपिलस्ताम्रो रविश्च शुभः ॥ पवनघनवृष्टियुक्ताश्चैत्रे गर्भाः शुभा: सपरिवेषा: । घनपवनसलिलविद्युत्स्तनितैश्च हिताय वैशाखे ॥ [बृहत्संहिता २१।१९-२२] इति । तानेव मासभेदेन दर्शयति- माहेत्यादि श्लोकः। [सू० ३७७] चत्तारि मणुस्सीगब्भा पन्नत्ता, तंजहा-इत्थित्ताते, पुरिसत्ताते, 25 णपुंसगत्ताते, बिंबत्ताते१. “शीतवातश्च विद्युच्च-" भद्रबाहु० ॥ २. मार्गशिरे जे१ विना ॥ 15 20 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अप्पं सुक्कं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजातति । अप्पं ओयं बहुं सुक्कं, पुरिसो तत्थ जातति ॥३१॥ दोण्हं पि रत्तसुक्काणं, तुल्लभावे णपुंसगो । इत्थीओयसमाओगे, बिंबं तत्थ पजायति ॥३२॥ 5 [टी०] गर्भाधिकारान्नारीगर्भसूत्रं व्यक्तम्, केवलम् इत्थित्ताए त्ति स्त्रीतया, बिम्बमिति गर्भप्रतिबिम्बं गर्भाकृतिरार्त्तवपरिणामो न तु गर्भ एवेति, उक्तं च अवस्थितं लोहितमङ्गनाया वातेन गर्भ ब्रुवतेऽनभिज्ञाः । गर्भाकृतित्वात् कटुकोष्णतीक्ष्णैः श्रुते पुन: केवल एव रक्ते ॥ गर्भ जडा भूतहतं वदन्ती [ ] त्यादि । 10 वैचित्र्यं गर्भस्य कारणभेदादिति श्लोकाभ्यां तदाह- अप्पमित्यादि, शुक्रं रेत: __पुरुषसम्बन्धि, ओज आर्त्तवं रक्तं स्त्रीसम्बन्धि यत्र गर्भाशय इति गम्यते इति, तथा स्त्रिया ओजसा समायोगो वातवशेन तत्स्थिरीभवनलक्षण: स्त्र्योज:समायोगस्तस्मिन सति बिम्बं तत्र गर्भाशये प्रजायते, अन्यैरप्यत्रोक्तम् अंत एव च शुक्रस्य, बाहुल्याजायते पुमान् । रक्तस्य स्त्री तयोः साम्ये, क्लीब: शुक्रा-वे पुन: ॥ वायुना बहुशो भिन्ने, यथास्वं बह्वपत्यता । वियोनिविकृताकारा, जायन्ते विकृतैर्मलैः ॥ [ ] इति ॥ [सू० ३७८] उप्पायपुव्वस्स णं चत्तारि चूलवत्थू पन्नत्ता । [टी०] गर्भ: प्राणिनां जन्मविशेष:, स चोत्पादोऽभिधीयते, उत्पादश्चोत्पादाभिधानपूर्वे 20 प्रपञ्च्यते इति तत्स्वरूपविशेषप्रतिपादनायाह- उप्पायेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् उत्पादपूर्वं प्रथमं पूर्वाणाम्, तस्य चूला आचारस्याग्राणीव, तद्रूपाणि वस्तूनि परिच्छेदविशेषा अध्ययनवच्चूलावस्तूनि । [सू० ३७९] चउविहे कव्वे पन्नत्ते, तंजहा-गजे, पजे, कत्थे, गेये । [टी०] उत्पादपूर्वं हि काव्यमिति काव्यसूत्रम्, कण्ठ्यं चैतत्, नवरं काव्यं ग्रन्थः, 25 गद्यम् अच्छन्दोनिबद्धं शस्त्रपरिज्ञाध्ययनवत्, पद्यं छन्दोनिबद्धं विमुक्त्यध्ययनवत्, १. तत जे१ ॥ २. °ध्ययनादिवत् जे१ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ 5 10 [सू० ३८०-३८३] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । कथायां साधु कथ्यं ज्ञाताध्ययनवत्, गेयं गानयोग्यम्, इह गद्य-पद्यान्तर्भावेऽपीतरयो: कथा-गानधर्मविशिष्टतया विशेषो विवक्षित इति । [सू० ३८०] णेरतिताणं चत्तारि समुग्धाता पन्नत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्धाते, कसायसमुग्धाते, मारणंतियसमुग्घाते, वेउव्वियसमुग्धाते । एवं वाउकाइयाण वि। [टी०] अनन्तरं गेयमुक्तम्, तच्च भाषास्वभावत्वात् दण्ड-मन्थादिक्रमेण लोकैकदेशादि पूरयति, समुद्घातोऽप्येवमेवेति साधर्म्यात् समुद्घातसूत्रे सुगमे च, नवरं समुद्धननं समुद्घात: शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः, वेदनया समुद्घात: कषायैः समुद्घातः, मरणमेवान्तो मरणान्तः तत्र भवो मारणान्तिकः, स एव समुद्घातः, वैक्रियाय समुद्घात: इति विग्रहा इति । [सू० ३८१] अरहतो णं अरिट्टनेमिस्स चत्तारि सता चोहसपुव्वीणमजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवातीणं जिणो इव अवितथं वागरमाणाणं उक्कोसिता चोद्दसपुव्विसंपया होत्था । [सू० ३८२] समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सत्ता वादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते अपराजिताणं उक्कोसिता वादिसंपया होत्था । 15 _[सू० ३८३] हेट्टिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिता पन्नत्ता, तंजहासोहम्मे, ईसाणे, सणंकुमारे, माहिंदे । ___ मज्झिल्ला चत्तारि कप्पा पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिता पन्नत्ता, तंजहा-बंभलोगे, लंतते, महासुक्के, सहस्सारे । उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिता पन्नत्ता, तंजहा-आणते, 20 पाणते, आरणे, अच्चुते । [टी०] वैक्रि यसमुद्घातो हि लब्धिरूप उक्त इति लब्धिप्रस्तावात् विशिष्ट श्रुतलब्धिमतामभिधानाय अरहओ. इत्यादि सूत्रद्वयी सुगमा, नवरमजिनानामसर्वज्ञत्वात्, जिनसंकाशानामविसंवादिवचनत्वाद् यथापृष्टनिर्व्वक्तृत्वाच्च, सर्वे अक्षराणाम् अकारादीनां सन्निपाता द्वयादिसंयोगा 25 अभिधेयानन्तत्वादनन्ता अपि विद्यन्ते येषां ते सर्वाक्षरसन्निपातिनः, एतेषां Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे I जिनसंकाशत्वे कारणमाह- जिणो विवेत्यादि । उक्कोसिय त्ति नातोऽधिकाश्चतुर्द्दशपूर्विणो बभूवुः कदाचिदपीति । ते च प्रायः कल्पेषु गता इति कल्पसूत्राणि सुगमानि च, नवरम् अद्धचंदंसंठाणसंठिए त्ति पूर्वापरतो मध्यभागें सीमासद्भावादिति । [सू० ३८४] चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पन्नत्ता, तंजहा - लवणोदे, वरुणोदे, खीरोदे, घोदे । [टी०] देवलोका हि क्षेत्रमिति क्षेत्रप्रस्तावात् समुद्रसूत्रं व्यक्तम्, नवरम् एकमेकं प्रति भिन्नो रसो येषां ते प्रत्येकरसाः, अतुल्यरसा इत्यर्थः, लवणरसोदकत्वाल्लवणः, पाठान्तरे तु लवणमिवोदकं यत्र स लवणोदो निपातनादिति प्रथमः, वारुणी सुरा, 10 तया समानं वारुणम्, वारुणमुदकं यस्मिन् स वारुणोदः चतुर्थ:, क्षीरवत्तथा घृतवदुदकं यत्र स क्षीरोदः पञ्चमः, घृतोदः पष्ठः, कालोद - पुष्करोद-स्वयम्भुरमणा उदकरसाः, शेषास्तु इक्षुरसा इति, उक्तं च वारुणिवर खीरवरो घयवर लवणो य होंति पत्तेया । 15 ४९६ कालो पुक्खरउदही सयंभुरमणो य उदगरसा ॥ [ बृहत्सं० ८८] इति । [सू० ३८५] चत्तारि आवत्ता पन्नत्ता, तंजहा - खरावत्ते, उन्नतावत्ते, गूढावत्ते, आमिसावत्ते । एवामेव चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तंजहा - खरावत्तसमाणे कोधे, उन्नत्तावत्तसमाणे माणे, गूढावत्तसमाणा माया, आमिसावत्तसमाणे लोभे १ । खरावत्तसमाणं कोहं अणुपविट्ठे जीवे कालं करेति णेरइएस उववज्जति, उन्नतावत्तसमाणं माणं एवं चेव, गूढावत्तसमाणं मातमेवं चेव, 20 आमिसावत्तसमाणं लोभमणुपविट्ठे जीवे कालं करेति नेरइएसु उववज्जति २ [ टी० ] अनन्तरं समुद्रा उक्तास्तेषु चावर्त्ता भवन्तीत्यावर्त्तान् दृष्टान्तान् कषायांश्च तद्दान्तिकानभिधित्सुः सूत्रद्वयमाह, सुगमं चैतत्, नवरं खरो निष्ठुरोऽतिवेगितया पातकश्छेदको वा आवर्त्तनमावर्त्तः स च समुद्रादेश्चक्रविशेषाणां वेति खरावर्त्तः, उन्नत: उच्छ्रित:, स चासावावर्त्तश्चेति उन्नतावर्त्तः, स च पर्वतशिखरारोहणमार्गस्य 25 वातोत्कलिकाया वा, गूढश्चासावावर्त्तश्चेति गूढावर्त्तः, स च गेन्दुकदवरकस्य १. संठाण त्ति जे१ खं० ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३८६-३८७] चतुर्थमध्ययनं चतुःस्थानकम् । चतुर्थ उद्देशकः । ४९७ दारुग्रन्थ्यादेर्वा, आमिषं मांसादि, तदर्थमावर्त्तः शकुनिकादीनामामिषावर्त्त इति, एतत्समानता च क्रोधादीनां क्रमेण परापकारकरणदारुणत्वात्, पत्र-तृणादिवस्तुन इव मनस उन्नतत्वारोपणात्, अत्यन्तदुर्लक्षस्वरूपत्वात्, अनर्थशतसम्पातसङ्कुलेऽप्यवपतनकारणत्वाच्चेति । इयं चोपमा प्रकर्षवतां कोपादीनामिति तत्फलमाहखरावत्तेत्यादि, अशुभपरिणामस्याशुभकर्मबन्धनिमित्ततया दुर्गतिनिमित्तत्वादुच्यते- 5 णेरइएसु उववजइ त्ति । [सू० ३८६] अणुराधानक्खत्ते चउतारे पन्नत्ते । पुव्वा आसाढा एवं चेव। उत्तरा आसाढा एवं चेव ।। [टी०] नारका अनन्तरमुक्ताः, तैश्च वैक्रियादिना समानधर्माणो देवा इति तद्विशेषभूतनक्षत्रदेवानां चतु:स्थानकं विवक्षुः अणुराहेत्यादि सूत्रत्रयमाह, कण्ठ्यं 10 चैतदिति । [सू० ३८७] जीवा णं चउट्ठाणनिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा- नेरतियनिव्वत्तिते, तिरिक्खजोणितनिव्वत्तिते, मणुस्सनिव्वत्तिए, देवनिव्वत्तिते । एवं उवचिणिंसु वा उवचिणंति वा उवचिणिस्संति वा । एवं 15 चिण उवचिण बंध उदीर वेत तह निज्जरा चेव ॥३३॥ [टी०] देवत्वादिभेदश्च जीवानां कर्मपुद्गलचयादिकृत इति तत्प्रतिपादनायाह- जीवा णमित्यादि सूत्रषट्कं व्याख्यातं प्राक्, तथापि किञ्चिल्लिख्यते, जीवा णं ति णंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, चतुर्भिः स्थानैः नारकत्वादिभि: पर्यायैर्निर्वर्तिताः कर्मपरिणाम नीतास्तथाविधाशुभपरिणामवशाद् बद्धास्ते चतु:स्थाननिर्वर्तिताः, तान् पुद्गलान्, कथं 20 निर्वर्त्तितानित्याह-पापकर्मतया अशुभस्वरूपज्ञानावरणादिरूपत्वेन, चिणिंसु त्ति तथाविधापरकर्मपुद्गलै श्चितवन्त:, पापप्रकृतीरल्पप्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः, नेरइयनिव्वत्तिए त्ति नैरयिकेण सता निर्वर्त्तिता इति विग्रह:, एवं सर्वत्र, तथा एवं उवचिणिंसु त्ति चयसूत्राभिलापेनोपचयसूत्रं वाच्यम्, उवचिणिंसु त्ति उपचितवन्त: १. क्ष्यस्व जे२ ॥ २. एवं बंध उदीर वेद तध निजरा चेव ! एते छ आलावगा- भा० ॥ ३. स्थानकैः जे२ ॥ ४. निव्वत्तिय त्ति जे१ । 'निवत्तिए त्ति जे२ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पौन:पुन्येन, एवमिति चयादिन्यायेन बन्धादिसूत्राणि वाच्यानीत्यर्थः, इह च एवं बन्धउदीरेत्यादिवक्तव्ये यच्चयोपचयग्रहणं तत् स्थानान्तरप्रसिद्धगाथोत्तरार्धानुवृत्तिवशादिति, तत्र बंध त्ति बंधिंसु ३ श्लथबन्धनबद्धान् गाढबन्धनबद्धान् कृतवन्त: ३, उदीर त्ति उदीरिंसु ३, उदयप्राप्ते दलिके अनुदितांस्तान आकृष्य करणेन 5 वेदितवन्त: ३, वेय त्ति वेदिसु ३, प्रतिसमयं स्वेन रसविपाकेनानुभूतवन्त: ३, तह निजरा चेव त्ति निजरिंसु ३ कात्स्यूनानुसमयमशेषतद्विपाकहान्या परिशातितवन्त: ३ इति । [सू० ३८८] चउपदेसिया खंधा अणंता पन्नत्ता । चउपदेसोगाढा पोग्गला अणंता [पन्नत्ता], चउसमयट्टितीया पोग्गला अणंता [पन्नत्ता], चउगुणकालगा 10 पोग्गला अणंता [पन्नत्ता], जाव चउगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्ता । ॥ चउट्ठाणं समत्तं ॥ [टी०] पुद्गलाधिकारात् पुद्गलानेव द्रव्यादिभिर्निरूपयन्नाह- चउप्पएत्यादि सुगममिति ॥ इति चतु:स्थानकस्य चर्तुथ उद्देशकः ॥ ॥ इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे चतुःस्थानकाख्यं 15 चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् । श्लोकाः २९३२ ॥ १. परिसमाप्तमिति श्लोकाः २९३२ -खं० । परिसमाप्तमिति २९३२- जे२ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y२२ अथ पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । ___ [प्रथम उद्देशकः ।] [सू० ३८९] पंच महव्वता पन्नत्ता, तंजहा-सव्वातो पाणातिवातातो वेरमणं जाव सव्वातो परिग्गहातो वेरमणं । पंचाणुव्वता पन्नत्ता, तंजहा-थूलातो पाणातिवातातो वेरमणं, थूलातो मुसावायातो वेरमणं, थूलातो अदिन्नादाणातो 5 वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे । . [टी०] व्याख्यातं चतुर्थमध्ययनम्, साम्प्रतं सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव पञ्चस्थानकाख्यं पञ्चममध्ययनं व्याख्यायते, अस्य चायं विशेषाभिसम्बन्ध:-इहानन्तराध्ययने जीवाजीवतद्धर्माख्या: पदार्थाश्चतु:स्थानकावतारणेनाभिहिताः, इह तु त एव पञ्चस्थानकावतारणेनाभिधीयन्ते इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकत्रयवतश्चतुरनु- 10 योगद्वारवतोऽध्ययनस्य प्रथमोद्देशको व्याख्यायते, अस्य च पूर्वोद्देशकेन सह सम्बन्धोऽधिकृताध्ययनवद् द्रष्टव्यः, तस्य चेदमादिसूत्रम्- पंच महव्वयेत्यादि । ___अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्ध:- पूर्वसूत्रे अजीवानां परिणामविशेष उक्तः, इह तु स एव जीवानामुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या संहितादिक्रमेण, स च क्षुण्ण एव, नवरं पञ्चेति सङ्ख्यान्तरव्यवच्छेदः, तेन न चत्वारि, प्रथम-पश्चिमतीर्थयो: 15 पञ्चानामेव भावात्, महान्ति बृहन्ति तानि च तानि व्रतानि च नियमा महाव्रतानि, महत्त्वं चैषां सर्वजीवादिविषयत्वेन महाविषयत्वात्, उक्तं च पढमम्मि सव्वजीवा बीए चरिमे अ सव्वदव्वाइं । सेसा महव्वया खलु तदेक्कदेसेण दव्वाणं ॥ [आव० नि० ५७४, विशेषाव० २६३७] ति, तदेकदेसेणं ति तेषां द्रव्याणामेकदेशेनेत्यर्थः । तथा यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेनेति 20 प्रत्याख्यानरूपत्वाच्च तेषामिति । देशविरतापेक्षया महतो वा गुणिनो व्रतानि महव्रतानीति, पुल्लिङ्गनिर्देशस्तु प्राकृतत्वादिति, प्रज्ञप्तानि तथाविधशिष्यापेक्षया प्ररूपितानि महावीरेणाऽऽद्यतीर्थकरेण च न शेषैरिति, एतत् किल सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति प्रतिपादयामास । तद्यथा- सर्वस्मात् निरवशेषात् त्रस-स्थावर१. व्वएत्यादि खं० पा० जे२ ॥ २. संबद्धस्यास्य जे१ ॥ ३. चरमे जे१ विना ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहित स्थानाङ्गसूत्रे सूक्ष्म-बादरभेदभिन्नात् कृत-कारिताऽनुमतिभेदाच्चेत्यर्थः, अथवा द्रव्यतः षड्जीवनिकायविषयात् क्षेत्रतस्त्रिलोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे रात्र्यादिप्रभवाद्वा भावतश्च राग-द्वेषसमुत्थाच्च, न तु परिस्थूरादेवेति भावः । प्राणानाम् इन्द्रियोच्छ्वासायुरादीनामतिपात: प्राणिनः सकाशाद्विभ्रंशः प्राणातिपात:, 5 प्राणिप्राणवियोजनमित्यर्थः, तस्माद् विरमणं सम्यग्ज्ञान-श्रद्धानपूर्वकं निवर्त्तनमिति । तथा सर्वस्मात् सद्भावप्रतिषेधा १-ऽसद्भावोद्भावन २-अर्थान्तरोक्ति ३-गर्हा४भेदात् कृतादिभेदाच्च, अथवा द्रव्यतः सर्वधर्मास्तिकायादिद्रव्यविषयात् क्षेत्रतः सर्वलोकालोकगोचरात् कालतोऽतीतादे राज्यादिवर्तिनो वा भावत: कषायनोकषायादिप्रभवात् मृषा अलीकं वदनं वादो मृषावादः, तस्माद् विरमणं विरतिरिति। 10 तथा सर्वस्मात् कृतादिभेदात् अथवा द्रव्यत: सचेतना-ऽचेतनद्रव्यविषयात् क्षेत्रतो ग्राम-नगरा-ऽरण्यादिसम्भवात् कालतोऽतीतादे रात्र्यादिप्रभवाद्वा भावतो राग-द्वेषमोहसमुत्थात् अदत्तं स्वामिना अवितीर्णं तस्याऽऽदानं ग्रहणमदत्तादानम्, तस्माद् विरमणमिति । तथा सर्वस्मात् कृत-कारिता-ऽनुमतिभेदात् अथवा द्रव्यतो दिव्य मानुष-तैरश्चभेदात् रूप-रूपसहगतभेदाद्वा, तत्र रूपाणि निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते 15 रूपसहगतानि तु सजीवानि, भूषणविकलानि वा रूपाणि भूषणसहितानि रूपसहगतानीति, क्षेत्रतस्त्रिलोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे रात्र्यादिसमुत्थाद्वा भावतो राग-द्वेषप्रभवात्, मिथुनं स्त्रीपुंसद्वन्द्वम्, तस्य कर्म मैथुनम्, तस्माद् विरमणमिति । तथा सर्वस्मात् कृतादेरथवा द्रव्यत: सर्वद्रव्यविषयात् क्षेत्रतो लोकसम्भवात् कालतोऽतीतादे रात्र्यादिर्भवाद्वा भावतो राग-द्वेषविषयात्, परिगृह्यते आदीयते परिग्रहणं 20 वा परिग्रहः, तस्माद् विरमणमिति । व्रतप्रस्तावात् पञ्चाणुव्वयेत्याद्यणुव्रतसूत्रम्, स्फुटं चेदम्, किन्तु अणूनि लघूनि व्रतानि अणुव्रतानि, लघुत्वं च महाव्रतापेक्षया अल्पविषयत्वादिनेति प्रतीतमेवेति, उक्तं च सव्वगयं सम्मत्तं सुए चरित्ते ण पज्जवा सव्वे । 25 देसविरइं पडुच्चा दोण्ह वि पडिसेहणं कुज्जा ॥ [विशेषाव० २७५१] इति । १. भावतो राग जे२ ॥ २. 'वर्त्तिनश्च जे१ खं० ॥ ३. °भवाच्च जे१ ॥ ४. व्वएत्यादि खं० ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३९०] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५०१ ___ अथवा अनु महाव्रतकथनस्य पश्चात्तदप्रतिपत्तौ यानि व्रतानि कथ्यन्ते तान्यनुव्रतानि, उक्तं च जइधम्मम्मऽसमत्थे जुज्जइ तद्देसणं पि साहूणं ।। तदहिगदोसनिवित्तीफलं ति कायाणुकंपट्टा ॥ [ ] इति । अथवा सर्वविरतापेक्षया अणोः लघोर्गुणिनो व्रतान्यणुव्रतानीति । स्थूला 5 द्वीन्द्रियादयः सत्त्वाः, स्थूलत्वं चैषां सकललौकिकानां जीवत्वप्रसिद्धेः, स्थूलविषयत्वात् स्थूलः, तस्मात् प्राणातिपातात् । तथा स्थूल: परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवः, तस्मात् मृषावादात्, तथा परिस्थूरवस्तुविषयं चौर्यारोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमतिदुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूलम्, तस्माददत्तादानात्, तथा स्वदारसन्तोष आत्मीयकलत्रादन्यत्रेच्छानिवृत्तिरिति, उपलक्षणात् परदारवर्जनमपि ग्राह्यम्, तथा 10 इच्छायाः धनादिविषयस्याभिलाषस्य परिमाणं नियमनमिच्छापरिमाणं देशतः परिग्रहविरतिरित्यर्थः । [सू० ३९०] पंच वण्णा पत्नत्ता, तंजहा-किण्हा, नीला, लोहिता, हालिद्दा, सुक्किला १। पंच रसा पन्नत्ता, तंजहा-तित्ता जाव मधुरा २ ।। 15 पंच कामगुणा पन्नत्ता, तंजहा-सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा ३ । पंचहिं ठाणेहिं जीवा सजंति, तंजहा-सद्देहिं जाव फासेहिं ४, एवं रजंति ५, मुच्छंति ६, गिज्झंति ७, अज्झोववजंति ८ । पंचहिं ठाणेहिं जीवा विणिघायमावजंति, तंजहा-सद्देहिं जाव फासेहिं 20 पंच ठाणा अपरिण्णाता जीवाणं अहिताते असुभाते अखमाते अणिस्सेसाते अणाणुगामितत्ताते भवंति, तंजहा-सदा जाव फासा १० । पंच ठाणा सुपरिन्नाता जीवाणं हिताते सुभाते जाव आणुगामितत्ताए भवंति, तंजहा-सद्दा जाव फासा ११ । पंच ठाणा अपरिण्णाता जीवाणं दुग्गतिगमणाए भवंति, तंजहा-सदा जाव 25 फासा १२ । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पंच ठाणा सुपरिन्नाता जीवाणं सुगतिगमणाए भवंति, तंजहा-सद्दा जाव फासा १३ । [सू० ३९१] पंचहिं ठाणेहिं जीवा दोग्गतिं गच्छंति, तंजहा-पाणातिवातेणं जाव परिग्गहेणं । 5 पंचहिं ठाणेहिं जीवा सोग्गतिं गच्छंति, तंजहा-पाणातिवातवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं । _[टी०] इच्छापरिमाणं चेन्द्रियार्थगोचरं श्रेय इतीन्द्रियार्थवक्तव्यतार्थं पंच वन्नेत्यादित्रयोदशसूत्रीमाह, प्रकटा चेयम्, नवरं पञ्च वर्णाः १, पञ्चैव रसाः, तदन्येषां सांयोगिकत्वेनाविवक्षितत्वादिति २, कामगुण त्ति कामस्य मदनाभिलाषस्य 10 अभिलाषमात्रस्य वा सम्पादका गुणा धाः पुद्गलानाम्, काम्यन्त इति कामाः ते च ते गुणाश्चेति वा कामगुणा इति ३, पंचहिं ठाणेहिं ति पञ्चसु पञ्चभिर्वा स्थानेषु रागाद्याश्रयेषु तैर्वा सह सज्यन्ते सङ्गं सम्बन्धं कुर्वन्तीति ४, एवमिति पञ्चस्वेव स्थानेषु रज्यन्ते सङ्गकारणं रागं यान्तीति ५, मूर्च्छन्ति तद्दोषानवलोकनेन मोहमचेतनत्वमिव यान्ति संरक्षणानुबन्धवन्तो वा भवन्तीति ६, गृध्यन्ति प्राप्तस्यासन्तोषेणा15 प्राप्तस्यापरापरस्याकाङ्क्षावन्तो भवन्तीति ७, अध्युपपद्यन्ते तदेकचित्ता भवन्ति तदर्जनाय वाऽऽधिक्येनोपपद्यन्ते उपपन्ना घटमाना भवन्तीति ८, विनिघातं मरणं मृगादिवत् संसारं वाऽऽपद्यन्ते प्राप्नुवन्तीति, आह च सक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श नागो रसे च वारिचरः । कृपणपतङ्गो रूपे भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ॥ पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु सक्तः प्रयाति भस्मान्ततां मूढः ॥ [ ] इति ।। अपरिन्नाय त्ति ज्ञपरिज्ञया स्वरूपतोऽपरिज्ञातानि अनवगतानि प्रत्याख्यानपरिज्ञया वाऽप्रत्याख्यातानि अहिताय अपायाय, अशुभाय अपुण्यबन्धाय असुखाय वा, अक्षमाय अनुचितत्वाय असमर्थत्वाय वा, अनिःश्रेयसाय अकल्याणायाऽमोक्षाय 25 वा, यदुपकारि सत् कालान्तरमनुयाति तदनुगामिकं तत्प्रतिषेधोऽननुगामिकं तद्भावस्तत्त्वं १. भवन्तीति पा० जे२ ॥ २. रक्तः जे१ पा० जे२ ॥ ३. रक्तः पा० जे२ ॥ 20 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३९२] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५०३ तस्मै अननुगामिकत्वाय भवन्ति १०, द्वितीयं विपर्ययसूत्रम् ११, उत्तरसूत्रद्वयेन तु एतदेवाऽहित-हितादि व्यञ्जितमिति, दुर्गतिगमनाय नारकादिभवप्राप्तये सुगतिगमनाय सिद्ध्यादिप्राप्तये इति १२-१३ । दुर्गति-सुगत्योः कारणान्तरप्रतिपादनसूत्रे सुगमे इति। [सू० ३९२] पंच पडिमातो पन्नत्ताओ, तंजहा-भद्दा, सुभद्दा, महाभद्दा, सव्वतोभद्दा, भद्दुत्तरपडिमा । 5 [टी०] इह संवर-तपसी मोक्षहेतू, तत्रानन्तरमाश्रवनिरोधलक्षणः संवर उक्तोऽधुना तपोभेदात्मिकाः प्रतिमा आह- पंचेत्यादि व्यक्तम्, नवरं भद्रा १ महाभद्रा २ सर्वतोभद्रा ३ द्वि १ चतु २ दशभि ३ दिनैः क्रमेण भवन्तोत्युक्तं प्राग, सुभद्रा त्वदृष्टत्वान्न लिखिता, सर्वतोभद्रा तु प्रकारान्तरेणाप्युच्यते, द्विधेयं क्षुद्रिका महती च, तत्राद्या चतुर्थादिना द्वादशावसानेन पञ्चसप्ततिदिनप्रमाणेन तपसा भवति, अस्याश्च स्थापनोपायगाथा- 10 एगाई पंचंते ठविउं मझं तु आइमणुपंतिं । उचियकमेण य सेसे जाण लहुं सव्वओभदं ॥ [ . ] ति पारणकदिनानि तु पञ्चविंशतिरिति, स्थापना | १ २ ३ ४ ५ । ३ ४ ५ १ २ ।। ४ ५ १ २ ३ । महती तु चतुर्थादिना षोडशावसानेन षण्णवत्यधिकदिनशतमानेन भवति, अस्या अपि स्थापनोपायगाथा एगाई सत्तंते ठविउ मज्झं च आदिमणुपंतिं । उचियकमेण य सेसे जाण महं सव्वओभई ॥ [ ] ति, पारणकदिनान्येकोनपञ्चाशदिति १॥ . भद्रोत्तरप्रतिमा द्विधा क्षुल्लिका महती च, तत्र आद्या द्वादशादिना विंशान्तेन पञ्चसप्तत्यधिकदिनशतप्रमाणेन तपसा भवति, अस्याः स्थापनोपायगाथा१. दृश्यतां सू० ७७, २५१ ॥ २. दिति । स्थापना १ २ ३ ४ ५ ६ ७ । ४ ५ ६ ७ १ २ ३। ७ १ २ ३ ४ ५ ६ । ३ ४ ५ ६ ७ १२। ६ ७ १ २ ३ ४ ५ । २ ३ ४ ५ ६ ७ १। ५६७१२३४ । - पा० जे२ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पंचाई य नवंते ठविउं मझं तु आदिमणुपंतिं । उचियकमेण य सेसे जाणह भद्दोत्तरं खुडं ॥ [ ] ति, पारणकदिनानि पञ्चविंशतिरिति २, महती तु द्वादशादिना चतुर्विंशतितमान्तेन द्विनवत्यधिकदिनशतत्रयमानेन तपसा भवति, तत्र च गाथा5 पंचादिगारसंते ठविउं मज्झं तु आइमणुपंतिं ।। उचियकमेण य सेसे महइं भद्दोत्तरं जाण ॥ [ ] इति, पारणकदिनान्येकोनपञ्चाशदिति ३ । [सू० ३९३] पंच थावरकाया पन्नत्ता, तंजहा-इंदे थावरकाए, बंभे थावरकाए, सिप्पे थावरकाए, सम्मुती थावरकाए, पाजावच्चे थावरकाए । 10 पंच थावरकायाधिपती पन्नत्ता, तंजहा-इंदे थावरकाताधिपती जाव पातावच्चे थावरकाताधिपती । [टी०] उक्तः कर्मणां निर्जरणहेतुस्तपोविशेषः, अधुना तेषामेवानुपादानहेतोः संयमस्य विषयभूतानेकेन्द्रियजीवानाह– पंचेत्यादि, स्थावरनामकर्मोदयात् स्थावराः पृथिव्यादयः, तेषां काया राशयः, स्थावरो वा कायः शरीरं येषां ते स्थावरकायाः, 15 इन्द्रसम्बन्धित्वादिन्द्रः स्थावरकायः पृथिवीकायः, एवं ब्रह्म-शिल्प-सम्मति प्राजापत्या अपि अप्कायादित्वेन वाच्या इति । एतन्नायकानाह- पंचेत्यादि, स्थावरकायानां पृथिव्यादीनामिति सम्भाव्यते अधिपतयो नायका दिशामिवेन्द्राऽग्न्यादयो नक्षत्राणामिवाऽश्वि-यम-दहनादयो दक्षिणेतरलोकार्द्धयोरिव शक्रेशानाविति स्थावरकायाधिपतय इति । 20 [सू० ३९४] पंचहिं ठाणेहिं ओहिदंसणे समुप्पजिउकामे वि तप्पढमताते खभातेजा, तंजहा-अप्पभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमताते खभातेज्जा, कुंथुरासिभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमताते खभातेज्जा, महतिमहालतं वा महोरगसरीरं पासित्ता तप्पढमताते खभातेजा, देवं वा महिड्डियं जाव महेसक्खं पासित्ता तप्पढमताते खभातेजा, पुरेसु वा पोराणाई महतिमहालयाई १. दृश्यतां सू० ९५ टीका ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३९४ ] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । महानिहाणाइं पहीणसामिताइं पहीणसेतुकाइं पहीणगोत्तागाराई उच्छन्नसामियाई उच्छन्नसेउयाइं उच्छन्नगोत्तागाराई जाई इमाई गामा -ऽऽगर - नगर - खेड - कब्बडमडंब - दोणमुह-पट्टणा - ऽऽसम-संवाह- सन्निवेसेसु सिंघाडग-तिग- चउक्कचच्चर-चउमुह-महापह-पहेसु णगरणिद्धमणेसु सुसाण - सुन्नागार - गिरि-कन्दरसन्ति- सेलोवट्ठाण - भवणगिहेसु संनिक्खित्ताइं चिट्ठति ताइं वा पासित्ता 5 तप्पढमताते खभातेज्जा । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं ओहिदंसणे समुप्पज्जिउ कामे तप्पढमताते खभातेजा । पंचहिं ठाणेहिं केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जिकामे तप्पढमताते नो खभातेज्जा, तंजहा- अप्पभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमताते णो खभातेज्जा, सेसं तहेव जाव भवणगिहेसु संनिक्खित्ताइं चिट्ठति ताइं वा पासित्ता तप्पढमताते 10 णो खातेजा । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं जाव नो खभातेज्जा । I [टी०] एते चावधिमन्त इत्यवधिस्वरूपमाह - पंचहीत्यादि व्यक्तम्, नवरम् अवधिना दर्शनम् अवलोकनमर्थानामुत्पत्तुकामं भवितुकामं तत्प्रथमतायाम् अवधिदर्शनोत्पादप्रथमसमये खभाएज्ज त्ति स्कभ्नीयात् क्षुभ्येत्, चलतीत्यर्थः, अवधिदर्शने वा समुत्पत्तुकामे सति, अवधिमानिति गम्यते, क्षुभ्येद् अल्पभूतां 15 स्तोकसत्त्वां पृथिवीं दृष्ट्वा, वाशब्दो विकल्पार्थः, अनेकसत्त्वव्याकुला भूरिति सम्भावनावान् अकस्मादल्पसत्त्वभूदर्शनात् 'आः ! किमेतदेवम्' इत्येवं क्षुभ्येदेव अक्षीणमोहनीयत्वादिति भावः, अथवा भूतशब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वादल्पभूताम् अल्पाम्, पूर्वं हि तस्य बह्वी पृथ्वीति सम्भावनाऽऽसीदिति १, तथाऽत्यन्तप्रचुरत्वात् कुन्थूनां कुन्थुराशिभूतां कुन्थुराशित्वप्राप्तां पृथिवीं दृष्ट्वा अत्यन्तविस्मय - दयाभ्यामिति २, तथा 20 महतिमहालयं ति महातिमहत् महोरगशरीरं महाऽहितनुं बाह्यद्वीपवर्त्ति योजनसहस्रप्रमाणं दृष्ट्वा विस्मयाद् भयाद्वा ३, तथा देवं महर्द्धिकं महाद्युतिकं महानुभागं महाबलं महासौख्यं दृष्ट्वा विस्मयादिति ४, तथा पुरेषु व त्ति नगराद्येकदेशभूतानि, 'प्राकारावृतानि पुराणी'ति प्रसिद्धम्, तेषु पुराणानि चिरन्तनानि, ओरालाई क्वचित् पाठः तत्र A-17 ५०५ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मनोहराणीत्यर्थः, महइमहालयाई ति विस्तीर्णत्वेन महानिधानानीति महामूल्यरत्नादिमत्त्वेन, प्रहीणा: स्वामिनो येषां तानि तथा, तथा प्रहीणाः सेक्तारः सेचकास्तेष्वेवोपर्युपरि धनप्रक्षेपकाः पुत्रादयो येषां तानि तथा, अथवा प्रहीणाः सेतवः तदभिज्ञानभूताः पालयस्तन्मार्गा वाऽतिचिरन्तनतया प्रतिजागरकाभावेन च येषां तानि 5 प्रहीणसेतुकानि, किंबहुना ?, निधायकानां यानि गोत्रागाराणि कुलगृहाणि तान्यपि प्रहीणानि येषाम् । अथवा तेषामेव गोत्राणि नामान्याकाराश्च आकृतयस्ते प्रहीणा येषां तानि प्रहीणगोत्रागाराणि प्रहीणगोत्राकाराणि वा, एवमुच्छन्नस्वामिकादीन्यपि, नवरमिह प्रहीणाः किञ्चत्सत्तावन्तः उच्छन्ना निर्नष्ट सत्ताका:, यानीमानि अनन्तरोक्तविशेषणानि, तथा ग्रामादिषु यानि, तत्र करादिगम्यो ग्रामः, आगत्य कुर्वन्ति 10 यत्र स आकरो लोहाद्युत्पत्तिभूमिरिति, नास्मिन् करोऽस्तीति नकरम्, धूलीप्राकारोपेतं खेटम्, कुनगरं कर्बटम्, सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परेण स्थितग्राम मडम्बम्, यस्य जलस्थलपथावुभावपि तद् द्रोणमुखम्, यत्र जलपथ-स्थलपथयोरन्यतरेण पर्याहारप्रवेशस्तत् पत्तनम्, तीर्थस्थानमाश्रमः, यत्र पर्वतनितम्बादिदुर्गे परचक्रभयेन रक्षार्थं धान्यादीनि वहन्ति स संवाहः, यत्र प्रभूतानां भाण्डानां प्रवेशः स 15 संनिवेशः, तथा शृङ्गाटकं त्रिकोणं रथ्यान्तरं स्थापना 7, त्रिकं यत्र रथ्यानां त्रयं मिलति । , चतुष्कं यत्र रथ्याचतुष्टयम् +, चत्वरं रथ्याष्टकमध्यम् #, चतुर्मुखं देवकुलादि, महापथो राजमार्गः, पथो रथ्यामात्रम्, एवंभूतेषु वा स्थानेषु, नगरनिर्द्धमनेषु तत्क्षालेषु, तथा अगारशब्दसम्बन्धात् स्मशानागारं पितृवनगृहम्, शून्यागारं प्रतीतम्, तथा गृहशब्दसम्बन्धात् गिरिगृहं पर्वतोपरि गृहम्, कन्दरगृहं गिरिगुहा गिरिकन्दरं वा, 20 शान्तिगृहं यत्र राज्ञां शान्तिकर्म होमादि क्रियते, शैलगृहं पर्वतमुत्कीर्य यत् कृतम्, उपस्थानगृहम् आस्थानमण्डपोऽथवा शैलोपस्थानगृहं पाषाणमण्डपः, भवनगृहं यत्र कुटुम्बिनो वास्तव्या भवन्तीति, अथवा शान्त्यादिविशेषितानि भवनानि गृहाणि च, तत्र भवनं चतुःशालादि, गृहं तु अपवरकादिमात्रम्, तेषु सन्निक्षिप्तानि न्यस्तानि दृष्ट्वा क्षुभ्येद् अदृष्टपूर्वतया विस्मयाल्लोभावति, इच्चेएहीत्यादि निगमनमिति । केवलज्ञानदर्शनं १. 'याई विस्ती जे१ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ [सू० ३९५] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । तु न स्कभ्नीयात् केवली वा, याथात्म्येन वस्तुदर्शनात् क्षीणमोहनीयत्वेन भय-विस्मयलोभाद्यभावेन अतिगम्भीरत्वाच्चेति, अत आह- पंचहीत्यादि सुगममिति। [सू० ३९५] णेरइयाणं सरीरगा पंचवण्णा पंचरसा पन्नत्ता, तंजहा-किण्हा जाव सुक्किला, तित्ता जाव मधुरा । एवं निरंतरं जाव वेमाणियाणं । पंच सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालिते, वेउव्विते, आहारते, तेयते, कम्मते। 5 ओरालितसरीरे पंचवन्ने पंचरसे पन्नत्ते, तंजहा-किण्हे जाव सुक्किले, तित्ते जाव महुरे, एवं जाव कम्मगसरीरे । सव्वे वि णं बादरबोंदिधरा कलेवरा पंचवण्णा, पंचरसा, दुगंधा, अट्ठफासा। [टी०] तथा नारकादिशरीराणि बीभत्सान्युदाराणि च दृष्ट्वाऽपि न केवलदर्शनं स्कभ्नातीति शरीरप्ररूपणाय नेरइयाणमित्यादिसूत्रप्रपञ्चः, गतार्थश्चायम्, नवरं पञ्चवर्णत्वं 10 नारकादिवैमानिकान्तानां शरीरिणां शरीराणां निश्चयनयात्, व्यवहारतस्तु एकवर्णप्राचुर्यात् कृष्णादिप्रतिनियतवर्णतैवेति । जाव सुक्किल त्ति किण्हा नीला लोहित हालिद्दा सुकिला य, जाव महुर त्ति तित्ता कडुया कसाया अंबिला महुरा य, जाव वेमाणियाणं ति चतुर्विंशतिदण्डकसूचा। सरीर त्ति उत्पत्तिसमयादारभ्य प्रतिक्षणमेव शीर्यत इति शरीरम्, ओरालिय त्ति उदारं प्रधानम्, उदारमेवौदारिकम्, प्रधानता चास्य तीर्थकरादिशरीरापेक्षया, 15 न हि ततोऽन्यत् प्रधानतरमस्ति, प्राकृतत्वेन च ओरालियं ति १, अथवा उरालं नाम विस्तरालं विशालं सातिरेकयोजनसहस्रप्रमाणत्वादस्य अन्यस्य चावस्थितस्यैवमसम्भवात्, उक्तं च जोयणसहस्समहियं ओहय एगिदिए तरुगणेसु । मच्छजुयले सहस्सं उरगेसु य गब्भजाएसु ॥ [बृहत्सं० ३०७] इति वैक्रियस्य लक्षप्रमाणत्वेऽप्यनवस्थितत्वात्, तदेव ओरालिकम् २, अथवा उरलमल्पप्रदेशोपचितत्वाद् बृहत्त्वाच्च भिण्डवदिति, तदेव ओरालिकम् निपातनात् ३, अथवा ओरालं मांसा-ऽस्थि-स्नाय्वाद्यवबद्धम्, तदेव ओरालिकमिति ४, उक्तं चतत्थोदार १ मुरालं २ उरलं ३ ओरालमहव ४ विन्नेयं । ओदारियं ति पढमं पडुच्च तित्थेसरसरीरं ॥ १. ओघतः । ओहेण- बृहत्सं० ॥ २. उराल' जे१ खं० ॥ 20 25 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ५०८ 15 भन्नइ य तहोरालं वित्थरवंतं वणस्सतिं पप्प | पईए नत्थि अन्नं द्दहमेत्तं विसालं ति ॥ उरलं थेवपदेसोवचियं पि महल्लगं जहा भिंडं । मंसट्ठिण्हारुबद्धं ओरालं समयपरिभासा ॥ [ ] इति वेउव्विय त्ति विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम्, उक्तं च आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे विवहा व विसिट्ठा वा किरिया विक्विरिय तीएं जं भवं तमिह । वेव्वियं तयं पुण नारग- देवाण पगतीए ॥ [ ] इति, विविधं विशिष्टं वा कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकमिति वा । आहार ि 10 तथाविधकार्योत्पत्तौ चतुर्द्दशपूर्वविदा योगबलेनाऽऽ हियत इत्याहारकम् उक्तं चकज्जम्मि सप्पन्ने सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं एत्थं आहरिज्जइ भांति आहारगं तं तु ॥ [ पाणिदयरिद्धिसंदरिसणत्थमत्थोवगहणहेउं वा । संसयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपायमूलम्मि ॥ [ ] कार्याणि चामूनि 1 कार्यसमाप्तौ पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवदिति । तेयए त्ति तेजसो भावस्तैजसम्, उष्मादिलिङ्गसिद्धम्, उक्तं च सव्वस्स उम्हसिद्धं रसादिआहारपागजणगं च । तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायव्वं ॥ [ कम्मति कर्म्मणो विकारः कार्म्मणम्, सकलशरीरकारणमिति, उक्तं च20 कम्मविगारो कम्मणमट्ठविहविचित्तकम्मनिप्फन्नं । ] सव्वेसिं सरीराणं कारणभूयं मुणेयव्वं ॥ [ ] ति । औदारिकादिक्रमश्च यथोत्तरं सूक्ष्मत्वात् प्रदेशबाहुल्याच्चेति । तथा सर्वाण्यपि बादरबोन्दिधराणि पर्याप्तकत्वेन स्थूराकारधारीणि कलेवराणि शरीराणि मनुष्यादीनां पञ्चादिवर्णादीन्यवयवभेदेनेति, अक्षिगोलकादिषु तथैवोपलब्धेः । दोगंध त्ति सुरभि - 25 दुरभिभेदात्, अट्ठफास त्ति कठिन-मृदु- शीतोष्ण-गुरु-लघु-स्निग्ध- रूक्षभेदादिति, अबादरबोन्दिधराणि तु न नियतवर्णादिव्यपदेश्यानि, अपर्याप्तत्वेनावयवविभागाभावादिति । ति Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३९६] . पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५०९ [सू० ३९६] पंचहिं ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, तंजहा-दुआइक्खं, दुविभजं, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं ।। पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुगमं भवति, तंजहा-सुआतिक्खं, सुविभजं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरणुचरं । पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं 5 वनिताई, णिच्चं कित्तिताइं, णिच्चं बुतिताई, णिच्चं पसत्थाइं, निच्चमब्भणुन्नाताई भवंति, तंजहा-खंत्ती, मुत्ती, अजवे, मद्दवे, लाघवे । ___पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं जाव अब्भणुन्नायाइं भवंति, तंजहा-सच्चे, संजमे, तवे, चिताते, बंभचेरवासे । पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं जाव अब्भणुन्नाताई भवंति, 10 तंजहा-उक्खित्तचरते, निक्खित्तचरते, अंतचरते, पंतचरते, लूहचरते । ___पंच ठाणाई जाव अब्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-अन्नातचरते, अन्नइलायचरए, मोणचरते, संसट्ठकप्पिते, तजातसंसट्ठकप्पिते । पंच ठाणाइं जाव अब्भणुन्नाताई भवंति, तंजहा-उवनिहिते, सुद्धेसणिते, संखादत्तिते, दिट्ठलाभिते, पुट्ठलाभिते । 15 पंच ठाणाइं जाव अब्भणुण्णाताई भवंति, तंजहा-आयंबिलिते, निन्वितिए, पुरिमट्टिते, परिमितपिंडवातिते, भिन्नपिंडवातिते । ___ पंच ठाणाइं जाव अब्भणुन्नायाइं भवंति, तंजहा-अरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे, लूहाहारे । पंच ठाणाई जाव भवंति, तंजहा-अरसजीवी, विरसजीवी, अंतजीवी, 20 पंतजीवी, लूहजीवी । पंच ठाणाइ जाव भवंति, तंजहा-ठाणातिते, उक्कुडुआसणिते, पडिमट्ठाती, वीरासणिए, णेसजिते । पंच ठाणाइं जाव भवंति, तंजहा-दंडायतिते, लगंडसाती, आतावते, अवाउडते, अकंडुयते । 25 १. दुविभयं क० भा० ॥ २. अन्नवेल पा० ला० भां० ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [0] अनन्तरं शरीराणि प्ररूपितानीति शरीरिविशेषगतान् धर्मविशेषान् पंचहिं ठाणेहीत्यादिनाऽऽर्जर्वसूत्रान्तेन ग्रन्थेन दर्शयति, सुगमश्चायम्, नवरं पञ्चसु स्थानकेषु आख्यांनादिक्रियाविशेषलक्षणेषु पुरिमा भरतैरावतेषु चतुर्विंशतेरादिमास्ते च पश्चिमकाश्च चरमाः पुरिम-पश्चिमकास्तेषां जिनानाम् अर्हतां दुग्गमं ति दुःखेन गम्यत इति 5 दुर्गमम्, भावसाधनोऽयं कृच्छ्रवृत्तिरित्यर्थः, तद् भवति विनेयानामृजुजडत्वेन वक्रजडत्वेन च, तानि चेमानि तद्यथेत्यादि, इह चाख्यानं विभजनं दर्शनं तितिक्षणमनुचरणं चेत्येवं वक्तव्येऽपि येषु स्थानेषु कृच्छ्रवृत्तिर्भवति तानि तद्योगात् कृच्छ्रवृत्तीन्येवोच्यन्ते इति कृच्छ्रवृत्तिद्योतकदुःशब्दविशेषितानि कर्मसाधनशब्दाभिधेयान्याख्यानादीनि विचित्रत्वाच्छब्दप्रवृत्तेराह । दुआइक्खमित्यादि, तत्र दुराख्येयं कृच्छ्राख्येयं वस्तुतत्त्वम्, 10 विनेयानां महावचनाटोपप्रबोध्यत्वेन भगवतामायासोत्पत्तेरित्येवमाख्याने कृच्छ्रवृत्तिरुक्ता, एवं विभजनादिष्वपि भावनीया, तथा आख्यातेऽपि तत्र दुर्विभजं कष्टविभजनीयम्, ऋजुजडत्वादेरेव तद् भवतीति दुःशकं शिष्याणां वस्तुतत्त्वस्य विभागेनावस्थापनमित्यर्थः, दुर्विभवमित्यत्र पाठान्तरे दुर्विभाव्यं दुःशका विभावना कर्त्तुं तस्येत्यर्थः, तथा दुप्पस्सं ति दुःखेन दर्श्यते इति दुर्दर्शम् उपपत्तिभिर्दुः शकं शिष्याणां प्रतीतावारोपयितुं तत्त्वमिति 15 भाव:, दुतितिक्खं ति दुःखेन तितिक्ष्यते सह्यते इति दुस्तितिक्षं परीषहादि, दु:शकं परीषहादिकमुत्पन्नं तितिक्षयितुम्, शिष्यं तत् प्रति क्षमां कारयितुमिति भाव इति, दुरणुचरं ति दुःखेनानुचर्यते अनुष्ठीयत इति दुरनुचरमन्तर्भूतकारितार्थत्वेन दुःशकमनुष्ठापयितुमित्यर्थः, अथवा तेषां तीर्थे दुराख्येयं दुर्व्विभजमाचार्यादीनां वस्तुतत्त्वं शिष्यान् प्रति, आत्मनापि दुर्दृशं दुस्तितिक्षं दुरनुचरमित्येवं कारितार्थं विमुच्य व्याख्येयम्, 20 तेषामपि ऋजु-जडादित्वादिति । ५१० मध्यमानां तु सुगमम् अकृच्छ्रवृत्ति:, तद्विनेयानामृजुप्रज्ञत्वेनाल्पप्रयत्नेनैव बोधनीयत्वाद् विहितानुष्ठाने सुखप्रवर्त्तनीयत्वाच्चेति शेषं पूर्ववत्, १. दृश्यतां सू० ४०० ॥ २. भवति जे१ जे२ ॥ ३. “इन् कारितं धात्वर्थे |४३| धातोश्च हेतौ ॥४४॥ हेतुशब्देन हेतुकर्तृव्यापारोऽर्थादवगम्यते । धात्वर्थं वर्तयन्त्यन्ये । हेतुकर्तृव्यापारो वर्तमानाद्धातोश्चेत् परो भवति, च कारितसंज्ञकः । कुर्वन्तं प्रयुङ्क्ते कारयति । पचन्तं प्रयुङ्क्ते पाचयति ॥” इति कातन्त्रव्याकरणस्य दुर्गसिंहरचितायां वृत्तौ आख्यातप्रकरणे ॥ ४. दुर्दृश्यं जे१ खं० ॥ , Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० ३९६ पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५११ नवरमकृच्छ्रार्थविशिष्टता आख्यानादीनां वाच्या, तथा सुरनुचरं ति रेफ: प्राकृतत्वादिति। नित्यं सदा वर्णितानि फलत:, कीर्त्तितानि संशब्दितानि नामतः, बुइयाइं ति व्यक्तवाचोक्तानि स्वरूपतः, प्रशस्तानि प्रशंसितानि श्लाषितानि शंसु स्तुतौ [पा० धा० ७२८] इति वचनात्, अभ्यनुज्ञातानि कर्त्तव्यतया अनुमतानि भवन्तीति, अयं च सूत्रोत्क्षेप: प्रतिसूत्रं वैयावृत्यसूत्रं यावद् दृश्य इति, तत्र क्षान्त्यादय: क्रोध-लोभ- 5 माया-माननिग्रहा: तथा लाघवमुपकरणतो गौरवत्रयत्यागतश्चेति, तथाऽन्यानि पञ्च, सद्भ्यो हितं सत्यम् अनलीकम्, तच्चतुर्विधम्, यतोऽवाचि अविसंवादनयोग: कायमनोवागजिह्मता चैव । सत्यं चतुर्विधं तच्च जिनवरमतेऽस्ति नान्यत्र ॥ [प्रशम० १७४] इति । तथा संयमनं संयमो हिंसादिनिवृत्तिः, स च सप्तदशविधः, तदुक्तम्पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणप्फइ-बितिचउपणिंदि-अज्जीवे । पेहोपेहपमजणपरिट्ठवणमणोवईकाए ॥ [दशवै० नि० ४६], अथवापञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयम: सप्तदशभेदः ॥ [प्रशम० १७२], इति । तथा तप्यतेऽनेनेति तपः, यतोऽभ्यधायिरस-रुधिर-मांस-मेदो-ऽस्थि-मज-शुक्राण्यनेन तप्यन्ते । कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुक्तम् ॥ [ ] तच्च द्वादशधा, यथाऽऽहअणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गो वि य अन्भिंतरओ तवो होइ ॥ [देशवै० नि० ४७-४८] इति । चियाए त्ति त्यजनं त्यागः, संविग्नैकसम्भोगिकानां भक्तादिदानमित्यर्थः, गाथे चात्रतो कयपच्चक्खाणो आयरियगिलाणबालवुड्डाणं । देजाऽसणाइ संते लाभे कयवीरियायारो ॥ 25 सू० ३९७ ॥ २. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'सत्तरसविहे असंजमे' इति सूत्रस्य [संग्रहणी?] गाथायाम् । प्रवचनसारोद्धारे ५५५, जीवसमासे २६ तमी गाथा । ३. पञ्चवस्तुके ८४५-८४६, पञ्चाशके १९।२-३, प्रवचनसारोद्धारे ५५९-५६० ॥ 15 20 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे संविग्गअन्नसंभोइयाण देसिज सड्ढगकुलाणि । अतरंतो वा संभोइयाण देसे जहसमाही ॥ [पञ्चव० ५३७-५३८, पञ्चा० ५।४०-४१] इति ब्रह्मचर्य मैथुनविरमणे तेन वा वासो ब्रह्मचर्यवास इत्येष पूर्वोक्तैः सह दशविध: श्रमणधर्म इति, अन्यत्र त्वयमेवमुक्त: खंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती तवसंजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥ [पञ्चाशक० ११।१९ आव० सं०] इति। इतश्च साधुधर्मभेदस्य बाह्यतपोविशेषस्य वृत्तिसक्षेपाभिधानस्य भेदा: उक्खित्तचरए इत्यादिना अभिधीयन्ते, तत्र उत्क्षिप्तं स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुद्धृतं तदर्थमभिग्रहविशेषाच्चरति तद्वेषणाय गच्छतीत्युत्क्षिप्तचरकः, एवं सर्वत्र, नवरं निक्षिप्तम् अनुद्धृतम्, 10 अन्ते भवमान्तं भुक्तावशेष वल्लादि, प्रकृष्टमान्तं प्रान्तं तदेव पर्युषितम्, रूक्षं नि:स्नेहमिति, इह च भावप्रत्ययप्रधानत्वेन उत्क्षिप्तचरकत्वमित्यादि द्रष्टव्यमेवमुत्तरत्रापि भावप्रधानता दृश्या, इह चाद्यौ भावाभिग्रहावितरे द्रव्याभिग्रहाः, यतोऽभाणि__ उक्खित्तमाइचरगा भावजुया खलु अभिग्गहा होति । गायंतो य रुयंतो जं देइ निसण्णमाई वा ॥ [पञ्चव० ३०३] तथा15 लेवडमलेवडं वा असुगं दव्वं व अज्ज घेच्छामि । असुगेण उ दव्वेणं अह दव्वाभिग्गहो नामं ॥ [पञ्चव० २९८] ति । एवमन्यत्रापि विशेष ऊह्य इति । अज्ञात: अनुपदर्शितस्वाजन्यर्द्धिमत्प्रव्रजितादिभाव: सन् चरति भिक्षार्थमटतीत्यज्ञातचरकः, तथा अन्नइलायचरए त्ति अन्नग्लानको दोषान्नभुगिति भगवतीटीपनके उक्तः, एवंविध: सन्, अथवा अन्नं विना ग्लायकः, 20 समुत्पन्नवेदनादिकारण एवेत्यर्थः, अन्यस्मै वा ग्लायकाय भोजनार्थं चरतीति अन्नग्लानकचरकोऽन्नग्लायकचरकोऽन्यग्लायकचरको वा, क्वचित् पाठः अन्नवेल त्ति, तत्राऽन्यस्यां भोजनकालापेक्षयाऽऽद्यवसानरूपायां वेलायां समये चरतीत्यादि दृश्यम्, अयं च कालाभिग्रह इति । तथा मौनं मौनव्रतं तेन चरति मौनचरकः, तथा संसष्टेन खरण्टितेनेत्यर्थो हस्त-भाजनादिना दीयमानं कल्पिकं कल्पवत् १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने ‘दसविहे समणधम्मे' इति सूत्रस्य हरभिद्रसूरिविरचितायां वृत्तौ । प्रवचनसारोद्धारे ५५३ ॥ २. द्वृत्तं खं० जे२ । 'द्वतं जे१ ॥ ३. धाव पासं० जे२ ।। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । कल्पनीयमुचितमभिग्रहविशेषाद्भक्तादि यस्य स संसृष्टकल्पिकः, तथा तज्जातेन देयद्रव्यप्रकारेण यत् संसृष्टं हस्तादि तेन दीयमानं कल्पिकं यस्येति विग्रह इति, उपनिधीयत इत्युपनिधिः प्रत्यासन्नं यद्यथाकथञ्चिदानीतम्, तेन चरति, तद्ग्रहणायेत्यर्थः इत्यौपनिधिकः, उपनिहितमेव वा यस्य ग्रहणविषयतयाऽस्ति स प्रज्ञादेराकृतिगणत्वेन मत्वर्थीयाण्प्रत्यये औपनिहित इति, तथा शुद्धा अनतिचारा एषणा 5 शङ्कितादिदोषवर्जनरूपा संसट्टमसंसट्टे [ ]त्यादिसप्तप्रकारा अन्यतरा वा, चरतीत्युत्तरपदवृद्ध्या शुद्धैषणिकः, सख्याप्रधानाः परिमिता एव दत्तय: सकृद्भक्तादिक्षेपलक्षणा ग्राह्याः यस्य स सङ्ख्यादत्तिकः, दत्तिलक्षण श्लोकोऽत्रदत्ती उ जत्तिए वारे खिवई होंति तत्तिया । अवोच्छिन्नणिवायाओ दत्ती होइ दवेतरा ॥ [ तया ] इति । 10 तथा दृष्टस्यैव भक्तादेर्लाभस्तेन चरतीति तथैव दृष्टलाभिकः, पृष्टस्यैव 'साधो ! दीयते ते' ? इत्येवं यो लाभस्तेन चरतीति प्राग्वत् पृष्टलाभिकः, आचाम्लं समयप्रसिद्धम्, तेन चरतीत्याचाम्लिकः, निर्गतो घृतादिविकृतिभ्यो यः स निर्व्विकृतिकः, पुरिमार्द्धं पूर्वाह्णलक्षणं प्रत्याख्यानविशेषोऽस्ति यस्य स तथा, परिमितो द्रव्यादिपरिमाणतः पिण्डपातो भक्तादिलाभो यस्यास्ति स परिमितपिण्डपातिकः, 15 भिन्नस्यैव स्फोटितस्यैव पिण्डस्य सक्तुकादिसम्बन्धिनः पातो लाभो यस्यास्ति स भिन्नपिण्डपातिकः । [सू० ३९६] ग्रहणानन्तरमभ्यवहरणं भवतीत्यत एतदुच्यते- अरसं हिङ्गवादिभिरसंस्कृतमाहारयतीत्यरसो वाऽऽहारो यस्यासावरसाहारः, एवं सर्वत्र, नवरं विरसं विगतरसं पुराणधान्यौदनादि, रूक्षं तैलादिवर्जितमिति, तथा अरसेन जीवितुं शीलमाजन्मापि 20 यस्य स तथा, एवमन्यत्रापि । ठाणाइए त्तिस्थानं कायोत्सर्गः, तमतिददाति प्रकरोति अतिगच्छति वेति स्थानातिद: ५१३ १. "प्रज्ञा-श्रद्धा-ऽर्चाभ्यो णः | ५ | २|१०१ | अण् च | ५|२|१०३ ” - पा० ॥ २. “ संसट्टमसंसट्टा उद्धड तह होइ अप्पलेवा य । उग्गहिया पग्गहिया उज्झिय तह होइ सत्तमिया ॥” इति आवश्यकसूत्रस्य प्रतिक्रमणाध्ययने 'सत्तण्हं पिंडेसणाणं' इति सूत्रस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ प्रवचनसारोद्धारे [ गा० ७६९] चापि सम्पूर्णा गाथेयं वर्तते ॥ ३. 'लक्षणे लो जे१ । 'लक्षण: लो जे२ । 'लक्ष खं० । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ 20 तथा प्रतिमा एकरात्रिक्यादिकया कायोत्सर्गविशेषेणैव तिष्ठतीत्येवंशीलो यः स 5 प्रतिमास्थायी । 25 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे स्थानात वेति । उत्कुटुकासनं पीठादौ पुतालगनेनोपवेशनरूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स उत्कुटुकासनिकः । तथा निषद्या उपवेशनविशेषः, सा च पञ्चधा, तत्र यस्यां समं पादौ पुतौ च स्पृशतः 10 सा समपादपुता १, यस्यां तु गोरिव उपवेशनं सा गोनिषधिका २, यत्र पुताभ्यामुपविष्टः सन् एकं पादमुत्पाट्याऽऽस्ते सा हस्तिसुण्डिका ३, पर्यङ्काऽर्धपर्यङ्का च प्रसिद्धा ४-५, निषद्यया चरति नैषधिक इति । दण्डस्येवायतिः दीर्घत्वं पादप्रसारणेन यस्य स दण्डायतिकः । तथा लगण्डं किल दुःसंस्थितं काष्ठम्, तद्वद् मस्तक - पार्ष्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यर्थः, 15 यः शेते तथाविधाभिग्रहात् स लगण्डशायी । तथा आतापयति आतापनां शीता - ऽऽतपादिसहनरूपां करोतीति आतापकः । तथा न विद्यते प्रावृतं प्रावरणमस्येति अप्रावृतकः । तथा न कण्डूयत इति अकण्डूयकः । स्थानातिगः इत्यादिपदानां कल्पभाष्यव्याख्येयम् उद्धट्ठाणं ठाणाइयं तु पडिमा य होंति मासाई । पंचेव णिसेज्जाओ तासि विभासा उ कायव्वा ॥ वीरासणं तु सीहासणे व्व जह मुक्कजाणुग निविट्ठो । वीरासनं भून्यस्तपादस्य सिंहासने उपविष्टस्य तदपनयने या कायावस्था तद्रूपम्, दुष्करं च तदिति, अत एव वीरस्य साहसिकस्यासनमिति वीरासनमुक्तम्, तदस्यास्तीति वीरासनिकः । दंडे लगंड उवमा आयय कुजे य दोहं पि ॥ [ बृहत्कल्प ० ५९५३-५४] आयावणा यतिविहा उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना य । उक्सा उ निवण्णा निसण्ण मज्झा ठिय जहन्ना ॥ तिविहा होइ निवण्णा ओमंथिय पास तइय उत्ताणा । [बृहत्कल्प० ५९४५-४६] इति। ९. यत्र तु पुता पा० ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३९७] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । निषण्णापि त्रिविधागोदुह उक्कुड पलियंकमेस तिविहा य मज्झिमा होइ ।। तइया उ हत्थिसोंडगपायसमपाइया चेव ॥ [ ] इति इयं च निषण्णादिका त्रिविधाऽप्यातापना स्वस्थाने पुनरप्युत्कृष्टादिभेदा ओमंथियादिभेदेनावगन्तव्या । इह च यद्यपि स्थानातिगत्वादीनामा- 5 तापनायामन्तर्भावस्तथापि प्रधानेतरविवक्षया न पुनरुक्तत्वं मन्तव्यमिति ।। [सू० ३९७] पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे महानिजरे महापजवसमाणे भवति, तंजहा-अगिलाते आयरियवेयावच्चं करेमाणे १, एवं उवज्झायवेयावच्चं करेमाणे २, थेरवेयावच्चं [करेमाणे] ३, तवस्सिवेयावच्चं [करेमाणे] ४, गिलाणवेयावच्चं करेमाणे ५ । 10 ___ पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे महानिजरे महापज्जवसाणे भवति, तंजहाअगिलाते सेहवेयावच्चं करेमाणे १, अगिलाते कुलवेयावच्चं करेमाणे] २, अगिलाते गणवे यावच्चं करेमाणे] ३, अगिलाते संघवे यावच्चं करेमाणे] ४, अगिलाते साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे ५ । [टी०] तथा महानिर्जरो बृहत्कर्मक्षयकारी, महानिर्जरत्वाच्च महद् आत्यन्तिकं 15 पुनरुद्भवाभावात् पर्यवसानम् अन्तो यस्य स तथा । अगिलाए त्ति अग्लान्या अखिन्नतया बहुमानेनेत्यर्थः । __ आचार्य: पञ्चप्रकार:, तद्यथा-प्रव्राजनाचार्यो दिगाचार्य: सूत्रस्य उद्देशनाचार्य: सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यो वाचनाचार्यश्चेति, तस्य वैयावृत्यं व्यावृतस्य शुभव्यापारवतो भाव: कर्म वा वैयावृत्यं भक्तादिभिर्धर्मोपग्रहकारिवस्तुभिरुपग्रहकरणमाचार्यवैयावृत्यम्, 20 तत् कुर्वाणो विदधदिति, एवमुत्तरपदेष्वपि । नवरमुपाध्याय: सूत्रदाता । स्थविरः स्थिरीकरणात्, अथवा जात्या षष्टिवार्षिक:, पर्यायेण विंशतिवर्षपर्याय:, श्रुतेन समवायधारी । तपस्वी मासक्षपकादिः । ग्लान: अशक्तो व्याध्यादिभिरिति । तथा सेह त्ति शिक्षकोऽभिनवप्रव्रजितः । साधर्मिकः समानधर्मा लिङ्गत: प्रवचनतश्चेति । कुलं चान्द्रादिकं साधुसमुदायविशेषरूपं प्रतीतम् । गण: कुलसमुदाय: । सङ्घो 25 १. सोंडेग जे१,२, पा० । °सोडेग' खं० ॥ २. व्यापृतस्य पा० जे२ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे गणसमुदाय इत्येवं सूत्रद्वयेन दशविधं वैयावृत्यमाभ्यन्तरतपोभेदभूतं प्रतिपादितमिति । उक्तं च आयरिय-उवज्झाए थेर-तवस्सी-गिलाण-सेहाणं । साहम्मिय-कुल-गण-संघसंगयं तमिह कायव्वं ॥ [ ] ति । 5 [सू० ३९८] पंचहिं ठाणेहिं समणे णिगंथे साहम्मितं संभोतितं विसंभोतितं करेमाणे णातिक्कमति, तंजहा-सकिरितट्ठाणं पडिसेवेत्ता भवति १, पडिसेवेत्ता णो आलोतेति २, आलोतेत्ता णो पट्ठवेति ३, पट्टवेत्ता णो णिव्विसति ४, जाइं इमाइं थेराणं ठितिपकप्पाइं भवंति ताइं अतियंचिय अतियंचिय पडिसेवेति, से हंदऽहं पडिसेवामि किं मं थेरा करिस्संति ५ ।। 10 पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे साहम्मितं पारंचितं करेमाणे णातिक्कमति, तंजहा-कुले वसति, कुलस्स भेदाते अब्भुटेत्ता भवति १, गणे वसति, गणस्स भेदाते अब्भुटेत्ता भवति २, हिंसप्पेही ३, छिद्दप्पेही ४, अभिक्खणं अभिक्खणं पसिणाततणाइं पउंजित्ता भवति ५ । [टी०] सम्भोगिकम् एकभोजनमण्डलीकादिकं विसम्भोगिकं मण्डलीबाह्यं 15 कुर्वन्नातिक्रामति आज्ञामिति गम्यते, उचितत्वादिति । सक्रियं प्रस्तावादशभ कर्मबन्धयुक्तं स्थानम् अकृत्यविशेषलक्षणं प्रतिषेविता भवतीत्येकम्, प्रतिषेव्य गुरवे नालोचयति न निवेदयतीति द्वितीयम्, आलोच्य गुरूपदिष्टप्रायश्चित्तं न प्रस्थापयति कर्तुं नारभत इति तृतीयम्, प्रस्थाप्य न निर्विशति न समस्तं प्रवेशयत्यथवा निर्देश: परिभोगः [ ] इति वचनान्न परिभुङ्क्ते नासेवत इत्यर्थः इति चतुर्थम्, यानीमानि 20 सुप्रसिद्धतया प्रत्यक्षाणि स्थविराणां स्थविरकल्पिकानां स्थितौ समाचारे प्रकल्प्यानि प्रकल्पनीयानि योग्यानि विशुद्धपिण्ड-शय्यादीनि स्थितिप्रकल्प्यानि, अथवा स्थितिश्च मासकल्पादिका प्रकल्प्यानि च पिण्डादीनि स्थितिप्रकल्प्यानि तानि अइयंचिय अइयंचिय त्ति अत्यच्य अत्यच्य, अतिक्रम्यातिक्रम्येत्यर्थः, प्रतिषेवते तदन्यानीति 25 गम्यते, अथ सङ्घाटकादिः साधुरेवं पर्यालोचयति-यथा नैतत् प्रतिषेवितुमुचितं गुरुर्नी १. विसांभो पासं० जे२ ॥ २. “निर्वेश उपभोगः स्यात्.... ॥११४५॥” इति अमरकोषे ॥ ३. अइंचिय अयंचिय त्ति खं० ॥ ४. गम्यते जे१ मध्ये नास्ति ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ३९९] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । बाह्यौ करिष्यति, तत्रेतर आह– से इति तदकल्प्यजातं हंदेति कोमलामन्त्रणं वचनं हमित्यकारप्रश्लेषादहं प्रतिषेवामि किं मम स्थविरा: गुरव: करिष्यन्ति ?, न किञ्चित्तै रुष्टैरपि मे कर्तुं शक्यते इति बलोपदर्शनं पञ्चममिति । __ पारंचियं ति दशमप्रायश्चित्तभेदवन्तमपहृतलिङ्गादिकमित्यर्थः, कुर्वन्नातिक्रामति सामायिकमिति गम्यते । कुले चान्द्रादिके वसति, गच्छवासीत्यर्थः, तस्यैव कुलस्य 5 भेदायाऽन्योन्यमधिकरणोत्पादनेनाऽभ्युत्थाता भवति यतत इत्यर्थः इत्येकम्, एवं गणस्यापीति द्वितीयम्, तथा हिंसां वधं साध्वादेः प्रेक्षते गवेषयतीति हिंसाप्रेक्षीति तृतीयम्, हिंसार्थमेवापभ्राजनार्थं वा छिद्राणि प्रमत्तताः प्रेक्षत इति छिद्रप्रेक्षीति चतुर्थम्, अभीक्ष्णमितीह पुन:शब्दार्थः, ततश्चाभीक्ष्णमभीक्ष्णं पुन: पुनरित्यर्थः प्रश्ना अगुष्ठ-कुड्यप्रश्नादय: सावधानुष्ठानपृच्छा वा त एवायतनान्यसंयमस्य प्रश्नायतनानि 10 प्रयोक्ता भवति, प्रयुक्त इत्यर्थः इति पञ्चमम् । [सू० ३९९] आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच वुग्गहट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहा-आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वा नो सम्मं पउंजेत्ता भवति १, आयरियउवज्झाए णं गणंसि अधारातिणियाते कितिकम्मं वेणतितं नो सम्मं पउंजेत्ता भवति २, आयरियउवज्झाते गणंसि जे सुतपजवजाते 15 धारेति ते काले काले णो सम्ममणुप्पवातेत्ता भवति ३, आयरियउवज्झाए गणंसि गिलाण-सेहवेयावच्चं नो सम्ममब्भुढेत्ता भवति ४, आयरियउवज्झाते गणंसि अणापुच्छितचारी यावि हवइ, नो आपुच्छियचारी ५ । आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंचावुग्गहट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहा- . आयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा सम्मं पउंजित्ता भवति १, 20 एवमधारातिणिताते [कितिकम्मं वेणतितं सम्मं पउंजित्ता भवति २,] आयरियउवज्झाए गणंसि जे सुतपज्जवजाते धारेति ते काले काले सम्म अणुपवाइत्ता भवइ ३, एवं गिलाण-सेहवेतावच्चं सम्मं [अब्भुट्टित्ता भवति] १. मेव वापभ्रा' जे१ ॥ २. 'रत्यर्थः पा० । रत्यर्थं जे२ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ४, आयरियउवज्झाते गणंसि आपुच्छियचारी यावि भवति, णो अणापुच्छियचारी ५ ।। [टी०] तथा आचार्योपाध्यायस्येति समाहारद्वन्द्वः कर्मधारयो वा, ततश्चाचार्यस्योपाध्यायस्य च आचार्योपाध्यायस्य वा गणंसि त्ति गणे विग्रहस्थानानि 5 कलहाश्रया:, आचार्योपाध्यायो द्वयं वा गणे गणविषये आज्ञां 'साधो ! भवतेदं विधेयम्' इत्येवंरूपामादिष्टिम्, धारणां 'न विधेयमिदम्' इत्येवंरूपां नो नैव सम्यग् औचित्येन प्रयोक्ता भवतीति साधवः परस्परं कलहायन्ते असम्यग् नियोगात् दुनियन्त्रितत्वाच्च, अथवा अनौचित्यनियोक्तारमाचार्यादिकमेव कलहायन्ते इत्येवं सर्वत्रेति, अथवा गूढार्थपदैरगीतार्थस्य पुरतो देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनाय गीतार्थो 10 यदतिचारनिवेदनं करोति साऽऽज्ञा, असकृदालोचनादानेन यत् प्रायश्चित्तविशेषावधारणं सा धारणा, तयोर्न सम्यक् प्रयोक्तेति स कलहभागिति प्रथमम् । तथा स एव आहाराइणियाए त्ति रत्नानि द्विधा- द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यत: कर्केतनादीनि भावतो ज्ञानादीनि, तत्र रत्नै: ज्ञानादिभिर्व्यवहरतीति रात्निकः बृहत्पर्यायः, यो यो रात्निको यथारात्निकम्, तद्भावस्तत्ता, तया यथारात्निकतया यथाज्येष्ठं कृतिकर्म 15 वन्दनकं विनय एव वैनयिकं तच्च न सम्यक् प्रयोक्ता, अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद्वा प्रयोजयिता भवतीति द्वितीयम् । तथा स एव यानि श्रुतस्य पर्यवजातानि सूत्रार्थप्रकारान् धारयति धारणाविषयीकरोति तानि काले काले यथावसरं न सम्यगनुप्रवाचयिता भवति न पाठयतीत्यर्थः इति तृतीयम्, काले अनुप्रवाचयितेत्युक्तं तत्र गाथा: कालक्कमेण पत्तं संवच्छरमाइणा उ जं जम्मि । 20 तं तम्मि चेव धीरो वाएजा सो य कालोऽयं ॥ तिवरिसपरियागस्स उ आयारपकप्पनाममज्झयणं । चउवरिसस्स य सम्मं सूयगडं नाम अंगं ति ॥ दस-कप्प-व्ववहारा संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव । ठाणं समवाओ वि य अंगे ते अट्ठवासस्स ॥ दसवासस्स विवाहो एक्कारसवासयस्स य इमे उ । खुड्डियविमाणमाई अज्झयणा पंच नायव्वा ॥ बारसवासस्स तहा अरुणुववायाइ पंच अज्झयणा । 25 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४००] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५१९ तेरसवासस्स तहा उट्ठाणसुयाइया चउरो ॥ चोद्दसवासस्स तहा आसीविसभावणं जिणा बिंति । पन्नरसवासगस्स य दिट्ठीविसभावणं तह य ॥ सोलसवासाईसु य एकुत्तरवढिएसु जहसंखं । चारणभावण महसुमिणभावणा तेयगनिसग्गा ॥ एगूणवीसगस्स उ दिट्ठीवाओ दुवालसममंगं । संपुण्णवीसवरिसो अणुवाई सव्वसुत्तस्स ॥ [पञ्चव० ५८१-५८८] त्ति । तथा स एव ग्लान-शैक्षवैयावृत्यं प्रति न सम्यक् स्वयमभ्युत्थाता अभ्युपगन्ता भवतीति चतुर्थम् । तथा स एव गणम् अनापृच्छय चरति क्षेत्रान्तरसङ्क्रमादि करोतीत्येवंशीलोऽनापृच्छ्यचारी, किमुक्तं भवति ? नो आपृच्छ्यचारीति पञ्चमं 10 विग्रहस्थानम् । एतदेव व्यतिरेकेणाह-अविग्रहसूत्रं गतार्थम् । ___[सू० ४००] पंच निसिजाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- उक्कुडुती, गोदोहिता, समपायपुता, पलितंका, अद्धपलितंका । पंच अजवट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहा- साधुअजवं, साधुमद्दवं, साधुलाघवं, साधुखंती, साधुमोत्ती । 15 [टी०] निषद्यासूत्रे निषदनानि निषद्या: उपवेशनप्रकाराः, तत्रासनालग्नपुत: पादाभ्यामवस्थित उत्कुटुकः, तस्य या सा उत्कुटुका, तथा गोर्दोहनं गोदोहिका, तद्वद्याऽसौ गोदोहिका, तथा समौ समतया भूलग्नौ पादौ च पुतौ च यस्यां सा समपादपुता, तथा पर्यङ्का जिनप्रतिमानामिव या पद्मासनमिति रूढा, तथा अर्द्धपर्यङ्का ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणेति। 20 ऋजोः राग-द्वेषवक्रत्ववर्जितस्य सामायिकवत: कर्म भावो वा आर्जवं संवर इत्यर्थः, तस्य स्थानानि भेदा आर्जवस्थानानि, साधु सम्यग्दर्शनपूर्वकत्वेन शोभनमार्जवं मायानिग्रहः, तत: कर्मधारयः, साधोर्वा यतेरार्जवं साध्वार्जवम्, एवं शेषाण्यपि । १. नोपृच्छाचारीति जे१ ॥ २. एतदेव व्यतिरेकेणाह खं० जे२ पासू० मध्ये नास्ति ॥ ३. पंच निसेजाओ पंच सेजाओ पं० २० भा० ॥ ४. 'पुयपुता भा० ॥ ५. साधू अजवे साधू मद्दवे साधुलाघवे भां०॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ४०१ ] पंचविहा जोतिसिया पन्नत्ता, तंजहा - चंदा, सूरा, गहा, नक्खत्ता, ताराओ । ५२० 25 पंचविहा देवा पन्नत्ता, तंजहा- भवितदव्वदेवा, णरदेवा, धम्मदेवा, देवातिदेवा, भावदेवा । [सू० ४०२] पंचविहा परितारणा पन्नत्ता, तं जहा - कायपरितारणा, फासपरितारणा, रूवपरितारणा, सद्दपरितारणा, मणपरितारणा । [सू० ४०३] चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-काली, राती, रतणी, विज्जू, मेहा । बलिस णं वतिरोणिंदस्स वतिरोतणरन्नो पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, 10 तंजहा - सुंभा, णिसुंभा, रंभा, णिरंभा, मदणा । [सू० ४०४] चमरस्स णमसुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो पंच संगामिता अणिता पंच संगामिता अणिताधिवती पन्नत्ता, तंजहा - पायत्ताणिते, पीढाणिते, कुंजराणिते, महिसाणिते, रहाणीते । दुमे पायत्ताणिताधिवती, सोदामे आसराया पीढाणियाधिवती, वेकुंथू हत्थिराया कुंजराणिताधिपती, लोहितक्खे 15 महिसाणिताधिपती, किन्नरे रधाणिताधिपती । बलिस्स णं वतिरोतणिंदस्स वतिरोतणरन्नो पंच संगामिताणिता पंच संगामिताणिताधिपती पन्नत्ता, तंजहा - पायत्ताणिते जाव रधाणिते । पायत्ताणिताधिवती, महासोतामे आसराता पीढाणिताधिपती, मालंकारे हत्थिराया कुंजराणिताधिपती, महालोहियक्खे महिसाणिताधिपती, किंपुरिसे 20 रधाणिताधिपती । धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो पंच संगामिता अणिता पंच संगामिताणियाधिपती पन्नत्ता, तंजहा - पायत्ताणिते जाव रधाणिते । भ पायत्ताणिताधिपती, जसोधरे आसराया पीढाणिताधिपती, सुदंसणे हत्थराया कुंजराणिताधिपती, नीलकंठे महिसाणियाधिपती, आणंदे रहाणिताहिवई । भूयाणंदस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो पंच संगामिया अणीया Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४०१-४०५] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५२१ पंच संगामियाणियाहिवई पन्नत्ता, तंजहा-पायत्ताणीए जाव रहाणीए, दक्खे पायत्ताणियाहिवई, सुग्गीवे आसराया पीढाणियाहिवई, सुविक्कमे हत्थिराया कुंजराणिताहिवई, सेयकंठे महिसाणियाहिवई, नंदुत्तरे रहाणियाहिवई । __ वेणुदेवस्स णं सुवन्निंदस्स सुवन्नकुमाररन्नो पंच संगामिता अणिता पंच संगामिताणिताधिपती पन्नत्ता, तंजहा-पायत्ताणिते, एवं जधा धरणस्स तधा 5 वेणुदेवस्स वि । वेणुदालिस्स जधा भूताणंदस्स । जधा धरणस्स तहा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स । जधा भूताणंदस्स तधा सव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स । ___ सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो पंच संगामिता अणिता पंच संगामिताणिताधिपती पन्नत्ता, तंजहा-पायत्ताणिए, पीढाणिए, कुंजराणिए, 10 उसभाणिए, रहाणिए । हरिणेगमेसी पायत्ताणिताधिपती, वाऊ आसराता पीढाणिताधिवई, एरावणे हत्थिराता कुंजराणिताधिपती, दामड्डी उसभाणिताधिपती, माढरे रधाणिताधिपती । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो पंच संगामिता अणिता जाव पायत्ताणिते, पीढाणिते, कुंजराणिते, उसभाणिते, रधाणिते । लहुपरक्कमे पायत्ताणिताधिपती, 15 महावाऊ आसराता पीढाणिताधिपती, पुप्फदंते हत्थिराया कुंजराणिताधिपती, महादामड्ढी उसभाणिताधिपती, महामाढरे रधाणिताधिपती । जधा सक्कस्स तथा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव आरणस्स । जधा ईसाणस्स तधा सव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव अच्चुतस्स । [सू० ४०५] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो अब्भंतरपरिसाते देवाणं पंच 20 पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो अब्भंतरपरिसाते देवीणं पंच पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता । [टी०] आर्जवयुक्ताश्च मृत्वा प्रायो देवा भवन्तीति पंचविहा जोइसियेत्यादिना ईसाणस्स णमेतदन्तेन ग्रन्थेन देवाधिकारमाह, सुगमश्चायम्, नवरं ज्योतींषि 25 -A-18 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे विमानविशेषाः, तेषु भवा ज्योतिष्का इति, तथा दीव्यन्ति क्रीडादिधर्म्मभाजो भवन्ति दीव्यन्ते वा स्तूयन्ते ये ते देवाः, भव्या भाविदेवपर्याययोग्या अत एव द्रव्यभूताः ते च ते देवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवाः वैमानिकादिदेवत्वेनानन्तरभवे ये उत्पत्स्यन्त इत्यर्थः, नराणां देवा नरदेवाश्चक्रवर्त्तिन इत्यर्थः, धर्मप्रधाना देवा धर्म्मदेवा: चारित्रवन्तः, 5 देवानां मध्ये अतिशयवन्तो देवाः देवातिदेवाः अर्हन्तः, भावदेवा देवायुष्काद्यनुभवन्तो वैमानिकादयः ४ इत्यर्थः । ५२२ परितारण त्ति वेदोदयप्रतीकारः, तत्र स्त्रीपुंसयोः कायेन परिचारणा मैथुनप्रवृत्तिः कायपरिचारणा ईशानकल्पं यावद्, एवमन्यत्रापि समासः, नवरं स्पर्शेन तदुपरि द्वयो:, रूपेण द्वयोः, शब्देन द्वयोः, मनसा चतुर्षु, ग्रैवेयकादिषु परिचारणैव नास्तीति । 10 साङ्ग्रामिकाणि सङ्ग्रामप्रयोजनानि, एतच्च गन्धर्व - नाट्यानीकयोर्व्यवच्छेदार्थं विशेषणमिति, अनीकाधिपतयः सैन्यमध्ये प्रधानाः पदात्यादय:, एवं पदातीनां पत्तीनां समूहः पादातम्, तदेवानीकं पादातानीकम्, पीठानीकम् अश्वसैन्यम्, पादातानीकाधिपतिः पदातिरेवोत्तमः, अश्वराजः प्रधानोऽश्वः एवमन्येऽपि, दाहिणिल्लाणं ति सनत्कुमार- ब्रह्म-शुक्रा-ऽऽनता -ऽऽरणानाम्, उत्तरिल्लाणं ति माहेन्द्र15 लान्तक-सहस्रार-प्राणता-ऽच्युतानामिति, इह च दाक्षिणात्याः सौधर्मादयो विषमसङ्ख्या इति विषमसङ्ख्यत्वं शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य ब्रह्मलोक - शुक्रौ दाक्षिणात्यावुक्तौ, समसङ्ख्यत्वं तु प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य लान्तक - सहस्रारावौत्तराविति, तथा देवेन्द्रस्तवाभिधानप्रकीर्णकश्रुत इव द्वादशानामिन्द्राणां विवक्षणादारणस्येत्याद्युक्तमिति सम्भाव्यते, अन्यथा चतुर्षु द्वावेवेन्द्रावत आरणस्येत्याद्यनुपपन्नं स्यादिति । , [सू० ४०६ ] पंचविहा पडिहा पन्नत्ता, तंजहा - गतिपडिहा, ठितिपडिहा, बंधणपडिहा, भोगपडिहा, बल-वीरित- पुरिसयार - परक्कमपडिहा । इहानन्तरं देवानां वक्तव्यतोक्ता, दुष्टाध्यवसायस्य च प्राणिनस्तद्गति-स्थित्यादिप्रतिघातो भवतीति तन्निरूपणायाह -- पंचविहा पडिहेत्यादि सुगमम्, नवरं पडिह त्ति प्राकृतत्वात् 20 १. पादा जे१ विना ॥। २. 'सारौ चोत्त' जे१ । ३. “भवणवइवाणवंतरजोइसवासी ट्ठिई मए कहिया । कप्पवईवि य वुच्छं बारस इंदे महिड्डी || १६२ || पढमो सोहम्मवई ईसाणवई उ भन्नए बीओ । तत्तो सणकुमारो हवाइ उत्थ उ माहिंदो ||१६३॥ पंचमए पुण बंभो छट्टो पुण लंतओऽत्थ देविंदो । सत्तमओ महसुक्को अट्ठमओ भवे सहस्सा ॥ १६४ ॥ नवमो अ आणइंदो दसमो उण पाणउत्थ देविंदो । आरण इक्कारसमो बारसमो अच्चुए इंदो ॥ १६५ ॥ एए बारस इंदा कप्पवई कप्पसामिया भणिया । आणाईसरियं वा तेण परं नत्थि देवाणं ॥ १६६ ॥ | " इति देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णके ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४०७-४०८] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५२३ उप्पा इत्यादिवत्, प्रतिघात: प्रतिहननमित्यर्थः, तत्र गते: देवगत्यादेः प्रकरणाच्छुभाया: प्रतिघातः, तत्प्राप्तियोग्यत्वे सति विकर्म करणादप्राप्तिर्गतिप्रतिघातः, प्रव्रज्यादिपरिपालनत: प्राप्तव्यशुभदेवगतेर्नरकप्राप्तौ कण्डरीकस्येवेति, तथा स्थिते: शुभदेवगतिप्रायोग्यकर्मणां तथैव प्रतिघात: स्थितिप्रतिघात:, भवति चाध्यवसायविशेषात् स्थिते: प्रतिघातः, यदाह- दीहकालठियाओ ह्रस्सकालठियाओ पकरेइ [भगवती० 5 १।१।११] इति । तथा बन्धनं नामकर्मण उत्तरप्रकृतिरूपमौदारिकादिभेदत: पञ्चविधम्, तस्य प्रक्रमात् प्रशस्तस्य प्राग्वत् प्रतिघातो बन्धनप्रतिघात:, बन्धनग्रहणस्योपलक्षणत्वात् तत्सहचरप्रशस्तशरीर-तदङ्गोपाङ्ग-संहनन-संस्थानानामपि प्रतिघातो व्याख्येय:, तथा प्रशस्तगति-स्थिति-बन्धनादिप्रतिघाताद् भोगानां प्रशस्तगत्याद्यविनाभूतानां प्रतिघातो भोगप्रतिघातः, भवति हि कारणाभावे कार्याभाव इति, तथा प्रशस्तगत्यादेरभावादेव 10 बल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रमप्रतिघातो भवतीति प्रतीतम्, तत्र बलं शारीरम्, वीर्य जीवप्रभवम्, पुरुषकारः अभिमानविशेषः, पराक्रमः स एव निष्पादितस्वविषयः, अथवा पुरुषकारः पुरुषकर्त्तव्यम्, पराक्रमो बल-वीर्ययोापारणमिति । [सू० ४०७] पंचविधे आजीवे पन्नत्ते, तंजहा-जातिआजीवे, कुलाजीवे, कम्माजीवे, सिप्पाजीवे, लिंगाजीवे । 15 [टी०] देवगत्यादिप्रतिघातश्च चारित्रातिचारकारिणो भवतीत्युत्तरगुणानाश्रित्य तद्विशेषमाह- पंचविहेत्यादि, जातिं ब्राह्मणादिकामाजीवति उपजीवति तज्जातीयमात्मानं सूचादिनोपदर्श्य ततो भक्तादिकं गृह्णातीति जात्याजीवकः, एवं सर्वत्र, नवरं कुलम् उग्रादिकं गुरुकुलं वा, कर्म कृष्याद्यनाचार्यकं वा, शिल्पं तूर्णनादि साचार्यकं वा, लिङ्गं साधुलिङ्गं तदाजीवति, ज्ञानादिशून्यस्तेन जीविकां 20 कल्पयतीत्यर्थः, लिङ्गस्थानेऽन्यत्र गणोऽधीयते, यत उक्तम् जाई-कुल-गण-कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा । सूयाए असूयाए अप्पाण कहेइ एक्केको ॥ [निशीथ० ४४११] त्ति, तत्र गणो मल्लादिः, सूचया व्याजेन, असूचया साक्षात् । [सू० ४०८] पंच रातककुधा पन्नत्ता, तंजहा-खग्गं, छत्तं, उप्फेसिं, 25 १. दृश्यतां सू०१४ ॥ २. तत्र प्राप्ति जे१ ॥ ३. दृश्यतामत्र प्रथमपरिशिष्टे पृ० ११ ॥ ४. 'पादिश्य खं०॥ ५. एक्कक्के जे१ विना ॥ ६. उप्फेसं भां०॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पाहणाओ, वालवीयणिं । [टी०] अनन्तरं साधूनां रजोहरणादिकं लिङ्गमुक्तम्, अधुना खड्गादिरूपं राज्ञां तदेवाह- पंच रायककुहेत्यादि व्यक्तम्, नवरं राज्ञां नृपतीनां ककुदानि चिह्नानि राजककुदानि, उप्फेसि त्ति शिरोवेष्टनम्, शेखरक इत्यर्थः, पाहणाउ त्ति उपानहौ, 5 वालव्यजनी चामरमित्यर्थः, श्रूयते च अवणेइ पंच ककुहाणि जाणि रायाण चिंधभूयाणि । छत्तं खग्गोवाहण मउडं तह चामराओ य ॥ [ ] इति । [सू० ४०९] पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे उदिन्ने परिस्सहोवसग्गे सम्मं सहेजा खमेजा तितिक्खेज्जा अधियासेजा, तंजहा-उदिन्नकम्मे खलु अयं पुरिसे 10 उम्मत्तगभूते, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा, अवहसति वा, णिच्छोडेति वा, णिन्भच्छेति वा, बंधति वा, रुंभति वा, छविच्छेतं वा करेति, पमारं वा नेति, उद्दवेइ वा, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणमच्छिंदति वा, विच्छिंदति वा, भिंदति वा, अवहरति वा १, जक्खातिढे खलु अयं पुरिसे, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव जाव अवहरति वा २, ममं च णं तब्भववेयणिज्जे 15 कम्मे उतिन्ने भवति, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा जाव अवहरति वा ३, ममं च णं सम्ममसहमाणस्स अखममाणस्स अतितिक्खेमाणस्स अणधितासेमाणस्स किं मन्ने कजति ?, एगंतसो मे पावे कम्मे कजति ४, ममं च णं सम्मं सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स किं मन्ने कज्जति? एगंतसो मे णिजरा कजति ५ । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे उदिन्ने 20 परिस्सहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव अहियासेज्जा । __पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिन्ने परिस्सहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव अधियासेजा, तंजहा-खित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव जाव अवहरति वा १, दित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे, तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरति वा २, जक्खातिढे खलु अयं पुरिसे, 25 तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरति वा ३, ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे १. "ककुभेत्यादि पा० जे२ ॥ २. उप्फेस त्ति जे१ । उप्फेसे त्ति खं० ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४०९] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५२५ उदिन्ने भवति, तेण मे एस पुरिसे जाव अवहरति वा ४, ममं च णं सम्म सहमाणं खममाणं तितिक्खेमाणं अधियासेमाणं पासेत्ता बहवे अन्ने छउमत्था समणा णिग्गंथा उदिन्ने उदिन्ने परिस्सहोवसग्गे एवं सम्मं सहिस्संति जाव अहियासिस्संति ५ । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिन्ने परिस्सहोवसग्गे सम्मं सहेजा जाव अहियासेज्जा । 5 [टी०] अनन्तरोदितककुदयोग्यश्चेक्ष्वाक्वादिप्रव्रजित: सरागोऽपि सन् सत्त्वाधिकत्वाद्यानि वस्तून्यालम्ब्य परीषहादीनपगणयति तान्याह- पंचहीत्यादि स्फुटम्, किन्तु छाद्यते येन तच्छद्म ज्ञानावरणादि घातिकर्मचतुष्टयम्, तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः, सकषाय इत्यर्थः, उदीर्णान् उदितान् परीषहोपसर्गान् अभिहितस्वरूपान् सम्यक् कषायोदयनिरोधादिना सहेत भयाभावेनाविचलनाद् भटं भटवत, क्षमेत क्षान्त्या, तितिक्षेत अदीनतया, 10 अध्यासीत परीषहादावेवाधिक्येनासीत न चलेदिति । उदीर्णम् उदितं प्रबलं वा कर्म मिथ्यात्वमोहनीयादि यस्य स उदीर्णका खलुक्यालङ्कारे अयं प्रत्यक्षः पुरुषः, उन्मत्तको मदिरादिना विप्लुतचित्तः, स इव उन्मत्तकभूतः, भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात्, उन्मत्तक एव वा उन्मत्तकभूतः, भूतशब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वात्, तेण त्ति उदीर्णकर्मा यतोऽयमुन्मत्तकभूत: पुरुष: तेन कारणेन मे इति माम् एष: अयमाक्रोशति शपति 15 अपहसति उपहासं करोति अपघर्षति वा अपघर्षणं करोति, निश्छोटयति सम्बन्ध्यन्तरसम्बद्धं हस्तादौ गृहीत्वा बलात् क्षिपति, निर्भर्त्सयति दुर्वचनैः, बध्नाति रज्ज्वादिना, रुणद्धि कारागारप्रवेशादिना, छवे: शरीरावयवस्य हस्तादेः छेदं करोति, मरणप्रारम्भः प्रमारो मूर्छाविशेषो मारणस्थानं वा तं नयति प्रापयतीति, अपद्रावयति मारयति, अथवा प्रमारं मरणमेव, उद्दवेइ त्ति उपद्रवयति उपद्रवं करोतीति, पतद्ग्रहं 20 पात्रं कम्बलं प्रतीतं पादप्रोञ्छनं रजोहरणम् आच्छिनत्ति बलादुद्दालयति, विच्छिनत्ति विच्छिन्नं करोति, दूरे व्यवस्थापयतीत्यर्थः, अथवा वस्त्रमीषच्छिनत्ति आच्छिनत्ति, विशेषेण छिनत्ति विच्छिनत्ति, भिनत्ति पात्रं स्फोटयति, अपहरति चोरयति, वाशब्दा: सर्वे विकल्पार्था इत्येकं परीषहादिसहनालम्बनस्थानम्, इदं चाक्रोशादिकम् इह प्राय १. 'श्चक्ष्वाकादि खं० । 'श्चक्ष्वाकादि पा० जे२ ॥ २. दीन्यप पा० जे२ । दीन्नप' खं० ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे आक्रोश-वधाभिधानपरीषहद्वयरूपं मन्तव्यम्, उपसर्गविवक्षायां तु मानुष्यकप्राद्वेषिकाद्युपसर्गरूपमिति १, तथा यक्षाविष्टो देवाधिष्ठितोऽयं तेनाक्रोशतीत्यादि द्वितीयम् २, तथा अयं हि परीषहोपसर्गकारी मिथ्यात्वादिकर्म्मवशवर्त्ती ममं च णं ति मम पुनस्तेनैव मानुष्यकेण भवेन जन्मना वेद्यते अनुभूयते यत्तत्तद्भववेदनीयं कर्म्म उदीर्णं 5 भवति अस्ति तेनैष मामाक्रोशतीत्यादि तृतीयम् ३, तथा एष बालिशः पापाभीतत्वात् करोतु नामाक्रोशनादि, मम पुनरसहमानस्य किं मन्ने त्ति मन्ये इति निपातो वितर्कार्थः कज्जइति सम्पद्यते, इह विनिश्चयमाह - एगंतसो त्ति एकान्तेन सर्वथा पापं कर्म असातादि क्रियते संपद्यत इति चतुर्थम् ४, तथा अयं तावत् पापं बध्नाति मम चेदं सहतो निर्जरा क्रियत इति पञ्चमम् ५। इच्चेयेहीत्यादि निगमनमिति । ५२६ 10 छद्मस्थविपर्ययः केवलीति तत्सूत्रम् । तत्र च क्षिप्तचित्तः पुत्रशोकादिना नष्टचित्तः, दृप्तचित्त: पुत्रजन्मादिना दर्पवच्चित्त उन्मत्त एवेति । मां च सहमानं दृष्ट्वा अन्येऽपि सक्ष्यन्ति, उत्तमानुसारित्वात् प्राय इतरेषाम्, यदाह जो उत्तमेहिं मग्गो पहओ सो दुक्करो न सेसाणं । आयरियम्मि जयंते तयणुयरा केण सीएज्जा ? ॥ [ ] इति । 15 इच्चे हीत्याद्यत्रापि निगमनम्, शेषं सुगममिति । [सू० ४१०] पंच हेऊ पन्नत्ता, तंजहा- हेउ न जाणति, हेउं ण पासति, हेउं ण बुज्झति, हेउ णाभिगच्छति, हेउं अन्नाणमरणं मरति १ । पंच हेऊ पन्नत्ता, तंजहा - हेउणा ण जाणति जाव हेउणा अन्नाणमरणं मरति २ । 20 पंच हेऊ पन्नत्ता, तंजहा - हेउं जाणति जाव हेउं छउमत्थमरणं मरति ३ । पंच हेऊ पन्नत्ता, तंजहा - हेउणा जाणति जाव हेउणा छउमत्थमरणं मरति ४ । पंच अहेऊ पन्नत्ता, तंजहा - अहेउं ण याणति जाव अहेउं छउमत्थमरणं मरति ५ । पंच अहेऊ पन्नत्ता, तंजहा - अहेउणा न जाणति जाव अहेउणा छउमत्थ25 मरणं मरति ६ । १. इच्चेएही जे१ विना ॥ २. प्रतिषु पाठाः - इच्चेयेहीत्यत्रापि जे१ । इच्चेहीत्याद्यत्रापि खं० पा० २ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१०] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । ५२७ ___पंच अहेऊ पन्नत्ता, तंजहा-अहेडं जाणति जाव अहेउं केवलिमरणं मरति __ पंच अहेऊ पन्नत्ता, तंजहा- अहेउणा जाणति जाव अहेउणा केवलिमरणं मरति ८ । __ केवलिस्स णं पंच अणुत्तरा पन्नत्ता, तंजहा- अणुत्तरे नाणे, अणुत्तरे दंसणे, 5 अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, अणुत्तरे वीरिते ९। [टी०] छद्मस्थ-केवलिनोरनन्तरं स्वरूपमुक्तमिदानीमपि तयोरेव तदाह- पंच हेऊ इत्यादि सूत्रनवकम्, तत्र भगवतीपञ्चमशतसप्तमोद्देशकचूर्ण्यनुसारेण किमपि लिख्यते, पञ्च हेतवः, इह य: छद्मस्थतयाऽनुमानव्यवहारी अनुमानाङ्गतया हेतुं लिङ्गं धूमादिकं जानाति स हेतुरेवोच्यते १, एवं यः पश्यति २ श्रद्धत्ते ३ प्राप्नोति चेति ४, तदेवं 10 हेतुचतुष्टयं मिथ्यादृष्टिमाश्रित्य कुत्साद्वारेणाह– हेतुं न जानाति न सम्यग् विशेषतो गृह्णाति, नञ: कुत्सार्थत्वादसम्यगवैतीत्यर्थः, एवं न पश्यति सामान्यतः, न बुध्यते न श्रद्धत्ते, बोधे: श्रद्धानपर्यायत्वात्, तथा न समभिगच्छति भवनिस्तरणकारणतया न प्राप्नोति, एवं चायं चतुर्विधो हेतुर्भवतीति, तथा हेतुम् अध्यवसानादिमरणहेतुजन्यत्वेनोपचाराद् अज्ञानमरणं मिथ्यादृष्टित्वेनाऽज्ञातहेतुतद्गम्यभावस्य मरणं तन्मियते 15 करोति, यश्चैवंविध: सोऽपि हेतुरेवेति पञ्चमो हेतुरिति १। तथा पंच हेतवः, तत्र यो हेतुना धूमादिनाऽनुमेयमर्थं जानाति स हेतुरेव, एवं यः पश्यतीत्यादि । तदेवं कुत्साद्वारेण मिथ्यादृष्टिमाश्रित्य हेतुचतुष्टयमाह- हेतुना न जानात्यनुमेयम्, नञः कुत्सार्थत्वादेवासम्यगवगच्छतीत्यर्थः, एवं न पश्यतीत्यादि, तथा हेतुना मरणकारणेन योऽज्ञानमरणं म्रियते स हेतुरेवेति पञ्चमो हेतुरिति २। 20 ___ तथा पञ्च हेतवो यो हि सम्यग्दृष्टितया हेतुं सम्यग् जानाति स हेतुरेवेत्येवमन्येऽपि, नवरं हेतुं हेतुमत् छद्मस्थमरणं सम्यग्दृष्टित्वान्नाज्ञानमरणमनुमातृत्वाच्च न केवलिमरणमिति, एवं तृतीयान्तसूत्रमपि । इह सूत्रद्वयेऽपि हेतव: स्वरूपत उक्ता: ३-४ । तथा पञ्चाहेतवः, य: प्रत्यक्षज्ञानादितया अनुमानानपेक्ष: स धूमादिकं हेतुं नायं १. चूर्णिपाठोऽत्र प्रथमपरिशिष्टे द्रष्टव्यः ॥ २. “अज्झवसाणनिमित्ते आहारे वेयणा पराघाए । फासे आणापाणु सत्तविहं झि(भि)ज्जए आउं ॥७२४।। इति आवश्यकनियुक्तौ ॥ ३. तदेव जे१ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे हेतुर्ममानुमानोत्थापक इत्येवं जानातीत्यतोऽहेतुभूतं तं जानन्नहेतुरेवासावुच्यते, एवं दर्शन-बोधा-ऽभिसमागमापेक्षयाऽपि । तदेवमहेतुचतुष्टयं छद्मस्थमाश्रित्य देशनिषेधत आह- अहेतुमिति, धूमादिकं हेतुमहेतुभावेन न जानाति न सर्वथाऽवगच्छति, कथञ्चिदेवावगच्छतीत्यर्थः, नञो देशनिषेधार्थत्वात्, ज्ञातुश्चावध्यादिकेवलित्वेनानु5 मानाव्यवहर्तृत्वादित्येकोऽयमहेतुर्देशप्रतिषेधत उक्तः, एवमहेतुं कृत्वा धूमादिकं न पश्यतीति द्वितीयः, न बुध्यते न श्रद्धत्ते इति तृतीयः, नाभिसमागच्छतीति चतुर्थ:, तथा अहेतुम् अध्यवसानादिहेतुनिरपेक्षं निरुपक्रमतया छद्मस्थमरणम् अननुमानव्यवहर्तृत्वेऽप्यकेवलित्वात् तस्य, अयं च स्वरूपत एव पञ्चमोऽहेतुरुक्तः ५ । तथा पञ्च अहेतवः, योऽहेतुना हेत्वभावेन केवलित्वात् जानात्यसावहेतुरेवेत्येवं 10 पश्यतीत्यादयोऽपि, एवं च छद्मस्थमाश्रित्य पदचतुष्टयेनाहेतुचतुष्टयं देशप्रतिषेधत आह, तथा अहेतुना उपक्रमाभावेन छद्मस्थमरणं म्रियत इति पञ्चमोऽहेतुः स्वरूपत एवोक्तः ६ । तथा पञ्च अहेतव:, अहेतुं न हेतुभावेन विकल्पितं धूमादिकं जानाति केवलितया योऽनुमानाव्यवहारित्वात् सोऽहेतुरेव, एवं य: पश्यतीत्यादि, तथा अहेतुं निर्हेतुकमनुपक्रमत्वात् केवलिमरणमनुमानाव्यवहारित्वान्प्रियते यात्यसावहेतुः पञ्चमः, 15 एते पञ्चापीह स्वरूपत उक्ता: ७ । एवं तृतीयान्तसूत्रमप्यनुसर्त्तव्यमिति ८ । गमनिकामात्रमेतत्, तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति । तथा न सन्त्युत्तराणि प्रधानानि येभ्यस्तान्यनुत्तराणि, यथास्वं सर्वथाऽऽवरणक्षयात्, तत्राऽऽद्ये ज्ञान-दर्शनावरणक्षयाद्, अनन्तरे मोहक्षयात्, तपसश्चारित्रभेदत्वात्, तपश्च केवलिनामनुत्तरं शैलेश्यवस्थायां शुक्लध्यानभेदस्वरूपम्, ध्यानस्याभ्यन्तरतपोभेदत्वात्, 20 वीर्यं तु वीर्यान्तरायक्षयादिति ९ । [सू० ४११] पउमप्पभे णमरहा पंचचित्ते होत्था, तंजहा - चित्ताहिं चुते चइत्ता गब्भं वक्कंते, चित्ताहिं जाते, चित्ताहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारितं पव्वइए, चित्ताहिं अनंते अणुत्तरे णिव्वाघाते णिरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, चित्ताहिं परिणि । पुष्पदंते णं अरहा पंचमूले होत्था, मूलेणं चुते चइत्ता गब्भं वक्कते, एवं चेव । 25 ५२८ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ [सू० ४११] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । प्रथम उद्देशकः । एवमेतेणं अभिलावेणं इमातो गाहातो अणुगंतव्वातोपउमप्पभस्स चित्ता १, मूलो पुण होइ पुप्फदंतस्स २॥ पुव्वा य आसाढा सीतलस्स ३, उत्तर विमलस्स भद्दवता ४॥३४॥ रेवतित अणंतजिणो ५, पूसो धम्मस्स ६, संतिणो भरणी ७। कुंथुस्स कत्तियाओ ८, अरस्स तह रेवतीतो य ९॥३५॥ 5 मुणिसुव्वतस्स सवणो १०, आसिणि णमिणो य ११, नेमिणो चित्ता १२॥ पासस्स विसाहाओ १३, पंच य हत्थुत्तरे वीरो १४॥३६॥ समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे होत्था, तंजहा- हत्थुत्तराहिं चुते चइत्ता गन्भं वक्कंते, हत्थुत्तराहिं गब्भातो गन्भं साहरिते, हत्थुत्तराहिं जाते, हत्थुत्तराहिं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए, हत्थुत्तराहिं अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे 10 समुप्पन्ने । [टी०] केवल्यधिकारात् तीर्थकरसूत्राणि चतुर्दश, कण्ठ्यानि चैतानि, नवरं पद्मप्रभः ऋषभादिषु षष्ठः, पञ्चसु च्यवनादिदिनेषु चित्रा नक्षत्रविशेषो यस्य स पञ्चचित्रः. चित्राभिरिति रूढ्या बहुवचनम्, च्युतः अवतीर्ण: उपरिमोपरिमग्रैवेयकादेकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकात्, च्युत्वा च गभं ति गर्भे कुक्षौ 15 व्युत्क्रान्त: उत्पन्न: कौशाम्ब्यां धराभिधानमहाराजभार्याया: सुसीमानामिकाया: माघमासबहुलषष्ठ्याम्, जातो गर्भनिर्गमेन कार्तिकबहुलद्वादश्याम्, तथा मुण्डो भूत्वा केश-कषायाद्यपेक्षया अगारान्निष्क्रम्याऽनगारितां श्रमणतां प्रव्रजितो गत:, अनगारतया वा प्रव्रजित: कार्तिकशुद्धत्रयोदश्याम्, तथाऽनन्तं पर्यायानन्तत्वात् अनुत्तरं सर्वज्ञानोत्तमत्वात् निर्व्याघातमप्रतिपातित्वात् निरावरणं सर्वथा स्वावरणक्षयात् कट- 20 कुंड्याद्यावरणाभावाद्वा कृत्स्नं सकलपदार्थविषयत्वात् परिपूर्ण स्वावयवापेक्षया अखण्ड पौर्णमासीचन्द्रबिम्बवत्, किमित्याह केवलं ज्ञानान्तरासहायत्वात् संशुद्धत्वाद्वा अत एव वरं प्रधानं केवलवरं ज्ञानं च विशेषावभासं दर्शनं च सामान्यावभासं ज्ञानदर्शनं तच्च तत्तच्चेति केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नं जातं चैत्रशुद्धपञ्चदश्याम्, तथा परिनिर्वृतो निर्वाणं गत: मार्गशीर्षबहुलैकादश्यामादेशान्तरेण फाल्गुनबहुलचतुर्थ्यामिति । एवं चेव 25 १. 'कुट्या जे२ ॥ २. केवलवरं जे१ मध्ये नास्ति ॥ ३. निवृत्तो पा० ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे त्ति पद्मप्रभसूत्रमिव पुष्पदन्तसूत्रमप्यध्येतव्यम्, एवम् अनन्तरोक्तस्वरूपेण एतेन अनन्तरत्वात् प्रत्यक्षेणाभिलापेन सूत्रपाठेनेमास्तिस्र: सूत्रसङ्ग्रहणिगाथा अनुगन्तव्या: अनुसतव्या: शेषसूत्राभिलापनिष्पादनार्थम् । पउमप्पभस्सेत्यादि, तत्र पद्मप्रभस्य चित्रानक्षत्रं च्यवनादिषु पञ्चसु स्थानकेषु भवतीत्यादि गाथाक्षरार्थो वक्तव्यः, 5 सूत्राभिलापस्त्वाद्यसूत्रद्वयस्य साक्षाद्दर्शित एव, इतरेषां त्वेवम्- ‘सीयले णं अरहा पंचपुव्वासाढे होत्था, तंजहा- पुव्वासाढाहिं चुए चइत्ता गब्भं वक्ते, पुव्वासाढाहिं जाए' इत्यादि, एवं सर्वाण्यपि इति, व्याख्या त्वेवम्- पुष्पदन्तो नवमतीर्थकर: आनतकल्पादेकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकात् फाल्गुनबहुलनवम्यां मूलनक्षत्रे च्युतः, च्युत्वा काकन्दीनगर्यां सुग्रीवराजभार्याया: रामाभिधानाया गर्भत्वेन व्युत्क्रान्त:, 10 मूलनक्षत्रे मार्गशीर्षबहुलपञ्चम्यां जातः, तथा मूल एव ज्येष्ठशुद्धप्रतिपदि मतान्तरेण मार्गशीर्षबहुलषष्ठ्यां निष्क्रान्तः, तथा मूल एव कार्तिकशुद्धतृतीयायां केवलज्ञानमुत्पन्नम्, तथा अश्वयुज: शुद्धनवम्यामादेशान्तरेण वैशाखबहुलषष्ठ्यां निर्वृत इति २, तथा शीतलो दशमजिन: प्राणतकल्पाविंशतिसागरोपमस्थितिकाद्वैशाखबहुलषष्ठ्यां पूर्वाषाढानक्षत्रे च्युतः च्युत्वा च भद्दिलपुरे दृढरथनृपतिभाया नन्दाया गर्भतया व्युत्क्रान्तः, तथा 15 पूर्वाषाढास्वेव माघबहुलद्वादश्यां जात:, तथा पूर्वाषाढास्वेव माघबहुलद्वादश्यां निष्क्रान्त:, तथा पूर्वाषाढास्वेव पौषस्य शुद्धे मतान्तरेण बहुले पक्षे चतुर्दश्यां ज्ञानमुत्पन्नम्, तथा तत्रैव नक्षत्रे श्रावणशुद्धपञ्चम्यां मतान्तरेण श्रावणबहुलद्वितीयायां निर्वृत इति, एवं गाथात्रयोक्तानां शेषाणामपि सूत्राणां प्रथमानुयोगपदानुसारेणोपयुज्य व्याख्या कार्या, नवरं चतुर्दशसूत्रे अभिलापविशेषोऽस्तीति तद्दर्शनार्थमाह-समणे इत्यादि, हस्तोपलक्षिता 20 उत्तरा हस्तोत्तरा हस्तो वोत्तरो यासां ता हस्तोत्तरा: उत्तरा: फाल्गुन्यः, पञ्चसु च्यवन गर्भहरणादिषु हस्तोत्तरा यस्य स तथा, गर्भात् गर्भस्थानात् गब्भं ति गर्भे गर्भस्थानान्तरे संहृतो नीत:, निर्वृतस्तु स्वातिनक्षत्रे कार्तिकामावास्यायामिति । ॥ इति पञ्चस्थानकस्य प्रथमोद्देशको विवरणत: समाप्त: ॥ १. ति दर्शना जे१ ॥ २. हस्तोत्तरा जे१ विना नास्ति ॥ ३. प्रथम उद्दे° जे१ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अथ द्वितीय उद्देशक: ] [सू० ४१२] नो कप्पड़ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमातो उद्दिट्ठाओ गणिताओ वितंजितातो पंच महण्णवातो महाणदीओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरितए वा, तंजहा- गंगा, जउणा, सरऊ, एरावती, मही। पंचहिं ठाणेहिं कप्पति, तंजहा- भयंसि वा १, दुब्भिक्खं 5 वा २, पव्वहेज्ज व णं कोति ३, दओघंसि वा एज्जमाणंसि महता वा ४, अणारितेहिं ५ । ५३१ [सू० ४१३] णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पढमपाउसंसि गामाणुगामं दूइज्जित्तए । पंचहिं ठाणेहिं कप्पति, तंजहा- भयंसि वा, दुब्भिक्खंसि वा, जाव महता वा अणारितेहिं ५ | वासावासं पज्जोसविताणं णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा गामाणुगामं दूतिज्जित्तते । पंचहिं ठाणेहिं कप्पति, तंजहा- णाणट्ठताते, दंसणताते, चरितट्टताते, आयरियउवज्झाए वा से वीसुंभेजा, आयरियउवज्झायाण वा बहिता वेयावच्चं करणता । [सू० ४१४] पंच अणुग्घातिता पन्नत्ता, तंजहा - हत्थाकम्मं करेमाणे, मेहुणं 15 पडिसेवमाणे, रातीभोयणं भुंजमाणे, सागारितपिंडं भुंजमाणे, रायपिंडं भुंजमाणे । [सू० ४१५] पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे रायंतेउरमणुपविसमाणे नाइक्कमति, तंजहा - नगरे सिता सव्वतो समंता गुत्ते गुत्तदुवारे, बहवे समणमाहणा णो संचाएंति भत्ता वा पाणाते वा निक्खमित्तते वा पविसित्तते वा, सिं विन्नवणट्ठताते रातंतेउरमणुपविसेज्जा १, पाडिहारितं वा पीढ - फलग - सेज्जा - 20 संथारगं पच्चप्पिणमाणे रायंतेउरमणुपविसेज्जा २, हतस्स वा गयस्स वा दुस्स आगच्छमाणस्स भीते रायंतेउरमणुपविसेज्जा ३, परो व णं सहसा वा बलसा वा बाहाते गहाय रायंतेउरमणुपविसेजा ४, बहिता व णं आरामगतं वा उज्जाणगतं वा रायंतेउरजणो सव्वतो समंता संपरिक्खिवित्ता णं निवेसेज्जा । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे जाव णातिक्कमति । 25 10 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्ध:अनन्तरोद्देशके विविधा जीववक्तव्यतोक्ता, इहापि सैवोच्यत इत्येवमभिसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्- नो कप्पईत्यादि । अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्ध: पूर्वसूत्रे केवलिनिर्ग्रन्थगतं वस्तूक्तमिह तु छद्मस्थनिर्ग्रन्थगतं तदुच्यत इत्येवमस्यारागर्भसूत्राद् 5 अन्येषां च सम्बद्धानां नो कप्पईत्यादीनां व्याख्या सुकरैव, नवरं नो कप्पइ त्ति न कल्पन्ते न युज्यन्ते, एकवचनस्य बहुवचनार्थत्वात् वत्थगन्धमलङ्कार [दशवै० २।२] मित्यादाविवेति, निर्गता ग्रन्थादिति निर्ग्रन्थाः साधवस्तेषाम्, तथा निर्ग्रन्थीनां साध्वीनाम्, इह प्रायस्तुल्यानुष्ठानत्वमुभयेषामपीतिदर्शनार्थौ वाशब्दौ, इमा इति वक्ष्यमाणनामत: प्रत्यक्षासन्नाः, उद्दिष्टा: सामान्यतोऽभिहिता यथा महानद्य इति, गणिता: 10 यथा पञ्चेति, व्यञ्जिता व्यक्तीकृता: यथा गंगेत्यादि, विशेषणोपादानाद्वा यथा महार्णवा इति, तत्र महार्णव इव या बहूदकत्वात् महार्णवगामिन्यो वा यास्ता वा महार्णवा महानद्यो गुरुनिम्नगा: अन्त: मध्ये मासस्य द्विकृत्वो वा द्वौ वारौ त्रिकृत्वो वा त्रीन् वारान् उत्तरीतुं लङ्घयितुं बाहु-जङ्घादिना सन्तरीतुं साङ्गत्येन नावादिनेत्यर्थः लवयितुमेव, सकृद्वोत्तरीतुम्, अनेकश: सन्तरीतुमिति, अकल्प्यता चात्म-संयमोपघात15 सम्भवेन शबलचारित्रभावाद्, यत आह– मासन्भंतर तिन्नि दगलेवा उ करेमाणे [आव० नि० १२०३] त्ति, उदकलेपो नाभिप्रमाणजलावतरणमिति । इह सूत्रे कल्पभाष्यगाथा इमउ त्ति सुत्तउत्ता १ उद्दिट्ट नईओ २ गणिय पंचेव ३ । गंगादि वंजियाओ ४ बहूदय महन्नवाओ उ ५ ॥ पंचण्हं गहणेणं सेसा वि उ सूइया महासलिला । [बृहत्कल्प० ५६१९-२०] इति । 20 प्रत्यपायाश्चेह ओहार-मगराईया घोरा तत्थ उ सावया । सरीरोवहिमाईया णावातेणा व कत्थइ ॥ [बृहत्कल्प० ५६३३] इति । अपवादमाह- पंचेत्यादि, भये राज-प्रत्यनीकादेः सकाशादुपध्याद्यपहारविषये सति १, दुर्भिक्षे वा भिक्षाऽभावे सति २, पव्वहेज त्ति प्रव्यथते बाधते अन्तभूर्तकारितार्थत्वाद् १. संबद्धस्या जे१ ॥ २. 'मस्माद्गर्भ जे१ । सू० ४१६ ॥ ३-४. निग्र जे१ ।। ५. आवश्यकसूत्रे चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने 'एक्कवीसाए सबलेहिं' इति सूत्रस्य व्याख्यायाम् ॥ ६. वाओ या जे१ । वाओ य पा० जे२॥ ७. निशीथभा० ४२११ ।। ८. निशीथभा० ४२२३ ॥ ९. तार्थाद्वा जे१ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० ४१५] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः ।। ५३३ वा प्रवाहयेत् कश्चित् प्रत्यनीक: तत्रैव गङ्गादौ प्रक्षिपेदित्यर्थः ३, दओघंसि त्ति उदकौघे वा गङ्गादीनामुन्मार्गगामित्वेनाऽऽगच्छति सति तेन प्लाव्यमानानामित्यर्थः, महता वा आटोपेनेति शेष: ४, अणारिएसु त्ति विभक्तिव्यत्ययादनार्यैः म्लेच्छादिभिर्जीवितचारित्रापहारिभिरभिभूतानामिति शेषः, म्लेच्छेषु वा आगच्छत्स्विति शेषः, एतानि पुष्टालम्बनानीति तत्तरणेऽपि न दोष इति, उक्तं च सालंबणो पडतो वि अप्पयं दुग्गमे वि धारेइ । इय सालंबणसेवी धारेइ जई असढभावं ॥ आलंबणहीणो पुण निवडइ खलिओ अहे दुरुत्तारे । इय निक्कारणसेवी पडइ भवोहे अगाहम्मि ॥ [आव० नि० ११८६-८७] इति । तथा पढमपाउसंसि त्ति इह आषाढ-श्रावणौ प्रावृट्, आषाढस्तु प्रथमप्रावृट, 10 ऋतूनां वा प्रथमेति प्रथमप्रावृट्, अथवा चतुर्मासप्रमाणो वर्षाकाल: प्रावृडिति विवक्षित:, तत्र सप्ततिदिनप्रमाणे प्रावृषो द्वितीये भागे तावन्न कल्पत एव गन्तुम्, प्रथमभागेऽपि पञ्चाशद्दिनप्रमाणे विंशतिदिनप्रमाणे वा न कल्पते जीवव्याकुलभूतलत्वाद्, उक्तं च एत्थ य अणभिग्गहियं वीसइराइं सवीसई मासं । तेण परमभिग्गहियं गिहिनायं कत्तियं जाव ॥ [बृहत्कल्पं० ४२८२] त्ति । 15 अनभिगृहीतम् अनिश्चितमशिवादिभिर्निर्गमभावाद्, आह चअसिवादिकारणेहिं अहवा वासं न सुट्ठ आरद्धं ।। अभिवडियम्मि वीसा इयरेसु सवीसई मासो ॥ [बृहत्कल्प० ४२८३] इति । यत्र संवत्सरे अधिकमासको भवति तत्र आषाढ्या विंशतिदिनानि यावदनभिग्रहिक आवासोऽन्यत्र सविंशतिरात्रं मासं पञ्चाशतं दिनानीति, अत्र चैते दोषा: 20 छक्कायविराहणया आवडणं विसमखाणुकंटेसु । बुज्झण अभिहण रुक्खोल्सावए तेण उवचरए ॥ अक्खुन्नेसु पहेसुं पुढवी उदगं च होइ दुविहं तु । उल्लपयावण अगणी इहरा पणओ हरियकुंथू ॥ [बृहत्कल्प० २७३६-३७] इति । ततस्तत्र प्रावृषि किमत आह- एकस्माद् ग्रामादवधिभूतादुत्तरग्रामाणामनतिक्रमो 25 १. निशीथभाष्येऽपि ३१५१ । दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्तौ ६६ ।। २. निशीथभाष्येऽपि ३१५२ । दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ती ६७॥ ३. निशीथभा० ३१२५-२६ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ 10 आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ग्रामानुग्रामं तेन, ग्रामपरम्परयेत्यर्थः, अथवा एकग्रामाल्लघु-पश्चाद्भावाभ्यां ग्रामोऽणुग्रामः, गामो य अणुगामो य गामाणुगाम, तत्र दूइजित्तए त्ति द्रोतुं विहर्तुमित्युत्सर्गः, अपवादमाह- पंचेत्यादि तथैव, नवरमिह प्रव्यथेत ग्रामाच्चालयेन्निष्काशयेत् कश्चित्, उदकौघे वा आगच्छति ततो नश्येदिति, उक्तं च5 आबाहे दुब्भिक्खे भए दओघंसि वा महंतंसि ।। परिभवणतालणं वा जया परो वा करेजासि ॥ [बृहत्कल्पभा० २७३९] इति । तथा वर्षासु वर्षाकाले वर्षो वृष्टिर्वर्षावर्षो वर्षासु वा आवास: अवस्थानं वर्षावासस्तम्, स च जघन्यत: आ कार्तिक्या: दिनसप्ततिप्रमाणः, मध्यमवृत्त्या चतुर्मासप्रमाण: उत्कृष्टत: षण्मासमानः, तदुक्तम् इअ सत्तरी जहन्ना असिई नउई विसुत्तरसयं च । जइ वासे मग्गसिरे दस राया तिन्नि उक्कोसा ॥ मासमित्यर्थः, काऊण मासकप्पं तत्थेव ठियाण तीते मग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उ जेटुग्गहो होइ ॥ [बृहत्कल्प० ४२८५-८६] इति । पज्जोसवियाणं ति परीति सामस्त्येनोषितानां पर्युषणाकल्पेन नियमवद्वस्तुमा15 रब्धानामित्यर्थः, पर्युषणाकल्पश्च न्यूनोदरताकरणं विकृतिनवकपरित्याग: पीठ-फलकादि संस्तारकादानमुच्चारादिमात्रकसंग्रहणं लोचकरणं शैक्षाप्रव्राजनं प्रारगृहीतानां भस्मडगलकादीनां परित्यजनमितरेषां ग्रहणं द्विगुणवर्षोपग्रहोपकरणधरणमभिनवोपकरणाग्रहणं सक्रोशयोजनात् परतो गमनवर्जनमित्यादिकः, उक्तं च दव्वट्ठवणाऽऽहारे विगई संथार मत्तए लोए । 20 सच्चित्ते अच्चित्ते वोसिरणं गहणधरणाइ ॥ [निशीथभा० ३१६६] त्ति । दव्वट्ठवण त्ति निशीथे द्वारपरामर्श इति । ज्ञानमेवार्थो यस्य स ज्ञानार्थः, तद्भावस्तत्ता, तया ज्ञानार्थतया ज्ञानार्थित्वेन, तत्रापूर्व: श्रुतस्कन्धोऽन्यस्याचार्यादेरस्ति स च भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्ततो यद्यसौ तत्सकाशान्न गृह्यते ततोऽसौ व्यवच्छिद्यते अतस्तद्ग्रहणार्थं ग्रामानुग्रामं द्रोतुं कल्पते, एवं दर्शनार्थतया 25 दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थित्वेन, चारित्रार्थतया तु तस्य क्षेत्रस्यानेषणा-स्त्र्यादिदोषदुष्टतया १. तीत जेसं१, जे२ ॥ २. दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्तौ ६९-७० । निशीथभाष्ये ३१५४, ३१५६ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१५] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ५३५ तद्रक्षणार्थम्, तथा आयरियउवज्झाये व त्ति समाहारद्वन्द्वत्वादाचार्योपाध्यायं वा से तस्य भिक्षो: वीसुंभेज त्ति विष्वक् शरीरात् पृथग् भवेत् जायेत, म्रियेतेत्यर्थः, ततस्तत्र गच्छे अन्यस्याचार्यादेरभावाद् गणान्तराश्रयणार्थम्, अथवा वीसुंभेज त्ति विश्रम्भेत तस्य साधोराचार्यादिर्विश्रब्धो भवेत्, ततोऽत्यन्तरहस्यकार्यकरणायेति, तथा आचार्योपाध्यायानां वा बहिस्ताद् वर्षाक्षेत्रस्य वर्तमानानां वैयावृत्यकरणतायै 5 प्रेषितस्याचार्यादिना द्रोतुं कल्पत इति, उक्तं चअसिवे ओमोयरिए रायदुढे भए व गेलन्ने । नाणाइतिगस्सट्ठा ३ वीसुंभण ४ पेसणेणं ५ च ॥ [निशीथभा० ३१२९, बृहत्कल्प० २७४१] इति। अणुघाइय त्ति न विद्यते उद्घातो लघूकरणलक्षणो यस्य तपोविशेस्य तदनुद्घातं यथाश्रुतदानमित्यर्थः, तद्येषां प्रतिषेवाविशेषतोऽस्ति तेऽनुद्घातिका: । हस्तकर्म 10 समयप्रसिद्धम्, तत् कुर्वाणः । मैथुनम् अब्रह्म अतिक्रमादिना सेवमानः । तथा भुज्यत इति भोजनम्, रात्रौ भोजनं रात्रिभोजनम्, तच्च द्रव्यतोऽशनादि, क्षेत्रत: समयक्षेत्रे, कालतो दिवा गृहीतं दिवा भुक्तं दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तं रात्रौ गृहीतं दिवा भुक्तं रात्रौ गृहीतं रात्रौ भुक्तमित्येवं चतुर्भङ्गरूपम्, भावतो राग-द्वेषाभ्याम्, तद् भुञ्जानोऽश्नन्नित्यर्थः, अत्र दोषा:संतिमे सुहुमा पाणा [दशवै० ६।२४-२६] इत्यादिश्लोकत्रयम्, तथाजइ वि हु फासुगदव्वं कुंथू पणगा तहा वि दुप्पस्सा । पच्चक्खं नाणी वि हु राईभत्तं परिहरंति ॥ जइ वि य पिवीलिगाइ दीसंति पईवजोइउज्जोए । तह वि खलु अणाइन्नं मूलवयविराहणा जेणं ॥ [बृहत्कल्प० २८६३-६४] 20 तथा अगारं गृहम्, सह तेन वर्त्तत इति सागार:, स एव सागारिकः शय्यातरः, तस्य पिण्ड: आहारोपधिरूप:, अन्यस्त्वसौ न भवति, उक्तं च तण-छार-डगल-मल्लग-सेजा-संथार-पीढ-लेवाई। सेज्जायरपिंडो सो न होइ सेहो य सोवहिओ ॥ [निशीथभा० ११५४, बृहत्कल्प० ३५३५] १. ज्झाए व त्ति खं० । ज्झाए त्ति पा० जे२ ॥ २. “संतिमे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा । जाई राओ अपासंतो कहमेसणियं चरे ॥२४॥ उदउल्लं बीय संसत्तं पाणा निवडिया महिं । दिआ ताई विवज्जिज्जा राओ तत्थ कह चरे ॥२५|| एयं च दोसं दळूणं नायपुत्तेण भासियं । सव्वाहारं न भुजंति निग्गंथा राइभोयणं ॥२६॥” इति दशवैकालिकसूत्रे षष्ठेऽध्ययने ॥ ३. निशीथभाष्ये ३४११-१२ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे इति सागारिकपिण्डः, तं भुञ्जान:, तद्भोजने चामी दोषा:तित्थकरप्पडिकुट्ठो अन्नायं अज्ञातोञ्छो न भवतीत्यर्थः उग्गमोऽवि य न सुज्झे परिचयात् । अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसेज्जा य वोच्छेदो ॥ पडिबंधनिराकरणं केई अन्ने उ गिही अगहणस्स । तस्साउट्टण शय्यातरावर्जनमित्यर्थः आणं इत्थऽवरे बेंति भावत्थं ॥ [ पञ्चा० १७।१८-१९ ]ति । 5 तथा राज्ञः पिण्डो राजपिण्डः, तं भुञ्जानः, राजा चेह चक्रवर्त्यादिर्यत आहजो मुद्धा अभिसितो पंचहिं सहिओ य भुंजए रज्जं । तस्स उ पिंडो वज्जो तव्विवरीयम्मि भयणा उ ॥ [ निशीथभा० २४९७] पिण्डस्वरूपं चअसणाईया चउरो वत्थे पाए य कंबले चेव । पाउंछणए य तहा अट्ठविहो रायपिंडो तु ॥ [ निशीथभा० २५००] 10 दोषा आज्ञादय:, ईश्वरादिप्रवेशादौ व्याघात: अमङ्गलधिया प्रेरणा लोभ एषणाव्याघातश्चौरादिशङ्का चेत्यादय इति ।। नाइक्कमइ त्ति आज्ञामाचारं वेति । नगरं स्यात् भवेत् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ताद् विदिक्षु, अथवा सर्वतः, किमुक्तं भवति ? समन्तादिति, गुप्तं प्राकारवेष्टितत्वात् गुप्तद्वारं द्वाराणां स्थगितत्वात्, श्राम्यन्ति तपस्यन्तीति श्रमणा: मावधीरिति प्रवृत्तिर्येषां 15 ते माहना: उत्तरगुण - मूलगुणवन्तः संयता इत्यर्थः, अथवा श्रमणा: शाक्यादयः माहना ब्राह्मणा नो संचाएंति न शक्नुवन्ति, भक्ताय पानाय वा निष्क्रमितुं वा निर्गन्तुं नगरात् तद्बहिर्भिक्षाकुलेषु भिक्षित्वा तथैव प्रवेष्टुं वेति, ततस्तेषां श्रमणादीनां प्रयोजने विज्ञापनाय राज्ञोऽन्तः पुरस्थस्य प्रमाणभूतराज्ञ्या वा राजान्त: : पुरमनुप्रविशेत्, इह च शाक्यादीनां प्रयोजने यद् राज्ञो विज्ञापनं तदपवादापवादरूपम्, 20 असंयताविरतत्वात्तेषाम्, एतच्च किञ्चिदात्यन्तिकं सङ्घादिप्रयोजनमवलम्बमानानां भवतीति समवसेयमित्येकम् । तथा कृतप्रयोजनैः प्रतिह्रियते प्रतिनीयते यत्तत् प्रतिहारप्रयोजनत्वात् प्रातिहारिकम्, पीठं पट्टादिकं फलकम् अवष्टम्भफलकं शय्या सर्वाङ्गीणा फलकादिरूपा संस्तारको लघुतरोऽथवा शय्या शयनं तदर्थः संस्तारकः शय्यासंस्तारकः, द्वन्द्वैकवद्भावात् पीठ-फलक- शय्यासंस्तारकं पच्चप्पिणमाणे त्ति आर्षत्वात् 25 प्रत्यर्पयितुं तत् प्रविशेत् यस्माद् यदानीतं तत्तत्रैव निक्षेप्तव्यमिति कृत्वेति द्वितीयम् । १. निशीथभा० ११५९, बृहत्कल्पभा० ३५४०, ६३७८ ॥ ५३६ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१६] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । हयादेर्दुष्टादागच्छतो भीत इति तृतीयम् । परः आत्मव्यतिरिक्तः सहस त्ति अकस्मात् बलस त्ति बलेन हठात् सकारस्त्वागमिको बाहौ गृहीत्वेति चतुर्थम् । बहिया व नगरादेर्बहिरारामगतं वा उद्यानगतं वा निर्ग्रन्थम्, तत्र आरामो विविधपुष्पजात्युपशोभित उद्यानं तु चम्पकवनाद्युपशोभितमिति, संपरिक्खिवित्त त्ति संपरिक्षिप्य परिवार्य सन्निविशेत क्रीडाद्यर्थं गत आवासं कुर्यादिति पञ्चममिति । इच्चे हीत्यादिना निगमनम्, 5 इह च पीठादीनामर्पणस्य ग्रहणव्यतिरेकेणासम्भवात् तद्ग्रहणमप्यनेनैव सङ्गृहीतं द्रष्टव्यमिति, भवन्ति चात्र गाथा: अंतेउरं च तिविहं जुन्नं नवयं च कन्नगाणं च । एक्क्कं पि यदुविहं सट्ठाणे चेव परठाणे ॥ एतेसामन्नयरं रन्नो अंतेउरं तु जो पविसे । सो आणाअणवत्थं मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ [ निशीथभा० २५१३-१४] सद्दाइइंदियत्थोवओगदोसा न एसणं सोहे । सिंगारकहाकहणे एगयरुभए य बहुदोसा ॥ या व नर्गतस्येत्यर्थ: होंति दोसा केरिसिगा कहणगिण्हणाईया । गव्वो बाउसियत्तं सिंगाराणं च संभरणं ॥ बितियपद अपवाद इत्यर्थ: मणाभोगा १ वसहि परिक्खेव २ सेज्जसंथारे ३ । हयमाईदुट्ठाणं आवयमाणाण ४ कजेसु ५ ॥ [ निशीथभा० २५१८-२० ] इति । [सू० ४१६] पंचहिं ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं असंवसमाणी वि गब्भं धरेज्जा, तंजहा - इत्थी दुव्वियडा दुन्निसण्णा सुक्कपोग्गले अधिट्ठिज्जा, सुक्कपोग्गलसंसिट्टे व से वत्थे अंतो जोणीते अणुपविसेज्जा, सई व से 20 सुक्कपोग्गले अणुपवेसेज्जा, परो व से सुक्कपोग्गले अणुपवेसेज्जा, सीओदगवियडेण वा से आयममाणीते सुक्कपोग्गला अणुपविसेज्जा । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं जाव धरेज्जा १ । १. संनिवेशेत- सर्वेषु आदर्शेषु ॥ २. भोगे जे१ ॥ -A-19. ५३७ 10 पंचहिं ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणी वि गब्धं नो धरेज्जा, तंजहा- अप्पत्तजोव्वणा १, अतिक्कंतजोव्वणा २, जातिवंझा ३, गेलन्नपुट्ठा 25 15 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ४, दोमणंसिता ५ । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं जाव नो धरेज्जा २ । पंचहिं ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणी वि गभं नो धरेजा, तंजहा- निच्चोउया, अणोउया, वावन्नसोया, वाविद्धसोया, अणंगपडिसेविणी। इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं संवसमाणी वि गन्भं णो धरेज्जा 5 पंचहिं ठाणेहिं इत्थी पुरिसेहिं सद्धिं संवसमाणी वि गन्भं नो धरेजा, तंजहा- उउम्मि णो णिगामपडिसेविणी तावि भवति, समागता वा से सुक्कपोग्गला पडिविद्धंसंति, उदिन्ने वा से पित्तसोणिते, पुरा वा देवकम्मुणा, पुत्तफले वा नो निन्विटे भवति । इच्चेतेहिं जाव नो धरेजा ४ । [टी०] अनन्तरमन्त:पुरसूत्रत्वात् स्त्रीगतमुक्तमधुनाऽपि तद्गतमेव क्रियाविशेषमाहपंचहीत्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यम्, नवरं दुव्वियड त्ति विवृता अनावृता सा 10 चोत्तरीयापेक्षयाऽपि स्यादतो दुःशब्देन विशेष्यते- दुष्ठ विवृता दुर्विवृता, परिधानवर्जितेत्यर्थः, अथवा विवृतोरुका दुर्विवृता, या दुर्विवृता सती दुनिषण्णा दुष्ठ विरूपतयोपविष्टा गुह्यप्रदेशेन कथञ्चित् पुरुषनिसृष्टशुक्रपुद्गलवद्भूमिपट्टादिकमासनमाक्रम्य निविष्टा सा दुर्विवृतदुनिषण्णेति शुक्रपुद्गलान् कथञ्चित् पुरुष निसृष्टानासनस्थानधितिष्ठेत् योन्याकर्षणेन संगृह्णीयात् तथा शुक्रपुद्गलसंसृष्टं से तस्याः 15 स्त्रिया वस्त्रमन्त: मध्ये योनावनुप्रविशेत्, इह च वस्त्रमित्युपलक्षणम्, तथाविधमन्यदपि केशिमातु: केशवत् कण्डूयनार्थं रक्तनिरोधार्थं वा तया प्रयुक्तं सदनुप्रविशेद् अनाभोगेन वा तथाविधं वस्त्रं परिहितं सद् योनिमनुप्रविशेत्, तथा स्वयमिति पुत्रार्थिनीत्वाच्छीलरक्षकत्वाच्च से ति सा शुक्रपुद्गलान् योनावनुप्रवेशयेत्, तथा परो व त्ति श्वश्रूप्रभृतिकः पुत्रार्थमेव से तस्या योनाविति गम्यते, तथा वियडं ति समयभाषया 20 जलं तच्चानेकधेत्यत उच्यते शीतोदकलक्षणं यद्विकटं पल्वलादिगतमित्यर्थः तेन वा से तस्या आचमत्या: पूर्वपतिता उदकमध्यवर्त्तिन: शुक्रपुद्गला: अनुप्रविशेयुरिति। इच्चेएहीत्यादि निगमनमिति । अप्राप्तयौवना प्राय आ वर्षद्वादशकादार्त्तवाभावात्, १. पासं० विना- स्या पामू०, स्यात् जे२ । सा जे१ खं० मध्ये नास्ति ॥ २. से त्ति सर्वेषु जे १,२, पा० खं० हस्तलिखितादर्शेषु पाठः ॥ ३. वेत्ति सर्वेषु जे१, २, पा० खं० हस्तलिखितादर्शेषु पाठः ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१६] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । तथाऽतिक्रान्तयौवना वर्षाणां पञ्चपञ्चाशतः पञ्चाशतो वा परत आर्त्तवाभावादेव, यतोऽवाचि मासि मासि रजः स्त्रीणामजस्रं स्रवति त्र्यहम् । वत्सराद् द्वादशादूर्ध्वं याति पञ्चाशतः क्षयम् ॥ पूर्णषोडशवर्षा स्त्री, पूर्णविंशेन संगता । शुद्धे गर्भाशये १ मार्गे २, रक्ते ३ शुक्रे ४ ऽनिले ५ हृदि ६ ।। वीर्यवन्तं सुतं सूते, ततो न्यूनाब्दयोः पुनः । रोग्यल्पायुरधन्यो वा, गर्भो भवति नैव वा ॥ [ ५३९ ] शुद्धे निर्दोषे गर्भाशयादिषट्क इत्यर्थः । तथा जाते: जन्मत आरभ्य वन्ध्या निर्बीजा जातिवन्ध्या, तथा ग्लान्येन ग्लानत्वेन स्पृष्टा ग्लान्यस्पृष्टा रोगार्द्दिता, तथा दौर्मनस्यं 10 शोकाद्यस्ति यस्या सा दौर्मनस्यिका तेद्वा सञ्जातमस्या इति दौर्मनस्थितेति । इच्चे हीत्यादि निगमनम् । नित्यं सदा न त्र्यहमेव ऋतू रक्तप्रवृत्तिलक्षणो यस्याः सा नित्यर्तुका, तथा न विद्यते ऋतुरुक्तरूपः शास्त्रप्रसिद्धो वा यस्याः सा अनृतुका, तथाहि 5 ऋतुस्तु द्वादश निशा:, पूर्वास्तिस्रोऽत्र निन्दिता: । एकादशी च युग्मासु स्यात् पुत्रोऽन्यासु कन्यका ॥ पद्मं सङ्कोचमायाति, दिनेऽतीते यथा तथा । ऋतावतीते योनिः सा, शुक्रं नैव प्रतीच्छति ॥ मासेनोपचितं रक्तं धमनीभ्यामृतौ पुनः । ईषत्कृष्णं विगन्धं च, वायुर्योनिमुखान्नुदेद् ॥ [ ] इति । तथा व्यापन्नं विनष्टं रोगत: श्रोतो गर्भाशयच्छिद्रलक्षणं यस्याः सा व्यापन्नश्रोता:, तथा व्यादिग्धं व्याविद्धं वा वातादिव्याप्तं विद्यमानमप्युपहतशक्तिकं श्रोतः उक्तरूपं यस्याः सा व्यादिग्धश्रोता व्याविद्धश्रोता वा, तथा मैथुने प्रधानम मेहनं भगश्च, तत्प्रतिषेधोऽनङ्गम्, तेनानङ्गेनाहार्यलिङ्गादिना अनङ्गे वा मुखादौ प्रतिषेवाऽस्ति यस्या अनङ्गं वा काममपरापरपुरुषसम्पर्कतोऽतिशयेन प्रतिषेवत इत्येवंशीलाऽनङ्गप्रतिषेविणी, 25 तथाविधवेश्यावदिति, ऋतौ ऋतुकाले नो नैव निकामम् अत्यर्थं बीजपातं यावत् पुरुषं प्रतिषेवत इत्येवंशीला निकामप्रतिषेविणी, वाऽपीति उत्तरविकल्पापेक्षया १. ग्लान्यस्पृष्टा जे१ खं० मध्ये नास्ति ॥ २. तद्वा जातम जे१ खं० ॥ ३. च्छतीति जे१ ॥ 15 20 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे समुच्चये, समागता वा से तस्यास्ते प्रतिविध्वंसन्ते योनिदोषादुपहतशक्तयो भवन्ति, मेहनविश्रोतसा वा योनेर्बहि: पतन्तो विध्वंसन्ते इति, उदीर्णं च उत्कटं तस्याः पित्तप्रधानं शोणितं स्यात् तच्चाबीजमिति, पुरा वा पूर्वं वा गर्भावसरात् देवकर्मणा देवक्रियया देवतानुभावेन शक्त्युपघात: स्यादिति शेषः, अथवा देवश्च कार्मणं च 5 तथाविधद्रव्यसंयोगो देवकार्मणं तस्मादिति, पुत्रलक्षणं फलं पुत्रफलं पुत्रो वा फलं यस्य कर्मणस्तत् पुत्रफलं तद्वा नो निर्विष्टं भवति, अलब्धम् अनुपात्तं स्यादित्यर्थः, थेवं बहुनिव्वेसं [ओघनि० ५३०] इत्यादौ निर्वेशशब्दस्य लाभार्थस्य दर्शनात, अथवा पुत्र: फलं यस्य तत् पुत्रफलं दानं तजन्मान्तरेऽनिर्विष्टम् अदत्तं भवति, निर्विष्टस्य दत्तार्थत्वात्, यथा नानिव्विलृ लब्भइ [पिण्डनि० ३७०, निशीथभा० ४५०४] त्ति । 10 [सू० ४१७] पंचहिं ठाणेहिं निग्गंथा य निग्गंथीओ य एगतओ ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेतेमाणा णातिकमंति, तंजहा- अत्थेगइया निग्गंथा य निग्गंथीओ य एगं महं अगामितं छिन्नावायं दीहमद्धमडविमणुपविट्ठा, तत्थेगयतो ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेतेमाणा णातिक्कमंति १, अत्थेगतिया णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य गामंसि वा णगरंसि वा जाव 15 रायहाणिसि वा वासं उवगता, एगतिता यत्थ उवस्सयं लभंति, एगतिता णो लभंति, तत्थेगततो ठाणं वा जाव नातिक्कमंति २, अत्थेगतिता निग्गंथा य निग्गंथीओ य नागकुमारावासंसि वा सुवण्णकुमारावासंसि वा वासं उवगता तत्थेग[यओ] जाव णातिक्कमंति ३, आमोसगा दीसंति, ते इच्छंति निग्गंथीओ चीवरपडिताते पडिगाहेत्तते, तत्थेगतओ ठाणं वा जाव णातिक्कमति ४, 20 जुवाणा दीसंति, ते इच्छंति निग्गंथीओ मेहुणपडिताते पडिगाहित्तते, तत्थेगततो ठाणं वा जाव णातिक्कमंति ५ । इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं जाव नातिक्कमंति। पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे अचेलए सचेलियाहिं निग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे नाइक्कमति, तंजहा- खित्तचित्ते समणे णिग्गंथे निग्गंथेहिमविजमाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं निग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे १. नातिक्कमंति । पंचहिं ठाणेहिं समणे निगंथे अचेलए सचेलगाणं मझे ठाणं वा सेजं वा निसोहियं वा चेएमाणे नाइक्कमइ तंजहा- दुहओ दुहारियत्थाइणे अचेले, ठाणाइए अचेले, उक्कुड्यासणिए अचेले, पडिमठाई अचेले, वीरासणिए अचेले । पंचहिं.... ... इत्यधिकः पाठः भां० मध्येऽस्ति । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१७] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । णातिक्कमति १, एवमेतेणं गमएणं दित्तचित्ते जक्खातिट्ठे उम्मायपत्ते निग्गंथीपव्वावियते समणे णिग्गंथे णिग्गंथेहिं अविज्जमाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णातिक्कमति । [टी०] स्त्र्यधिकारादेव साध्वीवक्तव्यताप्रतिबद्धं सूत्रद्वयमिदमाह - पंचहीत्यादि, सुगमम्, नवरम् एगयओ त्ति एकत्र ठाणं ति कायोत्सर्ग [म्] उपवेशनं वा सेजं ति 5 शयनं निसीहियं ति स्वाध्यायस्थानं चेतयन्तः कुर्वन्तो नातिक्रामन्ति न लङ्घयन्ति, आज्ञामिति गम्यते । अत्थि त्ति सन्ति भवन्ति एगइय त्ति एके केचन एकाम् अद्वितीयां महतीं विपुलामग्रामिकामकामिकां वा अनभिलषणीयां छिन्ना आपाताः सार्थगोकुलादीनां यस्यां सा तथा ताम्, दीर्घोऽध्वा मार्गे यस्यां सा तथा तां दीर्घाध्वानम्, मकारस्त्वागमिकः, दीर्घोऽद्धा वा कालो निस्तरणे यस्याः सा दीर्घाद्धा तामटवीं 10 कान्तारमनुप्रविष्टा दुर्भिक्षादिकारणवशात् तत्र अटव्याम् एगयउ त्ति एकत: एकत्रेत्यर्थः स्थानादि कुर्वन्तः आगमोक्तसामाचार्या नातिक्रामन्ति १ । तथा राजधानी यत्र राजा अभिषिच्यते, वासमुपगता: निवासं प्राप्ता इत्यर्थ:, एगइया यत्थ त्ति एकका एकतरा निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थिका वा, चः पुनरर्थः, अत्र ग्रामादौ, उपाश्रयं गृहपतिगृहादिकमिति २, तथा अत्थे त्ति अथ गृहपतिगृहादिकमुपाश्रयमलब्ध्वा एगइया एके नागकुमारावासादी 15 वासमुपगता: अथवा अत्थे त्ति इह सम्बध्यते अस्ति सन्ति भवन्ति निवासमुपगता इति, तस्य च नागकुमारावासादेरतिशून्यत्वादथवा बहुजनाश्रयत्वादनायकत्वाच्च निर्ग्रन्थिकारक्षार्थमेकत एव स्थानादि कुर्वाणा नातिक्रामन्तीति ३, तथा आमुष्णन्तीत्यामोषकाः चौरा दृश्यन्ते, ते च इच्छन्ति निर्ग्रन्थिका: चीवरवडियाए त्ति चीवरप्रतिज्ञया 'वस्त्राणि ग्रहीष्यामः' इत्यभिप्रायेण प्रतिग्रहीतुं यत्रेति गम्यते, तत्र 20 निर्ग्रन्थास्तद्रक्षणार्थमेकतः स्थानादिकमिति ४, तथा मैथुनप्रतिज्ञया मैथुनार्थमिति ५ । इदमपवादसूत्रम्, उत्सर्गश्चापवादसहितो भाष्यगाथाभिरवसेयस्ताश्चेमाः ४ भयणपयाण चउण्हं एकः साधुरेका स्त्रीत्यादिभङ्गकानामित्यर्थः अन्नतरजुए उ संजए संते । जे भिक्खू विहरेज्जा अहवा वि करेज सज्झायं ॥ असणादिं वाऽऽहारे उच्चारादिं च आचरेज्जाहि । ५४१ १. संभवंति जे१ ॥ २. एगयय त्ति जे१ खं० ॥ ३. सामाचार्यां जे१ । 'सामाचार्य जे२ । ४. अथवा ग्रामादौ १ ॥ ५. 'मुपागता: पा० जे२ ॥ 25 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे निठुरमसाधुजुत्तं अन्नतरकहं च जो कहए ॥ स्त्रीभिः सहेति । सो आणा-अणवत्थं मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं । पावइ जम्हा तेणं एए उ पए विवज्जेज्जा ॥ इति, बीयपयमणप्पज्जे अपवादोऽनात्मवश इत्यर्थः गेलन्नुवसग्गरोहगद्धाणे । 5 संभमभयवासासु य खंतियमाइण निक्खमणे ॥ [निशीथभा० २३४६-४९] इति । अचेल: क्षिप्तचित्तत्वादिना, क्षिप्तचित्त: शोकेन, तत्प्रतिजागरका: साधवो न विद्यन्ते ततो निर्ग्रन्थिका: पुत्रादिकमिव तं सङ्गोपायन्तीति न ततोऽप्यसावाज्ञामतिक्रामति १, दृप्तचित्तो हर्षातिरेकात् २, यक्षाविष्टो देवाधिष्ठित: ३, उन्मादप्राप्तो वातादिक्षोभात् ४, निर्ग्रन्थिकया कारणवशात् पुत्रादिः प्रव्राजित:, स च बालत्वादचेलो महानपि वा 10 तथाविधवृद्धत्वादिनेति । अत्र चोत्सर्गापवादौ भाष्याभिहितावेवम् जे भिक्ख ऊ सचेले, ठाणनिसीयण तुयट्टणं वावि । चेएज सचेलाणं मज्झम्मि य आणमाईणि ॥ [निशीथभा० ३७७७] इय संदसणसंभासणेहिं भिन्नकहविरहजोगेहिं । दोषा भवन्तीति, तथा सिजातरादिपासण वोच्छेय दुदिट्ठधम्मत्ति ॥ [बृहत्कल्प० ३७१३] 15 तथा- संवरिए वि हु दोसा किं पुण एगतरणिगिण उभओ वा ।। दिट्ठमदिट्ठव्वं मे दिट्ठिपयारे भवे खोभो ॥ [निशीथभा० ३७८१] इत्युत्सर्गः, बीयपदमणप्पज्जे गेलनुवसग्गरोहगद्धाणे । समणाणं असईए समणीपव्वाविए चेव ॥ [निशीथभा० ३७७९] इति । [सू० ४१८] पंच आसवदारा पन्नत्ता, तजंहा- मिच्छत्तं, अविरती, पमादो, 20 कसाया, जोगा । पंच संवरदारा पन्नत्ता, तंजहा- सम्मत्तं, विरती, अपमादो, अकसातित्तमजोगित्तं। पंच दंडा पन्नत्ता, तंजहा- अट्ठादंडे, अणट्ठादंडे, हिंसादंडे, अकस्मादंडे, दिट्ठीविप्परियासितादंडे । [टी०] धर्मं नातिक्रामतीत्युक्तं तदतिक्रमश्चाश्रवरूप इति तद्द्वाराणि तस्यैव च 25 प्रतिपक्षत्वात् संवरद्वाराणि पुनराश्रवविशेषांश्च दण्ड-क्रियालक्षणाना परिज्ञासूत्रादाह १. वशे पा० जे२ ॥ २. अट्ठदंडे अणट्ठदंडे भां० ॥ ३. अकम्मा भां० विना ॥ ४. 'क्रम पा० जे२॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४१९] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ५४३ पंचेत्यादि सुगमम्, नवरम् आश्रवणं जीवतडागे कर्मजलस्य सङ्गलनमाश्रवः, कर्मबन्धनमित्यर्थः, तस्य द्वाराणीव द्वाराणि उपाया आश्रवद्वाराणीति । तथा संवरणं जीवतडागे कर्मजलस्य निरोध: संवरस्तस्य द्वाराणि उपाया: संवरद्वाराणि मिथ्यात्वादीनामाश्रवाणां क्रमेण विपर्यया: सम्यक्त्व-विरत्यप्रमादा-ऽकषायित्वाऽयोगित्वलक्षणा: प्रथमाध्ययनवद्वाच्या इति । दण्ड्यते आत्माऽन्यो वा प्राणी येन स दण्डः, तत्र त्रसानां स्थावराणां वा आत्मनः परस्य वोपकाराय हिंसाऽर्थदण्डः, विपर्ययादनर्थदण्डः हिंसितवान् हिनस्ति हिंसिष्यत्ययमित्यभिसन्धेर्य: सर्प-वैरिकादिवधः स हिंसादण्ड इति, अकस्माइंड त्ति मगधदेशे गोपालबालाबलादिप्रसिद्धोऽकस्मादिति शब्द: स इह प्राकृतेऽपि तथैव प्रयुक्त इति तत्रान्यवधार्थं प्रहारे मुक्तेऽन्यस्य वधोऽकस्माद्दण्ड इति, यो मित्रस्याप्यमित्रोऽयमिति 10 बुद्ध्या वधः स दृष्टिविपर्यासदण्ड इति । [सू० ४१९] मिच्छदिट्ठियाणं णेरइयाणं पंच किरिताओ पन्नत्ताओ, तंजहाआरंभिता १, पारिग्गहिता २, मातावत्तिता ३, अपच्चक्खाणकिरिया ४, मिच्छादंसणवत्तिता ५ । एवं सव्वेसिं निरंतरं जाव मिच्छदिट्ठिताणं वेमाणिताणं, नवरं विगलिंदिता मिच्छदिढि ण भण्णंति, सेसं तहेव । पंच किरियातो पन्नत्ताओ, तंजहा- कातिता, अधिकरणिता, पातोसिता, पारितावणिता, पाणातिवातकिरिया । णेरइयाणं पंच एवं चेव निरंतरं जाव वेमाणियाणं १ । पंच किरिताओ पन्नत्ताओ, तंजहा- आरंभिता जाव मिच्छादसणवत्तिता। णेरइयाणं पंच किरिता[ओ एवं चेव निरंतरं जाव वेमाणियाणं २। 20 पंच किरियातो पन्नत्ताओ, तंजहा- दिट्ठिता, पुट्ठिता, पाडोच्चिता, सामंतोवणिवाइया, साहत्थिता । एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ३ । पंच किरियातो पन्नत्ताओ, तंजहा- णेसत्थिया, आणवणिया, वेयारणिया, अणाभोगवत्तिया, अणवकखवत्तिया । एवं जाव वेमाणियाणं ४ । ___पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- पेजवत्तिया, दोसवत्तिया, 25 १. सू० ९ ॥ 15 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ... आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पओगकिरिया, समुदाणकिरिया, इरियावहिया । एवं मणुस्साण वि, सेसाणं नत्थि ५ । [टी०] एते हि दण्डास्त्रयोदशानां क्रियास्थानानां मध्येऽधीता इति प्रसङ्गत: शेषाण्यष्टौ क्रियास्थानान्यभिधीयन्ते, तत्र मृषाक्रिया आत्म-ज्ञात्याद्यर्थं यदलीकभाषणम् १, तथा 5 अदत्तादानक्रिया आत्माद्यर्थमदत्तग्रहणम् २, तथा अध्यात्मक्रिया यत् केनापि कथञ्चनाप्यपरिभूतस्य दौर्मनस्यकरणम् ३, तथा मानक्रिया यज्जात्यादिमदमत्तस्य परेषां हीलनादिकरणम् ४, तथा अमित्रक्रिया यत् माता-पितृ-स्वजनादीनामल्पेऽप्यपराधे तीव्रदण्डस्य दहना-ऽङ्कन-ताडनादिकस्य करणम् ५, तथा मायाक्रिया यच्छठतया मनोवाक्कायप्रवर्तनम् ६, तथा लोभक्रिया यल्लोभाभिभूतस्य सावद्यारम्भ-परिग्रहेषु महत्सु 10 प्रवर्त्तनम् ७, तर्यापथिकक्रिया यदुपशान्तमोहादेरेकविधकर्मबन्धनमिति ८, अत्र गाथाअट्ठा १ णट्ठा २ हिंसा ३ ऽकम्हा ४ दिट्ठी य ५ मोस ६ ऽदिन्ने य ७ ।। अज्झत्थ ८ माण ९ मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया १३ ॥ [आव० सं०] इति, नवरं विगलिंदियेत्यादि एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टिविशेषणं न वाच्यम्, 15 तेषां सदैव सम्यक्त्वाभावेन व्यवच्छेद्याभावात्, सासादनस्य चाल्पत्वेनाविवक्षितत्वादिति। कायिकी कायचेष्टा १, आधिकरणिकी खड्गादिनिर्वर्तनी २, प्राद्वेषिकी मत्सरजन्या ३, पारितापनिकी दु:खोत्पादनरूपा ४, प्राणातिपात: प्रतीत: ५ । दिट्ठिया अश्वादिचित्रकर्मादिदर्शनार्थं गमनरूपा १, पुट्ठिया जीवादीन् रागादिना पृच्छतः स्पृशतो वा २, पाडुच्चिया जीवादीन् प्रतीत्य या ३, सामंतोवणिवाइया 20 अश्वादि-रथादिकं लोके श्लाघयति हृष्यतो अश्वादिपतेरिति ४, साहत्थिया स्वहस्तगृहीतजीवादिना जीवं मारयत: ५। नेसत्थिया यन्त्रादिना जीवाजीवान् निसृजत: १, आणवणिया जीवाजीवानानाययत: २, वियारणिया तानेव विदारयत: ३, अणाभोगवत्तिया अनाभोगेन पात्राद्याददतो निक्षिपतो वा ४, अणवकंखवत्तिया इह-परलोकापायानपेक्षस्येति ५ । । 25 पेज्जवत्तिया रागप्रत्यया १, दोसवत्तिया द्वेषप्रत्यया २, प्रयोगक्रिया १. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थाध्ययने 'तेरसहिं किरियाठाणेहिं' इत्यस्य हारिभत्र्यां वृत्तौ निर्दिष्टायां सङ्ग्रहण्यां गाथा।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४२०-४२१] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । कायादिव्यापारा: ३, समुदानक्रिया कर्मोपादानम् ४, ईरियावहिया योगप्रत्ययो बन्ध: ५ । इदं च प्रेमादिक्रियापञ्चकं सामान्यपदे, चतुर्विंशतिदण्डके तु मनुष्यपद एव सम्भवति, ईर्यापथक्रियाया उपशान्तमोहादित्रयस्यैव भावादित्याह एवमित्यादि । इहैकेन्द्रियादीनामविशेषेण क्रियोक्ता, सा च पूर्वभवापेक्षया सर्वापि सम्भवतीति भावनीयम्, द्विस्थानके द्वित्वेन क्रियाप्रकरणमुक्तमिह तु पञ्चकत्वेन नारकादिचतुर्विंशतिदण्डकाश्रयेण 5 चेति विशेष:, क्रियाणां च विस्तरव्याख्यानं द्विस्थानकप्रथमोद्देशकाद् वाच्यमिति । [सू० ४२०] पंचविधा परिन्ना पन्नत्ता, तंजहा- उवहिपरिन्ना, उवस्सयपरिन्ना, कसायपरिन्ना, जोगपरिन्ना, भत्तपाणपरिना । [टी०] अनन्तरं कर्मणो बन्धनिबन्धनभूता: क्रिया उक्ताः, अधुना तस्यैव निर्जरोपायभूतां परिज्ञामाह-पंचविहेत्यादि सुगमम्, नवरं परिज्ञानं परिज्ञा वस्तुस्वरूपस्य 10 ज्ञानं तत्पूर्वकं प्रत्याख्यानं च, इयं च द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतोऽनुपयुक्तस्य भावतस्तूपयुक्तस्येति, आह च– भावपरिन्ना जाणण पच्चक्खाणं च भावेणं [आचाराङ्गनि० ३७] ति, तत्रोपधी रजोहरणादिः, तस्यातिरिक्तस्याशुद्धस्य सर्वस्य वा परिज्ञा उपधिपरिज्ञा, एवं शेषपदान्यपि, नवरमुपाश्रीयते सेव्यते संयमात्मपालनायेत्युपाश्रयः । [सू० ४२१] पंचविधे ववहारे पन्नत्ते, तंजहा- आगमे, सुते, आणा, 15 धारणा, जीते। जहा से तत्थ आगमे सिता आगमेणं ववहारं पट्टवेजा १, णो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुते सिता सुतेणं ववहारं पट्ठवेज्जा २, णो से तत्थ सुते सिता एवं जाव जधा से तत्थ जीते सिता जीतेणं. ववहारं पट्टवेज्जा ५, इच्चेतेहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेज्जा, तंजहा- आगमेणं जाव जीतेणं। जधा जधा से तत्थ आगमे जाव जीते तहा तहा ववहारं 20 पट्टवेज्जा। से किमाह भंते ? आगमबलिया समणा निग्गंथा। इच्चेतं पंचविधं ववहारं जता जता जहिं जहिं तता तता तहिं तहिं अणिस्सितोवस्सितं सम्म ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाते आराधते भवति । [टी०] परिज्ञा च व्यवहारवतां भवतीति व्यवहारं प्ररूपयन्नाह-पंचेत्यादि, व्यवहरणं १. इयं च जे१ खं० मध्ये नास्ति ॥ २. हरणं व्यवहारो मुमु जे१ खं० ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे व्यवहारः, व्यवहारो मुमुक्षुप्रवृत्ति - निवृत्तिरूप:, इह तु तन्निबन्धनत्वात् ज्ञानविशेषोऽपि व्यवहार:, तत्र आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः केवल- मनःपर्यायाऽवधि-पूर्वचतुर्द्दशक-दशक - नवकरूपः १, तथा शेषं श्रुतम् आचारप्रकल्पादि श्रुतम्, नवादिपूर्वाणां श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेशः केवलवदिति 5 २, यदगीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातिचारालोचनमितरस्यापि तथैव शुद्धिदानं साऽऽज्ञा ३, गीतार्थसंविग्न द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धि: कृता तामवधार्य यदन्यस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुङ्क्ते सा धारणा, वैयावृत्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणोऽशेषानुचितस्योचितप्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां धरणं धारणेति ४, तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव - पुरुषप्रतिषेवानुवृत्त्या संहनन - धृत्यादिपरिहाणिमपेक्ष्य यत् 10 प्रायश्चित्तदानं यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्त्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्त्तितस्तज्जीतमिति, अत्र गाथा: 15 20 25 ५४६ आगमसुयववहारो सुणह जहा धीरपुरिसपन्नत्तो । पच्चक्खो य परोक्खो सो वि अ दुविहो मुणेयव्वो ॥ पच्चक्खो वि य दुविहो इंदियजो चेव नो य इंदियओ । इंदिपच्चक्खो वय पंचसु विसएसु नेयव्वो ॥ नोइंदियपच्चक्खो ववहारो सो समासओ तिविहो । ओह-मपजवे या केवलनाणे य पच्चक्खो ॥ [ व्यव० भा० ४०२९-३१] पच्चक्खागमसरिसो होइ परोक्खो वि आगमो जस्स । चंदही व उसो विहु आगमववहारवं होइ ॥ [ व्यव० भा० ४०३५ ] पारोक्खं ववहारं आगमओ सुयहरा ववहरंति । चोदस-दसव्वधरा नवपुव्विग गंधहत्थी य ॥ [ व्यव० भा० ४०३७] जहमोल्लं रयणं तं जाणइ रयणवाणिओ निउणं । ३ इय जाणड़ पच्चक्खी जो सुज्झइ जेण दिनेणं ॥ [ व्यव० भा० ४०४३] १। कप्परस य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमनिउणस्स जो अत्थओ वियाणइ सो ववहारी अणुन्नाओ || १. मुणह खं० ॥ २. केवलि जे१,२ ॥ ३. 'थोवं तु महल्लस्स वि कासति अप्पस्स वि बहुं तु ।' इति व्यवहारभाष्ये उत्तरार्धम् ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४२१] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ५४७ तं चेवऽणुसजते अनुसरन् ववहारविहिं पउंजइ जहुत्तं । एसो सुयववहारो पन्नत्तो वीअरागेहिं ॥ [व्यव० भा० ४४३५-३६] २॥ अपरक्कमो तवस्सी गंतुं जो सोहिकारगसमीवे । न चएई आगंतुं सो सोहिकरो वि देसाओ ॥ अह पट्टवेइ सीसं देसंतरगमणनट्ठचेट्ठाओ । इच्छामऽजो ! काउं सोहिं तुब्भं सगासम्मि ॥ [व्यव० भा० ४४४०-४१] सो ववहारविहिन्नू अणुमजित्ता सुओवएसेणं । सीसस्स देइ आणं तस्स इमं देह पच्छित्तं ॥ [व्यव० भा० ४४८९] गूढपदैरुपदिशतीति ३। जेणऽन्नइया दिटुं सोहीकरणं परस्स कीरंतं । तारिसयं चेव पुणो उप्पन्नं कारणं तस्स ॥ [व्यव० भा० ४५१५] 10 सो तम्मि चेव दव्वे खेत्ते काले य कारणे पुरिसे । तारिसयं चेव पुणो करिंतु आराहओ होइ ॥ वेयावच्चकरो वा सीसो वा देसहिंडओ वा वि । देसं अवधारेंतो चउत्थओ होइ ववहारो ॥ [व्यव० भा० ४५१७-१८] त्ति ४ । बहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तो नो निवारिओ होइ । वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कयं हवइ एयं ॥ [व्यव० भा० ४५४२] तथाजं जस्स उ पच्छित्तं आयरिअपरंपराए अविरुद्धं । जोगा य बहुविहीया एसो खलु जीयकप्पो उ ॥ [व्यव० भा० १२] इति ५ । जीतम् आचरितम्, इदं चास्य लक्षणम् - असढेण समाइन्नं जं कत्थइ केणई असावजं । न निवारियमन्नेहिं बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ [बृहत्कल्प० ४४९९] इति । आगमादीनां व्यापारणे उत्सर्गा-ऽपवादावाह- यथेति यत्प्रकार: केवलादीनामन्यतमः से तस्य व्यवहर्तुः स वा उक्तलक्षणः, तत्र तेषु पञ्चसु व्यवहारेषु मध्ये तस्मिन् वा प्रायश्चित्तदानादिव्यवहारकाले व्यवहर्त्तव्ये वा वस्तुनि विषये आगम: केवलादि: स्याद् 25 भवेत्, तादृशेनेति शेष:, आगमेन व्यवहारं प्रायश्चित्तदानादिकं प्रस्थापयेत् प्रवर्तयेत्, १. 'दुम्मेहत्ता न तरति अवधारेउं बहुं जो तु' इति व्यवहारभाष्ये उत्तरार्धम् ॥ २. यथाप्रकार: जे१ खं० ।। 15 20 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे न शेषैः, आगमेऽपि षड्विधे केवलेनावन्ध्यबोधत्वात् तस्य, एतदभावे च मन:पर्यायेण, एवं प्रधानतराभावे इतरेणेति, अथ नो नैव से तस्य स वा तत्र व्यवहर्त्तव्यादावागम: स्यात् यथा यत्प्रकारं तत्र श्रुतं स्यात् तादृशेन श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेदिति । इच्चेएहिं इत्यादि निगमनं सामान्येनेति, यथा यथाऽसौ तत्रागमादि स्यात्तथा तथा 5 व्यवहारं प्रस्थापयेदिति तु विशेषनिगमनम् इति । एतैर्व्यवहर्तुः प्रश्नद्वारेण फलमाहसे किमित्यादि, अथ किं हे भदन्त ! भट्टारक ! आहुः प्रतिपादयन्ति, के ? आगमबलिका उक्तज्ञानविशेषबलवन्त: श्रमणा निर्ग्रन्था: केवलिप्रभृतयः, इच्चेयं ति इत्येतद्वक्ष्यमाणम्, अथवा किं तदित्याह– इत्येतम्, इति उक्तरूपम् एतं प्रत्यक्षम्, कम्, पञ्चविधं व्यवहारं प्रायश्चित्तदानादिरूपं सम्मं ववहरमाणे त्ति सम्बध्यते व्यवहरन् 10 प्रवर्त्तयन्नित्यर्थः कथम् ? सम्मं ति सम्यक्, तदेव कथमित्याह- यदा यदा यस्मिन् यस्मिन्नवसरे यत्र यत्र प्रयोजने क्षेत्रे वा, यो य: उचितस्तमिति शेष: तदा तदा काले तस्मिंस्तस्मिन् प्रयोजनादौ, कथंभूतमित्याह- अनिश्रितैः सर्वाशंसारहितैरुपाश्रितः अङ्गीकृतोऽनिश्रितोपाश्रितस्तम्, अथवा निश्रितश्च शिष्यत्वादि प्रतिपन्न: उपाश्रितश्च · स एव वैयावृत्यकरत्वादिना प्रत्यासन्नतरस्तौ, अथवा निश्रितं च राग: उपाश्रितं च 15 द्वेषस्ते, अथवा निश्रितं च आहारादिलिप्सा उपाश्रितं च शिष्य-प्रतीच्छक-कुलाद्यपेक्षा, ते न स्तो यत्र तत्तथेति क्रियाविशेषणम्, सर्वथा पक्षपातवर्जितत्वेन यथावदित्यर्थः, इह पूज्यव्याख्या रागो उ होइ निस्सा उवस्सिओ दोससंजुत्तो ॥ अहवण आहाराई दाही मज्झं तु एस निस्सा उ। 20 सीसो पडिच्छओ वा होइ उवस्सा कुलाईया ॥ [ ] इति, आज्ञाया जिनोपदेशस्याराधको भवतीति हन्त आहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति । [सू० ४२२] संजतमणुस्साणं सुत्ताणं पंच जागरा पन्नत्ता, तंजहा- सद्दा जाव फासा १॥ १. "रकाहुः पा० । 'रका आहुः जे२ ॥ २. किं तदित्याह जेसं१,२ खं० मध्ये एव वर्तते, पा० जेमू१ मध्ये नास्ति॥ ३. इत्येवमुक्तरूपं जेमू१ ॥ इत्येतमुक्तरूपं जेसं१ ॥ ४. हार जे१, २ खं० ॥ ५. संसा जे१ खं० ॥ ६. इह पूर्वव्याख्या खं०। इह च पूज्यव्याख्या जेमू१, इह च पूर्वव्याख्या जेसं१॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४२२-४२५] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । संजतमणुस्साणं जागराणं पंच सुत्ता पन्नत्ता, तंजहा - सद्दा जाव फासा २ । असंजयमणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा पंच जागरा पन्नत्ता, तंजासद्दा जाव फासा । [टी०] श्रमणप्रस्तावात् तद्व्यतिकरमेव सूत्रद्वयेनाह - संजयेत्यादि व्यक्तम्, नवरं संयतमनुष्याणां साधूनां सुप्तानां निद्रावतां जाग्रतीति जागरा: अंसुप्ता जागरा इव 5 जागराः, इयमत्र भावना - शब्दादयो हि सुप्तानां संयतानां जाग्रद्वह्निवदप्रतिहतशक्तयो भवन्ति, कर्म्मबन्धाभावकारणस्याप्रमादस्य तदानीं तेषामभावात्, कर्म्मबन्धकारणं भवन्तीत्यर्थः । द्वितीयसूत्रभावना तु जागराणां शब्दादयः सुप्ता इव सुप्ता: भस्मच्छन्नाग्निवत् प्रतिहतशक्तयो भवन्ति, कर्म्मबन्धकारणस्य प्रमादस्य तदानीं तेषामभावात्, कर्म्मबन्धकारणं न भवन्तीत्यर्थः । संयतविपरीता ह्यसंयता इति तानधिकृत्याह- 10 असंजयेत्यादि व्यक्तम्, नवरमसंयतानां प्रमादितया अवस्थाद्वयेऽपि कर्म्मबन्धकारणता अप्रतिहतशक्तित्वाच्छब्दादयो जागरा इव जागरा भवन्तीति भावना । [सू० ४२३] पंचहिं ठाणेहिं जीवा रतं आदियंति, तंजहा- पाणातिवातेणं जाव परिग्गणं १ ५४९ पंचहिं ठाणेहिं जीवा रतं वमंति, तंजहा- पाणातिवातवेरमणेणं जाव 15 परिग्गहवेरमणेणं २। [टी०] संयतासंयताधिकारात् तद्व्यतिकराभिधायि सूत्रद्वयं सुगमम्, नवरं जीव ति असंयतजीवाः रयं ति जीवस्वरूपोपरञ्जनाद्रज इव रजः कर्म्म आइयंति त्ति आद गृह्णन्ति बध्नन्तीत्यर्थः, जीव त्ति संयतजीवा: वमंति त्ति त्यजन्ति क्षपयन्तीत्यर्थः । [सू० ४२४] पंचमासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पंति 20 पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तते, पंच पाणगस्स । [सू० ४२५] पंचविधे उवघाते पन्नत्ते, तंजहा- उग्गमोवघाते, उप्पायणोवघाते, एसणोवघाते, परिकम्मोवघाते, परिहरणोवघाते । पंचविधा विसोधी पन्नत्ता, तंजहा- उग्गमविसोधी, उप्पायणविसोधी, एसणाविसोधी, परिकम्मणविसोधी, परिहरणाविसोधी । १. असुप्ता इव जे२ । २. जे खं० ॥ जं० जे१ ॥ ३. 'कम्मणा क०भां०पा०ला० ॥ ४. 'हरणवि भां० विना ।। 25 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] संयताधिकारादेवापरं सूत्रद्वयं पंचमासिएत्यादि व्यक्तम्, नवरम् उपघात: अशुद्धता, उद्गमोपघातः उद्गमदोषैराधाकर्मादिभिः षोडशप्रकारैर्भक्त- पानो-पकरणाऽऽलयानामशुद्धता, एवं सर्वत्र, नवरम् उत्पादनया उत्पादनादोषैः षोडशभिः धात्र्यादिभिः, एषणया तद्दोषैर्दशभिः शङ्कितादिभिरिति, परिकर्म्म वस्त्रपात्रादेः छेदन - सीवनादि, तेन 5 तस्योपघातः अकल्प्यता, तत्र वस्त्रस्य परिकर्म्मोपघाता यथा ५५० तिहपरि फालियाणं वत्थं जो फालियं तु संसीवे । पंचण्हं एगतरं ऊर्णिकाद्यन्यतरत् सो पावड़ आणमाईणि ।। [ निशीथभा० ७८७ ] । तथा पात्रस्यअवलक्खणेगबंधे दुगतिगअइरेगबंधणं वा वि । जो पायं परियइ परिभुङ्क्ते परं दिवड्ढाओ मासाओ || [ निशीथभा० ७५०] 10 स आज्ञादीनाप्नोतीति । तथा वसते: 25 दूमिय धूमिय वासिय उज्जोइय बलिकडा अवत्ताय । सित्ता संमट्ठा वि य विसोहिकोडिं गया वसही ॥ [ निशीथभा० २०४८ ] इति दूमिता धवलिता, बलिकृता कूरादिना, अव्यक्ता छगणादिना लिप्ता, संमृष्टा सम्मार्जितेत्यर्थः। तथा परिहरणा आसेवा तयोपध्यादेरकल्प्यता, तत्रोपधेर्यथा एकाकिन 15 हिण्डकसाधुना यदासेवितमुपकरणं तदुपहतं भवतीति समयव्यवस्था, जग्गण अप्पडिबज्झण जइ वि चिरेणं न उवहम्मे [ ] इति वचनाद्, अस्य चायमर्थ:- एकाकी गच्छभ्रष्टो यदि जागर्त्ति दुग्धादिषु च न प्रतिबध्यते तदा यद्यप्यसौ गच्छे चिरेणागच्छति तथाप्युपधिर्नोपहन्यते अन्यथा तूपहन्यत इति । वसतेरपि मास-चतुर्मासयोरुपरि कालातिक्रान्तेति तथा मासद्वयं चतुर्मासद्वयं चावर्जयित्वा पुनस्तत्रैव वसतामुपस्थानेति 20 च तद्दोषाभिधानात् उक्तं च उउवासा समतीता कालातीता उ सा भवे सेज्जा । सा चेव उवट्ठाणा दुगुणा दुगुणं अवजित्ता ॥ [ बृहत्कल्प ० ५९५ ] इति तथा भक्तस्यापि पारिष्ठापनिकाकारं प्रत्यकल्प्यता, तदुक्तम् विहिगहियं विहिभुत्तं अइरेगं भत्तपाण भोत्तव्वं । विहिगहिए विहिभुत्ते एत्थ य चउरो भवे भंगा | [ ओघनि० ५९२] १. बृहत्कल्पभाष्ये ५८४, पञ्चवस्तु० ७०९ ॥ २. न च प्रति जे१ खं० ॥ ३. वसतिरपि पासं० ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४२६] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ५५१ अहवा वि य विहिगहियं विहिभुत्तं तं गुरूहऽणुन्नायं । सेसा नाणुन्नाया गहणे दिने व निजुहणा ॥ [ ] इति । उद्गमादिभिरेव भक्तादीनां कल्प्यता: विशुद्धय इति । [सू० ४२६] पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोधियत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहाअरहंताणं अवन्नं वदमाणे, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवनं वदमाणे, 5 आयरियउवज्झायाणं अवनं वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवनं वयमाणे विवक्कतवबंभचेराणं देवाणं अवनं वदमाणे । पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभबोधियत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा- अरहंताणं वन्नं वदमाणे जाव विवक्कतवबंभचेराणं देवाणं वनं वदमाणे २॥ [टी०] उपघात-विशुद्धिवृत्तयश्च जीवा निर्द्धर्म-धार्मिकत्वाभ्यां बोधेरलाभ- 10 लाभस्थानेषु वर्तन्त इति तत्प्रतिपादनाय सूत्रद्वयम्- पंचहीत्यादि सुगमम्, नवरं दुर्लभा बोधि: जिनधर्मो यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता, तया दुर्लभबोधिकतया तस्यै वा कर्म मोहनीयादि प्रकुर्वन्ति बध्नन्ति, अर्हतामवर्णम् अश्लाघां वदन्, यथानत्थी अरहंतत्ती जाणं वा कीस भुंजए भोए ?। पाहुडियं तुवजीवइ समवसरणादिरूपाम् एमाइ जिणाण उ अवन्नो ॥ [ ] 15 न च ते नाभूवन तत्प्रणीतप्रवचनोपलब्धेः, नापि भोगानुभवनादिर्दोषः, अवश्यवेद्यसातस्य तीर्थकरनामादिकर्मणश्च निर्जरणोपायत्वात् तस्य, तथा वीतरागत्वेन समवसरणादिषु प्रतिबन्धाभावादिति । तथा अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रुत-चारित्ररूपस्य प्राकृतभाषानिबद्धमेतत्, तथा किं चारित्रेण ? दानमेव श्रेय इत्यादिकमवण वदन्, उत्तरं चात्र प्राकृतभाषात्वं श्रुतस्य न दुष्टं बालादीनां सुखाध्येयत्वेनोपकारित्वात्, तथा चारित्रमेव 20 श्रेयो निर्वाणस्यानन्तरहेतुत्वादिति । आचार्योपाध्यायानामवर्णं वदन् यथा बालोऽयमित्यादि, न च बालत्वादिर्दोषो बुद्ध्यादिभिर्वृद्धत्वादिति । तथा चत्वारो वर्णाः प्रकाराः श्रमणादयो यस्मिन् स तथा, स एव स्वार्थिकाण्विधानाच्चातुर्वर्णस्तस्य सङ्घस्यावर्णं वदन्, यथा कोऽयं सङ्घो य: समवायबलेन पशुसङ्घ इवामार्गमपि १. प्रवर्तन्ते खं० पा० जे२ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ५५२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मार्गीकरोतीति, न चैतत् साधु, ज्ञानादिगुणसमुदायात्मकत्वात् तस्य, तेन च मार्गस्यैव मार्गीकरणादिति, तथा विपक्वं सुपरिनिष्ठितं प्रकर्षपर्यन्तमुपगतमित्यर्थः, तपश्च ब्रह्मचर्य च भवान्तरे येषां विपक्वं वा उदयागतं तपोब्रह्मचर्यं तद्धेतुकं देवायुष्कादि कर्म येषां ते तथा, तेषामवर्णं वदन् न सन्त्येव देवा: कदाचनाप्यनुपलभ्यमानत्वात् किं वा 5 तैर्विटैरिव कामासक्तमनोभिरविरतैस्तथा निर्निमेषैरचेष्टैश्च म्रियमाणैरिव प्रवचनकार्यानुपयोगिभिश्चेत्यादिकम् ?, इहोत्तरम्- सन्ति देवा: तत्कृतानुग्रहोपघातादिदर्शनात्, कामासक्तता च मोहसातकर्मोदयादित्यादि, अभिहितं च एत्थ पसिद्धी मोहणीयसायवेयणियकम्मउदयाओ । कामपवत्ता विरई कम्मोदयओ चिय न तेसिं ॥ अणिमिस देवसहावा निच्चेट्ठाऽणुत्तरा उ कयकिच्चा । कालणुभावा तित्थुन्नई पि अन्नत्थ कुव्वंति ॥ [ ] त्ति । तथा अर्हतां वर्णवादो यथाजियरागदोसमोहा सव्वन्नू तियसनाहकयपूया । अच्वंतसच्चवयणा सिवगइगमणा जयंति जिणा ॥ [ ] इति । अर्हत्प्रणीतधर्मवर्णो यथावत्थुपयासणसूरो अइसयरयणाण सायरो जयइ । सव्वजयजीवबंधुरबंधू दुविहो वि जिणधम्मो ॥ [ आचार्यवर्णवादो यथातेसि नमो तेसि नमो भावेण पुणो वि तेसि चेव नमो । अणुवकयपरहियरया जे नाणं देंति भव्वाणं ॥ [पञ्चव० १६००] चतुर्वर्णश्रमणसङ्घवर्णो यथाएयम्मि पूइयम्मी नत्थि तयं जं न पूइयं होइ । भुवणे वि पूयणिज्जो न गुणी संघाओ जं अन्नो ॥ [ ] देववर्णवादो यथा25 देवाण अहो सीलं विसयविसमोहिया वि जिणभवणे । अच्छरसाहिं पि समं हासाई जेण न करेंति ॥ [ ] इति । १. रतैर्निनिमेषै जे१ ॥ २. यंमि पा० जे२ ॥ 15 20 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४२७-४२८] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ५५३ [सू० ४२७] पंच पडिसंलीणा पन्नत्ता, तंजहा- सोतिंदियपडिसंलीणे जाव फासिंदियपडिसंलीणे । पंच अप्पडिसंलीणा पत्नत्ता, तंजहा- सोतिंदियअप्पडिसंलीणे जाव फासिंदियअप्पडिसंलीणे ।। पंचविधे संवरे पन्नत्ते, तंजहा- सोतिंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे । 5 पंचविधे असंवरे पन्नत्ते, तंजहा- सोतिंदियअसंवरे जाव फासिंदियअसंवरे। [टी०] संयतासंयतव्यतिकरमेव पंच पडिसंलीणेत्यादिना आरोपणासूत्रपर्यन्तेन ग्रन्थेनाह, गतार्थश्चायम्, नवरं श्रोत्रेन्द्रियादिक्रमो यथाप्राधान्यातू, प्राधान्यं च क्षयोपशमबहुत्वकृतम् । तथा प्रतिसंलीनेतरसूत्रयो: पुरुषो धर्मी उक्तः, संवरेतरसूत्रयोस्तु धर्म एवेति । 10 [सू० ४२८] पंचविधे संजमे पन्नत्ते, तंजहा- सामातितसंजमे, छेदोवट्ठावणियसंजमे, परिहारविसुद्धितसंजमे, सुहुमसंपरायसंजमे, अहक्खायसंजमे । [टी०] तथा संयमनं संयमः पापोपरम इत्यर्थः । तत्र समो रागादिरहितः, तस्य अयो गमनं प्रवृत्तिरित्यर्थ: समायः, समाय एव समाये भवं समायेन निर्वत्तं समायस्य विकारोंऽशो वा समायो वा प्रयोजनमस्येति सामायिकम्, उक्तं च रागद्दोसविरहिओ समो त्ति अयणं अउ त्ति गमणं ति । समगमणं ति समाओ स एव सामाइयं नाम ॥ अहवा भवं समाए निव्वत्तं तेण तम्मयं वा वि । जं तप्पओयणं वा तेण व सामाइयं नेयं ॥ [विशेषाव० ३४७७-७८] ति, अथवा समानि ज्ञानादीनि, तेषु तैर्वा अयनमय: समाय:, स एव सामायिकमिति, 20 अवादि चअहवा समाइं सम्मत्तनाण-चरणाई तेसु तेहिं वा । अयणं अओ समाओ स एव सामाइयं नाम ॥ [विशेषाव० ३४७९] त्ति, अथवा समस्य रागादिरहितस्याऽऽयो गुणानां लाभ: समानां वा ज्ञानादीनामाय: समायः, स एव सामायिकम्, अभाणि च१. °पणसू जे१ खं० । सू० ४३३ ॥ २. सूत्रद्वयोस्तु जे१ ॥ ३. सामाए खं० जेसं१ ॥ ४. नामं ति जे१॥ 15 25 -A-20 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अहवा समस्स आओ गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो । अहवा समाणमाओ णेओ सामाइयं नाम ॥ [विशेषाव० ३४८०] त्ति, अथवा साम्नि मैत्र्यां साम्ना वा अयस्तस्य वा आय: सामाय:, स एव सामायिकम्, अभ्यधायि च5 अहवा सामं मेत्ती तत्थ अओ तेण व त्ति सामाओ। अहवा सामस्साओ लाभो पामाइयं नाम ॥ [विशेषाव० ३४८१] त्ति, सावद्ययोगविरतिरूपं सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिकमेव, छेदादिविशेषैस्तु विशेष्यमाणमर्थत: शब्दतश्च नानात्वं भजते, तत्र प्रथमं विशेषणाभावात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति, तच्च द्विधा- इत्वरकालिकं यावजीविकं च, तत्रेत्वरकालिकं 10 सर्वेषु प्रथम-पश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितव्रतस्य यावज्जीविकं तु मध्यमविदेहतीर्थकरतीर्थेषु भवति, तेषूपस्थापनाऽभावादिति, सामायिकं च तत् संयमश्चेत्येवं सर्वत्र वाक्यं कार्यमिति, भवन्ति चात्र गाथा: सव्वमिणं सामाइयं छेदादिविसेसओ पुण विभिन्नं । अविसेसियमादिमयं ठियमिह सामन्नसन्नाए ॥ 15 सावज्जजोगविरइ त्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहं ति य पढमं पढमंतिमजिणाणं ॥ तित्थेसु अणारोवियवयस्स सेहस्स थोवकालीयं । सेसाणमावकहियं तित्थेसु विदेहयाणं च ॥ [विशेषाव० १२६२-६४] त्ति, तथा छेदश्च पूर्वपर्यायस्योपस्थापनं च व्रतेषु यत्र तच्छेदोपस्थापनम्, तदेव 20 छे दोपस्थापनिकम्, ते वा विद्येते यत्र तच्छे दोपस्थापनिकम्, अथवा पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थाप्यते आरोप्यते यन्महाव्रतलक्षणं चारित्रं तच्छेदोपस्थापनीयम्, तदपि द्विधा- अनतिचारं सातिचारं च, तत्रानतिचारं यदित्वरसामायिकस्य शिक्षकस्यारोप्यते पार्श्वनाथसाधोर्वा पञ्चयामधर्मप्रतिपत्तौ, सातिचारं तु यन्मूलप्रायश्चित्तप्राप्तस्येति, इहापि गाथे१. समाय: जे१ खं० ॥ २. नामं ति जे१ ॥ ३. विशि जेमू१ विना ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४२८] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । 10 परियायस्स उ छेओ जत्थोवट्ठावणं वएसुं च । छेओवट्ठावणमिह तमणइयारेतरं दुविहं ॥ सेहस्स निरइयारं तित्थंतरसंकमे व तं होजा । मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे ॥ [विशेषाव० १२६८-६९] प्रथम-पश्चिमतीर्थयोरित्यर्थः । तथा परिहरणं परिहारः तपोविशेषः, तेन विशुद्धं 5 परिहारो वा विशेषेण शुद्धो यस्मिंस्तत् परिहारविशुद्धम्, तदेव परिहारविशुद्धिकम्, परिहारेण वा विशुद्धिर्यस्मिंस्तत् परिहारविशुद्धिकम्, तच्च द्विधा- निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च, तत्र निर्विशमानकानां तदासेवकानां यत्तन्निर्विशमानकम्, यत्तु निर्विष्टकायिकानामासेवितविवक्षितचारित्रकायानां तन्निर्विष्टकायिकमिति, इहापि गाथे परिहारेण विसुद्धं सुद्धो य तवो जहिं विसेसेणं । तं परिहारविसुद्धं परिहारविसुद्धियं नाम ॥ तं दुविकप्पं निव्विस्समाणनिव्विट्ठकाइयवसेण । परिहारियाणुपरिहारियाण कप्पट्टियस्स वि य ॥ [विशेषाव० १२७०-७१] त्ति । इह च नवको गणो भवति, तत्र चत्वार: परिहारिका अपरे तु तद्वैयावृत्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारिका:, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः, एतेषां च 15 निर्विशमानकानामयं परिहार:- ग्रीष्मे जघन्यादीनि चतुर्थ-षष्ठा-ऽष्टमादीनि, शिशिरे षष्ठा-ऽष्टम-दशमानि, वर्षास्वष्टम-दशम-द्वादशानि, पारणके चायामम्, इतरेषां सर्वेषामायाममेव, एवमेते चत्वारः षण्मासान्, पुनरन्ये चत्वार: षडेव, पुनर्वाचनाचार्य: षडिति सर्व एवायमष्टादशमासिक: कल्प इति । तथा सूक्ष्मा: लोभकिट्टिकारूपा: सम्पराया: कषाया यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायम्, 20 तदपि द्विधा- विशुद्ध्यमानकं सक्लिश्यमानकं च, तत्राद्यं क्षपकोपशमश्रेणिद्वयं समारोहतः, सक्लिश्यमानकं तूपशमश्रेणित: प्रच्यवमानस्येति, अत्रोक्तम् कोधाइ संपराओ तेण जओ संपरीइ संसारं । तं सुहुमसंपरायं सुहुमो जत्थावसेसो से ॥ १. तीर्थकरयोरित्यर्थः जेसं१ ॥ २. तत्रो पा० ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सेढिं विलग्गओ तं विसुज्झमाणं तओ चयंतस्स । तह संकिलिस्समाणं परिणामवसेण विनेयं ॥ [विशेषाव० १२७७-७८] ति । अथशब्दो यथार्थः, यथैवाऽकषायतयेत्यर्थः, आख्यातम् अभिहितम् अथाख्यातम्, तदेव संयमोऽथाख्यातसंयम:, अयं च छद्मस्थस्योपशान्तमोहस्य 5 क्षीणमोहस्य च स्यात् केवलिन: सयोगस्यायोगस्य च स्यादिति, इहाभ्यधायि अहसदो जाहत्थो आङोऽभिविहीए कहियमक्खायं । चरणमकसायमुदियं तमहक्खायं अहक्खायं ॥ तं दुविकप्पं छउमत्थ-केवलिविहाणओ पुणेक्ोक्कं । खय-समज-सजोगाजोगि केवलिविहाणओ दुविहं ॥ [ विशेषाव० १२७९-८०] ति । 10 [सू० ४२९] एगिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कज्जति, तंजहा- पुढविकातितसंजमे जाव वणस्सतिकातितसंजमे । एगिदिया णं जीवा समारभमाणस्स पंचविहे असंजमे कजति, तंजहा- पुढविकातितअसंजमे जाव वणस्सतिकातितअसंजमे । [टी०] एगिदिया णं जीव त्ति एकेन्द्रियान् णमित्यलङ्कारे जीवान् असमारभमाणस्य 15 संघट्टादीनामविषयीकुर्वतः सप्तदशप्रकारस्य संयमस्य मध्ये पञ्चविधः संयमो व्युपरमोऽनाश्रवः क्रियते भवति, तद्यथा-पृथिवीकायिकेषु विषये संयमः सङ्घट्टाधुपरम: पृथिवीकायिकसंयमः, एवमन्यान्यपि पदानि, असंयमसूत्रं संयमसूत्रवद् विपर्ययेण व्याख्येयमिति । [सू० ४३०] पंचिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कजति, 20 तंजहा- सोतिंदितसंजमे जाव फासिंदितसंजमे । पंचिंदिया णं जीवा समारभमाणस्स पंचविधे असंजमे कजति, तंजहासोतिंदियअसंजमे जाव फासिंदियअसंजमे । सव्वपाण-भूय-जीव-सत्ता णं असमारभमाणस्स पंचविधे संजमे कजति, तंजहा- एगेदितसंजमे जाव पंचेंदितसंजमे । 25 सव्वपाण-भूत-जीव-सत्ता णं समारभमाणस्स पंचविधे असंजमे कजति, तंजहा- एगेंदितअसंजमे जाव पंचेदितअसंजमे । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५७ [सू० ४३१-४३३] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । [टी०] पंचेंदिया णमित्यादि, इह सप्तशप्रकारसंयमभेदस्य पञ्चेन्द्रियसंयमलक्षणस्येन्द्रियभेदेन भेदविवक्षणात् पञ्चविधत्वम्, तत्र पञ्चेन्द्रियानारम्भे श्रोत्रेन्द्रियस्य व्याघातपरिवर्जनं श्रोत्रेन्द्रियसंयमः, एवं चक्षुरिन्द्रियसंयमादयोऽपि वाच्या: । असंयमसूत्रमेतद्विपर्यासेन बोद्धव्यमिति । सव्वपाणेत्यादि, पूर्वमेकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियजीवाश्रयेण संयमा-ऽसंयमावुक्ताविह तु सर्वजीवाश्रयेणात एव सर्वग्रहणं 5 कृतमिति, प्राणादीनां चायं विशेष:प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता भूतास्तु तरव: स्मृताः । जीवा: पञ्चेन्द्रिया ज्ञेया: शेषाः सत्त्वा इतीरिता: ॥ [ ] इति । इह सप्तदशप्रकारसंयमस्याद्या नव भेदा: सगृहीता:, एकेन्द्रियसंयमग्रहणेन पृथिव्यादिसंयमपञ्चकस्य गृहीतत्वादिति, एतद्व्यत्ययेनासंयमसूत्रम् । 10 [सू० ४३१] पंचविधा तणवणस्सतिकातिता पन्नत्ता, तंजहा- अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंधबीया, बीयरुहा । [टी०] तणवणस्सइ ति तृणवनस्पतयो बादरा वनस्पतयोऽग्रबीजादय: क्रमेण कोरण्टका उत्पलकन्दा वंशाः शल्लक्यो वटा एवमादयः, व्याख्यातं चैतत् प्रागिति । [सू० ४३२] पंचविधे आयारे पन्नत्ते, तंजहा- णाणायारे, दंसणायारे, 15 चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे । [टी०] आचरणमाचारो ज्ञानादिविषयाऽऽसेवेत्यर्थः, ज्ञानाचारः कालादिरष्टधा, दर्शनं सम्यक्त्वम्, तदाचारो नि:शङ्कितादिरष्टधैव, चारित्राचारः समिति-गुप्तिभेदोऽष्टधा, तपआचारोऽनशनादिभेदो द्वादशधा, वीर्याचारो वीर्यागोपनमेतेष्वेवेति ।। [सू० ४३३] पंचविधे आयारपकप्पे पन्नत्ते, तंजहा- मासिते उग्घातिते, 20 मासिए अणुग्घातिए, चाउम्मासिए उग्घाइए, चाउम्मासिए अणुग्घातिते, आरोवणा। आरोवणा पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा- पट्टविया, ठविया, कसिणा, अकसिणा, हाडहडा । [टी०] आचारस्य प्रथमाङ्गस्य पदविभागसामाचारीलक्षणप्रकृष्टकल्पाभिधायकत्वात् 25 १. सू० २४४ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे प्रकल्प आचारप्रकल्प: निशीथाध्ययनम्, स पञ्चविधः पञ्चविधप्रायश्चित्ताभिधायकत्वात्, तथाहि- तत्र केषुचिदुद्देशकेषु लघुमासप्रायश्चित्तापत्तिरुच्यते १, केषुचिच्च गुरुमासापत्ति: २, एवं लघुचतुर्मास ३ गुरुचतुर्मासा ४ऽऽरोपणाश्चेति ५ । तत्र मासेन निष्पन्नं मासिकं तपः, तच्च उद्घातो भागपातो यत्रास्ति तदुद्घातिकं लघ्वित्यर्थः, 5 यत उक्तम् अद्धेण छिन्नसेसं पुव्वद्धेणं तु संजुयं काउं । देज्जाहि लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चेव ॥ [ ] त्ति ।। एतद्भावना मासिकतपोऽधिकृत्योपदर्श्यते- मासस्यार्द्धछिन्नस्य शेषं दिनानां पञ्चदशकं तत् मासापेक्षया च पूर्वस्य पञ्चविंशकस्याःन सार्धद्वादशकेन संयुतं कृतं सार्की 10 सप्तविंशतिर्भवतीति । आरोपणा तु चडावण त्ति भणियं होइ, यो हि यथाप्रतिषेवितमालोचयति तस्य प्रतिषेवानिष्पन्नमेव मासलघु-मासगुरुप्रभृतिकं दीयते, यस्तु न तथा तस्य तत्तावद्दीयते एव मायानिष्पन्नं चान्यदारोप्यते इत्यारोपणेति । आरोवण त्ति आरोपणोक्तस्वरूपा, तत्र पट्टविय त्ति बहुष्वारोपितेषु यन्मासगुर्वादिप्रायश्चित्तं प्रस्थापयति वोढुमारभते तदपेक्षयाऽसौ 15 प्रस्थापितेत्युक्ता १, ठविय त्ति यत् प्रायश्चित्तमापन्नस्तत्तस्य स्थापितं कृतम्, न वाहयितुमारब्धमित्यर्थः, आचार्यादिवैयावृत्यकरणार्थम्, तद्धि वहन्न शक्नोति वैयावृत्यं कर्तुम्, वैयावृत्यसमाप्तौ तु तत् करिष्यतीति स्थापितोच्यत इति २, कृत्स्ना पुनर्यत्र झोषो न क्रियते, झोषस्त्वयम्- इह तीर्थे षण्मासान्तमेव तपस्तत: षण्णां मासानामुपरि यान् मासानापन्नोऽपराधी तेषां क्षपणम् अनारोपणं प्रस्थे चतु:सेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव 20 झाटनमित्यर्थः, झोषाभावेन सा परिपूर्णेति कृत्स्नेत्युच्यत इति भाव: ३, अकृत्स्ना तु यस्यां षण्मासाधिकं झोष्यते, तस्या हि तदतिरिक्तझाटनेनापरिपूर्णत्वादिति ४, हाडहड त्ति यत् लघु-गुरुमासादिकमापन्नस्तत् सद्य एव यस्यां दीयते सा हाडहडोक्तेति ५ । एतत्स्वरूपं च विशेषतो निशीथविंशतितमोद्देशकादवगन्तव्यमिति ।। [सू० ४३४] जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीयाते महानदीते १. स च पंच पा० जे२ ॥ २. सू० २०३ टीका ॥ ३. छिन्नशेषं जे१ खं० ॥ ४. "विंशतिक पासं० जे२ ॥ ५. लघुगुरुप्र जे१ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४३४] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ५५९ उत्तरेणं पंच वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा- मालवंते, चित्तकूडे, पम्हकूडे, णलिणकूडे, एगसेले १॥ __ जंबुमंदरपुरस्थिमेणं सीताते महाणदीते दाहिणेणं पंच वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा- तिकूडे, वेसमणकूडे, अंजणे, मातंजणे, सोमणसे २ । जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीओताते महाणदीते दाहिणेणं पंच वक्खारपव्वता 5 पन्नत्ता, तंजहा- विज्जुप्पभे, अंकावती, पम्हावती, आसीविसे, सुहावहे ३॥ जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोताते महानदीते उत्तरेणं पंच वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा- चंदपव्वते, सूरपव्वते, णागपव्वते, देवपव्वते, गंधमादणे ४ । जंबुमंदरदाहिणेणं देवकुराए कुराए पंच महदहा पन्नत्ता, तंजहा- निसहदहे, देवकुरुदहे, सूरदहे, सुलसदहे, विजुप्पभदहे ५। 10 जंबुमंदरउत्तरेणं उत्तरकुराते कुराए पंच महदहा पन्नत्ता, तंजहा- नीलवंतदहे उत्तरकुरुदहे, चंददहे, एरावणदहे, मालवंतदहे ६ । सव्वे वि णं वक्खारपव्वया सीया-सीओयाओ महाणदीओ मंदरं वा पव्वतं तेणं पंच जोयणसताइं उर्दूउच्चत्तेणं पंच गाउयसताई उव्वेहेणं ७ । __ धायइसंडदीवपुरस्थिमद्धे णं मंदरस्स पव्वतस्स पुरत्थिमेणं सीताते महाणतीते 15 उत्तरेणं पंच वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा- मालवंते एवं जधा जंबुद्दीवे तधा जाव पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धे वक्खारा दहा य वक्खारपव्वयाणं उच्चत्तं भाणितव्वं । __ समयखेत्ते णं पंच भरहाई पंच एरवताइं, एवं जधा चउट्ठाणे बितीयउद्देसे तथा एत्थ वि भाणियव्वं जाव पंच मंदरा पंच मंदरचूलिताओ, णवरं उसुयारा 20 णत्थि । [टी०] अयं च संयतासंयतगतवस्तुविशेषाणां व्यतिकरो मनुष्यक्षेत्र एव भवतीति मनुष्यक्षेत्रवर्त्तिनो वस्तुविशेषान् जंबुद्दीवेत्यादिना उसुयारा नत्थि त्ति पर्यवसानेन ग्रन्थेनाह, कण्ठ्यश्चायम्, नवरं मालवतो गजदन्तकात् प्रदक्षिणया सूत्रचतुष्टयोक्ता विंशतिर्वक्षस्कारगिरयोऽवगन्तव्या इति, इह च देवकुरुषु निषधवर्षधरपर्वतादुत्तरेणाष्टौ योजनानां 25 १. सू० ८०-१०० ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे शतानि चतुस्त्रिंशदधिकानि योजनस्य चतुरश्च सप्तभागानतिक्रम्य शीतोदाया महानद्या: पूर्वापरकूलयोर्विचित्रकूट-चित्रकूटाभिधानौ योजनसहस्रोच्छ्रितौ मूले सहस्रायामविष्कम्भावुपरि पञ्चयोजनशतायाम-विष्कम्भौ प्रासादमण्डितौ स्वसमाननामदेवनिवासभूतौ पर्वतौ स्त:, ततस्ताभ्यामुत्तरतोऽनन्तरोदितान्तरः शीतोदामहानदीमध्यभागवर्ती 5 दक्षिणोत्तरतो योजनसहस्रमायत: पूर्वापरत: पञ्च योजनशतानि विस्तीर्ण: वेदिकावन खण्डद्वयपरिक्षिप्तो दशयोजनावगाहो नानामणिमयेन दशयोजननालेनाद्धयोजनबाहल्येन योजनविष्कम्भेनार्द्धयोजनविस्तीर्णया क्रोशोच्छ्रितया कर्णिकया युक्तेन निषधाभिधानदेवनिवासभूतभवनभासितमध्येन तदर्द्धप्रमाणाष्टोत्तरशतसङ्ख्यपद्यैस्तदन्येषां च सामानिकादिदेवनिवासभूतानां पद्मानामनेकलक्षैः समन्तात् परिवृतेन महापद्मन 10 विराजमानमध्यभागो निषधो महाहूदः, एवमन्येऽपि निषधसमानवक्तव्यता: स्वसमानाभिधानदेवनिवासा उक्तान्तरा: समवसेयाः, नवरं नीलवन्महाह्रदो विचित्रकूटचित्रकूटपर्वतसमवक्तव्यताभ्यां यमकाभिधानाभ्यां स्वसमाननामदेवावासाभ्यां पर्वताभ्यामनन्तरं द्रष्टव्यस्ततो दक्षिणत: शेषाश्चत्वार इति, एते च सर्वेऽपि प्रत्येकं दशभिर्दशभिः काञ्चनकाभिधानैः योजनशतोच्छ्रि तैर्यो जनशतमूलविष्कम्भैः 15 पञ्चाशद्योजनमानमस्तकविस्तारैः स्वसमाननामदेवाधिवासैः प्रत्येकं दशयोजनान्तरैः पूर्वापरव्यवस्थितैः गिरिभिरुपेता:, एतेषां च विचित्रकूटादिपर्वतह्रदनिवासिदेवानामसङ्ख्येयतमजम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसहस्रप्रमाणास्तन्नामिका नगर्यो भवन्तीति, सव्वे वि णमित्यादि, सर्वेऽपि जम्बूद्वीपादिसम्बन्धिन:, तेणं ति शीताशीतोदे महानद्यौ प्रति ते लक्षणीकृत्य, नदीदिशीत्यर्थः, मन्दरं वा मेरुं वा पर्वतं प्रति, तद्दिशीत्यर्थः, 20 तत्र मालवत्-सौमनस-विद्युत्प्रभ-गन्धमादना गजदन्ताकारपर्वता मेरुं प्रति यथोक्तस्वरूपा:, शेषास्तु वक्षारपर्वता महानद्यौ प्रतीति, इयं चानन्तरोदिता सप्तसूत्री धातकीखण्डस्य पुष्करार्द्धस्य च पूर्वापरार्द्धयोर्दृश्येत्यत एवोक्तम्- एवं जहा जंबू इत्यादि । समय: कालस्तद्विशिष्टं क्षेत्रं समयक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रं तस्यैवादित्यगतिसम१. °मध्यमभाग' जे१ ॥ २. शीतोदामहानद्यौ जे१ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४३५-४३७] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । ५६१ भिव्यङ्ग्यऋत्वयनादिकालयुक्तत्वात्, जाव पंच मंदर त्ति इह यावत्करणात् पञ्च हैमवतानि पञ्च हैरण्यवतानीत्यादि पञ्च शब्दापातिन इत्यादि चोपयुज्य सर्वं चतु:स्थानकद्वितीयोद्देशकानुसारेण वाच्यम्, नवरम् उसुयार त्ति चतु:स्थानके चत्वार इषुकारपर्वता उक्ता:, इह तु ते न वाच्या:, पञ्चस्थानकत्वादस्येति । [सू० ४३५] उसभे णं अरहा कोसलिए पंच धणुसताई उटुंउच्चत्तेणं होत्था 5 १ । भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी पंच धणुसयाई उठंउच्चत्तेणं होत्था २। बाहुबली णमणगारे एवं चेव ३, बंभी णमजा एवं चेव ४, एवं सुंदरी वि ५ । [टी०] अनन्तरं मनुष्यक्षेत्रे वस्तून्युक्तानीति तदधिकाराद् भरतक्षेत्रवर्त्तमानावसर्पिणीभूषणभूतमृषभजिनवस्तु तत्सम्बन्धादन्यानि च पञ्चस्थानकेऽवतारयन् 10 सूत्रपञ्चकमाह- उसभे णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं कोसलिए त्ति कोशलदेशोत्पन्नत्वात् कौशलिकः, भरतादयश्च ऋषभापत्यानि । [सू० ४३६] पंचहिं ठाणेहिं सुत्ते विबुज्झेजा, तंजहा- सद्देणं, फासेणं, भोयणपरिणामेणं, णिद्दक्खएणं, सुविणदंसणेणं । [टी०] बुद्धाश्चैते, बुद्धश्च भावतो मोहक्षयाद् द्रव्यतो निद्राक्षयादिति द्रव्यबोधं कारणत 15 उपदर्शयन्नाह- पंचहीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरमिह निद्राक्षयोऽनन्तरकारणं शब्दादयस्तु तत्कारणत्वेन कारणतयोक्ता:, भोजनपरिणामो बुभुक्षा । [सू० ४३७] पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति, तंजहा- निग्गंथिं च णं अन्नयरे पसुजातिए वा पक्खिजातिए वा ओहातेजा, तत्थ णिग्गंथे णिग्गंथिं गेण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा 20 नातिक्कमति १, णिग्गंथे णिग्गंथिं दग्गंसि वा विसमंसि वा पक्खलमाणिं वा पवडमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति २, णिग्गंथे णिग्गंथिं सेतंसि वा पणगंसि वा पंकसि वा उदगंसि वा उक्कसमाणिं वा उवुज्झमाणिं वा गेण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति ३, निग्गंथे निग्गंथिं नावं आरुहमाणे वा ओरुहमाणे वा णातिक्कमति ४, खेत्तइत्तं दित्तइत्तं 25 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जक्खाइ8 उम्मायपत्तं उवसग्गपत्तं साहिगरणं सपायच्छित्तं भत्तपाणपडियातिक्खियं अट्ठजायं वा निग्गंथे निग्गंथिं गेण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा णातिक्कमति ५ । [टी०] अनन्तरं द्रव्यप्रबुद्ध: कारणत उक्तः, अथ भावप्रबुद्धमनुष्ठानत आज्ञानतिक्रमिणं 5 दर्शयितुमाह- पंचहीत्यादि सुगमम्, नवरं गिण्हमाणे त्ति बाह्वादावङ्गे गृह्णन्, अवलम्बमान: पतन्तीं बाह्वादौ गृहीत्वा धारयन्, अथवा सव्वंगियं तु गहणं करेण अवलंबणं तु देसम्मि [बृहत्कल्प० ६१९२] त्ति नातिक्रामति स्वाचारमाज्ञां वा गीतार्थस्थविरो निर्ग्रन्थिकाऽभावे न यथाकथञ्चित्, पशुजातीयो दृप्तगवादिः, पक्षिजातीयो गृध्रादिः, ओहाएज त्ति उपहन्यात्, तत्रेति उपहनने गृह्णन्नातिक्रामति कारणिकत्वात्, निष्कारणत्वे 10 तु दोषा:, यदाह मिच्छत्तं उड्डाहो विराहणा फासभावसंबंधो । पडिगमणाई दोसा भुत्ताभुत्ते य नायव्वा ॥ [बृहत्कल्प० ६१७०] इत्येकम् । तथा दु:खेन गम्यत इति दुर्गः, स च त्रिधा- वृक्षदुर्ग: श्वापददुग्र्गो म्लेच्छादिमनुष्यदुर्गः, तत्र वा मार्गे, उक्तं च15 तिविहं च होइ दुग्गं रुक्खे सावयमणुस्सदुग्गं च । [बृहत्कल्प० ६१८३] त्ति । ___ तथा विषमे वा गर्तपाषाणाद्याकुले पर्वते वा प्रस्खलन्ती वा गत्या प्रपतन्ती वा भुवि, अथवा भूमीए असंपत्तं पत्तं वा हत्थजाणुगादीहिं । पक्खुलणं नायव्वं पवडण भूमीए गत्तेहिं ॥ [बृहत्कल्प० ६१८६] ति, 20 गृह्णन्नातिक्रामतीति द्वितीयम् । तथा पङ्कः पनको वा संजलो यत्र निमज्ज्यते स सेकस्तत्र वा, पङ्कः कर्दमस्तत्र वा, पनके वा आगन्तुकप्रतनुद्रवरूपे कर्दम एव ओल्यां वा, अपकसन्तीं पङ्क-पनकयोः परिह्रसन्तीम् अपोह्यमानां वा सेके उदके वा नीयमानां गृह्णन्नातिक्रामतीति, गाथे चेह पंको खलु चिक्खल्लो आगंतू पतणुओ द्रवो पणओ। 25 सो च्चिय सजलो सेओ सीइजइ जत्थ दुविहे वि ॥ त्ति । १. अथ जे१ खं० मध्ये नास्ति ॥ २. निशीथभा० ५९२० ॥ ३. सजलो वा यत्र जे१ ॥ ४. आगंतुं पा० ॥२॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ 5 [सू० ४३७] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । पंकपणएसु नियमा ओगसणं वुब्भणं सिया सेए । निमियम्मि निमज्जणया सजले सेए सिया दो वि॥ [बृहत्कल्प० ६१८८-८९] इति तृतीयम्। तथा नावम् आरुहमाणे त्ति आरोहयन् ओरुहमाणे त्ति अवरोहयन्नुत्तारयन्नित्यर्थो नातिक्रामतीति चतुर्थम् । तथा क्षिप्तं नष्टं राग-भया-ऽपमानैश्चित्तं यस्या: सा क्षिप्तचित्ता, तां वा, उक्तं चरागेण वा भएण वा अहवा अवमाणिया महंतेणं । एतेहिं खित्तचित्त [बृहत्कल्प० ६१९५] त्ति। तथा दृप्तं सन्मानात् दर्पवच्चित्तं यस्याः सा दृप्तचित्ता, तां वा, उक्तं चइति एस असम्माणा खित्तो सम्माणओ भवे दित्तो । अग्गी व इंधणेणं दिप्पड़ चित्तं इमेहिं तु ॥ लाभमएण व मत्तो अहवा जेऊण दुजयं सत्तुं । [बृहत्कल्प० ६२४२-४३] ति । 10 यक्षेण देवेन आविष्टा अधिष्ठिता यक्षाविष्टा, तां वा, अत्रोक्तम्पुव्वभववेरिएणं अहवा रागेण रागिया संती । एएहिं जक्खइट्ठ [बृहत्कल्प० ६२५८] त्ति। उन्मादम् उन्मत्ततां प्राप्ता उन्मादप्राप्ता, तां वा, अत्राप्युक्तम्उम्माओ खलु दुविहो जक्खाएसो य मोहणिजो य । जक्खाएसो वुत्तो मोहेण इमं तु वोच्छामि ॥ रूवंगं दलूणं उम्माओ अहव पित्तमुच्छाए । [बृहत्कल्प० ६२६३-६४] त्ति । उपसर्गम् उपद्रवं प्राप्ता उपसर्गप्राप्ता, तां वा, इहाप्युक्तम्तिविहे य उवस्सग्गे दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य । दिव्वे य पुव्वभणिए माणुस्से आभिओगे य ॥ विजाए मंतेण य चुन्नेण व जोइया अणप्पवसा । [बृहत्कल्प० ६२६९-७०] इति । 20 सहाधिकरणेन साधिकरणा युद्धार्थमुपस्थिता, तां वा, सह प्रायश्चित्तेन सप्रायश्चित्ता, तां वा, भावना चेह अहिगरणम्मि कयम्मि उ खामेउमुवट्टियाए पच्छित्तं । तप्पढमयाभएणं होइ किलंता व वहमाणी ॥ [बृहत्कल्प० ६२७९] तथा भक्तपाने आभवं प्रत्याख्याते यया सा भक्तपानप्रत्याख्याता, तां वा, गाथा- 25 15 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ५६४ 15 अट्ठोत्ति जीए कज्जं संजायं एस अट्ठजाया उ । तं पुण संजमभावा चालिज्जंतीं समवलंबे ॥ [ बृहत्कल्प० ६२८६ ] ति पञ्चममिति ॥ [सू० ४३८ ] आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच अतिसेसा पन्नत्ता, तंजहा - आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सगस्स पाए निगिज्झिय निगिज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा णातिक्कमति १, आयरियउवज्झाए अंतो 10 उवस्सगस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहमाणे वा णातिक्कमति २, आयरियउवज्झाए पभू इच्छा वेयावडियं करेज्जा इच्छा णो करेजा ३, आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सगस्स एगरायं वा दुरातं वा वसमाणे णाइक्कमइ ४, आयरियउवज्झाए बाहिं उवस्सगस्स एगरातं वा दुरातं वा वसमाणे णातिक्कमति ५। [टी०] अनन्तरं येषु स्थानेषु वर्त्तमानो निर्ग्रन्थो धर्मं नातिक्रामति तान्युक्तानि, अधुना तद्विशेष आचार्यो येष्वतिशयेषु वर्त्तमानस्तं नातिक्रामति तानाह - आयरित्यादि, आचार्यश्चासावुपाध्यायश्चेत्याचार्योपाध्यायः, स हि केषाञ्चिदर्थदायकत्वादाचार्योऽन्येषां सूत्रदायकत्वादुपाध्याय इति तस्य, आचार्योपाध्याययोर्वा, न शेषसाधूनाम्, गणे साधुसमुदाये वर्त्तमानस्य वर्त्तमानयोर्वा गणविषये वा शेषसाधुसमुदायापेक्षयेत्यर्थः 20 पञ्चातिशेषाः अतिशयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - आचार्योपाध्यायोऽन्तः मध्ये उपाश्रयस्य वसतेः पादौ निगृह्य निगृह्य पादधूलेरुद्धयमानाया निग्रहं वचनेन कारयित्वा यथाऽन्ये धूल्या न भ्रियन्ते तथेत्यर्थः, प्रस्फोटयन् वा आभिग्रहिकेनान्येन वा साधुना स्वकीयरजोहरणेन ऊर्णिकपादप्रोञ्छनेन वा प्रस्फोटनं कारयन्, झाटयन्नित्यर्थः, प्रमार्जयन् वा शनैर्लूषयन् नातिक्रामतीति, इह च भावार्थ इत्थमास्थितः - आचार्यः कुलादिकार्येण १. परिन्नीए जे१ खं० ॥ २. 'जतं यया जे१ विना ॥। ३. निगृह्य पाद खं० पा० ॥ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अट्ठ वा हेउ वा समणीणं विरहिए कहिंतस्स । १ मुच्छाए विवडियाए कप्पड़ गहणं परिन्नाए ॥ [ बृहत्कल्प ० ६२८२] इति । तथा अर्थ: कार्यमुत्प्रव्राजनतः स्वकीयपरिणेत्रादेर्जातो यया साऽर्थजाता पतिचौरादिना संयमाच्चाल्यमानेत्यर्थस्तां वा, इह गाथा Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४३८] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । द्वितीय उद्देशकः । निर्गतः प्रत्यागत उत्सर्गेण तावद्वसतेर्बहिरेव पादौ प्रस्फोटयति, अथ तत्र सागारिक भवेत्तदा वसतेरन्तः प्रस्फोटयेत्, प्रस्फोटनं च प्रमार्जनविशेषस्तच्च चक्षुर्व्यापारलक्षणप्रत्युपेक्षणपूर्वकमितीह सप्त भङ्गाः, तत्र न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्ष्टि चेत्येकः, न प्रत्युपेक्षते प्रमार्ष्टति द्वितीय:, प्रत्युपेक्षते न प्रमाति तृतीय:, प्रत्युपेक्षते प्रमार्ष्टि चेति चतुर्थः, यत्तत्प्रत्युपेक्ष्यते प्रमार्ज्यते च तद्दुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं वा दुष्प्रत्युपेक्षितं 5 सुप्रमार्जितं वा ५ सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं वा ६ सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं वा ७ करोति, इह च सप्तमः शुद्धः शेषेष्वसमाचारीति, यदि तु सागारिकश्चलस्ततः सप्ततालमात्रं सप्तपदावक्रमणमात्रं वा कालं बहिरेव स्थित्वा तस्मिन् गते पादौ प्रस्फोटयेत्, उक्तं चअइवाइगम्मि बाहिं अच्छंति मुहुत्तगं थेर [ व्यवहारभा० २५२४] त्ति । अतिपातितोऽस्थिरः, ततो वसतौ प्रविशेत् । कः केन चास्य पादौ प्रमार्जयतीत्युच्यते आभिग्गहियस्स असई तस्सेव रओहरेण अन्नयरो । तस्यैवेत्याचार्यस्यैव पाउंछणुन्निएण व पुंछइ उ अणन्नभुत्तेणं ॥ [ व्यवहारभा० २५२६ ] ति । वसतेरन्तः प्रविष्टस्य चायं विधिः- विपुलायां वसतावपरिभोगस्थाने सङ्कटायां चात्मसंस्तारकावकाशे उपविष्टस्य पादौ प्रमार्जनीयौ, अन्यस्यापि गणावच्छेदिकादेरयमेव 15 विधि:, केवलमन्यो बहिश्चिरतरं तिष्ठतीति, उक्तं च विपुलाए अपरिभोगे अत्तणओवासए व बेट्ठस्स । एमेव य भिक्खुस्स वि नवरं बाहिं चिरयरं तु ॥ [ व्यवहारभा० २५२७] एतावानेव चायमतिशयो यदसौ न चिरं बहिरास्ते, अथ चिरं तिष्ठतः के दोषा इति ?, उच्यते ५६५ 10 तण्हुण्हभावियस्सा सुकुमाराचार्यस्य पडिच्छमाणस्स बहिस्तात् मुच्छमाया । खद्धाइयणगिलाणे प्रचुरद्रवपाने ग्लानत्वे सुत्तत्थविराहणा चेव ॥ [ व्यवहारभा० २५३३] इत्यादि। शेषसाधवस्तु चिरमपि बहिस्तिष्ठन्ति, न च दोषाः स्युः, जितश्रमत्वाद्, आह चदसविहवेयावच्चे सग्गाम बहिं च निच्चवायामो ॥ सीउण्हसहा भिक्खू ण य हाणी वायणाईया । [ व्यवहारभा० २५३९-४०] इत्येकोऽतिशयः। 25 १. वा जे१ विना नास्ति ॥ 20 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथाऽन्त: मध्ये उपाश्रयस्य उच्चारं पुरीषं प्रश्रवणं मूत्रं विञ्चन् सर्वं परिष्ठापयन् विशोधयन् पादादिलग्नस्य निरवयवत्वं कुर्वन् शौचभावेन वेति, अथवा सकृद्विवेचनं बहुशो विशोधनम्, उक्तं च सव्वस्स छड्डण विगिंचणा उ पुयपादहत्थलग्गस्स । 5 फुसण धुवणा विसोहण सकिं च बहुसो य नाणत्तं ॥ [बृहत्कल्प० ५८१३] इति नातिक्रामति। इह च भावार्थ एवम्– आचार्यो नोत्सर्गतो विचारभूमिं गच्छति दोषसम्भवात्, तथाहि- श्रुतवानयमित्यादिगुणत: पूर्वं वीथिषु वणिजो बहुमानादभ्युत्थानादि कृतवन्तस्ततो विचारभूमौ सकृद् द्विर्वाऽऽचार्यस्य गमने आलस्यात्तन्न कुर्वन्ति पराङ्मुखाश्च भवन्ति, एतच्चेतरे दृष्ट्वा शङ्कन्ते यदुतायमिदानीं पतितो वणिजानामभ्युत्थानाधकरणादित्येवं 10 मिथ्यात्वगमनादयो दोषा:, उक्तं च सुयवं तवस्सि परिवारवं च वणियंतरावणुट्ठाणे । अन्तरापणो वीथी, दट्ठाणनिग्गमम्मि य द्विर्निर्गमे हाणी य विनयस्य परंमुहाऽवन्नो ॥ [व्यवहारभा० २५४३] अवर्णो नूनं द्विर्भुङ्क्ते इति । गुणवंत जतो वणिया पूइंतऽन्ने वि सन्नया तम्मि । पडिओ त्ति अणुट्ठाणे अनुत्थाने दुविहनियत्ती अभिमुहाणं ॥ [व्यवहारभा० २५४४] श्रावकत्वप्रव्रजितत्वाभ्यां निवृत्तिरिति । तथा मत्सरिभ्य: सकाशान्मरण-बन्धना-ऽपभ्राजनादयोऽन्येऽपि व्यवहारभाष्यादवगन्तव्या इति द्वितीयोऽतिशय: । तथा प्रभुः समर्थः, इच्छा अभिलाषो वैयावृत्यकरणे यदि भवेत्तदा वैयावृत्यं 20 भक्तपानगवेषण-ग्रहणत: साधुभ्यो दानलक्षणं कुर्यात्, अथेच्छा अभिलाषस्तदकरणे तन्न कुर्यादिति, भावार्थस्त्वयम्- आचार्यस्य भिक्षाभ्रमणं न कल्पते, यतोऽवाचिउप्पन्ननाणा जह नो अडंति, चोत्तीसबुद्धाइसया जिणिंदा ।। एवं गणी अट्ठगुणोववेओ, सत्था व नो हिंडइ इडिमं तु ॥ [व्यवहारभा० २५७१] दोषास्त्वमी25 भारेण वेदणा वा हिंडते उच्चनीयसासो वा । [बृहत्कल्प० २५७४] आइयणछड्डणाई प्रचुरपानकादेरापानादौ छादयो गेलन्ने पोरिसीभंगो ॥ [व्यवहारभा० १. वाणि जे१,२ पा० ॥ 15 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम । द्वितीय उद्देशकः । [सू० ४३९] ५६७ २५७६] इति, एवमादयोऽनेके दोषा व्यवहारभाष्योक्ता: समवसेया: । एते च सामान्यसाधोरपि प्राय: समानास्तथापि गच्छस्य तीर्थस्य वा महोपकारित्वेन रक्षणीयत्वेनाचार्यस्यायमतिशय उक्तः, उक्तं च जेण कुलं आयत्तं तं पुरिसं आयरेण रक्खिजा । न हु तुंबम्मि विणढे अरया साहारया होंति ॥ [ ] त्ति तृतीय: । तथा अन्तरुपाश्रयस्य एका चासौ रात्रिश्चेत्येकरात्रं तद्वा द्वयो रात्र्यो: समाहारो द्विरात्रं तद्वा, विद्यादिसाधनार्थमेकाकी एकान्ते वसन्नातिक्रामति, तत्र तस्य वक्ष्यमाणदोषासम्भवाद्, अन्यस्य तु तद्भावादिति चतुर्थः एवं पञ्चमोऽपि भावार्थश्चायमनयो:अन्तरुपाश्रयस्य वक्षारके विष्वग्वसति बहिर्वोपाश्रयस्य शून्यगृहादिषु वसति यदि तदा असामाचारी, दोषाश्चैते पुंवेदोपयोगेने जनरहिते हस्तकर्मादिकरणेन संयमे भेदो भवति, 10 मर्यादा मया लङ्घितेति निर्वेदेन वैहायसादिमरणं च प्रतिपद्यत इति, इह गाथा: तब्भावुओगेणं रहिए कम्मादि संजमे भेदो । मेरा व लंघिया मे वेहाणसमादि निव्वेया ॥ जइ वि य निग्गयभावो तहा वि रक्खिजई स अन्नेहिं । वंसकडिल्ले छिन्नो वि वेणुओ पावए न महिं ॥ वीसुं वसओ दप्पा गणि आयरिए य होइ एमेव । सुत्तं पुण कारणियं भिक्खुस्सवि कारणेऽणुन्ना ॥ विजाणं परिवाडिं पव्वे पव्वे करेंति आयरिया । दिलुतो महपाणे अंतो बाहिं च वसहीए ॥ [व्यवहारभा० २६९४-९७] इति । सू० ४३९] पंचहिं ठाणेहिं आयरियउवज्झायस्स गणावक्कमणे पन्नत्ते, 20 तंजहा- आयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा नो सम्मं पउंजित्ता भवति १, आयरियउवज्झाए गणंसि अधारायणियाते कितिकम्मं वेणइयं णो सम्मं पउंजित्ता भवति २, आयरियउवज्झाए गणंसि जे सुयपजवजाते धारेति ते काले काले नो सम्ममणुपवादेत्ता भवति ३, आयरियउवज्झाए गणंसि सगणिताते वा परगणियाते वा निग्गंथीते बहिल्लेसे भवति ४, मित्ते णातिगणे 25 वा से गणातो अवक्कमेज्जा तेसिं संगहोवग्गहट्ठयाते गणावक्कमणे पन्नत्ते ५। १. एते यतोन्यसाधो जेमू१ ॥ २. संयमभेदो जे१ खं० ॥ 15 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] आचार्यस्य गणे अतिशया उक्ताः, अधुना तस्यैवातिशयविपर्ययभूतानि गणान्निर्गमनकारणान्याह- पंचहीत्यादि सुगमम्, नवरम् आचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्याययोर्वा गणाद् गच्छात् अपक्रमणं निर्गमो गणापक्रमणम् । आचार्योपाध्यायो गणे गच्छविषये आज्ञां वा योगेषु प्रवर्तनलक्षणां धारणां वाऽविधेयेषु निवर्त्तनलक्षणाम्, 5 नो नैव सम्यग् यथौचित्यं प्रयोक्ता तयोः प्रवर्तनशीलो भवति, इदमुक्तं भवति दुर्विनीतत्वाद् गणस्य ते प्रयोक्तुमशक्नुवन् गणादपक्रामति कालकाचार्यवदित्येकम् । __ तथा गणविषये यथारत्नाधिकतया यथाज्येष्ठं कृतिकर्म तथा वैनयिकं विनयं नो नैव सम्यक् प्रयोक्ता भवति, आचार्यसम्पदा साभिमानत्वात्, यतः आचार्येणापि प्रतिक्रमण-क्षामणादिषूचितानामुचितविनयः कर्त्तव्य एवेति द्वितीयम् । 10 तथा असौ यानि श्रुतपर्यवजातानि यान् श्रुतपर्यायप्रकारानुदेशका-ऽध्ययनादीन् धारयति हृद्यविस्मरणतस्तानि काले काले यथावसरं नो सम्यगनुप्रवाचयिता तेषां पाठयिता भवति, गणे त्ति इह सम्बध्यते, तेन गणे गणविषये गणमित्यर्थः, तस्याविनीतत्वात् तस्य वा सुखलम्पटत्वान्मन्दप्रज्ञत्वाद्वेति गणादपक्रामतीति तृतीयम्। तथा असौ गणे वर्तमानः सगणियाए त्ति स्वगणसम्बन्धिन्यां परगणियाए त्ति 15 परगणसत्कायां निन्थ्यां तथाविधाशुभकर्मवशवर्तितया सकलकल्याणाश्रय संयमसौधमध्याद् बहिर्लेश्या अन्तःकरणं यस्यासौ बहिर्लेश्यः आसक्तो भवतीत्यर्थः, एवं गणादपक्रामतीति, न चेदमधिकगुणत्वेन अस्यासम्भाव्यम्, यतः पठ्यते कम्माइं नूण घणचिक्कणाइं गरुयाई वजसाराइं। नाणड्ढयं पि पुरिसं पंथाओ उप्पहं नेति ॥ [ ] इति चतुर्थम् । 20 तथा मित्र-ज्ञातिगणो वा सुहृत्-स्वजनवर्गो वा से तस्याचार्यादेः कुतोऽपि कारणाद् गणादपक्रामेदतस्तेषां सुहृत्-स्वजनानां सङ्ग्रहाद्यर्थं गणादपक्रमणं प्रज्ञप्तम्, तत्र सङ्ग्रहस्तेषां स्वीकारः, उपग्रहो वस्त्रादिभिरुपष्टम्भ इति पञ्चमम् । [सू० ४४०] पंचविहा इड्डीमंता मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा- अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, भावियप्पाणो अणगारा । ॥ पंचट्ठाणस्स बिइओ ॥ [टी०] अनन्तरमाचार्यस्य गणापक्रमणमुक्तम्, स च ऋद्धिमन्मनुष्यविशेष इत्यधिकाराद् १. कालिका जे१ ॥ 25 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० ४४१] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ५६९ ऋद्धिमन्मनुष्यविशेष इत्यधिकाराद् ऋद्धिमन्मनुष्यविशेषानाह- पंचविहेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् ऋद्धिः आमर्पोषध्यादिका सम्पत्, तद्यथा- आमदैषधिर्वि डोषधिः खेलौषधिजल्लौषधिजेल्लो मलः सर्वौषधिः आसीविषत्वं शापा-ऽनुग्रहसामर्थ्यमित्यर्थः, आकाशगामित्वमक्षीणमहानसिकत्वं वैक्रियकरणमाहारकत्वं तेजोनिसर्जनं पुलाकत्वं क्षीराश्रवत्वं मध्वाश्रवत्वं सर्पिराश्रवत्वं कोष्ठबुद्धिता बीजबुद्धिता पदानुसारिता 5 सम्भिन्नश्रोतृत्वं युगपत्सर्वशब्दश्रावितेत्यर्थः, पूर्वधरता अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानम् अर्हत्ता गणधरता चक्रवर्त्तिता बलदेवता वासुदेवता चेत्येवमादिका, उक्तं चउदयखयखओवसमोवसमसमुत्था बहुप्पगाराओ । एवं परिणामवसा लद्धीओ होंति जीवाणं ॥ [ ] ति । तदेवंरूपा प्रचुरा प्रशस्ता अतिशायिनी वा ऋद्धिर्विद्यते येषां ते ऋद्धिमन्तः, भावित: सद्वासनया वासितः आत्मा यैस्ते भावितात्मानोऽनगारा इति, एतेषां च ऋद्धिमत्त्वमामर्षोषध्यादिभिरर्हदादीनां तु चतुर्णां यथासम्भवमामर्षोषध्यादिनाऽर्हत्त्वादिना चेति । ॥ पञ्चस्थानकस्य विवरणतो द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥ [अथ तृतीय उद्देशकः] [सू० ४४१] पंच अत्थिकाया पन्नत्ता, तंजहा- धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए । ___ धम्मत्थिकाए अवन्ने अगंधे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासते अवट्ठिते लोगदव्वे । से समासओ पंचविधे पन्नत्ते, तंजहा- दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, 20 भावओ, गुणओ। दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगं दव्वं । खेत्ततो लोगपमाणमेत्ते। कालओ ण कयाति णासी, न कयाइ न भवति, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवति य भविस्सति य, धुवे णितिते सासते अक्खए अव्वते अवट्टिते णिच्चे। भावतो अवन्ने अगंधे अरसे अफासे । गुणतो गमणगुणे । अधम्मत्थिकाए अवन्ने एवं चेव, णवरं गुणतो ठाणगुणे । 25 15 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे आगासत्थिकाए अवन्ने एवं चेव, णवरं खेत्तओ लोगालोगपमाणमेत्ते, गुणतो अवगाहणागुणे, सेसं तं चेव । जीवत्थिकाए णं अवन्ने एवं चेव, णवरं दव्वओ णं जीवत्थिकाए अणंताई दव्वाइं, अरूवी जीवे सासते, गुणतो उवओगगुणे, सेसं तं चेव । 5 पोग्गलत्थिकाए पंचवन्ने पंचरसे दुग्गंधे अट्ठफासे रूवी अजीवे सासते अवट्ठिते जाव दव्वओ णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दव्वाइं, खेत्तओ लोगपमाणमेत्ते, कालतो ण कयाइ णासि जाव णिच्चे, भावतो वनमंते गंधमंते रसमंते फासमंते, गुणतो गहणगुणे । [टी०] उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः 10 अनन्तरोद्देशके जीवधाः प्रायः प्ररूपिताः, इह त्वजीव-जीवधर्मा उच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्- पंचेत्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरसूत्रे जीवास्तिकायविशेषा ऋद्धिमन्त उक्ताः इह त्वसङ्ख्येयानन्तप्रदेशलक्षणऋद्धिमन्तः समस्तास्तिकाया उच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या प्रथमाध्ययनवदनुसतव्या, नवरं धर्मास्तिकायादयः किमर्थमित्थमेवोपन्यस्यन्त इति, उच्यते, धर्मास्तिकायादिपदस्य 15 माङ्गलिकत्वात् प्रथमं धर्मास्तिकायोपन्यासः पुनर्धर्मास्तिकायप्रतिपक्षत्वादधर्मास्तिकायस्य पुनस्तदाधारत्वादाकाशास्तिकायस्य पुनस्तदाधेयत्वाज्जीवास्तिकायस्य पुनस्तदुपग्राहकत्वात् पुद्गलास्तिकायस्येति, धर्मास्तिकायादीनां क्रमेण स्वरूपमाहधम्मत्थिकाएत्यादि वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शप्रतिषेधाद अरूवि त्ति रूपं मूर्तिवर्णादिमत्त्वम, तदस्यास्तीति रूपी, न रूपी अरूपी अमूर्त इत्यर्थः, तथा अजीव: अचेतनः, शाश्वतः 20 प्रतिक्षणं सत्ताऽऽलिङ्गितत्वादवस्थितः अनेन रूपेण नित्यत्वादिति, लोकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यम्, यत उक्तम् पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइनिहणं । [ध्यानश० ५३] इति । अथैतत्स्वरूपस्योक्तस्य प्रपञ्चनायानुक्तस्य चाभिधानायाह- स समासत: सक्षेपत: पञ्चविधः, विस्तरस्त्वन्यथापि स्यात्, कथमित्याह- द्रव्यतो द्रव्यतामधिकृत्य, क्षेत्रतः 25 क्षेत्रमाश्रित्य, एवं कालतो भावतश्च, गुणतः कार्यतः कार्यमाश्रित्येत्यर्थः । तत्र १. सू० ११४ टीका ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४४२] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ५७१ द्रव्यतोऽसावेकं द्रव्यं तथाविधैकपरिणामादेकसङ्ख्याया एवेह भावात्, क्षेत्रतो लोकस्य प्रमाणं लोकप्रमाणम् असङ्ख्येयाः प्रदेशाः, तत् परिमाणमस्येति लोकप्रमाणमात्रः, कालतो न कदाचिन्नासीदित्यादि कालत्रयनिर्देशः, एतदेव सुखार्थं व्यतिरेकेणाहअभूच्च भवति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालभावित्वाद् ध्रुवः, मा भूदेकसर्गापेक्षयैव ध्रुवत्वमिति सर्वदैवं भावान्नियतः, मा भूदनेकसर्गापेक्षयैव नियतत्वमिति प्रलयाभावात् 5 शाश्वतः, एवं सदा भावेनाऽक्षयः, पर्यायापगमेऽप्यनन्तपर्यायतयाऽव्ययः, एवमुभयरूपतया अवस्थितः, अनेन प्रकारेणौघतो नित्य इति पूज्यव्याख्या, अथवा यत एव त्रैकालिकोऽसावत एव ध्रुवोऽवश्यंभावित्वादादित्योदयवत्, नियत एकरूपत्वात्, शाश्वत: प्रतिक्षणं सत्त्वादत एवाऽक्षयोऽवयविद्रव्यापेक्षया अक्षतो वा परिपूर्णत्वात्, अव्ययोऽवयवापेक्षया, अवस्थितो निश्चलत्वात्, तात्पर्यमाह- नित्य इति, अथवा 10 इन्द्र-शक्रादिशब्दवत् पर्यायशब्दा ध्रुवादयो नानादेशजविनेयप्रतिपत्त्यर्थमुपन्यस्ता इति। तथा गुणतः गमनं गतिस्तद् गुणो गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां सहकारिकारणभावतः कार्यं मत्स्यानां जलस्येव यस्यासौ गमनगुणो गमने वा गुणः उपकारो जीवादीनां यस्मादसौ गमनगुण इति । एवं चेव त्ति यथा धर्मास्तिकायोऽधीत एवमधर्मास्तिकायोऽपीति, नवरं केवलमेतावान् विशेषो यदुत- ठाणगुणे त्ति स्थानं 15 स्थितिर्गुणः कार्यं यस्य स स्थानगुणः, स हि स्थितिपरिणतानां जीवादीनामपेक्षाकारणतया स्थानं कार्यं करोति, स्थाने वा स्थितौ गुण: उपकारो यस्मात् स तथा। लोगालोगेत्यादि लोकालोकयोस्तव्यक्त्योर्यत् प्रमाणम् अनन्ताः प्रदेशास्तदेव परिमाणमस्येति लोकालोकप्रमाणमात्रः, अवगाहना जीवादीनामाश्रयो गुणः कार्यं यस्य तस्यां वा गुण: उपकारो यस्मात् सोऽवगाहनागुणः । अणंताई दव्वाइं ति अनन्ता जीवास्तेषां 20 च प्रत्येकं द्रव्यत्वादिति । अरूवी जीवे त्ति जीवास्तिकायोऽमूर्तस्तथा चेतनावानिति। उपयोग: साकारानाकारभेदं चैतन्यं गुणो धर्मो यस्य स तथा । शेषं तदेव यदधास्तिकायादीनामिति, लोकप्रमाणो जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायश्च, तयोस्तत्रैव भावादिति । गहणगुणे त्ति ग्रहणम् औदारिकशरीरादितया ग्राह्यता इन्द्रियग्राह्यता वा वर्णादिमत्त्वात् परस्परसम्बन्धलक्षणं वा तद् गुणो धर्मो यस्य स तथा । 25 - [सू० ४४२] पंच गतीतो पत्नत्ताओ, तंजहा- निरयगती, तिरियगती, Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मणुयगती, देवगती, सिद्धिगती । टी०] अनन्तरमस्तिकाया उक्ता इति तद्विशेषस्य जीवास्तिकायस्य सम्बन्धिवस्तून्याह अध्ययनपरिसमाप्तिं यावदिति महासम्बन्धः । तत्र पंचेत्यादि गतिसूत्रं कण्ठ्यम्, नवरं गमनं गतिः १ गम्यत इति वा गतिः क्षेत्रविशेषः २ गम्यते वा अनया कर्मपुद्गलसंहत्येति 5 गति: नामकर्मोत्तरप्रकृतिरूपा ३ तत्कृता वा जीवावस्थेति ४, तत्र निरये नरके गतिः ४-१ निरयश्चासौ गतिश्चेति वा २ निरयप्रापिका वा गतिः ३ निरयगतिः, एवं तिर्यक्षु ४-१ तिरश्चां २ तिर्यक्त्वप्रसाधिका वा गतिः ३ तिर्यग्गतिः, एवं मनुष्य-देवगती, सिद्धौ गतिः सिद्धिश्चासौ गतिश्चेति वा सिद्धिगतिः, गतिरिह नामप्रकृतिर्नास्तीति । [सू०४४३] पंच इंदियत्था पन्नत्ता, तंजहा- सोतिंदियत्थे जाव फासिंदियत्थे १। पंच मुंडा पन्नत्ता, तंजहा- सोतिंदियमुंडे जाव फासिंदियमुंडे २॥ अहवा पंच मुंडा पन्नत्ता, तंजहा- कोहमुंडे, माणमुंडे, मायामुंडे, लोभमुंडे, सिरमुंडे ३॥ [टी०] अनन्तरं सिद्धिगतिरुक्ता, सा चेन्द्रियार्थान् कषायादींश्चाश्रित्य मुण्डितत्वे सति भवतीतीन्द्रियार्थानिन्द्रय-कषायादिमुण्डांश्चाभिधित्सुः सूत्रत्रयमाह- पंचेत्यादि सुगमम्, 15 नवरम् इन्दनादिन्द्रो जीव: सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्गं तेन दृष्टं सृष्टं जुष्टं दत्तमिति वा इन्द्रियं श्रोत्रादि, तच्चतुर्विधं नामादिभेदात, तत्र नाम-स्थापने सुज्ञाने, निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्, तत्र निर्वृत्तिराकारः, सा च बाह्याऽभ्यन्तरा च, तत्र बाह्या अनेकप्रकारा, अभ्यन्तरा पुन: क्रमेण श्रोत्रादीनां कदम्बपुष्प १ धान्यमसूरा २ ऽतिमुक्तकपुष्पचन्द्रिका ३ क्षुप ४ नानाप्रकार ५ संस्थाना, 20 उपकरणेन्द्रियं विषयग्रहणे समर्थम्, छेद्यच्छेदने खड्गस्येव धारा, यस्मिन्नुपहते निर्वृत्तिसद्भावेऽपि विषयं न गृह्णातीति, लब्धीन्द्रियं यस्तदावरणक्षयोपशम:, उपयोगेन्द्रियं य: स्वविषये व्यापार इति, इह च गाथा: इंदो जीवो सव्वोवलद्धिभोगपरमेसरत्तणओ । सोत्तादिभेदमिंदियमिह तल्लिंगादिभावाओ ॥ 25 तन्नामादि चउद्धा दव्वं निव्वत्ति ओवकरणं च । आकारो निव्वत्ती चित्ता बज्झा इमा अंतो ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७३ [सू० ४४४] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । पुप्फ कलंबुयाए धन्नमसूराऽतिमुत्तचंदो य । होइ खुरुप्पो नाणागिई य सोइंदियाईणं ॥ विसयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तं पि । जं नेह तदवघाए गिण्हइ निव्वत्तिभावे वि ॥ लद्धवओगा भाविंदियं तु लद्धि त्ति जो खओवसमो । होइ तयावरणाणं तल्लाभे चेव सेसं पि ॥ जो सविसयवावारो सो उवओगो स चेगकालम्मि । 'एगेण चेव तम्हा उवओगेगिंदिओ सव्वो ॥ एगिदियादिभेदा पडुच्च सेसिंदियाइं जीवाणं । अहवा पडुच्च लद्धिंदियं पि पंचिंदिया सव्वे ॥ 10 जं किर बउलाईणं दीसइ सेसिंदिओवलंभो वि । तेणऽत्थि तदावरणक्खओवसमसंभवो तेसिं ॥ [विशेषाव० २९९३-३०००] ति । अर्थ्यन्ते अभिलष्यन्ते क्रियार्थिभिरर्यन्ते वा अधिगम्यन्त इत्यर्थाः, इन्द्रियाणामा इन्द्रियार्थाः तद्विषया: शब्दादयः, श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम्, तच्च तदिन्द्रियं च श्रोत्रेन्द्रियम्, तस्यार्थो ग्राह्यः श्रोत्रेन्द्रियार्थः शब्दः, एवं क्रमेण रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाश्चक्षुराद्यर्था 15 इति । मुण्डनं मुण्ड: अपनयनम्, स च द्वेधा- द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यत: शिरस: केशापनयनम्, भावतस्तु चेतस इन्द्रियार्थगतप्रेमा-ऽप्रेम्णो: कषायाणां वाऽपनयनमिति मुण्डलक्षणधर्मयोगात् पुरुषो मुण्ड उच्यते, तत्र श्रोत्रेन्द्रिये मुण्डः श्रोत्रेन्द्रियेण वा मुण्डः, पादेन खञ्ज इत्यादिवत् श्रोत्रेन्द्रियमुण्डः, शब्दे रागादिमुण्डनाच्छोत्रेन्द्रियार्थमुण्ड इति भाव इत्येवं सर्वत्र, तथा क्रोधे मुण्ड: क्रोधमुण्डस्तच्छेदनादेवमन्यत्रापि, तथा शिरसि 20 शिरसा वा मुण्ड: शिरोमुण्ड इति । [सू० ४४४] [१] अहेलोगे णं पंच बादरा पन्नता, तंजहा- पुढविकाइया, आउ[काइया], वाउ[काइया], वणस्सतिकाइया, ओराला तसा पाणा १॥ उद्दलोगे णं पंच बादरा एते चेव । तिरियलोगे णं पंच बादरा पन्नत्ता, तंजहा- एगिदिया जाव पंचिंदिया ३। 25 [२] पंचविधा बादरतेउकाइया पन्नत्ता, तंजहा- इंगाले, जाला, मुम्मुरे, १. जम्हा जे१ ॥ २. रूप-गन्ध-रस पा० जे२ ॥ ३. "दिखण्डना' जे१ विना ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अच्ची, अलाते १। पंचविधा बादरवाउकाइया पन्नत्ता, तंजहा- पाईणवाते, पडीणवाते, दाहिणवाते, उदीणवाते, विदिसंवाते २॥ पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पन्नत्ता, तंजहा- अंक्कते, धंते, पीलिते, 5 सरीराणुगते, सम्मुच्छिमे ३।। [टी०] इदं च मुण्डितत्वं बादरजीवविशेषाणां भवतीति लोकत्रयापेक्षया बादरजीवकायान् प्ररूपयन् सूत्रत्रयमाह- अहेत्यादि सुगमम्, नवरमधऊर्ध्वलोकयोस्तैजसा बादरा न सन्तीति पञ्चैते उक्ताः, अन्यथा षट् स्युरिति, अधोलोकग्रामेषु ये बादरास्तैजसास्ते अल्पतया न विवक्षिताः, ये चोर्ध्वकपाटद्वये ते उत्पत्तुकामत्वेनो10 त्पत्तिस्थानास्थितत्वादिति। ___ ओरालतस त्ति त्रसत्वं तेजोवायुष्वपि प्रसिद्धम्, अतस्तद्वयवच्छे देन द्वीन्द्रियादिप्रतिपत्त्यर्थमोरालग्रहणम्, ओराला: स्थूला एकेन्द्रियापेक्षयेति, एकमिन्द्रियं करणं स्पर्शनलक्षणमेकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्तदावरणक्षयोपशमाच्च येषां ते एकेन्द्रिया: पृथिव्यादयः, एवं द्वीन्द्रियादयोऽपि, नवरमिन्द्रियविशेषो जातिविशेषश्च वाच्य इति । 15 एकेन्द्रिया इत्युक्तमिति तान् पञ्चस्थानकानुपातिनो विशेषत: सूत्रत्रयेणाह पंचेविहेत्यादि, अङ्गारः प्रतीत:, ज्वाला अग्निशिखा छिन्नमूला, सैवाच्छिन्नमूलाऽर्चि:, मुर्मरो भस्ममिश्राग्निकणरूप:, अलातम् उल्मुकमिति । प्राचीनवात: पूर्ववात:, प्रतीचीन: पश्चिमः, दक्षिण: प्रतीत:, उदीचीन: उत्तरः, तदन्यस्तु विदिग्वात इति। आक्रान्ते पादादिना भूतलादौ यो भवति स आक्रान्तः, यस्तु ध्माते दृत्यादौ स 20 ध्मातः, जलार्द्रवस्त्रे निष्पीड्यमाने पीडितः, उद्गारोच्छ्वासादिः शरीरानुगत:, व्यजनादिजन्य: सम्मूर्छिमः । एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवन्तीति । [सू० ४४५] पंच नियंठा पन्नत्ता, तंजहा- पुलाते, बउसे, कुसीले, णियंठे, सिणाते । पुलाते पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा- णाणपुलाते, दंसणपुलाते, चरित्तपुलाते, 25 लिंगपुलाते, अहासुहुमपुलाते नामं पंचमे २। १. पंच ते पा० जे२॥ २. "स्तत: सचेतना जेसं१, खं० पा० जे२ मध्ये एव वर्तते, जेमू१ मध्ये नास्ति। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४४५ ] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । बउसे पंचविधे पन्नत्ते, तंजहा- आभोगबउसे, अणाभोगबउसे, संवुडबउसे, असंवुडबउसे, अहासुहुमबउसे नामं पंचमे ३। कुसीले पंचविधे पन्नत्ते, तंजहा णाणकुसीले, दंसणकुसीले चरित्तकुसीले, लिंगकुसीले, अहासुहुमकुसीले नामं पंचमे ४ | नियंठे पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा- पढमसमयनियंठे, अपढमसमयनियंठे, 5 चरिमसमयनियंठे, अचरिमसमयनियंठे, अहासुहुमनियंठे नामं पंचमे ५ | सिणा पंचविधे पन्नत्ते, तंजहा - अच्छवी, असबले, अकम्मंसे, संसुद्धणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, अपरिस्सावी ६ । [टी०] पूर्वं पञ्चेन्द्रिया उक्ताः इति पञ्चेन्द्रियविशेषानाह, अथवा अनन्तरं सचेतनाचेतना वायव उक्ता:, तांश्च रक्षन्ति निर्ग्रन्था एवेति तानाह - पंच नियंठेत्यादि सूत्रषट्कं सुगमम्, 10 नवरं ग्रन्थादान्तरान्मिथ्यात्वादेर्बाह्याच्च धर्मोपकरणवर्जाद्धनादेर्निर्गता निर्ग्रन्थाः, पुलाक: तन्दुलकणशून्या पलञ्जिः, तद्वद् यः तपः श्रुतहेतुकायाः सङ्घादिप्रयोजने चक्रवत्र्त्यादेरपि चूर्णनसमर्थायाः लब्धेरुपजीवनेन ज्ञानाद्यतिचारासेवनेन वा संयमसाररहितः स पुलाकः, अत्रोक्तम् - जिनप्रणीतादागमात् सदैवाप्रतिपातिनो ज्ञानानुसारेण क्रियानुष्ठायिनो लब्धिमुपजीवन्तो निर्ग्रन्थपुलाका भवन्ती [ तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९ ४८ ] ति, बकुशः शबल:, कर्बुर इत्यर्थः, शरीरोपकरणविभूषानुवर्त्तितया शुद्ध्यशुद्धिव्यतिकीर्णचरण इति, अयमपि द्विविध:, यदाह— मोहनीयक्षयं प्रति प्रस्थिताः शरीरोपकरणविभूषानुवर्त्तिनः [ तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] तत्र शरीरे अनागुप्तव्यंतिकरेण कर-चरण - वदनप्रक्षालनमक्षि-कर्णनासिकाद्यवयवेभ्योऽपि दूषिकामलाद्यपनयनं दन्तपवनलक्षणं केशसंस्कारं च देहविभूषार्थमाचरन्तः शरीरबकुशाः, उपकरणबकुशास्तु अकाल एव प्रक्षालितचोल - 20 पट्टकान्तरकल्पादिचोक्षवासः प्रियाः पात्र - दण्डकाद्यपि तैलमात्रयोज्ज्वलीकृत्य विभूषार्थमनुवर्त्तमाना बिभ्रति, उभयेऽपि च ऋद्धियशस्कामाः- तत्र ऋद्धिं प्रभूतवस्त्रपात्रादिकां ख्यातिं च गुणवन्तो विशिष्टाः साधव इत्यादिप्रवादरूपां कामयन्ते, सातगौरवमाश्रिताः नातीवाहोरात्राभ्यन्तरानुष्ठेयासु क्रियास्वभ्युद्यताः, अविविक्तपरिवारा:१. सचेतना वायव जेमू१ । सचेतनाअचेतना वायव जेसं १ । २. “ अनागुप्तव्यतिरेकेण”- तत्त्वार्थसिद्ध० ९।४८। दृश्यतां प्रथमपरिशिष्टम् ॥ ५७५ 15 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नासंयमात् पृथग्भूत: घृष्टजङ्घः तैलादिकृतशरीरमृजः कतरिकाकल्पितकेशश्च परिवारो येषामिति भाव:, बहुच्छेदशबलयुक्ता: सर्व-देशच्छेदाहा॑तिचारजनितशबलत्वेन युक्ता निर्ग्रन्थबकुशा इति । तथा कुत्सितं उत्तरगुणप्रतिषेवया सज्वलनकषायोदयेन वा दूषितत्वात् शीलम् अष्टादशशीलाङ्गसहस्रभेदं यस्य स कुशील इति, एषोऽपि द्विविध 5 एव, अत्राप्युक्तम्- द्विविधाः कुशीला: प्रतिसेवनकुशीला: कषायकुशीलाश्च [तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८], तत्र ये नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता: अनियतेन्द्रिया: कथञ्चित किञ्चिदेवोत्तरगणेष पिण्डविशुद्धि-समिति-भावना-तपः-प्रतिमा-ऽभिग्रहादिषु विराधयन्तः सर्वज्ञाज्ञोल्लङ्घनमाचरन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीला:, येषां तु संयतानामपि सतां कथञ्चित्सज्वलनकषाया उदीर्यन्ते ते कषायकुशीला:, निर्गतो ग्रन्थान्मोहनीयाख्यात् 10 निर्ग्रन्थ: क्षीणकषाय उपशान्तमोहो वा, क्षालितसकलघातिकर्ममलपटलत्वात् स्नात इव स्नात:, स एव स्नातकः, सयोगोऽयोगो वा केवलीति । __ अधुनैत एव भेदत उच्यन्ते, तत्र पुलाक इत्यासेवापुलाकः पञ्चविधः, लब्धिपुलाकस्यैकविधत्वात्, तत्र स्खलित-मिलितादिभिरतिचारैर्ज्ञानमाश्रित्यात्मानम् असारं कुर्वन् ज्ञानपुलाकः, एवं कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाकः, मूलोत्तरगुण15 प्रतिसेवनातश्चरणपुलाकः, यथोक्तलिङ्गाधिकग्रहणात् निष्कारणेऽन्यलिङ्गकरणाद्वा लिङ्गपुलाकः, किञ्चित्प्रमादान्मनसाऽकल्प्यग्रहणाद्वा यथासूक्ष्मपुलाको नाम पञ्चम इति । बकुशो द्विविधोऽपि पञ्चविधः, तत्र शरीरोपकरणभूषयोः सञ्चिन्त्यकारी आभोगबकुशः, सहसाकारी अनाभोगबकुश:, प्रच्छन्नकारी संवृतबकुशः, प्रकटकारी 20 असंवृतबकुशः, मूलोत्तरगुणाश्रितं वा संवृतासंवृतत्वम्, किञ्चित्प्रमादी अक्षिमलाद्यपनयन् वा यथासूक्ष्मबकुशो नाम पञ्चम इति ।। कुशीलो द्विविधोऽपि पञ्चविधः, तत्र ज्ञान-दर्शन-चारित्र-लिङ्गान्युपजीवन् प्रतिषेवणतो ज्ञानादिकुशीलः, लिङ्गस्थाने क्वचित्तपो दृश्यते, तथा अयं तपश्चरतीत्येवमनुमोद्यमानो हर्षं गच्छन् यथासूक्ष्मकुशील: प्रतिषेवणयैवेति, कषायकुशीलोऽप्येवम्, नवरं क्रोधादिना 25 विद्यादिज्ञानं प्रयुञ्जानो ज्ञानकुशील:, दर्शनग्रन्थं प्रयुञ्जानो दर्शनत:, शापं ददत् चारित्रतः, कषायैर्लिङ्गान्तरं कुर्वन् लिङ्गतः, मनसा कषायान् कुर्वन् यथासूक्ष्म: । चूर्णिकारव्याख्या Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । १ [सू० ४४५ ] त्वेवम्— सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वा सेवना प्रतिसेवना, सा पञ्चसु ज्ञानादिषु येषां ते प्रतिसेवनाकुशीलाः, कषायकुशीलास्तु पञ्चसु ज्ञानादिषु येषां कषायैर्विराधना क्रियत इति । अन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणाया निर्ग्रन्थाद्धायाः प्रथमे समये वर्त्तमान एकः शेषेषु द्वितीय:, अन्तिमे तृतीयः, शेषेषु चतुर्थ:, सर्वेषु पञ्चम इति विवक्षया भेद एषामिति । 5 छवि: शरीरम्, तदभावात् काययोगनिरोधे सति अच्छविर्भवति अव्यथको वा १, निरतिचारत्वादशबल: २, क्षपितकर्म्मत्वादकम्र्मांश इति तृतीय: ३, ज्ञानान्तरेणासम्पृक्तत्वात् संशुद्धज्ञानदर्शनधरः, पूजार्हत्वादर्हन्, नास्य रहो रहस्यमस्तीत्यरहा वा, जितकषायत्वाज्जिनः केवलं परिपूर्णं ज्ञानादित्रयमस्यास्तीति केवलीति चतुर्थः ४, निष्क्रियत्वात् सकलयोगनिरोधे अपरिश्रावीति पञ्चमः ५, क्वचित् पुनरर्हन् जिन इति पञ्चमः । अत्र भाष्यगाथाःहोइ पुलाओ दुविहो लद्धिपुलाओ तहेव इयरो य । लद्धिपुलाओ संघाइकज्जे इयरो य पंचविहो ॥ नाणे दंसण चरणे लिंगे अहसुहुमए य नायव्वो । नाणे दंसणचरणे तेसिं तु विराहण असारो ॥ लिंगपुलाओ अन्नं निक्कारणओ करेइ सो लिंगं । मणसा अकप्पियाइं निसेवओ होअहासुमो ॥ सरीरे उवकरणे वा बाउसियत्तं दुहा समक्खायं । सुक्किलवत्थाणि धरे देसे सव्वे सरीरम्म || आभोगमणाभोगे संवुडमस्संवुडे अहाहु । सो दुविहो वी बउसो पंचविहो होइ नायव्वो ॥ आभोगे जाणतो करेइ दोसं तहा अणाभोगे । मूलुत्तरेहिं संवुड विवरीय असंवुडो होइ ॥ अच्छि मुह मज्जमाणो होइ अहासुहुमओ तहा बउसो । पडिसेवणा कसाए होइ कुसीलो दुहा एसो ॥ २ नाणे दंसण चरणे तवे य अहसुहुमए य बोद्धव्वे । पडिसेवणाकुसीलो पंचविहो ऊ मुणेव्व ॥ १. " सम्माराहणविवरीया पडिगया वा सेवणा पडिसेवणा, पंचसु णाणाइसु, कसायकुसीलो जस्स पंचसु णाणाइसु कसाएहिं विराहणा कज्जति सो कसायकुसीलो त्ति” इति उत्तराध्ययनचूर्णौ षष्ठे क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीयाध्ययने ॥ २. होड़ अहा जे१ ॥ " ५७७ 10 15 20 25 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नाणादी उवजीवइ अहसुहुमो अह इमो मुणेयव्यो । साइजंतो रागं वच्चइ एसो तवच्चरणी ॥ एष तपश्चरणीत्येवमनुमोद्यमानो हर्षं व्रजतीत्यर्थः, एमेव कसायम्मी पंचविहो होइ ऊ कुसीलो उ ।। कोहेणं विजाई पउंज एमेव माणाई ॥ एवमेव मानादिभिरित्यर्थः, 5 एमेव दंसणतवे सावं पुण देइ ऊ चरित्तम्मि । मणसा कोहादीणि करेइ अह सो अहासुहुमो ॥ पढमा १ पढमे २ चरम ३ अचरिमे ४ अहसुहुमे ५ होइ निग्गंथे । अच्छवि १ अस्सबले यार अकम्म ३ संसुद्ध ४ अरहजिणा ५॥ [उत्तरा०भा० २-१२,१४] इति। [सू० ४४६] कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पंच वत्थाई धारित्तते 10 वा परिहरित्तते वा, तंजहा- जंगिते, भंगिते, साणते, पोत्तिते, तिरीडपट्टते णामं पंचमए । कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पंच रयहरणाई धारित्तते वा परिहरित्तते वा, तंजहा- उण्णिए, उट्टिते, साणते, पच्चापिच्चियए, मुंजापिच्चियए नामं पंचमे । 15 [टी०] निर्ग्रन्थानामेवोपधिविशेषप्रतिपादनाय सूत्रद्वयमाह- कप्पंतीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं कल्पन्ते युज्यन्ते, धारयितुं परिग्रहे, परिहर्तुमासेवितुमिति, अथवा धारणया उवभोगो परिहरणा होइ परिभोगो [बृहत्कल्प० २३६७, २३७शत्ति । जंगिए त्ति जङ्गमा: त्रसास्तदवयवनिष्पन्नं जाङ्गमिकं कम्बलादि, भंगिए त्ति भंगा अतसी, तन्मयं भाङ्गिकम्, साणए त्ति सनसूत्रमयं सानकम्, पोत्तिए त्ति पोतमेव पोतकं कार्पासिकम्, तिरिडवट्टे 20 त्ति वृक्षत्वङ्मयमिति, इह गाथा: जंगमजायं जंगिय तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदी । एक्कक्कं पि य इत्तो होइ विभागेण णेगविहं ॥ पट्ट सुवन्ने मलये अंसुय चीणंसुए य विगलिंदी । उन्नोट्टिय मियलोमे कुतवे किट्टीय पंचेंदी ॥ [बृहत्कल्प० ३६६१-६२] 25 पट्टः प्रतीत:, सुवर्णं सुवर्णवर्णसूत्रं कृमिकाणाम्, मलयं मलयविषय एव, अंशुकं श्लक्ष्णपट्टः, चीनांशुकं कोशिकार: चीनविषये वा यद्भवति श्लक्ष्णात् पट्टादिति, मृगरोमजं १. कसायंमि जे१ विना ॥ २. पिच्चिते क० भां० विना ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० ४४७] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ५७९ शशलोमजं मूषकलोमजं वा, कुतपः छागलम्, किट्टिजमेतेषामेवावयवनिष्पन्नमिति। अयसी वंसीमाई य भंगियं साणयं तु सणवक्के । पोत्तं कप्पासमयं तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो ॥ [बृहत्कल्प० ३६६३] इह पञ्चविधे वस्त्रे प्ररूपितेऽप्युत्सर्गत: कार्पासिकौणे एव ग्राह्ये, यतोऽवाचिकप्पासिया उ दोन्नी उन्निय एक्को य परिभोगो । [बृहत्कल्प० ३६६४] इति, 5 कप्पासियस्स असई वागयपट्टो य कोसियारो य । असई य उन्नियस्सा वागय कोसेजपट्टो य ॥ [बृहत्कल्प० ३६६८] इति । तदप्यमहामूल्यमेव ग्राह्यम्, महामूल्यता च पाटलिपुत्रीयरूपकाष्टादशकादारभ्य रूपकलक्षं यावदिति । रजो हियते अपनीयते येन तद्रजोहरणम्, उक्तं चहरइ रयं जीवाणं बज्झं अब्भंतरं च जं तेणं । रयहरणं ति पवुच्चइ कारणकजोवयाराओ ॥ [ ] इति, तत्र उन्नियं ति अविलोममयम्, उट्टियं ति उष्ट्रलोममयम्, सानकं सनसूत्रमयम्, पच्चापिच्चियए त्ति बल्वज: तृणविशेष: तस्य पिच्चियं ति कुट्टितत्वक् तन्मयम्, मुञ्जः शरपर्णीति, इह गाथा: पाउंछणयं दुविहं ओसग्गियमाववाइयं चेव ।। एक्केवं पि य दुविहं निव्वाघायं च वाघायं ॥ [निशीथभा० ८१९] औत्सर्गिकं रजोहरणं पट्टनिषद्याद्वययुक्तमापवादिकमनावृतदण्डम्, निर्व्याघातमौर्णिकदशिकम्, व्याघातवत् त्वितरदितिजं तं निव्वाघायं तं एग उन्नियं ति नायव्वं । औत्सर्गिकं च, 20 उस्सग्गियवाघायं उट्टियसणपच्चमुंजं च ॥ निव्वाघायववाई दारुगदंडुण्णियाहिं दसियाहिं । अववाइय वाघायं उट्टीसणवच्चमुंजमयं ॥ [निशीथभा० ८२३-२४] ति । [सू० ४४७] धम्मं णं चरमाणस्स पंच णिस्साठाणा पन्नत्ता, तंजहाछक्काया, गणो, राया, गाहावती, सरीरं । टी०] श्रमणानां यथा वस्त्र-रजोहरणे धर्मोपग्राहके, तथाऽपराण्यपि कायादीनीति १. कार्पासिकौर्णिके एव पा० जे२ ॥ 15 25 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ५८० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तान्येवाह- धम्ममित्यादि, धर्मं श्रुत-चारित्ररूपम्, णमित्यलङ्कारे, चरत: सेवमानस्य, पञ्च निश्रास्थानानि आलम्बनस्थानानि, उपग्रहहेतव इत्यर्थः, षट् काया: पृथिव्यादय:, तेषां च संयमोपकारिताऽऽगमप्रसिद्धा, तथाहि- पृथिवीकायमाश्रित्योक्तम् ठाण-निसीय-तुयट्टण-उच्चाराईण गहण निक्खेवे । घट्टग-डगलग-लेवो एमाइ पओयणं बहुहा ॥ [ओघनि० ३४२] अप्कायमाश्रित्यपरिसेय-पियण-हत्थाइधोयणे चीरधोयणे चेव । आयमण-भाणधुवणे एमाइ पओयणं बहुहा ॥ [ओघनि० ३४७] तेजस्कायं प्रतिओयण वंजण पाणग आयामुसिणोदगं च कुम्मासा । डगलग-सरक्ख-सूई-पिप्पलमाई य उवओगो ॥ [ओघनि० ३५९] वायुकायमभिदइएण वत्थिणा वा पओयणं होज वाउणा मुणिणो । गेलन्नम्मि वि होज्जा सचित्तमीसे परिहरेजा ॥ [ओघनि० ३६२] वनस्पतिं प्रतिसंथार-पाय-दंडग-खोमियकप्पा य पीठ-फलगाई । ओसह-भेसजाणि य एमाइ पओयणं तरुसु ॥ [ओघनि० ३६४] त्रसकाये पञ्चेन्द्रियतिरश्च आश्रित्योक्तम्15 चम्मट्ठि-दंत-नह-रोम-सिंग-अमिलाइछगण-गोमुत्ते । खीर-दहिमाइयाणं पंचेंदियतिरियपरिभोगो ॥ [ओघनि० ३६८] एवं विकलेन्द्रिय-मनुष्य-देवानामप्युपग्रहकारिता वाच्या । तथा गणो गच्छ:, तस्य चोपग्राहिता- एक्कस्स कओ धम्मो [उप०माला० १५६-१६१] इत्यादिगाथापूगादवसेया, तथा गुरुपरिवारो गच्छो तत्थ वसंताण निजरा विउला । 20 विणयाउ तहा सारणमाईहिं न दोसपडिवत्ती ॥ अन्नोन्नावेक्खाए जोगम्मि तहिं तहिं पयर्टतो । नियमेण गच्छवासी असंगपयसाहगो नेओ ॥ [पञ्चवस्तु० ६९६, ६९९] इति । तथा राजा नरपतिः, तस्य धर्मसहायकत्वं दुष्टेभ्य: साधुरक्षणाद्, उक्तं च लौकिकै:क्षुद्रलोकाकुले लोके, धर्मं कुर्युः कथं हि ते । क्षान्ता दान्ता अहन्तारश्चेद्राजा तान्न रक्षति ॥ [ ] तथाअराजके हि लोकेऽस्मिन्, सर्वतो विद्रुते भयात् । रक्षार्थमस्य सर्वस्य, राजानमसृजत् प्रभुः ॥ [ ] इति, १. पिण्डनि० १५॥१. पिण्डनि०२३ ।। ३. पिण्डनि०३७॥४. पिण्डनि० ४२।। ५. पिण्डनि० ४६॥६. पिण्डनि०५०॥ 25 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० ४४८] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । तथा गृहपति: शय्यादाता, सोऽपि निश्रास्थानम्, स्थानदानेन संयमोपकारित्वात्, तदुक्तम् धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम् । गुणश्रीसमालिङ्गितेभ्यो वरेभ्यो मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः ॥ [ ] तथाजो देइ उवस्सयं जइवराण तवनियमजोगजुत्ताणं । तेणं दिन्ना वत्थन्नपाणसयणासणविगप्पा ॥ [ ] इति, तथा शरीरं काय:, अस्य च धर्मोपग्राहिता स्फुटैव, यतोऽवाचिशरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छ्रवते धर्म: पर्वतात् सलिलं यथा ॥ [ ] इति, भवति चात्रार्याधर्मं चरत: साधोर्लोके निश्रापदानि पञ्चैव ।। राजा गृहपतिरपरः षट्काया गण-शरीरे च ॥ [ ] इति, शेषं सुगमम् ।। [सू० ४४८] पंच णिही पन्नत्ता, तंजहा- पुत्तणिही, मित्तणिही, सिप्पणिही, धणणिही, धन्नणिही । [टी०] श्रमणस्य निश्रास्थानान्युक्तानि, अथ लौकिकं निधिलक्षणं निश्रास्थानं पञ्चधा प्रतिपायदन्नाह- पंच निहीत्यादि सुगमम्, नवरं नितरां धीयते स्थाप्यते यस्मिन् स 15 निधि:विशिष्टरत्न-सुवर्णादिद्रव्यभाजनम्, तत्र निधिरिव निधिः पुत्रश्चासौ निधिश्च पुत्रनिधिः, द्रव्योपार्जकत्वेन पित्रोर्निर्वाहहेतुत्वादत एव स्वभावेन च तयोरानन्दसुखकरत्वाच्च, अत्रोक्तं परैः जन्मान्तरफलं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम् । सन्तति: शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे ॥ [ ] इति । तथा मित्रं सुहृत्, तच्च तन्निधिश्चेति मित्रनिधिरर्थ-कामसाधकत्वेनानन्दहेतुत्वात्, तदुक्तम् कुतस्तस्यास्तु राज्यश्री: कुतस्तस्य मृगेक्षणा: । यस्य शूरं विनीतं च नास्ति मित्रं विचक्षणम् ? ॥ [ ] शिल्पं चित्रादिविज्ञानम्, तदेव निधि: शिल्पनिधि:, एतच्च विद्योपलक्षणम्, तेन 25 विद्या निधिरिव पुरुषार्थसाधनत्वाद्, अत्रोक्तम् 20 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे विद्यया राजपूज्य: स्याद्विद्यया कामिनीप्रियः ।। विद्या हि सर्वलोकस्य वशीकरणकार्मणम् ॥ [ ] इति, तथा धननिधि: कोशः, धान्यनिधि: कोष्ठागारमिति । [सू० ४४९] पंचविधे सोते पन्नत्ते, तंजहा- पुढविसोते, आउसोते, तेउसोते, 5 मंतसोते, बंभसोते । [टी०] अनन्तरं निधिरुक्तः, स च द्रव्यत: पुत्रादि वतस्तु कुशलानुष्ठानरूपं ब्रह्म, तत् पुन: शौचतया बिभणिषुः प्रसङ्गेन शेषाण्यपि शौचान्याह- पंचविहेत्यादि व्यक्तम्, नवरं शुचेर्भाव: शौचम्, शुद्धिरित्यर्थः, तच्च द्विधा- द्रव्यतो भावतश्च, तत्राद्यं चतुष्टयं द्रव्यशौचम्, पञ्चमं तु भावशौचम्, तत्र पृथिव्या मृत्तिकया शौचं 10 जुगुप्सितमलगन्धयोरपनयनं शरीरादिभ्यो घर्षणोपलेपनादिनेति पृथिवीशौचम्, इह च पृथिवीशौचाभिधानेऽपि यत् परैस्तल्लक्षणमभिधीयते, यदुत एका लिङ्गे गुदे तिम्रस्तथैकत्र करे दश । उभयो: सप्त विज्ञेया मृदः शुद्धौ मनीषिभिः ॥ एतच्छौचं गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । 15 त्रिगुणं वानप्रस्थानां यतीनां च चतुर्गुणम् ॥ [ ] इति, तदिह नाभिमतम्, गन्धाधुपघातमात्रस्य शौचत्वेन विवक्षितत्वात्, तस्यैव च युक्तियुक्तत्वात् इति १, तथा अद्भिः शौचमप्शौचं प्रक्षालनमित्यर्थ: २, तेजसाऽग्निना तद्विकारेण वा भस्मना शौचं तेजःशौचम् ३, एवं मन्त्रशौचं शुचिविद्यया ४, ब्रह्म ब्रह्मचर्यादि कुशलानुष्ठानम्, तदेव शौचं ब्रह्मशौचम् ५, अनेन च सत्यादिशौचं 20 चतुर्विधमपि सङ्ग्रहीतम्, तच्चेदम् सत्यं शौचं तपः शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया शौचं जलशौचं च पञ्चमम् ॥ [ ] इति, लौकिकैः पुनरिदं सप्तधोक्तम्, यदाह सप्त स्नानानि प्रोक्तानि स्वयमेव स्वयंभुवा । 25 द्रव्य-भावविशुद्ध्यर्थमृषीणां ब्रह्मचारिणाम् ॥ १. °लेपादिनेति जे१ खं० ।। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ [सू० ४५०-४५१] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । आग्नेयं वारुणं ब्राह्मं वायव्यं दिव्यमेव च । पार्थिवं मानसं चैव स्नानं सप्तविधं स्मृतम् ॥ आग्नेयं भस्मना स्नानमवगाह्यं तु वारुणम् । आपोहृष्टामयं ब्राह्मं वायव्यं तु गवां रजः ॥ सूर्यदृष्टं तु यद् दृष्टं तद्दिव्यमृषयो विदुः ।। पार्थिवं तु मृदा स्नानं मनःशुद्धिस्तु मानसम् ॥ [ ] इति । [सू० ४५०] पंच ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणति ण पासति, तंजहा- धम्मत्थिकातं, अधम्मत्थिकातं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं । एताणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणति 10 पासति धम्मत्थिकातं जाव परमाणुपोग्गलं । [टी०] अनन्तरं ब्रह्मशौचमुक्तम्, तच्च जीवशुद्धिरूपम्, जीवं च छद्मस्थो न जानाति केवली तु जानातीति सम्बन्धाच्छद्मस्थ-केवलिनोरज्ञेय-ज्ञेयवस्तुप्रतिपादनाय सूत्रद्वयमाहछउमत्थेत्यादि सुगमम्, नवरं छद्मस्थ इहावध्याद्यतिशयविकलो गृह्यते, अन्यथा अमूर्त्तत्वेन धर्मास्तिकायादीन् अजानन्नपि परमाणुं जानात्येवासौ मूर्तत्वात्तस्य । अथ 15 सर्वभावेनेत्युक्तं ततश्च तं कथञ्चिजानन्नप्यनन्तपर्यायतया न जानातीति, एवं तर्हि सङ्ख्यानियमो व्यर्थ: स्यात्, घटादीनां सुबहूनामर्थानामकेवलिना सर्वपर्यायतया ज्ञातुमशक्यत्वादिति, सव्वभावेणं ति च साक्षात्कारेण, श्रुतज्ञानेन त्वसाक्षात्कारेण जानात्येव, जीवमशरीरप्रतिबद्धं देहमुक्तम्, परमाणुश्चासौ पुद्गलश्चेति विग्रहः, व्यणुकादीनामुपलक्षणमिदम् ।। 20 [सू० ४५१] अधेलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमालता महाणिरया पन्नत्ता, तंजहा- काले, महाकाले, रोरुते, महारोरुते, अप्पतिट्ठाणे । उड्डलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालता महाविमाणा पन्नत्ता, तंजहाविजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते, सव्वट्ठसिद्धे । - [टी०] यथैतान्यतीन्द्रियाणि जिनः पञ्च जानाति तथाऽन्यदप्यतीन्द्रियं 25 १-२. ब्राह्मयं खं० ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जानातीत्यधोलोकोर्ध्वलोकवर्त्यतीन्द्रियं पञ्चस्थानकावतारि दर्शयन् सूत्रद्वयमाह- अहो इत्यादि व्यक्तम्, नवरम् अहोलोए त्ति सप्तमपृथिव्याम्, अनुत्तरा: सर्वोत्कृष्टवेदनादित्वात्ततः परं नरकाद्यभावाद्वा, महत्त्वं च चतुर्णां क्षेत्रतोऽप्यसङ्ख्यातयोजनत्वादप्रतिष्ठानस्य तु योजनलक्षप्रमाणत्वेऽप्यायुषोऽतिमहत्त्वान्महत्त्वमिति, एवमूर्ध्वलोकेऽपि । 5 [सू० ४५२] पंच पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा- हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते, उदतणसत्ते । [टी०] कालादिषु विजयादिषु च सत्त्वाधिकपुरुषा एव गच्छन्तीति तत्प्रतिपादनायाहपंच पुरिसेत्यादि, हिरिसत्ति त्ति ह्रिया लजया सत्त्वं परीषहेषु साधो: सङ्ग्रामादावितरस्य वा अवष्टम्भोऽविचलत्वं यस्यासौ ह्रीसत्त्वः, तथा ह्रियाऽपि मनस्येव सत्त्वं यस्य न 10 देहे शीतादिषु कम्पादिविकारभावात् स ह्रीमनःसत्त्व:, चलं भङ्गुरं सत्त्वं यस्य स तथा, एतद्विपर्ययात् स्थिरसत्त्व:, उदयनम् उदयगामि प्रवर्द्धमानं सत्त्वं यस्य स तथा। - [सू० ४५३] पंच मच्छा पन्नत्ता तंजहा- अणुसोतचारी, पडिसोतचारी, अंतचारी, मज्झचारी, सव्वचारी । एवामेव पंच भिक्खागा पन्नत्ता, तंजहा अणुसोतचारी जाव सव्वचारी । 15 [टी०] अनन्तरं सत्त्वपुरुष उक्तः, स च भिक्षुरेवेति तत्स्वरूपप्रतिपादनाय दृष्टान्तदार्टान्तिकसूत्रे पंच मच्छेत्यादिके आह, तत्र मत्स्य: प्राग्वत्, भिक्षाकस्तु अनुश्रोतश्चारिवदनुश्रोतश्चारी प्रतियादारभ्य भिक्षाचारी, स च प्रथम:, प्रतिश्रोतश्चारीव प्रतिश्रोतश्चारी दूरादारभ्य प्रतिश्रयाभिमुखचारीत्यर्थः, स च द्वितीयः, अन्तचारी पार्श्वचारीति तृतीयः, शेषौ प्रतीतौ। 20 [सू० ४५४] पंच वणीमगा पन्नत्ता, तंजहा- अतिधिवणीमते, किविणवणीमते, माहणवणीमते, साणवणीमते समणवणीमते । [टी०] भिक्षाकाधिकारात्तद्विशेष पञ्चधाऽऽह- पंचेत्यादि व्यक्तम्, किन्तु परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेनानुकूलभाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी प्रतीता, तां पिबति आस्वादयति पातीति वेति वनीपः, स एव वनीपको याचकः, इह तु यो १. नरकाभावाद्वा पा० जे२ ॥ २. 'प्यसंख्येययोजन' जे१ ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४५५] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ५८५ यस्यातिथ्यादेर्भक्तो भवति तं तत्प्रशंसनेन यो दानाभिमुखं करोति स वनीपक इति, तत्र भोजनकालोपस्थायी प्राघूर्णकोऽतिथिः, तद्दानप्रशंसनेन तद्भक्तात् यो लिप्सते सोऽतिथिमाश्रित्य वनीपकोऽतिथिवनीपकः, यथापाएण देइ लोगो उवगारिसु परिजिए व जुसिए वा । जो पुण अद्धाखिन्नं अतिहिं पूएइ तं दाणं ॥ [निशीथभा० ४४२५] इति । 5 जुसिए त्ति प्रीते तमिति तस्य दानं महाफलमिति शेष:, एवमन्येऽपि, नवरं कृपणा: रङ्कादयो दु:स्था:, उदाहरणम् किविणेसु दुम्मणेसु य अबन्धवायंकिजुंगियंगेसु । पूयाहिजे लोए दाणपडागं हरइ देंतो ॥ [निशीथभा० ४४२४] आयंकि त्ति रोगी, जुंगियंगो व्यङ्गितः, पूजाहार्ये पूजितपूजके । माहना ब्राह्मणा:, 10 तत्रोदाहरणम् लोयाणुग्गहकारिसु भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि नाम बंभबंधुसु किं पुण छक्कम्मनिरयाणं ॥ [निशीथभा० ४४२३] बंभबंधुसु त्ति जन्ममात्रेण ब्रह्मबान्धवेषु, निर्गुणेष्वपीत्यर्थः, यजनादीनि षट् कर्माणीति । श्ववनीपको यथा 15 अवि नाम होज सुलभो गोणाईणं तणाइ आहारो । छिच्छिक्कारहयाणं नहु सुलभो होज सुणताणं ॥ केलासभवणा एए गुज्झगा आगया महिं ।। चरंति जक्खरूवेणं पूयाऽपूयाहिताऽहिता ॥ [निशीथभा० ४४२६-२७] पूजया हिता अपूजया त्वहिता इत्यर्थः । श्रमणा: पञ्चधा- निर्ग्रन्था: शाक्यास्तापसा 20 गैरिका आजीविकाश्चेति, तत्र शाक्यवनीपको यथाभुंजंति चित्तकम्मट्ठिया व कारुणियदाणरुइणो य । अवि कामगद्दभेसु वि न नस्सए किं पुण जतीसु ? ॥ [निशीथभा० ४४२१] इति, एवमन्येऽपि तापसवनीपकादयो द्रष्टव्या इति । [सू० ४५५] पंचहिं ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तंजहा- अप्पा पडिलेहा, 25 लाघविते पसत्थे, रूवे वेसासिते, तवे अणुन्नाते, विउले इंदियनिग्गहे । १. काले प्रस्थाप्य खं० जेसं१ ॥ २. प्राघुणको जे१ खं० ॥ ३. "जिए य जु जे१ ॥ -A-22 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ५८६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] योऽयं वनीपकः उक्तः स साधुविशेष:, साधुश्चाचेलो भवतीत्यचेलत्वस्य प्रशंसास्थानान्याह- पंचहीत्यादि प्रतीतम्, नवरं न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्यासावचेलकः, स च जिनकल्पिकविशेषस्तदभावादेव, तथा जिनकल्पिकविशेष: स्थविरकल्पिकश्चाल्पा-ऽल्पमूल्य-सप्रमाण-जीर्ण-मलिनवसनत्वादिति, प्रशस्त: 5 प्रशंसितः, तीर्थकरादिभिरिति गम्यते, अल्पा प्रत्युपेक्षाऽचेलकस्य स्यादिति गम्यम्, प्रत्युपेक्षणीयतथाविधोपधेरभावाद्, एवं च न स्वाध्यायादिपरिमन्थ इति, तथा लघो वो लाघवम्, तदेव लाघविकं द्रव्यतः, भावतोऽपि रागविषयाभावात्, प्रशस्तम् अनिन्द्यं स्यात्, तथा रूपं नेपथ्यं वैश्वासिकं विश्वासप्रयोजनमलिप्सुतासूचकत्वात् स्यादिति, तथा तप: उपकरणसंलीनतारूपमनुज्ञातं जिनानुमतं स्यात्, तथा विपुलो महा10 निन्द्रियनिग्रहः स्याद्, उपकरणं विना स्पर्शनप्रतिकूलशीत-वाता-ऽऽतपादिसहनादिति। [सू० ४५६] पंच उक्कला पन्नत्ता, तंजहा- दंडुक्कले, रज्जुक्कले, तेणुक्कले देसुक्कले, सव्वुक्कले । [टी०] इन्द्रियनिग्रहश्च सत्त्वेनोत्कटैरेव कर्तुं शक्य इत्युत्कटभेदानाह- पंचेत्यादि सुगमम्, नवरम् उक्कल त्ति उत्कटा उत्कला वा, तत्र दण्डः आज्ञा अपराधिदण्डनं 15 वा सैन्यं वा उत्कटः प्रकृष्टो यस्य तेन वोत्कटो य: स दण्डोत्कट:, दण्डेन वोत्कलति वृद्धिं याति य स दण्डोत्कल:, इत्येवं सर्वत्र, नवरं राज्यं प्रभुता, स्तेना: चौरा:, देशो मण्डलम्, सर्वम् एतत्समुदय इति । [सू० ४५७] पंच समितीतो पन्नत्ताओ, तंजहा- इरियासमिती, भासासमिती, जाव पारिट्ठावणियासमिती ।। 20 [टी०] असंयतो दण्डादिभिरुत्कटो भवति, संयतस्तु समितिभिरिति समिती: प्राहपंचेत्यादि सुगमम्, नवरं सम् एकीभावेनेति: प्रवृत्ति: समिति: शोभनैकाग्रपरिणामस्य चेष्टेत्यर्थः, ईरणमीर्या गमनमित्यर्थः, तत्र समितिरीर्यासमिति:, उक्तं च– ईर्यासमितिर्नाम रथ-शकट-यान-वाहनाक्रान्तेषु मार्गेषु सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुकविविक्तेषु युगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनं कत्तय॑म् [आव० हारि० ] इति । तथा भाषणं भाषा, तस्यां समितिर्भाषासमिति:, १. पकरूपः स खं० । पक उक्तरूप: स जेसं० १ ॥२. राधे द पा० ॥ ३. आवश्यकसूत्रस्य चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने ‘पडिक्कमामि पंचहिं समिईहिं...' इति सूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तौ सर्वमिदं द्रष्टव्यम् । दृश्यतां प्रथमं परिशिष्टमत्र ।। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४५८-४५९] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ५८७ उक्तं च– भाषासमिति म हितमितासन्दिग्धार्थभाषणम् [तत्त्वार्थभा० ९५] । तथा एषणमेषणा गवेषण-ग्रहण-ग्रासैषणाभेदा शङ्कादिलक्षणा वा तस्यां समितिरेषणासमिति:, उक्तं च- एषणासमिति म गोचरगतेन मुनिना सम्यगुपयुक्तेन नवकोटीपरिशुद्धं ग्राह्यम् [ ] इति, तथा आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति: भाण्डमात्रे आदान-निक्षेपविषया सुन्दरचेष्टेत्यर्थः, इह चाप्रत्युपेक्षिताप्रमार्जिताद्या: सप्त भङ्गा: पूर्वोक्ता भवन्तीति, तथा 5 उच्चार-प्रश्रवण-खेल-सिंघान-जल्लानां पारिष्ठापनिका त्यागस्तत्र समितिर्या सा तथेति, तत्रोच्चारः पुरीषम्, प्रश्रवणं मूत्रम्, खेल: श्लेष्मा, जल्लो मल:, सिंघानो नासिकोद्भव: श्लेष्मा, अत्रापि त एव सप्त भङ्गा इति । [सू० ४५८] पंचविधा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा- एगिदिता जाव पंचेदिता १ ।। 10 एगिंदिया पंचगइया पंचागतिता पन्नत्ता, तंजहा- एगिदिए एगिदितेसु उववजमाणे एगिंदितेहिंतो वा जाव पंचेंदिएहिंतो वा उववजेजा, से चेव णं से एगिदिते एगिदितत्तं विप्पजहमाणे एगिदितत्ताते वा जाव पंचेंदितत्ताते वा गच्छेज्जा २॥ बेइंदिया पंचगतिता पंचागइया एवं चेव ३। एवं जाव पंचेंदिया। पंचेंदिया 15 पंचगतिता पंचागतिता पन्नत्ता, तंजहा- पंचेंदिया जाव गच्छेज्जा ४-५-६। पंचविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा- कोधकसायी जाव लोभकसायी अकसायी ७ । ___ अहवा पंचविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा- नेरइया जाव देवा, सिद्धा ८॥ [टी०] समितिप्ररूपणं च जीवरक्षार्थमिति जीवस्वरूपप्रतिपादनाय सूत्राष्टकमाहपंचेविहेत्यादि स्फुटार्थम्, नवरं संसारसमापन्ना भववर्त्तिन: । विप्रजहत् परित्यजन्। सर्वजीवा: संसारि-सिद्धा: । अकषायिण: उपशान्तमोहादयः । [सू० ४५९] अह भंते ! कल-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-णिप्फाव-कुलत्थआलिसंदग-सतीण-पलिमंथगाणं एतेसि णं धन्नाणं कोट्ठाउत्ताणं जधा सालीणं 25 १. भेदाच्छंका जे२ ॥ २. सू० ४३८ टीका ॥ ३. परि पा० जे२ ।। 20 . Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जाव केवतितं कालं जोणी संचिट्ठति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पंच संवच्छराइं, तेण परं जोणी पमिलायति जाव तेण परं जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते । [टी०] जीवाधिकाराद्वनस्पतिजीवानाश्रित्य पञ्चस्थानकमाह- अहेत्यादि, त्रिस्थानकवद् 5 व्याख्येयम्, नवरं कला वट्टचणगा, मसूरा चणइयाओ, तिल-मुग्ग-मासा प्रतीता:, निप्फावा वल्ला:, कुलत्था चवलगसरिसा चिप्पिडया भवन्ति, आलिसंदया चवलया, सतीणा तुवरी, पलिमंथा कालचणगा इति । [सू० ४६०] पंच संवच्छरा पन्नत्ता, तंजहा- णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छरे, पमाणसंवच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, सणिंचरसंवच्छरे । 10 जुगसंवच्छरे पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा- चंदे, चंदे, अभिवढिते, चंदे, अभिवड्डिते चेव । पमाणसंवच्छरे पंचविधे पन्नत्ते, तंजहा- नक्खत्ते, चंदे, उऊ, आदिच्चे, अभिवड्ढिते । लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पन्नत्ते, तंजहासमगं नक्खत्ता जोगं जोयंति समगं उदू परिणमंति । णच्चुण्ह णातिसीतो बहूदतो होति नक्खत्ते ॥३७॥ ससि सगलपुण्णमासी जोतेती विसमचारिणक्खत्ते । कडुतो बहूदतो वा तमाहु संवच्छरं चंदं ॥३८॥ विसमं पवालिणो परिणमंति अणुदूसु देति पुप्फफलं । __20 वासं ण सम्म वासति तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥३९॥ पुढविदगाणं तु रसं पुप्फफलाणं तु देति आदिच्चो । अप्पेण वि वासेणं सम्मं निप्फज्जए सासं ॥४०॥ आदिच्चतेयतविता खण-लव-दिवसा उऊ परिणमंति । पूरेति य थलताई तमाहु अभिववितं जाणे ॥४१॥ १. सू० १५४ ॥ २. निष्पावा जे१ खं० ॥ ३. चिप्पिडिया जे१ ॥ ४. आलियसं जे१ ॥ 15 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८९ [सू० ४६०] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । [टी०] अनन्तरं संवत्सरप्रमाणेन योनिव्यतिक्रम उक्तः, अधुना स एव संवत्सरश्चिन्त्यते इति, पंच संवच्छरेत्यादिसूत्रचतुष्टयम्, तत्र नक्खत्तसंवच्छरे त्ति, इह चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकालो नक्षत्रमास:, स च सप्तविंशति: दिनानि एकविंशति: सप्तषष्टिभागा दिवसस्येति २७४४ । एवंविधद्वादशमासो नक्षत्रसंवत्सर: १, स चायम्- त्रीणि शतान्यह्नां सप्तविंशत्युत्तराणि एकपञ्चाशच्च सप्तषष्टिभागा इति ३२७ ११ । पञ्चसंवत्सरात्मकं युगं 5 तदेकदेशभूतो वक्ष्यमाणलक्षणश्चन्द्रादियुगसंवत्सरः २, प्रमाणं परिमाणं दिवसादीनां तेनोपलक्षितो वक्ष्यमाण एव नक्षत्रसंवत्सरादि: प्रमाणसंवत्सर: ३, स एव लक्षणानां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सर: ४, यावता कालेन शनैश्चरो नक्षत्रमेकमथवा द्वादशापि राशीन् भुङ्क्ते स शनैश्चरसंवत्सर इति, यतश्चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रम्- सनिच्छरसंवच्छरे अट्ठावीसविहे पन्नत्ते अभीई सवणे जाव उत्तरासाढा, जं वा सनिच्छरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहिं 10 सव्वं नक्खत्तमंडलं समाणेइ [चन्द्र० १०।२०।५८] त्ति । युगसंवत्सरः पञ्चविधः, तद्यथा- चंदे त्ति एकोनविंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्विषष्टिभागा दिवसस्येत्येवंप्रमाण: २९ ३२ , कृष्णप्रतिपदारब्धः पूर्णमासीनिष्ठितश्चन्द्रमासः, तेन मासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरः, तस्य च प्रमाणमिदम्- त्रीणि शतान्यह्नां चतुःपञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च द्विषष्टिभागा: ३५४ १२, एवं द्वितीय-चतुर्थावपि 15 चन्द्रसंवत्सरौ, अभिवड्डिए त्ति एकत्रिंशद्दिनानि एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामभिवर्द्धितमास: ३११२१, एवंविधेन मासेन द्वादशमासप्रमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः, स च प्रमाणेन त्रीणि शतान्यह्नां त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्विषष्टिभागा: ३८३४७ । इत्येवं पञ्चमोऽपि, एभिश्चान्द्रादिभिः पञ्चभिः संवत्सरैरेकं युगं भवति, तेषां चं पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये अभिवर्द्धिताख्ये संवत्सरे अधिकमासक: पततीति । 20 प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः, तत्र नक्षत्र इति नक्षत्रसंवत्सरः, सच उक्तलक्षण:, केवलं तत्र नक्षत्रमण्डलस्य चन्द्रभोगमात्रं विवक्षितमिह तु दिन-दिनभागादिप्रमाणमिति, तथा चन्द्राभिवर्द्धितावप्युक्तलक्षणावेव किन्तु तत्र युगावयवतामात्रमिह तु प्रमाणमिति विशेष:, उऊ इति ऋतुसंवत्सरः, त्रिंशदहोरात्रप्रमाणेीदशभिः ऋतुमासै: सावनमास १. च नास्ति जे१ ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कर्म-मासपर्यायैर्निष्पन्न: षष्ट्यधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति ३६०, आइच्चे त्ति आदित्यसंवत्सरः, स च त्रिंशद्दिनान्यर्द्धं चेति, एवंविधमासद्वादशकनिष्पन्न: षट्षष्ट्यधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति ३६६ । अयमेवानन्तरोक्तो नक्षत्रादिसंवत्सरो लक्षणप्रधानतया लक्षणसंवत्सर इति । 5 तत्र नक्षत्रमाह- समगं गाहा, समकं समतया नक्षत्राणि कृत्तिकादीनि योगं कार्तिकपौर्णमास्यादितिथ्या सह सम्बन्धनं योजयन्ति कुर्वन्ति, इदमुक्तं भवति– यानि नक्षत्राणि यासु तिथिषूत्सर्गतो भवन्ति, यथा कार्तिक्यां कृत्तिका:, तानि तास्वेव यत्र भवन्ति, यथोक्तम् जेट्ठो वच्चइ मूलेण सावणो धणिट्ठाहिं । 10 अद्दासु य मग्गसिरो सेसा नक्खत्तनामिया मासा ॥ [ ] इति तथा यत्र समतयैव ऋतव: परिणमन्ति, न विषमतया, कार्तिक्या अनन्तरं हेमन्तर्तुः पौष्या अनन्तरं शिशिरर्तुरित्येवमवतरन्तीति भाव:, यश्च न नैव अतीव उष्णं धर्मो यत्र सोऽत्युष्णः, न नैवाऽतिशीत: अतिहिम:, बहूदकं यत्र स बहूदकः, स च भवति लक्षणतो नक्षत्र इति, नक्षत्रचारलक्षणलक्षितत्वान्नक्षत्रसंवत्सर इति, अस्यां च गाथायां 15 पञ्चमाष्टमावंशकौ पञ्चकलावितीयं विचित्रेति छंदोविद्भिरुपदिश्यते, पबहुला विचित्तत्ति गाथालक्षणात् पत्ति पंचकलो गण इति । ससि गाहा ससि त्ति विभक्तिलोपात् शशिना चन्द्रेण सकलपौर्णमासी समस्तराकां य: संवत्सर इति गम्यते अथवा यत्र शशी सकलां पौर्णमासी योजयति आत्मना सम्बन्धयति । तथा विषमचारीणि यथास्वतिथिष्ववर्तीनि नक्षत्राणि यत्र स 20 विषमचारिनक्षत्रः, तथा कटुकोऽतिशीतोष्णसद्भावात् बहूदकश्च, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, तमेवंविधमाहुर्लक्षणतो ब्रुवते तद्विद: संवत्सरं चन्द्रं चन्द्रचारलक्षणलक्षितत्वादिति । विसमं गाहा, विषमं वैषम्येण प्रवालं पल्लवाङ्कुरः, तद्विद्यते येषां ते प्रवालिनो वृक्षा इति गम्यते, परिणमन्ति प्रवालवत्तालक्षणया अवस्थया जायन्ते, अथवा प्रवालिनो वृक्षा: परिणमन्ति अङ्कुरोद्रेदाद्यवस्थां यान्ति, तथा अनृतुषु अस्वकालं ददति 25 प्रयच्छन्ति पुष्पफलम्, यथा चैत्रादिषु कुसुमादिदायिनोऽपि स्वरूपेण चूता: माघादिषु Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४६१] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । पुष्पादि यच्छन्तीति, तथा वर्षं वृष्टिं मेघो न सम्यग् वर्षति यत्रेति गम्यते, तमाहुर्लक्षणतः संवत्सरं कार्मणम्, यस्य ऋतुसंवत्सरः सावनसंवत्सरश्चेति पर्यायौ । पुढविगाहा, यत्र त्विति गम्यते, तथा च यत्र तु संवत्सरे पृथिव्युदकयो रसं माधुर्य-स्निग्धतालक्षणं पुष्पफलानां च ददात्यादित्यः तथास्वभावत्वात्, तथाविधोदकाभावेऽपीति भाव:, अत एवाल्पेनापि वर्षेण सम्यक् यथाभिमतं निष्पद्यते 5 सस्यं शाल्यादिधान्यं स लक्षणत आदित्यसंवत्सर उच्यत इति शेष इति । ५९१ आइच्च गाहा, आदित्यतेजसा तप्ताः पृथिव्यादितापेऽप्युपचारात् क्षणादयस्तप्ता इति मन्तव्यम्, तत्र क्षणो मुहूर्त:, लवः एकोनपञ्चाशदुच्छ्वासप्रमाणः, दिवस : अहोरात्रः, ऋतु: मासद्वयप्रमाण:, परिणमन्ति अतिक्रामन्ति यत्रेति गम्यते, यश्च पूरयति वायूत्खातरेणुभिः स्थलानि भूमिप्रदेशविशेषान् तमाहुराचार्या लक्षणतः 10 संवत्सरमभिवर्द्धितं जाणे त्ति त्वमपि शिष्य ! तं तथैव जानीहीति । संवत्सरव्याख्यानमिदं तत्त्वार्थटीकाद्यनुसारेण प्रायो लिखितमिति । [सू० ४६१] पंचविधे जीवस्स णिज्जाणमग्गे पन्नत्ते, तंजहा - पातेहिं, ऊरूहिं, उरेणं, सिरेणं, सव्वंगेहिं । पाएहिं णिज्जायमाणे निरयंगामी भवति, ऊरूहिं णिज्जायमाणे तिरियगामी भवति, उरेणं निज्जायमाणे मणुयगामी भवति, 15 सिरेणं णिज्जायमाणे देवगामी भवति, सव्वंगेहिं निज्जायमाणे सिद्धिगतिपज्जवसाणे पण्णत्ते । [टी०] अनन्तरं संवत्सर उक्तः, स च काल:, कालात्यये च शरीरिणां शरीरान्निर्गमो भवतीत्यतस्तन्मार्गं निरूपयन्नाह - पंचविहेत्यादि व्यक्तम्, किन्तु निर्याणं मरणकाले शरीरिण: शरीरान्निर्गमः, तस्य मार्गो निर्याणमार्गः पादादिकः, तत्र पाएहिं ति पादाभ्यां 20 मार्गभूताभ्यां करणताऽऽपन्नाभ्यां जीव: शरीरान्निर्यातीति शेष:, एवम् ऊरुभ्यामित्यादावपि । अथ क्रमेणास्य निर्याणमार्गस्य फलमाह - पादाभ्यां शरीरान्निर्यान् जीवो निरयगामि त्ति प्राकृतत्वादनुस्वार इति, निरयगामी भवति, एवमन्यत्रापि, नवरं सर्वाणि च तान्यङ्गानि च सर्वाङ्गानि तैर्निर्यान्, सिद्धिगतिः पर्यवसानं संसरणपर्यन्तो यस्य स सिद्धिगतिपर्यवसानः प्रज्ञप्त इति । १. तत्त्वार्थ० सिद्ध० ४।१५ ॥ 25 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे _[सू० ४६२] पंचविधे छेदणे पन्नत्ते, तंजहा- उप्पाछेदणे, वियच्छेयणे, बंधणच्छेयणे, पएसच्छेदणे, दोधारच्छेदणे । पंचविधे आणंतरिते पन्नत्ते, तंजहा- उप्पायणंतरिते, वियाणंतरिते, पतेसाणंतरिते, समयाणंतरिते, सामण्णाणंतरिते । 5 [टी०] निर्याणं चायुष्कच्छेदने भवतीति छेदनं प्ररूपयन्नाह-पंचविहेत्यादि कण्ठ्यम्, केवलम् उप्प त्ति उत्पादो देवत्वादिपर्यायान्तरस्य, तेन छेदो जीवादिद्रव्यस्य विभाग उत्पादच्छेदनम्, तथा विय त्ति व्ययो विगमो मानुषत्वादिपर्यायस्य, तेन छेदनं जीवादेरेवेति व्ययच्छेदनम्, तथा बन्धनस्य जीवापेक्षया कर्मण: स्कन्धापेक्षया तु सम्बन्धस्य छेदनं विनशनं बन्धनच्छेदनमिति, तथा तस्यैव प्रदेशतो निर्विभागावयवतो 10 बुद्ध्या छेदनं विभजनं प्रदेशच्छेदनम्, तथा जीवादेरेव द्रव्यस्य द्विधा करणं द्विधाकारः, स एव छेदनं द्विधाकारच्छेदनम्, उपलक्षणं चैतत् त्रिधाकारादीनाम्, अनेन च देशत: छेदनमुक्तम्, अथवोत्पादस्य उत्पत्ते: छेदनं विरहो यथा नरकगतौ द्वादश मुहूर्ता:, व्ययच्छे दनम् उद्वर्तनाविरह:, सोऽप्येवम्, बन्धनविरहो यथोपशान्तमोहस्य सप्तविधकर्मबन्धनापेक्षया, प्रदेशच्छे दनं प्रदेशविरहो यथा 15 विसंयोजितानामनन्तानुबन्ध्यादिकर्मप्रदेशानाम्, तथा द्वे धारे यस्य तद् द्विधारं तच्च तच्छेदनं च द्विधारच्छेदनमुपलक्षणत्वादस्यैकधाराद्यपि दृश्यम्, तच्च क्षुर-खड्ग-चक्रादि, एतच्च छेदनशब्दसामान्यादिहोपात्तमिति, प्रदेशच्छेदनस्थाने क्वचित् पंथच्छेयणे त्ति पठ्यते, तत्र पथिच्छेदनं मार्गच्छेदनं मार्गातिक्रमणमित्यर्थः । छेदनस्य च विपर्यय आनन्तर्यमिति तदाह- पंचविहेत्यादि, आनन्तर्यं 20 सातत्यमच्छेदनमविरह इत्यर्थः, तत्रोत्पादस्य यथा निरयगतौ जीवानामुत्कर्षत: असङ्ख्येया: समया:, एवं व्ययस्यापि, प्रदेशानां समयानां च तत् प्रतीतमेव, अविवक्षितोत्पाद-व्ययादिविशेषणमानन्तर्यमानं सामान्यानन्तर्यम्, श्रामण्यस्य वा आकर्षविरहेणानन्तर्यं श्रामण्यानन्तर्यमिति बहुजीवापेक्षया वा श्रामण्यप्रतिपत्त्यानन्तर्यम्, तच्चाष्टौ समया इति । १. साम्यादि पा० जे२ ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४६३-४६४] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ५९३ [सू० ४६३] पंचविधे अणंतते पन्नत्ते, तंजहा- णामाणंतते, ठवणाणंतते, दव्वाणंतते, गणणाणंतते, पदेसाणंतते १। अहवा पंचविहे अणंतते पन्नत्ते, तंजहा- एगतोणंतते, दुहतोणंतते, देसवित्थाराणंतते, सव्ववित्थाराणंतते, सासयाणंतते २॥ [टी०] अनन्तरसूत्रे समयप्रदेशानामानन्तर्यमुक्तम्, ते चानन्ता इत्यनन्तकमेव 5 प्ररूपयन्नाह- पंचविहेत्यादि सूत्रद्वयं प्रतीतार्थम्, नवरं नाम्ना अनन्तकं नामानन्तकम् अनन्तकमिति यस्य नाम, यथा समयभाषया वस्त्रमिति, स्थापनैव स्थापनया वा अनन्तकं स्थापनानन्तकम् अनन्तकमिति कल्पनयाऽक्षादिन्यासः, ज्ञशरीरादिव्यतिरिक्तं द्रव्याणामण्वादीनां गणनीयानामनन्तकं द्रव्यानन्तकम्, गणना सङ्ख्यानम्, तल्लक्षणमनन्तकमविवक्षिताण्वादिसङ्ख्येयविषयसङ्ख्याविशेषो गणनानन्तकम्, 10 प्रदेशानां सङ्ख्येयानामनन्तकं प्रदेशानन्तकमिति । एकत: एकेनांशेनायामलक्षणेनाऽनन्तकमेकतोऽनन्तकम् एकश्रेणीकं क्षेत्रम्, द्विधा आयाम-विस्ताराभ्यामनन्तकं द्विधानन्तकं प्रतरक्षेत्रम्, क्षेत्रस्य यो रुचकापेक्षया पूर्वाद्यन्यतरदिग्लक्षणो देशस्तस्य विस्तारो विष्कम्भस्तस्य प्रदेशापेक्षया अनन्तकं देशविस्तारानन्तकम्, सर्वाकाशस्य तु चतुर्थम्, शाश्वतं च तदनन्तकं च शाश्वतानन्तकम् 15 अनाद्यपर्यवसितं यज्जीवादिद्रव्यमनन्तसमयस्थितिकत्वादिति । [सू० ४६४] पंचविहे णाणे पन्नत्ते, तंजहा- आभिणिबोहियणाणे सुयनाणे ओहिणाणे, मणपज्जवणाणे, केवलणाणे । __पंचविहे णाणावरणिजे कम्मे पन्नत्ते, तंजहा- आभिणिबोहियणाणावरणिज्जे जाव केवलनाणावरणिज्जे । 20 [टी०] एवंभूतार्थपरिच्छेदो ज्ञानाद्भवतीति ज्ञानस्वरूपनिरूपणायाह- पंचविहेत्यादि, पञ्चेति पञ्चसङ्ख्या विधा: भेदा यस्य तत् पञ्चविधम्, ज्ञातिर्ज्ञानमिति भावसाधन:, संविदित्यर्थः, ज्ञायते वाऽनेनास्माद्वेति ज्ञानं तदावरणस्य क्षय: क्षयोपशमो वा, ज्ञायते वाऽस्मिन्निति ज्ञानम् आत्मा तदावरणक्षय-क्षयोपशमपरिणामयुक्तः, जानातीति वा ज्ञानं १. णामाह पा० जे२ ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तदेव, स्वविषयग्रहणरूपत्वादिति, प्रज्ञप्तं प्ररूपितमर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैः, उक्तं च अत्थं भासइ अरूहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ ॥ [आव०नि०९२, विशेषाव०१११९] इति । अथवा प्राज्ञात् तीर्थकरात् प्राज्ञैर्वा प्रज्ञया वा आप्तं प्राप्तमात्तं वा प्राज्ञाप्तं प्रज्ञाप्त प्राज्ञात्तं प्रज्ञात्तं वा, तद्यथा- अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वान्नियतोऽसंशयरूपत्वाद् बोध: संवेदनमभिनिबोध:, स एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिकम्, अभिनिबोधे वा भवं तेन वा निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वेत्याभिनिबोधिकम्, अभिनिबुध्यते वा तत् कर्मभूतमित्याभिनिबोधिकम् अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव, तस्य स्वसंविदितरूपत्वात्, 10 भेदोपचारादित्यर्थः, अभिनिबुध्यते वा अनेनास्मादस्मिन् वेत्याभिनिबोधिकं तदावरणकर्मक्षयोपशम इति भावार्थः, आत्मैव वा अभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वादभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिकम्, तच्च तज्ज्ञानं चेत्याभिनिबोधिकज्ञानमिति, आह च अत्थाभिमुहो नियओ बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो । 15 सो चेवाभिणिबोहियमहव जहाजोग्गमाजोजं ॥ तं तेण तओ तम्मि य सो वाऽभिणिबुज्झए तओ वा तं । [विशेषाव० ८०-८१] ति। तथा श्रूयत इति श्रुतं शब्द एव, भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारादिति भावार्थ:, श्रूयते वा अनेनास्मादस्मिन् वेति श्रुतम्, तदावरणकर्मक्षयोपशम इत्यर्थः, आत्मैव वा श्रुतोपयोगपरिणामानन्यत्वाच्छृणोतीति श्रुतम्, श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानम्, 20 आह च तं तेण तओ तम्मि य सुणेइ सो वा सुयं तेणं ॥ [विशेषाव० ८१] ति । तथा अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन् वेत्यवधि:, अवधीयत इत्यधोऽधो विस्तृतं परिच्छिद्यते मर्यादया वेत्यर्थः, स चावधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव, तदुपयोगहेतुत्वादिति, अवधानं वा अवधिर्विषयपरिच्छेदनमित्यर्थः, अवधिश्चासौ ज्ञानं चेत्यवधिज्ञानम्, 25 उक्तं च १. प्रज्ञैर्वा जे१ ॥ २. त्वादभेदोप पा० विना ॥ ३. इति भावार्थ: जे१ ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९५ ___ 10 [सू० ४६४] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । तेणावधीयते तम्मि वाऽवहाणं च तोऽवही सो य। मजाया जं ताए दव्वाइ परोप्परं मुणइ ॥ [विशेषाव० ८२] इति । तथा परिः सर्वतोभावे, अवनम् अवः, अयनम् वा अय:, आयो वा गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अव: अय: आयो वा पर्यव: पर्यय: पर्यायो वा, मनसि मनसो वा पर्यवः पर्यय: पर्यायो वा मन:पर्यवो मनःपर्ययो मनःपर्यायो वा, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, 5 स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वा, अथवा मनसः पर्यायाः पर्यया पर्यवा वा भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनादिप्रकारा इत्यर्थः, तेषु तेषां वा ज्ञानं मन:पर्यायज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं मन:पर्यवज्ञानमिति, आह च पज्जवणं पजयणं पज्जाओ वा मणम्मि मणसो वा । तस्स व पजायादिन्नाणं मणपजवन्नाणं ॥ [विशेषाव० ८३] ति । केवलम् असहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा आवरणमलकलङ्करहितत्वात् सकलं वा तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्ते: असाधारणं वा अनन्यसदृशत्वात् अनन्तं वा ज्ञेयानन्तत्वात् यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासीति भावना, तच्च तत् ज्ञानं चेति केवलज्ञानम्, उक्तं च केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च ।। पायं च नाणसद्दो नाणसमाणाहिगरणोऽयं ॥ [विशेषाव० ८४] ति । प्राय इति मन:पर्यायज्ञाने तत्पुरुषस्यापि दर्शितत्वात् । इह च स्वामि-काल-कारणविषय-परोक्षत्वसाधर्म्यात् तद्भावे च शेषज्ञानसद्भावादादावेव मतिज्ञान-श्रुतज्ञानयोरुपन्यास इति, तथाहि- य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य, जत्थ मतिनाणं तत्थ सुयनाणं [नन्दीसू० १५] इति वचनात्, तथा यावान् मतिज्ञानस्य स्थितिकाल- 20 स्तावानेवेतरस्य, प्रवाहापेक्षया अतीतादि: सर्व एव, अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया तु षट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति, तथा यथा मतिज्ञानं क्षयोपशमहेतुकं तथा श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानमोघत: सर्वद्रव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानं परोक्षं एवं श्रुतज्ञानमपि, तथा मतिज्ञानश्रुतज्ञानभावे चावध्यादिभावादिति, आह च१. दव्वाइं जे१ ॥ २. नामसमाणा - विशेषाव० ॥ 15 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ५९६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे जं सामि-काल-कारण- विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाई । तब्भावे सेसाइं तेणाईए मइसुयाई ॥ [ विशेषाव० ८५] । मतिपूर्वकत्वात् श्रुतस्य विशिष्टमत्यंशरूपत्वाद्वा श्रुतस्यादौ मतेरुपन्यास इति उक्तं मइपुव्वं जेण सुयं तेणाई मई विट्ठिो वा । मइभेओ चेव सुयं तो मइसमणंतरं भणियं ॥ [ विशेषाव० ८६ ] ति । तथा काल-विपर्यय-स्वामि- लाभसाधर्म्याद् मतिज्ञानश्रुतज्ञानानन्तरमवधिज्ञानस्योपन्यास:, तथाहि— यावानेव मतिज्ञान - श्रुतज्ञानयोः स्थितिकालः प्रवाहापेक्षा अप्रतिपतितैकसत्त्वाधारापेक्षया च तावानेवावधिज्ञानस्यापि, तथा यथैव मतिज्ञान10 श्रुतज्ञानयोर्विपर्ययज्ञाने भवतः एवमिदमपि मिथ्यादृष्टेर्विभङ्गज्ञानं भवतीति, तथा तयो: स्वामी स एवास्यापि भवतीति, तथा विभङ्गज्ञानिनस्त्रिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्तौ युगपदेव ज्ञानत्रयलाभसम्भव इति, उक्तं च- काल- विवज्जय- सामित्त-लाभसाहम्मओवी तत्तो । [ विशेषाव० ८७] 25 च तथा छद्मस्थ-विषय- भावा-ऽध्यक्षत्वसाधर्म्यादवधिज्ञानानन्तरं मनः पर्यवज्ञानस्यो15 पन्यासः, तथाहि— यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्य भवति एवं मनः पर्यायज्ञानमपि, तथा यथाऽवधिज्ञानं रूपिद्रव्यविषयमेवमेतदपि, तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे तथेदमपि, तथा यथाऽवधिज्ञानं प्रत्यक्षं तथेदमपीति, उक्तं च- माणसमेत्तो छउमत्थविसयभावादिसामन्ना ॥ [ विशेषाव० ८७ ] इति । तथा मन: पर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानोपन्यासः तस्य सकलज्ञानोत्तमत्वात्, तथा अप्रमत्तयतिस्वामिसाधर्म्यात्, तथाहि - यथा 20 मनःपर्यायज्ञानमुत्तमयतेरेव भवति एवमिदमपि, तथा अवसानलाभात्, यो हि सर्वज्ञानानि समासादयति स खल्वन्त एवेदमाप्नोतीति, तथा विपर्ययाभावसाधर्म्यात्, तथाहि-- यथा मन:पर्यायज्ञानं सविपर्ययं न भवत्येवं केवलमपीति, उक्तं च अंते केवलमुत्तमजइसामित्तावसाणलाभाओ । एत्थं च मतिसुयाइं परोक्खमियरं च पच्चक्खं ॥ [ विशेषाव० ८८] ति । उक्तस्वरूपस्य ज्ञानस्य यदावारकं कर्म्म तत्स्वरूपाभिधानाय सूत्रं पंचेत्यादि सुगमम् । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४६५-४६६ ] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । [सू० ४६५ ] पंचविधे सज्झाए पन्नत्ते, तंजहा - वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मका । [टी०] उक्तं ज्ञानावरणमिति तत्क्षपणोपायविशेषस्य स्वाध्यायस्य भेदानाहपंचविहेत्यादि सुगमम्, नवरं शोभनम् आ मर्यादया अध्ययनं श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्याय:, तत्र वक्ति शिष्यस्तं प्रति गुरोः प्रयोजकभावो वाचना पाठनमित्यर्थः, गृहीतवाचनेनापि संशयाद्युत्पत्तौ पुनः प्रष्टव्यमिति पूर्वाधीतस्य सूत्रादेः शङ्कितादौ प्रश्नः प्रच्छनेति, प्रच्छनाविशोधितस्य सूत्रस्य मा भूद्विस्मरणमिति परिवर्त्तना, सूत्रस्य गुणनमित्यर्थः, सूत्रवदर्थेऽपि सम्भवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा, चिन्तनिकेत्यर्थः एवमभ्यस्तश्रुतेन धर्मकथा विधेयेति धर्मस्य श्रुतरूपस्य कथा व्याख्या धर्मकथेति । [सू० ४६६] पंचविधे पच्चक्खाणे पन्नत्ते, तंजहा - सद्दहणसुद्धे, विणयसुद्धे, अणुभासणासुद्धे, अणुपालणासुद्धे, भावसुद्धे । पंचविधे पडिक्कमणे पन्नत्ते, तं जहा - आसवदारपडिक्कमणे, मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसायपडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे I [टी०] धर्मकथामन्थनिर्मथितमिथ्याभावाश्च भव्याः शुद्धं प्रत्याख्यानं प्रपद्यन्त इति 15 तदाह - पंचविहेत्यादि, प्रति प्रतिषेधत आख्यानं मर्यादया कथनं प्रतिज्ञानं प्रत्याख्यानम्, तत्र श्रद्धानेन तथेतिप्रत्ययलक्षणेन शुद्धं निरवद्यं श्रद्धानशुद्धम्, श्रद्धानाभावे हि तदशुद्धं भवति, एवं सर्वत्र, इह निर्युक्तिगाथा " पच्चक्खाणं सव्वण्णुदेसियं जं जहिं जया काले तं जो सद्दहइ नरो तं जाणसु सद्दहणसुद्धं ॥ [आव० भा० २४६ ] विनयशुद्धं यथा किइकम्मस्स विसोहिं पउंजए जो अहीणमइरित्तं । मणवयणकायगुत्तो तं जाणसु विणयओ सुद्धं ॥ [ आव० भा० २४८] अनुभाषणाशुद्धं यथा– १. गाथा: पासं० ॥ ५९७ 5 10 20 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अणुभासइ गुरुवयणं अक्खरपयवंजणेहिं परिसुद्धं । पंजलिउडो अभिमुहो तं जाणऽणुभासणासुद्धं ॥ [आव० भा० २४९] नवरं गुरुर्भणति- वोसिरति, शिष्यस्तु वोसिरामि त्ति । अनुपालनाशुद्धं यथा कंतारे दुन्भिक्खे आयंके वा महया महतीत्यर्थः समुप्पण्णे । 5 जं पालियं न भग्गं तं जाणऽणुपालणासुद्धं ॥ [आव० भा० २५०], भावशुद्धं यथा रागेण व दोसेण व परिणामेण व इहलोकाद्याशंसालक्षणेन न दूसियं जं तु । तं खलु पच्चक्खाणं भावविशुद्धं मुणेयव्वं ॥ [आव० भा० २५१] ति । अन्यदपि षष्ठं ज्ञानशुद्धमिति निर्युक्तावुक्तम्, यदाह पच्चक्खाणं जाणइ कप्पे जं जम्मि होइ कायव्वं । 10 मूलगुणउत्तरगुणे तं जाणसु जाणणासुद्धं ॥ [आव० भा० २४७] ति । इह तु पञ्चस्थानकानुरोधान्नेदमुक्तम्, श्रद्धानशुद्धेन वा सगृहीतत्वात्, ज्ञानविशेषत्वात् श्रद्धानस्येति । प्रत्याख्याने च कृते कदाचिदतिचार: सम्भवति, तत्र च प्रतिक्रमणं कर्त्तव्यमिति प्रतिक्रमणं निरूपयन्नाह- पंचविहेत्यादि, प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम्, एतदुक्तं भवतिशुभयोगेभ्योऽशुभयोगान् क्रान्तस्य शुभेष्वेव गमनमिति, उक्तं च स्वस्थानाद्यत् परं स्थानम् प्रमादस्य वशागत: । तत्रैव क्रमणं भूय: प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ क्षायोपशमिकाद्भावादौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः ॥ [ ] इति । इदं च विषयभेदात् पञ्चधेति, तत्र आश्रवद्वाराणि प्राणातिपातादीनि, तेभ्य: 20 प्रतिक्रमणं निवर्त्तनं पुनरकरणमित्यर्थ: आश्रवद्वारप्रतिक्रमणम्, असंयमप्रतिक्रमणमिति हृदयम्, मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं यदाभोगा-ऽनाभोग-सहसाकारैर्मिथ्यात्वगमनं तन्निवृत्तिः, एवं कषायप्रतिक्रमणम्, योगप्रतिक्रमणं तु यत् मनो-वचन-कायव्यापाराणामशोभनानां व्यावर्त्तनमिति, आश्रवद्वारादिप्रतिक्रमणमेवाविवक्षितविशेष भावप्रतिक्रमणमिति, आह च १. जाणसुभासणा' जे१ खं० ॥ २. वोसिरंति जे१ खं० ॥ ३. योगान्तरं क्रान्तस्य- आव० हारि० चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४६७-४६८] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः । ५९९ मिच्छत्ताइ न गच्छइ न य गच्छावेइ नाणुजाणाइ । जं मणवइकाएहिं तं भणियं भावपडिकमणं ॥ [ ] ति । विशेषविवक्षायां तूक्ता एव चत्वारो भेदा:, यदाहमिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं । कसायाण पडिक्कमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं ॥ [आव० नि० १२६४] ति। 5 [सू० ४६७] पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएजा, तंजहा-संगहट्टयाते, उवग्गहट्टताते, णिज्जरट्ठयाते, सुते वा मे पजवजाते भविस्सति, सुतस्स वा अव्वोच्छित्तिणयट्ठयाते ।। पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेजा, तंजहा-णाणट्ठताते, दंसणट्ठताते, चरित्तट्ठताते, वुग्गहविमोतणट्टयाते, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीति कट्ट । 10 [टी०] भावप्रतिक्रमणं च श्रुतभावितमतेरेव भवतीति श्रुतं वाचनीयं शिक्षणीयं चेत्येतद्धेतूपदर्शनार्थं सूत्रे पंचहीत्यादि सुगमम्, नवरं सुत्तं श्रुतं सूत्रमात्रं वा वाचयेत् पाठयेत्, तत्र सङ्ग्रहः शिष्याणां श्रुतोपादानम्, स एवार्थः प्रयोजनम्, तस्मै सङ्ग्रहार्थाय, सङ्ग्रह एवार्थो यस्य स सङ्ग्रहार्थः, तद्भावस्तत्ता, तया सङ्ग्रहार्थतया, श्रुतसङ्ग्रहो भवत्वेषामिति प्रयोजनेनेति भावः, अथवैत एव मया एवं सगृहीता भवन्ति शिष्यीकृता 15 भवन्तीति सङ्ग्रहार्थतया, तत्सङ्ग्रहायेति भावः, एवमुपग्रहार्थायोपग्रहार्थतया वा, एवं ह्येते भक्त-पान-वस्त्राद्युत्पादनसमर्थतयोपष्टम्भिता भवन्त्विति भावः, निर्जरार्थाय निर्जरणमेवं मे कर्मणां भवत्विति, श्रुतं वा ग्रन्थो मे मम वाचयत इति गम्यते पर्यवजातं जातविशेष स्फुटतया भविष्यतीति, अव्यवच्छित्त्या नयनं श्रुतस्य कालान्तरप्रापणम् अव्यवच्छित्तिनयः, स एवार्थस्तस्मै इति । ज्ञानं तत्त्वानां परिच्छेदो 20 दर्शनं तेषामेव श्रद्धानं चारित्रं सदनुष्ठानं व्यग्रहो मिथ्याभिनिवेशस्तस्य तस्माद्वा परेषां विमोचनं व्युद्ग्रहविमोचनं तदर्थाय तदर्थतया वा, अहत्थे त्ति यथास्थान् यथावस्थितान् यथार्थान् वा यथाप्रयोजनान् भावान् जीवादीन् यथार्थान् वा यथाद्रव्यान् भावान् पर्यायान् ज्ञास्यामीति कृत्वा इति हेतो: शिक्षत इति । - [सू० ४६८] सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंचवण्णा पन्नत्ता, तंजहा- 25 किण्हा जाव सुक्किला १॥ १. आव० हारि० चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने गा० १२५० टीकायाम् ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु विमाणा पंच जोयणसयाई उड्डउच्चत्तेणं पन्नत्ता २ । बंभलोग - लंततेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जसरीरगा उक्कोसेणं पंच रयणीओ उडउच्चत्तेणं पन्नत्ता ३ | नेरइया णं पंचवने पंचरसे पोग्गले बंधेंसु वा बंधंति वा बंधिस्संति वा, 5 तंजहा - किण्हे जाव सुक्किले, तित्ते जाव मधुरे । एवं जाव वेमाणिता १-२४। 10 ६०० [सू० ४६९ ] जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं गंगं महानदिं पंच महानदीओ समप्पेंति, तंजहा- जउणा, सरऊ, आदी, कोसी, मही १ । जंबूमंदरस्स दाहिणेणं सिंधुं महाणदिं पंच महानदीओ समप्पेंति, तंजहासतद्दू, वितत्था, विभासा, एरावती, चंद्रभागा २ | जंबूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तं महानई पंच महानदीओ समप्पेंति, तंजहा- किण्हा, महाकिण्हा, नीला, महानीला, महातीरा ३ | जंबूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तावतिं महानदिं पंच महानईओ समप्पेंति, तंजहाइंदा, इंदसेणा, सुसेणा वारिसेणा, महाभोगा ४ । [टी०] यथावस्थिताश्च भावा ऊर्ध्वलोके सौधर्म्मादय इति तद्विषयं सूत्रत्रयम्, 15 तथाऽधोलोकादौ लोके नारकादयश्चतुर्विंशतिरिति तद्गतां चतुर्विंशतिसूत्रीं तथा तिर्यग्लोके जम्बूद्वीपादय इति तद्गतवस्तुविषयं च सूत्रचतुष्टयमाह । सर्वाण्येतानि सुगमानि, नवरं धं शरीरादितयेति । दक्षिणेनेति भरते समप्पेंति त्ति समाप्नुवन्ति, उत्तरेणेति ऐरवत इति । [सू० ४७० ] पंच तित्थगरा कुमारवासमज्झावसित्ता मुंडे जाव पव्वतिता, 20 तंजहा - वासुपुज्जे, मल्ली, अरिट्ठनेमी, पासे, वीरे । [सू० ४७१] चमरचंचाते णं राजधाणीते पंच सभातो पन्नत्ताओ, तंजहासभा सुधम्मा, उववातसभा, अभिसेयसभा, अलंकारितसभा, ववसातसभा १। एगमेगे णं इंदट्ठाणे पंच सभाओ पन्नत्ताओ, तंजहा - सभा सुहम्मा जाव ववसातसभा २। १. महानदी ला० विना ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 [सू० ४७२-४७४] पञ्चममध्ययनं पञ्चस्थानकम् । तृतीय उद्देशकः [सू० ४७२] पंच णक्खत्ता पंचतारा पन्नत्ता, तंजहा-धणिट्ठा, रोहिणी, पुणव्वसू, हत्थो, विसाहा । [सू० ४७३] जीवा णं पंचट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तंजहा-एगिंदितनिव्वत्तिते जाव पंचेंदितनिव्वत्तिते, एवं चिण उवचिण बंध उदीर वेद तध णिजरा चेव ॥ [सू० ४७४] पंचपतेसिता खंधा अणंता पण्णत्ता । पंचपतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जाव पंचगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । ॥ पंचट्ठाणं समत्तं ॥ [टी०] पूर्वतरसूत्रे भरतवक्तव्यतोक्तेति तत्प्रस्तावात्तदुत्पन्नतीर्थकरसूत्रं सुगमम्, नवरं 10 कुमाराणामराजभावेन वास: कुमारवास:, तम् अज्झावसित्त त्ति अध्युष्येति । तथा भरतादिक्षेत्रप्रस्तावात् क्षेत्रभूतचमरचञ्चादिवक्तव्यताभिधायि सूत्रद्वयम् । चमरचञ्चा रत्नप्रभापृथिव्यां चमरस्यासुरकुमारराजस्येति । सुधर्मा सभा यस्यां शय्या, उपपातसभा यस्यामुत्पद्यते, अभिषेकसभा यस्यां राज्याभिषेकेणाभिषिच्यते, अलङ्कारिका यस्यामलङ्क्रियते, व्यवसायसभा यत्र पुस्तकवाचनतो व्यवसायं तत्त्वनिश्चयं करोति, 15 एताश्च यथाक्रममुत्तरपूर्वस्यां द्रष्टव्या इति । देवनिवासाधिकारान्नक्षत्रसूत्रम् । नक्षत्रादिदेवरूपता च सत्त्वानां कर्मपुद्गलचयादेरिति चयादिसूत्रषट्कम् । पुद्गलाश्च विविधपरिणामा इति पुद्गलसूत्राणीति, व्याख्या च प्राग्वदध्ययनसमाप्तिं यावत् सुकरा चेति पञ्चस्थानकस्य तृतीय उद्देशकः ॥ इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाङ्गविवरणे पञ्चस्थानकाख्यं 20 पञ्चममध्ययनम् ॥ श्लोकाः १६२५ ॥ १. सू० १२५ आदि ॥ २. उद्देशकः जे१ विना नास्ति ॥ ३. यनं समाप्तमिति खं० पा० जे२ ॥ -A-23 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ अथ षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । [सू० ४७५] छहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति गणं धारेत्तए, तंजहासड्ढि पुरिसजाते १, सच्चे पुरिसज्जाते २, मेहावी पुरिसज्जाते ३, बहुस्सुते पुरिसज्जाते ४, सत्तिमं ५, अप्पाधिकरणे ६ ।। 5 [टी०] व्याख्यातं पञ्चममध्ययनमधुना सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव षट्स्थानकाख्यं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायं विशेषसम्बन्ध:- इहानन्तराध्ययने जीवादिपर्यायप्ररूपणा कृता इहापि सैव क्रियते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य चतुरनुयोगद्वारस्येदमादिसूत्रम्- छहिं ठाणेहीत्यादि । __ अस्य चायमभिसम्बन्धः, पूर्वसूत्रे ‘पञ्चगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ता: प्रज्ञप्ताः' [सू० 10 ४७४] इत्युक्तम्, प्रज्ञापकाश्चैतेषामर्थतोऽर्हन्तः सूत्रतो गणधराः, गणधराश्च यैर्गुणैर्युक्तस्यानगारस्य गणधरणार्हत्वं भवति तद्युक्ता एवेति तेषां गुणानामुपदर्शनायेदमुक्तमित्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या । संहितादिचर्चस्तु प्रतीत एव, नवरं षड्भिः स्थान: गुणविशेषैः सम्पन्नो युक्तोऽनगारो भिक्षुः अर्हति योग्यो भवति गणं गच्छं धारयितुं मर्यादायामिति गम्यते, पालयितुं वेत्यर्थः, सहि त्ति श्रद्धावत्, 15 अश्रद्धावतो हि स्वयमेवामर्यादावर्तितया परेषां मर्यादास्थापनायामसमर्थत्वाद् गणधरणानर्हत्वम्, एवं सर्वत्र भावना कार्या, पुरुषजातं पुरुषप्रकार:, इह च षभिः स्थानैरित्युक्त्वापि यदुक्तं श्राद्धं पुरुषजातमिति तद्धर्म-धर्मवतोरभेदाद्, अन्यथा श्राद्धत्वं सत्यत्वमित्यादि वक्तव्यं स्यादिति १, तथा सत्यं सद्भ्यो जीवेभ्यो हिततया प्रतिज्ञातशूरतया वा, एवंभूतो हि पुरुषो गणपालक आदेयश्च स्यादिति २, तथा मेधावि 20 मर्यादया धावतीत्येवंशीलमिति निरुक्तिवशात्, एवंभूतो हि गणस्य मर्यादाप्रवर्तको भवति, अथवा मेधा श्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वत्, एवंभूतो हि श्रुतमन्यतो झगिति गृहीत्वा शिष्याध्यापने समर्थो भवतीति ३, तथा बहु प्रभूतं श्रुतं सूत्रार्थरूपं यस्य तत्तथा, अन्यथा हि गणानुपकारी स्यात्, उक्तं च१. संबद्धस्यास्य खं० पा० ॥ २. श्चैषा पा० जे२ ॥ ३. स्वयममर्या' खं० पा० जे२ ॥ ४. °धारणा' पा० जे२ ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४७६-४७७] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६०३ 10 सीसाण कुणइ कह सो तहाविहो हंदि नाणमाईणं । अहियाहियसंपत्तिं संसारुच्छेयणिं परमं ? ॥ [ ] तथा कह सो जयउ अगीओ कह वा कुणउ अगीयनिस्साए । कह वा करेउ गच्छं सबालवुड्डाउलं सो उ ॥ [ ] इति ४ । तथा शक्तिमत् शरीर-मन्त्र-तन्त्र-परिवारादिसामर्थ्ययुक्तम्, तद्धि विविधास्वापत्सु 5 गणस्यात्मनश्च निस्तारकं भवतीति ५, तथा अप्पाहिगरणे त्ति अल्पम् अविद्यमानमधिकरणं स्वपक्ष-परपक्षविषयो विग्रहो यस्य तत्तथा, तद्ध्यनुवर्तकतया गणस्याहानिकारकं भवतीति ६ । ग्रन्थान्तरे त्वेवं गणिन: स्वरूपमुक्तम् सुत्तत्थे निम्माओ पियदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपन्नो गंभीरो लद्धिमंतो य ॥ संगहुवग्गहनिरओ कयकरणो पवयणाणुरागी य । एवंविहो उ भणिओ गणसामी जिणवरिंदेहिं ॥ [पञ्चव० १३१५-१६] ति । [सू० ४७६] छहिं ठाणेहिं निग्गंथे निग्गंथिं गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ, तंजहा-खित्तचित्तं, दित्तचित्तं, जक्खातिढें, उम्मातपत्तं, उवसग्गपत्तं, साहिकरणं । 15 [टी०] अनन्तरं गणधरगुणा उक्ता:, गणधरकृतमर्यादया च वर्त्तमानो निर्ग्रन्थो नाज्ञामतिक्रामतीत्येतत् सूत्रद्वयेनाह- तत्र प्रथमं पञ्चस्थानके व्याख्यातमेव तथापि किञ्चिदुच्यते, गृह्णन् ग्रीवादाववलम्बयन् हस्त-वस्त्राञ्चलादौ गृहीत्वा नातिक्रामत्याज्ञामिति गम्यते, क्षिप्तचित्तां शोकेन, दृप्तचित्तां हर्षेण, यक्षाविष्टां देवताधिष्ठिताम्, उन्मादप्राप्तां वातादिना, उपसर्गप्राप्तां तिर्यङ्मनुष्यादिना नीयमानाम्, साधिकरणां 20 कलहयन्तीम् । [सू० ४७७] छहिं ठाणेहिं निग्गंथा निग्गंथीओ य साहम्मितं कालगतं समायरमाणा णाइक्कमंति, तंजहा-अंतोहिंतो वा बाहिं णीणेमाणा १, बाहिंहितो वा निब्बाहिं णीणेमाणा २, उवेहमाणा वा ३, उवासमाणा वा ४, अणुन्नवेमाणा वा ५, तुसिणीते वा संपव्वयमाणा ६ । 25 १. यन्तीमिति १ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] षड्भिः स्थानैः वक्ष्यमाणैर्निर्ग्रन्थाः साधवो निर्ग्रन्थ्यश्च साध्व्यस्तथाविधनिर्ग्रन्थाभावे मिश्राः सन्तः साधर्मिकं समानधर्म्मयुक्तं साधुमित्यर्थः समायरमाणेति समाद्रियमाणाः साधर्मिकं प्रत्यादरं कुर्वाणाः समाचरन्तो वा उत्पाटनादिव्यवहारविषयीकुर्वन्तो नातिक्रामन्त्याज्ञां स्त्रीभिः सह विहार - स्वाध्याया5 ऽवस्थानादि न कार्यमित्यादिरूपाम्, पुष्टालम्बनत्वादिति । अंतोहिंतो व त्ति गृहादेर्मध्याद् बहिर्नयन्तो वाशब्दा विकल्पार्थाः १, बाहिंहिंतो व त्ति गृहादेर्बहिस्तात् निर्बहिः अत्यन्तबहिर्बहिस्तात्तरां नयन्त: २, उपेक्षमाणा इति, उपेक्षा द्विविधा - व्यापारोपेक्षा अव्यापारोपेक्षा च, तत्र व्यापारोपेक्षया तमुपेक्षमाणाः, तद्विषयायां छेदन - बन्धनादिकायां समयप्रसिद्धक्रियायां व्याप्रियमाणा इत्यर्थः, अव्यापारोपेक्षया च मृतकस्वजनादिभिस्तं 10 सत्क्रियमाणमुपेक्षमाणाः तत्रोदासीना इत्यर्थः ३, तथा उवासमाण त्ति पाठान्तरेण भयमाणत्ति वा रात्रिजागरणे तदुपासनां विदधानाः, उवसामेमाण त्ति पाठान्तरे तं क्षुद्रव्यन्तराधिष्ठितं समयप्रसिद्ध विधिनोपशमयन्त इति ४, तथा अणुन्नवेमाण ति तत्स्वजनादींस्तत्परिष्ठापनायानुज्ञापयन्तः ५, तुसिणीए त्ति तूष्णींभावेन संप्रव्रजन्तस्तत्परिष्ठापनार्थमागमानुज्ञातत्वात् सर्वमिदमाज्ञातिक्रमाय न भवतीति ६। 15 [सू० ४७८ ] छट्टाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणति ण पासति, तंजहाधम्मत्थिकायमधम्मत्थिकायं, आयासं, जीवमसरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं, २ 20 ६०४ सद्दं । ताणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे जाव सव्वभावेणं जाणति पासति धम्मत्थिकायं जाव सदं । [टी०] छाद्मस्थिकश्चायं व्यवहारः प्राय उक्त इति छद्मस्थप्रस्तावादिदमाह - छहीत्यादि । इह छद्मस्थो विशिष्टावध्यादिविकलो न त्वकेवली, यतो यद्यपि धर्माधर्माकाशान्यशरीरं जीवं च परमावधिर्न जानाति तथापि परमाणु - शब्दौ जानात्येव, रूपित्वात् तयोः, रूपिविषयत्वाच्चावधेरिति एतच्च सूत्रं सविपर्ययं प्राग्व्याख्यातप्रायमेवेति । [सू० ४७९] छहिं ठाणेहिं सव्वजीवाणं णत्थि इड्डी ति वा जुती ति १. 'त्वात् । अंतो जे१ ॥ २ तथा नास्ति जे१ खं० ॥ " Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४७९-४८०] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६०५ जाव परक्कमे ति वा, तंजहा-जीवं वा अजीवं करणयाए १, अजीवं वा जीवं करणयाए २, एगसमएणं वा दो भासातो भासित्तए ३, सयं कडं वा कम्मं वेदेमि वा मा वा वेएमि ४, परमाणुपोग्गलं वा छिंदित्तए वा भिंदित्तए वा अगणिकाएण वा समोदहित्तए ५, बहिता वा लोगंता गमणताए ६ । [टी०] छद्मस्थस्य धर्मास्तिकायादिषु ज्ञानशक्तिर्नास्तीत्युक्तमधुना सर्वजीवानां येषु 5 यथा शक्तिर्नास्ति तानि तथाऽऽह- छहीत्यादि, षट्सु स्थानेषु सर्वजीवानां संसारिमुक्तरूपाणां नास्ति, ऋद्धिः विभूति:, इतीति एवंप्रकारा यया जीवादिरजीवादि: क्रियते, वा विकल्पे, एवं द्युति: प्रभा माहात्म्यमित्यर्थः, यावत्करणात् ‘जसे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कारपरक्कमे इव' त्ति, इदं च व्याख्यातमनेकश इति न व्याख्यायते । तद्यथा- जीवं वेत्यादि, जीवस्याजीवस्य करणतायाम्, जीवमजीवं 10 कर्तुमित्यर्थः १, अजीवस्य वा जीवस्य करणतायाम् २, एगसमयेण व त्ति युगपद्वा द्वे भाषे सत्यासत्यादिके भाषितुमिति ३, स्वयंकृतं वा कर्म वेदयामि वा मा वा वेदयामीत्यत्रेच्छावशे वेदनेऽवेदने वा नास्ति बलमिति प्रक्रमः, अयमभिप्रायःन हीच्छावशत: प्राणिनां कर्मणः क्षपणा-ऽक्षपणे स्तो बाहुबलिन इव, अपि त्वनाभोगनिर्वर्तिते ते भवत: अन्यत्र केवलिसमुद्घातादिति ४, परमाणुपुद्गलं वा छेत्तुं 15 वा खड्गादिना द्विधाकृत्य, भेत्तुं वा सूच्यादिना विद्ध्वा, छेदादौ परमाणुत्वहाने:, अग्निकायेन वा समवदग्धुमिति, सूक्ष्मत्वेनादाह्यत्वात्तस्येति ५, बहिस्ताद्वा लोकान्ताद् गमनतायाम् ६, अलोकस्यापि लोकताऽऽपत्तेरिति ।। [सू० ४८०] छज्जीवनिकाया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया । [टी०] जीवमजीवं कर्तुमित्युक्तमतो जीवपदार्थस्यैव बहुधा प्ररूपणाय छज्जीवनिकायेत्यादि सूत्रप्रपञ्चमाह, सुगमश्चायम्, नवरं जीवानां निकाया राशयो जीवनिकाया:, इह च जीवनिकायानभिधाय यत् पृथिवीकायिकादिशब्दैनिकायवन्त उक्ताः तत्तेषामभेदोपदर्शनार्थम्, न ह्येकान्तेन समुदायात् समुदायिनो व्यतिरिच्यन्ते, व्यतिरेकेणाप्रतीयमानत्वादिति । 25 20 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ४८१] छ तारग्गहा पन्नत्ता, तंजहा - सुक्के, बुहे, बहस्सति, अंगार सणिच्छरे, केतू । ६०६ [0] तारकाकारा ग्रहास्तारकग्रहाः, लोके हि नव ग्रहाः प्रसिद्धाः, तत्र च चन्द्राऽऽदित्य-‍ -राहूणामतारकाकारत्वादन्ये षट् तथोक्ता इति, सुंके त्ति शुक्रः, बहस्सइ त्ति 5 बृहस्पतिः, अंगारको मङ्गलः, सनिच्छरे त्ति शनैश्चर इति [सू० ४८२] छव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा - पुढविकाइया जाव तसकाइया । पुढविकाइया छगइया छआगतिया पन्नत्ता, तं जहा - पुढविकायिए पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा आउ० जाव तसकाइएहिंतो 10 वा उववज्जेज्जा, से चेव णं से पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा जाव तसकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा । आउकाइया वि छगतिया छआगतिया एवं चेव जाव तसकायिया । 15 [टी०] संसारसमापन्नकजीवसूत्रे पृथ्वीकायिकादयो जीवतयोक्ताः, पूर्वसूत्रे तु निकायत्वेनेति विशेषान्न पुनरुक्ततेति । [सू० ४८३ ] छव्विहा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजा - आभिणिबोधियणाणी जाव केवलणाणी, अन्नाणी । अहवा छव्विधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा - एगिंदिया जाव पंचिंदिया, अदिया । अहवा छव्विहा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा- ओरालियसरीरी, वेउव्वियसरीरी, 20 आहारगसरीरी, तेअगसरीरी, कम्मगसरीरी, असरीरी । [ टी०] ज्ञानिसूत्रे अज्ञानिनस्त्रिविधा मिथ्यात्वोपहतज्ञानाः । इन्द्रियसूत्रेऽनिन्द्रियाः अपर्याप्ताः केवलिनः सिद्धाश्चेति । शरीरिसूत्रे यद्यप्यन्तरगतौ कार्मणशरीरिसम्भवस्तद्व्यतिरिक्तस्य तैजसशरीरिणोऽसम्भवस्तथाप्येकतराविवक्षया भेदो व्याख्यातव्यः, तथा अशरीरी सिद्ध इति । १. सचिरे त्ति जे१ । सणेच्चरे त्ति खं० ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४८४-४८५] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६०७ [सू० ४८४] छव्विहा तणवणस्सतिकाइया पन्नत्ता, तंजहा-अग्गबीया, मूलबीया, पोरबीया, खंधबीया, बीयरुहा, संमुच्छिमा । टी०] तृणवनस्पतिकायिका बादरा इत्यर्थः, मूलबीजा उत्पलकन्दादय: इत्यादि व्याख्यातमेव, नवरं सम्मूर्छिमा: दग्धभूमौ बीजासत्त्वेऽपि ये तृणादय उत्पद्यन्ते । [सू० ४८५] छ ट्ठाणाइं सव्वजीवाणं णो सुलभाई भवंति, तंजहा-माणुस्सए 5 भवे १, आरिए खेते जम्मं २, सुकुले पच्चायाती ३, केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स सवणता ४, सुतस्स वा सद्दहणता ५, सद्दहितस्स वा पत्तितस्स वा रोइतस्स वा सम्मं काएणं फासणता ६ । [टी०] यथा अधिकृताध्ययनावतारं प्ररूपिता जीवा:, अथ तेषामेव ये पर्यायविशेषा दुर्लभास्तांस्तथैवाह– छट्ठाणाई इत्यादि, षट् स्थानानि षट् वस्तूनि सर्वजीवानां नो 10 नैव सुलभानि सुप्रापाणि भवन्ति, कृच्छ्रलभ्यानीत्यर्थः, न पुनरलभ्यानि, केषाञ्चिज्जीवानां तल्लाभोपलम्भादिति, तद्यथा- मानुष्यको मनुष्यसम्बन्धी भवो जन्म, स नो सुलभ इति प्रक्रम: आह च ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥ [ ] इति । एवमार्ये क्षेत्रे अर्द्धषड्विंशतिजनपदरूपे जन्म उत्पत्ति:, इहाप्युक्तम्सत्यपि च मानुषत्वे दुर्लभतरमार्यभूमिसम्भवनम् । यस्मिन् धर्माचरणप्रवणत्वं प्राप्नुयात् प्राणी ॥ [ ] इति ।। तथा सुकुले इक्ष्वाक्वादिके प्रत्यायाति: जन्म नो सुलभमिति, अत्राभिहितम्आर्यक्षेत्रोत्पत्तौ सत्यामपि सत्कुलं न सुलभं स्यात् ।। सच्चरणगुणमणीनां पात्रं प्राणी भवति यत्र ॥ [ ] इति । तथा केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रवणता दुर्लभा, यतोऽवाचिसुलभा सुरलोयसिरी रयणायरमेहला मही सुलहा । निव्वुइसुहजणियरुई जिणवयणसुई जए दुलहा ॥ [ ] इति । १. पत्तियाइस्स भा० ॥ 15 20 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे श्रुतस्य वा श्रद्धानता दुर्लभा, उक्तं चआहच्च सवणं लटुं सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेआउयं मग्गं बहवे परिभस्सइ ॥ [उत्तरा० ३।९] त्ति । तथा श्रद्धितस्य वा सामान्येन, प्रतीतस्य वोपपत्तिभिरथवा प्रीतिकस्य स्वविषये 5 उत्पादितप्रीते:, रोचितस्य वा चिकीर्षितस्य, सम्यग् यथावत् कायेन शरीरेण न मनोरथमात्रेणाविरतवत् स्पर्शनता स्पर्शनमिति, यदाह धम्मं पि हु सद्दतया दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेसु मुच्छिया समयं गोयम ! मा पमायए ॥ [उत्तरा० १०।२०] इति । ___ मनुष्यभवादीनां च दुर्लभत्वं प्रमादादिप्रसक्तप्राणिनामेव न सर्वेषामिति. यतो 10 मनुष्यभवमाश्रित्याभिहितम् एयं पुण एवं खलु अन्नाण-पमायदोसओ नेयं । जं दीहा कायठिई भणिया एगिंदियाईणं ॥ एसा य असइदोसासेवणओ धम्मवजचित्ताणं । ता धम्मे जइयव्वं सम्मं सइ वीरपुरिसेहिं ॥ [उप० पद० १६,१८] ति । 15 [सू० ४८६] छ इंदियत्था पन्नत्ता, तंजहा-सोतिंदियत्थे जाव फासिंदियत्थे, नोइंदियत्थे । [सू० ४८७] छव्विधे संवरे पन्नत्ते, तंजहा-सोतिंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे, णोइंदियसंवरे । छविहे असंवरे पन्नत्ते, तंजहा-सोतिंदियअसंवरे जाव फासिंदियअसंवरे, 20 णोइंदियअसंवरे । [सू० ४८८] छव्विहे साते पन्नत्ते, तंजहा-सोतिंदियसाते जाव नोइंदियसाते। छव्विहे असाते पन्नत्ते, तंजहा-सोतिंदियअसाते जाव नोइंदियअसाते । [सू० ४८९] छव्विहे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तंजहा-आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे । 25 [टी०] मानुषत्वादीनि च सुलभानि दुर्लभानि च भवन्तीन्द्रियार्थानां संवरे असंवरे १. धीर' जे२ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४९०-४९७] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६०९ च सति, तयोश्च सतो: सातासाते स्तस्तत्क्षयश्च प्रायश्चित्ताद् भवतीतीन्द्रियार्थानिन्द्रियसंवरासंवरौ सातासाते प्रायश्चित्तं च प्ररूपयन् सूत्रषट्कमाह, सुगमं चेदम्, नवरं छ इंदियत्थ त्ति मनस आन्तरकरणत्वेन करणत्वात् करणस्य चेन्द्रियत्वात् तन्त्रान्तररूढ्या वा मनस इन्द्रियत्वात् तद्विषयस्येन्द्रियार्थत्वेन षडिन्द्रियार्था इत्युक्तम्, तत्र श्रोत्रेन्द्रियादीनामा विषयाः शब्दादय:, नोइंदियत्थ त्ति औदारिकादित्वार्थ- 5 परिच्छेदकत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमिन्द्रियं तस्यौदारिकादित्वधर्मलक्षणदेशनिषेधात् नोइन्द्रियं मनः सादृश्यार्थत्वाद्वा नोशब्दस्यार्थपरिच्छेदकत्वेनेन्द्रियाणां सदृशमिति तत्सहचरमिति वा नोइन्द्रियं मनस्तस्यार्थो विषयो जीवादि: नोइन्द्रियार्थ इति । श्रोत्रेन्द्रियद्वारेण मनोज्ञशब्दश्रवणतो यत् सातं सुखं तच्छ्रोत्रेन्द्रियसातमेवं शेषाण्यपि, तथा यदिष्टचिन्तनतस्तन्नोइन्द्रियसातमिति । 10 __ आलोचनाहँ यद् गुरुनिवेदनया शुद्ध्यति, प्रतिक्रमणाहँ यद् मिथ्यादुष्कृतेन, तदुभया« यदालोचना-मिथ्यादुष्कृताभ्याम्, विवेका/ यत् परिष्ठापिते आधाकर्मादौ शुद्ध्यति, व्युत्सर्गार्ह यत् कायचेष्टानिरोधत:, तपोऽहं यन्निर्विकृतिकादिना तपसेति। [सू० ४९०] छव्विहा मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा-जंबूदीवगा, धायइसंडदीवपुरथिमद्धगा, धायइसंडदीवपच्चत्थिमद्धगा, पुक्खरवरदीवड्ड- 15 पुरथिमद्धगा, पुक्खरवरदीवडपच्चत्थिमद्धगा, अंतरदीवगा । अहवा छव्विहा मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा-समुच्छिममणुस्सा ३-कम्मभूमगा १, अकम्मभूमगा २, अंतरदीवगा ३ । गब्भवक्कंतियमणुस्सा ३-कम्मभूमगा १, अकम्मभूमगा २, अंतरदीवगा ३ । [सू० ४९१] छव्विहा इड्डीमंता मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा-अरहंता चक्कवट्टी 20 बलदेवा वासुदेवा चारणा विजाधरा । छव्विहा अणिड्डीमंता मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा-हेमवतगा हेरन्नवतगा हरिवस्सगा रम्मगवस्सगा कुरुवासिणो अंतरदीवगा ।। [सू० ४९२] छव्विधा ओसप्पिणी पन्नत्ता, तंजहा-सुसमसुसमा जाव दुस्समदुस्समा । 25 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे छव्विहा उसप्पिणी पन्नत्ता, तंजहा-दुस्समदुस्समा जाव सुसमसुसमा । सू० ४९३] जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु तीताते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाते मणुया छ धणुसहस्साई उडमुच्चत्तेणं होत्था, छच्च अद्धपलिओवमाइं परमाउं पालयित्था १, जंबूदीवे दीवे भरहेरवतेसु वासेसु 5 इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए एवं चेव २, जंबू[दीवे दीवे] भरहेरवते[सु वासेसु] आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए एवं चेव जाव छच्च अद्धपलिओवमाई परमाउं पालयिस्संति ३, जंबुद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरासु मणुया छद्धणुसहस्साई उटुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता, छच्च अद्धपलिओवमाइं परमाउं पालयंति ४ । एवं धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे वि 10 चत्तारि आलावगा जाव पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धे चत्तारि आलावगा । [सू० ४९४] छव्विहे संघयणे पन्नत्ते, तंजहा-वयिरोसभणारायसंघयणे उसभणारायसंघयणे नारायसंघयणे अद्धणारायसंघयणे खीलियासंघयणे सेवसंघयणे । [सू० ४९५] छव्विहे संठाणे पन्नत्ते, तंजहा-समचउरंसे णग्गोहपरिमंडले 15 साती खुज्जे वामणे हुंडे । [सू० ४९६] छट्ठाणा अणत्तवओ अहिताते असुभाते अखमाते अनीसेसाए अणाणुगामितत्ताते भवंति, तंजहा-परिताए, परियाले, सुते, तवे, लाभे, पूयासक्कारे। छट्ठाणा अत्तवतो हिताते जाव आणुगामितत्ताते भवंति, तंजहा-परियाए 20 परियाले जाव पूतासक्कारे । [सू० ४९७] छव्विहा जातिआरिया मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहाअंबट्ठा य कलंदा वेदेहा वेंदिगा दिया । हारिता चुंचुणा चेव छप्पेता इब्भजातिओ ॥४२॥ छविधा कुलारिता मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा-उग्गा, भोगा, राइन्ना, इक्खागा, 25 णाता, कोरव्वा ।। टी०] प्रायश्चित्तस्य च मनुष्या एव वोढार इति मनुष्याधिकारवत् छव्विहा मणुस्सा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । [सू० ४९०-४९७] इत्यादिसूत्रादारभ्य आ लोकस्थितिसूत्रात् प्रकरणमाह, गतार्थं चैतत्, नवरम् अहवा छव्विहेत्यत्र सम्मूर्च्छनजमनुष्यास्त्रिविधाः कर्म्मभूमिजादिभेदेन, तथा गर्भव्युत्क्रान्तिकास्त्रिधा तथैवेति षोढा । चारण त्ति जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्च, विद्याधरा वैताढ्यादिवासिनः । छद्धणुसहस्साइं ति त्रीन् क्रोशानित्यर्थः छच्च अद्धपलिओवमाई ति त्रीणि 5 पल्योपमानीत्यर्थः । संहननम् अस्थिसञ्चयः, वक्ष्यमाणोपमानोपमेय: शक्तिविशेष इत्यन्ये, तत्र वज्रं कीलिका, ऋषभः परिवेष्टनपट्टः, नाराच: उभयतो मर्कटबन्ध:, यत्र द्वयोरस्थ्नोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि भवति तद्वज्रऋषभनाराचं प्रथमम्, यत्र तु कीलिका 10 नास्ति तद् ऋषभनाराचं द्वितीयम्, यत्र तूभयोर्मर्कटबन्ध एव तन्नाराचं तृतीयम्, यत्र त्वेकतो मर्कटबन्धो द्वितीयपार्श्वे कीलिका तदर्द्धनाराचं चतुर्थम्, कीलिकाविद्धास्थिद्वयसञ्चितं कीलिकाख्यं पञ्चमम्, अस्थिद्वयपर्यन्तस्पर्शनलक्षणां सेवामार्त्तं सेवामागतमिति सेवार्त्तं षष्ठम्, शक्तिविशेषपक्षे त्वेवंविधदार्वादेरिव दृढत्वं संहननमिति, इह गाथे , वज्जरिसभनारायं पढमं बीयं च रिसभनारायं । नारायमद्धनाराय खीलिया तह य छेव ॥ ३ रिसहो य होइ पट्टो वजं पुण खीलियं वियाणाहि । उभओ मक्कडबंधं नारायं तं वियाणाहि ॥ [ बृहत्सं० १७३ - १७४] ति । ६११ संस्थानं शरीराकृतिरवयवरचनात्मिका, तत्र समाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणावि - 20 संवादिन्यश्चतस्रोऽश्रयो यस्य तत् समचतुरश्रम्, अश्रिस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिता: शरीरावयवास्ततश्च सर्वेऽप्यवयवाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाव्यभिचारिणो यस्य न तु न्यूनाधिकप्रमाणास्तत्तुल्यं समचतुरश्रम्, तथा न्यग्रोधवत् परिमण्डलं न्यग्रोधपरिमण्डलम्, यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्णावयवः अधस्तनभागे पुनर्न तथा तथेदमपि नाभेरुपरि विस्तरबहुलं १. 'त्रितय पा० जे२ ॥ २. नारायं खं० पा० ॥। ३. खीलिया जे१ ॥ 15 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाग् अधस्तु हीनाधिक प्रमाणमिति, तथा सादीति आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, तेनाऽऽदिना शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभाजा सह वर्त्तते यत्तत् सादि, सर्वमेव हि शरीरमविशिष्टेनाऽऽदिना सह वर्त्तत इति विशेषणान्यथानुपपत्तेरिह विशिष्टता लभ्यते, अत: सादि उत्सेधबहुलं 5 परिपूर्णोत्सेधमित्यर्थः, खुजे त्ति अधस्तनकायमडहम्, इहाधस्तनकायशब्देन पादपाणिशिरोग्रीवमुच्यते, तद् यत्र शरीरलक्षणोक्तप्रमाणव्यभिचारि यत् पुन: शेष तद्यथोक्तप्रमाणं तत् कुब्जमिति, वामणे त्ति मडहकोष्ठम्, यत्र हि पाणिपादशिरोग्रीवं यथोक्तप्रमाणोपेतं यत् पुन: शेष कोष्ठं तन्मडहं न्यूनाधिकप्रमाणं तद्वामनम्, हुंडे त्ति सर्वत्रासंस्थितम्, यस्य हि प्रायेणैकोऽप्यवयव: शरीरलक्षणोक्तप्रमाणेन न संवदति तत् 10 सर्वत्रासंस्थितं हुंडमिति, उक्तं च तुल्लं १ वित्थरबहुलं २ उस्सेहबहुं च ३ मडहकोठं च ४ । हेट्ठिल्लकायमडहं ५ सव्वत्थासंठियं हुंडं ॥ [बृहत्सं० १७६] ति, इह गाथायां सूत्रोक्तक्रमापेक्षया चतुर्थ-पञ्चमयोर्व्यत्ययो दृश्यत इति । अणत्तवओ त्ति अकषायो ह्यात्मा आत्मा भवति स्वस्वरूपावस्थितत्वात्, तद्वान्न 15 भवति य: सोऽनात्मवान् सकषाय इत्यर्थः, तस्य अहिताय अपथ्याय अशुभाय पापाय असुखाय वा दु:खाय अक्षमाय असङ्गतत्वाय अक्षान्त्यै वा अनिःश्रेयसाय अकल्याणाय अननुगामिकत्वाय अशुभानुबन्धाय भवन्ति, मानकारणतयैहिकामुष्मिकापायजनकत्वादिति, पर्यायो जन्मकाल: प्रव्रज्याकालो वा, स च महानेव मानकारणं भवतीति महानिति विशेषणं द्रष्टव्यम्, अथवा गृहस्थापेक्षया अल्पोऽपि प्रव्रज्यापर्यायो 20 मानहेतुरेवेति, तत्र जन्मपर्यायो महानहिताय, यथा बाहुबलिनः, एवमन्येऽपि यथासम्भवं वाच्या:, नवरं परियाले त्ति परिवार: शिष्यादिः, श्रुतं पूर्वगतादि, उक्तं च जह जह बहुस्सुओ संमओ य सीसगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥ [सम्मति० ३६६] इति । तपः अनशनादि, लाभोऽन्नादीनाम्, पूजा स्तवादिरूपा, तत्पूर्वक: सत्कारो 25 वस्त्राभ्यर्चनम्, पूजायां वा आदर: पूजासत्कार इति । १. दृश्यतां सू०३२७ टी०१ ।। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ४९८-४९९] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । जाति: मातृक: पक्ष:, तया आर्या: अपापा निर्दोषा जात्यार्या: विशुद्धमातृका इत्यर्थः, अंबढेत्याद्यनुष्टुप्प्रतिकृतिः, षडप्येता इभ्यजातय इति, इभमर्हन्तीतीभ्या:, यद्रव्यस्तूपान्तरित उच्छ्रितकदलिकादण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति श्रुति:, तेषां जातय इभ्यजातयस्ता एता इति । कुलं पैतृक: पक्ष:, उग्रा आदिराजनारक्षकत्वेन ये व्यवस्थापितास्तद्वंश्याश्च, ये तु 5 गुरुत्वेन ते भोगास्तद्वंश्याश्च, ये तु वयस्यतयाऽऽचरितास्ते राजन्यास्तद्वंश्याश्च, इक्ष्वाकवः प्रथमप्रजापतिवंशजाः, ज्ञाता: कुरवश्च महावीर-शान्तिजिनपूर्वजा:, अथवैते लोकरूढितो ज्ञेया: । [सू० ४९८] छव्विधा लोगद्विती पन्नत्ता, तंजहा-आगासपतिट्टिते वाते, वातपतिट्ठिए उदधी, उदधिपतिट्टिता पुढवी, पुढविपइट्ठिया तसा थावरा पाणा, 10 अजीवा जीवपइट्ठिया, जीवा कम्मपतिट्ठिया । [टी०] इयं च जातिकुलार्यादिका लोकस्थितिरिति लोकस्थितिप्रत्यासत्या तामेवाहछव्विहेत्यादि, इदं पूर्वमेव व्याख्यातम्, नवरमजीवा औदारिकादिपुद्गलास्ते जीवेषु प्रतिष्ठिताः आश्रिताः, इदं चानवधारणं बोद्धव्यम्, जीवविरहेणापि बहुतराणामजीवानामवस्थानात्, पृथिवीविरहतोऽपि त्रस-स्थावरवदिति, तथा जीवा: 15 कर्मसु ज्ञानावरणादिषु प्रतिष्ठिता:, प्रायस्तद्विरहितानां तेषामभावादिति । [सू० ४९९] छद्दिसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पातीणा पडीणा दाहिणा उदीणा उड्डा अधा । छहिं दिसाहिं जीवाणं गती पवत्तति, तंजहा-पायीणाए जाव अधाए १। एवमागती २, वक्वंती ३, आहारे ४, वुड्डी ५, निवुड्डी ६, विगुव्वणा ७, 20 गतिपरिताते ८, समुग्घाते ९, कालसंजोगे १०, दंसणाभिगमे ११, णाणाभिगमे १२, जीवाभिगमे १३, अजीवाभिगमे १४ । एवं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण वि मणुस्साण वि । टी०] अनन्तरं कर्मप्रतिष्ठिता जीवा उक्ता:, तेषां च दिक्ष्वेव गत्यादयो भवन्तीति १. करलिका' जे१ ॥ २. दृश्यतां सू० १७१,२८६,७०४ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दिशस्तासु गत्यादींश्च प्ररूपयन्नाह– छद्दिसाओ इत्यादि सूत्रकदम्बकम्, इदं च त्रिस्थानक एव व्याख्यातम्, तथापि किञ्चिदुच्यते- प्राचीना पूर्वा, प्रतीचीना पश्चिमा, दक्षिणा प्रतीता, उदीचीना उत्तरा, ऊर्ध्वमधश्चेति प्रतीते, विदिशो न दिशो विदिक्त्वादेवेति षडेवोक्ता:, अथवा आभिरेव जीवानां वक्ष्यमाणा गतिप्रभृतय: पदार्थाः प्राय: प्रवर्त्तन्ते, 5 षट्स्थानकानुरोधेन वा विदिशो न विवक्षिता इति षडेव दिश उक्ता इति । षड् भिर्दिग्भिर्जीवानां गति: उत्पत्तिस्थानगमनं प्रवर्त्तते, अनुश्रेणिगमनात्तेषामित्येवमेतानि चतुर्दश सूत्राणि ने यानि, नवरं गतिरागतिश्च प्रज्ञापकस्थानापेक्षिण्यौ प्रसिद्ध एव, व्युत्क्रान्ति: उत्पत्तिस्थानप्राप्तस्योत्पादः, साऽपि ऋजुगतौ षट्स्वेव दिक्षु, तथा आहारः प्रतीतः, सोऽपि षट्स्वेव दिक्षु, 10 एतद्व्यवस्थितप्रदेशावगाढपुद्गलानामेव जीवेन स्पर्शनात् स्पृष्टानामेव चाहरणादिति, एवं षट्दिक्ता यथासम्भवं वृद्ध्यादिष्वप्यूह्येति, तथा वृद्धिः शरीरस्य, निवृद्धिः हानिस्तस्यैव, विकुर्वणा वैक्रियकरणम्, गतिपर्यायो गमनमानं न परलोकगमनरूप: तस्य गत्यागतिग्रहणेन गृहीतत्वादिति, समुद्घातो वेदनादिक: सप्तविध:, कालसंयोग: समयक्षेत्रमध्ये आदित्यादिप्रकाशसम्बन्धलक्षणः, दर्शनं सामान्यग्राही बोध:, तच्चेह 15 गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षरूपम्, तेनाभिगमो वस्तुन: परिच्छेदस्तत्प्राप्तिर्वा दर्शनाभिगम:, एवं ज्ञानाभिगमोऽपि, जीवाभिगमः सत्त्वाधिगमो गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षतः, अजीवाभिगम: पुद्गलास्तिकायाद्यधिगम:, सोऽपि तथैवेति, एवमिति यथा 'छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तई' त्यादिसूत्राण्युक्तानि एवं चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां ‘पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं छहिं दिसाहिं गई'त्यादीन्यपि वाच्यानि, तथा मनुष्यसूत्राण्यपि, 20 शेषेषु नारकादिपदेषु षट्सु दिक्षु गत्यादीनां सामस्त्येनासम्भवात्, तथाहि- नारकादीनां द्वाविंशतेर्जीवविशेषाणां नारक-देवेषूत्पादाभावादूर्वाधोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभाव:, तथा दर्शन-ज्ञान-जीवा-ऽजीवाभिगमा गुणप्रत्ययावधिलक्षणप्रत्यक्षरूपा न सन्त्येव तेषाम्, भवप्रत्ययावधिपक्षे तु नारक-ज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो भवनपतिव्यन्तरा ऊर्ध्वावधयो १. दृश्यतां सू० १७१ २. प्रतीत: नास्ति जे१ ॥ ३. विकुर्वतो वैक्रिय जे१ खं० । विकुळणा पा० जे२ ॥ ४. धर्मास्तिकाया जे१ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५००] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६१५ वैमानिकास्त्वधोऽवधयः शेषा निरवधय एवेति भावना, 'विवक्षाप्रधानानि च प्रायोऽन्यत्रापि सूत्राणी'ति । [सू० ५००] छहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे आहारमाहारेमाणे णातिक्कमति, तंजहावेयण-वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । 5 तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए ॥४३॥ छहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे आहारं वोच्छिंदमाणे णातिक्कमति, तंजहाआतंके उवसग्गे तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए । पाणिदयातवहेउं सरीरवोच्छेयणट्ठाए ॥४४॥ [टी०] अनन्तरसूत्रे मनुष्याणामजीवाधिगम उक्त इति मनुष्यप्रत्यासत्त्या 10 संयतमनुष्याणामाहारग्रहणा-ऽग्रहणकारणानि सूत्रद्वयेनाह- छहीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरमाहारम् अशनादिकमाहारयन् अभ्यवहरन्नातिक्रामत्याज्ञाम्, पुष्टकारणत्वाद्, अन्यथा त्वतिक्रामत्येव, रागादिभावात्, तद्यथा- वेयणेत्यादिगाथा, वेदना च क्षुद्वेदना वैयावृत्यं च आचार्यादिकृत्यकरणं वेदनावैयावृत्यं तत्र विषये भुञ्जीत, वेदनोपशमार्थं वैयावृत्यकरणार्थं चेति भावः, ईर्या गमनं तस्या विशुद्धिर्युगमात्रनिहित- 15 दृष्टित्वमी_विशुद्धिस्तस्यै इदमीर्याविशुद्ध्यर्थम्, इह च विशुद्धिशब्दलोपादीर्यार्थमित्युक्तम्, बुभुक्षितो हीर्याशुद्धावशक्तः स्यादिति तदर्थमिति, च: समुच्चये, संयम: प्रेक्षोत्प्रेक्षा-प्रमार्जनादिलक्षण:, तदर्थम्, तथेति कारणान्तरसमुच्चये, प्राणा: उच्छ्वासादयो बलं वा प्राणस्तेषां तस्य वा वृत्ति: पालनं तदर्थं प्राणसंधारणार्थमित्यर्थः, षष्ठं पुनः कारणं धर्मचिन्तायै गुणनानुप्रेक्षार्थमित्यर्थः । इत्येतानि षट् कारणानीति । अत्र 20 भाष्यगाथे नत्थि छुहाए सरिसा वियणा भुंजिज्ज तप्पसमणट्ठा । छाओ बुभुक्षित: वेयावच्चं न तरइ काउं अओ 'भुंजे ॥ १. पिण्डनिर्युक्तावपीदं गाथाद्वयं वर्तते ६६२, ६६६ । प्रवचनसारे उद्धृतमिदं गाथाद्वयम् । इयमेका गाथा ओघनिर्युक्तावपि ५८० ॥ २. वेयण गाहा पा० जे२ ॥ ३. शमनार्थं पा० जे२ ॥ ४. गाथाद्वयमिदं पिण्डनियुक्तौ एव वर्तते ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ ___ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे इरियं न य सोहेई पेहाईयं च संजमं काउं । थामो वा परिहायइ गुणणुप्पेहासु य असत्तो ॥ [पिण्डनि० २६३-२६४] त्ति, वोच्छिंदमाणे त्ति परित्यजन्, आतङ्के ज्वरादावुपसर्गे राज-स्वजनादिजनिते प्रतिकूला-ऽनुकूलस्वभावे तितिक्षणे अधिसहने, कस्या: ? ब्रह्मचर्यगुप्ते: 5 मैथुनव्रतसंरक्षणस्य, आहारत्यागिनो हि ब्रह्मचर्यं सुरक्षितं स्यादिति, प्राणिदया च संपातिमत्रसादिसंरक्षणं तप: चतुर्थादि षण्मासान्तं प्राणिदयातपस्तच्च तद्धेतुश्च प्राणिदयातपोहेतुस्तस्मात् प्राणिदयातपोहे तोर्दयादिनिमित्तमित्यर्थः, तथा शरीरव्यवच्छेदार्थं देहत्यागाय आहारं व्यवच्छिन्दन्नातिक्रामत्याज्ञामिति प्रक्रमः, इह गाथे10 आयंको जरमाई राया सन्नायगा य उवसग्गे । बंभवयपालणट्ठा पाणिदया वासमहियाई ॥ तवहेउ चतुत्थाई जाव य छम्मासिओ तवो होइ । छटुं सरीरवोच्छेयणट्ठया होअणाहारो ॥ [पिण्डनि० ६६७-६६८] इति । [सू० ५०१] छहिं ठाणेहिं आता उम्मायं पाउणेज्जा, तंजहा- अरहंताणमवण्णं 15 वदमाणे १, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे २, आयरियउवज्झायाणमवन्नं वदमाणे ३, चाउवण्णस्स संघस्स अवनं वदमाणे ४, जक्खावेसेण चेव ५, मोहणिजस्स चेव कम्मस्स उदएणं ६ ।। [टी०] अनन्तरं श्रमणस्याहाराग्रहणकारणान्यभिहितानीति श्रमणादेर्जीवस्यानुचितकारिण उन्मादस्थानान्याह- छहीत्यादि, इदं च सूत्रं पञ्चस्थानक एव 20 व्याख्यातप्रायम्, नवरं षड्भि: स्थानैरात्मा जीव: उन्मादम् उन्मत्ततां प्राप्नुयात्, उन्मादश्च महामिथ्यात्वलक्षणस्तीर्थकरादीनामवर्णं वदतो भवत्येव तीर्थकराद्यवर्णवदनकुपितप्रवचनदेवतातो वा असौ ग्रहरूपो भवेदिति, पाठान्तरेण उम्मायपमायं ति उन्मादः सग्रहत्वं स एव प्रमादः प्रमत्तत्वम् आभोगशून्यतोन्मादप्रमादः, अथवोन्मादश्च प्रमादश्च अहितप्रवृत्ति-हिताप्रवृत्ती, 25 उन्मादप्रमादं प्राप्नुयादिति, अवनं ति अवर्णम् अश्लाघामवज्ञां वा वदन् व्रजन् वा १. सोहेइ जहोवइटुं च संजमं । पा० जे२ ॥ २. "ट्टयाए हो" जे१ ॥ ३. दृश्यतां सू० ४२६ ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । [सू० ५०२ ] कुर्वन्नित्यर्थः, धम्मस्स त्ति श्रुतस्य चारित्रस्य वा, आचार्योपाध्यायानां च चतुर्वर्णस्य श्रमणादिभेदेन चतुष्प्रकारस्य, यक्षावेशेन चैव निमित्तान्तरकुपितदेवाधिष्ठितत्वेन, मोहनीयस्य मिथ्यात्व - वेद - शोकादेरुदयेनेति । [सू० ५०२] छव्विधे पमाते पन्नत्ते, तंजहा- मज्जपमाते णिद्दपमाते विसयपमाते कसायपमाते जूतपमाते पडिलेहणापमाए । [टी०] उन्मादसहचरः प्रमाद इति तमाह - छव्विहेत्यादि, षड्विधः षट्प्रकार: प्रमदनं प्रमादः प्रमत्तता सदुपयोगाभाव इत्यर्थः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा - मद्यं सुरादि, तदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादः, यत आह चित्तभ्रान्तिर्जायते मद्यपानाच्चित्ते भ्रान्ते पापचर्यामुपैति । पापं कृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव देयं न पेयम् ॥ [ एवं सर्वत्र, नवरं निद्रा प्रतीता, तद्दोषश्चायं - निद्राशीलो न श्रुतं नापि वित्तं लब्धुं शक्तो हीयते चैष ताभ्याम् । ज्ञानद्रव्याभावतो दुःखभागी लोकद्वैते स्यादतो निद्रयाऽलम् ॥ [ विषयाः शब्दादयः, तेषां चैवं प्रमादता -A-24 विषयव्याकुलचित्तो हितमहितं वा न वेत्ति जन्तुरयम् । तस्मादनुचितचारी चरति चिरं दुःखकान्तारे ॥ [ कषायाः क्रोधादयः, तेषामप्येवं प्रमादता ] ] इति । चित्तरत्नमसङ्क्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषितं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ [हारि० अष्टक० २४७ ] इति । द्यूतं प्रतीतम्, तदपि प्रमाद एव, यतः ६१७ ] इति । 5 10 द्यूतासक्तस्य सच्चित्तं धनं कामा: सुचेष्टितम् । नश्यन्त्येव परं शीर्षं नामापि च विनश्यति ॥ [ ] इति । तथा प्रत्युपेक्षणं प्रत्युपेक्षणा, सा च द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावभेदाच्चतुर्धा, तत्र द्रव्यप्रत्युपेक्षणा वस्त्र-पात्राद्युपकरणानामशन-पानाद्याहाराणां च चक्षुर्निरीक्षणरूपा, क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा कायोत्सर्ग-निषदन - शयनस्थानस्य स्थण्डिलानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य 25 15 20 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे च निरूपणा, कालप्रत्युपेक्षणा उचितानुष्ठानकरणार्थं कालविशेषस्य पर्यालोचना, भावप्रत्युपेक्षणा धर्मजागरिकादिरूपा, यथाकिं कय किं वा सेसं किं करणिजं तवं च न करेमि ?। पुव्वावरत्तकाले जागरओ भावपडिलेहा ॥ [ओघनि० २६२] इति । 5 तत्र प्रत्युपेक्षणायां प्रमादः शैथिल्यमाज्ञातिक्रमो वा प्रत्युपेक्षणाप्रमादः, अनेन च प्रमार्जना-भिक्षाचर्यादिषु इच्छाकार-मिथ्याकारादिषु च दशविधसामाचारीरूपव्यापारेषु य: प्रमादोऽसावुपलक्षित:, तस्यापि सामाचारीगतत्वेन षष्ठप्रमादलक्षणाव्यभिचारित्वादिति। [सू० ५०३] छव्विधा पमायपडिलेहा पन्नत्ता, तंजहा10 आरभडा, संमद्दा, वजेतव्वा य मोसली ततिता । पप्फोडणा चउत्थी, वक्खित्ता, वेतिया छट्ठा ॥४५॥ छव्विधा अप्पमायपडिलेहा पन्नत्ता, तंजहाअणच्चावितं, अवलितं, अणाणुबंधिं, अमोसलिं चेव । छप्पुरिमा नव खोडा, पाणीपाणविसोहणी ॥४६॥ 15 [टी०] अनन्तरं प्रत्युपेक्षाप्रमाद उक्तः, अथ तामेव तद्विशिष्टामाह- छव्विहेत्यादि, षड्विधा षड्भेदा प्रमादेन उक्तलक्षणेन प्रत्युपेक्षा प्रमादप्रत्युपेक्षा प्रज्ञप्ता, तद्यथाआरभडा गाहा, आरभटा वितथकरणरूपा, अथवा त्वरितं सर्वमारभमाणस्य, अथवा अर्द्धप्रत्युपेक्षित एवैकत्र यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं सा आरभटा, सा च वर्जनीया दोषत्वादिति सर्वत्र सम्बन्धनीयमिति, सम्मी यत्र वस्त्रस्य मध्यप्रदेशे संवलिता: कोणा भवन्ति, 20 यत्र वा प्रत्युपेक्षणीयोपधिवेण्टिकायामेवोपविश्य प्रत्युपेक्षते सा सम्मति, मोसली प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रभागेन तिर्यगूर्ध्वमधो वा घट्टनारूपा, तइय त्ति तृतीया प्रमादप्रत्युपेक्षणेति, क्वचिद् अट्ठाणट्ठवणा य त्ति दृश्यते, तत्र गुर्ववग्रहादिके अस्थाने प्रत्युपेक्षितोपधे: स्थापनं निक्षेपोऽस्थानस्थापना, प्रस्फोटना प्रकर्षेण धूननं रेणुगुण्डितस्येव १. पृ० ३६१ पं० ११ ॥ २. यदिइच्छाकार जे१ खं० ॥ ३. ओघनिर्युक्तावपीदं गाथाद्वयमस्ति २६६, २६५। पञ्चवस्तुके २४५, २३९। निशीथभाष्ये १४२८, १४३२ ॥ ४. °डणी भां० ।। ५. घट्टनरूपा पा० जे२ ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५०३] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६१९ वस्त्रस्येति, इयं च चतुर्थी, विक्खित्त त्ति वस्त्रं प्रत्युपेक्ष्य ततोऽन्यत्र यमनिकादौ प्रक्षिपति यद् अथवा वस्त्राञ्चलादीनां यदूर्ध्वक्षेपणं सा विक्षिप्तोच्यते ५, वेइय त्ति वेदिका पञ्चप्रकारा, तत्र ऊर्ध्ववेदिका, यत्र जानुनोरुपरि हस्तौ कृत्वा प्रत्युपेक्षते १, अधोवेदिका जानुनोरधो हस्तौ निवेश्य २, एवं तिर्यग्वेदिका जानुनो: पार्श्वतो हस्तौ नीत्वा ३, द्विधावेदिका बाह्वोरन्तरे द्वे अपि जानुनी कृत्वा ४, एकतोवेदिका एकं जानु बाह्वोरन्तरे 5 कृत्वेति ५, षष्ठी प्रमादप्रत्युपेक्षणेति प्रक्रमः, इह गाथेवितहकरणम्मि तुरियं अन्नं अन्नं च गिण्ह आरभडा । अंतो व होज कोणा निसियण तत्थेव संमद्दा ॥ गुरुउग्गहादठाणं पप्फोडण रेणुगुंडिए चेव । विक्खेवं तुक्खेवो वेइयपणगं च छद्दोसा ॥ [पञ्चव० २४६-७] इति । 10 उक्तविपरीतां प्रत्युपेक्षणामेवाह- छव्विहेत्यादि, षड्विधा अप्रमादेन प्रमादविपर्ययेण प्रत्युपेक्षणा, अप्रमादप्रत्युपेक्षणा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- अणच्चा० गाहा, वस्त्रमात्मा वा न नर्तितं न नृत्यदिव कृतं यत्र तदनर्तितं प्रत्युपेक्षणम्, वस्त्रं नर्त्तयत्यात्मानं वेत्येवमिह चत्वारो भङ्गाः १, तथा वस्त्रं शरीरं वा न वलितं कृतं यत्र तदवलितमिहापि तथैव चतुर्भङ्गी २, तथा न विद्यतेऽनुबन्ध: सातत्यं प्रस्फोटकादीनां यत्र तदननुबन्धि, इन् 15 समासान्तोऽत्र दृश्य:, नानुबन्धि अननुबन्धीति वा ३, तथा न विद्यते मोसली उक्तलक्षणा तत्र तदमोसलि ४, छप्पुरिमा नव खोड त्ति तत्र वस्त्रे प्रसारिते सति चक्षुषा निरूप्य तदर्वाग्भागं परावर्त्य निरूप्य च त्रयः पुरिमाः कर्तव्याः प्रस्फोटका इत्यर्थः, तथा तत् परावर्त्य चक्षुषा निरूप्य च पुनरपरे त्रय: पुरिमा एवमेते षट्, तथा नव खोटका ते च त्रयस्त्रयः प्रमार्जनानां त्रयेण त्रयेणान्तरिता: कार्या इति, पदद्वयेनापि पञ्चमी 20 अप्रमादप्रत्युपेक्षणोक्ता, पुरिमखोटकानां सदृशत्वादिति । तथा पाणेर्हस्तस्योपरि प्राणानां प्राणिनां कुन्थ्वादीनामित्यर्थः, विसोहणि त्ति विशोधना प्रमार्जना प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रेणैव कार्या नवैव वारा:, उक्तन्यायेन खोटकान्तरितेति षष्ठी अप्रमादप्रत्युपेक्षणेति, इह गाथे वत्थे अप्पाणम्मि य चउहा अणच्चावियं अवलियं च । अणुबंधि निरंतरया तिरिउड्डऽहघट्टणा मुसली ॥ 25 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे छप्पुरिमा तिरियकए नव खोडा तिन्नि तिन्नि अंतरिया । ते पुण वियाणियव्वा हत्थम्मि पमजणतिएणं ॥ [पञ्चव० २४०, २४२] [सू० ५०४] छ लेसाओ पन्नत्ताओ तंजहा-कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा । पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं छ लेसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा जाव 5 सुक्कलेसा, एवं मणुस्स-देवाण वि । [सू० ५०५] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो छ अग्गमहिसीतो पन्नत्ताओ । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारन्नो छ अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ । [सू० ५०६] ईसाणस्स णं देविंदस्स मज्झिमपरिसाए देवाणं छ पलिओवमाई 10 ठिती पन्नत्ता । [सू० ५०७] छ दिसाकुमारिमहत्तरितातो पन्नत्ताओ, तंजहा-रूता, रूतंसा, सुरूवा, रूयावती, रूयकंता, रूतप्पभा। छ विज्जुकुमारिमहत्तरितातो पन्नत्ताओ, तंजहा-अला, मक्का, सतेरा, सोतामणी, इंदा, घणविजुया । [सू० ५०८] धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो छ अग्गमहिसीओ 15 पन्नत्ताओ, तंजहा-अला, मक्का, सतेरा, सोतामणी, इंदा, घणविजुया । भूताणंदस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो छ अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रूता, रूतंसा, सुरूता, रूतावती, रूतकंता, रूतप्पभा । जधा धरणस्स तधा सव्वेसिं दाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स । जधा भूताणंदस्स तधा सव्वेसिं उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स । 20 [सू० ५०९] धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो छ सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्तातो, एवं भूताणंदस्स वि जाव महाघोसस्स । [टी०] इयं च प्रमादाप्रमादप्रत्युपेक्षा लेश्याविशेषतो भवतीति लेश्यासूत्रम्, लेश्याधिकारादेव पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यदेवलेश्यासूत्राणि, देवप्रत्यासत्त्या सक्केत्यादिकान्यग्रमहिष्यादिसूत्राणि चावग्रहमतिसूत्रादर्वाग्वर्तीनि, कण्ठ्यानि च, नवरं 25 देवानां जात्यपेक्षया अवस्थितरूपा: षट् लेश्या अवगन्तव्या इति । १. च नास्ति जे१ खं० ।। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ [सू० ५१०] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । [सू० ५१०] छव्विहा उग्गहमती पन्नत्ता, तंजहा-खिप्पमोगिण्हति, बहुमोगिण्हति, बहुविधमोगिण्हति, धुवमोगिण्हति, अणिस्सियमोगिण्हति, असंदिद्धमोगिण्हति । छव्विहा ईहामती पन्नत्ता, तंजहा-खिप्पमीहति, बहुमीहति जाव असंदिद्धमीहति । 5 छविधा अवायमती पन्नत्ता, तंजहा-खिप्पमवेति जाव असंदिद्धं अवेति। छव्विधा धारणा पन्नत्ता, तंजहा-बहुं धरेति, बहुविधं धरेति, पोराणं धरेति, दुद्धरं धरेति, अणिस्सितं धरेति, असंदिद्धं धरेति । [टी०] अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ता, देवाश्च भवप्रत्ययादेव विशिष्टमतिमन्तो भवन्तीति मतिभेदान् सूत्रचतुष्टयेनाह- छव्विहा उग्गहेत्यादि, मति: आभिनिबोधिकम्, सा 10 चतुर्विधा, अवग्रहेहापाय-धारणाभेदात्, तत्रावग्रहः प्रथमं सामान्यार्थग्रहणम्, तद्रूपा मतिरवग्रहमति:, इयं च द्विविधा व्यञ्जनावग्रहमतिरावग्रहमतिश्च, तत्रार्थावग्रहमतिर्द्विधानिश्चयतो व्यवहारतश्च, तत्र व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालमेकसामयिकी प्रथमा, द्वितीया त्वन्तर्मुहूर्तप्रमाणा अवायरूपा अपि सा ईहापाययोरुत्तरयोः कारणत्वादवग्रहमतिरित्युपचरितेति, यत आह सामन्नमेत्तगहणं नेच्छइओ समयमोग्गहो पढमो । तत्तोऽणंतरमीहियवत्थुविसेसस्स जोऽवाओ ॥ सो पुण ईहावायावेक्खाउऽवग्गहो त्ति उवयरिओ । एस विसेसावेक्खं सामन्नं गेहए जेण ॥ तत्तोऽणंतरमीहा तत्तोऽवाओ य तव्विसेसस्स । इय सामनविसेसावेक्खा जावंतिमो भेओ ॥ सव्वत्थेहावाया निच्छयओ मोत्तुमाइ सामन्नं । संववहारत्थं पुण सव्वत्थावग्गहोऽवाओ ॥ तरतमजोगाभावेऽवाउ च्चिय धारणा तदंतम्मि । सव्वत्थ वासणा पुण भणिया कालंतर सई य ॥ [विशेषाव० २८२-८६] त्ति । 25 तत्र व्यवहारावग्रहमतिमाश्रित्य प्राय: षड्विधत्वं व्याख्येयमिति, तद्यथा१. कालंतर सइ त्ति जे१ जे२ पा० ॥ 15 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे क्षिप्रमवगृह्णाति तूल्यादिस्पर्श क्षयोपशमपटुत्वादचिरेणैव वेत्ति मतिस्तद्विशिष्टः पुरुषो वेति, बहुं ति शय्यायां ह्युपविशन् पुमांस्तत्रस्थयोषित्- पुष्प-चन्दन-वस्त्रादिस्पर्शं बहु भिन्नजातीयं सन्तमेकैकं भेदेनावबुध्यते- अयं योषित्स्पर्श इत्यादि, बहुविहं ति बढ्यो विधा भेदा यस्य स बहविधस्तं योषिदादिस्पर्शमेकैकं शीत-स्निग्ध-मृद5 कठिनादिरूपमवगृह्णातीति, धुवं ति ध्रुवमत्यन्तं सर्वदैवेत्यर्थः, यदा यदा अस्य तेन स्पर्शेन योषिदादिना योगो भवति तदा तदा तमवच्छिनत्तीत्यर्थः, एतदुक्तं भवतिसतीन्द्रिये सति चोपयोगे यदाऽसौ विषय: स्पृष्टो भवति तदा तमवगृह्णात्येवेति, अणिस्सियं ति निश्रितो लिङ्गप्रमितोऽभिधीयते, यथा यूथिकाकुसुमानामत्यन्तं शीत-मृदु-स्निग्धादिरूप: प्राक् स्पर्शोऽनुभूत: तेनानुमानेन लिङ्गेन तं विषयमपरिच्छिन्दत् यदा ज्ञानं प्रवर्त्तते तदा 10 अनिश्रितमलिङ्गमवगृह्णातीत्यभिधीयते, असंदिद्धं ति असंदिग्धं निश्चितं सकलसंशयादिदोषरहितमिति, यथा तमेव योषिदादिस्पर्शमवगृह्णत् योषित एवायं चन्दनस्यैवायमित्येवमवगृह्णातीति । एवमीहा-ऽपाय-धारणामतीनां षड्विधत्वम्, नवरं धारणायां क्षिप्र-ध्रुवपदे परित्यज्य पुराण-दुर्द्धरपदाभ्यां सह षड्विधत्वमुक्तम्, तत्र च पुराणं बहुकालीनं दुर्द्धरं गहनं चित्रादीति, क्षिप्र-बहु-बहुविधादिपदषट्कविपर्ययेणापि 15 षड्विधा अवग्रहादिमतिर्भवतीति मतिभेदानामष्टाविंशतेादशभिर्गुणनात् त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि भवन्ति, अभाणि च भाष्यकारेण जं बहु १ बहुविह २ खिप्पा ३ ऽणिस्सिय ४ निच्छिय ५ धुवे ६ यर १२ विभिन्ना । पुणरोग्गहादओ तो तं छत्तीसत्तिसयभेदं ॥ ति, नानासद्दसमूहं बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाइयं १ । बहुविहमणेगभेदं एक्वेक्कं निद्धमहुरादि २ ॥ खिप्पमचिरेण ३ तं चिय सरूवओ जं अनिस्सियमलिंगं ४ । निच्छ(च्छि?)यमसंसयं जं ५ धुवमच्चंतं न उ कयाइ ६ ॥ एत्तो च्चिय पडिवक्खं साहेज्जा निस्सिए विसेसो वा । परधम्मेहि विमिस्सं निस्सियमविनिस्सियं इयरं ॥ [विशेषाव० ३०७-३१०] ति । १. सर्वदेत्यर्थः पा० जे२ । सर्वदेवेत्यर्थः जे१ खं० ॥ २. पाठोऽयं विशेषावश्यकभाष्यानुसारेण । °खिप्पा३अणिस्सिय जे१, २ खं० पा० ॥ 20 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५११] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । इह भावना - अक्षिप्रं चिरेण, निश्रितं लिङ्गात्, अनिश्चितं सन्दिग्धम्, अध्रुवं कदाचित्, अथवा निश्रितानिश्रितयोरयमपरो विशेष:- निश्रितं गृह्णाति गवादिकमर्थं सारङ्गादिधर्म्मविशिष्टमवगृह्णाति, अनिश्रितं गां गोधर्मैरेव विशिष्टं गृह्णाति, यदिह न स्पृष्टं तत् स्पष्टमेवेति । [सू० ५११] छव्विधे बाहिरते तवे पन्नत्ते, तंजहा - अणसणं, ओमोदरिता, 5 भिक्खातरिता, रसपरिच्चाते, कायकिलेसो, पडिसंलीणता । छव्विधे अब्भंतरते तवे पन्नत्ते, तंजहा - पायच्छित्तं, विणओ, वेयावच्चं, सज्झाओ, झाणं, विउसग्गो । ६२३ [टी०] अनन्तरं मतिरुक्ता, तद्विशेषवन्तश्च तपस्यन्तीति तपोऽभिधानाय सूत्रद्वयम् - छव्विहेत्यादि गतार्थमेतत्, तथापि किञ्चिदुच्यते, बाहिरए तवे त्ति बाह्यमित्यासेव्यमानस्य 10 लौकिकैरपि तपस्तया ज्ञायमानत्वात् प्रायो बहिः शरीरस्य तापकत्वाद्वा तपति दुनो शरीरकर्माणि यत्तत्तप इति, तत्राऽनशनम् अभोजनमाहारत्याग इत्यर्थः, तद् द्विधाइत्वरं यावत्कथिकं च, तत्रेत्वरं चतुर्थादि षण्मासान्तमिदं तीर्थमाश्रित्येति, यावत्कथिकं त्वाजन्मभावि त्रिधा– पादपोपगमनेङ्गितमरण-भक्तपरिज्ञाभेदात्, एतच्च प्राग्व्याख्यातमिति १, ओमोयरियत्ति अवमम् ऊनमुदरं जठरम् अवमोदरं तस्य करणमवमोदरिकेति, सा च द्रव्यत उपकरण-भक्त-पानविषया प्रतीता, भावतस्तु क्रोधादित्याग इति २, तथा भिक्षार्थं चर्या चरणमटनं भिक्षाचर्या, सैव तपो निर्जराङ्गत्वादनशनवद्, अथवा सामान्योपादानेऽपि विशिष्टा विचित्राभिग्रहयुक्तत्वेन वृत्तिसङ्क्षेपरूपा सा ग्राह्या, यत इहैव वक्ष्यति– छव्विहा गोयरचरिय [सू० ५१४] त्ति, न चेयं ततोऽत्यन्तभिन्नति, भिक्षाचर्यायां चाभिग्रहा द्रव्यादिविषयतया चतुर्विधाः, तत्र द्रव्यतोऽलेपकार्याद्येव द्रव्यं 20 ग्रहीष्ये, क्षेत्रतः परग्राम- गृहपञ्चकादिलब्धम्, कालतः पूर्वाह्णादौ, भावतो गानादिप्रवृत्ताल्लब्धमिति ३, रसा: क्षीरादयः, तत्परित्यागो रसपरित्यागः ४, कायक्लेशः शरीरक्लेशनम्, स च वीरासनादिरनेकधा ५, प्रतिसंलीनता गुप्तता, सा चेन्द्रियकषाय-योगविषया विविक्तशयनासनता वेति ६ । १. यदि न स्पृष्टं तत् स्पृष्टमेवेति जे१ खं० ॥ २. 'भेदात् तच्च जे१ ॥ ३. दृश्यतां सू०११३ ॥ 15 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अभिंतरए त्ति लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात् तन्त्रान्तरीयैश्च परमार्थतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तरङ्गत्वाच्चाभ्यन्तरमिति, प्रायश्चित्तम् उक्तनिर्वचनमालोचनादि दशविधमिति १, विनीयते कर्म येन स विनय:, उक्तं च जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविहं चाउरंतमोक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ विणयं ति विलीणसंसारा ॥ [आव० नि० १२३१] इति । स च ज्ञानादिभेदात् सप्तधा वक्ष्यते २। तथा व्यावृतभावो वैयावृत्यं धर्मसाधनार्थमन्नादिदानमित्यर्थः ३, आह च वेयावच्चं वावडभावो इह धम्मसाहणणिमित्तं । अन्नाइयाण विहिणा संपायणमेस भावत्थो ॥ [ ] इति । तच्च दशधा10 आयरिय उवज्झाए थेरतवस्सीगिलाणसेहाणं ।। साहम्मियकुलगणसंघसंगयं तमिह कायव्वं ॥ [ ] ति । सुष्ठु आ मर्यादया अध्याय: अध्ययन स्वाध्यायः, स च पञ्चधा- वाचना प्रच्छना परिवर्तना अनुप्रेक्षा धर्मकथा चेति ४, ध्यातिर्ध्यानम् एकाग्रचिन्तानिरोधः, तच्चतुर्की प्रोग् व्याख्यातम्, तत्र धर्म-शुक्ले एव तपसी निर्जरार्थत्वात्, नेतरे बन्धहेतुत्वादिति 15 ५, व्युत्सर्गः परित्यागः, स च द्विधा- द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो गण शरीरोपध्याहारविषयः, भावतस्तु क्रोधादिविषय इति ६ । एते च तप:सूत्रे दशकालिकाद्विशेषतोऽवसेये इति । [सू० ५१२] छव्विहे विवादे पन्नत्ते, तंजहा-ओसक्कतित्ता, उस्सक्कइत्ता, अणुलोमइत्ता, पडिलोमतित्ता, भइत्ता, भेलतित्ता । 20 टी०] अनन्तरोदितार्थेषु विवदते कश्चिदिति विवादस्वरूपमाह- छव्विहेत्यादि. षड्विधः षड्भेदो विप्रतिपन्नयो: क्वचिदर्थे वादो जल्पो विवादः प्रज्ञप्तः, तद्यथा ओसक्कइत्त त्ति अवष्वष्क्य अपसृत्याऽवसरलाभाय कालहरणं कृत्वा यो विधीयते स तथोच्यते, एवं सर्वत्र, क्वचिच्च ओसक्वावइत्त त्ति पाठस्तत्र प्रतिपन्थिनं केनापि १. सू० ५८५ ॥ २. उद्धृतमिदं गाथाद्वयं दशवै० हा० ॥ ३. दृश्यतां सू०२४७ ।। ४. दृश्यतां दशवैकालिकसूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तौ प्रथमाध्ययने तवे इत्यस्य व्याख्या ॥ ५. विवागे पं० तं० ओसक्कवइत्ता उस्सक्कावइत्ता अणुलोमइत्ता पडिलोमयित्ता भयित्ता भेदयित्ता भा० ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५१३-५१४] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६२५ व्याजेनापसर्प्य अपसृतं कृत्वा पुनरवसरमवाप्य विवदते, उस्सक्कइत्त त्ति उत्ष्वष्क्य उत्सृत्य लब्धावसरतयोत्सुकीभूय, उस्सक्कावइत्त त्ति पाठान्तरे परमुत्सुकीकृत्य लब्धावसरो जयार्थी विवदते, तथा अणुलोमइत्त त्ति विवादाध्यक्षान् सामनीत्याऽनुलोमान् कृत्वा, प्रतिपन्थिनमेव वा पूर्वं तत्पक्षाभ्युपगमेनाऽनुलोमं कृत्वा पडिलोमइत्ता प्रतिलोमान् कृत्वा अध्यक्षान् प्रतिपन्थिनं वा, सर्वथा सामर्थ्य सतीति, तथा भइत्त त्ति अध्यक्षान् 5 भक्त्वा संसेव्य, तथा भेलइत्त त्ति स्वपक्षपातिभिर्मिश्रान् कारणिकान् कृत्वेति भाव:, क्वचिद् भेयइत्त त्ति पाठः, तत्र भेदयित्वा केनाप्युपायेन प्रतिपन्थिनं प्रति कारणिकान् द्वेषिणो विधाय स्वपक्षग्राहिणो वेति भावः ।। [सू० ५१३] छव्विहा खुड्डा पाणा पन्नत्ता, तंजहा-बेंदिता, तेंदिता, चउरिंदिता, संमुच्छिमपंचेंदिततिरिक्खजोणिता, तेउकातिता, वाउकातिता । 10 [टी०] विवादं च कृत्वा ततोऽप्रतिक्रान्ता: केचित् क्षुद्रसत्त्वेषूत्पद्यन्त इति तान्निरूपयन्नाह- छव्विहेत्यादि सुगमम्, परमिह क्षुद्रा: अधमा:, यदाह अल्पमधमं पणस्त्रीं क्रूरं सरघां नटी च षट् क्षुद्रान् । ब्रुवते [ ] इति, अधमत्वं च विकलेन्द्रिय-तेजोवायूनामनन्तरभवे सिद्धिगमनाभावाद्, यत उक्तम्भूदगपंकप्पभवा चउरो हरिया उ छच्च सिज्झेजा । विगला लभेज विरइं न हु किंचि लभेज सुहुमतसा ॥ [बृहत्सं० २९७] सूक्ष्मत्रसा: तेजोवायव इति तथा एतेषु देवानुत्पत्तेश्च, यत उक्तम्पुढवी-आउ-वणस्सइ-गब्भे पजत्तसंखजीवीसु । सग्गच्चुयाण वासो सेसा पडिसेहिया ठाणा ॥ [बृहत्सं० १८०] इति । सम्मूर्छिमपञ्चेन्द्रियतिरश्चां चाधमत्वं तेषु देवानुत्पत्तेः, तथा पञ्चेन्द्रियत्वेऽप्यमनस्कतया 20 विवेकाभावेन निर्गुणत्वादिति, वाचनान्तरे तु सिंहा: व्याघ्रा वृका दीपिका ऋक्षास्तरक्षा इति क्षुद्रा उक्ताः, क्रूरा इत्यर्थः ।। [सू० ५१४] छव्विहा गोयरचरिया पन्नत्ता, तंजहा-पेडा, अद्धपेडा, गोमुत्तिया, पतंगवीहिया, संबुक्कवट्टा, गंतुंपच्चागता । १. तुलना- “क्षुद्रा व्यङ्गा नटी वेश्या सरघा कण्टकारिका । त्रिषु क्रूरेऽधनेऽल्पेऽपि क्षुद्राः मात्रा परिच्छदे ॥१७७॥" इति अमरकोषे ॥ २. न उ किंचि पा० जे२ ॥ 15 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] अनन्तरं सत्त्वविशेषा उक्ता: सत्त्वानां चानपायत: साधुना भिक्षाचर्या कार्येति, सा च षोदेति दर्शयन्नाह– छव्विहेत्यादि, गोयरचरिय त्ति गो: बलीवईस्य चरणं चर: गोचरस्तद्वद्या चर्या चरणं सा गोचरचर्या, इदमुक्तं भवति- यथा गोरुच्चनीचतृणेष्वविशेषतश्चरणं प्रवर्त्तते तथा यत् साधोररक्तद्विष्टस्योच्च-नीच-मध्यम5 कुलेषु धर्मसाधनदेहपरिपालनाय भिक्षार्थं चरणं सा गोचरचर्ये ति, इयं चैकस्वरूपाऽप्यभिग्रहविशेषात् षोढा, तत्र प्रथमा पेटा वंशदलमयं वस्त्रादिस्थानं जनप्रतीतम्, सा च चतुरस्रा भवति , ततश्च साधुरभिग्रहविशेषाद्यस्यां चर्यायां ग्रामादिक्षेत्रं पेटावच्चतुरस्रं विभजन् विहरति सा पेटेत्युच्यते, एवमर्द्धपेटाऽपि एतदनुसारेण वाच्या, गोमूत्रणं गोमूत्रिका तद्वद्या सा तथा, इयं हि परस्पराभिमुखगृहपङ्क्त्योरेकस्यां 10 गत्वा पुनरितरस्यां पुनस्तस्यामेवेत्येवं क्रमेण भावनीया, पतङ्गः शलभस्तस्य वीथिका मार्ग: तद्वद्या सा तथा, पतङ्गगतिर्हि अनियतक्रमा भवति एवं याऽनाश्रितक्रमा सा तथा, संबुक्कवट्ट त्ति संबुक्कः शङ्खस्तद्वच्छङ्खभ्रमिवदित्यर्थो या वृत्ता सा संबुक्कवृत्तेति, इयं च द्वेधा, तत्र यस्यां क्षेत्रबहिर्भागाच्छववृत्तत्वगत्याऽटन क्षेत्रमध्यभागमायाति साऽभ्यन्तरसंबुक्का, यस्यां तु मध्यभागाद् बहिर्याति सा बहिःसम्बुक्केति । गंतुंपच्चागय 15 त्ति उपाश्रयान्निर्गत: सन्नेकस्यां गृहपङ्क्तौ भिक्षमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागच्छन् पुनर्द्वितीयायां गृहपङ्क्तौ यस्यां भिक्षते सा गत्वाप्रत्यागता, गत्वा प्रत्यागतं यस्यामिति च विग्रह इति । _ [सू० ५१५] जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वतस्स दाहिणेणमिमीसे रतणप्पभाते पुढवीए छ अवक्कंतमहानिरता पन्नत्ता, तंजहा-लोले, लोलुए, उद्दड्डे, निद्दड्डे, 20 जरते, पजरते । __ चउत्थीए णं पंकप्पभाते पुढवीते छ अवकंतमहानिरता पन्नत्ता, तंजहाआरे, वारे, मारे, रोरे, रोरुते, खाडखडे । [टी०] अनन्तरं साधुचर्योक्तेति चर्याप्रस्तावादसाधुचर्याफलभोक्तृस्थानविशेषाभिधानाय सूत्रद्वयं जंबूदीवेत्यादि सुगमम्, नवरम् अवक्कंत त्ति अपक्रान्ता: १. उदढे निदड्ढे भां० ॥ २. जंबुद्दीवे पा० खं० । जंबुदीवे जे२ ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [सू० ५१५] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६२७ सर्वशुभभावेभ्योऽपगता भ्रष्टास्तदन्येभ्योऽतिनिकृष्टा इत्यर्थः, अपकान्ता वा अकमनीया:, सर्वेऽप्येवमेव नरका:, विशेषतश्चैते इति दर्शनार्थं विशेषणमिति सम्भाव्यते, ते च ते महानरकाश्चेति विग्रह: एतेषां चैवं प्ररूपणा तेरिकारस नव सत्त पंच तिन्नेव होंति एक्को य । पत्थडसंखा एसा सत्तसु वि कमेण पुढवीसु ॥ [बृहत्सं० २५३] एवमेकोनपञ्चाशत् प्रस्तटा:, एतेषु क्रमेणैतावन्त एव सीमन्तकादयो वृत्ताकारा नरकेन्द्रकाः, तत्र सीमन्तकस्य पूर्वादिदिक्षु एकोनपञ्चाशत्प्रमाणा नरकावली विदिक्षु चाष्टचत्वारिंशत्प्रमाणेति प्रतिप्रस्तटमुभयत्रैकैहान्या सप्तम्यां दिक्ष्वेकैक एव विदिक्षु न सन्त्ये वेति, उक्तं चएगूणवन्ननिरया सेढी सीमंतगस्स पुव्वेणं । उत्तरओ अवरेण य दाहिणओ चेव बोद्धव्वा ॥ अडयालीसं निरया सेढी सीमंतगस्स बोद्धव्वा । पुव्वुत्तरेण नियमा एवं सेसासु विदिसासु ॥ एक्केक्को य दिसासु मज्झे निरओ भवेऽपइट्ठाणो । विदिसानिरयविरहियं तं पयरं पंचगं जाण ॥ [विमान० १४-१५-१६] सीमन्तकस्य च पूर्वादिषु दिक्षु सीमन्तकप्रभादयो नरका भवन्ति, तदुक्तम्सीमंतकप्पभो खलु निरओ सीमंतगस्स पुव्वेण । सीमंतगमज्झिमओ उत्तरपासे मुणेयव्वो ॥ सीमंतावत्तो पुण निरओ सीमंतगस्स अवरेणं । सीमंतगावसिट्ठो दाहिणपासे मुणेयव्वो ॥ [विमान० २०-२१] इति । तत: पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु सीमन्तकापेक्षया तृतीयादय: प्रत्येकमावलिकासु विलयादयो नरका भवन्तीति, एवं चैते लोलादय: षडप्यावलिकागतानां मध्ये अधीता विमाननरकेन्द्रकाख्ये ग्रन्थे, यतस्तत्रोक्तम्- लोले तह लोलुए चेव [विमान० ३०] इति, एतौ चावलिकाया: पर्यन्तिमौ, तथा उद्दड्ढे चेव निद्दढे [विमान० २७] त्ति एतौ सीमन्तकप्रभाविंशतितमैकविंशाविति, तथा जरए तह चेव पज्जरए [विमान० २९] त्ति 25 पञ्चत्रिंशत्तम-षट्त्रिंशत्तमौ, केवलं लोलो लोलुप इत्येवं शुद्धपदैः सर्वनरकाणां 15 ___15 20 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पूर्वावलिकायामेवाभिलाप:, उत्तरदिगाद्यावलिकासु पुनरेभिरेव सविशेषैर्नामभिर्नरका अभिलप्यन्ते, तद्यथा- उत्तरायां लोलमध्यो लोलुपमध्य इत्यादि, एवं पश्चिमायां लोलावर्तो दक्षिणायां लोलावशिष्ट इत्यादि, उक्तं च मज्झा उत्तरपासे आवत्ता अवरओ मुणेयव्वा । 5 सिट्टा दाहिणपासे पुब्विल्लाओ विभइयव्वा ॥ [विमान० ३२] इति, इह तु दक्षिणानामेषां विवक्षितत्वेन लोलावशिष्ट इत्यादिवक्तव्येऽपि सामान्याभिधानमेव निर्विशेष विवक्षितमिति सम्भाव्यते । चउत्थीए त्ति पङ्कप्रभायाम् अपक्रान्ता अपकान्ता वेत्यादि तथैव, इह च सप्त प्रस्तटा: सप्तैव नरकेन्द्रकाः, यथोक्तम् आरे मारे नारे तत्थे तमए य होइ बोद्धव्वे । 10 खाडखडे य खडखडे इंदयनिरया चउत्थीए । [विमान० १०] इति । तदेवम् आरा मारा खडखडा नरकेन्द्रका:, अन्ये तु वार-रोर-रोरुकाख्यास्त्रयः प्रकीर्णकाः, अथवा इन्द्रका एव नामान्तरैरुक्ता इति सम्भाव्यत इति । [सू० ५१६] बंभलोगे णं कप्पे छ विमाणपत्थडा पन्नत्ता, तंजहा-अरते, विरते, णीरते, निम्मले, वितिमिरे, विसुद्धे । 15 [टी०] अनन्तरमसाधुचर्याफलभोक्तृस्थानान्युक्तानीतश्च साधुचर्याफलभोक्तृस्थान विशेषानाह- बंभेत्यादि, बंभलोए त्ति पञ्चमदेवलोके, तत्र षडेव विमानप्रस्तटा: प्रज्ञप्ता:, आह च तेरस १-२ बारस ३-४ छ ५ पंच चेव ६ चत्तारि ७-८-९-१०-११-१२ चउसु कप्पेसु। गेवेजेसु तिय तिय ३-३-३- एगो य अणुत्तरेसु १ भवे ॥ [विमान० १२९] त्ति, 20 सर्वेऽपि ६२, तद्यथा- अरजा इत्यादि सुगममेवेति ।। [सू० ५१७] चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो छ णक्खत्ता पुव्वंभागा समखेत्ता तीसतिमुहत्ता पन्नत्ता, तंजहा-पुव्वा भद्दवया, कत्तिता, महा, पुव्वा फग्गुणी, मूलो, पुव्वा आसाढा ११ १. प्रथम-द्वितीययोर्देवलोकयोः १३, तृतीय-चतुर्थयोः १२, पञ्चमे ६, षष्ठे ५, सप्तमे ४, अष्टमे ४, नवम दशमयोः ४, एकादश-द्वादशयोः ४, नवसु ग्रैवेयकेषु ९, अनुत्तरेषु १ इत्येवं १३+१२+६+५+४+४+४+४+१+१ = सर्वेऽपि ६२ ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५१७] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६२९ चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो छ णक्खत्ता णत्तंभागा अवड्डखेत्ता पन्नरसमुहुत्ता पन्नत्ता, तंजहा-सतभिसता, भरणी, अद्दा, अस्सेसा, साती, जेट्ठा २ । चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो छ णक्खत्ता उभयंभागा दिवड्डखेत्ता पणयालीसमुहुत्ता पन्नत्ता, तंजहा-रोहिणी, पुणव्वसू, उत्तरा फग्गुणी, विसाहा, 5 उत्तरा आसाढा, उत्तरा भद्दवया ३॥ [टी०] अनन्तरं विमानवक्तव्यतोक्तेति तत्प्रस्तावान्नक्षत्रविमानवक्तव्यतां सूत्रत्रयेणाहचंदस्सेत्यादि व्यक्तम्, नवरं पुव्वंभाग त्ति पूर्वमिति पूर्वभागेनाग्रेणेत्यर्थः, भज्यन्ते अप्राप्तेनैव चन्द्रेण सेव्यन्ते युज्यन्ते इति यावदिति पूर्वभागानि, अनुस्वारश्च प्राकृतत्वादिति, चन्द्रस्याग्रयोगीनि, चन्द्र एतान्यप्राप्तो भुङ्क्त इति लोकश्रीप्रोक्ता 10 भावनेति, उक्तं च तत्रैवपुव्वा तिन्नि य मूलो मह कित्तिय अग्गिमा जोगा [ ] इति । समं स्थूलन्यायमाश्रित्य त्रिंशन्मुहूर्त्तभोग्यं क्षेत्रम् आकाशदेशलक्षणं येषां तानि समक्षेत्राणि, अत एवाह- त्रिंशन्मुहूर्तानि त्रिंशतं मुहूर्तांश्चन्द्रभोगो येषां तानि तथा। णत्तंभाग त्ति नक्तंभागानि चन्द्रस्य समयोगीनीत्यर्थः, उक्तं च- अद्दाऽसेसा साई 15 सयभिसमभिई य जेट्ठ समजोगा [ ] केवलं भरणीस्थाने लोकश्रीसूत्रे अभिजिदुक्तेति मतविशेषो दृश्यत इति, अपार्द्धं समक्षेत्रापेक्षया अर्द्धमेव क्षेत्रं येषां तानि तथा । अर्द्धक्षेत्रत्वमेवाह- पञ्चदशमुहर्तानीति । उभयंभाग त्ति चन्द्रेणोभयत: उभयभागाभ्यां पूर्वत: पश्चाच्चेत्यर्थः, भज्यन्ते भुज्यन्ते यानि तान्युभयभागानि, चन्द्रस्य पूर्वत: पृष्ठतश्च भोगमुपगच्छन्तीत्यर्थः इति भावना लोकश्रीभणितेति, उक्तं च- उत्तर तिन्नि विसाहा 20 पुणव्वसू रोहिणी उभयजोगा॥ [ ] इति । द्वितीयमपार्द्ध यत्र तत् व्यपार्द्व सार्द्धमित्यर्थः, क्षेत्रं येषां तानि तथा, यत: पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानीति । अन्यानि दश पश्चिमयोगानि । पूर्वभागादिनक्षत्राणां गुणोऽयम् उक्तक्रमेण नक्षत्रैयुज्यमानस्तु चन्द्रमा: । सुभिक्षकृद्विपरीतं युज्यमानोऽन्यथा भवेत् ॥ [ ] इति । 25 . Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ५१८] अभिचंदे णं कुलकरे छ धणुसयाई उड्डउच्चत्तेणं होत्था । [सू० ५९९ ] भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छ पुव्वसतसहस्साई महाराया होत्था । ६३० [सू० ५२०] पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स छस्सता वादीणं 5 सदेवमणुयासुराते परिसाते अपराजिताणं संपया होत्था । वासुपुज्ने णं अरहा छहिं पुरिससतेहिं सद्धिं मुंडे व पव्वते । चंदप्पभे णं अरहा छम्मासा छउमत्थे होत्था । नवरम् [टी०] अनन्तरं चन्द्रव्यतिकर उक्त इति किञ्चिच्छब्दसाम्यात्तद्वर्णसाम्याद्वा अभिचन्द्रकुलकरसूत्रम्, तद्वंशजन्मसम्बन्धाद् भरतसूत्रं पार्श्वनाथसूत्रं च, जिनसाधर्म्याद् 10 वासुपूज्यसूत्रं चन्द्रप्रभसूत्रं चाह - अभिचंदेत्यादि, सुगमानि चैतानि, अभिचन्द्रोऽमुष्यामवसर्पिण्यां चतुर्थः कुलकर: । चाउरंत त्ति चत्वारोऽन्ताः समुद्रत्रयहिमवल्लक्षणा यस्यां सा चतुरन्ता पृथ्वी, तस्या अयं स्वामीति चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्त्ती चेति चातुरन्तचक्रवर्त्ती । षट् पूर्वशतसहस्राणि तल्लक्षाणि, पूर्व तु चतुरशीतिर्वर्षलक्षाणां तद्गुणेति । आदाणीयस्स त्ति आदीयते उपादीयते इत्यादानीयः 15 उपादेय इत्यर्थः, पुरुषाणां मध्ये आदानीयः पुरुषश्चासावादानीयश्चेति वा पुरुषादानीयस्तस्य । चन्द्रप्रभस्य षण्मासानिह छद्मस्थपर्यायो दृश्यते, आवश्यके तु पद्मप्रभस्यासौ पठ्यते, चन्द्रप्रभस्य तु त्रीनिति मतान्तरमिदमिति । [सू० ५२१] तेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स छव्विधे संजमे कज्जति, तंजहा- घाणामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, घाणामतेणं दुक्खेणं 20 असंजोगेत्ता भवति, जिब्भामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति एवं चेव, एवं फासामातो वि । तेइंदिया णं जीवा समारभमाणस्स छव्विहे असंजमे कज्जति, तंजाघाणामातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति, घाणामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति, जाव फासामतेणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति । 25 [टी०] छद्मस्थश्चेन्द्रियोपयोगवान् भवतीतीन्द्रियप्रत्यासत्त्या त्रीन्द्रियाश्रितं संयममसंयमं Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । [सू० ५२२] च प्रतिपादयन् सूत्रद्वयमाह - तेइंदियेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् असमारभमाणस अव्यापादयत:, घाणामाउ त्ति घ्राणमयात् सौख्यात् गन्धोपादानरूपात् अव्यपरोपयिता अभ्रंशकः, घ्राणमयेन गन्धोपलम्भाभावरूपेण दुःखेनासंयोजयिता भवति, इह चाव्यपरोपणमसंयोजनं च संयमोऽनाश्रवरूपत्वादितरदसंयम इति । [सू० ५२२] जंबूदीवे दीवे छ अकम्मभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - हेमवते, 5 हेरण्णवते, हरिवस्से, रम्मगवस्से, देवकुरा, उत्तरकुरा १ । ६३१ जंबूदीवे दीवे छव्वासा पन्नत्ता, तंजहा - भरहे, एरवते, हेमवते, हेरन्नवए, हरिवस्से, रम्मगवस्से २ । जंबूदीवे दीवे छ वासहरपव्वता पन्नत्ता, तंजहा - चुल्लहिमवंते, महाहिमवंते, निसढे, नीलवंते, रूप्पी, सिहरी ३ । जंबुमंदरदाहिणेणं छ कूडा पन्नत्ता, तंजहा - चुल्लहिमवंतकूडे, वेसमणकूडे, महाहिमवंतकूडे, वेरुलितकूडे, निसढकूडे, रुयगकूडे ४ । जंबुमंदरउत्तरेणं छ कूडा पन्नत्ता, तंजहा - नेलवंतकूडे, उवदंसणकूडे, रुप्पिकूडे, मणिकंचणकूडे, सिहरिकूडे, तिगिंछिकूडे ५ । जंबुद्दीवे दीवे छ महद्दा पन्नत्ता, तंजहा- पउमद्दहे, महापउमद्दहे, तिगिंच्छिद्दहे, 15 केसरिद्दहे, महापोंडरीयद्दहे, पुंडरीयद्दहे ६ । तत्थ णं छ देवताओ महिड्डियाओ जाव पनिओवमट्ठितीतातो परिवसंति, तंजहा - सिरि, हिरि, धिति, कित्ति, बुद्धि, लच्छी ७ । 10 जंबुमंदरदाहिणेणं छ महानदीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - गंगा, सिंधू, रोहिता, रोहितंसा, हरी, हरिकंता ८ । जंबुमंदरउत्तरेणं छ महानदीतो पन्नत्ताओ, तंजहा - नरकंता, नारिकंता, सुवन्नकूला, रुप्पकूला, रत्ता, रत्तवती ९ । जंबुमंदरपुरत्थिमेणं सीताते महानदीते उभयकूले छ अंतरनदीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - गाहावती, दहवती, पंकवती, तत्तजला, मत्तजला, उम्मत्तजला ९० । जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोदाते महानदीते उभयकूले छ अंतरनदीओ 25 20 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पन्नत्ताओ, तंजहा-खीरोदा, सीहसोता, अंतोवाहिणी, उम्मिमालिणी, फेणमालिणी, गंभीरमालिणी ११ । धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे णं छ अकम्मभूमीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-हेमवते, एवं जहा जंबुद्दीवे जाव अंतरणदीतो २२ जाव पुक्खरवरदीवडपच्चत्थिमद्धे 5 भाणितव्वं ५५ । [टी०] इयं च संयमासंयमप्ररूपणा मनुष्यक्षेत्र एवेति मनुष्यक्षेत्रगतषट्स्थानकावतारिवस्तुप्ररूपणाप्रकरणं जंबूदीवेत्यादिकं पञ्चपञ्चाशत्सूत्रप्रमाणमाह, सुबोधं चैतत्, नवरं कूटसूत्रे हिमवदादिषु वर्षधरपवंतेषु द्विस्थानकोक्तक्रमेण द्वे द्वे कूटे समवसेये इति । 10 [सू० ५२३] छ उदू पन्नत्ता, तंजहा-वरिसारत्ते, सरए, हेमंते, वसंते, गिम्हे १। [सू० ५२४] छ ओमरत्ता पन्नत्ता, तंजहा-ततिते पव्वे, सत्तमे पव्वे, एक्कारसमे पव्वे, पन्नरसमे पव्वे, एगूणवीसतिमे पव्वे, तेवीसइमे पव्वे २। छ अइरत्ता पन्नत्ता, तंजहा-चउत्थे पव्वे, अट्ठमे पव्वे, दुवालसमे पव्वे, सोलसमे पव्वे, वीसइमे पव्वे, चउवीसइमे पव्वे ३॥ 15 [टी०] अनन्तरोपवर्णितरूपे च क्षेत्रे कालो भवतीति कालविशेषनिरूपणाय छ उदू इत्यादि सूत्रत्रयम्, सुगमं चेदम्, नवरम् उदु त्ति द्विमासप्रमाणकालविशेष ऋतुः, तत्राषाढ-श्रावणलक्षणा प्रावृट्, एवं शेषाः क्रमेण, लौकिकव्यवहारस्तु श्रावणाद्याः वर्षा-शरद्धेमन्त-शिशिर-वसन्त-ग्रीष्माख्या ऋतव इति । ओमरत्त त्ति अवमा हीना रात्रिरवमरात्रो दिनक्षयः । पव्व त्ति अमावास्या पौर्णमासी वा, तदपलक्षित: पक्षोऽपि 20 पर्व, तत्र लौकिकग्रीष्मौ यत्तृतीयं पर्व आषाढकृष्णपक्षस्तत्र, सप्तमं पर्व भाद्रपदकृष्णपक्षस्तत्र, एवमेकान्तरितमासानां कृष्णपक्षा: सर्वत्र पाणीति, उक्तं च आसाढबहुलपक्खे भद्दवए कत्तिए अ पोसे य । फग्गुण-वइसाहेसु य बोद्धव्वा ओमरत्ताउ ॥ [ ] अइरत्त त्ति अतिरात्रः अधिकदिनं दिनवृद्धिरिति यावत्, चतुर्थं पर्व आषाढशुक्लपक्षः, 25 एवमिहैकान्तरितमासानां शुक्लपक्षा: सर्वत्र पाणीति । १. °दीवे णमित्यादिकं जे१ खं० पासं० ॥ २. सू० ८७ ।। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । [सू० ५२५-५२६] [सू० ५२५] आभिणिबोधियणाणस्स णं छव्विहे अत्थोग्गहे पन्नत्ते, तंजहासोइंदियत्थोग्गहे जाव नोइंदियत्थोग्गहे । [सू० ५२६] छव्विहे ओहिणाणे पन्नत्ते, तंजहा - आणुगामिते, अणाणुगामिते, वड्ढमाणते, हायमाणते, पडिवाती, अपडिवाती । [ टी०] अयं चातिरात्रादिकोऽर्थो ज्ञानेनावसीयत इत्यधिकृताध्ययनावतारिणो 5 ज्ञानस्याभिधानाय सूत्रद्वयमाह - आभीत्यादि, सुगमम्, नवरम् अर्थस्य सामान्यस्य श्रोत्रेन्द्रियादिभिः प्रथममविकल्पं शब्दोऽयमित्यादिविकल्परूपं चोत्तरविशेषापेक्षया सामान्यस्यावग्रहणमर्थावग्रहः, स च नैश्चयिक एकसामयिको व्यावहारिकस्त्वान्तर्मौहूर्त्तिकः, अर्थविशेषितत्वाद् व्यञ्जनावग्रहव्युदासः, स हि चतुर्धा । आणुगामिए त्ति अनुगमनशीलमनुगामि तदेवाऽऽनुगामिकं देशान्तरगतमपि ज्ञानिनं यदनुगच्छति 10 लोचनवदिति, यत्तु तद्देशस्थस्यैव भवति तद्देशनिबन्धनक्षयोपशमजत्वात् स्थानस्थदीपवद् देशान्तरगतस्य त्वपैति तदनानुगामिकमिति, उक्तं च अणुगामिओऽणुगच्छ गच्छंतं लोयणं जहा पुरिसं । इयरो य नागच्छइ ठिअप्पईवो व्व गच्छंतं ॥ [ विशेषाव० ७१५] इति । यत्तु क्षेत्रतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागविषयं कालत आवलिकासङ्ख्येयभागविषयं 15 द्रव्यतस्तेजोभाषाद्रव्यान्तरालवर्त्तिद्रव्यविषयं भावतस्तद्गतसङ्ख्येयपर्यायविषयं च जघन्यतः समुत्पद्य पुनर्वृद्धिं विषयविस्तरणात्मिकां गच्छदुत्कर्षेणाऽलोके लोकप्रमाणान्यसङ्ख्येयानि खण्डान्यसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिणी: सर्वरूपिद्रव्याणि प्रतिद्रव्यमसङ्ख्येयपर्यायांश्च विषयीकरोति तद्वर्धमानमिति, उक्तं च पइसमयमसंखेज्जइभागहियं कोइ संखभागहियं । अन्नो संखेज्जगुणं खेत्तमसंखेज्जगुणमन्नो || पेच्छइ विवड्ढमाणं हायंतं वा तहेव कालं पि । [ विशेषाव० ७३० - ३१] इत्यादि । तथा यज्जघन्येनाङ्गुलासङ्ख्येयभागविषयमुत्कर्षेण सर्वलोकविषयमुत्पद्य पुनः सङ्क्लेशवशात् क्रमेण हानिं विषयसङ्कोचात्मिकां याति यावदङ्गुलासङ्ख्येयभागं तद्धीयमानमिति । तथा प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति उत्कर्षेण लोकविषयं भूत्वा प्रतिपतति, तथा तद्विपरीतमप्रतिपाति, येनालोकस्य प्रदेशोऽपि दृष्टस्तदप्रतिपात्येवेति, आह च 1-A-25 ६३३ 20 25 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे उक्कोस लोगमित्तो पडिवाइ परं अपडिवाई । [ आव० नि० ५३, विशेषाव० ७०३ ] इति । [सू० ५२७] नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई छ अवतणाई वदित्तते, तंजहा- अलियवयणे, हीलियवयणे, खिंसितवयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विउसवितं वा पुणो उदीरित्तते । ६३४ 5 [टी०] एवंविधज्ञानवतां च यानि वचनानि वक्तुं न कल्पन्ते तान्याह - नो कप्पतीत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् अवयणाइं ति नञः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितानि वचनानि अवचनानि, तत्राऽलीकं ‘प्रचलायसे किं दिवा' इत्यादिप्रश् न ' प्रचलायामि' इत्यादि, हीलितं सासूयं 'गणिन् ! वाचक ! ज्येष्ठार्य' इत्यादि, खिंसितं जन्म- -कर्माद्युद्घट्टनतः, परुषं दुष्टशैक्षेत्यादि, गारं ति अगारं गेहं तद्वृत्तयो अगारस्थिताः गृहिणः तेषां 10 यत्तदगारस्थितवचनं 'पुत्र ! मामक ! भागिनेय !’इत्यादि, उक्तं च 15 अरिरे माहणपुत्ता अव्वो बप्पो ति भाय मामो त्ति । भट्टी सामिय गोमिय ।। [बृहत्कल्प० ६११६] त्ति । व्यवशमितं वा उपशमितं वा पुनरुदीरयितुं न कल्पत इति प्रक्रमोऽवचनत्वादस्येति, अनेन व्यवशमितस्य पुनरुदीरणवचनं नाम षष्ठमवचनमुक्तम्, अत्र च गाथा खामि वो मियाइं अहिगरणाई तु जे उदीरेंति । ते पावा नायव्वा तेसिं चारोवणा इणमो ॥ [ बृहत्कल्प० ६११८, निशीथभा० १८१८] इति । [सू० ५२८] छ कप्पस्स पत्थारा पन्नत्ता, तंजहा - पाणातिवातस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्स वादं वदमाणे, अदिन्नादाणस्स वायं वयमाणे, अविरतिवायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासावायं वयमाणे, इच्चेते 20 छ कप्पस्स पत्थारे पत्थरेत्ता सम्ममपरिपूरेमाणे तट्ठाणपत्ते । [टी०] अवचनेषु प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति तानाह - छ कप्पेत्यादि, कल्पः साध्वाचारस्तस्य सम्बन्धिनस्तद्विशुद्ध्यर्थत्वात् प्रस्तारा: प्रायश्चित्तस्य रचनाविशेषाः, तत्र प्राणातिपातस्य वादं वार्तां वाचं वा वदति साधौ प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीत्येकः, यथा अन्यजनविनाशितदर्दुरे न्यस्तपादं भिक्षुमुपलभ्य क्षुल्लक आह- साधो ! दुर्दुरो 25 भवता मारितः, भिक्षुराह - नैवम्, क्षुल्लक आह- द्वितीयमपि व्रतं ते नास्ति, ततः क्षुल्लक १. प्रचलाये इत्यादि पा० जे२ ॥ २. अरि अरे मा° खं० । अरि अरि मा पा० जे२ ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५२८] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६३५ भिक्षाचर्यातो निवृत्याचार्यसमीपमागच्छतीत्येकं प्रायश्चित्तस्थानम्, तत: साधयति यथातेन दर्दरो मारित इति प्रायश्चित्तान्तरम्, ततोऽभ्याख्यातसाधुराचार्येणोक्तः यथा दर्दुरो भवता मारित: ?, असावाह- नैवम्, इह क्षुल्लकस्य प्रायश्चित्तान्तरम्, पुन: क्षुल्लक आहपुनरप्यपलपसीति, भिक्षुराह- गृहस्था: पृच्छयन्ताम्, वृषभा गत्वा पृच्छन्तीति प्रायश्चित्तान्तरमित्येवं योऽभ्याख्याति तस्य मृषावाददोष एव, यस्तु सत्यमारितं निद्भुते 5 तस्य दोषद्वयमिति १, अत्रोक्तम् ओमो चोइज्जतो दुपहियाईसु संपसारेइ । पर्यालोचयति अहमवि णं चोइस्सं न य लभए तारिसं छिदं ॥ अन्नेण घाइए दहुरम्मि दटुं चलणं कयं ओमो। वहिओ हा एस तुमे न वत्ति बीयं पि ते णत्थि ॥ [बृहत्कल्प० ६१३५-३६] इत्यादि, 10 तथा मृषावादस्य सत्कं वादं विकल्पनं वार्ती वा वदति साधौ प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति, तथाहि- क्वचित् संखड्यामकालत्वात् प्रतिषिद्धौ साधू अन्यत्र गतौ, ततो मुहूर्तान्तरे रत्नाधिकेनोक्तम्- व्रजाम: संखड्यामिदानीं भोजनकालो यतस्तत्रेति, लघुर्भणति- प्रतिषिद्धोऽहं न पुनर्बजामि, ततोऽसौ निवृत्याचार्यायेदमालोचयति यथा अयं दीन-करुणवचनैर्याचते, प्रतिषिद्धोऽपि च प्रविशति एषणां प्रेरयतीत्यादि, ततो 15 रत्नाधिकमाचार्यो भणति- साधो ! भवानेवं करोति ?, स आह– नैवमित्यादि, पूर्ववत् प्रस्तार: २, इहाप्युक्तम्मोसम्मि संखडीए मोयगगहणं अदत्तदाणम्मि । आरोवणपत्थारो तं चेव इमं तु नाणत्तं ॥ दीण-कलुणेहिं जायइ पडिसिद्धो विसइ एसणं हणइ । जंपइ मुहप्पियाणि य जोग-तिगिच्छा-निमित्ताई ॥ [बृहत्कल्प० ६१४२-४३] इत्यादि । एवमदत्तादानस्य वादं वदति, अत्र भावना- एकत्र गेहे भिक्षा लब्धा, सा अवमेन गृहीता, यावदसौ भाजनं संमार्टि तावद्रत्नाधिकेन संखड्यां मोदका लब्धास्तानवमो दृष्ट्वा निवृत्याचार्यस्यालोचयति- यथाऽनेनादत्ता मोदका गृहीता इत्यादि, प्रस्तारः प्राग्वदिति ३ । १. दर्दू जे१ खं० ॥ 2U 25 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे एवमविरति : अब्रह्म, तद्वादं वार्तां वा, अथवा न विद्यते विरतिर्यस्याः सा अविरतिका स्त्री, तद्वादं तद्वार्त्तं वा तदासेवाभणनरूपां वदति, तथाहि-- अवमो भावयति-एष रत्नाधिकतया मां स्खलितादिषु प्रेरयति, ततो रोषादभ्याख्याति– जेज्जेण अकजं सज्जं अज्जाघरे कयं अज्ज । 5 उवजीविओ य भंते ! मए वि संसट्टकप्पोऽत्थ ॥ [ बृहत्कल्प० ६१५०] अहमपि तद्भुक्तां भुक्तवानित्यर्थः, प्रस्तारभावना प्राग्वत् ४ । तथा अपुरुषो नपुंसकोऽयमित्येवं वादं वाचं वार्तां वा वदतीति, इह समास: प्रतीत एव, भावनाऽत्र - आचार्यं प्रत्याह- अयं साधुर्नपुंसकम्, आचार्य आह- कथं जानासि ?, स आह- एतन्निजकैरहमुक्तः- किं भवतां कल्पते प्रव्राजयितुं नपुंसकमिति ? ममापि 10 किञ्चित्तल्लिङ्गदर्शनाच्छङ्का अस्तीति, प्रस्तारः प्राग्वत्, अत्राप्युक्तम्– इओ त्ति कहं जाणसि ? दिट्ठा णीया से तेहि मे वृत्तं । इओ तुब्भं पव्वावेउं मम वि संका ॥ दस य पाडिरूवं ठिय- चंकंमिय- सरीर-भासादी । बहुसो अपुरिसवयणे वित्थारारोवणं कुज्जा ॥ [ बृहत्कल्प ० ६१५३-५४ ] इति । 15 तथा दासवादं वदति, भावना - कश्चिदाह- दासोऽयम्, आचार्य आह- कथम् ?, देहाकाराः कथयन्ति दासत्वमस्येति, प्रस्तारः प्राग्वदिति, अत्राप्युक्तम् खरउत्ति कहं जाणसि ? देहागारा कहिंति से हंदि छिक्कोवण शीघ्रकोप : उब्भंडो णीयासी दारुणसहावो ॥ देहेण वी विरूवो खुज्जो वडभो य बाहिरप्पाओ | फुडमेवं आगारा कहंति जह एस खरओ त्ति ॥ [ बृहत्कल्प० ६९५७-५८] आचार्य आह 20 ६३६ केइ सुरूव विरूवा खुज्जा मडहा य बाहिरप्पाया । न हु ते परिभवियव्वा वयणं व अणारियं वोत्तुं ॥ [ बृहत्कल्प० ६१५९] इत्यादि ६। इतिरेवंप्रकारान् एताननन्तरोदितान् षट् कल्पस्य साध्वाचारस्य प्रस्तारान् 25 प्रायश्चित्तरचनाविशेषान् मासगुर्व्वादि-पाराञ्चिकावसानान् प्रस्तार्य अभ्युपगमतः आत्मनि १. सरू १ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५२९-५३०] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । २ प्रस्तुतान् विधाय प्रस्तारयिता वा अभ्याख्यानदायकसाधुः सम्यगप्रतिपूरयन् अभ्याख्येयार्थस्यासद्भूततया अभ्याख्यानसमर्थनं कर्त्तुमशक्नुवन् प्रत्यङ्गिरं कुर्वन् सन् तस्यैव प्राणातिपातादिकर्तुरेव स्थानं प्राप्तो गतः तत्स्थानप्राप्तः स्यात् प्राणातिपातादिकारीव दण्डनीयः स्यादिति भाव:, अथवा प्रस्तारान् प्रस्तीर्य विरचय्याचार्येण अभ्याख्यानदाता अप्रतिपूरयन् अपरापरप्रत्ययवचनैस्तमर्थंसत्यमकुर्वन् 5 तत्स्थानप्राप्तः कार्य इति शेषः, यत्र प्रायश्चित्तपदे विवदमानोऽवतिष्ठते न पदान्तरमारभ तत्पदं प्रापणीय इति भावः, शेषं सुगममिति । [सू० ५२९] छ कप्पस्स पलिमंथू पन्नत्ता, तंजहा - कोकुतिते संजमस्स पलिमंथू, मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू, चक्खुलोलुते इरितावहिताते पलिमंथू, तिंतिणिते एसणागोतरस्स पलिमंथू, इच्छालोभिते मुत्तिमग्गस्स 10 पलिमंथू, भिज्जाणिदाणकरणे मोक्खमग्गस्स पलिमंथू । सव्वत्थ भगवता अणिताणता पसत्था । [सू० ५३०] छव्विधा कप्पट्ठिती पन्नत्ता, तंजहा - सामातितकप्पट्ठिती, छेदोवट्ठावणितकप्पट्ठिती, निव्विसमाणकप्पट्ठिती, णिव्विट्ठकप्पट्ठिती, जिणकप्पट्ठिती, थेरकप्पट्ठिती । [टी०] कल्पाधिकारे सूत्रद्वयम् - छ कप्पेत्यादि, षट् कल्पस्य कल्पोक्तसाध्वाचारस्य परिमथ्नन्तीति परिमन्थवः, उणादित्वात्, पाठान्तरेण परिमन्था वाच्या:, घातका इत्यर्थः, इह च मन्थो द्विधा - द्रव्यतो भावतश्च, यत आह ६३७ दव्वम्मि मंथओ खलु तेणामंथिज्जए जहा दहियं । दहितुल्लो खलु कप्पो मंथिज्जइ कुक्कुयाईहिं ॥ [ बृहत्कल्प० ६३१६] ति । तत्र कुक्कुइए त्ति कुच अवस्यन्दन [ ] इति वचनात् कुत्सितम् अप्रत्युपेक्षितत्वादिना कुचितम् अवस्यन्दितं यस्य स कुकुचित:, स एव कौकुचित:, कुकुचा वा अवस्यन्दनं प्रयोजनमस्येति कौकुचिक:, स च त्रिधा - स्थान-: न- शरीरभाषाभि:, उक्तं च १. प्रत्यगिरं पा० जे२ ॥ २. प्रस्तार्य जे१ ॥ ३. “कुच शब्दे तारे १८४, कुच सम्पर्चन - कौटिल्य प्रतिष्टम्भविलेखनेषु ८५७, कुच संकोचने १३६९" - पा० धा० ॥ 15 20 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ठाणे सरीर भाषा तिविहो पुण कुक्कुई समासेणं ॥ [बृहत्कल्प० ६३१९] ति, तत्र स्थानतो यो यन्त्रकवत नर्तिकावद्वा भ्राम्यतीति, शरीरतो य: करादिभि: पाषाणादीन् क्षिपति, उक्तं च करगोफणधणुपायाइएहि उच्छुहइ पत्थराईए । 5 भमुहादाढियथणपुयविकंपणं णट्टवाइत्तं ॥ [बृहत्कल्प० ६३२३] ति, भाषातो य: सेण्टित-मुखवादित्रादि करोति, तथा च जल्पति यथा परे हसन्तीति, उक्तं च छेलिअ मुहवाइत्ते जंपइ य तहा जहा परो हसइ कुणइ य रुए बहुविहे वग्घाडियदेसभासाओ ॥ [बृहत्कल्प० ६३२४] इति । 10 अयं च त्रिविधोऽपि संयमस्य पृथिव्यादिरक्षणादे: कायगुप्तिपर्यन्तस्य यथासम्भवं परिमन्थुर्भवत्येवेति १, मोहरिए त्ति मुखम् अतिभाषणातिशायनवदस्तीति मुखरः, स एव मौखरिको बहुभाषी, अथवा मुखेनारिमावहतीति निपातनात् मौखरिकः, उक्तं च– मुखरिस्स गोन्ननामं आवहइ मुहेण भासंतो ॥ [बृहत्कल्प० ६३२७] इति, स च सत्यवचनस्य मृषावादविरते: परिमन्थुः, मौखर्ये सति मृषावादसम्भवादिति २, 15 चक्खुलोल त्ति चक्षुषा लोल: चञ्चलः चक्षुर्वा लोलं चञ्चलं यस्य स तथा, स्तूपादीनालोकयन् व्रजति य इत्यर्थः, इदं च धर्मकथादीनामुपलक्षणम्, आह च आलोयंतो वच्चइ थूभाईणि कहेइ वा धम्मं । परियट्टणाणुपेहण ण पेह पंथं अणुवउत्तो ॥ [बृहत्कल्प० ६३३०] इति, इरियावहिय त्ति ईर्या गमनं तस्याः पन्था मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवा या 20 समितिरीर्यासमितिलक्षणा सा ईर्यापथिकी, तस्या: परिमन्थुरिति, आह च छक्कायाण विराहण संजमे आयाइ कंटगाईया । आवडण भाणभेओ खद्धे उड्डाह परिहाणी ॥ [बृहत्कल्प० ६३३१] इति ३।। तितिणिए त्ति तितिणिकोऽलाभे सति खेदाद् यत्किञ्चनाभिधायी, स च खेदप्रधानत्वादेषणा उद्गमादिदोषविमुक्तभक्त-पानादिगवेषण-ग्रहणलक्षणा तत्प्रधानो यो 25 गोचरो गोरिव मध्यस्थतया भिक्षार्थं चरणं स एषणागोचरस्तस्य परिमन्थुः, सखेदो १. ति नास्ति जे१ खं० ॥ २. "दिसंरक्षणादेः पा० जे२ ॥ ३. चञ्चलं जे१ विना नास्ति । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६३९ [सू० ५३०] हि अनेषणीयमपि गृह्णातीति भाव: ४ । इच्छालोभिए त्ति इच्छा अभिलाष: स चासौ लोभश्च इच्छालोभः, महालोभ इत्यर्थः, शुक्लशुक्लोऽतिशुक्लो यथा, स यस्यास्ति स इच्छालोभिको महेच्छोऽधिकोपधिरित्यर्थः, उक्तं च- इच्छालोभो उ उवहिमइरेगे [बृहत्कल्प० ६३३२]त्ति, स मुक्तिमार्गस्येति मुक्तिः निष्परिग्रहत्वमलोभत्वमित्यर्थः, सैव मार्ग इव मार्गो 5 निर्वृतिपुरस्येति ५, भिज्ज त्ति लोभस्तेन यन्निदानकरणं चक्रवर्तीन्द्रादिऋद्धिप्रार्थनं तन्मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनादिरूपस्य परिमन्थुः, आर्तध्यानरूपत्वात्, भिध्याग्रहणाद् यत् पुनरलोभस्य भवनिर्वेद-मार्गानुसारितादिप्रार्थनं तन्न मोक्षमार्गस्य परिमन्थुरिति दर्शितमिति, ननु तीर्थकरत्वादिप्रार्थनं न राज्यादिप्रार्थनवद्दष्टमतस्तद्विषयं निदानं मोक्षस्यापरिमन्थुरिति, नैवम्, यत आह- सव्वत्थेत्यादि, सर्वत्र तीर्थकरत्व- 10 चरमदेहत्वादिविषयेऽपि आस्तां राज्यादौ भगवता जिनेन अनिदानता अप्रार्थनमेव पसत्थ त्ति प्रशंसिता श्लाघितेति, तथा चइहपरलोगनिमित्तं अवि तित्थगरत्तचरमदेहत्तं । सव्वत्थेसु भगवया अणियाणत्तं पसत्थं तु ॥ [बृहत्कल्प० ६३३४] एवमेव हि सामायिकशुद्धिः स्यादिति, उक्त चपडिसिद्धेसु वि दोसे विहिएसु य ईसि रागभावे वि। सामाइयं असुद्धं सुद्धं समयाए दोण्हं पि ॥ [ ] त्ति । अयं चान्तिमपरिमन्थयोर्विशेष:आहारोवहिदेहेसु इच्छालोभो उ सज्जई। नियाणकारी संगं तु कुरुते उद्धदेहिकं ॥ [ ] पारलौकिकमित्यर्थः ॥ 20 कप्पट्टिई इत्यादि, कल्पस्य कल्पाद्युक्तसाध्वाचारस्य सामायिकच्छेदोपस्थापनीयादेः स्थिति: मर्यादा कल्पस्थिति: । तत्र सामायिककल्पस्थिति:सिज्जायरपिंडे या १ चाउजामे य २ पुरिसजिढे य ३ । कीकम्मस्स य करणे ४ चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥ [बृहत्कल्प० ६३६१] १. रेगो त्ति जे१ । 'रेग त्ति पा० जे२ ॥ २. 'सु अ दोसे पा० । 'सु य दोसे जे२ । ३. ट्ठि इत्यादि जे१ । 'ट्ठिईत्यादि पा० जे२ ॥ 15 | Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सामायिकसाधूनामवश्यंभाविन इत्यर्थः । आचेलक्कु १ देसिय २ सपडिक्कमणे ३ य रायपिंडे ४ य । मासं ५ पजोसवणा ६ छप्पेतऽणवट्ठिया कप्पा ॥ [बृहत्कल्प० ६३६२] नावश्यंभाविन इत्यर्थः । छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति:आचेलक्कुश्देसिय २ सेजायर ३ रायपिंड ४ कीकम्मे ५ । वय ६ जेट्ठ ७ पडिक्कमणे ८ मासं ९ पज्जोसवणकप्पे १० ॥ [बृहत्कल्प० ६३६४] एतानि च तृतीयाध्ययनवज्ज्ञेयानि । निव्विसमाणकप्पट्टिई निविट्ठकप्पट्टिइ त्ति परिहारविशुद्धिकल्पं वहमाना 10 निर्विशमानकाः, यैरसौ व्यूढस्ते निर्विष्टास्तेषां या स्थिति: मर्यादा सा तथा, तत्र, परिहारिय छम्मासे तह अणुपरिहारिया वि छम्मासे । कप्पट्ठिओ छम्मासे एते अट्ठारसा मास ॥ [बृहत्कल्प० ६४७४] त्ति । तथा जिनकल्पस्थिति: गच्छम्मि उ निम्माया धीरा जाहे य गहियपरमत्था । 15 अग्गह जोग्गअभिग्गहे उविंति जिणकप्पियचरितं ॥ [बृहत्कल्प० ६४८३] ति एवमादिका, अग्गह जोग्ग अभिग्गहेत्ति कासाञ्चित् पिण्डैषणानामग्रहे योग्यानां चाभिग्रहे अनयैव ग्राह्यमित्येवंरूपे गृहीतपरमार्था इत्यर्थः ।। स्थविरकल्पस्थिति:संजमकरणुजोया उद्योगा: निप्फायग नाण-दसण-चरित्ते । दीहाउ वुड्ढवासे वसहीदोसेहि य विमुक्का ॥ [बृहत्कल्प० ६४८५] इत्यादिका ।। [सू० ५३१] समणे भगवं महावीरे छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं मुंडे जाव पव्वइए १॥ १. छप्पेते अणव पा० जे२ । छप्पेय अणव जे१ ॥ २. सू० २०६ ॥ ३. 'रस वि मास पा० जे२ ॥ ४. अग्गहे जे१ खं० ॥ ५. निप्फायग जे१,२, पा० । निप्फायग १३ खं० । निप्फायग १२ जे२ ॥ ६. दीहाऊ ई जे१, पा० । दीहाऊ १२ खं० । दीहाउ-२ पा० । अत्र पञ्चम-षष्ठटिप्पनयोः अङ्कानां तात्पर्यं स्पष्टं न ज्ञायते ।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५३१-५३३] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स छट्ठेणं भत्तेणं अपाणएणं अणंते अणुत्तरे जाव समुप्पन्न २ । समणे भगवं महावीरे छट्ठेणं भत्तेणं अपाणएणं सिद्धे जाव सव्वदुक्खप्पही ३ । [सू० ५३२] सणंकुमार - माहिंदेसु णं कप्पेसु विमाणा छ जोयणसयाई 5 उड्डउच्चत्तेणं पन्नत्ता १ । सकुमार - माहिंदेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जगा सरीरगा उक्कोसेणं छ रतणीओ उड्डउच्चत्तेणं पन्नत्ता २ । ६४१ [टी०] इयं च कल्पस्थितिर्महावीरेण देशितेति सम्बन्धान्महावीरवक्तव्यतासूत्रत्रयम्, तथा अनेनेयमपरापि कल्पस्थितिर्दर्शितेति कल्पसूत्रद्वयमुपन्यस्तम्, सुगमं चैतत् पञ्चकमपि, 10 नवरं षष्ठेन भक्तेन उपवासद्वयलक्षणेनाऽपानकेन पानीयपानपरिहारवता यावत्करणात् 'निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे' त्ति दृश्यम्, सिद्धे जाव त्ति करणात् 'बुद्धे मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुडे' त्ति दृश्यम् । [सू० ५३३] छव्विहे भोयणपरिणामे पन्नत्ते, तंजहा- मणुण्णे, रसिते, पीणणिजे, बिंहणिजे, दीवणिजे, दप्पणिजे । छव्विहे विसपरिणामे पन्नत्ते, तंजहा डक्के, भुत्ते, निवतिते, मंसाणुसारी, सोणिताणुसारी, अट्ठिमिंजाणुसारी । [ टी०] उक्तरूपेषु च देवशरीरेष्वाहारपरिणामोऽस्तीत्याहारपरिणामनिरूपणायाहछव्विहे भोयणेत्यादि, भोजनस्येति आहारविशेषस्य परिणामः पर्यायः स्वभावो धर्म्म इति यावत्, तत्र मणुन्ने त्ति मनोज्ञमभिलषणीयं भोजनमित्येकस्तत्परिणाम:, 20 परिणामवता सहाभेदोपचारात्, तथा रसिकं माधुर्याद्युपेतम्, तथा प्रीणनीयं रसादिधातुसमताकारि, बृंहणीयं धातूपचयकारि, दीपनीयम् अग्निबलजनकम्, पाठान्तरे तु मदनीयं मदनोदयकारि, दर्पणीयं बलकरम्, उत्साहवृद्धिकरमित्यन्य इति, अथवा भोजनस्य परिणामो विपाकः, स च मनोज्ञ: शुभत्वान्मनोज्ञभोजनसम्बन्धित्वाद्वेत्येवमन्येऽपि । १. मयणिज्जे भां० विना ॥ 15 25 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे परिणामाधिकारादायातं विषपरिणामसूत्रमप्येवम्, नवरं डक्के त्ति दष्टस्य प्राणिनो दंष्ट्राविषादिना यत् पीडाकारि तद् दष्टं जङ्गमविषम्, यच्च भुक्तं सत् पीडयति तद् भुक्तमित्युच्यते, तच्च स्थावरम्, यत् पुनर्निपतितम् उपरि पतितं सत् पीडयति तन्निपतितं त्वग्विषं दृष्टिविषं चेति त्रिविधं स्वरूपतः, तथा किञ्चिन्मांसानुसारि मांसान्तधातुव्यापकं 5 किञ्चिच्छोणितानुसारि तथैव किञ्चिच्चाऽस्थिमिञ्जानुसारि तथैवेति त्रिविधं कार्यत:, एवं च सति षड्विधं तत्, ततस्तत्परिणामोऽपि षोलैवेति ॥ [सू० ५३४] छविहे पट्टे पन्नत्ते, तंजहा-संसयपट्टे, वुग्गहपट्टे, अणुजोगी, अणुलोमे, तहणाणे, अतहणाणे । [टी०] एवंभतार्थानां च निर्णयो निरतिशयस्याऽऽप्तप्रश्नतो भवतीति प्रश्नविभागमाह10 छव्विहेत्यादि, प्रच्छनं प्रश्नः, तत्र संशयप्रश्न: क्वचिदर्थे संशये सति यो विधीयते यथा जइ तवसा वोदाणं संजमओऽणासवो त्ति ते कह णु । देवत्तं जंति जई ? गुरुराह सरागसंजमओ ॥ [ ] व्युद्ग्रहेण मिथ्याभिनिवेशेन विप्रतिपत्त्येत्यर्थः, परपक्षदूषणार्थं य: क्रियते प्रश्नः स व्युद्ग्रहप्रश्नः, यथा15 सामनाउ विसेसो अन्नोऽणन्नो व होज जइ अन्नो । सो नत्थि खपुप्फ पिवऽणन्नो सामन्नमेव तयं ॥ [विशेषाव० ३४] ति । अनुयोगीति अनुयोगो व्याख्यानं प्ररूपणेति यावत् स यत्रास्ति तदर्थं य: क्रियत इति भावः, यथा- चउहिं समएहिं लोगो इत्यादिप्ररूपणाय कइहिं समएहीत्यादि ग्रन्थकार एव प्रश्नयति, अनुलोमो अनुलोमनार्थम् अनुकूलकरणाय परस्य यो विधीयते, 20 यथा क्षेमं भवतामित्यादि, तहनाणे त्ति यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव प्रच्छकस्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्ने स तथाज्ञानः, जानत्प्रश्न इत्यर्थः, स च गौतमादे: यथा केवइकालेणं भंते ! चमरचंचा रायहाणी विरहिया उववाएण [ ] मित्यादिरिति, एतद्विपरीतस्त्वतथाज्ञानोऽजानत्प्रश्न इत्यर्थः, क्वचित् छव्विहे अढे इति पाठस्तत्र संशोदिभिरर्थो विशेषणीय इति । १. अढे भां० ॥ २. 'दिरों खं० ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५३५-५३६] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । [सू० ५३५] चमरचंचा णं रायहाणी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिता उववातेणं । एगमेगे णं इंदट्ठाणे उक्कोसेणं छम्मासे विरहिते उववाणं । अधेसत्तमा णं पुढवी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिता उववातेणं । सिद्धिगती णं उक्कोसेणं छम्मासा विरहिता उववातेणं । [टी०] इहानन्तरसूत्रे तथाज्ञानप्रश्नो दर्शितस्तत्र चोत्तरवस्तुना भाव्यमिति तद् दर्शयति- 5 चमरचंचेत्यादि, चमरस्य दाक्षिणात्यस्यासुरनिकायनायकस्य चञ्चा चञ्चाख्या नगरी चमरचञ्चा, या हि जम्बूद्वीपमन्दरस्य पर्व्वतस्य दक्षिणेन तिर्यगसङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यारुणवरद्वीपस्य बाह्याद् वेदिकान्तादरुणोदं समुद्रं द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्य चमरस्यासुरराजस्य तिगिंच्छिकूटो नामा य उत्पातपर्व्वतोऽस्ति सप्तदशैकविंशत्युत्तराणि योजनशतान्युच्चस्तस्य दक्षिणेन षड् योजनकोटीशतानि 10 साधिकान्यरुणोदे समुद्रे तिर्यग् व्यतिव्रज्याधो रत्नप्रभायाः पृथिव्याः चत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्य व्यवस्थिता जम्बूद्वीपप्रमाणा च सा चमरचञ्चा राजधानी उत्कृष्टेन षण्मासान् विरहिता वियुक्ता उपपातेन, इहोत्पद्यमानदेवानां षण्मासान् यावद्विरहो भवतीति भावः विरहाधिकारादिदं सूत्रत्रयम् - एगेत्यादि, एकैकमिन्द्रस्थानं चमरादिसम्बन्ध्याश्रयो 15 भवन-नगर-विमानरूपस्तदुत्कर्षेण षण्मासान् यावद्विरहितमुपपातेनेन्द्रापेक्षयेति । अध: सप्तमीत्यत्र सप्तमी हि रत्नप्रभापि कथञ्चिद्भवतीति तद्व्यवच्छेदार्थमधोग्रहणं अतस्तमस्तमेत्यर्थः, सा षण्मासान् विरहितोपपातेन, यदाह ६४३ चवीस मुहुत्ता १ सत्त अहोरत २ तह य पन्नरस ३ । मासो य ४ दो य ५ चउरो ६ छम्मासा विरहकालो उ७ ॥ [ बृहत्सं० २८१] इति । 20 सिद्धिगतावुपपातो गमनमात्रमुच्यते न जन्म, तद्धेतूनां सिद्धस्याभावादिति, इहोक्तम्एगसमओ जहन्नं उक्कोसेणं हवंति छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए उव्वट्टणवज्जिया नियमा ॥ [ बृहत्सं० ३४५] इति । शेषं सुगममिति । [सू० ५३६ ] छव्विधे आउयबंधे पन्नत्ते, तंजहा - जातिणामनिधत्ताउते, गतिणामणिधत्ताउते, ठितिनामनिधत्ताउते, ओगाहणाणामनिधत्ताउते, 25 पदेसणामनिधत्ताउते, अणुभावणामनिहत्ताउते । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नेरतियाणं छव्विहे आउयबंधे पन्नत्ते, तंजहा-जातिणामनिहत्ताउते जाव अणुभावनामणिहत्ताउए । एवं जाव वेमाणियाणं । ___ नेरइया णियमं छम्मासावसेसाउता परभवियाउयं पगरेंति । एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा ।। 5 असंखेजवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णियमं छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पगरेति । असंखेजवासाउया सन्निमणुस्सा नियमं जाव पगरेंति। वाणमंतरा जोतिसिता वेमाणिता जधा णेरतिता । [टी०] अनन्तरमुपपातस्य विरह उक्तः, उपपातश्चायुर्बन्धे सति भवतीत्यायुर्बन्धसूत्रप्रपञ्चं छव्विहेत्यादिकमाह, सुगमश्चायम्, नवरम् आयुषो बन्ध: आयुर्बन्धः, तत्र जाति: 10 एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चधा, सैव नाम नाम्नः कर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा तेन सह निधत्तं निषिक्तं यदायुस्तजातिनामनिधत्तायुः, निषेकश्च कर्मापुद्गलानां प्रतिसमयानुभवनरचनेति, उक्तं च मोत्तूण सगमबाहं पढमाए ठिईए बहुतरं दव्वं । सेसे विसेसहीणं जावुक्कस्संति सव्वासिं ॥ [ कर्मप्र० ] इति, ००० ०००० ००००० 15 स्थापना चेयम् तथा गति: नरकादिका चतुर्द्धा, शेषं तथैवेति गतिनामनिधत्तायुरिति, तथा स्थितिरिति यत् स्थातव्यं केनचिद्विवक्षितेन भावेन जीवेनायु:कर्मणा वा सैव नाम: परिणामो धर्म: स्थितिनामस्तेन विशिष्टं निधत्तं यदायु:दलिकरूपं तत् स्थितिनामनिधत्तायुः, अथवेह सूत्रे जातिनाम-गतिनामा-ऽवगाहनानामग्रहणाजातिगत्यवगाहनानां प्रकृतिमात्रमुक्तम्, 20 स्थिति-प्रदेशा-ऽनुभागनामग्रहणात्तु तासामेव स्थित्यादय उक्ताः, ते च जात्यादिनामसम्बन्धित्वान्नामकर्मरूपा एवेति नामशब्दः सर्वत्र कर्मार्थो घटत इति स्थितिरूपं नामकर्म स्थितिनाम तेन सह निधत्तं यदायुस्तत् स्थितिनामनिधत्तायुरिति, तथा अवगाहते यस्यां जीवः सा अवगाहना शरीरमौदारिकादि तस्या नाम १. कर्मप्रकृतौ बन्धनकरणे ८३तमी गाथा ॥ २. चैवम् पा० जे२ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । औदारिकादिशरीरनामकर्मेत्यवगाहनानाम तेन सह यन्निधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुरिति, तथा प्रदेशानाम् आयुः कर्म्मद्रव्याणां नाम: तथाविधा परिणति: प्रदेशनाम प्रदेशरूपं वा नामकर्म्मविशेष इत्यर्थः प्रदेशनाम, तेन सह यन्निधत्तमायुस्तत् प्रदेशनामनिधत्तायुरिति, तथा अनुभाग: आयुर्द्रव्याणामेव विपाकस्तल्लक्षण एव नाम: परिणामोऽनुभागनामः, अनुभागरूपं वा नामकर्मानुभागनाम, तेन सह निधत्तं 5 यदायुस्तदनुभागनामनिधत्तायुरिति । अथ किमर्थं जात्यादिनामकर्म्मणाऽऽयुर्विशेष्यते ?, उच्यते, आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थम्, यस्मान्नारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्म्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोपग्राहकं चायुरेव, यस्मादुक्तं प्रज्ञप्त्याम् - नेरइए णं भंते ? नेरइएसु उववज्जइ ? अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ ?, गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववज्जइ [ भगवती० ४।९।१], एतदुक्तं 10 भवति– नारकायु:संवेदनप्रथमसमय एवं नारक इत्युच्यते, तत्सहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्म्मणामप्युदय इति, इह चायुर्बन्धस्य षड्विधत्वे उपक्षिप्ते यदायुषः षड्विधत्वमुक्तं तद् आयुषो बन्धाव्यतिरेकाद् बद्धस्यैव चायुर्व्यपदेशविषयत्वादिति । नियमं ति अवश्यंभावादित्यर्थः, छम्मासावसेसाउय त्ति षण्मासा अवशेषा अवशिष्टा यस्य तत्तथा तदायुर्येषां ते षण्मासावशेषायुष्काः, परभवो विद्यते यस्मिंस्तत् परभविकं 15 तच्च तदायुश्चेति परभविकायुः प्रकुर्वन्ति बध्नन्ति, असङ्ख्येयानि वर्षाण्यायुर्येषां ते तथा ते च ते संज्ञिनश्च समनस्का: पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेत्यसङ्ख्येयवर्षायुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका, इह च संज्ञिग्रहणमसङ्ख्येयवर्षायुष्काः संज्ञिन एव भवन्तीति नियमदर्शनार्थम्, न त्वसङ्ख्येयवर्षायुषामसंज्ञिनां व्यवच्छेदार्थम्, तेषामभावादेवेति, इह च गाथे [सू० ५३६] निरइसुरअसंखाऊ तिरिमणुआ सेसए उ छम्मासे । इगविगला निरुवक्कमतिरिमणुया आउयतिभागे ॥ अवसेसा सोवक्कम तिभाग- नवभाग-सत्तवीसइमे । ६४५ बंधंति परभवाउं निययभवे सव्वजीवा उ ॥ [ ] इति । इदमेवान्यैरित्थमुक्तम् - इह तिर्यङ् - मनुष्या आत्मीयायुषस्तृतीयत्रिभागे परभवायुषो 25 १. विशिष्यते खं० विना ॥ २. निरयसुर जेमू१ । निरईएसुर जेसं १ ॥ 20 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे " बन्धयोग्या भवन्ति, देव-नारकाः पुन: षण्मासे शेषे, तत्र तिर्यङ् - मनुष्यैर्यदि तृतीयत्रिभागे आयुर्न बद्धं ततः पुनस्तृतीयत्रिभागस्य तृतीयत्रिभागे शेषे बध्नन्ति एवं तावत् संक्षिपन्त्वायुर्यावत् सर्वजघन्य आयुर्बन्धकाल उत्तरकालश्च शेषस्तिष्ठति इह तिर्यङ् - मनुष्या आयुर्बध्नन्ति, अयं चासङ्क्षेपकाल उच्यते, तथा देव-नैरयिकैरपि यदि षण्मासे 5 शेषे आयुर्न बद्धं तत आत्मीयस्यायुषः षण्मासशेषं तावत् संक्षिपन्ति यावत् सर्वजघन्य आयुर्बन्धकाल उत्तरकालश्चावशेषोऽवतिष्ठते इह परभवायुर्देव-नैरयिका बध्नन्तीत्ययमसङ्क्षेपकालः । ६४६ 10 [सू० ५३७] छेव्विधे भावे पन्नत्ते, तंजहा - ओदतिते, उवसमिते, खतिते, खतोवसमिते, पारिणामिते, सन्निवाइए । [टी०] अनन्तरमायु:कर्म्मबन्ध उक्तः, आयुः पुनरौदयिकभावहेतुरित्यौदयिकभावं भावसाधर्म्याच्छेषभावांश्च प्रतिपादयन्नाह - छव्विहे भावे इत्यादि, भवनं भावः पर्याय इत्यर्थः, तत्रौदयिको द्विविधः - उदय उदयनिष्पन्नश्च तत्रोदयोऽष्टानां कर्म्मप्रकृतीनामुदयः शान्तावस्थापरित्यागेनोदीरणावलिकामतिक्रम्योदयावलिकायामात्मीयात्मीयरूपेण विपाक इत्यर्थ:, अत्र चैवं व्युत्पत्तिः- उदय एवौदयिकः, उदयनिष्पन्नस्तु कर्म्मोदयजनितो 15 जीवस्य मानुषत्वादिः पर्यायः, तत्र च उदयेन निर्वृत्तस्तत्र वा भव इत्यौदयिकः इत्येवं व्युत्पत्तिरिति, तथा औपशमिकोऽपि द्विविध:- उपशम उपशमनिष्पन्नश्च तत्रोपशमो मोहनीयकर्म्मणोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्नस्योपशमश्रेणिप्रतिपन्नस्य मोहनीयभेदान् अनन्तानुबन्ध्यादीनुपशमयतः उदयाभाव इत्यर्थः, उपशम एवौपशमिकः, उपशमनिष्पन्नस्तु उपशान्तक्रोध इत्यादिरुदयाभावफलरूप आत्मपरिणाम इति भावना, तत्र च व्युत्पत्तिः - 20 उपशमेन निर्वृत्त औपशमिक इति, तथा क्षायिको द्विविध:- क्षयः क्षयनिष्पन्नश्च तत्र क्षयोऽष्टानां कर्म्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणादिभेदानां क्षयः कर्म्माभाव एवेत्यर्थः, तत्र क्षय एव क्षायिकः, क्षयनिष्पन्नस्तु तत्फलरूपो विचित्र आत्मपरिणामः केवलज्ञान-दर्शनचारित्रादिः, तत्र क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिक इति व्युत्पत्तिः, तथा क्षायोपशमिको द्विविधःक्षयोपशमः क्षयोपशमनिष्पन्नश्च तत्र क्षयोपशमश्चतुर्णां घातिकर्म्मणां केवलज्ञान१. तुलना - अनुयोगद्वारे सू० २३३ - २५९ ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५३७] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । प्रतिबन्धकानां ज्ञानावरण- दर्शनावरण- मोहनीया - ऽन्तरायाणाम्, क्षयोपशम इह उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकमधिकृत्योपशम इति गृह्यते, आह औपशमिकोऽप्येवंभूत एव, नैवम्, तत्रोपशान्तस्य प्रदेशानुभवतोऽप्यवेदनाद् अस्मिंश्च वेदनादिति, अयं च क्षयोपशमः क्रियारूप एवेति, क्षयोपशम एव क्षायोपशमिकः, क्षयोपशमनिष्पन्नस्त्वाभिनिबोधिकज्ञानादिलब्धिपरिणाम आत्मन एव, क्षयोपशमेन निर्वृत्तः क्षायोपशमिक : इति 5 च व्युत्पत्तिरिति । तथा परिणमनं परिणाम: अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्भावगमनमित्यर्थः, उक्तं च परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाश: परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ [ ] स एव पारिणामिक इत्युच्यते, स च साद्यनादिभेदेन द्विविधः, तत्र सादि: 10 जीर्णघृतादीनाम्, तद्भावस्य सादित्वादिति, अनादिपारिणामिकस्तु धर्मास्तिकायादीनाम्, तद्भावस्य तेषामनादित्वादिति । तथा सन्निपातो मेलकस्तेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः, अयं चैषां पञ्चानामौदयिकादिभावानां द्व्यादिसंयोगतः सम्भवासम्भवानपेक्षया षड्विंशतिभङ्गरूप:, तत्र द्विकसंयोगे दश, त्रिकसंयोगेऽपि दशैव, चतुष्कसंयोगे पञ्च, पञ्चकसंयोगे त्वेक एवेति, सर्वेऽपि षड्विंशतिरिति, इह चाविरुद्धाः पञ्चदश 15 सान्निपातिकभेदा इष्यन्ते, ते चैवं भवन्ति ओदय खओवसमिए परिणामेक्वेक्को गइचउक्के वि । खजोगेण वि चउरो तयभावे चुवसमेणं पि ॥ उवसमसेढी एक्को केवलिणो वि य तहेव सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइयभेया एमेते पन्नरस ॥ [ ] इति । औदयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकनिष्पन्नः सान्निपातिक एकैको गतिचतुष्केऽपि, तद्यथा- औदयिको नारकत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि पारिणामिको जीवत्वमिति, इत्थं तिर्यग्नरामरेष्वपि योजनीयमिति चत्वारो भेदा: । तथा क्षययोगेनापि चत्वार एव तावेव गतिषु, अभिलापस्तु औदयिको नारकत्वं क्षायोपशमिक इन्द्रियाणि क्षायिकः सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वमिति, एवं तिर्यगादिष्वपि वाच्यम्, सन्ति चैतेष्वपि 25 १. तुलना - अनुयोगद्वारे हारि० पृ० २९१, परिशिष्टे पृ० ४७ ॥ ६४७ 20 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽधिकृतभङ्गान्यथानुपपत्तेरिति भावनीयमिति । तयभावे त्ति क्षायिकाभावे चशब्दाच्छेषत्रयभावे चौपशमिकेनापि चत्वार एव, उपशममात्रस्य गतिचतुष्टयेऽपि भावादिति, अभिलापस्तथैव, नवरं सम्यक्त्वस्थाने उपशान्तकषायत्वमिति वक्तव्यमेते चाष्टौ भङ्गाः, प्राक्तनाश्चत्वार इति द्वादश, उपशमश्रेण्यामेको भङ्ग: तस्या 5 मनुष्येष्वेव भावात्, अभिलाप: पूर्ववत्, नवरं मनुष्यविषय एव, केवलिनश्चैक एव औदयिको मानुषत्वं क्षायिक: सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वम्, तथैव सिद्धस्यैक एव, क्षायिक: सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवत्वमिति, एवमेतैस्त्रिभिर्भङ्गैः सहिता: प्रागुक्ता: द्वादश अविरुद्धसान्निपातिकभेदा: पञ्चदश भवन्तीति, अपि च उवसमिए २ खइए वि य ९ खयउवसम १८ उदय २१ पारिणाम य ३ । 10 दो नव अट्ठारसगं इगवीसा तिन्नि भेएणं ॥ सम्म १ चरित्ते २ पढमे देसण १ नाणे य २ दाण ३ लाभे य ४ । उवभोग ५ भोग ६ वीरिय ७ सम्म ८ चरित्ते य ९ तह बीए २ ॥ चउनाण ४ ऽन्नाणतियं ३ दंसणतिय ३ पंच दाणलद्धीओ ५ । सम्मत्तं १ चारित्तं च १ संजमासंजमे १ तइए ॥ 15 चउगइ ४ चउक्कसाया ४ लिंगतियं ३ लेस छक्क ६ अन्नाणं १ । मिच्छत्त १ मसिद्धत्तं १ असंजमे १ तह चउत्थे उ ४ ॥ पंचमगम्मि य भावे जीव १ अभव्वत्त २ भव्वता ३ चेव । पंचण्ह वि भावाणं भेया एमेव तेवन्ना ॥ [ ] इति । [सू० ५३८] छव्विहे पडिक्कमणे पन्नत्ते, तंजहा-उच्चारपडिक्कमणे, 20 पासवणपडिक्कमणे, इत्तिरिते, आवकहिते, जंकिंचिमिच्छा, सोमणंतिते । [टी०] अनन्तरं भावा उक्तास्तेषु चाप्रशस्तेषु यद् वृत्तं यच्च प्रशस्तेषु न वृत्तं विपरीतश्रद्धान-प्ररूपणे वा ये कृते तत्र प्रतिक्रमितव्यं भवतीति प्रतिक्रमणमाह- छव्विहे पडिक्कमणे इत्यादि, प्रतिक्रमणं द्वितीयप्रायश्चित्तभेदलक्षणं मिथ्यादुष्कृतकरणमिति भाव:, तत्रोच्चारोत्सर्गं विधाय यदीर्यापथिकीप्रतिक्रमणं तदुच्चारप्रतिक्रमणम्, एवं 25 प्रश्रवणविषयमपीति, उक्तं च १. °णेत्यादि जे१२ खं० ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सू० ५३८] षष्ठमध्ययनं षट्स्थानकम् । ६४९ 10 उच्चारं पासवणं भूमीए वोसिरित्तु उवउत्तो । ओसरिऊणं तत्तो इरियावहियं पडिक्कमइ ॥ वोसिरइ मत्तगे जड़ तो न पडिक्कमइ य मत्तगं जो उ । साहू परिट्ठवेई नियमेण पडिक्कमइ सो उ ॥ [ ] इति । इत्तरियं ति इत्वरं स्वल्पकालिकं दैवसिक-रात्रिकादि, आवकहियंति यावत्कथिकं 5 यावज्जीविकं महाव्रत-भक्तपरिज्ञादिरूपम्, प्रतिक्रमणत्वं चास्य विनिवृत्तिलक्षणान्वर्थयोगादिति, जंकिंचिमिच्छ त्ति खेल-सिंघानाविधिनिसर्गा-ऽऽभोगाऽनाभोगसहसाकाराद्यसंयमस्वरूपं यत्किञ्चिन्मिथ्या असम्यक् तद्विषयं मिथ्येदमित्येवंप्रतिपत्तिपूर्वकं मिथ्यादुष्कृतकरणं यत्किञ्चिन्मिथ्याप्रतिक्रमणमिति, उक्तं च संजमजोगे अन्भुट्टियस्स जं किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एयं ति वियाणिऊण मिच्छ त्ति कायव्वं ॥ [आव० नि० ६८२] इति । तथाखेलं सिंघाणं वा अप्पडिलेहापमजिउं तह य । वोसिरिय पडिक्कमई तं पि य मिच्छुक्कडं देइ ॥ [ ] इत्यादि, तथा सोमणंतिए त्ति स्वापनान्तिकं स्वपनस्य सुप्तिक्रियाया अन्ते अवसाने भवं स्वापनान्तिकम्, सुप्तोत्थिता हि ईर्यां प्रतिक्रामन्ति साधव इति, अथवा स्वप्नो 15 निद्रावशविकल्पस्तस्याऽन्तो विभाग: स्वप्नान्तस्तत्र भवं स्वाप्नान्तिकम्, स्वप्नविशेषे हि प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति साधवः, यदाह गमणागमण विहारे सुत्ते वा सुमिणदंसणे राओ । नावानइसंतारे इरियावहियापडिक्कमणं ॥ [आव० नि० १५४७] यत:- आउलमाउलाए सोवणवत्तियाए [आव० सू०] इत्यादि प्रतिक्रमणसूत्रम्, तथा 20 स्वप्नकृतप्राणातिपातादिष्वन्वर्थगत्या प्रतीपक्र मणरूपकार्योत्सर्गलक्षणप्रति१. आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ उच्चारे पासवणे... ... [आव० नि० १२४९] इत्यस्य व्याख्यायामुद्धृतमिदं गाथात्रयम- उच्चारं.... ... ॥ वो सिरड... ... ॥ खेलं सिंघाणं वाऽपडिलेहिय अप्पमजिउं तह य। वोसिरिय.... ॥ २. दृश्यतां टि० २ ॥ ३. स्वप्ना' जे१ खं० ॥ ४. 'यदाह' इत्यत आरभ्य 'इरियावहियापडिक्कमणं ॥' इत्यन्तः पाठः प्राचीनेषु जे१ खं० पा० आदर्शेषु नास्त्येव, केवलं जे२ मध्ये दृश्यते । जे१ मध्ये तु 'यदाह्य' इत्येतावन्मानं लिखित्वा तदपनयनार्थम् ॥ ईदृश्यः निष्कासनरेखा लिखिता दृश्यन्ते ॥ ५. रूपया कायो' जे१ विना ॥ . A-26 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे क्रमणमेवमुक्तम्पाणवह-मुसावाए अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं उसासाणं हवेजाहि ॥ [आव० नि० १५५२] इति, सू० ५३९] कत्तिताणक्खत्ते छतारे पण्णत्ते । असिलेसाणक्खत्ते छतारे 5 पन्नत्ते । [सू० ५४०] जीवा णं छट्ठाणनिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा ३, तंजहा-पुढविकाइयनिव्वत्तिते जाव तसकाइयणिव्वत्तिते । एवंचिण उवचिण बंध उदीर वेय तध निजरा चेव । छप्पतेसिया णं खंधा अणंता पण्णत्ता । छप्पदेसोगाढा पोग्गला अणंता 10 पण्णत्ता । छस्समयट्ठितीता पोग्गला अणंता पण्णत्ता । छग्गुणकालगा पोग्गला जाव छग्गुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । ॥ छट्ठाणं छ?मज्झयणं समत्तं ॥ _ अनन्तरं प्रतिक्रमणमुक्तम्, तच्चावश्यकमप्युच्यते, आवश्यकं च नक्षत्रोदयाद्यवसरे कुर्वन्तीति नक्षत्रसूत्रं शेषसूत्राणि चा अध्ययनपरिसमाप्ते: पूर्वाध्ययनवदवसेयानीति । 15 इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे षट्स्थानकाख्यं षष्ठमध्ययनं समाप्तमिति श्लोकाः ७६५ ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि । [पृ०३०३ पं०७, पृ०३०५ पं०२४] भरतचक्रवर्तिनः कथानकं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितप्रथमपर्वप्रभृतिषु ग्रन्थेषु द्रष्टव्यम् ॥ [पृ०३०३ पं०१२, पृ०३०६ पं०८] गजसुकुमारचरितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितेऽष्टमे पर्वणि दशमे सर्गे ९४, १२२-१४६ श्लोकेषु वर्तते । अन्येष्वपि बहुषु ग्रन्थेषु वर्तते । "इतश्च भगवान् नेमिः पावयन् पृथिवीतलम् । क्रमेण भद्दिलपुरं पुरप्रवरमीयिवान् ॥९४॥ .... अनु तद्वचनं स्वर्गाच्च्युत्वा देवो महर्द्धिकः । देवक्याः कुक्षिमायासीज्जज्ञे च समये सुतः ॥१२२॥ नाम्ना गजसुकुमालं रूपात् कृष्णमिवापरम् । तं स्वयं लालयामास देवकी देवसन्निभम् ॥१२३|| सोऽत्यन्तवल्लभो मातुर्धातुश्च प्राणसन्निभः । द्वयोनॆत्रेन्दीवरेन्दुः क्रमेण प्राप यौवनम् ॥१२४।। प्रभावतीमभिधया द्रुमस्य पृथिवीपतेः। कन्यां गजसुकुमाल: पित्रादेशादुपायत ॥१२५॥ सोमशर्मद्विजसुतां सोमाख्यां क्षत्रियाभवाम् । सोऽनिच्छन्नप्युपयेमे मातृभ्रात्रोर्निदेशतः ।।१२६।। तदैव तत्र समवासार्षीन्नेमिस्तदन्तिके । धर्मं गजसुकुमाल: सभार्योऽवहितोऽशृणोत् ।।१२७।। ततश्चोत्पन्नवैराग्यः पत्नीभ्यां सहितो गजः । पितरौ समनुज्ञाप्य स्वामिपार्श्वेऽग्रहीद् व्रतम् ॥१२८।। गजे प्रव्रजिते चाथ तद्वियोगासहिष्णवः । पितरौ कृष्णमुख्याश्च भ्रातरो रुरुदुस्तराम् ॥१२९॥ सायं स स्वामिनं पृष्ट्वा श्मशाने प्रतिमां व्यधात् । बहिर्गतेन दृष्टश्च ब्रह्मणा सोमशर्मणा ॥१३०॥ सोमशर्माऽचिन्तयच्च यत्पाखंडचिकीरयम्। विडंबनाय मत्पुत्रीमुपयेमे दुराशयः ॥१३१।। इति क्रुद्धस्तच्छिरसि सोमशर्मा विरुद्धधीः । ज्वलच्चितांगारपूर्णं घटीकंठमतिष्ठपत् ॥१३२।। तेनातिदह्यमानोऽपि सोऽधिसेहे समाहितः । दग्धकर्मेन्धनो जातकेवलश्च ययौ शिवम् ॥१३३।। प्रातश्चचाल कृष्णोऽपि रथस्थः सपरिच्छदः । द्रष्टुं गजसुकुमालमुत्कंठापूर्णमानसः ॥१३४॥ निर्गच्छन् द्वारकायाश्च बहिरैक्षिष्ट स द्विजम् । वहन्तमिष्टकां मूर्धा वृद्धं देवालयं प्रति ॥१३५।। तस्यानुकम्पया कृष्ण आपाकात्स्वयममिष्टकाम् । निन्ये देवकुले तस्मिन् लोकोऽनैषीच्च कोटिशः ॥१३६।। कृतार्थं तं द्विजं कृत्वा ययौ नेमि जनार्दनः । न चापश्यद्रजं तत्र मुक्तं निधिमिवात्मना ॥१३७।। क्व मे भ्राता गज इति पप्रच्छ स्वामिनं हरिः । सोमद्विजागजमोक्षमाचख्यौ भगवानपि ॥१३८॥ ततो मुमूर्छ गोविंदो लब्धसंज्ञः पुनः प्रभुम् । पप्रच्छ भ्रातृवधको ज्ञातव्यः स कथं मया ।।१३९|| भगवानप्यभाषिष्ट मा कुपः सोमशर्मणे । त्वद्भातुः स हि सहायः सद्यो मोक्षस्य साधने ॥१४०॥ सिद्धिः स्याच्चिरसाध्यापि सहायवशतः क्षणात् । यथा त्वयाद्य वृद्धस्य ब्राह्मणस्येष्टकार्पणात् ॥१४१।। सोमशर्मा न कुर्याच्चेत् कर्म त्वद्भातुरीदृशम् । तत्कथं तस्य सिद्धिः स्यात्कालक्षेपं विनैव हि ॥१४२।। स्वमुद्बद्धं व्रजस्त्वां च विशन्तं पुरि वीक्ष्य यः । भिन्नमूर्धा म्रियते तं जानीथा भ्रातृघातकम् ॥१४३॥ ततः कृष्णो रुदन् भ्रातुः संस्काराद्यकरोत् स्वयम् । प्राविशच्च पुरी सोममैक्षिष्ट च तथा मृतम् ॥१४४॥ बन्धयित्वा पादयोस्तं पुर्यामभ्रमयन्नरैः । बहिश्च क्षेपयामास Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि गृध्रादीनां नवं बलिम् ॥१४५॥ तेन शोकेन यदवो बहवो मिसन्निधौ । प्रवव्रजुर्दशार्हाश्च वसुदेवं विना नव ॥१४६॥|” त्रिषष्टि० ८|१०| [पृ०३०३ पं०१५, पृ०३०६ पं०११] सनत्कुमारचक्रवर्तिकथानकं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितचतुर्थपर्वसप्तमसर्गादिषु विस्तरेण वर्तते । २ - [पृ०३०३ पं०२०, पृ०३०६ पं० १४] भगवत्या मरुदेव्याः कथानकं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितस्य प्रथमपर्वणि तृतीये सर्गे वर्तते, अन्यत्रापि च । त्रिषष्टि० मध्ये एवम् - “ इतोऽपि च विनीतायां, विनीतो भरतेश्वरः । आजगाम नमस्कर्तुं मरुदेवां दिवामुखे ||४८८॥ तनूजविरहोद्भूतैरश्रान्तैरस्रवारिभिः । जातनीलिकया लुप्तलोचनाब्जां पितामहीम् ॥ ४८९ ॥ ज्येष्ठः पौत्रो नमत्येष देवि ! त्वत्पादपङ्कजे। स्वयं विज्ञपयन्नेवं, भरतः प्रणनाम ताम् ||४९०|| [युग्मम् ] स्वामिनी मरुदेवाऽपि, भरतायाऽशिषं ददौ । हृद्यमान्तीं शुचमिव, गिरमित्युज्जगार च ॥ ४९१ || मां त्वां महीं प्रजां लक्ष्मीं, विहाय तृणवत् तदा । एकाकी गतवान् वत्सो, दुर्मरा मरुदेव्यहो ! ॥ ४९२ ॥ सूनोश्चन्द्रातपच्छायमातपत्रं क्व मूर्द्धनि ? । सर्वाङ्गसन्तापकरः, क्वेदानीं तपनातपः ? || ४९३ ॥ सलीलगतिभिर्यानैर्यानं हस्त्यादिभिः क्व तत् ? । वत्सस्य पादचारित्वं, क्वेदानीं पथिकोचितम् ? || ४९४ || क्व तद् वारवधूत्क्षिप्तचारुचामरवीजनम् ?। मत्सूनोः क्वाऽधुना दंशमशकाद्यैरुपद्रवः ? || ४९५ ॥ क्व तद् देवसमानीतदिव्याहारोपजीवनम् ? । क्व भिक्षाभोजनं तस्याऽभोजनं वाऽपि सम्प्रति ? || ४९६ ॥ रत्नसिंहासनोत्सङ्गे, महर्द्धेः क्व तदासनम् ? | मत्सूनोः खड्गिन इव, क्व निरासनताऽधुना ? ||४९७ || आरक्षैरात्मरक्षैश्च, रक्षिते क्व पुरे स्थितिः ?। सूनोः क्व वासः सिंहाहिदुः श्वापदपदे वने ? || ४९८ ।। क्व तद् दिव्याङ्गनागीतं, कर्णामृतरसायनम् ? सूनोः क्वोन्मत्तफेरुण्डफेत्काराः कर्णसूचयः ॥ ४९९॥ अहो ! कष्टमहो ! कष्टं, यन्मे सूनुस्तपात्यये । पद्मखण्ड इव मृदुः, सहते वारिविद्रवम् ||५०० || हिमर्तौ हिमसम्पातसंक्लेशविवशां दशाम् । अरण्ये मालतीस्तम्ब, इव याति निरन्तरम् ||५०१ || उष्णर्त्तावुष्णकिरणकिरणैरतिदारुणैः । सन्तापं चाऽनुभवति, स्तम्बेरम इवाऽधिकम् ॥५०२ ॥ तदेवं सर्वकालेषु, वनेवासी निराश्रयः । पृथग्जन इवैकाकी, वत्सो मे दुःखभाजनम् ||५०३ ॥ तत्तद्दुःखाकुलं वत्सं पश्यन्त्यग्रे दृशोरिव । वदन्ती नित्यमप्येवं, हा ! त्वामपि दुनोम्यहम् ||५०४|| इति दुःखाकुलां देवीं, मरुदेवीमुदञ्जलिः । वाचाऽवोचन्नवसुधासध्रीच्या वसुधाधवः ||५०५ || स्थैर्याद्रेर्वज्रसारस्य, महासत्त्वशिरोमणेः । तातस्य जननी भूत्वा, किमेवं देवि ! ताम्यसि ? ||५०६ || तातस्तरीतुं सहसा, संसाराम्भोधिमुद्यतः । कण्ठबद्धशिलाप्रायानू, स्थाने तत्याज नः प्रभुः ||५०७|| वने विहरतो भर्त्तुः, प्रभावाच्छ्वापदा अपि । नोपद्रवं कर्तुमलं, पाषाणघटिता इव ॥ ५०८ ॥ क्षुत्पिपासातपप्राया, दुःसहा ये परीषहाः । सहायाः खलु तातस्य, ते कर्मद्वेषिसूदने ॥५०९॥ न चेत् प्रत्येषि मद्वाचा, प्रत्येष्यसि तथाऽपि हि । तातस्य न चिराज्जातकेवलोत्सववार्त्तया ॥ ५१०॥ अत्रान्तरे महीभर्त्तुर्ज्ञापितौ वेत्रपाणिना । नाम्ना यमक - शमकौ, पुरुषावभ्युपेयतुः ॥ ५११ || प्रणम्य Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि यमकस्तत्र, भरतेशं व्यजिज्ञपत् । दिष्ट्याऽद्य वर्धसे देवाऽनया कल्याणवार्त्तया ॥५१२॥ पुरे पुरिमतालाख्ये, कानने शकटानने । युगादिनाथपादानामुदपद्यत केवलम् ॥५१३॥ प्रणम्य शमकोऽप्युच्चैःस्वरमेवं व्यजिज्ञपत् । इदानीमायुधागारे चक्ररत्नमजायत ॥५१४॥ उत्पन्नकेवलस्तात, इतश्चक्रमितोऽभवत् । आदौ करोमि कस्याऽर्चामिति दध्यौ क्षणं नृपः ॥५१५॥ क्व विश्वाभयदस्तातः ?, क्व चक्र प्राणिघातकम् ?। विमृश्येति स्वामिपूजाहेतोः स्वानादिदेश सः ॥५१६॥ यथोचितमथो दत्त्वा, पुष्कलं पारितोषिकम् । विससर्ज नरेन्द्रस्तौ, मरुदेवामुवाच च ॥५१७।। देवि ! त्वं सर्वदाऽपीदमादिक्षः करुणाक्षरम् । भिक्षाहारो यदेकाकी, वत्सो मे दुःखभाजनम् ॥५१८॥ त्रैलोक्यस्वामिताभाजः, स्वसूनोस्तस्य सम्प्रति । पश्य सम्पदमित्युक्त्वाऽऽरोहयामास तां गजे ॥५१९।। सुवर्णवज्रमाणिक्यभूषणैस्तुरगैर्गजैः । पत्तिभिः स्यन्दनैर्मू-श्रीमयैः सोऽचलत् ततः ॥५२०॥ सैन्यैर्भूषणभा:पुञ्जकृतजङ्गमतोरणैः । गच्छन् दूरादपि नृपोऽपश्यद् रत्नध्वजं पुरः ॥५२१।। मरुदेवामथाऽवादीद्, भरतः परतो ह्यदः । प्रभोः समवसरणं, देवि ! देवैर्विनिर्मितम् ॥५२२॥ अयं जयजयारावतुमुलस्त्रिदिवौकसाम् । श्रूयते तातपादाब्जसेवोत्सवमुपेयुषाम् ।।५२३॥ गम्भीरमधुरं मातर्दिव्ययं दुन्दुभिर्नदन् । तनोति हृदयानन्दं, वैतालिक इव प्रभोः ॥५२४॥ स्वामिपादाब्जवन्दारुवृन्दारकविमानभूः । अनणुः किङ्किणीनादः, श्रवणातिथिरेष नः ॥५२५॥ स्वामिदर्शनहृष्टानां, क्ष्वेडानादो दिवौकसाम् । स्तनितं स्तनयित्नूनामिवैष श्रूयते दिवि ॥५२६॥ गन्धर्वाणामियं गीतिामरागपवित्रिता । स्वामिवाचो भुजिष्येव, पुष्यत्यानन्दमद्य नः ॥५२७।। शृण्वत्यास्तत् ततो देव्या, मरुदेव्या व्यलीयत । आनन्दाश्रुपयःपूरैः, पङ्कवन्नीलिका दृशोः ॥५२८॥ साऽपश्यत् तीर्थकृल्लक्ष्मी, सूनोरतिशयान्विताम् । तस्यास्तदर्शनानन्दात्, तन्मयत्वमजायत ॥५२९।। साऽऽरुह्य क्षपकश्रेणिमपूर्वकरणक्रमात् । क्षीणाष्टकर्मा युगपत्, केवलज्ञानमासदत् ॥५३०।। करिस्कन्धाधिरूद्वैव, स्वामिनी मरुदेव्यथ । अन्तकृत्केवलित्वेन, प्रपेदे पदमव्ययम् ॥५३१।। एतस्यामवसर्पिण्यां, सिद्धोऽसौ प्रथमस्ततः । सत्कृत्य तद्वपुः क्षीरनीरधौ निदधेऽमरैः ॥५३२॥" - त्रिषष्टिः ॥ [पृ०३०७ पं.२१] कामदेवकथा- “तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तए णं से कामदेवे समणोवासए इमीसे कहाए जाव लद्धट्टेसमाणे एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता तओ पडिनियत्तस्स पोसहं पारित्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सुद्धप्पावेसाइं वत्थाई जाव अप्पमहग्घ० जाव मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, २ ता पं नगरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव पज्जुवासइ ॥२६॥ कामदेवाइ ! समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी- से नूनं कामदेवा! तुब्भं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतिए पाउब्भूए, तए णं से देवे एगं महं दिव्वं पिसायरूवं Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि विउव्वइ, विउव्वित्ता आसुरुत्ते ४ एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय तुमं एवं वयासी- हं भो कामदेवा ! जाव जीवियाओ ववरोविज्जसि, तं तुमं तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरसि एवं वण्णगरहिया तिन्निवि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारेयव्वा जाव देवे पडिगओ, से नूनं कामदेवा अढे समढे ?, हन्ता, अस्थि । ___ अज्जो इ समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासीजइ ताव अज्जो ! समणोवासगा गिहिणो गिहमज्झावसंता दिव्वमाणुसतिरिक्खजोणिए उवसग्गे सम्म सहंति जाव अहियासेंति, सक्का पुण्णाई अज्जो ! समणेहिं निग्गंथेहिं दुवालसंग गणिपिडगं अहिज्जमाणेहिं दिव्वमाणुसतिरिक्खजोणिए सम्म सहित्तए जाव अहियासित्तए, तओ ते बहवे समणा निग्गन्था य निग्गंथीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमढें विणएणं पडिसुणंति : ___तए णं से कामदेवे समणोवासए हट्ठ जाव समणं भगवं महावीरं पसिणाई पुच्छइ, अट्ठमादियइ, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ २ ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए, तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ चंपाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥२७।। ___ तए णं से कामदेवे समणोवासए पढमं उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, तए णं से कामदेवे समणोवासए बहहिं जाव भावेत्ता वीसं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्म कारणं फासेत्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहिँ भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरच्छिमेणं अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता कामदेवस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । से णं भंते ! कामदेवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ कहिं उववजिहिइ ?, गो० ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । निक्खेवो ॥२८॥" - उपासकदशाङ्गे अ० २॥ [पृ०३०७ पं०२४] शैलकराजर्षिकथा ज्ञाताधर्मकथाङ् गसूत्रे प्रथमे श्रुतस्कन्धे पञ्चमे शैलकज्ञातेऽध्ययने ग्रन्थान्तरेषु च विस्तरेण वर्तते । ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिचरितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते नवमे पर्वणि प्रथमे सर्गे विस्तरेण वर्तते, अन्यत्रापि बहुषु ग्रन्थेषु वर्तते ॥ [पृ०३०७ पं०२४] मेतार्यकथा प्रथमे विभागे प्रथमे परिशिष्टे द्रष्टव्या ॥ [पृ०३०७ पं०२५] उदायिनृपमारककथा परिशिष्टपर्वादिषु वर्तते । परिशिष्टपर्वणि षष्ठे सर्गे इत्थम्“इतश्च पुर्यां चम्पायां कूणिके श्रेणिकात्मजे । आलेख्यशेषे भूपोऽभूदुदायी नाम तत्सुतः ॥२२।। पितृव्ययशुचाक्रान्तो दुर्दिनेनेव चन्द्रमाः । निगूढतेजा राज्येऽपि प्रमदं न बभार सः ॥२३॥ उवाच Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि च कुलामात्यानमुष्मिन्नगरेऽखिले । पश्यतो मे पितुः क्रीडास्थानानि व्यथते मनः ॥२४॥ इयं हि सैव परिषद्यस्यां तातः क्षणे क्षणे । सिंहासनमसे विष्ट मामकादपरित्यजन् ||२५|| अभुक्तेहाक्रीडदिहारस्तेहाशेत चेह यत् । पिता ममेति पश्यामि तं सर्वत्र जलेन्दुवत् ||२६|| पश्यतस्तातपादान्मे दृशोरग्रे स्थितानिव । राज्यलिङ्गभृतः सातिचारं स्याद्विनयव्रतम् ||२७|| पिता हृदि स्थितो नित्यमिहस्थस्येति मे सुखम् । सदा शल्यमिवास्तोकः शोको दुःखाकरोति च ॥ २८ ॥ अमात्या अपि तेऽत्याप्ता बहुदृष्टा बहुश्रुताः । शोकशङ्कुच्छिदा प्रोचुर्वाचा वाचंयमा इव ||२९|| कस्य नेष्ट वियोगेन शोकः स्याद्भवता पुनः । भुक्तान्नवत् स जार्यो हि लज्जा स्यादन्यथा तव ||३०|| यद्वा स्याच्छोक एवेह नगरे वसतस्तव । तदन्यन्नगरं क्वापि निवेशय विशाम्पते ||३१|| पुरा पुरं राजगृहं कूणिकोऽपि पिता तव । हित्वा पितृशुचाऽकार्षीदिमां चम्पाभिधां पुरीम् ||३२|| उदाय्यपि समाहूय नैमित्तिकवरानथ । स्थानं पुरनिवेशार्हं गवेषयितुमादिशत् ||३३|| तेऽपि सर्वत्र पश्यन्तः प्रदेशानुत्तरोत्तरान् । ययुर्गङ्गातटे रम्ये दृशां विश्रामधामनि ||३४|| ते तत्र ददृशुः पुष्पपाटलं पाटलिद्रुमम्। पत्रलं बहुलच्छायमातपत्रमिवावनेः ||३५|| अहो उद्यानबाह्योऽपि सकलापोऽयमंहिपः। इत्थं चमत्कृतास्तत्र तेऽद्राक्षुश्चापक्षिणम् ||३६|| शाखानिषण्णः स खगो व्याददौ वदनं मुहुः । कवलीभवितुं तत्र निपेतुः कीटिकाः स्वयम् ||३७|| तेऽचिन्तयन्निहोद्देशे पक्षिणोऽस्य यथा मुखे । कीटिकाः स्वयमागत्य निपतन्ति निरन्तरम् ||३८|| तथास्मिन्नुत्तमे स्थाने नगरेऽपि निवेशिते । राज्ञः पुण्यात्मनोऽमुष्य स्वयमेष्यन्ति सम्पदः ||३९|| इति निर्णीय तत्स्थानं नगरार्हं महीपतेः । आख्यान्ति स्म विवृण्वन्तो निमित्तं चाषलक्षणम् ||४०|| जरन्नैमित्तिकश्चैको जगाद वदतां वरः । पाटलेयं न सामान्या ज्ञानिना कथिता पुरा ॥ ४१ ॥ तथाहि स्तो नगर्यो द्वे मथुरे दक्षिणोत्तरे । समानसौन्दर्य स्वसारौ युग्मजे इव ॥४२॥ अभूदुदग्मथुरायां देवदत्तो वणिक्सुतः । दक्षिणस्यां मथुरायां दिग्यात्रार्थमियाय सः ॥४३॥ वणिक्पुत्रजयसिंहेनाभवत्तस्य सौहृदम् । तावन्योन्यं प्रपेदाते रहस्यैकनिधानताम् ||४४|| स्वसा च जयसिंहस्यान्निका नाम कुमारिका । बभूव भूगतेव स्वर्ललना रूपसम्पदा ||४५॥ जयसिंहोऽन्यदा जामिमन्निकामादिशन्निजाम् । समित्रोऽप्यद्य भोक्ष्येऽहं दिव्यां रसवतीं कुरु ॥ ४६ ॥ इत्युक्त्वा जयसिंहेन देवदत्तो निमन्त्रितः । आगाच्च तद्गृहे भोक्तुं तौ द्वावपि निषेदतुः ||४७ || अष्टादश भक्ष्यभेदान्षड्रसास्वादसुन्दरान् । द्वयोरप्यन्निका सा तु सुवेषा पर्यवेषयत् ॥४८॥ तौ मरुता प्रीणयितुमपाकर्तुं च मक्षिकाः । धुन्वती व्यजनं चक्रे कर्मैकं द्व्यर्थकारि सा ॥ ४९ ॥ प्रक्वणद्वाहुवलयां व्यजनान्दोलनेन ताम् । पश्यन्निन्दुमुखीं देवदत्तः कामवशोऽभवत् ॥ ५० ॥ स वीक्षमाणस्तां बालां लावण्यजलदीर्घिकाम् । तद्रिरंसापरवशो भोज्यास्वादं विवेद न ॥ ५१ ॥ तस्य दृग्विदधे तस्यामापादतलमस्तकम् । आरोहमवरोहं च लतायामिव वानरी ॥ ५२ ॥ मा नेत्रमैत्री प्रत्यूहो भूदस्यामिति बुद्धिमान् । स स्थिरोsपि स्थिरतरं बुभुजे गजलीलया ॥ ५३ ॥ देवदत्तो द्वितीयेऽह्नि जयसिंहस्य सन्निधौ । प्रेषयामास चरकानन्निकायाचनाकृते ।।५४ || ते गत्वा प्रोचुरन्यस्मै कस्मैचिदप्यमूं ननु । यदि दास्यसि तदस्मै देहि Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि वेत्स्येष यादृशः ॥५५॥ स उवाच कुलीनोऽयं कालज्ञोऽयं सुधीरयम् । युवायं किं बहूक्तेन सर्वे वरगुणा इह || ५६ ॥ किं तु जामिं प्रदास्यामि तस्मै यो मद्गृहात् क्वचित् । न यास्यति स्थितं चात्र तं द्रक्ष्याम्यात्मनः समम् ॥ ५७ ॥ एष सम्भाव्यते यास्यन्नद्य श्वो वापि सुन्दरः । किं नाश्रौषुर्विदेशस्थः प्रायेण हि गमिष्यति ॥५८॥ प्राणप्रियेयं भगिनी मम लक्ष्मीरिवौकसि । तदिमां न प्रहेष्यामि विवोढुरपि वेश्मनि ॥५९॥ अपत्यजन्मावधि भो यद्येवं कर्तुमीश्वरः । तदुद्वहतु मे जामिं देवदत्तोऽन्निकामिमाम् ॥६०॥ देवदत्तानुज्ञया तेऽप्योमिति प्रतिपेदिरे । देवदत्तोऽपि तां कन्यां परिणिन्ये शुभे ॥ ६१ ॥ तस्यान्निकाप्रेमतन्तुबद्धस्य तिष्ठतः । प्रेष्युदग्मथुरास्थाभ्यां पितृभ्यां लेख ईदृशः ॥६२॥ आवां हि चक्षुर्विकलौ चतुरिन्द्रियतां गतौ । जराजर्जरसर्वाङ्गावासन्नयमशासनौ ||६३ || आयुष्मन्यदि जीवन्तौ कुलीनस्त्वं दिदृक्षसे ।तदेद्वापय दृशावावयो रुदतोः सतोः ||६४ || युग्मम् ॥ सोऽवाचाच्च तं लेख स्नेहाम्भोधिनिशाकरम् । निरन्तरक्षरन्नेत्रनीरपात्रीचकार च ॥ ६५ ॥ अचिन्तयच्च धिग्धिग्मां पितरौ विस्मृतौ हि मे । अहं विषयमग्नोऽस्मि पित्रोः पुनरियं दशा ||६६ || किं करोमि कथं यामि पत्नी नापत्यदृश्वरी । निजवाक्पाशबद्धस्य का गतिर्मे भविष्यति ||६७ || अन्निकापि हि तन्त्रमार्जनेन स्वमंशुकम् । क्लेदयन्ती जगादैवं सद्यस्तदुःखदुःखिता ॥ ६८ ॥ केनैष प्रहितो लेखो धत्ते चान्द्रमसीं कलाम् । द्रावयन्वारिदुर्वारं त्वन्नेत्रचन्द्रकान्तयोः ॥६९॥ दिवेन्दुनिभमालोक्य निष्कलापं मुखं तव । निश्चिनोम्यश्रुपूरोऽयं दुःखजो न तु हर्षजः ||७०|| दुःखाख्यानप्रसादेन तत्सम्भावय मामपि । ममाप्यस्तु भवदुःखसंविभागधुरीणता ॥७१॥ नादात्प्रत्युत्तरं किञ्चिद्दुःखभागन्निकापतिः । तस्थौ तु स्नपयन्नेव तं लेखं नयनोदकैः ॥७२॥ अन्निकापि हि तं लेखमादायावाचयत्स्वयम् । तदुःखकारणं सद्यो विवेद च जगाद च ||७३ || सर्वथा मा कृथा दुःखमार्यपुत्राचिरादहम् । भ्रातरं बोधयिष्यामि कारयिष्ये त्वदीप्सितम् ॥७४॥ गत्वा चोचे भ्रातरं स्वं नितरां कुपितेव सा । इदं विवेकिन् हे भ्रातर्भवता किमनुष्ठितम् ||७५|| स्वकुटुम्बवियोगेन क्लिश्यते तव भावुकः । श्वश्रूश्वशुरपादानामहमुत्कण्ठितास्मि च ॥ ७६ ॥ अनुमन्यस्व मे नाथं स्वस्थानगमनं प्रति । तमन्वेष्याम्यहमपि तस्यायत्ता यतोऽसवः ॥ ७७॥ स्थास्यत्येवैष वाग्बद्धः प्रणन्तुं श्वसुरौ त्वहम् । एकाकिन्यपि यास्यामि किं कार्यं तदनेन ते ॥ ७८ ॥ इति साग्रहमुक्तस्तु जयसिंहो मुहुर्मुहुः । प्रयातुमनुमेने च तमुदग्मथुरां प्रति ॥७९॥ | नगर्या निर्ययौ तस्यास्ततश्च स वणिक्सुतः । तमन्वगादन्निकापि यामिनीव निशाकरम् ||८०|| अन्निकाभूत्तदा गुर्वी नेदीयः प्रसवापि च । इति मार्गेऽपि सासू सुतं लक्षणधारिणम्॥८१॥ स्थविरौ पितरौ नामकृतिं सूनोः करिष्यतः । इति तौ दम्पती नैव चक्रतुः स्वमनीषया ॥८२॥ तयोरन्वङ् परिजनस्तं बालं लालयन्मुदा । अन्निकापुत्र इत्येवोल्लापनेन जगौ पथि॥८३॥ उत्तरामन्निकानाथो जगाम मथुरामथ । तौ ववन्दे च पितरौ ताभ्यां मूर्धन्यचुम्बि च ॥८४॥. देशान्तरोपार्जनेयं ममोपादीयतामिति । ब्रुवाणः सोऽर्भकं पित्रोरर्पयामास हृष्टयोः ॥ ८५ ॥ इयं वधूर्वः पुत्रोऽहं ममैमत्कुक्षिसम्भवः । इत्याचख्यौ च सम्बन्धं भक्तिबन्धुरया गिरा ॥ ८६ ॥ पितरौ चक्रतुस्तस्य शिशोः सन्धीरणाभिधाम् । अन्निकापुत्र इति तु लोकनाम्ना स पप्रथे ॥ ८७|| लाल्यमानः कुटुम्बेन ६ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि वर्धमानोऽन्निकासुतः । चतुर्वर्गार्जनसुखं प्रपेदे मध्यमं वयः ॥ ८८ ॥ भोगानपास्य तृणवद्यौवनेऽपि स धीधनः । जयसिंहाचार्यपार्श्वे परिव्रज्यामुपाददे ॥ ८९ ॥ स खड्गधारातीक्ष्णेन व्रतेन व्रतिनां वरः । आत्मनो दारयामास दारुणान्कर्मकण्टकान् ॥ ९० ॥ तपोग्निनातिदीप्रेण दग्ध्वा कर्ममहामलम् । अग्निशौचांशुकमिव स आत्मानमशोधयत् ॥ ९१ ॥ स क्रमेण परिणतचरित्रज्ञानदर्शनः । आचार्यवर्यधुर्योऽभूत्स्वगच्छाम्भोजभास्करः || ९२|| स मुनिः सपरीवारो वृद्धत्वे विन् । पुष्पभद्राख्यं गङ्गातटविभूषणम् ॥९३॥ तत्राभूद्भूपतिः पुष्पकेतुस्तस्य तु वल्लभा । मीनकेतोरिव रतिः पुष्पवत्यभिधानतः ॥९४॥ पुष्पवत्या अभूतां च पुत्रः पुत्री च युग्मजौ । पुष्पचूलः पुष्पचूला चेति नाम तयोरभूत् ॥ ९५ ॥ सहैव वर्धमानौ तौ रममाणौ सहैव च । परस्परं प्रीतिमन्तावुभावपि बभूवतुः ॥ ९६ ॥ द्यौ च राजा यद्येतौ दारकौ स्नेहलौ मिथः । वियुज्येते तदा नूनं मनागपि न जीवतः ॥९७॥ वियोगमनयोश्चाहमपि सोढुमनीश्वरः । मिथस्तदनयोरेव युक्तं वीवाहमङ्गलम् ॥९८॥ मित्राणि मन्त्रिणः पौरानथ पप्रच्छ भूपतिः । अन्तःपुरे यदुत्पन्नं रत्नं तस्य क ईश्वरः ॥ ९९ ॥ ते प्रोचुर्देशमध्येऽपि रत्नमुत्पद्यते हि यत् । तस्येश्वरो नरपतिः का कथान्तःपुरे पुनः || १०० || यद्यदुत्पद्यते रत्नं स्वदेशे तदिलापतिः । यथेच्छं विनियुञ्जीत को हि तस्यास्तु बाधकः ॥ १०१ ॥ तेषां भावानभिज्ञानामालम्ब्य वचनं नृपः । सम्बन्धं घटयामास निजदारकयोस्तयोः ॥ १०२ ॥ तस्य राज्ञी पुष्पवती श्राविकाभूत्तया नृपः । अवार्यत तथा कुर्वन्न तु तामप्यजीगणत् ॥ १०३ ॥ ततश्च पुष्पचूलश्च पुष्पचूला च दम्पती । गृहिधर्मं सिषेवाते नितान्तमनुरागिणौ ॥ १०४ ॥ क्रमेण पुष्पकेतौ तु कथाशेषत्वमीयुषि । पुष्पचूलोऽभवद्राजा राजमानोऽमलैर्गुणैः ॥ १०५ ॥ तदकृत्यं वारयन्ती तदा पत्यापमानिता । राज्ञी पुष्पवती जातनिर्वेदा व्रतमाददे ॥ १०६ ॥ सा विपद्य सुरो जज्ञे प्रव्रज्यायाः प्रभावतः । प्रव्रज्या चेन्न मोक्षाय तत्स्वर्गाय न संशयः ॥ १०७॥ स देवोऽवधिनाद्राक्षीत्तामकृत्यनियोजिताम् । निजां दुहितरं स्नेहादिति चाचिन्तयत्तराम् ॥ १०८ ॥ मम प्राग्जन्मनि प्राणप्रियेयं दुहिताभवत् । तत्तथा रवै घोरे नरके न पतेद्यथा ॥१०९॥ इति तस्याः स्वप्नमध्ये नरकावासदारुणान् छेदभेदादिदुःखार्त्तारटन्नारकिकाकुलान् ॥११०॥ पातकेनेव संरुद्धानन्धकारापदेशतः । दुर्दर्शान्दर्शयामास नरकान्स सुरोऽखिलान् ॥ १११॥ युग्मम् ॥ वर्तिकेव श्येनमुक्ता मृगीव दवनिर्गता । सतीव परपुरुषकरस्पर्शपलायिता ॥ ११२ ॥ सुसाध्वीवायाततपोऽतीचारविधुरीकृता । सा दृष्टनरका भीत्या प्रबुद्धापि कम्पत ॥११३॥ युग्मम् || बिभ्यती सा तु नरकं गतेव नरकेक्षणात् । अखिलं कथयामास तं स्वप्नं पत्युरग्रतः ॥११४॥ क्षेमेच्छुः पुष्पचूलायाः पुष्पचूलनृपोऽपि हि । निपुणं कारयामास शान्तिकं शान्तिकोविदैः ।।११५।। स तु पुष्पवतीजीवदेवस्तद्धितकाम्यया । तादृशानेव नरकान्रात्रौ रात्रावदर्शयत् ॥११६|| अथ पाषण्डिनः सर्वानाजुहाव महीपतिः । परिपप्रच्छ च ब्रूध्वं कीदृशा नरका इति ॥११७॥ गर्भवासौ गुप्तिवासो दारिद्र्यं परतन्त्रता । एते हि नरकाः साक्षादित्याख्यंस्तेऽल्पमेधसः ॥ ११८ ॥ सा दुर्गन्धमिवाघ्राय कुर्वती मुखमोटनम् । निजस्वप्नविसंवादिवचनांस्तान्व्यसर्जयत् ॥११९॥ आहूय I Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि चानिकापुत्रं राजापृच्छत्तदेव हि । नरकान्स तथैवाख्यद् दृष्टाः स्वप्ने यथा तया ॥१२०॥ राज्यप्युवाच भगवन्किं भवद्भिरपीदृशः। मयेव वीक्षितः स्वप्नो वित्थेत्थं कथमन्यथा ॥१२१॥ सूरिः प्रोवाच हे भद्रे विनापि स्वप्नदर्शनम्। संसारे नास्ति तद्यद्धि न ज्ञायेत जिनागमात् ॥१२२।। पुष्पचूलापि पप्रच्छ भगवन् ! केन कर्मणा । ईदृशान्नरकान्घोरानाप्नुवन्ति शरीरिणः ॥१२३।। आख्याति स्मानिकापुत्रो महारम्भपरिग्रहैः । गुरुप्रत्यनीकतया पञ्चेन्द्रियवधादपि ॥१२४॥ पिशिताहारतश्चापि पापं कृत्वा शरीरिणः। गच्छन्ति नरकेष्वेषु दुःखान्यनुभवन्ति च ॥१२५॥ ततश्च जननीजीवदेवस्तस्यास्तदादि तु । स्वप्ने नरकवत्स्वर्गान्प्राज्यसौख्यानदर्शयत् ॥१२६॥ प्रबुद्धा कथयामास सा पत्ये स्वर्गदर्शनम् । सोऽथ पाषण्डिनोऽपृच्छद् ब्रूथ किं स्वर्गलक्षणम् ।।१२७॥ तेष्वेके प्रोचिरे स्वर्गस्वरूपं प्रियसङ्गमः । अन्ये त्वाहुः स्म स स्वर्गो यद्यद्धि सुखकारणम् ।।१२८॥ एवं स्वर्गस्वरूपं च तदुक्तं पुष्पचूलिका । नामन्यत स्वप्नदृष्टस्वःस्वरूपा हि साभवत् ॥१२९॥ राज्ञा पृष्टोऽनिकासूनुः स्थितिमाख्यद्दिवौकसाम् । मनश्चिन्तितकार्याणि सिद्धान्येव भवन्ति च ॥१३०॥ सकल्पवृक्षाश्चारामा वापयः स्वर्णपङ्कजाः । देव्यश्चित्तानुवर्तिन्यो रूपवत्यः कलाविदः ॥१३१॥ यथादिष्टविधातारस्त्रिदशाश्चाभियोगिकाः । इच्छया दिव्यसङ्गीतनाटकाभिनयोत्सवाः ॥१३२।। शाश्वतेषु विमानेषु रम्यरत्नगृहाणि च । सर्वशक्तिभृतो नित्यं परिवारे च नाकिनः ॥१३३।। चतुर्भिः कलापकम्॥ आनुत्तरविमानं यद्यद् व्यन्तरपुरावधि । सुखं किमपि देवानां तत्कियत्कथ्यते गिरा ॥१३४॥ तच्छ्रुत्वा पुष्पचूलोचे यूयं वित्थ यदीदृशम् । स्वर्गा युष्माभिरपि किं स्वप्ने ददृशिरेऽखिलाः ॥१३५।। मुनिर्जगाद कल्याणि जिनागमसुधापिबाः । स्वःसुखानि वयं विद्मो विद्मो ज्ञेयान्तराण्यपि ॥१३६॥ प्रमाणं वचनं जैनमिति निश्चित्य राज्यथ । ऋषि पप्रच्छ भगवन् स्वर्गाप्तिः केन कर्मणा ॥१३७॥ सूरिरूचेऽर्हति देवे गुरौ साधौ च निश्चयः । यस्य संसारिणस्तस्य स्वर्गाप्तिर्न दवीयसी ॥१३८॥ पुनश्चारित्रधर्मे च मुनिना कथिते सति । सा राज्ञी लघुकर्मत्वाद्भवोद्विग्नैवमभ्यधात् ॥१३९।। भगवन्पतिमापृच्छ्य पादमूले तवैव हि । उपादास्ये परिव्रज्यां मानुष्यकतरोः फलम् ॥१४०॥ इत्युक्त्वा तमृषिं नत्वा पुष्पचूला विसृज्य च । आपप्रच्छे महीनाथं महीनाथोऽप्यदोऽवदत् ॥१४१॥ तदा त्वामनुमन्येऽहं व्रतार्थं वरवर्णिनि । ममैवौकसि चेद्भिक्षामादत्से व्रतिनी सती ॥१४२॥ तथेति प्रतिपेदाना दानं कल्पलतेव सा। अर्थिभ्यो ददती राज्ञा कृतनिष्क्रमणोत्सवा ॥१४३॥ स्त्रीचूलामणितां प्राप्ता पुष्पचूला महाशया । अनिकापुत्रपादान्ते गत्वा दीक्षामुपाददे ॥१४४॥ युग्मम् ॥ गुर्वादेशाध्वपथिकी सा शिक्षामाददेऽखिलाम् । सामाचारीप्रधानं हि तपः शुद्धात्मनामपि ॥१४५।। ज्ञात्वा भविष्यदुर्भिक्षमन्निकासूनुनान्यदा । गच्छो देशान्तरे प्रैषि स देशो यत्र जीव्यते ।।१४६।। द्वादशाब्दकमशिवं भावीति श्रुतसम्पदा । ज्ञात्वा गुरूपदेशाच्च गच्छोऽगच्छदथान्यतः ॥१४७।। जङ्घाबलपरिक्षीणास्तत्रैवास्थुस्तु सूरयः । विनापि हि परीवारमूरीकृतपरीषहाः ॥१४८॥ आनीयान्तःपुराद्भक्तपानादि प्रतिवासरम् । गुरवे पुष्पचूलादात्पित्रे पुत्रीव भक्तिभाक् ॥१४९॥ अनन्यमनसस्तस्या गुरूणां पर्युपासनात् । भावयन्त्याश्च संसारासारतामेव सर्वदा ॥१५०॥ अन्येद्युः पुष्पचूलाया Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि अपूर्वकरणक्रमात् । केवलज्ञानमुत्पेदे निदानं मुक्तिसम्पदः || १५१॥ युग्मम् ॥ पुष्पचूला तु सञ्जातकेवलापि विशेषतः । वैयावृत्यं गुरौश्चक्रे प्रोक्तो ह्यर्थोऽयमागमे ॥ १५२ ॥ पुरा ह्यभूत्प्रयुञ्जानः कृत्यं यो यस्य तस्य सः । केवल्यपि च कुर्वीत स यावद्वेत्ति तं न हि ॥ १५३ ॥ पुष्पचूला तु विज्ञाय केवलज्ञानसम्पदा । सर्वं सम्पादयाञ्चक्रे सूरिर्यद्यदचिन्तयत् ॥ १५४॥ | सूरिः पप्रच्छ तां साध्वीं वत्से वेत्सि कथं नु । ममाभिप्रायमेवं यत्सम्पादयसि चिन्तितम् || १५५ || उवाच पुष्पचूलापि प्रकृतिं वेद्मि वः खलु । यो यस्य नित्यमासन्नः प्रकृतिज्ञो हि तस्य सः ॥ १५६ ॥ सार्यिका पिण्डमानिन्येऽन्यदा वर्षति वारिदे । सूरिरूचे श्रुतज्ञासि वृष्ट्यां किमिदमर्हति ॥ १५७ ॥ साऽब्रवीद्यत्र मार्गेऽभूदप्कायोऽचित्त एव हि । तेनैवायासिषमहं प्रायश्चित्तागमो न ॥ १५८ ॥ अचित्ताप्कायमध्वानं कथं वेत्सीति सूरिणा । उदिते पुष्पचूलाख्यदुत्पन्नं मेऽस्ति केवलम् ॥ १५९ ॥ मिथ्या मे दुःकृतं केवल्याशातित इति ब्रुवन् । इत्यचिन्तयदाचार्यः सेत्स्यामि किमहं न वा ॥ १६०॥ केवल्यूचे मा कृषीवमधृतिं मुनिपुङ्गवाः । गङ्गामुत्तरतां वोऽपि भविष्यत्येव केवलम् ॥१६१ ॥ ततो गङ्गामुत्तरीतुं लोकेन सह सूरयः । तदैवारुरुहुर्भावं को हि स्वार्थमुपेक्षते ॥१६२ || निषसाद स आचार्यो यत्र यत्रापि नौटे । तत्र तत्र तटे सद्यः सा नौर्मङ्क्तुं प्रचक्रमे ॥१६३॥ नौमध्यदेशासीने च तस्मिन्नाचार्यपुङ्गवे । समन्तान्मतुमारेभे सा नौर इवाम्भसि ॥१६४॥ ततो नौस्थितलोकेन सूरिः सोऽक्षेपि वारिणि । शूले न्यधात्प्रवचनप्रत्यनीकामरी च तम् ॥१६५॥ शूलप्रोतोऽपि गङ्गान्तः सूरिरेवमचिन्तयत् । अहो वपुर्ममानेकप्राण्युपद्रवकारणम् ॥१६६॥ अप्कायादिदयासारं स सूरिर्भावयन्भृशम् । क्षपकश्रेणिमारूढोऽन्तकृत्केवल्यजायत ॥ १६७॥ तुरीयशुक्लध्यानस्थः सद्यो निर्वाणमाप सः । निर्वाणमहिमानं च तस्यासन्नाः सुरा व्यधुः || १६८ ॥ निर्वाणमहिमा तत्र देवैर्निर्मित इत्यभूत् । प्रयाग इति तत्तीर्थं प्रथितं त्रिजगत्यपि ॥१६९॥ करोटिरन्निकासूनोर्यादोभिर्मकरादिभिः । त्रोट्यमाना नदीतीरमानीयत जलोर्मिभिः ॥ १७० ॥ इतस्ततो लुलन्ती च शुक्तिकेव नदीतटे । प्रदेशे गुप्तविषमे तस्थौ क्वापि विलग्य सा ।। १७१ || करोटिकर्परस्यान्तस्तस्यान्यस्मिंश्च वासरे । न्यपतत्पाटलाबीजं दैवयोगेन केनचित् ॥ १७२ ॥ करोटिकर्परं भिन्दंस्तदीयाद्दक्षिणाद्धनो: । उद्गतः पाटलितरुर्विशालोऽयमभूत्क्रमात् ॥ १७३ ॥ | पाटालानुः पवित्रोऽयं महामुनिकरोटिभूः । एकावतारोऽस्य मूलजीवश्चेति विशेषतः || १७४ ॥ तदत्र पाटलितरोः प्रभावमवलम्ब्य च । दृष्ट्वा चाषनिमित्तं च नगरं सन्निवेश्यताम् ॥ १७५ ॥ एको नैमित्तिकश्चोचे सर्वनैमित्तिकाज्ञया । दातव्यमाशिवाशब्दं सूत्रं पुरनिवेशने ॥ १७६ ॥ प्रमाणं यूयमित्युक्त्वा तान्निमित्तविदो नृपः । अधिनगरनिवेशं सूत्रपातार्थमादिशत् ॥१७७॥ पाटलीं पूर्वतः कृत्वा पश्चिमां तत उत्तराम् । ततोऽपि च पुनः पूर्वां ततश्चापि हि दक्षिणाम् || १७८ | शिवाशब्दावधिं गत्वा तेऽथ सूत्रमपातयन् । चतुरस्रः सन्निवेशः पुरस्यैवमभूत्तदा ॥ १७९ ॥ युग्मम् ॥ तत्राङ्किते भूप्रदेशे नृपः पुरमकारयत् । तदभूत्पाटलीनाम्ना पाटलीपुत्रनामकम् ॥१८०॥। पुरस्य तस्य मध्ये तु जिनायतनमुत्तमम् । नृपतिः कारयामास शाश्वतायतनोपमम् ॥१८१॥ गजाश्वशालाबहुलं नृपप्रासादसुन्दरम् । विशालशालमुद्दामगोपुरं सौधबन्धुरम् ॥१८२॥ पण्यशाला ९ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि सत्त्रशाला-पौषधागारभूषितम् । भूभुजा तदलञ्चक्रे शुभेऽयुत्सवपूर्वकम् ॥१८३॥ युग्मम् ॥ राजा तत्राकरोद्राज्यमुदाय्युदयभाक् श्रिया । स्वं विक्रममिवाखण्डं तन्वानो धर्ममार्हतम् ॥१८४।। अर्हन्देवो गुरुः साधुर्धर्मश्चार्हत इत्यभूत् । देवतत्त्वं गुरुतत्त्वं धर्मतत्त्वं च तद्धृदि ॥१८५॥ चतुष्पर्ध्या चतुर्थादितपसा स्वं विशोधयन् । पौषधं पौषधागारे स जग्राह महामनाः ॥१८६॥ स धर्माबांधया क्षात्रमपि तेजः प्रभावयन् । आत्मनः सेवकांश्चक्रे तुर्योपायेन भूपतीन् ॥१८७॥ राजानोऽत्यन्तमाक्रान्तास्ते तु सर्वेऽप्यचिन्तयन् । यावज्जीवत्युदाय्येष तावद्राज्यसुखं न नः ॥१८८।। इतश्च राज्ञ एकस्यागसि कस्मिंश्चिदागते । आच्छेद्युदायिना राज्यं प्राज्यविक्रमवज्रिणा ॥१८९॥ आच्छिन्नराज्यो राजा स नश्यन्नेव व्यपद्यत । तत्सूनुरेकस्तु परिभ्रमन्नुज्जयिनीं ययौ ॥१९०॥ राज्यभ्रष्टकुमारस्तु सोऽवन्तीशमसेवत । अभूदसहनो नित्यमवन्तीशोऽप्युदायिनः ॥१९१॥ स सेवको राजपुत्रस्तं राजानं व्यजिज्ञपत् । उदायिनमहं देव साधयामि त्वदाज्ञया ॥१९२।। त्वया तु मे द्वितीयेन भाव्यमव्यभिचारिणा । को हि प्राणांस्तृणीकृत्य साहसं कुरुते मुधा ॥१९३।। तथेति प्रतिपेदानेऽवन्तिनाथे स राजसूः । जगाम पाटलीपुत्रं सेवकोऽभूदुदायिनः ॥१९४॥ उदायिनृपतेर्नित्यं छिद्रमालोकयन्नपि । व्यन्तरो मान्त्रिकस्येव दुरात्मा नाससाद सः ॥१९५।। उदायिनस्तु परमार्हतस्यौकसि सर्वदा । अस्खलद्गमनाङ्जैनमुनीनेव ददर्श सः । उपाददे परिव्रज्यां सूररेकस्य सन्निधौ ॥१९७॥ माययाप्यनतीचारं स व्रतं पालयन्मुनीन् । तथा ह्याराधयत्ते हि यथा तन्मयतां ययुः ॥१९८॥ दम्भप्रधानं श्रामण्यं न तस्यालक्षि केनचित् । सुप्रयुक्तस्य दम्भस्य ब्रह्माप्यन्तं न गच्छति ॥१९९॥ उदायी त्वाददेऽष्टम्यां चतुर्दश्यां च पौषधम् । अवात्सुः सूरयो धर्मकथार्थं च तदन्तिके ॥२००॥ अन्यदा पौषधदिने विकाले ते तु सूरयः । प्रति राजकुलं चेलुर्मायावी यैः स दीक्षितः ॥२०१।। गृह्यतामुपकरणं यामो राजकुले वयम् । भोः क्षुल्लकेत्यभिदधुः ससंरम्भं च सूरयः ॥२०२।। स एव मायाश्रमण: कुर्वाणो भक्तिनाटितम्। उपादायोपकरणान्यग्रेऽभूच्छललिप्सया ॥२०३।। चिरसङ्गोपितां कङ्कमयीमादाय कर्बिकाम् । प्रच्छन्नां धारयामास स जिघांसुरुदायिनम् ॥२०४।। चिरपवजितस्यास्य शमः परिणतो भवेत । इति तेनैव सहितः सरी राजकलं ययौ ॥२०५॥ धर्ममाख्याय सुषुपुः सूरयः पार्थिवोऽपि हि । स्वाध्यायखिन्नः सुष्वाप प्रतिलिख्य महीतलम् ॥२०६॥ दुरात्मा जाग्रदेवास्थात्स मायाश्रमणः पुनः । निद्रापि नैति भीतेव रौद्रध्यानवतां नृणाम् ॥२०७॥ स मायाश्रमणो राज्ञः सुप्तस्य गलकन्दले । तां कर्चिकां लोहमयीं यमजिह्वोपमां न्यधात् ॥२०८॥ कण्ठो राज्ञस्तयाऽकर्ति कदलीकाण्डकोमलः । निर्ययौ च ततो रक्तं घटकण्ठादिवोदकम् ॥२०९॥ कायचिन्तामिषेणाथ स पापिष्ठस्तदैव हि । निर्जगाम यतिरिति यामिकैरप्यजल्पितः ॥२१०॥ राज्ञस्तेनासृजा सिक्ताः प्रबुद्धाः सूरयोऽपि हि । मूर्धानं ददृशुः कृत्तं निर्नालकमलोपमम् ॥२११।। सूरिस्तं व्रतिनं तत्रापश्यन्निदमचिन्तयत् । नूनं तस्यैव कर्मैतद् व्रतिनो यो न दृश्यते ॥२१२॥ किमकृत्यमकार्षी रे धर्माधारो महीपतिः । यद् व्यनाश्यथ मालिन्यं कृतं प्रवचनस्य च ॥२१३॥ मयेदृग्दीक्षितो दृष्टोऽत्रानीतश्च महात्मना । तन्मत्कृतं प्रवचनमालिन्यमिदमागतम् ॥२१४॥ तदहं दर्शनम्लानिं रक्षाम्यात्मव्ययादहम् । राजा गुरुश्च केनापि Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि हतावित्यस्तु लोकगीः ॥२१५॥ ततश्च भवचरमप्रत्याख्यानं विधाय सः । तां कङ्ककत्रिकां कण्ठे दत्वा सूरिर्व्यपद्यत ॥२१६॥" - परिशिष्टपर्वणि ॥ [पृ०३०७ पं०२५] कालशौकरिककथा योगशास्त्रस्वोपज्ञवृत्त्यादिषु वर्तते । [पृ०३१०] "सच्चा हिया सयामिह संतो मुणओ गुणा पयत्था वा । तव्विवरीआ मोसा मीसा जा तदुभयसहावा ॥३७६॥ अणहिमया जा तीसु वि सद्दो च्चिय केवलो असच्चमुसा। एया सभेयलक्खण सोदाहरणा जहा सुत्ते ॥३७७।। इह सद्भयो हिताऽऽराधिका यथावस्थितवस्तुप्रत्यायनफला च सत्या भाषा प्रोच्यते । तत्र के सन्त उच्यन्ते येषां सा हिता ?, इत्याह- सन्त इह मुनयः साधव उच्यन्ते, तेभ्यो हिता- इह-परलोकाराधकत्वेन मुक्तिप्रापिकेत्यर्थः, अथवा सन्तो मूलोत्तरगुणरूपा गुणाः, पदार्था वा जीवादयः प्रोच्यन्ते, तेभ्योऽसौ हिता अविपरीतयथावस्थितस्वरूपप्ररूपणेन सत्या । विपरीतस्वरूपा तु मृषाभाषाऽभिधीयते । मिश्रा तु सत्यामृषा । का ?, इत्याह- या तदुभयस्वभावा सत्या-मृषात्मिकेति। या पुनः सत्या-मृषोभयात्मकासूक्तलक्षणासु तिसृष्वपि भाषास्वनधिकृता तल्लक्षणानन्त विनी, आमन्त्रणाज्ञापनादिविषयो व्यवहारपतितः शब्द एव केवलः, साऽसत्यमृषा चतुर्थी भाषा । एताश्चतस्रोऽपि भाषाः सभेदाः सलक्षणाः सोदाहरणाश्च यथा दशवैकालिकसूत्र- निर्युक्त्यादिकसूत्रे आगमे भणितास्तथा तत्रैव बोद्धव्याः; इह तु भाषाद्रव्यग्रहण-निसर्गादिविचारस्यैव प्रस्तुतत्वात् ॥ इति गाथाद्वयार्थः ॥३७६३७७॥" - विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ०३११ पं०१२] ऋषभप्रभोः चरितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते प्रथमे पर्वणि द्रष्टव्यम्, अन्येष्वपि ग्रन्थेषु वर्तते । [पृ०३११ पं०१४-१६] “राया आइच्चजसो महाजसे अइबले य बलभद्दे । बलविरिए कत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए य ॥” - आव० नि० ३६३ । “अथ विश्वम्भराभारं सोढुर्भरतजन्मनः । राज्याभिषेकमकरोदादित्ययशसो हरिः ॥७४६।।'- त्रिषष्टि० १६।७४६॥ भरतादादित्ययशास्ततश्चासीद् महायसाः । अतिबलो बलभद्रो बलवीर्यस्ततोऽपि च ॥२५१॥ कीर्तिवीर्यो जलवीर्यो दण्डवीर्यस्ततोऽष्टमः। इत्यष्टौ पुरुषान् यावदाचारोऽयं प्रवृत्तवान् ॥२५२॥"- त्रिषष्टि० १।६।२५१-२५२॥ । [पृ०३११ पं०१७-२०] कण्डरीककथा ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रस्य प्रथमे श्रुतस्कन्धे एकोनविंशतितमेपुण्डरीकज्ञातेऽध्ययने अन्यत्रापि च बहुषु ग्रन्थेषु वर्तते । “सिंहगिरि-वज्रस्वामि-शय्यम्भव-यशोभद्र-भद्रबाहुस्वामि-स्थूलभद्रचरितं परिशिष्टपर्वणि वर्तते ग्रन्थान्तरेषु च । कूलवालकचरितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते दशमे पर्वणि वर्तते ॥ (पृ०३१६] “वेगच्छिया य पट्टो, कंचुकमुक्कच्छियं च छादेति । संघाडीओ चउरो, तत्थ दुहत्था उ वसधीए ॥४०८९॥ औपकक्षिकीविपरीतो वैकक्षिकीनामकः पट्टः कञ्चकमौपकक्षिकी च छादयन् वामपार्श्वे परिधीयते । तथोपरि परिभोग्याः सयाटिकाश्चतस्रो भवन्ति- एका द्विहस्ता, Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि द्वे त्रिहस्ते, एका च चतुर्हस्ता, दैर्येण चतम्रोऽपि सार्धहस्तत्रयप्रमाणाश्चतुर्हस्ता वा मन्तव्याः । तत्र द्विहस्ता द्विहस्तविस्तृता सङ्घाटिका वसत्यां परिधीयते, न तां विहाय प्रकटदेहया कदाचिदासितव्यमिति भावः ॥४०८९।। दुनि तिहत्थायामा, भिक्खट्ठा एग एग उच्चारे । ओसरणे चउहत्थाऽनिसन्नपच्छाइणी मसिणा ॥४०९०॥ ये च द्वे त्रिहस्तायामे त्रिहस्तविस्तृते तयोर्मध्ये एका भिक्षार्थं गच्छन्त्या प्राव्रियते, एका उच्चारभूमिं व्रजन्त्या । तथा समवसरणे व्याख्यानश्रवणादौ गच्छन्ती चतुर्हस्तां प्रावृणोति, सा च प्राक्तनसङ्घाटीभ्यो बृहत्तरप्रमाणा अनिषण्णप्रच्छादनार्थं क्रियते; यतो न तत्र संयतीभिरुपवेष्टव्यम्, किन्तूर्द्धस्थिताभिरनुयोगश्रवणादि विधेयम्, ततस्तया स्कन्धादारभ्य पादौ यावद् वपुः प्रच्छाद्य तिष्ठन्ति। एताश्च पूर्वप्रावृतवेषप्रच्छादनार्थं प्रवचनवर्णप्रभावनार्थं च मसृणाः क्रियन्ते । चतम्रोऽपि च गणनाप्रमाणेनैकमेव रूपं गण्यते, युगपत् परिभोगाभावात् ॥४०९०॥" - बृहत्कल्पटीका । [पृ०३१७] “इत्थं ध्यानलक्षणमोघतोऽभिधायाधुना ध्यानमेव कालस्वामिभ्यां निरूपयन्नाहअंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥३॥ व्या० इह मुहूर्तः सप्तसप्ततिलवप्रमाणः कालविशेषो भण्यते, उक्तं च- कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखेजा भवंति ऊसासनीसासा ॥१॥ हट्ठस्स अणवगल्लस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ ॥२॥ सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥३॥ [ ] अन्तर्मध्यकरणे, ततश्चान्तर्मुहूर्तमानं कालमिति गम्यते, मात्रशब्दस्तदधिककालव्यवच्छेदार्थः, ततश्च भिन्नमुहूर्तमेव कालम्, किम् ? चित्तावस्थानमिति चित्तस्य मनसः अवस्थानं चित्तावस्थानम्, अवस्थिति: अवस्थानम्, निष्प्रकम्पतया वृत्तिरित्यर्थः, क्व ? एकवस्तुनि एकम् अद्वितीयं वसन्त्यस्मिन् गुणपर्याया इति वस्तु चेतनादि, एकं च तद्वस्तु एकवस्तु तस्मिन् एकवस्तूनि छद्मस्थानां ध्यानमिति, तत्र छादयतीति छद्म पिधानं तच्च ज्ञानादीनां गुणानामावारकत्वाज्ज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्म, छद्मनि स्थिताश्छद्मस्था अकेवलिन इत्यर्थः, तेषां छद्मस्थानाम्, ध्यानं प्राग्वत्, ततश्चायं समुदायार्थः- अन्तर्मुहूर्तकालं यच्चित्तावस्थानमेकस्मिन् वस्तुनि तच्छद्मस्थानां ध्यानमिति, योगनिरोधो जिनानां त्विति तत्र योगा:तत्त्वत औदारिकादिशरीरसंयोगसमुत्था आत्मपरिणामविशेषव्यापारा एव, यथोक्तम्- 'औदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिविशेष: काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्य-समूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोगः' [ ] इति, अमीषां निरोधो योगनिरोधः, निरोधनं निरोधः, प्रलयकरणमित्यर्थः, केषाम् ?- जिनानां केवलिनाम्, तुशब्द एवकारार्थः स चावधारणे, योगनिरोध एव न तु चित्तावस्थानम्, चित्तस्यैवाभावाद्, अथवा योगनिरोधो जिनानामेव ध्यानं नान्येषाम्, अशक्यत्वादित्यलं विस्तरेण, यथा चायं योगनिरोधो Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि जिनानां ध्यानं यावन्तं च कालमेतद्भवत्येतदुपरिष्टाद्वक्ष्याम इति गाथार्थः ॥३॥" - ध्यानशतक० हारि०। पृ०३१८] “अमणुण्णाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स। धणियं विओगचिंतणमसंपओगाणुसरणं च ॥६॥ व्या० अमनोज्ञानामिति मनसोऽनुकूलानि मनोज्ञानि इष्टानीत्यर्थः, न मनोज्ञानि अमनोज्ञानि, तेषाम्, केषामित्यत आह- शब्दादिविषयवस्तूनामिति, शब्दादयश्च ते विषयाश्च, आदिग्रहणाद्वर्णादिपरिग्रहः, विषीदन्ति एतेषु सक्ताः प्राणिन इति विषया इन्द्रियगोचरा वा, वस्तूनि तु तदाधारभूतानि रासभादीनि, ततश्च- शब्दादिविषयाश्च वस्तूनि चेति विग्रहस्तेषाम्, किम् ? सम्प्राप्तानां सतां धणियं अत्यर्थं वियोगचिन्तनं विप्रयोगचिन्तेति योगः, कथं नु नाम ममैभिर्वियोग: स्यादिति भावः ?, अनेन वर्तमानकालग्रहः, तथा सति च वियोगेऽसम्प्रयोगानुस्मरणम्, कथमेभिः सदैव सम्प्रयोगाभाव इति ?, अनेन चानागतकालग्रहः, चशब्दात् पूर्वमपि वियुक्तासम्प्रयुक्तयोर्बहुमतत्वेनातीतकालग्रह इति, किंविशिष्टस्य सत इदं वियोगचिन्तनाद्यत आह- 'द्वेषमलिनस्य' जन्तोरिति गम्यते, तत्राप्रीतिलक्षणो द्वेषस्तेन मलिनस्य तदाक्रान्तमूर्तेरिति गाथार्थः ॥६॥ ____ उक्तः प्रथमो भेदः, साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह- तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विजोगपणिहाणं। तदसंपओगचिंता तप्पडियाराउलमणस्स ॥७॥ व्या० तथेति धणियम् अत्यर्थमेव, शूलशिरोरोगवेदनाया इत्यत्र शूल-शिरोरोगौ प्रसिद्धौ, आदिशब्दात् शेषरोगातङ्कपरिग्रहः । ततश्च शूलशिरोरोगादिभ्यो वेदना शूलशिरोरोगादिवेदना, वेद्यत इति वेदना तस्याः, किम् ? वियोगप्रणिधानम्, वियोगे दृढाध्यवसाय इत्यर्थः, अनेन वर्तमानकालग्रहः, अनागतमधिकृत्याह- तदसम्प्रयोगचिन्तेति तस्याः वेदनायाः कथञ्चिदभावे सत्यसम्प्रयोगचिन्ताः, कथं पुनर्ममानया आयत्यां सम्प्रयोगो न स्यादिति ?, चिन्ता चात्र ध्यानमेव गृह्यते, अनेन च वर्तमानानागतकालग्रहणेनातीतकालग्रहोऽपि कृत एव वेदितव्यः, तत्र च भावनाऽनन्तरगाथायां कृतैव, किंविशिष्टस्य सत इदं वियोगप्राणिधानाद्यत आह- तत्प्रतिकारे वेदनाप्रतिकारे चिकित्सायामाकुलं व्यग्रं मनः अन्तःकरणं यस्य स तथाविधस्तस्य, वियोगप्रणिधानाद्यार्तध्यानमिति गाथार्थः ॥७॥ ___ उक्तो द्वितीयो भेदः, साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयन्नाह- इट्ठाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स। अवियोगऽज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ॥८॥ व्या० इष्टानां मनोज्ञानां विषयादीनामिति विषया:पूर्वोक्ताः आदिशब्दाद् वस्तुपरिग्रहः, तथा वेदनायाश्च इष्टाया इति वर्तते, किम् ? अवियोगाध्यवसानमिति योगः, अविप्रयोगदृढाध्यवसाय इति भावः । अनेन वर्तमानकालग्रहः, तथा संयोगाभिलाषश्चेति तत्र 'तथेति' धणियमित्यनेनात्यर्थप्रकारोपदर्शनार्थः, संयोगाभिलाष:- कथं ममैभिर्विषयादिभिरायत्यां सम्बन्ध इतीच्छा, अनेन किलानागतकालग्रह इति वृद्धा व्याचक्षते, चशब्दात् पूर्ववदतीतकालग्रह इति, किंविशिष्टस्य सत इदमवियोगाध्यवसानाद्यत आह- रागरक्तस्य, जन्तोरिति Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि गम्यते, तत्राभिष्वङ्गलक्षणो रागस्तेन रक्तस्य तद्भावितमूर्तेरिति गाथार्थः ॥८॥ उक्तस्तृतीयो भेदः, साम्प्रतं चतुर्थमभिधित्सुराह - देविंदचक्कवट्टित्तणाइ गुणरिद्धिपत्थणमईयं । अहमं नियाणचिंतणमण्णाणाणु गयमच्वंतं ॥९॥ व्या० दीव्यन्तीति देवाः भवनवास्यादयस्तेषामिन्द्राः प्रभवो देवेन्द्राः चमरादयः, तथा चक्रं प्रहरणं तेन विजयाधिपत्ये वर्तितुं शीलमेषामिति चक्रवर्तिनो भरतादयः, आदिशब्दाद्बलदेवादिपरिग्रहः अमीषां गुणऋद्धयः देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिगुणर्द्धयः, तत्र गुणाः सुरूपादयः ऋद्धिस्तु विभूतिः, तत्प्रार्थनात्मकं तद्याच्ञायामयमित्यर्थः, किं तद् ? अधर्मं जघन्यं निदानचिन्तनं निदानाध्यवसायः, अहमनेन तपस्त्यागादिना देवेन्द्रः स्यामित्यादिरूपः, आह- किमितीदमधमम् ?, उच्यते यस्मादज्ञानानुगतमत्यन्तम्, तथा च नाज्ञानिनो विहाय सांसारिकेषु सुखेष्वन्येषामभिलाष उपजायते, उक्तं च अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते, कामे सक्तिं दधति विभवाभोगतुङ्गार्जने वा । विद्वच्चित्तं भवति च महत् मोक्षकाङ्क्षैकतानं नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यंसभित्तिं गजेन्द्रः ॥ १ ॥ [ ] इति गाथार्थः ॥९॥ १४ आह- कथं पुनरोघत एवाऽऽर्त्तध्याता ज्ञायत इति ?, उच्यते, लिङ्गेभ्यः, तान्येवोपदर्शयन्नाहतस्सऽक्कंदणसोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई । इट्ठाणिट्ठविओगाविओगवियणानिमित्ताइं ॥ १५॥ व्या० तस्य आर्तध्यायिनः आक्रन्दनादीनि लिङ्गानि, तत्राऽऽक्रन्दनं महता शब्देन विरवणम्, शोचनं त्वश्रुपरिपूर्णनयनस्य दैन्यम्, परिदेवनं पुनः पुनः क्लिष्टभाषणम्, ताडनम् उरः शिरः कुट्टन - केशलुञ्चनादि, एतानि लिङ्गानि चिह्नानि, अमूनि च इष्टानिष्टवियोगावियोगवेदनानिमित्तानि, तत्रेष्टवियोगनिमित्तानि तथाऽनिष्टावियोगनिमित्तानि तथा वेदनानिमित्तानि चेति गाथार्थः || १५ || ” - ध्यानशतक० हारि० । [पृ०३१९] “किं चान्यत्- निंदइ य नियकयाइं पसंसइ सविम्हओ विभूईओ | पत्थे तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होइ ।। १६ ।। व्या० निन्दति च कुत्सति च निजकृतानि आत्मकृतानि अल्पफल-विफलानि कर्म - शिल्प - कला - वाणिज्यादीन्येतद् गम्यते, तथा प्रशंसति स्तौति बहु मन्यते सविस्मयः साश्चर्यः विभूती: परसम्पद इत्यर्थः, तथा प्रार्थयते अभिलषति परविभूतीरिति, तासु रज्यते ताविति प्राप्तासु विभूतिषु रागं गच्छति, तथा तदर्जनपरायणो भवति तासां विभूतीनामर्जने उपादाने परायण उद्युक्तः तदर्जनपरायण इति, ततश्चैवम्भूतो भवति, असावप्यार्तध्यायीति गाथार्थः ॥१६॥ सत्तवहवेहबंधणडहणंकणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गहघत्थं निग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥ १९ ॥ ।' व्या० सत्त्वा एकेन्द्रियादयः तेषां वध-वेध बन्धन - दहना-ङ्कनमारणादिप्रणिधानम्, तत्र वधः ताडनं करकशलतादिभिः, वेधस्तु नासिकादिवेधनं कीलिकादिभिः, बन्धनं संयमनं रज्जु-निगडादिभिः, दहनं प्रतीतमुल्मुकादिभिः, अङ्कनं लाञ्छनं श्व-शृगालचरणादिभिः, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि मारणं प्राणवियोजनमसि - शक्ति - कुन्तादिभिः, आदिशब्दादागाढपरितापन - पाटनादिपरिग्रहः, एतेषु प्रणिधानम् अकुर्वतोऽपि करणं प्रति दृढाध्यवसानमित्यर्थः, प्रकरणाद् रौद्रध्यानमिति गम्यते, किंविशिष्टं प्रणिधानम् ?- अतिक्रोधग्रहग्रस्तम् अतीवोत्कटो यः क्रोधः रोषः स एवापायहेतुत्वाद् ग्रह ग्रहस्तेन ग्रस्तम् अभिभूतम्, क्रोधग्रहणाच्च मानादयो गृह्यन्ते, किंविशिष्टस्य सत इदमित्यत आहनिर्घृणमनसः, निर्घृणं निर्गतदयं मनः चित्तमन्तः करणं यस्य स निर्घृणमनास्तस्य, तदेव विशेष्यतेअधमविपाकमिति अधम: जघन्यो नरकादिप्राप्तिलक्षणो विपाकः परिणामो यस्य तत्तथाविधमिति गाथार्थः ॥१९॥ उक्तः प्रथमो भेदः, साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह- पिसुणासब्भासन्भूयभूयघायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोऽइसंधणपरस्स पच्छन्नपावस्स ||२०|| व्या० पिशुना ऽसभ्या-‍ T-Sसद्भूतभूतघातादिवचनप्रणिधानमित्यत्रानिष्टस्य सूचकं पिशुनमनिष्टसूचकं 'पिशुनं सूचकं विदुः ' [ ] इति वचनात्, सभायां साधु सभ्यं न सभ्यमसभ्यं जकारमकारादि, न सद्भूतमसद्भूतमनृतमित्यर्थः, तच्च व्यवहारनयदर्शनेनोपाधिभेदतस्त्रिधा तद्यथा- अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवोऽर्थान्तराभिधानं चेति, तत्राभूतोद्भावनं यथा सर्वगतोऽयमात्मेत्यादि, भूतनिह्नवस्तु नास्त्येवात्मेत्यादि, गामश्वमित्यादि ब्रुवतोऽर्थान्तराभिधानमिति, भूतानां सत्त्वानामुपघातो यस्मिन् तद्भूतोपघातं छिन्द्धि भिन्द्धि व्यापादय’ इत्यादि, आदिशब्दः प्रतिभेदं स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, यथा पिशुनमनेकधाऽनिष्टसूचकमित्यादि, तत्र पिशुनादिवचनेष्वप्रवर्तमानस्यापि प्रवृत्तिं प्रति प्रणिधानं दृढाध्यवसानलक्षणम्, रौद्रध्यानमिति प्रकरणाद्गम्यते, किंविशिष्टस्य सत इत्यत आह- माया निकृतिः साऽस्यास्तीति मायावी, तस्य मायाविनो वणिजादेः, तथा अतिसन्धानपरस्य परवञ्चनाप्रवृत्तस्य, अनेनाशेषेष्वपि प्रवृत्तिमप्या (स्या ) ह, तथा प्रच्छन्नपापस्य कूटप्रयोगकारिणस्तस्यैव, अथवा धिग्जातिककुतीर्थिकादेरसद्भूतगुणं गुणवन्तमात्मानं ख्यापयतः, तथाहि- गुणरहितमप्यात्मानं यो गुणवन्तं ख्यापयति न तस्मादपरः प्रच्छन्नपापोऽस्तीति गाथार्थः ॥२०॥ उक्त द्वितीयो भेदः, साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयति- तह तिव्वकोहलोहाउलस्स भूओवघायणमणज्जं । परदव्वहरणचित्तं परलोयावायनिरवेक्खं ||२१|| व्या० तथाशब्दो दृढाध्यवसायप्रकारसादृश्योपदर्शनार्थः, तीव्रौ उत्कटौ तौ क्रोधलोभौ च तीव्रक्रोधलोभौ ताभ्यामाकुलः अभिभूतस्तस्य, जन्तोरिति गम्यते, किम् ? भूतोपहननमनार्यमिति हन्यतेऽनेनेति हननम्, उप सामीप्येन हननम् उपहननम्, भूतानामुपहननं भूतोपहननम्, आराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यम्, नाऽऽर्यमनार्यम्, किं तदेवंविधमित्यत आह- परद्रव्यहरणचित्तम्, रौद्रध्यानमिति गम्यते, परेषां द्रव्यं सचित्तादि तद्विषयं हरणचित्तं परद्रव्यहरणचित्तम्, तदेव विशेष्यते किम्भूतं तदित्यत आह- परलोकापायनिरपेक्षमिति, तत्र परलोकापायाः नरकगमनादयस्तन्निरपेक्षमिति गाथार्थः ॥ २१॥ उक्तस्तृतीयो भेदः, साम्प्रतं चतुर्थं भेदमुपदर्शयन्नाह - सद्दाइविसयसाहणधण A-27 १५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि सारक्खणपरायणमणिटुं । सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥२२॥ व्या० शब्दादयश्च ते विषयाश्च शब्दादिविषयास्तेषां साधनं कारणं शब्दादिविषयसाधनं च तद्धनं च शब्दादिविषयसाधनधनं तत्संरक्षणे तत्परिपालने परायणम् उद्युक्तमिति विग्रहः, तथाऽनिष्टं सतामनभिलषणीयमित्यर्थः, इदमेव विशेष्यते-सर्वेषामभिशङ्कनेनाऽकुलमिति संबध्यते- न विद्मः कः किं करिष्यतीत्यादिलक्षणेन, तस्मात् सर्वेषां यथाशक्त्योपघात एव श्रेयानित्येवं परोपघातेन च, तथा कलुषयन्त्यात्मानमिति कलुषाः कषायास्तैराकुलं व्याप्तं यत् तत् तथोच्यते, चित्तम् अन्तःकरणम्, प्रकरणाद्रौद्रध्यानमिति गम्यते, इह च शब्दादिविषयसाधनं धनविशेषणं किल श्रावकस्य चैत्यधनसंरक्षणे न रौद्रध्यानमिति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥२२॥" - ध्यानशतक० हारि० । [पृ०३२०] “तत्राज्ञाविचया-ऽपायविचययोः स्वरूपनिरूपणायाह- आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञाविचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आश्रवविकथागौरवपरीषहाद्येष्वपायस्तु ॥२४८॥ टीका- आप्तः क्षीणाशेषरागद्वेषमोहस्तस्य वचनं प्रवचनम् अलीकादिशंकादिरहितं द्वादशाङ्गमागमः । तस्याः खल्वाज्ञायाः सर्वज्ञदत्ताया विचयो गवेषणं गुणवत्त्वेन निर्दोषत्वेन च । तस्यार्थः प्रवचनस्य निर्णयनं विनिश्चयः । सर्वाश्रवद्वारनिरोधैकरसत्वाद् गुणयुक्तम् । न कश्चिद्दोषोऽस्तीति । आज्ञाविचयोऽभ्यासः सूत्रार्थविषयः। आश्रवाः कायवाग्मनांसि । विकथा स्री-भक्त-चौर-जनपदविषयाः । गौरवमृद्धि-सात-रसाख्यं त्रिधा। परीषहाः क्षुत्पिपासादयः । आदिग्रहणादगुप्तत्वमसमितत्वं च । एतेषु वर्तमानस्य जन्तोरपायबहुत्वं नारकतिर्यक्त्वदेवमानुषजन्मसु प्रायेण प्रत्यवायाः संभवन्ति भूयांस इति पश्चार्धेन निरूपितमपायविचयम् ॥२४८॥ __ तृतीय-चतुर्थभेदयोर्निरूपणायाह- अशुभशुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विपाकविचय: स्यात् । द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु ॥२४९॥ टीका- अशुभं शुभं च कर्म द्वयोः कोट्योः वर्तते, तस्य पाको विपाकोऽनुभवो रस इत्यर्थः । तस्यानुचिन्तनं प्रयोजनमशुभानां कर्माशानामयं विपाकः शुभानां चायमिति । संसारभाजां जीवानां तदन्वेषणं विपाकविचयः । द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमवान्, धर्मो द्रव्यमधर्मश्च, तो लोकपरिणामौ तयोः संस्थानं लोकाकाशस्यैव । तत्राधोमुखमल्लक इत्यादावुक्तम् । पुद्गलद्रव्यमनेकाकारमचित्तमहास्कन्धश्च सर्वलोकाकारः । जीवोऽप्यनेकाकारः शरीरादिभेदेन यावल्लोकाकारः समुद्घातकाले । कालोऽपि यदा क्रियामानं द्रव्यपर्यायः तदा द्रव्याकार एव । यदा तु स्वतन्त्रं कालद्रव्यं तदैकसमयोऽर्धतृतीयद्वीपसमुद्राकृतिरित्येकसंस्थानविचयः ॥२४९॥" - प्रशमरति० टीका। “आगमउवएसाणाणिसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंगं ॥६७॥ व्या० इहागमोपदेशाज्ञानिसर्गतो यद् जिनप्रणीतानां तीर्थकरप्ररूपितानां द्रव्यादिपदार्थानां श्रद्धानम् अवितथा एत इत्यादिलक्षणं धर्मध्यानस्य तल्लिङ्गम्, तत्त्वश्रद्धानेन लिङ्ग्यते धर्मध्यायीति, इह चाऽऽगमः सूत्रमेव, तदनुसारेण कथनम् उपदेशः, आज्ञा त्वर्थः, निसर्गः स्वभाव इति गाथार्थः ॥६७॥" - ध्यानशतक० हारि० । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ० ३२१] “अशरणभावनामधिकृत्याह- जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥१५२॥ टीका- जन्मोत्पत्तिः । जरा वयोहानिः। मरणं प्राणपरित्यागः । एभ्यो भयानि तैरभिद्रुतेऽभिभूते । व्याधयो ज्वरातीसारहृद्रोगादयः । वेदना: शरीरजा मनोभवाश्च । व्याधिवेदनाग्रस्त व्याधिवेदनाभिर्गृहीते लोके प्राणिसमूहे । जिनवरा जिनप्रधानास्तीर्थकरा इत्यर्थः । तेषां वचनं वाग्योगस्तत्प्रतिपादितोऽर्थस्तमादाय क्षायोपशमिकभाववर्तिभिर्गणधरैर्दृब्धं द्वादशाङ्गं प्रवचनम्, तन्मुक्त्वाऽन्यत्र नास्ति शरणं त्राणमिति ॥१५२॥ संसारभावनामधिकृत्याह- माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति सुत: पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ॥१५६॥ टीका- संसारे परिभ्रमतां सत्त्वानां माता भूत्वा भूयः सैव दुहिता भवति, सैव च पुनर्भार्या, सैव च संसृतौ परिवर्तमाना जामिरपि भवति । तथा पुत्रो भूत्वा पिता भवति । स एव सुतः पुनर्भ्रातृत्वमायाति । स एव च पुनः सपत्नो भवतीत्येवमाजवंजवीभावे प्राये संसारे सर्वसत्त्वाः पितृत्वेन मातृत्वेन पुत्रत्वेन शत्रुत्वेन चेत्यादिना संबन्धेन कृतसंबन्धा बभूवुरिति ॥१५६॥" - प्रशमरति० टीका । “उप्पायट्ठिइभंगाइपजयाणं जमेगवत्थुम्मि । नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं ॥७७॥ व्या० उत्पादस्थितिभङ्गादिपर्यायाणाम्, उत्पादादयः प्रतीताः, आदिशब्दान्मूर्तामूर्तग्रहः, अमीषां पर्यायाणां यदेकस्मिन् द्रव्ये अण्वात्मादौ, किम् ? नानानयैः द्रव्यास्तिकादिभिरनुस्मरणं चिन्तनम्, कथम् ? पूर्वगतश्रुतानुसारेण पूर्वविदः, मरुदेव्यादीनां त्वन्यथा ॥ तत्किमित्याहसवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं पढमसुक्कं । होइ पुहुत्तवितक्कं सवियारमरागभावस्स ॥७८॥ व्या० सविचारं सह विचारेण वर्तत इति सविचारम्, विचारः अर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रम इति, आह च- अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः, अर्थः द्रव्यं व्यञ्जनं शब्दः योग: मनःप्रभृति, एतदन्तरत: एतावद्भेदेन सविचारम्, अर्थाद्व्यञ्जनं सङ्क्रामतीति विभाषा, तकम् एतत् प्रथमं शुक्लम् आद्यशुक्लं भवति, किंनामेत्यत आह- पृथक्त्ववितर्क सविचारम्, पृथक्त्वेन भेदेन, विस्तीर्णभावेनान्ये, वितर्कः श्रुतं यस्मिन् तत्तथा, कस्येदं भवतीत्यत आह- अरागभावस्य रागपरिणामरहितस्येति गाथार्थः ॥७८॥" - ध्यानशतक० हारि० । [पृ०३२२] "जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायठिइभंगाइयाणमेगम्मि पज्जाए ॥७९॥ व्या० यत्पुनः सुनिष्प्रकम्पं विक्षेपरहितं निवातशरणप्रदीप इव निर्गतवातगृहैकदेशस्थदीप इव चित्तम् अन्तःकरणम्, क्व ? उत्पादस्थितिभङ्गादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥७९॥ ततः किमत आह- अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ तयं बितियसुक्कं । पुव्वगयसुयालंबणमेगत्तवितक्कमवियारं ॥८०॥ व्या० अविचारम् असङ्क्रमम्, कुतः ?अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः इति पूर्ववत्, तमेवंविधं द्वितीयं शुक्लं भवति, किमभिधानमित्यत आहएकत्ववितर्कमविचारम्, एकत्वेन अभेदेन वितर्कः व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तत्तथा, इदमपि Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि च पूर्वगतश्रुतानुसारेणैव भवति, अविचारादि पूर्ववदिति गाथार्थः ॥८०॥ निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियटिं तइयं तणुकायकिरियस्स ॥८१॥ व्या० निर्वाणगमनकाले मोक्षगमनप्रत्यासन्नसमये केवलिनः सर्वज्ञस्य मनोवाग्योगद्वये निरुद्ध सति अर्द्धनिरुद्धकाययोगस्य, किम् ?- सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति सूक्ष्मा क्रिया यस्य तत्तथा सूक्ष्मक्रियं च तदनिवर्ति चेति नाम, निवर्तितुं शीलमस्येति निवर्ति प्रवर्द्धमानतरपरिणामात् न निवर्ति अनिवर्ति तृतीयम्, ध्यानमिति गम्यते, तनुकायक्रियस्ये ति तन्वी उच्छ्वासनिःश्वासादिलक्षणा कायक्रिया यस्य स तथाविधस्तस्येति गाथार्थः ॥८१॥ तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलो व्व णिप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइ ज्झाणं परमसुक्कं ॥८२॥ व्या० तस्यैव च केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलेशी प्राग्वर्णिता तां प्राप्तस्य, किंविशिष्टस्य ?- निरुद्धयोगत्वात् शैलेश इव निष्प्रकम्पस्य मेरोरिव स्थिरस्येत्यर्थः, किम् ? व्यवच्छिन्नक्रियं योगाभावात् तद् अप्रतिपाति अनुपरतस्वभावमिति, एतदेव चास्य नाम ध्यानं परमशुक्लं प्रकटार्थमिति गाथार्थः ॥८२॥" - ध्यानशतक० हारि० । [पृ०३२३ पं०१-१२] ‘पर्याप्तमात्रसंज्ञिनो यावन्ति जघन्ययोगिनः । भवन्ति मनोद्रव्याणि तद्व्यापारश्च यन्मात्रः ॥३०५९॥ तदसंख्यगुणविहीनं समय-समये निरुन्धानः सः । मनसः सर्वनिरोधं कुर्यादसंख्येयसमयैः ॥३०६०॥ पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियजघन्यवाग्योगपर्यया ये तु । तदसंख्यगुणविहीनान् समये समये निरुन्धानः ॥३०६१॥ सर्ववाग्योगरोधं संख्यातीतैः करोति समयैः । ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोपपन्नस्य ॥३०६२॥ यः किल जघन्ययोगस्तदसंख्येयगुणहीनमेकैकस्मिन् । समये निरुन्धानो देहविभागं च मुञ्चन् ॥३०६३॥ रुणद्धि स काययोगं संख्यातीतैरेव समयैः । ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावतामेति ॥'३०६४॥ - इति संस्कृते छाया । हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अत्थइ सेलेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥३०६८॥ तणुरोहारंभाओ झायइ सुहुमकिरियानियट्टि सो । वुच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालम्मि ॥३०६९॥ नातिशीघेर्न चाप्यतिस्थिरैः किन्तु मध्यमभङ्ग्या यावता कालेन ‘अ इ उ ऋ लु' इत्येतानि पञ्च ह्रस्वाक्षराणि भण्यन्ते, एतावन्तं कालं शैलेशीगतस्तकोऽसौ तिष्ठतीति ॥३०६८॥ किं पुनस्तत्र ध्यानं ध्यायति ? इत्याह- तणुरोहा... तनोः काययोगस्य निरोधारम्भसमयात् प्रभृति सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिरूपं शुक्लध्यानमसौ ध्यायति। ततः सर्वयोगनिरोधादूर्ध्वं शैलेशीकाले समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायतीति ॥३०६९॥" - विशेषाव० मलधारि० ॥ __ "अधुना भावार्थमाह- चालिज्जइ बीभेइ य धीरो न परीसहोवसग्गेहिं । सुहमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु ॥९१॥ व्या० चाल्यते ध्यानात् न परीषहोपसगैर्बिभेति वा धीरः बुद्धिमान् स्थिरो वा न तेभ्य इत्यवधलिङ्गम्, सूक्ष्मेषु अत्यन्तगहनेषु न संमुह्यते न सम्मोहमुपगच्छति, भावेषु पदार्थेषु न देवमायासु अनेकरूपास्वित्यसम्मोहलिङ्गमिति गाथाक्षरार्थः ॥९१॥ देहविवित्तं पेच्छइ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे । देहोवहिवोसगं निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥१२॥ व्या० देहविविक्तं पश्यत्यात्मानं तथा च सर्वसंयोगानिति विवेकलिङ्गम्, देहोपधिव्युत्सर्ग निःसङ्गः सर्वथा करोति व्युत्सर्गलिङ्गमिति गाथार्थः ॥९२॥" - ध्यानशतक० हारि० । [पृ०३२४] “अह खंतिमद्दवजवमुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । आलंबणाई जेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ ॥६९॥ व्या० अथेत्यासनविशेषानन्तर्ये, क्षान्तिमावार्जवमुक्तयः क्रोधमान-माया-लोभपरित्यागरूपाः, परित्यागश्च क्रोधनिवर्तनमुदयनिरोधः उदीर्णस्य वा विफलीकरणमिति, एवं मानादिष्वपि भावनीयम्, एता एव शान्तिमाईवार्जवमुक्तयो विशेष्यन्ते- जिनमतप्रधाना इति, जिनमते तीर्थकरदर्शने कर्मक्षयहेतुतामधिकृत्य प्रधानाः, प्राधान्यं चासामकषायं चारित्रं चारित्राच्च नियमतो मुक्तिरितिकृत्वा, ततश्चैता आलम्बनानि प्राग्निरूपितशब्दार्थानि, पैरालम्बनैः करणभूतैः शुक्लध्यानं समारोहति, तथा च क्षान्त्याद्यालम्बना एव शुक्लध्यानं समासादयन्ति, नान्य इति गाथार्थः ॥६९॥" - ध्यानशतक० हारि० । ___“कोहो अ माणो अ अणिग्गहीआ, माया अ लोभो अ पवड्डमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइं पुणब्भवस्स ॥८/४०॥ क्रोधादीनामेव परलोकापायमाहकोहो त्ति सूत्रम्, क्रोधश्च मानश्चानिगृहीतौ उच्छृङ्खलौ, माया च लोभश्च विवर्धमानौ च वृद्धि गच्छन्तौ, चत्वार एते क्रोधादयः कृत्स्नाः संपूर्णाः कृष्णा वा क्लिष्टाः कषायाः सिञ्चन्ति अशुभभावजलेन मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि पुनर्भवस्य पुनर्जन्मतरोरिति सूत्रार्थः ॥८/४०॥" - दशवै० हारि० ॥ [पृ०३२५] ‘कइ णं भंते ! कसाया पण्णत्ता ?' इत्यादि, कियन्तो भदन्त ! कषायाः प्रज्ञप्ताः?, तत्र कषाया इतिनिरुक्तमुच्यते, "सुहदुक्खबहुसतीयं कम्मक्खेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जं च जीवं तेण कसाय त्ति वुच्चंति ॥१॥ अहवा- कम्मं कसं भवो वा कसमायो सिं जतो कसायातो । कसमाययंति व जतो गमयंति कसं कसाय त्ति ॥२॥" निर्वचनसूत्रं क्षुण्णार्थम्, नेरइयाणमित्यादि प्रश्नः, निर्वचनम्- चत्तारि कसाया पण्णत्ता' इत्येतत् प्रवाहापेक्षया भावनीयं तत्कर्मापुद्गलप्रदेशाऽनुभवतो वेति, आतपइट्ठित इति आत्मन्येव प्रतिष्ठितः, एतदुक्तं भवति- यत् स्वयमाचरति तस्य ऐहिकं प्रत्यपायं दृष्ट्वा आत्मनः क्रुध्यतीत्यात्मप्रतिष्ठितः, परप्रतिष्ठितः यदा पर उदीरयति आक्रोशादिना तदा नैगमनयदर्शनेन परप्रतिष्ठित उच्यते, कथम् ? यथा सम्यग्दर्शनपरीक्षायामधकिरणानुयोगद्वारे आत्मसन्निधाने जीवे सम्यग्दर्शनं परसन्निधानेऽजीवे सम्यग्दर्शनमित्यष्टास्वपि भङ्गेषु भवति एवमिहापीति, उभयपतिट्ठिए आत्मपरप्रतिष्ठितः, अनुभयप्रतिष्ठित इति [न] आक्रोशादिकारणवशाद् । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [सापेक्षाणि निरपेक्षाणि च] कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमं च निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुष्कम् ॥ इति । एवं तावदधिकरणभेदेन भेद उक्तः, अधुना सम्बन्धित्वेन भेद उच्यते, 'खेत्तं पडुच्च' इत्यादि, तत्र नारकाणां नारकक्षेत्रं प्रतीत्य तिरश्चां तिर्यक्क्षेत्रं मनुष्याणां मनुष्यक्षेत्रं देवानां देवक्षेत्रमिति, ‘वत्थु पडुच्च त्ति वस्तु सचेतनमचेतनं वा शरीरं प्रतीत्य दुष्टसंस्थितं विरूपं वा, ‘उपधिं पडुच्च' यद्यस्य उपकरणम् । ___ इदानीं सम्यग्दर्शनादिगुणघातित्वेन ‘अणंताणुबंधी'त्यादि अनन्तं संसारमनुबद्धं शीलमस्येति अनन्तानुबन्धी क्रोधः, तथा स्वल्पमपि प्रत्याख्यानमावृणोतीति अप्रत्याख्यानावरणः, प्रत्याख्यानावरणःसर्वं प्रत्याख्यानमावृणोतीति प्रत्याख्यानावरणः, संज्वलयतीति संज्वलनः, उक्तं च- तत्र "अनन्तान्युनुबध्नन्ति यतो जन्मानि भूतये । ततोऽनन्तानुबन्ध्याख्या क्रोधाद्येषु निदर्शिता ॥१॥ नाल्पमप्युत्सहेद्येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥२॥ सर्वसावधविरतिः प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥३॥ शब्दादीन् विषयान् प्राप्य संज्वलन्ति यतो मुहुः । अतो संज्वलनीयाख्या, चतुर्थानामिहोच्यते ॥४॥" तेषामेव क्रोधादीनां निर्वृत्तिप्रतिभेद आख्यायते- 'आभोगनिव्वत्तिए' त्ति जानन् रुष्यति, 'अणाभोगनिव्वत्तिए' अजानन् रुष्यति, उपशान्त अनुदयावस्थः, अनुपशान्तः इति उदयप्राप्तः । - इति हरभिद्रसूरिविरचितायां प्रज्ञापनासूत्रवृत्तौ । 'कइपइट्ठिए णं भंते !' इत्यादि, कतिषु कियत्प्रकारेषु स्थानेषु प्रतिष्ठितो भदन्त ! क्रोधः ?, भगवानाह- चतुष्प्रतिष्ठितः, तद्यथा- आत्मप्रतिष्ठित इत्यादि, आत्मन्येव प्रतिष्ठितः आत्मप्रतिष्ठितः, किमुक्तं भवति ? स्वयमाचरितस्य ऐहिकं प्रत्यवायमवबुद्ध्य कश्चिदात्मन एवोपरि क्रुध्यति तदा आत्मप्रतिष्ठितः क्रोध इति, यदा पर उदीरयति आक्रोशादिना कोपं तदा किल तद्विषयः क्रोध उपजायते इति स परप्रतिष्ठित इति, नैगमनयदर्शनमेतत्, नैगमनयो हि तद्विषयमात्रेणापि तत्प्रतिष्ठितं मन्यते यथा जीवे सम्यग्दर्शनमजीवे सम्यग्दर्शनमित्यादयोऽष्टौ भङ्गाः सम्यग्दर्शनस्याधिकरण-चिन्तायामावश्यके। ___ तदुभयप्रतिष्ठितः आत्मपररूपोभयप्रतिष्ठितः, यदा कश्चित् तथाविधापराधवशादात्मपरविषयं क्रोधमाधत्ते इति । अप्रतिष्ठितो नाम यदैष स्वयं दुष्चरणमाक्रोशादिकं च कारणं विना निरालम्बन एव केवलक्रोधवेदनीयादुपजायते, स हि नात्मप्रतिष्ठितः स्वयं दुश्चरणाभावतः स्वात्मविषयत्वाभावात्, Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि नापि परप्रतिष्ठितः परस्यापि निरपराधतया अपराधसम्भावनाया अभावतः क्रोधालम्बनत्वायोगात् । दृश्यते च कस्यापि कदाचिदेवमेव केवलक्रोधवेदनीयोदयादुपजायमानः क्रोधः, तथा च स पश्चात् ब्रूते- अहो मे निष्कारणःकोपः, नैष विरूपं भाषते न च किञ्चिद्विनाशयति, अत एवोक्तं पूर्वमहर्षिभिः सापेक्षाणि निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमं निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुष्कम् ॥१॥ इति, एवं मानमायालोभा अपि आत्मपरोभयप्रतिष्ठिता अप्रतिष्ठिताश्च भावनीयाः । तदेवमधिकरणभेदेन भेद उक्तः, सम्प्रति कारणभेदतो भेदमाह- ‘कति[हिं] णं भंते ! ठाणेहिं कोहुप्पत्ती हवई' इत्यादि, तिष्ठन्त्येभिरिति स्थानानि कारणानि, कतिभिः- कियत्सङ्ख्याकैः स्थानैः कारणैः क्रोधोत्पत्तिर्भवति ?, भगवानाह- चतुर्भिः स्थानैः, तान्येव स्थानान्याह- 'खेत्तं पडुच्च' इत्यादि, तत्र नैरयिकाणां नैरयिकक्षेत्रं प्रतीत्य तिरश्चां तिर्यक्षेत्रं प्रतीत्य मनुष्याणां मनुष्यक्षेत्रं देवानां देवक्षेत्रम् । ‘वत्थु पडुच्चे'ति वस्तु सचेतनमचेतनं वा शरीरं प्रतीत्य दुःसंस्थितं विरूपं वा । ‘उपधिं प्रतीत्ये'ति यत् यस्योपकरणं तस्य तत् चौरकादिनाऽपह्रियमाणमन्यथा वा प्रतीत्य, एवं नैरयिकादिदण्डकसूत्रमपि । ___ सम्प्रति सम्यग्दर्शनादिगुणविघातित्वेन भेदमाह- सम्यक्त्वगुणविघातकृदनन्तानुबन्धी देशविरतिगुणविघाती अप्रत्याख्यानः सर्वविरतिगुणविधाती प्रत्याख्यानावरणः यथाख्यातचारित्रविघातकः संज्वलनः, एतांश्चतुरोऽपि नैरयिकादिदण्डक्रमेण चिन्तयति एवं मान-माया-लोभा अपि प्रत्येकं चतुर्विधाः सामान्यतो दण्डकक्रमेण च भावनीयाः । ___ सम्प्रत्येतेषामेव क्रोधादीनां निर्वृत्तिभेदतोऽवस्थाभेदतश्च भेदमाह- ‘कइविहे णं भंते !' इत्यादि, यदा परस्यापराधं सम्यगवबुद्ध्य कोपकारणं च व्यवहारतः पुष्टावलम्ब्य नान्यथाऽस्य शिक्षोपजायते इत्याभोग्य कोपं विधत्ते तदा स कोप आभोगनिर्वर्तितः १, यदा त्वेवमेव तथाविधमुहूर्त्तवशाद् गुणदोषविचारणाशून्यः परवशीभूय कोपं कुरुते तदा स कोपोऽनाभोगनिर्वर्त्तितः २, उपशान्तःअनुदयावस्थः ३, अनुपशान्तः- उदयावस्थः ४, एवमेतद्विषयं दण्डकसूत्रमपि भावनीयम् । एवं मानमाया-लोभाः प्रत्येकं चतुष्प्रकाराः सामान्यतो दण्डकक्रमेण च वेदितव्याः ॥" - इति मलयगिरिसूरि विरचितायां वृत्तौ ॥ [पृ०३२६] “कम्मं कसं भवो वा कसमाओ सिं जओ कसाया तो । कसमाययंति व जओ गमयंति कसं कसाय त्ति ॥१२२८॥ ॥२९७८॥ कषन्ति परस्परं हिंसन्ति प्राणिनोऽस्मिन्निति कष कर्म, भवो वा; अथवा, कष्यन्ते शारीर-मानसदुःखलौघृष्यन्ते प्राणिनोऽस्मिन्निति कषं कर्मैव, भव एव वा; यतो यस्मात् कषं कर्म, कषो वा भव आयो लाभो येषां ततस्ते कषायाः। अथवा, कषमाययन्ति यतः, अतः कषायाः, कषं गमयन्तीत्यर्थः ॥१२२८॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि .' कंष शिष' इत्यादिहिंसार्थो दण्डकधातुः, कष्यन्ते बाध्यन्ते प्राणिनोऽनेनेति कषं कर्म भवो वा, तदायो लाभ एषां यतस्ततः कषायाः क्रोधादयः । अथवा, यथोक्तं कषम् अयधातोरिनन्तस्यायन्ति गमयन्ति प्रापयन्ति यतस्ततः कषाया इति ॥ २९७८ ॥ विशेषाव० मलधारि० ॥ २२ [पृ०३२७] “पढमिल्लयाण उदए नियमा संजोयणाकसायाणं । सम्मद्दंसणलंभं भवसिद्धीया वि न लहंति ॥ १०८ ॥ | उत्तरगाथा अपि प्रायः कियत्योऽपि उक्तसंबन्धा एवेति, तत्र व्याख्याप्रथमा एव प्रथमिल्लुकाः, देशीवचनतो जहा पढमिल्ला एत्थ घरा इत्यादि, तेषां प्रथमिल्लकानाम् अनन्तानुबन्धिनां क्रोधादीनामित्युक्तं भवति, प्राथम्यं चैषां सम्यक्त्वाख्यप्रथमगुणविघातित्वात् क्षपणक्रमाद्वेति, उदयः उदीरणावलिकागततत्पुद्गलोद्भूतसामर्थ्यता, तस्मिन् उदये, किम् ?- नियमात् नियमेनेति, अस्य व्यवहितपदेन सार्धं संबन्धः, तं च दर्शयिष्यामः, इदानीं पुनः प्रथमिल्लका एव विशिष्यन्ते - किंविशिष्टानां प्रथमिल्लुकानाम् ? कर्मणा तत्फलभूतेन संसारेण वा संयोजयन्तीति संयोजनाः, संयोजनाश्च ते कषायाश्चेति विग्रह: तेषामुदये, किम् ? नियमेन सम्यक् अविपरीतं दर्शनं सम्यग्दर्शनं तस्य लाभः प्राप्तिः सम्यग्दर्शनलाभः तम् भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः । आहसर्वेषामेव भवे सति सिद्धिर्भवति ?, उच्यते, एवमेतत्, किन्तु इह प्रकरणात् तद्भवो गृह्यते, तद्भवसिद्धिका अपि न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति, अपिशब्दाद् अभव्यास्तु नैव, अथवा परीतसंसारिणोऽपि नैवेति गाथार्थः ॥ १०८॥ भावे खओवसमि दुवालसंगंपि होइ सुयनाणं । केवलियनाणलंभो नन्नत्थ ख कसायाणं ।।१०४।। व्या० भवनं भावः तस्मिन् स चौदयिकाद्यनेकभेदः, अत आह- क्षायोपशमिके द्वादश अङ्गानि यस्मिंस्तत् द्वादशाङ्गं भवति श्रुतज्ञानम्, अपिशब्दाद् अङ्गबाह्यमपि, तथा मत्यादिज्ञानत्रयमपि, तथा सामायिकचतुष्टयमपि तता केवलस्य भावः कैवल्यं घातिकर्मवियोग इत्यर्थः, तस्मिन् ज्ञानं कैवल्यज्ञानम्, 'कैवल्ये सति' अनेन ज्ञानग्रहणेनाज्ञानिप्रकृतिमुक्तपुरुषप्रतिपादनपरनयमतव्यवच्छेदमाह, [ ग्रन्थाग्रं २००० ] तत्र बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते इति वचनात् प्रकृतिमुक्तस्य च बुद्ध्यभावात् ज्ञानाभाव इति, तस्य लाभः प्राप्तिः, कथम् ? कषायाणां क्रोधादीनां क्षति नान्यत्र नान्येन प्रकारेण, इह च छद्मस्थवीतरागावस्थायां कषायक्षये सत्यपि अक्षेपेण कैवल्यज्ञानाभावे ज्ञानावरणक्षयानन्तरं च भावेऽपि कषायक्षयग्रहणं वस्तुतो मोहनीयभेदकषायाणामत्र प्राधान्यख्यापनार्थमिति, कषायक्षय एव सति निर्वाणं भवति तद्भावे त्रयाणामपि सम्यक्त्वादीनां क्षायिकत्वसिद्धेः । आहएवं तर्हि यदादावुक्तं श्रुतज्ञानेऽपि जीवो वर्त्तमानः सन्न प्राप्नोति मोक्षं यस्तपः संयमात्मकयोगशून्यः इति, तद्विशेषणमनर्थकम् श्रुते सति तपः संयमात्मकयोगसहिष्णोरपि मोक्षाभावादिति, अत्रोच्यते, १. “६८५ कष, ६८६, खष, ६८७, शिष ६८८ जष, ६८९ शष, ६९०वर्ष ६९१ मष, ६९२ रुष, ६९३ रिष, हिंसार्थाः । " - पा० धा० ॥ - Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि सत्यमेतत्, किन्तु क्षायोपशमिकसम्यक्त्वश्रुतचारित्राणामपि समुदितानां क्षायिकसम्यक्त्वादिनिबन्धनत्वेन पारम्पर्येण मोक्षहेतुत्वाददोषः ॥१०४॥" - आव० हारि० । [पृ० ३३८] “पडिसेवणा उ भावो, सो पुण कुसलो य होजऽकुसलो वा । कुसलेण होइ कप्पो, अकुसलपरिणामतो दप्पो ॥३९॥ प्रतिषेवणा द्विविधा-द्रव्यरूपा भावरूपा च प्रतिषेवणक्रियायाः कर्तृकर्मगतत्वात्, तत्र या तस्य तस्य वस्तुनः प्रतिषेव्यमानता सा द्रव्यरूपा प्रतिषेवणा, यस्तु जीवस्य तथा तथा प्रतिषेवकत्वपरिणामः, सा भावरूपा प्रतिषेवणा सैव चेह ग्राह्या, जीवपरिणामानुरूपतः प्रायश्चित्तविधिप्रवृत्तेः, तथा चाह-पडिसेवणा उ भावो प्रतिषेवणा नाम तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, भाव एव जीवस्याध्यवसाय एव नान्या, स च भावो द्विधा कुशलोऽकुशलश्च, तत्र कुशलो ज्ञानादिरूपोऽकुशलोऽविरत्यादिरूपः, तत्र या कुशलेन परिणामेन बाह्यवस्तुप्रतिषेवणा सा कल्पः, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् कल्पप्रतिषेवणा, कल्पिका इति भावः, या पुनरकुशलपरिणामतः प्रतिषेवणा सा दर्पः, दर्पप्रतिषेवणा दर्पिका इत्यर्थः । मूलगुण- उत्तरगुणे, दुविहा पडिसेवणा समासेण । मूलगुणे पंचविहा पिंडविसोहाइया इयरा ॥४१॥ प्रतिसेवना समासेन संक्षेपेण द्विविधा, तद्यथा-मूलगुणे मूलगुणविषया उत्तरगुणे उत्तरगुणविषया, तत्र मूलगुणविषया पञ्चविधा प्राणतिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरूपा, इतरा उत्तरगुणविषया पिण्डविशुद्ध्यादिविषया अनेकविधा, अत्रादिशब्दात्समित्यादिपरिग्रहः, किमुक्तं भवति ? मूलगुणेषु प्राणातिपातविरत्यादिषु उत्तरगुणेषु पिण्डविशुद्ध्यादिषु यथाक्रमं प्रतिसेवना प्राणातिपातादिलक्षणा पञ्चविधा आधाकर्मोपभोगादिलक्षणा अनेकविधेति, तत्र मूलगुणप्रतिसेवना संरम्भादिभेदतश्चित्रा उत्तरगुणप्रतिसेवना त्वतिक्रमादिभेदतः ।। आलोयण पडिकमणे, मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे । तवच्छेय मूल अणवट्ठिया य पारंचिए चेव ॥५३॥ आङ् मर्यादायाम्, सा च मर्यादा इयम् जह बालो जंपतो, कजमकजं व उज्जुए भणइ । तं तह आलोएजा मायामयविप्पमुक्को य ॥१॥ अनया मर्यादया लोचू दर्शने [पा० धा० १६४] चुरादित्वात् णिच्, लोकनं लोचना प्रकटीकरणम्, आलोचनं गुरोः पुरतो वचसा प्रकटीकरणमितिभावः यत् प्रायश्चित्तमालोचनामात्रेण शुध्यति, तदालोचनार्हतया कारणे कार्योपचारादालोचनम्, तथा प्रतिक्रमणं दोषात् प्रतिनिवर्त्तनमपुनः-करणतया मिथ्यादुष्कृतप्रदानमित्यर्थः, तदर्ह प्रायश्चित्तमपि प्रतिक्रमणम्, किमुक्तं भवति ? [यत्] प्रायश्चित्तं मिथ्यादृष्कृतमात्रेणैव शुद्धिमासादयति, न च गुरुसमक्षमालोच्यते, यथा सहसानुपयोगतः श्लेष्मादिप्रक्षेपादुपजातं प्रायश्चित्तम्, तथाहि-सहसानुपयुक्ते यदि श्लेष्मादि प्रक्षिप्तं भवति, न च हिंसादिकं दोषमापनस्तर्हि गुरुसमक्षमालोचनामन्तरेणापि मिथ्यादुःकृतप्रदानमात्रेण स शुध्यति, तत् प्रतिक्रमणार्हत्वात् प्रतिक्रमणम्, यस्मिन् पुनः प्रतिसेविते प्रायश्चित्ते यदि गुरुसमक्षमालोचयति, आलोच्य यो गुरुसंदिष्टः प्रतिक्रामति पश्चाच्च मिथ्यादुःकृतमिति ब्रूते तदा शुध्यति, तत् आलोचनाप्रतिक्रमणलक्षणोभयार्हत्वात् मिश्रम्, तथा विवेकः परित्यागः, . Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि यत् प्रायश्चित्तं विवेक एव कृते शुद्धिमासादयति नान्यथा, यथाऽऽधाकर्मणि गृहीते, तत् विवेकार्हत्वात् विवेकः, तथा व्युत्सर्ग: कायचेष्टानिरोधोपयोगमात्रेण शुध्यति प्रायश्चित्तम्, यथा दुःस्वप्नजनितम्, तद् व्युत्सर्गार्हत्वात् व्युत्सर्गः, तव त्ति यस्मिन् प्रतिसेविते निर्विकृतिकादिषण्मासपर्यवसानं तपो दीयते, तत् तपोर्हत्वात् तपः, यस्मिन् पुनरापतिते प्रायश्चित्ते सन्दूषितपूर्वपर्यायदेशावच्छेदः शेषपर्यायरक्षानिमित्तं दुष्ट-व्याधिसन्दूषितशरीरैकदेशच्छेदनमवशेषशरीरावयवपरिपालनाय क्रियते तच्छेदार्हत्वात् छेदः, मूल त्ति यस्मिन् समापतिते प्रायश्चित्ते निरवशेषपर्यायोच्छेदमाधाय भूयो महाव्रतारोपणं तन्मूलार्हत्वान् मूलम्, येन पुनः प्रतिसेवितेनोत्थापनाया अप्ययोग्यः सन् कंचित्कालं न व्रतेषु स्थाप्यते यावन्नाद्यापि प्रतिविशिष्टं तपश्चीर्णं भवति, पश्चाच्च चीर्णतपास्तद्दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थितत्वादनवस्थितप्रायश्चित्तम्, पारंचिए चेव त्ति अंचू गतौ [याचने] च [पा० धा० ८६२], यस्मिन् प्रतिसेविते लिंगक्षेत्रकालतपसां पारमञ्चति तत् पाराञ्चितमर्हतीति पाराञ्चितम् । ___पंचादि आरोवण नेयव्वा जाव होंति छम्मासा । तेण पणगादियाणं छण्हुवरि ज्झोसणं कुज्जा ॥१४०॥ रात्रिन्दिवपञ्चकादारभ्यारोपणा पंचादिः रात्रिन्दिवपञ्चकादिका आदिशब्दात् दशपञ्चदश- विंशतिरात्रिन्दिव-मासिकादिपरिग्रहः ज्ञातव्यः, तावत् यावत् षण्मासा भवन्ति, नाधिकम्, यत एवं तेन कारणेन षण्णां मासानामुपरि पणगाइयाणं ति रात्रिन्दिवपञ्चकादीनां ज्झोषणामपनयनं कुर्यात्, षण्मासानामुपरि यदापद्यते प्रायश्चित्तं तत्सर्वं त्यज्यते इति भावः ॥" - व्यवहार० मलय० पीठिका ॥ [पृ०३३९] “दव्वे खेत्ते काले भावे पलिउंचणा चउविगप्पा । चोयग कप्पारोवण इह इं भणिया पुरिसजाया ॥१५०॥ प्रतिकुञ्च्यते अन्यथा प्रतिसेवितमन्यथा कथ्यते यया सा प्रतिकुञ्चना, सा चतुर्विधा, तद्यथा-द्रव्ये द्रव्यविषया, एवं क्षेत्रे काले भावे च, अत्र परस्य प्रश्नमभिधित्सुराह- चोयग त्ति। अत्र चोदको ब्रूते-ननु कल्पेऽपि प्रायश्चित्तमभिहितम्, व्यवहारेऽपि तदेव प्रायश्चित्तमभिधीयते इति द्वयोरप्यध्ययनयोर्विशेषाभावः, अत्रार्थे सूरिवचनं कप्पारोवणेत्यादि। कल्पे कल्पाध्ययने कल्पितानां मूलोत्तरगुणापराधप्रायश्चित्तानामारोपणम्, दानमिह व्यवहाराध्ययने भणितम्, इं इति पादपूरणे इजेरा: पादपूरणे [ ] इति वचनात्, सानुस्वारता प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि पादान्ते सानुस्वारता भवतीति, किमुक्तं भवति ? कल्पाध्ययने आभवत् प्रायश्चित्तमुक्तं न तु दानम्, इह तु दानं भणितमिति विशेषः, तथा कल्पाध्ययने प्रायश्चित्तार्हाः पुरुषजाता न भणिता इह तु भणिता इति महान् विशेषः । एष गाथासंक्षेपार्थः । सांप्रतमेनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतो द्रव्यादिभेदभिन्नां प्रतिकुञ्चनां व्याख्यानयति- सचित्ते अचित्तं जणवयपडिसेवियं तु अद्धाणे । सुभिक्खम्मि दुभिक्खे हटेण तहा गिलाणेणं ॥१५१॥ द्रव्यविषया प्रतिकुञ्चना नाम सचित्ते, उपलक्षणमेतत् मिश्रे वा प्रतिसेविते, अचित्तं मया प्रतिसेवितमित्यालोचयति, क्षेत्रप्रतिकुञ्चना जनपदे प्रतिसेव्य यदध्वनि प्रतिसेवितमित्यालोचयति, कालप्रतिकुञ्चना यत्सुभिक्षे काले सेवित्वा दुर्भिक्षे मया Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि प्रतिसेवितमित्यावेदयति, भावप्रतिकुञ्चना यत् हृष्टेन सता प्रतिसेव्य ग्लानेन सता मया प्रतिसेवितमित्यालोचयति, उक्ता प्रतिकुञ्चना ।" - व्यवहार० मलय० पीठिका ॥ "दुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई य । चउपोरिसिओ दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥२०६९॥ प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं तदेव प्रमाणकालः । स द्विविध इति दिवसप्रमाणकालो रात्रिप्रमाणकालश्च भवति । तत्र चतसृभिः पौरुसीभिर्दिवसो भवति, एवं रात्रिरपि॥ इति नियुक्तिगाथार्थः ॥२०६९॥ ___ आयउमेत्तविसिट्ठो स एव जीवाण वत्तणाइमओ । भण्णइ अहाउकालो वत्तइ जो जचिरं जेण ॥२०३७॥ स एवोक्तरूपोऽद्धाकालो वर्तनादिमयो जीवानां नारक-तिर्यग्-नरा-ऽमराणां यथायुष्ककालो भण्यते । किं सर्वोऽपि ? न, इत्याह- आयुष्कमात्रविशिष्टः नारकाद्यायुष्कमात्रविशेषित इत्यर्थः, अत एवायं यथायुष्ककालो भण्यते । यद्येन तिर्यग्-मनुष्यादिना जीवेन यथा येन रौद्राऽऽर्त-धर्मध्यानादिना प्रकारेणोपार्जितमायुर्यथायुष्कम्, तस्यानुभवनकालो यथायुष्ककालः । कियन्तमवधिं यावदसौ भवति? इत्याह- यो जीवो येनात्मबद्धेनायुषा जच्चिरं ति यावन्तमन्तर्मुहूर्तादिकं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमपर्यन्तं कालं वर्तते, स तस्य जीवस्य तावन्तमवधिं यावद् यथायुष्ककालो भवतीति तात्पर्यार्थः । इत्येवं विवक्षामात्रकृतोऽद्धाकाल-यथायुष्ककालयोर्भेदः। अतोऽद्धाकालस्यैव विशेषभूतत्वात् तदनन्तरं यथायुष्ककालमाहेति भावः ॥ इति गाथार्थः ॥२०३७|| कालो त्ति मयं मरणं जहेह मरणं गउ त्ति कालगओ । तम्हा स कालकालो जो जस्स मओ स मरणकालो ॥२०६६॥ एकः कालशब्दः ‘कलनं कालः' इत्यादिना प्राग्निरूपितशब्दार्थ एव, द्वितीयस्तु कालोऽत्र मरणम्। इह यथा लोके मरणं गतः प्राप्तः कालगत इत्युच्यते, अतोऽनयैव लोकरूढ्या द्वितीयः कालशब्दो मरणवाचकः । ततः किमिह स्थितम् ? इत्याह- तस्माद् यो यस्य प्राणिनो मरणकालः स तीर्थकृतां कालकालो मतः ॥ इति गाथार्थः ॥२०६६॥” - विशेषाव० मलधारि० । [पृ०३४०] “सूरकिरियाविसट्ठो गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो । अद्धाकालो भण्णइ समयखेत्तम्मि समयाई ॥२०३५॥ सूरो भास्करस्तस्य क्रिया मेरोश्चतसृष्वपि दिक्षु प्रदक्षिणतोऽजलं भ्रमणलक्षणा, सूरस्योपलक्षणत्वाच्चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र-ताराणामपीहेत्थंभूता क्रिया गृह्यते, तया सूर्यादिक्रियया विशिष्टो विशेषितो व्यक्तीकृतोऽर्धतृतीयद्वीपसमुद्रलक्षणे समयक्षेत्रे यः समया-ऽऽवलिकादिरर्थः प्रवर्तते, न परतः, सूर्यादिक्रियाऽभावात्, सोऽद्धाकालो भण्यते । क्रियैव परिणामवती कालो नान्य इति । ये कालमपयुवते तन्मतव्यवच्छेदार्थमाह- गोदोहादिक्रियासु निरपेक्षः । न खलु यथोक्तोऽद्धाकालः क्रियां गोदोहाद्यात्मिकामपेक्ष्य प्रवर्तते, किन्तु सूर्यादिगतिम्; यथाहि- यावद् यावत् क्षेत्रं स्वकिरणैर्दिनकरश्चलनुद्द्योतयते तद् दिवस उच्यते, परतस्तु रात्रिः, तस्य च दिवसस्य परमनिकृष्टः सूक्ष्मोऽसंख्याततमो भागः समयः, ते चासंख्येया आवलिका इत्यादि । एवं च प्रवृत्तस्यास्य कालस्य Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि सूर्यादिगतिक्रियां विहाय काऽन्या गोदोहादिक्रियापेक्षा ?॥ इति भाष्यगाथाचतुष्टयार्थः ॥२०३५॥ के पुनस्ते समयादयोऽद्धाकालभेदाः ? इत्याह नियुक्तिकारः समया-ऽऽवलि-मुहुत्ता दिवसमहोत्त-पक्ख-मासा य । संवच्छर-युग-पलिया सागरओसप्पि-पलियट्टा ॥२०३६॥ इह निर्विभागः परमसूक्ष्मकालांशः समयो भण्यते । स च प्रवचनप्रतिपादितोत्पलपत्रशत-पट्टसाटिकापाटनदृष्टान्ताद् विशेषतः समवसेयः । असंख्येयसमयसमुदयसमितिसमागमनिष्पन्ना आवलिका। द्विघटिको मुहर्तः । दिवसकरप्रभाप्रकाशितनभःखण्डरूपः, चतुष्प्रहरात्मको वा दिवसः । सूर्यकिरणस्पृष्टव्योमखण्डरूपः, चतुष्प्रहरात्मको वा दिवसः; सूर्यकिरणास्पृष्टव्योमखण्डरूपा, चतुर्यामात्मिका वा रात्रिः, तदुभयं त्वहोरात्रम् । पञ्चदशाहोरात्राणि पक्षः । पक्षद्वयात्मको मासः । द्वादशमासनिर्वृत्तः संवत्सरः । पञ्चसंवत्सरप्रमाणं युगम् । असंख्येययुगमानं पल्योपमम् । पल्योपमदशकोटीकोटिघटितं सागरोपमम् । दशसागरोपमकोटीकोट्यात्मिकोत्सर्पिणी। एवमवसर्पिण्यपि। अनन्ताभिरुत्सर्पिण्य-ऽवसर्पिणीभिः पुद्गलपरावर्तः । स च द्रव्यादिभेदभिन्नः प्रवचनादवसेयः ॥ इति नियुक्तिगाथार्थः ॥२०३६॥” - विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ०३४१] “पुरिमा उज्जुजड्डा उ, वक्कजड्डा य पच्छिमा । मज्झिमा उजुपन्ना उ, तेन धम्मे दुहा कए ।।८७२।। पुरिमाणं दुव्विसुज्झो उ, चरिमाणं दुरनुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसुज्झो सुपालओ ॥८७३॥ वृ० ततः पुरिम त्ति पूर्वे प्रथमतीर्थकृत्साधवः उज्जुजड्डेति ऋजवश्च प्राञ्जलतया जडाश्च तत एव दुष्प्रतिपाद्यतया ऋजुजडाः, तुरिति यस्मात् वक्कजड्डा य त्ति, वक्राश्च वक्रबोधतया जडाश्च तत एव स्वकानेककुविकल्पतो विवक्षितार्थप्रतिपत्त्यक्षमतया वक्रजडाः च: समुच्चये, पश्चिमा: पश्चिमतीर्थकृद्यतयः मध्यमास्तु मध्यमतीर्थकृत्सम्बन्धितपस्विनः, ऋजुप्रज्ञाः ऋजवश्च ते प्रकर्षेण जानन्तीति प्रज्ञाश्च सुखेनैव विवक्षितमर्थं ग्राहयितुं शक्यन्त इति ऋजुप्रज्ञाः, तेन हेतुना धर्मो द्विभेदः कृत: विहितः, एककार्यप्रतिपन्नत्वेऽपीति प्रक्रमः ।। यदि नाम पूर्वादीनामेवंविधत्वं तथाऽपि कथमेतद् द्वैविध्यमित्याह- पुरिमाणं ति पूर्वेषां दुःखेन विशोध्यो विशोधयितुं निर्मलतां नेतुं शक्यो दुर्विशोध्यः, कल्प इति संबध्यते, ते ह्यतिऋजुतया गुरुभिरनुशिष्यमाणा अपि न तदनुशासनं स्वप्रज्ञाऽपराधाद् यथावत्प्रतिपत्तुं क्षमन्त इति तेषामसौ दुर्विशोध्य उच्यते, तुशब्द उत्तरेभ्यो विशेषं द्योतयति, चरमाणां चरमतीर्थकृत्तपस्विनां दुःखेनानुपाल्यत इति दुरनुपालः, स एव दुरनुपालकः कल्पः यतिक्रियाकलापः, ते हि वक्रत्वेन कुविकल्पाकुलितचित्ततया कथञ्चिज्जानाना अपि न यथावदनुष्ठातुमीशते, मध्यमकानां तु सुखेन विशोध्यो विशोधयितुं शक्यः सुविशोध्यः, सुपालउ त्ति चशब्दस्य गम्यमानत्वात्सुपालकश्च, कोऽसौ ? कल्पः इतीहापि योज्यते, ते हि ऋजुप्रज्ञा इति सम्यग्मार्गानुसारिबोधतया सुखेनैव यथावदवगच्छन्ति पालयन्ति च, अतस्ते चतुर्यामोक्तावपि पञ्चममपि याममुक्तहेतोर्ज्ञातुं पालयितुं च क्षमा इति तदपेक्षया पार्श्वेण चतुर्याम उक्तः, पूर्वपश्चिमाञ्चोक्तनीतितो नेत्थमिति ऋषभ-वर्द्धमानाभ्यां पञ्चमं व्रतमुक्तम्, अयमर्थः- न Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि यादृशाद्वाचकादेकस्य श्रोतुर्विवक्षितार्थप्रतिपत्तिस्तादृशादेवाशेषाणामपि, स्वप्रज्ञापेक्षया हि कोऽपि कीदृशादेव वाचकादेकमप्यर्थं प्रतिपद्यत इति विचित्रप्रज्ञविनेयानुग्रहायोपात्ताद्वाचकभेदादेव धर्मस्य द्वैविध्यम्, न तु वस्तुभेदात्, यद्वाचकभेदेऽपि वस्तुतो व्रतपञ्चकस्यैवात्र विवक्षितत्वात्, प्रसङ्गतश्चेहाद्यजिनाभिधानमिति ।" - उत्तरा० पाईय० २३।२६-२७॥ [पृ०३४३] “एतेसिं चउण्ह वि सरूवमिणं- दिवसभयओ उ घिप्पति, छिण्णेण धणेण दिवसदेवसियं । जत्ता उ होति गमणं, उभयं वा एत्तियधणेणं ॥३७१९॥ काले छिण्णो सव्वदिणं धणं पच्छिण्णं रूवगेहिं तुमे मम कम्मं कायव्वं । एवं दिणे दिणे भयगो घेप्पति । सो दिणे अपुण्णे णो कप्पति पव्वावेतुं । ___ इमो जत्ताभयगो- दस जोयणाणि मम सहाएण एगागिणा वा गंतव्वं एत्तिएण धणेण, ततो परं ते इच्छा । अन्ने उभयं भणंति- 'गंतव्वं कम्मं च से कायव्वं' ति ॥३७१९॥" ___"इमो कव्वालभयगो- कव्वाल उड्डमादी, हत्थमितं कम्ममेत्तियधणेणं । एच्चिरकालोच्चत्ते, कायव्वं कम्म जं बेंति ॥३७२०॥ कव्वालो खितिखाणतो उड्डमादी, तस्स कम्ममप्पिणिज्जति, दो तिण्णि वा हत्था छिन्नं अछिन्नं वा एत्तियं ते धणं दाहामि त्ति । ____ इमो उच्चत्तभयगो- तुमे ममं एच्चिरं कालं कम्म कायव्वं जं जं अहं भणामि, एत्तियं ते धणं दाहामि त्ति ॥३७२०॥" - निशीथ० चूर्णिः । [पृ०३४६] “साम्प्रतं विकृतिस्वरूपमाह- खीरं दहि नवणीयं घयं तहा तिल्लमेव गुड मजं। महु मंसं चेव तहा ओगहिमगं च दसमी तु ॥३७१॥ गोमहिसुटिपसूणं एलग खीराणि पंच चत्तारि । दहिमाइआई जम्हा उट्टीणं ताणि नो हुंति ॥३७२॥ चत्तारि हुंति तिल्ला तिलअयसिकुसुंभसरिसवाणं च । विगईओ सेसाइं डोलाईणं न विगईओ ॥३७३॥ दवगुडपिंडगुला दो मजं पुण कट्ठपिट्ठनिप्फन्नं । मच्छिअ-पोत्तिअ-भामरभेअं च तिहा महुं होई ॥३७४॥ जलथलखहयरमंसं चम्मं वस सोणि तिभेअंपि। आइल्ल तिण्णि चलचल ओगाहिमगाइ विगईओ ॥३७५॥ सेसा ण हुँति विगई अजोगवाहीण ते उ कप्पंति । परि जंति न पायं जं निच्छयओ न नजंति ॥३७६॥ एगेण चेव तवओ पूरिज्जइ पूअएण जो ताओ। बीओ वि स पुण कप्पइ निविगइ अलेवडो नवरं ॥३७७॥ क्षीरं दधि नवनीतं घृतं तथा तैलमेव गुडो मद्यं मधु मांसमेव च तथा उद्ग्राहिमकं च दशमीति एषा विकृतिसङ्ख्येति गाथापदानि ॥३७१।। पदार्थं त्वाह- गोमहिष्युष्ट्रीपशूनाम् एडकानां च सम्बधीनि क्षीराणि पञ्च विकृतयः। न शेषाणि मानुषीक्षीरादीनि, तथा चत्वारि दध्यादीनि दधिनवनीतघृतानि च चत्वार्येव गवादिसम्बन्धीनि, यस्मादृष्ट्रीणां तानि दध्यादीनि न भवन्ति, महुडा?]भावादिति गाथार्थः ॥३७२॥ चत्वारि भवन्ति तैलानि तिला-ऽतसी-कुसुम्भ-सर्षपाणां सम्बन्धीनि विकृतयः शेषाणि डोलादीनां सम्बन्धीनि न विकृतय इति, डोलानि मधुकफलानीति गाथार्थः ॥३७३॥ द्रवगुडपिण्डगुडौ द्वौ, कक्कबपिण्डावित्यर्थः । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि मद्यं पुनः काष्ठपिष्टनिष्पन्नं सीधुसुरारूपम्, माक्षिक-पोत्तिक-भ्रमरभेदं च त्रिधा मधु भवति विकृतिरिति गाथार्थः ॥३७४।। जलस्थलखचरमांसं 'चर'शब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, जलचर-स्थलचर-खेचरमांसं चर्म-वसा-शोणितं त्रिधैतदपि विकृतिरिति योगः । तथा 'आद्यत्रयचलचलोद्ग्राहिमकानि च' म्रक्षणभृततवकपक्वानि त्रीण्येव घारिकावटकादीनि विकृतिरिति गाथार्थः ॥३७५॥ शेषाणि चतुर्थघानादारभ्य न भवन्ति विकृतयः । अयोगवाहिनां साधूनाम् अविशेषतो निर्विकृतिकपरिभोक्तृणां तानि कल्पन्ते, न तत्र कश्चिद्दोषः, परिभुज्यन्ते न प्रायः तथाऽप्यनेन कारणेन, यद् निश्चयतो न ज्ञायन्ते कथमेतानि व्यवस्थितानि इति गाथार्थः ॥३७६॥एकेनैव तवकः पूर्यते पूपकेन यत् ततः पूपकाद् द्वितीयोऽपि निर्विकृतिकस्य कल्पते, असौ लेवाटको नवरमिति गाथार्थः ॥३७७॥" - पञ्चवस्तुकटीका । __ [पृ०३५२ पं० १९] तत्र गजानां चतम्रो जातयो भवन्ति- भद्रमन्दमृगमिश्राख्याः । तत्रादावेव भद्रलक्षणमाह- मध्वाभदन्ताः सुविभक्तदेहा न चोपदिग्धा न कृशाः क्षमाश्च । गात्रैः समैश्चापसमानवंशा वराहतुल्यैर्जघनैश्च भद्राः ॥१२॥१॥ ये गजा मध्वाभदन्ता मधुसदृशी आभा कान्तिर्येषाम् । सुविभक्तदेहाः शोभनं कृत्वा विभक्तो देहः शरीरं येषाम् । अवयवप्रविभागसम्पन्ना इत्यर्थः । न चोपदिग्धा: नातिस्थूलाः । न कृशा नातिदुर्बलदेहाः । क्षमाश्च कार्ययोग्याः । गात्रैश्च शरीरावयवैः समैस्तुल्यैर्युक्ताः। चापसमानवंशाः चापं शरासनं तत्समाना वंशास्तत्तुल्यपृष्ठाः । वराहतुल्यैः सूकरप्रतिमैश्च जघनैः कटिभागैरेभिः परिवर्तुलैस्तैर्भद्रा गजाः ॥१।। __ अथ मन्दलक्षणमाह- वक्षोऽथ कक्षावलयः श्लथाश्च लम्बोदरस्त्वग्बृहती गलश्च । स्थूला च कुक्षिः सह पेचकेन सैंही च दृग् मन्दमतङ्गजस्य ॥२॥ वक्ष उरः । अथशब्दश्चार्थे । कक्षावलयः । कक्षाग्रहणेन कक्षास्थानं शरीरमध्यमुच्यते । तत्र या वलयः । अथवा कक्षा तथा वलय एताः श्लथा: शिथिलाः लम्बोदरः प्रलम्बजठरः । त्वम् बृहती स्थूलं चर्म । गल: कण्ठश्च स्थूल एव । कुक्षिः स्थूला बृहती । सह पेचकेन पेचकं पुच्छमूलम्, तेन सह साकं स्थूलकुक्षिः। सैंही दृक् सिंहसदृशी दृष्टिः । तस्यैतल्लक्षणं मन्दमतङ्गजस्य मन्दसंज्ञगजस्य ॥२॥ अथ मृगसङ्कीर्णयोर्लक्षणमाह- मृगास्तु ह्रस्वाधरवालमेद्रास्तन्वन्रिकण्ठद्विजहस्तकर्णाः । स्थूलेक्षणाश्चेति यथोक्तचिह्नः सङ्कीर्णनागा व्यतिमिश्रचिह्नाः ॥३॥ ये गजा ह्रस्वाधरवालमेढ़ाः, ह्रस्वाधरा अल्पोष्ठाः । केचिद् ह्रस्वोदर इति पठन्ति । ह्रस्वा वाला वालाः पुच्छस्थाः । ह्रस्वा अदीर्घाः । ह्रस्वमेढ़ा अदीर्घलिङ्गाः । तन्वधिकण्ठद्विजहस्तकर्णाः, अङ्ग्री पादौ; कण्ठो गलः; द्विजा दन्ताः; हस्त: करः; कर्णौ श्रोत्रे चैतानि तनूनि स्वल्पमांसानि येषाम् । स्थूलेक्षणा विस्तीर्णनयनाः। अथवा स्थूलतारकाः स्थूलेक्षणाः । एते गजा मृगाः । एतैर्लक्षणैर्युक्ताः । यथोक्तचिन्है: सङ्कीर्णनागा व्यतिमिश्रचिह्नाः, यथोक्तैर्यथानिर्दिष्टैश्चितैर्लक्षणैर्भद्रमन्दमृगाणां संबन्धिभिर्ये व्यामित्रैर्युक्तास्ते नागा गजाः सङ्कीर्णाः ॥३॥" - इति वराहमिहिरप्रणीतायां भट्टोत्पलविरचितटीकासहितायां बृहत्संहितायाम् । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ०३५७] “इत्थीकहा दोसदरिसणत्थं- आय-पर-मोहुदीरणा, उड्डाहो सुत्तमादिपरिहाणी। बंभव्वते अगुत्ती, पसंगदोसा य गमणादी ॥१२१॥ इत्थिकहं करेंतस्स अप्पणो मोहोदीरणं भवति, जस्स वा कहेति परस्स तस्स मोहुदीरणं भवति । इत्थिकह करेंतो सुओ लोएणं उड्डाहो- 'अहो झाणोवयुत्ता तवस्सिणो' जाव इत्थिकहं करेंति तावता सुत्तपरिहाणी । आदिसद्दातो अत्थस्स, अण्णेसि च संजमजोगाणं । बंभव्वए अगुत्ती भवति । भणयिं चगाहा- “वसहि कह णिसे जिंदि य, कुटुंतर पुव्वकीलिय पणीते । अतिमायाहार विभूसणा य, णव बंभचेरगुत्तीओ ॥" __ एवं अगुत्ती भवति । पसंग एव दोसो पसंगदोसो कहापसंगाओ वा दोसा भवंति ते य गमणादी गमणं उण्णिक्खमइ । 'आदि' सद्दाओ वा कुलिंगी भवति, सलिंगट्टितो वा अगारिं पडिसेवति संजतिं वा हत्थकम्मं वा करेति । इत्थिकह त्ति दारं गतं ॥१२१॥ __ अगद्धस्स वक्खाण- सागघतादावावो, पक्कापक्को उ होइ णव्विावो । आरंभ तित्तिरादी, णिट्ठाणं जा सतसहस्सी ॥१२३॥ सागो मूलगादि, सागो घय वा एत्तियं गच्छति । पक्कं अपक्कं वा परस्स दिज्जति सो णिव्वावो । आरंभो एत्तिया तित्तिरादि भरंति । णिट्ठाणं णिप्फत्ती, जा लक्खेणं भवति ॥१२३॥ आहारकहा-दोस-दरिसणत्थं गाहा- आहारमंतरेणाति, गहितो जायई स इंगालं । अजितिंदिया ओयरिया, वातो व अणुण्णदोसा तु ॥१२४॥ अंतरं णाम आहारभावो । आहाराभावे वि अच्चत्थं गिद्धस्स सतः जायते स इंगालदोसो । किं चान्यत्- लोके परिवातो भवति । अजिइंदिया य एते, जेण भत्तकहाओ करेंता चिट्ठति। रसणिंदियजये य सेसिंदियजतो भवति । ओदरिया णाम जीविता हेउं पव्वइया, जेण आहारकहाए अच्छंति, ण सज्झाए सज्झाणजोगेहिं । किं चान्यत्- अणुण्णादोसो य त्ति । गेहीओ सातिज्जणा, जहा अंतदुट्ठस्स भाव-पाणातिवातो, एवं एत्थ वि सातिज्जणा सातिजणाओ य छज्जीवकायवहाणुण्णा भवति । 'च' सद्दाओ भत्त कहा-पसंगदोसा, एसणं ण सोहिति । आहारकह त्ति दारं गतं ॥१२४।। ___ इदाणिं देसकहादोसदरिसणत्थं भण्णति- राग-दोसुप्पत्ती, सपक्ख-परक्खओ य अधिकरणं। बहुगुण इमो त्ति देसो, सोत्तुं गमणं च अण्णेसिं ॥१२७॥ देसकहाते जं देसं वण्णेति तत्थ रागो इयरे दोसो । राग-दोसओ य कम्मबंधो । किं च सपक्खेण वा परपक्खेण वा सह अहिकरणं भवति । कहं ? साधू एगं विसयं पसंसति अवरं जिंदति, ततो सपक्खे परपक्खेण वा भणितो तुमं किं जाणसि कूवमंडुको, तो उत्तरपच्चुत्तरातो अधिकरणं भवति। किं चान्यत्, देसे वण्णिज्जमाणे अण्णो साहू चिंतेति ‘बहुगुणो इमो देसो वण्णिओ', सोउं तत्थ गच्छति। देसकह त्ति दारं ॥१२७॥" - निशीथ० चूर्णिः । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ०३५८] “रायकहादोसदरिसणत्थं भण्णति- चारिय-चोराहिमरा-हित-मारित-संक-कातुकामा वा । भुत्ताभुत्तोहावण करेज वा आसंसपयोगं ॥१३०॥ साहू णिलयट्ठिता रायकहं कहेमाणा अच्छंति । ते य सुता रायपुरिसेहिं । ताण य रायपुरिसाण एवमुवट्ठियं चित्तस्स-जइ परमत्थेणिमे साहू तो किमेएसिं रायकहाए । णूणं एते चारिया भंडिया, चोरा वा वेसपरिच्छण्णा। अहिमरा णाम दद्दरचोरा । अस्सरयणं वाहियं केणइ रण्णो । रण्णो वा सयणो केणइ अदितॄण मारितो । एतेसु संकिजति । अहवा चारिया चोरेसु संका । अहिमरत्तं अस्सहरणं वा मारणं वा काउकामा । वा विकप्पदरिसणे। अहवा रायकहाए रायदिक्खियस्स अणुसरणं, भुत्तभोगिणो सइकरणं, इतरेसु कोउयं । पुनः स्मरणकोउएणं ओहावणं करेज, कारिज वा आसंसपओगं । आसंसपओगो नाम निदानकरणं। रायकह त्ति दारं गयं ॥१३०॥" - निशीथ० चूर्णिः । "विज्जा चरणं च तवो पुरिसक्कारो य समिइगुत्तीओ । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ अक्खेवणीइ रसो ॥१९५॥ धर्मविषया कथा धर्मकथा असौ बोद्धव्या चतुर्विधा धीरपुरुषप्रज्ञप्ता तीर्थकरगणधरप्ररूपितेत्यर्थः, चातुर्विध्यमेवाह- आक्षेपणी विक्षेपणी संवेगश्चैव निर्वेद इति, 'सूचनात्सूत्र'मिति न्यायात् संवेजनी निवेदनी चैवेत्युपन्यासगाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थं त्वाह- आचारो लोचास्नानादिः व्यवहारः कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः, प्रज्ञप्तिश्चैव संशयापन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना, दृष्टिवादश्च-श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादिभावकथनम्, अन्ये त्वभिदधति-आचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराद्यभिधानादिति, एषा अनन्तरोदिता चतुर्विधा खलुशब्दो विशेषणार्थः श्रोत्रपेक्षयाऽऽचारादिभेदानाश्रित्यानेकप्रकारेति कथा त्वाक्षेपणी भवति, तुरेवकारार्थः, कथैव प्रज्ञापकेनोच्यमाना नान्येन, आक्षिप्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया भव्यप्राणिन इत्याक्षेपणी भवतीति गाथार्थः । इदानीमस्या रसमाह- विद्या ज्ञानम् अत्यन्तापकारिभावतमोभेदकं चरणं चारित्रं समग्रविरतिरूपं तपः अनशनादि पुरुषकारश्च कर्मशत्रून् प्रति स्ववीर्योत्कर्षलक्षणः समितिगुप्तयः पूर्वोक्ता एव, एतदुपदिश्यते खलु श्रोतृभावापेक्षया सामीप्येन कथ्यते, एवं यत्र क्वचिदसावुपदेशः कथाया आक्षेपण्या रसो निष्यन्दः सार इति गाथार्थः । गताऽऽक्षेपणी, विक्षेपणीमाह- कथयित्वा स्वसमयं स्वसिद्धान्तं ततः कथयति परसमयं परसिद्धान्तमित्येको भेदः, अथवा विपर्यासाद् व्यत्ययेन कथयति- परसमयं कथयित्वा स्वसमयमिति द्वितीयः, मिथ्यासम्यग्वादयोरेवमेव भवतो द्वौ भेदाविति, मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं कथयति सम्यग्वादं च कथयित्वा मिथ्यावादमिति, एवं विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणीति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तच्चेदम्- विक्खेवणी सा चउव्विहा पन्नत्ता, तंजहा-ससमयं कहेत्ता परसमयं १. एतद् वृद्धविवरणं दशवैकालिकचूर्णिनाम्ना सागरानन्दसूरिभिः संशोधितं श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बरसंस्थारतलाम इत्यतः विक्रमसं. १९८९ मध्ये प्रकाशितमस्ति । तस्य तृतीयेऽध्ययने पृ० १०६-१०९ इत्यत्र द्रष्टव्यम् ॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि कहेइ १, परसमयं कहेत्ता ससमयं कहेइ २, मिच्छावादं कहेत्ता सम्मावादं कहेइ ३, सम्मावादं कहेत्ता मिच्छावायं कहेइ ४, तत्थ पुव्विं ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेइ- ससमयगुणे दीवेइ परसमयदोसे उवदंसेइ, एसा पढमा विक्खेवणी गया । इयाणिं बिइया भन्नइ-पुव्विं परसमयं कहेत्ता तस्सेव दोसे उवदंसेइ, पुणो ससमयं कहेइ, गुणे य से उवदंसेइ, एसा बिइया विक्खेवणी गया । इयाणिं तइयापरसमयं कहेत्ता तेसु चेव परसमएसु जे भावा जिणप्पणीएहिं भावेहिं सह विरुद्धा असंता चेव वियप्पिया ते पुव्विं कहित्ता दोसा तेसिं भाविऊण पुणो जे जिणप्पणीयभावसरिसा घुणक्खरमिव कहवि सोभणा भणिया ते कहयइ, अहवा मिच्छावादो णत्थित्तं भन्नइ, सम्मावादो अत्थित्तं भण्णति, तत्थ पुब्विं णाहियवाईणं दिट्ठीओ कहित्ता पच्छा अत्थित्तपक्खवाईणं दिट्ठीओ कहेइ, एसा तइया विक्खेवणी गया । इयाणिं चउत्थी विक्खेवणी, सा वि एवं चेव, णवरं पुव्विं सोभणे कहेइ पच्छा इयरे त्ति, एवं विक्खिवति सोयारं [दशवै० चू० अ० ३] ति गाथाभावार्थः । ___साम्प्रतमधिकृतकथामेव प्रकारान्तरेणाह- या स्वसमयवर्जा खलुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादत्यन्तं प्रसिद्धनीत्या स्वसिद्धान्तशून्या, अन्यथा विधिप्रतिषेधद्वारेण विश्वव्यापकत्वात् स्वसमयस्य तद्वर्जा कथैव नास्ति, भवति कथा लोकवेदसंयुक्ता, लोकग्रहणाद् रामायणादिपरिग्रहः, वेदास्तु ऋग्वेदादय एव, एतदुक्ता कथेत्यर्थः, परसमयानां च साङ्ख्य-शाक्यादिसिद्धान्तानां च कथा या सा सामान्यतो दोषदर्शनद्वारेण वा एषा विक्षेपणी नाम, विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणी, तथाहि- सामान्यत एव रामायणादिकथायामिदमपि तत्त्वमिति भवति सन्मार्गाभिमुखस्य ऋजुमतेः कुमार्गप्रवृत्तिः, दोषदर्शनद्वारेणाप्येकेन्द्रियप्रायस्याहो मत्सरिण एत इति मिथ्यालोचनेनेति गाथार्थः । अस्या अकथने प्राप्ते विधिमाह- या स्वसमयेन स्वसिद्धान्तेन करणभूतेन पूर्वमाख्याता आदौ कथिता तां क्षिपेत् परसमये क्वचिद्दोषदर्शनद्वारेण यथाऽस्माकमहिंसादिलक्षणो धर्मः साङ्ख्यादीनामप्येवम्, ‘हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति' [ ] इत्यादिवचनप्रामाण्यात्, किन्त्वसावपरिणामिन्यात्मनि न युज्यते, एकान्तनित्यानित्ययोहिँसाया अभावादिति, अथवा परशासनव्याक्षेपात् ‘सुपां सुपो भवन्ति' [ ] इति सप्तम्यर्थे पञ्चमी, परशासनेन कथ्यमानेन व्याक्षेपे सन्मार्गाभिमुखतायां सत्यां परस्य समयं कथयति, दोषदर्शनद्वारेण केवलमपीति गाथार्थः । उक्ता विक्षेपणी, अधुना संवेजनीमाह- आत्मपरशरीरविषया इहलोके चैव तथा परलोके इहलोकविषया परलोकविषया च एषा चतुर्विधा खलु अनन्तरोक्तेन प्रकारेण कथा तु संवेजनी भवति, संवेज्यते संवेगं ग्राह्यतेऽनया श्रोतेति संवेजनी, एषोऽधिकृतगाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तच्चेदम्- संवेयणी कहा चउव्विहा, तंजहा- आयसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयणी इहलोयसंवेयणी परलोयसंवेयणी, तत्थ आयसरीरसंवेयणी जहा जमेयं अम्हच्चयं सरीरयं एवं सुक्कसोणियमंसवसामेदमजट्ठिण्हारुचम्मकेसरोमणहदंतअंतादिसंघायणिप्फण्णत्तणेण मुत्तपुरीसभायणत्तणेण य असुइत्ति कहेमाणो सोयारस्स संवेगं उप्पाएइ, एसा आयसरीरसंवेयणी, एवं परसरीरसंवेयणी वि परसरीरं एरिसं चेव असुई, अहवा परस्स सरीरं वण्णेमाणो सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, परसरीरसंवेयणी गया । इयाणिं A-28 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि इहलोयसंवेयणी- जहा सव्वमेयं माणुसत्तणं असारमधुवं कदलीथंभसमाणं एरिसं कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, एसा इहलोयसंवेयणी गया, इयाणिं परलोयसंवेयणी जहा देवा वि इस्सा-विसाय-मय-कोह-लोहाइएहिं दुक्खेहिं अभिभूया, किमंग पुण तिरिय-नारया ? एयारिसं कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, एसा परलोयसंवेयणी गय [दशवै० चू० अ० ३] त्ति गाथाभावार्थः । साम्प्रतं शुभकर्मोदयाशुभकर्मक्षयफलकथनतः संवेजनीरसमाह- वीर्यवैक्रियर्द्धिः तपःसामोद्भवा आकाशगमन-जङ्घाचारणादिवीर्यवैक्रियनिर्माणलक्षणा ज्ञानचरणदर्शनानां तथर्द्धिः तत्र ज्ञानर्द्धिः पभू णं भंते ! चोद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं पडाओ पडसहस्सं विउवित्तए ?, हता पहू विउवित्तए'तहा- 'जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥१॥' [ ] इत्यादि, तथा चरणर्द्धि: नास्त्यसाध्यं नाम चरणस्य, तद्वन्तो हि देवैरपि पूज्यन्त इत्यादि, दर्शनर्द्धि: प्रशमादिरूपा, तथा- ‘सम्मद्दिट्ठी जीवो विमाणवजं ण बंधए आउं । जइवि ण सम्मत्तजढो अहव ण बद्धाउओ पुब्बिं ॥१॥' [ ] इत्यादि, उपदिश्यते कथ्यते खलु यत्र प्रक्रमे कथायाः संवेजन्या रसो निष्यन्द एष इति गाथार्थः । उक्ता संवेजनी, निर्वेदनीमाहपापानां कर्मणां चौर्यादिकृतानामशुभविपाकः दारुणपरिणामः कथ्यते यत्र यस्यां कथायामिह च परत्र च लोके इहलोके कृतानि कर्माणि इहलोक एवोदीर्यन्ते इति, अनेन चतुर्भङ्गिकामाह, कथा तु निर्वेदनी नाम, निर्वेद्यते भवादनया श्रोतेति निर्वेदनी एष गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादयसेयः, तच्चेदम्- इयाणिं निव्वेयणी, सा चउब्विहा, तंजहा- इहलोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति त्ति, जहा चोराणं पारदारियाणं एवमाइ, एसा पढमा निव्वेयणी, इयाणिं बिइया, इहलोए दुच्चिण्णा कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति, कहं ?, जहा नेरइयाणं अन्नम्मि भवे कयं कम्मं निरयभवे फलं देइ, एसा बिइया निव्वेयणी गया । इयाणी तइया, परलोए दुच्चिण्णा कम्मा इहलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति, कहं ?, जहा बालप्पभितिमेव अंतकुलेसु उप्पन्ना खयकोढादीहिं रोगेहिं दारिद्देण य अभिभूया दीसन्ति, एसा तइया णिव्वेयणी, इयाणिं चउत्थी णिव्वेयणी, परलोए दुच्चिण्णा कम्मा परलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवंति, कहं ?, जहा पुब्विं दुच्चिण्णेहिं कम्मेहिं जीवा संडासतुंडेहिं पक्खीहिं उववजंति, तओ ते णरयपाउग्गाणि कम्माणि असंपुण्णाणि ताणि ताए जातीए पूरिंति, पूरिऊण नरयभवे वेदेन्ति, एसा चउत्था निव्वेयणी गया, एवं इहलोगो परलोगो वा पण्णवयं पडुच्च भवइ, तत्थ पन्नवयस्स मणुस्सभवो इहलोगो अवसेसाओ तिण्णि वि गईओ परलोगो [दशवै० चू० अ० ३] त्ति गाथाभावार्थः ॥ इदानीमस्या एव रसमाहस्तोकमपि प्रमादकृतम् अल्पमपि प्रमादजनितं कर्म वेदनीयादि साहिजई त्ति कथ्यते यत्र नियमात् नियमेन, किंविशिष्टमित्याह- प्रभूताशुभपरिणामं बहुतीव्रफलमित्यर्थः, यथा यशोधरादीनामिति कथाया निर्वेदिन्या रसः एष निष्यन्द इति गाथार्थः संक्षेपतः । संवेगनिर्वेदनिबन्धनमाह- सिद्धिश्च Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि देवलोकः सुकुलोत्पत्तिश्च भवति संवेगः, एतत्प्ररूपणम्, संवेगहेतुत्वादिति भावः, एवं नरकस्तिर्यग्योनिः कुमानुषत्वं च निर्वेद इति गाथार्थः । आसां कथानां या यस्य कथनीयेत्येतदाहविनयेन चरति वैनयिकः शिष्यस्तस्मै प्रथमतया-आदिकथनेन कथा तु आक्षेपणी उक्तलक्षणा कथयितव्या, ततः स्वसमयगृहीतार्थे सति तस्मिन् कथयेद् विक्षेपणीम् उक्तलक्षणामेव पश्चादिति गाथार्थः । किमित्येतदेवमित्याह- आक्षेपण्या कथया आक्षिप्ता: आवर्जिता आक्षेपण्याक्षिप्ता ये जीवास्ते लभन्ते सम्यक्त्वम्, तथा आवर्जनं शुभभावस्य मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमोपायत्वात्, विक्षेपण्यां भाज्यं सम्यक्त्वं कदाचिल्लभन्ते कदाचिन्नेति तच्छ्रवणात्तथाविधपरिणामभावात्, गाढतरं वा मिथ्यात्वम्, जडमतेः परसमयदोषानवबोधान्निन्दाकरिण एते न द्रष्टव्या इत्यभिनिवेशेनेति गाथार्थः ॥१९५॥" - दशवै० हारि० ॥ [पृ० ३६१] "किं कय किं वा सेसं किं करणिजं तवं च न करेमि । पुव्वावरत्तकाले जागरओ भावपडिलेहा ॥४३५।। वृ० सुगमा ॥ नवरं पुव्वावरत्तकालेत्ति पूर्वरात्रकाले रात्रिप्रहरद्वयस्याद्यस्यान्तः, उपरिष्टादपररात्रकालस्तस्मिन् जाग्रत:- चिन्तयतः । एवमुक्ता छद्मस्थविषया भावप्रत्युपेक्षणा, तद्भणनाच्च भणिता प्रत्युपेक्षणा ॥४३५॥" - ओघनि० द्रोणा० ॥ [पृ० ३६२] “के य ते पुण महामहाः ?, उच्यन्ते- आसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धव्वे । एए महामहा खलु एएसिं चेव पाडिवया ॥१३३८॥ व्या० आसाढी आसाढपुन्निमा, इह लाडाण सावणपुन्निमाए भवति, इंदमहो आसोयपुन्निमाए भवति, कत्तिय त्ति कत्तियपुन्निमाए चेव सुगिम्हओ चेत्तपुण्णिमा, एए अंतिमदिवसा गहिया, आई उ पुण जत्थ जत्थ विसए जओ दिवसाओ महमहा पवत्तंति तओ दिवसाओ आरब्भ जाव अंतदिवसो ताव सज्झाओ न कायव्वो, एएसिं चेव पुण्णिमाणंतरं जे बहुलपडिवया चउरो तेवि वज्जियत्ति गाथार्थः ॥१३३८॥ न केवलमाज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति, इमे य- सुअनाणंमि अभत्ती लोअविरुद्धं पमत्तछलणा य। विजासाहणवइगुन्नधम्मया एव मा कुणसु ॥१४०८॥ व्या० सुयणाणे अणुपयारओ अभत्ती भवति, अहवा सुयणाणभत्तिराएण असज्झाइए सज्झायं मा कुणसु, उवएसो एस, जंपि लोयधम्मविरुद्धं च तं न कायव्वं, अविहीए पमत्तो लब्भइ, तं देवया छलेज्जा, जहा विज्जासाहणवइगुण्णयाए विज्जा न सिज्झइ तहा इहंपि कम्मक्खओ न होइ । वैगुण्यं वैधम्यं विपरीतभाव इत्यर्थः । धम्मयाते सुयधम्मस्स एस धम्मो जं असज्झाइए सज्झाइयवजणं, करंतो य सुयणाणायारं विराहेइ, तम्हा मा कुणसु ॥१४०८॥" - आव० हारि० ॥ [पृ० ३६४] “निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पवितुणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति- इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि विउट्टामि विसोहेमि अकरणयाए अब्भुट्टेमि, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोएस्सामि जाव तवोकम्मं पडिवजिस्सामि । से य संपट्ठिए, असंपत्ते, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए, नो विराहए।" - [भगवती०८।६।७] निग्गंथेण येत्यादि, इह चशब्दः पुनरर्थः, तस्य घटना चैवम्-निर्ग्रन्थं कश्चित् पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टं पिण्डादिनोपनिमन्त्रयेत् तेन च निर्ग्रन्थेन पुनः अकिच्चट्ठाणे त्ति कृत्यस्य करणस्य स्थानम्- आयः कृत्यस्थानम्, तनिषेधः अकृत्यस्थानं मूलगुणादिप्रतिसेवारूपोऽकार्यविशेष: तस्स णं ति तस्य निर्ग्रन्थस्य सञ्जातानुपातस्य एवं भवति एवंप्रकारं मनोभवति एयस्स ठाणस्स त्ति विभक्तिपरिणामाद् एतत्स्थानम् अनन्तरासेवितम् आलोचयामि स्थापनाचार्यनिवेदनेन प्रतिक्रमामि मिथ्यादुष्कृतदानेन निन्दामि स्वसमक्षं स्वस्याकृत्यस्थानस्य वा कुत्सनेन, गहें गुरुसमक्षं कुत्सनेन, विउदृमि त्ति वित्रोटयामि तदनुबन्धं छिनधि, विशोधयामि प्रायश्चित्तपत प्रायश्चित्ताभ्युपगमेन, अकरणतया अकरणेन अभ्युत्तिष्ठामि अभ्युत्थितो भवामीति अहारिहं ति यथार्ह यथोचितम्, एतच्च गीतार्थतायामेव भवति नान्यथा, अंतियं ति समीपं गत इति शेष: थेरा अमुहा सिय त्ति स्थविरा: पुनः अमुखा: निर्वाचः स्युर्वातादिदोषात्, ततश्च तस्यालोचनादिपरिणामे सत्यपि नालोचनादि संपद्यत इत्यतः प्रश्नयति- से णमित्यादि, आराहए त्ति मोक्षमार्गस्याराधकः शुद्ध इत्यर्थः भावस्य शुद्धत्वात्, संभवति चालोचनापरिणतौ सत्यां कथञ्चित्तदप्राप्तावप्याराधकत्वम् ॥८।६।७॥” इति भगवतीसूत्रे श्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते॥ [पृ० ३६८] “इत्थं स्वगतदोषपरिहारमभिधायोपाधिकृतदोषपरिहारमाह- समरेसु अगारेसुं, गिहसंधिसु अ महापहेसु । एगो एगित्थीए सद्धिं, नेव चिढे न संलवे ॥२६॥ वृ० समरेषु खरकुटीषु, तथा च चूर्णिकृत्- ‘समरं नाम जत्थ हेट्ठा लोयारा कम्मं करेंति', उपलक्षणत्वादस्यान्येष्वपि नीचास्पदेषु अगारेषु गृहेषु गृहसन्धिषु च गृहद्वयान्तरालेषु च महापथेषु राजमार्गादौ, किमित्याहएकः असहायः ‘एका असहाया सा चासौ स्त्री च एकस्त्री तया साई' सह नैव तिष्ठेत् असंलपन्नेव चोर्ध्वस्थानस्थो न भवेत्, न संलपेत् न तयैव सह संभाषं कुर्यात्, अत्यन्तदुष्टतोद्भावनपरं चैकग्रहणम्, अन्यथा ससहायस्यापि ससहायया अपि च स्त्रिया सहावस्थानं सम्भाषणं चैवंविधास्पदेषु दोषायैव, प्रवचनमालिन्यादिदोषसम्भवात्, अथवा सममरिभिर्वर्तन्त इति समरा द्रव्यतो जनसंहारकारिणः संग्रामाः भावात्तु स्त्रीणामरिभूतत्वात् ज्ञानादिजीवस्वतत्त्वघातिनः तासामेव दृष्ट्या दृष्टिसम्बन्धाः, तत्रेह भावसमरैरधिकारः, सप्तमी चेयम्, ततोऽयं भावार्थ:- द्रव्यसमरा हि न स्युरपि प्राणापहारिणः, भावसमरास्तु ज्ञानादिभावप्राणापहारिण एव, विशेषस्त्वेकाकितायाम्, तत एवमेतेष्वपि दारुणेषु भावसमरेषु सत्सु नैक एकस्त्रिया सार्द्धमगारादिषु तिष्ठेत् संलपेद्वा, अनेनापि चारित्रविनय एवोक्तः ।" - उत्तरा० पाईय० ॥२६॥ [पृ० ३६९] “तमुक्काए णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिते, उप्पिं कुक्कुडगपंजरगसंठिए पण्णत्ते । किमियमित्यादि, तमुक्काए त्ति तमसां तमिश्रपुद्गलानां कायो राशिस्तमस्कायः स च नियत एवेह स्कन्धः कश्चिद्विवक्षितः,...... अहे इत्यादि, अधः Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अधस्तान्मल्लकमूलसंस्थितः-शरावबुध्नसंस्थानः, समजलान्तस्योपरि सप्तदश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि यावद्वलयसंस्थानत्वात, स्थापना च- ॥६॥५॥३॥" - भगवती० अभयदेवीया वत्तिः॥ [पृ० ३७२] 'जल-रेणु-भूमि-पर्वतराजिसदृशः चतुर्विधः क्रोधः । तिनिशलता-काष्ठाऽस्थिकशैलस्तम्भोपमो मानः ।।२९९०॥ मायावलेहिका-गोमूत्रिका-मेषशृङ्ग-घनवंशीमूलसमा । लोभो हरिद्रा-खञ्जन-कर्दम-कृमिरागसमानः ॥२९९१॥ पक्ष-चतुर्मास-वत्सर-यावज्जीवानुगामिनः क्रमशः । देव-नर-तिर्यग्-नारकगतिसाधनहेतवो ज्ञेयाः ॥२९९२॥' - इति संस्कृते छाया ॥ [पृ०३७५] “तत्र प्रथमतो लक्षण-भेदयोः प्ररूपणार्थमाह- जं करणेणोकड्डिय उदए दिज्जइ उदीरणा एसा । पगइठिइअणुभागप्पएसमूलुत्तरविभागा ॥४१॥ जं ति अत्र पूर्वार्धेन लक्षणमभिहितमुत्तरार्धेन तु भेदः । तत्र यत्परमाण्वात्मकं दलिकं करणेन योगसंज्ञकेन वीर्यविशेषेण कषायसहितेनासहितेन वा उदयावलिकाबहिर्वर्तिनीभ्यः स्थितिभ्योऽपकृष्योदये दीयते उदयावलिकायां प्रक्षिप्यते एषोदीरणा । उक्तं च- उदयावलियबाहिरिल्लठिईहिंतो कसायसहिएणं असहिएण वा जोगसन्नेण करणेणं दलियमाकट्टिय उदयावलियाए पवेसणं उदीरण [ ] त्ति । सा च किंभूतेत्यत आहप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशमूलोत्तरविभागा, प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशैर्मूलप्रकृतिभिरुत्तरप्रकृतिभिश्च कृत्वा विभागो भेदो यस्याः सा तथा । इदमुक्तं भवति- सोदीरणा चतुर्विधा, तद्यथा- प्रकृत्युदीरणा, स्थित्युदीरणा, अनुभागोदीरणा, प्रदेशोदीरणा च । एकैकापि द्विधा- मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च । तत्र मूलप्रकृतिविषयाऽष्टधा, उत्तरप्रकृतिविषया चाष्टपञ्चाशदधिकशतभेदा ॥४।१।। ___ तदेवाह- उव्वदृणओवट्टणसंकमणाइं च तिन्नि करणाइं। पगई तया समइउं पहू नियट्टिम्मि वढ्तो ॥५।६७॥ उवट्टणउ त्ति देशोपशमनया उपशमितस्य कर्मण उद्वर्तनापवर्तनासंक्रमरूपाणि त्रीणि करणानि प्रवर्तन्ते, नान्यानि करणानि उदीरणाप्रभृतीनि । एष देशोपशमनाया विशेषः । तथा मूलप्रकृतिमुत्तरप्रकृतिं वा तया देशोपशमनया उपशमयितुं प्रभुः समर्थो निवृत्तिकरणेऽपूर्वकरणे वर्तमानः। इह निवृत्तिग्रहणं पर्यवसानार्थं वेदितव्यम् । तत इदमुक्तं भवति- सर्वेऽप्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्नारकदेवा मनुष्याश्च यथासंभवमपूर्वकरणपर्यवसानाः सर्वकर्मणां देशोपशमनास्वामिनोऽवसेयाः ॥५।६७॥” - कर्मप्रकृति० मलय० ॥ [पृ० ३७६] "जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ । .... ॥९९॥ व्या० जोगाओ पगतिबंधो पदेसबंधो य भवति, कहं ? भन्नइ, जोगाओ पएसगहणं पदेसविरहिओ पगतीणं बंधो पत्थि; तेण जोगा पगतिपदेसबंधो । ठितिबंधं अणुभागबंधं च कसायतो करेइ । कहं ? भन्नइ, कम्मस्स णिबद्धस्स ट्टिई रसभावो य कसायतो भवति, ते चेव ठितिअणुभागा । एत्थ अद्दहणतंदुलदिढतो, अद्दहणतुल्लो अणुभागो, तंदुलत्थाणीया पदेसा, जो रद्धो सो चिरकालठाति, इतरो वा, पगतीबलातिकरणं ॥९९॥" - बन्धशतकचूर्णौ ॥ [पृ०३७७] “तत्र प्रथमतः संक्रमस्य सामान्यलक्षणमभिधातुकाम आह- सो संकमो त्ति वुच्चइ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि जब्बंधणपरिणओ पओगेणं । पगयंतरत्थदलियं परिणमयइ तयणुभावे जं ॥२॥१॥ सो संकमु त्ति इह जीवो यद्बन्धनपरिणतो यस्याः प्रकृतेर्बन्धनेन बन्धकत्वेन परिणतः । अनेन किलेदमावेद्यतेयदि जीवस्तथारूपबन्धनपरिणामपरिणतो भवति ततः कर्मवर्गणापुद्गला अपि कर्मरूपतया परिणमन्ते, नान्यथा । उक्तं च- जीवपरिणामहेऊ कम्मत्ता पुग्गला परिणमंति । पोग्गलकम्मनिमित्तं जीवो वि तहेव परिणमइ ॥१॥ [ ] अस्या अक्षरगमनिका-जीवस्य सत्कात् परिणामादध्यवसायाद्धेतोः, जीवपरिणामं हेतुमाश्रित्येत्यर्थः । कर्मवर्गणान्तःपातिनो जीवस्वप्रदेशावगाढाः पुद्गलाः कर्मरूपतया ज्ञानावरणीयादिकर्मरूपतया परिणमन्ते । अथ जीवस्यापि तथारूप: परिणामः कस्माद् भवतीति चेदुच्यते- 'पुग्गलेत्यादि' पुद्गलरूपं यत् प्राग्बद्धं कर्म विपाकोदयप्राप्तं तन्निमित्तम्, तत्सामर्थ्यादिति भावः । जीवोऽपि तथैव स्वप्रदेशावगाढकर्मवर्गणान्तःपातिपुद्गलकर्मरूपतापत्तिहेतुतयैव परिणमत इति ॥ पओगेणं ति प्रयोगेण संक्लेशसंज्ञितेन विसोधिसंज्ञितेन वा वीर्यविशेषेण । विवक्षितायाः प्रकृतेरन्या प्रकृतिः प्रकृत्यन्तरं विवक्षितबध्यमानप्रकृतिव्यतिरिक्ताऽन्या प्रकृतिरित्यर्थः । तत्रस्थं दलिकं तदनुभावेन बध्यमानप्रकृतिस्वभावेन यत्परिणमयति परिणमनमापादयति स संक्रम उच्यते । एतदुक्तं भवतिबध्यमानासु प्रकृतिषु मध्येऽबध्यमानप्रकृतिदलिकं प्रक्षिप्य बध्यमानप्रकृतिरूपतया यत्तस्य परिणमनम्, यच्च वा बध्यमानानां प्रकृतीनां दलिकरूपस्येतरेतररूपतया परिणमनं तत्सर्वं संक्रम इत्युच्यते । तत्र बध्यमानप्रकतिष्वबध्यमानप्रकृतीनां संक्रमो यथा- सातवेदनीये बध्यमानेऽसातवेदनीयस्य. ऊच्चैर्गोत्रे वा नीचैर्गोत्रस्येत्यादि । बध्यमानानां परस्परं संक्रमो यथा-बध्यमाने मतिज्ञानावरणीये बध्यमानमेव श्रुतज्ञानावरणं संक्रमयति, श्रुतज्ञानावरणे वा बध्यमाने बध्यमानमेव मतिज्ञानावरणीयमित्यादि । इह यत्प्रकृतिबन्धकत्वेन परिणत आत्मा तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं यत्परिणमयति स संक्रम इत्युक्तम् ॥२।१॥ तदेवमुक्तः प्रकृतिसंक्रमः । संप्रति स्थितिसंक्रमाभिधानावसरः । तत्र चैतेऽर्थाधिकाराः । तद्यथाभेदो विशेषलक्षणं उत्कृष्टस्थितिसंक्रमणप्रमाणं जघन्यस्थितिसंक्रमप्रमाणं साद्यादिप्ररूपणा स्वामित्वप्ररूपणा चेति । तत्र भेद- विशेषलक्षणयोः प्रतिप्रादनार्थमाह- ठिइसंकमो त्ति वुच्चइ मूलुत्तरपगइओ य जा हि ठिई । उव्वट्टिया व ओवट्टिया व पगई निया वऽण्णं ॥२॥२८॥ ठिइ त्ति इह मूलत्तरपगइओ इत्यत्र षष्ठ्यर्थे पञ्चमी । ततोऽयमर्थः- हि स्फुटं या स्थितिर्मूलप्रकृतीनामष्टसंख्यानामुत्तरप्रकृतीनां वाऽष्टपञ्चाशदधिकशतसंख्यानां संबन्धिनी उद्वर्तिता ह्रस्वीभूता सती दीर्घाकृता, अपवर्तिता वा दीर्घाभूता सती ह्रस्वीकृता, अन्यां वा प्रकृतिं नीता पतद्ग्रहप्रकृतिस्थितिषु मध्ये नीत्वा निवेशिता स स्थितिसंक्रम उच्यते। एतदुक्तं भवति- द्विविधः स्थितिसंक्रमो मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रमश्च । तत्र मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रमोऽष्टप्रकारः । तद्यथा- ज्ञानावरणीयस्य यावदन्तरायस्य । उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रमोऽष्टपंचाशदधिकशतधा । तद्यथा- मतिज्ञानावरणीयस्य श्रुतज्ञानावरणीयस्य यावद्वीर्यान्तरायस्य । तदेवं मूलुत्तरपगईओ' इत्यनेन भेद उक्तः । उव्वटिया Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि इत्यादिना तु विशेषलक्षणं त्रिप्रकारम् । तत्र कर्मपरमाणूनां हस्वस्थितिकालतामपहाय दीर्घकालतया व्यवस्थापनमुद्वर्तना । कर्मपरमाणूनामेव दीर्घस्थितिकालतामपहाय हस्वस्थितिकालतया व्यवस्थापनमपवर्तना । यत्पुनः संक्रम्यमाणप्रकृतिस्थितीनां पतद्ग्रहप्रकृतौ नीत्वा निवेशनं तत्प्रकृत्यन्तरनयनम्, स्थितीनां चान्यत्र निवेशनं स्थितियुक्तानां परमाणूनामवसेयम्, स्थितेरन्यत्र नेतुमशक्यत्वात् । इदं च विशेषलक्षणं सामान्यलक्षणे सत्येवावगन्तव्यम्, न सर्वथा तदपवादेन, तेन मूलप्रकृतीनां परस्परं संक्रमप्रतिषेधात्, तासामन्यप्रकृत्यन्तरनयनलक्षणः स्थितिसंक्रमो न भवति, किं तु द्वावेव उद्वर्तनापर्वतनालक्षणौ संक्रमौ । उत्तरप्रकृतीनां तु त्रयोऽपि संक्रमा द्रष्टव्याः ||२|२८|| कृता स्पर्धकप्ररूपणा, संप्रति विशेषलक्षणप्ररूपणार्थमाह- तत्थट्ठपयं उव्वट्टिया व ओट्टिया अभागा । अणुभागसंकमो एस अन्नपगइं निया वावि || २|४६ || तत्त् तत्रानुभागसंक्रमेऽर्थपदं याथात्म्यनिर्धारणमिदं यदुत उद्वर्तिताः प्रभूतीकृता यद्वाऽपवर्तिता स्वीकृ अथवाऽन्यां प्रकृतिं नीता अन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणमिताः अविभागा अनुभागाः । एष सर्वोऽप्यनुभागसंक्रमः । तत्र मूलप्रकृतीनामुद्वर्तनापवर्तनारूपौ द्वावेव संक्रमौ नान्यप्रकृतिनयनरूपः संक्रमः, तासां परस्परं संक्रमाभावात् । उत्तरप्रकृतीनां तु त्रयोऽपि संक्रमाः || २|४६ || जं दलियमन्नपगइं निज्जइ सो संकमो पएसस्स ||२|६० || जं ति यत्संक्रमप्रायोग्यं दलिकं कर्मद्रव्यम् अन्यप्रकृतिं नीयते अन्यप्रकृतिरूपतया परिणम्यते स प्रदेशसंक्रमः ॥ ६० ॥ .... संकमणं पि निहत्तीए नत्थि सेसाण वियरस्स || ६ | १ || इदम्- संक्रमणमपि परप्रकृतिसंक्रमणमपि, अपि शब्दादुदीरणादीन्यपि निधत्तौ सत्यां न भवन्ति, उद्वर्तनाऽपवर्तने पुनर्भवत एव । इतरस्यां निकाचनायां शेषेऽपि उद्वर्तनाऽपवर्तनेऽपि न भवतः । सकलकरणायोग्यं निकाचितमित्यर्थः ॥६॥१॥ कर्मप्रकृति मलय० ॥ [पृ०३८१] 'पंच सए बाणउए, सोलससहस्स दो कलाओ य | विजयावक्खाराणं, अंतरनड्वणमुहाणं च || ३६४ || व्या० षोडश सहस्राणि पञ्च शतानि द्विनवत्यधिकानि योजनानां द्वे च कले योजनस्यैकोनविंशतिभागरूपे १६५९२ एतावान् विजयानां वक्षस्कारगिरीणामन्तरनदीनां वनमुखानां चायामः, तथाहि - महाविदेहविष्कम्भस्त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिक योजनानां चत्वारश्चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ३३६८४ । एतेभ्यो नदीगतानि पञ्च योजनशतान्यपनीयन्ते, तेषु चापगतेषु जातानि शेषाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं चतुरशीत्यधिकं योजनानां चत्वारश्चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ३३१८४ । तेषामर्थं क्रियते, लब्धानि पोडश सहस्राणि पञ्च शतानि द्विनवत्यधिकानि योजनानां द्वे च कले १६५९२ १९ ॥३६४॥ सम्प्रति वक्षस्कारगिरिवक्तव्यतामाह- जत्तो वासहरगिरी, तत्तो जोयणसयं समोगाढा । चत्तारि जोयणसए, उव्विद्धा सव्वरयणमया || ३७१ ।। जत्तो पुण सलिलाओ, तत्तो पंचसयगाउओगाढा । पंचेव जोयणसए, उव्विद्धा आसखंधनिभा ||३७२ || व्या० सर्वेऽपि ३७ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि वक्षस्कारगिरयः सर्वरत्नमयाः सर्वरत्नबहुलाः, तथा यतो यस्यां दिशि वर्षधरगिरिर्वर्षधरपर्वतो निषधो नीलवान् वा तस्यां दिशि तत्समीपे इत्यर्थः, योजनशतमवगाढा योजनशतं भूमौ प्रविष्टाः, चत्वारि योजनशतानि उद्धा उच्चाः, ततो मात्रया परिवर्धमाना यतो यस्यां दिशि सलिले शीताशीतोदे महानद्यौ ततः शीतायाः शीतोदाया वा समीपे इत्यर्थः, पञ्च गव्यूतशतान्यवगाढा: पञ्चविंशं योजनशतं भूमौ प्रविष्टाः, पञ्च योजनशतान्युद्विद्धा उच्चाः, अत एवाश्वस्कन्धनिभा अश्वस्कन्धसंस्थानसंस्थिताः ॥३७१ ३७२। ३८ विजयाणं विक्खंभो, बावीस सयाई तेरसहियाइं । पंच सए वक्खारा, पणवीससयं च सलिलाओ ||३७० ||' व्या० विजयानां सर्वेषामपि प्रत्येकं विष्कम्भो विष्कम्भपरिमाणं द्वाविंशतिशतानि त्रयोदशसहितानि किञ्चिदूनत्रयोदशाधिकानि । वक्षस्काराणां वक्षस्कारगिरीणां पञ्च शतानि पञ्चविंशं शतमन्तरनदीनाम् । पंच सए वक्खारा इत्यत्राभिन्ननिर्देशः अभेदात् प्रथमान्तनिर्देशः, परिमाणपरिमाणवतोरभेदोपचारात् ॥३७०||” बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०३८२] बावीस सहस्साई, पुव्वावरमेरुभद्दसालवणं । अड्डाइज्जसया पुण दाहिणपासम्म उत्तरओ ।। ३१७ ।। व्या० भद्रशालवनं पूर्वापरायतं दक्षिणोत्तरविस्तीर्णं मेरोर्वलयाकारेण परिक्षेपि च । तत्र मेरोः पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येकं भद्रशालवनमायामतो द्वाविंशतियोजनसहस्राणि २२०००। दक्षिणपार्श्वे उत्तरपार्श्वे [च] प्रत्येकं विष्कम्भोऽर्धतृतीयानि योजनशतानि २५० ॥३१७॥ - सम्प्रति नन्दवनवक्तव्यतामाह- पंचेव जोयणसए, उड्डुं गंतूण पंचसयपिहुलं । नंदणवणं सुमेरुं, परिक्खित्ता ठियं रम्मं ॥ ३२७॥ व्या० समतलाद्भूभागात्पञ्च योजनशतान्यूर्ध्वं गत्वाऽत्रान्तरे पञ्चयोजनशतपृथुलं पञ्चयोजनशतप्रमाणविष्कम्भं नन्दनं नाम वनं वलयाकारेण सुमेरुं परिक्षिप्य स्थितम्, तच्चानेकमणिमयकूटवापीमण्डपादिकलिततया रम्यं रमणीयम् ॥ ३२७॥ सम्प्रति सौमनसवनवक्तव्यतामाह - बासट्ठि सहस्साई, पंचेव सयाइं नंदणवणाओ । उड्डुं गंतूण वणं, सोमनसं नंदणसरिच्छं ||३३८ || व्या० नन्दनवनादूर्ध्वं योजनानां द्वाषष्टिसहस्राणि पञ्च शतानि गत्वाऽत्रान्तरे सौमनसं नाम वनम्, तच्च नन्दनवनसदृशम्, यथा नन्दनवनं चक्रवालतया मेरुं परिक्षिप्य स्थितम्, एकैकस्मिंश्च पार्श्वे पञ्चपञ्चयोजनशतविष्कम्भम्, तथा सौमनसवनमपीत्यर्थः ||३३८||” सम्प्रति पाण्डुकवनवक्तव्यतामाह- सोमणसाओ तीसं, छच्च सहस्से विलग्गिऊण गिरिं । विमलजलकुंडगहणं, हवइ वणं पंडगं सिहरे ॥ ३४६ ॥ | व्या० सौमनसवनादूर्ध्वं षट्त्रिंशत्सहस्राणि गिरिं मेरुगिरिं विलग्योत्प्लुत्यात्रान्तरे शिखररूपे उपरितले पण्डकं नाम वनं भवति, तच्च कथंभूतमित्याहविमलजलकुंडगहणं विमलजलसंपूर्णानि यानि कुण्डानि तैर्गहनम्, किमुक्तं भवति ? स्थाने स्थाने विमलजलसंपूर्णानि तत्र कुण्डानि सन्ति ॥ ३४६ ॥ सम्प्रति तत्रैव पृथुत्वपरिमाणमाह- चत्तारि जोयणसया, चउणउया चक्कवालओ रुंदा । इगतीस जोयणसया, बासट्ठि परिरओ तस्स ॥ ३४७ || व्या० चत्वारि योजनशतानि चतुर्नवत्यधिकानि Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ४९४ चक्रवालतो रुन्दं विस्तीर्णं पण्डकवनम्, किमुक्तं भवति ? चूलिकाया बहिरेकैकस्मिन् पार्श्वे एतावत्प्रमाणं पण्डकवनम्, तथाहि- सौमनसात् षट्त्रिंशद्योजनसहस्रेषूर्ध्वमतिक्रान्तेषु पण्डकवनम्, मेरौ च मेखलाद्वयाविवक्षया सर्वत्र प्रतियोजनगतैकादशभागपरिहानिः ततोऽत्रापि त्रैराशिककर्मावतारः, तच्चैवं त्रैराशिककर्म- यदि योजनमेकमारुह्योपरि क्षेत्रवृत्तताया अपचय एक एकादशभागो योजनस्य, तत: षट्त्रिंशद्योजनसहस्रारोहणे कोऽपचयः प्राप्यते ? लब्धानि द्वात्रिंशच्छतानि द्विसप्तत्यधिकानि योजनानां ३२७२ अष्टौ चैकादशभागा योजनस्य, । एतत् सौमनससत्काबहिर्विष्कम्भाच्चत्वारि सहस्राणि द्वे शते द्विसप्तत्यधिके योजनानामष्टौ चैकादशभागा योजनस्य ४२७२ । इत्येवंपरिमाणाच्छोध्यते, शोधिते च सति तस्मिन् जातं शेष योजनसहस्रम्, एतावानुपरितले शिरोभागे मन्दरस्य विष्कम्भः । तत्र च बहुमध्यभागे चूला, सा च मूले द्वादशयोजनप्रमाणविष्कम्भा, तस्याः समन्ततः परिक्षेपि पण्डकवनम्, ततः सहस्रात् द्वादशयोजनापगमे शेषाण्यष्टाशीत्यधिकानि नव शतानि तिष्ठन्ति, तेषामधं भवन्ति चत्वारि शतानि चतुर्नवत्यधिकानि ॥४९४॥ सम्प्रति परिधिपरिमाणमाहतस्य पण्डकवनस्य एकत्रिंशद्योजनशतानि द्वाषष्ठ्यधिकानि परिरयः ३१६२ । एतच्च परिरयपरिमाणं प्रागुक्तकरणवशात् स्वयमेवानेतव्यम् ॥३४७॥" - बृहत्क्षेत्र० मलय०। [पृ०३८३] “चउजोयणविच्छिन्ना, अट्ठेव य जोयणाइ उव्विद्धा । उभओ वि कोसकोसं, कुड्डा बाहल्लओ तेसिं ॥१७॥ व्या० चत्वार्यपि द्वाराणि प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि योजनानि विस्तीर्णानि, अष्टावष्टौ च योजनानि उद्विद्धान्युच्चानीत्यर्थः । तथा तेषां द्वाराणां मध्ये एकैकस्य द्वारस्य उभयत उभयोरपि पार्श्वयोर्यदेकैकं कुड्यम्, कुड्ये द्वारशाखापरपर्याये बाहल्यतः पृथुत्वेन क्रोशं क्रोशं भवतः। क्रोशं क्रोशमित्यत्र च “कालाध्वभावदेशं वा कर्म चाकर्मणाम्” [सिद्धहेम० २।२।२३] इति द्वितीया । इह यत एकैकस्य द्वारस्यैकैका द्वारशाखा क्रोशक्रोशप्रमाणपृथुत्वा द्वारं द्वारं च चतुर्योजनविस्तारम्, अतः सामस्त्येनैकैकं द्वारं परिभाव्यमानम् अर्धपञ्चमयोजनप्रमाणपृथुत्वमवसेयम् ॥१७॥ ___ साम्प्रतमेतेषां द्वाराणमधिष्ठातारो ये देवास्तेषां स्वरूपमभिधित्सुराह- पालिओवमट्ठिईया, सुरगणपरिवारिया सदेवीया । एएसु दारनामा, वसंति देवा महड्डीया ॥१९॥ व्या० एतेषु अनन्तरोक्तस्वरूपेषु विजयादिषु द्वारेषु देवा वसन्तीति योगः । कथंभूतास्त इत्याह- पल्योपमस्थितिका: पल्योपमं स्थितिर्येषां ते पल्योपमस्थितिका: पल्योपमप्रमाणायुःस्थितयः इत्यर्थः । तथा सुरगणपरिवारिता इति सुरा देवाः, ते च व्यन्तरा अवगन्तव्याः, तानेव प्रति तेषामाधिपत्यसंभवात्, तेषां गण: समूहः तेन परिवारिताः सुरगणपरिवारिताः, यदिवा सुरगण एव परिवारः सुरगणपरिवारः, स संजातो येषां ते सुरगणपरिवारिताः, तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः, ते हि प्रत्येकं चतुर्णामिन्द्रसामानिकदेवसहस्राणां तिसृणां पर्षदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणामन्येषामपि स्वस्वविजयाद्यभिधानराजधानीवास्तव्यानां भूयसां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चाधिपतय इति भवन्ति ते सुरगणपरिवारिताः । तथा सह देवीभिः वर्तन्ते इति सहदेवीकाः, तत्राल्पीयानपि वानमन्तरो Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि देव्या सह वर्तत इति न देवीमात्रप्रतिपादने विशेषणं फलवदिति सामर्थ्यात् प्रत्येकं चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिर्देवीभिः सह वर्तन्त इति द्रष्टव्यम्, तथा प्रवचने प्रतिपादनात् । किंनामानस्त इत्याहद्वारनामान: द्वाराणामिव नामानि येषां ते तथा, किमुक्तं भवति ? यान्येव द्वाराणं विजयादीनि नामानि तान्येव यथाक्रमं द्वाराधिपतीनां देवानामपि देवाभिधानवशतो द्वाराणामभिधानप्रवृत्तेः, तथाहि- यो यः पूर्वद्वाराधिपतिरुत्पद्यते देवः स स तत्संबन्धिभिरिन्द्रसामानिकादिभिर्देवैर्विजयो विजय इत्याहूयते, तत्स्थितिप्रतिपादके कल्पपुस्तके तथाऽभिधानात्, ततोऽस्य द्वारस्य विजयनामा देवोऽधिपतिरिति द्वारमपि विजयमित्यभिधीयते । एवं शेषाण्यपि द्वारनामानि भावनीयानि । न चैतदनार्षम्, यत उक्तं जीवाभिगमे- “से केणढेणं भंते एवं वुच्चइ विजयद्दारे इति ? गोयमा ! विजए णं दारे विजयनामं देवे महिड्डीए महज्जुइए महाबले महायसे महासोक्खे पलिओवमट्टिईए परिवसति, से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खियसहस्सीणं विजयस्स दारस्स विजयाए रायहाणीए अन्नेसिं च बहूणं विजयरायहाणिवत्थव्वाणं देवाणं देवीए य आहेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे जाव दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ, से एएणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ विजयद्दारे” इति । एवं शेषेष्वपि द्वारेषु प्रश्ननिर्वचनरूपा आलापका वेदितव्याः । तथा महती ऋद्धिर्येषां ते महर्द्धिकाः, महर्द्धिकत्वं य यथोक्तसङ्ख्याकानिन्द्रसामानिकादीन् देवान् विजयादीनि द्वाराणि विजयादिकाश्च नगरीः प्रति स्वामित्वभावात् ॥१९॥" - बृहत्क्षेत्र० मलय०। [पृ०३८५] “सम्प्रत्यन्तरद्वीपवक्तव्यतामाह- चुल्लहिमवंत पुव्वावरेण विदिसासु सागरं तिसए। गंतूणंतरदीवा, तिन्नि सए होंति विच्छिन्ना ॥२॥५५॥ व्या० क्षुल्लहिमवति पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि वेदिकान्तात् परतः प्रत्येकं द्वे द्वे दंष्ट्रे विदिगभिमुखे विनिर्गते, तद्यथा- पूर्वस्यां दिश्येका उत्तरपूर्वाभिमुखी द्वितीया दक्षिणपूर्वाभिमुखी, अपरस्यां दिश्येका दक्षिणापराभिमुखी अपराऽपरोत्तराभिमुखी, एवंभूतासु चतसृषु विदिगभिमुखीषु दंष्ट्रासु प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि योजनशतानि सागरं लवणसमुद्रं गत्वाऽतिक्रम्यात्रान्तरे विदिक्षु प्रत्येकमेकैकभावेन चत्वारोऽन्तरद्वीपा भवन्ति, ते च त्रीणि योजनशतानि प्रत्येकं विस्तीर्णाः, प्रत्येकमेव च पञ्चधनुःशतप्रमाणविष्कम्भा द्विगव्यूतोच्छ्रितया पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च सर्वतः परिक्षिप्ताः ॥५५॥ ___अउणापन्न नव सए, किंचूणे परिहि तेसिमे नामा। एगोरुय आभासिय, वेसाणा चेव लंगूलो ॥२॥५६॥ व्या० एकोनपञ्चाशानि एकोनपञ्चाशदधिकानि नव शतानि ९४९ किञ्चिदूनानि तेषां चतुर्णामन्तरद्वीपानां प्रत्येकं परिधिः । नामानि पुनरिमानि, तद्यथा- उत्तरपूर्वस्यामेकोरुकः, दक्षिणपूर्वस्यामाभाषिकः, दक्षिणापरस्यां वैषाणिकः, अपरोत्तरस्यां लालिकः। एवं द्वितीयादिचतुष्केष्वप्ययं क्रमो भावनीयः ॥२॥५६॥ एएसिं दीवाणं, परओ चत्तारि जोयणसयाइं । ओगाहिऊण लवणं, सपडिदिसिं Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि चउसयपमाणा ॥२॥५७॥ चत्तारंतरदीवा, हयगयगोकन्नसक्कुलीकन्ना । एवं पंच सयाई, छस्सत्त य अट्ठ नव चेव ॥२॥५८॥ ओगाहिऊण लवणं, विक्खंभोगाहसरिसया भणिया । चउरो चउरो दीवा, इमेहि नामेहि नायव्वा ॥२॥५९॥ व्या० एतेषामनन्तरोक्तानां चतुर्णा द्वीपानां परतः प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे सपडिदिसिं ति स्वप्रतिदिशि स्वस्वविदिशि चत्वारश्चतुर्योजनशतप्रमाणायामविष्कम्भा अन्तरद्वीपाः, ते च किंनामान इत्याहहयगयगोकन्नसक्कुलीकन्ना इति, अत्र कर्णशब्दो हयगजगोशब्दानां प्रत्येकमभिसंबध्यते हयको गजकर्णो गोकर्णः शष्कुलीकर्ण इति । इयं चात्र भावना- एकोरुकस्य परतो हयकर्णः, आभाषिकस्य परतो गजकर्णः, वैषाणिकस्य परतो गोकर्णः, लालिकस्य परतः शष्कुलीकर्ण इति । एते च हयकर्णादय एकोरुकादीनामीशानादिकोणाश्रयेण व्यवस्थिताः, ते च जम्बूद्वीपवेदिकान्तादप्यारभ्य चतुर्भिर्योजनशतैर्व्यवस्थिताः । एवं येषां येषां चतुर्णामन्तरद्वीपानां पूर्वेभ्यः पूर्वेभ्यश्चतुर्यो द्वीपेभ्यो यावत्प्रमाणमन्तरं तेषां द्वीपानां जम्बूद्वीपवेदिकान्तादपि तावत्प्रमाणमन्तरमवसेयम् । __ शेषानन्तरद्वीपानतिदेशत आह- एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण पञ्च षट् सप्त अष्टौ नव च योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य प्रत्येकं चत्वारश्चत्वारो द्वीपा भणितास्तीर्थकरगणधरैः । कथंभूता भणिता इत्याहविष्कम्भावगाहसदृशा विष्कम्भे विष्कम्भविषयेऽवगाहसमानाः । किमुक्तं भवति ? ये चत्वारो द्वीपा: पूर्वानन्तरद्वीपचतुष्टयापेक्षया यावत्प्रमाणं लवणसमुद्रमवगाह्य स्थितास्ते विष्कम्भतोऽपि तावत्प्रमाणाः, तद्यथा- ये पूर्वस्मात् द्वीपचतुष्टयात् परतः पञ्च योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य स्थितास्ते पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भाः । ये च तेभ्योऽपि परतः षट् योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य स्थितास्ते षड्योजनशतायामविष्कम्भा इत्यादि । ते चैभिर्वक्ष्यमाणस्वरूपैर्नामभिर्ज्ञातव्याः ॥५७-५९।। ___ आयंसमिंढगमुहा, अओमुहा गोमुहा य चउरो य । आसमुहा हत्थिमुहा,सीहमुहा चेव वग्यमुहा ॥२।६०॥ तत्तो य आसकन्ना, हरिकन्नाकन्नकन्नपाउरणा । उक्कमुहा मेहमुहा, विज्जुमुहा विज्जुदंता य ॥२।६१॥ घणदंत लठ्ठदंता, निगूढदंता य सुद्धदंता य । वासहरे सिहरम्मि वि, एवं चिय अट्ठवीसा वि ॥२॥६२॥ व्या० अमूनि नामानि सुगमानि । नवरमियमत्र भावना- हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिषु विदिक्षु प्रत्येकं पञ्च पञ्च योजनशतानि व्यतिक्रम्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भाः पूर्वोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितबाह्यप्रदेशा आदर्शमुखमेण्ढमुखा-ऽयोमुख-गोमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः, तद्यथाहयकर्णस्य परत आदर्शमुखः, गजकर्णस्य परतो मेण्ढमुखः, गोकर्णस्य परतोऽयोमुखः, शुष्कुलीकर्णस्य परतो गोमुख इति । एवमग्रेऽपि भावना कार्या । तत एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिषु विदिक्षु प्रत्येकं षट् षड् योजनशतान्यतिक्रम्यात्रान्तरे षड्योजनशतायामविष्कम्भा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा अश्वमुख-हस्तिमुखसिंहमुख-व्याघ्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः । तत एतेषामप्यश्वमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रम Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पूर्वोत्तरादिषु विदिक्षु प्रत्येकं सप्त सप्त योजनशतान्यतिक्रम्यात्रान्तरे सप्तयोजनशतप्रमाणायामविष्कम्भा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिका-वनखण्डसमवगूढा अश्वकर्ण-हरिकर्णा-ऽकर्ण-कर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपाः । तत एतेषामपि अश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिषु विदिक्षु प्रत्येकमष्टावष्टौ योजनशतान्यतिक्रम्यात्रान्तरेऽष्टयोजनशतपरिमाणायामविष्कम्भाः पूवोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा उल्कामुख-मेघमुख-विद्युन्मुख-विद्युद्दन्ताभिधानाश्चत्वारो द्वीपाः । ततोऽमीषामप्युल्कामुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिषु विदिक्षु प्रत्येक नवनवयोजनशतान्यतिक्रम्य [अत्रान्तरे] नवयोजनशतायामविष्कम्भा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डपरिक्षिप्ता घनदन्त-लष्टदन्त-गूढदन्त-शुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः । तदेवं क्षुल्लहिमवति सर्वसङ्ख्याऽष्टाविंशतिरन्तरद्वीपा भवन्ति । एवं शिखरिण्यपि द्रष्टव्याः । तथा चाह- एवमेव द्वीपा भवन्ति ॥६२॥ सम्प्रत्येतेष्वेवान्तरद्वीपेषु नरवक्तव्यतामाह- अंतरदीवेसु नरा, धणुसय अट्ठस्सिया सया मुइया । पालंति मिहुणधम्मं, पल्लस्स असंखभागाउ ॥२७३॥ चउसट्ठी पिट्ठकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स य, उणसीइ दिणाणि पालणया ॥२।७४॥ व्या० षट्पञ्चाशत्सङ्ख्येष्वन्तरद्वीपेषु नरा मनुष्या अष्टौ धनुःशतानि उच्छ्रिता उच्चाः, तथा सदा सर्वकालं मुदिताः प्रमुदिता रोगशोकाद्युपद्रवलेशस्याप्यभावात्, तेऽपि हि हैमवतादिवास्तव्यमनुष्या इव कल्पद्रुमसंपाद्यभोगोपभोगाः प्रबलपुण्योपचयभाजः, ततो न कोऽपि तेषामपि रोगशोकाद्युपद्रवः संभवति, नवरमत्र कल्पद्रुमफलरसास्वादादि पर्यायानधिकृत्यानन्तगुणहीनं द्रष्टव्यम् । तथा ते नराः पालयन्ति मिथुनधर्मं युगलधार्मिकत्वं हैमवतादिमनुष्यवत्, तेषां च नराणामायुः पल्यस्य पल्योपमस्यासङ्ख्येयो भागः, तथा पृष्ठकरण्डकानां चतुःषष्टिर्मनुष्याणां भवति, आहारोऽपि च तेषां चतुर्थभक्तस्यातिक्रमे एकोपवासातिक्रमे इत्यर्थः, तेषां च मनुष्याणां स्वापत्यपालना एकोनाशीतिदिनानि ॥७३-७४॥" - बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०३८६] “पातालकलशवक्तव्यतामाह- पणनउइ सहस्साई, ओगाहित्ता चउद्दिसिं लवणं। चउरोऽलिंजरसंठाणसंठिया हुंति पायाला ॥२॥४॥ व्या० मन्दरपर्वतस्य चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु प्रत्येकं जम्बूद्वीपवेदिकातः परतः पञ्चनवतिं पञ्चनवतिं योजनसहस्राणि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु प्रत्येकमेकैकभावेन चत्वारः पातालाः पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पातालकलशाः, ते च किंसंस्थाना इत्याह- अलिञ्जरसंस्थानसंस्थिता महापिहडसंस्थानसंस्थिताः । उक्तं च- जंबूहीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स चउद्दिसिं लवणसमुदं पंचाणउइ पंचाणउइ जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि महइमहालिया महालिंजरसंठाणसंठिया महापायालकलसा पन्नत्ता [ ] इति ॥२४॥ सम्प्रत्येतेषां नामादिकमाह- वलयामुहे केऊए, जुयए तह ईसरे य बोधव्वे । सव्वरयणामया णं, कुड्डा एएसि दससइया ॥२५॥ व्या० मेरोः पूर्वस्यां दिशि पातालकलशो वडवामुखो Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ४३ वडवामुखनामा, दक्षिणस्यां केयूपः, अपरस्यां यूपः, उत्तरस्यामीश्वरः, एते चत्वारोऽपि सर्ववज्रमयाः सर्वात्मना वज्रमयाः, तेषां च वज्रमयानां कुड्यानि ठिक्करिकाः सर्वत्र बाहल्यमधिकृत्य दशशतिकानि दशयोजनशतप्रमाणानि । उक्तं च- तेसिं महापायालाणं कूडा सव्वत्थ समा दसजोयणसयबाहल्ला पन्नत्ता [ ] इति ॥२५॥” - बृहत्क्षेत्र० मलय० । [पृ०३८७] “जोयणसहस्सदसगं, मूले उवरिं च होति विच्छिन्ना । मज्झे य सयसहस्सं, तत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥२॥६॥ व्या० चत्वारोऽपि महापातालकलशा मूले बुध्ने उपरि मुखे प्रत्येक योजनसहस्रदशकं दश योजनसहस्राणि १०००० विस्तीर्णा भवन्ति, मध्ये उदरप्रदेशे पुनः शतसहस्रं योजनलक्षं विस्तीर्णाः, तथा तावन्मानं योजनलक्षमात्रमवगाढा भूमौ प्रविष्टाः ॥२।६।। ___ साम्प्रतमेतेषां पातालकलशानामधिपतीन् देवानाह- पलिओवमट्ठिइया एएसिं अहिवई सुरा इणमो। काले य महाकाले, वेलंब पभंजणे चेव ॥२॥११॥ व्या० एतेषां पातालकलशानामधिपतयः सुराः पल्योपमस्थितिका महर्द्धय इमे एतन्नामानः, तद्यथा- वडवामुखकलशाधिपतिः कालः, केयूपकलशाधिपतिर्महाकालः, यूपकलशाधिपतिर्वेलम्बः, ईश्वरकलशाधिपतिः प्रभञ्जनः ॥२॥११॥ सम्प्रति लघुपातालकलशवक्तव्यतामाह- अन्नेऽवि य पायाला, खुड्डालिंजरसंठिया लवणे। अट्ठ सया चुलसीया, सत्त सहस्सा य सव्वे वि ॥२॥१२॥' व्या० लवणे समुद्रे तत्र तत्र प्रदेशे बहवोऽन्येऽपि क्षुल्ला लघवः पातालाः पातालकलशाः क्षुल्लालिंजरसंस्थिता लघुपिहडकसंस्थानसंस्थिताः सन्ति । उक्तं च- अदुत्तरं च णं गोयमा लवणे समुद्दे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं खुड्डालिंजरसंठाणसंठिया खुड्डा पायालकलसा पन्नत्ता [ ] इति । ते च सर्वेऽपि सर्वसङ्ख्यया सप्त सहस्राणि अष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि ७८८४। एते च लघुपातालकलशाः प्रत्येकमर्धपल्योपमस्थितिकैर्देवैः परिगृहीताः ।।२।१२॥ सम्प्रत्येतेषां प्रमाणमाह- जोयणसयवित्थिन्ना, मूलुवरिं दस सयाणि मज्झम्मि । ओगाढा य सहस्सं, दसजोयणिया य सिं कूडा ॥२॥१३॥ व्या० सर्वेऽपि लघुपातालकलशा मूले बुध्ने उपरि मुखे प्रत्येकं योजनशतं विस्तीर्णाः, मध्ये मध्यभागे जठरप्रदेशे दश शतानि योजनदशशतानि विस्तीर्णाः, तथाऽवगाढा भूमौ प्रविष्टाः सहस्रं योजनसहस्रम्, तथा सिं एतेषां लघुपातालकलशानां कुड्यानि ठिक्करिका बाहल्यमधिकृत्य दशयोजनकानि दशयोजनप्रमाणानि ॥२॥१३॥ सम्प्रति गुरुलघुपातालकलशानां वाय्वादिविभागमाह- पायालाण विभागा, सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि विन्नेया । हिट्ठिमभागे वाऊ, मज्झे वाऊ य उदगं च ॥२॥१४॥ उवरिं उदगं भणियं, पढमगबीएसु वाउ संखुभिओ । उहूं वमेइ उदगं, परिवड्डइ जलनिही खुहिओ ॥२॥१५॥ परिसंठियम्मि पवणे, पुणरवि उदगं तमेव सं ठाणं । वड्डेइ तेण उदही, परिहायइ अणुक्कमेणं च ॥२॥१६॥ व्या० सर्वेषामपि गुरूणां लघूनां च पातालकलशानां त्रयस्त्रयो विभागा भवन्ति । तद्यथा- अधस्तनो मध्यम उपरितनश्च । तत्र महापातालकलशानामेकैकस्त्रिभागस्त्रय Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि स्त्रिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रिभागश्च योजनस्य [३३३३३ ३ ] । लघुपातालकलशानां त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रिभागश्च योजनस्य [३३३ ३] । एतेषु च सर्वेषु महापातालकलशेषु लघुपातालकलशेषु च प्रत्येकमधस्तने त्रिभागे वायुः, मध्यमे त्रिभागे वायुरुदकं च, उपरितने [च] त्रिभागे उदकं भणितं तीर्थकरगणधरैः। तथा चोक्तं जीवाभिगमे- ‘हेट्टिल्ले तिभागे वाऊकाए संचिट्ठइ, मज्झिल्ले तिभागे वाउक्काए आउक्काए य संचिट्ठइ, उवरिल्ले तिभागे आउक्काए संचिट्ठई' इति । तत्र जगत्स्वाभाव्यादेव समकालं प्रतिनियते कालविभागे सर्वेष्वपि पातालकलशेषु प्रत्येकं प्रथमे द्वितीये च विभागे बहवोऽन्ये उदारा वायवः संमूर्च्छन्ति चलन्ति क्षुभ्यन्ते तथा परिणमन्ति येनोर्ध्वमुदकं तैरुच्छाल्यते । उक्तं च- तेसिं खुड्डापायालाणं महापायालाणं च हिडिल्लमज्झिल्लेसु तिभागेसु बहवे उराला वाया संसेयंति संमुच्छंति चलंति खुब्भतिं तं तं भावं परिणमंति जेहि तं उदगं उर्ल्ड वमिज्जइ [ ] इति । ततः प्रथमद्वितीयेषु त्रिभागेषु वायुः संक्षुब्धः सन् ऊर्ध्वमुदकं वमयति निःसारयति, तेन चोर्ध्वं निःसार्यमाणेन जलनिधिः क्षुभितः सन् परिवर्धते, परिसंस्थिते उपशमं गते पुनः पवने पुनरप्युदकं तदेव स्वंस्थानमाश्रयते, भूयोऽपि कलशेषु मध्ये प्रविशतीत्यर्थः, तेन कारणेनानुक्रमेणैव परिपाट्यैव उदधिर्वर्धते परिहीयते [च] । अहोरात्रमध्ये च द्विः वायवः क्षुभ्यन्ते, तेन प्रत्यहोरात्रं द्वौ वारौ वर्धते हीयते [च] समुद्रः। उक्तं च- लवणे णं भंते समुद्दे तीसाए मुहत्तेणं कइखुत्तो अरेगं वड्डइ वा हायइ वा ? गोयमा! दुखुत्तो अइरेगं वडइ वा हायइ वा । से केणटेणं एवं वुच्चइ दुखुत्तो अइरेगं वड्डइ वा हायइ वा? गोयमा ! उडे उव्वमंतेसु पायालेसु वडइ, आपूरितेसु पायालेसु हायइ, से एएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ दुक्खुत्तो अइरेगं वडइ वा हायइ वा [ ]। अत्र आपूरितेसु त्ति परिसंस्थिते पवने जलेनापूर्यमाणेषु कलशेषु, शेषं सुगमम्, नवरं पूर्णमास्यादिषु तिथिषु अतिरेकेण वायवः क्षोभमुपगच्छन्ति, तेनातिरेकतरेण तासु तिथिषु वर्धत इति ।।२।१४-१६।। सम्प्रति लवणसमुद्रशिखावक्तव्यतामाह- दसजोयणसहस्सा, लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा। सोलस सहस्स उच्चा, सहस्समेगं च ओगाढा ॥२॥१७॥ व्या० अभ्यन्तरतो बाह्यतश्च पञ्चनवतिपञ्चनवतियोजनसहस्राणि परित्यज्य मध्यभागे लवणसमुद्रस्य शिखा वर्तते, सा च चक्रवालतो रथचक्राकारेण रुन्दा विस्तीर्णा दश योजनसहस्राणि, तथा भूतले समजलपट्टादूर्ध्वमुच्चा षोडश योजनसहस्राणि, सहस्रमेकं योजनानामवगाढा भूमौ प्रविष्टा ॥२॥१७॥ देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं दुवे काला । अइरेगं अइरेगं, परिवड्डइ हायए वावि ॥२॥१८॥ व्या० अनन्तरोक्ताया लवणसमुद्रशिखाया उपरि देशोनमर्धयोजनं किञ्चिन्यूने द्वे गव्यूते द्वौ कालौ अहोरात्रमध्ये द्वौ वारौ उदकमतिरेकमतिरेकं परिवर्धते हीयते च पातालकलशगतवायुक्षोभे वर्धते, तदुपशान्तौ च हीयते इत्यर्थः ॥२।१८।। सम्प्रति वेलन्धरवक्तव्यतामाह- अभिंतरियं वेलं, धरंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीस Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि सहस्सा, दुसत्तरि सहस्स बाहिरियं ॥२॥१९॥ सटुिं नागसहस्सा, धरंति अग्गोदयं समुदस्स। वेलंधरआवासा, लवणे चाउद्दिसिं चउरो ॥२॥२०॥ व्या० लवणसमुद्रस्याभ्यन्तरिका जम्बूद्वीपाभिमुखां वेलां शिखोपरिजलं शिखां च अर्वाक् प्रविशन्तीं धरन्ति वारयन्ति नागानां नागकुमाराणां भवनपतिनिकायान्तर्वर्तिनां द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि, बाह्यां धातकीखण्डद्वीपाभिमुखां वेलां धातकीखण्डद्वीपमध्ये प्रविशन्तीं वारयन्ति नागानां द्वासप्ततिसहस्राणि, तथा षष्टिनागसहस्राणि अग्रोदकं देशोनयोजनार्धजलादुपरि वर्धमानं जलं समुद्रस्य लवणसमुद्रस्य वारयन्ति । एवं सर्वसङ्ख्या वेलन्धरदेवानामेकं लक्षं चतुःसप्ततिसहस्राणि भवन्ति । उक्तं च- लवणस्स णं भंते समुद्दस्स केवइया नागसहस्सा अभिंतरियं वेलं धरंति ? केवड्या नागसहस्सा बाहिरियं वेलं धरंति ? केवडया नागसहस्सा अग्गोदगं धरंति ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स बायालीसं नागसहस्सा अभिंतरियं वेलं धरंति, बावत्तरि नागसहस्सा बाहिरियं वेलं धरंति, सट्ठि नागसहस्सा अग्गोदगं धरंति । एवमेव सपुव्वावरेण लवणे समहे एगसयसाहस्सिया चउहत्तरं च नागसहस्सा भवंतीति मक्खायं [ ] । एतेषां च वेलन्धरदेवानामावासा आश्रयभूताः पर्वता लवणसमुद्रे पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु द्विचत्वारिंशद्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे प्रत्येकमेकैकभावेन चत्वारः चतुःसङ्ख्या वेदितव्याः ॥२।१९२०॥" - बृहत्क्षेत्र मलय० । [पृ०३८८] “सम्प्रति तेषामावासपर्वतानामावासपर्वताधिपतीनां च नागराजानां नामान्याहपुव्वाइं अणुक्कमसो, गोत्थुभ दगभास संख दगसीमा । गोत्थुभ सिवए संखे, मणोसिले नागरायाणो ॥२॥२१॥ व्या० पूर्वाद्यनुक्रमशः पूर्वाद्यनुक्रमेण तेषामावासपर्वतानाममूनि नामानि, तद्यथा- जम्बूद्वीपवेदिकायाः परतः पूर्वस्यां दिशि द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे यः स्थित आवासपर्वतः स गोस्तूपो गोस्तूपनामा, यतस्तत्र तासु तासु क्षुल्लवापीषु सरस्सु सर:पङ्क्तिषु बहूनि शतपत्राणि सहस्रपत्राणि वा गोस्तूपाकाराणि, गोस्तूपनामा च देवस्तत्र परिवसति, तेन स गोस्तूप उच्यते, दक्षिणस्यां तावत्प्रमाणमेव लवणसमुद्रमवगाह्य यः स्थित आवासपर्वतः स दकभासः सुविशुद्धाङ्करत्नमयतया सर्वासु दिक्षु विदिक्षु चाष्टासु योजनेषु मध्ये स्वप्रभाभिर्दकमुदकं भासयति द्योतयतीति दकभासः । उक्तं च- से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ दगभासे आवासपव्वए ? गोयमा! दगभासे णं आवासपव्वए अट्ठजोयणिए खित्ते सव्वओ समंता दगउ भासेइ जाव पभासे [ ] इत्यादि। पश्चिमायां दिशि तावन्तं लवणसमुद्रमवगाह्य यः स्थित आवासपर्वतः स शङ्खनामा, तत्र हि वापीषु सरस्सु सरः पङ्क्तिषु बहूनि शतपत्राणि सहस्रपत्राणि वा शङ्खवर्णानि, शङ्खनामा देवस्तत्राधिपत्यं परिपालयति, तेन स शखनामा । यः पुनरुत्तरस्यां दिशि द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्यावस्थित आवासपर्वतः स दकसीमा, तत्र हि शीतायाः शीतोदायाश्च महानद्याः श्रोतांसि प्रतिगत्य प्रतिगत्य प्रतिहतानि निवर्तन्ते, तेन शीताशीतोदयोरुदकानां सीमाकारीति दकसीमेत्यभिधीयते । उक्तं हि- से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ दगसीमे आवासपव्वए ? गोयमा ! Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्प दगसीमे आवासपव्वए सीयासीओयाणं महानईणं सोया तत्थ तत्थ णं पsिहया पडिनियत्तंति, से एएणणं गोयमा एवं वुच्चइ दगसीमे आवासपव्वए [ ] इति । तथा पूर्वाद्यनुक्रमेणैवैतेषामावासपर्वतानामधिपतीनां नामान्यमूनि, तद्यथा - गोस्तूपस्यावासपर्वतस्याधिपतिर्गोस्तूपनामा देवः, दकभासस्य शिवः, शङ्खस्य शङ्खः, दकसीम्नो मनःशिलः । एते चत्वारोऽपि प्रत्येकं चतुर्णामिन्द्रसामानिक सहस्राणाम्, चतसृणामग्र महिषीणां सपरिवाराणाम्, तिसृणां पर्षदाम्, सप्तानामनीकानाम्, सप्तानामनीकाधिपतीनाम्, षोडशानामात्मरक्षक- देवसहस्राणाम्, स्वस्य स्वस्यावासपर्वतस्य, स्वस्याः स्वस्या राजधान्या अधिपतयः । तत्र गोस्तूपदेवस्य राजधानी गोस्तूपा, सा च गोस्तूपस्यावासपर्वतस्य पूर्वतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजनसहस्रेभ्यः परतो वेदितव्या । शिवदेवस्य शिवा राजधानी, सा च दकभासस्यावासपर्वतस्य दक्षिणतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । शङ्खदेवस्य शङ्खा नाम राजधानी, सा च शङ्खस्यावासपर्वतस्यापरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । मनःशिलस्य देवस्य मनःशिला राजाधानी, सा च दकसीम्न आवासपर्वतस्योत्तरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे ॥२॥२१॥ ४६ सम्प्रति क्षुल्लवेलन्धरदेवानामावासपर्वता नामानि चाह- अणुवेलंधरवासा, लवणे विदिसासु संठिया चउरो । कक्कोडग विज्जुप्पभ, कइलासऽरुणप्पभे चेव || २|२२|| कक्कोडग कद्दमए, केलासऽरुणप्पभे य रायाणो । बायालीस सहस्से, गंतुं उदहिम्मि सव्वे वि || २|२३|| व्या० महतां वेलन्धराणामादेशप्रतीच्छकतयाऽनुयायिनो वेलन्धरा अनुवेलन्धरास्तेषामावासा आवासपर्वता लवणे लवणसमुद्रे विदिक्षु उत्तरपूर्वादिकासु चतसृषु विदिक्षु द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे संश्रिताः स्थिता चत्वारः चतुः सङ्ख्या वेदितव्याः, तद्यथा- उत्तरपूर्वस्यां दिशि कर्कोटकः १, दक्षिणपूर्वस्यां विद्युत्प्रभः २, दक्षिणापरस्यां कैलाशः ३, अपरोत्तरस्यामरुणप्रभः ४ । एतेषामधिपतयो नागराजा यथाक्रमं कर्कोटकः कर्दमकः कैलाशः अरुणप्रभश्च । एते च चत्वारोऽपि गोस्तूपदेव इव महर्द्धिका वेदितव्याः, नवरं कर्कोटकस्य नागराजस्य राजधानी कर्कोटिका, सा च कर्कोटकस्यावासपर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि तिर्यगसङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानतिक्रम्यापरस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजनसहस्रेभ्यः परतोऽवगन्तव्या । कर्दमस्य च नागराजस्य कर्दमिका राजधानी, सा च विद्युत्प्रभस्य स्वावासपर्वतस्य दक्षिणपूर्वतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । कैलाशदेवस्य नागराजस्य कैलाशा नाम राजधानी, सा च स्वावासपर्वतस्य कैलाशस्य दक्षिणापरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । अरुणप्रभस्य नागराजस्यारुणप्रभा नाम राजधानी, सा च स्वावासपर्वतस्यारुणप्रभस्यापरोत्तरतोऽपरस्मिन् लवणसमुद्रे । एते च सर्वेऽपि गोस्तूपादयोऽरुणप्रभपर्यवसाना अष्टावप्यावासपर्वता जम्बूद्वीपवेदिकान्तात्प्रत्येकं द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्युदधौ लवणसमुद्रेऽवगाह्यात्रान्तरे वेदितव्याः । एतच्च प्रागेव भावितम् ||२।२२-२३|| सम्प्रत्येतेषामवगाहादिप्रमाणमाह- चत्तारि जोयणसए, तीसे कोसं च उवगया भूमिं । सत्तर जोयणसए, इगवीसे ऊसिया सव्वे || २|२४|| व्या० सर्वेऽष्टावपि गोस्तूपादयः पर्वताः प्रत्येकं Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि चत्वारि योजनशतानि त्रिंशदधिकानि ४३० एकं च क्रोशं १ भूमिमुपगता भूमौ प्रविष्टाः, सप्तदश योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि १७२१ उच्छ्रिता उच्चाः । एते च सर्वेऽपि प्रत्येकमेकैकया वेदिकया एकैकेन च वनखण्डेन समन्ततः परिक्षिप्ताः ॥२४॥" - बृहत्क्षेत्र० मलय० ।। पृ०३९३] “सम्प्रति सदृशविसदृशनामानि द्वीपसमुद्रयुगलान्याह- जंबू लवणो धायई कालो य पुक्खराइजुअलाइं । वारुणि खीर घयक्खू नंदीसरो अरुणदीवुदही ॥१२॥ व्या० जम्बूद्वीपो लवण इति तथा धातकीखण्ड: कालोद इति द्वे अपि द्वीपोदधियुगले विसदृशनामके, पुष्करादीनि पुष्करवरप्रभृतीनि युगलानि सदृशनामानि, तान्येव लेशतो दर्शयति- वारुणीत्यादि वारुणीवरो द्वीपो वारुणीवरः समुद्रः, क्षीरवरो द्वीपः क्षीरवरः समुद्रः, घृतवरो द्वीपो घृतवर: समुद्रः, इक्षुवरो द्वीप इक्षुवरः समुद्रः, नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः समुद्रः, अरुणवरो द्वीपोऽरुणवरः समुद्रः ॥९२॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० । [पृ०४०३ पं०८] हरिकेशबलचरितम् उत्तराध्ययनसूत्रद्वादशाध्ययनादिषु वर्तते । [पृ०४०४ पं०१२] दृढप्रहारिकथा योगशास्त्रस्वोपज्ञवृत्त्यादिषु वर्तते । अत्रापि परिशिष्टे द्रष्टव्यं पृ०७१ । “वेसमणवयणसंचोइआ उ ते तिरिअजंभगा देवा । कोडिग्गसो हिरण्णं रयणाणि अ तत्थ उवणिंति ॥६८॥ गमनिका- वैश्रमणवचनसंचोदितास्तु ते तिर्यग्जृम्भका देवाः। तिर्यगिति तिर्यग्लोकजृम्भकाः कोट्यग्रश: कोटीपरिमाणत: हिरण्यम् अघटितरूपं रत्नानि च इन्द्रनीलादीनि तत्रोपनयन्तीति गाथार्थः ॥” - आव० हारि० ॥ [पृ०४१०] “पुट्ठापुट्ठो पढमो उ साहई न उ करेइ माणं तु । बितिउ माण करेई पुट्ठो वि न साहई किंचि ॥१६॥ तइओ पुट्ठो साहइ नो पुट्ट चउत्थमेव सेवइ उ । दो सफला दो अफला एवं गच्छे वि नायव्वा ॥१०॥४५६८-६९॥ प्रथमो राज्ञा पृष्टोऽपृष्टो वा यत्र शुभाशुभं वा साधयति, न मानं करोति, द्वितीयो मानं करोति, न च मानादेव पृष्टोऽपि किंचित् कथयति। तृतीयः पृष्टः साधयति नापृष्टः । चतुर्थः सेवते एव राजानं नेति । अत्र द्वौ प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वौ च द्वितीयचतुर्थावफलौ, एवममुना दृष्टान्तगतेन प्रकारेण गच्छेऽपि द्वौ प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वौ च द्वितीयचतुर्थावफलौ ज्ञातव्यौ । तेषां चतुर्णामपि स्वरूपमाह- आहार उवहि सयणाइएहिं गच्छस्सुवग्गरं कुणति । बिइओ माणं उभयं च तइओ नोभय चउत्थो ॥१०॥४५७०॥ प्रथम आहारोपधिशयनादिभिर्गच्छस्योपग्रहं करोति न च मानम्, द्वितीयो मानम्, तृतीय उभयं गच्छस्योपग्रहं मानं च, चतुर्थो नोभयं गच्छस्योपग्रहं नापि मानमिति । सो पुण गणस्स अट्ठो संगहो तत्थ संगहो दुविहो । दव्वे भावे तियगा उ दोन्नि आहारनाणादी ॥१०।४५७१॥ अनन्तरसूत्रे गणार्थकर उक्तः, स पुनर्गणस्यार्थः संग्रहस्तः संग्रहकरप्रतिपादनार्थमिदं सूत्रम् । तत्र सङ्ग्रहो द्विधा- द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्ये भावे च द्वौ त्रिको द्रष्टव्यौ, तद्यथा- आहारादिकं द्रव्ये ज्ञानादित्रिकं भावे।" - व्यवहार० मलय० ॥ A-29 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ०४११] “सातसियं इयरं वा अन्नगणच्चे न देयमज्झयणं । इइ गणसंठितितो करेंति सच्छंदतो केई ॥१०॥४५८२॥ पत्ते देंतो पढमो बितितो भंगो न कस्सइ वि देतो । जो पुण अपत्तदायी तइओ भंगो उ तं पप्प ॥१०॥४५८३॥ सयमेव दिसाबंध काऊण पडिच्छगस्स जो देइ । उभयमवलंबमाणं कामं तु तगं पि पुजामो ॥१०॥४५८४॥ सातिशयं देवेन्द्रोपपातिकादि इतरद्वा महाकल्पश्रुतमन्यद्वाध्ययनमन्यगणसक्तस्य न दातव्यमिति एवंप्रकारा गणसंस्थिती: स्वच्छन्दं तीर्थकरानुपदेशेन कुर्वन्ति । तत्रैवं गणसंस्थितौ कृतायां योऽन्यगणसत्केऽपि पात्रे महाकल्पश्रुतादिकमध्ययनं ददाति तेन गणसंस्थितिस्त्यक्ता न धर्मस्तीर्थकरोपदेशेन वर्तमानत्वात् । एष हि भगवतां तीर्थकृतामुपदेशः सर्वस्यापि पात्रस्याविशेषेण दातव्यम् । यस्तु गणसंस्थितौ कृतायां न कस्यापि परगणसत्कस्य ददाति स द्वितीयः । अपात्रस्य ददाति तं प्राप्य तृतीयो भङ्गः । तेन गणस्थितेस्तीर्थकराज्ञाखण्डनतो धर्मस्य च त्यक्तत्वात् । यस्त्वन्यथा व्यवच्छेदं पश्यन् मेधावी प्रवचनोपग्रहकरो भविष्यतीत्यादिगुणसमन्वितं प्रतीच्छिकमुपलभ्य तस्य स्वयमेवं निजं दिग्बन्धं कृत्वा सातिशयमन्यद्वाध्ययनं ददाति । तमप्यास्तां प्रथमभङ्गवर्तिनमित्यपि शब्दार्थः । उभयं गणसंस्थितिं धर्मं चावलम्बमानं पूजयामः । एष चतुर्थपुरुषः। दसविहवेयावच्चे अन्नयरे खिप्पमुज्जमं कुणइ। अच्चतमणिव्वाही धितिविरियकिसे पढमभंगो ॥१०॥४५८७॥ यो दशविधस्य वैयावृत्यस्य वक्ष्यमाणस्यान्यतरस्मिन् वैयावृत्ये प्रियधर्मतया क्षिप्रमुद्यम करोति, केवलमदढधर्मतया अत्यन्तमनिर्वाही तस्मिन् धृतिवीर्यकृशे प्रथमभङ्गः । - व्यवहार० मलय। [पृ०४१२] "दुक्खेण उ गाहिजइ बिइओ गहियं तु नेइ जा तीरं । उभयतो कल्लाणो तइतो चरिमो अ परिकुट्ठो ॥१०॥४५८८॥ द्वितीयस्तु नोप्रियधर्मत्वात् दुःखेन महता कष्टेन प्रथमतो वैयावृत्यं ग्राह्यते । गृहीतं तु यावत् प्रतिज्ञायास्तीरं तावन्नयति, उभयतः कल्याणस्तृतीयः, चरमे न प्रियधर्मो नापि दृढधर्म इत्येवंरूपो गच्छे प्रतिक्रुष्टो निराकृतः ।" - व्यवहार० मलय०। [पृ०४१४ पं०२०] आनन्दश्रावकादीनां कथा उपासकदशाङ्गादिषु वर्तते । [पृ०४२९ पं०१२] “सम्प्रति प्रसङ्गतोऽन्यतोऽप्युद्वृत्तानां लब्धि प्रतिपादयति- भूदगपंकप्पभवा, चउरो हरिआउ छच्च सिझंति । विगला लभिज्ज विरइं, न हु किंचि लभिज सुहुमतसा ॥२९७॥ व्या० भुवः पृथिव्या उदकात् अप्कायात् पंक त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पङ्कप्रभायाः प्रभवःउत्पत्तिर्येषां मनुष्याणां ते भूदकपङ्कप्रभवा एकस्मिन् समये चत्वारः सिध्यन्ति । किमुक्तं भवति? पृथिवीकायेभ्योऽथवाऽप्कायिकेभ्यो यदि वा पङ्कप्रभाया उद्वृत्ताः सन्तोऽनन्तरभवे मनुष्या जाता यद्येकस्मिन् समये सिध्यन्ति, ततः प्रत्येकं चत्वारश्चत्वारः सिध्यन्ति । हरितेभ्यो वनस्पतिकायिकेभ्य उद्वृत्ताः षट् । तथा विकलात् विकलेन्द्रियादुवृत्ता अनन्तरभवे मनुष्या जाता विरतिं सर्वसावधविरतिं लभन्ते, न तु सिध्यन्ति । सूक्ष्मत्रसात् तेजःकायिकाद्वायुकायिकाद्वा उद्वृत्ता अनन्तरभवे तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अपि जाता न कमपि गुणं सम्यक्त्वादिकं लभन्ते, तथास्वाभाव्यात् ॥२९७॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० । [पृ० ४३२] "इत्थमवग्रहादीनां स्वरूपमभिधाय इदानीं श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयतां प्रतिपिपादयिषुराह- पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुढे तु । गंधं रसं च फासं च बद्धपुढे वियागरे ॥५॥ व्या० आह- ननु व्यञ्जनावग्रहनिरूपणाद्वारेण श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता प्रतिपादितैव, किमर्थं पुनरयं प्रयास इति, उच्यते, तत्र प्रक्रान्तगाथाव्याख्यानद्वारेण प्रतिपादिता, साम्प्रतं तु सूत्रतः प्रतिपाद्यत इत्यदोषः । तत्र स्पृष्टम् इत्यालिङ्गितम्, तनौ रेणुवत्, शृणोति गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः, कम् ? शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः तं शब्दप्रायोग्यं द्रव्यसंघातम्, इदमत्र हृदयम्- तस्य सूक्ष्मत्वात् भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्यरूपत्वात् श्रोत्रेन्द्रियस्य चान्येन्द्रियगणात्प्रायः पटुतरत्वात् स्पृष्टमात्रमेव शब्दद्रव्यनिवहं गृह्णाति । रूप्यत इति रूपम्, तद्रूपं पुनः, पश्यति गृह्णाति उपलभत इत्येकोऽर्थः, अस्पृष्टमनालिङ्गितं गन्धादिवन्न संबद्धमित्यर्थः, तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, रूपं पुन: पश्यति अस्पृष्टमेव, चक्षुषः अप्राप्तकारित्वादिति भावार्थः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ? अस्पृष्टमपि योग्यदेशावस्थितम्, न पुनरयोग्यदेशावस्थितम् अमरलोकादि । गन्ध्यते घ्रायत इति गन्धस्तम्, रस्यत इति रसस्तं च, स्पृश्यत इति स्पर्शस्तं च, चशब्दौ पूरणार्थों, बद्धस्पृष्टं इति बद्धमाश्लिष्टं नवशरावे तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतमित्यर्थः, स्पृष्टं पूर्ववत्, प्राकृतशैल्या चेत्थमुपन्यासो बद्धपुढे ति, अर्थतस्तु स्पृष्टं च बद्धं च स्पृष्टबद्धम् । आह- यद्बद्धं गन्धादि तत् स्पृष्टं भवत्येव, अस्पृष्टस्य बन्धायोगात्, ततश्च स्पृष्टशब्दोच्चारणं गतार्थत्वादनर्थकमिति, उच्यते, सर्वश्रोतृसाधारणत्वाच्छास्त्रारम्भस्यायमदोष इति । त्रिप्रकाराश्च श्रोतारो भवन्ति- केचिदू उद्घाटितज्ञाः, केचित् मध्यमबुद्ध्यः, तथाऽन्ये प्रपञ्चितज्ञा इति, तत्र प्रपञ्चितज्ञानाम् अनुग्रहाय गम्यमानस्याप्यभिधानमदोषायैव, अथवा विशेषणसमासाङ्गीकरणाददोषः, स्पृष्टं च तद्बद्धं च स्पृष्टबद्धम्, तत्र स्पृष्टं गन्धादि विशेष्यम्, बद्धमिति च विशेषणम्। आह- एवमपि स्पृष्टग्रहणमतिरिच्यते, यस्माद्यबद्धं न तत् स्पृष्टत्वव्यभिचारि, उभयपदव्यभिचारे च विशेषणविशेष्यभावो दृष्टो यथा नीलोत्पलमिति, न चेह उभयपदव्यभिचारः, अत्रोच्यते, नैष दोषः यस्मादेकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणविशेष्यभावो दृष्टः, यथा अब्द्रव्यं पृथिवी द्रव्यमिति, भावना- अब् द्रव्यमेव, न द्रव्यत्वं व्यभिचरति, द्रव्यं पुनरब् चानब् चेति व्यभिचारि, अथ च विशेषणविशेष्यभाव इति । प्रकृतभावार्थस्त्वयम्- आलिङ्गितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतं गन्धादि बादरत्वाद् अभावुकत्वात् अल्पद्रव्यरूपत्वात् घ्राणादीनां चापटुत्वात् गृह्णाति निश्चिनोति घ्राणेन्द्रियादिगण इत्येवं व्यागृणीयात् प्रतिपादयेदिति यावत् । ___ आह- भवतोक्तं योग्यदेशावस्थितमेव रूपं पश्यति, न पुनरयोग्यदेशावस्थितमिति, तत्र कियान् पुनश्चक्षुषो योग्यविषयः ?, कियतो वा देशादागतं श्रोत्रादि शब्दादि गृह्णातीति, उच्यते, श्रोत्रं तावच्छब्दं जघन्यतः खल्वङ्गुलासंख्येयमात्राद्देशात्, उत्कृष्टतस्तु द्वादशभ्यो योजनेभ्य इति, चक्षुरिन्द्रियमपि रूपं Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि जघन्येनाङ्गुलसंख्येयभागमात्रावस्थितं पश्यति, उत्कृष्टतस्तु योजनशतसहस्राभ्यधिकव्यवस्थितम् इति, घ्राणरसनस्पर्शनानि तु जघन्येनाङ्गुलासंख्येयभागमात्राद्देशादागतं गन्धादिकं गृह्णन्ति, उत्कृष्टतस्तु नवभ्यो योजनेभ्य इति । आत्मागुलनिष्पन्नं चेह योजनं ग्राह्यमिति । आह- उक्तप्रमाणं विषयमुल्लङ्ध्य कस्माच्चक्षुरादीनि रूपादिकमर्थं न गृह्णन्तीति, उच्यते, सामर्थ्याभावात्, द्वादशभ्यो नवभ्यश्च योजनेभ्यः परतः समागतानां शब्दादिद्रव्याणां तथाविधपरिणामाभावाच्च, मनसस्तु न क्षेत्रतो विषयपरिमाणमस्ति, पुद्गलमात्रनिबन्धनाभावात्, इह यत् पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं न भवति, न तस्य विषयपरिमाणमस्ति, यथा केवलज्ञानस्य, यस्य च विषयपरिमाणमस्ति, तत्पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं दृष्टम्, यथाऽवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वेति गाथासमासार्थः ॥ ___ साम्प्रतं यदुक्तमासीत् यथा नयनमनसोरप्राप्तकारित्वं ‘पुढे सुणेइ सदं' इत्यत्र वक्ष्यामः, तदुच्यते, नयनं योग्यदेशावस्थिताप्राप्तविषयपरिच्छेदकम्, प्राप्तिनिबन्धनतत्कृतानुग्रहोपघातशून्यत्वात्, मनोवत्, स्पर्शनेन्द्रियं विपक्ष इति । आह- जल-घृत-वनस्पत्यालोकनेष्वनुग्रहसद्भावात् सूर्याद्यालोकनेषु चोपघातसद्भावात् असिद्धो हेतुः, मनसोऽपि प्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वात्साध्यविकलो दृष्टान्तः, तथा च लोके वक्तारो भवन्ति-अमुत्र मे गतं मनः इति, अत्रोच्यते, प्राप्तिनिबन्धनाख्यहेतुविशेषणार्थनिराकृतत्वाद् अस्याक्षेपस्येत्यदोषः । किं च- यदि हि प्राप्तिनिबन्धनौ विषयकृतावनुग्रहोपघातौ स्याताम्, एवं तर्हि अग्नि-शूल जलाद्यालोकनेषु दाह-भेद-क्लेदादयः स्युरिति । किं च- प्राप्तविषयपरिच्छेदकत्वे सति अक्षि अञ्जन-मल-शलाकादिकमपि गृह्णीयात् । आह- नायना मरीचयो निर्गत्य तमर्थं गृह्णन्ति, ततश्च तेषां तैजसत्वात् सूक्ष्मत्वाच्चानलादिसंपर्के सत्यपि दाहाद्यभाव इति, अत्रोच्यते, प्राक् प्रतिज्ञातयोरनुग्रहोपघातयोरप्यभावप्रसङ्गाद् अयुक्तमेतत्, तदस्तित्वस्य उपपत्त्या ग्रहीतुमशक्यत्वाच्च । व्यवहितार्थानुपलब्ध्या तदस्तित्वावसाय इति चेत्, न, तत्रापि तदुपलब्धौ क्षयोपशमाभावात् व्यवहितार्थानुपलब्धिसिद्धेः । आगममात्रमेवैतत् इति चेत्, न, युक्तिरप्यस्ति, आवरणाभावेऽपि परमाण्वादौ दर्शनाभावः, स च तद्विधक्षयोपशमकृतः, यच्चोक्तम्- साध्यविकलो दृष्टान्त इति, तदप्ययुक्तम्, ज्ञेयमनसोः संपर्काभावात्, अन्यथा हि सलिल-कर्पूरादिचिन्तनादनुगृह्येत, वह्निशस्त्रादिचिन्तनाच्चोपहन्येत, न चानुगृह्यते उपहन्यते वेति । आह- मनसोऽनिष्टविषयचिन्तनातिशोकात् दौर्बल्यं आर्तध्यानादुरोऽभिघातश्च उपलभ्यते, तथेष्टविषयचिन्तनात्प्रमोदः, तस्मात्प्राप्तकारिता तस्येति, एतदप्ययुक्तम्, द्रव्यमनसा अनिष्टेष्टपुद्गलोपचयलक्षणेन सकर्मकस्य जन्तोरनिष्टेष्टाहारेणेवोपघातानुग्रहकरणात्कथं प्राप्तविषयतेति । किं च- द्रव्यमनो वा बहिः निस्सरेत्, मनःपरिणामपरिणतं जीवाख्यं भावमनो वा ?, न तावद्भावमनः, तस्य शरीरमात्रत्वात्, सर्वगतत्वे च नित्यत्वात् बन्धमोक्षाद्यभावप्रसङ्गः । अथ द्रव्यमनः, तदप्ययुक्तम्, यस्मान्निर्गतमपि सत् अकिञ्चित्करं तत्, अज्ञत्वात्, उपलवत् । आहकरणत्वाद् द्रव्यमनसस्तेन प्रदीपेनेव प्रकाशितमर्थमात्मा गृह्णातीत्युच्यते, न, यस्मात् शरीरस्थेनैवानेन जानीते, न बहिर्गतेन, अन्तःकरणत्वात्, इह यदात्मनोऽन्तःकरणं स तेन शरीरस्थेनैव उपलभते, Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि यथा स्पर्शनेन, प्रदीपस्तु नान्तःकरणमात्मनः, तस्माद् दृष्टान्तदाान्तिकयोर्वैषम्यमित्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुम इति गाथार्थः ॥५॥" - आव० हारि० ॥ [पृ० ४३३] “साध्येनानुगमो हेतोः साध्याभावे च नास्तिता । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः स साधर्म्यतरो द्विधा ॥४२॥ साध्येनानुगमो हेतोरिति साध्यशब्दोऽत्र जिज्ञासिते धर्ममात्रे वर्तते। अनुगमो हेतोरन्वयः, यत्र हेतुस्तत्र साध्यस्य भाव एव न तु सद्भावमात्रम् । साध्येनैव हेतोः, न हेतुना साध्यस्य। साध्याभावे च नास्तिता साध्याभाव एव हेतो स्तिता, न हेत्वभावे साध्यस्य, नापि तद्विपक्षयोः सहभावित्वमानं नास्तितेति । नास्तिशब्दोऽत्र वा(बा?)ह्यस्वरूपं शब्दान्तरम् अभाववाचि प्रातिपदिकं द्रष्टव्यम् । स साधर्येतर इति साधर्म्यदृष्टान्तो वैधर्म्यदृष्टान्तश्चेत्यर्थः । काणकुण्टिा?]दिवत् विशेषणसमासः। अथवा सह साधर्म्यण इतरेण च ससाधर्म्यतर इतेवद् [इति वा] बहुव्रीहिः, अत्र तु व्याख्याने स इत्येतत् सर्वनामपदमनुक्तमपि यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् लभ्यते। सर्वत्र गमोऽनुगम इत्यनेन अनुशब्दोऽत्र व्याप्तिं दर्शयति । यत्र इत्यभिधेय इति अनेनार्थस्य दृष्टान्ततामाह । वचनं तु तदभिधायित्वात् उपचारेण दृष्टान्तः, एतच्च दृष्टान्तेन प्रदर्श्यत इत्यनेन प्रागेवावेदितम् ।” इति प्रमाणसमुच्चयस्य विशालामलवत्यां टीकायाम् । ___“जह तुब्भे तह अम्हे तुब्भे वि अ होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं पंडुरपत्तं किसलयाणं ॥नि.३०८॥ यथा इति सादृश्ये, ततो यथा यूयं सम्प्रति किशलयभावमनुभवथ स्निग्धादिगुणैर्गर्वमुद्वहत्थ अस्मानुपहसथ, तथा वयमप्यतीतदशायाम्, तथा यूयमपि च भविष्यथ यथा वयमिति, जीर्णभावे हि यथा वयमिदानीं विवर्णविच्छायतयोपहास्यानि, एवं यूयमपि भावीनीति, अप्पाहेइत्ति उक्तन्यायेनोपदिशति पितेव पुत्रस्य पतत् भ्रश्यत् पाण्डुरपत्रं जीर्णपत्रं किसलयानाम् अभिनवपत्राणाम् ॥३०८॥" - उत्तरा० पाईय० ॥ [पृ०४३५] “चरिअं च कप्पिअं वा दुविहं तत्तो चउब्विहेक्केक्कं । आहरणे तद्देसे तद्दोसे चेवुवन्नासे ॥५३॥ व्या० चरितं च कल्पितं चे(वे)ति द्विविधमुदाहरणम्, तत्र चरितमभिधीयते यद् वृत्तम्, तेन कस्यचिद् दार्टान्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते, तद्यथा- दुःखाय निदानम्, यथा ब्रह्मदत्तस्य। तथा कल्पितं स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमुच्यते, तेन च कस्यचिद्दान्तिकार्थप्रत्तिपत्तिर्जन्यते, यथापिष्पलपत्रैरनित्यतायामिति, उक्तं च- जह तुन्भे तह अम्हे तुब्भे वि अ होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं पंडुअपत्तं किसलयाणं ॥१॥ णवि अत्थि णवि अ होही उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं । उवमा खलु एस कया भविअजणविबोहणट्ठाए ॥२॥ [उत्तरा०नि० ३०१-३०२] इत्यादि । आह- इदमुदाहरणं दृष्टान्त उच्यते, तस्य च साध्यानुगमादि लक्षणमिति, उक्तं च- साध्येनानुगमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः स साधर्म्यतरो द्विधा ॥१॥ [प्रमाणसमु०४।२] अस्य पुनस्तल्लक्षणाभावात् कथमुदाहरणत्वमिति ?, अत्रोच्यते, तदपि कथञ्चित् साध्यानुगमादिना दार्टान्तिकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात् फलत उदाहरणम्, इहापि च साऽस्त्येवेति कृत्वा किं नोदाहरणतेति ?। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि साध्यानुगमादि लक्षणमपि सामान्यविशेषो - भयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथञ्चिद्भेदवादिन एव युज्यते, नान्यस्य, एकान्तभेदाभेदयोस्तदभावादिति, तथाहि - सर्वथा प्रतिज्ञादृष्टान्तार्थभेदवादिनोऽनुगमतः खलु घटादौ कृतकत्वादेरनित्यत्वादिप्रतिबन्धदर्शनमपि प्रकृतानुपयोग्येव, भिन्नवस्तुधर्मत्वात्, सामान्यस्य च परिकल्पितत्वादसत्त्वाद्, इत्थमपि च तद्वलेन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायां सत्यामतिप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति, एवं सर्वथा अभेदवादिनोऽप्येकत्वादेव तदभावो भावनीय इति, अनेकान्तवादिनस्त्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तद्धर्मसामर्थ्यात्तत्तद्वस्तुनः प्रतिबन्धबलेनैव तस्य तस्य वस्तुनो गमकं भवति, अन्यथा ततस्तस्मिंस्तत्प्रतिपत्त्यसम्भव इति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः- चरितं च कल्पितं चे (वे ) त्यनेन विधिना द्विविधम्, पुनश्चतुर्विधं चतुष्प्रकारमेकैकम्, कथमत आह- उदाहरणं तद्देश: तद्दोषश्चैव उपन्यास इति । तत्रोदाहरणशब्दार्थ उक्त एव, तस्य देशस्तद्देशः, एवं तद्दोषः, उपन्यसनमुपन्यासः, स च तद्वस्त्वादिलक्षणो वक्ष्यमाण इति गाथार्थः ॥ " - दशवै० हारि० ॥ ५२ [पृ०४३६] “द्वैपायनकथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितेऽष्टमे पर्वणि एकादशे सर्गे वर्तते ग्रन्थान्तरेषु च। साम्प्रतं द्रव्यापायप्रतिपादनायाह- दव्वावाए दोन्नि उ वाणिअगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणएक्मेक्कं दहम्मि मच्छेण निव्वेओ ।। ५५ ।। व्या० द्रव्यापाये उदाहरणं द्वौ तु, तुशब्दादन्यानि च, वणिजौ भ्रातरौ धननिमित्तं धनार्थं वधपरिणतौ एकैकम् अन्योऽन्यं हृदे मत्स्येन निर्वेद इति गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम् - एगम्मि संनिवेसे दो भायरो दरिद्दप्पाया, तेहिं सोरट्टं गंतूण साहस्सिओ णउलओ रूवगाणं विढविओ, ते अ सयं गामं संपत्थिया, इंता तं णउलयं वारएण वहंति, जया एगस्स हत्थे तदा इयरो चिंतेड़ - 'मारेमि णवरमेए रूवगा ममं होतु' एवं बीओ चिंतेइ " जहाऽहं एअं मारेमि” ते परोप्परं वहपरिणया अज्झवस्संति। तओ जाहे सग्गामसमीवं पत्ता तत्थ नईतडे जिट्ठेअरस्स पुणरावित्ति जाया- 'धिरत्थु ममं, जेण मए दव्वस्स क भाउविणासो चिंतिओ' परुण्णो, इअरेण पुच्छिओ, कहिओ, भणई-ममंपि एयारिसं चित्तं होतं, ताहे एअस्स दोसेणं अम्हेहिं एअं चिंतिअं ति काउं तेहिं सो णउलओ दहे छूढो, ते अ घरं गया, सो अ णउलओ तत्थ पडतो मच्छएण गिलिओ, सो अ मच्छो मेएण मारिओ, वीहीए ओयारिओ । सिं च भाउगाणां भगिणी मायाए वीहिं पट्ठविआ जहा मच्छे आणेह जं भाउगाणं ते सिज्झंति, ताए स समावत्तीए सो चेव मच्छओ आणीओ, चेडीए फालिंतीए णउलओ दिट्ठो, चेडीए चिंतिअं - एस णउलओ मम चेव भविस्सइ त्ति उच्छंगे कओ, ठविज्जंतो य थेरीए दिट्ठो णाओ अ, तीए भणियं किमेअं तुमे उच्छंगे कयं ?, सावि लोहं गया ण साहइ, ताओ दोवि परोप्परं पहयातो, सा थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसे आहया जेण तक्खणमेव जीवियाओ ववरोविया, तेहिं तु दारएहिं सो कलहवइअरो णाओ, स णउलओ दिट्ठो, थेरी गाढप्पहारा पाणविमुक्का Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि निस्सङ्कं धरणितले पडिया दिट्ठा, चिंतिअं च णेहिं - इमो सो अवायबहुलो आ[] ति । एवं दव्वं अवायउ ति ॥ लौकिका अप्याहु:- अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं धिग् द्रव्यं दुःखवर्धनम् ||१|| अपायबहुलं पापं ये परित्यज्य संश्रिताः । तपोवनं महासत्त्वास्ते धन्यास्ते तपस्विनः ॥२॥ इत्यादि । एतावत्प्रकृतोपयोगि । तओ तेसिं तमवायं पिच्छिऊण णिव्वेओ जाओ, तओ तं दारियं कस्सइ दाऊण निव्विण्णकामभोआ पव्वय त्ति गाथार्थः ॥ " दशवै० हारि० ॥ इदानीं क्षेत्राद्यपायप्रतिपादनायाह- खेत्तम्मि अवक्कमणं दसारवग्गस्स होइ अवरेणं । दीवायणो अ काले भावे मंडुआखवओ ||५६ || व्या० तत्र क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः, ततश्च क्षेत्रादपायः क्षेत्रमेव वा तत्कारणत्वादिति । तत्रोदाहरणमपक्रमणम् अपसर्पणं दशारवर्गस्य दशारसमुदायस्य भवति अपरेण अपरत इत्यर्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्च वक्ष्यामः । द्वैपायनश्च काले द्वैपायनऋषिः, काल इत्यत्रापि कालादपाय: कालापायः काल एव वा तत्कारणत्वादिति, अत्रापि भावार्थः कथानकगम्य एव तच्च वक्ष्यामः । भावे मंडुक्किकाक्षपक इत्यत्रापि भावादपायो भावापायः स एव वा तत्कारणत्वादिति, अत्रापि च भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्च वक्ष्याम इति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थ उच्यते- खित्तापाओदाहरणं दसारा हरिवंसरायाणो एत्थ महई कहा जहा हरिवंसे । उवओगियं चेव भण्णए, कंसम्मि विणिवाइए सावायं खेत्तमेयं ति काऊण जरासंधरायभएण दसारवग्गो महुराओ अवक्कमिऊण बारवई गओ त्ति । प्रकृतयोजनां पुनर्निर्युक्तिकार एव करिष्यति, किमकाण्ड एव नः प्रयासेन ? - कालावाए उदाहरणं पुण - कण्हपुच्छिएण भगवयाऽरिट्टणेमिणा वागरियं - बारसहिं संवच्छरेहिं दीवायणाओ बारवईणयरीविणासो, उज्जोततराए णगरीए परंपरएण सुणिऊण दीवायणपरिव्वायओ मा गरिं विणासेहामि त्ति कालावधिमण्णओ गमेमि त्ति उत्तरावहं गओ, सम्मं कालमाणमयाणिऊण य बारसमे चेव संवच्छरे आगओ, कुमारेहिं खलीकओ, कयणिआणो देवो उववण्णो, तओ य णगरीए अवाओ जाओ त्ति, णण्णहा जिणभासि । भावावाए उदाहरणं खमओ- एगो खमओ चेल्लएण समं भिक्खायरियं गओ, तेण तत्थ मंडुक्कलिया मारिआ, चिल्लएण भणिअं - मंडुक्कलिआ तए मारिआ, खवगो भइ- रे दुट्ठ सेह ! चिरमइआ चेव एसा, ते गआ, पच्छा रत्तिं आवस्सए आलोइंताण खमगेण सा मंडुक्कलिया नालोइया ता चिल्लएण भणिअं - खमगा ! तं मंडुक्कलियं आलोएहि, खमओ रुट्ठो तस्स चेल्लयस्स खेलमल्लयं घेत्तूण उद्घाइओ, अंसियालए खंभे आवडिओ वेगेण इंतो, मओ य जोइसिएसु उववन्नो, तओ चइत्ता दिट्ठीविसाणं कुले दिट्ठीविसो सप्पो जाओ, तत्थ य एगेण परिहिंडंतेण नगरे रायपुत्तो सप्पेण खइओ, अहितुंडएण विज्जाओ सव्वे सप्पा आवाहिआ, मंडले पवेसिआ भणिया- अण्णे सव्वे गच्छंतु, जे पुण रायपुत्तो खइओ सो अच्छउ, एगो ठिओ, सो भणिओ - अहवा विसं आवियह सव्वे गया, ५३ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अहवा एत्थ अग्गिम्मि णिवडाहि, सो अ अगंधणो, सप्पाणं किल दो जाईओ- गंधणा अगंधा य, ते अगंधणा माणिणो, ताहे सो अग्गिम्मि पविट्ठो, ण य तेण तं वंतं पच्चाइयं, रायपुत्तो वि मओ, पच्छा रण्णा रुट्ठेण घोसावियं रज्जे- जो मम सप्पसीसं आणेइ तस्साहं दीणारं देमि, पच्छा लोगो दीणारलोभेण सप्पे मारेउं आढत्तो, तं च कुलं जत्थ सो खमओ उप्पन्नो तं जाइसरं रत्तिं हिंडइ दिवसओ न हिंडइ, मा जीवे दहेहामि त्ति काउं, अण्णया आहितुंडिगेहिं सप्पे मग्गंतेहिं रत्तिंचरेण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिट्ठति दारे से ठिओ, ओसहिओ आवाहेइ, चिंतेइ - दो मे कोवस विवाओ, तो जइ अहं अभिमुहो णिगच्छामि तो दहिहामि, ताहे पुच्छेण आढत्तो निप्फिडिउं, जत्तियं निप्फेडेइ तावइयमेव आहिंडओ छिदेइ, जाव सीसं छिण्णं, मओ य, सो सप्पो देवयापरिग्गहिओ, देवया रण्णो सुमिणए दरिसणं दिण्णं- जहा मा सप्पे मारेह पुत्तो ते नागकुलाओ उव्वट्टिऊण भविस्सइ, तस्स दारयस्स नागदत्तनामं करेज्जाहि सो अ खमगसप्पो मरित्ता तेण पाणपरिच्चाएण तस्सेव रण्णो पुत्तो जाओ, जाए दारए णामं कयं णागदत्तो, खुड्डलओ चेव सो पव्वइओ, सो अकिर तेण तिरियाणुभावेण अतीव छुहालुओ, दोसीणवेलाए चेव आढवेइ भुंजिउं जाव सूरत्थमणवेलं, उवसंतो धम्मसद्धिओ य, तम्मि अ गच्छे चत्तारि खमगा, तंजहा- चाउम्मासिओ तिमासिओ दोमासिओ एगमासिओ त्ति, रत्तिं च देवया वंदिउं आगया, चाउम्मासिओ पढमट्ठिओ, तस्स पुरओ तेमासिओ, तस्स पुरओ दोमासिओ, तस्स पुरओ एगमासिओ, ताण य पुरओ खुड्डुओ । सव्वे खमगे अतिक्कमित्ता ताए देवयाए खुड्डओ वंदिओ, पच्छा ते खमगा रुट्ठा, निग्गच्छंती अ गहिया चाउम्मासिअखमएण पोत्ते, भणिआ य अणेण कडपूयणि ! अम्हे तवस्सिणो ण वंदसि, एयं कूरभायणं वंदसि त्ति, सा देवया भणइ- अहं भावखमयं वंदामि, ण पूआसक्कारपरे माणिओ अ वंदामि, पच्छा ते चेल्लयं तेण अमरिसं वहति, देवया चिंतेइ मा एए चेल्लयं खरंटेहिंति, तो सणिहिआ चेव अच्छामि, ताहं पडिबोहेहामि, बितिअदिवसे अ चेल्लओ संदिसावेऊण गओ दोसीणस्स, पडिआगओ आलोइत्ता चाउम्मासियखमगं णिमंते, तेण पडिग्गहे से णिच्छूढं, चेल्लओ भणइ - मिच्छामिदुक्कडं जं तुब्भे मए खेलमल्लओ ण पणामिओ, तं तेण उप्पराउ चेव फेडित्ता खेलमल्लए छूढं, एवं जाव तिमासिएणं जाव एगमासिएणं णिच्छूढं, तं तेण तहा चेव फेडिअं, अडुयालित्ता लंबणे गिण्हामि त्ति काउं खमएण चेल्लओ बाहं गहिओ, तं तेण तस्स चेल्लगस्स अदीणमणसस्स विसुद्धपरिणामस्स लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिज्जाणं कम्माणं खएण केवलनाणं समुप्पण्णं, ताहे सा देवया भणइ - किह तुब्भे वंदिअव्वा ? जेणेवं कोहाभिभूआ अच्छह, ताहे ते खमगा संवेगमावण्णा मिच्छामिदुक्कडं ति, अहो बालो उवसंतचित्तो अम्हेहिं पावकम्मेहिं आसाइओ, एवं तेसिंपि सुहज्झवसाणेणं केवलनाणं समुप्पण्णं, एवं पसंगओ कहियं कहाणयं, उवणओ पुण कोहादिगाओ अपसत्थभावाओ दुग्गए अवाओ त्ति ||" दशवै ० हारि० ॥ [पृ०४३८] “एमेव चउविगप्पो होड़ उवाओऽवि तत्थ दव्वम्मि । धातुव्वाओ ५४ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि नंगलकुलिएहिँ खेत्तं तु ॥६१॥ व्या० एवमेव यथा अपायः, किम् ?- चतुर्विकल्प: चतुर्भेदः भवत्युपायोऽपि, तद्यथा- द्रव्योपायः क्षेत्रोपायः कालोपायः भावोपायश्च, तत्र द्रव्य इति द्वारपरामर्शः द्रव्योपाये विचार्ये धातुर्वादः सुवर्णपातनोत्कर्षलक्षणो द्रव्योपायः प्रथम इति लौकिकः, लोकोत्तरे त्वध्वादौ पटलादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणम्, क्षेत्रोपायस्तु लाङ्गलादिना क्षेत्रोपक्रमणे भवति, अत एवाह- लाङ्गलकुलिकाभ्यां क्षेत्रम् उपक्रम्यत इति गम्यते, ततश्च लाङ्गलकुलिके तदुपायो लौकिकः, लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटनादिना क्षेत्रभावनम्, अन्ये तु योनिप्राभृतप्रयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलक्षणमेव सङ्घातप्रयोजनादौ द्रव्योपायं व्याचक्षते, विद्यादिभिश्च दुस्तराध्वतरणलक्षणं क्षेत्रोपायमिति । अत्र च प्रथमग्रहणपदार्थोऽतिरिच्यमान इवाभाति, पाठान्तरं वा 'धाउव्वाओ भणिओ'त्ति अत्र च कथञ्चिदविरोध एवेति गाथार्थः ॥ ___ कालो अ नालियाइहिँ होइ भावम्भि पंडिओ अभओ । चोरस्स कए नहि वडकुमारि परिकहेइ ॥६२॥ व्या० कालश्च नालिकादिभिः ज्ञायत इति शेषः, नालिका घटिका आदिशब्दाच्छङ्क्वादिपरिग्रहः, ततश्च नालिकादयः कालोपायो लौकिकः, लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिभिस्तथा भवति, ‘भावे' चेति द्वारपरामर्शत्वाद्भावोपाये विचार्ये निदर्शनम्, क इत्याहपण्डितो विद्वान् अभय: अभयकुमारस्तथा चाह- चौरनिमित्तं नर्त्तक्यां [नाट्ये] वड्ड [वृद्ध] कुमारीम्, किम् ?, त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थमाह- परिकथयति, ततश्च यथा तेनोपायतश्चौरभावो विज्ञातः एवं शिक्षकादीनां तेन तेन विधिनोपायत एव भावो ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ नवरं भावोवाए उदाहरणम्रायगिहं णाम णयरं, तत्थ सेणिओ राया, सो भज्जाए भणिओ जहा मम एगखभं पासायं करेहि, तेण वड्डइणो आणत्ता, गया कट्ठच्छिंदगा, तेहिं अडवीए सलक्खणो सरलो महइमहालओ दुमो दिट्ठो, धूवो दिण्णो, जेणेस परिग्गहिओ रुक्खो सो दरिसावेउ अप्पाणं, तो णं ण छिंदामो त्ति, अह ण देइ दरिसावं तो छिंदामो त्ति, ताहे तेण रुक्खवासिणा वाणमंतरेण अभयस्स दरिसावो दिण्णो अहं रण्णो एगखंभं पासायं करेमि, सव्वोउयं च आरामं करेमि सव्ववणजाइउवेयं, मा छिंदह त्ति, एवं तेण कओ पासाओ । अन्नया एगाए मायंगीए अकाले अंबयाण दोहलो, सा भत्तारं भणइ-मम अंबयाणि आणेहि, तदा अकालो अंबयाणं, तेण ओणामिणीए विज्जाए डालं ओणामियं, अंबयाणि गहिआणि, पुणो अ उण्णमणीए उण्णामियं, पभाए रण्णा दिटुं, पयं ण दीसइ, को एस मणुसो अतिगओ, ? जस्स एसा एरिसी सत्ति त्ति सो मम अंतेउरंपि धरिसेहित्तिकाउं अभयं सद्दावेऊण भणइ- सत्तरत्तस्स अभंतरे जइ चोरं णाणेसि तो णत्थि ते जीविअं । ताहे अभओ गवेसिउं आढत्तो, णवरं एगमि पएसे गोजो रमिउकामो, मिलिओ लोगो, तत्थ गंतुं अभओ भणतिजाव गोज्जो मंडेइ अप्पाणं ताव ममेगं अक्खाणगं सुणेह जहा कहिंपि णयरे एगो दरिद्दसिट्ठी परिवसति, तस्स धूया बुड्ढकुमारी अईव रूविणी य, वरणिमित्तं कामदेवं अच्चेइ, सा य एगंमि आरामे चोरिए पुप्फाणि उच्चेंती आरामिएण दिट्ठा, कयत्थिउमाढत्ता, तीए सो भणिओ- मा मई कुमारि विणासेहि, Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि तवावि भयणीभाणिज्जीओ अत्थि, तेण भणिआ-एक्काए ववत्थाए मुयामि, जइ णवरं जम्मि दिवसे परिणेज्जसि तद्दिवसं चेव भत्तारेण अणुग्घाडिया समाणी मम सयासं एहिसि तो मुयामि, तीए भणिओएवं हवउ त्ति, तेण विसज्जिआ अन्नया परिणीआ, जाहे अपवरके पवेसिआ ताहे भत्तारस्स सब्भावं कहेइ, विसज्जिया वच्चइ, पट्ठिया आरामं, अंतरा अ चोरेहिं गहिया, तेसिपि सम्भावो कहिओ, मुक्का, गच्छंतीए अंतरा रक्खसो दिट्ठो, जो छण्हं मासाणं आहारेइ, तेण गहिया, कहिए मुक्का, गया आरामियसगासं, तेण दिट्ठा, सो संभंतो भणइ-कहमागयासि ?, ताए भणिअं- मया कओ सो पुव्विं समओ, सो भणइ- कहं भत्तारेण मुक्का ?, ताहे तस्स तं सव्वं कहिअं, अहो सच्चपइन्ना एसा महिल त्ति, एत्तिएहिं मुक्का, किहाहं दुहामि त्ति तेण विमुक्का, पडियंती अ गया सव्वेसिं तेसिं मझेणं, आगता तेहिं सव्वेहि मुक्का, भत्तारसगासं अणहसमग्गा गया । ताहे अभओ तं जणं पुच्छइ-अक्खह एत्थ केण दुक्करं कयं ?, ताहे इस्सालुया भणंति- भत्तारेणं, छुहालुया भणंतिरक्खसेणं, पारदारिया भणंति-मालागारेणं, हरएिसेण भणिअं- चोरेहिं, पच्छा सो गहिओ, जहा एस चोरो त्ति। एतावत्प्रकृतोपयोगि । जहा अभएण तस्स चोरस्स उवाएण भावो णाओ एवमिहवि सेहाणमुवट्ठायंतयाणं उवाएण गीअत्थेण विपरिणामादिणा भावो जाणिअव्वो त्ति, किं एए पव्वावणिज्जा नव त्ति, पव्वाविएसुवि तेसु मुंडावणाइसु एमेव विभासा, यदुक्तम्- पव्वाविओ सियत्ति अ मुंडावेउं न कप्पइ इत्यादि। कहाणयसंहारो पुण-चोरो सेणियस्स उवणीओ, पुच्छिएण सब्भावो कहिओ, ताहे रण्णा भणियं-जइ नवरं एयाओ विजाओ देहि तो न मारेमि, देमि त्ति अब्भुवगए आसणे ट्ठिओ पढई, न ठाई, राया भणई- किं न ठाई ?, ताहे तं मायंगो भणइ- जहा अविणएणं पढसि, अहं भूमीए तुमं आसणे, णीयतरे उवविठ्ठो, ठियातो सिद्धाओ य विजाओ त्ति । कृतं प्रसङ्गेन ।” - दशवै० हारि० । पृ०४३९] "उक्तमुपायद्वारमधुना स्थापनाद्वारमभिधित्सुराह- ठवणाकम्मं एक्कं दिटुंतो तत्थ पोंडरीअं तु । अहवाऽवि सन्नढक्कणहिंगुसिवकयं उदाहरणं ॥६७॥ व्या० स्थाप्यते इति स्थापना तया तस्यास्तस्यां वा कर्म सम्यगभीष्टार्थप्ररूपलक्षणा क्रिया स्थापनाकर्म, एक मिति तज्जात्यपेक्षया दृष्टान्तो निर्दशनं तत्र स्थापनाकर्मणि पौण्डरीकं तु तुशब्दात्तथाभूतमन्यच्च, तथा च पौण्डरीकाध्ययने पौण्डरीकं प्ररूप्य प्रक्रिययैवान्यमतनिरासेन स्वमतं स्थापितमिति, अथवेत्यादि पश्चार्द्धं सुगमम्, लौकिकं चेदमिति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्- जहा एगम्मि णगरे एगो मालायारो सण्णाइओ करंडे पुप्फे घेत्तूण वीहीए एइ, सो अईव अच्चइओ, ताहे तेण सिग्धं वोसिरिऊणं सा पुप्फपिडिगा तस्सेव उवरि पल्हत्थिया, ताहे लोओ पुच्छइ-किमेयंति ?, जेणित्थ पुप्फाणि छड्डेसि त्ति, ताहे सो भणइ-अहं आलोविओ, एत्थ हिंगुसिवो नाम, एतं तं वाणमंतरं हिंगसिवं नाम उप्पन्नं, लोएण परिग्गहियं, पूया से जाया, खाइगयं अज्जवि तं पाडलिपुत्ते हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं । एवं जइ किंचि उड्डाहं पावयणीयं कयं होज्जा केणवि पमाएण ताहे तहा पच्छाएयव्वं Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ५७ जहा पच्चुण्णं पवयणुब्भावणा हवइ । संजाए उड्डाहे जह गिरिसिद्धेहिं कुसलबुद्धीहिं । लोयस्स धम्मसद्धा पवयणवण्णेण सुट्ठ कया ॥१॥ एवं तावच्चरणकरणानुयोगं लोकं चाधिकृत्य स्थापनाकर्म प्रतिपादितम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्योपदर्शयन्नाह सव्वभिचारं हेतुं सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उववूहइ सप्पसरं सामत्थं चऽप्पणो नाउं ॥६८॥ व्या० सह व्यभिचारेण वर्त्तत इति सव्यभिचारस्तं हेतुं साध्यधर्मान्वयादिलक्षणं सहसा तत्क्षणमेव वोत्तुं अभिधाय तमेव हेतुम् अन्यैः हेतुभिरेव उपबृंहते समर्थयति सप्रसरम् अनेकधा स्फारयन् सामर्थ्य प्रज्ञाबलम्, चशब्दो भिन्नक्रमः आत्मनश्च स्वस्य च ज्ञात्वा विज्ञाय, चशब्दात्परस्य चेति गाथार्थः । भावार्थस्त्वयम्- द्रव्यास्तिकाद्यनेकनयसङ्कुलप्रवचनज्ञेन साधुना तत्स्थापनाय नयान्तरमतापेक्षया सव्यभिचारं हेतुमभिधाय प्रतिपक्षनयमतानुसारतः तथा समर्थनीयः यथा सम्यगनेकान्तवादप्रतिपत्तिर्भवतीति । आह- उदाहरणभेदस्थापनाधिकारचिन्तायां सव्यभिचारहेत्वभिधानं किमर्थमिति ?, उच्यते, तदाश्रयेण भूयसामुदाहरणानां प्रवृत्तेः, तदन्वितं चोदाहरणमपि प्राय इति ज्ञापनार्थम्, अलं प्रसङ्गेन । अभिहितं स्थापनाकर्मद्वारम्, अधुना प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारमभिधातुकाम आह- होति पडुप्पन्नविणासणंमि गंधव्विया उदाहरणं । सीसोऽवि कत्थवि जइ अज्झोवजिज तो गुरुणा ॥६९॥ व्या० भवन्ति प्रत्युत्पन्नविनाशने विचार्ये गान्धर्विका उदाहरणं लौकिकमिति। तत्र प्रत्युत्पन्नस्य वस्तुनो विनाशनं प्रत्युत्पन्नविनाशनं तस्मिन्निति समासः । गान्धर्विका उदाहरणमिति यदुक्तं तदितम्- जहा एगम्मि णगरे एगो वाणियओ, तस्स बहुयाओ भयणीओ भाइणिज्जा भाउज्जायाओ य, तस्स घरसमीवे राउलिया गंधव्विया संगीयं करेंति दिवसस्स तिन्नि वारे, ताओ वणियमहिलाओ तेण संगीयसद्देण तेसु गंधव्विएसु अज्झोववन्नाओ किंचि कम्मादाणं न करेंति, पच्छा तेण वाणियएण चिंतियं- जहा विणट्ठा एयाओ त्ति, को उवाओ होज्जा ? जहा न विणस्संति. त्तिकाउं मित्तस्स कहियं, तेण भण्णइ-अप्पणो घरसमीवे वाणमंतरं करावेहि, तेण कयं, ताहे पाडहियाणं रूवए दाउं वायावेइ, जाहे गंधब्विया संगीययं आढवेति ताहे ते पाडहिया पडहे दिति वंसादिणो य फुसंति गायंति य, ताहे तेसिं गंधब्वियाणं विग्यो जाओ, पडहसद्देण य ण सुव्वइ गीयसद्दो, तओ ते राउले उवट्ठिया, वाणिओ सद्दाविओ, किं विग्धं करेसि त्ति ? भणइ-मम घरे देवो, अहं तस्स तिन्नि वेला पडहे दवावेमि, ताहे ते भणिया- जहा अन्नत्थ गायह, किं देवस्स दिवे दिवे अंतराइयं कज्जइ ?। एवं आयरिएणवि सीसेसु अगारीसु अज्झोववज्जमाणेसु तारिसो उवाओ कायव्वो जहा तेसिं दोसस्स तस्स णिवारणा हवइ, मा ते चिंतादिएहिं णरयपडणादिए अवाए पावेहिंति, उक्तं च- चिंतेइ दटुमिच्छइ दीहं णीससइ तह जरो दाहो । भत्तारोयग मुच्छा उम्मत्तो ण याणई मरणं ॥१॥ पढमे सोयई वेगे दटुं तं गच्छई बिइयवेगे । णीससइ तइयवेगे आरुहइ जरो चउत्थंमि ॥२॥ डज्झइ पंचमवेगे छट्टे भत्तं न रोयए वेगे । सत्तमियंमि य मुच्छा अट्ठमए होइ उम्मत्तो ॥३॥ णवमे य याणइ किंचि दसमे पाणेहिं मुच्चइ मणूसो । एएसिमवायाणं सीसे रक्खंति आयरिया ॥४॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि परलोइया अवाया भग्गपइण्णा पडंति नरएसु । ण लहंति पुणो बोहिं हिंडंति य भवसमुद्दम्मि ॥५॥ अमुमेवार्थं चेतस्यारोप्याह- शिष्योऽपि विनेयोऽपि क्वचित् विलयादौ यदीत्यभ्युपगमदर्शने अभ्युपपद्येत अभिष्वङ्गं कुर्यादित्यर्थः, ततो गुरुणा आचार्येण, किम् ?- गाथा वारेयव्वु उवाएण जइवा वाऊलिओ वदेजाहि । सव्वेऽवि नत्थि भावा किं पुण जीवो स वोत्तव्वो ॥७०॥ व्या० वारयितव्यो निषेद्धव्यः, किं यथाकथञ्चित् ? नेत्याह- उपायेन प्रवचनप्रतिपादितेन, यथाऽसौ सम्यग्वर्त्तत इति भावार्थः ।" - दशवै० हारि० ॥ __ [पृ०४४०] “व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम्, तदन्वाख्यानाच्चोदाहरणमिति मूलद्वारम्, अधुना तद्देशद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह- आहरणं तद्देसे चउहा अणुसट्टि तह उवालंभो। पुच्छा निस्सावयणं होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए ॥७३॥ व्या० उदाहरणमिति पूर्ववद्, उपलक्षणं चेदमत्र, तथा चाह- तस्य देशस्तद्देश उदाहरणदेश इत्यर्थः, अयं चतुर्द्धा चतुष्प्रकारः, तदेव चतुष्प्रकारत्वमुपदर्शयतिअनुशासनमनुशास्तिः-सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहणमित्यर्थः, तथोपालम्भनमुपालम्भः-भङ्ग्यैव विचित्रं भणनमित्यर्थः, पृच्छा प्रश्नः किं कथं केनेत्यादि, निश्रावचनम् एकं कञ्चन निश्राभूतं कृत्वा या विचित्रोक्तिरसौ निश्रावचनमिति । तत्र भवति सुभद्रा नाम श्राविकोदाहरणम्, क्व ?- अनुशास्ताविति गाथाक्षरार्थः ॥ तत्थ अणुसट्ठीए सुभद्दा उदाहरणं-चंपाए णयरीए जिणदत्तस्स सुसावगस्स सुभद्दा नाम धूया, सा अईव रूववई सा य तच्चणियउवासएण दिट्ठा, सो ताए अज्झोववण्णो, तं मग्गई, सावगो भणइ-नाहं मिच्छादिट्ठिस्स धूयं देमि, पच्छा सो साहूणा समीवं गओ धम्मो य अणेण पुच्छिओ, कहिओ साहूहिं, ताहे कवडसावयधम्म पगहिओ, तत्थ य से सब्भावेणं चेव उवगओ धम्मो, ताहे तेण साहूणं सब्भावो कहिओ, जहा मए कवडेणं दारियाए कए, णं णायं जहा कवडेणं कजहित्ति, अण्णमियाणिं देह मे अणुव्वयाई, लोगे स पयासो सावओ जाओ, तओ काले गए वरया मालया पट्ठवेइ, ताहे तेण जिणदत्तेण सावओ त्तिकाऊण सुभद्दा दिण्णा, पाणिग्गहणं वत्तं, अन्नया सो भणइ-दारियं घरं णेमि, ताहे तं सावओ भणइ- तं सव्वं उवासयकुलं, एंसा तं णाणुवत्तिहिति, पच्छा छोभयं वा लभेज्जत्ति, णिब्बंधे विसज्जिया, णेऊण जुगयं घरं कयं, सासूणणंदाओ पउट्ठाओ भिक्खूण भत्तिं ण करेइ त्ति, अन्नया ताहिं सुभद्दाए भत्तारस्स अक्खायंएसा य सेअवडेहिं समं संसत्ता, सावओ ण सद्दहेइ, अन्नया खमगस्स भिक्खागयस्स अच्छिंमि कणुओ पविट्ठो, सुभद्दाए जिब्भाए सो किणुओ फेडिओ, सुभद्दाए चीणपिट्टेण तिलओ कओ, सो अखमगस्स निलाडे लग्गो, उवासियाहिं सावयस्स दरिसिओ, सावएण पत्तीयं, ण तहा अणुयत्तइ, सुभद्दा चिंतेइ- किं अच्छेरयं ? जं अहं गिहत्थी छोभगं लभामि, जं पवयणस्स उड्डाहो एयं मे दुक्खइ त्ति, सा रत्तिं काउस्सगेण ठिया, देवो आगओ, संदिसाहि किं करेमि?, सा भणइ-एअं मे अयसं पमज्जाहि त्ति, देवो भणइ-एवं हवउ, अहमेयस्स णगरस्स चत्तारि दाराइं ठवेहामि, घोसणयं च घोसेहामि त्ति, जहा- जा पइव्वया होइ सा एयाणि दाराणि उग्घाडेहिति, तत्थ तुम चेव एगा Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि उग्घाडेसि ताणि य कवाडाणि, सयणस्स पच्चयनिमित्तं चालणीए उदगं छोढूण दरिसिज्जासि, तओ चालणी फुसियमवि ण गिलिहिति, एवं आसासेऊण णिग्गओ देवो, णयरदाराणि अणेण ठवियाणि, णायरजणो य अद्दण्णो, इओ य आगासे वाया होइ ‘णागरजणा मा णिरत्थयं किलिस्सह, जा सीलवई चालणीए छूटं उदगं ण गिलति सा तेण उदगेण दारं अच्छोडेइ, तओ दारं उग्घाडिज्जिस्सति', तत्थ बहुयाओ सेट्ठिसत्थवाहादीणं धूयसुण्हाओ ण सक्कंति पलयंपि लहिउं, ताहे सुभद्दा सयणं आपुच्छइ, अविसजंताण य चालणीए उदयं छोढूण तेसिं पाडिहरं दरिसेइ, तओ विसज्जिया, उवासिआओ एवं चिंतिउमाढत्ताओ- जहा एसा समणपडिलेहिया उग्घाडेहिति, ताए चालणीए उदयं छूढ, ण गिलइ त्ति पिच्छित्ता विसन्नाओ, तओ महाजणेण सक्कारिजंती तं दारसमीवं गया, अरहंताणं नमोकाऊण उदएण अच्छोडिया कवाडा, महया सद्देणं कोंकारवं करेमाणा तिन्नि वि गोपुरदारा उग्घाडिया, उत्तरदारं चालणिपाणिएणं अच्छोडेऊण भणइ जा मया सरिसी सीलवई होहिति सा एयं दारं उग्घाडेहिति, तं अज्जवि ढक्कियं चेव अच्छइ, पच्छा णायरजणेण साहुकारो कओ- अहो महासइ त्ति, अहो जयइ धम्मो त्ति । एयं लोइयं, चरणकरणाणुओगं पुण पडुच्च वेयावच्चादिसु अणुसासियव्वा, उज्जुत्ता अणुजुत्ता य संठवेयव्वा जहा सीलवंताणं इह लोए एरिसं फलमिति । अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह साहुक्कारपुरोगं जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । वेयावच्चाईसु वि एव जयंते णुवोहेजा ॥७४॥ व्या० साधुकारपुरःसरं यथा सुभद्रा अनुशासिता सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहिता, केन ?पुरजनेन नागरिकलोकेन, वैयावृत्यादिष्वपि-आदिशब्दात् स्वाध्यायादिपरिग्रहः, एवं यथा सा सुभद्रा यतमानान् उद्यमवतः, किम् ?- उपबृंहयेत्, सुद्गुणोत्कीर्तनेन तत्परिणामवृद्धिं कुर्यात्, यथाभरहेणवि पुव्वभवे वेयावच्चं कयं सुविहियाणं । सो तस्स फलविवागेण आसी भरहाहिवो राया ॥१॥ भुंजित्तु भरहवासं सामण्णमणुत्तरं अणुचरित्ता । अट्ठविहकम्ममुक्को भरहनरिंदो गओ सिद्धिं'। इति गाथार्थः ॥" - दशवै० हारि० ॥ [पृ०४४१] “पुच्छाए कोणिओ खलु निस्सावयणमि गोयमस्सामी । नाहियवाई पुच्छे जीवत्थित्तं अणिच्छंतं ॥७८॥ व्या० पृच्छायां प्रश्न इत्यर्थः, कोणिकः श्रेणिकपुत्रः खलूदाहरणम् [ ]। जहा तेण सामी पुच्छिओ-चक्कवट्टिणो अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किच्चा कहिं उववजति ?, सामिणा भणियं-अहे सत्तमीए चक्कवट्टीणो उववजंति, ताहे भणइ- अहं कत्थ उववज्जिस्सामि ?, सामिणा भणियं-तुमं छट्ठीपुढवीए, सो भणइ- अहं सत्तमीए किं न उववज्जिस्सामि?, सामिणा भणियं-सत्तमीए चक्कवट्टिणो उववजंति, ताहे सो भणइ-अहं किं न होमि चक्कवट्टी ? ममवि चउरासी दन्तिसयसहस्साणि, सामिणा भणियं-तव रयणाणि निहीओ य णत्थि, ताहे सो कित्तिमाइं रयणाई करित्ता ओवतिउमारद्धो, तिमिसगुहाए पविसिउं पवत्तो, भणिओ य किरिमालएणंवोलीणा चक्कट्टिणो बारसवि, विणस्सिहिसि तुमं, वारिजंतो वि ण ठाई, पच्छा कयमालएण Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि आहओ, मओ य छढेि पुढविं गओ, एयं लोइयं । एवं लोगुत्तरेवि बहुस्सुआ आयरिया अट्ठाणि हेऊ य पुच्छियव्वा, पुच्छित्ता य सक्कणिज्जाणि समायरियव्वाणि, असक्कणिज्जाणि परिहरियव्वाणि, भणियं च- पच्छह पच्छावेह य पंडियए साहवे चरणजत्ते । मा मयलेवविलित्ता पारत्तहियं ण याणिहिह ॥१॥ उदाहरणदेशता पुनरस्याभिहितैकदेश एव प्रष्टुर्ग्रहात् तेनैव चोपसंहारादिति । एवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छाद्वारम्, अधुनैतत्प्रतिबद्धां द्रव्यानुयोगवक्तव्यतामपास्य गाथोपन्यासानुलोमतो निश्रावचनमभिधातुकाम आह- निश्रावचने निरूप्ये गौतमस्वाम्युदाहरणमिति । एत्थ गागलिमादी जहा पव्वइया तावसा य एवं जहा वइरसामिउप्पत्तीए आवस्सए तहा ताव नेयं जाव गोयमसामिस्स किल अधिई जाया । तत्थ भगवया भण्णइ-चिरसंसट्ठोऽसि मे गोयमा ! चिरपरिचितोऽसि मे गोयमा! चिरभाविओऽसि मे गोयमा ! तं मा अधिई करेहि, अंते दोन्निवि तुल्ला भविस्सामो, अन्ने य तन्निस्साए अणुसासिया दुमपत्तए अज्झयणि त्ति । एवं जे असहणा विणेया ते अन्ने मद्दवसंपन्ने णिस्सं काऊण तहाऽणुसासियव्वा उवाएण जहा सम्म पडिवजंति । उदाहरणदेशता त्वस्य देशेन-प्रदर्शितलेशत एव तथानुशासनात् । एवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छानिश्रावचनद्वारद्वयम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते-तत्रेदं गाथादलम्णाहियवाइमित्यादि, नास्तिकवादिनं चार्वाकं पृच्छेज्जीवास्तित्वमनिच्छन्तं सन्तमिति गाथार्थः ॥" - दशवै० हारि० ॥ [पृ०४४३] “उपन्यस्तं चातुर्विध्यं प्रतिपादयन्नाह- पढमं अहम्मजुत्तं पडिलोमं अत्तणो उवन्नासं । दुरुवणियं तु चउत्थं अहम्मजुत्तंमि नलदामो॥८१॥ व्या० प्रथमम् आद्यम् अधर्मयुक्तं पापसम्बद्धमित्यर्थः, तथा प्रतिलोमं प्रतिकूलम्, आत्मन उपन्यास इति आत्मन एवोपन्यासःतथानिवेदनं यस्मिन्निति, दुरुपनीतं चेति दुष्टमुपनीतं-निगमितमस्मिन्निति चतुर्थमिदं वर्त्तते, अमीषामेव यथोपन्यासमुदाहरणैर्भावार्थमुपदर्शयति-अधर्मयुक्ते नलदामः कुविन्दः, लौकिकमुदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः । पर्यन्तावयवार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-चाणक्केण णंदे उत्थाइए चंदगुत्ते रायाणए ठविए एवं सव्वं वण्णित्ता जहा सिक्खाए, तत्थ णंदसतिएहिं मणुस्सेहिं सह चोरग्गाहो मिलिओ, णगरं मुसइ, चाणक्कोऽवि अन्नं चोरग्गाहं ठविउकामो तिदंडं गहेऊण परिवायगवेसेण णयरं पविठ्ठो, गओ णलदामकोलियसगासं, उवविठ्ठो वणणसालाए अच्छइ, तस्स दारओ मक्कोडएहिं खंइओ, तेण कोलिएण बिलं खणित्ता दड्डा, ताहे चाणक्केण भण्णइ- किं एए डहसि ?, कोलिओ भणइजइ एए समूलजाला ण उच्छाइजति, तो पुणोऽवि खाइस्संति, ताहे चाणक्केण चिंतियं- एस मए लद्धो चोरग्गाहो, एस णंदतेणया समूलया उद्धरिस्सिहिइ त्ति चोरग्गाहो कओ, तेण तिखंडिया विसंभिया अम्हे संमिलिया मुसामो त्ति, तेहिं अन्ने वि अक्खाया जे तत्थ मुसगा, बहुया सुहतरागं मुसामो त्ति, तेहिं अन्नेवि अक्खाया, ताहे ते तेण चोरग्गाहेण मिलिऊण सव्वेऽवि मारिया । एवं अहम्मजुत्तं ण भाणियव्वं, ण य कायव्वं ति । इदं तावल्लौकिकम्, अनेन लोकोत्तरमपि चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि सूचितमवगन्तव्यम्, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणम् [ ] इति न्यायात् । तत्र चरणकरणानुयोगेन णेवं अहम्मजुत्तं कायव्वं किंचि भाणियव्वं वा । थोवगुणं बहुदोसं विसेसओ ठाणपत्तेणं ॥१॥ जम्हा सो अन्नेसिपि आलंबणं होइ । द्रव्यानुयोगे तु- वादम्मि तहारूवे विजाय बलेण पवयणट्ठाए । कुजा सावजं पिहु जह मोरीणउलिमादीसु ॥१॥ सो परिवायगो विलक्खीकओ त्ति । उदाहरणदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वादेव भावनीयेति । गतमधर्मयुक्तद्वारम्, अधुना प्रतिलोमद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह__पडिलोमे जह अभओ पजोयं हरइ अवहिओ संतो। गोविंदवायगोऽविय जह परपक्खं नियत्तेइ ॥८२॥ व्या० प्रतिलोमे उदाहरणदोषे यथा अभय: अभयकुमारः प्रद्योतं राजानं हृतवान् अपहृतः सन्निति, एतद् ज्ञापकम्, इह च त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थो वर्तमाननिर्देश इत्यक्षरार्थः । भावार्थ: कथानकादवसेयः, तच्च यथाऽऽवश्यके शिक्षायां तथैव द्रष्टव्यमिति । एवं तावल्लौकिकं प्रतिलोमम्, लोकोत्तरं तु द्रव्यानुयोगमधिकृत्य सूचयन्नाह- गोविंदेत्यादि गाथादलम्, अनेन चरणकरणानुयोगमप्यधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम्, आद्यन्तग्रहणे तन्मध्यपतितस्य तद्ग्रहणेनैव ग्रहणात्, तत्र चरणकरणे णो किंचि य पडिलोमं कायव्वं भवभवए मण्णेसिं । अविणीयसिक्खगाण उ जयणाइ जहोचिअं कुजा ॥१॥ द्रव्यानुयोगे तु गोपेन्द्रवाचकोऽपि च यथा परपक्षं निवर्त्तयतीत्यर्थः । सो य किर तच्चण्णिओ आसि, विणा[ण्णा] सणणिमित्तं पव्वइओ, पच्छा भावो जाओ, महावादी जात इत्यर्थः। सूचकमिदम्, अत्र च- ‘दव्वट्ठियस्स पज्जवणयट्ठियमेयं तु होइ पडिलोमं । सुहदुक्खाइअभावं इयरेणियरस्स चोइज्जा ॥१॥ अण्णे उ दुट्टवादिम्मि, किंचि बूया य किल पडिकूलं । दोरासिपइण्णाए तिण्णि जहा पुच्छ पडिसेहो ॥२॥ उदाहरणदोषता त्वस्य प्रथमपक्षे साध्यार्थासिद्धेः, द्वितीयपक्षे तु शास्त्रविरुद्धभाषणादेव भावनीयेति गाथार्थः ॥ ___ अत्तउवन्नासंमि य तलागभेयंमि पिंगलो थवई । अणिमिसगिण्हण भिक्खुग दुरुवणीए उदाहरणं ॥८३॥ व्या० आत्मन एवोपन्यासो निवेदनं यस्मिंस्तदात्मोपन्यासं तत्र च तडागभेदे पिङ्गलस्थपति: उदाहरणमित्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकगम्यः, तच्चेदम्- इह एगस्स रण्णो तलागं सव्वरजस्स सारभूअं, तं च तलागं वरिसे वरिसे भरियं भिज्जइ, ताहे राया भणइ-को सो उवाओ होज्जा ? जेण तं न भिज्जेज्जा, तत्थ एगो कविलओ मणूसो भणइ-जइ नवरं महाराय ! इत्थ पिंगलो कविलियाओ से दाढियाओ सिरं से कविलियं सो जीवंतो चेव जंमि ठाणे भिज्जइ तंमि ठाणे णिक्खमइ, तो णवरं ण भिज्जइ, पच्छा कुमारामच्चेण भणियं- महाराय ! एसो चेव एरिसो जारिसयं भणइ, एरिसो णत्थि अन्नो, पच्छा सो तत्थेव मारेत्ता निक्खित्तो । एवं एरिसं न भाणियव्वं जं अप्पवहाए भवइ । इदं लौकिकम्, अनेन च लोकोत्तरमपि सूचितम्, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्, तत्र चरणकरणानुयोगे नैवं ब्रूयात् यदुत- लोइयधम्माओविहु जे पन्भट्ठा णराहमा ते उ । कह दव्वसोयरहिया धम्मस्साराहया होंति ?॥१॥ इत्यादि । द्रव्यानुयोगे पुनरेकेन्द्रिया जीवाः, व्यक्तोच्छ्वासनिश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावात्, घटवत्, इह ये जीवा न भवन्ति न तेषु Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि व्यक्तोच्छ्वासनिश्वासादिजीवलिङ्गलद्भावः, यथा घटे, न च तथैतेष्वसद्भाव इति, तस्माज्जीवा एवैत इति, अत्रात्मनोऽपि तद्रूपाऽऽपत्त्यात्मोपन्यासत्वं भावनीयमिति । उदाहरणदोषता चास्यात्मोपघातजनकत्वेन प्रकटार्थैवेति न भाव्यते । गतमात्मोपन्यासद्वारम् अधुना दुरुपनीतद्वारं व्याचिख्यासुराह - अत्रानिमिषा मत्स्यास्तद्ग्रहणे भिक्षुरुदाहरणम्, इदं च लौकिकम्, अनेन चोक्तन्यायाल्लोकोत्तरमप्याक्षिप्तं वेदितव्यमिति गाथादलाक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्- किल कोइ तच्चणिओ जालवावडकरो मच्छगवहाए चलिओ, धुत्तेण भण्णइ - आयरिय ! अघणा ते कंथा, सो भणइ जालमेतमित्यादि श्लोकादवसेयम्- 'कन्थाऽऽचार्याघना ते ननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यान् ?, ते मे मद्योपदंशान् पिबसि ननु ? युतो वेश्यया यासि वेश्याम् ? | कृत्वाऽरीणां गलें ही क्व नु तव रिपवः ? येषु सन्धिं छिनद्मि, चौरस्त्वम् ? द्यूतहेतोः कितव इति कथम् ? येन दासीसुतोऽस्मि ||१|| इदं लौकिकम्, चरणकरणानुयोगे तु - इय सासणस्सऽवण्णो जायइ जेणं न तारिसं बूया । वादेव उवहसज्जइ निगमणओ जेण तं जेव ॥ १ ॥ उदाहरणदोषता पुनरस्य स्पष्टैवेति ॥” दशवै० हारि० ॥ ६२ [ पृ०४४४ ] " तुज्झ पिया मह पिउणो धोरइ अणूणयं पडिनिभंमि । गाथादलम् । अस्य व्याख्या - तव पिता मम पितुर्धारयत्यनूनं शतसहस्त्रमित्यादि गम्यते । प्रतिनिभ इति द्वारोपलक्षणम्, अयमक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् - एगम्मि नगरे एगो परिव्वायगो सोवण्णएण खोरण तहिं हिंडइ, सो भणइ - जो मम असुयं सुणावेइ तस्स एयं देमि खोरयं, तत्थ एगो सावओ, ते भणिअं - तुज्झ पिया मम पिउणो धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जड़ सुयपुव्वं दिज्जउ अह न सुयं खोरयं देहि ।।१।। इदं लौकिकम्, अनेन च लोकोत्तरमपि सूचितमवगन्तव्यम्, तत्र चरणकरणानुयोगे येषां सर्वथा हिंसायामधर्मः तेषां विध्यनशनविषयोद्रेकचित्तभङ्गादात्महिंसायामपि अधर्म एवेति तदकरणम् । द्रव्यानुयोगे पुनरदुष्टं मद्वचनमिति मन्यमानो यः कश्चिदाह - 'अस्ति जीव' इति, अत्र वद किञ्चित्, स वक्तव्यो यद्यस्ति जीवः एवं तर्हि घटादीनामप्यस्तित्वाज्जीवत्वप्रसङ्ग इति । गतं प्रतिनिभम्, अधुना हेतुमाह- किं नु जवा किज्जंते ? जेण मुहाए न लब्भंति ॥ ८६ ॥ | व्या० किं नु यवाः क्रीयन्ते ?, येन मुधा न लभ्यन्त इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम् - कोवि गोधो जवे किणाइ, सो अन्त्रेण पुच्छिज्जइकिं जवे किणासि ?, सो भणइ - जेण मुहियाए ण लब्भामि । लौकिकमिदं हेतूपन्यासोदाहरणम्, अनेन च लोकोत्तरमप्याक्षिप्तमवगन्तव्यम्, तत् चरणकरणानुयोगे तावत् यद्याह विनेयः किमितीयं भिक्षाटनाद्याऽतिकष्टा क्रिया क्रियते ?, स वक्तव्यो - येन नरकादिषु न कष्टतरा वेदना वेद्यत इति । द्रव्यानुयोगे तु यद्याह कश्चित् किमित्यात्मा न चक्षुरादिभिरुपलभ्यते ?, स वक्तव्यो - येनातीन्द्रिय इति । गतं हेतुद्वारकम्, तदभिधानाच्चोपन्यासद्वारम्, तदभिधानाच्चोदाहरणद्वारमिति ॥ ८६ ॥ " दशवै० हारि० ॥ - [पृ० ४४५] “सांप्रतं हेतुलक्षणं स्मारयन् तदपास्तान् हेत्वाभासानाह- अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रतीतिसंदेहविपर्यासैस्तदाभता ॥ २२॥ हेतोर्लक्षणमसाधारणधर्मरूपं यदीरितं - Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि गमितम्, अनेकार्थत्वाद् धातोः प्रतिपादितम्, स्वार्थानुमानप्रस्तावे यदुतान्यथानुपपन्नत्वमिति, तस्याप्रतीतिरनध्यवसायः, संदेहो दोलायमानता, विपर्यासो वैपरीत्यनिर्णयः, अप्रतीतिश्च संदेहश्च विपर्यासश्चेति द्वन्द्वः, पश्चात् तदा सह तत्पुरुषः, तैस्तदप्रतीतिसंदेहविपर्यासैः, तदाभता आभानमाभा तस्येव सम्यगुहेतोरिवाभा अस्येति तदाभस्तद्भावः तत्ता, हेत्वाभासता भवतीत्यर्थः ॥ २२॥” न्यायावतारसिद्धर्षि० ॥ [पृ०४४५ पं०१८] “तत्राद्यभेदव्याचिख्यासयाऽऽह - उब्भामिगा य महिला जावगहेडंमि उंटलिंडाई ॥८७॥ गाथादलम् । व्या- असती महिला, किम् ? - यापयतीति यापकः यापकश्चासौ हेतुश्च यापकहेतुः तस्मिन् उदाहरणमिति शेषः, उष्ट्रलिण्डानीति कथानकसंसूचकमेतदिति अक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं कथानकम् - एगो वाणियओ भज्जं गिण्हेऊण पच्चंतं गओ, पाएण खीणदव्वा धणियपरद्धा कयावराहा य । पच्चंतं सेवंती पुरिसा दुरहीयविज्जा य || १ || सा य महिला उब्भामिया, एगम्मि पुरिसे लग्गा, तं वाणिययं सागारियंति चिंतिऊण भणइ - वच्च वाणिज्जेण, तेण भणिया- किं घेत्तूण वच्चामि ?, सा भणइ - उट्टलिंडियाओ घेत्तूणं वच्च उज्जेणिं, पच्छा सो सगडं भरेत्ता उज्जेणिं गतो, ताए भणिओ य- जहा एक्वेक्कयं दीणारेण दिज्जह त्ति, सा चिंतेइ - वरं खु चिरं खिप्पंतो अच्छउ, तेण ताओ वीहीए उड्डियाओ, कोइ ण पुच्छइ, मूलदेवेण दिट्ठो, पुच्छिओ य, सिहं तेण, मूलदेवेण चिंतियं- जहा एस वराओ महिलाछोभिओ, तोहे मूलदेवेण भण्णति- अहमेयाउ तव विक्किणामि जइ ममवि मुल्लस्स अद्धं देहि, तेण भणियं- देमित्ति, अब्भुवगए पच्छा मूलदेवेणं सो हंसो जाएऊण आगासे उप्पइओ, नगरस्स मज्झे ठाइऊण भणइ जस्स गलए चेडरूवस्स उट्टलिंडिया न बद्धा तं मारेमि, अहं देवो, पच्छा सव्वेण लोएण भीएण दीणारिक्काओ उट्टलिंडियाओ गहियाओ, विक्कियाओ य, ताहे तेण मूलदेवस्स अद्धं दिन्नं । मूलदेवेण य सो भणइ - मंदभग्ग ! तव महिला धुत्ते लग्गा, ताए तव एयं कयं, ण पत्तियति, मूलदेवेण भण्णइ - एहि वच्चामो जा ते दरिसेमि जदि ण पत्तियसि, ताहे गया अन्नाए लेसाए, वियाले ओवासो मग्गिओ, ताए दिण्णो, तत्थ एगमि पएसे ठिया, सो धुत्तो आगओ, इयरी वि धुत्तेणसह पिबेउमाढत्ता, इमं च गायइ- ‘इरिमंदिरपण्णहारओ, मह कंतु गतो वणिजाओ । वरिसाण सयं च जीवउ मा जीवंतु घरं कयाइ एउ || १॥ मूलदेवो भणइ - 'कयलीवणपत्तवेढिया, पर भणामि देव जं मद्दलएण गज्जती, मुणउ तं मुहुत्तमेव ॥ १॥ पच्छा मूलदेवेण भण्णति- किं धुत्ते ?, तओ पभाए निग्गंतूणं पुणरवि आगओ, तीय पुरओ ठिओ, सा सहसा संभंता अब्भुट्ठिया, तओ खाणपिबणे वट्टंते तेण वाणिएणं सव्वं तीए गयपज्जन्तयं संभारियं । एसो लोइओ हेऊ, लोउत्तरेवि चरणकरणाणुयोगे एवं सीसोऽवि केइ पयत्थे असद्दहंतो कालेण विज्जादीहिं देवतं आयंपइत्ता सदहावेयव्वो । तहा दव्वाणुओगेवि पडिवाइं नाऊण तहा विसेसणबहुलो हेऊ कायव्वो जहा कालजावणा हव तओ A-30 ६३ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि सो णावगच्छइ पगयं, कुत्तियावगणचच्चरी वा कज्जइ, जहा सिरिगुत्तेण छलुए कया ।' हारि० ॥ ६४ - [पृ०४४६ पं०१२] “उक्तो यापकहेतुः, साम्प्रतं स्थापकहेतुमधिकृत्याह- लोगस्स मज्झजाणण थावगहेऊ उदाहरणं ॥८७॥ अस्य व्याख्या - लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्यज्ञानम्, किम् ?, स्थापकहेतावुदाहरणमित्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् - एगो परिव्वायगो हिंड, सो य परूवे - खेत्ते दाणाई सफलं तिकट्टु समखेत्ते कायव्वं, अहं लोअस्स मज्झं जाणामि ण पुण अन्नो, तो लोगो तमाढाति, पुच्छिओ य संतो चउसुवि दिसासु खीलए णिहणिऊण रज्जूए पमाणं काऊण माइट्ठाणिओ भणइ एयं लोयमज्झं ति, तओ लोओ विम्हयं गच्छइ- अहो भट्टारएण जाणियं ति, एगो य सावओ, तेण नायं, कहं धुत्तो लोयं पयारेइ त्ति ?, तो अहंपि वंचाि त्ति कलिऊण भणियं - ण एस लोयमज्झो, भुल्लो तुमं ति, तओ सावएण पुणो मवेऊण अ देसो कहिओ, जहेस लोयमज्झो त्ति, लोगो तुझे, अण्णे भणंति- अणेगट्ठाणेसु अन्नं अन्नं मज्झं परूवंतयं दट्ठूण विरोधो चोइओ ति । एवं सो तेण परिवायगो णिप्पिट्ठपसिणवागरणो कओ । एसो लोइओ थावगहेऊ, लोउत्तरे वि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतीसु असंभावणिज्जासग्गाहरओ सीसो एवं चेव पण्णवेयव्वो । दव्वाणुजोगे वि साहुणा तारिसं भाणियव्वं तारिसो य पक्खो गेण्हियव्वो जस्स परो उत्तरं चेव दाउ न तीरइ, पुव्वावरविरुद्धो दोसो य ण हवइ ॥८७॥ दशवै० उक्तः स्थापकः, साम्प्रतं व्यंसकमाह- 'सा सगडतित्तिरी वसंगम्मि हेउम्मि होइ नायव्वा ॥८७॥ व्या० सा शकटतित्तिरी व्यंसकहेतौ भवति ज्ञातव्येत्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् - जहा एगो गामेल्लगो सगडं कट्ठाण भरेऊण नगरं गच्छइ, तेण गच्छंतेण अंतरा एगा तित्तिरी मइया दिट्ठा, सो तं गिण्हेऊण सगडस्स उवरिं पक्खिविऊण नगरं पइट्ठो, सो एगेण नगरधुत्तेण मुच्छिओ- कहं सगडतित्तिरी लब्भइ ?, तेण गामेल्लएण भण्णइ - तप्पणादुयालियाए लब्भति, तओ ते सक्खिण उआहणित्ता सगडं तित्तिरीए सह गहियं, एत्तिलगो चेव किल एस वंसगो त्ति, गुरवो भांति - तओ सो गामेल्लगो दीणमणसो अच्छइ, तत्थ य एगो मूलदेवसरिसो मणुस्सो आगच्छइ, तेण सो दिट्ठो, तेण पुच्छिओ - किं झियायसि अरे देवाणुप्पिया ?, तेण भणियं - अहमेगेण गोहेण इमेण पगारेण छलिओ, तेण भणियं मा बीहिह, तप्पणादुयालियं तुमं सोवयारं मग्ग, माइट्ठाणं सिक्खाविओ, एवं भवउ त्ति भणिऊण तस्स सगास गओ, भणियं चणेण मम जइ सगडं हियं तो मे इयाणिं तप्पणादुयालियं सोवयारं दवावेहि, एवं होउ त्ति, घरं णीओ, महिला संदिट्ठा, अलंकियविभूसिया परमेण विणण एअस्स तप्पणादुयालियं देहि, सा वयणसमं उवट्ठिया, तओ सो साग भति-मम अंगुली छिन्ना, इमा चीरेणावेढिया, ण सक्केमि उड्डुयालेउं, तुमं अदुयालिउं देह, अदुआलिया ण हत्थेण गहिया, गामं तेण संपट्ठिओ, लोगस्स य कहे - जहा मए सतित्तिरीगेण सगडेण गहिया तप्पणादुयालिया, ताहे तेण धुत्तेण सगडं विसज्जियं, तं च पसाएऊण भज्जा णियत्तिया । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि एस पुण लूसओ चेव कहाणयवसेण भणिओ । एस लोइओ, लोगुत्तरेऽवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिभावियस्स तस्स तहा वंसगो पउज्जति जहा संमं पडिवज्जइ । दव्वाणुओगे पुण कुप्पावयणिओ चोइज्जा- जहा जइ जिणपणीए मग्गे अत्थि जीवो अत्थि घडो, अत्थित्तं जीवे वि घडे वि, दोसु अविसेसेण वट्टइ त्ति, तेण अत्थित्तसद्दतुल्लत्तणेण जीवघडाणं एगत्तं भवति, अह अस्थिभावाओ वतिरित्तो जीवो, तेण जीवस्स अभावो भवइ त्ति । एस किल एद्दहमेत्तो चेव वंसगो, लूसगेण पुण एत्थ इमं उत्तरं भाणितव्वं- जइ जीवघडा अत्थित्ते वटुंति, तम्हा तेसिमेगत्तं संभावेहि, एवं ते सव्वभावाणं एगत्तं भवति, कहं ?, अत्थि घडो अत्थि पडो अत्थि परमाणू अत्थि दुपएसिए खंधे, एवं सव्वभावेसु अस्थिभावो वट्टइ त्ति काउं किं सव्वभावा एगीभवंतु ?, एत्थ सीसो भणतिकहं पुण एयं जाणियव्वं? सव्वभावेसु अत्थिभावो वट्टइ, न य ते एगीभवंति, आयरिओ आहअणेगंताओ एवं सिज्झइ, एत्थ दिळंतो-खइरो वणस्सई वणस्सई पुण खदिरो पलासो वा, एवं जीवो वि णियमा अत्थि, अत्थिभावो पुण जीवो व होज अन्नो वा धम्माधम्मागासादीणं ति ॥८७॥" - दशवै० हारि०॥ [पृ० ४४७] “अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥४॥ तत्र प्रत्यक्षमिति लक्ष्यनिर्देशः, अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमिति लक्षणनिर्देशः, परोक्षोऽक्षगोचरातीतः, ततोऽन्योऽपरोक्षस्तद्भावस्तत्ता तया, साक्षात्कृततयेति यावत् । अर्यत इत्यर्थः, अवगम्यते इति हृदयम् । अर्थ्यत इत्यर्थो वा, दाहपाकाद्यर्थक्रियार्थिभिरभिलष्यते इति यावत् । तस्य ग्राहकं व्यवसायात्मकतया साक्षात् परिच्छेदकं ज्ञानं तदीदृशमिति, ईदृगेव प्रत्यक्षमिति संटङ्कः । ___ ..... अपरोक्षतया इत्यनेन तु परोक्षलक्षणसंकीर्णतामध्यक्षस्य परिहरति, तस्य साक्षात्कारितया अर्थग्रहणरूपत्वादिति । ईदृशम् इत्यमुना तु पूर्वोक्तन्यायात् सावधारणेन विशेषणकदम्बकसचिवज्ञानोपप्रदर्शनात् परपरिकल्पितलक्षणयुक्तस्य प्रत्यक्षतां प्रतिक्षिपति । .... अधुना परोक्षलक्षणं दर्शयति- इतरदित्यादि । अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानं प्रत्यक्षमित्युक्तम्, तस्मादितरदसाक्षादर्थग्राहकं ज्ञानं परोक्षमिति ज्ञेयमवगन्तव्यम् । एतदपि स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षमेव, बहिरर्थापेक्षया तु परोक्षव्यपदेशमश्नुत इति दर्शयन्नाह- ग्रहणेक्षया इति, इह ग्रहणं प्रक्रमाद् बहिः प्रवर्तनमुच्यते, अन्यथा विशेषणवैयर्थ्यं स्यात्, तस्येक्षा अपेक्षा तया, बहिःप्रवृत्तिपर्यालोचनयेति यावत्। .... ॥४॥ ___ तत्र तावदनुमानलक्षणमभिधित्सुराह- साध्याविनाभुनो लिङ्गात्साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात्समक्षवत् ॥५॥ साध्याविनेत्यादि । इहाप्यनुमानमिति लक्ष्यनिर्देशः, तस्य प्रसिद्धतया अनूद्यत्वात् । साध्याविनाभुनो लिङ्गात् साध्यनिश्चायकमिति लक्षणनिर्देशः, तस्याप्रसिद्धतया विधेयत्वादिति । अत्राप्यनुमानशब्दस्य कादिकारकव्युत्पत्तिक्रमेणार्थकथनं प्रमाणशब्दवद् द्रष्टव्यम् । ततश्चेहापि लिङ्गग्रहणसाध्याविनाभावित्वलक्षणलिङ्गसंबन्धस्मरणकालात् अनु पश्चान्मीयते परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनुमेयपावकादिर्येन ज्ञानेन तदनुमानमिति । तत् किंभूतमित्याह- साध्यनिश्चायकमिति। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि साधनमर्हति साधयितुं वा शक्य इति साध्योऽनुमेय इत्यर्थः, तस्य निश्चायकं तत्स्वरूपनिर्णायकमिति यावत् । तत्कुत इत्याह- लिङ्गात्, लिङ्ग्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति लिङ्गं हेतुः तस्मात् । किंभूतादित्याहसाध्याविनाभुन इति । विना भवतीति विनाभु, ततोऽन्यदविनाभु, साध्येनाविनाभु साध्याविनाभु, साध्यं विमुच्य यन्न भवतीत्यर्थः, तस्मात् साध्यनिश्चायकं ज्ञानं तदनुमानं स्मृतम् अभिप्रेतं नीतिवद्भिरिति संबन्धः । तत्र लिङ्गात् साध्यनिश्चायकमित्यनेनानुमानस्य प्रत्यक्षशाब्दलक्षणसंकीर्णतां वारयति । साध्याविनाभुन इत्यनेन परप्रणीतलिङ्गलक्षणव्युदासमाचष्टे । ततश्च यत्परे प्रोचुः- .... तदपाकर्तुमाहतदभ्रान्तमित्यादि । तदनुमानं भ्राम्यति स्वगोचरे विपर्यस्यतीति भ्रान्तम्, ततोऽन्यदभ्रान्तम्, अविपरीतार्थग्राहीति यावत्, इयं च प्रतिज्ञा; प्रमीयते यथावस्थितोऽर्थः परिच्छिद्यतेऽनेनेति प्रमाणम्, तद्भावस्तत्त्वं तस्मात्, अयं तु हेतुः; संगतमक्षाणामिति समक्षम्, तदिव समक्षवदिति दृष्टान्तः .... ॥५॥ - न्यायावतारसिद्धर्षि० ॥ _[पृ० ४४८] “दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाभिधायिनः । तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥८॥ अत्रापि शाब्दम् इति लक्ष्यम्, अनूद्यत्वात् । दृष्टेष्टाव्याहताद् इत्यादि लक्षणम्, विधेयत्वात् । दृष्टेन प्रमाणालोकितेन इष्टः प्रतिपादयिषितोऽव्याहतो अनिराकृतः सामर्थ्यादर्थो यस्मिन् वाक्ये तत्तथा, प्रमाणनिश्चितार्थाबाधितमिति यावत्, तस्मात् । परमोऽकृत्रिमः पुरुषोपयोगी शक्यानुष्ठानो वार्थो वाच्यस्तमभिधातुं शीलं यस्य तत् परमार्थाभिधायि, विशिष्टार्थदर्शकमित्यर्थः । ततः तत्त्वग्राहितयोत्पन्नम् प्रकृतवाक्यप्रतिपाद्यार्थादानशीलतया लब्धात्मसत्ताकं यन्मानं तच्छाब्दमिति प्रकीर्तितम् उपवर्णितं पूर्वाचार्यैरिति संबन्धः । तत्र दृष्टेष्टाव्याहताद् इत्यनेन कुतीर्थिकवचसां लौकिकविप्रतारकोक्तीनां च शाब्दतां निरस्यति, प्रमाणबाधितत्वात् । वाक्यात् इत्यमुना तु वाक्यस्यैव नियतार्थदर्शकत्वात् परमार्थाभिधायितेति दर्शयन् पदाच्छाब्दाभावमाह- । परमार्थाभिधायिनः इत्यनेन ज्वरहरतक्षकचूडारत्नालंकारोपदेशादिवचनप्रभवज्ञानस्य निष्फलतया प्रामाण्यं निराचष्टे । तत्त्वग्राहितयोत्पन्नम् इत्यमुना त्वेवंभूतादपि वाक्यात् श्रोतृदोषाद् विपरीताद्यर्थग्रहणचतुरतया प्रादुर्भूतस्य शाब्दत्वं वारयति । मानम् इत्यनेन अन्तर्भावितप्रोपसर्गार्थेन शाब्दे परस्याप्रामाण्यबुद्धिं तिरस्कुरुते, तदप्रामाण्ये परार्थानुमानप्रलयप्रसङ्गात्, तस्य वचनरूपत्वात् । ..... ॥८॥ ___ आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥९॥ शास्ति शिक्षयति जीवाजीवादि तत्त्वं ग्राहयति, शिष्यतेऽनेनेति वा शास्त्रम् । तत् किंभूतमिति तद्विशेषणान्याह- आप्तः प्रक्षीणाशेषरागादिदोषगणः, तेन उपज्ञम् आदावुपलब्धम् । .... उल्लङ्घयते प्राबल्येन गम्यते अभिभूयते अन्यरित्युल्लङ्घ्यम्, ततोऽन्यद् अनुल्लङ्घ्यम् सर्ववचनातिशायीति यावत्। अत एव दृष्टेन प्रमाणनिर्णीतेनेष्टस्य तद्वाच्यस्य विरोधो यस्मिंस्तत् तथा तदेव, यदि वा, दृष्टः प्रमाणेन, इष्टो वचनान्तरेण, तयो र्विरोधकम्, तद्विरुद्धार्थाभिधानात्, ततोऽन्यददृष्टेष्टविरोधकम्, अबाधार्थाभिधायीत्यर्थः । तदियता शास्त्रस्य स्वार्थसंपदुक्ता, अधुना तत्त्वोपदेशादीनां परार्थत्वात् Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि परार्थसंपदमाह- तत्त्वं जीवादयः पदार्थाः, प्रमाणप्रतिष्ठितत्वात्, तेषामुपदेश: स्वरूपप्रकाशनम्, तद्र(ल्ल?)क्षणादिविधानं वा, तं करोति तत्त्वोपदेशकृत्, अत एव सार्वं सर्वस्मै हितम्, प्राणिरक्षणोपायोपदेशपरमपददायितया विश्वजनीनत्वात् । एतेन परार्थसंपादकत्वमुक्तम् । अधुना परेषामेवानर्थपरिघातित्वमाह- कुत्सिताः पन्थानः कापथाः तीर्थान्तराणि, तेषां घट्टनं विचालकं निराकारकम्, सर्वजनापकारिकुमतविध्वंसकमित्यर्थः । ईदृशादेव शास्त्राज्जातं शाब्दं प्रमाणम्, नान्येभ्यः, विप्रलम्भकत्वात्तेषामिति ॥९॥" - न्यायावतारसिद्धर्षि० ॥ [पृ०४४९ पं०३] “संप्रत्यनुपलब्धेः प्रकारभेदं दर्शयितुमाह- सा च प्रयोगभेदादेकादशप्रकारा ॥३१॥ सा चैषाऽनुपलब्धिरेकादशप्रकारा । एकादश प्रकारा अस्या इत्येकादशप्रकारा । कुतः प्रकारभेदः ? प्रयोगभेदात् । प्रयोगः प्रयुक्तिः शब्दस्याभिधानव्यापार उच्यते । शब्दो हि साक्षात्क्वचिदर्थान्तराभिधायी क्वचित्प्रतिषेधान्तराभिधायी । सर्वत्रैव तु दृश्यानुपलब्धिरशब्दोपात्तापि गम्यत इति वाचकव्यापारभेदादनुपलम्भप्रकारभेदो न तु स्वरूपभेदादिति यावत् । प्रकारभेदानाह- स्वभावानुपलब्धिर्यथा नात्र धूम: उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरिति ॥३२॥ प्रतिषेध्यस्य यः स्वभावः तस्यानुपलब्धिः । यथेति । अत्र इति धर्मी, न धूमः इति साध्यम्। 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः' इति हेतु: । अयं च हेतुः पूर्ववद् व्याख्येयः ॥१॥ कार्यानुपलब्धिर्यथा नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि धूमकारणानि सन्ति धूमाभावात् ॥३३॥ प्रतिषेध्यस्य यत्कार्यं तस्यानुपलब्धिरुदाह्रियते- यथेति । इह इति धर्मी । अप्रतिबद्धम् अनुपहतं धूमजननं प्रति सामर्थ्य येषां तान्यप्रतिबद्धसामर्थ्यानि न सन्ति इति साध्यम् । धूमाभावात् इति हेतुः । कारणानि च नावश्यं कार्यवन्ति भवन्तीति कार्यादर्शनात् अप्रतिबद्धसामर्थ्यानामेवाभावः साध्यः, न त्वन्येषाम् । अप्रतिबद्धशक्तीनि चान्त्यक्षणभावीन्येव, अन्येषां प्रतिबन्धसंभवात् । कार्यानुपलब्धिश्च यत्र कारणमदृश्यं तत्र प्रयुज्यते । दृश्ये तु कारणे दृश्यानुपलब्धिरेव गमिका । तत्र धवलगृहोपरिस्थितो गृहाङ्गणमपश्यन्नपि चतुर्षु पार्श्वेष्वङ्गणभित्तिपर्यन्तं पश्यति । भित्तिपर्यन्तसमं चालोकसंज्ञकमाकाशदेशं धूमविविक्तं पश्यति । तत्र धूमाभावनिश्चयात्- यद्देशस्थेन वह्निना जन्यमानो धूमस्तद्देशः स्यात्- तस्य वह्नेप्रतिबद्धसामर्थ्यस्याभावः प्रतिपत्तव्यः । तद्गृहाङ्गणदेशेन च वह्निना जन्यमानो धूमस्तद्देशः स्यात् । तस्मात्तद्देशस्य वढेरभावः प्रतिपत्तव्यः । तद्गृहाङ्गणदेशं भित्तिपरिक्षिप्तं भित्तिपर्यन्तपरिक्षिप्तेन चालोकात्मना धूमविविक्तेनाकाशदेशेन सह धर्मिणं करोति । तस्मात् दृश्यमानादृश्यमानाकाशदेशावयवः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षसमुदायो वन्यभावप्रतीतिसामर्थ्यायातो धर्मी, न दृश्यमान एव । इहेति तु प्रत्यक्षनिर्देशो दृश्यमानभागापेक्षः- न केवलमिहैव दृश्यादृश्यसमुदायो धर्मी अपि त्वन्यत्रापि । शब्दस्य क्षणिकत्वे साध्ये कश्चिदेव शब्दः प्रत्यक्षोऽन्यस्तु परोक्षः तद्वदिहापि । यथा चात्र [३२] धर्मी साध्यप्रतिपत्त्यधिकरणभूतो दृश्यादृश्यावयवो दर्शितः तद्वदुत्तरेष्वपि प्रयोगेषु स्वयं प्रतिपत्तव्यः ॥२॥ व्यापकानुपलब्धिर्यथा नात्र शिंशपा वृक्षाभावादिति ॥३४॥ प्रतिषेध्यस्य व्याप्यस्य यो Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि व्यापको धर्मः तस्यानुपलब्धिरुदाह्रियते- यथेति । अत्र [इति] धर्मी । न शिंशपेति शिशपाभावः साध्यः । वृक्षस्य व्यापकस्याभावादिति हेतुः । इयमप्यनुपलब्धिः व्याप्यस्य शिंशपात्वस्य दृश्याभावे प्रयुज्यते । उपलब्धिलक्षणप्राप्ते तु व्याप्ये दृश्यानुपलब्धिर्गमिका । तत्र यदा पूर्वापरावुपश्लिष्टौ समुन्नतौ देशौ भवतः तयोरेकस्तरुगहनोपेतः अपरश्चैकशिलाघटितो निर्वृक्षकक्षः; द्रष्टापि तत्स्थान्वृक्षान् पश्यन्नपि शिंशपादिभेदं यो न विवेचयति, तस्य वृक्षत्वं प्रत्यक्षम् अप्रत्यक्षं शिंशपात्वम् । स हि निर्वृक्षे एकशिलाघटिते वृक्षाभावं दृश्यत्वाद् दृश्यानुपलम्भादवस्यति, शिंशपात्वाभावं तु व्यापकस्य वृक्षत्वस्याभावादिति । तादृशे विषयेऽस्या अभावसाधनाय प्रयोगः ॥३॥ ___ स्वभावविरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र शीतस्पर्शोऽग्नेरिति ॥३५॥ प्रतिषेध्यस्य स्वभावेन विरुद्धस्योपलब्धिरुदाह्रियते- यथेति । अत्रेति धर्मी । न शीतस्पर्श इति शीतस्पर्शप्रतिषेधः साध्यः। वह्नरिति हेतुः । इयं चानुपलब्धिः तत्र प्रयोक्तव्या यत्र शीतस्पर्शोऽदृश्यः । दृश्ये दृश्यानुपलब्धिप्रयोगात्। तस्मात् यत्र वर्णविशेषात् वह्निदृश्यः शीतस्पर्णो दूरस्थत्वात् सन्नप्यदृश्यः तत्रास्याः प्रयोगः ॥४॥ विरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा नात्र शीतस्पर्शो धूमादिति ॥३६॥ प्रतिषेध्येन यत् विरुद्ध तत्कार्यस्योपलब्धिर्गमिका । यथेति । अत्रेति धर्मी । न शीतस्पर्श इति शीतस्पर्शाभावः साध्यः। धूमादिति हेतुः । यत्र शीतस्पर्शः सन् दृश्यः स्यात्, तत्र दृश्यानुपलब्धिर्गमिका । यत्र विरुद्धो वह्निः [३३] प्रत्यक्षः, तत्र विरुद्धोपलब्धिः । द्वयोरपि तु परोक्षत्वे विरुद्धकार्योपलब्धिः प्रयुज्यते । तत्र समस्तापवरकस्थं शीतं निवर्तयितुं समर्थस्याग्नेरनुमापकं यदा विशिष्टं धूमकलापं निर्यान्तमपवरकात् पश्यति तदा विशिष्टाद्वझेरनुमितात् शीतस्पर्शनिवृत्तिमनुमिमीते । इह दृश्यमानद्वारप्रदेशसहितः सर्वापवरकाभ्यन्तरदेशो धर्मी साध्यप्रतिपत्त्यनुसरणात् पूर्ववत् द्रष्टव्यः ॥५॥ विरुद्धव्याप्तोपलब्धिर्यथा न ध्रुवभावी भूतस्यापि भावस्य विनाशो हेत्वन्तरापेक्षणादिति ॥३७॥ प्रतिषेध्यस्य यत् विरुद्धं तेन व्याप्तस्य धर्मान्तरस्योपलब्धिरुदाहर्तव्या- यथेति । ध्रुवम् अवश्यं भवतीति ध्रुवभावी नेति ध्रुवभावित्वनिषेधः साध्यः । विनाशो धर्मी । भूतस्यापि भावस्य इति धर्मिविशेषणम् । भूतस्य जातस्यापि विनश्वरः स्वभावो नावश्यंभावी किमुताजातस्य इत्यपिशब्दार्थः। जनकाद्धेतोरन्यो हेतुः हेत्वन्तरं मुद्गरादि- तदपेक्षते विनश्वरः तस्यापेक्षणादिति हेतुः । हेत्वन्तरापेक्षणं नामाश्र्वभावित्वेन व्याप्तम् । यथा वाससि रागस्य रञ्जनादिहेत्वन्तरापेक्षणमध्रुवभावित्वेन व्याप्तम् । ध्रुवभावित्वविरुद्धं चाध्रुवभावित्वम् । विनाशश्च विनश्वरस्वभावात्मा हेत्वन्तरापेक्ष इष्टः । ततो विरुद्धव्याप्तहेत्वन्तरापेक्षणदर्शनाद् ध्रुवभावित्वनिषेधः। इह ध्रुवभावित्वं नित्यत्वम् अध्रुवभावित्वं चानित्यत्वम् । नित्यत्वानित्यत्वयोश्च परस्परपरिहारेणावस्थानात् एकत्र विरोधः । तथा च सति परस्परपरिहारवतोर्द्वयोः यत्रैकं दृश्यते तत्र द्वितीयस्य तादात्म्यनिषेधः कार्यः । तादात्म्यनिषेधश्च दृश्यतयाऽभ्युपगतस्य संभवति । यतः, एवं तादात्म्यनिषेधः क्रियते- 'यद्ययं दृश्यमानो नित्यो भवेत् नित्यरूपो दृश्येत । न च नित्यरूपो दृश्यते । तस्मान्न नित्यः' । एवं च प्रतिषेध्यस्य नित्यत्वस्य Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि दृश्यमानात्मत्वमभ्युपगम्य प्रतिषेधः कृतो भवति । वस्तुनोऽप्यदृश्यस्य पिशाचादेर्यदि दृश्यघटात्मत्वनिषेधः क्रियते, दृश्यात्मत्वमभ्युपगम्य कर्तव्यः- 'यद्ययं दृश्यमानः पिशाचात्मा भवेत् पिशाचो दृष्टो भवेत्, न च दृष्टः, तस्मान्न पिशाचः' इति । दृश्यात्मत्वाभ्युपगमपूर्वकः दृश्यमाने घटादौ वस्तुनि वस्तुनोऽवस्तुनो वा दृश्यस्यादृश्यस्य च [३४] तादात्म्यनिषेधः । तथा च सति, यथा घटस्य दृश्यत्वमभ्युपगम्य प्रतिषेधो दृश्यानुपलम्भादेव, तद्वत् सर्वस्य परस्परपरिहारवतोऽन्यत्र दृश्यमाने निषेधः दृश्यानुपलम्भादेव । तथा चास्यैवंजातीयकस्य प्रयोगस्य स्वभावानुपलब्धावन्तर्भावः ॥६॥ कार्यविरुद्धोपलब्धिर्यथा नेहाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि शीतकारणानि सन्त्यग्नेरिति ॥३८॥ प्रतिषेध्यस्य यत् कार्यं तस्य यत् विरुद्धं तस्योपलब्धेरुदाहरणम्- यथेति । इहेति धर्मी । अप्रतिबद्धं सामर्थ्य येषां शीतकारणानां शीतजननं प्रति न तानि सन्तीति साध्यम् । वढेरिति हेतुः । यत्र शीतकारणान्यदृश्यानि शीतस्पर्शोऽप्यदृश्यः तत्रायं हेतुः प्रयोक्तव्यः । दृश्यत्वे तु शीतस्पर्शस्य तत्कारणानां वा कार्यानुपलब्धिः दृश्यानुपलब्धिर्वा गमिका । तस्मादेषाप्यभावसाधनी । ततो यस्मिन्देशे सदपि शीतकारणमदृश्यं शीतस्पर्शश्च दूरस्थत्वात्प्रतिपत्तुः, वह्निः [तु] भास्वरवर्णत्वात् दूरादपि दृश्यः, तत्रायं प्रयोगः ॥७॥ __ व्यापकविरुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र तुषारस्पर्शोऽमेरिति ॥३९॥ प्रतिषेध्यस्य यत् व्यापकं तेन यत् विरुद्धं तस्योपलब्धिरुदाहर्तव्या- यथेति । अत्रेति धर्मी । तुषारस्पर्शो नेति साध्यम् । वढेरिति हेतुः । यत्र व्याप्यस्तुषारस्पर्शो व्यापकश्च शीतस्पर्शो न दृश्यः तत्रायं हेतुः, तयोर्दृश्यत्वे स्वभावस्य व्यापकस्य चानुपलब्धिर्यतः प्रयोक्तव्या । तथा च सत्यभावसाधनी इयम् । दूरवर्तिनश्च प्रतिपत्तुः तुषारस्पर्शः शीतस्पर्शविशेष: शीतमात्रं च परोक्षम् । वह्निस्तु रूपविशेषाद् दूरस्थोऽपि प्रत्यक्षः । ततो वह्नः शीतमात्राभावः । ततः शीतविशेषतुषारस्पर्शाभावनिश्चयः, शीतविशेषस्य शीतसामान्येन व्याप्तत्वादिति विशिष्टविषयेऽस्याः प्रयोगः ॥८॥ ___ कारणानुपलब्धिर्यथा नात्र धूमोऽग्न्यभावादिति ॥४०॥ प्रतिषेध्यस्य यत् कारणं तस्यानुपलब्धेरुदाहरणम्- यथेति । अत्रेति धर्मी । न धूम इति साध्यम् । वयसत्त्वादिति हेतुः। यत्र कार्यं सदपि दृश्यं न भवति तत्रायं प्रयोगः । दृश्ये तु कार्ये दृश्यानुपलब्धिः गमिका । ततोऽयमप्यभावसाधनः । निष्कम्पायतसलिलपूरिते हृदे हेमन्तोचितबाष्पोद्गमे विरले संध्यातमसि सति, सन्नपि तत्र धूमो न दृश्यः इति कारणानुपलब्ध्या प्रतिषिध्यते । वह्निस्तु यदि तस्याम्भस उपरि प्लवमानो भवेत् ज्वलितो रूपविशेषादेवोपलब्धो भवेत् । अज्वलितस्तु इन्धनमध्यनिविष्टो भवेत् तत्रापि दहनाधिकरणमिन्धनं प्रत्यक्षमिति स्वरूपेणाधाररूपेण वा दृश्य एव वह्निः इति तत्रास्याः प्रयोगः ॥९॥ कारणविरुद्धोपलब्धिर्यथा नास्य रोमहर्षादिविशेषाः संनिहितदहनविशेषत्वादिति ॥४१॥ प्रतिषेध्यस्य यत्कारणं तस्य यद्विरुद्धं तस्योपलब्धेरुदाहरणम्- यथेति । अस्येति धर्मी । रोम्णां हर्षः उद्भेदः स आदिर्येषां दन्तवीणादीनां शीतकृतानाम्, ते [विशेषाः नाम'] विशिष्यन्ते तदन्येभ्यो Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि भयश्रद्धादिकृतेभ्य इति 'रोमहर्षादिविशेषाः' । ते न सन्तीति साध्यम् । दहनः एव विशिष्यते तदन्यस्माद्दहनात् शीतनिवर्तनसामर्थ्येनेति दहनविशेषः । कश्चिद्दहनः सन्नपि न शीतनिवर्तनक्षमो यथा प्रदीपः । तादृशनिवृत्तये विशेषग्रहणम् । संनिहितो दहनविशेषो यस्य स तथोक्तः, तस्य भावः, तस्मादिति हेतुः। यत्र शीतस्पर्शः सन्नप्यदृश्यो रोमहर्षादिविशेषाश्चादृश्याः, तत्रायं प्रयोगः । रोमहर्षादिविशेषस्य दृश्यत्वे दृश्यानुपलब्धिः प्रयोक्तव्याः, शीतस्पर्शस्य दृश्यत्वे कारणानुपलब्धिः । तस्मादभावसाधनोऽयम्। रूपविशेषाद्विदूरात् दहनं पश्यति, शीतस्पर्शस्त्वदृश्यो रोमहर्षादिविशेषाश्च । तेषां कारणविरुद्धोपलब्ध्या अभावः प्रतिपद्यत इति तत्रास्याः प्रयोगः ॥१०॥ कारणविरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा न रोमहर्षादिविशेषयुक्तपुरुषवानयं प्रदेशो धूमादिति ॥४२॥ प्रतिषेध्यस्य यत् कारणं तस्य यत् विरुद्धं तस्य यत् कार्यं तस्योपलब्धिरुदाहर्तव्या- यथेति । अयं देश इति धर्मी । योगो युक्तम्, रोमहर्षादिविशेषयुक्तं रोमहर्षादिविशेषैर्युक्तम् । तस्य संबन्धी पुरुषो 'रोमहर्षादिविशेषयुक्तपुरुषः' । तद्वान् न भवतीति साध्यम् । धूमादिति हेतुः । रोमहर्षादिविशेषस्य प्रत्यक्षत्वे दृश्यानुपलब्धिः, कारणस्य शीतस्पर्शस्य प्रत्यक्षत्वे कारणानुपलब्धिः, वह्नस्तु प्रत्यक्षत्वे कारणविरुद्धोपलब्धिः प्रयोक्तव्या । त्रयाणामप्यदृश्यत्वेऽयं प्रयोगः । तस्मादभावसाधनोऽयम् । तत्र दूरस्थस्य प्रतिपत्तुः दहनशीतस्पर्शरोमहर्षादिविशेषा अप्रत्यक्षाः सन्तोऽपि धूमस्तु प्रत्यक्षो यत्र, तत्रैतत्प्रमाणम् । धूमस्तु यादृशः तस्मिन्देशे स्थितं शीतं निवर्तयितुं समर्थस्य वह्रनुमापकः स इह ग्राह्यः । धूममात्रेण तु वह्निमात्रेऽनुमितेऽपि न शीतस्पर्शनिवृत्तिः नापि रोमहर्षादिविशेषनिवृत्तिरवसातुं शक्येति न धूममात्रं हेतुरिति द्रष्टव्यमिति ॥११॥” इति न्यायबिन्दुटीकायां धर्मोत्तरविरचितायां द्वितीये परिच्छेदे ॥ [पृ० ४५२] ‘आशी दंष्ट्रा तद्गतमहाविषा आशीविषा विविधभेदाः । ते कर्म-जातिभेदेनाऽनेकधा चतुर्विकल्पाः ॥७९१।।' इति संस्कृते छाया ॥ ___ [पृ० ४५४] “णिवितिगणिब्बले ओमे, तह उद्धट्ठाणमेव उन्भामे । वेयावच्चा हिंडण, मंडलि कप्पट्ठियाहरणं ॥५७४॥ णिव्वीतियमाहारं आहारेति । तह वि अठायमाणे णिब्बलाणि मंडगचणगादी आहारेति । तह वि अठायमाणे ओमोदरियं करेति । तह वि ण ठाति चउत्थादि जाव छम्मासियं तवं करेति; पारणए णिब्बलमाहारमाहारेति । जइ उवसमति तो सुंदरं। अह णोवसमति 'ताहे' उद्धट्ठाणं महतं करेति कायोत्सर्गमित्यर्थः । तह वि अठायमाणे उब्भामे भिक्खायरिए गच्छति। अहवा- साहूण 'वीसामणा' ति वेयावच्चं कराविज्जति । तह वि अठायमाणे देसहिंडगाणं सहाओ दिजति । एत्थ हेट्टिल्लपया उवरुवरि दळुव्वा, एवं अगीतत्थस्स । गीतत्थो पुण सुत्तत्थमंडलिं दाविज्जति। अहवा- गीतत्थस्स वि णिव्वितिगादि विभासाए दट्ठव्वा । नोदक आह- जति तावागीयत्थस्स निव्वीयादि तवविसेसा उवसमो ण भवति तो गीयत्थस्स कहं सीयच्छायादिठियस्स उवसमो भविस्सति ? Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि आचार्याह- पैशाचिकमाख्यानं श्रुत्वा गोपायनं च कुलवध्वाः । संयमयोगैरात्मा निरन्तरं व्यापृतः कार्य: ॥ [प्रशम० १२०] कप्पट्ठियाहरणं ति- एगस्स कुडुबिगस्स धूया णिक्कम्मवावारा सुहासणत्था अच्छति । तस्स य अब्भंगुव्वट्टण-हाण-विलेवणादिपरायणाए मोहुब्भवो । अम्मधाति भणति । आणेहि मे पुरिसं। तीए अम्मधातीए माउए से कहियं । तीए वि पिउणो । पिउणा वाहिरत्ता भणिया । पुत्तिए ! एताओ दासीओ सव्वधणादि अवहरंति, तुम कोठायारं पडियरसु, तह त्ति पडिवन्नं, सा जाव अण्णस्स भत्तयं देति, अण्णस्स वित्तिं, अण्णस्स तंदुला, अण्णस्स आयं देक्खति, अण्णस्स वयं, एवमादिकिरियासु वावडाए दिवसो गतो । सा अतीव खिण्णा रयणीए णिवण्णा अम्मधातीते भणिता- आणेमि ते पुरिसं ? सा भणेति- ण मे पुरिसेण कजं, णिदं लहामि । एवं गीयत्थस्स वि सुत्तपोरिसिं देंतस्स अतीव सुत्तत्थेसु वावडस्स कामसंकप्पो ण जायइ । भणियं च ‘काम ! जानामि ते मूलं' सिलोगो ॥५७४॥" - निशीथ० चूर्णिः । [पृ०४५६ पं०२१] “तवसिद्धो दढप्पहारिव्व ।.... एगो धिज्जाइतो उद्दतो, अविणयं करेइ, सो ततो ताओ थाणातो नीणितो, हिंडतो चोरपल्लीमल्लीणो, सेणावइणा पुत्तो त्ति गहितो, तंमि मयंमि सेणावती सो चेव जातो, निक्किवं चाऽऽहणइ त्ति दढप्पहारी से नामं कयं, सो अन्नया सेणाए समं एगं गामं हंतुं गतो, तत्थ य एगो दरिद्दो, तेण पुत्तभंडाण मग्गंताण दुद्धं जाइत्ता पायसं रंधावितो, सो य ण्हाइउं गतो, चोरा य तत्थ पडिया, एगेण सो तस्स पायसो दिट्ठो, छुहिय त्ति तं गहाय पहावितो, ताणि खुद्दरूवाणि रोवंताणि पिऊमूलं गयाणि, हितो पायसो, सो रोसेणं मारेमि त्ति पधावितो, महिला अवपासिता अच्छइ, तहावि जहिं सो चोरसेणावती तत्थ आगच्छइ, सो य गाममझे अच्छइ, तेण समं महासंगामो कतो, सेणावइणा चिंतियं-एएण मम चोरा परिभविजंति, ततो असिं गहाय निद्दयं छिन्नो, महिला से भणइ-हा निक्किव! किमियं कयं ?, पच्छा सावि मारिया, गब्भो दोविभागीकतो फुरफुरेइ, तस्स किवा जाया-अधम्मो कतो त्ति, चेडरूवेहितो दरिद्दपउत्ती उवलद्धा, ततो दढयरं निव्वेअं गतो, को उवाओ ? साहू दिट्ठाओ अणेण, भयवं ! को इत्थ उवाओ ? तेहिं धम्मो कहिओ, सो अ से अवगतो, पच्छा चारित्तं पडिवज्जिय कम्माणमुच्छायणट्ठाए घोरं खंतिअभिग्गहं गेण्हिय तत्थेव विहरइ, ततो हीलिज्जइ हम्मइ य, सो य घोराकारं च कायकिलेसं करेइ, असणाइयं अलहतो सम्म अहियासेइ जाव अणेण कम्मं निग्घाइयं, केवलनाणं से उप्पण्णं, पच्छा सिद्धो, ....” - आवश्यक० मलय० । [पृ०४५७] “अणुजतचरणो इमेहिं कज्जेहिं होज्ज- होज हु वसणप्पत्तो, सरीरदोब्बल्लताए असमत्थो । चरण-करणे असुद्धे, सुद्धं मग्गं परूवेज्जा ॥५४३५॥ वसणं आवती मज्जगीतादितं वा, तम्मि ण उज्जमति, अहवा- सरीरदब्बलत्तणतो असमत्थो सज्झायपडिलेहणादिकिरियं काउं अकप्पियादिपडिसेहणं च । अधवा- सरीरदोब्बला असमत्था अदढधम्मा एवमादिकारणेहिं चरणकरणं Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि से अविसुद्ध, तहावि अप्पाणं गरिहंतो सुद्धं साहुमग्गं परूवेंतो आराधगो भवति ॥५४३५॥ ___ इमो चेव अत्थो भण्णति- ओसण्णो वि विहारे कम्मं सिढिलेति सुलभबोही य । चरणकरणं विसुद्धं, उवव्हेंतो परूवेंतो ॥५४३६॥ कंठ्या ।" - निशीथ० चूर्णिः ॥ [पृ०४७१] “अथाप्रशस्तभावनानां नामग्राहं गृहीत्वा सङ्ख्यामाह- कंदप्प देवकिव्विस, अभिओगा आसुरा य सम्मोहा । एसा य संकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा भणिया ॥१२९३॥ कन्दर्प: कामस्तत्प्रधानाः षिड्गप्राया देवविशेषाः कन्दर्पा उच्यन्ते, तेषामियं कान्दी । एवं देवानां मध्ये किल्बिषा: पापा अत एवास्पृश्यादिधर्माणश्चण्डालप्रायास्तेषामियं दैवकिल्बिषी । आ समन्ताद् आभिमुख्यन [वा] युज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्त इत्याभियोग्याः किङ्करस्थानीया देवविशेषास्तेषामियमाभियोगी। असुरा: भवनपतिदेवविशेषास्तेषामियमासुरी । सम्मुह्यन्तीति सम्मोहा: मूढात्मानो देवविशेषास्तेषामियं साम्मोही । गाथायां प्राकृतत्वाद् आप्प्रत्ययः । एषाम् अप्रशस्ता पञ्चविधा भावना तत्तत्स्वभावाभ्यासरूपा भणिता ॥१२९३॥ अथासामेव फलमाह- जो संजओ वि एयासु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ । सो तविहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥१२९४॥ यः संयतोऽपि व्यवहारतः साधुरप्येताभिप्रशस्ताभिर्भावनाभिः, गाथायां तृतीयार्थे सप्तमी, भावनम् आत्मनो वासनं करोति सः तद्विधेषु तादृशेषु कान्दर्पिकादिषु सुरेषु गच्छति । यस्तु चरणरहितः सर्वथा चारित्रसत्ताविकलो द्रव्यचरणहीनो वा सः भाज्य: तद्विधेषु वा देवेषूत्पद्यते नरक-तिर्यङ्-मनुष्येषु वा ॥१२९४॥" अथाऽऽसुरीमाह- अणुबद्धविग्गहो चिय, संसत्ततवो निमित्तमाएसी । निक्किव निराणुकंपो, आसुरियं भावणं कुणइ ॥१३१५॥ अनुबद्धविग्रहः संसक्ततपा निमित्तादेशी निष्कृपो निरनुकम्प सन् आसुरीं भावनां करोतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥१३१५॥ ___अथाभियोगीमाह- कोउअ भूई पसिणे, पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी । इड्डि-रससायगुरुतो, अभिओगं भावणं कुणइ ॥१३०८॥ ऋद्धि-रस-सातगुरुकः सन् यः कौतुकाजीवी भूतिकर्माजीवी प्रश्नाजीवी प्रश्नप्रश्नाजीवी निमित्ताजीवी च भवति स एवंविध आभियोगी भावनां करोतीति ॥१३०८॥" - बृहत्कल्पटीका । अस्या गाथाया विस्तरेण व्याख्यानं बृहत्कल्पभाष्यस्य १३०९-१३१४ गाथासु तट्टीकायां च वर्तते ॥ पृ०४७२] “सम्प्रति साम्मोहीमाह- उम्मग्गदेसणा १ मग्गदूसणा २ मग्गविप्पडीवत्ती ३। मोहेण य ४ मोहित्ता ५, सम्मोहं भावणं कुणइ ॥१३२१॥ उन्मार्गदेशना १ मार्गदूषणा २ मार्गविप्रतिपत्तिश्च ३ यस्य भवतीति वाक्यशेषः, मोहेन च यः स्वयं मुह्यति ४, एवं कृत्वा परं च मोहयित्वा ५ साम्मोहीं भावनां करोतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥१३२१।। अथ दैवकिल्बिषिकी बिभावयिषुराह- नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सव्वसाहूणं । माई अवन्नवाई, किव्विसियं भावणं कुणइ ॥१३०२॥ ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्याणां सर्वसाधूनाम् Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि एतेषामवर्णवादी, तथा मायी स्वभावनिगूहनादिना मायावान् एष किल्बिषिकी भावनां करोतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥१३०२॥ अथासामेव प्ररूपणां चिकीर्षुः प्रथमतः कन्दर्पभावनां प्ररूपयति- कंदप्पे कुक्कुइए, दवसीले यावि हासणकरे य । विम्हाविंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ ॥१२९५॥ इह कन्दर्पशब्देन कन्दर्पवानुच्यते, एवं कौत्कुच्यवान् द्रवशीलश्चापि हासनकरश्च विस्मापयँश्च परं कान्दी भावनां करोतीति सङ्ग्रहगाथासमासार्थः ॥१२९५॥" - बृहत्कल्पटीका । [पृ० ४७६] अथ शृङ्गारलक्षणम् व्यवहारः पुनार्योरन्योन्यं रक्तयो रतिप्रकृतिः । श्रृङ्गारः स द्वेधा संभोगो विप्रलम्भश्च ॥ संभोगः संगतयोर्वियुक्तयोर्यश्च विप्रलम्भोऽसौ । पुनरप्येष द्वेधा प्रच्छन्नश्च प्रकाशश्च ॥१२।५-६॥ अथ करुणः- करुण: शोकप्रकृति: शोकश्च भवेद्विपत्तितः प्राप्तेः । इष्टस्यानिष्टस्य च विधिविहतो नायकस्तत्र ॥ अच्छिन्ननयनसलिलप्रलापवैवर्ण्यमोहनिर्वेदाः । क्षितिचेष्टनपरिदेवनविधिनिन्दाश्चेति करुणे स्युः ॥१५।३-४॥ अथ बीभत्सः- भवति जुगुप्साप्रकृतिर्बीभत्सः सा तु दर्शनाच्छ्रवणात् । संकीर्तनात्तथेन्द्रियविषयाणामत्यहृद्यानाम् ॥ हृल्लेखननिष्ठीवनमुखकूणनसर्वगात्रसंहाराः । उद्वेगः सन्त्यस्मिन्गाम्भीर्यान्नोत्तमानां तु ॥१५।५-६॥ अथ रौद्रः- रौद्रः क्रोधप्रकृतिः क्रोधोऽरिकृतात्पराभवाद्भवति । तत्र सुदारुणचेष्टः सामर्षो नायकोऽत्युग्रः ॥ तत्र निजांसस्फालनविषमभृकुटीक्षणायुधोत्क्षेपाः । सन्ति स्वशक्तिशंसाप्रतिपक्षाक्षेपदलनानि ॥१५॥१३-१४॥ - इति रुद्रटविरचिते काव्यालङ्कारे । [पृ०४८१] “अथोपसर्गान् व्याख्यातुमाह- उवसजणमुवसग्गो तेण तओ व उवसजए जम्हा। सो दिव्व-मणुय-तेरिच्छिया-ऽऽयसंवेयणाभेओ ॥३००५॥ व्या० उपसर्जनमुपसर्गः अथवा करणसाधनः- उपसृज्यते संबध्यते पीडादिभिः सह जीवस्तेनेत्युपसर्गः । अथवा कर्मसाधनः- उपसृज्यते संबध्यते तकोऽसावेव जीवेन सह यस्मात् तत उपसर्गः । अथवा उपादानसाधन:- ततस्तस्मादुपसर्गाज्जीव उपसृज्यते संबध्यते पीडादिभिः सह यस्मात् तत उपसर्गः । स च देवेभ्यो भवो दिव्यः, मनुष्येभ्यो Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि भवो मानुषः, तिर्यग्योनिभ्यो भवस्तैर्यग्योनः, आत्मना संवेद्यत इत्यात्मसंवेदनीय इत्येवं चतुर्भेद इति ॥३००५॥" - विशेषाव० मलधारि०॥ [पृ०४८२ पं०१५] चण्डकौशिककथा- ताहे सामी उत्तरवाचालं वच्चइ, तत्थ अंतरा कनकखलं नाम आसमपदं, तत्थ दो पंथा-उज्जुगो वंको य, जो सो उज्जुगो सो कणकखलमज्झेणं वच्चइ, वंको परिहरंतो, सामी उज्जुगेण पहावितो, गोवालेहिं वारितो-देवज्जगा ! मा एएण मग्गेण गच्छह, एत्थ दिट्ठीविसो सप्पो अच्छइ, सामी जाणइ-जहा स भवितो संबुज्झिहिइ, ताहे गतो, गंतूण जक्खघरमंडवियाए पडिमं ठितो, सो पुण सप्पो को पुव्वभवे आसि ?, भण्णइ-खमगो, पारणगे खुड्डएण समं वासियभत्तस्स गतो, तेण मंडुक्किया विराहिया, सो खुड्डएण पडिचोइतो, ताहे सो अन्नं मतेल्लियं दरिसेइ, भणइ-इमावि मए मारिया ?, जातो लोएण मारियातो तातो सव्वातो दरिसेइ, ताहे खुट्टएण नायं-वियाले आलोहिइ, सो वियाले आवस्सगआलोयणाए आलोइत्ता निविट्ठो, खुड्डगो चिंतेइ-नूणं से विस्सरियं, ताहे संभारियं, रुट्ठो खुड्डगस्स आहणामि त्ति उद्घाइतो, तत्थ खंभे आवडितो मतो, विराहियसामन्नो जोइसिएसु उववन्नो, ततो चुतो कणगखले पंचण्हं तावससयाणं कुलवइस्स भारियाए तावसीए उयरे आगतो, दारगो जातो, तत्थ से कोसिउ त्ति नामं कयं, सो अईवपुव्वभवसहावेण चंडकोवो, तत्थ व अन्नेऽवि अत्थि कोसिया, ततो तस्स चंडकोसिउ त्ति नामं कयं, सो य कुलवती मतो, पच्छा सो कुलवती जातो, सो तत्थ वणसंडे मुच्छितो, तेसिं तावसाणं ताणि फलाणि न देइ, ते अलभंता गया दिसोदिसिं, जेऽवि तत्थ गोवालाई एइ तंपि हंतूण धाडेइ, तस्स य अदूरे सेयविया नाम नगरी, ततो रायपुत्तेहिं आगंतूण विरहिए सो वणसंडो पडिनिवेसेण भग्गो विणासिओ य, तस्स गोवालएहिं कहियं, सो तया कंटियाणं गतो आसि, ततो कंटियातो छड्डित्ता परसुहत्थो रोसेण धमधमंतो गतो, कुमारेहिं दिट्ठो आगच्छंतो, तं दद्दूण पलाया, सो परसुहत्थो पधावंतो खुड्डे आवडिऊण पडितो, सो कुहाडो उद्धो ठितो, तत्थ से सिरं दोभागे कयं, तत्थ मतो तम्मि वणसंडे दिट्ठीविसो सप्पो जातो, तेण रोसेण लोभेण य तं वणसंडं रक्खइ, ते तावसा सव्वे दड्डा, जे अद्दड्डगा ते नट्ठा, सो तिसंझं वणसंडं परिअंचिऊण जं सउणगमवि पासइ तं दहइ, ताहे सामी तेण दिट्ठो, ततो आसुरुत्तो ममं न जाणसि ?, सूरं निज्झाएत्ता पच्छासामि पलोएइ, सो न डज्झइ जहा अन्नो, एवं दो तिन्नि वारे, ताहे गंतूण डसइ, अवक्कमइ मा मे उवरिं पडिहिइ, तहवि न मरइ, एवं तिन्नि वारे, ताहे पलोयंतो अमरिसेणं अच्छइ, तस्स भगवतो रूवं पेच्छंतस्स ताणि विसभरियाणि अच्छीणि विज्झाइयाणि सामिणो कंतिसोम्मयाए, ताहे सामिणा भणियं-उवसम ! भो चंडकोसिया !, ताहे तस्स ईहापोहमग्गणगवेसणं करेंतस्स जाईसरणं समुप्पण्णं, ताहे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंतो मणसा भत्तं पच्चक्खाइ, तित्थगरो जाणइ, ताहे सो बिले तुडं छोढूण ठितो, माऽहं रुट्ठो संतो लोग मारेहं, सामी तत्थ अणुकंपणट्ठाए अच्छइ, सामिं दद्दूण गोवालवच्छबाला अल्लियंति, रुक्खेहिं आवरित्ता पाहाणे खिवंति, न चलइ त्ति अल्लीणा, कढेहिं घट्टितो, तहवि न Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि फंदइ, ताहे लोगो आगंतुं सामि वंदित्ता तंपि सप्पं महति अ, अन्नाओ य घयविक्कणियातो तं सप्पं घएण मक्खंति, ततो सो पिवीलियाहिं गहितो, तं वेयणं सम्मं अहियासेइ, अद्धमासे कालगतो सहस्सारे उववन्नो॥ - आव० मलय० ॥ ___“केन पुन: कारणेन देवादिभ्यः साधूनामुपसर्गा भवन्ति ? इत्याह- हास-प्पओस-वीमंसओ विमायाए वा भवो दिव्वो । एवं चिय माणुस्सो कुसीलपडिसेवणचउत्थो ॥३००६॥ तिरिओ भय-प्पओसा-हारावच्चाइरक्खणत्थं वा । घट्ट-त्थंभण-पवडण-लेसणओ चायसंवेओ ॥३००७॥ व्या० हासात् क्रीडातः, अवज्ञातपूर्वभवसंबन्धादिकृतप्रद्वेषाद् वा, वीमंसउ त्ति 'किमयं स्वप्रतिज्ञातश्चलति नवा ?' इति मीमांसातो विमर्षाद् दिव्य उपसर्गो भवेत् । तथा विमायाए त्ति विविधा मात्रा विमात्रा तस्याः सकाशात् किमपि हास्यात्, किमपि प्रद्वेषात्, किं च मीमांसातश्चेत्यर्थः, दिव्य उपसर्गो भवेदिति । एवं मानुषोऽप्युपसर्गश्चतुर्विधो भवेत् । केवलं कुसीलपडिसेवणचउत्थो त्ति स्त्रीपण्डकलक्षणो यः कुशीलस्तत्प्रतिसेवनामाश्रित्य चतुर्थभेदो द्रष्टव्यः, विमात्रापक्षस्यात्र हास्यादिष्वेवान्तर्भावविवक्षणादिति । तिर्यङ् भयात्, प्रद्वेषात्, आहारार्थम्, अपत्यनीडगुहादिस्थानरक्षणार्थमुपसर्गं कुर्यादिति । आत्मसंवेदनीयस्तूपसर्गो नेत्रपतितकूणिकादिघट्टनात्, अङ्गानां वा स्तम्भनात् स्तब्धताभावात्, गर्तादौ वा प्रपतनात्, विगुणितबाह्वाद्यङ्गानां वा लेशनात् परस्परं श्लेषणाद् भवति ॥३००६-३००७॥” - विशेषाव० मलधारि०॥ [पृ० ४८४] “तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो । सयणे य जेण य समो समो य माणावमाणेसु ॥१५६॥ व्या० ततः श्रमणो यदि सुमनाः, द्रव्यमनः प्रतीत्य, भावेन च यदि न भवति पापमनाः, एतत्फलमेव दर्शयति- स्वजने च जने च समः, समश्च माना-ऽपमानयोरिति गाथार्थः ॥१५६।। नत्थि य सि कोइ वेसो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पजओ ॥१५५॥ व्या० नास्ति च सि तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव जीवेषु, तुल्यमनस्त्वात्, एतेन भवति सममनाः, समं मनोऽस्येति सममनाः, एषोऽन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः ॥१५५॥" - दशवै० हारि० ॥ पृ० ४८५] “औत्पत्तिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाह- पुव्वमदिट्ठमस्सुअमवेइअ तक्खणविसुद्धगहिअत्था । अव्वाहयफलजोगिणि बुद्धी उप्पत्तिआ नाम ॥९३९॥ व्या० पूर्वम् इति बुद्ध्युत्पादात् प्राक् स्वयमदृष्टोऽन्यतश्चाश्रुतः अवेदित: मनसाऽप्यनालोचितः तस्मिन्नेव क्षणे विशुद्धः यथावस्थितः गृहीत: अवधारितः अर्थः अभिप्रेतपदार्थो यया सा तथा, इहैकान्तिकमिहपरलोकाविरुद्धं फलान्तराबाधितं वाऽव्याहतमुच्यते, फलं प्रयोजनम्, अव्याहतं च तत्फलं च अव्याहतफलम्, योगोऽस्या अस्तीति योगिनी अव्याहतफलेन योगिनी अव्याहतफलयोगिनी, अन्ये पठन्ति Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अव्याहतफलयोगा, अव्याहतफलेन योगो यस्याः साऽव्याहतफलयोगा बुद्धिः औत्पत्तिकी नामेति गाथार्थः॥ ___ अधुना वैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाह- भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेआला। उभओलोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी ॥९४३॥ व्या० इहातिगुरु कार्यं दुर्निर्वहत्वाद्भर इव भरः, तन्निस्तरणे समर्था भरनिस्तरणसमर्था, त्रयो वर्गाः त्रिवर्गमिति लोकरूढेर्धर्मार्थकामाः, तदर्जनपरोपायप्रतिपादननिबन्धनं सूत्रं तदन्वाख्यानं तदर्थः पेयालं प्रमाणं सारः, त्रिवर्गसूत्रार्थयोर्गृहीतं प्रमाणं सारो यया सा तथाविधा, अथवा त्रिवर्ग: त्रैलोक्यम् ॥ आह- नन्द्यध्ययनेऽश्रुतनिसृताऽऽभिनिबोधिकाधिकारे औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयोपन्यासः, त्रिवर्गसूत्रार्थ-गृहीतसारत्वे च सत्यश्रुतनिसृतत्वमुक्तं विरुध्यत इति, न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं सम्भवति, अत्रोच्यते, इह प्रायोवृत्तिमङ्गीकृत्याश्रुतनिसृतत्वमुक्तम् अतः स्वल्पश्रुतनिसृतभावेऽप्यदोष इति । उभयलोकफलवती ऐहिकामुष्किकफलवती विनयसमुत्था विनयोद्भवा भवति बुद्धिरति गाथार्थः ॥९४३।। साम्प्रतं कर्मजाया बुद्धेर्लक्षणं प्रतिपादयन्नाह- उवओगदिट्ठसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहुक्कारफलवई कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी ॥९४६।। व्या० उपयोजनमुपयोगःविवक्षिते कर्मणि मनसोऽभिनिवेशः, सार:- तस्यैव कर्मणः परमार्थः, उपयोगेन दृष्टः सारो ययेति समासः अभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्थेत्यर्थः, कर्मणि प्रसङ्गः अभ्यासः, परिघोलनं विचारः, कर्मप्रसङ्गपरिघोलनाभ्यां विशाला कर्मप्रसङ्गपरिघोलनविशाला अभ्यासविचारविस्तीर्णेति भावार्थः, साधु कृतं सुष्ठ कृतमिति विद्वद्भ्यः प्रशंसा साधुकारस्तेन फलवतीति समासः, साधुकारेण वा ऽशेषमपि फलं यस्याः सा तथा, कर्मसमुत्था कर्मोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथार्थः ॥” - आव० नि० हारि० ॥ [पृ० ४८६] “उक्ता कर्मजा, साम्प्रतं पारिणामिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाहअणुमाणहेउदिटुंतसाहिया वयविवागपरिणामा । हिअनिस्सेअसफलवई बुद्धी परिणामिआ नाम ॥९४८॥ व्या० अनुमानहेतुदृष्टान्तैः साध्यमर्थं साधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका, इह लिङ्गात् ज्ञानमनुमानं स्वार्थमित्यर्थः, तत्प्रतिपादकं वचो हेतुः परार्थमित्यर्थः, अथवा ज्ञापकमनुमानम्, कारको हेतुः, दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः । आह- अनुमानग्रहणादेव दृष्टान्तस्य गतत्वादलमुपन्यासेन, न, अनुमानस्य तत्त्वत एकलक्षणत्वात्, उक्तं च- अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र यत्र त्रयेण किम् ?। नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र यत्र त्रयेण किम् ?॥१॥ [ ] इत्यादि । साध्योपमाभूतस्तु दृष्टान्तः, उक्तं च- यः साध्यस्योपमाभूतः स दृष्टान्त इति कथ्यते [ ], कालकृतो देहावस्थाविशेषो वय इत्युच्यते, तद्विपाके परिणामः पुष्टता यस्याः सा तथाविधा, हितम् अभ्युदयस्तत्कारणं वा, निःश्रेयसं मोक्षस्तन्निबन्धनं वा हितनिःश्रेयसाभ्यां फलवती हितनिःश्रेयसफलवती बुद्धिः पारिणामिकी नामेति गाथार्थः ॥” - आव० नि० हारि० ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ७७ “अथैतदेवाऽवग्रहादिस्वरूपं भाष्यकारो विवृण्वन्नाह- सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो भेयमग्गणमहेहा । तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्सा ॥१८०॥ व्या० अन्तर्भूताऽशेषविशेषस्य केनापि रूपेणाऽनिर्देश्यस्य सामान्यस्याऽर्थस्यैकसामयिकमवग्रहणं सामान्यार्थावग्रहणम्, अथवा सामान्येन सामान्यरूपेणाऽर्थस्याऽवग्रहणं सामान्यार्थावग्रहणमवग्रहो वेदितव्यः । अथाऽनन्तरमीहा प्रवर्तते । कथम्भूतेयम् ? इत्याह- भेदमार्गणम्, भेदा वस्तुनो धर्मास्तेषां मार्गणमन्वेषणं विचारणं प्रायः काकनिलयनादयः स्थाणुधर्मा अत्र वीक्ष्यन्ते, न तु शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इत्येवं वस्तुधर्मविचारणमीहेत्यर्थः । तस्यैवेहयेहितस्य वस्तुनस्तदनन्तरमवगमनमवगमः स्थाणुरेवाऽयमित्यादिरूपो निश्चयोऽवायोऽपायो वेति । तस्यैव निश्चितस्य वस्तुनोऽविच्युति-स्मृतिवासनारूपं धरणं धारणा; सूत्रेऽविच्युतेरुपलक्षणत्वात् ॥ इति गथार्थः ॥१८०॥” - विशेषाव० मलधारि०॥ [पृ० ४९२] “सम्प्रति सौधर्मादिषु विमानानां वर्णविभागं प्रतिपिपादयिषुराह- सोहम्मि पंचवण्णा, एक्कगहाणीओ जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला कप्पा, तेण परं पुंडरीयाणि ॥१३२॥ व्या० सौधर्मे कल्पे विमानानि वर्णेन वर्णमधिकृत्य पञ्चवर्णानि श्वेतपीतरक्तनीलकृष्णवर्णोपेतानि भवन्ति । तत ऊर्ध्वं यावत्सहस्रारकल्पस्तावदेकैकहानिरेकैकवर्णहानिर्द्रष्टव्या, नवरं द्वौ द्वौ कल्पौ तुल्यौ वर्णमधिकृत्य तुल्यवक्तव्यताको वेदितव्यौ, इयमत्र भावना- सौधर्मेशानकल्पयोर्विमानानि श्वेतपीतरक्तनीलकृष्णवर्णोपेतानि भवन्ति । सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोः कृष्णवर्णरहितशेषवर्णचतुष्टयोपेतानि । ब्रह्मलोकलान्तककल्पयोः कृष्णनीलरहितशेषवर्णत्रयोपेतानि । शुक्रसहस्रारकल्पयोः कृष्णनीलरक्तरहितशेषवर्णद्वयोपेतानि। तेण परं पुंडरीया इति, ततः सहस्रारात् परं विमानानि सर्वाण्यपि पुण्डरीकाणि पुण्डरीकतुल्यवर्णानि भवन्ति, पुण्डरीकं सिताम्बुजं [तद्वत्] श्वेतानि भवन्तीत्यर्थः ॥१३२॥ ___ भवणवणजोइसोहम्मीसाणे सत्त हुंति रयणीओ। इक्किक्कहाणि सेसे, दु दुगे य दुगे चउक्के य ॥१४३॥ व्या० भवनपतीनां वण त्ति वनचराणां ज्योतिष्काणां सौधर्मेशानदेवानां च शरीरप्रमाणमुत्कर्षतः सप्त सप्त रत्नयो हस्ता भवन्ति । शेषे द्विके द्विके द्विके चतुष्के चैकैकहानिरेकैकहस्तहानिर्वक्तव्या, तद्यथा- सनत्कुमारमाहेन्द्रयोरुत्कर्षतः षड् हस्ताः शरीरप्रमाणम्, ब्रह्मलोकलान्तकयोः पञ्च, शुक्रसहस्रारयोश्चत्वारः, आनतप्राणतारणाच्युतेषु त्रयः ॥१४३॥ __गेविजेसुं दुन्नि य, इक्का रयणी अणुत्तरेसुं च । भवधारणिज एसा, उक्कोसा होइ नायव्वा ॥१४४॥ व्या० ग्रैवेयके षूत्कर्षतः शरीरप्रमाणं द्वौ रत्नी, एकोऽनुत्तरेषु । एषा च सप्तहस्तप्रमाणादिकोत्कृष्टावगाहना भवधारणीया वेदितव्या ॥१४४॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० ॥ [पृ०४९३] अधुना तल्लक्षणमाह- पौषे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः । नात्यर्थं मृगशीर्षे शीतं पौषेऽतिहिमपात: ॥१९॥ माघे प्रबलो वायुस्तुषारकलुषद्युती रविशशाङ्कौ। अतिशीतं सघनस्य च भानोरस्तोदयौ धन्यौ ॥२०॥ फाल्गुनमासे रूक्षश्चण्डः पवनोऽभ्रसम्प्लवा: Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि स्निग्धाः। परिवेशाश्चासकलाः कपिलस्ताम्रो रविश्च शुभः || २१ || पवनघनवृष्टियुक्ताश्चैत्रे गर्भाः शुभाः सपरिवेषाः । घनपवनसलिलविद्युत्स्तनितैश्च हिताय वैशाखे ॥ २२॥ [ वाराही बृहत्संहति], पौषे मासे समार्गशीर्षे मार्गशीर्षसहिते सन्ध्यारागः सन्ध्ययो रक्तत्वम् । अम्बुदा मेघाः सपरिवेषाः परिवेषयुक्ताः । तथा मार्गशीर्षे मासि नात्यर्थं नातिबहु शीतम् । पौषे नातिहिमपातः शुभः ॥ माघे मासि प्रबलश्चण्डो वायुः । तथा रविशशाङ्कावर्कचन्द्रौ तुषारकलुषद्युती । तुषारद्युतिर्हिमकान्तिः सूर्यः । कलुषद्युतिरनिर्मलकान्तिश्चन्द्र इत्यर्थः । अतिशीतमत्यर्थं शीतम् । भानोरादित्यस्य सघनस्य समेघस्यास्तोदयौ धन्यौ द्वावपि शुभावित्यर्थः ॥ फाल्गुनमासे पवनो वायू रूक्षः परुषः । चण्डोऽतिवेगः । अभ्राणां मेघानां सम्प्लवा उद्गमाः । स्निग्धाः सूर्याचन्द्रमसोः परिवेषाः । असकला अखण्डाः । रविरादित्यः कपिलः कपिलवर्णस्ताम्रस्ताम्रवर्णश्च शुभः प्रशस्तः ॥ चैत्रे मासि गर्भाः पवनेन वायुना घनैर्मेधैर्वृष्ट्या वर्षणेन च युक्ताः सपरिवेषाः परिवेषसहिताः शुभाः । वैशाखे मासि धनैर्मेधैः । पवनेन वायुना । सलिलेन जलेन । विद्युता तडिता । स्तनितेन गर्जितेन च युक्ता गर्भा हिताय भवन्ति । तथा च कश्यपः- शीतमभ्रं तथा वायुश्चन्द्रार्कपरिवेषणम् । माघे मासि परीक्षेत श्रावणे वृष्टिमादिशेत् ॥ फाल्गुने चात्र सङ्घातं वृष्टिस्तनितमेव च । परोवाताश्च प्रोक्ता मास भाद्रपदे शुभम् || बहुपुष्पफला वृक्षा वाताः शर्करवर्षिणः । शीतवर्षं तथाभ्राणि चैत्रेणाश्वयुजं वदेत् ॥ [ ] वहन्ति मृदवो वाताः पुरः शीघ्रं प्रदक्षिणाः । वैशाखे तानि रूपाणि कार्तिके मासि वर्षति ॥ तथा च समाससंहितायाम् शस्तानि मृगान्मासाच्छीतहिमवायुमेघकृतानि । स्तनिततडिज्जलमारुतघनतापान्यतिशयं तु वैशाखे । कृष्णेन शुक्लपक्षः सितेन कृष्णो निशा दिनोत्थेन । रात्र्याहः सन्ध्यायां सन्ध्यादिग्व्यत्ययाज्जलदाः ॥ [ ] इति ॥ ॥१९-२२॥ इति बृहत्संहिता ० भटोत्पल० ॥ ७८ [पृ०४९६] “प्रत्येकरसाश्चत्वारः सागरास्त्रय उदकरसा इत्युक्तमतस्तान्नामत आह- वारुणिवर खीरवरो घयवर लवणो अ हुंति पत्तेया । कालोअ पुक्खरोदहि सयंभुरमणो अ उदयरसा ॥८८॥ व्या० वारुणीवरः क्षीरवरो घृतवरो लवणो लवणोदश्चेत्येते चत्वारोऽपि समुद्राः प्रत्येकरसा विभिन्नरसाः, तद्यथा- वारुणीवरसमुद्रः सुजातपरमद्रव्यसन्मिश्रमदिरास्वादजलः । क्षीरवरश्चतुर्विभागखण्डादिसन्मिश्रगोक्षीरास्वादजलः । घृतवरः सुक्वथितसद्योविस्पन्दितगोघृतास्वादतोयः । लवणोदो लवणमयजल इति । तथा कालोदः पुष्करवरोदधिः स्वयंभूरमणश्चेत्येते त्रयः समुद्रा उदकरसाः, नवरं कालोदसमुद्रस्य जलं कृष्णं माषराशिवर्णाभं गुरुपरिमाणं । पुष्करोदसमुद्रस्य हितं पथ्यं तनुपरिमाणं स्फटिकवर्णाभम् इत्थंभूतमेव च स्वयम्भूरमणस्येति ॥८८॥” बृहत्सं० मलय० । - [पृ०५०० ] “सव्वगयं सम्मत्तं सुय चरित्ते न पज्जवा सव्वे । देसविर पडुच्चा दोन्ह वि पsिहणं कुजा || २७५१ ।। अथ 'केषु द्रव्येषु पर्यायेषु च सामायिकम् ?' इति जिज्ञासायामुच्यते Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि सर्वद्रव्य-पर्यायगतं सम्यक्त्वम्, सर्वद्रव्य-पर्यायश्रद्धानरूपत्वात् तस्य । तथा, श्रुते श्रुतसामायिके, चारित्रे चारित्रसामायिके द्रव्याणि सर्वाण्यपि भवन्ति, विषयपर्यायास्तु न सर्वे तद्विषयः, श्रुतस्याभिलाप्यविषयत्वात्, पर्यायाणां चाभिलाप्या-ऽनभिलाप्यरूपत्वादिति; चारित्रस्यापि ‘पढमम्मि सव्वजीवा' इत्यादिना सर्वद्रव्या-ऽसर्वपर्यायविषयतायाः प्रतिपादितत्वादिति । देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि सकलद्रव्य-पर्याययोः प्रतिषेधनं कुर्यात्, न सर्वद्रव्यविषयम्, नापि सर्वपर्यायविषयं देशविरतिसामायिकमिति भावः ॥ इति नियुक्तिगाथार्थः ॥२७५१।।" - विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ०५०७] "तत्र प्रथमत एकेन्द्रियादीनां शरीरावगाहनामाह- जोयणसहस्समहियं, ओहेण एगिदिए तरुगणेसु । मच्छजुअले सहस्सं, उरगेसु य गब्भजाईसु ॥३०७॥ व्या० ओघेन सामान्यरूपेणैकेन्द्रियसामान्यचिन्तायामेकेन्द्रियाणामित्यर्थः, विशेषचिन्तायां तरुगणेषु योजनसहस्रमधिकम् किञ्चित्समधिकम्, तच्च समुद्रादिगतं पद्मनालमवसे यम् । अत्राहशरीप्रमाणमुच्छ्रयाङ्गुलतः समुद्रादिपरिमाणं तु प्रमाणामुलतः, समुद्राणां चावगाहो योजनसहस्रमतस्तद्गतपद्मनालादिकमुच्छ्रयाङ्गुलापेक्षयाऽधिकप्रमाणं भवतीति कथं न विरोधः । नैष दोषः, इह समुद्रमध्ये प्रमाणाङ्गुलतो योजनसहस्रावगाहे यानि पद्मानि तानि पृथिवीपरिणामरूपाणि, यथा श्रीदेवतायाः पद्महदे पद्मम्, यानि पुनः शेषेषु गोतीर्थादिषु स्थानेषु पद्मानि तानि वनस्पतिपरिणामरूपाण्यपि भवन्ति, तानि च शेषेषु जलाशयेषु वल्ल्यादयश्चोत्कर्षतः शरीरप्रमाणमानेन किञ्चित्समधिकं योजनसहस्रं भवतीति न कश्चिद्दोषः। तथा चामुमेवार्थं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणो विशेषणवत्यामाहजोअणसहस्समहिअं, वणस्सईदेहमाणमुद्दिढं । तं च किल समुद्दगयं, जलरुहनालं हवइ नन्नं ॥१॥ उस्सेहंगुलओ तं, होइ पमाणंगुलेण य समुद्दो । अवरोप्परओ दुन्निवि, कहमविरोहीणि हुजाहु ॥२॥ पुढवीपरिणामाई ताई किर सिरिनिवासपउमं च । गोतित्थेसु वणस्सइपरिणामाई तु हुजाहि ॥३॥ जत्थुस्सेहंगुलओ, सहस्समवसेसएसु य जलेसु । वल्लीलयादओ वि य, सहस्समायामओ डंति ॥४॥ [विशेषणवती] तथा मत्स्ययुगले गर्भव्युत्क्रान्तिकसंमूर्छिमलक्षण उरगेषु च सर्पजातीयेषु गर्भजातिषु गर्भजन्मसु देहप्रमाणं प्रत्येकं योजनसहस्रं परिपूर्णमुक्तम् ॥३०७॥” - बृहत्संग्रहणी० मलय० । पृ०५११] “सत्यमधिकृत्याह- अविसंवादनयोगः कायमनोवागजिह्यता चैव । सत्यं चतुर्विधं तच्च जिनवरमतेऽस्ति नान्यत्र ॥१७४॥ टीका- विसंवादनमन्यथास्थितस्यान्यथाभाषणं गामश्वम् अश्वं वा गामिति भाषते, पिशुना वाऽन्यता चान्यथा च व्युद्ग्राह्य प्रीतिच्छेदनं करोति विसंवादयति । विसंवादनेन योगः संबन्धः न विसंवादनयोगः अविसंवादनयोगः । सत्यं यथादृश्यमानवस्तुभाषणम् । कायेनाजिह्मता जिह्मः कुटिलो मलीमसः, कायेनान्यवेषधारितया प्रतारयति न जिह्मोऽजिह्मः द्वितीयः सत्यभेदः । मनसा वाऽजिह्मता सत्यम्, मनसा प्रागालोच्य भाषते करोति वा, प्रायो न तादृगालोचयति जिह्मेन येन परः प्रतार्यते, एष तृतीयो भेदः । वागजिह्मता च सत्यम्, जिह्मा वाक् सद्भूतनिह्नवः असद्भूतोद्भावनं कटुकपरुषसावद्यादि चेति चतुर्थो भेदः । एतच्च जैनेन्द्र एव मते, नान्यत्र सत्यमिति ॥१७४॥ - प्रशमरति० टीका । A-31 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि साम्प्रतं संयमव्याचिख्यासयाऽऽह- पुढविदगअगणिमारुयवणस्सईबिति-चउपणिंदिअजीवे। पेहोपेहपमजणपरिट्ठवणमणोवई काए ॥४६॥ व्या० पुढवाइयाण जाव य पंचिंदिय संजमो भवे तेसिं । संघट्टणादि ण करे तिविहेणं करणजोएणं ॥१॥ अज्जीवेहिं जेहिं गहिएहिं असंजमो इहं भणिओ । जह पोत्थदूसपणए तणपणए चम्मपणए अ ॥२॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडी अ । एयं पोत्थयपणयं पण्णत्तं वीअराएहिं ॥३॥ बाहल्लपुहुत्तेहिं गंडी पोत्थो उ तुल्लगो दीहो । कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेअव्वो ॥४॥ चउरंगुलदीहो वा वट्टागिति मुट्ठिपोत्थगो अहवा । चउरंगुलदीहो चिअ चउरस्सो होइ विण्णेओ ॥५॥ संपुडओ दुगमाई फलगा वोच्छं छिवाडिमेत्ताहे । तणुपत्तोसिअरूवो होइ छिवाडी बुहा बेंति ॥६॥ दीहो वा हस्सो वा जो पिहुलो होइ अप्पबाहल्लो । तं मुणिअ समयसारा छिवाडिपोत्थं भणंतीह ॥७॥ दुविहं च दूसपणअं समासओ तंपि होइ नायव्वं । अप्पडिलेहियदूसं दुप्पडिलेहं च विण्णेयं ॥८॥ अप्पडिलेहिअदूसे तूली उवधाणगं च णायव्वं । गंडुवधाणालिंगिणि मसूरए चेव पोत्तमए ॥९॥ पल्हवि कोयवि पावार णवतए तहय दाढिगालीओ । दुप्पडिलेहिअ दूसे एवं बीअं भवे पणगं ॥१०॥ पल्हवि हत्थुत्थरणं कोयवओ रूअपूरिओ पडओ । दढगालि धोइ पोत्ती सेस पसिद्धा भवे भेदा ॥११॥ तणपणगं पुण भणियं जिणेहिँ कम्मट्टगंठिदहणेहिं । साली वीही कोद्दव रालग रण्णे तणाई च ॥१२॥ अय एल गावि महिसी मियाणमजिणं च पंचमं होइ । तलिया खल्लग वद्धं कोसग कित्ती य बितिए य ॥१३॥ तह विअडहिरण्णाई ताइँ न गेण्हइ असंजमं साहू । ठाणाइ जत्थ चेए पेह पमज्जित्तु तत्थ करे ॥१४॥ एसा पेह उवेहा पुणोवि दुविहा उ होइ नायव्वा । वावारावावारे वावारे जह उ गामस्स ॥१५॥ एसो उविक्खगो हू अव्वावारे जहा विणस्संतं । किं एयं नु उविक्खसि ? दुविहाए वित्थ अहियारो ॥१६॥ वावारुविक्ख तहिं संभोइय सीयमाण चोएइ। चोएई इयरं पिहु पावयणीअम्मि कजम्मि ॥१७॥ अव्वावारउवेक्खा णवि चोएइ गिहिं तु सीअंतं। कम्मेसु बहुविहेसुं संजम एसो उवेक्खाए ॥१८॥ पडिसागरिए अपमज्जिएसु पाएसु संजमो होइ । ते चेव पमजते असागरिए संजमो होइ ॥१९॥ पाणाईसंसत्तं भत्तं पाणमहवा वि अविसुद्धं । उवगरणभत्तमाई जं वा अइरित्त होज्जाहि ॥२०॥ तं परिठ्ठप्प विहीए अवहटुं संजमो भवे एसो । अकुसलमणवइरोहो कुसलाण उदीरणं चेव ॥२१॥ जुयलं मणवइसंजम एसो काए पुण जं अवस्सकज्जम्मि। गमणागमणं भवइ तं उवउत्तो कुणइ सम्मं ॥२२॥ तव्वजं कुम्मस्स व सुसमाहियपाणिपायकायस्स । हवइ य काइयसंजम चिट्ठतस्सेव साहुस्स ॥२३॥ उक्तः संयमः । आह- अहिंसैव तत्त्वतः संयम इति कृत्वा तद्भेदेनास्याभिधानमयुक्तम्, न, संयमस्याहिंसाया एव उपग्रहकारित्वात्, संयमिन एव भावतः खल्वहिंसकत्वादिति कृतं प्रसङ्गेन । - दशवै० हारि० । ___ संयममधिकृत्याह । सम्यगुपरमः पापस्थानेभ्यः संयमः सप्तदशप्रकार:- पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः । दंडत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥१७२॥ टीका Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पञ्चाश्रवाः प्राणातिपातमृषाभाषणादत्तादानमैथुनपरिग्रहाः कर्मादानहेतवस्तेभ्यो विरमणं विरतिकरणं संयमः । पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तेषां निग्रहः नियमनं निरोधः । शब्दादिषु गोचरप्राप्तेष्वरक्तद्विष्टतामाध्यस्थ्यम् । कषः संसारः कष्यते यत्र जीवः स्वकृतैः कर्मभिः कदर्थ्यते पीड्यते तस्यायाः प्राप्तिहेतवः क्रोधादयश्चत्वारस्तेषां जयोऽभिभव उदयनिरोधः, उदितानां वा विफलतापादनम्। दण्डा मनोवाक्कायाख्याः । अभिद्रोहाभिमानेादिलक्षणो मनोदण्डः । हिंस्रपरुषानृतादिलक्षणो वाग्दण्डः। धावन-वल्गन-प्लवनादिरूपः कायदण्डः । एभ्यो विरतिनिवृत्तिः । एवमेष संयमः सप्तदशभेदो भवति। आर्षे त्वन्येन क्रमेणायमेवार्थो निबद्धः । पृथिव्यप्तेजो-वायु-वनस्पति-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियेषु संयमः। तथा पुस्तकाद्यपरिग्रहः अजीवकायसंयमः । प्रेक्षोपेक्षाप्रमार्जनापरिष्ठापनसंयमः मनोवाक्कायसंयम इति ॥१७२॥ - प्रशमरति० टीका ॥ साम्प्रतं तपः प्रतिपाद्यते-तच्च द्विधा-बाह्यमाभ्यन्तरं च । तत्र तावद् बाह्यप्रतिपादनायाहअणसणमूणोअरिआ वित्ती संखेवणं रसच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥४७॥ व्या० न अशनमनशनम्-आहारत्याग इत्यर्थः, तत्पुनर्द्विधा-इत्वरं यावत् कथिकं च, तत्रेत्वरं-परिमितकालम्, तत्पुनश्चरमतीर्थकृत्तीर्थे चतुर्थादिषण्मासान्तम्, यावत्कथिकं त्वाजन्मभावि, तत्पुनश्चेष्टाभेदोपाधिविशेषतनिधा, तद्यथा- पादपोपगमनमिङ्गितमरणं भक्तपरिज्ञा चेति, तत्रानशनिनः परित्यक्तचतुर्विधाहारस्याधिकृतचेष्टाव्यतिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तनिष्प्रतिकर्मशरीरस्य पादपस्येवोपगमनं सामीप्येन वर्त्तनं पादपोपगमनमिति, तच्च द्विधा- व्याघातवनिर्व्याघातवच्च, तत्र व्याघातवन्नाम यत्सिंहाद्युपद्रवव्याघाते सति क्रियत इति, उक्तं च- सीहादिसु अभिभूओ पादवगमणं करेइ थिरचित्तो । आउम्मि पहुप्पंते विआणिउं नवरि गीअत्थो ॥१॥ [पञ्चव० १६२०] इत्यादि, निर्व्याघातवत्पुनर्यत्सूत्रार्थतदुभयनिष्ठितः शिष्यान्निष्पाद्योत्सर्गतः द्वादश समाः कृतपरिकर्मा सन्काल एव करोति, उक्तं च- चत्तारि विचित्ताई विगईनिजूहियाइं चत्तारि । संवच्छरे अ दोण्णि उ एगंतरिअं च आयामं ॥१॥ णाइविगिट्ठो अ तवो छम्मासे परिमिअं च आयामं । अन्ने वि अ छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥२॥ वासं कोडीसहियं आयामं काउ आणुपुव्वीए । गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥३॥ [आचा० नि० २७१-२७२-२७३] इत्यादि । तथा इङ्गिते प्रदेशे मरणमिङ्गितमरणम्, इदं च संहननापेक्षमनन्तरोदितमशक्नुवतश्चतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपं स्वत एवोद्वर्तनादिक्रियायुक्तस्यावगन्तव्यमिति, उक्तं च- इंगिअदेसंमि सयं चउव्विहाहारचायणिप्फण्णं । उव्वत्तणादिजुत्तं णाणेण उ इंगिणीमरणं ॥१॥ [ ] इत्यादि। भक्तपरिज्ञा पुनस्त्रिविधचतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपा, सा नियमात्सप्रतिकर्मशरीरस्यापि धृतिसंहननवतो यथासमाधि भावतोऽवगन्तव्येति, उक्तं चभत्तपरिण्णाणसणं तिविहाहाराइचायनिप्फण्णं । सपडिक्कम्मं नियमा जहासमाहिं विणिद्दिढें ॥१॥ [ ] इत्यादि उक्तमनशनम्, अधुना ऊनोदरता ऊनोदरस्य भाव ऊनोदरता, सा पुनर्द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यत उपकरणभक्तपानविषया, तत्रोपकरणे जिनकल्पिकादीनामन्येषां वा Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि तदभ्यासपराणामवगन्तव्या, न पुनरन्येषाम्, उपध्यभावे समग्रसंयमाभावाद् अतिरिक्ताग्रहणतो वोनोदरतेति, उक्तं च- जं वइ उवयारे उवगरणं तं सि होइ उवगरणं । अइरेगं अहिगरणं अजयं अजओ परिहरंतो ॥१॥ [ओघनि० ७४१] इत्यादि । भक्तपानोनोदरता पुनरात्मीयाहारादिमानपरित्यागवतो वेदितव्या, उक्तं च- बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलिआए अट्ठावीसं हवे कवला ॥१॥ [पिण्डनि० ६४२] कवलाण य परिमाणं कुक्कुडिअंडयपमाणमेत्तं तु । जो व अविगिअवयणो वयणम्मि छुहेज वीसत्थो ॥२॥ [ ] इत्यादि, एवं व्यवस्थिते सत्यूनोदरता अल्पाहारादिभेदतः पञ्चविधा भवति, उक्तं च- अप्पाहार अवड्डा दुभाग पत्ता तहेव किंचूणा । अट्ठ दुवालस सोलस चउवीस तहेक्कतीसा य ॥१॥ [ ] अयमत्र भावार्थ:- अल्पाहारोनोदरता नामैककवलादारभ्य यावदष्टौ कवला इति, अत्र चैककवलमाना जघन्या, अष्टकवलमाना पुनरुत्कृष्टा, शेषभेदा मध्यमा च, एवं नवभ्य आरभ्य यावद् द्वादश कवलास्तावदपा/नोदरता जघन्यादिभेदा भावनीया इति, एवं त्रयोदशभ्य आरभ्य यावत्षोडश तावद् द्विभागोनोदरता, एवं सप्तदशभ्य आरभ्य यावच्चतुर्विंशतिस्तावत्प्राप्ता, इत्थं पञ्चविंशतेरारभ्य यावदेकत्रिंशत्तावत्किञ्चिदूनोदरता, जघन्यादिभेदाः सुधियाऽवसेयाः, एवमनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्याः, एवं योषितोऽपि द्रष्टव्या इति, भावोनोदरता पुनः क्रोधादिपरित्याग इति, उक्तं च- कोहाईणमणुदिणं चाओ जिणवयणभावणाओ अ । भावेणोणोदरिआ पण्णत्ता वीअरागेहिं ॥१॥ [ ] इत्यादि । उक्तोनोदरता, इदानीं वृत्तिसक्षेप उच्यते- स च गोचराभिग्रहरूपः, ते चानेकप्रकाराः, तद्यथा- द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो निर्लेपादि ग्राह्यमिति, उक्तं च- लेवडमलेवडं वा अमुगं दव्वं च अज घिच्छामि । अमुगेण व दव्वेणं अह दव्वाभिग्गहो नाम ॥१॥ अट्ठ उ गोअरभूमी एलुगविक्खंभमित्तगहणं च । सग्गामपरग्गामे एवइय घरा य खित्तम्मि ॥२॥ उजुअ गंतुंपच्चागई अ गोमुत्तिआ पयंगविही । पेडा य अद्धपेडा अभिंतरबाहिसंबुक्का ॥३॥ काले अभिग्गहो पुण आदी मज्झे तहेव अवसाणे । अप्पत्ते सइकाले आदी बिइ मज्झ तइअंते ॥४॥ दिंतगपडिच्छयाणं भवेज सुहुमं पि मा हु अचियत्तं । इति अप्पत्तअतीते पवत्तणं मा य तो मज्झे ॥५॥ उक्खित्तमाइचरगा भावजुआ खलु अभिग्गहा होति । गायन्तो अ रुअंतो जं देइ निसन्नमादी वा ॥६॥ ओसक्कण अहिसक्कणपरंमुहालंकिओ नरो वावि । भावण्णयरेण जुओ अह भावाभिग्गहो णाम ॥७॥ [पञ्चव० २७८-३०४] , उक्तो वृत्तिसंक्षेपः, साम्प्रतं रसपरित्याग उच्यते- तत्र रसा: क्षीरादयस्तत्परित्यागस्तप इति, उक्तं च- विगई विगईभीओ विगइगयं जो उ भुंजए साहू । विगई विगइसहावा विगई विगई बला णेइ ॥१॥ [पञ्चव० ३७०], विगई परिणइधम्मो मोहो जमुदिजए उदिण्णे अ । सुट्ठवि चित्तजयपरो कहं अकजे ण वट्टिहिति ? ॥२॥ दावानलमज्झगओ को तदुवसमट्टयाइ जलमाई । सन्तेवि ण सेविजा ? मोहाणलदीविएसुवमा ॥३॥ [पञ्चव० ३८४-३८५] इत्यादि, उक्तो रसपरित्यागः, साम्प्रतं कायक्लेश उच्यते- स च वीरासनादिभेदाच्चित्र इति, उक्तं च- वीरासण उक्कुडुगासणाइ लोआइओ य विण्णेओ । कायकिलेसो संसारवासनिव्वेअहेउ त्ति ॥१॥ वीरासणाइसु गुणा कायनिरोहो दया Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अ जीवेसु । परलोअमई अ तहा बहुमाणो चेव अन्नेसिं ॥२॥ हिस्संगया य पच्छापुरकम्मविवजणं च लोअगुणा । दुक्खसहत्तं नरगादिभावणाए य निव्वेओ ॥३॥ [ ] तथाऽन्यैरप्युक्तम्- पश्चात्कर्म पुरःकर्मे(र्म ई)र्यापथपरिग्रहः । दोषा ह्येते परित्यक्ताः, शिरोलोचं प्रकुर्वता ॥१॥ इत्यादि । गतः कायक्लेशः, साम्प्रतं संलीनतोच्यते इयं चेन्द्रियसंलीनतादिभेदाच्चतुर्विधेति, उक्तं च- इंदिअकसायजोए पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा । तहय विवित्ता चरिआ पण्णत्ता वीअरागेहिं ॥१॥ तत्र श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरणमिन्द्रियसंलीनतेति, उक्तं च- सद्देसु अ भद्दयपावएसु सोअविसयमुवगएसु। तुट्टेण व रुट्टेण व समणेण सया ण होअव्वं ॥१॥ एवं शेषेन्द्रियेष्वपि वक्तव्यम्, यथा- 'रूवेसु अ भद्दगपावएसु' इत्यादि । उक्तेन्द्रियसँल्लीनता, अधुना कषायसंलीनता- सा च तदुदयनिरोधोदीर्णविफलीकरणलक्षणेति, उक्तं च- उदयस्सेव निरोहो उदयं पत्ताण वाऽफलीकरणं । जं इत्थ कसायाणं कसायसंलीनता एसा ॥१॥ [ ] इत्यादि, उक्ता कषायसंलीनता, साम्प्रतं योगसंलीनता-सा पुनर्मनोयोगादीनामकुशलानां निरोधः कुशलानामुदीरणमित्येवंभूतेति, उक्तं चअपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं । कजम्मि य विहिगमणं जोए संलीणया भणिआ ॥१॥ [ ] इत्यादि । उक्ता योगसंलीनता, अधुना विविक्तचर्या, सा पुनरियम्- ‘आरामुज्जाणादिसु थीपसुपंडगविवज्जिएसु जं ठाणं । फलगादीण य गहणं तह भणियं एसणिज्जाणं ॥१॥' [ . ] गता विविक्तचर्या, उक्ता संलीनता । बज्झो तवो होही इति एतदनशनादि बाह्यं तपो भवति, लौकिकैरप्यासेव्यमानं ज्ञायत इति कृत्वा बाह्यमित्युच्यते विपरीतग्राहेण वा कुतीर्थिकैरपि क्रियत इतिकृत्वा इति गाथार्थः ॥४७॥ उक्तं बाह्यं तपः, इदानीमाभ्यन्तरमुच्यते । तच्च प्रायश्चित्तादिभेदमिति, आह च- पायच्छित्तं विणओ वेआवच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गोऽवि अ अभिंतरओ तवो होइ ॥४८॥ व्या० तत्र पापं छिनत्तीति पापच्छित्, अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुद्धमस्मिन्निति प्रायश्चित्तमिति, उक्तं च- पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तं ति भण्णए तम्हा । पाएण वावि चित्तं विसोहई तेण पच्छित्तं ॥१॥ तत्पुनरालोचनादि दशधेति, उक्तं च- आलोयणपडिक्कमणे मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे । तवछेअमूलअणवठ्ठया य पारंचिए चेव ॥१॥ [आव० नि० १४३२], भावार्थोऽस्या आवश्यकविशेषविवरणादवसेय इति । उक्तं प्रायश्चित्तम्, साम्प्रतं विनय उच्यते- तत्र विनीयतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनय इति, उक्तं च- विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥१॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥२॥ योगनिरोधाद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥३॥ [प्रशम० ७२-७४] स च ज्ञानादिभेदात् सप्तधा, उक्तं च- णाणे दंसणचरणे मणवइकाओवयारिओ विणओ । णाणे पंचपगारो मइणाणाईण सद्दहणं ॥१॥ भत्ती तह बहुमाणो तद्दिद्रुत्थाण सम्मभावणया । विहिगहणब्भासोवि अ एसो विणओ जिणाभिहिओ ॥२॥ सुस्सूसणा Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अणासायणा य विणओ अ दंसणे दुविहो । दसणगुणाहिएK कजइ सुस्सूसणाविणओ ॥३॥ सक्कारब्भुट्ठाणे सम्माणासण अभिग्गहो तह य । आसणअणुप्पयाणं किइकम्मं अंजलिगहो अ ॥४॥ एतस्सणुगच्छणया ठिअस्स तह पजुवासणा भणिया । गच्छंताणुव्वयणं एसो सुस्सूसणाविणओ ॥५॥ [ ] इत्थ य सक्कारो-थुणणवंदणादि, अब्भुट्ठाणं जओ दीसइ तओ चेव कायव्वं, संमाणो वत्थपत्तादीहिं पूअणं, आसणाभिग्गहो पुण-अच्छंतस्सेवायरेणासणाणयणपुव्वगं उवविसह एत्थ त्ति भणणं ति, आसणअणुप्पदाणं तु ठाणाओ ठाणं संचारणं, किइकम्मादओ पगडत्था । अणासायणाविणओ पुण पण्णरसविहो, तंजहा- तित्थगर धम्म आयरिअ वायगे थेर कुलगणे संघे । संभोइय किरियाए मइणाणाईण य तहेव ॥१॥ [ ] एत्थ भावणा-तित्थगराणमणासायणाए तित्थगरपन्नत्तस्स धम्मस्स अणासायणाए । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् । कायव्वा पुण भत्ती बहुमाणो तह य वणवाओ अ । अरिहंतमाइयाणं केवलणाणावसाणाणं ॥१॥ [ ] उक्तो दर्शनविनयः, साम्प्रतं चारित्रविनयःसामाइयाइचरणस्स सद्दहाणं तहेव काएणं । संफासणं परूवणमह पुरओ भव्वसत्ताणं ॥१॥ मणवइकाइयविणओ आयरियाईण सव्वकालंपि । अकुसलमणोनिरोहो कुसलाण उदीरणं तहय ॥२॥ [ ] इदानीमौपचारिकविनयः, स च सप्तधा, -अब्भासऽच्छणछंदाणुवत्तणं कयपडिक्किई तहय । कारियणिमित्तकरणं दुक्खत्तगवेसणा तहय ॥१॥ तह देसकालजाणण सव्वत्थेसु तहयणुमई भणिया। उवआरिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ॥२॥ तत्थ अब्भासऽच्छणं आएसत्थिणा णिच्चमेव आयरियस्स अब्भासे-अदूरसामत्थे अच्छेअव्वं, छंदोऽणुवत्तियव्वो, कयपडिक्किई णाम पसण्णा आयरिया सुत्तत्थतदुभयाणि दाहिंति ण णाम निज्जरत्ति आहारादिणा जइयव्वं, कारियणिमित्तकरणं सम्ममत्थपदमहेजाविएण विणएण विसेसेण वट्टिअव्वं, तयट्ठाणुट्ठाणं च कायव्वं, सेस भेदा पसिद्धा। उक्तो विनयः, इदानीं वैयावृत्यम्- तत्र व्यापृतभावो वैयावृत्यमिति, उक्तं च- वेआवच्चं वावडभावो इह धम्मसाहणणिमित्तं । अण्णादियाण विहिणा संपायणमेस भावत्थो ॥१॥ आयरिअ उवज्झाए थेर तवस्सी गिलाणसेहाणं । साहम्मियकुलगणसंघसंगयं तमिह कायव्वं ॥२॥ [ ] तत्थ आयरिओ पंचविहो, तंजहा- पव्वावणायरिओ दिसायरिओ सुत्तस्स उद्देसणायरिओ सुत्तस्स समुद्देस्सणायरिओ वायणायरिओ त्ति, उवज्झाओ पसिद्धो चेव, थेरो नाम जो गच्छस्स संठितिं करेइ, जाइसुअपरियायाइसु वा थेरो, तवस्सी नाम जो उग्गतवचरणरओ, गिलाणो नाम रोगाभिभूओ, सिक्खगो णाम जो अहुणा पव्वइओ, साहम्मिओ णाम एगो पवयणओ ण लिंगओ, एगो लिंगओ ण पवयणओ, एगो लिंगओ वि पवयणओ वि, एगो ण लिंगओ ण पवयणओ, कुलगणसंघा पसिद्धा चेव । इदानी सज्झाओ, सो अ पंचविहो- वायणा पुच्छणा परिअट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा, वायणा नाम सिस्सस्स अज्झावणं, पुच्छणा सुत्तस्स अत्थस्स वा हवइ, परिअट्टणा नाम परिअट्टणं ति वा अब्भसणं ति वा गुणणं ति एगट्ठा,अणुप्पेहा नाम जो मणसा परिअट्टेइ णो वायाए, धम्मकहा णाम जो अहिंसाइलक्खणं सव्वण्णुपणीअं धम्म अणुओगं वा कहेइ, एसा धम्मकहा । गतः स्वाध्यायः, इदानीं ध्यानमुच्यते Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि तत्पुनरार्तादिभेदाच्चतुर्विधम्, तद्यथा- आर्तध्यानं रौद्रध्यानं धर्मध्यानं शुक्लध्यानं चेति, तत्र राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु, स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति मोहाद्, ध्यानं तदातमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥१॥ संछेदनैर्दहनभञ्जनमारणैश्च, बन्धप्रहारदमनैर्विनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पाम्, ध्यानं तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥२॥ सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनागमहेतुचिन्ता । पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यानं तु धर्ममिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥३॥ यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, सङ्कल्पकल्पनविकल्पविकारदोषैः । योगैः सदा त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति ॥४॥ आर्ते तिर्यगितिस्तथा गतिरधो ध्याने तु रौद्रे सदा, धर्मे देवगतिः शुभं बत फलं शुक्ले तु जन्मक्षयः। तस्माद् व्याधिरुगन्तके हितकरे संसारनिर्वाहके, ध्याने शुक्लवरे रजःप्रमथने कुर्यात् प्रयत्नं बुधः ॥५॥ [ ] इति । उक्तं समासतो ध्यानम्, विस्तरतस्तु ध्यानशतकादवसेयमिति । साम्प्रतं व्युत्सर्गः, स च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतश्चतुर्धागणशरीरोपध्याहारभेदात्, भावतश्चित्रः, क्रोधादिपरित्यागरूपत्वात्तस्येति, उक्तं च- दव्वे भावे अ तहा दुहा विसग्गो चउव्विहो दव्वे । गणदेहोवहिभत्ते भावे कोहादिचाओ त्ति ॥१॥ काले गणदेहाणं अतिरित्तासुद्धभत्तपाणाणं । कोहाइयाण सययं कायव्वो होइ चाओ त्ति ॥२॥ [ ], उक्तो व्युत्सर्गः, अन्भिंतरओ तवो होइ त्ति, इदं प्रायश्चित्तादि व्युत्सर्गान्तमनुष्ठानं लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात्तन्त्रान्तरीयैश्च भावतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तर ङ्गत्वाच्चाभ्यन्तरं तपो भवतीति गाथार्थः ॥ शेषपदानां प्रकटार्थत्वात् सूत्रपदस्पर्शिका [नियुक्तिः] नियुक्तिकृता नोक्ता, स्वधिया तु विभागे[न] स्थापनीयेति ॥ अत्राह- धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्यादौ धर्मग्रहणे सति अहिंसा संयमतपोग्रहणमयुक्तम्, तस्याहिंसासंयमतपोरूपत्वाव्यभिचारादिति, उच्यते, न, अहिंसादीनां धर्मकारणत्वाद्धर्मस्य च कार्यत्वात्कार्यकारणयोश्च कथञ्चिद्भेदात्, कथंचिद्भेदश्च तस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वात्, उक्तं च- णत्थि पुढवीविसिट्ठो घडो त्ति जं तेण जुजइ अणण्णो । जं पुण घडु त्ति पुव्वं नासी पुढवीइ तो अन्नो ॥१॥ [विशेषाव० २१०४] इत्यादि, गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन तत्स्वरूपज्ञापनार्थं वाऽहिंसादिग्रहणमदुष्टमित्यलं विस्तरेण ॥४८॥” - दशवै० हारि०॥ “अमुमेवार्थं स्पष्टयन्नाह- कयपच्चक्खाणोवि अ आयरिअगिलाणबालवुड्डाणं । दिजाऽसणाइ संते लाभे कयवीरिआयारो ॥५३७॥ कृतप्रत्याख्यानोऽपि च गृहीतप्रत्याख्यानोऽपि चेत्यर्थ आचार्यग्लानबालवृद्धेभ्यो दद्यादशनादि सति लाभे कृतवीर्याचार इति गाथार्थः ॥५३७॥" - पञ्चवस्तुकटीका । [पृ०५१२] “संविग्गअण्णसंभोइआण दंसिज सड्ढगकुलाणि । अतरंतो वा संभोइआण जह वा समाहीए ॥५३८॥ संविग्नान्यसम्भोगिकानां तु दर्शयेत् श्रावककुलानि, अतरन् वा अशक्नुवन् सम्भोगिकानामपि दर्शयेद् यथासामर्थ्यमिति गाथार्थः ॥५३८|| एत्थ पुण सामायारी-सयं अभुंजंतो साहूणमाणित्ता भत्तपाणं देजा, संतं वीरियं न विगूहियव्वं, अप्पणो संते वीरिए नाणावेयव्वो जहाअज्जो ! अमुकगस्स आणेउं देहि, तम्हा अप्पणओ संते वीरिए आयरियगिलाणबालवुड्ढपाहुणगादीण Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि गच्छस्स वा सन्नायकुलेहिंतो वा असण्णाएहिं वा लद्धिसंपण्णो आणित्ता दिज्जा वा दवाविज्जा वा परिचिएसु वा संवुड्ढीएव[खडीए] वा दवाविज्जा, उवदिसिज्ज वावि संविग्गअण्णसंभोइयाणं जहा एयाणि दाणकुलाणि सड्ढगकुलाणि वा, अतरंतो संभोइयाणवि देसिज्ज, न दोसो, अह पाणगस्स सण्णाभूमिं वा गएणं संखडी सुया दिट्ठा वा होज्जा ताहे साहूणममुगत्थ संखडि त्ति एवमुवइसिज्जा, जहासमाही णाम दाणे उवएसे वा जहा सामत्थं, जइ तरति आणेउं तो देइ अह ण तरइ तो दवावेज वा उवदिसिज्ज वा, जहा जहा साहूणं अप्पणो वा समाही तहा तहा पयत्तियव्वं ति कृतं विस्तरेण ॥ - पञ्चव० टीका ॥ [पं० ५] अन्यत्र त्वयमेवमुक्तः । “खंती य मद्दवज्जव मुत्ती तव संजमे य बोधव्वे। सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जतिधम्मो ॥११/१९॥ व्या० शान्तिः क्रोधनिग्रहः । यतिधर्मो भवतीति योगः । चशब्द उत्तरपदापेक्षया समुच्चयार्थः । मार्दवं मृदुता, मानविवेक इत्यर्थः । आर्जवमृजुता, मायाविवेक इत्यर्थः । मुक्तिर्लोभविवेकः । तपोऽनशनादिकम् । संयमः पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणः । एतानि च मार्दवादिपदानि लुप्तप्रथमैकवचनानि, समाहारद्वन्द्वसमासवन्ति वा द्रष्टव्यानि । बोद्धव्यो ज्ञेयः । तथा सत्यं प्रतीतम् । शौचं भावतो निरुपलेपता, अचौर्यमित्यन्ये। आकिञ्चन्यं च कनकादिरहितता । ब्रह्म च ब्रह्मचर्यम् । चशब्दाः समुच्चयार्थाः । यतिधर्मः साधुधर्मो बोद्धव्यः इति गाथार्थः ॥११/१९॥" - पञ्चाशक० अभय० टीका । उत्तमः क्षमा-मार्दवा-ऽऽर्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागा-ऽऽकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ [तत्त्वार्थ०९।६] विस्तरेण जिज्ञासुभिः अस्य तत्त्वार्थसूत्रस्य श्वेताम्बर-दिगम्बराचार्यविरचिता टीका विलोकनीयाः ॥ "भावाभिग्रहमाह- उक्खित्तमाइचरगा भावजुआ खलु अभिग्गहो हुँति । गाअंतो अ रुअंतो जं देइ निसण्णमाई वा ॥३०३॥ उत्क्षिप्तादिचरा इति उत्क्षिप्ते भाजनात्पिण्डे चरति गच्छति यः स उत्क्षिप्तचर एवं निक्षिप्ते भाजनादाविति भावनीयम्, त एते भावयुक्ताः खल्वभिग्रहा इत्यर्थः। गायन रुदन् वा यद्ददाति निषण्णादिति तद्ग्राहिण इति गाथार्थः ॥३०३॥ अभिग्रहानाह- लेवडमलेवडं वा अमुगं दव्वं व अज घिच्छामि । अमुगेण व दव्वेणं अह दव्वाभिग्गहो चेव ॥२९८॥ लेपवत् जगार्यादि तन्मिश्रं वा अलेपवद्वा तद्विपरीतम् अमुकं द्रव्यं वा मण्डकादि अद्य ग्रहीष्यामि, अमुकेन वा द्रव्येण दीकुन्तादिना अथ अयं द्रव्याभिग्रहो नाम साध्वाचरणविशेष इति गाथार्थः ॥२९८॥ - पञ्चवस्तुकटीका । [पृ०५१४] “अत्र भाष्यकारो विषमपदानि व्याख्यानयति- उद्धट्ठाणं ठाणाइयं तु पडिमाउ होंति मासाई । पंचेव णिसिज्जाओ, तासि विभासा उ कायव्वा ॥५९५३॥ स्थानायतं नाम ऊर्ध्वस्थानरूपमायतं स्थानं तद् यस्यामस्ति सा स्थानायतिका । केचित्तु ठाणाइयाए इति पठन्ति, तत्रायमर्थः- सर्वेषां निषदनादीनां स्थानानाम् आदिभूतमूर्द्धस्थानम्, अतः स्थानानामादौ गच्छतीति Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि व्युत्पत्त्या स्थानादिगं तद् उच्यते, तद्योगाद् आर्यिकाऽपि स्थानादिगेति व्यपदिश्यते । प्रतिमाः मासिक्यादिकाः तासु तिष्ठतीति प्रतिमास्थायिनी । नेसज्जियाय त्ति निषद्याः पञ्चैव भवन्ति तासां विभाषा कर्तव्या । सा चेयम्- निषद्या नाम-उपवेशनविशेषाः, ताः पञ्चविधाः, तद्यथा- समपादयुता गोनिषधिका हस्तिशुण्डिका पर्यङ्काऽर्धपर्यङ्का चेति । तत्र यस्यां समौ पादौ पुतौ च स्पृशतः सा समपादयुता, यस्यां तु गौ(गो?)रिवोपवेशनं सा गोनिषद्यिका, यत्र पुताभ्यामुपविश्यैकं पादमुत्पाटयति सा हस्तिशुण्डिका, पर्यङ्का प्रतीता, अर्धपर्यङ्का यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति । एवंविधया निषद्यया चरतीति नैषद्यिकी । उत्कटिकासनं तु सुगमत्वाद् भाष्यकृता न व्याख्यातम् ॥५९५३।।। वीरासणं तु सीहासणे व जह मुक्कजण्णुक णिविट्ठो । दंडे लगंड उवमा, आयत खुजाय दुण्हं पि ॥५९५४॥ वीरासनं नाम यथा सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद आस्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सिंहासन इव निविष्टो मुक्तजानुक इव निरालम्बनेऽपि यद् आस्ते । दुष्करं चैतद्, अत एव वीरस्य साहसिकस्यासनं वीरासनमित्युच्यते, तद् अस्या अस्तीति वीरासनिका। तथा दण्डासनिका लगण्डशायिकापदद्वये यथाक्रमं दण्डस्य लगण्डस्य चायतकुब्जताभ्यामुपमा कर्तव्या। तद्यथादण्डस्येवायतं पादप्रसारणेन दीर्घ यद् आसनं तद् दण्डासनम्, तद् अस्या अस्तीति दण्डासनिका। लगण्डं किल दुःसंस्थितं काष्ठम्, तद्वत् कुब्जतया मस्तकपार्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यर्थः, या तथाविधाभिग्रहविशेषेण शेते सा लगण्डशायिनी । अवाङ्मुखादीनि तु पदानि सुगमत्वाद् न व्याख्यातानीति द्रष्टव्यम् । एते सर्वेऽप्यभिग्रहविशेषाः संयतीनां प्रतिषिद्धाः ॥५९५४॥ अथ भाष्यम्- आयावणा य तिविहा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा य । उक्कोसा उ णिवण्णा, णिसण्ण मज्झा ठिय जहण्णा ॥५९४५॥ आतापना त्रिविधा- उत्कृष्टा मध्यमा जघन्या च । तत्रोत्कृष्टा निपन्ना, निपन्नः शयितो यां करोतीत्यर्थः । मध्यमा निषण्णस्य। जघन्या ठिय त्ति ऊर्ध्वस्थितस्य ।।५९४५॥ पुनरेकैका त्रिविधा- तिविहा होइ निवण्णा, ओमत्थिय पास तइयमुत्ताणा । उक्कोसुक्कोसा उक्कोसमज्झिमा उक्कोसगजहण्णा ॥५९४६॥ या निपन्नस्योत्कृष्टातापना सा त्रिविधा भवतिउत्कृष्टोत्कृष्टा उत्कृष्टमध्यमा उत्कृष्टजघन्या च । तत्र यद् अवाङ्मुखं निपत्य आतापना क्रियते सा उत्कृष्टोत्कृष्टा। या तु पार्श्वतः शयानैः क्रियते सा उत्कृष्टमध्यमा । या पुनरुत्तानशयनेन विधीयते सा तृतीया उत्कृष्टजघन्या ॥५९४६॥" - बृहत्कल्पटीका । [पृ०५१८] "कालक्कमेण पत्तं संवच्छरमाइणा उ जं जम्मि । तं तम्मि चेव धीरो वाएजा सो अ कालोऽयं ॥५८१॥ कालक्रमेण प्राप्तमौचित्येन संवत्सरादिना तु यद् आचारादि यस्मिंस्तत्तस्मिन्नेव संवत्सरादौ धीरो वाचयेद्, न विपर्ययं कुर्यात्, स च कालोऽयं वक्ष्यमाण इति गाथार्थः ॥५८१॥ तिवरिसपरिआगस्स उ आचारपकप्पणाममज्झयणं । चउवरिसस्स उसम्म सअगड़ना अंगं ति ॥५८२॥ दसकप्पव्ववहारा संवच्छरपणगदिक्खिअस्सेव । ठाणं समवाओ त्ति अ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अंगेए अट्ठवासस्स ॥५८३॥ दसवासस्स विआहो एक्कारसवासयस्स य इमे उ। खुड्डियविमाणमाई अज्झयणा पंच नायव्वा ॥५८४॥ बारसवासस्स तहा अरुणुववायाइ पंच अज्झयणा । तेरसवासस्स तहा उट्ठाणसुआइआ चउरो ॥५८५॥ चोद्दसवासस्स तहा आसीविसभावणं जिणा बिंति। पन्नरसवासगस्स य दिट्ठीविसभावणं तहय ॥५८६॥ सोलसवासाईसु अ एगुत्तरवढिएसु जहसंखं । चारणभावण महसुविणभावणा तेअगनिसग्गा ॥५८७।। एगूणवीसगस्स उ दिट्ठीवाओ दुवालसमसंगं । संपुण्णवीसवरिओ अणुवाई सव्वसुत्तस्स ॥५८८॥ त्रिवर्षपर्यायस्यैव नारत आचारप्रकल्पनाम- निशीथाभिधानम् अध्ययनं वाच्यत इति क्रिया योजनीया, चतुर्वर्षस्य तु सम्यग् अस्खलितस्य सूत्रकृतं नाम अङ्गं द्वितीयमिति गाथार्थः ॥५८२॥ दशाकल्पव्यवहारास्त्रयोऽपि पञ्चसंवत्सरदीक्षितस्यैव, स्थानं समवाय इति च अङ्गे एते द्वे अप्यष्टवर्षस्येति गाथार्थः ॥५८३॥ दशवर्षस्य ‘व्याख्ये'ति व्याख्याप्रज्ञप्तिर्भगवती, एकादशवार्षिकस्य चामूनीति हृदयस्थनिर्देश: क्षुल्लिकाविमानादीन्यध्ययनानि कालयोग्यतामङ्गीकृत्य पञ्च ज्ञातव्यानि, तद्यथा- 'खुड्डिया विभाणपविभत्ती [महल्लिया विमाणपविभत्ती] अंगचूलिया वग्गचूलिया वियाहचूलिय'त्ति गाथार्थः ॥५८४॥ द्वादशावार्षिकस्य 'तथा' कालपर्यायेण अरुणोपपातादीनि पञ्चाध्ययनानि, तद्यथा-अरुणोववाए वरुणोववाए गरुलोववाए वेलंधरोववाए वेसमणोववाए', त्रयोदशवार्षिकस्य तथोत्थानश्रुतादीनि चत्वारि, तद्यथा- ‘उट्ठाणसुयं समुट्ठाणसुयं देविंदोववाओ णागपारियावणियाओ'त्ति गाथार्थः ॥५८५।। चतुर्दशवर्षस्य तथा' पर्यायेण आशीविषावनां जिना ब्रुवते, नारतः, पञ्चदशवर्षस्य तु पर्यायेणैव दृष्टिविषभावनां तथैव ब्रुवत इति गाथार्थः ॥५८६॥ षोडशवर्षादिषु च पर्यायेष्वेकोत्तरवर्द्धितेषु यथासङ्ख्यं यथाक्रमं चारणभावनामहास्वपनभावना तेजोनिसर्ग इत्येतानि त्रीणि भवन्तीति गाथार्थः ॥५८७॥ एकोनविंशतिकस्य तु पर्यायेण दृष्टिवादो द्वादशमङ्गमत एव शेषलाभो ज्ञेय इति, सम्पूर्णविंशतिवर्षपर्यायेणानुपाती योग्यः सर्वस्य सूत्रस्य बिन्दुसारादेरिति गाथार्थः ॥५८८॥" - पञ्चव० टीका । [पृ०५२३] "तम्मिमं च आजीवणं- जाती-कुल-गण-कम्मे, सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा। सूयाए असूयाए व, अप्पाण कहेज(ति) एक्केक्को ॥४४११॥" - निशीथ० चूर्णिः। अस्या गाथाया विस्तरेण व्याख्यानम् ॥४४१२-४४१६॥ निशीथभाष्यगाथासु तच्चूर्णौ च वर्तते। जिज्ञासुभिः तत्रैव द्रष्टव्यम् । [पृ० ५२७ पं० ८] “पञ्च हेत्वयं हीयते गम्यते ज्ञायते अवबुध्यते अनेनेति हेतुः । स च समासः ज्ञापकः कारकश्च । सवितृप्रदीपमण्युल्क-शब्द-धूमादिज्ञापकः कारको बीजपिण्डादि, स एवाधुना परिच्छिद्यमानः कर्म भवति । सम्यग् दृष्टिणा द्विविधोऽपि जिनवचनपुरस्कृत्य हेत्वर्थानुसारिणा द्रव्य-पर्यायतद्विकल्पप्रपञ्चितः । सामान्यपुरुषोः भाषामात्रज्ञानातीतो ज्ञायते हेतुं जाणति तमेव पश्यति तमेवावबुध्यते । यथावस्थितमाभिमुखीभावेन प्राप्नोति गच्छति । तद्धेतुमान् हेतुः । छद्मन् कर्म तत्रस्थित: छद्मस्थः । मर्त्यस्य मरणं छद्मस्थमरणं तद्धितं म्रियते । छद्मस्थः मरणं म्रियते । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि मतिज्ञानादिचतुष्टयहेतुस्थितं छद्मस्थ इति यावत् । तेन वा हेतुना धूम - पीडादिलक्षणेन अग्निघटादिमवबुद्ध्यते । करणभूतेन पञ्चापि । स एवं पंचहेत्वयं मिथ्यादृष्टिहेतुं द्विविधमपि न जानाति । मत्यज्ञानं श्रुताज्ञान-विभंगम् । यथाऽयथार्थाऽगमकत्वात् । उन्मत्तमनुजवत् । सोह्यहेतु अज्ञानमरणं म्रियते । तथा तेनैव हेयार्थाप्रपिपत्तेः सदसदुन्मत्तनगवत् । एवंविधोऽज्ञानमरणं म्रियते । भिद्यज्ञानावरणीयं केवलेनाधिकृत्य ज्ञानाविभूतिरुच्यते । पञ्च हेत्वयं सो हि धूमादिकमर्थसम्बन्धकालप्रापणत्वाद्यवशेषिकं साक्षाद्वर्तमानविधि-नियमोभयात्मकं पश्यति । तथा हेयमत्यर्थमग्न्यादिकं साक्षात् । तथा परिणतद्रव्यपर्यायात्मकम् । धूमादिलिङ्गादिक्रमेण गृण्हात्यहेतुकम् । य एवंविधः स केवलिमरणं म्रियते । एष एव कैवल्यं हेत्वर्थसम्यग्मिथ्यादृष्टिसामान्यछद्मस्थतामधिकृत्य निषिध्यमानो ज्ञानभागमयति । यथा केवलिना हेतुनिमित्तो हेतुरप्यवबुद्ध्यते न तथा तस्यामहेतुहेतुं जानीते पाटुत्वादि विशेषितमवबुध्यत इति यावत्, तेऽग्न्यादिकं मषिनैव अहेतुकं जानीते, सहेतुकमेवेति यावत् । स चैवंविधज्ञानमरणं म्रियते । सर्वज्ञवादादयस्याकेवलज्ञानमिथ्यादृष्टिर्ज्ञानादयोज्ञेन प्रसाधिता द्रष्टव्या । पञ्चमे सप्तमो || || " भंगवतीचूर्णिः ॥ [पृ०५३२] “अथ भाष्यकारः कानिचिद् विषमपदानि विवृणोति- इमाउ त्ति सुत्तउत्ता, उद्दिट्ठ नदीउ गणिय पंचेव । गंगादि वंजिताओ, बहुओदग महण्णवातो तू ।। ५६९९ ।। इमा इति प्रत्यक्षवाचिना सर्वनाम्ना सूत्रोक्ता उच्यन्ते । उद्दिष्टा नद्य इति । गणिताः पञ्चेति । व्यञ्जिता गङ्गादिभिः पदैर्व्यक्तीकृताः । यास्तु बहूदकास्ता महार्णवा उच्यन्ते ॥ ५६१९ ॥ कृता विषमपदव्याख्या भाष्यकृता । अथ नियुक्तिविस्तरः- पंचन्हं गहणेणं, सेसा विउ सूइया महासलिला । तत्थ पुरा विहरिंसु य, ण य तातो कयाइ सुक्खंति ।। ५६२० ।। पञ्चानां गङ्गादीनां ग्रहणेन शेषा अपि याः महासलिला: बहूदका अविच्छेदवाहिन्यस्ताः सूचिता मन्तव्याः । स्याद् बुद्धिः- किमर्थं गङ्गादीनां ग्रहणम् ? इत्याह- तत्थ इत्यादि, येषु विषयेषु गङ्गादयः पञ्च महानद्यो वहन्ति तेषु पुरा साधवो विहृतवन्तो न च ताः कदाचनापि शुष्यन्ति अतस्तासां ग्रहणम् ॥५६२०॥ ओहार-मगरादीया, घोरा तत्थ उ सावया । सरीरोवहिमादीया, णावातेणा य कत्थई ॥५६३३|| ओहार-मकरादयः तत्र नद्यां घोराः श्वापदा भवन्ति । ओहारः मत्स्यविशेषः, स किल नावमधस्तले जलस्य नयति । शरीरहरा उपधिहरा वा आदिशब्दादुभयहरा वा नौस्तेनाः कुत्रापि भवेयुः, एतैरात्मन उपधेर्वा विनाशे तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ||५६३३||” बृहत्कल्पटीका । [पृ०५३३] “अपरस्त्वाह- आलम्बनात्को विशेष उपजायते ? येन विशुद्धचरणा भवन्तीति, अत्र दृष्टान्तमाह- सालंबणो पडतो अप्पाणं दुग्गमेवि धारेइ । इय सालंबणसेवा धारेइ जई १. भगवतीचूर्णिः अत्यन्तमशुद्धा उपलभ्यते, 'लालभाई-दलपतभाई- भारतीय संस्कृति - विद्यामन्दिर- अहमदाबाद' इत्यतः सम्प्रति प्रकाशितायां यादृशः पाठो वर्तते तादृशोऽत्र उपन्यस्त इति ध्येयम् ॥ ८९ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि असढभावं ॥११७२॥ व्या० इहालम्बनं द्विविधं भवति- द्रव्यालम्बनं भावालम्बनं च, द्रव्यालम्बनं गर्तादौ प्रपतता यदालम्ब्यते द्रव्यम्, तदपि द्विविधम्- पुष्टमपुष्टं च, तत्रापुष्टं दुर्बलं कुशवच्चकादि, पुष्टं तु बलवत्कठिनवल्ल्यादि, भावालम्बनमपि पुष्टापुष्टभेदेन द्विधैव, तत्रापुष्टं ज्ञानाद्यपकारकम्, तद्विपरीतं तु पुष्टमिति, तच्चेदम्- ‘काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं व णीईइ व हु सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मुक्खं ॥१॥' [ ] तदेवं व्यवस्थिते सति सहालम्बनेन वर्तत इति सालम्बनः, असौ पतन्नपि आत्मानं दुर्गमेऽपि गर्तादौ धारयति, पुष्टालम्बनप्रभावादिति, इय एवं सेवन सेवा प्रतिसेवनेत्यर्थः, सालम्बना चासौ सेवा च सालम्बनसेवा सा संसारगर्ने प्रपतन्तं धारयति यतिमशठभावंमातृस्थानरहितमित्येष गुण इति गाथार्थः ॥११७२॥ साम्प्रतं सिसाधयिषितार्थव्यतिरेकं दर्शयन्नाह- आलंबणहीणो पुण निवडइ खलिओ अहे दुरुत्तारे । इय निक्कारणसेवी पडइ भवोहे अगाहम्मि ॥११७३॥ व्या० आलम्बनहीनः पुनर्निपतति स्खलितः, क्व ?- अहे दुरुत्तारे त्ति गर्तायां दुरुत्तारायाम्, इय एवं निष्कारणसेवी साधुः पुष्टालम्बनरहित इत्यर्थः, पतति भवौघे अगाधे पतति भवगर्तायामगाधायाम्, अगाधत्वं पुनरस्या दुःखेनोत्तारणसम्भवादिति गाथार्थः ॥११७३॥" - आव० नि० हारि० ॥ ___“एत्थ उ अणभिग्गहियं, वीसति राई सवीसतिं मासं । तेणपरमभिग्गहियं, गिहिणातं कत्तिओ जाव ॥३१५१॥ एत्थ त्ति एत्थ आसाढपुण्णिमाए सावणबहुलपंचमीए वासपज्जोसविए वि अप्पणो अणभिग्गहियं । अहवा- जति गिहत्था पुच्छंति- ‘अज्जो तुब्भे एत्थ वरिसाकालं ठिया अह ण ठिया ?', एवं पुच्छिएहिं अणभिग्गहियं ति संदिग्धं वक्तव्यम्, इह अन्यत्र वा, अद्यापि निश्चयो न भवतीत्यर्थः । एवं संदिग्धं कियत्कालं वक्तव्यम् ? उच्यते- वीसतिरायं, सवीसतिरायं मासं । जति अभिवड्डियवरिसं तो वीसतिरातं जाव अणभिग्गहियं । अह चंदवरिसं तो सवीसतिरायं मासं जाव अणभिग्गहियं भवति । तेणं ति तत्कालात् परतः अप्पणो, अभिरामुख्येन गृहीतम् अभिगृहीतम्, इह व्यवस्थितिः इति, गिहीण य पुच्छंताण कहेंति'इह ठितामो वरिसाकालं' ति ॥३१५१।। __ किं पुण कारणं वीसतिराते सवीसतिराते वा मासे वागते अप्पणो अभिग्गहियं गिहिणातं वा कहेति, आरतो ण कहेंति ? उच्यते- असिवाइकारणेहिं, अहव न वासं न सुट्ठ आरद्धं । अहिवडियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसतीमासो ॥३१५२॥ कयाइ असिवं भवे, आदिग्गहणातो रायदुट्ठाइ,वासावासं ण सु१ आरद्धं वासितुं, एवमादीहिं कारणेहिं जइ अच्छंति तो आणातिता दोसा । अह गच्छति तो गिहत्था भणंति- एते सव्वण्णुपुत्तगा ण किं चि जाणंति, मुसावायं च भासंति 'ठितामो' त्ति भणित्ता जेण णिग्गता, लोगो वा भणेज- साहू एत्थं वरिसारत्तं ठिता अवस्सं वासं भविस्सति, ततो धण्णं विक्किणंति, लोगो घरातीणि छादेति हलादिकम्माणि वा संठवेति । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अभिग्गहिते गिहिणाते य आरतो कए जम्हा एवमादिया अधिकरणदोसा तम्हा अभिवड्डियवरिसे वीसतिराते गते गिहिणातं करेंति, तिसु चंदवरिसेसु सवीसतिराते मासे गते गिहिणातं करेंति । जत्थ अधिकमासो पडति वरिसे तं अभिवड्ढियवरिसं भण्णति । जत्थ ण पडति तं चंदवरिसं। सो य अधिमासगो जुगस्स अंते मज्झे वा भवति । जति अंते तो णियमा दो आसाढा भवंति। अह मज्झे तो दो पोसा ।। सीसो पुच्छति- ‘कम्हा अभिवड्डियवरिसे वीसतिरातं, चंदवरिसे सवीसतिमासो ?' । उच्यते- जम्हा अभिवड्डियवरिसे गिम्हे चेव सो मासो अतिक्कतो तम्हा वीसदिणा अणभिग्गहियं तं कीरति, इयरेसु तीसु चंदवरिसेसु सवीसतिमासा इत्यर्थः ॥३१५२॥” “इमा संजमविराहणा- छक्कायाण विराहण, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु । वुज्झण अभिहण-रुक्खोल्ल-सावते तेण उवचरते ॥३१२५॥ छक्कायाण विराहण त्ति अस्य व्याख्याअक्खुण्णेसु पहेसू, पुढवी उदगं च होति दुविधं तु । उल्लपयावण अगणी, इहरा पणओ हरित कुंथू ॥३१२६॥ अक्षुण्णा अमर्दिताः पंथानः तेसु विहरंतो पुढवीकायं विराहेति,उदगं च दुविधं- वासुदगं भोमुदगं च विराहेति, उल्लुवहिं जइ अगणीए पयावेति तो अगणिविराहणा, यत्राग्निस्तत्र वायोः सम्भवः, अपयावेंतस्स आयविराहणा। इहरा अपयावेतस्स वा उल्ली समुच्छति तं विराहेति, हरियं च, एवं वणस्सतिविराहणासंभवो, कुंथुमादिया य बहू तसा पाणा विराहेति । एसा संजमविराहणा भणिता ।। ___ इमा आयविराहणा- वरिसे उल्लणभया रुक्खस्स अहो ठायति, सीरेण आवडइ वडसालमाइएसु, विसमे वा पडइ, पाएण वा खाणुए अप्फडइ, कंटगेसु वा विज्झति, उदगवाहेण वा वुज्झइ, तडिभित्तरुक्ख-विजुमाइएसु अभिहण्णइ, उलंतो वा रुक्खमुवल्लिअंतो सावतेण खज्जति, उल्लुवहिणा वा अजीरंते आयविराहणा । अवहंतेसु वा पंथेसु तेणगा दुविहा भवंति अकाले वा विहरंतो उवचरगो त्ति काउं घिप्पइ ॥३१२६॥” - निशीथ० चूर्णिः । _[पृ०५३४] “आबाहे व भये वा, दुब्भिक्खे वाऽहवा दओहंसि । पव्वहणे व परेहिं, पंचहिँ ठाणेहिँ रीइजा ॥२७३९॥ आबाधं नाम-मानसी पीडा, भयं स्तेनादिसमुत्थम्, दुर्भिक्षं प्रतीतम्, एतेषु समुत्पन्नेषु, अथवा दकौघे पानीयप्रवाहेण प्रतिश्रये ग्रामे वा व्यूढे सति, परैर्वा प्रत्यनीकैर्दण्डिकादिभिः प्रव्यथने परिभवे ताडने वा विधीयमाने, एतेषु पञ्चसु स्थानेषु प्रावृष्यपि रीयेत ॥२९३९॥ ___ इय सत्तरी जहण्णा, असिती णउई दसुत्तर सयं च । जति वासति मग्गसिरे, दस राया तिण्णि उक्कोसा ॥४२८५॥ इतिः' उपप्रदर्शने । ये किल आषाढपूर्णिमायाः सविंशतिरात्रे मासे गते पर्युषणयन्ति तेषां सप्ततिदिवसानि जघन्यो वर्षावासावग्रहो भवति, भाद्रपदशुद्धपञ्चम्या अनन्तरं कार्तिकपूर्णिमायां सप्ततिदिनसद्भावात् । एवं ये भाद्रपदबहुलदशम्यां पर्युषणयन्ति तेषामशीतिर्दिवसा Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि मध्यमो वर्षाकालावग्रहः, श्रावणपूर्णिमायां नवतिर्दिवसाः, (श्रावणशुद्धपञ्चम्यां दिवसशतम्, ) श्रावणबहुलदशम्यां दशोत्तरं दिवसशतं मध्यम एव वर्षाकालावग्रहो भवति । शेषान्तरेषु दिवसपरिमाणं गाथायामनुक्तमपि इत्थं वक्तव्यम् - भाद्रपदामावास्यां पर्युषणे क्रियमाणे पञ्चसप्ततिर्दिवसाः, भाद्रपदबहुलपञ्चम्यां पञ्चाशीतिः, श्रावणशुद्धदशम्यां पञ्चनवतिः, श्रावणामावास्यां पञ्चोत्तरं शतम् श्रावणबहुलपञ्चम्यां पञ्चदशोत्तरं शतम्, आषाढपूर्णिमायां तु पर्युषिते विंशत्युंत्तरं दिवसशतं भवति । एवमेतेषां प्रकाराणामन्यतरेण वर्षावासमेकक्षेत्रे स्थित्वा कार्त्तिकचातुर्मासिकप्रतिपदि निर्गन्तव्यम् । अथ मार्गशीर्षे गाढं वर्षं वर्षति कर्दमजलाकुलाश्च पन्थानः ततोऽपवादेनैकं दशरात्रमवतिष्ठन्ते, अथ तथापि वर्षं नोपरमते ततो द्वितीयं दशरात्रं तत्रासते, अथैवमपि वर्षं न तिष्ठति ततस्तृतीयमपि दशरात्रमासते, एवं त्रीणि दशरात्राण्युत्कर्षतस्तत्र क्षेत्रे आसितव्यम्, मार्गशिरः पौर्णमासीं यावदित्यर्थः । तत यद्यपि कर्दमाकुलाः पन्थानः, वर्षं चागाढमनुपरतं वर्षति, यद्यपि च पानीये प्लवमानैस्तदानीं गम्यते तथाप्यवश्यं निर्गन्तव्यम् । एवं पाञ्चमासिको ज्येष्ठकल्पावग्रहः सम्पन्नः ॥४२८५ ॥ काऊण मासकप्पं, तत्थेव ठिताणऽतीते मग्गसिरे । सालंबणाय छम्मासिओ उ जेट्ठोग्गहो होति ॥४२८६ ॥ यस्मिन् क्षेत्रे आषाढमासकल्पः कृतस्तद् वर्षावासयोग्यम् अन्यञ्च तथाविधं क्षेत्र नास्ति ततो मासकल्पं कृत्वा तत्रैव वर्षावासं स्थितानां ततश्चतुर्मासानन्तरं कर्दम-वर्षादिभिः कारणैरतीते मार्गशीर्षमासे निर्गच्छतां सालम्बनानाम् एवं विधालम्बनसहितानां षाण्मासिको ज्येष्ठावग्रहो भवति, एकक्षेत्रेऽवस्थानमित्यर्थः ॥४२८६॥” बृहत्कल्पटीका० । “इयाणिं पंचगपरिहाणिमधिकृत्य कालावग्रहोच्यते - इय सत्तरी जहण्णा, असति नउती दसुत्तरयं च । जति वासति मग्गसिरे, दसरायं तिन्नि उक्कोसा ।। ३१५४ ।। पण्णासा पाडिज्जति, चउण्ह मासाण मज्झओ । ततो उ सत्तरी होइ, जहण्णो वासुवग्गहो || ३१५५ ।। इय उपप्रदर्शने, जे आसाढचाउम्मासियातो सवीसतिमासे गते पज्जोसवेंति तेसिं सत्तरि दिवसा जहण्णो वासका लोग्गहो भवति । ९२ - कहं सत्तरी ? उच्यते- चउन्हं मासाणं वीसुत्तरं दिवससयं भवति- सवीसतिमासो पण्णासं दिवसा, ते वीसुत्तरसयमज्झाओ सोहिया, सेसा सत्तरी । जे भद्दवयबहुलदसमीए पज्जोसवेंति तेसि असीतिदिवसा मज्झिमो वासकालोग्गहो भवति । जे सावणपुण्णिमाए पज्जोसविंति तेसिं णउतिं चेव दिवसा मज्झिमो चेव वासकालोग्गहो भवति । जे सावणबहुलदसमीए पज्जोसवेंति सिं दसुत्तरं दिवससयं मज्झिमो चेव वासकालोग्गहो भवति । जे आसाढपुण्णिमाए पज्जोसविंति तेसिं वीसुत्तरं दिवससयं जेट्ठो वासुग्गहो भवति । सेसंतरेसु दिवसपमाणं वत्तव्वं । एवमादिपगारेहिं वरिसारत्तं एगखेत्ते अच्छित्ता कत्तियचाउम्मासियपडिवयाए अवस्सं णिग्गंतव्वं । अह मग्गसिरमासे वासति चिक्खल्लजलाउला पंथा तो अववातेण एक्कं उक्कोसेणं तिण्णि वा दस राया जाव तम्मि खेत्ते अच्छंति, मार्गसिरपौर्णमासी यावदित्यर्थः । मग्गसिरपुण्णिमाए जं परतो जति वि सचिक्खल्ला पंथा वासं वा गाढं अणुवरयं वासति जति विप्लवंतेहिं तहावि अवस्सं णिग्गंतव्वं । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ९३ अह ण णिग्गच्छंति तो चउगुरुगा । एवं पंचमासितो जेट्ठोग्गहो जातो ॥३१५४-३१५५।। ____काउण मासकप्पं, तत्थेव ठियाण तीतमग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उ जेट्ठोग्गहो भणितो ॥३१५६॥ जम्मि खेत्ते कतो आसाढमासकप्पो, तं च वासावासपाउगं खेत्तं, अण्णम्मि अलद्धे वासपाउग्गे खेते जत्थ आसाढमासकप्पो कतो तत्थेव वासावासं ठिता, तीसे वासावासे चिक्खल्लाइएहिं कारणेहिं तत्थेव मग्गसिरं ठिता, एवं सालंबणाण कारणे अववातेण छम्मासितो जेट्ठोग्गहो भवतीत्यर्थः ॥३१५६।। __इयाणिं ‘दव्वट्ठवणा', दव्वट्ठवणाहारे, विगती संथार मत्तए लोए । सच्चित्ते अच्चित्ते, वोसिरणं गहणधरणादी ॥३१६६॥ आहारे, विगतीसु, संथारगो, मत्तगो, लोयकरणं, सचित्तो सेहो, डगलादियाण य अचित्ताणं उडुबद्धे गहियाणं वोसिरणं, वासावासपाउग्गाण संथारादियाण गहणं, उडुबद्धे वि गहियाण वत्थपायादीण धरणं डगलगादियाण य कारणेण ॥३१६६॥” - निशीथ० चूर्णिः । [पृ०५३५] “असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलन्ने । नाणादितिगस्सऽट्ठा, वीसुंभण पेसणेणं वा ॥२७४१॥ अशिवेऽवमौदर्ये राजद्विष्टे भये वा ग्लानकारणे वा समुत्पन्ने वर्षासु ग्रामान्तरं गच्छेत्, एतावत् प्रागुक्तमेव द्वितीयपदम् । अथेदमपरमुच्यते- ज्ञानादित्रयस्यार्थायान्यत्र वर्षासु गच्छेत् । तत्रापूर्वः कोऽपि श्रुतस्कन्धोऽन्यस्याचार्यस्य विद्यते, स च भक्तं प्रत्याख्यातुकामो वर्त्तते, स च श्रुतस्कन्धस्तत आचार्यादगृह्यमाणो व्यवच्छिद्यते, अतस्तदध्ययनार्थं वर्षास्वपि गच्छेत् । एवं दर्शनप्रभावकशास्त्राणा-मप्यध्ययनार्थं गच्छेत् । चारित्रार्थं नाम- तत्र क्षेत्रे स्त्रीसमुत्थदोषैरेषणादोषैर्वा चारित्रं न शुद्ध्यतीति तनिमित्तमन्यत्र वर्षासु गच्छेत् । वीसुंभण त्ति विष्कम्भनं मरणम्, तत्र यस्याचार्यस्य ते शिष्याः स आचार्यो मरणधर्ममुपगतः, तस्मिँश्च गच्छेऽपर आचार्यो न विद्यते, अतस्ते वर्षास्वपि अन्यं गणमुपसम्पत्तुं गच्छेयुः । अथवा वीसुंभण त्ति विष्वग्भवनं नाम कश्चिदुत्तमार्थं प्रतिपत्तुकामस्तस्य विशोधिकरणार्थं गच्छेत् । पेसणेणं व त्ति कश्चिदाचार्येणान्यतरस्मिन् औत्पत्तिके कारणे वर्षास्वपि प्रेषितो भवेत्, स च तस्मिन् कारणे समापिते भूयोऽपि गुरूणां समीपे समागच्छेत् ॥२७४१॥" - बृहत्कल्पटीका० । ___“फासुयदव्वे त्ति सीसस्स इमे दोसा दंसिजंति- जति वि य फासुगदव्वं, कुंथूपणगादि तह वि दुप्पस्सा । पच्चक्खणाणिणो वि हू,रातीभत्तं परिहरंति ॥३४११॥ यद्यपि स्वत ओदनादि प्रासुकं द्रव्यं तथाऽप्यागन्तुका कुन्थ्वादयः पनकादयश्च तदुत्था अविसुद्धकाले दुर्दृश्या भवन्ति । किं च येऽपि प्रत्यक्षज्ञानिनो ते विशुद्धं भक्तानपानं पश्यन्ति तथाऽपि रात्रौ न भुञ्जते, मूलगुणभङ्गत्वात् ॥३४११॥ जोण्हामणीदीवुद्दित्तालंबणप्रतिषेधार्थमिदमाह- जति वि य पिवीलगादी, दीसंति पतीवजोतिउज्जोए । तह वि खलु अणाइण्णं, मूलवयविराहणा जेणं ॥३४१२॥ तीर्थकरगणधराचार्यैरनाचीर्णत्वात्, जम्हा छट्ठो मूलगुणो विराहिज्जति तम्हा ण रातो भोत्तव्वं, अहवा- रातीभोयणे Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पाणातिवायादियाणं मूलगुणाणं जेण विराहणा भवति अतो रातीए ण भोत्तव्वं ॥३४१२॥ इमो पुणो अपिंडो- तण-डगल-छार-मल्लग, सेजा-संथार-पीढ-लेवादी । सेज्जातरपिंडेसो, ण होति सेहो व सोवधिउ ॥११५४॥ लेवादी, आदिसद्दातो कुडमुहादी, एसो सव्वो सेजातरपिंडो ण भवति । जति सेजायरस्स पुत्तो धूया वा वत्थपायसहिता पव्वएजा सो सेज्जातरपिंडो ण भवति ॥११५४॥"- निशीथ० चूर्णिः । “तण-डगल-छार-मल्लग-सेज्जा-संथार-पीढ-लेवादी । सेज्जातरपिंडो सो, ण होति सेहो य सोवहिओ ॥३५३५॥ तृण-डगल-क्षार-मल्लक-शय्या-संस्तारक-पीठ-लेपा आदिशब्दात् कुटमुखादिकं च एष शय्यातरपिण्डो न भवति । यदि च शय्यातरस्य पुत्रादिः शैक्षो वस्त्र-पात्रसहित: प्रव्रजितुमुपतिष्ठते तदा स सागारिकपिण्डो न भवति, अतः कल्पते सोपधिरप्यसौ प्रव्राजयितुम् ॥३५३५॥" - बृहत्कल्पटीका० । [पृ०५३६] “दोषानेवाह- तित्थयरप्पडिकुट्ठो अण्णायं उग्गमो वि य ण सुज्झे। अविमुत्ति यऽलाघवया दुल्लहसेज विउच्छेओ ॥१७/१८॥ व्या० तीर्थकरैः प्रतिक्रुष्टो जिनैर्निषिद्धः । शय्यातरपिण्ड इति प्रकृतम् । कस्मादेवमित्याह- अज्ञातस्याविदितस्य राजादिप्रव्रजितत्वेन यद्भेक्ष्यं तदज्ञातमुच्यते। तदेव प्रायः साधुना ग्राह्यम् ‘अन्नाय उंछं चरइ विसुद्धं' [दशवै०९।३।४] इति वचनात् । तच्चासन्ननिवासादतिपरिचयेन ज्ञातस्वरूपशय्यातरगृहे पिण्डं गृह्णतो न शुध्यतीति योगः । तथा उद्गमः कल्पनीयभक्तादिभवनम् । अपिचेति समुच्चये । न शुध्यति न शुद्धो भवति, शय्यातरपिण्डग्रहणे सति । कथम् ? बाहुल्ला गच्छस्स उ पढमालयपाणयाइकजेसु । सज्झायकरण आउट्टियाकरे उग्गमेगयरं ॥१॥ [बृहत्कल्प०३५४३], तथाऽविमुक्तिः सलोभता । तत एव वा शय्यातरकुलस्यामोचनम् । आह च- भावे उक्कोसपणीयगेहिओ तं कुलं न छड्डेइ । पाणाईकजेसु य गओ वि दूरं पुणो एइ ॥१॥ [बृहत्कल्प०३५४५],तथा अविद्यमानं लाघवं लघुता यस्य स तथा तद्भावोऽलाघवता । तत्र विशिष्टाहारलाभेनोपचितत्वाच्छरीरालाघवं शय्यातरात्तत्परिजनाच्चोपधि-लाभादुपधेरनल्पतया तदलाघवमिति । तथा दुर्लभाऽसुलभा शय्या च वसतिः कृता भवति, येन किल शय्या देया तेनाहाराद्यपि देयमित्येवं गृहिणां भयोत्पादनात् । तथा व्यवच्छेदो विनाशः दानभयाच्छय्याया: शय्यातरेण क्रियते, वसत्यभावाद्वा भक्तपानशिष्यादिव्यवच्छेदः स्यादिति ॥१८॥ ___ पडिबंधनिरागरणं केई अणे अगहियगहणस्स । तस्साउंटणमाणं एत्थवरे बेंति भावत्थं ॥१७/१९॥ व्या० प्रतिबन्धनिराकरणं साधुशय्यातरयोर्योऽत्यन्तोपकार्योपकारकभावेन स्नेहस्तन्निरासं केचिदाचार्या भावार्थं ब्रुवन्तीति योगः । अन्ये पुनराचार्याः । अगृहीतग्रहणस्य साधुभिरस्वीकृतभक्तादिदातव्यद्रव्यस्य । तस्य शय्यातरस्य । आकुंटनमावर्जनम् ‘अहो निःस्पृहा एतेऽतो वसत्यादिदानतः पूज्या' इतिभावोत्पादनात् । तथा आज्ञामाप्तोपदेशम् । अत्र शय्यातरपिण्डपरिहारे। अपरेऽन्ये । ब्रुवन्त्याहुः भावार्थं तात्पर्यमिति ॥१७/१९॥" - पञ्चाश० अभय० टीका ॥ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि "जो मुद्धा अभिसित्तो, पंचहि सहिओ पभुंजते रजं । तस्स तु पिंडो वजो, तव्विवरीयम्मि भयणा तु ॥२४९७।। मुद्धं परं प्रधानमाद्यमित्यर्थः, तस्स आदिराइणा अभिसितो मुद्धो मुद्धाभिसित्तो, सेणावइ अमच्च पुरोहिय सेट्टि सत्थवाहसहिओ रज्जं भुंजति । एयस्स पिंडो वजणिज्जो । सेसे भयणा । जति अस्थि दोसो तो वजे, अह णत्थि दोसो तो णो वजे ॥२४९७॥" - निशीथ० चूर्णिः । _[पृ० ५३७] “अंतेउरं च तिविधं, जुण्ण णवं चेव कण्णगाणं च । एक्केक्कं पि य दुविधं, सट्ठाणे चेव परठाणे ॥२५१३॥ रण्णो अंतेपुरं तिविधं- एहसियजोव्वणाओ अपरिभुज्जमाणीओ अच्छंति, एयं जुण्णंतेपुरं । जोव्वणयुत्ता परिभुज्जमाणीओ नवंतेपुरं । अप्पत्तजोव्वणाण रायदुहियाण संगहो कन्नतेपुरं । तं पुण खेत्ततो एक्कक्कं दुविध- सट्टाणे परट्ठाणे य । सट्ठाणत्थं रायघरे चेव, परट्ठाणत्थं वसंतादिसु उजाणियागयं ॥२५१३॥ एतेसामण्णतरं, रण्णो अंतेउरं तु जो पविसे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२५१४॥ __ सद्दाइ इंदियत्थोवओगदोसा ण एसणं सोधे । सिंगारकहाकहणे, एगतरुभए य बहु दोसा ॥२५१८॥ तत्थ गीयादिसद्दोवओगेण इरियं एसणं वा ण सोहेति, तेहिं पुच्छितो सिंगारकहं कहेज, तत्थ य आयपरोभयसमुत्था दोसा ॥२५१८॥ ___ इमे परट्ठाणे- बहिया वि होंति दोसा, केरिसिया कहण-गिण्हणादीया। गव्वो बाउसियत्तं, सिंगाराणं च संभरणं ॥२५१९॥ उज्जाणादिठियासु कोइ साधू कोउगेण गच्छेज, ते चेव पुव्ववण्णिया दोसा, सिंगारकहाकहणे वा गेण्हणादिया दोसा, अंतेपुरे धम्मकहणेण गव्वं गच्छेज्ज, ओरालसरीरो वा गव्वं करेज, अंतेपुरे पवेसे उब्भातितोऽम्हि हत्थपादादिकप्पं करेंते बाउसदोसा भवंति, सिंगारे य सोउं पुव्वरयकीलिते सरेज । अहवा- ताओ दटुं अप्पणो पुव्वसिंगारे संभरेज, पच्छा पडिगमणादि दोसा हवेज ॥२५१९।। बितियपदमणाभोगा, वसहि-परिक्खे सेज-संथारे । हयमाई दुट्ठाणं, आवतमाणाण कज्जे व ॥२५२०॥ अणाभोगेण पविठ्ठो । अहवा- अंतेपुरं परट्ठाणत्थं साधुणा ण णातं- 'एयाओ अंतेपुरिओ' त्ति, पुव्वाभासेण पविठ्ठो अयाणंतो । अहवा- साहू उज्जाणादिसु ठिता, रायतेउरं च सव्वओ समंता आगतो परिवेढिय ठियं, अण्णवसहि- अभावे य तं वसहिं अंतेपुरं मझेण अतिति णिति वा । अहवा- संथारगस्स पच्चप्पणहेउं पविट्ठो । अहवा- सीह-वग्घ-महिसादियाण दुट्ठाण पडिणीयस्स वा भया रायंतेपुरं पविसेज । अण्णतो णत्थि णीसरणोवातो, ‘कजे' त्ति कुल-गणसंघकज्जेसु वा पविसेज्ज, तत्थ देवी दट्ठव्वा, सा रायाणं उपणेति ॥२५२०॥” - निशीथ० चूर्णिः॥ [पृ० ५४०] “एमेव पूइयंमि वि एकंमि वि पूइया जइगुणा उ । थोवं बहूनिवेसं इइ नच्चा पूयए मइमं ॥८३२॥ एवमेकस्मिन् पूजिते पूजिता यतिगुणाः सर्वे भवन्ति, यस्मादेवं A-32 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि तस्मात्स्तोकमेतद् भक्तपानादि बहुनिवेसं बह्वायमित्यर्थः निर्जराहेतुरिति, तस्मादेवं ज्ञात्वा पूजयेत्साधून मतिमानिति, यतश्चेवमत एवमेव कर्त्तव्यम् ।" - ओघनि० द्रोणा० ॥ __ “अथ गोपविषय एव अचियत्तसंखडाई इति व्याख्यानयति- नानिन्विटुं लब्भइ दासीवि न भुजए रिते भत्ता । दोन्नेगयरपओसं जे काही अंतरायं च ॥३७०॥ इह प्रभुणा बलाद् दुग्धादिकमाच्छिद्यमाने कोऽपि गोप एवं ब्रुवाणः सम्भाव्यते, यथा- अनिविष्टम् अनुपार्जितं किमपि न लभ्यते, ततो मया दुग्धमिदं शरीरायासेनार्जितम्, ततस्त्वं कथमत्र प्रभवसि ?, न हि दास्यप्यास्तामुत्तमस्त्र्यादिकमिति भक्तादृते भरण-पोषणं विना भुज्यते भोक्तुं लभ्यते, ततो मदीयं भोजनमिदमिति न प्रभुत्वावकाशः, एवमुक्तो द्वयोरेकतरस्य वा प्रद्वेषः, प्रद्वेषे च यत् करिष्यति धनहरणमारणादिकं तद्दोषतया भाव्यम्, यच्चान्तरायं गोपालस्य तत् कुटुम्बस्य वा तदपि दोषरूपमिति ॥३७०॥” - पिण्डनि० क्षमारत्न० ॥ [पृ० ५४१] “भयणपदाण चउण्हं, अण्णतरजुते उ संजते संते । जे भिक्खू विहरेज्जा, अहवा वि करेज सज्झायं ॥२३४६॥ भयणपदा- चउब्भंगो पुव्वुत्तो ।” - निशीथ० चूर्णिः । [पृ० ५४२] “सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तहा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, एए तु पदे विवजेजा ॥२३४८॥ दिढे संका, भोइगादि, जम्हा एते दोसा तम्हा ण कप्पति विहारादि काउं ॥२३४८॥ __ कारणे पुण करेजा- बितियपदमणप्पज्झे, गेलण्णुसग्ग-रोहगऽद्धाणे । संभम-भय-वासासु य, खंतियमादी य णिक्खमणे ॥२३४९॥ अणप्पज्झो सो सव्वाणि विहारादीणि करेज ॥२३४९॥ __इय संदसण-संभासणेहिं भिन्नकध-विरहजोएहिं । सेज्जातरादिपासण, वोच्छेद दुदिठ्ठधम्म त्ति ॥३७१३॥ इय एवं यत् परस्परं सन्दर्शनं यच्च सम्भाषणम्-‘किमिति त्वमद्य भिक्षां न गता ?' इत्यादिपृच्छारूपं ताभ्याम्, तथा यास्तया सह भिन्नकथाः, यश्च विरहे एकान्ते योगः, एतैश्चारित्रस्य भेद उपजायते । तथा शय्यातर आदिशब्दादन्यो वा यः तत्परिजनादिस्तयोस्तथाविधं चेष्टितं पश्यति स तद्र्व्या -ऽन्यद्रव्ययोर्व्यवच्छेदं कुर्यात् । 'दुर्दृष्टधर्माण एते' इत्येवं विपरिणाममुपगच्छेत् । अथासौ तया सह सम्पत्तिं गच्छति ततो नरकायुर्बध्नाति, तीर्थकृतां सङ्घस्य च महतीमाशातनां विधाय बोधिलाभप्रतिबन्धकं कर्मजालमुपचिनोति । उक्तं च- लिंगेण लिंगिणीए, संपत्तिं जइ निगच्छई मूढो । निरयाउयं निबंधइ, आसायणा अबोही य ॥३७१३॥ ___ चतुर्रा वि भंगेसिमे दोसा- ‘संचरिते वि हु दोसा, किं पुण एगतरणिगिण्णि उभओ वा। दिट्ठमदट्ठव्वं मे, दिट्ठिपयारे भवे खोभो ॥३७८१॥ पढमभंगे उभये वि संचरिते वीसत्थादि आलावातिया य दोसा, किं पुण बितिय-ततिय-उभयणिगिण्णे य, सविसेसा दोसा । संजतो संजती वा चिंतेति- दिढे अदट्ठव्वं मे अंगादाणादि । सागारिए य दिट्ठिपयारेणं चित्तक्खोभो भवति । खुभिओ अणायारपडिसेवणं करेज ॥३७८१।। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि कारणे वसेज्जा- बितियपदमणप्पज्झे, गेलण्णुवसग्गरोहगऽद्धाणे । समणाणं असतीए, समणीपव्वाविते चेव ॥३७७९॥ अणप्पज्झो वसेज्जा, गिलाणं वा पडियरंतो वसेज्जा, उवसग्गे वा जहा सो रायकुमारो संगुत्तो रोहए वा एक्का वसही लद्धा, अद्धाणपडिवण्णो वा संजयाण असती संजतिवसहीए वसेज्जा, अहवा- दो वि वग्गा अद्धाणपडिवन्ना वसेज्जा ।। अधवा- समणाण असतीते समणीहिं भाया पिया वा पव्वाविओ सो वसेज्जा ॥३७७९॥" - निशीथ० चूर्णिः ॥ [पृ० ५४६] “आगमतो ववहारो मुणह जहा धीरपुरिसपन्नत्तो । पच्चक्खो य परोक्खो सो वि य दुविहो मुणेयव्वो ॥१०॥४०२९॥ तत्रागमतो व्यवहारो तथा धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तस्तथा शृणुत स आगमतो व्यवहारो द्विविधो ज्ञातव्यस्तद्यथा- प्रत्यक्षः परोक्षश्च । ___ पच्चक्खो वि य दुविहो इंदियजो चेव नो व इंदियजो । इंदियपच्चक्खो वि य पंचसु विसएसु नेयव्वो ॥१०।४०३०॥ प्रत्यक्षोऽपि द्विविधस्तद्यथा- इन्द्रियजो नोइन्द्रियजश्च । तत्र इन्द्रियजः प्रत्यक्षः पञ्चसु रूपादिषु विषयेषु ज्ञातव्यः ।। नोइंदियपच्चक्खो ववहारो सो समासतो तिविहो । ओहि- मणपजवे या केवलनाणे य पच्चक्खे ॥१०॥४०३१॥ यस्तु नोइन्द्रियजः प्रत्यक्षो व्यवहारः स समासतस्त्रिविधस्तद्यथाअवधिप्रत्यक्षम्, मनःपर्यवप्रत्यक्षम्, केवलज्ञानप्रत्यक्षम् । पच्चक्खागमसरिसो होति परोक्खो वि आगमो जस्स । चंदमुही विव सो वि हु आगमववहारवं होइ ॥१०॥४०३५॥ यद्यपि पूर्वादिकं श्रुतं तथापि यस्यागमश्चतुर्दशपूर्वादिकः परोक्षोऽपि प्रत्यक्षागमसदृशः प्रत्यक्षावध्यादितुल्यरूपो भवति सोप्यागमव्यवहारवान् वक्तव्यो भवति । यथा चन्द्रसदृशमुखी कन्या चन्द्रमुखीति । एतदुक्तं भवति- यद्यपि पूर्वाणि श्रुतं नागमतुल्यानीति तैर्व्यवहरन् आगमव्यवहारवान् उच्यते इति । __पारोक्खं ववहारं आगमतो सुयधरा ववहरति । चोद्दसदसपुव्वधरा नवपुब्वि गंधहत्थी य ॥१०।४०३७॥ ये श्रुतधराश्चतुर्दशपूर्वधरा दशपूर्वधरा नवपूर्विणो वा गन्धहस्तिनो गन्धहस्तिसमानाः ते आगमतः परोक्षं व्यवहारं व्यवहरन्ति । जं जह मोल्लं रयणं तं जाणइ रयणवाणितो निउणो । थोवं तु महल्लस्स वि कासइ अप्पस्स वि बहुं तु ॥१०।४०४३॥ यथा निपुणो रत्नवणिक् यत् रत्नं यथा मूल्यं तत्तथा सम्यक् जानाति। ज्ञात्वा च कस्यचित् महतोऽपि रत्नस्य स्तोकं मूल्यं ददाति, कस्यचिदल्पस्याप्यद्भुतगुणोपेतस्य बह। कप्पस्स य निजुत्तिं ववहारस्स व परमनिऊणस्स । जो अत्थो वियाणइ ववहारी सो अणुण्णातो ॥१०।४४३५॥ कल्पस्य कल्पाध्ययनस्य व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य यो नियुक्तिमर्थतो न जानाति स व्यवहारी नानुज्ञातः । यस्तु कल्पस्य व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य नियुक्तिमर्थतो जानाति स व्यवहारी अनुज्ञातः ।" - व्यवहार० मलय० ॥ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ० ५४७] “तं चेवणुमजंते ववहारविहिं पउंजंति जहुत्तं । एसो सुअववहारी पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं ॥१०।४४३६।। कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद्भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं नियूढं तदेवानुमज्जन् निपुणतरार्थं परिभावनेन तन्मध्ये प्रविशन् व्यवहारविधि यथोक्तं सूत्रमुच्चार्य तस्यार्थं निर्दिशन् यः प्रयुङ्क्ते स श्रुतव्यवहारी धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तः । अपरकम्मो तवस्सी गंतुं जे सोहिकारगसमीवं । आगंतुं न चाएई सो सोहिकारो वि देसा उ ॥१०।४४४०।। स आलोचयितुकामस्तपस्वी शोधिकारकसमीपे गन्तुमपराक्रमः । यस्य समीपे शोधिः कर्तव्या सोऽपि देशादालोचयितुः समीपमागन्तुं न शक्नोति । अह पट्ठवेइ सीसं देसंतरगमणनट्ठचेट्टागो । इच्छामज्जो काउं सोहिं तुब्भं सगासम्मि ॥१०॥४४४१॥ अथानन्तरमालोचयितुकामो देशान्तरगमननष्टचेष्टाक आलोचनाचार्यस्य समीपे शिष्यम् आर्य! युष्माकं सकाशे शोधिं कर्तुमिच्छामीत्येतत्कथयित्वा प्रेषयति । सो ववहारविहण्णू अणुमज्जित्ता सुत्तोवएसेणं । सीसस्स देई आणं तस्स इमं देहि पच्छित्तं ॥१०॥४४८९॥ स आलोचनाचार्यो व्यवहारविधिज्ञः कल्पव्यवहारात्मके च्छेदश्रुते अनुमज्ज्य पौर्वापर्यालोचनेन श्रुततात्पर्यो निषण्णो भूत्वा श्रुतोपदेशेन रागद्वेषतोऽन्यथा तस्य पूर्व प्रेषितस्य स्वशिष्याज्ञां ददाति । यथा गत्वा तस्येदं प्रायश्चित्तं देहि । अहवा जेणण्णइया दिट्ठा सोही परस्स कीरंति । तारिसयं चेव पुणो उप्पण्णं कारणं तस्स ॥१०।४५१५॥ अथवेति प्रकारान्तरे येनाऽन्यदा परस्य शोधिः क्रियमाणा दृष्टा स तत् सर्वं स्मरति। यथा एवंभूतेषु द्रव्यादिष्वेवंभूते कारणे जाते एवंभूतं प्रायश्चित्तं दत्तमिति पुनरन्यदास्य पुरुषस्योपलक्षणमेतदन्यस्य वा तादृशमेव पुनः कारणं समुत्पन्नं ततो यदि तस्मिन्नेव तादृश एवेत्यर्थः । । सो तं पि चेव दव्वे खेत्ते काले य कारणे पुरिसे । तारिसयं चिय भुया, कुव्वं आराहगो होइ ॥१०।४५१७॥ अथ स तस्मिन्नेव द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च कारणे पुरुषे च तादृशं करोति, स तदा आराधको भवति । ___ वेयावच्चकरो वा सीसो वा देसहिंडगो वावि । दुम्मेहत्ता न तरइ आराहेउ बहुं जो उ ॥१०॥४५१८॥ यथाचार्याणां वैयावृत्यकरो यो वा संमतः शिष्यो यस्तु वा देशहिण्डको देशदर्शनं कुर्वतः सहाय आसीत् । स समस्तच्छेदश्रुतार्थं दुर्मेधस्त्वान्नावधारयितुं शक्नोति । बहुसो बहुस्सुएहिं जा वत्तो न य निवारितो होइ । वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कयं भवति एयं ॥१०।४५४२॥ यो व्यवहारो बहुश्रुतैर्बहुशोऽनेकवारं वृत्तः प्रवर्तितो न चान्यैर्बहुभिः श्रुतै- भवति विद्यते निवारितः । एतेन वृत्तानुवृत्तं जीतेन प्रमाणं कृतं भवति । स जीतव्यवहारः प्रमाणीकृत इति भावः । जं जस्स च पच्छितं आयरियपरंपराए अविरुद्धं, जोगाय बहु विगप्पा एसो खलु Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि जीयकप्पो ॥१२॥ यत् प्रायश्चित्तं यस्याचार्यस्य गच्छे आचार्यपरंपरागतत्वेनाविरुद्धम्, न पूर्वपुरुषमर्यादातिक्रमेण विरोधभाक्, यथान्येषामाचार्याणां नमस्कारपौरुष्यादिप्रत्याख्यानस्याकरणे कृतस्य वा भङ्गे प्रायश्चित्तमाचाम्लम्, तथा आवश्यकगतैककायोत्सर्गाकरणे पूर्वार्द्धकायोत्सर्गद्वयाकरणे एकाशनकमित्यादि, तथा ये योगा उपधानानि बहुविकल्पा गच्छभेदेन बहुभेदा आचार्यपरंपरागतत्वेन चाविरुद्धा यथा नागिलकुलवंशवर्तिनां साधूनामाचारादारभ्य यादवनुत्तरोपपातिकदशा: तावन्नास्ति आचाम्लम्, केवलं निर्विकृतिकेन ते पठन्ति आचार्यानुज्ञाताश्च विधिना कायोत्सर्गं कृत्वा विकृती: परिभुञ्जते, तथा कल्पव्यवहारयोः चन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्त्योश्च केचिदागाढं योगं प्रतिपन्ना अपरे त्वनागाढमिति, एस खलु जीयकप्पो उ इति एष सर्वोऽपि खलु गच्छभेदेन प्रायश्चित्तभेदो योगभेदश्चाचार्यपरंपरागतो जीतकल्पो जीतव्यवहारो वेदितव्यः उक्तो व्यवहारः ॥१२॥" - व्यवहार० मलय० पीठिका० ॥ ___ “अथाचीर्णस्यैव लक्षणमाह- असढेण समाइण्णं, जं कत्थइ कारणे असावजं। ण णिवारियमण्णेहिँ य, बहुमणुमयमेतमाइण्णं ॥४४९९॥ व्या० अशठेन राग-द्वेषरहितेन कालिकाचार्यादिवत् प्रमाणस्थेन सता समाचीर्णम् आचरितं यद् भाद्रपदशुद्धचतुर्थीपर्युषणापर्ववत् कुत्रचिद् द्रव्य-क्षेत्र-कालादौ कारणे पुष्टालम्बने असावद्यं प्रकृत्या मूलोत्तरगुणाराधनाया अबाधकम्, न च नैव निवारितम् अन्यैः तथाविधैरेव तत्कालवर्तिभिर्गीतार्थैः, अपि तु बहु यथा भवति एवमनुमतमेतदाचीर्णमुच्यते ॥४४९९।।" - बृहत्कल्पटीका० ॥ [पृ० ५५०] “साम्प्रतमेतासामेव कालातिक्रान्तादीनां व्याख्यानभिधित्सुराह- उउ-वासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेञ्जा । स च्चेव उवट्ठाणा, दुगुणा दुगुणं अवज्जेत्ता ॥५९५॥ व्या० ऋतुबद्धे काले वर्षाकाले च यत्र स्थितास्तस्यामृतुबद्धे काले मासे पूर्ण वर्षाकाले चतुर्मासे पूर्णे यत् तिष्ठति सा कालातिक्रान्ता वसतिः । सच्चेव इत्यादि । या कालमर्यादाऽनन्तरमुक्ता 'ऋतुबद्धे मासो वर्षासु चत्वारो मासाः' इति तामेव द्विगुणां द्विगुणामवर्जयित्वा यत्र भूयः समागत्य तिष्ठन्ति सा उपस्थाना । किमुक्तं भवति ?- ऋतुबद्धे काले द्वौ मासौ वर्षास्वष्टमासान् अपरिहृत्य यदि पुनरागच्छति तस्यां वसतौ ततः सा उपस्थाना भवति, उपसामीप्येन स्थानम् अवस्थानं यस्यां सा उपस्थानेति व्युत्पत्तेः । अन्ये पुनरिदमाचक्षते- यस्यां वसतौ वर्षावासं स्थितास्तस्यां द्वौ वर्षारात्रावन्यत्र कृत्वा यदि समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना न भवति अर्वाक् तिष्ठतां पुनरुपस्थापना ॥५९५।। ___ इमे उत्तरोत्तरगुणा विसोहिकोडिट्ठिया वसहीए उवघायकरा ।- दूमिय धूमिय वासिय, उजोवित बलिकडा अवत्ता य । सित्ता सम्मट्ठा वि य, विसोहिकोडी कया वसही ॥२०४८॥ दूमियं उल्लोइयं, दुग्गंधाए धूवाइणा धूवियं, दुग्गंधाए चेव पडिवासिणा वासाणं, रयणप्पदीवादिणा उज्जोवितं, कूरातिणा बलिकरणं, छगणमट्टियाए पाणिएण य अवत्ता, उदगेण केवलेण सित्ता, बहुकाराइणा सम्मट्ठा प्रमार्जिता ॥२०४८॥" - निशीथ० चूर्णिः ॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि उउ-वासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेजा । स च्चेव उवट्ठाणा, दुगुणा दुगुणं अवजेत्ता ॥५७५॥ ऋतुबद्धे काले वर्षाकाले च यत्र स्थितास्तस्यामृतुबद्धे काले मासे पूर्ण वर्षाकाले चतुर्मासे पूर्णे यत् तिष्ठति सा कालातिक्रान्ता वसतिः । “सच्चेव" इत्यादि । या कालमर्यादाऽनन्तरमुक्ता। 'ऋतुबद्धे मासो वर्षासु चत्वारो मासाः' इति तामेव द्विगुणां द्विगुणामवर्जयित्वा यत्र भूयः सम्रागत्य तिष्ठन्ति सा उपस्थाना । किमुक्तं भवति ?- ऋतुबद्धे काले द्वौ मासौ वर्षास्वष्टमासान् अपरिहत्य यदि पुनरागच्छति तस्यां वसतौ ततः सा उपस्थाना भवति, उपयस्यां वसतौ वर्षावासं स्थितास्तस्यां द्वौ वर्षारात्रावन्यत्र कृत्वा यदि समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना न भवति अर्वाक् तिष्ठतां पुनरुपस्थापना ॥५९५॥ - बृहत्कल्पटीका० । __ “विहिगहिअं विहिभुत्तं अइरेगं भत्तपान भोत्तव्वं । विहिगहिए विहिभुत्ते एत्थ य चउरो भवे भंगा ॥९१४॥ वृ० विधिनोद्गमदोषादिरहितं सारासारविभागेन च यन्न कृतं पात्रके तद्विधिगृहीतम्, तथा विधिभुक्तं कटकच्छेदेन प्रतरच्छेदादिना वा यद् भुक्तं तद्विधिभुक्तमुच्यते, तदेवंविधं विधिगृहीतं विधिभुक्तं च यद्यदतिरिक्तं संजातं भक्तं पानकं वा तद् भोक्तव्यं परिष्ठापनकं कल्पते, अत आह प्रकारान्तरेण- अत्र च विधिगृहीते विधिभुक्ते चास्मिन् पदद्वये चत्वारो भङ्गका भवन्ति, तद्यथाविहिगहिअं विहिभुत्तं एगो भंगो, विहिगहिअं अविहिभुत्तं बिइओ, अविहिगहिअं विहिभुत्तं तइओ, अविहिगहिअं अविहिभुत्तं चउत्थो ॥९१४॥" - ओघनि० द्रोणा० ॥ [पृ०५५२] "तेसि णमो तेसि णमो भावेण पुणो पुणोवि तेसि णमो । अणुवकयपरहिअरया जे एयं दिति जीवाणं ॥१६००॥ तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमः । भावेन अन्तःकरणेन पुनरपि तेभ्यो नम इति त्रिर्वाक्यम्, अनुपकृतपरहितरता गुरवो यत एतद्ददति जीवेभ्यो धर्मयानमिति गाथार्थः ॥१६००॥" - पञ्चवस्तुकटीका । [पृ०५५३] राग-द्वेषविरहितः सम इत्ययनमयः इति गमनमिति । समगमनमिति समायः स एव सामायिकं नाम ॥३४७७॥ अथवा भवं समाये निर्वृत्तं तेन तन्मयं वापि । यत् तत्प्रयोजनं वा तेन वा सामायिकं ज्ञेयम् ॥३४७८॥ अथवा समानि सम्यक्त्व-ज्ञान-चरणानि तेषु तैर्वा । अयनमय: समायः स एव सामायिकं नाम ॥३४७९।। अथवा समस्यायो गुणानां लाभ इति यः समायः सः। अथवा समानामायोज्ञेयः सामायिकं नाम ॥३४८०॥ - इति संस्कृते छाया ॥ [पृ०५५४] “अहवा सामं मित्ती तत्थ अओ तेण सामाओ। अहवा सामस्साओ लाभो सामाइयं नाम ॥३४८१॥ व्या० अथवा, सर्वजीवेषु मैत्री साम भण्यते, तत्र साम्नि अयो गमनम्, साम्ना वाऽयो गमनं वर्तनं सामायः, अथवा, साम्न आयो लाभः सामायः स एव सामायिकं नामेति। अथवा, सम्यगर्थसंशब्दपूर्वकोऽयधातुः, सम्यगयनं वर्तनं समयः, समय एव स्वार्थिकेकञ्प्रत्ययोपादानादुभयत्र वृद्धिभावाच्च सामायिकम्; अथवा, सम्यगायो लाभः समायः, स एव सामायिकम्; Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १०१ अथवा समस्य भावः साम्यम्, साम्यस्यायो निपातनात् सामायः स एव सामायिकमिति ।।३४८१॥ विस्तरार्थं तु भाष्यकृदाह- सव्वमिणं सामाइयं छेयाइविसेसओ पुणो भिन्नं । अविसेसियमाइमयं ठियमिह सामन्नसन्नाए ॥१२६२॥ सावजजोगविरइ त्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च। इत्तरमावकहं ति य पढम पढमं-तिमजिणाणं ॥१२६३॥ तित्थेसुमणारोवियवयस्स सेहस्स थोवकालीयं । सेसाणमावकहियं तित्थेसु विदेहयाणं च ॥१२६४॥ व्या० सर्वमपीदं चारित्रमविशेषतः सामायिकमेव । एतदेव च च्छेदादिविशेषैर्विशेष्यमाणमर्थत: संज्ञातश्च नानात्वं प्रतिपद्यते । तत्राद्यं विशेषणाभावात् सामान्यसंज्ञायामेवावतिष्ठते सामायिकमिति । तत्र सावद्ययोगविरतिस्वरूपमेतत् सामायिकम् । तच्च द्विधा- इत्वरम्, यावत्कथिकं च । तत्रेत्वरं स्वल्पकालीनं भरतैरावताऽऽद्य-चरमतीर्थकरतीर्थयोरेवानारोपितमहाव्रतस्य शिष्यकस्य द्रष्टव्यम् । यावत्कथिकं यावज्जीविकं भरतैरावतप्रथम-चरमवर्जशेषतीर्थकरतीर्थसाधूनाम्, महाविदेहजानां च साधूनामवसेयमिति ॥१२६२-१२६४॥" - विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ०५५५] "छेदोपस्थापनीयस्य व्याख्यामाह- परियायस्स य छेओ जत्थोवट्ठावणं वएसुं च । छेओवट्ठावणमिह तमणइयारेयरं दुविहं ॥१२६८॥ सेहस्स निरइयारं तित्यंतरसंकमे च तं होजा । मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे ॥१२६९॥ व्या० जत्थ त्ति यत्र चारित्रे पूर्वपर्यायस्य च्छेदः, व्रतेषु चोपस्थापनं विधीयते, तदिह च्छेदोपस्थापनम् । तच्च द्विधा- सातिचारम्, अनतिचारं च । तत्र शिष्यकस्योपस्थापनायाम्, तीर्थान्तरसंक्रान्तौ वा यदारोप्यते तद् निरतिचारं भवेत् । यत्तु मूलगुणघातिनः पुनरपि समारोप्यते तत् सातिचारम् । एतच्चोभयमपि स्थितकल्प एव भवति, न स्थितास्थितकल्पे । तत्र भरतैरावतप्रथम-चरमतीर्थकरसाधूनां स्थितकल्पः- “आचेलकु-हेसिअसेजाघर-रायपिंड-किइकम्मे । वय-जिट्ठ-पडिक्कमणे मासं पज्जोसणाकप्पे ॥" [बृहत्कल्प०६३६४] इत्येतस्मिन् दशविधेऽपि कल्पे तेषां स्थितत्वात् । भरतैरावतशेषद्वाविंशतितीर्थकरसाधूनाम्, महाविदेहार्हत्साधूनां च स्थितास्थितकल्पः- ‘सिज्जायरपिंडम्मि चाउज्जामे य पुरिसजेटे य । किइकम्मस्स य करणे चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥१॥' [बृहत्कल्प०६३६१] एतेषु चतुर्षु कल्पेषु नियमेन तेषामपि स्थितत्वात्, शेषेषु तु षट्सु नियमाभावेनाऽस्थितत्वादिति ॥१२६८-१२६९।। अथ परिहारविशुद्धिकं विवृणोति- परिहारेण विसुद्धं सुद्धो वा तओ जहिं विसेसेण । तं परिहारविसुद्धं परिहारविसुद्धियं नाम ॥१२७०॥ तं दुविगप्पं निव्विस्समाण-निविट्ठकाइयवसेणं । परिहारिया-णुपरिहारियस्स कप्पट्ठियस्स वि य ॥१२७१॥ व्या० परिहारस्तपोविशेषः, तेन विशुद्धं परिहारविशुद्धम्, अथवा, तकोऽसौ परिहारो विशेषेण शुद्धो यत्र तत्परिहारविशुद्धम्, तदेव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानात् परिहारविशुद्धिकं नामेति । एतच्च निर्विशमान-निर्विष्टकायिकभेदाद् द्विविधम् । कस्य पुनरेतच्चारित्रं भवति ?, इत्याहपरिहारिएत्यादि इदमुक्तं भवति- नवको गण इदं प्रतिपद्यते, तद्यथा- चत्वारः परिहारिकाः, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि चत्वारश्चानुपरिहारिकाः एकस्तु कल्पस्थितः । तत्र परिहारिकाणां तदासेवकत्वादिदं निर्विशमानकमुच्यते, अनुपरिहारिकाणां कल्पस्थितस्य च विहितवक्ष्यमाणतपसां निर्विष्टकायिकमाभिधीयत इति ॥१२७०१२७१॥” - विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ०५५५-५५६] “अथ सूक्ष्मसंपरायचारित्रमाह- कोवाइ संपराओ तेण जओ संपरीइ संसारं। तं सुहुमसंपरायं सुहुमो जत्थावसेसो सो ॥१२७७॥ सेढिं विलग्गओ तं विसुज्झमाणं तओ चयंतस्स । तह संकिलिस्समाणं परिणामवसेण विन्नेयं ॥१२७८॥ व्या० क्रोधादिः कषायवर्गः संपराय उच्यते । कुतः ?, इत्याह- यतः संपरैति पर्यटति संसारमनेनेति संपरायः सूक्ष्मोऽवशेषो यत्र तत् सूक्ष्मसंपरायम् । तच्च श्रेणिं विलगत आरोहतो विशुध्यमानकं भवति । तथा, तस्याः प्रच्यवमानस्य संक्लिश्यमानकं परिणामवशेन तद् विज्ञेयमिति ॥१२७७-१२७८।। अथ यथाख्यातचारित्रं विवृण्वन्नाह- अहसदो जाहत्थे आङोऽभिविहीए कहियमक्खायं । चरणमकसायमुदितं तमहक्खायं जहक्खायं ॥१२७९॥ व्या० अथ इत्ययं याथातथ्यार्थे, आङ् अभिविधौ । ततश्च याथातथ्येन, अभिविधिना वाख्यातं कथितं तदकषायं चरणं तदथाख्यातं यथाख्यातं चोदितमिति ॥१२७९॥ एतच्च कतिविधम् ?, इत्याह- तं दुविगप्पं छउमत्थ-केवलिविहाणओ पुणेक्केकं । खयवसमज-सजोगा-ऽजोगिकेवलिविहाणओ दुविहं ॥१२८०॥ तच्च यथाख्यातचारित्रं छद्मस्थकेवलिस्वामिभेदाद् द्विभेदम् । छद्मस्थसंबन्धि पुनरपि द्विविधम्- मोहक्षयसमुत्थम्, तदुपशमप्रभवं च। केवलिसंबन्ध्यपि सयोग्य-ऽयोगिकेवलिभेदतो द्विविधमेवेति ॥१२८०॥" - विशेषाव० मलधारि०॥ पृ०५६२] “किञ्च- मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फास भावसंबंधो । पडिगमणादी दोसा, भुत्तमभुत्ते य णेयव्वा ॥६१७०।। व्या० मिथ्यात्वं नाम-निर्ग्रन्थ्याः कण्टकमुद्धरन्तं संयतं दृष्ट्वा लोको ब्रूयात्- यथा वादिनस्तथा कारिणोऽमी न भवन्ति । उड्डाहो वा भवेत्- अहो ! यद् एवमियं पादे गृहीता तद् नूनमन्यदाऽप्यनयोः साङ्गत्यं भविष्यति । विराधना वा संयमस्य भवति, कथम् ? इत्याह- स्पर्शत: शरीरसंस्पर्शेनोभयोरपि भावसम्बन्धो भवति । ततो भुक्तभोगिनोरभुक्तभोगिनोर्वा तयोः प्रतिगमनादयो दोषा ज्ञातव्याः ॥६१७०॥ - बृहत्कल्पटीका० ।। __मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फासभावसंबंधो । पडिगमणादी दोसा, भुत्ताभुत्ते य णायव्वा ॥५९२०॥ इत्थियाहिं कीरतं पासित्ता कोइ मिच्छत्तं गच्छेज्जा, एते कावडिय त्ति काउं । संजमविराहणा य । इत्थिफासे मोहोदयो परोप्परओ वा फासेण भावसंबंधो हवेज्जा, ताहे पडिगमणं अण्णतित्थियादि दोसा । अहवा- फासतो जो भुत्तभोगी सो पुव्वरयादि संभरिज्जा । अहवा- चिंतिज एरिसो मम भोइयाए फासो, एरिसी वा मम भोइया आसि । अभुत्तभोइस्स इत्थिफासेण कोउयादि विभासा ॥५९२०॥" - निशीथ० चूर्णिः ॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि " सम्प्रति भाष्यकारो विषमपदानि व्याचष्टे - तिविहं च होति दुग्गं, रुक्खे सावय मणुस्सदुग्गं च । णिक्कारणम्मि गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा ।। ६१८३ ।। व्या० त्रिविधं च भवति दुर्गम्, तद्यथा- वृक्षदुर्गं श्वापददुर्गं मनुष्यदुर्गं च । यद् वृक्षैरतीव गहनतया दुर्गमं यत्र वा पथि वृक्षः पतितः तद् वृक्षदुर्गम् । यत्र व्याघ्र - सिंहादीनां भयं तत् श्वापददुर्गम् । यत्र म्लेच्छ - बोधिकादीनां मनुष्याणां भयं तद् मनुष्यदुर्गम् । एतेषु त्रिष्वपि दुर्गेषु यदि निष्कारणे निर्ग्रन्थीं गृह्णाति अवलम्बते वा तदा चतुर्गुरु, आज्ञादयश्च दोषाः || ६१८३॥ अथ प्रस्खलन-प्रपतनपदे व्याचष्टे - भूमीए असंपत्तं, पत्तं वा हत्थ- जाणुगादीहिं । पक्खुलणं णायव्वं, पवडण भूमीय गत्तेहिं ॥ ६१८६ ॥ व्या० भूमावसम्प्राप्तं हस्त - जानुकादिभिः प्राप्तं वा प्रस्खलनं ज्ञातव्यम् । भूमौ प्राप्तं सर्वगात्रैश्च यत् पतनं तत् प्रपतनम् ||६१८६ || पंको खलु चिक्खल्लो, आगंतू पयणुओ दुओ पणओ । सो पुण सजलो सेओ, सीतिज्जति जत्थ दुविहे वी ॥ ६१८८।। व्या० पङ्कः खलु चिक्खल्ल उच्यते । आगन्तुकः प्रतनुको द्रुतश्च पनकः । यत्र पुनः द्विविधेऽपि पङ्के पनके वा सीइज्जति निमज्जते स पुनः सजलः सेक उच्यते ||६१८८||” बृहत्कल्पटीका० । - [पृ०५६३] “पंक- पणएसु नियमा, ओगसणं वुब्भणं सिया सेए । थिमियम्मि णिमज्जणता, सजले से सिया दो वि ।। ६१८९।। व्या० पङ्क - पनकयोर्नियमाद् अपकसनं ह्रसनं भवति । सेके तु वुज्झणं 'अपोहनं' पानीयेन हरणं स्यात् । स्तिमिते तु तत्र निमज्जनं भवेत् । सजले तु सेके अपि अपवहन - निमज्जने स्याताम् || ६१८९।। १०३ अथैनं भाष्यकारो विस्तरेण प्ररूपयितुमाह- रागेण वा भएण व अहवा अवमाणिया णरिंदेण । एतेहिं खित्तचित्ता, वणिताति परूविता लोए ।। ६९९५ ।। व्या० रागेण यदि वा भयेनाथवा नरेन्द्रेण प्रजापतिना, उपलक्षणमेतत्, सामान्येन वा प्रभुणा अपमानिताः अपमानं ग्राहिताः, एतैः खलु कारणैः क्षिप्तचित्ता भवन्ति । ते च लोके उदाहरणत्वेन प्ररूपिता वणिगादयः । तत्र रागेण क्षिप्तचित्ता यथावणिग्भार्या भर्तारं मृतं श्रुत्वा क्षिप्तचित्ता जाता ॥६१९५॥ अथ कथमेष दीप्तचित्तो भवति ? इति तत्कारणप्रतिपादनार्थमाह- इति एस असम्माणा, खित्ता सम्माणतो भवेदित्ता । अग्गी व इंधणेणं, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु ॥ ६२४२ || व्या० इति अनन्तरसूत्रोक्ता एषा क्षिप्तचित्ता असम्मानतः अपमानतो भवति । दीप्ता दीप्तचित्ता पुनः सम्मानतः विशिष्टसम्मानावाप्तितो भवति । तच्च चित्तं दीप्यतेऽग्निरिवेन्धनैः एभिः वक्ष्यमाणैर्लाभमदादिभिः ॥६२४२॥ तानेवाह- लाभमएण व मत्तो, अहवा जेऊण दुज्जए सत्तू । दित्तम्मि सायवाहणो, तमहं वोच्छं समासेण || ६२४३ ॥ व्या० लाभमदेन वा मत्तः सन् दीप्तचित्तो भवति, अथवा दुर्जयान् शत्रून् जित्वा, एतस्मिन्नुभयस्मिन्नपि दीप्ते दीप्तचित्ते लौकिको दृष्टान्तः सातवाहनो राजा । तमहं सातवाहनदृष्टान्तं समासेन वक्ष्ये ॥ ६२४३ ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अथोन्मादप्ररूपणार्थं भाष्यकारः प्राह- उम्मातो खलु दुविधो, जक्खाएसो य मोहणिजो य । जक्खाएसो वुत्तो, मोहेण इमं तु वोच्छामि ॥६२६३॥ व्या० उन्मादः खलु निश्चितं द्विविधः द्विप्रकारः । तद्यथा- यक्षावेशहेतुको यक्षावेशः, कार्ये कारणोपचारात् । एवं मोहनीयकर्मोदयहेतुको मोहनीयः । चशब्दौ परस्परसमुच्चयार्थी स्वगतानेकभेदसंसूचकौ वा । तत्र यः यक्षावेश: यक्षावेशहेतुकः सोऽनन्तरसूत्रे उक्तः । यस्तु मोहेन मोहनीयोदयेन; मोहनीयं नामयेनात्मा मुह्यति, तच्च ज्ञानावरणं मोहनीयं वा द्रष्टव्यम्, द्वाभ्यामप्यात्मनो विपर्यासापादनात्, तेनोत्तरत्र 'अहव पित्तमुच्छाए' इत्याधुच्यमानं न विरोधभाक्; इमो त्ति अयम्- अनन्तरमेव वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षीभूत इव तमेवेदानीं वक्ष्यामि ॥६२६३॥ प्रतिज्ञातं निर्वाहयति- रूवंगं दट्टणं, उम्मातो अहव पित्तमुच्छाए । तद्दायणा णिवाते, पित्तम्मि य सक्करादीणि ॥६२६४॥ व्या० रूपं च नटादेराकृतिः अङ्गं च गुह्याङ्गं रूपाङ्गं तद् दृष्ट्वा कस्या अप्युन्मादो भवेत् । अथवा पित्तमूर्च्छया पित्तोद्रेकेण उपलक्षणत्वाद् वातोद्रेकवशतो वा स्यादुन्मादः । तत्र रूपाङ्गं दृष्ट्वा यस्या उन्मादः सञ्जातस्तस्यास्तस्य रूपाङ्गस्य विरूपावस्थां प्राप्तस्य दर्शना कर्तव्या । या तु वातेनोन्मादं प्राप्ता सा निवाते स्थापनीया। उपलक्षणमिदम्, तेन तैलादिना शरीरस्याभ्यङ्गो घृतपायनं च तस्याः क्रियते। पित्ते पित्तवशादुन्मत्तीभूतायाः शर्करा-क्षीरादीनि दातव्यानि ॥६२६४।। तत्रोपसर्गप्रतिपादनार्थमाह- तिविहे य उवस्सग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य । दिव्वे य पुव्वभणिए, माणुस्से आभिओग्गे य ॥६२६९॥ व्या० त्रिविधः खलु परसमुत्थ उपसर्गः । तद्यथादैवो मानुष्यकस्तैरश्चश्च । तत्र दैवः देवकृतः पूर्वम् अनन्तरसूत्रस्याधस्ताद् भणितः, मानुष्यः पुनः मनुष्यकृतः आभियोग्य: विद्याद्यभियोगजनितस्तावद् भण्यते ॥६२६९॥ विजाए मंतेण व, चुण्णेण व जोतिया अणप्पवसा । अणुसासणा लिहावण, खमए मधुरा तिरिक्खाती ॥६२७०॥ व्या० विद्यया वा मन्त्रेण वा चूर्णेन वा योजिता सम्बन्धिता सती काचिदनात्मवशा भवेत् तत्र अनुशासना इति येन रूपलुब्धेन विद्यादि प्रयोजितं तस्यानुशिष्टिः क्रियते, यथा- एषा तपस्विनी महासती, न वर्तते तव तां प्रति ईदृशं कर्तुम्, एवंकरणे हि प्रभूततरपापोचयसम्भव इत्यादि । अथैवमनुशिष्टोऽपि न निवर्तते तर्हि तस्य तां प्रतिविद्यया विद्वेषणमुत्पाद्यते। अथ नास्ति तादृशी प्रतिविद्या ततः लिहावण त्ति तस्य सागारिकं विद्याप्रयोगतस्तस्याः पुरत आलेखाप्यते येन सा तद् दृष्ट्वा तस्य सागारिकमिदमिति बीभत्सम्' इति जानाना विरागमुपपद्यते। खमए महुरा इति मथुरायां श्रमणीप्रभृतीनां बोधिकस्तेनकृत उपसर्गोऽभवत् तं क्षपको निवारितवान्, एषोऽपि मानुष उपसर्गः । तैरश्चमाह- तिरिक्खाइ त्ति तिर्यञ्चो ग्रामेयका आरण्यका वा श्रमणीनामुपसर्गान् कुर्वन्ति ते यथाशक्ति निराकर्तव्याः ॥६२७०।। अस्य सम्बन्धमाह- अहिगरणम्मि कयम्मिं, खामिय समुपट्टिताए पच्छित्तं । तप्पढमताए Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १०५ भएणं, होति किलंता व वहमाणी ॥६२७९॥ व्या० अधिकरणे कृते क्षामिते च तस्मिन् समुपस्थितायाः प्रायश्चित्तं दीयते, ततः साधिकरणसूत्रानन्तरं प्रायश्चित्तसूत्रमुक्तम् ॥ अस्य व्याख्याप्राग्वत् ॥ सा सप्रायश्चित्ता तत्प्रथमतायां प्रथमतः प्रायश्चित्ते दीयमाने भयेन ‘कथमहमेतत् प्रायश्चित्तं वक्ष्यामि ?' इत्येवंरूपेण विषण्णा भवेत्, यदि वा प्रायश्चित्तं वहन्ती तपसा क्लान्ता भवेत् ॥६२७९॥" - बृहत्कल्पटीका० ॥ ___ [पृ० ५६४] “अत्र भाष्यम्- अटुं वा हेउं वा, समणीणं विरहिते कहेमाणो । मुच्छाए विपडिताए, कप्पति गहणं परिणाए ॥६२८२॥ व्या० श्रमणीनाम् अन्यासां साध्वीनां विरहिते अशिवादिभिः कारणैरभावे एकाकिन्या आर्यिकाया भक्त-पानप्रत्याख्याताया अर्थं वा हेतुं वा कथयतो निर्ग्रन्थस्य यदि सा मूर्च्छया विपतेत्, ततो मूर्च्छया विपतितायास्तस्याः परिणाए त्ति परिज्ञायाम् अनशने सति कल्पते ग्रहणम्, उपलक्षणत्वाद् अवलम्बनं वा कर्तुम् ॥६२८२॥ ___ साम्प्रतमर्थजातशब्दव्युत्पत्तिप्रतिपादनार्थमाह- अट्टेण जीए कजं, संजातं एस अट्ठजाता तु। तं पुण संजमभावा, चालिजंती समवलंबे ॥६२८६॥ व्या० अर्थेन अर्थितया सञ्जातं कार्य यया यद्वा अर्थेन द्रव्येण जातम् उत्पन्नं कार्यं यस्याः सा अर्थजाता, गमकत्वादेवमपि समासः। उपलक्षणमेतत्, तेनैवमपि व्युत्पत्तिः कर्तव्या अर्थः प्रयोजनं जातोऽस्या इत्यर्थजाता । कथं पुनरस्या अवलम्बनं क्रियते ? इत्याह- तां पुनः प्रथमव्युत्पत्तिसूचितां संयमभावात् चाल्यमानां द्वितीयतृतीयव्युत्पत्तिपक्षे तु द्रव्याभावेन प्रयोजनानिष्पत्त्या वा सीदन्तीं समवलम्बेत साहाय्यकरणेन सम्यग् धारयेत्, उपलक्षणत्वाद् गृह्णीयादपि ॥६२८६॥" - बृहत्कल्पटीका० । [पृ०५६५] “बहिअंतो विवज्जासो पणगं सागारिए असंतम्मि । सागारियम्मि उ चले, अच्छंति मुहुत्तगं थेरा ॥६॥२५२४॥ यदि सागारिके असति अविद्यमाने बहिरन्तर्विपर्यासो भवति बहिरप्रस्फोट्यान्तः प्रस्फोटयतीत्यर्थः । तदा गणिनः प्रायश्चित्तं पञ्चकम्, अथ सागारिको बहिस्तिष्ठति सोऽपि चलश्चलो नाम मुहूर्त्तमात्रेण गन्ता तस्मिन् सागारिके चले तिष्ठति मुहूर्तकमल्पार्थे कप्रत्ययोऽल्पं मुहूर्तम्, किमुक्तं भवति ? सप्ततालमात्रं सप्तपदातिक्रमणमात्रं वा स्थविरास्तिष्ठन्ति । - व्यवहार० मलय० । आभिगाहियस्स असती तस्सेव रओहरेण अण्णयरे । पाउंछणुण्णिएण व पुस्संति उ अणण्णभुत्तेणं ॥६॥२५२६॥ केनापि साधुना अभिग्रहो गृहीतो वर्तते । यथा मया आचार्यस्य बहिर्निर्गतस्य प्रत्यागतस्य च पादाः प्रस्फोटयितव्या इति, स यद्यस्ति तर्हि तेन प्रमार्जनायोपस्थातव्यम् तत्र चाचार्येणात्मीयं रजोहरणं तस्य समर्पयितव्यं पादप्रमार्जनाय, ततः स आभिग्रहिकस्तेनाचार्यसत्केन रजोहरणेन आचार्यस्य पादान् प्रमार्जयति । अथवा यदन्यदौर्णिकं पादप्रोञ्छनकमन्येन साधुना पादप्रमार्जनेनापरिभुक्तं तेनाचार्यस्य पादान् प्रस्फोटयति । अथाभिग्रहिको न विद्यते । तत Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि आभिग्रहिकस्यासत्यभावे अन्यतरस्तस्यैवाचार्यस्य रजोहरणेन और्णिकेन वा पादप्रोञ्छकेनान्यभुक्तेन पादान् पुंसयति । यदि पुनरव्यापृता अपि निष्कारणमाचार्यस्य पादानप्रमार्जयते तदा मासलघु । अथात्मीयेन रजोहरणेन पादप्रोञ्छनेन वा अन्यपादप्रमार्जनतः परिभुक्तेन प्रमार्जयन्ति, तदापि मासलघु। यदि बहिर्वसतेः सागारिकस्तिष्ठतीत्याचार्यस्य पादा न प्रस्फोटितास्तर्हि वसतेरन्तः प्रविष्टस्य प्रस्फोटनीयास्तत्रायं विधिः- विपुलाए अपरिभोगे अप्पणउवासए व चिट्ठस्स । एमेव य भिक्खुस्स वि नवरिं बाहिं चिरयरं तु ॥६।२५२७॥ यदि विपुला वसतिस्तत्र तस्यां विपुलायां वसतावपरिभोगे अवकाशे आचार्येण स्थित्वा पादाः प्रस्फोटयितव्याः । अथ संकटा वसतिस्तर्हि आचार्यस्य आत्मीयो वेण्टकाद्यवकाशस्तत्र ऐर्यापथिकी प्रतिक्रम्योपविष्टस्य पादाः प्रमार्जनीयास्ते च कुशलेन साधुना तथा प्रमार्जनीया यथाऽन्ये साधवो धूल्या न भ्रियन्ते यथा आचार्यस्योक्तमेवं भिक्षोरपि द्रष्टव्यम्, नवरं यदि बहिर्वसतेः सागरिकस्तिष्ठति। ततश्चिरतरमपि कालं प्रतीक्षेत, यावच्चलः सागारिको व्यतिक्रामति। यदि पुनर्भिक्षुः वसतेर्बहिः सागारिकाभावेऽपि पादावप्रस्फोट्य वसतेरन्तः प्रविशति तदा तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु ॥ तिण्हुण्हभावियस्सा पडिच्छमाणस्स मुच्छमादीया । खद्धादियणगिलाणे सुत्तत्थविराहणा चेव ॥६।२५३३॥ आचार्यः स्वरूपत उष्णेनाभावितः क्वचित् कदाचित् प्रयोजनवशतो बहिर्निर्गमनात् ततः कुलादिकार्येषु निर्गतस्तृष्णाभिभूतो वसतिमागतोऽपि यदि सागारिकमपगच्छन्तं यावत्प्रतीक्षते, ततः प्रतीक्षमाणस्य तृष्णया उष्णेन च तापितस्य मूर्छादयो भवन्ति | आदि- शब्दादागाढापरितापनादिपरिग्रहस्तथा वसतिं प्रविष्टोऽतीव तृष्णाभिभूतः खद्धस्य प्रचुरस्य पानीयस्यादानं ग्रहणं कुर्यात् । प्रचुर पानीयं पिबेदित्यर्थः । ततो भक्ताजीर्णतया ग्लानो भवेत्, तस्मिंश्च ग्लाने सूत्रार्थपरिहाणिर्विराधना च तस्याचार्यस्य स्यात् । ग्लानत्वेनाचार्यो म्रियेतेति भावः । अथवा सूत्रार्थपरिहाण्या अजानतां साधूनां ज्ञानादिविराधना स्यात् । सूत्रार्थाभावतोऽजानन्तः साधवो ज्ञानादिविराधनां कुर्युरिति भावः ॥८०॥ आचार्य आह- 'अणेगबहुनिग्गमणे अन्भुट्ठण भाविया य हिंडंता । दसविहवेयावच्चे सग्गाम बहिं च वायामो ॥६।२५३९॥ सीउण्हसहा भिक्खु न य हाणी वायणादिया तेसिं । गुरुणो पुण ते नत्थी तेण पमजंतो खेयण्णो ।।६।२५४०॥ अनेकैः कारणैः बहून् वारान् निर्गमनम् अनेक-बहुनिर्गमनं तस्मिन्, तथा गुर्वादीनामभ्युत्थाने आसनप्रदानादौ च, तथा भिक्षार्थं हिण्डमाना भाविता व्यायामितशरीराः, यदुक्तमनैकैः बहुवारं निर्गमनम्, तत्र कारणान्याह- दशविधवैयावृत्यनिमित्तम् । स्वग्रामे बहिः परग्रामेऽनेकवारमनेकधा व्यायामोऽभवत् । तथा शीतोष्णसहा भिक्षवो न च तेषां भिक्षूणां वाचनादिका वाचनादिविषया हानिः, गुरोः पुनस्तेऽनेकबहुनिर्गमनादयो न सन्ति । ततस्तृष्णाद्यध्यासितुमसहिष्णव आचार्या वसतेर्बहिः सागारिके तिष्ठन्ति लघुवसतेरन्तः प्रविशन्ति,। ततः खेदज्ञेन कुशलेन पादान् प्रमार्जापयन्ति ॥" - व्यवहार० मलय० । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १०७ पृ० ५६६] “अथ विवेचन-विशोधनपदे व्याचष्टे- सव्वस्स छड्डण विगिंचणा उ मुह-हत्थपादछूढस्स । फुसण धुवणा विसोहण, सकिं व बहुसो व णाणत्तं ॥५८१३।। व्या० अनुदितमस्तमितं वा ज्ञात्वा यद् मुखे प्रक्षिप्तं तस्य ज्ञाते सति खेलमल्लके यत् प्रक्षेपणम्, यच्च हस्तेपाणौ तस्य प्रतिग्रहे, यत् पात्रे प्रतिग्रहे तस्य स्थण्डिले, एवं सर्वस्यापि यत् परिष्ठापनं सा विवेचना । यत् तु फुसणं हस्तेनामर्शनं धावनं कल्पकरणं सा विशोधना । अथवा सकृत् एकशः परिष्ठापन-स्पर्शन-धावनानां करणं विवेचना, एतेषामेव बहुशः करणं विशोधनम् । एतद् विवेचनविशोधनयोर्नानात्वमुक्तम् ॥५८१३॥" - बृहत्कल्पटीका० । “सुयवंतम्मि परिवारवं च वणियंतरावणुट्ठाणे । दुट्ठाणनिग्गमम्मि य हाणी य परमुहावण्णा ॥६२५४३॥ संज्ञाभूमि व्रजति ततः प्रत्यागच्छति वा तस्मिन्नाचार्ये श्रुतवानेष परिवारवांश्चेति मन्यमाना अन्तरा निजनिजापणेषु स्थिता वणिजोऽभ्युत्थानं कृतवन्तः । तेषां चोत्थाने लोकस्य च भूयान् बहुमान आसीत् । कदाचिदाचार्यो द्वौ वारौ संज्ञाभूमिं व्रजेत् ततो द्विस्थाननिर्गमने चतुरो वारान् गच्छति प्रत्यागच्छति चोत्थातव्यं ततस्ते आलस्यं मन्यमाना अभ्युत्थानस्य हानि कुर्वन्ति। ते च हानिमभ्युत्थानस्य चिकीर्षवोऽभ्युत्थातव्यं भविष्यतीति कृत्वा तमाचार्यं दृष्ट्वा परमुखा भवन्ति। अन्यतो मुखं कुर्वन्तीति भावः । अथवा अवर्णः स्यात्, तथाहि-द्वौ वारौ संज्ञाभूमिं व्रजन्तमाचार्यं दृष्ट्वा ते वदन्ति । नूनमेष आचार्यो द्वौ त्रीन् वारान् समुद्दिशति तेन द्वौ वारौ संज्ञाभूमिं याति ॥ ___ गुणवं तु जतो वणिया पूयंतण्णे विसन्नया तम्मि । पडिय त्ति अणुट्ठाणे दुविहनियत्ती अभिमुहाणं ॥६।२५४४॥ वणिजां बहुमानेनाऽभ्युत्थानं दृष्ट्वा केचिदन्ये चिन्तयन्ति - गुणवानाचार्यो यतो वणिजः पूजयन्ति । एवं चिन्तयित्वा तेऽप्यन्ये तस्मिन्नाचार्ये सन्नता भवन्ति । वारद्वयं संज्ञाभूमिगमने वणिजामनुत्थाने ते चिन्तयन्ति । नूनमेष आचार्यः पतितः । कथमन्यथा वणिजः पूर्वमभ्युत्थानं कृतवन्तो नेदानीं कुर्वन्ति, तथा च सति तेषामभिमुखाणां द्विविधा निवृत्तिः, तथा ये श्रावकत्वं ग्रहीतुकामा ये च तस्य समीपे प्रव्रजितुकामास्ते चिन्तयन्ति - यद्येषोऽपि प्रधानो ज्ञात्वा कुशीलत्वं प्रतिपद्यते तर्हि नूनं सर्वं जिनवचनमसारमिति मन्यमानाः श्रावकत्वात् व्रतग्रहणाद्वा प्रतिनिवर्तन्ते मिथ्यात्वं गच्छन्ति।" "उप्पण्णणाणा जह नो अडंती चोत्तीसबुद्धातिसया जिणिंदा । एवं गणी अट्ठगुणोववेतो सत्था व नो हिंडइ इड्डिमं तु ॥६।२५७१॥ यथा उत्पन्ने ज्ञाने जिनेन्द्राश्चतुस्त्रिंशत् बुद्धातिशयाः सर्वज्ञातिशया देहसौगन्धादयो येषां ते तथा, भिक्षां न हिण्डन्ते । एवं तीर्थकरदृष्टान्तेन गणी आचार्योऽष्टगुणोपेतोऽष्टविधगणिसम्पदुपेतः शास्ता इव तीर्थकर इव ऋद्धिमान् न हिण्डते ॥ भारेण वेयणाए हिंडते उच्चनीयसासो वा । बाहुकडिवायगहणं विसमाकारेण सूलं वा ॥६॥२५७४॥ भारेण भक्तभृतभाजनभारेण वेदना भवति । तथा कोऽपि ग्रामो गिरौ निविष्टो भवेत् । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि तत्र च कानिचित् गृहाण्युच्चस्थाने कानिचित् नीचस्थाने तानि भारेण वेदनायां सत्यां हिण्डमानस्य श्वासो भवति । तथा बाहोः कटेश्च वातेन ग्रहणं भवति, तथा ग्रामे विषमाकारेण व्यवस्थिते यत्र तत्र वा तिर्यक् शरीरं कृत्वा गच्छतः शूलं वा भवेत् ॥ बहिया य पित्तमुच्छा पडणं उण्हेण वावि वसहीए । आदियणे छड्डणादी सो चेव य पोरिसीभंगो ॥६॥२५७६॥ उष्णेन परितापितस्य पित्तप्रकृतेर्बहिः पित्तमूर्छावशतः पतनं भवेत् । तथा च सति भक्तभृतभाजनसहितस्य महानुड्डाहः वसतौ वा पित्तमूर्छावशतः पतनम् । तत्र प्रभूतजलापानं समुद्देशानान्तरमपि प्रचुरजलादानम्, तथा च सति त एव च्छर्दनादयः प्रागुक्ता दोषाः, स एव च सूत्रपौरुष्याश्च भङ्गः ॥" - व्यवहार० मलय० ॥ ___ [पृ० ५६७] जेण कुलं आयत्तं.... ॥ “इयं गाथा अणहिलपुरपत्तने खेतरवसीपाडामध्ये विद्यमानायाम् आवश्यकनिर्युक्तेर्हस्तलिखितायां तालपत्रात्मिकायां प्रतौ दृष्टाऽस्माभिः, मुद्रितायां तु न दृश्यते । आवश्यकसूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तौ (पृ० २६३) इत्थमुपलभ्यते- “आह च- सुत्तत्थेसु अचिंतण आएसे वुड्ढसेहगगिलाणे । बाले खमए वाई इड्ढीमाइ अणिड्ढी य ॥१॥ एएहिं कारणेहिं तुंबभूओ उ होति आयरिओ । वेयावच्चं ण करे कायव्वं तस्स सेसेहिं ॥२॥ जेण कुलं आयत्तं तं पुरिसं आयरेण रक्खेजा न हु तुंबम्मि विणढे अरया साहारया होंति ॥३॥ वाले सप्पभए, तहा इड्ढिमंतंमि आगए पाणगादिगए आयरिए लहुत्तं, एवं वादिम्मि वि, अणिस्सरपव्वइयगा य एए त्ति जणापवादो, सेसं कंठं” । आवश्यकसूत्रस्य मलयगिरिविरचितायां वृत्तौ त्वेवमुपलभ्यते“तथा चाह- सुत्तत्थेसु अचिंतण..... ॥१॥ ..... ॥२॥ ....... ॥३॥ आदेशे प्राघूर्णके, वृद्धे, शैक्षके, ग्लाने, तथा बाले लघुवयसि, क्षपके च...... एतदेवाह- जेण कुलं आयत्तं तं पुरिसं आयरेण रक्खेह । न हु तुंबम्मि विणढे अरगा साहारगा हुंति ॥१३३॥ येन पुरुषेण कुलमायत्तं तं पुरुषमादरेण रक्षेत्, यतो न हु नैव तुम्बे विनष्टे अरकाः साधारकाः साधारा भवन्ति ।” इति आवश्यकनिर्युक्तेर्मलयगिरिसूरिविरचितायां वृत्तौ इच्छाकारसामाचारीवर्णने ॥" - इति द्वादशारनयचक्रस्य टिप्पने (पृ०८७७ टि० १) ॥ ___ "तब्भावुवयोगेणं रहिए कम्मादि संजमे भेदो । मेरावलंबिया मे वेहाणसमादि निव्वेदो ॥६॥२६९४॥ तस्य भावस्तद्भावः । पुंवेद इत्यर्थः । तस्मिन्नुपयोगस्तद्भावोपयोगस्तेन तद्भावोपयोगेन विजने स्थाने वर्तमानः सहायरहितो हस्तकर्मादि कुर्यात् । एवं संयमे संयमस्य भेदो विराधना । तथा कोऽप्यतिप्रबलपुंवेदोदयपीडित एवं चिन्तयेत् । यथा- मया मर्यादा सकलजनसमक्षं गुरुपादसमीपेऽवलम्बिता; । सम्प्रति चाहमतिपीडित आसितुं न शक्नोमि ततो निर्वेदात् वैहानस(सं?)मुक्तलम्बनमादिशब्दादन्यद्वा आत्मघातादिकमाचरेत् । एषात्मविराधना तस्माद्बहिरन्तर्वा एकाकिना न स्थातव्यम् । आह- यदि संयमानिर्गतभावस्ततस्तस्य सहाया अपि किं करिष्यन्ति तत आह Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १०९ जइ वि य निग्गयभावो तहवि य रक्खिजए स अण्णेहिं । वंसकडिल्ले च्छिण्णो वि वेणुतो पावए न महिं ॥६॥२६९५॥ यद्यपि च स संयमान्निर्गतभावस्तथापि सोऽन्यैर्हस्तकर्मादि वैहानसादि वा समाचरन् रक्ष्यते । अत्रैवार्थे प्रतिवस्तूपमामाह- वंसकडिल्ले वंशगहने च्छिन्नोऽपि वेणुको वंशो महीं न प्राप्नोति । अन्यैरन्यैर्वंशैरपान्तराले स्खलितत्वात् । एवं संयमभावान्निर्गतोऽपि शेषसाधुभिः सर्वथा पतन् रक्ष्यते । तदेतद्भिक्षोरुक्तमिदानीं गणावच्छेदकाचार्ययोराह । वीसु वसंते दप्पा गणि आयरिए य होंति एमेव । सुत्तं पुण कारणियं भिक्खुस्स वि कारणेऽणुना ॥६॥२६९६॥ विष्वग् दर्पात् कारणमन्तरेण गणिनि गणावच्छेदके आचार्ये च एवमेव भिक्षोरिव च प्रायश्चित्तं संयमात्मविराधने च भवतः, यद्येवं तर्हि सूत्रमनवकाशमत आह- सूत्रं पुनः कारणिकं कारणमधिकृत्य प्रवृत्तम्, ततो नाऽनवकाशम्, न केवलं गणावच्छेदकाचार्ययोः कारणे वसतेरन्तर्बहिर्वा वसनमनुज्ञातम्, किन्तु भिक्षोरपि कारणे बहिरन्तर्वा वसनस्यानुज्ञा । ___ अथ किं तत्कारणं यदधिकृत्य सूत्रं प्रवृत्तमत आह- विजाणं परिवाडी पव्वे पव्वे य देंति आयरिया । मासद्धमासियाणं पव्वं पुण होइ मज्झं तु ॥६।२६९७॥ आचार्याः पर्वणि पर्वणि विद्यानां परिपाटीर्ददति । विद्याः परावर्तन्ते इति भावः । अथ पर्व किमुच्यते तत आहमासार्धमासयोर्मध्यं पुनः पर्व भवति ।" - व्यवहार० मलय० ॥ [पृ० ५७०] “पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं । णामाइभेयविहियं तिविहमहोलोयभेयाइं ॥५३॥ व्या० पञ्चास्तिकायमयं लोकमनाद्यनिधनं जिनाख्यातमिति, क्रिया पूर्ववत्, तत्रास्तयः प्रदेशास्तेषां काया अस्तिकायाः पञ्च च ते अस्तिकायाश्चेति विग्रहः, एते च धर्मास्तिकायादयो गत्याधुपग्रहकरा ज्ञेया इति, उक्तं च- जीवानां पुद्गलानां च, गत्युपग्रहकारणम्। धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥१॥ जीवानां पुद्गलानां च, स्थित्युपग्रहकारणम् । अधर्मः पुरुषस्येव, तिष्ठासोरवनिर्यथा ॥२॥ जीवानां पुद्गलानां च, धर्माधर्मास्तिकाययोः । बदराणां घटो यद्वदाकाशमवकाशदम् ॥३॥ ज्ञानात्मा सर्वभावज्ञो भोक्ता कर्ता च कर्मणाम् । नानासंसारिमुक्ताख्यो जीव: प्रोक्तो जिनागमे ॥४॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दमूर्तस्वभावकाः । सङ्घातभेदनिष्पन्नाः, पुद्गला जिनदेशिताः ॥५॥ [ ] तन्मयं तदात्मकम्, लोक्यत इति लोकस्तम्, कालतः किम्भूतमित्यत आह- अनाद्यनिधनम् अनाद्यपर्यवसितमित्यर्थः, अनेनेश्वरादिकृतव्यवच्छेदमाह, असावपि दर्शनभेदाच्चित्र एवेत्यत आह- जिनाख्यातं तीर्थकरप्रणीतम्, आह- 'जिनदेशिता'नित्यस्माज्जिनप्रणीताधिकारोऽनुवर्तत एव, ततश्च जिनाख्यातमित्यतिरिच्यते, न, अस्याऽऽदरख्यापनार्थत्वात्, आदरख्यापनादौ च पुनरुक्तदोषानुपपत्तेः, तथा चोक्तम्- अनुवादादरवीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु । ईषत्सम्भ्रमविस्मयगणनास्मरणेष्वपुनरुक्तम् [ ] ॥१॥ तथा हि नामादिभेदविहितं भेदतो नामादिभेदावस्थापितमित्यर्थः, उक्तं च- नाम ठवणा दविए खित्ते काले भवे य भावे य । पज्जवलोगो य तहा अट्ठविहो लोगंमि(ग)निक्खेवो ॥१॥ [आव० नि० १०७०] भावार्थश्चतुर्विंशतिस्तवविवरणादवसेयः, Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि साम्प्रतं क्षेत्रलोकमधिकृत्याह - त्रिविधं त्रिप्रकारम् अधोलोकभेदादिं इति प्राकृतशैल्याऽधोलोकादिभेदम्, आदिशब्दात्तिर्यगूर्ध्वलोकपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ ५३॥” ध्यानशतक हारि० । ११० - [पृ० ५७२-५७३] “अथेन्द्रियस्वरूपं विवरीषुराह - इंदो जीवो सव्वोवलद्धिभोगपरमेसरत्तणओ । सोत्ताइभेयमिंदियमिह तल्लिंगा भावाओ ।। २९९३।। व्या० ' इदि परमैश्वर्ये' [पा०धा० ६३ ] इन्दनात् परमैश्वर्ययोगादिन्द्रो जीवः; परमैश्वर्यमस्य कुतः ? इत्याह- सव्वो इत्यादि आवरणाभावे सर्वस्यापि वस्तुन उपलम्भात्, नानाभवेषु सर्वस्यापि त्रिजगद्गतस्य वस्तुनः परिभोगाच्च परमेश्वरो जीव इति तस्य परमैश्वर्यम् । तस्येन्द्रस्य जीवस्य लिङ्गं चिह्नं तेन दृष्टं सृष्टं वा निपातनादिहेन्द्रियमुच्यते, अत एवाह - इन्द्रियमिह तल्लिङ्गादिभावादिति । तच्च श्रोत्रादिभेदं श्रोत्र - नयन- घ्राण - रसन- स्पर्शनभेदात् पञ्चविधमित्यर्थः ॥२९९३॥ तदपि नामादिभेदाच्चतुर्विधमिति दर्शयन्नाह - तं नामाइ चउद्धा दव्वं निव्वित्ति उवगरणं च । आगारो निव्वित्ति चित्ता बज्झा इमा अंतो ॥ २९९४ ।। पुप्फे कलंबुयाए-धन्नमसूराइमुत्तचंदो य । होइ खुरप्पो नाणागिई य सोइंदियाईणं ॥ २९९५ । । विसयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तंपि । जं नेह तदुवघाए गिण्हइ निव्वत्तिभावे वि ।। २९९६ ।। व्या० तद् नामेन्द्रियं स्थापनेन्द्रियमित्यादिभेदाच्चतुर्धा । तत्र ज्ञ - भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यं द्रव्येन्द्रियं निर्वृत्तिरुपकरणं चेति द्विभेदम् । तत्र कर्णशष्कुलिकादिराकारो निर्वृत्तिरुच्यते । सापि बाह्या - ऽऽन्तरभेदात् पुनरपि द्विभेदा । तत्र बाह्या निर्वृत्तिश्चित्रा नानाप्रकारा मनुष्या - ऽश्व - शशकादेः कस्यापि कीदृक्स्वरूपेत्यर्थः । अन्तर्निर्वृत्तिस्त्वियम्; का ? इत्याह- पुप्फमित्यादि, श्रोत्रस्यान्तर्निर्वृत्तिः कदम्बपुष्पाकारमांसगोलकरूपा द्रष्टव्या, चक्षुषस्तु धान्यमसूराकारा, घ्राणस्यातिमुक्तककुसुमचन्द्रकाकारा, रसनस्य क्षुरप्राकारा, स्पर्शनं तु नानाकृति द्रष्टव्यमिति । एष श्रोत्रादीनां तन्निर्वृत्तेराकार इति । तस्या एव कदम्बपुष्पाकृतिमांसगोलकरूपायाः श्रोत्राद्यन्तर्निर्वृत्तेर्यद्विषयग्रणसमर्थं शक्तिरूपमुपकरणं तदुपकरणं द्रव्येन्द्रियम् 'उच्यते' इति शेषः ; यथा खड्गस्य च्छेत्री शक्तिः, वह्नेर्वा दाहादिका शक्तिस्तथेदम श्रोत्राद्यन्तर्निर्वृत्तेर्विषयग्रहणसमर्थशक्तिरूपं द्रष्टव्यम् । तर्ह्यन्तर्निर्वृत्तिरेव तत्, तच्छक्तिरूपत्वात्, न पुनर्भेदान्तरमित्याशङ्क्याह- तदपीन्द्रियान्तरं द्रव्येन्द्रियस्य भेदान्तरमित्यर्थः । कुतः ? इत्याहजमित्यादि, यस्मादिह कदम्बपुष्पाद्याकृतेर्मांसगोलकाकारायाः श्रोत्राद्यन्तर्निवृत्तेर्या शब्दादिविषयपरिच्छेत्री शक्तिस्तस्या वात-पित्तादिनोपघाते विनाशे सति यथोक्तान्तर्निर्वृत्तिसद्भावेऽपि न शब्दादिविषयं गृह्णाति जीवः, इत्यतो ज्ञायते - अस्त्यन्तर्निर्वृत्तिशक्तिरूपमुपकरणेन्द्रियं द्रव्येन्द्रियस्य द्वितीयो भेद इति ॥ २९९४ २९९६॥ भावेन्द्रियमाह- लधुवओगा भाविंदियं तु लद्धि त्ति जो खओवसमो । होइ तदावरणाणं तल्लाभे चेव सेसंपि ।। २९९७ ।। लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । तत्र यदावरणानां Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि तेषामिन्द्रियाणामावारककर्मणां क्षयोपशमो भवति जीवस्य स लब्धिः । शेषमपि द्रव्येन्द्रियं तल्लाभ एव लब्धिप्राप्तावेव भवतीति द्रष्टव्यमिति ॥२९९७।। उपयोगः कः ? इत्याह- जो सविसयवावारो सो उवओगो स चेगकालम्मि । एगेण चेय तम्हा उवओगेगिंदिओ सव्वो ॥२९९८॥ यः श्रोत्रादीन्द्रियस्य स्वविषये शब्दादौ परिच्छेदो व्यापारः स उपयोगः । स चैकस्मिन् काले देवादीनामप्येकेनैव श्रोत्राद्यन्यतरेणेन्द्रियेण भवति, न तु व्यादिभिः । तस्मादुपयोगमाश्रित्य सर्वोऽपि जीव एकेन्द्रिय एव, सर्वस्मिन् काले देवादीनामप्येकस्यैव श्रोत्राद्यन्यतरेन्द्रियोपयोगस्य सद्भावादिति ॥२९९८॥ __ यधुपयोगतः सर्वोऽपि जीव एकेन्द्रियः, तर्हि एकेन्द्रियो द्वीन्द्रिय इत्यादिर्भेदः कथमागमे निर्दिष्टः ? इत्याह- एगेंदियाइभेया पडुच्च सेसेंदियाइं जीवाणं । अहवा पडुच्च लद्धिंदियं पि पंचेंदिया सव्वे ॥२९९९॥ अतो जीवानामेकेन्द्रियादयो भेदाः शेषाणि निवृत्त्युपकरण-लब्धीन्द्रियाणि प्रतीत्य द्रष्टव्याः । तानि यस्य यावन्ति तावद्भिर्व्यपदेश इति, न तूपयोगतः । अथवा, लब्धीन्द्रियमप्याश्रित्य वक्ष्यमाणयुक्तितः सर्वे पृथिव्यादयोऽपि जीवाः पञ्चेन्द्रिया एवेति ॥२९९९।। ___ कुतः सर्वे पञ्चेन्द्रियाः ? इत्याह- जं किर बउलाईंणं दीसइ सेसेंदिओवलंभो वि । तेण त्थि तदावरणखओवसमसंभवो तेसिं॥३०००। यस्मात् किल बकुल-चम्पक-तिलक-विरहकादीनां वनस्पतिविशेषाणां स्पर्शनात् शेषाणि यानि रसन-घ्राण-चक्षुः-श्रोत्रलक्षणानीन्द्रियाणि तत्संबन्ध्युपलम्भो दृश्यते, तेन ज्ञायते- तेषामपि बकुलादीनां तदावरणक्षयोपशमसंभवो रसनादीन्द्रियावारककर्मक्षयोपशमस्य या च यावती मात्राऽस्तीति । अन्यथा हि बकुलस्य शृङ्गारितकामिनीवदनार्पितचारुमदिरागण्डूषेण, चम्पकस्यातिसुरभिगन्धोदकसेकेन, तिलकस्य कामिनीकटाक्षविक्षेपेण, विरहकस्य पञ्चमोद्गारश्रवणेन पुष्पपल्लवादिसंभवो न घटते ॥३०००॥” - विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ० ५७५ पं०१४] “पुलाक-बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्थाः ॥९॥४८॥ भा० पुलाको बकुश: कुशीलो निर्ग्रन्थ: स्नातक इत्येते पञ्च निर्ग्रन्थविशेषा भवन्ति ॥ टी० पुलाकादयः पञ्चान्वर्थसञ्जका निर्ग्रन्थाः स्वामिनः । तद्विवरणार्थमाह- पुलाकः बकुश: कुशीलः निर्ग्रन्थः स्नातक इति । एते पञ्च निर्ग्रन्थविशेषा, भेदा भवन्ति निर्ग्रन्थानामिति । ग्रन्थः कर्माष्टकप्रकारं मिथ्यात्वा-ऽविरति-कषाय]दुष्प्रणिहितयोगाश्च । तज्जये प्रवृत्ताः । निर्गच्छद्ग्रन्था निर्ग्रन्थाः धर्मोपकरणादृते परित्यक्तबाह्याभ्यन्तरोपधयो निर्ग्रन्थाः । पुलाकादिस्वरूपनिरूपणायाह__ भा० तत्र सततमप्रतिपातिनो जिनोक्तादागमानिर्ग्रन्थपुलाकाः । नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिताः शरीरोपकरणविभूषाऽनुवर्तिनः ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिताः अविविक्तपरिवारा: छेदशबलयुक्ता निर्ग्रन्था बकुशाः ॥ टी० तत्र सततमित्यादि । तत्र-तेषु पञ्चसु निर्ग्रन्थेषु पुलाकास्तावदेवंविधाः । पुलाको निःसार इति प्ररूढं लोके । पलञ्जिस्तन्दुलकणशून्या पुलाकः । A-33 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि एवं निर्ग्रन्थोऽपि लब्धिमुत्पन्नां तपः श्रुताभ्यां हेतुभ्यामुपजीवन् सकलसंयमगलनात् पलञ्जिरूपं निःसारमात्मानं करोति । ज्ञानदर्शनचरणानि च सारः, तदपगमान्निः सारः । जिनप्रणीतादागमाद्धेतुतः, सदैवाप्रतिपातिन आगमाच्च सम्यग्दर्शनमूलज्ञानचरणे निर्वाणहेतू इत्यस्मादपरिभ्रष्टाः श्रद्दधाना ज्ञानानुसारेण क्रियाऽनुष्ठायिनो लब्धिमुपजीवन्तो निर्ग्रन्थाः पुलाका भवन्ति । उपजीवन्तश्च निःसारतामात्मनः कुर्वन्तीति ग्राह्यम् । सततमप्रमादिन इत्यपरे पठन्ति । जिनोक्ताद् वाऽऽगमाद्धेतुभूतान्मुक्तिसाधनेषु न प्रमाद्यन्ति जातुचिदिति ॥ बकुश इति शबलपर्यायः । शबलो वर्णव्यतिकरः क्वचिद् वलक्षः क्वचित् कृष्णः क्वचिद् रक्तः एक एव पटः । एवमयमपि निर्ग्रन्थः । सातिचारत्वाच्चरणपटं शबलयति विशुद्ध्यशुद्धिव्यतिकीर्णस्वभावं करोति । स च द्विधा - शरीरोपकरणभेदेन । तदाह वृत्ति ( भाष्य ? ) कार : - नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता इत्यादि । निर्ग्रन्थस्य भावो नैर्ग्रन्थ्यम् अष्टाविंशतिविधमोहनीयक्षयस्तत् प्रति प्रस्थिताः - प्रवृत्तास्तदभिमुखास्तत्क्षयाकाङ्क्षिणः । शरीरम् अङ्गोपाङ्गसङ्घातः, उपकारित्वादुपकरणं वस्त्रपात्रादि, तद्विषयां विभूषाम् अलङ्कृतिमनुवर्तन्ते, तच्छीलाश्चेति । शरीरे तावदनागुप्तव्यतिरेकेण कर-चरणवदनप्रक्षालनमक्षि-कर्ण-नासिकावयवेभ्यो दूषिकामलाद्यपनयनं दन्तपवनभ (प्र)क्षणं केशसंस्कारं च विभूषार्थमाचरन् शारीरबकुशो भवति । उपकरणबकुशस्तु अकाल एव प्रक्षालितचोलपट्टकान्तरकल्पादिश्चोक्षकवासःप्रियः पात्रदण्डकाद्यपि तैलपात्रया (त्र्या) उज्ज्वलीकृत्य विभूषार्थमनुवर्तमानो बिभर्ति, ऋद्धीः प्रभूतवस्त्रपात्रादिकास्ता इच्छन्ति कामयन्ते तत्कामाः यशः ख्यातिगुणवन्तो विशिष्टाः साधवः इत्येवंविधः प्रवादस्तच्च यशः कामयन्त इति ऋद्धियशस्कामाः । सातगौरवमाश्रिता इति । सुखशीलता सातगौरवं तदाश्रिताः । आदरवचनो गौरवशब्दः । सुखे य आदरः तदवाप्तिव्यापारप्रवणता तदाश्रिताः नातीवाहोरात्राभ्यन्तरानुष्ठेयासु क्रियास्वभ्युद्यताः । अविविक्ता इति नासंयमात् पृथग्भूता घृष्टजङ्घाः तैलादिकृतशरीरमृजाः कर्तरिकाकल्पितकेशा एवंविधः परिवारो येषां ते अविविक्तपरिवारा: सर्वदेशच्छेदार्हातीचारजनितशबलेन वैचित्र्येण युक्ताः एवंविधा निर्ग्रन्थाः बकुशसंज्ञाः ॥ कुशीलस्वरूपनिर्धारणायाह- भा० कुशीला द्विविधाः - प्रतिसेवनाकुशीलाः कषायकुशीलाश्च । तत्र प्रतिसेवनाकुशीला नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता अनियमितेन्द्रियाः कथञ्चित् किञ्चिदुत्तरगुणेषु विराधयन्तश्चरन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीलाः ॥ टी० कुशीला द्विविधा इत्यादि । अष्टादशसहस्रभेदं शीलं तदुत्तरगुणभङ्गेन केनचित् कषायोदयेन वा कुत्सितं येषां ते कुशीला द्विप्रकाराः । तत्प्रकाराख्यानायाह- प्रतिसेवनाकुशीलाः कषायकुशीलाश्चेति । आसेवनं भजनं प्रतिसेवना तया कुत्सितं शीलमेषामिति प्रतिसेवनाकुशीलाः, कषायाः संज्वलनाख्यास्तदुदयात् कुत्सितं शीलमेषामिति कषायकुशीलाः । तत्र तयोः, प्रतिसेवनाकुशीला नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता अनियमितेन्द्रिया इन्द्रियनियमशून्या रूपादिविषयेक्षणकृतादराः कथञ्चित् केनचित् प्रकारेण व्याजमुपदिश्य १९२ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ११३ किञ्चिदेवोत्तरगुणेषु पिण्डविशुद्धि-समिति-भावना- तपः-प्रतिमा-ऽभिग्रहादिषु विराधयन्तः खण्डयन्तोऽतिचरन्तः सर्वज्ञाज्ञोल्लङ्घनमाचरन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीला: ॥ ____ कषायकुशीलानाचष्टे- भा० येषां तु संयतानां सतां कथञ्चित् सज्वलनकषाया उदीर्यन्ते ते कषायकुशीलाः ॥ टी०- येषां त्वित्यादि । येषां संयतानां सतां मूलोत्तरगुणसम्पदुपेतानामपि भवतां कथञ्चित् केन प्रकारेण स्वल्पेनापि हेतुना कुड्यकाष्ठलोष्टविषमकाश्यपीप्रस्खलनादिना सज्वलनकषायाः क्रोधादयः उदीर्यन्ते उदयमुपनीयन्ते, किञ्चिदेव कारणमासाद्योदयं गच्छन्ति ते कषायकुशीलाः ॥" - तत्त्वार्थ० सिद्धसेन० ॥ [पृ० ५७८] “धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होइ परिभोगो । दुविहेण वि सो कप्पइ, परिहारेणं तु परिभोतुं ॥२३६७॥ इह द्विधा परिहारः, तद्यथा-धारणा परिहरणा च । तत्र धारणा अभोग: अव्यापारणम्, संयमोपबृंहणार्थं स्वसत्तायां स्थापनमित्यर्थः । परिहरणा नाम तस्य घटीमात्रकादेरुपकरणस्य परिभोग: व्यापारणम् । एतेन द्विविधेनापि परिहारेण स घटीमात्रको निर्ग्रन्थीनां परिभोक्तुं कल्पते । स च दिवसं यावत् पानकपूर्णस्तिष्ठति ॥२३६७॥ धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होइ परिभोगो । चेलं तु पहाणयरं, तो गहणं तस्स नऽन्नासिं ॥२३७२॥ धारणता नाम अभोगः अव्यापारणम्, परिहरणा तु तस्य चिलिमिलिकाख्यस्योपकरणस्य परिभोग: व्यापारणमुच्यते । आह वस्त्र-रज्जु-कट-बल्क-दण्डभेदात् पञ्चविद्या चिलिमिलिका वक्ष्यते तत् कथं सूत्रे चेलचिलिमिलिकाया एव ग्रहणम् ? इत्याह-चेलं तु वस्त्रं रज्ज्वादीनां मध्ये बहुतरोपयोगित्वात् प्रधानतरं ततस्तस्यैव सूत्रे ग्रहणं कृतम्, न ‘अन्यासां' रज्जुचिलिमिलिकादीनाम् ॥२३७२॥ अथ विस्तरार्थं भाष्यकृद् बिभणिषुराह- जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं च पंचिंदी। एक्कक्कं पि य एत्तो, होति विभागेणऽणेगविहं ॥३६६१॥ व्या० जङ्गमेभ्यो जातं जङ्गिकम्, तत् पुनर्विकलेन्द्रियनिष्पन्नं पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं वा । अनयोर्मध्ये एकैकमपि विभागेन चिन्त्यमानमनेकविधं भवति ॥३६६१॥ तद्यथा- पट्ट सुवन्ने मलए, अंसुग चीणंसुके च विगलेंदी। उण्णोट्टिय मियलोमे, कुतवे किट्टे त पंदी ॥३६६२॥ व्या० पट्ट त्ति पट्टसूत्रजम्, सुवन्ने त्ति सुवर्णवर्णं सूत्रं केषाञ्चित् कृमीणां भवति तनिष्पन्नं सुवर्णसूत्रजम्, मलयो नाम देशस्तत्सम्भवं मलयजम्, अंशुकः श्लक्ष्णपट्टः तनिष्पन्नमंशुकम्, चीनांशुको नाम कोशिकाराख्यः कृमिः तस्माद् जातं चीनांशुकम्, यद्वा चीना नाम जनपदः तत्र यः श्लक्ष्णतर: पट्टस्तस्माद् जातं चीनांशुकम्, एतानि विकलेन्द्रियनिष्पन्नानि । तथा और्णिकमौष्ट्रिकं मृगरोमजं चेति प्रतीतानि, कुतपो जीणम्, किटं तेषामेवोर्णारोमादीनामवयवाः तनिष्पन्नं वस्त्रमपि किट्टम्, एतानि पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नानि द्रष्टव्यानि ॥३६६२॥" - बृहत्कल्पटीका०। [पृ० ५७९] “अथ भाङ्गिकादीनि चत्वार्यप्येकगाथया व्याचष्टे- अतसी-वंसीमादी, उ भंगियं Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि साणियं च सणवक्के । पोत्तय कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरिडपट्टो ॥३६६३॥ व्या० अतसीमयं वा वंसि त्ति वंशकरीलस्य मध्याद् यद् निष्पद्यते तद् वा, एवमादिकं भाङ्गिकम् । यत् पुनः सनवृक्षवल्काद् जातं तद् वस्त्रं सानकम् । पोतकं कर्पासमयम् । तिरीटवृक्षवल्काद् जातं तिरीटपट्टकम् ॥३६६३॥ पंच परूवेऊणं, पत्तेयं गेण्हमाण संतम्मि । कप्पासिगा य दोण्णि उ, उण्णिय एक्को य परिभोगो ॥३६६४॥ व्या० एवं पञ्च वस्त्राणि प्ररूप्य सम्प्रति ग्रहणविधिरभिधीयतेप्रत्येकम् एकैकस्य साधोः प्रायोग्याणि वस्त्राणि गृह्णता सति विद्यमाने लोभे द्वौ कल्पौ कार्पासिकौ एकश्चौर्णिक इत्येवं त्रयः कल्पा ग्रहीतव्याः । परिभोगश्चामीषाम्, वक्ष्यमाणविधिना विधातव्यः । एषा पुरातना गाथा ॥३६६४॥ अथ कार्पासिकं न प्राप्यते ततः किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह- कप्पासियस्स असती, वागय पट्टे य कोसियारे य । असती य उण्णियस्सा, वागत कोसेज पट्टे य ॥३६६८॥ व्या० कार्पासिकस्याभावे वल्कजम्, तस्याभावे पट्टवस्त्रम्, तदप्राप्तौ कौशिकारवस्त्रमपि ग्रहीतव्यम् । अथौर्णिकं न प्राप्यते तत और्णिकस्य स्थाने प्रथमं वल्कजं ततः कौशेयं ततः पट्टजमपि ग्राह्यम् । यद्वा पट्टशब्देनात्र तिरीटपट्टकमुच्यते । चशब्दादतसी-वंशीमयमपि ग्रहीतव्यम् ॥३६६८॥" - बृहत्कल्पटीका० । “इदाणिं णिज्जुत्ति-वित्थरो- पाउंछणगं दुविधं, उस्सग्गियमाववातियं चेव। एक्कक्कं पि य दुविधं, णिव्वाघातं चा वाघातं ॥८१९॥ पाउंछणं रओहरणं, तं दुविधं- उस्सग्गियं आववातियं च । उस्सग्गियं दुविध- णिव्वाघातितं वाघातियं च । आववातितं पि य दुविधं-णिव्वाघातितं वाघातितं च ॥८१९॥ ___जं तं णिव्वाघातं, तं एगं उण्णियं तु घेत्तव्वं। उस्सग्गियवाघातं, उट्टियसणवजमुंजं च ॥८२३॥ पूर्वार्धन प्रथमभंगार्थः पश्चार्धेन द्वितीयभंगार्थः ॥८२३॥ णिव्वाघातववादी, दारुगदंडुण्णियाहिं दसियाहिं । अववातियवाघातं, उट्टियसणवच्चमुंजदसं ॥८२४॥ पूर्वार्धन तृतीयभंगार्थः । पश्चार्धन चतुर्थभंगार्थः ॥८२४॥" - निशीथ० चूर्णिः ।। [पृ०५८०] “इदं च वक्ष्यमाणलक्षणमन्यत्- ठाणनिसीयतुयट्टण उच्चाराईणि चेव उस्सग्गो। घट्टगडगलगलेवो एमाइ पओयणं बहुहा ॥५५९॥ वृ० स्थानं-कायोत्सर्गः, सोऽचेतने पृथिवीकाये क्रियते, निषीदनम्-उपवेशनं त्वग्वर्त्तनं-निमज्जनं च क्रियते उच्चारादीनां वोत्सर्गः क्रियते, घट्टग त्ति घट्टकः पाषाणकः येन पात्रकं लेपितं सद् घृष्यते, तथा डगलका: अपानप्रोञ्छनार्थं लेपकश्च पात्रकाणाम्, एवमादि प्रयोजनमचित्तेन पृथिवीकायः ॥५५९॥ परिसेयपियणहत्थाइधोयणा चीरधोयणा चेव । आयमण भाणधुवणे एमाइ पओयणं बहुहा ॥५६४॥ वृ० परिषेकः- सेचनं कुष्ठाद्युत्थिते सति क्रियते, तथा पानं हस्तादिधावनं च क्रियते, तथा आचमनं भाजनप्रक्षालनं च क्रियते, एवमादीनि प्रयोजनानि बहुधा भवन्ति ॥५६४।। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ओदनवंजणपानगआयामुसिणोदगं च कुम्मासा । डगलगसरक्खसूई पिप्पलमाई य परिभोगो ॥५७६॥ वृ० ओदनं-कूरादि, व्यञ्जनं-तिम्मणम्, पानकम्-आचाम्लम् आयामम्-अवश्रावणम् उष्णोदकं कुल्माषाश्च, एतानि अग्ने निर्वानि कार्याणि, ततश्चै भिरुपयोगः क्रियते । इदानीमग्निनिर्वर्तितशरीरोपभोगं दर्शयन्नाह- डगलका इष्टकाखण्डा अतीव पक्वाः, सरक्खो-भस्म, सूच्यः, पिप्पलक:-क्षुरकः, एवमादिभिरचित्तैरग्निशरीरैरुपयोगः क्रियते, अग्निशरीराणि च द्विविधानि भवन्ति-बद्धेल्लयाणि मुक्केल्लयाणि च, तत्रात्र मुक्केल्लयाणि द्रष्टव्यानि ॥५७६॥ ___ इदानीमचित्तेन वायुना यत्प्रयोजनं भवति तत्प्रतिपादयन्नाह- दइएण वत्थिणा वा पओयणं होज वाउणा मुणिणो । गेलनम्मि व होजा सचित्तमीसे परिहरेजा ॥५७९॥ वृ० सुगमा॥ नवरं दतिएणं तरणं कीरति, गेलने वत्थिणा कजं होइ । उक्तो वायुः ॥५७९॥ __ संथारपायदंडगखोभिअकप्पाइ पीढफलगाई। ओसहभेसजाणि य एमाइ पओयणं तरुसु ॥५८१॥ वृ० तत्र संस्तारकः अशुषिरतृणैः क्रियते, कल्पद्वयं च कार्पासिकं भवति, औषधमन्तरुपयुज्यते, भेषजं बहिः । उक्तो वनस्पतिकायः ॥५८१॥ __चम्मट्ठिदंतनहरोमसिंगअमिलाइच्छगणगोमुत्ते । खीरदहिमाइयाणं पंचिंदिअतिरिअपरिभोगो ॥५८५।। वृ० तत्र चर्मणा कुष्ठिनः कार्यं भवति, अस्थ्ना-गृध्रनलकेन प्रयोजनं भवति वाय्वाद्यपहरणार्थ पादे बध्यते, दन्तेन सूकरादेः संबन्धिना प्रयोजनं नखेन वा, रोमभिः प्रयोजनमुरभ्रादीनां सत्कैस्तैः कम्बलिका भवति, शृङ्गेण किञ्चित् प्रयोजनं भवेत्, अमिला-उरभ्रा तत्पुरीषं पामादावुयुज्यते, तेन गोमूत्रेण चोपयोगः । शेषं सुगमम् ॥५८५॥" - ओघनि० द्रोणा० ॥ ___ “गुरुपरिवारो गच्छो तत्थ वसंताण निजरा विउला । विणयाओ तह सारणमाईहिं न दोसपडिवत्ती ॥६९६॥ गुरुपरिवारः साधुवर्गो गच्छस्तत्र वसतां गच्छे निर्जरा विपुला भवति, कुत इत्याह- विनयात्, तथा स्मारणादिभिः करणभूतैर्न दोषप्रतिपत्तिर्भवतीति गाथार्थः ॥६९६।। ___अण्णोण्णाविक्खाए जोगम्मि तहिं तहिं पयट्टतो। निअमेण गच्छवासी असंगपयसाहगो भणिओ ॥६९९॥ अन्योऽन्यापेक्षया उक्तन्यायेन योगे तत्र तत्र- विनयादौ प्रवर्त्तमानः सन् नियमेन गच्छवासी साधुरसङ्गपदसाधको ज्ञेयः । असङ्गो मोक्ष इति गाथार्थः ॥६९९॥" - पञ्चवस्तुकटीका। “इक्कस्स कओ धम्मो ? सच्छंदगईमईपयारस्स । किं वा करेइ इक्को परिहरउ कहं अकजं वा ॥१५६॥ व्या० एकस्य कुतो धर्मः ? किंभूतस्य ? स्वच्छंदसा निजाकूतेन गतिमतिप्रचारो बहिश्चेष्टाबुद्ध्याः प्रसरो यस्य स तथा तस्य, किंवा करोत्वेकः कृत्यम्, परहिरतु कथमकार्यं वा अकृत्यमुपायाभावात्, वाशब्दौ परस्परापेक्षया विकल्पार्थाविति ॥१५६॥ ____किंच- कत्तो सुत्तत्थागम- पडिपुच्छणचोयणा य इक्कस्स । विणओ वेयावच्चं - आराहणया य मरणंते ? ॥१५७॥ व्या० कुतः सूत्रार्थागमप्रतिप्रच्छनं चोदनं वा, एकस्य, तत्र सूत्रार्थागमः सूत्रार्थयोर्लाभः, प्रतिप्रच्छनं मुग्धबुद्धितया प्रश्नः, चोदना व्युत्पन्नमतित्वाच्चालना, वाशब्दः Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि प्राग्वत् । ताः कुतः ? एकस्य प्रतिप्रच्छन्नमुदग्रबुद्धितया प्रश्ने चरत्वात् । न कुतश्चित्, अत एव विनयादेकगृहणादिः, वैयावृत्त्यमौषधसंपादनादि, आराधनता वा नमस्कारप्रत्याख्यानादिभावरूपा, मरणान्ते मरणलक्षणावसानकाले कुत इति वर्तते ॥ १५७॥ ११६ तथा - पिल्लिज्जेसणमिक्को पइन्नपमयाजणाउ निच्च भयं । काउमणोवि अकज्जं न तरइ काऊ बहुझे || १५८ ।। व्या० प्रेरयेन्निर्भयत्वादुल्लंघयेत् एषणां गवेषणग्रहणग्रासविषयामागमोक्तां मार्गणामेकः, प्रकीर्णप्रमदाजनादितस्ततो विक्षिप्तस्त्रीलोकात् सकाशादेकस्य नित्यभयं सदाभीतिश्चारित्रधनापहारित्वात्तस्य, व्यतिरेकमाह- कर्मोदयात्कर्तुमना अप्यकार्यं न तरति, न शक्नोति कर्तुम्, बहुमध्ये नियन्त्रितत्वादिति ॥ १५८॥ यथा - उच्चारपासवणवंत-पित्तमुच्छाइमोहिओ इक्को । सदवभाणविहत्थो निक्खिव व कुणइ उड्डाहं ॥१५९॥ व्या० उच्चारं पुरीषम्, प्रश्रवणं मूत्रम्, वान्तं वमनम् पित्तमूर्छा पित्तोद्रेकादाकस्मिकी विह्वलता, आदिशब्दाद्वातविसूचिकादिग्रहः । एतैरकाण्डप्रवृत्तैर्मोहितो विधुरितशरीर एकः सद्रवभाजनविहस्तः सपानकपात्रव्यग्रकरः सन्, वाशब्दो यदिशब्दार्थः, यदि तद्भाजनं निक्षिपति विह्वलतापातेन प्रेरयति तदात्मसंयमविराधनेति गम्यते । अथागृहीतेनाचरति उच्चारादीनि । ततः करोत्युड्डाहं प्रवचनलाघवमिति ॥ १५९ ॥ अन्यच्च - एगदिवसेण बहुआ सुहा य असुहा य जीवपरिणामा । इक्को असुहपरिणओ चइज्ज आलंबणं लद्धुं ॥ १६० ।। व्या० एकदिवसेन बहवः शुभाश्चाशुभाश्च जीवपरिणामा मनोवितर्का भवन्ति, यदि नामैवं ततः किमित्याह - एकोऽसहायोऽशुभपरिणामतः क्लिष्टाध्यवसायगतचित्तः सन् त्यजेदुज्झेत्संयममिति गम्यते, आलम्बनं स्वमतिविकल्पितं किञ्चित्कारणं लब्ध्वा प्राप्येति ॥ १६०॥ किंच- सव्वजिणप्पडिकुटुं अणवत्था थेरकप्पभेओ अ । इक्को अ सुआउत्तो वि हणड़ तवसंजमं अइरा ॥ १६९ ॥ व्या० सर्वजिनैः ऋषभादिभिः प्रतिक्रुष्टम् इति समासः, एकाकित्वमिति गम्यते । तथाहि-अस्मिन् सत्यनवस्था भवति प्रमादप्रचुरतया प्राणिनामपरेषामपि तथा प्रवृत्तेः, अतः स्थविरकल्पभेदश्च, अयः शलाकाकल्पतापत्तेः किं बहुना ? एकः, चशब्दोऽवधारणार्थः, स च पर्यन्ते संभत्स्यते, स्वायुक्तोऽपि सुष्ट्वप्रमत्तोऽपि, आस्तामपरः किम् ? हन्ति विनाशयति तपः प्रधानः संयमस्तपःसंयमस्तमचिरादेव शीघ्रमेवेत्यर्थः ॥१६१॥" इति उपदेशमाला० सिद्धर्षिगणि० [पृ०५८५] "इदाणिं 'अतिहि' त्ति पाएण देति लोगो, उवयारी परिजितेसु वुसिते वा । जो पुण अद्धाखिणं, अतिहिं पूएति तं दाणं ॥ ४४२५ || पातोग्गहं जतो बाहुल्ये उवकारकारी, परिचितो मित्तादी वुसितो समोसिओएगगामनिवासी वा । पायसो एरिसेसु दाणं लोगो देति, तं च दाणं ण भवति । जो त्ति दाता, पुणो त्ति विसेसणे । किं विसेसेति ? अद्धाणं, तम्मि अद्धाणे जो खिन्नः श्रान्त इत्यर्थः, सो अतिही भवति, नान्यः, तं जो पूएति सो दाता, तं च दाणं जं तारिसस्स अतिहिस्स दिज्जति । अतिथावुपस्थितः अतिथी ||४४२५ || अतिहि त्ति गतं । -M Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि इदाणिं किवणे- किवणेसु दुब्बलेसु य, अबंधवायंकजुंगियत्तेसु । पूया हेजे लोए, दाणपडागं हरति देंतो ||४४२४ ।। अपरित्यागशीलः कृपणः, अहवा- दारिद्दोवहतो जायगो कृपणः, स्वभावतो रोगाद्वा दुर्बलः, अबंधुः सर्वस्वजनवर्जितः, ज्वराद्याःतंकेनातंकितः, जुंगितः हस्तपादादिवर्जितः, शिरोऽक्षिदंतादिवेदनार्तः, पूजया लोको हियते, जो एते किवणादि पूएति सो दाणपडागं हरति - सर्वोत्तरं दानं ददातीत्यर्थः ॥ ४४२४|| किवण त्ति गतं । माहणि त्ति अस्य व्याख्या - लोकाणुग्गहकारीसु भूमिदेवेसु बहुफलं दाणं । बंभबंधु, किं पुण छक्कम्मणिरएसु ॥ ४४२३॥ प्रायश्चित्तदान - सूतकविशुद्धि-हस्तग्रहणकरणं, तथान्येषु बहुषु समुत्पद्यमानेषु लोकानुग्रहकारिणं, किं च एते दिवि देवा आसी, प्रजापतिना भूमौ सृष्टा देवा, एतेषु जातिमात्रसंपन्नब्रह्मबंधुष्वपि दत्तं महत् फलं । किमित्यतिशयार्थे । अतिशयेन फलं भवति षट्कर्मनिरतेषु । तानि च यजनं याजनं अध्ययनं अध्यापनं दानं प्रतिग्रहं चेति ॥४४२३॥ मागतं । ११७ इदाणिं साणे त्ति- अवि णाम होति सुलभो, गोणादीणं तणादि आहारो । छिक्किक्कारहयाणं, णय सुलभ होति सुणगाणं ॥ ४४२६ || अवि संभा वाणे । किं संभावेति ? गोणादीणं साणस्स य आहारदुल्लभत्तं । णाम इति पादपूरणे । अहवा - णाम इत्युपसर्गः, अयं चार्थविशेषे, किं विसेसयति ? इमं गोणातीणं दुर्लभोऽप्याहारः तृणादिकं सुलभ एव मन्तव्यः, अटव्यां स्वयं भूतः प्रकीर्णत्वात्, न च श्वानादीनां । कुतः ? पराधीनत्वात् जुगुप्सितत्वाच्च, छिक्किकारकरणा दंडादिभिश्च हन्यमानानां न सुलभ इत्यर्थः ॥४४२६॥ किं च- केलासभवणे एते, आगया गुज्झगा महिं । चरंति जक्खरूवेणं, पूयापूयहिताहिता ॥४४२७॥ कैलासपर्वतो मेरुः, तत्थ जाणि देवभवणाणि तण्णिवासिणो जे देवा एते इमं मच्चलोगं आगच्छंति, जक्खरूवेण श्वानरूपेणेत्यर्थः । अह बुद्धी - किमत्थं आगच्छंति ? भण्णतिपूयापूयहियाहिया । जो पुएति तस्स एते हितं ति हितं करेंति, जो पुण अपूयगो तस्स एते अहियं करेंति । अहवा- पूयापूयहितागता । पूय त्ति पूयणिज्जा, एतेसिं एत्थ पूयं हितं । लोगो क त्ति, तदत्थं एते आगता || ४४२७ || साणि त्ति गतं । समसु इमेण विहिणा - भुंजंति चित्तकम्मट्ठिता व कारुणियदाणरुणो वा । कामगद्दभे वि, ण णासए किं पुण जतीसु ||४४२१ ॥ जहा चित्तकर्म णिविकारं एवं ठिता भुंजंति अण्णं च सत्तेसु कारुणिया दयं कुव्वंति । अप्पणा दाणं देंति, अण्णो वि से दाणं देतो रुच्चति । अवि पदत्थसंभावणाए । इमं संभावेति- जे वि ताव कामपव्वत्ता तेसु वि दाणं दिण्णं ण विणस्सति- फलं ददातीत्यर्थः । किमंग पुण जे इमे जइणो शीलमंता वतधारिणो य । अहो ! वित्तं सुणिं च तेण दाणं बीयमिव सुखेत्ते महफलं ते भविस्सति ||४४२१ ||" - निशीथ० चूर्णि: । I Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ० ५८७] " सम्प्रति भाषासमितिनिरूपणायाह- हितमितासन्दिग्धानवद्यार्थनियतभाषणं भाषासमितिः ।। टी० हितमितेत्यादि । आत्मने परस्मै हितमायत्यामुपकारकं मुखवसनाच्छादितास्यता, नातिबहु प्रयोजनमात्रसाधकं मितम्, असन्दिग्धं सूक्तम् अर्थवर्णप्रतिपत्तौ वा न सन्देहकारि निरवद्यार्थमनुपघातकं षण्णां जीवकायानाम्, एवंविधं च नियतं सर्वदैव भाषणं भाषासमितिः ॥' तत्त्वार्थ० सिद्धसेन० ९ |५|| १९८ - [पृ०५९४] “किं पुनस्तत् ?, इत्याह- अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ ॥ १११९ ॥ व्या० अर्थमेवाऽर्हन् भाषते, न सूत्रं द्वादशाङ्गरूपम्। गणधरास्तु तत् सूत्रं सर्वमपि निपुणं सूक्ष्मार्थप्ररूपकं बह्वर्थं चेत्यर्थः ; अथवा, नियताः प्रमाणनिश्चित गुणा यत्र तद् नियतगुणं निगुणं ग्रथ्नन्ति । ततः शासनस्य हितार्थं सूत्रं प्रवर्तते ॥ इति निर्युक्तिगाथाक्षरार्थः ॥१११९॥ तत्राऽऽभिनिबोधिकज्ञानशब्दार्थं दर्शयन्नाह - अत्थाभिमुहो नियओ बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो । सो चेवाऽऽभिणिबोहिअमहव जहाजोगमाउज्जं ॥८०॥ व्या० बोधनं बोधः, 'ऋ गतौ' अर्यते गम्यते ज्ञायत इत्यर्थः, तस्याभिमुखस्तद्ग्रहणप्रवणः, अर्थबलाssयातत्वेन तन्नान्तरीयकोद्भव इत्यर्थः, अयमभिशब्दस्याऽर्थो दर्शितः, एवंभूतश्च बोधः क्षयोपशमाद्यपाटवेऽनिश्चयात्मकोऽपि स्यात्, अतो नियतो निश्चित इति निशब्देन विशिष्यते - रसाद्यपोहेन ' रूपमेवेदम्' इत्यवधारणात्मक इत्यर्थः । उक्तं च- 'एवमवग्रहोऽपि निश्चितमवगृह्णाति, कार्यत उपलब्धेः ' अन्यथाऽवग्रहकार्यभूतोऽपायोऽपि निश्चयात्मको न स्यादिति भावः । आह- ननु नियतोऽर्थाभिमुख एव भवति, ततो नियतत्वविशेषणमेवाऽस्तु, किमाभिमुख्यविशेषणेन ? । तदयुक्तम्, द्विचन्द्रज्ञानस्य तैमिरिकं प्रति नियतत्वे सत्यप्यर्थाभिमुख्याभावादिति । एवं च सति अर्थाभिमुखो नियतो यो बोधः स तीर्थकर - गणधरादीनामभिनिबोधो मतोऽभिप्रेतः । सो चेवाभिणिबोहियमिति स एवाऽभिनिबोध एवाऽऽभिनिबोधिकम्, विनयादिपाठादभिनिबोधशब्दस्य 'विनयादिभ्यष्ठक् [पा० ५|४ | ३४] इत्यनेन स्वार्थ एव ठक्प्रत्ययः; यथा विनय एव वैनयिकमिति अहव जहाजोगमाउज्जं ति, अथवा नेह स्वार्थिकप्रत्ययो विधीयते, किन्तु यथायोगं यथासंबन्धमायोजनीयं घटमानसंबन्धानुसारेण स्वयमेव वक्तव्यमित्यर्थः, तद्यथा - अर्थाभिमुखे नियते बोधे भवमाभिनिबोधिकम्, तेन वा निर्वृत्तम्, तन्मयं वा, तत्प्रयोजनं वाऽऽभिनिबोधिकम्, तच्च तज्ज्ञानं चाऽऽभिनिबोधिकज्ञानम् ॥ इति गाथार्थः ||८०|| तदेवमाभिनिबोधिकशब्दवाच्यं ज्ञानमुक्तम् । अथवा ज्ञानम्, क्षयोपशमः, आत्मा वा तद्वाच्य इति दर्शयन्नाह - तं तेण तओ तम्मि व सो वाऽभिणिबुज्झए तओ वा तं । तं तमिव सुइ सो वा सुअं तेणं ॥ ८१ ॥ व्या० तं ति आभिमुख्येन निश्चितत्वेन संवेदयते आत्मा तदित्यभिनिबोधोऽवग्रहादिज्ञानम्, स एवाऽऽभिनिबोधिकम्, अथवा आत्मा तेन प्रस्तुतज्ञानेन, तदावरणक्षयोपशमेन वा करणभूतेन घटादि वस्त्वभिनिबुध्यते, तस्माद् वा प्रकृतज्ञानात्, क्षयोपशमाद्वाऽभिनिबुध्यते; तस्मिन् वाऽधिकृतज्ञाने, क्षयोपशमे वा सत्यभिनिबुध्यतेऽ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि वगच्छतीत्यभिनिबोधो ज्ञानम्, क्षयोपशमो वा । सो वाऽभिणिबुज्झए त्ति अथवाऽभिनिबुध्यते वस्त्वभिगच्छतीत्यभिनिबोधः । असावात्मैव, ज्ञान- ज्ञानिनोः कथञ्चिदव्यतिरेकादिति, स एवाऽऽभिनिबोधिकम् । तओ वा तमिति न केवलम् अत्थाभिमुहो नियओ इत्यादिव्युत्पत्त्याssभिनिबोधकमुक्तम् ; किन्तु यतः तं तेण तओ तम्मि इत्यादि व्युत्पत्त्यन्तरमस्ति, ततोऽपि कारणात् तदाभिनिबोधिकमुच्यत इत्यर्थः । नन्वात्म - क्षयोपशमयोराभिनिबोधिकशब्दवाच्यत्वे ज्ञानेन सह कथं समानाधिकरणता स्यात् ? सत्यम्, किन्तु ज्ञानस्याऽऽत्माश्रयत्वात्, क्षयोपशमस्य च ज्ञानकारणत्वादुपचारतोऽत्रापि पक्षे आभिनिबोधिकशब्दो ज्ञाने वर्तते, ततश्चाऽऽभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चाभिनिबोधिकज्ञानमिति समानाधिकरणसमास इत्यदोषः ॥ अथ श्रुतव्युत्पत्तिमाह- तं तेणेत्यादि श्रूयत आत्मना तदिति श्रुतं शब्दः, अथवा श्रूयतेऽनेन श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमेन, श्रूयते तस्मात् क्षयोपशमात्, श्रूयते तस्मिन् क्षयोपशमे श्रुतं क्षयोपशमः । सुणेइ सो व त्ति शृणोतीति श्रुतम् असावात्मेति वा व्युत्पत्तिरित्यर्थः । सुयं तेणेति येनैवं व्युत्पत्तिस्तेन कारणेन श्रुतमुच्यत इत्यर्थः । इह च शब्दस्य श्रुतज्ञानकारणत्वात् क्षयोपशमस्य तद्धेतुत्वादात्मनश्च कथञ्चित् तदव्यतिरेकादुपचारतः श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् ॥ इति गाथार्थः ॥८१॥” विशेषाव० मलधारि० ॥ - १९९ 66 [पृ० ५९५ ] “ अथाऽवधेर्व्युत्पादनार्थमाह- तेणाव हीयए तम्मि वाऽवहाणं Fasar H माया । जं ती दव्वाइ परोप्परं मुणइ तओऽवहित्ति ॥ ८२ ॥ व्या० ततः कारणादवधिरित्युच्यते । यतः किम् ?, इत्याह- तेणाव हीयए त्ति अवशब्दस्याऽव्ययत्वेनाऽनेकार्थत्वादधोऽधो विस्तृतं धीयते परिच्छिद्यते रूपि वस्तु तेन ज्ञानेनेत्यवधिः, अथवा अव मर्यादया एतावत्क्षेत्रं पश्यन् एतावन्ति द्रव्याणि एतावन्तं कालं पश्यतीत्यादिपरस्परनियमितक्षेत्रादिलक्षणया धीयते परिच्छिद्यते रूपि वस्तु तेनेत्यवधिः । तम्मि वत्ति अथवा अवशब्दस्यार्थद्वयं तथैवाऽवधीयते जीवेन तस्मिन् सति वस्त्वित्यवधिः, अकारस्य लुप्तस्याऽदर्शनात् अवहाणं ति वाशब्दोऽनुवर्तते; ततश्चाऽथवाऽवधानमवधिः साक्षादर्थपरिच्छेदनमित्यर्थः, अथवाऽवधीयते तस्माज्जीवेन साक्षाद् वस्त्वित्यवधिरित्युपलक्षणव्याख्यानात् स्वयमेव द्रष्टव्यम् । सो य मज्जायत्ति स चोक्तस्वरूपोऽवधिर्मर्यादयाऽर्थपरिच्छेदने प्रवर्तमानत्वादुपचारतो मर्यादा । एतदेवाह - जं तीए इत्यादि पुंलिङ्गोऽप्यवधिशब्दः प्राकृतत्वात् स्त्रीत्वेन निर्दिष्टः, ततश्च यद् यस्मात् कारणात् तेनाऽनन्तरोक्तेनाऽवधिना जीवो द्रव्यादि मुणति जानाति । कथंभूतं सत् ?, इत्याह- परस्परं नियमितमिति शेषः । वक्ष्यति च - अंगुलमावलिआणं भागमसंखेज दोसु संखेज्जा । अंगुलमावलिअन्तो आवलिआ अंगुलपुहत्तं ॥ | १ || हत्थम्मि मुहुत्तन्तो दिवसंतो गाउयम्मि बोधव्वो [विशेषाव०६०८- ९] इत्यादि ॥ तस्मादनया परस्परोपनिबन्धलक्षणया मर्यादया यतो जीवस्तेनाऽवधिना द्रव्यादिकं मुणति [ जानाति ] ततोऽवधिरप्युपचाराद् मर्यादेति भावः । अवधिश्चासौ ज्ञानं चेत्यवधिज्ञानम्, इति प्रक्रमलब्धेन Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ज्ञानशब्देन समासः ॥ इति गाथार्थः ॥८२॥ अथ मनःपर्यायज्ञानविषयां व्युत्पत्तिमाह- पजवणं पज्जयणं पजाओ वा मणम्मि मणसो वा । तस्स व पजायादिनाणं मणपजवं नाणं ॥८३॥ व्या० पजवणं ति 'अव गत्यादिषु' [पा०धा० ६००] इति वचनादवनं गमनं वेदनमित्यवः, परिः सर्वतोभावे, पर्यवनं समन्तात् परिच्छेदनं पर्यवः। क्वाऽयम् ?, इत्याह- मणम्मि मणसो व त्ति मनसि मनोद्रव्यसमुदाये ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य संबन्धी पर्यवो मनःपर्यवः, स चासौ ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानम् । अथवा पज्जयणं ति ‘अय वय मय' [पा०धा० ४७८-४८०]- इत्यादिदण्डकधातुः, अयनं गमनं वेदनमित्ययः, परिः सर्वतोभावे, पर्ययनं सर्वतः परिच्छेदनं पर्ययः । व पुनरसौ ?, इत्याह- मणम्मि मणसो व त्ति मनसि ग्राह्ये, मानसो वा ग्राह्यस्य संबन्धी पर्ययो मनःपर्ययः स चासौ ज्ञानं च मनःपर्ययज्ञानम् । पजाओ व त्ति अथवा 'इण् गतौ' [पा०धा० १०४५] अयनम्, आयः, लाभः, प्राप्तिरिति पर्यायाः, परिस्तथैव, समन्तादायः पर्यायः । क्व ?, इत्याह- मणम्मि मणसो व त्ति मनसि ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य पर्यायो मनःपर्यायः, स चासौ ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् । एवं तावज्ज्ञानशब्देन सह सामानाधिकरण्यमङ्गीकृत्योक्तम् ॥ ___ अथ वैयधिकरण्यमङ्गीकृत्याह- तस्स वेत्यादि, वाशब्दः पक्षान्तरसूचकः, तस्येति मनसः, पर्यायाः, पर्यवाः, पर्ययाः, धर्मा इत्यनर्थान्तरमिति; आदिशब्दात् पर्यव-पर्ययपरिग्रहः, ततश्चायमर्थःअथवा तस्य मनसो ग्राह्यस्य संबन्धिनो बाह्यवस्तुचिन्तनानुगुणा ये पर्यायाः, पर्यवाः, पर्ययास्तेषां तेषु वा 'इदमित्थंभूतमनेन चिन्तितम्' इत्येवंरूपं ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, मनःपर्यवज्ञानम्, मनःपर्ययज्ञानं चेति ज्ञानशब्देन सह व्यधिकरणः समासः । अत एव ‘पायं च नाणसद्दो नामसमाणाहिगरणोऽयं' इत्यत्र प्रायोग्रहणं करिष्यति ॥ इति गाथार्थः ॥८३॥ अथ केवलज्ञानविषयं शब्दार्थमाह- केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणन्तं च । पायं च नाणसद्दो नामसमाणाहिगरणोऽयं ॥८४॥ व्या० केवलमिति व्याख्येयं पदम् । ततः केवलमिति कोऽर्थः ?, इत्याह- एकमसहायमिन्द्रियादिसाहाय्यानपेक्षित्वात्, तद्भावे शेषच्छाद्मस्थिकज्ञाननिवृत्तेर्वा शुद्धं निर्मलं सकलावरणमलकलङ्कविगमसंभूतत्वादिति । सकलं परिपूर्णं संपूर्णज्ञेयग्राहित्वात्, असाधारणमनन्यसदृशं तादृशाऽपरज्ञानाभावात्, अनन्तम्, अप्रतिपातित्वेनाऽविद्यमानपर्यन्तत्वात्, इत्येकादिष्वर्थेषु केवलशब्दोऽत्र वर्तते, केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानमिति समासः । आह- नन्वाभिनिबोधिकादीनि ज्ञानवाचकानि नामान्येव भाष्यकृता ‘अत्थाभिमुहो नियओ' इत्यादौ सर्वत्र व्युत्पादितानि, ज्ञानशब्दस्तु न क्वचिदुपात्तः, स कथं लभ्यते ?, इत्याशङ्क्याह- पायं चेत्यादि प्रक्रमलब्धो ज्ञानशब्द आभिनिबोधिकश्रुतादिभिर्ज्ञानाभिधायकैर्नामभिः समानाधिकरणः स्वयमेव योजनीयः, स च योजित एव, तद्यथाआभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं च, श्रुतं च तज्ज्ञानं चेत्यादि । क्वचिद् वैयाधिकरण्यसमासोऽपि संभवतीति प्रायोग्रहणम् । स च मनःपर्यायज्ञाने दर्शित एव, अन्यत्राऽपि च यथासंभवं द्रष्टव्यः ॥ इति गाथार्थः ॥८४॥" - विशेषाव० मलधारि० ॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि [पृ० ५९६] “तदेवं ज्ञानपञ्चकस्याप्यभिधानार्थे कथिते आह कश्चित् - नन्वादी मतिश्रुतोपन्यासः किमर्थः ? इति । अत्राऽऽचार्यः प्राह- जं सामि-काल- कारण - विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाई । तब्भावे सेसाणि य तेणाईए मड़ - सुयाई ॥ ८५ ॥ व्या० तेन कारणेनादौ मति श्रुते निर्दिष्टे । किम् ?, इत्याह-जं सामीत्यादि इति संटङ्कः । मतिशब्दोऽत्राऽऽभिनिबोधिकसमानार्थो द्रष्टव्यः, आभिनिबोधिकं ह्यौत्पत्तिक्यादिमतिप्रधानत्वाद् मतिरित्यप्युच्यते । यद् यस्मात् कारणात् स्वामि-कालकारण-विषय-परोक्षत्वैस्तुल्ये समानस्वरूपे मति - श्रुते, तेनाऽऽदौ निर्दिष्टे इत्यर्थः । तत्र स्वामी तावदनयोरेक एव ' जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं' इत्याद्यागमवचनादिति । कालोऽपि द्विधानानाजीवापेक्षया, एकजीवापेक्षया च । स चाऽयं द्विविधोऽप्यनयोस्तुल्य एव, नानाजीवावापेक्षा द्वयोरपि सर्वकालमनुच्छेदाद्; एकजीवापेक्षया तूभयोरपि निरन्तरसातिरेक सागरोपमषट्षष्टिस्थितिकत्वेनाऽत्रैवाऽभिधास्यमानत्वादिति । कारणमपीन्द्रिय-मनोलक्षणं स्वावरणक्षयोपशमस्वरूपं च द्वयोरपि समानम् । उभयस्याऽपि सर्वद्रव्यादिविषयत्वाद् विषयतुल्यता । परनिमित्तत्वाच्च परोक्षत्वसमता। ननु यद्येवमनयोः परस्परं तुल्यता, तर्ह्येकत्र द्वयोरप्युपन्यासोऽस्तु, आदावेव तु तदुपन्यासः कथम् ?, इत्याह- तब्भावे इत्यादि तद्भावे मति - श्रुतज्ञानसद्भाव एव शेषाण्यवध्यादीन ज्ञानान्यवाप्यन्ते; नान्यथा, न हि स कश्चित् प्राणी भूतपूर्वः, अस्ति, भविष्यति वा, यो मतिश्रुतज्ञाने अनासाद्य प्रथममेवाऽवध्यादीनि शेषज्ञानानि प्राप्तवान् प्राप्नोति, प्राप्स्यति वेति भावः । ततस्तदवाप्तौ शेषज्ञानाऽवाप्तेश्चादौ मति - श्रुतोपन्यासः ॥ इति गाथार्थः ॥८५॥ भवतु तर्ह्यादौ मति - श्रुतोपादानम्, केवलं पूर्वं मतिः, पश्चात्तु श्रुतमित्यत्र किं कारणम्, यावता विपर्ययोऽपि कस्माद् न भवति ?, इत्याह- मइपुव्वं जेण सुयं तेणाईए मई, विसो वा । मइभेओ चेव सुयं तो मइसमणंतरं भणियं ॥ ८६ ॥ व्या० मतिः पूर्वं प्रथममस्येति मतिपूर्वं येन कारणेन श्रुतज्ञानम्, तेन श्रुतस्यादौ मतिः, तीर्थकर - गणधरैरुक्तेति शेषः, न ह्यवग्रहादिरूपे मतिज्ञाने पूर्वमप्रवृत्ते कापि श्रुतप्रवृत्तिरस्तीति भावः । विसिट्ठो वा मइभेओ चेव सुयं ति यदि वा इन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तद्वारेणोपजायमानं सर्वं मतिज्ञानमेव, केवलं परोपदेशादागमवचनत्वाच्च भवन् विशिष्टः कश्चिद् मतिभेद एव श्रुतम् ; नान्यत् । ततो मूलभूताया मतेरादौ विन्यासः, तद्भेदरूपं तु श्रुतज्ञानं तत्समनन्तरं भणितमित्यदोषः । 'मइपुव्वं जेण सुयं' इत्यादिकश्चाऽर्थः पुरतः प्रपञ्चेन भणिष्यते ॥ इति गाथार्थः ।।८६।। अथ मतिश्रुतानन्तरमवधेः, तत्समनन्तरं च मनः पर्यायज्ञानस्योपन्यासे कारणमाहकाल- विवज्जय - सामित्त-लाभसाहम्मओऽवही तत्तो । माणसमित्तो छउमत्थ-विसयभावादिसामण्णा ||८७।। व्या० ततो मति - श्रुताभ्यामनन्तरमवधिर्निर्दिष्टः । कुतः ?, इत्याह- कालविपर्यय-स्वामित्व - लाभसाधर्म्यात् । तत्र नानाजीवापेक्षया, एकजीवापेक्षया च मति - श्रुताभ्यां सहाऽवधेः समानस्थितिकालत्वात् कालसाधर्म्यम् । यथा च मिथ्यात्वोदये मति-श्रुतज्ञाने अज्ञानरूपं १२१ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि विपर्ययं प्रतिपद्येते, तथाऽवधिरपि, इति विपर्ययसाधर्म्यम् । य एव च मति - श्रुतयोः स्वामी स वाऽवधेरपि इति स्वामिसाधर्म्यम् । लाभोऽपि कदाचित् कस्यचिदमीषां त्रयाणामपि ज्ञानानां युगपदेव भवति, इति लाभसाधर्म्यम् । माणसमित्तो इत्यादि इतोऽवधेरनन्तरं मनोविषयत्वाद् मनसि भवं मानसं मनःपर्यायज्ञानं युक्तम् । कुतः ?, इत्याह- छद्मस्थ-विषय- भावादिसामान्यात्; आदिशब्दात् प्रत्यक्षत्वादिसामान्यं गृह्यते, समानस्य भावः सामान्यं साम्यं तस्मादित्यर्थः । तत्र यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्यैव भवति तथा मनः पर्यायज्ञानमपीति च्छद्मस्थसाम्यम् । उभयोरपि पुद्गलमात्रविषयत्वाद् विषयसाम्यम् । द्वयोरपि क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वाद् भावसाम्यम् । द्वितयस्याऽपि साक्षाद्दर्शित्वात् प्रत्यक्षत्वसाम्यम् । एवमन्यापि प्रत्यासत्तिरभ्यूा || इति गाथार्थः ॥ ८७॥ अथ केवलज्ञानस्य सर्वोपरिनिर्देशे कारणमाह- अन्ते केवलमुत्तम- जइसामित्तावसाणलाभाओ । एत्थं च मइ - सुयाइं परोक्खमियरं च पच्चक्खं ॥ ८८ ॥ व्या० अन्ते सर्वज्ञानानामुपरि केवलज्ञानमभिहितम् । कुतः ?, इत्याह- भावप्रधानत्वाद् निर्देशस्य उत्तमत्वात्, सर्वोत्तमं हि केवलज्ञानम्, अतीता - ऽनागत- वर्तमाननिः शेषज्ञेयस्वरूपावभासित्वादिति । यथा च मनः पर्यायज्ञानस्य यतिरेव स्वामी, तथा केवलज्ञानस्यापि ततो यतिस्वामित्वसाम्याद् मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानमभिहितम् । तथा समस्तापरज्ञानानामवसान एवाऽस्य लाभादवसान एव निर्देश इति । तदेवमुपन्यासक्रमे समर्थिते सत्याह कश्चित् - नन्वेतानि पञ्च ज्ञानानि किं परोक्षस्वरूपाणि, आहोस्वित् प्रत्यक्षाणि ? इति । अत्राह - एत्थं चेत्यादि एतेषु पञ्चसु ज्ञानेषु मध्ये मति श्रुते परोक्षे, इतरत् त्ववध्यादि ज्ञानत्रयं प्रत्यक्षम् ॥ इति गाथार्थः ॥८८॥” विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ०५९७] “पच्चक्खाणं सव्वन्नुदेसिअं जं जहिं जया काले । तं जो सद्दहइ नरो तं जासु सद्दहणसुद्धं ॥ २४६ ॥ प्रत्याख्यानं सर्वज्ञभाषितं तीर्थकरप्रणीतमित्यर्थः यदिति यत् सप्तविंशतिविधस्यान्यतमम्, सप्तविंशतिविधं च पञ्चविधं साधूमूलगुणप्रत्याख्यानं दशविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं द्वादशविधं श्रावकप्रत्याख्यानं यत्र जिनकल्पे चतुर्यामे पञ्चयामे वा श्रावकधर्मे वा यदा सुभिक्षे दुर्भिक्षे वा पूर्वाह्ने पराले वा काल इति- चरमकाले तत् यः श्रद्धत्ते नरः तत् तदभेदोपचारात् तस्यैव तथापरिणतत्वाज्जानीहि श्रद्धानशुद्धमिति गाथार्थः ॥ २४६ ॥ “विनयशुद्धमुच्यते, तत्रेयं गाथा- किइकम्मस्स विसोही पउंजई जो अहीणमइरित्तं । मणवयणकायगुत्तो तं जाणसु विणयओ सुद्धं ॥ २४८ ॥ कृतिकर्मणः वन्दनकस्येत्यर्थः विशुद्धिं निरवद्यकरणक्रियां प्रयुङ्क्ते यः सः प्रत्याख्यानकाले अन्यूनातिरिक्तां विशुद्धिं मनोवाक्कायगुप्तः सन् प्रत्याख्यातृपरिणामत्वात् प्रत्याख्यानं जानीहि विनयतो विनयेन शुद्धमिति गाथार्थः ॥२४८॥” आव० हारि० । - " - Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १२३ [पृ० ५९८] “अणुभासइ गुरुवयणं अक्खरपयवंजणेहिं परिसुद्धं । पंजलिउडो अभिमुहो तं जाणणु भासणासुद्धं ॥२४९॥ अधुनाऽनुभाषणशुद्धं प्रतिपादयन्नाह- कृतकृतिकर्मा प्रत्याख्यानं कुर्वन् अनुभाषते गुरुवचनम्, लघुतरेण शब्देन भणतीत्यर्थः, कथमनुभाषते ?- अक्षरपदव्यञ्जनैः परिशुद्धम्, अनेनानुभाषणायत्नमाह, णवरं गुरू भणति वोसिरति, इमोवि भणति- वोसिरामो'त्ति, सेसं गुरुभणितसरिसं भाणितव्वं । किंभूतः सन् ?, कृतप्राञ्जलिरभिमुखस्तजानीह्यनुभाषणाशुद्धमिति गाथार्थः ॥२४९॥ कंतारे दुब्भिक्खे आयंके वा महई समुप्पन्ने । जं पालियं न भग्गं तं जाणणु पालणासुद्धं ॥२५०॥ साम्प्रतमनुपालनाशुद्धमाह- कान्तारे अरण्ये दुर्भिक्षे कालविभ्रमे आतङ्के वा ज्वरादौ महति समुत्पन्ने सति यत् पालितं यन्न भग्नं तज्जानीह्यनुपालनाशुद्धमिति । एत्थ उग्गमदोसा सोलस उप्पादणाएवि दोसा सोलस एसणादोसा दस एते सव्वे बातालीसं दोसा णिच्चपडिसिद्धा, एते कंतारे दुर्भिक्षादिसु ण भज्जति त्ति गाथार्थः ॥२५०॥ रागेण व दोसेण व परिणामेण व न दूसियं जं तु । तं खलु पच्चक्खाणं भावाविसुद्धं मुणेयव्वं ॥२५१॥ इदानीं भावशुद्धमाह- रागेण वा अभिष्वङ्गलक्षणेन द्वेषेण वा अप्रीतिलक्षणेन, परिणामेन च इहलोकाद्याशंसालक्षणेन स्तम्भादिना वा वक्ष्यमाणेन न दूषितं न कलुषितं यत् तु यदेव तत् खल्विति तदेव खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् प्रत्याख्यानं भावविशुद्धं मुणेयव्वं ति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ॥ अवयवत्थो पुण-रागेण एस पूइज्जदित्ति अहंपि एवं करेमि तो पुजिहामि एवं रागेण करेति, दोसेण तहा करेमि जहा लोगो ममहुत्तो पडति तेण एतस्स ण अड्डायति एवं दोसेण, परिणामेण णो इहलोगट्ठताए णो परलोगट्ठयाए नो कित्तिजसवण्णसद्दहेतुं वा अण्णपाणवत्थलोभेण सयणासणवत्थहेतुं वा, जो एवं करेति तं भावसुद्धं ॥२५१॥ पच्चक्खाणं जाणइ कप्पे जं जंमि होइ कायव्वं । मूलगुणे उत्तरगुणे तं जाणसु जाणणासुद्धं ॥२४७॥ ज्ञानशुद्ध प्रतिपाद्यते, तत्र- प्रत्याख्यानं जानाति अवगच्छति कल्पे जिनकल्पादौ यत् प्रत्याख्यानं यस्मिन् भवति कर्त्तव्यं मूलगुणोत्तरगुणविषयं तजानीहि ज्ञानशुद्धमिति गाथार्थः ॥२४७॥" - आव० हारि० ।। [पृ० ५९९] “अधुना प्रतिक्रान्तव्यमुच्यते, तत्पुनरोघतः पञ्चधा भवतीति, आह च नियुक्तिकार:मिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं । कसायाण पडिक्कमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं ॥१२५०॥ व्या० मिथ्यात्वमोहनीयकर्मपुद्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामो मिथ्यात्वं तस्य प्रतिक्रमणं तत्प्रतिक्रान्तव्यं वर्तते, यदाभोगानाभोगसहसात्कारैर्मिथ्यात्वं गतस्तत्प्रतिक्रान्तव्यमित्यर्थः, तथैव असंयमे असंयमविषये प्रतिक्रमणम्, असंयमः प्राणातिपातादिलक्षणः प्रतिक्रान्तव्यो वर्तते, कषायाणां प्राग्निरूपितशब्दार्थानां क्रोधादीनां प्रतिक्रमणम्, कषायाः प्रतिक्रान्तव्याः, योगानां च Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि मनोवाक्कायलक्षणानाम् अप्रशस्तानाम् अशोभनानां प्रतिक्रमणम्, ते च प्रतिक्रान्तव्या इति गाथार्थः ॥१२५०॥" - आव० हारि० । [पृ०६०३] “अस्य योग्यमाह- सुत्तत्थे णिम्माओ पिअदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपण्णो गंभीरो लद्धिमंतो अ॥१३१५॥ संगहुवग्गहनिरओ कयकरणो पवयणाणुरागी अ । एवंविहो उ भणिओ गणसामी जिणवरिंदेहिं ॥३५१६॥ सूत्रार्थे निर्मातो निष्ठितः प्रियदृढधर्म उभययुक्तः । अनुवर्त्तनाकुशल उपायज्ञो जातिकुलसम्पन्न एतद्द्वयसमन्वितो गम्भीरो महाशयो लब्धिमांश्च, उपकरणाद्यधिकृत्येति गाथार्थः ॥१३१५॥ संग्रहोपग्रहनिरतः सङ्ग्रह उपदेशादिना उपग्रहो वस्त्रादिना, व्यत्यय इत्यन्ये, कृतकरणो ऽभ्यस्तक्रियः प्रवचनानुरागी च, प्रकृत्या परार्थप्रवृत्त एवंविध एव भणित: प्रतिपादितो गणस्वामी गच्छधरो जिनवरेन्द्रर्भगवद्भिरिति गाथार्थः ॥१३१६।। - पञ्चवस्तुकटीका। [पृ० ६०८] “एयं पुण एवं खलु अण्णाणपमायदोसओ नेयं । जं दीहा कायठिई भणिया एगिदियाईणं ॥१६॥ व्या० एतन्मनुजत्वम्, पुनः शब्दो विशेषणार्थः । ततश्चायमर्थः- प्राक् सामान्येन मनुजत्वदुर्लभत्वमुक्तम्, सांप्रतं तदेवोपपत्तिभिः साध्यत इति । एवं खलु त्ति एवमेव दुर्लभमेव । कुत इत्याह- अज्ञानप्रमाददोषत: अज्ञानदोषात् सदसद्विवेचनविरहापराधात् प्रमाददोषाच्च विषयासेवनादिरूपाज्ज्ञेयमवगन्तव्यम् । एतदाविष्टो हि जीव एकेन्द्रियादिजातिषु दूरं मनुजत्वविलक्षणासु अरघट्टघटीयन्त्रक्रमेण पुनः पुनरावर्त्तते एतदपि कथं सिद्धमित्याह- यत्कारणाद्दीर्घा द्राघीयसी कायस्थिति: पुनः पुनः मृत्वा तत्रैव काये उत्पादलक्षणा भणिता प्रतिपादिता सिद्धान्ते एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिलक्षणानां जीवानामिति ॥१६॥ एसा य असइदोसासेवणओ धम्मवजचित्ताणं । ता धम्मे जइयव्वं सम्मं सइ धीरपुरिसेहिं ॥१८॥ व्या० एषां चेयं पुनर्दोघीयसी स्थितिः असकृदनेकवारान् अनेकेषु भवेष्वित्यर्थः, दोषासेवनत: दोषाणां राहुमण्डलवत् शशधरकरनिकरवातस्पर्द्धिस्वभावस्य जीवस्य मालिन्याधायकतया दूषकाणां निविडवेदोदयाज्ञानभयमोहादीनां यदासेवनं मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिसहायैराचरणं तस्मात् । केषामित्याह- धर्मबाह्यचित्तानां श्रुतधर्माच्चारित्रधर्माच्च सर्वथा बाह्मचित्तानां स्वप्नायमानावस्थायामपि तत्रानवतीर्णमानसानामित्यर्थः । यत एवम्, ता इति तस्माद्धर्मे उक्तलक्षणे एव एकान्तेनैवैकेन्द्रियादिजातिप्रवेशनिवारणकारिणि भवोद्भवभूरिदुःखज्वलनविध्यापनवारिणि यतितव्यं सर्वप्रमादस्थानपरिहारेणोद्यमः कार्यः सम्यग् मार्गानुसारिण्या प्रवृत्त्या स्वसामर्थ्यालोचनसारं सदा सर्वास्ववस्थासु धीरपुरुषैर्बुद्धिमद्भिः पुम्भिः ॥१८॥" - इति उपदेशपदे श्रीमुनिचन्द्रसूरि० टीका० । “श्रुत्यवाप्तावपि श्रद्धादुर्लभतामाह- आहच्च सवणं लर्बु, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेयाउयं मग्गं, बहवे परिभस्सइ ॥१०४॥ वृ० आहच्च इति कदाचित् श्रवणम् प्रक्रमाद्धर्माकर्णनम्, Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम- टिप्पनानि १२५ उपलक्षणत्वान्मनुष्यत्वं च लब्ध्वेति, अपिशब्दस्य गम्यमानत्वात् लब्ध्वापि- अवाप्यापि श्रद्धा रुचिरूपा प्रक्रमाद्धर्मविषयैव परमदुर्लभा अतिशयदुरापा, कुतः पुनः परमदुर्लभत्वमस्या इत्याहश्रुत्वा आकर्ण्य, न्यायेन चरति- प्रवर्त्तते नैयायिकः, न्यायोपपन्न इत्यर्थः, तं मार्गम् सम्यग्दर्शनाद्यात्मकं मुक्तिपथं बहवः नैक एव, परि इति सर्वप्रकारं 'भस्सईत्ति भ्रश्यन्ति- च्यवन्ते प्रक्रमान्नैयायिकमार्गादेव, यथा जमालिप्रभृतयः, यच्च प्राप्तमप्यपैति तच्चिन्तामणिवत् परमदुर्लभमेवेति भावः ॥१०४॥" - उत्तरा० पाईय० ३९ ॥ “धम्मं पि हु सद्दहंतया, दुल्लभया काएण फासया । इह कामगुणेहिं मुच्छिया समयं गोयम ! मा पमायए ॥३१०॥ वृ० अन्यच्च- धर्मं प्रक्रमात् सर्वज्ञप्रणीतम् अपि: भिन्नक्रमः हुः वाक्यालङ्कारे, ततः श्रद्दधतोऽपि कर्तुमभिलषन्तोऽपि दुर्लभकाः कायेन शरीरेण, उपलक्षणत्वान्मनसा वाचा च, स्पर्शका अनुष्ठातारः, कारणमाह- इह अस्मिन् जगति कामगुणेषु शब्दादिषु मूर्च्छिता मूढाः, गृद्धिमन्त इत्यर्थः, जन्तव इति शेषः, प्रायेण ह्यपथ्येष्वेव विषयेष्वभिष्वङ्गः प्राणिनाम्, यत उक्तम्- ‘प्रायेण हि यदपथ्यं तदेव चाऽऽतुरजनप्रियं भवति । विषयातुरस्य जगतस्तथाऽनुकूलाः प्रिया विषयाः ॥' [ ] पाठान्तरतः कामगुणैर्मूर्च्छिता इव मूर्च्छिताः, विलुप्तधर्मविषयचैतन्यत्वात्, यतश्चैवमतो दुरापामिमामविकलां धर्मसामग्रीमवाप्य समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति ॥३१०॥" - उत्तरा० पाईय० १०१२० ॥ [पृ०६११] “वज्जरिसहनारायं, पढमं बीयं च रिसभनारायं । नारायमद्धनारायं कीलिआ तह य छेवढं ॥१७३॥ व्या० प्रथमं संहननं वज्रर्षभनाराचम्, द्वितीयमृषभनाराचम्, तृतीयं नाराचम्, चतुर्थमर्धनाराचम्, पञ्चमं कीलिका, षष्ठं सेवार्तम् । तत्र वज्रं कीलिका, ऋषभः परिवेष्टनपट्टः, नाराचमुभयतो मर्कटबन्धः ॥१७३।। तथा चाह- रिसहो अ होइ पट्टो, वज्जं पुण कीलिया मुणेयव्वा । उभओ मक्कडबंध, नारायं तं वियाणाहि ॥१७४॥ व्या० सुगमा । ततो द्वयोरस्थ्नोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकाख्यं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति, तद्वज्रर्षभनाराचसंज्ञं प्रथम संहननम् । यत् पुनः कीलिकारहितं संहननं भवति, तदृषभनाराचं द्वितीयं संहननम् । यत्र त्वस्थ्नोर्मर्कटबन्ध एव केवलो भवति, तन्नाराचसंज्ञं तृतीयं संहननम् । यत्र पुनरेकपार्श्वे मर्कटबन्धो द्वितीयपार्श्वे च कीलिका तदर्धनाराचसंज्ञं चतुर्थं संहननम्। तथा यत्रास्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति, तत् कीलिकाख्यं पञ्चमं संहननम् । यत्र पुनः परस्परं पर्यन्तमात्रसंस्पर्शलक्षणां सेवामागतान्यस्थीनि भवन्ति, नित्यमेव च स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परिशीलनामपेक्षन्ते, तत्सेवार्तं षष्ठं संहननमिति ॥१७४॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० । [पृ०६१२] “एतदेव संस्थानव्याख्यानमाह- तुलं वित्थडबहुलं, उस्सेहबहुं च मडहकोठं Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि. च। हेट्टिल्लकायमडहं सव्वत्थासंट्ठियं हुंडं ॥१७६॥ व्या० समचतुरस्र संस्थानं तुल्यं सर्वासु दिक्षु शास्त्रोक्तेन प्रकारेण समप्रमाणम् । न्यग्रोधमण्डलं नाभेरुपरि विस्तृतबहुलं विस्तारबहुलम् । सादिसंस्थानमुत्सेधबहूत्सेधबहुलं प्रमाणोपपन्नोत्सेधमित्यर्थः । वामनं मडभकोष्ठं मडभो न्यूनाधिकप्रमाणः कोष्ठो यत्र तन्मडभकोष्ठं परिपूर्णप्रमाणपाणिपादशिरोग्रीवाद्यवयवं न्यूनाधिकप्रमाणकोष्ठं वामनमित्यर्थः। कुब्जमधस्तनकायमडभमधस्तनाः पाणिपादशिरोग्रीवादिरूपा अवयवा मडभा यस्य तत्तथा यत् प्रमाणहीनहस्तपादशिरोग्रीवाद्यवयवं परिपूर्णप्रमाणकोष्ठं तत् कुब्जमित्यर्थः। अन्ये तु वामनकुब्जयोर्व्यत्यासेन लक्षणं प्रतिपेदिरे, अधस्तनकायमडभं वामनं मडभकोष्ठं कुब्जमिति । तथा सर्वत्र सर्वेषु शरीरावयवेष्वसंस्थितं न शास्त्रोक्तेन प्रमाणेन संस्थितं तत् हुण्डं हुण्डसंस्थानमिति ॥१७६॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० । [पृ० ६१५-१६] “एनामेव गाथां विवृणोति- नत्थि छुहाए सरिसा वियणा भुंजेज तप्पसमणट्ठा। छाओ वेयावच्चं ण तरइ काउं अओ भुंजे ॥६६३॥ इरिअं नऽवि सोहेई पेहाईअं च संजमं काउं । धामो वा परिहायइ गुणऽणुप्पेहासु अ असत्तो ॥६६४॥ नास्ति क्षुधासदृशी वेदना, उक्तं च- पंथसमा नत्थि जरा दारिद्दसमो य परिभवो नत्थि । मरणसमं नत्थि भयं छुहासमा वेयणा नत्थि ॥१॥ तं नत्थि जं न वाहइ तिलतुसमित्तं पि एत्थ कायस्स । सन्निझं सव्वदुहाई देंति आहाररहियस्स ॥२॥ [ ] ततस्तत्प्रशमनार्थं भुञ्जीत, छातो बुभुक्षितः सन् वैयावृत्यं कर्तुं न शक्नोति, तथा चोक्तम्- गलइ बलं उच्छाहो अवेइ सिढिलेइ सयलवावारे । नासइ सत्तं अरई विवड्डए असणरहियस्स ॥१॥ [ ] अतो वैयावृत्यकरणाय भुञ्जीत । एवमीर्यापथशोधनादीन्यपि कारणानि भाव्यानि ॥६६३-६६४॥ आयंको जरमाई रायासन्नायगाइ उवसग्गो । बंभवयपालणट्ठा पाणिदया वासमहियाई॥ तवहेउ चउत्थाई जाव उ छम्मासिओ तवो होइ । छटुं सरीखोच्छेयणट्ठया होअणाहारो॥६६७६६८॥ आतङ्को ज्वरादिस्तत्र न भुञ्जीत, यत उक्तम्-ब्रह्मावरोधि निर्दिष्टं ज्वरादौ लङ्घनं हितम् । ऋतेऽनिलश्रमक्रोधशोककामक्षतज्वरान् ॥१॥ [ ] तथा राजस्वजनादिकृतोपसर्गे च, तथा ब्रह्मव्रतपालनार्थम्, तथा वर्षे वर्षन्ति महिकायां वा निपतन्त्यां प्राणिदयार्थं नाश्नीयात् ॥६६७।। तवहेउ.... तपोहेतोर्न भुञ्जीत, तपश्चतुर्थादि यावत् षण्मासिकं भवति, षष्ठं पुनः प्रागुक्तविधिना चरमकाले शरीरव्यवच्छेदार्थं भवत्यनाहारः ॥६६८॥” इति पिण्डनि० क्षमारत्न० [पृ० ६१७] “चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते ॥ यस्य तन्मुषितं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥२४॥७॥ वृ० चित्तं मनस्तद्रत्नमिव चित्तरत्नं निर्मलस्वभावत्वोपाधिजनितविकारत्वादिसाधर्म्यात्, असंक्लिष्टं रागादिसंक्लेशवर्जितम्, आन्तरम् आध्यात्मिकम्, धनं वसु, उच्यते अभिधीयते, यस्य देहिनः, तत् चित्तरत्नम्, मुषितम् अपतहृतम्, दोषैः रागादिभिः तस्य Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १२७ देहिनः, शिष्टा उद्वरिताः विपत्तयो व्यसनानि, असंक्लिष्टचित्तरत्नाभावे हि हर्षविषादादिरूपाः कुगतिगमनरूपा वा विपद एवावशिष्यन्त इति ॥२४॥७॥" - अष्टकप्रक० वृत्तिः । पृ०६१९] “अवयवार्थं त्वाह- 'वितहकरणंमि तुरिअं अण्णं अण्णं व गिण्ह आरभडा। अंतो उ होज कोणा णिसिअण तत्थेव सम्मदा ॥२४६॥ वितथकरणे वा प्रस्फोटनाद्यन्यथासेवने वा आरभटा, त्वरितं वा द्रुतं वा सर्वमारभमाणस्य, अन्यदर्द्धप्रत्युपेक्षितमेव मुक्त्वा कल्पमन्यद्वा गृह्णत आरभडेति, वाशब्दो विकल्पार्थत्वात् सर्वत्राभिसम्बध्यते आरभडाशब्दश्च, सम्मस्वरूपमाहअन्तस्तु भवेयुः कोणा वस्त्रस्य, तुर्विशेषाणार्थः, किं विशिनष्टि ?, तानन्विषतो वस्त्रं सम्मईयतः सम्मा , निषदनं तत्रैव च-प्रत्युपेक्षितवेष्टिकायां सम्मति गाथार्थः ॥२४६।। ___ गुरुउग्गहो (हा) अठाणं (दारं) पप्फोडण रेणुगुंडिए चेव । (दारं) विक्खेवं (ते) तुक्खेवो वेइअपणगं च छद्दोसा ॥२४७॥ गुळवग्रहादि अस्थानं प्रत्युपेक्षितोपधेर्निक्षेप इति । प्रस्फोटनैव भवति रेणुगुण्डिते चैवेति, रेणुगुण्डितमेवायतनया प्रस्फोटयतः । विक्षिप्तेत्युत्क्षेपः 'सूचनात्सूत्र'मिति न्यायात् प्रत्युपेक्ष्य विविधैः प्रकारैः क्षिपत इत्यर्थः । वेदिकापञ्चकं चोर्ध्ववेदिकादि, षड्दोषा प्रत्युपेक्षणा इति गाथार्थः ॥२४७॥ ___ अवयवार्थं त्वाह- वत्थे अप्पाणंमि अ चउह अणच्चाविअं अवलिअं च । अणुबंधि तिरंतरया तिरिउड्ढऽघट्टणा मुसली ॥२४०॥ वस्त्रे वस्त्रविषयमात्मनि आत्मविषयं च, वस्त्रमात्मानं चाधिकृत्येत्यर्थश्चतुर्द्धा भङ्गसम्भव इति वाक्यशेषः । वस्त्रं नर्त्तयति आत्मानं च, इत्थं वस्त्रं वलितमात्मा चेत्यादि, अनोभयमाश्रित्यानर्त्तितमवलितं च गृह्यते, अनुबन्धि किमुच्यत इत्याह- निरन्तरता नैरन्तर्यप्रत्युपेक्षणमिति भावः । तिर्यगूर्ध्वमधोघट्टनान्मोषलिः ॥२४०॥" - पञ्चवस्तुकटीका। [पृ०६२०] "छप्पुरिमा तिरिअकए नव खोडा तिनि तिन्नि अंतरिआ। ते उण विआणियव्वा हत्थंमि पमजणतिएणं ॥२४२॥ षट् पूर्वाः, पूर्वा इति प्रथमाः क्रियाविशेषाः । तिर्यक्कृत इति च तिर्यकृते वस्त्रे उभयतो निरीक्षणविधिना क्रियन्ते, नव प्रस्फोटास्त्रयस्त्रयोऽन्तरिता व्यवहिताः, क्व पुनस्त इत्याह- ते पुनर्विज्ञातव्या हस्ते आधारे, के नान्तरिताः ? प्रमार्जनत्रिकेण सुप्रसिद्धप्रमार्जनत्रितयेनेति गाथार्थः ॥२४२॥" - पञ्चवस्तुकटीका। [पृ०६२१] “सामण्णमेत्तग्गहणं नेच्छइओ समयमोग्गहो पढमो । तत्तोऽणंतरमीहियवत्थुविसेसस्स जोऽवाओ ॥२८२॥ सो पुणरीहा-ऽवायावेक्खाओऽवग्गहो त्ति उवयरिओ । एस्सविसेसावेक्खं सामण्णं गेहए जेणं ॥२८३॥ तत्तोऽणंतरमीहा तत्तोऽवाओ य तव्विसेसस्स । इय सामण्ण-विसेसावेक्खा जावंतिमो भेओ ॥२८४॥ इहैकसमयमात्रमानो नैश्चयिको निरुपचरितः प्रथमोऽर्थावग्रहः। कथंभूतः ?, इत्याह- सामान्यमात्रस्याऽव्यक्तनिर्देश्यस्य वस्तुनो ग्रहणं सामान्यवस्तुमात्रग्राहक इत्यर्थः, सामयिकानि हि ज्ञानादिवस्तूनि परमयोगिन एव A-34 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि निश्चयवेदिनोऽवगच्छन्तीति नैश्चयिकोऽयमुच्यते । अथ च्छद्मस्थव्यवहारिभिरपि यो व्यवह्रियते, तं व्यावहारिकमुपचरितमर्थावग्रहं दर्शयति- तत्तो इत्यादि, ततो नैश्चयिकार्थावग्रहादनन्तरमीहितस्य वस्तुविशेषस्य योऽपायः स पुनर्भाविनीमीहाम्, अपायं चाऽपेक्ष्योपचरितोऽवग्रहोऽर्थावग्रह इति द्वितीयगाथायां संबन्धः । उपचारस्यैवाऽस्य निमित्तान्तरमाह- एस्सेत्यादि, एष्यो भावी योऽन्यो विशेषस्तदपेक्षया येन कारणेनाऽयमपायोऽपि सन् सामान्यं गृह्णाति, यश्च सामान्यं गृह्णाति सोऽर्थावग्रहो यथा प्रथमो नैश्चयिकः । एतदिह तात्पर्यम्- प्रथमं नैश्चयिकेऽर्थावग्रहे रूपादिभ्योऽव्यावृत्तमव्यक्तं शब्दादिवस्तुसामान्यं गृहीतम्, ततस्तस्मिन्नीहिते सति ‘शब्द एवाऽयम्' इत्यादि निश्चयरूपोऽपायो भवति। तदनन्तरं तु ‘शब्दोऽयं किं शाखः, शार्हो वा' इत्यादिशब्दविशेषविषया पुनरीहा प्रवर्तिष्यते, 'शाङ्ख एवाऽयं शब्दः' इत्यादिशब्दविशेषविषयोऽपायश्च यो भविष्यति तदपेक्षया 'शब्द एवाऽयम्' इति निश्चयः प्रथमोऽपायोऽपि सन्नुपचारादर्थावग्रहो भण्यते, ईहा-ऽपायापेक्षात इति, अनेन चोपचारस्यैकं निमित्तं सूचितम् । ‘शाङ्खोऽयं शब्दः, इत्याद्येष्यविशेषापेक्षया येनाऽसौ सामान्यशब्दरूपं सामान्य गृह्णातीति, अनेन तूपचारस्यैव द्वितीयं निमित्तमावेदितम्; तथाहि- यदनन्तरमीहा-ऽपायौ प्रवर्तेते, यश्च सामान्यं गृह्णाति, सोऽर्थावग्रहः, यथाऽऽद्यो नैश्चयिकः, प्रवर्तते च शब्द एवाऽयम्' इत्याद्यपायानन्तरमीहाऽपायौ, गृह्णाति च 'शाङ्खोऽयम्' इत्यादिभाविविशेषापेक्षयाऽयं सामान्यम् । तस्मादर्थावग्रह एष्यविशेषापेक्षया सामान्यं गृह्णातीत्युक्तम् । ततस्तदनन्तरं किं भवति ?, इत्याह तृतीयगाथायाम्- तत्तोऽणन्तरमित्यादि, ततः सामान्येन शब्दनिश्चयरूपात् प्रथमापायादनन्तरं 'किमयं शब्दः शाखः, शार्हो वा ?' इत्यादिरूपेहा प्रवर्तते । ततस्तद्विशेषस्य शङ्खप्रभवत्वादेः शब्दविशेषस्य 'शाङ्ख एवाऽयम्' इत्यादिरूपेणाऽपायश्च निश्चयरूपो भवति । अयमपि च भूयोऽन्यतमविशेषाकाङ्क्षावत: प्रमातु विनीमीहामपायं चापेक्ष्य, एष्यविशेषापेक्षया सामान्यालम्बनत्वाच्चाऽर्थावग्रह इत्युपचर्यते । इयं च सामान्य-विशेषापेक्षा तावत् कर्तव्या, यावदन्त्यो वस्तुनो भेदो विशेषः । यस्माच्च विशेषात् परतो वस्तुनोऽन्ये विशेषा न संभवन्ति सोऽन्त्यः, अथवा संभवत्स्वपि अन्यतमविशेषेषु यतो विशेषात् परतः प्रमातुस्तज्जिज्ञासा निवर्तते सोऽन्त्यः, तमन्त्यं विशेषं यावद् व्यावहारिकाऽर्थावग्रहे-हा-ऽपायार्थं सामान्य-विशेषाऽपेक्षा कर्तव्या ॥ इति गाथात्रयार्थः ॥२८२-२८४॥ सव्वत्थे-हा-वाया निच्छ यओ मोत्तुमाइसामण्णं । संववहारत्थं पुण सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ ॥२८५॥ सर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये निश्चयतः परमार्थत ईहा-ऽपायौ भवतः, 'ईहा, पुनरपायः, पुनरीहा, पुनरप्यपायः' इत्येवं क्रमेण यावदन्त्यो विशेषः, तावदीहाऽपायावेव भवतः, नाऽर्थावग्रह इत्यर्थः । किं सर्वत्रैवमेव ?, न, इत्याह- मोत्तुमाइसामण्णं ति आद्यमव्यक्तं सामान्यमात्रालम्बनमेकसामयिकं ज्ञानं मुक्त्वाऽन्यत्रेहा-ऽपायौ भवतः, इदं पुनर्नेहा, नाऽप्यपायः, किन्त्वर्थावग्रह एवेति भावः। संव्यवहारार्थं व्यावहारिकजनप्रतीत्यपेक्षं पुनः सर्वत्र यो Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १२९ योऽपाय: स स उत्तरोत्तरेहा-ऽपायापेक्षया, एष्यविशेषापेक्षया चोपचारतोऽर्थावग्रहः । एवं च तावद् नेयम्, यावत्तारतम्येनोत्तरोत्तरविशेषाकाङ्क्षा प्रवर्तते ।। इति गाथार्थः ॥२८५॥ तरतमजोगाभावेऽवाउ च्चिय धारणा तदंतम्मि । सव्वत्थ वासणा पुण भणिया कालंतरे वि सई ॥२८६।। तरतमयोगाभावे ज्ञातुरग्रेतनविशेषाकाङ्क्षानिवृत्तावपाय एव भवति, न पुनस्तस्याऽवग्रहत्वमिति भावः, तनिमित्तानां पुनरीहादीनामभावादिति । यद्यग्रत ईहादयो न भवन्ति, तर्हि किं भवति ?, इत्याहतदन्तेऽपायान्ते धारणा तदर्थोपयोगाऽप्रच्युतिरूपा भवति। शेषस्य वासना-स्मृतिरूपस्य धारणाभेदद्वयस्य क्क संभवः ?, इत्याह- सव्वत्थ वासणा पुणेत्यादि वासना वक्ष्यमाणरूपा, तथा कालान्तरे स्मृतिः, सा च सर्वत्र भणिता । अयमर्थः- अविच्युतिरूपा धारणाऽपायपर्यन्त एव भवति, वासना-स्मृती तु सर्वत्र कालान्तरेऽप्यविरुद्धे ॥ इति गाथार्थः ॥२८६॥" - विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ०६२२] “जं बहु-बहुविह-खिप्पा-ऽनिस्सिय-निच्छिय-धुवे-यरविभिन्ना । पुणरुग्गहादओ तो तं छत्तीसत्तिसयभेयं ॥३०७॥ यद् यस्माद् बहु-बहुविध-क्षिप्रा-ऽनिश्रितनिश्चित-ध्रुवैः सेतरैः सप्रतिपक्षरेकै कशो विभिन्ना भेदभाजः पुनरप्यवग्रहादय इष्यन्ते । ततस्तदेवाऽष्टाविंशतिविधमाभिनिबोधिकज्ञानमेतै दशभिर्भेदैः प्रत्येकं भिद्यमानत्वात् षट्त्रिंशदधिकत्रिशतभेदं भवति । इदमुक्तं भवति- अनन्तरवक्ष्यमाणन्यायेन, संक्षेपतः प्रागभिहितयुक्त्या च श्रोत्रादिभिः कश्चिद् बह्ववगृह्णाति, कश्चित्त्वबहु, अपरस्तु बहुविधम्, अन्यस्त्वबहुविधम्; एवं यावदन्यो ध्रुवम्, अपरस्त्वध्रुवमवगृह्णातीति। एवमीहा-ऽपाय-धारणास्वपि सप्रभेदासु प्रत्येकममी द्वादश भेदा योजनीयाः। नवरमीहते, निश्चिनोति, धारयति, इत्याद्यभिलापः कार्यः । ततश्चाऽष्टाविंशतौ द्वादशभिर्गुणितायां षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि भेदानां भवन्ति ॥ इति गाथार्थः ॥३०७॥ नाणासद्दसमूहं बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाईयं । बहुविहमणेगभेयं एक्केवं निद्ध-महुराई ॥३०८॥ खिप्पमचिरेण तं चिय सरूवओ जं अणिस्सियमलिङ्गं । निच्छियमसंसयं जं धुवमच्चंतं न उ कयाई ॥३०९॥ इह श्रवणयोग्यदेशस्थे तूर्यसमुदाये युगपद् वाद्यमाने कोऽपि श्रोता तस्य तूर्यसंघातस्य संबन्धिनं पटह-ढक्का-शङ्ख-भेरि-भाणकादिनानाशब्दसमूहमाकर्णितं सन्तं क्षयोपशमविशेषाद् बहुमवग्रहादिना 'मुणति' जानाति । कोऽर्थः ?, इत्याह- पृथग् भिन्नजातीयम्, एतावन्तोऽत्र भेरिशब्दाः, एतावन्तो भाणकशब्दाः, एतावन्तस्तु शङ्ख-पटाहादिशब्दाः, इत्येवं पृथगेकैकशो भिन्नजातीयत्वेन तं नानाशब्दसमूहं बुध्यत इत्यर्थः । अन्यस्त्वल्पक्षयोपशमत्वात् तत्समानदेशोऽप्यबहुं 'मुणति' सामान्येन 'नानातूर्यशब्दोऽयम्' इत्यादिमात्रकमेव जानातीति प्रतिपक्षः। एवमुत्तरगाथायामतिदेक्ष्यमाणा प्रतिपक्षभावना सर्वत्राऽवबोद्धव्या । अन्यस्तु क्षयोपशमवैचित्र्याद् बहुविधं 'मुणति' । कोऽर्थः ?, इत्याह- अनेकभेदम्, इदमपि व्याचष्टे- एकैकं शङ्ख-भेर्यादिशब्दं स्निग्धत्वमधुरत्व-तरुण-मध्यम-वृद्धपुरुषवाद्यत्वादिबहुविधधर्मोपेतं जानातीत्यर्थः । अन्यस्त्वबहुविधं स्निग्ध Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि मधुरत्वादिस्वल्पधर्मान्वितमेव पृथग् भिन्नजातीयं नानाशब्दसमूहं जानाति । अन्यस्तु क्षिप्रम् । कोऽर्थः ?, इत्याह- अचिरेण शीघ्रमेव परिच्छिनत्ति, न तु चिरेण विमृश्येत्यर्थः । अन्यस्त्वक्षिप्रं चिरविमर्शितं जानाति । तथा 'तं चिय सरूवओ जं अणिस्सिय मिति तमेव नानाशब्दसमूहं कोऽप्यनिश्रितं 'मुणति' इति संबन्धः । यं किम् ?, इत्याह- यं स्वरूपतो जानाति, कोऽर्थः ?, इत्याह- अलि पताकादिलिङ्गानिश्रितमित्यर्थः । इदमुक्तं भवति - तमेव शब्दसमूहं 'देवकुलमत्र, तथाविधपताकादर्शनात् ' इत्येवं लिङ्गनिश्रामकृत्वा स्वरूपत एव यमवगच्छति, तमनिश्रितं 'मुणति' इत्युच्यत इति । तमेव लिङ्गनिश्रया जानानो निश्रितं 'मुणति' इत्युच्यते । तथा निच्छियमसंसयं जं ति यमसंशयमवच्छिनत्ति तं निश्चितं 'मुणति' । निश्चितं तावदित्थमेतद् मया, परं न जाने, तथा वा स्यात्, अन्यथा वा, इत्येवं संदेहानुविद्धं तु जानन्ननिश्चितं 'मुणति' । धुवमित्यादि, ध्रुवम्, कोऽर्थः ? अत्यन्तम्, न तु कदाचिदिति । इदमुक्तं भवति - यथैकदा बह्वादिरूपेणाऽवगतं सर्वदैव तथाऽवबुध्यमानो ध्रुवं 'मुणति' इत्युच्यते । यस्तु कदाचिद् बह्वादिरूपेण, कदाचित् त्वबह्वादिरूपेण, सोऽध्रुवं 'मुणति' ॥ इति गाथाद्वयार्थः ॥ ३०८-३०९ ।। " एत्तो च्चिय पडिवक्खं साहिज्जा, निस्सिए विसेसो वा । परधम्मेहि विमिस्सं निस्सियमविणिस्सियं इयरं ॥ ३१०॥ एतस्मादेवोक्तस्वरूपाद् बह्वादिपदषट्कसमूहात् प्रतिपक्षमेतद्विपर्ययमबह्व-बहुविधा - ऽक्षिप्र - निश्रिताऽनिश्चिता-ऽध्रुवपदषट्कलक्षणं साधयेत् स्वयमेव ब्रूयाद् मेधावी । स च लाघवार्थं बह्वादिविचार एव साधितः । तदेवं व्याख्याता द्वादशापि बह्वादयो भेदाः । अथवा निश्रिते सप्रतिपक्षेऽपि व्याख्यानान्तरलक्षणो विशेषो वक्तव्यः । कः ?, इत्याहपरधर्मैरश्वादिवस्तुधर्मैर्विमिश्रं युक्तं गवादिवस्तु गृह्णानस्य निश्रितं भवति - गामश्वादिरूपेण गृह्णतो येयं विपर्ययोपलब्धिः, तन्निश्रितमित्यर्थः । इतरत्तु यत्परधर्मैर्विमिश्रं वस्तु न गृह्णाति, किन्तु यथावस्थितमेव तत्सद्भूतोपलब्धिरूपमनिश्रितं गवादिकं वस्तु गवादिरूपेणैव गृह्णतो येयमविपर्ययोपलब्धिस्तदनिश्रितमित्यर्थः ॥ १३० अत्राह- ननु बहु-बहुविधपरिज्ञानादीनि विशेषणानि स्पष्टार्थग्राहकेष्वपायादिषु भवन्तु, व्यञ्जनावग्रहनिश्चयार्थावग्रहयोस्तु कथं तत्संभवः ?, तथाहि - 'सामन्नमणिद्देसं सरूव-नामाइकप्पणारहियं' इत्यादिवचनान्निश्चयार्थावग्रहे शब्दादिविशेषमात्रग्रहणमपि नास्ति, कुतो यथोक्तबह्वादिपरिज्ञानसंभवः ? अथ व्याख्यानाद् व्यवहारार्थावग्रहोत्र गृह्यते, तस्मिंश्च विशेषग्राहित्वाद् बहुपरिज्ञानादिविशेषणान्युपपद्यन्त एव । भवत्वेवम्, तथाऽप्यष्टाविंशतिभेदमध्यसंगृहीतस्य व्यञ्जनावग्रहस्य कथमेतद्विशेषणसंभवः ? तत्र हि सामान्यार्थग्रहणमात्रमपाकृतम्, बह्वादिपरिज्ञानं तु दूरोत्सारितमेवेति ॥ सत्यमेतत्, किन्तु व्यञ्जनावग्रहादयः कारणमपायादीनाम्, तानन्तरेणाऽपायाद्यभावात् । ततश्चाऽपायादिगतं बह्वादिपरिज्ञानं तत्कारणभूतेषु व्यञ्जनावग्रहादिष्वपि योग्यतयाऽभ्युपगन्तव्यम् । न हि सर्वथाऽविशिष्टात् कारणाद् विशिष्टं कार्यमुत्पत्तुमर्हति, कोद्रवबीजादेरपि शालिफलादिप्रसवप्रसङ्गात्, Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १३१ इति प्रागप्युक्तप्रायम् । इत्यलमतिचर्चितेन ॥ इति गाथार्थः ॥ ३१० ॥" - विशेषाव० मलधारि० ॥ [पृ० ६२४] " अतो विनयोपचारार्थं कृतिकर्म क्रियत इति स्थितम् । आह - विनय इति कः शब्दार्थ इति, उच्यते - जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविहं चाउरंतमुक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ विणउत्ति विलीनसंसारा ।। १२१७ ।। व्या० यस्माद्विनयति कर्म नाशयति कर्माष्टविधम्, किमर्थम् ? - चतुरन्तमोक्षाय संसारविनाशायेत्यर्थः, तस्मादेव वदन्ति विद्वांसः विनय इति विनयनाद्विनयः विलीनसंसाराः क्षीणसंसारा अथवा विनीतसंसाराः, नष्टसंसारा इत्यर्थः, यथा विनीता गौर्नष्टक्षीराऽभिधीयते इति गाथार्थः ॥ १२१७॥”. आव० हारि० । [पृ०६२५] “सम्प्रति प्रसङ्गतोऽन्यतोऽप्युद्वृत्तानां लब्धिं प्रतिपादयति- भूदगपंकप्पभवा, चउरो हरिआउ छच्च सिज्झति । विगला लभिज्ज विरइं, न हु किंचि लभिज्ज सुहुमतसा ॥ २९७ ॥ व्या० भुवः पृथिव्या उदकात् अप्कायात् पंक त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पङ्कप्रभायाः प्रभवः उत्पत्तिर्येषां मनुष्याणां ते भूदकपङ्कप्रभवा एकस्मिन् समये चत्वारः सिध्यन्ति । किमुक्तं भवति ? पृथिवीकायेभ्योऽथवाऽप्कायिकेभ्यो यदि वा पङ्कप्रभाया उद्वृत्ताः सन्तोऽनन्तरभवे मनुष्या जता कस्मिन् समये सिध्यन्ति, ततः प्रत्येकं चत्वारश्चत्वारः सिध्यन्ति । हरितेभ्यो वनस्पतिकायिकेभ्य उद्वृत्ताः षट् । तथा विकलात् विकलेन्द्रियादुद्वृत्ता अनन्तरभवे मनुष्या जाता विरतिं सर्वसावद्यविरतिं भ, न तु सिध्यन्ति । सूक्ष्मत्रसात् तेजः कायिकाद्वायुकायिकाद्वा उद्वृत्ता अनन्तरभवे तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया अपि जाता न कमपि गुणं सम्यक्त्वादिकं लभन्ते, तथास्वाभाव्यात् ॥ २९७|| पुढवीआउवणस्सइगब्भे पज्जत्त संखजीवीसु । सग्गचुआणं वासो, सेसा पडिसेहिया ट्ठाणा ॥१८०॥ व्या० स्वर्गाद् भवनपत्यावासादिरूपाच्चतुर्विधाद् देवलोकाच्च्युतानां देवानां वासो वसनमुत्पत्तिरित्यर्थः, पृथिवीकायेऽप्काये वनस्पतिकाये तथा गर्भव्युत्क्रान्तेषु पज्जत्त त्ति विभक्तिलोपात् पर्याप्तेषु पृथिव्यादिषु सर्वेष्वपि सङ्ख्यातवर्षजीविषु तिर्यङ्मनुष्येषु भवति, शेषाणि पुनः स्थानानि तेजस्काय-वायुकाय-द्वि- त्रि- चतुरिन्द्रिय-संमूर्च्छि मपञ्चेन्द्रिय-देव- नारकरूपाणि प्रतिषिद्धानि तीर्थकरगणधरैः ॥१८०॥” बृहत्संग्रहणी० मलय० । [पृ०६२७] “ततः साम्प्रतं घर्मादिषु पृथिवीषु यथाक्रमं प्रस्तटसङ्ख्यामाह - रिक्कारस नव सत्त पंच तिन्नेव हुंति इक्को य । पत्थडसंखा एसा, सत्तसु वि कमेण पुढवीसु ॥ २५३॥ व्या० सप्तस्वपि पृथिवीषु क्रमेणैषा प्रस्तटसङ्ख्या, तद्यथा- प्रथमायां पृथिव्यां त्रयोदश, द्वितीयस्यामेकादश, तृतीयस्यां नव, चतुर्थ्यां सप्त, पञ्चम्यां पञ्च, षष्ठ्यां त्रयः, सप्तम्यामेक इति । एते च प्रस्तटाः सर्वेऽपि प्रत्येकं सहस्रत्रयप्रमाणोच्छ्रयाः । तथाहि - योजनसहस्रमेकमधस्ताद्घनपृथिवीरूपं पीठम्, योजनसहस्रं मध्ये शुषिरम्, योजनसहस्रमुपरि संकोचतचलिकान्तं यावदिति ॥ " - बृहत्संग्रहणी० मलय० । 1 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि " इत्थमिन्द्रकप्ररूपणां प्रतिपाद्य क्रमेण दिक्षु विदिक्षु चावलिकाप्रमाणं प्रमाणतो गणनाप्रमाणतश्च प्रतिपादयन् गाथाद्वयमाह- एगूणपन्नणिरया, सेढी सीमंतगस्स पुव्वेण । उत्तरओ अवरेण य, दाहिणओ चेव बोधव्वा ||१४|| व्या० एकोनपञ्चाशन्निरया श्रेणि: पक्तिः सीमन्तकस्य इति विभक्तिव्यत्ययात् सीमन्तकात् नारकावासात् पूर्वेण पूर्वस्यां दिशि उत्तरतः उत्तरस्यां दिशि अपरेण च अपरस्यां दिशि दक्षिणतश्चैव दक्षिणस्यां च दिशि 'बोद्धव्याः' एकोनपञ्चाशन्निरया प्रत्येकं श्रेणिर्ज्ञातव्या इति ॥१४॥ १३२ अडयालीसं णिरया, सेढी सीमंतगस्स बोधव्वा । पुव्वुत्तरेण णिरया, एवं सेसासु विदिसा ||१५|| व्या० अष्टचत्वारिंशत् निरया: नारकावासाः, किम् ? इत्याह- श्रेणि: पङ्क्तिः सीमन्तकस्य इति सीमन्तकाद् रत्नप्रभाप्रथमप्रस्तटप्रथमनरकावासान्तमवधीकृत्येत्यर्थः, विभक्तिव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात्, बोद्धव्याः विज्ञेयाः पूर्वोत्तरेण पूर्वोत्तरस्यां दिशि १ ईशानकोणयित्यर्थः । अतिदेशमाहनिरयाः उक्तलक्षणाः एवम् अनेन प्रकारेणाष्टचत्वारिंशल्लक्षणेन शेषासु उत्तरपश्चिमा २ पश्चिमदक्षिणा ३ दक्षिणपूर्वालक्षणासु ४ विदिक्षु श्रेणयो भवन्ति । अत्र चैकोनपञ्चाशदष्टचत्वारिंशल्लक्षणं प्रमाणप्रमाणम्, प्रत्येकं ताश्चतस्र इति गणनाप्रमाणमवगन्तव्यमिति ||१५|| एवं दिक्षु विदिक्षु च प्रतिप्रस्तटं श्रेणीषु प्रवृत्तासु सर्वपर्यन्तवर्तिनि प्रस्तटे यत्संपन्नं तदाह एक्केको य दिसासुं, मज्झे निरओ य अप्पट्ठाणो । विदिसाणिरयविरहियं, तं पयरं पंचगं जाण ||१६|| व्या० एकैकश्च पृथक् पृथक् एव दिक्षु पूर्वादिषु चतसृष्वपि मध्ये चकारस्य वक्ष्यमाणस्येहाभिसंबन्धान्मध्यभागे पुनश्चतुर्णामपि दिग्वर्त्तिनरकाणां निरयः उक्तरूप एव अप्रतिष्ठानः अप्रतिष्ठाननामा विदिशानिरयविरहितम् विदिग्वर्तिभिर्निरयैः परिहीणं तम् पर्यन्तवर्तिनं प्रतरं प्रस्तटम्, कीदृशम् ? इत्याह- पञ्चकं कालमहाकालादिपञ्चकनरकावासनिष्पन्नं जानीहि अवबुध्यस्वेति ||१६|| संप्रति प्रथमप्रस्तटे चतुर्णां नरकावासानां सीमन्तकाह्वनरकेन्द्रकासन्नवर्तिनां पूर्वादिदिग्गतानां नामानि गाथाद्वयेनाह - सीमंतगप्पभो खलु, णिरओ सीमंतगस्स पुव्वेणं । सीमंतगमज्झिमओ, उत्तरपासे मुणेयव्वो ||२०|| सीमंतावत्तो उण, णिरओ सीमंतगस्स अवरेण । सीमंतयावसिट्ठो, दाहिणपासे मुणेयव्वो ॥ २१ ॥ व्या० सीमन्तकप्रभः सीमन्तकप्रभनामा खलुः वाक्यालङ्कारे निरयो मुणितव्य इतीहापि संबध्यते, कथम् ? इत्याह- सीमन्तकस्य सीमन्तकान्नरकावासात् पूर्वेण पूर्वस्यां दिशि तथा सीमन्तकमध्यमकः सीमन्तकमध्यमकनामा, क्व ? इत्याह- उत्तरपार्श्वे सीमन्तकादेवोत्तरस्यां दिशि मुणितव्य इति ॥ २०॥ सीमन्तकावर्तः पुनः निरयः नरकावासः सीमन्तकस्य सीमन्तकात् अपरेण अपरस्यां दिशि, तथा सीमन्तकावशिष्टः सीमन्तकावशिष्टनामा दक्षिणपार्श्वे दक्षिणस्यां दिशि मुणितव्यः । यदत्र प्रतीतं दिक्क्रमं परित्यज्यान्यथा नरकावासनिर्देशः कृतः स नरकावासानाममङ्गलरूपत्वादुत्क्रम एवोचित इत्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थ इति ॥२१॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - टिप्पनानि पप्पडगपायए घायए य फुडिए तहेव बोधव्वे । काले खारे य तहा, 1 लोले तह लोलपच्छे य ॥३०॥ व्या० पर्पटकपाचकः ४२ घातकः ४३ च तथैव स्फुटितः ४४ बोद्धव्यः । कालः ४५ क्षारश्च ४६ तथा लोलः ४७ तथा लोलपाक्षश्च ४८ । अत्र च गाथापञ्चके चादयः शब्दाः क्वचिद्गाथापूरणफलाः क्वचित्समुच्चयार्थाश्च व्याख्येया इति ॥३०॥ सप्पविसप्पे मुच्छियपमुच्छिए तह य लोमहरिसे य । खरफरुसअग्गिवेविय, उदड्डए चेव विद्धट्ठे (हड्डे) ॥२७॥ व्या० सर्प १२ विसर्पों १३ मूर्छित १४ प्रमूर्छितौ १५ तथा च लोमहर्षश्च १६ खरपरुष १७ अग्नि १८ वेपिताः १९ उद्दग्धः २० चैव विदग्धः २१ इति ॥ २७॥ “विगए विre मंडलजिब्भे जरए तहेव पज्जरए । अपइट्ठिए य खंडे, पप्फुडिए पावदंडे य ।।२९।। व्या० विगतः ३२ विनयः ३३ मण्डल ३४ जिह्वौ ३५ ज्वरकः ३६ तथैव प्रज्वरकः ३७ अप्रतिष्ठितः ३८ च खण्डः ३९ प्रस्फुटितः ४० पापदण्डः ४१ चेति ॥२९॥” देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरणटीका ॥ - [पृ० ६२८] “यथा- मज्झा उत्तरपासे, आवत्ता अवरओ मुणेयव्वा । सिट्ठा दाहिणपासे, पुव्विल्लाओ विभइयव्वा ||३२|| व्या० मध्याः मध्यशब्दोपपदा उत्तरपार्श्वे विलयविलात्मप्रभृतयो नरकावासा आवलिकाप्रविष्टा विज्ञेयाः । त एव आवर्त्ताः आवर्त्तोपपदाः अपरतः' अपरस्यां दिशि मुणितव्याः । तथा शिष्टाः इति शिष्टशब्दोपपदा विलयप्रभृतय एव दक्षिणपार्श्वे, किमुक्तं भवति ?पौरस्त्यात् नरकावाससंघाताद् इच्छन्ति (इत्थं त्रिः ) विभक्तव्याः नामान्यपेक्षाच ( क्ष्याव ) शेषदिग्वर्तिनो विभागवतो विधेया नरकावासाः । इदमुक्तं भवति - पूर्वस्यां विलयो विलात्मा स्तनितः, एवमवशिष्टनामानोऽष्टचत्वारिंशदपि नरका वाच्याः । उत्तरस्यां पुनर्मध्यविलयो मध्यविलात्मा मध्यस्तनित इत्यादि । अपरस्यामावर्त्तविलय आवर्तविलात्मा आवर्तस्तनित इत्यादि । दक्षिणस्यां शिष्टविलयः शिष्टविलात्म शिष्टस्तनित इत्यादीति ॥ ३२॥ १३३ अधुना पङ्कप्रभायाम् - आरे तारे मारे, वच्चे तमए य होति णेयव्वे । खाडखडे य खडखडे, इंदरा थी ||१०|| व्या० आरः १ तारः २ मारः ३ वर्चः ४ तमकश्च ५ भवति ज्ञातव्यः, खाडखडश्च ६ खडखडः ७ 'इन्द्रकनरका ः ' नरकेन्द्रकाश्चतुर्थ्यां नरकपृथिव्याम्। एतदेवान्यत्र किञ्चिद्विशेषेण प्रत्यपादि, तद्यथा- 'आरस्तारश्च मारश्च वर्चस्कस्तमकस्तथा । खण्ड: खडखडः सप्त, स्युश्चतुर्थ्यामितीन्द्रकाः ॥१||' इति ॥१०॥ देवेन्द्रकानेव प्रमाणतोऽभिधित्सुराह - तेरस बारस छ प्पंच चेव चत्तारि चउसु कप्पे । गेवेज्जेसुं तिय तिय, एगो उ अणुत्तरेसु भवे ॥ १२९ ॥ व्या० त्रयोदश सौधर्मेशानयोः प्रथमद्वितीयकल्पयोः समभूमिकयोः । द्वादश सनत्कुमारमाहेन्द्रयोस्तृतीयचतुर्थयोर्देवनिवासयोः समतयाऽवस्थितयोः । षड् ब्रह्मलोके पञ्चमदेवलोके । पञ्च चैव लान्तके षष्ठे । चत्तारि ति Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि चत्वारश्चत्वारो विमानेन्द्रकाः चतुषु चतुःसङ्ख्येषु, तद्यथा- शुक्रे सप्तमे चत्वारः, सहस्रारेऽष्टमे चत्वारः, आनतप्राणतयोस्समभूमिकयोश्चत्वारः, आरणाच्युतयोरपि समभूमिकयोश्चत्वारः । कल्पेषु देवाधिवासेषु, देवलोकेष्वित्यर्थः, कल्पशब्दस्याधिवासपर्यायस्यापि संभवात्, यथोक्तम्- सामर्थ्य वर्णनायां च, कल्पने छेदने तथा । औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥१॥ तथा ग्रैवेयकेषु लोकपुरुषग्रीवास्थानभवेष्वधस्तनमध्यमोपरितनसंज्ञितेषु प्रत्येकमधस्तनाधस्तनादिभेदेन भिन्नेषु नवसु विमानविशेषेषु त्रिकं त्रिकम् एकैकस्मिन् त्रिके त्रयस्त्रयः, सर्वे नवेत्यर्थः । एकस्तु एकः पुनः अनुत्तरेषु सर्वविमानोपरिवर्तितया प्राप्तानुत्तराभिधानेषु विमानभेदेषु भवेत् जायतेन्द्रक इति । एवं चैते त्रयोदशादिसङ्ख्यसर्वेन्द्रकमीलने द्वाषष्टिर्भवन्तीति । स्थापना चेयम्- १३।१२।६।५।४।४।४।४।३।३।३।१। सर्वेऽपि ६२ ॥१२९॥" - देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरणटीका॥ _[पृ०६३३ पं०१३] अनुगामुकोऽनुगच्छति गच्छन्तं लोचनं यथा पुरुषम् । इतरश्च नानुगच्छति स्थितप्रदीप इव गच्छन्तम् ॥७१५॥- इति संस्कृते छाया । पइसमयसंखिजइभागहियं कोइ संखभागहियं । अन्नो संखेजगुणं खित्तमसंखिजगुणमण्णो ॥७३०॥ पेच्छइ विवड्डमाणं हायंतं वा, तहेव कालं पि । नाणंतवुड्विहाणी पेच्छइ जं दो वि नाणंते ॥७३१॥ गतार्थे एव, नवरं क्षेत्र-कालयो ऽनन्ते वृद्धि-हानी। कुतः ?, इत्याह- पेच्छईत्यादि यद् यस्माद् द्वावपि क्षेत्र-कालौ नाऽनन्ताववधिज्ञानी पश्यति, पूर्वोक्तयुक्तेरिति ॥७३०-७३१॥" - विशेषाव० मलधारि०॥ [पृ०६३४] “उक्कोसो मणुएसुं मणुस्स-तेरिच्छिएसु य जहण्णो । उक्कोस लोगमित्तो पडिवाइ परं अपडिवाई ॥७०३॥ इह द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो भावतश्चोत्कृष्टोऽवधिर्मनुष्येष्वेव, न देवादिषु। तथा, मनुष्याश्च तिर्यञ्चश्च तेष्वेव जघन्यः, न तु सुर-नारकेषु । तत्र चोत्कृष्टोऽवधिर्द्विविधःलोकगतः, अलोकगतश्च। तत्र योऽसौ समस्तलोकमात्रदर्शी उत्कृष्टः, मात्रशब्दोऽलोकव्यवच्छेदार्थः, स प्रतिपतनशीलः प्रतिपाती, अप्रतिपाती च भवति । ततः परं येनैकोऽप्याकाशप्रदेशो दृष्टः सोऽप्रतिपात्येव भवति । क्षेत्रपरिणामद्वारेऽपि प्रस्तुते प्रसङ्गतो विनेयानुग्रहार्थं प्रतिपात्यप्रतिपातिस्वरूपाभिधानमित्यदोषः॥ इति नियुक्तिगाथार्थः ॥७०३॥" - विशेषाव० मलधारि०॥ __ “अथारस्थितवचनमाह- अरे हरे बंभण पुत्ता, अव्वो बप्पो त्ति भाय मामो त्ति। भट्टिय सामिय गोमिय, लहुओ लहुआ य गुरुआ य ॥६११६॥ अरे इति वा हरे इति वा ब्राह्मण इति वा पुत्र इति वा यदि आमन्त्रणवचनं ब्रूते तदा मासलघु । अव्वो बप्पो भ्रातर् मामक उपलक्षणत्वाद् अम्ब भागिनेय इत्यादीन्यपि यदि वक्ति तदा चतुर्लघु । अथ भट्टिन् स्वामिन् गोमिन् इत्यादीनि गौरवगर्भाणि वचांसि ब्रूते तदा चतुर्गुरुकाः आज्ञादयश्च दोषाः ॥६११६॥ अथ व्यवशमितोदीरणवचनमाह- खामिय-वोसविताइं, अधिकरणाइं तु जे उईरेति । ते Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १३५ पावा णायव्वा, तेसिं च परूवणा इणमो ॥६११८॥ क्षामितानि वचसा मिथ्यादुष्कृतप्रदानेन शमितानि, वोसवितानि विविधमनेकधा मनसा व्युत्सृष्टानि, क्षामितानि च तानि व्युत्सृष्टानि चेति क्षामित-व्युत्सृष्टानि । एवंविधान्यधिकरणानि ये भूय उदीरयन्ति ते पापा: साधुधर्मबाह्या ज्ञातव्याः। तेषां च इयं प्ररूपणा ॥६११८॥" - बृहत्कल्पटीका । "खामित विउसविताइं, अधिकरणाइं तु जे पुणोप्पाए । ते पावा णातव्वा, तेसिं तु परूवणा इणमो ॥१८१८॥ पावा ण साधुधर्मे व्यवस्थिता इत्यर्थः । कहं उप्पाएति ? केति साहुणो पुव्वकलहिता तम्मि य खामिय विओसविते। तत्थेगो भणति- अहं णाम तुमे तदा एवं भणितो आसि ण जुत्तं तुज्झ । इयरो पडिभणाति- अहं पि ते किं ण भणितो? इतरो भणातिइयाणिं ते किं मुयामि ? एवं उप्पाएति स उप्पायगो ॥१८१८॥" - निशीथ० चूर्णिः। [पृ०६३५] तत्र दुर्दुरविषयं तावदाह- ओमो चोइजंतो, दुपहियादीसु संपसारेति । अहमवि णं चोदिस्सं, न य लब्भति तारिसं छेड्डे ॥६१३५॥ अवमः अवमरात्निको रात्निकेन दुःप्रत्युपेक्षितादिषु स्खलितेषु भूयो भूयो नोद्यमानः सम्प्रसारयति मनसि पर्यालोचयति- अहमपि णं एनं रात्निकं नोदयिष्यामि । एवं पर्यालोच्य प्रयत्नेन गवेषयन्नपि तादृशं छिद्रं रात्निकस्य न लभते ॥६१३५॥ ____ अन्ने धातिए दडुरम्मि दट्ठ चलणं कतं ओमो । उद्दवितो एस तुमे, ण मि त्ति बितियं पि ते णत्थी ॥६१३६॥ अन्यदा च भिक्षादिपर्यटने अन्येन केनापि दर्दुरे घातिते रात्निकेन च तस्योपरि चलनं पादं कृतं दृष्ट्वाऽवमो ब्रवीति- एष दर्दुरस्त्वयाऽपद्रावितः। रात्निको वक्ति- न मयाऽपद्रावितः । अवमः प्राह- द्वितीयमपि मृषावादव्रतं ते तव नास्ति ॥६१३६।। सम्प्रति मृषावादा-ऽदत्तादानयोः प्रस्तारमाह- मोसम्मि संखडीए, मोयगगहणं अदत्तदाणम्मि। आरोवणपत्थारो, तं चेव इमं तु णाणत्तं ॥६१४२॥ मृषावादे सखडीविषयं निदर्शनम् । अदत्तादाने मोदकग्रहणम् । एतयोर्द्वयोरप्यारोपणायाः प्रायश्चित्तस्य प्रस्तारः स एव मन्तव्यः । इदं तु नानात्वं विशेषः ॥६१४२॥ दीण-कलुणेहि जायति, पडिसिद्धो विसति एसणं हणति । जंपति मुहप्पियाणि य, जोग-तिगिच्छा-निमित्ताई ॥६१४३॥ कस्यामपि सङ्खड्यामकालत्वात् प्रतिषिद्धौ साधू अन्यत्र गतौ, ततो मुहूर्तान्तरे रत्नाधिकेनोक्तम्- व्रजामः सखड्याम्, इदानीं भोजनकालः सम्भाव्यते । अवमो भणति- प्रतिषिद्धोऽहं न व्रजामि । ततोऽसौ निवृत्याऽऽचार्यायेदमालोचयति, यथा- अयं दीन-करुणवचनैर्याचते, प्रतिषिद्धोऽपि च प्रविशति, एषणां च हन्ति प्रेरयति, अथवा एष गृहं प्रविष्टो मुखप्रियाणि योग-चिकित्सा-निमित्तानि जल्पति । एवंविधमृषावादवादं वदतः प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवति ॥६१४३॥" - बृहत्कल्पटीका । [पृ०६३६] “एवमुक्त्वा त्वरितं वसतावागत्य मैथुनेऽभ्याख्यानं दातुं यथा आलोचयति तथा Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि दर्शयति- जेट्टजेण अकजं, सजं अज्जाघरे कयं अजं । उवजीवितो य भंते !, मए वि संसट्ठकप्पोऽत्थ ॥६१५०॥ ज्येष्ठार्येणाद्य सद्यः इदानीमार्यागृहे कृतम् अकार्यं मैथुनसेवालक्षणम्; ततो भदन्त ! तत्संसर्गतो मयाऽपि संसृष्टकल्प: मैथुनप्रतिसेवा अत्र अस्मिन् प्रस्तावे उपजीवितः ॥६१५०॥ अथापुरुषवादमाह- तइओ त्ति कधं जाणसि, दिट्ठा णीया से तेहि मी वुत्तो । वदृति ततिओ तुब्भं, पव्वावेतुं मम वि संका ॥६१५३॥ कोऽपि साधुस्तथैव छिद्रान्वेषी भिक्षातो निवृत्य रत्नाधिकमुद्दिश्याऽऽचार्यं भणति- एष साधुः तृतीयः त्रैराशिकः । आचार्यः प्राह- कथं जानासि ?। स प्राह- मयैतस्य निजका दृष्टाः तैरहमुक्तः- वर्तते युष्माकं तृतीयः प्रव्राजयितुम् ?; ततो ममापि हृदये शङ्का जाता ॥६१५३॥ ___अपि च- दीसति य पाडिरूवं, ठित-चंकम्मित-सरीर-भासाहिं । बहुसो अपुरिसवयणे, सवित्थराऽऽरोवणं कुजा ॥६१५४॥ अस्य साधोः प्रतिरूपं नपुंसकानुरूपं रूपं स्थित-चङ्क्रमितशरीर-भाषादिभिर्लक्षणैर्दृश्यते । एवं बहुशः अपुरुषवचने नपुंसकवादे वर्तमानस्य सविस्तरामारोपणां कुर्यात् ॥६१५४॥ ____अथ दासवादमाह- खरओ त्ति कहं जाणसि, देहायारा कहिंति से हंदी ! छिक्कोवण उब्भंडो, णीयासी दारुणसभावो ॥६१५७॥ कोऽपि साधुस्तथैव रत्नाधिकमुद्दिश्याचार्यं भणतिअयं साधु: खरकः दास इति । आचार्य आह- कथं जानासि ?। इतर: प्राह- एतदीयनिजकैर्मम कथितम् । तथा देहाकाराः कुब्जतादयः से तस्य हंदी इत्युपप्रदर्शने दासत्वं कथयन्ति । तथा छिक्कोवण त्ति शीघ्रकोपनोऽयम्, उन्भंडो नाम असंवृतपरिधानादि; नीचासी नीचतरे आसने उपवेशनशीलः, दारुणस्वभाव इति प्रकटार्थम् ॥६१५७।। अथ देहाकार त्ति व्याख्याति- देहेण वा विरूवो, खुजो वडभो य बाहिरप्पादो । फुडमेव से आयारा, कहिँति जह एस खरओ त्ति ॥६१५८॥ स प्राह- देहेनाप्ययं विरूपः, तद्यथाकुब्जो वडभो बाह्यपादो वा । एवमादयस्तस्याऽऽकाराः स्फुटमेव कथयन्ति, यथा- एषः खरक: दास इति ॥६१५८॥ ___ अथाऽऽचार्यः प्राह- केइ सुरूव दुरूवा, खुजा वडभा य बाहिरप्पाया । न हु ते परिभवियव्वा, वयणं व अणारियं वोत्तुं ॥६१५९॥ इह नामकर्मोदयवैचित्र्यतः केचिद् नीचकुलोत्पन्ना अपि दासादयः सुरूपा भवन्ति, केचित् तु राजकुलोत्पन्ना अपि दूरूपाः भवन्ति, तथा कुब्जा वडभा बाह्यपादा अपि भवन्ति, अतः नहि नैव ते परिभवितव्याः अनार्यं वा वचनं दासोऽयम् इत्यादिकं वक्तुं योग्याः ॥६१५९॥" - बृहत्कल्पटीका । [पृ०६३७] “अथ करणे द्रव्य-भावपरिमन्थौ भाष्यकारोऽपि भावयति- दव्वम्मि मंथतो खलु, Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १३७ तेणं मंथिज्जए जहा दधियं । दधितुल्लो खलु कप्पो, मंथिजति कोकुआदीहिं ॥६३१६॥ द्रव्यपरिमन्थो मन्थिकः, मन्थान इत्यर्थः, तेन मन्थानेन यथा दधि मथ्यते तथा दधितुल्यः खलु कल्पः साधुसमाचारः कौकुचिकादिभिः प्रकारैर्मथ्यते, विनाश्यत इत्यर्थः ॥६३१६॥" - बृहत्कल्पटीका। [पृ०६३८] “प्रतिज्ञातमेव करोति- ठाणे सरीर भासा, तिविधो पुण कुक्कुओ समासेणं। चलणे देहे पत्थर, सविगार कहकहे लहुओ ॥६३१९॥ स्थाने स्थानविषयः शरीरविषयो भाषाविषयश्चेति त्रिविधः समासेन कौकुचिकः । तत्र स्थानकौकुचिको यश्चलनम्- अभीक्ष्णं भ्रमणं करोति । देहः- शरीरं तद्विषयः कौकुचिको यः प्रस्तरान् हस्तादिना क्षिपति । यस्तु सविकारं परस्य हास्योत्पादकं भाषते, कहक्कहं वा महता शब्देन हसति स भाषाकौकुचिकः । एतेषु त्रिष्वपि प्रत्येकं मासलघु ॥६३१९॥ अथ शरीरकौकुचिकमाह- कर-गोफण-धणु-पादादिएहिँ उच्छुभति पत्थरादीए । भमुगादाढिग-थण-पुतविकंपणं णदृवाइत्तं ॥६३२३॥ कर-गोफणा-धनुः-पादादिभिः प्रस्तरादीन् य उत्प्राबल्येन क्षिपति स शरीरकौकुचिकः । भ्रू-दाढिका-स्तन-पुतानां विकम्पनं-विविधम्-अनेकप्रकारैः कम्पनं यत् करोति तद् नृत्यपातित्वमुच्यते, नर्तकीत्वमित्यर्थः । एतेन नट्टिया व त्ति पदं व्याख्यातं प्रतिपत्तव्यम् ॥६३२३॥ ___अथ भाषाकौकुचिकमाह- छेलिय मुहवाइत्ते, जंपति य तहा जहा परो हसति । कुणइ य रुए बहुविधे, वग्घाडिय-देसभासाए ॥६३२४॥ यः सेण्टितं मुखवादित्रं वा करोति, यथा वा वचनं जल्पति यथा परो हसति, बहुविधानि वा मयूर-हंस-कोकिलादीनां जीवानां रुतानि करोति, वग्घाडिका:- उद्घट्टककारिणीः देशभाषा वा-मालव-महाराष्ट्रादिदेशप्रसिद्धास्तादृशीर्भाषा भाषते याभिः सर्वेषामपि हास्यमुपजायते, एष भाषाकौकुचिकः ॥६३२४॥ ___सम्प्रति मौखरिकमाह- मुहरिस्स गोण्णणामं, आवहति अरिं मुहेण भासंतो । लहुगो य होति मासो, आणादि विराहणा दुविहा ॥६३२७॥ मौखरिकस्य गौणं गुणनिष्पंन्न नाम मुखेन प्रभूतभाषणादिमुखदोषेण भाषमाणः अरिं वैरिणम् आवहति करोतीति मौखरिकः । तस्यैवं मौखरिकत्वं कुर्वाणस्य लघुको मासः आज्ञादयश्च दोषाः । विराधना च संयमा-ऽऽत्मविषया द्विविधा। तत्र संयमविराधना मौखरिकस्य सत्यव्रतपरिमन्थुतया सुप्रतीता ॥६३२७॥ ___ इदमेव भावयति- आलोएंतो वच्चति, भादीणि व कहेति वा धम्मं । परियट्टणाऽणुपेहण, न यावि पंथम्मि उवउत्तो ॥६३३०॥ स्तूपादीनि स्तूप-देवकुला-ऽऽरामादीनि आलोकमानो धर्म वा कथयन् परिवर्तनामनुप्रेक्षां वा कुर्वाणो व्रजति । यद्वा सामान्येन न च नैवोपयुक्तः पथि व्रजति एष चक्षुर्लोल उच्यते ॥६३३०॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ___अस्यैते दोषाः- छक्कायाण विराहण, संजमे आयाएँ कंटगादीया । आवडणे भाणभेदो, खद्धे उड्डाह परिहाणी ॥६३३१॥ अनुपयुक्तस्य गच्छतः संयमे षट्कायानां विराधना भवेत् । आत्मविराधनायां कण्टकादय: पदयोर्लगेयुः, विषमे वा प्रदेशे आपतनं भवेत् तत्र भाजनभेदः । खद्धे च प्रचुरे भक्त-पाने भूमौ छर्दिते उड्डाहो भवेत्- अहो ! बहुभक्षका अमी इति । भाजने च भिन्ने परिहाणि: सूत्रार्थपरिमन्थो भाजनान्तरगवेषणे तत्परिकर्मणायां च भवति ॥६३३१॥" - बृहत्कल्पटीका । [पृ०६३९ पं०४] “अथ तिन्तिणिकमाह- तितिणिऍ पुव्व भणिते, इच्छालोभे य उवहिमतिरेगे। लहुओ तिविहं व तहिं, अतिरेगे जे भणिय दोसा ॥६३३२॥ तिन्तिणिक आहारोपधि-शय्याविषयभेदात् त्रिविधः, स च पूर्वं पीठिकायां सप्रपञ्चमुक्त इति नेहोच्यते । स च सुन्दरमाहारादिकं गवेषयन्नेषणासमितेः परिमन्थुर्भवतीति । इच्छालोभस्तु स उच्यते यद् लोभाभिभूतत्वेनोपधिमतिरिक्तं गृह्णाति, तत्र लघुको मासः । त्रिविधं वा तत्र प्रायश्चित्तम् । तद्यथाजघन्ये उपधौ प्रमाणेन गणनया वाऽतिरिक्ते धार्यमाणे पञ्चकम्, मध्यमे मासलघु, उत्कृष्टे चतुर्लघु। ये चातिरिक्ते उपधौ दोषाः पूर्वं तृतीयोद्देशके भणितास्ते द्रष्टव्याः ॥६३३२।। इदमेव व्याचष्टे- इह-परलोगनिमित्तं, अवि तित्थकरत्तचरिमदेहत्तं । सव्वत्थेसु भगवता, अणिदाणत्तं पसत्थं तु ॥६३३४॥ इहलोकनिमित्तम् ‘इहैव मनुष्यलोकेऽस्य तपसः प्रभावेण चक्रवर्त्यादिभोगानहं प्राप्नुयाम्, इहैव वा भवे विपुलान् भोगानासादयेयम्' इतिरूपम् परलोकनिमित्तंमनुष्यापेक्षया देवभवादिकः परलोकस्तत्र ‘महर्द्धिक इन्द्रसामानिकादिरहं भूयासम्' इत्यादिरूपं सर्वमपि निदानं प्रतिषिद्धम् । किं बहुना ? तीर्थकरत्वेन आर्हन्त्येन युक्तं चरमदेहत्वं मे भवान्तरे भूयात् इत्येतदपि नाशंसनीयम् । कुतः ? इत्याह- सर्वार्थेषु सर्वेष्वपि- ऐहिका-ऽऽमुष्मिकेषु प्रयोजनेषु अभिष्वङ्गविषयेषु भगवताऽनिदानत्वमेव प्रशस्तं श्लाघितम्। तुशब्द एवकारार्थः, स च यथास्थानं योजितः ॥६३३४॥ __ आह- कानि पुनस्तानि चत्वारि षड् वा स्थानानि येषु सामायिकसंयता यथाक्रमं स्थिता अस्थिताश्च ? इति अत्रोच्यते- सिजायरपिंडे या, चाउज्जामे य पुरिसजेठे य । कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा ॥६३६१॥ सिज्जातरपिंडे त्ति ‘सूचनात् सूत्रम्' इति शय्यातरपिण्डस्य परिहरणं चतुर्यामः पुरुषज्येष्ठश्च धर्मः कृतिकर्मणश्च करणम्। एते चत्वारः कल्पाः सामायिकसाधूनामप्यवस्थिताः । तथाहि- सर्वेऽपि मध्यमसाधवो महाविदेहसाधवश्च शय्यातरपिण्डं परिहरन्ति, चतुर्यामं च धर्ममनुपालयन्ति, 'पुरुषज्येष्ठश्च धर्मः' इति कृत्वा तदीया अप्यार्यिकाश्चिरदीक्षिता अपि तद्दिनदीक्षितमपि साधुं वन्दन्ते, कृतिकर्म च यथारात्निकं तेऽपि कुर्वन्ति। अत एते चत्वारः कल्पा अवस्थिताः ॥६३६१॥" - बृहत्कल्पटीका । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १३९ [पृ०६४०] “इमे पुनः षडनवस्थिताः - आचेलक्कुद्देसिय, सपडिक्कमणे य रायपिंडे य । मासं पज्जोसवणा, छऽप्पेतऽणवट्ठिता कप्पा ||६३६२|| आचेलक्यमौद्देशिकं सप्रतिक्रमणो धर्मो राजपिण्डो मासकल्पः पर्युषणाकल्पश्चेति षडप्येते कल्पा मध्यमसाधूना विदेहसाधूनां चानवस्थिताः । तथाहि - यदि तेषां वस्त्रप्रत्ययो रागो द्वेषो वा उत्पद्यते तदा अचेलाः, अथ न रागोत्पत्तिस्ततः सचेलाः, महामूल्यं प्रमाणातिरिक्तमपि च वस्त्रं गृह्णन्तीति भावः । औद्देशिकं नाम साधूनुद्दिश्य कृतं भक्तादिकम् आधाकर्मेत्यर्थः, तदप्यन्यस्य साधोरर्थाय कृतं तेषां कल्पते, तदर्थं तु कृतं न कल्पते । प्रतिक्रमणमपि यदि अतिचारो भवति ततः कुर्वन्ति अतिचाराभावे न कुर्वन्ति । राजपिण्डे यदि वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति ततः परिहरन्ति अन्यथा गृह्णन्ति । मासकल्पे यदि एकक्षेत्रे तिष्ठतां दोषा न भवन्ति ततः पूर्वकोटीमप्यासते, अथ दोषा भवन्ति ततो मासे पूर्णेऽपूर्णे वा निर्गच्छन्ति । पर्युषणायामपि यदि वर्षासु विहरतां दोषा भवन्ति तत एकत्र क्षेत्रे आसते, अथ दोषा न भवन्ति ततो वर्षात्रेऽपि विहरन्ति ॥६३६२॥ आचेलक्कुद्देसिय, सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे । वत जेट्ठ पडिक्कमणे, मासंपज्जोसवणकप्पे ॥६३६४ ॥ आचेलक्यम् १ औद्देशिकम् २ शय्यातरपिण्डो ३ राजपिण्डः ४ कृतिकर्म ५ व्रतानि ६ जेट्ठत्ति पुरुषज्येष्ठो धर्मः ७ प्रतिक्रमणम् ८ मासकल्पः ९ पर्युषणाकल्पश्च १० इति द्वारगाथासमासार्थः ॥६३६४॥ परिहारिआ वि छम्मासे अणुपरिहारिआ वि छम्मासा । कप्पट्ठितो वि छम्मासे एते अट्ठारस उ मासा ||६४७४ | | परिहारिकाः प्रथमतः षण्मासान् प्रस्तुतं तपो वहन्ति, ततोऽनुपरिहारिका अपि षण्मासान् वहन्ति, इतरे तु तेषामनुपरिहारिकत्वं प्रतिपद्यन्ते । तैरपि व्यूढे सति कल्पस्थितः षण्मासान् वहति, ततः शेषाणामेकः कल्पस्थितो भवति एकः पुनरनुपरिहारिकत्वं प्रतिपद्यते । एवमेतेऽष्टादश मासा भवन्ति ॥६४७४|| गच्छम्म यणिम्माया, धीरा जाहे य मुणियपरमत्था । अग्गह जोग अभिग्गहे, उविंति जिणकप्पियचरितं ॥ ६४८३ || यदा गच्छे प्रव्रज्या - शिक्षापदादिक्रमेण निर्माताः निष्पन्नाः, धीराः औत्पत्तिक्यादिबुद्धिमन्तः परीषहोपसर्गेरक्षोभ्या वा, मुणितपरमार्थाः 'अभ्युद्यतविहारेण विहर्तुमवसरः साम्प्रतमस्माकम्' इत्येवमवगतार्थाः, तथा ययोः पिण्डैषणयोः असंसृष्टा - संसृष्टाख्ययोरग्रहस्ते परिहर्तव्ये, यास्तु उपरितन्यः पञ्चैषणास्तासाम् अभिग्रहः 'एता एव ग्रहीतव्याः' इत्येवंरूपः, तत्राप्येकदैकतरस्यां योग: व्यापारः परिभोग इत्यर्थः । एवं भावितमतयो यदा भवन्ति तदा जिनकल्पिकचारित्रम् उपयान्ति प्रतिपद्यन्ते ||६४८३ ॥ सम्प्रति स्थविरकल्पस्थितिमाह - संजमकरणुज्जोवा, णिप्फातग णाण- दंसण - चरिते । दीहाउ वुडवासो, वसहीदोसेहि य विमुक्का || ६४८५ || संयमः पञ्चाश्रवविरमणादिरूपः Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पृथिव्यादिरक्षारूपो वा सप्तदशविधः, तं कुर्वन्ति यथावत् पालयन्तीति संयमकरणाः, नन्द्यादिदर्शनात् कर्तरि अनप्रत्ययः, उद्योतकाः तपसा प्रवचनस्योज्ज्वालकाः, ततः संयमकरणाश्च ते उद्योतकाश्चेति विशेषणसमासः । यद्वा सूत्रा-ऽर्थपौरुषीकरणेन संयमकरणमुद्द्योतयन्तीति संयमकरणोद्द्योतकाः । तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु शिष्याणां निष्पादकास्तेषां वा ज्ञानादीनामव्यवच्छित्तिकारकाः, एवंविधाः स्थविरकल्पिका भवन्तीति शेषः । यदा च ते दीर्घायुषो जवाबलपरिक्षीणाश्च भवन्ति तदा वृद्धावासमध्यासते । तत्रैकक्षेत्रे वसन्तोऽपि वसतिदोषैः कालातिक्रान्तादिभिः चशब्दाद् आहारोपधिदोषैश्च विमुक्ताः वर्जिता भवन्ति, न तैर्लिप्यन्त इत्यर्थः ॥६४८५॥" - बृहत्कल्पटीका । [पृ०६४२] “सामन्नाउ विसेसो अन्नोऽणन्नो व होज, जइ अण्णो । सो नत्थि खप्पुप्फं पिवऽणण्णो सामन्नमेव तयं ॥३४॥ भो विशेषवादिन् ! सामान्याद् विशेषोऽन्यो वा स्यात्, अनन्यो वा ?, इति विकल्पद्वयम् । यद्याद्यो विकल्पः, तर्हि नास्त्येव विशेषः, निःसामान्यत्वात्, खपुष्पवत्इह यद् यत् सामान्यविनिर्मुक्तं तत् तद् नास्ति, यथा गगनारविन्दम्, सामान्यविरहितश्च विशेषवादिना विशेषोऽभ्युपगम्यते, तस्माद् नास्त्येवाऽयमिति । अथाऽनन्य इति द्वितीयः पक्षः कक्षीक्रियते, हन्त ! तर्हि सामान्यमेवाऽसौ, तदनन्यत्वात्, सामान्यात्मवत्, यद् यस्मादनन्यत् तत् तदेव, यथा सामान्यस्यैवाऽऽत्मा, अनन्यश्च सामान्याद् विशेषः, इति सामान्यमेवाऽयमिति । यदि चाऽतिपक्षपातितया सामान्येऽपि विशेषोपचारः क्रियते, तर्हि न काचित् क्वचित् क्षतिः, न युपचारेणोच्यमानो भेदस्तात्त्विकमेकत्वं बाधितुमलम्, तस्मात् सामान्यमेवाऽस्ति न विशेषः । इति संग्रहणनयमतेन सर्वत्रैकमेव द्रव्यमङ्लम् ॥ इति गाथार्थः ॥३४॥” - विशेषाव० मलधारि०॥ [पृ०६४३] “चउवीसयं मुहुत्ता, सत्त अहोरत्त तहय पन्नरस । मासो अ दो अ चउरो, छम्मासा विरहकालो उ ॥२८१॥ व्या० इह नरकेषु नारकाः सततमेव प्राय उत्पद्यन्ते । केवलं कदाचिदन्तरं भवति । तच्चान्तरं जघन्यतः सर्वासु समस्तासु पृथिवीषु प्रत्येकं भवत्येकः समयः । उत्कर्षतो रत्नप्रभायां पृथिव्यां चतुर्विंशतिर्मुहूर्ता अन्तरम् । शर्कराप्रभायां सप्ताहोरात्राः । वालुकाप्रभायां पञ्चदश । पङ्कप्रभायां मासः । धूमप्रभायां द्वौ मासौ । तमःप्रभायां चत्वारो मासाः । तमस्तमःप्रभायां षण्मासाः ॥२८१॥ सम्प्रति सिद्धिगतिमधिकृत्योपपातविरहकालप्रदर्शनार्थमाह- जहन्नेणेगसमओ, उक्कोसेणं तु हुति छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए, उव्वदृणवज्जिआ नियमा ॥३४५॥ व्या० सिद्धिगतौ विरहो जघन्यत एकः समयो भवति, उत्कर्षतः षण्मासाः । सा च सिद्धिगतिर्नियमान्नियमेनोद्वर्तनवर्जिता। न खलु सिद्धास्ततः कदाचनाप्युद्वर्तन्ते, उद्वर्तनहेतूनां कर्मणां निर्मूलकाषं कषितत्वात् । उक्तं चदग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥१॥ [ ] ॥३४५॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १४१ [पृ० ६४४] “मोत्तूण सगमबाहे पढमाएँ ठिइऍ बहुतरं दव्वं । एत्तो विसेसहीणं जावुक्कोसं ति सव्वस्सिं ॥११८३॥ मोत्तूण त्ति सर्वस्मिन्नपि कर्मणि बध्यमाने आत्मीयमात्मीयमबाधाकालं मुक्त्वा परित्यज्य ऊर्ध्वं दलिकनिक्षेपं करोति । तत्र प्रथमायां स्थितौ समयलक्षणायां प्रभूततरं द्रव्यं कर्मदलिकं निषिञ्चति । एत्तो विसेसहीणं ति इतः प्रथमस्थितेरूवं द्वितीयादिषु स्थितिषु समयसमयप्रमाणासु विशेषहीनं विशेषहीनं कर्मदलिकं निषिञ्चति । तथाहि- प्रथमस्थितेः सकाशात् द्वितीयस्थितौ विशेषहीनं। ततोऽपि तृतीयस्थितौ विशेषहीनं । ततोऽपि चतुर्थस्थितौ विशेषहीनम् । एवं विशेषहीनं विशेषहीनं तावद्वाच्यं यावत्तत्तत्समयबध्यमानकर्मणामुत्कृष्टा स्थितिश्चरमसमय इत्यर्थः ॥११८३॥” कर्मप्रकृति० मलय० ॥ [पृ० ६४९] "इदानीं मिथ्याकारविषयप्रतिपादनायाह- संजमजोए अब्भुट्ठियस्स जंकिंचि वितहमायरियं । मिच्छा एतंति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ॥६८२॥ व्या० संयमयोगः समितिगुप्तिरूपस्तस्मिन्विषयभूतेऽभ्युत्थितस्य सतः यत्किञ्चिद्वितथम् अन्यथा आचरितम् आसेवितम्, भूतमिति वाक्यशेषः, मिथ्या एतदिति विपरीतमेतदित्येवं विज्ञाय किम् ?- मिच्छत्ति कायव्वं मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः । संयमयोगविषयायां च प्रवृत्तौ वितथासेवने मिथ्यादुष्कृतं दोषापनयनायालम्, न तूपेत्यकरणगोचरायां नाप्यसकृत्करणगोचरायामिति गाथाहृदयार्थः ॥ इदानीमनियतकायोत्सर्गवक्तव्यतावसरः, तत्रेयं गाथा- गमणागमणविहारे सुत्ते वा सुमिणदंसणे राओ । नावानइसंतारे इरियावहियापडिक्कमणं ॥१५३३॥ गमणं भिक्षादिनिमित्तमन्यग्रामादौ, आगमणं तत्तो चेव, इत्थ इरियावहियं पडिक्कमिऊण पंचवीसुस्साओ काउस्सग्गो कायव्वो ॥१५३३॥" - आव० नि० हारि० । [पृ० ६५०] “पाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं ऊसासाणं हविजाहि ॥१५३८॥ सुमिणदंसणे राउ त्ति द्वारं व्याख्यानयन्नाह- पाणवहमुसावाए गाहा, सुमिणमि पाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव आसेविए समाणे सयमेगं तु अणूणं उस्सासाणं भविज्जाहि, मेहुणे दिट्ठिविप्परियासियाए सयं इत्थीविप्परियासयाए अट्ठसयंति ॥ उक्तं च- दिट्ठीविप्परियासे सय मेहुन्नंमि थीविपरियासे । ववहारेणठ्ठसयं अणभिस्संगस्स साहुस्स ॥१॥[ ] गाथार्थः ॥१५३८॥" - आव० नि० हारि० । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ३१० द्वितीयं परिशिष्टम् । श्रीस्थानाङ्गसूत्रटीकाया: द्वितीये विभागे ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धतानां पाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः। गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः एक्कं चिय एत्थ वयं.....[ ] ३०५ अशुभ-शुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो..... दाहिसि मे एत्तो .....[ ] ३०९ | [प्रशम० २४९] सच्चा हिया सतामिह संतो ..... | आगमउवएसेणं निसग्गओ..... [विशेषाव० ३७६] | [ध्यानश० ६७] ३२० अणहिगया जा तीसु वि.. एकोऽहं न च मे ..... [ ] ३२१ [विशेषाव० ३७७] कायः सन्निहितापायः.....[ ] ३२१ संघाडीओ चउरो तत्थ..... | जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते .....[प्रशम० १५२] ३२१ [बृहत्कल्प० ४०८९] ३१६ | माता भूत्वा दुहिता.....[प्रशम० १५६] ३२१ दुन्नि तिहत्थायामा.....[बृहत्कल्प० ४०९०]३१६ | विचारोऽर्थव्यञ्जन... [तत्त्वार्थ ९।४६] ३२१ अंतोमुत्तमित्तं.....[ध्यानश० ३] ३१७ | उप्पायठितिभंगाइं ..... ... ... आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे...... [ध्यानश० ७७] ३२१ तत्त्वार्थ० ९ ।३१] ३१७ | सवियारमत्थवंजणजोगंतरओ ..... अमणुन्नाणं सद्दाइविसयवत्थूण ..... | [ध्यानश० ७८] ३२२ [ध्यानश० ६] ३१८ | जं पुण सुनिप्पकंपं .....[ध्यानश० ७९] तह सूल-सीसरोगाइवेयणाए..... | अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ ..... [ध्यानश० ७] ३१८ | [ध्यानश० ८०] ३२२ इट्ठाणं विसयाईण..... [ध्यानश० ८] ३१८ | निव्वाणगमणकाले केवलिणो ..... देविंद-चक्कवट्टित्तणाइ-.....[ध्यानश० ९] ३१८ - [ध्यानश० ८१] ३२२ तस्सकंदण-सोयण-.....[ध्यानश० १५] ३१८ | तस्सेव य सेलेसीगयस्स...[ध्यानश० ८२] निंदइ निययकयाइं पसंसइ..... | पज्जत्तमेत्तसन्निस्स जत्तियाई [ध्यानश० १६] [विशेषाव० ३०५९] सत्तवहवेहबंधण.....[ध्यानश० १९] ३१९ | तदसंखगुणविहीणे समए.... पिसुणा-ऽसब्भा-ऽसब्भूय-..... [विशेषाव० ३०६०] [ध्यानश० २०] ३१९ | पज्जत्तमेत्तबेंदियजहन्नवइ-.... तह तिव्वकोह-लोहाउलस्स..... [विशेषाव० ३०६१] ३२३ [ध्यानश० २१] ३१९ | सव्ववइजोगरोहं संखातीएहिं सद्दाइविसयसाहणधण-.....[ध्यानश० २२] ३१९ । [विशेषाव० ३०६२] ३२३ आप्तवचनं प्रवचनमाज्ञा.....[प्रशम० २४८] ३२० | जो किर जहन्नजोगो ....[विशेषाव०३०६३] ३२३ ३२२ ३२२ ३१९ ३२३ ३२३ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः १४३ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः रुंभइ स काययोगं ....[विशेषाव०३०६४] ३२३ आयपइट्ठिय १ खेत्तं पडुच्च २..... हस्सक्खराई मज्झेण ..... । प्रज्ञापना० ४१८] । ३२९ [विशेषाव० ३०६८] ३२३ | उप्पाय १ अग्गेणीय २ वीरियं .....[ ] ३३६ तणुरोहारंभाओ झायइ पुव्वं पच्चक्खाणं ९ विज्जणुवायं .....[ ] ३३७ [विशेषाव० ३०६९] | उप्पाये पयकोडी १ अग्गेणीयम्मि.....[ ] ३३७ चालिज्जइ बीहेइ व धीरो .. | एगा पउणा कोडी णाणपवायम्मि ..... [ ]३३७ [ध्यानश० ९१] ३२३ | छव्वीसं कोडीओ आयपवायम्मि.....[ ] ३३७ देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं ..... चुलसीइ सयसहस्सा .....[ ] ३३७ [ध्यानश० ९२] ३२३ | छव्वीसं कोडीओ पयाण ..... [ ] ३३७ अह खंतिमद्दवज्जवमुत्तीओ ..... नवकोडीओ संखा .....[ ] ३३७ [ध्यानश० ६९] ३२४| पडिसेवणा उ भावो.....[व्यवहारभा० ३९] ३३८ एस अणाई जीवो संसारो .....[ ] ३२४ | मूलगुण-उत्तरगुणे .....[व्यवहारभा० ४१] ३३८ सव्वट्ठाणाई असासयाई ..... आलोयण १ पडिकमणे ..... _ [मरण० प्रकी० ५७५] ३२४] [व्यवहारनि० १६ भा० ५३] ३३८ धी संसारो जम्मि जुयाणओ ..... | पंचाईयारोवण नेयव्वा जाव...... _ [मरण० प्रकी० ६००] ३२४, । व्यवहारभा० १४१] कोहो य माणो य अणिग्गहीया ..... | दव्वे खेत्ते काले भावे पलिउंचणा..... [दशवै०८।४०] ३२४] [व्यवहारभा० १५०] ३३९ आसवदारावाए तह ..... | सच्चित्ते अचि(च्चि)त्तं १ ..... [सम्बोधप्र० १४०५] ३२४ [व्यवहारभा० १५१] सुहदुक्खबहुसईयं कम्मक्खेत्तं .....[ ] ३२६ दुविहो पमाणकालो ..... कम्मं कसं भवो वा कसमाओ ....... ___ [आव० नि० ७३०, विशेषाव०२०६९] ३३९ [विशेषाव० १२२८, २९७८] | ३२६ | आउयमेत्तविसिट्ठो स एव..... सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च .....[ ] ३२६ [विशेषाव० २०३७] ३३९ पढमिल्ल्याण उदए.....[आव०नि० १०८] ३२७ | कालो त्ति मयं मरणं जहेह..... केवलियनाणलंभो ... [आव०नि० १०४] ३२७] [विशेषाव० २०६६] अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो .....[ ] ३२८ | सूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहाइकिरियासु नाल्पमप्युत्सहेद्येषाम् ..... [ ] ३२८] .....[विशेषाव० २०३५] सर्वसावद्यविरतिः .....[ ] ३२८ समयावलियमुत्ता दिवस-..... शब्दादीन् विषयान् प्राप्य..... [ ] ३२८] [विशेषाव० २०३६] ३४० मोत्तूण सगमवाहं पढमाइ .....[ ] ३२८ परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं .....[ ] ३४० ३३८ ३४० A-35 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ गाथा पुरिमा उज्जुजड्डा उ.... [उत्तरा० २३ २६ ] पुरिमाणं दुव्विसोझो उ,..... [उत्तरा० २३।२७] दिवसभयओ उ घेप्पइ [निशीथभा० ३७१९] कब्बल ओड्डमाई हत्थमियं [ निशीथभा० ३७२०] खीरं ५ दहि ४ णवणीयं ४ [पञ्चव० ३७१] गोमहिसुट्टिपसूणं एलगखीराणि..... [पञ्चव० ३७२] चत्तारि होंति तेल्ला तिल -. [पञ्चव० ३७३] गुल- पिंडगुला दो मज्जं [पञ्चव० ३७४ ] जल-थल - खहयरमंसं चम्म [पञ्चव० ३७७] उदयस्सेव निरोहो उदयप्पत्ताण.....[ 1 अपसत्थाण निरोहो ..[] द्वितीयं परिशिष्टम् पृष्ठाङ्कः गाथा पृष्ठाङ्कः . [ निशीथभा० १२३] ३५७ ३४१ | सागघयादावावो आहारमंतरेण वि .. [निशीथभा० १२४ ] ३५७ ३५७ ३४१ | रागद्दोसुप्पत्ती.....[निशीथभा० १२७] सियसिंधुरखंधगओ .....[ ] ३५७ ३४३ | वज्जंतायोज्जममंदबंदिसद्दं .....[ 1 ३५७ | संतहयं गज्जंतमयगलं .....[ 1 ३५७ ३४३ | पुरिसपरंपरपत्तेण भरियविस्संभरेण..... [ ] ३५८ चारिय चोरा १.... [ निशीथभा० १३०] विज्जाचरणं च तवो..... ३५८ ३४६ ३४७ ३४७ ३४७ [पञ्चव० ३७५ ] सेसा न होंति विगई [ पञ्चव० ३७६ ] ३४७ एगेण चैव तवओ पूरिज्जति..... ३४७ .... [दशवै० नि० १९५] ३५८ ३६१ कय किं वा ....[ ओघनि० २६२] को मम कालो ? किमेयस्स ..... [ ] ३६१ आसाढी इंदमहो.....[आव० नि० १३५२] ३६२ सुयणाणम्मि अभत्ती [आव० नि० १४२२] निग्गंथेणं गाहावइकुलं सद्देसु य भद्दय-पावएसु ...[ ] खेत्ते जाई कुल कम्म .....[ भद्रो मन्दो मृगश्चेति .....[ ] दंतेहि हणइ भद्दो मंदो ..... [ ] धिग्ब्राह्मणीर्धवाभावे या..... [ ] अहो चौलुक्यपुत्रीणां .....[ ] चन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी .....[ ] धिग्नारीरौदीच्या बहुवसना-. [ ] आय-परमोहुदीरणं .....[ निशीथभा० १२१ ] ३५७ | सव्वत्थोवो संजयस्स ३५६ उव्वट्टण - ओवट्टण - ३५६ | जोगा पयडिपएसं ३६४ ३६७ ३६८ ३६९ [ भगवती० ८|६|७] चवला मइलणशीला..... [ ३४७ | एगो एगिथिए सद्धिं.....[ उत्तरा ० १ | २६ ] ३४९ तमुक्काए णं भंते ..... [ भगवती० ६।५।३] ३४९ जल-रेणु-पुढवि-..[विशेषाव० २९९० ] ३७२ ३४९ | मायाऽवलेहि-.. [विशेषाव० २९९९] ३५१ पक्ख चउमास - ..... .. [ विशेषाव० २९९२] ३५४ | नेरइए णं भंते ! इसु ३५५ [ प्रज्ञापना० १७|३|११९९] ३५६ | स्यादारम्भ उपक्रमः [ अमरकोष० ६८९ ] ३५६ जं करणेणोकड्डिय उदए.....[कर्मप्र० ४।१] ३७५ ३७२ ३७२ ३७३ ३७५ [ कर्मप्र० ५ /६७] ३७५ . [ बन्धशतके ९९] ३७६ ओ [ ] ३७६ ३६२ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः १४५ ३७७ ३७८ ३७९ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः सव्वत्थोवाइं अणंतगुणवड्डिट्ठाणाणि,..... चउजोयणवित्थिन्ना अद्वैव य..... ३७६ बृहत्क्षेत्र० १७] ३८३ अट्ठविहबंधगस्स आउयभागो .....[ ] ३७६ | पलिओवमट्टिईया .....[बृहत्क्षेत्र० १९] ३८४ सो संकमो त्ति भन्नइ .....[कर्मप्र० २।१] ३७७ | चुल्लहिमवंत पुव्वावरेण . ठितिसंकमो त्ति वुच्चइ .....[कर्मप्र० २।२८] ३७७ | [बृहत्क्षेत्र० २।५५] ३८५ तत्थट्ठपयं उव्वट्टिया व.....[कर्मप्र० २।४६] ३७७ | अउणावन्न नवसए ....[बृहत्क्षेत्र० २।५६] ३८५ जं दलियमन्नपगई णिज्जइ..... | एएसिं दीवाणं परओ .....[बृहत्क्षेत्र० २।५७]३८५ [कर्मप्र० २।६०] चत्तारंतरदीवा हय-गय-..... संकमणं पि निहत्तीऍ णत्थि..... __ [बृहत्क्षेत्र० २।५८] ३८५ [कर्मप्र० ६१] | ओगाहिऊण लवणं .....[बृहत्क्षेत्र० २५९] ३८५ उप्पन्ने इ वा विगए इ.....[ ] | आयंसग मेंढमुहा अओमुहा...... दक्खिणपुव्वेण रयणकूडं ..... [बृहत्क्षेत्र० २।६०] द्वीपसागर० १६] तत्तो अ अस्सकण्णा हत्थियकण्णा..... रयणस्स अवरपासे तिन्नि वि..... [द्वीपसागर० १७] [बृहत्क्षेत्र० २।६१] सव्वरयणस्स अवरेण तिन्नि. |घणदंत लट्ठदंता निगूढदंता ..... [द्वीपसागर० १८] [बृहत्क्षेत्र० २।६२] पुव्वेण तिन्नि कूडा दाहिणओ... |अंतरदीवेसु नरा धणुसयअठूसिया..... [द्वीपसागर० ६] [बृहत्क्षेत्र० २।७३] पंचसए बाणउए सोलस..... | चउसद्धिं पिट्टिकरंडयाण .... [बृहत्क्षेत्र० ३६४] ३८१ [बृहत्क्षेत्र० २।७४] ३८५ जत्तो वासहरगिरी तत्तो ..... | पणनउइ सहस्साइं .....[बृहत्क्षेत्र० २।४] ३८६ [बृहत्क्षेत्र० ३७१] ३८१ | वलयामुह केऊए जूयग.....[बृहत्क्षेत्र० २।५] ३८६ जत्तो पुण सलिलाओ .....[बृहत्क्षेत्र० ३७२]३८१] जोयणसहस्सदसगं मूले ..... विजयाणं विक्खंभो .....[बृहत्क्षेत्र० ३७०] ३८१] [बृहत्क्षेत्र० २।६] । ३८७ बावीस सहस्साई .....[बृहत्क्षेत्र० ३१७] ३८२ | पलिओवमट्टिईया एएसिं .... पंचेव जोयणसए उड्डे .....[बृहत्क्षेत्र० ३२७] ३८२ [बृहत्क्षेत्र० २।११] ३८७ बासहि सहस्साइं पंचेव.....[बृहत्क्षेत्र० ३३८]३८२ अन्ने वि य पायाला....[बृहत्क्षेत्र० २।१२] ३८७ सोमणसाओ तीसं छच्च ..... जोयणसयवित्थिन्ना .....[बृहत्क्षेत्र० २।१३] ३८७ बृहत्क्षेत्र० ३४६] ३८२ | पायालाण तिभागा..... [बृहत्क्षेत्र० २।१४] ३८७ चत्तारि जोयणसया चउणउया..... | उवरिं उदगं भणियं .....[बृहत्क्षेत्र० २।१५] ३८७ [बृहत्क्षेत्र० ३४७] ३८२ | परिसंठियम्मि पवणे .....[बृहत्क्षेत्र० २।१६] ३८७ ३७९ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ द्वितीयं परिशिष्टम् ४१० ४११ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः दसजोयणसहस्सा .....[बृहत्क्षेत्र० २।१७] ३८७ द्वात्रिंशत् सहस्राणि .....[ ] ४०४ देसूणमद्धजोयण ..... [बृहत्क्षेत्र० २।१८] ३८७| वेसमणवयणसंचोइया ..... अभिंतरियं वेलं.....[बृहत्क्षेत्र० २।१९] ३८७| [आव० नि० भा० ६८] ४०४ सर्व्हि नागसहस्सा.....[बृहत्क्षेत्र० २।२०] ३८७ पुट्ठापुट्ठो पढमो जत्ताइ ..... पुव्वाइअणुक्कमसो .....[बृहत्क्षेत्र० २।२१] ३८८ व्यवहारभा० ४५६८] अणुवेलंधरवासा.....[बृहत्क्षेत्र० २।२२] ३८८ आहारउवहिसयणाइएहिं कक्कोडय कद्दमए .....[बृहत्क्षेत्र० २।२३] ३८८ व्यवहारभा० ४५७०] ४१० चत्तारि जोयणसए ..... बृहत्क्षेत्र० २।२४] ३८८ सो पुण गच्छस्सऽट्ठो उ ..... जम्बू १ लवणे .....[बृहत्सं० ९२] ३९३ व्यवहारभा० ४५७१] ४१० तेवढें कोडिसयं .....[द्वीपसागर० २५] ३९३ | सयमेव दिसाबंधं काऊण ..... चुलसीति सहस्साई .....[द्वीपसागर० २७] ३९३ व्यवहारभा० ४५८४] नव चेव सहस्साई.....[द्वीपसागर० २९] ३९३ | दसविहवेयावच्चे अन्नतरे नव चेव सहस्साइं .....[द्वीपसागर० ३१] ३९३ [व्यवहारभा० ४५८७] भिंगंगरुइलकज्जल-.....द्वीपसागर० ३७] ३९३ |दुक्खेण उ गाहिज्ज़इ बीओ ..... अंजणगपव्वयाणं .....[द्वीपसागर० ३९] ३९४ [व्यवहारभा० ४५८८] ४१२ दो असतीओ.....[अनुयोगद्वार० सू० ३१८] ३९४ | | धम्मो जेणुवइट्ठो सो .....[ ] ४१३ संखदलविमलनिम्मल-.....[द्वीपसागर० ५०] ३९५ जह जह बहुस्सुओ .....[सम्मति० ३।६६] ४२६ विगला लभेज विरई ण.....[बृहत्सं० २९७]४२९ सोलस दहिमुहसेला .....[ ] ३९५ | एत्थ णं बादरपुढविकाइयाणं .....[ ] ४३१ अंजणगाइगिरीणं .....[ ] ३९५ | पुढे सुणेइ सदं .....[आव० नि० ५] ४३२ गंडी कच्छवि मुट्ठी .....[ ] ५|साध्येनानुगमो हेतो......प्रमाणसमु० ४।२] ४३३ बाहलपहत्तेहिं गंडी पोत्थो .....[ ] ३९७|जह तब्भे तह.....[उत्तरा० नि० ३०७] ४३३ चउरंगुलदीहो वा वठ्ठागिति .....[ ] ३९७ वरं कुपशताद्वापी वरं .....[नारद० ११२१२] ४३४ संपुडगो दुगमाइफलगा .....[ ] ३९७ | चरियं च कप्पियं .....[दशवै० नि० ५३] ४३५ दीहो वा हस्सो वा जो .....[ ] ३९७ | दव्वावाए दुन्नि उ .....[दशवै० नि० ५५] ४३६ अप्पडिलेहियदूसे तूलि .....[ ] | खेत्तम्मि अवक्कमणं .....[दशवै० नि० ५६] ४३६ पल्हवि कोयव पावार .....[ ] ३९७ | एमेव चउविगप्पो .....[दशवै० नि० ६१] ४३८ पल्लवि हत्थुत्थरणं तु .....[ ] ३९७| कालो वि नालियाईहिं.....[दशवै०नि० ६२] ४३८ तणपणगं पुण भणियं .....[ ] ३९७ | ठवणाकम्मं एक्कं..... [दशवै० नि० ६७] ४३९ अय एल गावि महिसी .....[ ] ३९७ | सव्वभिचारं हेतुं .....[दशवै० नि० ६८] ४३९ हियए जिणाण आणा .....[ ] ४०२ | होति पडुप्पन्नविणासणम्मि हयमम्हाणं नाणं .....[ ] ४०२] [दशवै० नि० ६९] ४३९ Mr mr m Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः १४७ ४६० गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः वारेयव्वो उवाएणं [दशवै० नि० ७०] ४३९ पारुष्यसङ्कोचनतोदशूल-.....[ ] ४५३ आहरणं तद्देसे .....[दशवै० नि० ७३] ४४० | परिस्रवस्वेदविदाहरांगा.....[ ] ४५३ साहुक्कारपुरोगं जह .....[दशवै० नि० ७४] ४४० | श्वेतत्वशीतत्वगुरुत्वकण्डू.....[ ] ४५३ पुच्छाए कोणिए.....[दशवै० नि० ७८] ४४१ | भिषग् १ द्रव्याण्यु २ पस्थाता.....[ ] ४५३ कन्थाऽऽचार्याऽघना ते.....[ ] ४४२ | दक्षो १ विज्ञातशास्त्रार्थो.....[ ] ४४२ ४५३ पढमं अहम्मजुत्तं पडिलोमं ..... अनुरक्तः १ शुचि २ दक्षो.....[ ] ४५३ _[दशवै० नि० ८१] निव्विगइ निब्बलोमे .....निशीथ० ५७४] ४५४ पडिलोमे जह अभओ पज्जोयं होज्ज हु वसणं पत्तो.....[निशीथ० ५४३५] ४५७ [दशवै० नि० ८२] ओसन्नो वि विहारे .....[निशीथ० ५४३६] ४५७ अत्तउवन्नासम्मि य तलायभेयम्मि..... असियसयं किरियाणं .....[सूत्र० नि० ११९]४५८ [दशवै० नि० ८३] पुरुष एवेदं नि[ ] ४५८ तुज्झ पिया मज्झ पिउणो ..... इह चोत्पत्तिमङ्गीकृत्योत्तरं ..... [दशवै० नि० ८६] __[अचाराङ्गटी० ] आस्तिकमतमात्माद्या ९ .....[ अन्यथाऽनुपपन्नत्वं .....न्याया० २२] ] ४६० उब्भामिया य महिला ..... कालयदृच्छानियतीश्वर-.....[ ] ४६० [दशवै० नि० ८८] अज्ञानिकवादिमतं नव .....[ ] ४६० वैनयिकमतं विनयश्चेतो-.....[ लोगस्स मज्झजाणण थावगहेऊ..... ] ४६० पठक: पाठकश्चैव ये चान्ये .....[ ] ४६८ [दशवै० नि० ८८] | कंदप्प २ देवकिब्बिस..... सा सगडतित्तिरी वंसगम्मि ..... [बृहत्कल्प० १२९३] ४७१ दशवै० नि० ८९] | जो संजओ वि एयासु अप्पसत्थासु अपरोक्षतयाऽर्थस्य, .....[न्याया० ४] ___.....[बृहत्कल्प० १२९४] ४७१ साध्याविनाभुवो लिङ्गात्,.....[न्याया० ५] ४४७ | अणुबद्धविग्गहो चिय..... गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं .....[ ] ४४७ | [बृहत्कल्प० १३१५] ४७१ तस्यामेव त्ववस्थायां .....[ ] ४४८ कोउय भूईकम्मे पसिणा दृष्टेष्टाव्याहताद् वाक्यात् .....न्याया० ८] ४४८ | । [बृहत्कल्प० १३०८] ४७१ आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घय-.....[न्याया० ९] ४४८ उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ ..... धावेइ रोहणं तरइ .....[ ] ४५० [बृहत्कल्प० १३२१] ४७२ अडइ बहुं वहइ भरं .....[ ] ४५० | नाणस्स केवलीणं धम्मायरियाण ..... आसी दाढा .....[विशेषाव० ७९१] ४५२] [बृहत्कल्प० १३०२] ४७२ तत्र रूक्षो १ लघुः २ शीतः.....[ ] ४५३ | कंदप्पे कुक्कुइए दवसीले कफो गुरु १ र्हिमः २.....[ ] ४५३| [बृहत्कल्प० १२९५] ४७२ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ द्वितीयं परिशिष्टम् ४९३ ४९३ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः व्यवहार: नार्योरन्योन्यं रक्तयो..... | सोहम्मे पंचवण्णा ..... [बृहत्सं० १३२] ४९२ __ [काव्यालं० १२।५] ४७६ | कृतमुष्टिकस्तु रत्नि: स एव.....[ ] ४९२ करुण: शोकप्रकृतिः [काव्यालं० १५।३] ४७६ | भवण १० वण ८.....[बृहत्सं० १४३] ४९२ भवति जुगुप्साप्रकृतिर्बीभत्स: | गेविजेसुं दोन्नी एक्का .....[बृहत्सं० १४४] ४९२ [काव्यालं० १५/५] ४७६ | पवनाभ्रवृष्टिविद्युद्गर्जित-.....[ ] ४९३ रौद्रः क्रोधप्रकृतिः [काव्यालं० १५।१३] ४७६ | शीता वाताश्च.....[भद्रबाहु० १२।८] ४९३ उवसज्जणमुवसग्गो तेण ..... सप्तमे सप्तमे मासे,.....[भद्रबाहु० १२।४] ४९३ [विशेषाव० ३००५] ४८१ पौषे समार्गशीर्षे .....[बृहत्संहिता २१।१९] ४९३ हास १ प्पदोस २ वीमंसओ ..... माघे प्रबलो वायुस्तुषारकलुषद्युती..... [विशेषाव० ३००६] ४८२ [बृहत्संहिता २१।२०] ४९३ तिरिओ भय १ प्पओसा २..... फाल्गुनमासे रूक्षश्चण्ड: [विशेषाव० ३००७] ४८२] [बृहत्संहिता २१।२१] दिव्वम्मि वंतरी १ संगमे २.....[ ] ४८३ | पवनघनवृष्टियुक्ताश्चैत्रे..... गणिया १ सोमिल २ .....[ ] ४८३] [बृहत्संहिता २१।२२] कणुग १ कुडणा २ .....[ ] ४८३ अवस्थितं लोहितमङ्गनाया वातेन .....[ ] ४९४ मूलप्रकृत्यभिन्ना: .....[ ] ४८३ | गर्भ जडा भूतहृतं वदन्ती [ ] ४९४ मोत्तूण आउयं खलु .....[ ] ४८३ | अत एव च शुक्रस्य, .....[ ] ४९४ तो समणो जइ.....[दशवै० नि० १५६] ४८४ वायुना बहुशो भिन्ने,.....[ ] ४९४ नत्थि य सि .....[दशवै० नि० १५५] ४८४ | वारुणिवर खीरवरो घयवर.....[बृहत्सं० ८८] ४९६ अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्धसम्पत्, .....[ ] ४८४ | पढमम्मि सव्वजीवा बीए ..... श्रद्धालुतां श्राति .....[ ] ४८५/ [आव० नि० ५७४, विशेषाव० २६३७] ४९९ पुव्वमदिट्ठमसुयमचेइय-..... | सव्वगयं सम्मत्तं सुए ..... __ [आव० नि० ९३९] ४८५] [विशेषाव० २७५१] ५०० भरनित्थरणसमत्था .....[आव० नि० ९४३] ४८५ जइधम्मम्मऽसमत्थे जुज्जइ .....[ ] ५०१ उवओगदिट्ठसारा .....[आव० नि० ९४६] ४८५ | सक्तः शब्दे हरिणः स्पर्शे .....[ ] ५०२ अणुमाणहेउदिटुंतसाहिया पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा .....[ ] ५०२ [आव० नि० ९४८] ४८६| |एगाई पंचते ठविउं मज्झं ..... [ ] ५०३ सामन्नत्थावग्गहणमोग्गहो ..... एगाई सत्तंते ठविउं मज्झं .....[ ] ५०३ [विशेषाव० १८०] ४८६ | पंचाई य नवंते ठविउं .....[ ] ५०४ रोसेण पडिनिवेसेण तहय .....[ ] ४८९ | पंचादिगारसंते ठविउं .....[ ] ५०४ ततं वीणादिकं.....[ ] ४९१ | जोयणसहस्समहियं.....[बृहत्सं० ३०७] ५०७ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा तत्थोदार १ मुलं २ उरलं .....[ ] भन्नइ य तहोरालं वित्थरवंतं .....[] उरलं थेवपदेसोवचियं .....[ ] विविहा व विसिट्ठा वा ....[ ] कज्जम्मि समुप्पन्ने .....[ पाणिदयरिद्धिसंदरिसण - ... [] सव्वस्स उम्हसिद्धं ..[ ] कम्मविगारो कम्मणमट्ठ- .....[ ] अविसंवादनयोगः .....[प्रशम० १७४] पुढवि-दग-अगणि-..... [ दशवै० नि० ४६ ] ५११ ५११ पञ्चाश्रवाद्विरमणं .....[प्रशम० १७२] रस- रुधिर-मांस - मेदो- .....[ ] अणसणमूणोरिया पायच्छित्तं विणओ तो कयपच्चक्खाणो स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः [ पञ्चव० ५३७, पञ्चा० ५/४० ] संविग्गअन्नसंभोइयाण [ पञ्चव० ५३८, पञ्चा० ५।४१] खंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती ५११ . [ दशवै० नि० ४७] ५११ [दशवै० नि० ४८]५११ [पञ्चाशक० ११।१९ आव० सं० ] उक्खित्तमाइचरगा . [ पञ्चव० ३०३] . [ पञ्चव० २९८ ] ***** [ बृहत्कल्प ० ५९५४] आयावणा यतिविहा पृष्ठाङ्कः गाथा ५०७ गोदुह उक्कड पलियंकमेस ५०८ आयरिय उवज्झाए थेर-... ५०८ निर्वेशः परिभोग: [ ] ५०८ कालक्कमेण पत्तं . [ पञ्चव० ५८१] ५०८ | तिवरिसपरियागस्स उ... [ पञ्चव० ५८२] .....[पञ्चव० ५८३] [ पञ्चव० ५८४] [बृहत्कल्प ० ५९४५ ] तिविहा होइ निवण्णा ओमंथिय..... [बृहत्कल्प ० ५९४६ ] ५०८ दस कप्प-व्ववहारा ५०८ दसवासस्स विवाहो ५०८ बारसवासस्स तहा ५११ चोद्दसवासस्स तहा ५१२ मासभंतर तिन्नि दगलेवा..... ५१२ [आव० नि० १२०३] वडवड वा ५१२ इति सुत्त उत्ता १ उद्दिट्ठ संसट्टमसंसट्टे[ ] ५१३ [बृहत्कल्प० ५६१९] दत्ती उ जत्तिए वारे [ ] ५१३ पंचन्हं गहणेणं सेसा वि ..... उद्धट्ठाणं ठाणाइयं.... [ बृहत्कल्प ० ५९५३ ] ५१४ वीरासणं तु सीहासणे..... [पञ्चव० ५८८ ] दीहकालठियाओ हस्सकालठियाओ .....[भगवती० १।१।११] | जाई - कुल-गण-कम्मे सिप्पे [निशीथभा० ४४११] अवणेइ पंच ककुहाणि ५१२ जो उत्तमेहिं मग्गो पहओ .....[ ] |वत्थगन्धमलङ्कारं [दशवै० २ २] ५११ ..[ ] ५१४ ५१४ ५१४ सोलसवासाईसु य .....[पञ्चव० ५८७] गूणवीसगस्स उट्ठीवाओ [ बृहत्कल्प ० ५६२०] ओहार - मगराईया घोरा [बृहत्कल्प० ५६३३] सालंबणो पडतो वि . [ पञ्चव० ५८५ ] .. [ पञ्चव० ५८६ ] [ आव० नि० १९८६ ] आलंबणही ...[ ] पुण [आव० नि० १९८७] ***** १४९ पृष्ठाङ्कः ५१५ ५१६ ५१६ ५१८ ५१८ ५१८ ५१८ ५१९ ५१९ ५१९ ५१९ ५२३ ५२३ ५२४ ५२६ ५३२ ५३२ ५३२ ५३२ ५३२ ५३३ ५३३ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० द्वितीयं परिशिष्टम् ५३७ ५३७ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः एत्थ य अणभिग्गहियं ..... असणाईया चउरो..... निशीथभा० २५००] ५३६ [बृहत्कल्प० ४२८२] ५३३ अंतेउरं च तिविहं जुन्नं ..... असिवादिकारणेहिं अहवा _[निशीथभा० २५१३] ५३७ [बृहत्कल्प० ४२८३] ५३३ | एतेसामन्नयरं रत्नो अंतेउरं छक्कायविराहणया आवडणं ..... [निशीथभा० २५१४] [बृहत्कल्प० २७३६] ५३३ | सद्दाइइंदियत्थोवओगदोसा . अक्खुन्नेसु पहेसुं पुढवी ..... निशीथभा० २५१८] [बृहत्कल्प० २७३७] ५३३ | बहिया वि होंति ..... आबाहे दुब्भिक्खे भए ... [निशीथभा० २५१९] ५३७ [बृहत्कल्प० २७३९] ५३४ बितियपद मणाभोगा..... इअ सत्तरी जहन्ना असिई ..... [निशीथभा० २५२०] [बृहत्कल्प० ४२८५] ५३४ | मासि मासि रज:.....[ ] ५३९ काऊण मासकप्पं तत्थेव | पूर्णषोडशवर्षा स्त्री, ..... [ ] ५३९ [बृहत्कल्प० ४२८६] ५३४ | वीर्यवन्तं सुतं सूते, ..... [ ] ५३९ दव्वट्ठवणाऽऽहारे विगई .... |ऋतुस्तु द्वादश निशा:, .....[ ] ५३९ [निशीथभा० ३१६६] ५३४ | पद्मं सङ्कोचमायाति, ..... [] ५३९ असिवे ओमोयरिए ....निशीथभा० ३१२९, मासेनोपचितं रक्तं .....[ ] बृहत्कल्प० २७४१] ५३५ | थेवं बहुनिव्वेसं [ओघनि० ५३०] ५४० संतिमे सुहमा पाणा [दशवै० ६।२४-२६] ५३५ नानिव्विर्यु लब्भइ [पिण्डनि० ३७०] ५४० जइ वि हु फासुगदव्वं ..... भयणपयाण चउण्हं ..... [बृहत्कल्प० २८६३] ५३५| निशीथभा० २३४६] ५४१ जइ वि य पिवीलिगाइ . असणादिं वाऽऽहारे उच्चारादिं ..... [बृहत्कल्प० २८६४] ५३५] [निशीथभा० २३४७] तण-छार-डगल-मल्लग.....निशीथभा० ११५४, सो आणा-अणवत्थं बृहत्कल्प० ३५३५] ५३५| निशीथभा० २३४८] ५४२ तित्थकरप्पडिकुट्ठो अन्नायं ..... बीयपयमणप्पज्जे..... [निशीथभा० २३४९] ५४२ [पञ्चा० १७/१८] ५३६ / जे भिक्ख ऊ सचेले,..... पडिबंधनिराकरणं केई अन्ने ..... [निशीथभा० ३७७७] ५४२ [पञ्चा० १७१९] ५३६ इय संदसणसंभासणेहिं जो मुद्धा अभिसित्तो पंचहिं ..... । [बृहत्कल्प० ३७१३] ५४२ [निशीथभा० २४९७] ५३६ | संवरिए वि हु.....[निशीथभा० ३७८१] ५४२ ५३९ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पृष्ठाङ्कः गाथा अट्ठा १ णट्ठा २ हिंसा भावपरिन्ना जाणण बीयपदमणप्प ...[निशीथभा० ३७७९] ५४२ रागो उ होइ निस्सा ..[ ] अहवण आहाराई दाही.....[] तिण्हपरि फालियाणं वत्थं .... [ आव० सं० ] ५४४ [आचाराङ्गनि० ३७] आगमसुयववहारो सुणह...... [ व्यव० भा० ४०२९] पच्चक्खो वि यदुविहो [ व्यव० भा० ४०३०] नोइंदियपच्चक्खो ववहारो स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः [ व्यव० भा० ४०३१] पच्चक्खागमसरिसो होइ ..... [ व्यव० भा० ४०३५] पारोक्खं ववहारं आगमओ [ व्यव० भा० ४०३७] जं जहमोल्लं रयणं तं जाण....... [ व्यव० भा० ४०४३] कप्पस य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव ५४५ ५४६ दूमिय धूमि वासिय ५५० ५५० ५५१ ५५१ [बृहत्कल्प ० ५९५ ] विहिगहियं विहिभुत्तं .....[ओघनि० ५९२] ५४६ अहवा वि य विहिगहियं ..... [ ] नत्थी अरहंतत्ती जाणं वा ..... [ ५४६ | एत्थ पसिद्धी मोहणीय - ..... [ अणिमिस देवसहावा [ ] ५४६ | जियरागदोसमोहा सव्वन्नू .....[ ] वत्थुपयासणसूरो अइसय .....[ 1 1 ५५२ ५५२ ५५२ ५५२ [ व्यव० भा० ४४३५ ] ५४६ तेसि नमो तेसि नमो . [ पञ्चव० १६००] ५५२ तं चेवऽणुसज्जते..... [व्यव० भा० ४४३६ ] ५४७ एयम्मि पूइयम्मी नत्थि .....[ ] ५५२ अपरक्कमो तवस्सी तुं देवाण अहो सीलं [] ५५२ ५५३ ५४७ रागद्दोसविरहिओ.....[विशेषाव० ३४७७] ५४७ अहवा भवं समाए ... [ विशेषाव० ३४७८ ] ५५३ अहवा समाई सम्मत्तनाण-. ५४७ ५४६ | जग्गण अप्पडिबज्झण जइ..... 1 उउवासा समतीता कालातीता..... ५४६ [ व्यव० भा० ४४४०] अह पट्टवेइ सीसं.... [ व्यव० भा० ४४४९] सो ववहारविहिन्नू.... [व्यव० भा० ४४८९ ] जेणऽन्नइया दिट्ठे ..... [ व्यव० भा० ४५१५] ५४७ सो तम्मि चेव..... [ व्यव० भा० ४५१७] वेयावच्चकरो वा सीसो ५५० [[निशीथभा० ७८७] अवलक्खणेगबंधे ..... [ निशीथभा० ७५० ] ५५० [निशीथभा० २०४८] [ व्यव० भा० ४५१८] बहुसो बहुस्सुएहिं .....[व्यव० भा० ४५४२ ] ५४७ जं जस्स उपच्छित्तं . [ व्यव० भा० १२] ५४७ असढेण समाइन्नं जं [ बृहत्कल्प ० ४४९९] [विशेषाव० ३४७९] ५४७ | अहवा समस्स आओ गुणाण..... १५१ पृष्ठाङ्कः ५४८ ५४८ ५५० ५५० [विशेषाव० ३४८०] ५५४ ५४७ | अहवा सामं मेत्ती..... [ विशेषाव० ३४८१] ५५४ सव्वमिणं सामाइयं ..[विशेषाव० १२६२ ] ५५४ सावज्जजोगविरइ त्ति.... [ विशेषाव० १२६३] ५५४ तित्थेसु अणारोवियवयस्स [विशेषाव० १२६४] ५४७ | ५५३ ५५४ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ द्वितीयं परिशिष्टम् ५६३ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्कः परियायस्स उ छेओ....[विशेषाव० १२६८] ५५५/लाभमएण व मत्तो अहवा ..... सेहस्स निरइयारं तित्थंतरसंकमे ..... [बृहत्कल्प० ६२४३] ५६३ [विशेषाव० १२६९] ५५५ पुव्वभववेरिएणं अहवा रागेण..... परिहारेण विसुद्धं सुद्धो य..... [बृहत्कल्प० ६२५८] [विशेषाव० १२७०] ५५५ / उम्माओ खलु .....[बृहत्कल्प० ६२६३] ५६३ तं दुविकप्पं निव्विस्समाण-.... रूवंगं द₹णं उम्माओ अहव..... विशेषाव० १२७१] ५५५/ [बृहत्कल्प० ६२६४] ५६३ कोधाइ संपराओ.....[विशेषाव० १२७७] ५५५] तिविहे य उवस्सग्गे दिव्वे ..... सेढिं विलग्गओ तं.....[विशेषाव० १२७८] ५५६] [बृहत्कल्प० ६२६९] अहसदो जाहत्थो आङोऽभिविहीए..... | विजाए मंतेण य.....[बृहत्कल्प० ६२७०] [विशेषाव० १२७९] ५५६ अहिगरणम्मि कयम्मि उ तं दुविकप्पं छउमत्थ-.... [बृहत्कल्प० ६२७९] ५६३ विशेषाव० १२८०] ५५६ अटुं वा हेउं वा समणीणं . प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता .....[ ] ५५७ बृहत्कल्प० ६२८२] ५६४ अद्धेण छिन्नसेसं पुव्वद्धेणं .....[ ] ५५८ अट्ठो त्ति जीए कजं संजायं सव्वंगियं तु गहणं करेण ..... [बृहत्कल्प० ६२८६] ५६४ [बृहत्कल्प० ६१९२] ५६२ | अइवाइगम्मि बाहिं अच्छंति ..... मिच्छत्तं उड्डाहो विराहणा ... [व्यवहारभा० २५२४] [बृहत्कल्प० ६१७०] ५६२ | आभिग्गहियस्स असई तस्सेव..... तिविहं च होइ दुगं रुक्खे .... व्यवहारभा० २५२६] [बृहत्कल्प० ६१८३] ५६२| विपुलाए अपरिभोगे भूमीए असंपत्तं पत्तं वा.. [व्यवहारभा० २५२७] ५६५ [बृहत्कल्प० ६१८६] ५६२ | तण्हुण्हभावियस्सा....[व्यवहारभा० २५३३] ५६५ पंको खलु चिक्खल्लो ..... | दसविहवेयावच्चे सग्गाम ..... [बृहत्कल्प० ६१८८] ५६२] [व्यवहारभा० २५३९] पंकपणएसु नियमा ओगसणं | सीउण्हसहा भिक्खू ण य..... [बृहत्कल्प० ६१८९] ५६३/ व्यवहारभा० २५४०] ५६५ रागेण वा भएण वा अहवा ..... | सव्वस्स छड्डण विगिचणा ..... [बृहत्कल्प० ६१९५] ५६३ [बृहत्कल्प० ५८१३] ५६६ इति एस असम्माणा खित्तो | सुयवं तवस्सि परिवारवं च ..... [बृहत्कल्प० ६२४२] ५६३] [व्यवहारभा० २५४३] ५६६ सण ..... Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः १५३ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्क: गुणवंत जतो वणिया पूइंतऽन्ने ..... मोहनीयक्षयं प्रति प्रस्थिता:..... व्यवहारभा० २५४४] । ५६६ तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७५ उप्पन्ननाणा जह.....व्यवहारभा० २५७१] ५६६/ द्विविधाः कुशीला: प्रतिसेवन-..... भारेण वेदणा वा हिंडते तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७६ [व्यवहारभा० २५७४] ५६६ | सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता..... आइयणछड्डणाई.....[व्यवहारभा० २५७६] ५६६/ [उत्तरा० चू०] । ५७७ जेण कुलं आयत्तं तं .....[ ] ५६७ होइ पुलाओ दुविहो .....[उत्तरा०भा० २] ५७७ तब्भावुओगेणं .....[व्यवहारभा० २६९४] ५६७/ नाणे दंसण चरणे .....[उत्तरा०भा० ३] ५७७ जइ वि य निग्गयभावो ..... लिंगपुलाओ अन्नं .....[उत्तरा०भा० ४] ५७७ [व्यवहारभा० २६९५] ५६७/ सरीरे उवकरणे वा.....[उत्तरा०भा० ५] ५७७ वीसुं वसओ दप्पा गणि. आभोगमणाभोगे .....[उत्तरा०भा० ६] ५७७ व्यवहारभा० २६९६] ५६७ आभोगे जाणतो..... [उत्तरा०भा० ७] ५७७ विजाणं परिवाडिं .....[व्यवहारभा० २६९७]५६७/ अच्छि मुह मज्जमाणो.... उत्तरा०भा० ८] ५७७ कम्माई नूण घणचिक्कणाई.....[ ] ५६८/ नाणे दंसण चरणे..... [उत्तरा०भा० ९] ५७७ उदयखयखओवसमोवसम-..... [ ] ५६९ | | नाणादी उवजीवइ .....[उत्तरा०भा० १०] ५७८ पंचत्थिकायमइयं .....[ध्यानश० ५३] ५७० | एमेव कसायम्मी .....[उत्तरा०भा० ११] ५७८ इंदो जीवो सव्वोवलद्धि-..... एमेव दंसणतवे .....[उत्तरा०भा० १२] ५७८ विशेषाव० २९९३] ५७२] पढमा १ पढमे २ चरम ३ ..... तन्नामादि चउद्धा.....[विशेषाव० २९९४] ५७२ _[उत्तरा०भा० १४] पुर्फ कलंबुयाए ..... [विशेषाव० २९९५] ५७३ | धारणया उवभोगो परिहरणा ..... विसयग्गहणसमत्थं ..... [विशेषाव० २९९६]५७३ | [बृहत्कल्प० २३६७, २३७२] ५७८ लद्धवओगा भाविंदियं .... जंगमजायं जंगिय.....[बृहत्कल्प० ३६६१] ५७८ [विशेषाव० २९९७] ५७३ पट्ट सुवन्ने मलये अंसुय जो सविसयवावारो सो ... [बृहत्कल्प० ३६६२] ५७८ [विशेषाव० २९९८] ५७३ | अयसी वंसीमाई.....[बृहत्कल्प० ३६६३] ५७९ एगिदियादिभेदा पडुच्च ..... कप्पासिया उ दोन्नी ..... विशेषाव० २९९९] ५७३| बृहत्कल्प० ३६६४] जं किर बउलाईणं दीसइ ..... | कप्पासियस्स असई ..... विशेषाव० ३०००] ५७३ (बृहत्कल्प० ३६६८] ५७९ जिनप्रणीतादागमात् सदैवा-..... | हरइ रयं जीवाणं बज्झं ..... [ ] ५७९ [तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७५ / पाउंछणयं दुविहं .....(निशीथभा० ८१९] ५७९ ५७८ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ द्वितीयं परिशिष्टम् गाथा पृष्ठाङ्कः गाथा पृष्ठाङ्कः जं तं निव्वाघायं.....[निशीथभा० ८२३] ५७९ | अवि नाम होज.....[निशीथभा० ४४२६] ५८५ निव्वाघायववाई .....[निशीथभा० ८२४] ५७९ केलासभवणा एए....[निशीथभा० ४४२७] ५८५ ठाण-निसीय-तुयट्टण-....[ओघनि० ३४२] ५८० भुंजंति चित्तकम्मट्ठिया परिसेय-पियण-.....[ओघनि० ३४७] ५८० निशीथभा० ४४२१] ५८५ ओयण वंजण पाणग.....[ओघनि० ३५९] ५८० | ईर्यासमिति म रथ-.....[आव० हारि० ] ५८६ दइएण वत्थिणा वा .....[ओघनि० ३६२] ५८० भाषासमिति म .....[तत्त्वार्थभा० ९।५] ५८७ संथार-पाय-दंडग-.....[ओघनि० ३६४] ५८० एषणासमिति म गोचरगतेन.....[ ] ५८७ चम्मट्ठि-दंत-नह-.....[ओघनि० ३६८] ५८० सनिच्छरसंवच्छरे अट्ठावीसविहे ..... एक्कस्स कओ धम्मो [उप०माला० १५६] ५८० [चन्द्र० १०।२०।५८] गुरुपरिवारो गच्छो .....[पञ्चवस्तु० ६९६] ५८० जेठो वच्चइ मूलेण .....[ ] ५९० अन्नोन्नावेक्खाए ..... [पञ्चवस्तु० ६९९] ५८० अत्थं भासइ अरूहा..... क्षुद्रलोकाकुले लोके.....[ ] ५८० [आव०नि०९२, विशेषाव०१११९] ५९४ अराजके हि लोकेऽस्मिन् .....[ ] ५८०. अत्थाभिमुहो नियओ....[विशेषाव० ८०] ५९४ धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता.....[ ] ५८१ तं तेण तओ तम्मि....[विशेषाव० ८१] ५९४ जो देइ उवस्सयं जइवराण ..... [ ] ५८१ तेणावधीयते तम्मि.....[विशेषाव० ८२] ५९५ शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं ..... [ ] ५८१ पज्जवणं पज्जयणं.....[विशेषाव० ८३] ५९५ धर्मं चरत: साधोर्लोके .....[ ] ५८१ केवलमेगं सुद्धं .....[विशेषाव० ८४] ५९५ जन्मान्तरफलं पुण्यं .....[ ] ५८१ जत्थ मतिनाणं तत्थ.....[नन्दीसू० १५] ५९५ कुतस्तस्यास्तु राज्यश्री:.....[ ] ५८१ जं सामि-काल-.....[विशेषाव० ८५] ५९६ विद्यया राजपूज्य:.....[ ] ५८२ एका लिङ्गे गुदे ..... [ मइपुव्वं जेण सुयं .....[विशेषाव० ८६] ५९६ एतच्छौचं गृहस्थानां .....[ ] ५८२ काल-विवज्जय-सामित्त...[विशेषाव० ८७] ५९६ सत्यं शौचं तप: शौचं .....[ ] ५८२ माणसमेत्तो छउमत्थ-... [विशेषाव० ८७] ५९६ सप्त स्नानानि प्रोक्तानि..... [ ] ५८२ अंते केवलमुत्तमजइसा-...[विशेषाव० ८८] ५९६ आग्नेयं वारुणं ब्राह्म.....[ ] ५८३ पच्चक्खाणं सव्वण्णु-..... आग्नेयं भस्मना .....[ ] ५८३ [आव० भा० २४६] सूर्यदृष्टं तु यद्.....[ ] ५८३ किइकम्मस्स विसोहिं पाएण देइ लोगो.....निशीथभा० ४४२५] ५८५ __[आव० भा० २४८] किविणेसु दुम्मणेसु ..... अणुभासइ गुरुवयणं ..... [निशीथभा० ४४२४] ५८५ [आव० भा० २४९] लोयाणुग्गहकारिसु ..... कंतारे दुब्भिक्खे आयंके [निशीथभा० ४४२३] ५८५ | [आव० भा० २५०] Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा रागेण व दोसेण..... [आव० भा० २४१] पच्चक्खाणं जाणइ... [आव० भा० २४७ ] स्वस्थानाद्यत् परं .....[ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचि: पृष्ठाङ्कः गाथा क्षायोपशमिकात्.....[ ६०३ मिच्छत्ताइ न गच्छइ .....[ 1 मिच्छत्तपडिक्कमणं....[आव० नि० १२६४] सीसाण कुणइ कह सो ..... [ ] कह सो जयउ अगीओ.....[ सुत्थे निम्माओ [पञ्चव० १३१५] संगहुवग्गहनिरओ ....[पञ्चव० १३१६ ] ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाध- ... [ सत्यपि च मानुषत्वे .....[ 1 आर्यक्षेत्रोत्पत्तौ सत्यामपि [ सुलभा सुरलोयसिरी.....[ आहच्च सवणं लद्धुं [उत्तरा० ३।९] धम्मं पि हु सद्दहंतया...[ उत्तरा० १० २०] ] ६०३ तत्तोऽणंतरमीहा.....[विशेषाव० २८४ ] ६०७ सव्वत्थेहावाया..... [ विशेषाव० ६०७ तरतमजोगाभावे..... [ विशेषाव० २८५ ] ] ६०७ जं बहु १ बहुविह....... ६०७ [विशेषाव० ३०७ ] 1 [बृहत्सं० १७४ ] ६११ १७६ ] ६१२ ३।६६ ] ६१२ पुण एवं खलु ..... [ उप० पद० १६] एसा य असइदोसा..... [ उप० पद० १८ ] वज्रसभनारायं पढमं .. [ बृहत्सं० १७३] ६११ रिसहो य होइ पट्टो तुल्लं १ वित्थरबहुलं.... [ बृहत्सं० जह जह बहुस्सुओ.... [ सम्मति० नत्थि छुहाए सरिसा .... [पिण्डनि० इरियं न य सोहेई .. [[पिण्डनि० २६४ ] आयंको जरमाई राया..... ..[पिण्डनि० ६६७ ] तवहेउ चतुत्थाई....[पिण्डनि० ६६८ ] चित्तभ्रान्तिर्जायते .....[ निद्राशीलो न श्रुतं [ विषयव्याकुलचित्तो .....[ २६३] ६१५ ६१६ ६१६ ६१६ · 1 ] चित्तरत्नमसङ्क्लिष्टमान्तरं ६१७ ५९८ [ हारि० अष्टक० २४/७ ] द्यूतासक्तस्य सच्चित्तं धनं .....[ 1 ६१७ ६१८ ५९८ किं कय किं वा ..... [ ओघनि० २६२] ५९८ | वितहकरणम्मि तुरियं . [ पञ्चव० २४६] ६१९ ५९८ गुरुउग्गहादठाणं .. [ पञ्चव० २४७ ] ६१९ ६१९ ६२० ५९८ वत्थे अप्पाणम्मि य..... [ पञ्चव० २४० ] ५९८ छप्पुरिमा तिरियकए.....[पञ्चव० २४२ ] ६०३ सामन्नमेत्तगहणं.....[विशेषाव० २८२ ] ६०३ सो पुण ईहाबायावेखाउ [विशेषाव० २८३ ] ६२१ ६०८ ६०८ ६०८ ६०८ ६१७ ६१७ | नानासद्दसमूहं बहु ..... [विशेषाव० ३०८ ] खिप्पमचिरेण ३ तं...... [विशेषाव० ३०९ ] एत्तो च्चिय पडिवक्खं... [विशेषाव० ३१०] जम्हा विणयइ कम्म. [आव०नि० १२३१] २८६ ] 1 १५५ ] ६१७ एगूणवन्ननिरया सेढी..... [विमान० १४] पृष्ठाङ्कः ६२१ ६२१ ६२१ ६२१ ६२२ ६२२ वेयावच्चं वावडभावो इह .... आयरिय उवज्झाए ..... [ अल्पमधमं पणस्त्रीं क्रूरं .....[ भूदगपंकप्पभवा चउरो [बृहत्सं० २९७] ६२५ पुढवी - आउ - वणस्सइ - [ बृहत्सं० १८०] ६२५ रिक्कारस नव सत्त ..... ... [बृहत्सं० २५३ ] ६२७ ६२७ ६२२ ६२२ ६२४ ६२४ ६२४ ६२५ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ गाथा अडयालीसं निरया .. [विमान० १५ ] एक्वेक्को य दिसासुं मज्झे.... [ विमान० १६ ] सीमंतकप्पभो खलु ...[विमान० २०] सीमंतावत्तो पुण निरओ.... [ विमान० २१] लोले तह लोलुए चेव [ विमान० ३०] उड्ढे चेव निड्डे [विमान० २७] जर तह चेव पज्जरए [विमान० २९] मज्झा उत्तरपासे [विमान० ३२] आरे मारे नारे तत्थे .. [विमान० १० ] ] तेरस १-२ बारस.... ... [विमान० १२९] पुव्वा तिन्निय मूलो मह.....[ असा साई उत्तर तिनि विसाहा [ [ [ उक्तक्रमेण नक्षत्रैर्युज्यमानस्तु आसाढबहुलपक्खे भद्दवए..... [ अणुगामिओऽणुगच्छइ गच्छंतं [विशेषाव० ७१५] पइसमयमसंखेज्जइ....[विशेषाव० ७३०] पेच्छइ विवड्डमाणं....[विशेषाव० ७३१] उक्कोस लोगमित्तो पडिवाइ अन्नेण घाइए दद्दुरम्मि ] ..... — [आव० नि० ५३, विशेषाव० ७०३] अरिरे माहणपुत्ता.... [बृहत्कल्प० ६११६] खामिय वो मियाई . [ बृहत्कल्प ० ६११८, निशीथभा० १८१८] ओमो चोइज्जंतो दुपहियाईसु [बृहत्कल्प ० ६१३५ ] द्वितीयं परिशिष्टम् पृष्ठाङ्कः गाथा ६२७ ६२७ ६२७ ६२७ ६२७ [बृहत्कल्प० ६१३६] मोसम्म संखडीए.... [ बृहत्कल्प ० ६१४२] दीण-कलुणेहिं....[बृहत्कल्प० ६१४३] जेट्ठज्जेण अकज्जं .... [बृहत्कल्प० ६१५० ] ६२८ ६२८ ६३३ ६३३ ६३३ ६३४ ६३४ ६३४ तइओ त्ति कहं जाणसि ? ६२७ ६३६ [बृहत्कल्प० ६१५७] ६२७ | देहेण वी विरूवो..... [बृहत्कल्प० ६१५८] ६३६ ६२८ केइ सुरूव विरूवा खुज्जा ६३५ [बृहत्कल्प ० ६१५३] दीसइ य पाडिरूवं ठिय-. ६३६ ६३७ ६२९ कुच अवस्यन्दन [ ६३७ ६३८ ६३८ ६२९ ठाणे सरीर भाषा.... [बृहत्कल्प० ६३१९] ६२९| करगोफणधणु.....[बृहत्कल्प० ६३२३] ६२९ | छेलिअ मुहवाइत्ते.... [बृहत्कल्प० ६३२४] ६३८ ६३२ मुखरिस्स गोन्ननामं.... [बृहत्कल्प ० ६३२७] ६३८ आलोयंतो वच्चइ....[बृहत्कल्प ० ६३३०] ६३८ छक्कायाण विराहण.... ६३५ ६३५ ६३५ ६३६ [ बृहत्कल्प ० ६१५४] खरउत्ति कहं जाणसि ? ..... [बृहत्कल्प ० ६१५९ ] दव्वम्मि मंथओ..... [बृहत्कल्प ० ६३१६] ] [बृहत्कल्प० ६३६१] आचेलक्कु १ देसिय... [बृहत्कल्प० ६३६२] आचेलक्कु १ देसिय.... परिहारिय छम्मासे.... पृष्ठाङ्कः [बृहत्कल्प० ६३३१] ६३८ ६३९ इच्छालोभो उ .. [ बृहत्कल्प० ६३३२] इहपरलोगनिमित्तं ... [बृहत्कल्प ० ६३३४] ६३९ पडिसिद्धे वि दोसे .....[ 1 ६३९ आहारोवहिदेहेसु इच्छालोभो ..... [ सिज्जायरपिंडे या १ चाउज्जामे य...... ] ६३९ ६३६ .... [ बृहत्कल्प० ६३६४] [बृहत्कल्प० ६४७४] गच्छम्मि उ निम्माया... [बृहत्कल्प० ६४८३] ६३६ ६३९ ६४० ६४० ६४० ६४० Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संजमकरणुज्जोया...[बृहत्कल्प० ६४८५ ] जइ तवसा वोदाणं .....[ 1 सामन्नाउ विसेसो [विशेषाव० ३४ ] केवइकाणं भंते ! चमरचंचा ....[ चउवीसइं मुहुत्ता १....[ बृहत्सं० एगसमओ जहन्नं .....[ बृहत्सं० मोत्तूण सगमबाहं पढमाए.... [ कर्मप्र० ] नेरइए णं भंते ? नेरइएसु स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचि: ***** [ [भगवती० ४।९।१] निरइसुरअसंखाऊ .....[ अवसेसा सोवक्कम परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं .....[ 1 ओदइय खओवसमिए उवसमसेढी एक्को [ [ 1 ] २८१] ३४५ ] 1 पृष्ठाङ्कः ६४० ६४२ ६४२ ६४२ ६४३ ६४३ ६४४ गाथा उवसमिए २ खइए वि य ..... [ सम्म १ चरित्ते २ पढमे ..... [ चउनाण ४ ऽन्नाणतियं ३..... [ चउगइ ४ चउक्कसाया ४ [ पंचमम्मिय भावे जीव ..... [ ] उच्चारं पासवणं .....[ वोसिरइ मत्तगे जइ तो ६४५ संजमजोगे अब्भुट्ठियस्स [आव० नि० ६।८२] ६४५ खेलं सिंघाणं वा .....[ ६४५गमणागमण विहारे सुत्ते [आव० नि० १५४७] ६४७ आउलमाउलाए .....[आव० सू०] ६४७ ६४७ पाणवह - मुसावाए [ आव० नि० १५५२ ] 1 1 1 ] [ ] १५७ पृष्ठाङ्कः ६४८ ६४८ ६४८ ६४८ ६४८ ६४९ ६४९ ६४९ ६४९ ६४९ ६४९ ६५० Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ तृतीयं परिशिष्टम् सटीकश्रीस्थानाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः । ग्रन्थनाम प्रकाशकादि अनुयोगद्वारसूत्रम् श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई अमरकोषः आचाराङ्गसूत्रम् श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई आचाराङ्गसूत्रवृत्तिः आचाराङ्गनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) आवश्यकचूर्णिः श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम आवश्यकनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) आवश्यकभाष्यम् आवश्यकसूत्रस्य मलयगिरिसूरिविरचितावृत्तिः आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्रीवृत्तिः उत्तराध्ययनभाष्यम् (नियुक्तिपञ्चकान्तर्गतम्) उत्तराध्ययनसूत्रम् उत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिः उपदेशमाला सिद्धर्षिगणिविरचितटीकासहिता उपदेशपदम् ओघनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) ओघनियुक्तिटीका (द्रोणाचार्यविरचिता) कथाकोषप्रकरणम् भारतीय विद्याभवन, मुम्बई कर्मप्रकृतिः मलयगिरिसूरिविरचितवृत्तिसहितः कल्पसूत्रम् चन्द्रप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः जीवसमासप्रकरणम् जीवाभिगमसूत्रम् तत्त्वसंग्रहः पञ्जिकाटीकासहितः बौद्धभारती, वाराणसी तत्त्वार्थसूत्रम् Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम तत्त्वार्थभाष्यम् तत्त्वार्थसूत्रस्य सिद्धसेनगणिविरचिता वृत्तिः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् दशवैकालिकसूत्र - निर्युक्ति - हारिभद्री वृत्तिः दशाश्रुतस्कन्धः निर्युक्तिः चूर्णिश्च दशवैकालिकनिर्युक्तिः (निर्युक्तिसंग्रहान्तर्गता) द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः धर्मबिन्दुः टीका च ध्यानशतकम् (आवश्यकहारिभद्रीवृत्यन्तर्गतम्) नदीसूत्रम् निर्युक्तिपञ्चकम् निर्युक्तिसंग्रहः निशीथभाष्यम्, निशीथचूर्णिः न्यायबिन्दुः (धर्मोत्तरटीकासहितः ) न्यायावतारः सिद्धर्षिगणिविरचितवृत्तिसहितः तृतीयं परिशिष्टम् पञ्चवस्तुकम् (स्वोपज्ञटीकासहितम्) पञ्चाशकम् (अभयदेवसूरिविरचितटीकासहितम्) परिशिष्टपर्व पाक्षिकसूत्रम् पा० = पाणिनीय व्याकरणम् पाणिनीयसिद्धान्तकौमुदी पा० धा० = पाणिनीयो धातुपाठः पिण्डनिर्युक्तिः (निर्युक्तिसंग्रहान्तर्गता ) प्रकीर्णक (पइन्नयसुत्ताइं) प्रज्ञापनासूत्रम् प्रज्ञापनासूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः प्रथमकर्मग्रन्थः (प्राचीनः ) प्रमाणसमुच्चयः विशालामलवतीटीकासहितो बौद्धग्रन्थः प्रवचनसारोद्धारः वृत्तिसहितः प्रकाशकादि जिनशासन आराधना ट्रस्ट जैन विश्व भारती, लाडनूं श्री हर्षपुष्पामृतजैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल सन्मतिज्ञानपीठ, आगरा जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स, मुंबई इ.स. १९२८ श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई १५९ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० तृतीयं परिशिष्टम् ग्रन्थनाम प्रकाशकादि प्रशमरतिप्रकरणम् (टीकासहितम्) प्राकृतव्याकरणस्वोपज्ञटीका (हेमचन्द्रसूरिविरचिता) बन्धशतकम् (चूर्णिसहितम्) बृहत्कल्पसूत्रभाष्यम् बृहत्क्षेत्रसमासः (मलयगिरिसूरिविरचितवृत्तिसहितः) बृहत्संग्रहणी (मलयगिरिविरचितवृत्त्या सहिता) बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम् भगवतीसूत्रम् भगवतीसूत्रवृत्तिः (अभयदेवसूरिविरचिता) मीमांसाश्लोकवार्तिकम् (न्यायरत्नाकरव्याख्यासहितम्) । रत्ना पब्लिकेशन्स, वाराणसी वाराही बृहत्संहिता (भट्टोत्पलविवृतिसहिता) सम्पूर्णानन्दसंस्कृत-विश्वविद्यालय, वाराणसी विशेषणवती विमान-नरकेन्द्रकप्रकरणम् टीका च (देवेन्द्र-नरकेन्द्रप्रकरणम्) जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर विशेषावश्यकभाष्यम् (मलधारिश्री हेमचन्द्रसूरिविरचितवृत्तिसहितम्) व्यवहारभाष्यम् विश्वभारती, लाडनूं, राजस्थान श्रावकप्रज्ञप्तिः(टीकासहिता) षोडशकप्रकरणम् (टीकासहिता) संबोधप्रकरणम् समवायाङ्गसूत्रम् सम्मतितर्कः (अभयदेवसूरिविरचितवृत्तिसहितः) पुनर्मुद्रितः JAPAN सिद्धहेमशब्दानुशासनम् (बृहद्वृत्तिसहितम्) सूत्रकृताङ्गनियुक्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिः (मलयगिरिसूरिविरचितटीकासहिता) हारिभद्राष्टकप्रकरणम् (टीकासहितम्) है० धा० = हैमधातुपाठः अपरे संकेता: - गा० = गाथा । भा० = भाष्यम् । टि० = टिप्पनम् । टी० = टीका । पृ० = पृष्ठम् । पं० = पङ्क्तिः । वृ० = वृत्तिः । व्या० = व्याख्या । सू० = सूत्रम् । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jeguention interation For Private Personal Use Only POET www.STAT Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाकोडा जैन तीर्थ Jain Educationalionai For Private & Personal use. 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