Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M सम्पादक प्रो० भागचन्द्र जैन HD वसुनन्दि श्रावकाचार व्याख्याकार मुनि सुनील सागर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि ने अपने इस प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'उपासकाध्ययन' दिया है, पर सर्वसाधारण में यह 'वसुनन्दि- श्रावकाचार' के नाम से प्रसिद्ध है। उपासक अर्थात् श्रावक के अध्ययन अर्थात् आचार का विचार जिसमें किया गया हो उसे उपासकाध्ययन कहते हैं। द्वादशांगश्रुत के भीतर उपासकाध्ययन नामक सातवाँ अंग माना गया है, जिसमें श्रावक के सम्पूर्ण आचार का वर्णन है । ग्रन्थकार के समय से पूर्व ही इस अंग का विच्छेद हो गया था किन्तु परम्परागत ज्ञान प्राप्त कर इस ग्रन्थ की रचना की गई। यद्यपि इस ग्रन्थ में ग्यारह प्रतिमाओं के साथ-साथ प्रायः श्रावक के सभी कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है, तथापि सात व्यसनों का और उनके सेवन से प्राप्त होने वाले चतुर्गति सम्बन्धी महादुःखों का जिस प्रकार खूब विस्तार के साथ वर्णन किया गया है, उसी प्रकार से दान देने योग्य पात्र, दातार, देय वस्तु, दान के भेद और फल का, पंचमी, रोहिणी, अश्विनी आदि व्रत-विधानों का, पूजन के छह भेदों का और बिम्ब-प्रतिष्ठा का भी विस्तृत वर्णन किया गया है। ग्रन्थ में कुल गाथायें ५४६ हैं। भाषा सौरसेनी (प्राकृत) है, जो कि प्रायः सभी दिगम्बर जैनाचार्यों ने अपनाई । ग्रन्थ सरस, सरल एवं प्रामाणिक है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला : 131 प्रधान सम्पादक प्रो० भागचन्द्र जैन भास्कर आचार्य वसुनन्दि विरचित দ্ভুিকিৎnjijrg [ पूर्वार्द्ध] व्याख्याकार मुनि सुनील सागर जी सम्पादक प्रोफेसर भागचन्द्र जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति कृतिकार : आचार्य वसुनन्दि आशीर्वाद : आचार्य श्री सन्मति सागर जी व्याख्याकार : सम्पादक संस्करण प्राप्ति स्थान : अर्थ- सौजन्य : अक्षर सज्जा वसुनन्दि-श्रावकाचार मुद्रक ISBN: सहयोग राशि : मुनि श्री सुनील सागर जी : डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' : प्रथम, 1999 1. श्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई. टी. आई., करौंडी रोड, वाराणसी 2. श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन पुस्तकालय / वाचनालय भेलूपुर, वाराणसी 3. ठेकेदार श्री भोपाल सिंह जैन इटावा, (उत्तर प्रदेश) 81-86715-55-X 251/- रुपये मात्र : सरिता कम्प्यूटर्स, डी. 55 / 48, औरंगाबाद, वाराणसी, फोन नं. 359521 : महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय. जैनधर्म विशुद्ध मानवतावादी धर्म है । वह व्यक्ति से समष्टि की शुद्धि में विश्वास करता है। आत्मोदय से सर्वोदय चेतना और सर्वोदय से सामुदायिक चेतना को झंकृत करता हुआ जैनधर्म प्राचीन काल से आजतक जीवन को गतिमान् बनाये वस्था इसी गतिमत्ता का एक पड़ाव है, आध्यात्मिकता का एक है। जैनधर्म ने इस द्वार पर विशेष विचार किया है। उसने श्रावक के लिए आचारसंहिता प्रस्तुत की है जो जीवन को सही दिशा में ले जाने के लिए वाहक का काम करती है। बैनधर्म में श्रावकाचार की एक लम्बी श्रृंखला है । उस शृंखला में प्राकृत भाषा में लिखा आचार्य वसुनन्दि कृत श्रावकाचार का विशिष्ट स्थान है। मुनिश्री नीलसागर जी ने इस पर विस्तार से अर्थ, भावार्थ और विशेषार्थ देकर टीका लिखी Fiमाध्यात्मिक पिपासुओं के लिए यह टीका सहज ग्राह्य है। डॉ० भागचन्द्र जैन हमारे पार्श्वनाथ विद्यापीठ के कुशल निदेशक हैं । उन्होंने नुत ग्रन्थ की "प्रावकाचार और सामाजिक सन्तुलन' शीर्षक से एक विस्तृत नालखी है जो आज के पर्यावरण के सन्दर्भ में जैनधर्म की भूमिका को स्पष्ट आशा है, पाठकों के लिए यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी। इस ग्रन्थ का प्रकाशन श्री भोपाल सिंह जैन इटावा के अर्थ -सौजन्य से हो रहा है। हमारा संस्थान उनका हार्दिक आभारी है। भूपेन्द्र नाथ जैन मंत्री Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 1. जैन धर्म और समाज . 2. श्रावकाचार और सामाजिक सन्तुलन 3. आचार्य वसुनन्दि और उनका श्रावकाचार 4. प्रस्तुत संस्करण का सम्पादन प्रोफेसर भागचन्द्र जैन 'भास्कर' निदेशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जैनधर्म और समाज १. श्रावकाचार और मानवता जैनधर्म एक मानवतावादी धर्म है जो साध्य और साधन, दोनों की पवित्रता में विश्वास करता है। उसने जाति और वर्ग के भेदभाव को दूरकर प्राणिमात्र की शक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता देकर प्रतिष्ठित किया है, धर्म की वास्तविकता को उद्घोषित किया है और मानव को चरम शिखर पर बैठा दिया है। इसलिए उसका किसी विशेष काल-खण्ड में प्रारम्भ हुआ हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। उसका तो प्रारम्भ तभी से मान्य है जब से मानव इस वसुन्धरा पर अवतरित हुआ है। अत: उसे यदि अनादि और अनन्त कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा। इसलिए हमने यहाँ जैनधर्म को “मानवधर्म'' की संज्ञा दी है। मानवता की जो गहरी दृष्टि जैनधर्म ने दी है वह अन्यत्र दुर्लभ है। यही उसकी अहिंसा है और यही उसकी सुरक्षा की प्रक्रिया है। इसी को धर्म कहा गया है। इसी धर्म की भूमि में श्रावकाचार का निर्माण हुआ हैं और इसी ने सामाजिक सन्तुलन को प्रशस्त किया है। १. धर्म की आवश्यकता क्यों? ___धर्म जीवन है और जीवन धर्म है। जीवन पवित्रता का प्रतीक है। उसकी पवित्रता संसार के राग-रंगों से दूषित हो गई है। इसलिए उस दूषण-प्रदूषण को दूर करने के लिए तथा जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए धर्म की अन्तश्चेतना कार्यकारी है। यह अन्तश्चेतना विवेक को जाग्रत करती है और उस जाग्रति से व्यक्ति खुली हवा में नयी सांस लेता है। नयी प्रतिध्वनि से उसका हृदय गूंज उठता है। गम्भीरता, उदारता, दयालुता, सरलता, निरहंकारता आदि जैसे मानवीय गुण उसमें स्वतः स्फुरित होने लगते हैं। जीवन अमृत-सरिता में डुबकी लेने लगता है। देश, काल, स्थान आदि की सीमायें समाप्त हो जाती हैं तथा विश्वबन्धुत्व तथा सर्वोदय की भावना का उदय हो जाता है। जैनधर्म इस दृष्टि से वस्तुत: जीवन-धर्म है। वह जिन्दगी को सही ढंग से जीना सिखाता है, जात-पात के भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीयता के परिवेश में अध्यात्म का अवलम्बन कर अपने सहज स्वभाव को पहचानने का मूलमन्त्र देता है, श्रम-शीलता का आह्वानकर पुरुषार्थ को जाग्रत करता है, विवाद के घेरों में न पड़कर सीधा-सादा प्राकृतिक मार्ग दिखाता है, संकुचित और पतित आत्मा को ऊपर उठाकर विशालता की ओर ले जाता है, सद्वृत्तियों के विकास से चेतना का विकास करता है और आत्मा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को पवित्र, निष्कलंक व उन्नत बनाता है। यही उसकी विशेषता है, यही जैन संस्कृति है और यही सर्वोदयतीर्थ है। यही सर्वोदय तीर्थ मानवधर्म है। यही सामाजिकता है। ___ कटघरों को तैयार करने वाला और राष्ट्रीयता को दूषित करने वाला धर्म, धर्म नहीं हो सकता। भेदभाव की कठोर दीवार खड़ीकर खेत उगाने की बात करने वाला धर्म संकीर्णता के विष से बाधित हो जाता है, तुरन्त फल का लोभ दिखाकर जन-मानस को शंकित और उद्विग्न कर देता है, दूसरों को दुःखी बनाकर अपने क्षणिक सुख की कल्पनाकर आह्लादित होता है, विसंगतियों के बीज बोकर समाज को गर्त में फेंकता है और सारी सामाजिक व्यवस्था को चकनाचूर कर नया बखेड़ा शुरू कर देता है। इन काले कारनामों से धर्म की आत्मा समाप्त हो जाती है, उसका मौलिक स्वरूप नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है और बच जाता है उसका मात्र कंकाल जो किसी काम का नहीं रहता। इसे हम धर्म का प्रदूषण रूप कह सकते हैं। ___ जैनधर्म व्यक्ति और समाज को धर्म की इस कंकाल-मात्रता से ऊपर उठाकर ही बात करता है। उसका मुख्य उद्देश्य जीवन के यथार्थ स्वरूप को उद्घाटित कर • नूतन पथ का निर्माण करना रहा है। यही धारणा करने वाला तत्त्व है जिसका अस्तित्व धर्म के अस्तित्व से जुड़ा है और जिसके टूट जाने से मानवता का सूत्र भी कट जाता है। मानव-मानव के बीच कटाव के तत्त्वों को समाप्तकर सर्वोदय के मार्ग को प्रशस्त करना धर्म की मूल भावना है। व्यक्ति और समाज के उत्थान की भूमिका में धर्म नींव का पत्थर होता है। इसलिए जैनधर्म ने धर्म की व्यवस्था और उसकी प्रस्थापना में बड़ी गहराई से विचार किया है। उसके समस्त सांस्कृतिक तत्त्व धर्म के अन्त:करण से जुड़े हुए हैं। श्रमणाचार व्यवस्था ने राष्ट्रीय और सामाजिक एकात्मकता को अच्छी तरह परखा था और संजोया था। अपने विचारों में जैनाचार्यों और तीर्थकरों ने उसकी समता, पुरुषार्थ और स्वावलम्बन वृत्ति को प्रमुखता देकर जीवन-क्षेत्र को एक नया आयाम दिया जिसे महावीर और बुद्ध जैसे महामानवीय व्यक्तित्त्वों ने आत्मानुभूति के माध्यम से पुष्पित-फलित किया। श्रमण संस्कृति ने वैदिक संस्कृति में धोखे-धाखे से आयी विकृत परम्पराओं और प्रदूषित पर्यावरण के विरोध में अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और अनायास ही समाज का नवीनीकरण और स्थितिकरण कर दिया। इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता और अहिंसात्मक दृढ़ता थी जिसे उसने थाती बनाकर कठोर झंझावातों में संभालकर रखा। विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के माध्यम से समन्वय और एकात्मकता के लिए जो अथक प्रयत्न जैनधर्म ने किया है वह निश्चित् ही अनुपम माना जायेगा। बौद्धधर्म में तो कालान्तर में विकृतियाँ आ भी गईं पर जैनधर्म ने चारित्र के नाम पर कभी कोई समझौता नहीं किया। . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) धर्म की अन्तश्चेतना के अभाव में व्यक्ति स्वकेन्द्रित हो जाता है, स्वार्थी हो जाता है और स्वार्थतावश ही अनाचार करने लगता है। इसलिए जैनधर्म ने दृष्टि से समष्टि का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और कहा कि यदि व्यक्ति स्वस्थ हो जाये, धर्मस्थ हो जाये, पर्रोपकारी हो जाये, सामुदायिक चेतना से भर जाये तो समाज स्वतः समुन्नत हो जायेगा और राष्ट्र भी चतुर्मुखी प्रगति कर सकेगा। सामाजिक सन्तुलन बनाये रखने का सिद्धान्त भी यही है कि कहीं सामाजिक विषमता न हो । समता, सद्भाव, सहयोग और समन्वय की भावना ही सामाजिक सन्तुलन का सिद्धान्त है । जैनधर्म ने सामाजिक सन्तुलन को प्रस्थापित करने के उद्देश्य से श्रावकाचार का सिद्धान्त दिया है। जिसमें दृष्टि से समष्टि के सुधार की बात की गई है। धर्म के मर्म को समझना और उसे जीवन में उतारना ही श्रावकाचार है। इसलिए सबसे पहले हम धर्म की अन्तश्चेतना को विविध पहलुओं से देख समझ लें । २. धर्म की परिधि और आध्यात्मिक पर्यावरण धर्म मह रुढ़ियों और रीति-रिवाजों का परिपालन मात्र नहीं है। वह तो जीवन से जुड़ा एक सर्वनात्मक स्वदेशीय तत्त्व है जो प्राणिमात्र को वास्तविक शान्ति का संदेश देता है, मिथ्याज्ञान और अविद्या को दूर कर सत्य और न्याय को प्रकट करता है, तर्कगत आस्था और श्रद्धा को सजीव रखता है, बौद्धिकता को जाग्रतकर सद्भावना के पुष्प खिलाता है और बिखेरता है उस स्वानुभूति को जो अन्तर में ऋजुता, सरलता और प्रशान्त-वृत्ति को जन्म देती है, वह तो रिम झिम बरसते बादल के समान है, जो तन-मन को आह्लादितकर आधि-व्याधियों की उष्मा को शान्त कर देता है । धर्म के दो रूप होते हैं - एक तो वह व्यक्तिगत होता है जो परमात्मा की आराधना कर स्वयं को तद्रूप बनाने में गतिशील रहता है और दूसरा सांस्थिक धर्म होता है जो धर्म की भूमिका पर खड़े होकर कर्मकाण्ड और सहकार पर बल देता है। एक आन्तरिक तत्त्व है और दूसरा बाह्य तत्त्व है। दोनों तत्त्व एक-दूसरे के परिपूरक होते हैं, आन्तरिक अनुभूति को सबल बनाये रखते हैं, बुद्धि, भावना और क्रिया को पवित्रता की ओर ले जाते हैं और मानवोचित गुणों का विकास कर सामाजिकता को प्रस्थापित करते हैं। पर्यावरण धर्म भी इन दोनों व्याख्याओं से संबद्ध है। धर्म जब कालान्तर में मात्र रुढ़ियों का ढांचा रह जाता है, तब सारी गड़बड़ी शुरु हो जाती है, विवेक-हीनता पनपती है और फिर साधक रागात्मक परिसीमा में बंधकर धर्म के आन्तरिक सम्बन्ध को भूल जाता है, उसके निर्मल और वास्तविक रूप की छाया में घृणा और द्वेष भाव जन्म लेने लगते हैं। ऐसे ही धर्म के नाम पर हिंसा का ताण्डव नृत्य जितना हुआ है, उतना शायद ही किसी और नाम पर हुआ हो। इसलिए साधारण व्यक्ति धर्म से बहिर्मुख हो जाता है, उसकी तथ्यात्मकता को समझे बिना Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) आसपास के वातावरण को भी दूषित कर देता है। वस्तुतः हम न हिन्दू है, न मुसलमान, न जैन हैं, न बौद्ध, न ईसाई हैं, न यहूदी। हम तो मानव पहले हैं और धार्मिक बाद में। व्यक्ति यदि सही इन्सान नहीं बन सका तो वह धार्मिक कभी नहीं हो सकता। धर्म का मुखौटा भले ही वह कितना भी लगाये रखे। जैनधर्म धर्म के ऐसे ही सार्वजनीन मानव धर्म को प्रस्तुत करता है। ___ इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझें और इन्सानियत को बनाये रखने के लिए उसकी उपयोगिता को जानें। इन्सानियत को मारने वाली इन्सान में निहित कुप्रवृत्तियाँ और भौतिकवादी वासनायें हैं जो युद्ध और संघर्ष को जन्म देती हैं, व्यक्ति-व्यक्ति और राष्ट्र-राष्ट्र के बीच कटुता की अभेद्य दीवारें खड़ी कर देती हैं, धर्म के मात्र निवृत्तिमार्ग पर जोर देकर उसे निष्क्रियता का जामा पहनाना भी धर्म की वास्तविकता को न समझना है। धर्म तो वस्तुत: दुःख का मूल कारण रूप आसक्ति को दूर कर समाज के निर्माण और सर्वांगीण विकास में सहायक बनता है, संकीर्णता को दूर कर असाम्प्रदायिकता को प्रस्थापित करता है, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को नई दृष्टि देता है और समतामूलक समाज की रचना करने में और पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। इस दृष्टि से धर्म की शक्ति अपरिमित और अजेय है बशर्ते उसके वास्तविक स्वरूप को समझ लिया जाये। पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने में सही धर्म विशेष सहयोगी होता है अत: पहले धर्म की परिभाषा को समझ लेना आवश्यक है। ३. धर्म की परिभाषा और सामाजिक सन्तुलन धर्म की शताधिक परिभाषाओं का यदि वर्गीकरण किया जाये तो उन्हें साधारण तौर पर तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है- मूल्यात्मक, वर्णनात्मक और क्रियात्मक। ये तीनों प्रकार भी एक-दूसरे में प्रवेश करते दिखाई देते हैं। कोई एक तत्त्व पर जोर देता है तो कोई दूसरे तत्त्व को अधिक महत्त्व देता है। इसलिए कान्ट जैसे दार्शनिकों ने प्राथमिक स्तर पर उसके वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत किया जिसमें मानवता को प्रस्थापित कर धर्म को ईश्वर-विश्वास से पृथक् कर दिया। कुन्दकुन्द, हरिभद्र, वसुनन्दा आदि जैनाचार्यों ने तो धर्म को इस रूप में बहुत पहले ही खड़ा कर दिया था और आध्यात्मिक पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया था। यह सही है कि धर्म की सर्वमान्य परिभाषा करना सरल नहीं है। पर उसे किसी सीमा तक इतना तो लाया ही जा सकता है कि वह अधिक से अधिक सार्वजनीन बन सके। एकेश्वरवाद की कल्पना ने ईश्वरीय पुरुष को खड़ाकर धर्म के साथ अनेक किंवदन्तियों और पौराणिक कल्पनाओं को गढ़ा है और व्यक्ति तथा राष्ट्र को शोषित किया है धर्म के नाम पर जितने बेहूदे अत्याचार और युद्ध हुए हैं, यह सब उन अज्ञानियों Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) का दुष्कृत्य है जिन्होंने कभी धर्म का अनुभव ही नहीं किया बल्कि निजी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आम जनता को भड़काया, भीड़ को जमा किया, उसकी आस्था और विश्वास का दुरुपयोग किया और धर्मान्धता की आग में धर्म की वास्तविकता को भस्म कर दिया, उसके अध्यात्मिकता के निर्झर को सुखा दिया। इसलिए धर्म के स्वरूप में स्वानुभूति का सर्वाधिक महत्त्व है इसी को "रसो वै सः " कहा गया है, अनिर्वचनीय और परमानन्द रूप माना गया है। एकेश्वरवाद से हटकर व्यक्ति सर्वेश्वरवाद की ओर जाता है और फिर स्वयं को ही परम विशुद्ध रूप परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर आत्मा को ही परमात्मा समझने लगता है। धर्म की यह विकास प्रक्रिया व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती है और उसे विश्वजनीन बना देती है। इस पृष्ठभूमि के साथ जब हम धर्म की परिभाषा की ओर निहारते हैं तो देशी-विदेशी चिन्तकों की परिभाषायें सामने आ बैठती हैं। इन परिभाषाओं की संख्या इतनी अधिक है कि इस छोटे-से आकार में उनका आकलन करना संभव नहीं है हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि हर चिन्तक धर्म की परिभाषा अपने चबूतरे पर बैठकर करता है। इसलिए उसके सांस्थानिक धर्म का रूप वहाँ प्रतिबिम्बित हुए बिना नहीं रहता। अतः धर्म की परिभाषा को उसके मूल स्वरूप के साथ मूल्यांकित किया जाना आवश्यक हो जाता है। धर्म का अनुवाद अंग्रेजी में साधारणत: रेलीजन (Religion) शब्द से किया जाता है। यह शब्द लेटिन भाषा के शब्द से उद्भूत हुआ है जिसका अर्थ होता हैबांधना। सभी दार्शनिकों द्वारा दी गई धर्म की परिभाषा इसी शब्द के आसपास घूमती · दिखाई देती हैं इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि धर्म एक ऐसा तत्त्व हैं जो आराध्य तथा आराधक, उपासक तथा उपास्य, व्यक्ति तथा समाज को बांधे रहता है । १ भारतीय संस्कृति में जब हम धर्म शब्द पर विचार करेंगे तो हमारा ध्यान ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति की ओर बरबस खिंच जाता है। धर्म 'धृ' धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है बनाये रखना, धारण करना, पुष्ट करना (धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मेण विधृताः प्रजाः)। यह वह मानदण्ड है जो विश्व को धारण करता है किसी भी • वस्तु का वह मूल तत्त्व, जिसके कारण वह वस्तु वह है । वेदों में इस शब्द का प्रयोग धार्मिक विधियों के अर्थ में किया गया है । छान्दोग्योपनिषद् में धर्म की तीन शाखाओं (स्कन्धों) का उल्लेख किया गया है। जिनका सम्बन्ध गृहस्थ, तपस्वी और ब्रह्मचारियों के कर्तव्यों से है— (यो धर्मस्कन्धाः २.२३) । जब तैत्तिरीय उपनिषद् हम से धर्माचरण (धर्मचर- १.११) करने को कहता है, तब उसका अभिप्राय जीवन के उस सोपान के कर्तव्यों के पालन से होता है, जिसमें हम विद्यमान हैं। इस अर्थ में धर्म १. Everyman's Encyclopedia, Volume x, Fourth Edition, 1958, p.512. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) शब्द का प्रयोग भगवद्गीता, और मनुस्मृति दोनों में हुआ है एक बौद्ध के लिए धर्म, बुद्ध और संघ, या समाज के साथ-साथ “त्रिरत्न' में से एक हैं। पूर्वमीमांसा के अनुसार धर्म एक बांधनीय वस्तु है जिसकी विशेषता है प्रेरणा देना-चादना लक्षणार्थों धर्मः। वैशेषिक सूत्रों में धर्म की परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जिससे आनन्द (अभ्युदय) और परमानन्द (निःश्रेयस) की प्राप्ति हो वह धर्म है- यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसःसिद्धिः स धर्मः। जैनधर्म अर्हत्धर्म है जहां कर्मों को नष्टकर मोक्ष प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य रहता । है। इस दृष्टि से जैनाचार्यों ने धर्म को विविध रूप से समझाने का प्रयत्न किया है और तदनुसार उसकी परिभाषायें दी हैं। इन परिभाषाओं को हम निम्न रूप से विभाजित कर सकते हैं (१) धर्म का सामान्य स्वरूप, (२) धर्म का स्वभावात्मक स्वरूप, (३) धर्म. का गुणात्मक स्वरूप, (४) धर्म का मोक्षमार्गात्मक स्वरूप, (५) धर्म का सामाजिक स्वरूप। धर्म की ये परिभाषायें जैन साहित्य में भरी पड़ी है। सभी परिभाषाओं में समता और अहिंसा-भावना मूल में रही है जो सामाजिक सन्तुलन के लिए साधक है। ४. धर्म का सामान्य स्वरूप जैनाचार्यों ने सामान्यत: धर्म उसे कहा है जो सांसारिक दुःखों से उठाकर उत्तम वीतराग सुख में पहुँचाये। यथा(१) संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे रत्नकरण्डश्रावकाचार-२ (२) इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:-सर्वार्थसिद्धि, १,२; तत्त्वार्थवार्तिक १.२.३. (३) यस्माज्जीव नारक-तिर्यग्योनि-कुमानुष-देवत्वेषु प्रपतनां धारयतीति धर्म:-दशवैकालिक चूर्णि, पृ० १५ ललितविस्तरा, पृ० ९०, आवश्यकसूत्र, मलयवृत्ति, पृ० ५९२, दशवैकालिक नियुक्ति, हरिभद्रवृत्ति, १.२०, पृ० १३, धर्म सं० २०; पद्मपुराण, १४.१०३-४; महापुराण, २.३७; उत्तरा. चूर्णि, ३, पृ० ९८; भगवती आराधना विजयो. ४६,२. ३७; ठाणांग, अभय वृ० १.४०; अनगार धर्मामृत, टी. १.५; प्र.सा.जय. वृ. १. ८; आदि। जैनाचार्यों की धर्म की इन परिभाषाओं को देखकर ऐसा लगता है कि वे व्यक्ति को प्रथमत: सांसारिक दुःखों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त करने का आह्वान करते १. धर्म और समाज, डॉ० राधाकृष्णन्, पृष्ठ १०९. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) हैं। बार-बार दुःख का साक्षात्कार करने से बीमार रोग की प्रगाढ़ता से परिचित हो जाता है, वस्तु-स्थिति को स्वयं जानने लगता है और फिर उसी आत्मा में वास करने वाले परमानन्द स्वरूप को प्राप्त करने का लक्ष्य बना लेता है। तथाकथित ईश्वर रूप परमात्मा का भाव उसके मन में आता ही नहीं। है भी नहीं। इसलिए जैनधर्म को नकारात्मक और दुःखवादी नहीं माना जाना चाहिए। जैनधर्म संसार को स्वप्न और माया भी नहीं कहना चाहता। वह तो हमें उसकी यथार्थता से परिचित कराता है। इसलिए धर्म की यह परिभाषा बड़ी व्यावहारिक है और जैनधर्म भी उसी व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ संसारियों को दुःख से मुक्त कराने का प्रयत्न करता है। वह व्यक्ति को उन दुःखों से पलायन करने की सलाह नहीं देता बल्कि जूझने और संघर्ष करने की प्रेरणा देता है और आगाह करता है कि इन सांसारिक दुःखों का मूल कारण राग और द्वेष हैं कर्म मोह की प्रबलता से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण की भव-परम्परा दुःख का मूल है। इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है। जन्म-मरण के चक्कर में सुख होगा भी कहाँ? इसलिए यदि हम यथार्थ सुख पाना चाहते हैं तो जन्म-मरण के भव-चक्कर से मुक्त होना आवश्यक हैं, उपादेय भी यही है। . इस घोषणा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता उद्घोषित है। उसे स्वयं विचार करने और ध्यान करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसके ऊपर ईश्वर जैसा कोई तनाव नहीं है। वह स्वयं अपने कर्म का निर्माता और भोक्ता है। इस चिन्तन से वैराग्य का जागरण होता है, सचेतनता आती है, क्रान्ति होती है, रूपान्तरण होता है और समता का जन्म हो जाता है। समता आने से साधक के चैतन्य की दशा विरागता से भर जाती है। वह संसार में रहते हुए भी उसी प्रकार वहाँ रहता है जिस प्रकार पोखर में खिला हुआ कमल जल में रहता हुआ भी जल से असंप्रक्त रहता है। 'जैनधर्म के चिन्तन का केन्द्रीभूत तत्त्व है- आत्मा। आत्मा के अतिरिक्त उसमें न संसार का मूल्य है और न परमात्मा का। वह स्वार्थ की बात करता है, स्वयं के कल्याण की, मंगल की, आत्महित की बात करने वाला ही परहित की बात सोच सकता • है। वहां “मैं” नाम के तत्त्व का भी कोई अस्तित्व नहीं। अहंकार विसर्जन बिना एकाकीपन की साधना हैं वह व्यष्टि-निष्ठ आनन्द है। जो स्वयं आनन्दित होता है वह दूसरे को भी आनन्दित कर देता है। दुःखी व्यक्ति दूसरे को आनन्दित कर ही नहीं सकता। यहाँ स्वार्थ में परार्थ सधा हुआ है, आत्मा में परमात्मा बसा हुआ हैं। इसलिए आत्म-साधना से ही परमात्म-साधना होगी। परमात्मा कोई ईश्वर नहीं, सृष्टि का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं। बहिरात्मा में व्यक्ति बाहर ही बाहर घूमता रहता है उसके अन्तर का संगीत खोया रहता है, स्वभाव से विमुख रहता है। राग-द्वेषादि विकारों से ग्रस्त रहता है। जब जागरण विवेक का होता है तो वह संसार से विमुख हो जाता है, स्व-पर चिन्तन करने लगता है, अन्तरात्मा की ओर बढ़ जाता है और ध्यान-सामायिक करने Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगता हैं जब यह भी भेद समाप्त जाता है तो आत्मा की परमात्मावस्था आ जाती है। मनुष्य ही परमात्मा बन जाता है। आत्मा ही परमात्मा है, यह क्रान्तिकारी उद्घोषणा जैनधर्म की निराली है। ईश्वर से मनुष्य को इतनी स्वतन्त्रता देना जैनधर्म की अपनी विशेषता है। नित्शे ने कहा ईश्वर मर चुका है। अब आदमी स्वतन्त्र है कुछ भी करने के लिए। पर जैनधर्म ने इससे भी आगे बढ़कर कहा-ईश्वर का अस्तित्व था ही कहाँ? फिर उसके मरने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर व्यक्ति में परमात्मा बैठा हुआ है, बस, उसे जाग्रत करने की आवश्यकता है। __संसार की सृष्टि उपादान कराणों से होती है। ईश्वर सृष्टि-कारक नहीं है। व्यक्ति स्वयं ही कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है। सारा उत्तरदायित्व स्वयं के सिर पर है। आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है, भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति स्थित आत्मा अपना ही मित्र है। वह असंयम से निवृत्त होता है और संयम में प्रवृत्त होता है। निवृत्ति स्थित आत्मा अपना ही मित्र है। निवृत्ति और प्रवृत्ति, दोनों उसकी एक साथ चलती हैं। सबसे बड़ा शत्रु है तो कषाय है, इन्द्रियाँ हैं, जिन्हें जीतने के लिए व्यक्ति को सदैव संघर्ष करना पड़ता है, विवेक जाग्रत करना पड़ता है तभी धर्माचरण हो पाता हैं, विवेक जाग्रत हो जाने पर सांसारिक सुख यथार्थ में सुखाभास लगने लगता है, उनमें झूठा आनन्द दिखाई देने लगता है, मृत्यु का चिन्तन प्रखर हो उठता है। ५. धर्म का स्वभावात्मक-समतामूलक स्वरूप इस परिभाषा के अन्तर्गत वस्तु और व्यक्ति के स्वभाव की ओर संकेत किया गया है। वस्तु का असाधारण धर्म ही उसका स्वभाव है, उसके भीतरी गुण ही उसके स्वरूप हैं। उत्पाद, व्यय और स्थिति में पदार्थ अपना स्वरूप बनाये रखता है। इसमें स्वभाव की दृष्टि से आत्मा के स्वरूप पर भी विचार किया गया है जो समतामूलक है। जैसे(१) धम्मो वत्थुसहावो-कार्ति. अनु. ४७८. (२) स्वसंवेद्यो निरूपाधिकं हि रूपं वस्तुतः स्वभावोऽभिधीयते. (३) मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो-भावपा. ८१ (४) धर्मः श्रुत चारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणाम: कर्मक्षय कारणम् (सूत्रकृतांग, सू. शी. वृ. २.५.१४) (५) सम्यग्दर्शनाद्यात्मपरिणामलक्षणो धर्मः, धर्म स. मलया वृ. २५. धर्म सम्प्रदाय से ऊपर उठा हुआ है। सम्प्रदाय भीड़ है पर धर्म वैयक्तिक है, समूह नहीं। धार्मिक व्यक्ति अपने-आपको अकेला करता जाता है, स्वभाव की ओर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) मुड़ता जाता है स्वानुभूति के प्रकाश में संसार को छोड़ता जाता है और एक दिन निष्काम बन जाता है निष्काम त्याग का जीवन है। धर्मत्याग बिना आचरित नहीं हो सकता। वह मांग से दूर रहने की प्रक्रिया सिखाता है, मन की चंचलता को समझने की आवश्यकता पर बल देता है इसलिए वह स्पष्ट कर देता है कि क्रोधादि विकारों को किसी भी कीमत पर आश्रय न दें अन्यथा ये फैल जायेंगे और अपना घर बना लेंगे। विकार भाव अपना घर न बना पायें यह तभी संभव है जब व्यक्ति का संकल्प दृढ़ हो, वह उनके सामने आत्मसमर्पण न करे। संकल्प के समक्ष सत्य रहता है जिसकी कोई सीमा नहीं होती। असत्य की तो सीमा रहती है। संकल्पी व्यक्ति सत्य की खोज में रहता है। परमात्मावस्था को वापिस पाने की तलाश में एकाकी बन जाता है और समत्व योग की साधना करता है यही समता भावव्यक्ति का वास्तविक धर्म है, स्वभाव है। जो पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाता है। समता मानवता का निष्यन्द है। बर्बता, पशुता, संकीर्णता उसका प्रतिपक्षी स्वभाव है। राग-द्वेषादि भावं उसके विकार-तन्तु हैं। ऋजुता, निष्कपटता, विनम्रता और प्रशान्तवृत्ति उसकी परिणति है। सहिष्णुता और सच्चरित्रता उसका धर्म है। · यद्यपि सापेक्षता व्यापकता लिए हुए रहती है पर मानवता के साथ सापेक्षता को सम्बद्ध करना उसके तथ्यात्मक स्वरूप को आवृत करना है। इसलिए समता की सत्ता मानवता की सत्ता में निहित है। ये दो सत्तायें आत्मा की विशुद्ध अवस्था के गुण हैं। व्यवहारत: मानवता के साथ समता के आधार पर विचार किया भी जा सकता है पर वास्तविक समता उससे दूर रहती है। समता में “यदि और तो' का सम्बन्ध बैठता ही नहीं वह तो समुद्र के समान गम्भीर, पृथ्वी के समान क्षमाशील और आकाश के समान स्वच्छ तथा व्यापक है। इसलिए समता का सही रूप धर्म है। यही उसका कर्म है। — धर्म को शाश्वत और चिरन्तन सुखदायी माना गया है। उसके वैविध्य रूप में यह शाश्वतता धूमिल-सी होने लगती है। समता का स्वरूप धूमिल होने की स्थिति में कभी नहीं आता वह तो विकार भावों की असत्ता में जन्म लेता है। क्रोधादिक विकार भाव असमता, विषमता, उद्धतता और संसरणशीलता की पृष्ठभूमि में प्रादुर्भूत होते हैं। सम्यग्दर्शन-सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित रूप में ही ये विकारभाव तिरोहित होते हैं और वही सही तप है। १ चारित्र का सम्यक् परिपालन किये बिना दर्शन और ज्ञान की आराधना हो नहीं १. यदि क्रोधादय: क्षीणास्तदा कि खिद्यते वृथा। · तथोभिरथ तिष्ठन्ति तपस्तत्राप्यपार्थकम्।। ज्ञानार्णव, १९-७३. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सकती। दर्शन और ज्ञान, आत्मशक्ति, आत्मविश्वास और आत्मज्ञान के प्रतीक हैं जो समता के मूल कारण हैं। इसलिए चारित्र को "धर्म" कहा गया है। धर्म तथा समता को राग-द्वेषादिक विकार भावों की अभावात्मक स्थिति कहा जाता है। ममत्व का विसर्जन और सहिष्णुता का सर्जन उसके आवशयक अङ्ग हैं। मानसिक चंचलता को संयम की लगाम से वशीभूत करना तथा भौतिकता की विषादाग्नि को आध्यात्मिकता के शीतल जल से शमित करना समता की अपेक्षित तत्त्व दृष्टि है सहयोग, सद्भाव, समन्वय और संयम उसके महास्तम्भ हैं, श्रमण का यही सही रूप है, स्वरूप है। इसी को आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार कहा है चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिदिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामों अप्पणो हि समो।। सुविदितपयत्य सुत्तो संजम तव संजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो ति।। समता आत्मा का सच्चा धर्म है। इसलिए आत्मा को “समय' भी कहा जाता है। "समय" की गहन और विशुद्ध व्याख्या करने वाले समयसार आदि ग्रन्ध्र इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं। सामायिक जैसी क्रियायें उसके “फील्डवर्क' हैं। अहिंसा उसी का एक अङ्ग है। वह तो एक निर्द्वन्द्व और शून्य अवस्था है जिसमें व्यक्ति निष्पक्ष, वीतराग, सुख-दुःख में निर्लिप्त, प्रशंसा-निन्दा में निरासक्त, लोष्ठ-काँचन में निर्लिप्त तथा जीवन-मरण में निर्भय रहता है। यही श्रमण अवस्था है। . वीतरागता से जुड़ी हुई समता अध्यात्मिक समता है जो आगमों और कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में दिखाई देती है। माध्यस्थ भाव से जुड़ी हुई समता दार्शनिक समता है जिसे हम स्याद्वाद, अनेकान्तवाद किंवा विभज्यवाद में देख सकते हैं तथा कारुण्यमूलक समता पर राजनीति के कुछ वाद प्रस्थापित हुए हैं। मार्क्स का साम्यवाद ऐसी ही पृष्ठभूमि लिए हुए है, गांधी जी का सर्वोदयवाद महावीर के सर्वोदयतीर्थ पर आधारित है, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य समन्तभद्र ने किया था। सर्वान्तवत् तदगुण मुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षं। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।। मानवीय एकता, सह-अस्तित्व, समानता और सर्वोदयता धर्म के तात्त्विक अङ्ग हैं। तथाकथित धार्मिक विद्वान् और आचार्य इन अङ्गों को तोड़-मरोड़कर स्वार्थवश वर्गभेद और वर्णभेद जैसी विचित्र धारणाओं की विषैली आग को पैदा कर देते हैं, जिसमें १. प्रवचनसार १.७; १.१४. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) समाज की भेड़िया धसान वाली वृत्ति वैचारिक धरातल से असंबद्ध होकर कूद पड़ती है। उसके सारे समीकरण झुलस जाते हैं, शोषण की मनोवृत्ति सहानुभूति और सामाजिकता की भावना को दूषित कर देती है, वैयक्तिक और सामूहिक शान्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है । इस दुर्वस्था की सारी जिम्मेदारी एकान्तवादी चिन्तकों सबल हिंसक कंधों पर है जिसने समाज को एक भटकाव दिया है, अशान्ति का एक आकार-प्रकार खड़ा किया है और पड़ोसी को पड़ोसी जैसी रहने में संकोच, वितृष्णा और मर्यादाहीन भरे व्यवहारों की लौहिक दीवार को गढ़ दिया है। अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन इन सभी प्रकार की विषमताओं से आपादमग्न समाज को एक नई दिशादान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह सम्भालकर • उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर, मजबूत और सामुदायिक चेतना से सजी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में प्राण फूंक देता है। तब संघर्ष के . स्वर बदल जाते हैं, समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिये, अपने वैयक्तिक एकपक्षीय विचारों की आहूति देने के लिए, दूसरे के दृष्टिकोण को सम्मान देने के लिए और निष्पक्षता, निवैरता-निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल-धूसरित होने से बचाने के लिए। सापेक्षिक कथन दूसरों के दृष्टिकोण को समान रूप से आदर देता है। खुले मस्तिष्क से पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान करता है, प्रतिपाद्य की यथार्थवत्ता प्रतिबद्धता से मुक्त होकर सामने आ जाती है। वैचारिक हिंसा से व्यक्ति दूर हो जाता है, अस्ति नास्ति के विवाद से मुक्त होकर नयों के माध्यम से प्रतिध्वनित शब्द समाज और व्यक्ति को प्रेम पूर्वक एक प्लेटफार्म पर बैठा देता है । चिन्तन और भाषा के क्षेत्र में 'न या सियावाय वियागरेज्ज' (सूत्रकृताङ्ग) का उपदेश समाज और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्ण न्याय देकर सरल, स्पष्ट और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता है। आचार्य सिद्धसेन ने 'उदधाविवसमुद्रीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः' कहकर इसी तथ्य को अपनी भगवद् स्तुति में प्रस्तुत किया है । हरिभद्र सूरि की भी समन्वय - साधना इस संदर्भ में स्मरणीय है भवीजांकुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु र्वा, हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ।। २.१ धर्म का गुणात्मक स्वरूप धर्म वस्तुतः आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकारवृत्ति, संयम, अहिंसा, अपरिग्रह जैसे गुण विद्यमान रहते हैं, वह किसी जाति, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) या सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोक, मांगलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से सम्भव है। धर्म के इस गुणात्मक स्वरूप की परिभाषायें इस प्रकार मिलती हैं(१) धम्मो दया विसुद्धो - बोध पाहुड, ३५; नियमसार, वृ०६; वरांगचरित १५-१०७, कार्तिकेया. ९७। (२) धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो, तवो-दशवैकालिकसूत्र, १.१ त. वार्तिक, ६.१३.५; सर्वार्थसिद्धि, ६.१३। (३) क्षन्त्यादि लक्षणो धर्म - तत्त्वार्थसार ६.५२; भावसंग्रह, वाम, ३०६ तत्त्वार्थ वृत्ति, श्रुत ६-१३; उपासकाध्ययन, ३; धर्मसं. श्रा. १०-९९; आदि। . धर्म और अहिंसा में शब्दभेद है. गण-भेद नहीं। धर्म अहिंसा है और अहिंसा धर्म है क्षेत्र उसका व्यापक है। अहिंसा निषेधार्थक शब्द है। विधेयात्मक अवस्था के बाद ही निषेधात्मक अवस्था आती हैं। अत: विधिपरक हिंसा के अनन्तर इसका प्रयोग हुआ होगा। इसलिए संयम, तप, दया आदि जैसे विधेयात्मक मानवीय शब्दों का प्रयोग पूर्वतर रहा होगा। पर्यावरण भी इसी से संबद्ध है। . हिंसा का मूल कारण है- प्रमाण और कषाय। इसके वशीभूत होकर जीव के मन, वचन, कार्य में क्रोधादिक भाव प्रगट होते हैं जिनसे स्वयं के शब्द प्रयोग रूप भाव प्राणों का हनन होता हैं कषायादिक तीव्रता के फलस्वरूप उसके आत्मघात रूप द्रव्य प्राणों का हनन होता हैं, इसके अतिरिक्त दूसरे के मर्मान्तक वेदनादान अथवा परद्रव्यव्यवपरोपण भी इन्हीं भावों का कारण है इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना, फिरना, उठना-बैठना, खाना-पीना, चाहिए, इसका विधान मूलाचार, दशवैकालिक आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है- अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूयेषु संजमो। उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित हैं। मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है। शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका चित्त मलीन और दूषित रहता है, वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और रगड़ना इन चार ‘उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती हैं उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया - १. प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र, ७.१३. २. दशवैकालिकसूत्र, ६.९. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) • रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है धम्मो मंगल मुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा पि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो।। __ . मूलाचार; दशवैकालिक, १.१ संजमु सीलु सउज्जु तवु सूरि हि गुरु सोई। दाहक-छेदक-संधावकसु उत्तम कंचणु होई।। भाव पाहड-१४३ जीवन का सर्वागीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है। सूत्रकृताङ्ग (१.९.६) में इस उद्देश्य को एक रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलता-फिरता है, किन्तु भय की आशंका होने पर शीघ्र ही अपने अङ्ग-प्रत्यङ्ग प्रच्छन्न कर लेता है और भय-विमुक्त होने पर पुन: अङ्ग-प्रत्यङ्ग फैलाकर चलना-फिरना प्रारम्भ कर लेता है। उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधना मार्ग पर बड़ी सतर्कता पूर्वक चलता है। संयम की विराधना का भय उपस्थित होने पर वह पचेन्द्रियों व मन को आत्मज्ञान में ही मोपन कर लेता है। मैत्री, करुणा, मुदिता और माध्यस्थ भाव समभाव की परिधि में आते हैं। समभावी व्यक्ति समाचारिता का पालक और सर्वोदयशीलता का धारक होता है। अध्यात्म का सम्बन्ध अनुभूति से है और हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध अध्यवसाय-संकल्प से है। अध्यात्म और संकल्प से आस्था की सृष्टि होती है। जिससे मानसिक दुर्बलता से भरी विलासिता समाप्त हो जाती है, स्वार्थ और अहंकार का विसर्जन हो जाता है, परिशोधन और पवित्रता के आन्दोलन से वह जुड़ जाता है। यह भोग में भी योग खोज लेता है। जैन संस्कृति मूलत: अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निग्रन्थ वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। मूर्छा परिग्रह का पर्यायार्थक है। वह मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग-द्वेषादि भावों से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय आदि भाव अन्तरंग परिग्रह हैं और धन-धान्यादि बाह्यपरिग्रह है। ये आश्रय के कारण हैं। आश्रव का कारण आसक्ति हैं परिग्रह है। परिग्रह का मूल साधन हिंसा है, झूठ, चोरी, कुशील उसके अनुवर्तक हैं। और परिग्रह तथा प्रदूषण उसके फल हैं। परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिंसक बना देती है। इस हिंसक वृत्ति से तभी विमुख हो सकता है व्यक्ति जब वह अपरिग्रह या परिग्रह परिमाणव्रत का पालन करे। क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मों का पालन भी धर्म है। मनुष्य गिरगिट स्वभावी है. अनेक चित्त वाला है। क्रोधादि विकारों के कारण वह बहुत भूलें कर डालता है। क्रोध विभाव है, परदोषदर्शी है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है, परपदार्थों में कर्तृत्व बुद्धि से, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) नहीं है। मिथ्यादर्शन से क्रोध उत्पन्न होता है और क्षमा सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होती है। पंचम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती से लेकर नौवें-दसवें गुणस्थान में महाव्रती के उत्तम क्षमा है पर नौवें ग्रैवेयक तक पहुंचने वाले मिथ्यादृष्टि व द्रव्यलिंगी के उत्तमक्षमा नहीं होती। ___ मार्दव का विरोधी भाव मान है। दु:ख अपमान में नहीं, मान की आकांक्षा में है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, समृद्धि, तप, वपु और बल के अभिमान से दूसरे को नीचे दिखाने का भाव पैदा होता है। इससे सत्व की खोज नहीं हो पाती। बिना विनय के भक्ति और आत्मसमर्पण कहां? प्रतिक्रिया और प्रतिशोध को जन्म देने वाले अहंकार को समाप्त किये बिना जीवन का बदलना संभव नहीं है। ___ धर्म प्रतिस्रोत का मार्ग है, आत्मनिरीक्षण का पथ हैं ऋजुता आये बिना धर्म का मर्म पाया नहीं जा सकता। शौचधर्म में चरित्र विशुद्ध हो जाता है और अकषाय की स्थिति आ जाती है और लोभ चला जाता है सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य आदि धर्म भी आध्यात्मिक साधना को जाग्रत करते रहते हैं और विचारों की पवित्रता को बनाये रखते हैं। इन धर्मों का पालन करने से संकल्प शक्ति का विकास होता है और साधक ध्यान साधनाकर आत्मस्वरूप के चिन्तन में डूबने लगता है। २. धर्म का मोक्षमार्गात्मक स्वरूप तीर्थङ्कर महावीर ने साधना की सफलता के लिए तीन कारणों का निर्देश किया है- सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इन तीनों तत्त्वों को समवेत रूप में “रत्नत्रय" कहा जाता हैं दर्शन का अर्थ श्रद्धा अथवा व्यावहारिक परिभाषा में आत्मानुभूति कह सकते हैं। श्रद्धा और आत्मानुभूति पूर्वक ज्ञान और चारित्र'का सम्यक योग ही मोक्ष रूप साधना की सफलता में मूलभूत कारण है। मात्र ज्ञान अथवा चारित्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए इन तीनों की समन्वित अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहा गया है- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:-तत्त्वार्थसूत्र, १.१। रत्नत्रय का पालन ही धर्म है। इस प्रकार की परिभाषायें देखिए(१) सदृष्टि-ज्ञानवृत्तानि धर्मधर्मेश्वरा विदुः- रत्नकरण्डश्रावकाचार-३। (२) धम्मो णाम सम्मद् दंसण-णाण-चरित्ताणि- धवला, पु० ८, पृ० ९२। (३) सम्यग्दृप्राप्ति चारित्रं धर्मो रत्नत्रयात्मक: -लाटी संहिता- ४.२३७-३८। __मोक्ष प्राप्ति का रत्नत्रय के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। जिस प्रकार औषधि पर सम्यक् विश्वास, ज्ञान और आचरण किये बिना रोगी रोग से मुक्त नहीं हो सकता उसी प्रकार संसार के जन्म-मरण रूपी रोग से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का सम्यक् योग होना आवश्यक है Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) हतं ज्ञानं क्रिया हीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः।। संयोगमेवेह वदन्ति तज्ञानमेकचक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पंगुश्च वने प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरे प्रविष्टौ।। जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों और पुण्य-पाप को मिलाकर नव पदार्थों में रुचि होना सम्यग्दर्शन है- तच्चरुई सम्मत्तं-मोक्खपाहुड, ३८। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का ज्ञान होना भी सम्यग्दर्शन है। वह परोपदेश से अथवा परोपदेश के बिना भी प्रगट होता है। इन दोनों प्रकारों में आत्मप्रतीति होना मूल कारण है। आत्मप्रतीति में सम्यक्ज्ञान होता है। सम्यक्ज्ञान वह है जिसमें संसार के सभी पदार्थ सही स्थिति में प्रतिबिम्बित हों। प्रणाम और नय इसी सीमा में आते हैं। धर्म का उपयोगात्मक स्वरूप भी इसी में अन्तर्भूत है। सम्यक् आचरण को सम्यक्चारित्र कहा जाता है। जिसमें कोई पाप-क्रियायें न हों, कषाय न हों, भाव निर्मल हों तथा पर-पदार्थों में रागादिक विकार न हों। यह सम्यक्चारित्र दो प्रकार का होता है- गृहस्थों के लिए और मुनियों के लिए। एक अणुव्रत है दूसरा महाव्रत है। इन व्रतों की संख्या बारह है- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत जो पंचव्रतों को पालन करने में सहायक बनते हैं और सामायिक,प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण तथा अतिथि संविभाग इन चार व्रतों का पालन करने में सामाजिकता का पालन होता है। यही सामाजिकता धर्म का प्राण है। ३. धर्म का सामाजिक स्वरूप ___ धर्म का सम्बन्ध अध्यात्म के साथ समाज से भी है। सामाजिक सुख सुविधा की उपलब्धि का आधार यदि धार्मिकता है तो यह अधिक आनन्ददायक होता है। श्रावकाचार के निर्धारण में एक उद्देश्य यह भी रहा है कि व्यक्ति अपने सदाचरण से समाज में शान्ति स्थापित करे। उसका यही समाजिक धर्म राष्ट्रीय धर्म है। जैनधर्म भावप्रधान धर्म है इसलिए वहां ऊंच-नीच सभी के लिए समान स्थान रहा है। वैदिक संस्कृति में प्रस्थापित जातिवाद की कठोर श्रृंखलाओं को काटकर महावीर ने जन्म के स्थान पर कर्म का आधार लिया। उन्होंने कहा कि उच्च कुल में उत्पन्न होने मात्र से व्यक्ति को ऊंचा नहीं कहा जा सकता। वह ऊंचा तभी हो सकता है जबकि उसका चरित्र या कर्म ऊंचा हो। इसलिए महावीर ने समता के आधार पर चारों जातियों की एक नई व्याख्या की और उन्हें एक मनुष्य जाति के रूप में देखा—मनुष्य जातिरेकैव। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) कम्मणा बम्भणो होई कम्मुणा होई खत्तियो। वइस्सो कम्मुणो होई सुद्दो होई कम्मुणा।। उत्तरा, २५, १९ ब्राह्मणक्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्त्वतः। एकैव मानुषी जातिराचारेण विभज्यते ।। महापुराण वस्तुत: जैनधर्म ने समाज और देश को अभ्यन्नत करने के लिए सभी प्रकार से प्रयत्न किया है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र से भ्रष्टाचार दूरकर सर्वोदयवादी और अहिंसावादी विचारधारा को प्रचारित करने का अथक प्रयत्न किया, धनोपार्जन के सिद्धान्तों को न्यायवत्ता की ओर मोड़ा, मूक प्राणियों की वेदना को अहिंसा की चेतनादायी संजीविनी से दूर किया, सामाजिक विषमता की सर्वभक्षी अग्नि को समता के शीतल जल और मन्द वयार से शान्त किया। जीवन के हर अंग में अहिंसा के. महत्त्व को प्रदर्शित कर मानवता के संरक्षण में जैनधर्म ने सर्वाधिक योगदान दिया। यह उसकी गहन चारित्रिक निष्ठा का परिणाम था। . ४. धर्म और सामाजिक सन्तुलन सामाजिक सन्तुलन धर्म की इन सभी परिभाषाओं से आबद्ध है। मानवता का पाठ पढ़ाकर समता मूलक अहिंसा की प्रतिष्ठा करता है और प्राणिमात्र को सुरक्षा प्रदान करने का दृढ़ संकल्प देता हैं सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक प्रदूषण को दूर करने की दिशा में जैनधर्म ने जो महनीय योगदान दिया है वह अपने आप में अनूठा है। इस दृष्टि से धर्म की परिभाषा में और सामाजिक सन्तुलन में जैनधर्म जितना खरा उतरता है उतना अन्य कोई धर्म दिखाई नहीं देता। जैनधर्म वस्तुत: मानव धर्म है, मानवता की निम्नतम गहराई तक पहुंचकर दूसरे के कल्याण की बात सोचता है। यही उसकी अहिंसा है, यही उसका कारुणिक रूप है और इसी से पर्यावरण की सुरक्षा होती है। मानवता पर्यावरण का आधार है। दानवता से प्रदूषण पलता है। अहिंसा, संयम, समता और करुणा मानवता के अंग हैं, पर्यावरण के रक्षक हैं। जैनधर्म सर्वाधिक मानवतावादी धर्म है, अहिंसा का प्रतिष्ठापक हैं इसलिए पर्यावरण की समग्रता को समाहित किये हुए है। आधुनिक युग में विनोबाजी का सर्वोदयवाद बड़ा लोकप्रिय हुआ हैं उन्होंने उसे मानवता से जोड़कर राजनीति को लोकमंगलकारी बनाने का प्रशस्त प्रयत्न किया है। पर्यावरण की भी मूल भूमिका यही है और जैनधर्म भी इसी पगडण्डी पर चलने वाला पथिक रहा है। अत: यहां पर्यावरण की पृष्ठभूमि में सर्वोदयवाद और मानवतावादी जैनधर्म पर संयुक्त रूप से भी विचार कर लेना आप्रासंगिक नहीं होगा। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) ५. सर्वोदय दर्शन और सामुदायिक चेतना जैनधर्म श्रमण संस्कृति की आधारशिला है। अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद और एकात्मकता उसके विशाल स्तम्भ हैं जिनपर उसका भव्य प्रासाद खड़ा हुआ है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप उसके सोपान हैं जिसके माध्यम से भव्य प्रसाद के ऊपर तक पहुंचा जा सकता है । सर्वोदय उसकी लहराती सुन्दर ध्वजा है जिसे लोग दूर से ही देखकर उसकी मानवीय विशेषता को समझ लेते हैं । समता इस ध्वजा का मेरूदण्ड है जिसपर वह अवलम्बित है और वीतरागता उस प्रासाद की रमणीकता है जिसे उसकी आत्मा कहा जा सकता है। श्रमण संस्कृति की ये मूलभूत विशेषताएं सर्वोदय दर्शन में आसानी से देखी जा सकती है। सर्वोदय दर्शन वस्तुतः आधुनिक चेतना की देन नहीं । उसे यथार्थ में महावीर ने प्रस्तुत किया था। उन्होंने सामाजिक विषमता को देखकर क्रान्ति के तीन सूत्र दिये —– (१) समता, (२) शमता, (३) श्रमशीलता । उनमें जिनसेन ने समता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि समता का तात्पर्य है सभी व्यक्ति समान है। जन्म से न तो कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है न वैश्य है, न शूद्र है। मनुष्य तो जाति नामकर्म के उदय से एक ही हैं, आजीविका और कर्म के भेद से अवश्य उसे चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है— मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयादभवा । वृत्तिभेदाहितदभेदाच्चतुर्विध्यमिहानुते ।। जिनसेनाचार्य आदिपुराण ३८, ४५ शमता कर्मों के समूल विनाश से सम्बद्ध है। इस अवस्था को निर्वाण कहा जाता है। वैदिक संस्कृति का मूलरूप स्वर्ग तक ही सीमित था । उसमें निर्वाण का कोई स्थान ही नहीं था जैनधर्म के प्रभाव से उपनिषदकाल में उसमें निर्वाण की कल्पना ने जन्म लिया। जैनधर्म के अनुसार निर्वाण के दरवाजे सभी के लिए खुले हुए हैं। वहां पहुंचने के लिए किसी वर्ग विशेष में जन्म लेना आवश्यक नहीं । आवश्यक है, उत्तम प्रकार का चारित्र और विशुद्ध जीवन । श्रमशीलता श्रमण संस्कृति की तीसरी विशेषता है। इसका तात्पर्य है व्यक्ति का विकास उसके स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है, ईश्वर आदि की कृपा कर नहीं । वैदिक संस्कृति में स्वयं का पुरुषार्थ होने बावजूद उस पर ईश्वर का अधिकार है। ईश्वर की कृपा से ही व्यक्ति स्वर्ग और नरक जा सकता है। जैन संस्कृति में इस प्रकार के ईश्वर का कोई स्थान नहीं। वह तो जो कुछ भी कर्म करता है उसी का फल उसी को स्वतः मिल जाता है। कर्म के कर्त्ता और भोक्ता के बीच ईश्वर जैसे दलाल का कोई Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) स्थान नहीं। ईश्वर यदि हम आप जैसा दलाल होगा तो फिर सृष्टि के रचने के बीच भेदक-रेखा ही क्या रहेगी? हाँ, जैनधर्म में दान-पूजा भक्ति-भाव का महत्त्व निश्चित ही है। इन सत्कर्मों के माध्यम से साधक अपने निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त अवश्य कर लेता हैं इसमें तीर्थङ्कर मात्र मार्गदृष्टा है प्रदीप के समान, वह निर्वाणदाता नहीं। इसलिए व्यक्ति के स्वयं का पुरुषार्थ ही उसके लिए सब कुछ हो जाता है। ईश्वर की कृपा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं। पराश्रय से विकास अवरुद्ध हो जाता है। बैसाखी का सहारा स्वयं का सहारा नहीं माना जा सकता। अत: जैनधर्म में व्यक्ति का कर्म और उसका पुरुषार्थ ही प्रमुख है। ___ सर्वोदयदर्शन आधुनिककाल में गांधीयुग का प्रदेय माना जाता हैं गांधीजी ने रस्किन की पुस्तक "अन टू दी लास्ट' का अनुवाद सर्वोदय शीर्षक से किया और तभी से उसकी लोकप्रियता में बाढ़ आयी। यहां सर्वोदयवाद का तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को लौकिक जीवन के विकास के लिए समान अवसर प्रदान किया जाना। इसमें पुरुषार्थ का महत्त्व तथा सभी के उत्कर्ष के साथ स्वयं के उत्कर्ष का सम्बन्ध भी जुड़ा रहता. हैं गांधीजी के इस सिद्धान्त को विनोबाजी ने कुछ और विशिष्ट प्रक्रिया देकर कार्यक्षेत्र में उतार दिया। सर्वोदय का प्रचार यहीं से हुआ हैं वैसे इतिहास की दृष्टि से विचार किया जाये तो सर्वोदय शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जैन साहित्य में हुआ हैं प्रसिद्ध जैन तार्किक आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् महावीर की स्तुति “युक्त्यनुशासन'' में 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव' कहकर की है। यहां सर्वोदय शब्द दृष्टव्य है। सर्वोदय का तात्पर्य है सभी की भलाई। महावीर के सिद्धान्तों में सभी की भलाई सन्निहित है। उसमें परिश्रम और समान अवसर का भी लाभ प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुरक्षित है। राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि भाव, संपत्ति का अपरिमित संग्रह, दूसरे की दृष्टि को बिना समझे ही निरादरकर संघर्ष को मोल लेना तथा राष्ट्रीयता का अभाव ये चार प्रमुख तत्त्व व्यक्ति के विकास में बाधक होते हैं। सभी का विकास (१) अहिंसा, (२) अपरिग्रह, (३) अनेकान्तवाद और (४) एकात्मता पर विशेष आधारित है। अत: जैनधर्म के इन सर्वोदयी सूत्रों पर संक्षिप्त विवेचन अपेक्षित है जिनका सम्बन्ध समूचे पर्यावरण से है। ६. समता और सर्वोदय ___अहिंसा सर्वोदय की मूल भावना है। वह अपरिग्रह की भूमिका को मजबूत करती है अहिंसा समत्व पर प्रतिष्ठित हैं मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावों का अनुवर्तन, समता और अपरिग्रह का अनुचिन्तन, तप और अनेकान्त का अनुग्रहण तथा संयम और सच्चरित्र का अनुसाधन अहिंसा का प्रमुख रूप है। उसकी पुनीत प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र पर अवलंबित है। इसी चरित्र को धर्म कहा गया है। यही धर्म सम है। यह समत्व राग-द्वेषादिक विकारों के विनष्ट होने पर उत्पन्न होने वाला Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) विशुद्ध आत्मा का परिणाम है। धर्म से परिणत आत्मा को ही सम कहा गया है। धर्म की परिणति निर्वाण है। आचार्य कुन्दकुन्द का यही चिन्तन है संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुवरायविहवेहि। जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो।। चारित्तं खलु धम्मो जो धम्मो सो समो ति णिदिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो।। -प्रवचनसार, १.६-७ धर्म वस्तुतः आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकार वृत्ति, आदि जैसे गुण विद्यमान रहते हैं। वह किसी जाति या सम्प्रदाय से संबद्ध और प्रतिबद्ध नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोकमांगलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से संभव है। हिंसा के चार भेद हो जाते है- स्वभावहिंसा, स्व-द्रव्यहिंसा, पर भावहिंसा और पर-द्रव्यहिंसा (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, ४३)। आचार्य उमास्वामी ने इसी का संक्षेप "प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोणं हिंसा" कहा है। इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना फिरना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए आदि जैसे प्रश्नों का उत्तर दशवैकालिक, मूलाचार आदि ग्रन्थों में दिया गया है कि उसे यत्नपूर्वक अप्रमत्त होकर उठना-बैठना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन-भाषण करना चाहिए। कहं चरे कहं चिढे कहमासे कहं सए। कहं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बंधई ।। जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। - जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं काम्मं न बंधई।। - दशवैकालिक, ४.७-८; मूलाचार . हिंसा का प्रमुख कारण रागादिक भाव हैं उनके दूर हो जाने पर स्वभावत: अहिंसा भाव जाग्रत हो जाता है। दूसरे शब्दों में समस्त प्राणियों के प्रति संयमभाव ही अहिंसा है- अहिंसा निउणं दिट्ठा सब्बभूएस संजमो (दश)। उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित हैं संयम ही अहिंसा है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि वे परस्पर एकात्मक कल्याण मार्ग से आबद्ध हों। उसमें सौहार्द, आत्मोत्थान, स्थायी शान्ति, सुख और पवित्र साधनों का उपयोग होता है। यही यथार्थ में उत्कृष्ट मंगल है। दशवैकालिक १.१; मूलाचार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) मन, वचन, कार्य से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता हैं शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष हैं जिसका चित्त मलीन व दूषित रहता है वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो, सकता। जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना, रगड़ना इन चार उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है। (भावपाहुड. १४३ टीका) जीवन का सर्वागीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है। सूत्रकृतांग में इस उपदेश को एक रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलता-फिरता है किन्तु भयं की आशंका होने पर शीघ्र ही अपने अंग-प्रत्यंग प्रच्छन्न कर लेता है, और भय-विमुक्त होने पर पुन: अंग-प्रत्यंग फैलाकर चलना-फिरना प्रारम्भ कर देता है, उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधना मार्ग पर बड़ी सतर्कता पूर्वक चलता हैं संयम की विराधना का भय उपस्थित होने पर वह पंचेन्द्रियों व मन को आत्मज्ञान (अंतर) में ही गोपन कर लेता है- . जहा मुम्मे स अंगाइ सए देहे समाहरे । एवं पावाइं मेहावी अज्झप्पेण समाहरे।। सूत्रकृतांगः १.८.६ संयमी व्यक्ति सर्वोदयनिष्ठ रहता है। वह इस बात का प्रयत्न करता है कि दूसरे के प्रति वह ऐसा व्यवहार करे जो स्वयं को अनुकूल लगता हो। तदर्थ उसे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं का पोषक होना चाहिए। सभी सुखी और निरोग हों, किसी को किसी प्रकार का कष्ट न हो ऐसा प्रयत्न करे। सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सन्तु सर्वे निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ।। याऽकार्षीत् कोऽपि पापानि यां च भूत कोऽपि दुःखतः। मुच्यतां जगदप्येषा मति मैत्री निगद्यते।। यशस्तिलकचम्पू उत्तरार्ध दूसरों के विकास में प्रसन्न होना प्रमोद है। विनय उसका मूल साधन है। ईर्ष्या उसका सबसे बड़ा अन्तराय है। कारुण्य अहिंसा भावना का प्रधान केन्द्र हैं दुःखी व्यक्तियों पर प्रतीकात्मक बुद्धि से उनमें उद्धार की भावना ही कारुण्य भावना है। माध्यस्थ भावना के पीछे तटस्थ बुद्धि निहित है। नि:शंक होकर क्रूर कर्मकारियों पर आत्मप्रशंसकों पर, निंदकों पर उपेक्षाभाव रखना माध्यस्थ भाव है। इसी को समभाव भी कहा गया हैं समभावी व्यक्ति निमोही, निरहंकारी, निष्परिग्रही, स्थावर जीवों का संरक्षक तथा लाभ-अलाभ में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में, निन्दा-प्रशंसा में, मान-अपमान में, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) विशुद्ध हृदय से समदृष्ट होता है। समताजीवी व्यक्ति ही मर्यादाओं व नियमों का प्रतिष्ठापक होता है। वही उसकी समाचारिता है। यही उसकी सर्वोदयशीलता है। ___ • महावीर की अहिंसा पर विचार करते समय एक प्रश्न हर चिन्तक के मन में उठ खड़ा होता है कि संसार में जब युद्ध आवश्यक हो जाता है, तो उस समय साधक अहिंसा का कौन सा रूप अपनायेगा। यदि युद्ध नहीं करता है तो आत्मरक्षण और राष्ट्ररक्षा दोनों खतरे में पड़ जाती है जबकि आत्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा करना हमारा कर्तव्य है। चंद्रगुप्त, चामुण्डराय, खारवेल आदि जैसे धुरन्धर जैन अधिपति योद्धाओं ने शत्रुओं के शताधिक बार दांत खट्टे किए हैं। जैन साहित्य में जैन राजाओं की युद्धकला पर भी बहुत कुछ लिखा मिलता है। बाद में उन्हीं राजाओं को वैराग्य लेते हुए भी प्रदर्शित किया गया है। यह उनके अनासक्ति भाव का सूचक है। अत: यह सिद्ध है कि रक्षणात्मक हिंसा पाप का कारण नहीं है। ऐसी हिंसा को तो वीरता कहा गया है। यह विरोधी हिंसा है। चूर्णियों और टीकाओं में ऐसी हिंसा को गर्हित माना गया, है। सोमदेव ने इसी स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए स्पष्ट कहा है यः शस्त्रवृत्ति समरे रिपुः स्यात् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य। तत्रैव अस्वाणि नृपाः क्षिपन्ति न दीनकालीन कदाशयेषु ।। ७. अपरिग्रह और सामाजिक सन्तुलन अपरिग्रह सर्वोदय का अन्यतम अंग है। उसके अनुसार व्यक्ति और समाज परस्पर आश्रित है। एक दूसरे के सहयोग के बिना जीवन का प्रवाह गतिहीन सा हो जाता हैं • (परस्परोपग्रहो जीवानाम्)। प्रगति सहमूलक होती है, संघर्षमूलक नहीं। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच संघर्ष का वातावरण प्रगति के लिए घातक होता है। ऐसे घातक वातावरण के निर्माण में सामाजिक विषम वातावरण प्रमुख कारण होता है। तीर्थङ्कर महावीर ने इस तथ्य की मीमांसा कर अपरिग्रह का उपदेश दिया और सही समाजवाद की .. स्थापना की। समाजवादी व्यवस्था में व्यक्ति को समाज के लिए कुछ उत्सर्ग करना पड़ता है। दूसरों के सुख के लिए स्वयं के सुख को छोड़ देना पड़ता हैं सांसारिक सुखों का मूल साधन संपत्ति का संयोजन होता है। हर संयोजन की पृष्ठभूमि में किसी न किसी प्रकार का राग, द्वेष, मोह आदि विकार भाव होता है। संपत्ति के अर्जन में सर्वप्रथम हिंसा होती हैं, बाद में उसके पीछे झूठ, चोरी, कुशील अपना व्यापार बढ़ाते हैं। संपत्ति का अर्जन परिग्रह है और परिग्रह ही संसार का कारण है। जैन संस्कृति वस्तुत: मूल रूप से अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निर्ग्रन्थ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। अप्रमाद का भी उपयोग इसी संदर्भ में Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ हैं। मूर्छा को परिग्रह कहा गया हैं यह मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग, द्वेषादि भाव से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय इन्द्रिय, विषय आदि अन्तरंग परिग्रह है और धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह हैं। आश्रव के कारण है। इन कारणों से ही हिंसा होती है- प्रमत्तयोगात्, प्राणव्यपरोपणं हिंसा। यह हिंसा कर्म है और कर्म परिग्रह है। आचारांगसूत्र कदाचित, प्राचीनतम् आगम ग्रन्थ है। जिसका प्रारम्भ ही शस्त्रपरीक्षा से होता है। शस्त्र का तात्पर्य है हिंसा। हिंसा के कारणों की मीमांसा करते हुए वहां स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति वर्तमान जीवन के लिए, प्रशस्ति, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख प्रतिकार के लिए तरह-तरह की हिंसा करता हैं। द्वितीय अध्ययन लोकबिजय में इसे और भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि. सांसारिक विषयों का संयोजन प्रमाद के कारण होता है। प्रमादी व्यक्ति रातदिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में अर्थार्जन का प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर और अर्थलोलुपी चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चित्त अर्थार्जन में ही लगा रहता है। अर्थार्जन में संलग्न पुरुषः पुनः-पुनः शस्त्रसंहारक बन जाता है। परिग्रही व्यक्ति में न तप होता है, न शान्ति और न नियम होता है। यह सुखार्थी होकर दुःखी बन जाता है। इस प्रकार संसार का प्रारम्भ आसक्ति से होता है और आसक्ति ही परिग्रह है। परिग्रह का मूल साधन हिंसा है, झूठ, चोरी कुशील उसके अनुवर्तक हैं। और परिग्रह उसका फल है। अत: जैन संस्कृति मूलत: अपरिग्रहवादी संस्कृति है जिसका प्रारम्भ अहिंसा के परिपालन से होता हैं। महावीर ने अपरिग्रह को ही प्रधान माना है। आधुनिक युग में मार्क्स साम्यवाद के प्रस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने लगभग वही बात कही है जो आज से २५०० वर्ष पूर्व तीर्थङ्कर महावीर कह चुके थे। तीर्थङ्कर महावीर ने संसार के कारणों की मीमांसा कर उनसे मुक्त होने का उपाय भी बताया पर मार्क्स आधे रास्ते पर ही खड़े रहे। दोनों महापुरुषों के छोर अलग-अलग थे महावीर ने “आत्मतुला' की कहकर समता की बात कही और हर क्षेत्र में मर्यादित रहने का सुझाव दिया। परिमाणव्रत वस्तुतः सम्पत्ति का आध्यात्मिक विकेन्द्रीकरण है और अस्तित्ववाद उसका केन्द्रीय तत्त्व है। जबकि मार्क्सवाद में ये दोनों तत्त्व नहीं हैं। ___ परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिंसक बना देती है आज व्यक्तिनिष्ठा कर्तव्यनिष्ठा को चीरती हुई स्वकेन्द्रित होती चली जा रही हैं। राजनीति और समाज में भी नये-नये समीकरण बनते चले आये हैं। राजनीति का नकारात्मक और विध्वंसात्मक स्वरूप किंकर्तव्य विमूढ़-सा बन रहा है। परिग्रही लिप्सा से आसक्त असामाजिक तत्त्वों के समक्ष हर व्यक्ति घुटने टेक रहा है। डग-डग पर असुरक्षा का भान हो रहा है। ऐसा लगता Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) है, सारा जीवन विषाक्त परिग्रही राजनीति में उदरस्थ हो गया है। वर्गभेद, जातिभेद, संप्रदायभेद जैसे तीखे कटघरे में परिग्रह के धूमिल साये में स्वतन्त्रता/स्वच्छन्दता पूर्वक पल पुस रहे हैं जिसके कारण समाज का वातावरण दूषित हो रहा है। इस हिंसकवृत्ति से व्यक्ति तभी विमुख हो सकता है जब वह अपरिग्रह के सोपान पर चढ़ जाये। परिग्रह परिमाणव्रत का पालन साधक को क्रमश: तात्त्विक चिन्तन की ओर आकर्षित करेगा। और समता भाव तथा समविभाजन की प्रवृत्ति का विकास होगा। अणुव्रत की चेतना सर्वोदय की चेतना है। पर्यावरण संरक्षण इसी चेतना का अंग है। सामाजिक सन्तुलन भी यही है। ८. अनेकान्तवाद और सर्वधर्मसमभाव अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद पृथक् नहीं किये जा सकते। अनेकान्तवाद सत्य और अहिंसा की भूमिका पर प्रतिष्ठित तीर्थङ्कर महावीर का सार्वभौमिक सिद्धान्त है जो सर्वधर्मभाव के चिन्तन से अनुप्रणित है। उसमें लोकहित, लोकसंग्रह और सर्वोदय की भावना गर्भित है। धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को दूर करने का अभेद्य अस्त्र है। दूसरे के दृष्टिकोण का अनादर करना और उसके अस्तित्व को अस्वीकार करना ही संघर्ष का मूल कारण होता है। संसार में जितने भी युद्ध हुए हैं उनके पीछे यही कारण रहा है। अत: संघर्ष को दूर करने का उपाय यही है कि हम प्रत्येक व्यक्ति और राष्ट्र के विचारों पर उदारता और निष्पक्षता पूर्वक विचार करें। उससे हमारा दृष्टिकोण दुराग्रही और एकांगी नहीं होगा। ... प्राचीनकाल से ही समाज शास्त्रीय और अशास्त्रीय विसंवादों से जूझता रहा है, बु' और तर्क के आक्रमणों को सहता रहा है, आस्था और ज्ञान के थपेड़ों को झेलता रहा है। तब कहीं एक लम्बे समय के बाद उसे यह अनुभव हुआ कि इन बौद्धिक विषमताओं के तीखे प्रहारों से निष्पक्ष और निर होकर मुक्त हुआ जा सकता है, शान्ति की पावन धारा में संगीतमय गोते लगाये जा सकते हैं और वादों के विषैले घेर को मिटाया जा सकता है। इसी तथ्य और अनुभूति ने अनेकान्तवाद को जन्म दिया और इसी ने सर्वोदयदर्शन की रचना की। समाज की अनैतिकता को मिटाने तथा शुद्ध ज्ञान और चरित्र का आचरण करने की दृष्टि से अनेकान्तवाद और सर्वोदयदर्शन एक अमोघ सूत्र है। समता की भूमिका पर प्रतिष्ठित होकर आत्मदर्शी होना उसके लिए आवश्यक है, समता मानवता की सही परिभाषा है, समन्वयवृत्ति उसका सुन्दर अंबर है, निर्मलता और निर्भयता उसका फुलस्टाप है, अपरिग्रहीवृत्ति और असाम्प्रदायिकता उसका पैराग्राफ है। अनेकान्त और सर्वोदय चिन्तन की दिशा में आगे बढ़ने वाला समाज पूर्ण अहिंसक ओर आध्यात्मिक होगा। सभी के उत्कर्ष में वह सहायक होगा। उसके साधन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) और साध्य पवित्र होंगे। तर्क शुष्कता से हटकर वास्तविकता की ओर बढ़ेगा। हृदय-परिवर्तन के माध्यम से सर्वोदय की सीमा को छुएगा। चेतना-व्यापार के साधन इन्द्रियां और मन संयमित होंगे। सत्य की प्रमाणिकता असंदिग्ध होती चली जायेगी। सापेक्षिक चिन्तन व्यवहार के माध्यम से निश्चय तक क्रमश: बढ़ता चला जायेगा, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर, बहिरंग से अन्तरंग की ओर सांव्यावहारिक से पारमार्थिक, की ओर, ऐन्द्रयिक ज्ञान से आत्मिक ज्ञान की ओर। अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन समाज के लिए वस्तुत: एक संजीवनी है। वर्तमान संघर्ष के युग में अपने आपको सभी के साथ मिलने-जुलने का एक अभेद्य अनुदान है, प्रगति का एक नया साधन है, पारिवारिक द्वेष को समाप्त करने का एक अनुपम चिंतन है, अहिंसा और सत्य की प्रतिष्ठा का केन्द्रबिन्दु है, मानवता की स्थापना . में नीव का पत्थर है, पारस्परिक समझ और सह अस्तित्व के क्षेत्र में एक सबल लेंप पोष्ट है। उसकी उपेक्षा विद्वेष और कटता का आवाहन है, संघर्षों की कक्षाओं का प्लाटं है, विनाश उसका क्लायमेक्स है, विचारों और दृष्टियों की टकराहट तथा व्यक्ति-व्यक्ति के बीच खड़ा हुआ एक लम्बा गैप वैयक्तिक और सामाजिक संघर्षों को लांघकर राष्ट्र और विश्वस्तर तक पहुंच जाता है। हर संघर्ष का जन्म विचारों का मतभेद और उसकी पारस्परिक अवमानना से होता है। बुद्धिवाद उसका केन्द्रबिन्दु है। अनेकान्तवाद बुद्धिवादी होने का आग्रह नहीं करता, आग्रह से तो वह मुक्त है ही पर वह इतना अवश्य कहता है कि बुद्धिनिष्ठ बनो। बुद्धिवाद खतरावाद है, विद्वानों की उखाड़-पछाड़ी है। पर बुद्धिनिष्ठ होना खतरा और संघर्षों से मुक्त होने का साधन है। यही सर्वोदयवाद है। इसे हम मानवतावाद भी कह सकते हैं जिसमें अहिंसा, सत्य, सहिष्णुता, समन्वयात्मकता, सामाजिकता, सहयोग, सद्भाव और संयम जैसे आत्मिक गुणों का विकास सन्निहित है। सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान भी इसकी सीमा से बहिर्भूत नहीं रखे जा सकते। व्यक्तिगत, परिवारगत, संस्थागत और सम्प्रदायगत विद्वेष की विषैली आग का शमन भी इसी के माध्यम से होना संभव है। अत: सामाजिकता के मानदण्ड में अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद खरे उतरे हैं। ___धर्म के साथ एकात्मकता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की शृंखलां से सम्बद्ध है। राष्ट्रीयता का जागरण उसके विकास का प्राथमिक चरण है। जन-मन में शान्ति, सह अस्तित्व और अहिंसात्मकता उसका चरम बिन्दु है। विविधता में पली-पुसी एकता सौजन्य और सौहार्द को जन्म देती हुई “परस्परोपग्रहो जीवानाम'' का पाठ पढ़ाती है। जैन भावकाचार व्यवस्था ने उस एकात्मकता को अच्छी तरह परखा भी और संजोया भी। अपने विचारों में उसे जैनाचार्यों और तीर्थङ्करों ने समता, पुरुषार्थ और Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) स्वावलम्बन को प्रमुखता देकर जीवन को एक नया आयाम दिया। श्रमण संस्कृति ने वैदिक संस्कृति में धोखे-धाखे से आयी विकृत परंपराओं के विरोध में जेहाद बोल दिया और देखते ही देखते समाज का पुन: स्थितिकरण कर दिया। यद्यपि उसे इस परिवर्तन में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा पर अन्ततोगत्वा उसने एक नये समाज का निर्माण कर दिया। इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता और दृढ़ता थी जिसे उसने थाती मानकर कठोर झंझावातों में भी अपने आपको संभाले रखा। जीवन के यथार्थता प्रामणिकता से परे होकर नहीं हो पाती। साध्य के साथ साधनों की पवित्रता भी आवश्यक है। साधन यदि पवित्र और विशुद्ध नहीं होंगे, बीज यदि सही नहीं होंगे तो उससे उत्पन्न होने वाले फल मीठे कैसे हो सकते हैं? जीवन की -सत्यता ही धर्म है। धोखा-प्रवंचना जैसे असामाजिक तत्वों का उसके साथ कोई सामंजस्य नहीं। धर्म और है भी क्या? धर्म का वास्तविक सम्बन्ध खान-पान और दकियानूसी विचारधारा से जुड़े रहना नहीं, वह तो ऐसी विचार क्रान्ति से जुड़ा है जिसमें मानवता और सत्य का आचरण कूट-कूट कर भरा है। एकात्मकता और सर्वोदय की पृष्ठभूमि में जीवन का ही रूप पलता-पुसता है। 'आज की भौतिकताप्रधान संस्कृति में जैनधर्म सर्वोदयतीर्थ का काम करता है। जैन धर्म वस्तुत: एक मानव धर्म है उसके अनुसार व्यक्ति यदि अपना जीवन-रथ चलाये तो वह ऋषियों से भी अधिक पवित्र बन सकता है श्रावक की विशेषता यह है कि उसे न्याय-पूर्वक धन-सम्पत्ति का अर्जन करना चाहिए और सदाचारपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। सर्वोदय दर्शन में परहित के लिए अपना त्याग आवश्यक हो • जाता है जैनधर्म ने उसे अणुव्रत किंवा परिमाणव्रत की संज्ञा दी है। इसमें श्रावक अपनी आवश्यकतानुसार सम्पत्ति का उपभोग करता है और शेष भाग समाज के लिए बांट देता है। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्तवाद तथा शिक्षाव्रतों का परिपालन भी अत्मोन्नयन और समाजोत्थान में अभिन्न कारण सिद्ध होता है। ... सर्वोदय और विश्व-बंधुत्व के स्वप्न को साकार करने में भगवान महावीर के विचार नि:संदेह पूरी तरह सक्षम हैं, उसके सिद्धान्त लोकहितकारी और लोक संग्राहक हैं। समाजवाद और अध्यात्मवाद के प्रस्थापक हैं। उनसे समाज और राष्ट्र के बीच पारस्परिक समन्वय बढ़ सकता है और मनमुटाव दूर हो सकता हैं। इसलिये विश्वशांति को प्रस्थापित करने में अमूल्य कारण बन सकते हैं। महावीर इस दृष्टि से ही दृष्टा और सर्वोदयतीर्थ के सही प्रणेता थे। मानव मूल्यों को प्रस्थापित करने में उनकी यह विशिष्ट देन है जो कभी भुलायी नहीं जा सकती। इस संदर्भ में यह आवश्यक है कि आधुनिक मानस धर्म को राजनीतिक हथकण्डा न बनाकर उसे मानवता को प्रस्थापित करने के साधन का एक केन्द्रबिंदु Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) माने। मानवता का सही साधक वह है जिसकी समूची साधना समता और मानवता पर आधारित हो और मानवता के कल्याण के लिए उसका मूलभूत उपयोग हो। एतदर्थ खुला मस्तिष्क, विशाल दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता अपेक्षित है। महावीर के धर्म की मूल आत्मा ऐसे ही पुनीत मानवीय गुणों से सिंचित है और उसकी अहिंसा वंदनीय तथा विश्वकल्याणकारी हैं और न सामाजिक सन्तुलन बनाये रखा जा सकता है। यही उनका सर्वोदयतीर्थ है। इस सिद्धान्त को पाले बिना न पर्यावरण विशुद्ध रखा जा सकता है और न संघर्ष टाला जा सकता है। ९. आध्यात्मिक पर्यावरण और सामाजिक सन्तुलन संसार प्रकृति की विराटता का महनीय प्रांगण है, भौतिक तत्त्वों की समग्रता का सांसारिक आधार है और आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने का महत्त्वपूर्ण संकेत. स्थल है। प्रकृति की सार्वभौमिक और स्वाभाविकता की परिधि असीमित है, स्वभावत: यह विशुद्ध है, पर भौतिकता के चकाचौंध में फसकर उसे अशुद्ध कर दिया जाता है। प्रकृति का कोई भी तत्त्व निरर्थक नहीं हैं उसकी सार्थकता एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। : सारे तत्त्वों की अस्तित्व-स्वीकृति समाज का निश्चल सन्तुलन है और उस अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देना उस सन्तुलन को डगमगा देना है। पर्यावरण का यह असन्तुलन अनगिनत आपत्तियों का आमन्त्रण है जो हमारी सांसारिकता और वासना से जन्मा है, पनपा है। सांसारिकता और वासना यद्यपि अनादिकालीन मैला आंचल है पर प्राचीन काल में वह इतना मैला नहीं हुआ था जितना आज हो गया है। जनसंख्या की बेहताशा बृद्धि ने समस्याओं का अंबार लगा दिया और प्रकृति में छेड़छाड़ कर विप्लव-सा खड़ा कर दिया। इसलिए उन्होंने लोगों को सचेत करने के लिए प्रकृति के अपार गुण गाये, उसकी पूजा की, काव्य में उसे प्रमुख स्थान दिया, ऋतु-वर्णन को महाकाव्य का अन्यतम लक्षण बनाया, रस को काव्य का प्रमुख गुण निर्धारित किया और काव्य की सम्पूर्ण महत्ता और लाक्षणिकता के प्रकृति के सुरम्य आंगन में पुष्पाया। दूसरे शब्दों में प्रकृति की गोद में काव्य का जन्म हुआ और उसी में पल-पुसकर वह विकसित हुआ। पर्यावरण के प्रदूषित होने का भय भी वहां अभिव्यंजित है। १०. श्रावकाचार और पर्यावरण __ वस्तुत: जीव अथवा व्यक्ति और पर्यावरण अन्योन्याश्रित है। उनके पृथक्-पृथक् अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां प्राथमिक स्तर पर पर्यावरण के कारणों के रूप में पृथ्वी (मृदा), जल, अग्नि, वायु आदि को लिया जा सकता है। यहां हम इनके प्रदूषण पर विचार करेंगे और देखेंगे कि जैनाचार्य इस समस्या को किस रूप Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) में देखते रहे हैं और श्रावकाचार को प्रतिष्ठित कर किस प्रकार पर्यावरण की सुरक्षा की है। वस्तुत: पर्यावरण सुरक्षित रखना ही श्रावकाचार की पृष्ठभूमि है। लगता है, जैनाचार्य पर्यावरण की समस्या से भलीभांति परिचित थे और प्रदूषण की सम्भावनायें उनके सामने थीं। इसलिए सबसे पहली व्यवस्था उन्होंने दी-व्यक्ति यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक ठहरे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोये, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक बोले तो इस प्रकार के संयत जीवन से वह पाप कर्मों में नहीं बंधता। ___ जैन परम्परा में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव पर्यावरण के प्रथम संवाहक महापुरुष थे जिन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव के अस्तित्व की अवधारण दी और उनकी रक्षा के लिए अहिंसा को व्यापक बनाया। उन्होंने पर्यावरण की परिधि को भी असीमित कर दिया। यह अहिंसा मात्र स्थावर कायिक जीवों तक ही नहीं रही, बल्कि त्रस जीव भी इस परिधि में सम्मिलित हो गये। इसी के साथ आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि वे सारे क्षेत्र भी आ गये जिनका सम्बन्ध व्यक्ति और समाज से रहता है। उन सारे क्षेत्रों के पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने के सिद्धान्त में जैनधर्म ने जो सिद्धान्त दिये वे अनुपम, अकाट्य और मानवता को छूने वाले थे। प्राचीन जैन साहित्य में पर्यावरण के ये सिद्धान्त बिखरे पड़े हैं। जैनाचार्यों ने श्रावकाचार के रूप में विशेष रूप से उन्हें उपन्यस्त किया हैं। हमने इन सिद्धान्तों को यहां एकत्रित करने का प्रयत्न किया है और बताया है कि जैनधर्म कदाचित् प्राचीनतम धर्म है जिसने पर्यावरण को इतनी गहराई से समझा है और उसे धर्म और मानवता से जोड़ा है। अब हम सभी एक दूसरे के साथ अद्वैत रूप में इतने अधिक जुड़ गये हैं कि किसी को भी अलग करके नहीं देखा जा सकता है। एक का सुख दूसरे का सुख है और एक का दुःख दूसरे का दुःख है। किसी एक वर्ग द्वारा की गई असावधानी से दूसरा वर्ग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। श्रावकाचार की यही मूल भूमिका है। असावधानी ही आसक्ति हैं। तृष्णा और लोभ से सारा पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है। एक राष्ट्र ने अणु-विस्फोट किये तो दूसरे राष्ट्र उससे प्रभावित हो जाते हैं। सारी आवहवा और पानी प्रदूषित हो जाता है। इसी तरह एक ग्रह के विस्फोट से दूसरे ग्रह का वातावरण बदल जाता है। सूर्य सौर्यमण्डल का केन्द्र है समूची पृथ्वी और उस पर रहने वाले मनुष्य, पशु-पक्षी, सूर्य के कृतज्ञ हैं। उनका सारा जीवन सूर्य पर आधारित है। जल, वर्षा, वृक्ष, स्वास्थ्य, भोजन, आवास, वायु सब कुछ सूर्य के बिना हो ही नहीं सकता। सूर्यमण्डल के परिवर्तन से हमारा जीवन प्रभावित हो जाता है। पृथ्वी, चन्द्र, नक्षत्र आदि Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) सभी सौर्यमण्डल के सदस्य हैं। सौरमण्डल आकाश-गगन का अंश हैं आकाश-गगन ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित है । भूकम्प, ज्वारभाटा आदि जैसे प्रकृति के प्रकोप भी सौरमण्डल कारण होते हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी ग्रहों से प्रभावित होती है और ग्रह पृथ्वी से प्रभावित होते हैं । प्राकृतिक और कृत्रिम गैसों, विस्फोटों के विकरण से ग्रहों पर हुए प्रभाव का अनुभव सभी ने किया ही है। मिश्र, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रान्स आदि देशों में सौरमण्डल पर हुए शोधप्रबन्धों से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि पहाड़ों पर अधिक बर्फ जमना, वर्षा आना, सूखा पड़ना, भूमिस्खलन होना, ज्वार-भाटा आना आदि सब कुछ सौरमण्डल के प्रभाव से होता है। जैन पम्परा में उत्सर्पिणी और अपसर्पिणी का जो विवरण मिलता है वह वस्तुत: सौरमण्डल की गति-स्थिति से बहुत जुड़ा हुआ है। पुराणों में भी इसी प्रकार का वर्णन संवर्त - विवर्त आदि रूप में मिलता है । यह सब पर्यावरण का ही भाग है। पर्यावरण की सुरक्षा ही हमारे अस्तित्व की सुरक्षा है। इसी अस्तित्व की सुरक्षा के लिए धर्म का जन्म हुआ है। जैन धर्म प्रकृतिवादी है और उसने प्रकृति को सुरक्षित रखने के लिए आत्मतुला सिद्धान्त को प्रस्थापित कर अहिंसा को नया आयाम दिया है। अणु-परमाणु बम की होड़ में आज सारा विश्व तृतीय विश्वयुद्ध के कगार पर पहुंच गया है। उसका अधिकांश धन सुरक्षा पर खर्च हो रहा है। ऐसी स्थिति में महावीर का यह वाक्य स्मरणीय है — “ णत्थि असत्थं परेण परं" अशस्त्र में कोई परम्परा नहीं प्रतिक्रिया नहीं, महाविनाश से बचने का उपाय अहिंसा का पालनकर प्रतिक्रिया से बचना है। जैनाचार्यों का यही चिन्तन रहा है । पर्यावरण को सुरक्षित रखकर जीवन को सुखी और निरामयी बनाने के लिए जैन तीर्थङ्करों और उनके अनुयायी आचार्यों ने जीवन को धर्म और अध्यात्म से जोड़ दिया है। अहिंसा और अपरिग्रह के आधार पर बारह व्रतों का परिपालन और व्यसन मुक्त जीवन पद्धति का अंगीकरण कराकर सर्व साधारण जनता को पर्यावरण सुरक्षित रखने का जो पाठ दिया है वह वे मिसाल है। धर्म को दया और संयमादि जैसे मानवीय गुणों के साथ जोड़कर अन्तश्चेतना को झंकृत कर दिया है। प्रकृति को राष्ट्रीय सम्पत्ति मानकर उसे सुरक्षित रखने का विशेष आह्वान जैनाचार्यों की देन है। अंग, उपांग, टीकायें, चूर्णियां, आध्यात्मिक और साहित्यिक ग्रन्थ लिखकर उन्होंने प्रारम्भ से ही जबर्दस्त आन्दोलन छेड़ दिया था और कथाओं के माध्यम से भी यह स्पष्ट कर दिया था कि जीवन में जबतक अहिंसा और अपरिग्रह का परिपालन नहीं होगा, व्यक्ति और समाज सुखी नहीं रह सकता। इसी दृष्टि से उन्होंने श्रावकाचार का निर्माण कर एक नयी दिशा दृष्टि दी थी। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) · जीवन का हर पक्ष काव्य का परिसर है और उसकी हर घड़कन आगम का प्रतिबिम्बन है। जिस संस्कृति ने जीवन को जिस रूप में समझा है उसने अपने आगम में उसे वैसा ही प्रतिरूपित किया है। जैन आगम श्रमण धारा का परिचायक है। इसलिए उसके आगम में उसी रूप में जीवन को समझने के सूत्र गुम्फित हैं। इन्हीं सूत्रों ने जीवन दर्शन को समझने और सामाजिक क्षेत्र को संतुलित बनाये रखने का अमोघ कार्य किया है। ११. वर्तमान समस्या और जैनधर्म आज की सामाजिक सन्तुलन समस्या व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो गई है। उसने समाज और राष्ट्र की सीमा को लांघकर अन्तराष्ट्रीय सीमा में प्रवेश कर लिया है। राग-द्वेषादिक विकारों से ग्रस्त होकर व्यक्ति और राष्ट्र पारस्परिक संघर्ष कर रहे हैं और विनाश के कगार पर खड़े हो गये हैं। यह संघर्ष सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों में घर कर गया है। इसलिए सभी धार्मिकों का ध्यान इस ओर वरवश खिंच गया है और उन्होंने अपने-अपने आगमों में से अपने-अपने ढंग से सामाजिक सन्तुलन के सिद्धान्त, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आचरण-संहिता का निर्माण, कार्यान्वयन का तरीका, आर्थिक संसाधनों के उपयोग में सामाजिक दूरदृष्टि, आध्यात्मिक चेतना का जागरण आदि जैसे सिद्धान्तों को प्रकाशित करने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है। .. . . धर्म की समन्वित परिभाषाओं में जैनधर्म अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक खरा उतरा है। सामाजिक सन्तुलन का सम्बन्ध मानवता और अहिंसा के परिपालन से रहा है जो जैनधर्म की अनुपम विशेषता है इसलिए हम यह कह सकते हैं कि जैनधर्म मानवता का पर्यायार्थक है, प्रकृति का गहरा उपासक है और अहिंसा का सूक्ष्मदर्शी है। इसलिए यह राष्ट्रधर्म है, व्यक्ति और समष्टि का धर्म है। विधि-निषेध के माध्यम से जैनधर्म सन्तुलन बनाये रखने की महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्माण करता है। भौतिकवादी संसाधनों से दूर रहकर, आकांक्षाओं और महत्त्वाकांक्षाओं को सिकोड़कर वह ऐसा सीधा-सादा निरपेक्ष पथ देता है जिससे किसी भी प्रकार का पर्यावरण दूषित नहीं होता। अहिंसा-साधना के बल पर सभी जीवों की रक्षा स्वभावत: होती रहती है और पारस्परिक सहयोग, सद्भाव, समन्वय और सन्तोष से प्रतिक्रिया हीन जीवन बिताने का पथ प्रशस्त हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन में श्रावकाचार की और धर्म की यही भूमिका है। जैनधर्म का समूचा साहित्य इसका प्रमाण है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) २. श्रावकाचार और सामाजिक सन्तुलन पिछले अध्याय में हमने यह देखा कि जैनधर्म प्राणिमात्र के प्रति गहन संरक्षण का भाव रखता है। वह किसी भी कीमत पर किसी की भी हिंसा को प्रश्रय नहीं देता बल्कि यह उपदेश देता है कि कोई किसी को दुःख न पहुँचाये, यहाँ तक कि पेड़-पौधे भी न काटे जायें। जैनधर्म की यही मानवता है और इसीलिए उसे हम मानवधर्म कहां.. सकते हैं। २.१. श्रावकाचार : एक जीवन पद्धति मानवधर्म की प्रारम्भिक पाठशाला है घर । सामाजिक सन्तुलन बनाये रखने का विधान गृहस्थावस्था से ही शुरु होता है। जैनाचार्यों ने इस अवस्था को सागार, उपासक, श्रावक आदि नामों से अभिधानित किया है। इन नामों में "श्रावक" शब्द का प्रयोग अधिक लोकप्रिय हुआ है। पंचास्तिकाय (गाथा १) में श्रावक शब्द का ही प्रयोग हुआ है अतः हम यहाँ श्रावकाचार का वर्णन विशेषरूप से करेंगे समाज के संदर्भ में। समाज बहुसंदर्भित शब्द है, जीवन के हर पहलू से वह जुड़ा हुआ है। अतः श्रावकाचार को भी विविध पहलुओं से जोड़ना पड़ेगा । यहाँ हमारा यह प्रयत्न रहेगा कि हम समाज की दृष्टि से उनकी आचारव्यवस्था को समझें और देखें कि श्रावक तथा मुनि किस प्रकार से आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र को विशुद्धबनाने का प्रयत्न करता है जैनाचार वस्तुत: एक जीवन पद्धति है जो पूर्ण विशुद्धता पर बल देती है। गेही, सामाजिक विषाक्तता को देखते हुए आज यह आवश्यक हो गया है कि व्यक्ति के चिन्तन में मोड़ लाया जाये और सामाजिकता के प्रति जाग्रति पैदाकर धार्मिक प्रदूषण को समाप्त किया जाये। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यकता यह है कि व्यक्ति को इसकी आवश्यकता की अनुभूति हो जाये कि उसे समाज में सुधार लाना जरूरी है। इसके लिए उसमें रुचि पैदा करनी होगी । जैनागम में रुचि के दस भेद मिलते हैं - निसर्ग रुचि, उपदेश रुचि, विस्तार रुचि, क्रिया रुचि, संक्षेप रुचि, धर्म रुचि आदि। धर्म रुचि पैदाकर दायित्व बोध करा देना समाज में नया मोड़ ला देता है । इसलिए इस परिवर्तन में हम धर्म और अध्यात्म. के माध्यम से व्यक्ति और समाज को विशुद्ध बनाये रखने का जैनाचार्यों का विधान प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। यह विधान अहिंसा और अपरिग्रह पर आधारित है। धर्म की सारी परिभाषायें इन्हीं पर केन्द्रित हो जाती हैं। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) २. जैनाचार समाज का मुख्य संरक्षक जैनाचार समाज का मुख्य संरक्षक है। जैनाचार्यों ने व्यक्ति को प्रकृतिस्थ बनाने के लिए ऐसी जीवन पद्धति दी है जो उसे सुन्दर आध्यात्मिक भाव भूमि तैयार कर देती है। यह भावभूमि है अहिंसा और अपरिग्रह की जिसपर चलकर कोई भी व्यक्ति दूसरे को न कष्ट दे सकता है और न अनैतिक मार्ग पर चल सकता है। सामाजिक पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने में ये दो ही अंग विशेष साधक माने जाते हैं। यहाँ हमने इन अंगों को पारम्परिक आधार पर श्रावकाचार के रूप में विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जायेगा कि जैनधर्म की दृष्टि से समूचे समाज को किस प्रकार संयमित रखा जा सकता है। . जैन साधना के क्षेत्र में सम्यक् आचार निर्वाण की प्राप्ति के लिये एक विशुद्ध साधन माना गया है। इसका वर्णन संवर और निर्जरा के अन्तर्गत आता है कर्मों की निर्जरा करने और आत्मा को विशद्धावस्था में लाने के लिए साधक क्रमश: श्रावक और मुनि आचार का परिपालन करता है और आध्यात्मिक विकास की सीढियाँ चढ़ता चला जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक यह है कि उसका सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की सुदृढ़ भित्ति पर आधारित हो। साधना की इस परम और चरम दशा में पहुँचने के लिए साधक को क्रमश: श्रावक और मुनि आचार की साधना अपेक्षित हो जाती है। . ३. श्रावकाचार साहित्य . जैन साहित्य में आचारसंहिता पर पृथक् रूप से आचार्यों ने संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश में अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया है। श्रावकाचार के क्षेत्र में उपासकदशांग, श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र आदि कुछ आगम ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं जिनमें श्रावकों के आचार की रूपरेखा मिलती है आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त आचार्यों का जो साहित्य इस विषय पर प्राप्त होता है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है भाषा १. कुन्दकुन्द(लगभग प्रथम शती ई.) अघृपाहुड विशेषतः चरित्र पाहुड में प्राप्त मात्र छह गाथायें (२९५ __-३०१) तथा रयणसार प्राकृत २. स्वामी कार्तिकेय कट्टिगेयाणुवेक्खा ___(ल. द्वितीय शती ई०) (धर्मभावना के अन्तर्गत) . प्राकृत ३. उपासगदासाओ (ल. द्वितीय शती) प्राकृत __४. उपास्वाति (ल. चतुर्थ शती ई.) तत्त्वार्थ सूत्र (सप्तम अध्याय) संस्कृत आचार्य ग्रन्थ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) ५. समन्तभद्र (ल. चतुर्थ शती ई.) रत्नकरण्डश्रावकाचार संस्कृत .. ६. हरिभद्रसूरि (आठवीं शती) सावयपण्णत्ति (?) तथा । प्राकृत .. सावयधम्मविहि प्राकृत धर्मबिन्दू संस्कृत . ७. देवसेन (९-१० वीं शती) दर्शनसार प्राकृत ८. जिनसेन (८-९ वीं सती) आदिपुराण (पर्व ४०) संस्कृत ९. सोमदेव (१० वीं शती) यशस्तिलक चम्पू उपासका- . संस्कृत ध्ययन संस्कृत संस्कृत १०. चामुण्डराय (१० वीं शती) चारित्रसार - ११. भावसेन (१० वीं शती) भावसंग्रह - प्राकृत १२. अमितगति (१० वीं शती) अमितगतिश्रावकाचार संस्कृत १३. जिनेश्वरसूरि (११ वीं शती) षट्स्थान. प्रकरण प्राकृत १४. अमृतचन्द्र (१०-११ वीं शती) पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय , १५. वसुनन्दि (११-१२ वीं शती) वसुनन्दी श्रावकाचार . . प्राकृत १६. शान्तिसूरि (१२ वीं शती) धर्मरत्न प्रकरण प्राकृत १७. आशाधर (१२३९ ई०) सागार धर्मामृत . संस्कृत १८. जिनेश्वरसूरि (१२५६ ई०) श्रावकधर्मविधि. संस्कृत १९. गुणभूषण (१४-१५ वीं शती) श्रावकाचार । • संस्कृत २०. देवेन्द्रसूरि (१४ वीं शती) सड्डजीवकप्प प्राकृत २१. लक्ष्मीचन्द्र (१५ वीं शती) सावयधम्मदोहा (?) .. अपभ्रंश २२. जिनमण्डनगणि (१५ वीं शती) श्राद्धगुणविवरण संस्कृत २३. रत्नशेखर सूरि (१४४९ ई०) सड्ढविहि प्राकृत २४. राजमल्ल (१७ वीं शती) लाटी संहिता संस्कृत २५. कुन्थुसागर (२० वीं शती) श्रावकधर्मप्रदीप संस्कृत ४. श्रावकाचार के प्रतिपादन के प्रकार जैन साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन साधारणतः छः प्रकार से मिलता है। किसी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) ने ग्यारह प्रतिमाओं का आधार लिया है, तो किसी ने बारह व्रतों का और किसी ने पक्ष, चर्या और साधक आदि भेद किये हैं(१) ग्यारह प्रतिमाओं का आधार लेकर श्रावकाचार का प्रतिपादन करने वालों में आचार्य कुन्दकुन्द (चारित्र प्राभृत, २२), स्वामी कार्तिकेय और वसुनन्दि प्रमुख हैं। (२) बारह व्रतों का आधार बनाकर आचार्य उमास्वामी (तत्त्वार्थसूत्र, सप्तम अध्याय) और समन्तभद्र तथा हरिभद्र जैसे चिन्तकों ने श्रावकों की आचार-प्रक्रिया बतायी है। सल्लेखना को भी इसमें रखा गया है। अष्ट मूलगुणों का पालन भी आवश्यक बताया है। (३) उपासकदशांग में बारह व्रतों के साथ हा ग्यारह प्रतिमाओं का भी वर्णन किया गया है। लगता है, इसमें कुन्दकुन्द और उमास्वामी की परम्पराओं को सम्मिलित करने का प्रयास हुआ है। (४) कुछ आचायों ने श्रावकों को तीन श्रेणियों में विभाजित कर उनकी चर्या का विधान किया है- पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। आचार्य जिनसेन, सोमदेव और आशाधर उनमें प्रमुख हैं। (५) चारित्रसार (४१.३) में श्रावक के चार भेद मिलते हैं— पाक्षिक, चर्या, नैष्ठिक और साधक। . (६) हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्द (११) में सामान्य और विशेष धर्म का आख्यानकर श्रावकाचार का प्रतिपादन किया है। श्रावकाचार के उपर्युक्त प्रतिपादन प्रकारों को देखने से ऐसा लगता है कि धर्मसाधना का वातावरण जैसे-जैसे धूमिल होता गया, श्रावकों की भी आचारप्रक्रिया वैसी-वैसी ही व्यस्थित और समयानुकूल होती गई। परन्तु यहाँ दृष्टव्य है कि प्रतिपादन के प्रकारों में बदलाहट के बावजूद जैन सभ्यता के मूल रूप में कोई विशेष अन्तर नहीं आया बल्कि व्याख्या के दौरान वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय धर्म का रूप लेता रहा। इस दृष्टि से अंतिम तीनों प्रकार विशेष उपयोगी है यहाँ विवेचन करते समय हमने उन्हीं को आधार बनाया है। ५. श्रावकाचार सामाजिक सन्तुलन की आधार-भूमि जैन साधना के क्षेत्र में सम्यक् आचार निर्वाण की प्राप्ति के लिए एक विशुद्ध साधन माना गया है। इसका वर्णन संवर और निर्जरा के अन्तर्गत आता है। कर्मों की निर्जरा करने और आत्मा को विशुद्धावस्था में लाने के लिए साधक क्रमशः श्रावक और मुनि आचार का परिपालन करता है और आध्यात्मिक विकास की सीढ़ियाँ चढ़ता चला Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक यह है कि उसका सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की सुदृढ़ भित्ति पर आधारित हो। साधना की इस परम और चरम दशा में पहुंचने के लिए साधक को क्रमशः श्रावक और मुनि आचार की साधना अपेक्षित हो जाती है। इस साधना को हम सामाजिक सन्तुलन को आधार भूमि मानकर चलें। वही उसकी आचार संहिता है। यही उसका कल्याणकारी धर्म है। श्रावकाचार आचार संहिता का प्रथम सोपान है। श्रावक को ही उपासक और श्रामणोपासक कहा जाता है। वह अल्पक्रिया और अल्पकर्मा होने के कारण अणुव्रती होता है और महाव्रती होने की तैयारी में रहता है। इसलिए उसकी सारी जीवन प्रक्रिया दर्पण के समान सुस्पष्ट और विशद रहती है। तथ्य तो यह है कि सही श्रावक होना खरकण्टक के समान है, सरल नहीं है। श्रावक की आचार-संहिता आध्यात्मिक क्षेत्र के लिए एक आधारशिला है। उसका जीवन सार्वभौम. और सर्वहितकारी होना चाहिए। अन्तर्दृष्टि निर्मल और धनार्जन न्याय पूर्वक हो। इसी आधार पर साधारणत: उसके दो भेद किये जाते हैं सामान्य मार्गानुसारी और विशेष श्रावक। मार्गानुसारी श्रावक, पापभीरू, सत्संगी, शिष्टाचारी, न्यायर्जक, . त्रिवर्गसाधक, कृतज्ञ, सौम्य, सलज्ज, परोपकारी, इन्द्रियजयी होता है। इन गुणों से उसकी आध्यात्मिक पिपासा बढ़ती है और सम्यक्त्वपूर्वक व्रत पालन की दिशा में अग्रसर हो जाता है। सामायिक-प्रतिक्रमण, बारहव्रत ग्रहण, दुर्व्यसनत्याग, धर्मश्रवण, प्रतिमाग्रहण आदि अधिष्ठानों से वह अपने जीवन को इतना सुव्यवस्थित कर लेता है कि वहाँ सामाजिक प्रदूषण की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। 'श्रावक' पद में तीन शब्द हैं- श्रा-व-क। यहाँ 'श्री' शब्द तत्त्वार्थ श्रद्धान को व्यक्त करता है, 'व' शब्द धर्मक्षेत्र में धनरूप बीज बोने की प्रेरणा देता है और 'क' शब्द महापापों को दूर करने का संकेत करता है। (अभिधान राजेन्द्र कोश, सांवय शब्द) इसका तात्पर्य है श्रावक वह है जिसमें श्रद्धा, धर्मश्रवण, दान तथा संयम है। श्रद्धा स्वानुभूति पर आधारित है जो यथार्थ देव, गुरु, धर्म और शास्त्राध्ययन से उत्पन्न होती है। कहीं-कहीं श्रावक के लिए माहण शब्द का भी प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ होता है जो किसी की हिंसा नहीं करे। पर्यावरण की दृष्टि से यह परिभाषा सटीक और सयुक्तिक है। समवायांग और वसुनन्दि ने श्रावक को दो भागों में विभक्त किया है दर्शन श्रावक और व्रती श्रावक।' दर्शनश्रावक का चतुर्थ गुणस्थान होता है और व्रती श्रावक का पंचम . गुणस्थान। दिगम्बर परम्परा में उसके तीन प्रकारों का वर्णन मिलता है- पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। प्रथम सामान्य है और शेष दोनों विशेष हैं। अन्तर यह है कि नैष्ठिक साधक प्रतिमा-ग्रहण पूर्वक आगे बढ़ता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) प्रतिमा-ग्रहण का कोई पृथक् विधान नहीं है। व्रतों के अभ्यास के बाद यहाँ साधक श्रमण पर्याय में चला भी जाता है और नहीं भी। परन्तु दिगम्बर परम्परा में वह प्रतिभाधारी ही रहता है या मुनि रूप धारण कर लेता है पर व्रतावस्था में लौटता नहीं है। इसलिए उसे वहाँ साधक कहा गया है। श्रावक इन व्रतानुष्ठानों का परिचालन कर स्वयं के जीवन को परिशुद्ध बना लेता है, साथ ही अपने परिकर में रहने वाले लोगों को एक आदर्श जीवन-सूत्र देता है जिससे समूचे समाज का वातावरण पारस्परिक सेवाकारी, सत्यग्रही और सहिष्णु हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन के संदर्भ में यह उसका अमूल्य प्रदेय है। २.१. श्रावक : समाज का संरक्षक ___ श्रावकाचार का तात्पर्य है- गृहस्थ का धर्म। श्रावक (सावग, सावयं) के अर्थ में उपासक और सागार जैसे शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। साधक व्यक्ति अध्ययन, मनन चिन्तन अथवा परोपदेश से जब साधना की ओर चरण मोड़ता है तब हम उसे श्रावक कहने लगते हैं। उसके विचार और कर्म की दिशा परम शान्ति और सुख की उपलब्धि की ओर रहती है पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना का भी उत्तरदायित्व उसके सबल कंधों पर आ जाता है। इसलिए श्रावकाचार व्यक्ति को आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर जाने के पूर्व सामाजिक कर्त्तव्य की ओर खींचता है। और जो व्यक्ति समाजिक कर्त्तव्य को पूरा करता है वह आत्मकल्याण तो करेगा ही, साथ ही मानवता का भी अधिकतम उपकार करेगा। श्रावक का अर्थ भी यही है कि जो आत्मकल्याणकारी वचनों का श्रवण करे वह श्रावक है। श्रावक प्रज्ञप्ति में भी कहा गया है कि सम्यग्दर्शन आदि से युक्त जो व्यक्ति प्रतिदिन यतिजनों के समीप साधु और गृहस्थों के आचार का प्रवचन सुनता है वह श्रावक है संपत्तदंसणाई पयदियह जइ जण सुणेई य। सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं विन्ति।। आशाधर ने श्रावक उसे माना है जो पंच परमेष्ठी का भक्त हो, दान-पूजन करने वाला हो, भेदविज्ञान रूप अमृत को पीने का इच्छुक हो तथा मूलगुणों और उत्तरगुणों का पालन करने वाला हो। इस प्रकार श्रावकों का कर्तव्य धर्मश्रवण और उसका परिपालन, दोनों हो जाते हैं। १. शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक : सागार धर्मामृत, १.१५; सावय पण्णत्ति, गाथा २; सागर-धर्मामृतटीका १.१५; हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दु (१) में 'गृहस्थधर्म' को ही श्रावकधर्म कहा है। २. सागारधर्मामृत, १.१५. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यों ने आगमों का मन्थन कर श्रावकों के गुणों को एकत्रित किया है। जिनमण्डन गणि ने ऐसे ३५ गुणों का उल्लेख किया है जिनका श्रावकों में होना आवश्यक है- (१) न्याय सम्पन्न वैभव, (२) शिष्टाचार की प्रशंसा, (३) कुल एवं शील की समानता वाले उच्च गोत्र के साथ विवाह, (४) पापभीरुता, (५) प्रचलित देशाचार का पालन, (६) राजा आदि की निन्दा से अलिप्तता, (७) योग्य निवासस्थान में द्वारवाला मकान, (८) सत्संग, (९) माता-पिता का पूजन-आदर-सत्कार, (१०) उपद्रव वाले स्थान का त्याग, (११) निन्द्य प्रवृत्तियों से अलिप्तता, (१२) अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार व्यय करने की प्रवृत्ति, (१३) सम्पत्ति के अनुसार वेशभूषां, (१४) सुश्रूषा आदि आठ गुणों से युक्तता, (१५) प्रतिदिन धर्म का श्रवण, (१६) अजीर्णता होने पर भोजन का त्याग, (१७) भूख लगने पर प्रकृति के अनुकूल भोजन, (१८) धर्म, अर्थ और काम का परस्पर बाधा रहित सेवन, (१९) अतिथि, साधु एवं दीन.जन की यथायोग्य सेवा, (२०) सर्वदा कदाग्रह से मुक्ति, (२१०) गुण में पक्षपात, (२२) प्रतिबद्ध देश एवं काल की क्रिया का त्याग, (२३) स्वावलंबन का परामर्श, (२४) व्रतधारी और ज्ञानवृद्धजनों की पूजा, (२५) पोष्यजनों का यथायोग्य पोषण, (२६) दीर्घदर्शिता, (२७) सौम्य आकार, (२८) विशेषज्ञता, (२९) कृतज्ञता, (३०) लोकप्रियता, (३१) लज्जालुता, (३२) कृपालुता, (३३) सौम्य आकार, (३४) परोपकार करने में तत्परता, (३५) अन्तरंग छ: शत्रुओं के परिहार के लिए उद्योगिता और (३६) जितेन्द्रियता। हरिभद्रसूरि ने ऐसे गुणों को गृहस्थों के सामान्य धर्म में अन्तर्भूत किया है। इन गुणों में धर्म के साथ ही अन्य क्षेत्रों से सम्बद्ध साधारण गुणों का भी समावेश कर दिया गया है। श्राद्धविधि में इन्हीं गुणों को संक्षेप में २१ बताया है (१) उदार हृदयी, (२) यशवन्त, (३) सौम्य प्रकृति वाला, (४) लोकप्रिय, (५) अक्रूर प्रकृतिवाला, (६) पाप से भय खाने वाला, (७) धर्म के प्रति श्रद्धावान, (८) चतुर, (९) लज्जावान, (१०) दयाशील, (११) मध्यस्थ वृत्तिवान्, (१२) गंभीर, (१३) गुणानुरागी, (१४) धर्मोपदेशक, (१५) न्यायी, (१६) शुद्ध विचारक, (१७) मर्यादा युक्त व्यवहारक, (१८) विनयशील, (१९) कृतज्ञ (२०) परोपकारी और (२१) सत्कार्य में दक्षा __इन गुणों से युक्त श्रावक निश्चित ही समाज और राष्ट्र का अभ्युत्थानकारी सिद्ध होगा। ये गुण सामाजिक धर्म हैं और सामाजिक प्रदूषण को दूर करने वाले हैं। जीवन १. श्राद्ध गुण विवरण-अगरचन्द नाहटा द्वारा संकलित, जिनवाणी, जनवरी-मार्च, १९७०, पृ. ४५. २. श्रावक समाचारी-रूपचन्द्र जैन, जिनवाणी, जनवरी-मार्च १९७०, पृ. ८०. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) में सफलता प्राप्ति के लिए उनकी नितान्त आवश्यकता होती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि जैसे गुण व्यक्ति के जीवन को स्वर्ग बनाने में समर्थ हो सकते हैं। वसुनन्दि ने उसे “विसुद्धमति' वाला कहा है (२०५) जो सदाचरणता को द्योतित करता है। इसी को अणुव्रती भी कहा जाता है। श्रावकाचार के प्रकारों के आधार पर साधारणत: जैन श्रावक की तीन श्रेणियाँ बतायी गयी है: पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक।' चर्या नामक चौथा भेद भी इसमें जोड़ा गया है। पर इसे पाक्षिक श्रावक के अन्तर्गत रखा जा सकता है, अहिंसा पालन करने वाला श्रावक “पाक्षिक' कहलाता है। श्रावकधर्म का सम्यक् परिपालन करने वाला श्रावक “नैष्ठिक" कहलाता है और आत्मा के स्वरूप की साधना करने वाला श्रावक . “साधक' कहलाता है। आध्यात्मिक साधक की दृष्टि से श्रावक के ये तीन वर्ग अथवा सोपान हैं। इनको जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक भी कहा गया है।६ श्रावक के ये भेद परिनिष्ठित रूप में समझना चाहिए। व्यक्ति श्रावक की इन तीनों अवस्थाओं का परिपालन यदि सही रूप से करता है तो वह ऋषियों से भी अधिक पवित्र माना गया है। श्रावक धर्म का पालन करने वाला वस्तुत: वही हो सकता है जो न्यायपूर्वक धन कमाने वाला हो, गुणों को, गुरुजनों को तथा गणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला हो, हित-मित तथा प्रिय वक्ता हो, धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला हो, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकान सहित हो, लज्जावान् हो, शास्त्र के अनुकूल आहार-बिहार करने वाला हो, सदाचारियों की संगति करने वाला हो, विवेकी, उपकार का जानकार, . जितेन्द्रिय, धर्मविधि का श्रोता, करुणाशील और पापभीरु हों। २. पाक्षिक श्रावक : आत्मिक उन्नति का पहला कदम . साधक की यह प्रथम अवस्था है। इसमें वह धर्म के सर्वसाधारण स्वरूप की ओर झुकता है और आगे बढ़ने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। आध्यात्मिक साधना की ओर उसका झुकान है इसलिए उसे पाक्षिक कहा गया है। पाक्षिक श्रावक का सर्वप्रथम यह कर्तव्य है कि वह सभी प्रकार की स्थूल हिंसा से निवृत्त होकर अहिंसा की ओर अपने पग बढ़ाये। वैर और अशान्ति को पैदा करने वाली हिंसा, प्राणी के जीवन में कभी सुखदायी नहीं हो सकती। अत: परिवार और आस-पड़ौस में अपनी अहिंसावृत्ति १. सागारधर्मामृत, १.२०. २. चारित्रसार, ४०.४. ३. सा. ध. २.२; चा.सा. ४०.४. ४. सा.ध. ३.१. ५. महा. ३९.१४९; चा. सा.४१.२. ६. चा.सा. ४०.३. ७. कुरलकाव्य, ८. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) से शान्ति बनाये रखना नितान्त अपेक्षित है। यह उसका प्रथम कर्त्तव्य है। आत्मिक उन्नति का यह पहला कदम है। ___पाक्षिक श्रावक हिंसा को दौड़ने के लिए सबसे पहले मद्य मांस-मधु और पंच उदुम्बर फलों को छोड दे। इसके बाद वह स्थूल हिंसा-झूठ-चोरी-कुशील और परिग्रह को छोड़कर पंच अणुव्रतों का पालन करे। यथार्थ-देव-शास्त्र-गुरु की पहिचान होना भी उसे आवश्यक है। यथार्थ देव वही हो सकता है जिसमें वीतरागता और निर्दोषता हो। यथार्थ शास्त्र में सम्यक् साधना के दिशाबोध का सामर्थ्य रहता है और यथार्थ देव और यथार्थ शास्त्र दोनों के गुण विद्यमान रहते हैं यथार्थ गुरु में। जिन और सरस्वती की उपासना, सत्संगति, त्याग, परोपकार, सेवा-सुश्रूषा, जन-कल्याण, निश्छलता, माधुर्य, स्वप्रशंसा और परनिन्दा त्याग आदि जैसे मानवीय गुणों का सम्यक् परिपालन . करना भी पाक्षिक श्रावक का प्राथमिक कर्तव्य है अष्टमूलगुण का परिपालन और सप्त. व्यसनों का त्याग भी उसे आवश्यक है इस दृष्टि से उसे सर्वथा अव्रती नहीं कहा जा सकता। दान, पूजा, शील, उपवास ये चार श्रावक-धर्म के लक्षण है। स्वाध्याय, संयम, . तप आदि क्रियाओं का पालन भी एक साधारण श्रावक़ का कर्तव्य माना जाता है। आचार के सन्दर्भ में पाक्षिक श्रावक को आठ मूल गुणों (पंचाणुव्रत, तथा मद्य-मांस-मधु त्याग) का पालन करना आवश्यक है, यह प्राचीनतम रूप रहा होगा। उत्तरकाल में जब धर्म-साधना की ओर झुकाव कम होने लगा तो आचार्यों ने पंचाणुव्रतों के स्थान पर पंचोदुम्बर, फलों (पीपल, बड़, उदुम्बर, मूलर और पिखलन) का त्याग निर्दिष्ट कर दिया। इन फलों में त्रस जीव रहते हैं। अत: उनका भक्षण विहित नहीं माना गया। इनके अतिरिक्त रात्रि-भोजन, त्याग, पानी छानकर पीना, देवदर्शन करना ये तीन कर्तव्य भी पाक्षिक श्रावक के दैनन्दिनी जीवन में जोड़ दिये गये हैं। उनकी दैनंदिनी में षट्कर्मों को भी आवश्यक कहा गया है- देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। ___इन मर्यादाओं और कर्तव्यों का पालन करने से एक साधारण व्यक्ति की आध्यात्मिक भूमिका का सुंदर गठन हो जाता है। वह अग्रिम साधना से कभी विचलित नहीं होता क्योंकि प्राथमिक साधना का वह भरपूर अभ्यास कर चुकता है। पाक्षिक-श्रावक के कर्तव्यों की ओर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति अपने आपको किसी धर्मविशेष से सम्बद्ध नहीं करना चाहते, वे भी यदि उनका समुचित रूप से पालन करें तो मानवता किंवा पर्यावरण के संरक्षण और शान्तिप्रस्थापन करने में उनका महनीय योगदान होना स्वाभाविक है। जैनधर्म में पाक्षिक श्रावक की अहं भूमिका है अहिंसा का परिपालन। यह उक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है। १. सागारधर्मामृत, २.२.१६. २. लाटी संहिता, २.४६-४९. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) ३. श्रावकाचार और पर्यावरण ___ हर प्राणी को अपने अस्तित्व का खतरा है। अहिंसा और पर्यावरण उसे इस खतरे से बचा लेते हैं। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि अहिंसा पर्यावरण का समानार्थक शब्द है बिना अहिंसा के पर्यावरण की न तो सुरक्षा की जा सकती है और न इसे प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। जैनाचार्य इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे। इसलिए उन्होंने समाज को प्रदूषण से बचाने के लिए ऐसी जीवन पद्धति दी है जिससे सामान्य जीव को कष्ट न पहुँचे। इतना ही नहीं, ऐसे नियम भी बना दिये हैं जिनसे न मानसिक रोग हों और न शारीरिक। सारे रोगों की जड़ है तृष्णा, लोभ, राग, मोह, द्वेष और आसक्ति। जैनधर्म इन सारे विकारों को जड़-मूल से नष्ट करने का मार्ग देता है और व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक ढंग से इसके लिए तैयार कर देता है। यह मार्ग अहिंसा और दया का है जो मानवता का अप्रतिम लक्षण है। मानवता ही पर्यावरण है। वेदों में प्रतिपादित हिंसा निश्चित रूप से प्रदूषण का कारण रही होगी तभी जैनों ने उसका पुरजोर खण्डन किया। उन्होंने कहा-हिंसा भी स्थिति में धर्म का कारण नहीं हो सकती चाहे वह सामान्य हिंसा हो या यज्ञ और बलि रूप विशिष्ट हिंसा हो। मारा जाने वाला प्राणी हृदय द्रावक भाषा से, दीनता भरी आंखों से क्रन्दन करता है और फिर मूक पशुओं के मांस का दान करना केवल निर्दयता का ही द्योतक है। वेदोक्त विधि से पशुओं को मारने से यदि स्वर्ग-प्राप्ति है तो फिर नरक जाने के लिए कौन-सा मार्ग बचेगा? . मल्लिषेण ने खण्डन करते हुए यह भी कहा कि- जैनधर्म में आरोग्यबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु जैसे कथन व्यवहारतः कहे गये हैं। उनसे परिणाम विशुद्ध होते हैं। ऐसे कथनों को असत्य-अमृषा कहा जाता है जो १२ प्रकार की हैं- आमन्त्रणी, आज्ञापनी, याचनी, प्रच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छानुकूलिका, अनभिगृहीता, अभिगृहीता, संदेहकारिणी, व्याकृता और अव्याकृता। गोमट्टसार में उसके नौ भेद मिलते हैं (जीवकाण्ड २२४-२५)। इसी प्रसंग में श्राद्ध क्रिया पर भी जैनाचार्य ने आक्षेप किया है। उन्होंने कहा है कि यदि अग्नि में आहूत मांसादि देवताओं के मुख में पहुंच सकते हैं तो होम किये हुए नीम के पत्ते, कडुवा तेल, मांड, धूमांश क्यों नहीं पहुंच सकते? फिर यदि संस्कारित और पके धान्य से अतिथियों का सत्कार किया जा सकता है तो बैल, बकरे आदि का मांस भक्षण करना अविवेकता को ही द्योतित करता है। श्राद्ध आदि से उत्पन्न पुण्य, परलोक सिधारे पितरों के पास कैसे पहुंच सकता १. लाटी संहिता, चतुर्थ सर्ग. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है? क्योंकि यह पुण्य पितरों से भिन्न पुत्र आदि से किया हुआ रहता है, तथा यह पुण्य जड़ और गतिहीन है। उसका सम्बन्ध पुत्र से हो कैसे सकता है? वह तो निज. अध्यवसायजन्य है। अतएव श्राद्धजन्य पुण्य न तो पितरों का पुण्य कहा जा सकता है और न पुत्रों का। वह तो त्रिशंकु जैसा लटका रह जाता है। . ___ मल्लिषेण ने आगे कहा कि मनुस्मृति (५.५६) का यह कहना नितान्त गलत है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला' क्योंकि यदि मांसादि के भक्षण में दोष है ही नहीं तो उसकी निवृत्ति फल. का प्रश्न ही कहाँ उठेगा? अन्यथा अनुष्ठानादि से निवृत्त होने का भी फल मानना पड़ेगा। यहाँ वस्तु प्रवृत्ति का अर्थ "उत्पत्ति-स्थान" किया जाना चाहिए। आगम में भी मद्य, मांस, मैथुन को जीवों की उत्पत्तिस्थान माना जाता है। रत्नशेखरसरिकृत. सम्बोधसप्ततिका में (६३-६९) यह अधिक स्पष्ट किया गया है। अहिंसा की साधना में हमें सर्वप्रथम नियति के सही रूप को समझना होगा और उसके निरपेक्ष भाग्यवाद की भूमिका को पुरुषार्थ के सन्दर्भ में स्पष्ट करना होगा। हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि नियति सौर्वभौमनियम है, अपरिवर्तनीय है और पुरुषार्थ के द्वारा हम उसे बदलते हैं। परिवर्तन में पुरुषार्थ का बड़ा महत्त्व है। जैन दर्शन पुरुषार्थ वादी दर्शन है। उसमें कर्म की एक सीमा परिकल्पित है। तदनुसार हर घटना को कर्म के साथ जोड़ना ठीक नहीं। पुरुषार्थ ही कर्म को बनाता हैं इस दृटि से पुरुषार्थ बड़ा है, कर्म नहीं। यह मानकर अहिंसा की साधना करना चाहिए। अहिंसा की साधना. का आन्तरिक सूत्र है भावशुद्धि, मैत्री का विकास और व्यावहारिक सूत्र है अनावश्यक हिंसा का वर्जन। हिंसा चार प्रकार की है- आरम्भजा, उद्योगजा, विरोधजा और संकल्पजा। व्यवहारिक दृष्टि यह है कि वह पहले संकल्पजा हिंसा छोड़े और प्रयत्न करे कि काम व अर्थ पुरुषार्थ धर्म और मोक्ष को बाधित न कर पायें। अहिंसा की सही साधना तभी हो सकेगी। इस साधना में गृहस्थ चारों प्रकार की आरम्भी, उद्योगी और विरोधी तथा संकल्पी हिंसाओं में से संकल्पी का त्यागी रहता है। इस संकल्पी में दूसरों को सताना, न्यायमार्ग का उलंघनकर द्रव्यार्जन करना भी अन्तर्भूत है। अहिंसा के दो रूप दिखाई देते हैं एक निषेधात्मक और दूसरा विधेयात्मक। षट्काय जीवों की हिंसा न करना ये उसका निषेधात्मक रूप है और उन पर दया करना, अभय देना आदि विधेयात्मक रूप है। प्रश्नव्याकरणांग में अहिंसा के ६० पर्यायार्थक दिये हुए हैं। उनमें दया, रक्षा आदि विधेयात्मक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। १. स्याद्वादमंजरी, पृ. ९५-९८. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) दया धर्म का एक व्यावहारिक पहलू है, मानवता उसका सुन्दर उपवन है। इसलिए सभी जैनाचार्यों ने उसे धर्म के साथ जोड़ा है। पद्मनदि ने 'धर्मों जीवदया, मूलं धर्मतरो' (प. पंच. १.८) कहकर इसी तथ्य को व्यक्त किया है। सर्वार्थसिद्धि (७.११) में 'दीनानुग्रहभावः' और राजवार्तिक में 'सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा' (८.२०.३०) लिखकर आचार्यों ने इसी कथन की पुष्टि की है। इसलिए करुणा को धर्म का मूल कहना तथ्यसंगत है। उसके बिना अहिंसा का परिपालन हो ही नहीं सकता। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा, ४१२) में उसको सम्यक्त्व का चिह्न बताकर उसकी महिमा को और अधिक स्पष्ट कर दिया हैं उमास्वामि श्रावकाचार (३३९) में दया को देवी कहकर सम्मानित किया गया है। परन्तु यह भी दृष्टव्य है कि करुणा एक प्रकार से मोह का चिह्न है। प्रवचनसार (गाथा, ८५) में पदार्थ का अयथार्थ ग्रहण और प्राणियों के प्रति दयाभाव को मोह-चिह्नों में गिना है। यह निश्चय नय की दृष्टि से उसकी व्याख्या है निश्चय से वैराग्य ही करुणा है (स्याद्वाद म. १०.१०८) और यही करुणा जीव का स्वभाव है (ध. १३.५.५.४८) वह कर्मजनित तत्त्व नहीं हैं। वह तो शुभोपयागी तत्त्व है, समता और माध्यस्थभाव है जिससे दूसरे प्राणियों के दुःख से व्यक्ति स्वयं दुःखी हो जाता हैं और उनके दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करता है। ____ भगवती आराधना (गाथा, १८३८) में अनुकम्पा के तीन भेद किये गये हैंधर्मानुकम्पा.(असंयम का त्याग), मिश्रानुकम्पा (गृहस्थों की एकदेश रूप धार्मिक प्रवृत्ति) और सर्वानुकम्पा (प्राणियों पर दया करना)। ज्ञान विमलसूरि ने इसके चार भेद किये है- स्वदया, पर-दया, द्रव्यदया और भावदया। हरिभद्र ने प्राणियों को अभयदान देना (दाणाण सेढें अभयप्पमाणं, आवश्यक, ६६९) दया की ही निष्पत्ति माना है। यह अभयदान बिना रागादि के नहीं होता। यह उसकी व्यावहारिकता है। इस व्यावहारिकता में करुणा के साथ ही वैराग्य भी पलता है। इसे हम प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय कह सकते हैं। सामाजिक सन्तुलन में करुणा पर्यावरण के संरक्षण में दया की अहं भूमिका रहती है हम यह अच्छी तरह समझ चुके हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस इन छह प्रकार के जीवों को “षट्काय जीव' कहा जाता है। मूंगा, पाषाण आदि रूप पृथ्वी सजीव है क्योंकि अर्थ के अंकुर की तरह पृथ्वी को काटने पर वह फिर से उग आती है। पृथिवी का जल सजीव है क्योंकि मेंढक की तरह जल का स्वभाव खोदी हुई पृथ्वी के समान है। आकाश का जल भी सजीव है क्योंकि मछली की तरह बादल के विकार होने पर वह स्वतः ही उत्पन्न होता है। अग्नि भी सजीव है क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती हैं वायु में जीव हैं क्योंकि गौ की तरह वह दूसरे से प्रेरित होकर गमन करती है। वनस्पति में भी जीव है क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) छेदने से उसमें म्लानता देखी जाती हैं कुछ वनस्पतियों में स्त्रियों के पादाघात आदि से विकार होता है, इसलिए भी वनस्पति में जीव है, पृथ्वी, कृमि, पिपीलिका, भ्रमर आदि सभी जीव हैं जैनधर्म में निकाय के जीवों में सबसे कम त्रस जीव हैं, सजीवों से संख्यात गुण अग्निकायिक, अग्निकाय से विशेष अधिक पृथ्वी कायिक, पृथ्वीकाय से जलकायिक, जलकाय से वायु कायिक और वायु कायिक से अनन्तगुणे वनस्पति कायिक जीव हैं। वनस्पतिकायिक भी दो प्रकार के होते हैं व्यावहारिक और अव्यावहारिक जो निगोद अवस्था से निकलकर पृथ्वीकायिक आदि होकर पुनः निगोद में पहुँचे हैं वे व्यावहारिक हैं और जो निगोद में ही पड़े रहते हैं वे अव्यावहारिक हैं (स्या. म. पृ.' २५८-९)। जैनधर्म इन सभी जीवों को सुरक्षित रखने तथा उन्हें अभयदान देने का प्रावधान करता है अहिंसा-सिद्धान्त के माध्यम से। आचार्य जिनसेन ने महापुराण (२८.५; ३०.८३; २९.२०) में लिखा है कि युद्ध के समय वेग से दौड़ते हुए घोड़ों के खुरों से उड़ी हुई पृथ्वी की धूलि केवल शत्रुओं के ही तेज को नहीं, अपितु सूर्य के तेज को भी रोक देती है। इस धूलि का प्रभाव इतना अधिक पड़ता है कि लोगों का तेज नष्ट हो जाता है, भारी-भारी श्वासोच्छावास चलने लगते हैं, उनका अन्त:करण व्याकुल हो जाता है इतना अधिक कि मात्र मरना शेष बचता है। इसी प्रकार दिग्विजय का वर्णन करते हुए अभयदव ने भी जयन्तविजय (११.२, ४-५) में वायुमण्डल को प्रदूषित हो जाने की ओर ध्यान आकर्षित किया है। इस धूलि से समुद्र का स्थल बन जाना (जयन्त, १०.७, १०) अथवा समुद्र जल के सूख जाने (वही, ११.१४) की कल्पना भी प्रदूषण की बात कर रही है। प्राचीन काल में तुमुल, तोमर, पंचानन, शरम, आग्नेय, पयोधर, वायव्य, पवनाशन, पत्ररथेन्द्र, तिमिर, प्रद्योतन, त्रिपुरान्तक आदि अत्रों का प्रयोग भी वायुमण्डल को दूषित कर देता था (जयन्त. १४ वा सर्ग)। सेना के प्रयाण से उत्पन्न धूलि का असर समुद्र पर भी पड़ता था (वही, ११.४२, ४४, ६६)। यह वायुमण्डल का प्रदूषण था। सेना के प्रयाणकल में बजाये जाने वाले नगाड़ों के शब्द से आकाश भी शब्दायमान हो जाता था (महा. २८.१५; जयन्तविजय, ९.५६) यह तथ्य ध्वनि प्रदूषण की ओर संकेत करता है। यह शब्द समुद्र में निवास करने वाले विष्णु भी सहन नहीं कर सके। यह तो उसकी और भी भीषणता को व्यक्त करता है (जयन्त. १४.९.११) यह ध्वनि इतनी तीव्र होती थी कि रथ में जुते घोड़ों को रोकना कठिन हो जाता था। पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने का भी उपाय जैनाचार्यों ने निर्दिष्ट किया । है। उन्होंने काव्यों, पुराणों और कथाओं में नगर को स्वच्छ और सुन्दर बनाये रखने की अनेक योजनाओं पर प्रकाश डाला है। उदाहरण के तौर पर उन्होंने कहा कि नगर के वातावरण को स्वच्छ और मनोरम बनाने में सरोवरों का भी बड़ा योगदान रहता था। (जयन्त, ८.३३-३४) नदियां भी प्रदूषित नहीं थीं (जयन्त, १८.१५), आकाश Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) निर्मल था (१८-३६), वन सुरभित थे (१३.५), परिखायें निर्मल जल से परिपूर्ण थीं (१-४६), वृक्ष कल्पद्रुम के समान मनोकामना पूरी करते थे (१.६०), गंगा की पवित्रता,(६.७०), जंगलों का सुहावनापन, ऋतुवर्णन आदि से वातावरण की विशुद्धि का पता चलता है। इस प्रकार का वर्णन गद्यचिन्तामणि, जीवन्धरचम्पू, जसहरचरउ आदि सभी काव्य ग्रन्थों में आया है । पुनरावृत्ति के भय से यहाँ हम उन सब का उल्लेख नहीं कर रहे हैं। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल में मकान बनाने .. में चूने का प्रयोग अधिक होता था (सुधाधवल सौधचयैः ५-३६)। प्रसादों की भित्तियों में स्फटिकमणि, नीलमणि, चन्द्रकान्तमणि, हरित मणिओं का प्रयोग होता था, साथ ही चमकीले पत्थरों का भी ( वरा. १ २९; चन्द्र, १-३४)। परिखायें और उनके तटों पर वृक्ष लगाये जाते थे। जल, पंक और शुष्क परिखाये होती थीं पर जलपरिखा का प्रयोग अधिक हुआ है। नगर में सरोवर, बापी, दीर्घिकायें, जलाशय, उद्यान, चौराहे बनाये जाते थे। नगर के पास ही ग्राम रहते थे। निगम में भी ग्रामीण जीवन जीवन्त था। वे व्यापार और कृषि उत्पादन के केन्द्र थे। आकर संभवतः खानों के समीपस्थ गांवों के नाम होना चाहिए। खेट शायद मांसभक्षियों का आवास स्थल होगा। ग्राम, नगर आदि के भेदों-प्रभेदों की परिभाषायें जैन साहित्य में उल्लिखित हुई हैं। (आच्रा. १.७.६; उत्तरा . ३०.१६; आदिपु . १६.१६६-६७)। इसका उल्लेख हम पीछे कर भी चुके हैं। जैनाचार्यों ने तीर्थङ्करों और महापुरुषों के जन्म के समय वातावरण स्वतः प्रशान्त और मनोरम हो जाता था, इस तथ्य की ओर संकेत किया है। ऋषभयदेव के जन्म होने पर शीतल मन्द सुगन्ध पवन बहने लगती है, अग्नि दक्षिण दिशा की ओर घूमकर हवन की सामग्री ग्रहण करने लगती है, नदी निर्मल हो जाती है, शुद्धवायु प्रवाहित होने लगती है (आदिपुराण) । जलक्रीडा, चन्द्रोदय, सायंकाल आदि के वर्णन में भी प्रशान्त वातावरण ध्वनित होता है। यह इन महापुरुषों के आभामण्डल का प्रताप था। आधुनिक विज्ञान भी आभामण्डल की सार्थकता को स्वीकार करता है । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि जैनधर्म में हिंसा और रागी -द्वेषी देवी-देवताओं का कोई स्थान नहीं है। इसी तरह सूर्य-चन्द्र के ग्रहण के समय स्नान करना, सूर्य को अर्घ चढ़ाना, घोड़ा, शस्त्र और हाथी की पूजा करना, गंगा-सिन्धु में स्नान करना, संक्रान्ति में दान देना, गोमूत्र का वन्दन करना, गाय की पीठ की वन्दना करना, वटवृक्ष, पीपल आदि की पूजा करना, देहली का पूजना और मृत व्यक्ति को पिण्डदान देना आदि लोकमूढ़ता है। इससे अन्धविश्वास पनपा है और सामाजिक पर्यावरण दूषित हुआ है। ऐसे अन्धविश्वास फैलाने वालों की सेवा करना पाखण्ड मूढ़ता हैं जैन परम्परा इन मूढ़ताओं को पूरी तरह से नकारती है और उन्हें मिथ्यात्व कहकर उनसे दूर रहने का उपदेश देती है (उमा. श्राव. ८१-८४) । अभ्रदेव ने धर्मपालन के लाभों का वर्णन करते Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) . वश हुए मिथ्यात्व को पोषण न करने का भी आग्रह किया है। उन्होंने मिथ्यात्व को पोषण करने वाली जिन क्रियाओं का उल्लेख किया है, उनमें मुख्य हैं। पंचाग्नि तप, मद्य-मांस-मधु और पंचोदम्बरों का सेवन, समुद्र या नदी स्नान करने में पवित्रता मानना, वीर पुरुषों की कथा सुनना, कुपात्रदान, रात्रि भोजन, गाय आदि से श्राद्ध करना, मांस, स्त्री आदि का दान करना, गाय-सांड़ का विवाह कराना, हरिद्वार आदि में अस्थि-विसर्जन करना, गौदान, पीपल आदि पूजन में धर्म मानना आदि। आगे अभ्रदेव ने यह भी स्पष्ट किया है कि धर्म तो वस्तुत: जीवदया और संयम धारण करने से होता है और यह संयमधारण रत्नत्रय के सम्यक् परिपालन से ही हो पाता है (व्रतोद्योतन श्री. ३५४-४००)। पद्मनंदि ने भी धर्म को जीव का जीवन बताकर जीवदया पर अच्छा प्रकाश डाला है (१०६-११६)। यज्ञ और बलि जैसी प्रथाओं ने समाज को जो अन्धविश्वास दिये उन्होंने पर्यावरण को प्रदूषित करने में बड़ा सहयोग दिया। जैनधर्म ने सर्वप्रथम ऐसे अन्धविश्वासों को मूढ़ता की संज्ञा देकर उन्हें दूर करने का मार्ग चिन्तन के माध्यम से सुझाया और मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्व की ओर कदम बढ़ाने का आह्वान किया। त्रिमूढ़ताओं से मुक्त रहने वाला साधक श्रावक है (श्रावक,प्रदीप, १.५)। वह त्रस-स्थावर जीवों की बात करने वाले वाणिज्य आदि से विरत नहीं होता पर धार्मिक कार्यों में वह उत्साहित रहता है (१-८)। पूजा और दान उसका मुख्य धर्म है, शास्त्र स्वाध्याय संरक्षणादि में प्रवृत्त रहता है, स्वोपकार और परोपकार में निरत रहता है, उपसर्ग निवारण में प्राण देकर भी काम करता है, गृहस्थी को सुचारु ढंग से संचालित करता है, पत्नी को पढ़ाता है, पति-पत्नी परस्पर में एक दूसरे से एक दूसरे की निन्दा नहीं करते, उपगूहन अंगधारी होता है, वादविवाद में नहीं उलझता (श्रावक प्रदीप प्रथम अध्याय)। सही पाक्षिक श्रावक बनने के लिए जैनाचार्य ने एक दैनिक चर्या का निर्माण किया ताकि उसे आध्यात्मिक वातावरण उपलब्ध हो सके। तदनुसार वह ब्राह्म मुहूर्त में उठकर णमोकार मन्त्र का उच्चारण करे और “कोऽहं, को मम धर्मः, किं व्रतं' का चिन्तवन करें, सामायिक करे, स्नानादि से दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर कृतिकर्म(जिनपूजा तथा सामायिक) करे अपने चैत्यालय में प्रवेश करे, प्रतिक्रमण करे, मुनियों आदि का वन्दन करे। फिर मधुकरी वृत्ति पूर्वक अहिंसक व्यापार करे, टूकान खोले। मध्याह्न काल में पूजादिकर आहार ले। पात्रदान दे, सायंकाल स्वाध्याय करे और रात्रि में यथाशक्ति मैथुन को छोड़े (सागार, छठा अध्याय)। पानी छानकर पीना भी एक आवश्यक आचार संहिता है जो पूर्णत: वैज्ञानिक है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) जैन श्रावक की यह दिनचर्या साधक को सही दृष्टि दे देती है। “यादृक्दृष्टि तादृक् सृष्टि' के आधार पर पहले सही दृष्टिकोण का निर्माण हो, आस्था का निर्माण हो। श्रद्धान्वित होकर फिर अनासक्त हो अर्थात् कषाय को शान्त करें। आवेग की तीव्रता को शान्त करे। तभी मुमुक्षता आयेगी और अहंकार और ममत्व का विसर्जन होगा। इस विसर्जन के लिए जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट जीवन पद्धति है और एक विशिष्ट दैनिक चर्या है जिस पर चलकर साधक क्रमश: राग-द्वेष से मुक्त होकर जीवन यापन कर सकता है। समाज यदि इस अहिंसक जीवन पद्धति का आचरण करने लगे तो पर्यावरण के प्रदूषित होने का कभी प्रश्न ही नहीं उठेगा। ___ अहिंसक जीवन पद्धति में ऐसी एलोपैथिक दवाओं का भी उपयोग नहीं किया जाना चाहिए जो पशु-उत्पादों से निर्मित होती हैं, या हीमोग्लबिन की उत्पाद है, या पैंक्रियाटिन, बाइलसाल्ट, पैसिन इत्यादि से बनी हैं मानवकल्याण चिकित्सालय के डाक्टरों ने ऐसी औषधियों की एक सूची तैयार की है जिनको प्रिस्क्राइव नहीं किया जाना चाहिए। यह सूची इस प्रकार है लीव्हरएक्सट्रेक्ट से बनी औषधियाँ; बेचर टानिक, हेपेटो ग्लोबिन, सीरप, मिन वेरीस सीरप, आ० बी० टान सीरप, नेपे पेटेक्स इन्जेक्सन, लीव्हर ऐक्सट्रेक्ट इन्जेक्सन्स बायगरज टैब, न्यूरोटार्ट कैप्सुल, कोड लीवन आयल, सीवेन सीज कैप्सुल। हीमोग्लाबिन से निर्मित औषधियाँ: हीमप सीरप कैप्सूल, डेक्सोरैंज सीरप कैप्सुल, ग्लोबैक सीरप कैप्सुल, हैमफर सीरप, बायोसिन सीरप, हेप फोर्ट सीरप कैप्सूल, प्रौबोफैक्स विद होमोग्लाबिन, हीमारैंज सीरप, ग्लोबिरोन सीरप। कैप्सुल, हमेगा सीरप, जेनलोबिन सीरप, जी०आर०डी० पाउडर, ग्लोबिफैक्स, हाइ-फाइ सीरप। पैक्रिएटिन, बाइलसाल्ट, पैप्सीन इत्यादि से तैयार औषधियाँ है; पैंजीनार्न टैब्लेट, पेयीटेजाइम टैब्लेट, जीमेक्स सीरप, पैक्रिओ फ्लेट, निओपटटाइन सीरप, लुल्पीजाइम सीरप, डाइजीप्लेक्स सीरप टैबलेट, फस्टालएन टैब, लाहमिना, एरिस्टोजाइम केप्सुल सीरप, एंडोस कैप्सुल, एन्जार फार्ट टैब्लेट, लिबोटोन कैप्सुल, मैप्राजाइम सीरप, मेरीजाइम सीरप, पैक्रिओन टैब्लेट, पीबीजाइम सीरप। इसी तरह सौन्दर्य प्रसाधनों में भी हिंसा दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और पर्यावरण प्रदूषित हो रहा हैं। उदाहरण तौर पर, लिपिस्टिक, नेलपालिस आदि भी प्राणियों को वेरहमी से मारकर बनाई जाती है। खुबसूरत जूते और हेन्डबेगों के लिए सांप, मगरमच्छ और पशुओं के चमड़े-निकाले जाते हैं। असली रेशम जीवित कीड़ों को उबालकर प्राप्त किया जाता हैं। कस्तूरी मृग और सिवट जैसे जानवरों को मारकर परफ्यूम बनाई जाती हैं सुगन्धित इत्र, साबुन, तेल, क्रीम आदि का निर्माण पशुओं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) की चर्बी से होता है। शैम्पू, आफ्टर शेवलोशन, यूडी कोलोन, लोशन आदि सामान . भी खरगोश, गर्भवती घोड़ी, चूहे, बन्दर आदि जैसे मूक पशुओं को मारकर तैयार किया जाता है। तैयार करने की यह प्रक्रिया बड़ी हिंसक होती है। चर्बी का उपयोग तो आजकल आईसक्रीम, टूथपेस्ट, मसाले आदि में बहुत होने लगा है। इन सभी के निर्माण से पर्यावरण तो रक्तरंजित होता ही है, साथ ही व्यक्तित्व के निर्माण में भी अप्रत्यक्षरूप से हिंसक भाव पनपने लगते हैं जो सामाजिक संघर्ष के कारण बनते हैं। ४. अनेकान्तवाद और आचरण अहिंसा के सन्दर्भ में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद का भी उल्लेख आवश्यक है। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक होता है, विधि - निषेधात्मक होता ' है जिसे समन्वित रूप में न व्याकृत किया जा सकता है और न चिन्तन ही सम्भव है। हम एक समय एक पक्ष को ही कह पाते हैं। कतिपय चिन्तक एक ही पक्ष को सही मानते हैं और उसी को मनाने का आग्रह भी करते हैं । यही आग्रह दुराग्रह संघर्ष और मनमुटाव का कारण बन जाता है। यहीं से अशान्ति और युद्ध शुरु होता है। जैनदर्शन ने इस तथ्य पर बड़ी गहराई से विचार किया। उसके अनुसार किसी दृष्टि या पक्ष को पूर्णत: अस्वीकार नहीं किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिए। अभिव्यक्ति या चिन्तन करते समय भले ही हम एक पक्ष को प्रस्तुत करें पर दूसरा पक्ष भी हमारी दृष्टि से ओझल नहीं रहना चाहिए। तभी दूसरे की दृष्टि का समादर भी किया जा सकेगा। इस पृष्ठभूमि में जैन दर्शन ने अभिव्यक्ति में स्याद्वाद और चिन्तन में अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया । यहाँ 'स्यात्' अव्यय कथञ्चित् का द्योतकहै, सन्देह अथवा संशय का नहीं । निश्चयनय और व्यवहारनय, द्रव्य, क्षेत्र, तत्काल, भाव रूप चातुष्टय, नय और निक्षेप आदि सभी सिद्धान्त इसी से सम्बद्ध हैं । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव इसी के अंग हैं। सामाजिक पर्यावरण एकान्तिक दृष्टि के प्रति घनघोर लगाव से दूषित होता है। समुचित रूप से विचार करने के लिए और अहिंसक रूप से उसे अभिव्यक्त करने के लिए अनेकान्तवादी और स्याद्वादी होना नितान्त आवश्यक है। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा। “परस्परोपग्रहो जीवानाम् " का उद्घोष आचरण और पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने का सुन्दरतम् अहिंसक साधन है। ५. मद्य, मधु, मांसादि सप्त व्यसन और श्रावकधर्म श्रावक सद्धर्म में प्रतिष्ठित होने का प्रथम सोपान है जो एक लम्बी साधना के बाद प्राप्त होता है। सहज स्वाभाविक ऐन्द्रियक विषय वासनाओं से चपल मन को हटाकर उसे पारमार्थिक साधना में लगाना सरल नहीं होता। इस साधनापथ को पाने के बाद Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) ही वस्तुतः श्रावक अवस्था प्राप्त होती है। जैनाचार्यों ने स्वानुभूति के आधार पर जीवन के अमूल्य ऐसे प्ररेणा सूत्र दिये हैं जो भौतिकता की चकाचौंध से व्यक्ति को दूर रखकर परम सुख की ओर उसे ले जाते हैं। इस दृष्टि से श्रावकाचारों का निर्माण हुआ है जिनमें तात्कालिक परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप सामान्य नियमों से थोड़ा-बहुत परिवर्तन परिवर्धन करते हुए वस्तु तथ्य को प्रस्तुत किया गया है। . व्यसन एक आदत है जो स्वयं की और दूसरे की पीड़ा का कारण बनता है। उसे यदि किसी भी कारणवश जीवन में प्रवेश मिल गया तो वह उसे बरबाद किये बिना नहीं रहता। वह एक विष वृक्ष है, अमरवेल है जो अपने ही आश्रयदाता को चूस लेती है जीवन के सारे तट और घाट व्यसन से कट-पिट जाते हैं और दल-दल में फंसकर अपनी मूल सम्पत्ति भी गवाँ बैठते है। यह एक धुन है जो धीरे-धीरे जीवन को समाप्त करने में जुट जाती हैं इसलिए व्यसन की तुलना मृत्यु से की गई हैं। मृत्यु तो एक बार ही कष्ट देती है पर व्यसर जीवन भर कष्ट देते रहते हैं। व्यसन का अर्थ ही है- व्यस्याति सुखाद् स्वर्गाद् वा यत् तत् व्यसनम्। व्यसन की प्रकृति को लक्ष्यकर यह ठीक ही कहा गया है- व्यस्यति प्रत्यावर्तयति पुरुषान् श्रेयसः इति व्यसन तथा व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते। (मनुस्मृति ५२)। व्यसन संसार रूपी प्रासाद में प्रवेश करने का एक ऐसा महाद्वार है जहाँ से वापिस निकलने का मार्ग पाना कठिन हो जाता है। वह शत्रु से भी अधिक खतरनाक है। इसलिए प्रारम्भ काल से ही किसी न किसी प्रकार के व्यसन की बात साहित्य में उद्धृत होती रही है। महाभारत में कृष्ण ने यादवों से कहा कि द्वारिका की रक्षा के लिये तीन बातें छोड़नी होगी मद्यपान, द्यूत और परस्त्रीसेवन पर वे उन्हें छोड़ नहीं सके। शराब के नशे में चूर होकर द्वैपायन ऋषि को उन्होंने जा छेड़ा और उनके शाप (क्रोध) से द्वारिका भस्म हो गई। आसुरी सभ्यता और मगध का पतन सुरापान और मुक्त व्यभिचार से हुआ यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। इसलिए सुकरात का कथन कितना सही लगता है कि शराब, मुक्त यौनाचार और रेशमीवस्त्र इन तीनों के खुले प्रयोग से किसी भी सम्प्रदाय, जाति या देश को गिराया जा सकता हैं इसलिए गाँधी जी ने इन पर पाबन्दी लगाने का अनुरोध किया था। चीन से अफीम का निष्कासन हुआ, तभी उसकी प्रगति हुई। गाँधी ने अफ्रीका जाने से पूर्व तीन बातें छोड़ी थीं- शराब, परस्त्री और मांसाहार। व्यसन की प्रकृति को समझने के लिए ये उदाहरण पर्याप्त हैं। इसलिए पहली प्रतिमाधारी श्रावक के लिए सप्त व्यसनों के त्याग का निर्धारण किया गया है। वैदिक साहित्य में अठारह प्रकार के व्यसनों का उल्लेख मिलता है। उनमें दस व्यसन कामज हैं और आठ व्यसन क्रोधज है। कामज व्यसन है- आखेट, छूत, दिवा, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) गचा हा शयन, परनिन्दा, परस्त्री सेवन, मद, नृत्यसभा, वाद्य की महफिल और व्यर्थ भटकना, आठ क्रोधज व्यसन हैं- चुगली करना, अति साहस करना, द्रोह करना, ईर्ष्या, असूया, अर्थदोष वाणी से दण्ड देना और कठोर वचन बोलना। यहाँ व्यसनों के पीछे काम और क्रोध की मूल भूमिका को पहचाना गया है। बौद्धधर्म में भी व्यसनों को त्याज्य माना गया है। वहाँ व्यसन शब्द का प्रयोग भले ही न हुआ हो पर अकुशल कर्म में उनकी गणना अवश्य की गई है। . जैनधर्म ने व्यसनों की संख्या सात मानी है- जुआ, (द्यूत) मांसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन। अन्य सारे व्यसन इन्हीं सप्तव्यसनों के आसपास मडराते हैं। इनको त्यागने का विधान मूलत: अष्टमूलगुणों के विधान में रखा गया हैं आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी ने इनका उल्लेख नहीं किया। समन्तभद्र ने सर्वप्रथम रत्नकरण्ड श्रावकाचार (पद्य ६६) में इनका उल्लेख किया है- मद्य, मांस, मधु का त्याग और पंचाणुव्रतों का पालन। आचार्य रविषेण और जिनसेनं जैसे आचार्य मद्य-मांसादि से विरति होने की बात तो अवश्य करते हैं पर स्पष्टत: अष्टमूलगुणों का उल्लेख नहीं करते। अष्टमूलगुणों की एक अलग ही ऐतिहासिक परम्परा है। लगता है, प्रारम्भ में नियम के अन्तर्गत सप्तव्यसन त्याग गर्भित रहा हैं बाद में जब अष्टमूल गुणों से काम नहीं चला तो, सप्तव्यसनों को पृथक् कर दिया गया। समन्तभद्र ने अष्टमूलगुणों का उल्लेख किया पर वहाँ पहली प्रतिमा वाले श्रावक के लिए मूलगुण पालन करने का विधान नहीं किया गया। जबकि स्वामी कार्तिकेय तथा वसुनन्दी ने पहली प्रतिमा वाले श्रावक के लिए पंचोदुम्बन्दि आदि के त्याग की बात स्पष्टत: कहीं है। शायद वसुनन्दि ने सर्वप्रथम पहली प्रतिमाधारी के लिए सप्तव्यसनों के त्याग का निर्धारण किया है पंचुंबर सहियाइं सत्त वि विसणाहं जो विवज्जेइ।. संमत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ ।।५७- २०५ वसनन्दि ने श्रावकचर्या को और भी सरल बना दिया, यहाँ तक कि पंचाणुव्रतों को भी सम्मिलित नहीं किया। शायद उन्हें यह ध्यान होगा कि जैन शास्त्रानुसार त्याज्य वस्तु को सर्वप्रथम ज्ञपरिज्ञा से जानो और फिर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसे छोड़ो। ये व्यसन यथार्थतः अन्धकूपं के समान हैं। प्रारम्भ में वे छोटे लगते हैं पर बाद में वे हनुमान की पूंछ जैसे बढ़ते चले जाते हैं। इसलिए व्यक्ति को अप्रमत्त और जागरूक होकर जीवन पथ पर बढ़ना चाहिए। यह तत्कालीन सांस्कृतिक आवश्यकता थी। प्राचीन जैनेतर आचार्यों ने भी व्यसन की इस स्थिति को भली-भाँति समझा था और उनसे कोसों दूर रहने का संदेश दिया था। उदाहरणार्थ, यास्क (लगभग ७ वीं Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) सदी ई०पू०) ने अपने निरुक्त में चोरी, व्यभिचार और मदिरापान को पापों में गिनाया (६.२०)। शायद इसीलिए व्यभिचारी व्यक्ति को घृणा से शिश्नदेव कहा जाता था (५.१६)। वहीं चोरी को गर्दा कर्म (३.१५) और द्यूत को कितव कहा गया है जिन्हें उस समय बुरी आदत में गिना जाता था (५.२२)। इसी तरह याज्ञवल्क्य ने पांच महापातक गिनाये हैं- ब्राह्मण हत्या, स्वर्णचोरी, सुरापान, गुरुपत्नी का उपभोग और इन चारों पातकों में लिप्त रहना (३.२२२)। यहीं उपपादकों (व्यसनों) की एक लम्बी सूची भी दी गई है और पातक के अनुसार प्रायश्चित्त का भी विधान किया गया है। - इतना ही नहीं, ऋग्वेद (१२.१६२.१३; २१.२२. १६२.१२) में मांस, व्यभिचार, मदिरापान, हिंसा आदि को कष्टकारी बताया गया हैं- मनुस्मृति में तो व्यसन शब्द का स्पष्ट प्रयोग हुआ है (५२) और मांस भक्षण (५३, १७३), मदिरापान (३५५), द्यूत (१७९, ३५५), परस्त्री सेवन, व्यभिचार, वेश्यावृत्ति (१७९, ३५५) आदि जैसी आदतों से दूर रहने के लिये कहा गया है। संहिताओं, आरण्यकों आदि ग्रन्थों में भी व्यसनों का काफी उल्लेख हुआ है। कतिपय ग्रन्थों में मद्य, मांसादि के सेवन को विहित माना गया है अवश्य पर उसके रहने वाले कारण पर भी विचार कर लेना आवश्यक हैं। ऐसा लगता है, क्रूर, बनने के लिए व्यसन-सेवन जरूरी-सा हो जाता है। क्षत्रिय एक योद्धा वर्ग था, राष्ट्र का संरक्षण उसके सवल कंधो पर था। बिना क्रूर हुए वह युद्ध में सफल नहीं हो सकता था। इसलिए कुछ लोगों ने योद्धाओं की सफलता की दृष्टि से यह विधान कर दिया। संवेदनहीन खेल को भी इस तरह के मनोरंजन के साधन बना दिये गये कि एक तरफ चीत्कार की आवाज सुनाई देती है तो दूसरी तरफ उसे देख-सुनकर लोग आनन्दित होते हैं। पर यह स्थिति अपवादात्मक है। इस भूमिका के साथ अब हम सप्तव्यसनों पर भारतीय साहित्य और संस्कृति के आधार पर विचार करेंगे और देखेंगे कि जैन श्रावकाचार संहिता की दृष्टि से जैनाचार्यों ने उन्हें किस रूप से देखा समझा है। ३.१. धूत (जुआ) पुराणकाल में द्यूत-क्रीड़ा एक मनोरंजन का साधन था। द्यूत में कुशलता देखकर राजा को प्रसन्न किया जाता था (मत्स्य पु० २१६.८)। विष्णुपुराण (४.४.३७) से पता चलता है कि कतिपय राजे द्यूत में बड़े अभ्यस्त होते थे। पर मत्स्यपुराण ( २२०.८) उसे राज विनाश का भी कारण मानता है। शतपथ ब्राह्मण (५.३.१-१५) का कहना है कि यज्ञकर्ता भी जुआ खेलता था। कौटिल्य ने उसे राजाओं के लिए हेय माना है (अर्थशास्त्र पृ० ३९९)। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) इसी कारण ऋग्वेद में अक्षक्रीड़ा को त्याज्य माना गया है (१०.३४.१) वस्तुत: अक्षक्रीड़ा एक सामाजिक दोष था। मद्यपान के कारण अन्धकवृष्टी तथा द्यूत के कारण कुरु लोगों का विनाश उदाहरण के रूप में किया जाना था। मनु ने इसलिए व्यसन कहा है। (२२१-२२)। पर चूंकि अक्षक्रीड़ा से राजकोष को आय होती थी (याज्ञ. १.११९, २००; अर्थशास्त्र २-२) इसलिए उसे कहीं-कहीं छूट दे दी जाती थी। बौद्धधर्म में द्यूतक्रीड़ा का पृथकत: उल्लेख दिखाई नहीं दिया। हां, दीघनिकाय के ब्रह्मजाल सत्त में आरम्भिकशील के सन्दर्भ में यह अवश्य कहा गया है कि तथागत बुद्ध द्यूत आदि क्रियाओं से मुक्त रहते थे इसलिए अन्य श्रमण-ब्राह्मण उनकी प्रशंसा करते थे। यहाँ द्यूत के लिए पालिशब्द 'जूत' का प्रयोग हुआ है और उसे प्रमाद का मूल कारण माना गया है। द्यूत और उससे सम्बद्ध खेलों में अष्टपद, दशपद, आकाश, परिहारपथ, सनिक, खलिक, घटिक, शलाक-हस्तअक्ष, पंगचिर, बंकक, मोक्खचिक, चिलिंगुलिक, पत्ताकहक, रथ-दौड़, तीरन्दाजी, बुझौमल, नकल आदि का उल्लेख है। __ जैनपरम्परा में छूत को मुख्य व्यसन माना गया है। किसी भी प्रकार की शर्त लगाना चूत के अन्तर्गत आता है (ला० सं० २.११४-१२०)। यह सभी अनर्थों की जड़ है, हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप कर्मों का घर है (सा० ध०, २.१७)। सूत्रकृतांग (९.१०) में शतरंज को भी जुआ के भीतर रखा गया है क्योंकि पराजित जुआरी दुगुना खेलता है और बरवाद होता है। शर्ते लगाना ताश खेल आदि भी इसी के अन्तर्गत आता है। इस व्यसन के साथ अन्य सारे व्यसन भी जुड़ जाते हैं। वसुनन्दि सही कहते हैं कि अग्नि, विष, चोर और सर्प अल्पकालीन कष्ट देने वाले होते हैं, पर जुआ हजारों लाखों जन्मों तक कष्ट देता रहता है। चारों कषायों का आक्रमण, सांसारिक दुःख, स्वच्छन्द होकर पाप कार्यों में लीनता, निर्लज्जता, अविश्वसनीयता, अन्धे जैसी कार्य प्रणाली, असत्यवादन क्रोधित होना, चिन्तातुरता आदि जैसे दुर्गुणों का जनक द्यूत ही है (वसु० श्रा० ६०.७९)। युधिष्ठिर का वनवास द्यूत का साक्षात् फल है। २. मांस भक्षण ___ वैदिक संस्कृति और बौद्ध संस्कृति में मांस भक्षण लोकप्रिय रहा है। परन्तु जैन धर्म मांस भक्षण को किसी भी स्थिति में विहित नहीं मानता। विपाक सूत्र (श्रुतस्कन्ध १, अ० ६) में मांसाहारी के जीवन में होने वाले कष्टों का बड़ा अच्छा वर्णन किया गया है। आचार्य सोमदेव ने उपासकाध्ययन में मांसाहार के दोषों का सुन्दर वर्णन किया है। वह एक दुर्गन्धित, दूसरों को दुःख देकर प्राप्त होने वाला और बर्बरता उत्पन्न करने वाला तत्त्व हैं उन्होंने जीव का आधार लेकर अन्न-दूध और मांस तथा फल और मांस को समान मानने का जोरदार खण्डन किया है और कहा है कि यदि इन सब को एक माना गया तो फिर पत्नी और माता, शराब और पानीको समान मानना पड़ेगा। वस्तुतः Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) गौ का दूध शुद्ध और गोमांस नितान्त अशुद्ध हैं। सांप की मणि से विष दूर होता है पर सांप का विष मृत्यु का कारण है (३०४)। मांसाहार तामसिकता को भी जन्म देता है। इसी प्रसंग में सोमदेव ने त्रिकोटिपरिशुद्ध मांस भक्षण का भी सटीक खण्डन किया है यह कहकर कि उसमें मूलत: हिंसा तो होती ही है और उसकी अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी मांसाहारी पर भी आती है। इसी तरह सोमदेव ने वैदिक हिंसक यज्ञ के दौरान किये जाने वाले मांस भक्षण का सटीक खण्डन किया है यह कहकर कि जो स्वभावत: अशुद्ध है वह मन्त्रादिक से शुद्ध कैसे किया जा सकता है? संसार में सब तो कुछ अभक्ष्य रहेगा ही नहीं। शौरसेन राजा मात्र मांसभक्षण के संकल्प के कारण सातवें नरक में गया (३११) और चण्ड नामक चाण्डाल मांस त्याग से यक्ष हुआ (पद्य ३१३)। मांस भक्षण के विरोध में जैनाचार्यों ने प्रारम्भ से ही तीव्र आन्दोलन छेड़ रखा था। पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, धर्म परीक्षा, यशोधरचरित, वसुनन्दि श्रावकाचार आदि ग्रन्थों में उसे विष्टा के समान दुर्गन्धित और दर्प, छूत, मद्य आदि की ओर प्रवृत्त कराने वाला तामसिक तत्त्व माना है जिसमें करुणा और संवेदना का पवित्र जल सूख जाता है। इसीलिए जैनाचार्यों ने विशुद्ध शाकाहार को उत्तम भोजन माना हैं वहाँ अभक्ष्य पदार्थों की एक लम्बी सूची दी गई है उमास्वामी श्रावकाचार में (३०७-३३०)। शाकाहारं जीवन को सख और समृद्ध बनाने की एक विशिष्ट जीवन पद्धति है, अहिंसा की परिपालना है। पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन न करना, सप्त व्यसनों से दूर रहना आदि जैसे तत्त्व उसकी परिधि में आते हैं। . वस्तुत: मनुष्य की शारीरिक रचना मांस भक्षण के प्रतिकूल हैं उसके नख, दन्त, जीभ, फेफड़े, आंत आदि मांस भक्षी पशुओं से बिलकुल भिन्न होते हैं। मनुष्य का प्राकृतिक आहार शाकाहार ही है। मांसाहार से तो वह कैंसर, मिर्गी, चर्मरोग, अल्सर आदि अनेक घातक बीमारियों को आमन्त्रित कर लेता है। जिन पशु-पक्षियों का वह मांस खाता है उनकी सारी बीमारियां उसके खून में पहुंच जाती हैं। थोड़े से रसास्वादन के लिए वह अपना पेट कचड़ा घर बना लेता है। अण्डा भी मांस का ही एक रूप हैं उसे शाकाहार में किसी भी हालत में नहीं गिना जा सकता है। वह निर्जीव होता ही नहीं है। क्या किसी ने उसे पेड़ पर उगा हुआ देखा है? क्या उसे शाक-सब्जी की तरह खेतों में उगाया जा सकता है? ___अण्डा, मछली आदि का भक्षण स्वास्थ्य की दृष्टि से तो हानिकारक है ही, आर्थिक दृष्टि से भी नुकसान दायक है। सर्वेक्षण से बताया गया है कि शाकाहारी की अपेक्षा मांसाहार आठगुना मंहगा होता हैं प्रोटीन का बहाना करना भी गलत है। मांसाहार में कॉलेस्ट्राल अधिक होता है और सालमोनेला जैसे घातक कीटाणुओं की अधिकता होती Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) है। शाकाहार में यह सब नहीं होता। मांस से भी कहीं अधिक उसमें प्रोटीन और विटामिन्स होते हैं। और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शाकाहार मानवता की मार्मिक भूमि पर खड़ा है जबकि मांसाहार के पीछे निष्ठुर दानवता खड़ी रहती है। आज कारखानों ने पर्यावरण को प्रदषित कर डाला है। क्ररता का ऐसा घिनौना रूप वहाँ दिखाई देता है कि कोई भी भला आदमी वहाँ खड़ा भी नहीं रह सकता। बलि-वेदी पर चढ़ाये जाने वाले पशुओं का संहार भी धर्म के परदे के पीछे घनघोर हिंसा है। आधुनिक प्रोडक्ट्स शाकाहारिता के लिए एक भयङ्कर चैलेंज है। नई पीढ़ी में यह जागरण आ रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है। __ आधनिक मानस भी मांसाहार को क्रोध असहिष्णुता निराशावादिता, स्नायु दर्बलता, तामसिकता आदि जैसे दर्गणों का जनक मानता है आध्यात्मिक और आर्थिक दृष्टि से भी मांसाहार पूर्णतः अनुचित और अनुपयुक्त है। अण्डा भी मांसाहार में ही गिना गया हैं उमास्वामी श्रावकाचार, श्रावकाचारसारोद्धार (३.२७-३१). पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय (६६-६८), उपासकाध्ययन (२६४-६५), वसुनन्दि श्रावक (८५-८७) लाटी संहिता (१.५५) आदि श्रावकाचार ग्रन्थों में इन सारे तथ्यों को प्रगट किया गया है। मांस भक्षण दानवताका प्रतीक हैं, इसलिए जैनधर्म पूर्णत: शाकाहार का पक्षधर है। जैनाचार्यों ने मांसभक्षण की हानियों का विस्तार से वर्णन किया है और शाकाहार का प्रचार किया है। शाकाहार की सूची जैन साहित्य में मिलती है। यहाँ तक कि अभक्ष्य वस्तुओं को मांस भक्षण के अन्तर्गत रख दिया गया है ताकि श्रावक निषिद्ध वस्तुओं का भक्षण न करें। मांस की निरुक्ति इस प्रकार की गई है- मासं भक्षयति प्रेत्य यस्य मांसमिहादम्यहम् अर्थात् जिसका मांस मैं आज खा रहा हूँ, वह मुझे परलोक में खायेगा (उमा० श्राव० २६८)। वहाँ कहा गया है कि हरिण, जंगली जीवों में मांस उत्पन्न होता है और स्थावर जीवों में फल उत्पन्न होता है। मांस जीवन का शरीर है पर उड़द स्थावरकायिक है। एक अभक्ष्य है, दूसरा भक्ष्य है। इसी तरह दूध और मांस को भी एक नहीं माना जाना चाहिए। विषवृक्ष के पत्ते आयु बढ़ाते हैं और उसका जड़ भाग मृत्यु का कारण होता है। गाय के दूध, दही, घी, गोबर, मूत्र इन पंच गव्यों को इष्टग्राह्य माना है पर गो मांस भक्षण को अग्राह्य और पाप माना जाता है (उमा० श्रा० २७५-२८३)। लाटी संहिता में इस पर और भी विस्तार से कहा गया है। वहाँ कहा गया है कि अन्न, औषधियाँ, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों को गाढ़े वस्त्र से छानकर लेना चाहिए (१-२३)। शोधा हुआ पदार्थ मर्यादा से बाहर न हो (१-३२)। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) रोटी, दाल आदि पदार्थ जो केवल अग्नि पर पकाये गये हों और पूड़ी-कचौड़ी आदि पदार्थ को घी में पकाये गये हों अथवा पराठे आदि पदार्थ जो घी और अग्नि दोनों के संयोग से पकाये गये हों, इन सभी पदार्थों के बासे रूप को नहीं खाना चाहिए क्योंकि उनमें सूक्ष्म और संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसी तरह मैथी, पालक, चना की शाक, बथुआ, चौराई आदि पत्ते वाली शाक भी अपक्वावस्था में नहीं खानी चाहिए। उनमें त्रस जीव रहते हैं। पान भी इसी प्रसंग में वर्जित माना है। रात्रि भोजन का त्याग भी इसी दृष्टि से आवश्यक माना है। इसी प्रकार जिसका रूप-रस बिगड़ जाता है चलित हो जाता है, गन्ध बदल जाती है, स्पर्श बदल जाता है। ऐसे चलित पदार्थ भी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि त्रस जीव उनमें पैदा हो जाते हैं। दूध, दही, छाछ आदि को भी मर्यादा के भीतर ही लिया जाना चाहिए (लाटी संहिता, १.३३-५७)। जैनाचार्यों ने यह सब वर्णन मांस भक्षण निषेध के सन्दर्भ में किया है। इसका तात्पर्य है कि जैनधर्म में शाकाहार को आहार शुद्धि के साथ जोड़ा गया है। आहार शुद्धि से ही सात्विक संस्कारों का निर्माण होता हैं जो मांसाहार से सम्भव नहीं है। मांसाहार से क्रूरता, हिंसक वृत्ति और दुर्विचार आते हैं। अलसर, कैंसर, हृदय विकार, उच्चरक्तचाप, मस्कुल डिस्ट्राफी आदि जैसे भयंकर रोगों का जन्म होता है। इसके विपरीत शाकाहार एक प्राकृतिक आहार है, अधिक पौष्टिक और गुणकारी है, सस्ता और सरल है, चित्त को शान्त बनाये रखता है और पर्यावरण को सुरक्षित रखता है। जैनधर्म ने शाकाहार को तो प्रश्रय दिया ही है, उसमें भी भक्ष्य-अभक्ष्य के आधार पर चिन्तन किया हैं। श्रावक से आशा की जाती है कि वह कन्दमूल, बहुबीजक फल आदि न खाये तथा मर्यादित भोजन करे। उमास्वामी श्रावकाचार ने अभक्ष्य पदार्थों की एक लम्बी सूची दी हैं तदनुसार अज्ञात पुरुषों के पात्रों में से भोजन करना, दुर्गन्धित छाछ लेना किसलय गीले पात्र में रखी वस्तुओं को खाना, पुष्प खाना, दो दिन बासी छांछ और दही खाना, कमलनाल,काजी, बिना छना पानी आदि ग्रहण, करना उत्तम श्रावक के लक्षण नहीं हैं। जैन साहित्य के इन उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि जैन परम्परा में कन्दमूल पंचोदुम्बरफल आदि अभक्ष्य माने गये हैं। कन्दमूल वनस्पतियाँ सीधी मिट्टी के अन्दर रहती है जहाँ नमी रहने और सूर्य की किरणों के न पहुंचने के कारण सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाती हैं उदुम्बर फलों में भी असंख्य कीड़े रहते हैं। उनका भक्षण करने से उन जीवों की मृत्यु हो जाती है। ये जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमारी साधारण आँखों से वे दिखाई नहीं देते। माइक्रोस्कोप से दिखाई दे जाते हैं। ये बैक्ट्रिया वाइरस जीव स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होते हैं। इसलिए जैनधर्म ने इनको अभक्ष्य माना है। भक्ष्य वनस्पतियाँ वे हैं जो एक ही पुष्प से विकसित होती हैं। अभक्ष्य वनस्पतियों Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) की जो सूची उमास्वामी श्रावकाचार (३०७-३३०) में प्रस्तुत की गई है वे बहुपुष्पीय हैं। दूध से दही बनाने की प्रक्रिया में भी सूक्ष्म जीव पैदा हो जाते हैं। दूध में रहने वाले लैकटोज और ग्लूकोज तत्त्व ग्लाइकोलिसिस द्वारा पाईरूविक अम्ल बन जाते हैं जिससे लेक्टिक एसिड के कारण दूध में खट्टापन आ जाता है। जैन परम्परा में गर्म दूध में जामन डालने के बाद दही की मर्यादा २४ घण्टे की है। इसके बाद उसमें बैक्ट्रिया पैदा हो जाते हैं। द्विदल की भी यही स्थिति होती है। दही में शक्कर डालने पर उसकी . मर्यादा ४८ मिनट की ही रह जाती हैं मक्खन में भी इसी तरह सूक्ष्म जीवाणु पैदा हो जाते हैं। इसी तरह आटे की मर्यादा बरसात में तीन दिन, ग्रीष्म में पाँच दिन और शरद में सात दिन मानी जाती है। साधारण प्रासुक जल की मर्यादा छ: घण्टे, पूर्णत: उबले जल की मर्यादा चौबीस घण्टे और सामान्यतः छने हुए जल की मर्यादा अन्तर्मुहूर्त मानी गई है। (व्रत विधान संग्रह पृ० ३१) अचार वगैरह भी पुराना हो जाने पर सूक्ष्म कीड़ों का घर बन जाता है। अत: फरमेन्टेशन जैसी क्रिया होने के पूर्व ही उनका उपयोग कर लेना चाहिए। जैन समाज में यह दोहा आज भी प्रचलित है, ओला घोरवडा निशिभोजन, बहुबीजा बैंगन सन्धान।। बड़ पीपल, ऊमर कठ-ऊमूर, पाकर फल जो हाये अजान ।। कन्दमूल माटी विष, आमिस, मधु, माखन अरु मदिरा पान। अति तुच्छ तुषार चलित रस, ये जिनमत बाईस बखान। ये सब फल सूक्ष्म जीवों से भरे रहते हैं। इसलिए जैनधर्म में इनके ख़ाने का निषेध किया गया है। जैनधर्म की आहार संहिता वस्तुत: बड़ी वैज्ञानिक है। मांस भक्षण से होने वाली हानियों को उसने वैज्ञानिक स्तर पर आंकलन किया है और उसकी परिधि को विस्तार देकर पूर्ण शाकाहार पर बल दिया है। ३. मद्यपान ___ मद्यपान भी एक जीवनघाती व्यसन है जो विवेक को समाप्त कर संयमि को नष्ट कर देता है और सारे जीवन को नरक बना देता है। यह एक विचित्र नशा है जो एक बार जीवन में प्रवेश कर गया तो निकलने का नाम नहीं लेता। भांग, अफीम, चरस, गांजा, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकु, विस्की, ब्राण्डी, रम, ब्राउन सुगर आदि सैकड़ों तरह की नशीली चीजें आज बाजार में उपलब्ध हैं जो व्यक्ति का जीवन बरबाद करने में लगी हैं। तृष्णाओं और इच्छाओं की अनापूर्ति से त्रस्त होकर मानसिक तनाव को भुलाने के लिए मद्यपान आदि जैसी नशीली चीजों का उपयोग एक आम रिवाज- सा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) बन गया है। शायद यही कारण है कि अन्य व्यसनों के समान इसे भी किसी न किसी बहाने विहीन बना दिया गया है। जैन संस्कृति में मदिरापान को हिताहित ज्ञान का विध्वंशक माना है । यादवों की बरबादी मद्यपान से ही हुई । एकपात नामक संन्यासी का भी उन्होंने उदाहरण दिया कि उसने मद्यपान कर मांस भी खाया और भीलनियों का भी उपयोग किया (उपासका, २७८)। वसुनन्दि ने मदिरापान के निम्न दोषों का वर्णन किया है— उन्मत्तता, हिताहित का ज्ञान न होना, लोक मर्यादा का उलंघन, कुत्ते की भी टट्टी-पेशाब मुंह में डाले रहना, द्रव्य का अपहरण करा लेना, मारना (श्रा० ७०-७९) । लाटी संहिता (१. ६७-७०) श्रावक सारोद्धार (३. १२-१५), पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (६२) पद्मनंदी पंचविंशतिका (१.११७) आदि श्रावकाचार ग्रन्थ भी इस संदर्भ में उद्धणीय हैं। मद्य निश्चित ही हिंसाजन्य है। उसके पीने से ज्ञान तन्तु शिथिल हो जाते हैं, शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं और अर्थोपार्जन गड़बड़ा जाता है। मद्यपान को परिस्थितिजन्य नहीं माना जाना चाहिए। उसका तो वास्तविक मूल कारण है व्यक्ति की प्रतिरोध या नियन्त्रण शक्ति का अभाव। वह तो एक भोगवाद है जो क्षणभर के लिए तृप्तिकारी है पर पर्यवसान में दुःखदायी है (अवचेतन मन) पर उसका असर पड़ता था। बौद्ध साधक गुरुजियेफ शराब पिलाकर साधक के मन की प्रकृति को समझ लेता था। उमास्वामी श्रावकाचार (१.६४-७९) में मद्य के अन्तर्गत भांग, अफीम, धतूरा, खसखस के दाने आते है। ये सभी पदार्थ नशा पैदा करते हैं, उन्मत्ता को जन्म देते हैं, बुद्धि भ्रष्ट करते हैं, व्यभिचार की ओर मोड़ते हैं, अभक्ष्य भक्षण होता है और उनमें खाने पीने से संक्लेशमय परिणाम होते हैं। जैनाचार्यों ने मदिरापान की आदत को अत्यन्त हिंसक और घातक माना है। हरिभद्र ने उसके सोलह दोषों का उल्लेख किया है। शरीर का विद्रूप हो जाना, रोगों का उत्पन्न हो जाना, तिरस्कार, अक्षमता, द्वेष, स्मृति और ज्ञान- भ्रंश, विवेक विनाश, सत्संगति विनाश, वचन परुषता, बुरी संगति, कुलहीनता शक्तिह्रास तथा धर्म-अर्थ काम का विनाश। इन दुर्गुणों को देखकर जैन सम्राट कुमारपाल ने राज्यशासन की ओर से मदिरापान पर प्रतिबन्ध लगाया था। ४-५. परस्त्री सेवन और वेश्यागमन परस्त्री सेवन और वेश्यागमन भी एक आदत ही है जो समाज में प्रारम्भ से ही प्रचलित रही है। कामवासना को संयमित करने के लिए विवाह प्रथा प्रारम्भ हुई पर परस्त्री, परपुरुष और वेश्यागमन जैसी स्वेच्छाचारिता समाज में प्रारम्भ से ही पल्लवित होती रही हैं धन, धार्मिक अन्धविश्वास, बुरी संगति, अनमेल विवाह, मद्यपान आदि अनेक ऐसे कारण हैं जिनसे व्यक्ति इन दोनों प्रकार के व्यसनों में फंस जाता है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) वैदिक आख्यान ऐसे तथ्यों से भरे पड़े हैं जिनमें ऋषि, महर्षि, महाराजे तथा . सामान्य जन इन दोनों व्यसनों में आपादकण्ठ मग्न रहे हैं । यहाँ हम उनका उल्लेख नहीं करना चाहेंगे पर इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि वैदिक स्मृति और पौराणिक आदि सभी कालों में इन दोनों व्यसनों को गर्हित सामाजिक दोष के रूप में देखा जाता था। व्यभिचार में प्रवृत्त व्यक्ति को इसीलिए बन्दी बनाया जाता था और वैश्य से शुल्क लिया जाता था। वर्णों के अनुसार स्मृतिकाल में इसके लिए दण्डविधान भी किया गया है। जैन परम्परा में इन दोनों व्यसनों को जीवन घातक माना गया है। वहाँ वेश्यागमन के दोषों का आख्यान हैं नीच लोगों का उच्छिष्ट भोजन खाना जैसा, द्रव्य- हरणं, नीच पुरुषों की दासता, अपमान, भयानक दुःख आदि (वसु० श्रा० ८८-९३) चारुदत्त ने . वेश्यागमन के कारण ही अपनी सारी सम्पत्ति लुटा दी थी। इसी तरह परस्त्री सेवन में भी तरह-तरह की विपदायें आती हैं - पापोपार्जन, असत्यप्रलाप, चिन्तातुरता, स्त्री विरह से संतप्त हो जाना, स्त्री- चित्त को न जानकर मद्यादि का सेवन, हठात् परस्त्री का अपहरण, भयाकुलता, राजदण्ड, समाजदण्ड आदि: • (वसु श्रा० ११२-१२४) । उपासकाध्ययन, वसु० श्राव. (८८- ९३; ११२-१२४) ग्रन्थ भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। ६. आखेट आखेट को भी द्यूतादि के समान मनोरंजन का साधन माना जाता था पुराणकाल में। प्रसेन राजा सुसज्जित होकर आखेट के लिए गये थे ( वि० पु० ४.१३.३०)। विष्णु स्मृति एवं मनुस्मृति में इसे पतन का कारण माना गया है गुप्तकालीन मुद्राओं पर वाघ का आखेट करने वाले गुप्त नरेशों के चित्र उत्कीर्ण हुए हैं। वाजसनेय संहिता (१६.२७), तथा अथर्ववेद में आखेट करने वालों के लिए 'मृगयु' शब्द का प्रयोग हुआ है। अवतारों की भूमिका और दुर्गा आदि देवियों की कहानियों में आखेट ही मुख्य तत्त्व रहा है। जैन धर्म में आखेट को हिंसा के अन्तर्गत माना है आखेटक निष्ठुर और निर्दयी होता हैं। वसुनन्दी ने उसे महापातक कहा है (वसु० भाव० ९४ - १०० ) । लाटी संहिता में कहा गया है कि दूसरे के रक्त पर खुद का मनोरंजन करना कहाँ की मानवता है ? जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख भरे पड़े हैं। चौर्यकर्म चौर्यकर्म एक सामान्य दोष था । इसलिए इसे किसी भी काल में किसी ने भी किसी भी कारण से अच्छा नहीं माना। यह वस्तुतः एक राष्ट्रीय अपराध था । प्रारम्भ में चोरी छोटी-छोटी सी वस्तुओं को चुराने तक सीमित रहती है पर धीरे-धीरे आदत ७. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) का रूप ले लेने पर वह घनघोर अशान्ति असम्मान और दुःख का कारण बन जाती है। सभी धर्मों ने चोरी को महापातक माना है भले ही उसकी व्याख्या कैसी भी की गई हो। जैन परम्परा में चोरी पर भी बड़ी गहराई से विचार किया है। वहाँ गड़ा धन ग्रहण करना भी चोरी माना गया है। तराजू को कम-बढ़ करना, चोरी का उपाय बताना, चोरी का माल खरीदना, देश में युद्ध छिड़ जाने पर पदार्थों का संग्रह करना भी एक प्रकार से चोरी की ही सीमा में आ गया है। श्रीभूतिने भद्रमित्र की धरोहर (रत्न) वापिस नहीं की जिसके कारण बाद में वह पकड़ा गया (३७५ पद्म) और चोरी का दण्ड दिया गया। चोरी के कारण जो आपत्तियाँ आती हैं वे हैं- अनेक यातनायें, थर-थर कांपना, भयभीत होना, आत्मीय जनों के भी द्रव्य का अपहरण होना, परलोक से भी नहीं डरना, अपमान, फांसी आदि (वसु०. श्रा० १०१-१११)। आजकल का भ्रष्टाचार और स्केण्डलसं आदि भी चोरी के ही अन्तर्गत आते हैं। सूत्रकृतांग आदि ग्रन्थों में बिना दी हुई चीज को ग्रहण करना चोरी माना गया है और अचौर्य व्रतधारी व्यक्ति-साधक के लिए दांत कुरेदने के लिए तिनका भी न लेने का विधान किया गया है (१०-२; उत्तरा; १९.२८)। प्रश्न व्याकरण सूत्र में चोरी के तीस नाम दिये गये है जो उसकी प्रकृति को दर्शाते है- परहत, अदत्तादान, क्रूरकृत, परद्रव्यलाभ, असंयम, लम्पटता, तस्करता, अपहरण, पापकर्म का कारण, अप्रीतिकारक, विनाश, छल कपट कर्म आदि (सू० १०)। चोरी के मूल कारण हैंदरिद्रता, फिजूलखर्ची, यश:कीर्तिकी लालसा स्वभाव, अराजकता, अज्ञानता आदि (उत्तरा० ३२-२९)। भोग वासना पर संयम न होने का फल चौर्य व्यसन को अमन्त्रित करना है। जैनाचार्य ने चोरी को आध्यात्मिक और सामाजिक दोष के रूप में अभिव्यक्त किया हैं। सारे श्रावकाचारों में इसे अणुव्रतों के अन्तर्गत रखा गया है जो श्रावक होने का प्राथमिक लक्षण है। जैनधर्म में वर्णित ये सप्त व्यसन सभी प्रकार के व्यसनों को अन्तर्भूत कर लेते हैं और एक के आने पर सभी अप्रतिहत गति से चले आते हैं। जैनाचार्यों ने इनकी हानियों पर खूब प्रकाश डाला है और व्यक्ति को सम्बोधित कर उसके जीवन से अन्धकार को दूर करने का प्रयत्न किया हैं इस संदर्भ में अनेक जैनाचार्यों ने अनेक कथाओं का निर्माण किया है और यह स्पष्ट किया है कि सप्तव्यसन एक दूसरे से सम्बद्ध है। जीवन में एक के प्रवेश हो जाने पर दूसरों के प्रवेश को रोका नहीं जा सकता। वह एक आदत बन जाती है जो विवेक पर परदा डालकर मन में बैठ जाती है। परिस्थिति का बहाना कर विवेक को दरकिनारे कर दिया जाता है। फलत: अपराध, अकर्मण्य, आलस, अक्षमता, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) दुर्बलता, मानसिक तनाव आदि जैसे तत्त्वों से व्यक्ति बुरी तरह घिर जाता है। जैनाचार्यों ने व्यसनों के इन परिणामों से व्यक्ति को खब आगाह किया है और तरह-तरह के दृष्टान्त देकर उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया है। (वसु. श्राव. १२५१३४) उनका कहना है कि मादक द्रव्य स्थायी शान्ति-प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता। क्षणभर के लिए अपने को भुलावे में भले ही रखा जा सकता है। व्यसन-लिप्तता के कारण नरकादिक गतियों के दुःख को भी भोगना पड़ता है (वसु० श्रा० १३४-२०४)। . सर्वाधिक मुख्य बात है यह कि मानसिक तनाव के कारणभूत लोभ, ईर्ष्या क्रोध, ' अहंकार आदि विक्षिप्तकारी विकार भावों से दूर रहने का सही प्रयत्न होना चाहिए। निष्कामता, अतृप्त वासना पर संयम, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि कुछ ऐसे उपाय हैं जिनसे आदतों से मुक्ति पाई जा सकती है। अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते हुए यथार्थ तत्त्व की परम सत्यता पर बार-बार चिन्तन करने से मनोबल बढ़ता है, विचारों में निर्मलता आती है, सांसारिकता की क्षणभंगुरता और अनित्यता पर विश्वास जमने. लगता है, भेदविज्ञान की धार गहरी होने लगती है और साधन-साध्य की त्रिशुद्धि से चेतना जागरूक हो जाती है। ___ आदतों का मूल कारण अतृप्त वासना जाल है जो कभी तृप्त हो भी नहीं पाता। वह तो एक गोलचक्कर है जिसका कहीं कोई अन्त ही नहीं। 'मैं' और 'मम' की समस्या से भरा यह व्यक्ति जलपोतकाक न्याय के अनुसार चारों तरफ घूमकर पुन: वही बैठ जाता है। उसे संसार सागर का अन्त ही दिखाई नहीं देता। आदत का वशीभूत व्यक्ति पशु से भी गया बीता हो जाता हैं पशु जगत् में तनाव का क्रम रहता है- परिग्रह, मैथुन, भय और भोजन। सर्वाधिक तनाव उसमें मन में भोजन, परिग्रहण और काम (मैथुन) काम वासना उसके लिए सर्वाधिक तनाव का कारण बनता हैं यही से व्यसनों के चक्कर में वह फंसने लगता है। ____ व्यसनों से मुक्त होने का सरल तरीका यह है कि व्यक्ति आवेगों से मुक्त रहे, प्राकृतिक भोजन करे, सह-अस्तित्व की भावना रखे, मानसिक चंचलता से बचने के लिए ध्यान करे और प्रतिक्रिया से दूर रहे। आज सारी वर्जनाये समापत हो रही है। टी० व्ही० और विज्ञापन के माध्यम से व्यसनों ने व्यक्ति के मन में बुरी तरह से सेंध लगाना शुरु कर दिया है। ऐसी स्थिति में डॉक्टर आवेगों को रोकने के लिए नस काट सकता है पर वह उसका स्थायी समाधान नहीं हैं स्थायी समाधान है आध्यात्मिक प्रक्रिया को प्रारम्भ कर देना। व्यसन मुक्त समाज की स्थापना इसी से हो सकती है सामाजिक प्रदूषण दूर करने का उपाय यही है। व्यसन वस्तुत: भोगवाद की परिणति है जो क्षणभर के लिए भले ही तृप्तिकारी प्रतीत हो पर पर्यवसान में वह एकान्त दुःखदायी होती है। परिस्थिति का बहाना मात्र Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) स्वयं को धोखा देना हैं अपनी प्रतिरोधात्मक शक्ति पर परदा डाल देना है। उसे न समाजवाद में देखा जा सकता है न सर्वोदयवाद में और न उसका कोई स्थान साम्यवाद में है। वह तो व्यक्ति का एक अहं नशा है जिसे वह अपने पारिवारिक, सामाजिक आदि के संघर्ष को भुला देने का साधन मान बैठता है। उसके जीवन में न चिरस्थायी शान्ति आती है और न वह अपने चरित्र का उत्कर्ष कर पाता है। उसके मान, विचार और व्यवहार में दीमक लग जाती है और वह अध्यात्म की परिभाषा को पूरी तरह भूल जाता है। व्यसन में आकण्ठमग्न व्यक्ति का जीवन क्रान्ति की घटना को छ भी नहीं पाता। चित्त की परतन्त्रता में आनन्द रफूचक्कर हो जाता है। उसके विकास के पंख उसी तरह कट जाते है जिस तरह पिंजरे में बैठी चिड़िया पंख रहते हुए भी उड़ना भूल जाती है। वह एक थोड़ी शान है, शान का एक मनगढन्त स्टेटस सिम्बल है, सभी को धोखा देने वाले साधन है उसी तरह जिस तरह खेत में झूठा आदमी खड़ा रहता है। व्यसन की परतन्त्रता से मक्त होने के लिए आध्यात्मिक जागरण और मानसिक शान्ति का होना आवश्यक है। वृत्ति का उदात्तीकरण बिना आत्मचिन्तन के नहीं हो सकता। आत्मशक्ति की पहचान और स्व-पर पदार्थों के बीच भेदकरेखा खींचे बिना व्यसनं से मुक्ति पाना नितान्त कठिन है। यही कारण है कि जैनचार्यों ने व्यसन त्याग को व्रत की सीमा से जकड़ दिया है और व्यवस्था की सीमा से बाहर कर दिया है। व्यवस्था में देशकाल के अनुसार परिवर्तन होता रहता है पर व्रत तो जीवन शुद्धि का एक विशिष्ट साधन है। जैनाचार्यों ने व्यसन त्याग को इसीलिए व्रत में परिगणित कर दिया हैं सामाजिक पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने के लिए व्यसन मुक्त जीवन अत्यावश्यक है अन्यथा इसी जीवन में सातवें नरक के दर्शन होने लगेंगे। ___ पाक्षिक श्रावक एक सामान्य श्रावक की संज्ञा है जिसके आचरण से सारा सामाजिक पर्यावरण बदल जाता है। उसकी महारम्भत्याग वृत्ति, सेवाभाव, निरपेक्षता, इन्द्रिय, निग्रह, शीलता, अनासक्ति, अक्रूरता, माध्यस्थभाव, उदारता, न्यायमार्ग वृत्ति, कृतज्ञता, दानशीलता आदि सद्गुण सभी प्रकार के दुर्व्यसनों से उसे दूर रखते हैं। उसकी अहिंसक वृत्ति उसे सही मानव बनने का मार्ग प्रशस्त कर देती है। उपभोग परिमाणव्रत जैसे कदम एक ओर भोजन सम्बन्धी तृष्णा को समाप्त करने में सहयोग देते हैं तो दूसरी ओर हिंसक उद्योगों और कार्यों से दूर रहने की भी प्रेरणा जाग्रत करते हैं। एतदर्थ जैनधर्म पन्द्रह प्रकार के कर्मादानों से मुक्त रहने का आश्वासन चाहता है- अंगार कर्म (वृक्षादि जलाना), वनकर्म (जंगलों को कटवाना), शाकट कर्म (गाड़ी, स्कूटर आदि बनाना), भाटक कर्म (ऊँट आदि को किराये पर देना), स्फोटनकर्म (खनिज पदार्थों से आजीविका चलाना), दन्त वाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, मदिरा आदि रस वाणिज्य, केश, वाणिज्य विष वाणिज्य, यन्त्र पीडन कर्म, निर्लाञ्छन कर्म (बैल आदि को नपुंसक बनाना), दावाग्नि दापन, सरो-हृद-तडाग शोषण और असतीजन पोषणता (वेश्यादि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) कर्मों से आजीविका चलाना)। इन नियमों का पालन करने से सादगी भरे जीवन का निर्माण होता है और परिवार सुखी रहता है। ४. नैष्ठिक श्रावकः आत्मिक उन्नति का दूसरा कदम १. ग्यारह प्रतिमायें श्रावक के व्रतों का परिपालन करने वाला श्रावक नैष्ठिक कहलाता हैं कषायों के क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि करने की दृष्टि से श्रावक देशसंयम का घात करने वाली .. दार्शनिक ग्यारह प्रतिमा रूप समय स्थानों का पालन करता है। नैष्ठिक श्रावक १ से ११ प्रतिमा तक के आराधक होते हैं। इसमें सम्यग्दर्शन ' की शुद्धता को प्राप्त किया जाता है, षडायतनों का पालन किया जाता है, जाति आदि आठ मदों से दूर रहा जाता है, लौकिक, पारलौकिक आदि सात भयों से मुक्त रहता है, संवेग, निर्वेद, उपशम, स्वनिन्दा, स्वगर्हा, अनुकम्पा, आस्तिक्य और वात्सल्य नामक आठ गुणों को प्राप्त करना है, सप्त व्यसनों और पंचपापों से दूर रहता है (श्रावक धर्मप्रदीप-द्वितीय अध्याय)। इससे इसकी चित्तवृत्ति शान्त हो जाती है। निम्नोक्त ११ प्रतिमायें नैष्ठिक श्रावक के आध्यात्मिक विकास की असमर्थतायें हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग। इस वर्गीकरण का मूल आधार शिक्षावत्र रहा हैं आचार्य कुन्दकुन्द ने सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में सम्मिलित किया है। वसुनन्दि ने उनका अनुकरण कर सल्लेखना को तृतीय प्रतिमा के रूप में स्वीकार किया पर उमास्वामी, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने सल्लेखना को मारणान्तिक कर्तव्यों में रखा। कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने छठी प्रतिमा का नाम रात्रिभुक्तित्याम रखा। पर उत्तरकाल में उसके विवेचन में कुछ अन्तर हो गया। उपासकदशांग (१-६८) के टीकाकारों ने प्रतिमाओं के नाम इस प्रकार दिये हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, कायोत्सर्ग, ब्रह्मचर्य, सचित्ताहार त्याग, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग (भूतकप्रेष्यारम्भ वर्जन) उद्दिष्टभुक्तित्याग और श्रमणभूत' प्रतिमायें नवीन हैं। यहाँ हम सल्लेखना को मारणान्तिक कर्म मानकर सर्वमान्य प्रतिमाओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं२. दर्शन प्रतिमा : आत्मा में आस्था का स्वर दार्शनिक श्रावक वह है जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो संसार, शरीर और भोगों १. दशाश्रुतस्कन्ध के छठे उद्देश्य में भी ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन मिलता है पर कुछ भिन्न रूप में। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) से मुक्त हो, अरहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पंच परमेष्ठियों का उपासक हो तथा सत्यमार्ग का अनुयायी हो सम्यग्दर्शनशुद्धः संसार- शरीर भोगनिर्विण्णः । पंचगुरुचरणशरणो दार्शनिकस्तावपथगृह्यः । । १ यहाँ दार्शनिक श्रावक होने की सबसे आवश्यक शर्त यह है कि वह सम्यक्त्वी होने के लिए उसे वीतरागी आप्तदेव, आगम और जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सप्त तत्त्वों पर आस्था होना अपेक्षित है। ऐसा सम्यक्त्वी दार्शनिक श्रावक संसार की अनश्वरता और आत्मशक्ति पर विचार करते-करते शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टित्व, अनूपगहनत्व, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना इन आठ दोषों से दूर हो जाता है और अपनी आत्मा में नि:शंकित आदि आठ गुण प्रगट कर लेता है। वसुनन्दि ने दर्शन प्रतिमा के सन्दर्भ में पंचोदुम्बर और सप्तव्यसन न्याय की बात कही है ( २०५-६)। ३. सम्यग्दर्शन के विघातक दोष : अध्यात्मिकता का अभिशाप सम्यग्दृष्टि जीव लोक, देव और पाखण्ड इन तीन मूढताओं से दूर रहता है । वह सूर्य को अर्घ देना, नदी, समुद्र आदि में स्नान करना, अग्नि की पूजा करना, चन्द्र, सूर्य आदि को देवतारूप में स्वीकार करना, विविध वेषधारी पाखण्डी साधुओं का आदर-सम्मान करना आदि जैसी मूढताओं, क्रियाओं और अन्ध मान्यताओं पर विश्वास भी नहीं करता। अपने ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, सिद्धि, तप और शरीर इन आठ . प्रकार के मद-अभिमान में वह कोसों दूर रहता है। कुदेव, कुमतावलम्बी सेवक, कुशास्त्र, कुतप, कुशास्त्रज्ञ और कुलिंग, इन षट्अनायतनों से वह अपने आपको बहुत दूर रखता हैं इन अनायतनों का विकास सम्भवतः उत्तरकालीन रहा होगा। शंकादि आठ दोषों से भी उसे मुक्त होना चाहिए। - निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से बारह भावनाओं का अनुचिन्तन भी अपेक्षित साथ ही उत्तम क्षमादि दश धर्मों का पालन किया जाना चाहिए। अनुप्रेक्षाओं और धर्मों का पालन करने से श्रावक की वृत्तियाँ शान्त होने लगती हैं और वह सम्यक्त्व की ओर अग्रसर हो जाता है सम्यक्त्व होने से पूर्व उसे पाँच लब्धियां प्राप्त होती हैं१. क्षयोपशम (देशघाती) स्पर्शो के उदय सहित कर्मों की अवस्था, २. विशुद्धि (मंदकषाय), ३. देशना (तत्त्वों का अवधारण), ४. प्रयोग्य अथवा यथाप्रवृत्तिकरण (मंदता) और ५. करण (निर्मल परिणाम ) । करणलब्धि के तीन भेद किये गये हैंअध:करण (पहले और पिछले समय में परिणाम समान हों), अपूर्वकरण (अपेक्षाकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १३७. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) अधिक विशुद्ध हो) और अनिवृत्तिकरण (हर समय परिणाम निर्मल हों)। सम्यग्दर्शन अध्यातम क्षेत्र में एक प्रकार से विशुद्ध पर्यावरण है और मिथ्यात्व कर्म उसका प्रदूषण है। जिस प्रकार चक्की में पिसने पर कोदों के तीन भाग हो जाते हैं- चावल, भूसी और कण। उसी प्रकार उपशम सम्यग्दर्शन रूपी चक्की के द्वारा पीसे जाने पर मिथ्यात्वकर्म भी तीन भागों में बंट जाता है, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ मिल जाने पर सात भेद दर्शन मोह सप्तक कहलाते हैं। इन सातों प्रकृतियों के उपशम हो जाने पर उपशम सम्यक्दर्शन होता है (२.१६-१९)। श्रावक चर्या का यह क्रमिक विकास साधक ही भावात्मक निर्मलता की विकासात्मक कहानी हैं यह विचार और कर्म में समन्वय स्थापित कर समता और सहिष्णुता के बल पर अपना जीवन-यापन करता है। ४. अष्टमूलगुण परम्परा और सामाजिक सदाचार ____ अष्टमूलगुणों का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य समन्तभंद्र ने किया है और उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अचौर्य और अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत तथा मद्य, मांस व मधु इनको मिलाकर अष्टमूलगुण माना है। परन्तु उनके पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्टमूलगुण का उल्लेख भी नहीं किया। मात्र बारह व्रतों के नाम गिना दिये। संभव है कुन्दकुन्द ने मद्य, मांस, मधु के भक्षण का निषेध अहिंसा के अन्तर्गत कर दिया हो अथवा यह भी हो सकता है कि उनके समय मद्य, मांस, मधु के खाने की प्रवृत्ति अधिक न रही हो। समन्तभद्र के आते-आते यह प्रवृत्ति कुछ अधिक बढ़ गई होगी। इसलिए उसे रोकने की दृष्टि से उन्होंने मूलं गुणों की कल्पना कर उनके परिपालन का विधान कर दिया। परन्तु आश्चर्य है, तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द ने भी उनका कोई उल्लेख नहीं किया। रविषेण (वि.स. ७३४) ने दोनों मतों का समन्वय किया। एक ओर उन्होंने केवली के मुख से श्रावक के बारह व्रतों की गणना की तो दूसरी ओर मधु, मद्य, मांस, छूत, रात्रिभोजन और वेश्यागमन को छोड़ने के लिए “नियम' निर्धारित किया। प्रथम तीन के साथ-साथ अन्तिम दो दोषों का अधिक प्रचार हो जाने के कारण आचार्य को ऐसा करना पड़ा होगा। जटासिहंनन्दि ने कुन्दकुन्द का अनुगमन किया। कार्तिकेय ने पृथक् रूप में मूलगुणों का उल्लेख तो नहीं किया पर दर्शन-प्रतिमा में उन्हें सम्मिलित-सा १. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६६. २. चारित्रप्राभृत, २२. ३. पद्मपुराण, १४.२०२. ४. वही, १४.२७२.. ५. वरांगचारित, २२.२९-३०. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) अवश्य कर दिया।' जिनसेन (८- ९ वीं शती) ने भी रविषेण का ही अनुकरण किया। मात्र अन्तर यह है कि यहाँ रात्रिभोजनत्याग के स्थान पर परस्त्रीत्याग का निर्धारण किया गया है।२ महापुराण का उल्लेख कर चामुण्डराय ने स्पष्टतः समन्तभद्र का साथ दिया है। परन्तु महापुराण में यह प्रतिपादक श्लोक उपलब्ध नहीं । वसुनन्दि ने उनका स्पष्टतः यह उल्लेख अवश्य नहीं किया पर दर्शन प्रतिमाधारी को पंचोदुम्बर तथा सप्तव्यसन का त्यागी बताया है और यही मद्य-मांस-मधु के दुर्गुणों का उल्लेख किया है । ४ सोमदेव, ५ देवसेन,' पद्यनन्दी,७ अमितगति, ' आशाधर, अमृतचन्द्र १° आदि आचार्यों ने प्रायः समन्तभद्र का अनुकरण किया है। आशाधर ने जलगालन को भी अष्टमूलगुणों में माना है (स.ध. २.१८)। इस पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट है कि अष्टमूलगुण की परम्परा आचार्य समन्तभद्र ने प्रारम्भ की जिसे किसी न किसी रूप में उत्तरकालीन प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार किया। अर्धमागधी आगमशास्त्रों में भी मूल गुणों का उल्लेख देखने में नहीं आया। अतः यह हो सक़ता है कि समन्तभद्र के समय मद्य, मांस, मधु का अधिक प्रचार हो गया हो और फलतः उन्हें उनके निषेध को व्रतों में सम्मिलित करने के लिए बाध्य होना पड़ा हो। अषृमूलगुण परम्परा की इस इतिहास कथा में सामाजिक प्रदूषण की इतिहास कथा छिपी हुई है। ५. षटकर्म : आध्यात्मिक धर्म यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कुन्दकुन्द, जटासिंहनन्दि तथा जिनसेन ने दान, पूजा, तप और शील को, श्रावकों का कर्तव्य कहा। उत्तरकाल में इन्हीं का विकास कर आचार्यों . ने षटकर्मों की भी स्थापना कर दी। भगवज्जिनसेनाचार्य ने पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप को श्रावक के कुलधर्म के रूप में स्थापित किया । ११ सोमदेव और पद्मनन्दि ने भी इन्हें षट्कर्मों के नाम से स्वीकार किया। वार्ता, स्वाध्याय, और संयम को शील के ही अंग-प्रत्यंग मानकर यह संख्या बढ़ाई गई होगी, ऐसा न मानकर उन्हें स्वतंत्र ही कहना चाहिए। १२ १. कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, ३२८. ३. चारित्रसार, ११.१२२. ४. ६. ८. हरिवंशपुराण, १८.४८. वसुनन्दि श्रावकाचार, १२५-१३३. भावसंग्रह, ३५६. ५. उपासकाध्ययन, ८.२७०. ७. पद्मनन्दि पचविंशतिका, २३. ९. सागारधर्मामृत, २.१८. ११. आदिपुराण, ४१.१०४; ८.१७८; ३८.२४.२५. १२. उपासकाध्ययन, भूमिका, पृ. ६५-६६. १०. सुभाषितरत्नसंदोह, ७६५. पुरुषार्थ सुद्ध्युपाय, ६१-७४. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) मूलगुणों के इतिहास से ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे लोगों की सरलता और बाह्य-प्रदर्शन की ओर प्रवृत्ति बढ़ती गई। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि अणुव्रतों के स्थान पर पंचोदुम्बर त्याग का विधान बहुत छोटा है। इसलिए रत्नमालाकर ने पंच अणुव्रत और मद्य-मांस-मधु का त्याग रूप अष्टमूलगुण पुरुष के माने हैं और पँचोदुम्बर तथा मद्य-मांस-मधु त्याग रूप मूलगुण बच्चों के माने हैं।१ उदुम्बर फलों तथा मद्य-मांस-मधु के भक्षण की ओर हुई प्रवृत्ति को रोकने के लिए शायद यह विधान किया गया होगा। सावयधम्मदोहा में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि आजकल जो मद्य-मांस-मधु का त्याग करे वही श्रावक है। क्या बड़े वृक्षों से रहित एरंण्ड के वन में छाया नहीं होती। जो भी हो, सामाजिक आचरण और पर्यावरण को प्रदूषित होने से अवश्य बचाया गया है इन मूल गुणों का परिपालन कराकर। ६. बारहव्रत और सामाजिक सदाचार श्रावकाचारों में श्रावक के बारह व्रतों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है- पांच अणुव्रत-अहिंसा, अस्तेय, सत्य, स्वदारसंतोष और इच्छां-परिमाण। तथा सात शिक्षाव्रत-दिग्व्रत, उपभोगपरिमाणव्रत, अनर्थदण्ड विरमण व्रत, सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग। जैन ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि महावीर का मूल उपदेश अहिंसा की पृष्ठभूमि में रहा होगा। बाद में उसी के स्पष्ट और विकसित रूप में बारह व्रतों की गणना आयी होगी। उवासगदसाओ (१.४७) में प्रथमत: दिग्व्रत और शिक्षाव्रत का निर्देश नहीं मिलता। उन्हें बाद में वहाँ जोड़ दिया गया हैं सल्लेखना और ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन वहाँ अवश्य मिलता है। इसे व्रत प्रतिमा के अन्तर्गत रखा जाना उचित है। ५. अणुव्रत आत्मा संरक्षण की प्रतिज्ञा अणव्रती को त्रस जीवों का घात न हो ऐसे काम करना चाहिए। कृषि, धान्यसंग्रह, गुड़, तेलादि का संग्रह न करे। लाख, शस्त्र, चमड़ा, पशु-पक्षी आदि का व्यापार न करे। हिंसक पशु-पक्षियों को न पाले (उ०प० १७७-८३)। इसी के साथ प्रत्येक व्रत की पांच भावनायें है- पांच समितियां हैं। जिनसे अणुव्रतों को निर्दोष रूप से पालन करने में मदद मिलती है (भग. आ. २०८०)। १. मद्यमांस मधुत्याग संयुक्ताणुव्रतानि नुः। अष्टो मूलगुणा: पंचोदुम्बरश्चार्यकेष्वपि।। . रत्नमाला, १९. २. मज्जु मंसु महु परिहरइ क्षयइ सावउ सोइ। णीरक्खइ एरण्ड वजि किं ण मवाई होइ।। सावयध म्मदोहा, ७७. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) अणुव्रत के पांच प्रकार हैं। इसके नामों के विषय में कुछ मतभेद हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्थूल त्रसकायवध परिहार, स्थूल मृषापरिहार, स्थूल सत्यपरिहार, स्थूल परपिम्म परिहार (परस्त्रीत्याग) तथा स्थूल परिग्रहारंभपरिमाण माना है। १ समन्तभद्र ने स्थूल प्राणतिपात व्युपरमण, स्थूल वितथव्याहार व्युपरमण, स्थूल स्तेयव्युपरमण, स्थूल कामव्युपरमण, (परदारनिवृत्ति और स्वदारसंतोष) और स्थूल मूर्च्छा व्युपरमण को अणुव्रत स्वीकार किया । २ रविषेण ने चतुर्थव्रत का नाम “परदारसमागमविरति’” और पांचवे का नाम “अनन्तगर्द्धाविरति" रखा । ३ जिनसेन ने चतुर्थव्रत का नाम “परस्त्रीसेवननिवृत्ति” तथा पांचवें का नाम " तृष्णाप्रकर्षनिवृत्ति" दिया। आशाधर ने चतुर्थव्रत को “स्वदारसंतोष व्रत" नाम दिया। इनमें नामों का अन्तर है, व्रतों का नहीं इन व्रतों के अतिचारों में भी कुछ मतभेद हैं । व्रत की शिथिलता को अतिचार कहते हैं। इनका सर्वप्रथम वर्णन तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है। उपासगदसाओं में भी यह परम्परा मिलती है। पर दोनों में पूर्वतर कौन है, कहा नहीं जा सकता। १. अहिंसाणुव्रत उवासगदसाओं में आनन्द ने महावीर के पास जाकर अहिंसाणुव्रत धारण किया। यहाँ प्राप्त उल्लेख से अहिंसाणुव्रत के लक्षण का आभास इस प्रकार होता है— यावज्जीवन मन, वचन, काय से स्थूल प्राणातिपादा से विरक्त रहना अहिंसाणुव्रत है— थूलंग पाणाइवायं पच्चक्खाई, जावज्जीवाए दुविह तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा कायया। उत्तरकालीन परिभाषायें इसी के आधार पर बनी । समन्तभद्र ने इसमें “संकल्प” शब्द और जोड़ दिया। परन्तु पूज्यपाद ने संकल्प और मन, वचन, काय, दोनों का उल्लेख नहीं किया । " जबकि अकलंक ने मन-वचन, काय का तो " त्रिधा" शब्द से उल्लेख कर दिया “संकल्प” को छोड़ दिया।' सोमदेव और अमृतचन्द्र सूरि१° ने तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर हिंसा का लक्षण कर अहिंसा का लक्षण स्पष्ट किया है। हिंसा का लक्षण करते हुए उमास्वामी ने कहा है— कषाय के वशीभूत २. चारित्रप्राभृत १३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३.६. आदिपुराण, १०६३. ३. पद्मचरित्र १४.१८४-५. ५. उवासगदसाओ, १.४३. ६. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३.७. ७. सर्वार्थ. ७.२० की व्याख्या. ८. तत्त्वार्थवार्तिक, ७.२०. ९. यास्मादप्रयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम्। सा हिंसा रक्षणं तेषामहिंसा तु सतां मता। उपासकाध्ययन, ३१८. १०. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ४३. २. ४. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) होकर द्रव्यरूप या भावरूप प्राणों का घात करना हिंसा है। मद्य, मांस, मधु तथा . पंचोदुम्बर फलों का भक्षण भी हिंसा के अन्तर्गत आता है। अत: अहिंसाणुव्रती के लिए उनका त्याग करना भी आवश्यक बताया गया है। इस व्रत का पालन करने वाला, मन, वचन, काय और कृत कारित-अनुमोदना से त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता। बन्ध, बध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपान का निरोध इन पांच अतिचारों को भी वह वहीं करता। प्रश्नव्याकरणांग (१.१-३) में इस विषय पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। वैदिक संस्कृति में निर्दिष्ट यज्ञों का प्रचलन अधिक हुआ और हिंसा जोर पकड़ने लगी। फलत: श्रावक के लिए यह भी नियोजित किया जाना आवश्यक हो गया कि देवता के लिए, मन्त्र की सिद्धि के लिए, औषधि और भोजन के लिए वह कभी किसी जीव को नहीं मारेगा। इसी को श्रावक की “चर्या' कहा गया है। इस प्रकार का समय लगभग ७-८ वीं शती कहा जा सकता है। चर्चा तृ देवतार्थ वा मन्त्रसिद्धयर्थ मेव वा। औषधाहारक्लुप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ।।३ . सोमदेव ने तो बाद में उसे अहिंसा के स्वरूप में ही सम्मिलित कर दिया कि देवता के लिए, अतिथि के लिए, पितरों के लिए मन्त्रसिद्धि के लिए, औषधि के लिए और भय से सब प्राणियों की हिंसा न करने को “अहिंसाव्रत'. कहा है। देवतातिथिपित्रर्थ मन्त्रौषधभयाय वा। न हिंस्यात् प्राणिनः सर्वानहिंसा नाम तदव्रतम् ।। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय और सागारधर्मामृत में अहिंसा की और भी गहराई से व्याख्या की गई है। इस समय तक जो जैसे भी प्रश्न चिह्न अहिंसा की साधना के सन्दर्भ में खड़े हुए, उनका यथोचित और यथाविधि उत्तर इन ग्रन्थों में देने का प्रयत्न किया गया है। रात्रिभोजन ___ अहिंसा के प्रसंग में रात्रिभोजन त्याग पर भी विचार किया गया है। मुनि और श्रावक दोनों के लिए रात्रिभोजन वर्जित माना है। मूलाचार में “तेसिं चेव वदाणां रक्खटुं रादिभोयणविरत्ती' (५-९८) लिखकर यह स्पष्ट किया है कि पांच व्रतों की रक्षा के निमित्त “रात्रिभोजनविरमण” का पालन किया जाना चाहिए। इसी में अहिंसा व्रत की १. प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र, ७.१३. २. तत्त्वार्थसूत्र, ७.२५. ३. आदिपुराण, ३९.१४७. ४. उपासकाध्ययन, ३२०. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) पांच भावनाओं में “आलोकित भोजन" को भी सन्निविष्ट किया गया है। भगवती आराधना (६-११८५-८६, ६.१२०७) में भी शिवार्य ने यही कहा है। सूत्रकृतांग के वैतालीय अध्ययन में और वीरस्तुति अध्ययन में रात्रिभोजन निषेध का स्पष्ट उल्लेख है। वीरस्तुति अध्ययन में तो इसे महावीर का विशेष योगदान कहा गया है। दशवैकालिक सूत्र में इसे छठवाँ व्रत माना गया है— छट्ठे भंते एव उवट्ठिओमि सव्बाओ राई भोयणावेरमण, १ कुन्दकुन्द' ने ग्यारह प्रतिमाओं में "रायभक्त” त्याग को छठी प्रतिमा कहा है और उनके टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने "रात्रिभुक्तिविरत" कहा है। दशवैकालिक आदि की इस परम्परा का विरोध भी हुआ । मुनियों के लिए तो उसका अन्तर्भाव “आलोकितपान भोजन" में हो ही जाता है। बाद में इसे अणुव्रतों में भी सम्मिलित कर दिया गया। यह परम्परा तत्त्वार्थसूत्र के सभी टीकाकारों अर्थात् पूज्यपाद, ३ अकलंक,४ विद्यानन्द, ५ भास्करानन्दि, ६ एवं श्रुतसागरसूरि ̈ की। इनमें रात्रिभोजन त्याग को छठा अणुव्रत नहीं माना बल्कि उसका अन्तर्भाव “आलोकित भोजनपान" में कर दिया आचार्यों ने। समन्तभद्र ने छठी प्रतिमा का नाम " रात्रिभुक्तिविरत" रखा । ' कार्तिकेय ने भी इसे स्वीकार किया । " यहाँ छठी प्रतिमा के पूर्व रात्रिभोजनविरमण की बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता। देवसेन, १° चामुण्डराय ११ और आशाधर १२ ने भी इसी मत का अनुकरण किया है।१३ चारित्रसार (प. १९), उपासकाचार (श्लोक ८५३), वसुनन्दि श्रावकाचार (गा. २९६), अमितगतिश्रावकाचार ( ७.७२), भावसंग्रह ( ५३८), सागारधर्मामृत (७.१२) में इसका दूसरा ही अर्थ किया गया हैं वहाँ कहा गया है कि ज़ो केवल रात्रि में ही स्त्री भोग करता है और दिन में ब्रह्मचर्य पालता है उसे “रात्रिभुक्तव्रत” १. सूत्रकृतांग, ४.१६-१७; ८.२८. २. ३. सर्वार्थसिद्धि, ७.१; सं० टीका पृ० ३४३-४. ४. ं तत्त्वार्थवार्तिक, ७.१; सं० टीका पृ० २-४३४. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ७.१, सं० टीका ५.४५८. ६. सुखबोधिका टीका, ७-१ (स०टी०). ७. तत्त्वार्थवृत्ति, ७.१, सं० टीका. ८. ९. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३८२. चारित्रप्राभृत, २१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १४२. दर्शनसार. १०. ११. चारित्रसार, पृ० ७. १२. अनगार धर्मामृत, ४.५०. १३. रात्रिभोजन विरमण – डॉ. राजाराम जैन, गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृ. ३२३-६. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) और “दिवामैथुन रित" कहा जाता है। लाटी संहिता ( पृ० १९) में इन दोनों मतों को समन्वित कर दिया गया है। रात्रिभोजन में हानियों का उल्लेख करते हुए जैनाचार्यों ने स्वास्थ्य का आधार लेकर कहा है कि उससे नये रोगों की भी संभावना हो सकती हैं भोजन में मक्खी खाने में आ जाये तो उससे वमन होता है, यदि बाल आ जाये तो स्वरभंग हो जाता है, यदि जू (जुआ) खाने में आ जाये तो जलोदर आदि रोग उत्पन्न हो जाये और छिपकली खाने में आ जाये तो कोढ़ हो जाता है ( धर्मसंग्रह, ३.२३) । जो सूर्यास्त हो जाने पर भोजन - करते हैं वे सूर्य-द्रोही हैं तथा उन्हें मुर्दों के मृतक शरीर के ऊपर बैठकर भोजन करने वाला कहना चाहिए। रात्रि भोजन त्यागी व्यक्ति आधे जनम को उपवास के रूप में व्यतीत करता. है (धर्मसंग्रह ३.२५-३३) । वैज्ञानिक दृष्टि से भी रात्रिभोजन स्वास्थ्यप्रद नहीं है। .. संकल्पी हिंसा का त्यागी व्यक्ति को पशु-पक्षी, मनुष्य आदि का बंध, वधन, छेदन, अतिभारारोपण, भोजन न देना आदि जैसे काम नहीं करना चाहिए। नैष्ठिक श्रावक के लिए तो गाय आदि पालन द्वारा अपनी आजीविका चलाना भी अनुचित हैं। अहिंसाणुव्रती को प्रमाद छोड़कर दयाभाव करना चाहिए और विकथायें स्त्री-देश-राज-भोजन कथायें छोड़ देना चाहिए (सागर, ३.३.२२)। अहिंसाणुव्रत के अतिचारों में मारना, बांधना, छेदना, अधिक बोझ लादना और अन्नपान का रोक देना सम्मिलित हैं। इसके अन्तर्गत यह है — गाय, भैंस आदि मारना, पीटना, सांकल से बांधना कसकर उनकी नाक आदि अधिक छेदना, अपराधी का नाक-कान काटना, पशुओं पर अधिक बोझ लादना, उन्हें समय भोजन-पान न देना ये अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं। औद्योगिकीकरण के फल स्वरूप आज छोटे-छोटे बच्चों को मजदूरी में लगा दिया जाता है जिससे उनका मानसिक और शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। गरीबी के कारण कहीं वे घर गृहस्थी के कामों में लगा दिये जाते हैं, कहीं बंधुआ मजदूर के रूप में खेतों में काम करते हैं तो कहीं बीड़ी आदि उद्योगों में फंसे रहते हैं। भारत सरकार ने इस संदर्भ में अनेक कानून बनाये, अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संस्थान ने भी इस पर गहराई से विचार किया, पर फिर भी उनकी हालत सुधर नहीं पाई। जैनाचार्यों ने अहिंसाणुव्रत के अन्तर्गंत इस पर विचार किया है और कहा है कि छोटे बच्चों को काम पर नहीं लगाना चाहिए यदि लगायें भी तो उनसे उनकी शक्ति से अधिक काम नहीं लेना चाहिए। २. सत्याणुव्रत शेष अणुव्रत अहिंसाणुव्रत के रक्षक के रूप में निर्धारित किये गये हैं। सत्याणुव्रती वह है जो राग द्वेषादि कारणों से झूठ न स्वयं बोलता हो और न दूसरों से बुलवाता Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) हो। इसी प्रकार दूसरे को विपत्ति में डालने वाला सत्य भी न बोलता हो और न बुलवाता हो।' उमास्वामी ने असत्य को असत् कहा है। जिसका अर्थ पूज्यपाद ने अप्रशस्त किया है। इसी आधार पर सत्य किंवा असत्य के भेद-प्रभेद किये गये हैं। भगवती आराधना में सत्य के दस भेद मिलते हैं- जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, सम्भावना, भाव और उपमा सत्य। अकलंक ने सम्मति, सम्भावना और उपमा सत्य के स्थान पर संयोजना, देश और समयसत्य को रखकर सत्य के दस भेद स्वीकार किये हैं। पदार्थों के विद्यमान न होने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य की संज्ञा करने को “नामसत्य' कहते हैं। जैसे- इन्द्र इत्यादि। पदार्थ का सन्निधान न होनेपर भी रूपमात्र की अपेक्षा जोकहा जाता है वह “रूपसत्य” है। जैसे- चित्रपुरुषादि में चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थ के न होने पर भी “पुरुष' इत्यादि कहना। पदार्थ के न होने पर भी कार्य के लिए जिसकी स्थापना की जाती है वह “स्थापना सत्य' है। जैसेजुआ आदि खेलों में हाथी, वजीर आदि की स्थापना करना। सादि व अनादि भावों की अपेक्षा करके जो वचन कहा जाता है वह “प्रतीत्य सत्य' है। जो वचन लोक रूढ़ि में सुना जाता है वह “संवृत्ति सत्य' है। जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणों के संयोग होने पर भी पंक अर्थात् कीचड़ में उत्पन्न होने से कमल पुष्प के लिए 'पंकज' इत्यादि वचन का प्रयोग। सुगन्धित चूर्ण के लेपन और घिसने में अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंच रूप व्यूह (सैन्य रचना) आदि में भिन्न-भिन्न द्रव्यों की विभाग विधि के अनुसार की जानेवाली रचना को प्रगट करने वाला वचन “संयोजना सत्य' है। जो वचन ग्राम, नगर, राजा, गण पाखण्ड, जाति, एवं कुल आदि धर्मों का उपदेश करने वाला है वह “देशसत्य' है। छद्मस्थ ज्ञानी के द्रव्य के यथार्थ स्वरूप का दर्शन होने पर भी संयत अथवा संयता-संयत के अपने गुणों का पालन करने के लिए “यह प्रासुक" है- यह अप्रासुक है" इत्यादि जो वचन कहा जाता है वह "भावसत्य” है। जो वचन आगमगम्य प्रतिनियत छह द्रव्य व उनकी पयार्यों की यथार्थता को प्रगट करने वाला है वह “समयसत्य' है। - इसी प्रकार असत्य के भी भेद किये गये हैं। पुरुषार्थ सिद्धयुपायर्प में असत्य के चार भेद मिलते है- (१) अस्तिरूप वस्तु का नास्तिरूप कथन, (२) नास्ति रूप वस्तु का अस्तिरूप कथन, (३) कुछ का कुछ कह देना, जैसे-बैल को घोड़ा कह देना, १. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५५; वसुनन्दि श्रावकाचार, २१०. २. तत्त्वार्थसूत्र, ७.१४. ३. सर्वार्थसिद्धि, ७.१४. ४. भगवती आराधना, ११८३. ५. तत्त्वार्थराजवार्तिक, १.२०; चारित्रसार, पृ. ६२. ६. · पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ९१-९५. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) और (४) चतुर्थ असत्य के तीन भेद किये गये है— गर्हित, सावद्य और अप्रिय । उपासकाध्ययन' में असत्य के चार भेद किये गये है— असत्य - सत्य, सत्य-असत्य, सत्य-सत्य और असत्य-असत्य । स्याद्वादमंजरी' में असत्य अमृषा भाषा बारह प्रकार की बतायी गई है— (१) उसकी अनुमोदना करना, (२) तदाहृतादान (अपहृत माल को खरीदना), विरुद्ध राज्यातिक्रम (राज्य परिवर्तन के समय अल्प मूल्यवान वस्तु को अधिक मूल्य की बताना) (३) हीनाधिकमानोन्मान ( नापने -तौलने के तराजू आदि में कम बांटों से देना और अधिक से दूसरे की वस्तु को खरीदना), और (४) प्रतिरूपक (कृत्रिम सोना-चांदी बनाकर या मिलाकर ठगना)। उत्तरकालीन आचार्यों ने प्राय: इन्हीं - अतिचारों को स्वीकार किया हैं जो मतभेद है, वह परिस्थितिजन्य है । विरूद्धराज्यातिक्रम के स्थान पर समन्तभद्र ने “विलोप" और सोमदेव ने "विग्रहे संग्रहोऽर्थस्य" नाम दिया. है। साधारणतः इसका अर्थ होता है - युद्ध होने पर राजकीय नियमों का धन का संचय करना । धरती में गढ़े धन को ग्रहण न करने का भी विधान किया गया है। गृहस्थ इस प्रकार की असत्य-अमृषा (व्यवहार) भाषा का प्रयोग करता है परन्तु यह प्रयोग वह अपने परिणामों को विशुद्ध करने के लिए करता है। आरोग्य लाभ आदि की दृष्टि से अनेक प्रकार की प्रार्थनायें इसी निमित्त की जाती हैं। फिर भी व्यवहारतः उनमें दोष नहीं । सत्याणुव्रत के पांच अतिचार हैं - मिथ्या उपदेश देना, रहोभ्याख्यान (गुप्त बात को प्रकट करना), कूटलेखक्रिया (जाली हस्ताक्षर करना), न्यासापहार (धरोहर का अपहरण करना) और साकारमन्त्रभेद (मुखाकृति देखकर मन की बात प्रगट करना) । ३ आगे चलकर समन्तभद्र ने प्रथम दो अतिचारों के स्थान पर परिवाद और पैशून्य को रखा और सोमदवे ने प्रथम तीन अतिचारों के स्थान पर परिवाद, पैशून्य और मुधासाक्षिपदोक्ति (झूठी गवाही देना ), नियोजित किया । " सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित करने में इन अतिचारों की एक अहं भूमिका रहती है। ३. अचौर्याणुव्रत अदत्तवस्तु का ग्रहण न करना अचौर्याणुव्रत है। इसमें सार्वजनिक जलाशय से पानी आदि का ग्रहण सीमा से बाहर है। उत्तरकालीन सभी परिभाषायें प्राय: इसी • १. उपासकाध्ययन, ३८३; प्रश्नव्याकरण, सूत्र २.६. २. स्याद्वादमंजरी, ११; लोकप्रकाश, तृतीय सर्ग, योगाधिकार. ३. तत्त्वार्थसूत्र, ७.२६; उपासकदशांग अ. १. ४. ६. ५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ५६. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५६; तत्त्वार्थसूत्र, ७.१५. उपासकाध्ययन, ३८१. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) परिभाषा पर आधारित रही हैं। अतिचार भी प्राय: समान हैं। वे पांच हैं? स्तेनप्रयोग (चोरी करने का उपाय बताना), तदाहतदान, विरूद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपक। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत जैन साधना में ब्रह्मचर्य को आत्मदर्शन के साथ जोड़ा गया है शायद यही कारण है कि महावीर ने उसे एक पृथक् व्रत के रूप में प्रतिष्ठित किया। आचारांग सूत्र में तीन यामों का उल्लेख मिलता है- अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह (१.८.३)। संभव है, तीर्थङ्कर ऋषभ ने मूलत: इनकी प्रतिष्ठा की हो। पालि पिटक से तथा उत्तराध्ययन आदि जैनागमों में पार्श्वनाथ के नाम से चार यामों का उल्लेख आया है। असम्भव है, समाज के लेन-देन आदि के व्यवहार में अनैतिकता बढ़ गई हो और उस पर नियन्त्रण करने के लिए पार्श्वनाथ ने उसमें अचौर्यव्रत जोड़ दिया हो। ___पार्श्वनाथ के परिनिर्वाण के बाद नैतिकता के क्षेत्र में प्रदूषण और बढ़ गया। महावीर के आते-आते पार्थापत्य साधु आचार से इतने अधिक शिथिल हो गये कि वह शिथलाचारियों का पर्यायवाची शब्द बन गया। अचेल परम्परा के साथ पार्श्वनाथ ने जो सचेल परम्परा का प्रारम्भ किया उसका यह महादूषित परिणाम था। अपवाद की धारा में स्थिति यही होती है। महावीर ने इस परिणाम की परिणति को अपनी सूक्ष्मान्वेषणता से परखा और • अपरिग्रहव्रत में से ब्रह्मचर्य व्रत को पृथक् कर उसे पंचम व्रत के रूप में प्रतिष्ठित किया और अचेल परम्परा को पुनरुज्जीवित किया। पार्श्वनाथ परम्परा में सचेल और अचेल दोनों परम्परायें प्रचलित थीं। महावीर ने उनमें से अचेल परम्परा मात्र को साथ रखा। उनकी कठोर साधना के सामने हम यह स्पष्ट पाते हैं जैनागमों में कि पार्श्व परम्परा के केशी आदि मुनि और श्रावक एक-एक कर तीर्थङ्कर महावीर के अनुयायी बनते चले जाते हैं। सूत्रकृतांग (१.३.४.९-१३), और आचारांग (९.१३.५) में पार्श्व परम्परा के जिस शिथिलाचार का संकेत मिलता है उसमें महावीर को पंचयाम की प्रतिष्ठा करना आवश्यक लगा हो। उस समय के साधुओं में आई वक्रता और जड़ता को दूर करना आवश्यक भी था। गृहस्थ जीवन को भी नैतिक और सामाजिक प्रदूषण से बचाने के लिए यह जरूरी था। इसकी पुष्टि होती है भगवती सूत्र (शतक १०) तथा उत्तराध्ययन (५.६.१-९) के उस कथन से जहाँ कहा गया है कि विषय भोगों में मग्न देवगण और देवेन्द्र भी ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी के प्रति पूर्ण आदर रखते हैं १. तत्त्वार्थसूत्र, ७-२७; उपासक दशांग, अ. १. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) देवदाणवगन्धव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा । वंभयारिं नमंसति, दुक्करं जे करेंति तं ।। ३-१६-१७ प्रश्न व्याकरण तक आते-आते, लगता है, महावीर को एक मत से सभी अपना नेता मानने लगे थे और उनके द्वारा प्रतिष्ठित ब्रह्मचर्य नामक पंचम याम को सर्व सम्मति से स्वीकृत कर चुके थे। इसी तथ्य का सूचक है संवरद्वार का वह सूत्र जहाँ कहा गया है कि सरलता से सम्पन्न साधु जनों द्वारा ब्रह्मचर्य का पूर्णतया आचरण किया जाता . है- अज्जवसाहुजणाचरितं। ब्रह्मचर्यपालन में पूर्ण सशक्तता तथा गंभीरता लाने के लिए अचेलत्व एक अपरिहार्य तत्त्व है। उसके बिना व्रत का परिपाक नहीं हो पाता। चेल की साधना में परिग्रहण की आराधना घुसती चली जाती है और “निरासक्त भाव' की आड़ में साधना सिसकने लगती है। शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में इसी को इस प्रकार कहा है । नाल्पसत्वैर्न निःशीले न दीनै क्षनिर्जितैः। स्वप्नेऽपि चरितुं शक्यं ब्रह्मचर्यमिदं नरैः।। ११.५ ।। इस उल्लेख से यह भी स्पष्ट है कि अचेलत्व के साथ ब्रह्मचर्यव्रत का परिपालन दुष्कर माना जाता था- उग्गं महव्वयं बम्भं, धारेययव्वं सुदुक्कर, उत्तरा. १९. २९। इसी स्वीकृति की पृष्ठभूमि में सचेल परम्परा पल्लवित होती रही है। अचेल और सचेल दोनों परम्परायें इस तथ्य को स्वीकार करती हैं कि ब्रह्मचर्य के बिना आत्मदर्शन नहीं हो सकता। सभी व्रत उसी की आराधना से आराधित होते हैं जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सब्बं । सीलं तवो य विणओ य संजमो य खंती मुत्ती गुत्ती तहेव ।। तम्हा निउणेन बंभचेरं चरियव्वं- ४.१ प्रश्न व्याकरणांग के इसी कथन को पद्मनन्दि पंचविंशतिका में यह कहकर पुष्ट किया गया है कि ब्रह्म निर्मल ज्ञान स्वरूप आत्मा है और उस आत्मा में लीन होना ही ब्रह्मचर्य है- आत्मां ब्रह्म विविक्त बोधनिलयो यत्तत्र चर्य परः, १२.८। आचार्य कुन्दकुन्द ने सीलपाहुड में इसके पूर्व ही उसे और भी सक्षम रूप से प्रतिष्ठित कर दिया था यह कहकर कि जीवदया, इन्द्रियदमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तप ये सभी शील के परिवार हैं जीव दया-दम-सच्चं, अचेरियं-बंभचेर-संतोसे। सम्मइंसण-णाणं तओ य सीलस्य परिवारो।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह ब्रह्मचर्य का मूल है। ब्रह्मचर्याणुव्रत को “परदारानिवृत्ति” या स्वदारसन्तोषव्रत कहा गया है। परदारामिवृत्ति व्रत का पालन देश संयम के अभ्यास के उद्यत पाक्षिक श्रावक करता है और स्वदारसन्तोषव्रत का पान देशसंयम में अभ्यस्त नैष्ठिक श्रावक करता है। समन्तभद्र की इसी परिभाषा को उत्तरकालीन आचार्यों में किसी ने आधा और किसी ने पूरा लेकर प्रस्तुत किया हैं अमृतचन्द्रसूरि, आशाधर आदि विद्वानों ने नैष्ठिक श्रावक की दृष्टि से तथा सोमदेव आदि विद्वानों ने पाक्षिक श्रावक की दृष्टि से ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण किया है। यह अन्तर इसलिए हुआ कि वसुनन्दि के मत से दार्शनिक श्रावक सप्तव्यसन छोड़ चुकता है और सप्त व्यसनों में परनारी और वेश्या दोनों आ जाती है। अत: जब वह आगे बढ़कर दूसरी प्रतिमा धारण करता है तो वहाँ ब्रह्मचर्याणुव्रत में वह स्वपत्नी के साथ भी पर्व के दिन काम, भोग आदि का त्याग करता हैं परन्तु स्वामी समन्तभद्र के मत से दर्शन प्रतिमा में सप्त व्यसनों के त्याग का विधान नहीं है, अत: उनके मत से दर्शन प्रतिमाधारी जब व्रत धारण करता है तो उसका ब्रह्मचर्याणुव्रत वही है जो अन्य श्रावकाचारों में बतलाया है। पं० आशाधर ने इसी प्रकार का समन्वय किया है।२ हेमचन्द्र ने भी योगशास्त्र में ऐसा ही किया है। आश्चर्य हैं, सोमदेव ने ब्रह्मचर्याणुव्रती के लिए वेश्यागमन की छूट कैसे दे दी हैं।३ उमास्वामी ने ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांच अतिचार बताये हैं- (१) परविवाहकरण, (२) इत्वरिका (गान-नृत्यादि करने वाली) परिग्रहीतागमन, (३) इत्वरिका अपरिग्रहीतागमन, (४) अनंगक्रीडा और (५) कामतीव्राभिनिवेश। इन्हें प्राय: सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है जहाँ कहीं थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य मिलता है। समन्तभद्र ने “इत्वरिकागमन" को एक ही माना है और विटत्व को दूसरा। सोमदेव ने इनके स्थान पर परस्त्रीसंगम और रतिकैतव्य का संयोजन किया है।५ मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी (पृ० २०८) में कहा है कि मैथुन सेवन में नौ लाख जीवों की हत्या होती है। आज की जनसंख्या वृद्धि समस्या हमारे सामने विकराल रूप से खड़ी हुई है। जनसंख्या की दृष्टि से हमारा देश आज दूसरे नम्बर पर है और आय लगभग सर्वाधिक कम है प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ७२९.९ रु०। इस दृष्टि से हर डेढ़ सेकन्ड में एक बच्चे का जनम हो रहा है, जन्म दर प्रति १. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५९. २. उपासकाध्ययन, प्रस्तावना, पृ. ८१-८२. ३. उपासकाध्ययन, ४०५-६. ४. तत्त्वार्थ, ७.२८; उपासकदशांग, अ. १. ५. उपासकाध्ययन, ४१८. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) हजार ३७.१ है और १४.८ प्रतिशत मृत्युदर है। साक्षरता भी लगभग ४० प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पा रही है। जनसंख्या बढ़ने से मकान, कपड़ा, लकड़ी, सब्जियां आदि की आवश्यकता बढ़ जाती है, जंगलों की कटाई शुरू हो जाती है और प्रदूषण समस्या प्रारम्भ हो जाती है। इस तरह जनसंख्या वृद्धि पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने में एक बाधक तत्त्व सिद्ध हो रहा है। जैनाचार्यों ने इस समस्या को पहले ही समझ लिया था और इसलिए “अपुत्रस्य गति नास्ति' जैसे सिद्धान्तों का पुरजोर खण्डन किया था इसी प्रसंग में उन्होंने ब्रह्मचर्याणुव्रत का पाठ दिया और परिवार को सीमित रखने का आह्वान किया। इसका फल यह हुआ कि जैन परिवारों में जनसंख्या की वृद्धि अपेक्षाकृत कम होती रही है। आज भी ब्रह्मचर्यव्रत लेने की प्रथा हैं। इसे अध्यात्म से जोड़कर आचार्यों ने आन्दोलन में और भी वृद्धि कर दी। परिवार नियोजन के क्षेत्र में उनका यह उल्लेखनीय योगदान माना जा सकता है। ५. परिग्रहणपरिमाणाणुव्रत मूर्छा अर्थात् ममत्व भाव को परिग्रह कहा है। धन-सम्पत्ति आदि को भी इसी में सम्मिलित कर दिया गया। समन्तभद्र ने दोनों का समन्वय कर परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का लक्षण किया है। कुन्दकुन्दने इसी को “परिग्रहारम्भविरमण' संज्ञा दी है। इसमें धन धान्यादि बाह्य और राग-द्वेषादि आभ्यन्तर परिग्रहों से विरमण होने की बात कही है। यहाँ आवश्यक वस्तुओं के परिमाण करने की ओर संकेत है। ममत्व का जागरण वही होता है। अनावश्यक और असंभव वस्तु के परिमाण करने में व्रत का पूरी सीमा तक पालन नहीं हो पाता। उमास्वामी ने इस व्रत के पांच अतिचार बताये है। क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दास-दासी भाण्ड और कुप्य (कपास) आदि की मर्यादा का अतिलोभ के कारण उल्लंघन करना। समन्तभद्र ने इनके स्थान पर अतिबाह्य, अतिसंग्रह, अतिविस्मय, अतिलोभ और अतिभारबहन को अतिचार बताया। आशाधर के समय तक परिस्थितियों में कुछ और परिवर्तन हुआ। फलत: उन्होंने कुछ भिन्न अतिचारों का उल्लेख किया- (१) अपने मकान और खेत के समीपवर्ती दूसरे के मकान और खेत को मिला लेना, (२) धन और धान्य को भविष्य में ग्रहण करने की दृष्टि से ब्याना १. तत्त्वार्थसूत्र, ७१७. २. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६१. ३. तत्त्वार्थसूत्र, ७.२९; उपासकदशांग, अ. १., त. सू. में शायद भाण्ड छूट गया है। अन्यत्र सर्वत्र यह मिलता है। ४. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६२. ५. सागरधर्मामृत, ४.६४. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) देकर दूसरे के घर में रख देना, (३) परिणाम से अधिक सोना-चांदी बाद में वापिस होने के भाव से दूसरे के घर रख देना, (४) व्रतभंग के भय से दो बर्तनों को मिलाकर एक मानना, और (५) गाय आदि के गर्भवती होने से मर्यादा का उल्लंघन न मानना। ये अतिचार हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर आधारित हैं। इनसे प्रदूषित पर्यावरण का अन्दाज लगाया जा सकता है। ६.१. व्रत प्रतिमा यह नैष्ठिक श्रावक की द्वितीय अवस्था है। इसमें वह पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन दृढ़तापूर्वक करता है। अणुव्रत का तात्पर्य है- एक देश का पालन। गृहस्थ पूर्वोक्त पंच पापों के एक देश का ही त्याग कर सकता है। जैसा पहले कह चुके हैं, अणुव्रत पांच प्रकार के होते हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। हिंसा चार प्रकार की होती है- उद्योगी, आरम्भी, विरोधी और संकल्पी। कृषि, शिल्प, व्यापार आदि उद्योगी हिंसा हैं। भोजन तैयार करना-कराना, वस्त्रादि स्वच्छ रखना, पशु पालना आदि आरम्भी हिंसा है। आत्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा, सज्जनरक्षा आदि जैसे भी उसके कर्तव्य होते हैं। इन कर्तव्यों की रक्षा करने में भी हिंसा होती है। इसी को विरोधी हिंसा कहते हैं। गृहस्थ के लिए ये तीनों प्रकार की हिंसायें अपरिहार्य होती हैं। विवश होकर उसे उन हिंसाओं को करना पड़ता है। फिर भी अपने गार्हस्थिक कार्य करते समय वह अहिंसा को नहीं भूलता। ___ संकल्पी हिंसा (मरने की इच्छा से ही किसी प्राणी का मारना) का क्षेत्र बड़ा है। उंसमें मद्य, मांस, मधु का व्यापार करना, व्यभिचार करना, व्यभिचार द्वारा धनार्जन करना, न्यायमार्ग को त्यागकर पैसा कमाना, विश्वासघात करना, डाका डालना आदि जैसे जघन्य अपराध सम्मिलित हैं। गृहस्थ के लिए यह संकल्पी हिंसा और तज्जन्य अपराध अक्षम्य हैं। उद्योगी, आरम्भी और विरोधी हिंसा तो परिस्थितिवश तथा विवश होकर करनी पड़ती है पर संकल्पी हिंसा का सही रूप है जिससे उसे बचना नितान्त आवश्यक है। इसी प्रकार सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणाणुव्रत का परिपालन व्रत प्रतिमाधारी श्रावक के लिए आवश्यक हो जाता हैं १. ब्रह्मचर्याणुव्रत की परिभाषा समय-समय पर बदलती रही है। समन्तभद्र ने स्वदारसन्तोष तथा परदारगमनत्याग को ब्रह्मचर्याणुव्रत कहा है.पर वसुनन्दि ने अष्टमी आदि पर्वो के दिन स्त्री सेवन का त्याग करना तथा अनंगक्रीडा का सदा त्याग किये रहना ब्रह्मचर्याणुव्रत माना है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) २. गुणव्रत .. पंचाणुव्रतों के परिपालन करने के बाद व्रती श्रावक दिशा-विदिशाओं में अथवा किसी स्थान विशेष तक जाने की प्रतिज्ञा ले लेता है। इससे वह छोटे-छोटे प्राणियों की हिंसा से बच जाता हैं इसी को क्रमश: “दिग्वत” और “देशव्रत'' कहते है। निरर्थक आरम्भ अथवा कार्य करने का त्याग करना “अनर्थदण्डव्रत" है, जैसे बिना किसी उद्देश्य के भूमि खोदना, वृक्ष काटना, फलफूल तोड़ना आदि। ये तीनों व्रत गुणों में वृद्धि करते हैं तथा अणुव्रतों के उपकारक हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने दिक्परिमाण, अनर्थदण्डव्रत के पांच भेद किये हैं। उमास्वामी ने भोगोपभोग के स्थान पर देशव्रत रखकर व्रतों के अतिचारों का सर्वप्रथम वर्णन किया है। भगवती आराधना, वसुनन्दि श्रावकाचार, महापुराण आदि ग्रन्थों ने उमास्वामी का ही अनुकरण किया है। इनके अतिचारों का वर्णन पीछे विस्तार से हो चुका है। पर्यावरण की दृष्टि से अनर्थदण्डव्रत का विशेष महत्त्व है। जैनाचार्यों ने इस पर काफी गहराई से चिन्तन किया हैं उन्होंने कहा है कि पापोपदेशादि अनर्थों को त्याग करना अनर्थदण्ड विरति है। इस अनर्थदण्ड के पांच भेद हैं- पापोदेश, अपध्यान, हिंसादान, दुःश्रुति और प्रमाद चर्या। कबूतर आदि पशु-पक्षियों का पालन-पोषण करना, अंगार कराना, भाड भुजवाना, लोहार-सोनार आदि का काम करना, ईटों को पकाना, घोड़े, बैलों और गधों को रखना, तथा नख, हड्डी, त्वचा का विक्रय करना भी अनर्थदण्ड हैं इसी प्रकार लोणी, मक्खन, चर्बी, मदिरा, मधु, भांग, अफीम, गांजा, दास-दासी, पशु-पक्षी आदि का भी विक्रय नहीं करना चाहिए। गाड़ी चलाना, घटादि बेचना, चित्रलेप करना, बुहारी, पिंजरा, बन्दूक, तलवार, ओखली, मूसल आदि शस्त्र रखना या दूसरों को देना, जीवोत्पत्ति होने वाले सरसों आदि धान्यों का संग्रह करना भी अनर्थदण्ड की परिधि में आता है। लाख, मैनसिल, नील, सन, हल, धावड़ा के फूल, हड़ताल, विष आदि का व्यापार करना, बावड़ी, कुआ, तालाब आदि जलाशयों को सुखाना, भूमि जोतना, येड़-पौधे काटना, टांकना, शरीर को अग्नि से दागना, नाक छेदना, मुष्के बांधना, हाथों को छेदना, चरणों का भंजन करना, कान काटना, बैल आदि को नपुंसक करना, खाल-छालादि उतारना, शरीर को गर्म लोहे से अंकित करना, छेदना आदि भी अनर्थदण्ड कहलाता है (उमा. श्रा.)। अनर्थदण्ड की बहुत लम्बी सीमा बांधने के पीछे जैनाचार्यों का चिन्तन यह था कि व्यक्ति अपनी आजीविका के साधनों को अधिक से अधिक शुद्ध रखे ताकि हिंसा से बचा जा सके। व्यापारों की लम्बी सूची में अधिकांश ऐसे व्यापार हैं १. उपासकदशांग, अ. १. २. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६७. ३. सागारधर्मामृत, ५.१. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) जिनके करने से किसी न किसी तरह हिंसा होती है और पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न होता है। ३. शिक्षाव्रत : सामाजिक सन्तुलन का अधीक्षक तत्त्व गुणव्रतों का बाद चार शिक्षाव्रत माने गये हैं जिनका पालन करने से साधक-अवस्था की भूमिका में दृढ़ता आती हैं इनकी संख्या में मतभेद नहीं पर नामों में मतभेद अवश्य हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना को शिक्षाव्रत कहा है। भगवती आराधना में सल्लेखना के स्थान पर “भोगोभोगपरिमाणवत' रखा गया और सवार्थसिद्धि में इसकी गणना शिक्षाव्रत के रूप में न करके एक स्वतन्त्रव्रत के रूप में की गयी जिसे साधक सहसा मरण आने पर निमोंही होकर धारण करता है।२ कार्तिकेय ने “सल्लेखना" के स्थान पर 'देशावकाशिक" रखा। उमास्वामी ने सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग-परिमाण और अतिथिसंविभाग नाम दिये। समन्तभ्रद ने कुन्दकुन्द और कार्तिकेय का अनुःसरण करते हुये भी कुछ सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाया और देशावकाशिक, सामायिक, वैय्यावृत्य, तथा अतिथिसंविभागवत को शिक्षाव्रत कहा। जिनसेन, अमितगति और आधाधरं ने उमास्वामी का अनुकरण किया पर सोमदेव ने उमास्वामी द्वारा बताये गये चतुर्थ व्रत “अतिथिसंविभाग" के स्थान पर “दान' रख दिया। वसुनन्दि ने कुन्दकुन्द और उमास्वामी, दोनों का अनुकरण दिखता है। उन्होंने भोगविरति, उपभोगविरति, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना को शिक्षाव्रत माना है। . उपर्युक्त मतभेद देखने से यह प्रतीत होता है कि संख्या तो वही रही पर आचार्य अपने समय अपनी परिस्थिति के अनुसार उनमें परिवर्तन करते रहे। इन परिवर्तनों में प्रायः सभी आचार्यों ने आत्मचिंतन, व्रतोपवास, भोगोपभोगसामग्री को सीमित करना, दानादि देना, अतिथियों का सत्कार करना आदि जैसे सद्गुणों और व्यावहारिक दृष्टियों को नियोजित किया। इसके बाद आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान और अभयदान पर अधिक जोर दिया गया। दान का अर्थ मात्र विसर्जन नहीं है, बल्कि यह है कि वह विसर्जन अपने और दूसरे के उपकार और अनुग्रह के लिए हो- अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसगो दानम्, तत्वार्थसूत्र ६.१२। यहाँ परिभाषा में दिया हुआ “अनुग्रह" शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण है। उसका अर्थ है अपने दया, उदारता, सहानुभूति, सेवा, विनय, सहिष्णुता, समता आदि विशिष्ट गुणों के संचय के लिए तथा दूसरों के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि के १. चारित्रप्राभृत, ५.१ २. सवार्थसिद्धि, ७.११. २. Jainism in Buddhist Literature, p. 103-4. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) वृद्धि रूप उपकार के लिए अपने धन का विसर्जन करना दान है (तत्त्वार्थ वृत्ति श्रुतसागरीय, ७.३८ ) । इस विसर्जन में न ममता रहती है और न अहंमन्यता और न उससे किसी भी प्रकार को बदले में पाने की भावना रहती है। वह तो शुद्ध हृदय से सत्पात्र में अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का उत्सर्ग कर देता है। जैनाचार्यों ने दान पर बहुत लिखा है । वे यह अच्छी तरह से जानते थे कि दान के पीछे क्या-क्या होता है या होने की संभावना रहती है। दान के बहाने एक नया व्यापार शुरु हो जाता है। शायद यही अनुभव कर किसी जैनाचार्य ने दान के पांच दूषण गिनाये हैं- १) दान लेने वाले का अनादर करना, देने में विलम्ब करना, दान देने में बाद में अरुचि दिखाना, लेने वाले का तिरस्कार कर दान देना और दान के बाद पश्चात्ताप करना । अनादरो विलम्बश्च वैमुख्यं विप्रियं वचः । पश्चात्तापश्च दातुः स्यात् दानदूषण पंचकम् ।। इसी तरह जैनाचार्य ने दान के पांच भूषण भी बताये हैं- दान देते समय आनन्दातिरेक से आंसू उमड़ आना, पात्र को देखते ही रोमांच हो जाना, पात्र का बहुमान करना, प्रिय वचनों से उसका स्वागत सत्कार करना तथा दान के योग्य पात्र का अनुमोदन करना। इस प्रसंग में यह भी विचार किया है जैनाचार्यों ने कि दान देने के उद्देश्य से द्रव्यार्जन करना उचित है क्या? इस प्रश्न पर एकमत होकर सभी जैनाचार्यों ने अनुचित माना है क्योंकि द्रव्यार्जन में भावों में वह पवित्रता नहीं रह पाती चाहे कितना भी निरासक्त भाव रहे। इसलिए पूज्यपाद ने इष्टोपदेश (१६) में स्पष्ट कहा है कि जो निर्धन व्यक्ति पात्रदान, देवपूजा आदि प्रशस्त कार्यों में निमित्त अपूर्व पुण्य प्राप्ति और पाप विनाश की आशा से नौकरी, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों द्वारा धनोपार्जन करता है, वह व्यक्ति " बाद में नहा लूंगा" इस आशा से अपने निर्मल शरीर पर कीचड़ लपेट लेता है। त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामीति विलुम्पति ।। उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के विचारों की पुष्टि की गई है। इस संदर्भ में दान और पुण्य पर विचार कर लेना आवश्यक हैं नवतत्त्व प्रकरण में उमास्वामी ने कहा है— योगः शुद्धः पुण्याश्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः अर्थात् पुण्याश्रव का कारण है शुभ परिणाम और पापाश्रव का कारण है अशुभ परिणाम। ठाणांग (९.३.६७६) में पुण्य के ९ कारण दिये गये हैं । अन्न, पान, स्थान, शयन, आवास आदि के दान से तथा मन, वचन, माया आदि की शुभ प्रवृत्ति से एवं योग्यगुणी को Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) नमस्कार करने से पुण्य प्रकृति का बंध होता है। ___आज समाज में इस दृष्टि से न विशुद्ध दान रहा है न विशुद्ध दानी। न्यायोपार्जित द्रव्य की कमी और न्यायोपार्जन करने वालों की कमी दिन पर दिन बढ़ती चली जा रही है। असामाजिकता पूर्वक अर्जित सम्पत्ति का दानकर दाता अपने आपको दानी और दानवीर की पदवी पा लेता है पर उसके भीतर के जीवन को झांको तो वितृष्णा हुए बिना नहीं रहती। ऐसे ही दानियों और सेठों से आज समाज का सारा तन्त्र संचालित है। समाज को प्रदूषित करने में और सच्चरित्रवान् को पीछे ढकेलने में उनका हाथ कम नहीं है। इस दृष्टि जैनाचार्यों द्वारा दी गई दान की यह परिभाषा बड़ी मार्मिक और उपयोगी है। जैसा पण्डित आशाधर आदि विद्वानों और आचार्यों ने सुझाया है कि अपने न्यायपूर्वक अर्जित द्रव्य का कम से कम एक भाग दानकार्य में लगाना चाहिए। यह विभाजन संविभाग है। उपासग-दशांग में भी इसकी अच्छी चर्चा हुई है। समाज के गरीब तबके के लोगों को साथ लाने में दान सहयोगी तत्त्व सिद्ध हो सकता है। धनी और निर्धनी के बीच बनी खाई को भी उससे पाटा जा सकता है। पर्यावरण की दृष्टि से यह अत्यन्त उपयोगी तत्त्व है। इन द्वादश व्रतों को मूलगुण और उत्तरगुण अथवा शीलव्रत के रूप से भी विभाजित किया गया है। शील का तात्पर्य है जो व्रतों की रक्षा करे। उमास्वामी' आदि आचार्यों ने गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों को “शीलव्रत' की संज्ञा दी है पर सोमदेव आदि आचार्यों ने पंचोदुम्बरफलत्याग को “मूलगुण' मानकर उनकी संख्या आठ कर दी तथा पांच अणुव्रत,तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतों को “उत्तरगुण' मान 'लिया।२ समन्तभद्र ने श्वेताम्बर परम्परानुसार पांच मूलगुणों को कहकर कुन्दकुन्द के . अनुसार गुणव्रतों को स्वीकार किया है। जिनसेन ने उत्तरगुणों की संख्या बारह बताकर कुन्दकुन्द का अनुकरण किया है। सोमदेव भी लगभग उसी परम्परा पर चल रहे हैं। उत्तरकाल में कुछ आचार्यों ने कुन्दकुन्द का अनुकरण किया और कुछ ने उमास्वामी .' का। शीलव्रतों का महत्त्व इस दृष्टि से विशेष आंका जा सकता है कि उनका निरतिचारता पूर्वक पालन करने से ही तीर्थकर प्रकृति का बन्ध माना गया है। सामायिक आदि शेष प्रतिमाओं का वर्णन मूलग्रन्थों से देखा जा सकता है। आध्यात्मिक पर्यावरण की प्रतिष्ठा में उनका महत्त्व है ही। ____ अणुव्रतों और प्रतिमाओं के प्रकारों में समय के अनुसार परिवर्तन अवश्य मिलता है पर उसकी पृष्ठभूमि सदैव यही रही है कि व्यक्ति शाश्वत सुख की ओर अपने आपको मोड़ता जाये, पर दुःखकातरता की ओर आगे बढ़े और भौतिक सुख-साधनों की ओर १. चारित्रसारप्राभृत, २४-२५. २. उपासकाध्ययन, २७०, ३१४. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) से मुंह मोड़कर आध्यात्मिक परम सुख से साधनों को एकत्र करने लगे। यह आत्मोन्मुखी वृतित परकल्याण की आधार भूमिका बन जाती है। श्रावक की इस अवस्था में ज्ञानाचार (श्रुतज्ञान), दर्शनाचार (सम्यग्दर्शन), चारित्राचार (समितियों और गुप्तियों का परिपालना), तपाचार (बाह्य-आभ्यन्तर तप) और वीर्याचार (यथाशक्ति आचार ग्रहण) सुदृढ़ हो जाता हैं अर्हत्प्राप्ति इसी की अभिहिति मात्र है। विशुद्ध सामाजिक पर्यावरण की यह फलश्रुति है। साधक श्रावक श्रावक की यह तृतीय अवस्था है। यहाँ तक पहुंचते-पहुंचते वह विषय-वासनाओं से अनासक्त होकर शरीर को भी बन्धन रूप समझने लगता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और. चारित्र के समन्वित आचरण से उसका मन संसार से विरक्त हो जाता है। उस स्थिति . में यदि शरीर और इन्द्रियाँ अपना काम करना बन्द कर देती हैं तो सम्यक् आचरण में बाधा उत्पन्न होती है और पराधीनता बढ़ती चली जाती है। इसलिए उससे मुक्त होने के लिए साधु अथवा श्रावक सल्लेखना (समाधिमरण) धारण करता है। इस व्रत में आमरण निरासक्त होकर आहार, जलादिक का पूर्णत: त्याग कर दिया जाता है और · धर्माराधनपूर्वक शरीर त्याग करने का संकल्प ग्रहण कर लिया जाता है। आज की परिभाषा में इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। सल्लेखना सल्लेखना का तात्पर्य है- सम्यक् प्रकार से काय और कषाय को कृष (लेखन) करना।२ यह व्रत विशेषत: उस समय ग्रहण किया जाता है जब कि साधक के ऊपर कोई तीव्र उपसर्ग आ गया हो अथवा दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था और रोग के कारण आचार-प्रक्रिया में बाधा आ रही हो। ऐसी परिस्थिति में यही श्रेयस्कर है कि साधक अपने धर्म की रक्षार्थ विधिपूर्वक शरीर को छोड़ दे। यहाँ आन्तरिक विकारों का विसर्जन करना साधक का मुख्य उद्देश्य रहता है। आत्महत्या और सल्लेखना इस प्रकार के शरीर त्याग में साधक पर किसी भी प्रकार से आत्महत्या का दोष नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि आत्महत्या करने वाला किसी भौतिक पदार्थ की अतृप्त १. महापुराण, ३९.१४९; चारित्रसार, ४१-२. २. सर्वार्थसिद्धि, ७.२२; वसुनन्दि श्रावकाचार, २७२वीं गाथा. ३. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः।। रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५.१. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) वासना से ग्रस्त रहता है जबकि सल्लेखनाव्रतधारी श्रावक अथवा साधु के मन में इस प्रकार का कोई वासनात्मक भाग नहीं रहता बल्कि वह शरीरादि की असमर्थता के कारण दैनिक कर्तव्यों में संभावित दोषों को दूर करने का प्रयत्न करता है। वह ऐसे समय नि:कषाय होकर परिवार और परिचित व्यक्तियों से क्षमा-याचना करता है और मृत्यु-पर्यन्त महाव्रतों को धारण करने का संकल्प कर लेता है। तदर्थ सर्वप्रथम वह आत्मचिंतन करता है और उसके बाद क्रमश: खाद्य, और पेय पदार्थ छोड़कर उपवासपूर्वक देहत्याग करता है। वहाँ उसके मन में शरीर के प्रति कोई राग नहीं होता। अतः आत्महत्या का उसे कोई दोष लगने का प्रश्न ही नहीं उठता। वस्तुत: आत्महत्या और सल्लेखना में अन्तर समझ लेना अत्यावश्यक है। आत्महत्या की पृष्ठभूमि में कोई अतृप्त वासना काम करती है। आत्महत्या करने वाला अथवा किसी भौतिक सामग्री को प्राप्त करने के लिए अनशन करने वाला व्यक्ति विकार भावों से जकड़ा रहता है। उसका मन क्रोधादि भावों से उत्तप्त रहता है जबकि सल्लेखना करने वाले के मन में किसी प्रकार की वासना और उत्तेजना नहीं रहती। उसका मन इहलौकिक साधनों की प्राप्ति से हटकर पारलौकिक सुखों की प्राप्ति की ओर लगा रहता है। भावों की निर्मलता उसका साधन है। तज्जीवतच्छरीरवाद से हटकर शरीर और आत्मा की पृथकता पर विचार करते हुए शारीरिक परतन्त्रता से मुक्त होना उसका साध्य है। विवेक उसकी आधारशिला है। अत: आत्महत्या और सल्लेखना को पर्यायार्थक नहीं कहा जा सकता। ___समाधिमरण और सल्लेखना पर्यार्थक शब्द हैं। जैसा पहले हम कह चुके हैं, सल्लेखना का उद्देश्य यही है कि साधक संसार-परंपरा को दूर कर शाश्वत अभ्युदय शाश्वत अभ्युदव और निःश्रेयस् की प्राप्ति करे। साधक अपना शरीर बिलकुल अशक्त देखकर आभ्यन्तर और बाह्य, दोनों सल्लेखनायें करता है। आभ्यन्तर सल्लेखना कषायों की होती है और बाह्य सल्लेखना शरीर की होती है। परिणामों की विशुद्धि जितनी अधिक होगी, सल्लेखना की उपयोगिता उतनी ही अधिक होगी। इसमें कषायों की क्षीणता नितान्त आवश्यक है। मरण के सन्निकट आ जाने पर तथा उपसर्ग या चारित्रिक विनाश की स्थिति आ जाने पर सल्लेखना धारण की जाती हैं मरणकाल में जो जीव जिस लेश्या से परिणत होता है उत्तरकाल में उसी लेश्या का धारक होता हैं चिरकाल से आराधित धर्म भी यदि अन्तकाल में छोड़ दिया जाये तो वह निष्फल हो जाता है। और यदि मरणकाल में उस धर्म की आराधना की जाय तो वह चिरकाल के उपार्जित पापों का भी नाश कर देता है। साधक की साधना को सफल बनाने के लिए अन्य १. सर्वार्थसिद्धि, ७.२२; राजवार्तिक, ७.२२, चारित्रसार, २२. २. भगवती आराधना, १९२२, सागारधर्मामृत, ८.१६; उपासकाध्ययन,८९७-८. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) स्वपरविवेकी साधु यथाशक्य प्रयत्न करते हैं। वे तरह-तरह से साधनारत व्यक्ति के लिए उपदेश देते रहते हैं और धर्म साधना में व्यस्त व्यक्ति के भावों को दृढ़ बनाये रखते हैं। मुनि भी अन्तिम समय में सल्लेखना धारण करते हैं। ७. मरण के प्रकार जैन साहित्य में शरीर त्याग के तीन प्रकारों का उल्लेख मिलता है- च्युत, च्यावित और त्यक्त। आयु के समाप्त होने पर स्वभावत: मरण हो जाना च्युत है। शस्त्र अथवा विषादिक द्वारा शरीर छोड़ना च्यावित है जो उचित नहीं कहां जा सकता और समाधिमरण द्वारा मरण होना त्यक्त कहलाता है। त्यक्त के तीन प्रकार हैं- भक्त प्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण और प्रायोपगमनमरण। १. भक्तप्रत्याख्यानमरण- इसमें आहारादि त्यागने के बाद साधक शरीर की परिचर्या स्वयं ही करता है, दूसरों से नहीं कराता। वह प्रतिज्ञा करता है कि मैं सर्व प्रथम हिंसादि पांचों पापों का त्याग करता हूँ। मुझे सब जीवों में समता भाव है, किसी के साथ भी मेरा वैर नहीं। इसलिए मैं सर्व आकांक्षाओं को छोड़कर समाधि (शुद्ध) परिणाम को प्राप्त होता हूँ। मै सब अन्न-पान आदि आहार की अवधि का, आहार संज्ञा का, सम्पूर्ण आशाओं, कषाओं का और सर्वपदार्थों में ममत्व भाव का त्याग करता हूँ।२ इस प्रतिज्ञा से साधक के परिणाम अत्यन्त सरलता औरविरागता की ओर बढ़ जाते हैं। वह साधक निश्छल और क्षमाशील हो जाता है। यावज्जीवन आहारादि का त्याग कर संसार-सागर से पार होने का उपक्रम करता है। कुन्दकुन्द, वसुनन्दि आदि आचार्यों ने इसे शिक्षाव्रतों में सम्मिलित किया है जब कि उमास्वामि, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने उसे मारणान्तिक कर्तव्य के रूप में माना है। भक्तप्रत्याख्यानमरण के दो भेद हैं- सविचार और अविचार। नाना प्रकार से चारित्र का पालन करना और चात्रि में ही विहार करना विचार है। उस विचार के साथ जो वर्तता है वह सविचार है और जो इस प्रकार का वर्तन नहीं करता वह अविचार है। जो गृहस्थ या मुनि उत्साह व बलयुक्त है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है अर्थात् जिसका मरण कुछ अधिक समय बाद प्राप्त होगा, ऐसे साधु के मरण को सविचार भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। जिसमें कोई सामर्थ्य नहीं और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित हुआ है ऐसे साधु के मरण को अविचारभक्तप्रत्याख्यान कहते हैं। १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, ५६-६१. २. मूलाचार, १०९-१११; भगवतीशतक, १३, ३.८ पा. ३०; ठाणांगटीका, २.४.१०२. ३. भगवती आराधना, वि., गाथा, ६५. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) २. इंगिनीमरण- इसमें आहारादि त्यागने के बाद साधक नियत देश में ही शरीर की परिचर्या स्वयं ही करता है, दूसरों से नहीं कराता। ३. प्रायोपगमन मरण- इसमें साधक आहारादि त्यागने के बाद शरीर की परिचर्या न स्वयं करता है और न दूसरों से कराता हैं वह तो मात्र सतत आत्मध्यान में लीन रहता है। इसे 'प्रायोग्यगमन' भी कहते हैं। प्रायोग्य का अर्थ है संस्थान या सहनन। इनकी प्राप्ति होना प्रायोग्य गमन है। विशिष्ट संस्थान व विशिष्ट संहनन वाले ही प्रायोग्य अंगीकार करते हैं। कहीं-कहीं इसके लिए “पादोपगमन' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है- अपने पांव के द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण है।' आचार्य शिवार्य ने समाधिमरण का विस्तार से वर्णन करते हुए मरण के पांच भेद किये हैं- बालमरण, बाल-बालमरण, पण्डितमरण, पण्डित-पण्डितमरण, और बाल-पण्डित मरण।. अविरत सम्यग्दृष्टि के मरण को बालमरण, मिथ्या-दृष्टि के मरण को बाल-बालमरण, सम्यक्चारित्र के धारक मुनियों के मरण को पण्डित मरण, तीर्थंकर के निर्वाणगमन को पण्डित-पण्डितमरण और देशव्रती श्रावक के मरण को बाल पण्डितमरणं कहा जाता है। भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन ये तीन भेद पण्डितमरण के हैं जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। सल्लेखना अंथवा समाधिकरण जैसा कोई व्रत जैनेतर संस्कृति में प्राय: उपलब्ध नहीं है। जैनधर्म में तो निर्विकारी साधु अथवा श्रावक के मरण को मृत्यु महोत्व का रूप दिया गया है जबकि अन्यत्र कोई प्रसंग भी नहीं आता। वस्तुतः यह व्रत अन्तिम समय में आध्यात्मिक और परलौकिक क्षेत्र में अपनी आत्मा को विशुद्धतम बनाने के लिए एक बहुत सुन्दर साधन है। जैनधर्म की यह एक अनुपम देन है। वैदिक संस्कृति में प्रायोपवेशन, प्रायोपगमन जैसे कतिपय शब्द सल्लेखना के समानार्थक अवश्य मिलते हैं पर उनमें वह विशुद्धता तथा सूक्ष्मता नहीं दिखाई देती। अधिक सम्भव यह है कि उसपर जैन संस्कृति का प्रभाव पड़ा होगा। फिर भी इसे हम ‘भक्तप्रत्याख्यानमरण' कह सकते हैं। इस अवस्था में भी साधक के मन में किसी प्रकार की इहलोक, परलोक, जीवित, मरण और कामभोग की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। उसे पूर्ण निरासक्त और निष्कांक्ष होना आवश्यक है समभाव की प्राप्ति तभी हो सकेगी जब वह निर्मोही हो जायेगा। जैन संस्कृति की सल्लेखना में मुमुक्षु की मानसिक अवस्था का सुन्दर संयोजन होता है। बौद्ध संस्कृति में भी मुझे सल्लेखना से मिलता-जुलता कोई व्रत देखने नहीं मिला। १. वही, गा. २९; उपासकदसांगसूत्र, अध्याय १; उत्तराध्ययनटीका, २.४.१०२. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) इस प्रकार श्रावक अवस्था मुनिव्रत की पूर्णावस्था हैं अत: यह स्वाभाविक है कि साधक अपनी पूर्णावस्था में उत्तरावस्था में निर्धारित आचार व्यवस्था को किसी सीमा तक पालन करने का प्रयत्न करे। इसे हम उसकी अभ्यास अवस्था कह सकते हैं। योगसाधना, परीषहों और उपसर्गों को सहन करना आदि कुछ ऐसे ही तत्त्व हैं जिनका अनुकरण श्रावक भी करता है। ऐसे तत्त्वों का विवेचन संयुक्त विवेचन समझना चाहिए। कुछ तत्त्वों का वर्णन हमने श्रावकाचार प्रकरण में कर दिया और कुछ को मुनि आचार प्रकरण में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। दोनों अवस्थाओं में व्रत लगभग वही हैं, . मात्र अन्तर है उनके परिपालन में हीनाधिकता अथवा मात्रा का। ८. गुणस्थान __जीव मिथ्यात्व और अज्ञानता के कारण अपने विशद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता। जिस क्रम से वह अपनी विशुद्ध अवस्थारूप परमपद को प्राप्त करने का. प्रयत्न करता है उसे ही गुणस्थान कहा जाता है। अर्थात् गुणस्थान आध्यात्मिक क्षेत्र . में चरमसीमा प्राप्त करने के लिए जीव के विकासात्मक सोपान हैं। ये चौदह होते हैं१. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन, सम्यग्दृष्टि, ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशसंयत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण संयत, ९. अनिवृत्तिकरणसंयत, १०. सूक्ष्मसांपरायसंयत, ११. उपशान्तकषाय संयत, १२. वीतरागछद्मस्थसंयत, १३. सयोगकेवली गुणस्थान, और १४. अयोगकेवली गुणस्थान। प्रारम्भिक अवस्था में गुणस्थान के स्थान के जीवसमास शब्द का प्रमेय होता था। उत्तरकाल में गुणात्मकाल की अभिव्यक्ति देने के लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग होने लगा। १. मिथ्यादृष्टि जीव जबतक आत्मस्वरूप की पहचान नहीं कर पाता, तबतक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेद्रिय तक के जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। संज्ञी अवस्था प्राप्त कर यदि वे पुरुषार्थ करे तो उस मिथ्यात्व से दूर हो सकते हैं। वह मिथ्यात्व पाँच प्रकार का होता है - १. एकान्त मिथ्यात्व (पदार्थ नित्य अथवा अनित्य ही है, यह मान्यता), २. अज्ञान मिथ्यात्व (स्वर्ग, नरक आदि को न मानना), ३. विपरीत मिथ्यात्व (मिथ्यादर्शनादि विपरीत मार्ग से भी मुक्ति-प्राप्ति को स्वीकार करना), ४. संशय मिथ्यात्व (किसी तत्त्व का निर्णय नहीं कर पाना), ५. विनय मिथ्यात्व .. १. पञ्चसंग्रह, १.३; गोमट्टसार जीवकाण्ड, ८.२९. २. मूलाचार, ११९५-९६. ३. रयणसार, १०६. ४. धवला, १.१.१.९. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) (पद के प्रतिकूल भक्ति करना)। मिथ्यात्व के दूर होते ही जीव प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ गुणस्थान में पहुँच जाता है। और फिर वहाँ से पतित होकर प्रथम गुणस्थान में आता है। २. सासादन सम्यग्दृष्टि __मिथ्यादृष्टि जब प्रथमबार सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है तो उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। चतुर्थ गुणस्थान में पहुंचने पर नियम से वह अनन्तानुबन्धी कषायादि की तीव्रता के कारण सम्यग्दर्शन से पतित होता है फिर भी वह सम्यग्दर्शन का आस्वादन लिये रहता है। इसलिए इस अवस्था का नाम सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। यहाँ जीव एक समय से लेकर छह आवली तक रहता है। फिर वह प्रथम गुणस्थान में पहुँच जाता है। ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि . सम्यग्दर्शन से पतित होने पर यदि उसके दही-गुड़ के स्वाद की तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिश्रित परिणाम होते हैं तो वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहलाता है। इसे मिश्रगुणस्थान' भी कहा गया है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त रहता है। यदि यहाँ उसके भाव पुन: सम्यक्त्व रूप हो जाते हैं तो वह चतुर्थ गुणस्थान में पहुँच जाता है अन्यथा वह नीचे के गुणस्थान में चला जाता है। .. ४. असंयत सम्यग्दृष्टि जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने पर यह गुणस्थान मिलता है। साधक जब अपने दर्शन मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, और सम्यक्त्व तथा चारित्र मोहनीय कर्म की अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय और क्षयोपशम कर देता है तब उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। सम्यग्दृष्टि जीव संसार में अधिकाधिक तीन भव तक रहता है। चौथे भव में नियमत: वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। संसार में रहता हुआ भी वह अनासक्त भाव से विषय-वासनाओं का सेवन करता है। उसका अन्त:करण विशुद्ध होता है, यद्यपि वह चारित्र का पालन नहीं करता। गृहस्थावस्था में रहते हुए भी वह जल में कमल के समान उससे निर्लिप्त रहता है। इस अवस्था को 'अविरतसम्यक्त्व' भी कहा गया है।३ तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९.१.१४. १. पंचसंग्रह, १.९. २. ३. वही, ९.१.१५; पंचसंग्रह, ११. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) ५. देशसंयत असंयत सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र का पालन न करते हुए भी भौतिक साधनों को कर्मबन्धन का कारण मानता है पर यह देश संयमी साधक अहिंसादि व्रतों का स्थूल रूप से पालन करता है और धीरे-धीरे आत्मा की विशुद्धावस्था को प्राप्त करने की ओर बढ़ता चला जाता है। इस क्रम में वह पूर्वोक्त ग्यारह प्रतिमाओं को क्रमश: ग्रहण करता है और शुद्ध चारित्र धारण करते हुए सल्लेखना पूर्वक मरण करता है। इस गुणस्थान को 'देशविरत' भी कहा जाता है। ६. प्रमत्तसंयत यह गुणस्थानवी जीव घर छोड़कर मुनि हो जाता है और अणुव्रतों के स्थान . पर महाव्रतों का परिपालन करता है। चारित्र का सम्यक् पालन करते हुए भी प्रमादवश कभी कभी उसकी मानसिक वृत्ति विषय-कषायादि की ओर झुक जाती है। जैसे ही उसे उस झुकाव का ध्यान आता है, वह पुन: अप्रमत्त हो जाता है। इस तरह उसकी वृत्ति . प्रमाद से अप्रमाद और अप्रमाद से प्रमाद की ओर दौड़ती रहती है। वह संयत रहने पर भी प्रमत्त है। ७. गायत्तसंयत छठा गुणस्थानवी जीव जब अप्रमत्त होकर सम्यक् आचरण करता है तो उसके अप्रमत्त संयत अवस्था प्रगट होती हैं वर्तमान काल में इस गुणस्थान से आगे कोई भी साधु नहीं जा पाता क्योंकि ऊपर के गुणस्थानों को प्राप्त करने की शक्ति उसमें नहीं रहती। इस अवस्था के दो भेद हैं- स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। स्वस्थान अप्रमत्त छठे से सातवें और सातवें से छठे गुणस्थान में घूमता रहता है पर सातिशय अप्रमत्ती मोहनीय कर्म को नष्ट करने के लिए उद्योगशील बना रहता है।३. ८. अपूर्वकरण इस गणस्थान में जीव के भाव अपर्व रूप से विशद्ध होते हैं। इसलिए इसे अपूर्वकरण कहा गया हैं यहाँ से जीव पतित नहीं होता बल्कि उसकी विशुद्धावस्था का रूप निखरता चला जाता है। मोहनीय कर्म को नष्ट करने की भूमिका का भी निर्माण यहीं होता हैं चरित्र की अपेक्षा इस गुणस्थान में क्षायिक व औपशमिक भाव ही सम्भव १. धवला, १.१.१.१३; गोमट्टसार जीवकाण्ड, ४७६. २. पञ्चसंग्रह, १.१४; धवला, १.१.१.१४. ३. वही, (प्रा.), १.१६; तत्त्वार्थसार, २.२५. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) हैं। यहाँ एक भी कर्म का उपशम या क्षय नहीं होता। आठवें गणस्थान से जीवों को दो श्रेणियाँ प्रारम्भ हो जाती है- उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। उपशमश्रेणी में चारित्र मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का उपशम किया जाता है और क्षपकश्रेणी में उनका क्षय किया जाता है। उपशम श्रेणी के चार गुणस्थान होते हैं- आठवें से बारहवें तक। क्षपकश्रेणी के भी चार गुणस्थान होते हैंआठवाँ, नौवाँ, दशवाँ और बारहवाँ। उपशमश्रेणी पर तद्भवमोक्षगामी, अतद्रमोक्षगामी, औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि, दोनों प्रकार के जीव चढ़ सकते हैं पर क्षपक श्रेणी पर मात्र तद्भव और अतद्भव मोक्षगामी ही चढ़ने का सामर्थ्य रखते हैं। उपशम श्रेणीवर्ती जीव ग्यारहवें गुणस्थान से नियमत: पतित होता है और वह प्रथम गुणस्थान तक भी पहुँच जाता हैं पर क्षपक श्रेणी का जीव सातवें गुणस्थान से भी आगे बढ़ जाता है। ९. अनिवृत्तिकरण इसमें सभी जीवों के परिणाम समान (अनिवृत्ति-अविषम) रहते हैं। कर्मों की निर्जरा असंख्यातगुणी बढ़ जाती है और स्थितिबन्ध उत्तरोन" कम होता जाता है। उपशमश्रेणी का जीव मोहनीय कर्म की लोभ प्रकृति को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों का उपशंम करता है और क्षपकश्रेणी का जीव उन .. क्षय करके दशवें गुणस्थान में पहुंच जाता है।२ । १०. सूक्ष्मसांपराय . सांपराय का तात्पार्य है लोभ। इसमें साधक मोहनीय कर्म की शेष सूक्ष्म लोभ प्रकृतियों का भी उपशमकर ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव उसका क्षयकर बारहवें गुणस्थान को पाता है। इस गुणस्थान का भी काल अन्तर्मुहूर्त है।३ ११. उपशान्तमोह इस गुणस्थान का साधक सूक्ष्म लोभ का उपशम होते ही शुक्लध्यान के कारण एक अन्तर्मुहूर्त के लिए मोहनीय कर्म को उपशान्त कर वीतराग अवस्था प्राप्त कर लेता हैं पर नियम से वहाँ से गिरकर नीचे के गुणस्थानों में चला जाता है। १. धवला, १. पृ. १८०; धर्मबिन्दु, ८.५; भावसंग्रह, ६४८. २. पञ्चसंग्रह (प्राकृत), १.२०-२१; धवला, १.१.१.१७. . ३. वही, १.२२-२३; तत्त्वार्थवार्तिक, ९.१.२१. ४. भावसंग्रह, ६५५; धवला, १., पृ. १०९. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) १२. क्षीणकषाय __इस गुणस्थान में सूक्ष्मलोभ का क्षय हो जाता है और साथ ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय रूप शेष घातिया कर्म भी नष्ट हो जाते है। फलत: जीव को कैवल्य अवस्था प्राप्त हो जाती हैं इस गुणस्थान से जीव का पतन नहीं होता बल्कि अन्तर्मुहूर्त रहकर वह नियम से तेरहवें गुणस्थान में चला जाता हैं इस गुणस्थाने तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं क्योंकि इस अवस्था तक उसके साथ कर्मों का सम्बन्ध बना रहता है। १३. सयोगकेवली यहाँ कैवल्यावस्था प्राप्त जीव को अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप गुण प्राप्त होते हैं। उसमें मात्र सत्यवचन, अनुभयवचन और भौदारेक काय रूप त्रियोग शेष रह जाता हैं इसलिए इसे सयोगकेवली कहा जाता है। सत्यवचनयोग और अनुभयवचनयोग से वह संसारी जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देता है। यहाँ शुक्लध्यान का तृतीय भेद प्रगट हो जाता है।२ . १४. अयोगकेवली इस गुणस्थान में सयोगकेवली शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद को प्राप्त कर त्रियोगों का निरोध करता है और बाद में यथासमय अशरीरी होकर अघातिया कर्मों को भी नष्ट कर सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार गुणस्थान को आत्मा के क्रमिक विकास का अध्ययन कहा जा सकता है। किस प्रकार जीव अपनी मिथ्यात्व अवस्था को छोड़कर सम्यक्त्व अवस्था प्राप्त करता है और बाद में समस्त कर्मों का उपशमनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसका सोपानगत विश्लेषण हम गुणस्थान के माध्यम से जान पाते हैं। जैन श्रावक की आचार व्यवस्था का यह संक्षिप्त विवेचन उसके क्रमिक इतिहास को प्रस्तुत करता हैं जैनेतर दर्शनों में निर्धारित व्यवस्था का भी यहाँ अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। उनके बीच तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैन आचार १. पञ्चसंग्रह (प्राकृत), १.२५; धवला, १, पृ. १९०. २. वही, १.२७-३०. ३. नन्दिचूर्णि में पन्द्रह प्रकार के सिद्धों का वर्णन किया गया है। ४. पञ्चसंग्रह (संस्कृत), १.४९-५०. ५. इस सन्दर्भ में विशेषावश्यकभाष्य आदि ग्रन्थ दृष्टव्य हैं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) व्यवस्था में साधनों की विशुद्धता पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया है। बौद्ध धर्म की शब्दावली में गुणस्थान को भूमियों की संज्ञा दी जा सकती है। "श्रावकाचार के परिपालन से साधक में मुनि-आचार के पालन की क्षमता उत्पन्न हो जाती है और वह आध्यात्मिक विकास की ओर कुछ और आगे बढ़ जाता है। संसार का हर पदार्थ उसे अब एक बन्धन सा प्रतीत होने लगता है। और अन्तत: वह अनगार होकर मुनिव्रत धारण कर लेता है। ३. आचार्य वसुनन्दी और उनका श्रावकाचार - अन्यचिन्तन और सामाजिक सन्तुलन की पृष्ठभूमि में जैनाचार्यों ने श्रावकाचार का यथासमय निर्धारण किया है जिसे हम पिछले पृष्ठों में देख चके है। वसुनन्दी ने भी इसी उद्देश्य से 'उपासकाध्ययन' नामक श्रावकाचार ग्रन्थ लिखा जिसपर उवासगदसाओं और उपासकाध्ययन (सोमदेव) का प्रभाव दिखाई देता है। साधारण तौर पर आज यह ग्रन्थ वसुनन्दी श्रावकाचार के नाम से अधिक विश्रुत है। उपलब्ध आगमिक साहित्य में उवासगदसाओं नामक सप्तम अंग कदाचित् प्राचीनतम श्रावकाचार कहा जा सकता है। इसमें ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा दार्शनिक आदि ग्यारह प्रकार के श्रावकों का आचार वर्णन किया गया है। वही परम्परा उत्तरकालीन आचार्यों के समक्ष रही है। वसुनन्दी ने भी उसी परम्परा का आधार लेकर अपना श्रावकाचार लिखा है। और उसका नाम उपासकाध्ययन रखा है। इस ग्रन्थ में “छच्चसया पषणासुत्तराणि एयस्स गंथपरिमाण' के अनुसार ६५० गाथाएं है पर उपलब्ध प्रतियों में इतनी गाथायें नहीं मिलती हैं। स्व० पं० हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित और अनुदित संस्करण में मात्र ५४६ गाथायें हैं जिनका लेखा-जोखा उन्होंने अपनी प्रस्तावना में दिया है। बहुत कुछ सम्भावना यही है कि वसुनन्दी ने उपलब्ध ग्रन्थों में से कुछ गाथाओं का अपने ढंग से संकलन कर दिया और उन्हें भी मूल ग्रन्थ के परिमाण में गिना दिया। आचार्य वसुनन्दी के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती उनकी प्रशस्ति से इतना ही पता चलता है कि आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में श्रीनन्दि नामक आचार्य हुए जिनके शिष्य नयनन्दि और नयनन्दि के शिष्य नेमिचन्द्र थे। इन्हीं नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनन्दि थे। वसुनन्दि ने प्रस्तुत उपासकाध्ययन की रचना भी इन्हीं नेमिचन्द्र के आग्रह पर की थी यह प्रशस्ति से ज्ञात होता है सिस्सो तस्स जिणागम-जलणिहिवेलाणरंगधोयमणो। . संजाओ सयलजए विरकाओ नेमिचन्दु नि।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) नस्स पसायेण मए आइरिणपरंपरागयं • सन्थं। वच्छल्लयाए रइयं भवियाणभुवासयज्झयणं ।। ५४३-४।। . प्रशस्ति में वसुनन्दि ने इसके अतिरिक्त और कुछ भी महत्त्वपूर्ण उल्लेख नहीं किया। इससे उनके समय आदि के सन्दर्भ में अधिकारिक रूप से कुछ कह पाना कठिन न हो रहा है। फिर भी अन्य सन्दर्भ के परिप्रेक्ष्य में वसुनन्दि का समय बारहवीं शती निर्धारित किया जा सकता है। वसुनन्दि के दादागुरु नयनन्दि द्वारा रचित सुदंसणचरिउ की परिसमाप्ति संवत् ११०० में धारा नरेश र्भागदेव के राज्यकाल में हुई थी। ये नयनन्दि प्रसिद्ध तार्किक माणिक्यनन्दि के शिष्य थे। पर वसुनन्दि ने नयनन्दि को श्रीनन्दि का शिष्य बनाया। नयनन्दि द्वारा दी गई गुरुपरम्परा पर कोई प्रश्न चिह्न खड़ा करना उचित नहीं है हां वसुनन्दि द्वारा उल्लिखित श्रीनन्दि की खोज अवश्य की जा सकती है पं० हीरालाल जी ने श्रीनन्दि को रामनन्दि का अपरनाम माना है। पर सम्भव है, मणिक्यनन्दि.का ही अपरनाम श्रीनन्दि हो। जो भी हो वसुनन्दि का समय १२ वीं शताब्दी निश्चित् करने . में कोई बाधा नहीं आती क्योंकि पं० आशाधर ने सागारधर्मामृत की टीका (वि. सं. १२९६) में उनका उल्लेख बड़े सम्मान के साथ किया है। .. प्रस्तत श्रावकाचार के अतिरिक्त वसनन्दि के अन्य ग्रन्थ भी प्राप्त होते है आपृमीमांसा वृत्ति, मूलाचार वृत्ति, सहस्रनामटीका और प्रतिष्ठासरसंग्रह। वे एक कुशल प्रतिष्ठाचार्य भी रहे होंगे। उपासकाध्ययन में भी जिनबिम्ब प्रतिष्ठा पर काफी विचार किया गया है। वसुनन्दि संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के मर्मज्ञ थे। श्रावकाचार (उपासकाध्ययन) को छोड़कर सभी टीका ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं। बारहवीं शती तक आते-आते प्राकृत भाषा का काफी विकास हो चुका था। अपभ्रंश और अवहट्ट से आगे बढ़कर भाषा ने हिन्दी की ओर कदम बढ़ा लिये थे। फिर भी प्राकृत बहुजन भाषा थी। अपनी बात को जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए ही कवि विद्वान् ने अपने श्रावकाचार की रचना प्राकृत में की होगी। यह प्राकृत बड़ी सरल और सीधी है। शौरसेनी में लिखी इसकी गाथाओं में पैनापन नहीं हैं इससे भी लगता है, विद्वान् कवि ने जानबूझकर अपनी अभिव्यक्ति के लिए सरल प्राकृत का चुनाव किया है। यहां हम वसुनन्दि की उन कतिपय विशेषताओं का उल्लेख करना चाहते हैं जो अन्यत्र नहीं दिखती१. वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाया हैं आचार्य कुन्दकुन्द और स्वामी कार्तिकेय ने भी उनके पूर्व यही आधार बनाया था। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) द्वितीय परम्परा में बारह व्रतों का आधार लेकर श्रावकाचार का वर्णन किया गया है जिसके नेता आचार्य उमास्वामि और समन्तभद्र रहे हैं । उवासगदसाओं भी इसी परम्परा से जुड़ा हुआ आगम ग्रन्थ हैं बारह व्रतों के अतिचारों की परिगणना भी इसी परम्परा की देन है। श्रावक अवस्था में सल्लेखना का विधान भी इस परम्परा में किया गया हैं बारह व्रतों का परिपालन करते हुए साधक संसार वैराग्य लेकर इस अवस्था तक पहुंच जाता है कि वह सल्लेखना का वरण कर सकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस परम्परा के श्रावकाचारों में अष्टमूलगुणों का उल्लेख नहीं हुआ हैं उन्हें कदाचित् बारह व्रतों में अन्तर्भूत कर लिया गया है। श्रावकाचार के वर्णन का तीसरा प्रकार पक्षचर्या और साधन का निरूपण है। जिनसेन इसके अग्रणी नेता रहे हैं। उन्होंने महापुराण के ३९-४० और ४१ वें पर्व में इसका वर्णन विस्तार से किया हैं साधन पक्ष में सल्लेखना की स्थिति को भी स्वीकारा है। २. वसुनन्दि ने सप्त व्यसनों का काफी विवेचन किया है जिनबिम्ब प्रतिष्ठा पर जोर दिया है। लगता है उस समय सप्त व्यसनों का प्रचलन अधिक हो गया था। मध्य कालीन राजनीतिक क्षेत्र का परिदृश्य इस स्थिति की ओर भलीभाँति संकेत कर देता है। वास्तुकला भी ह्रास की ओर बढ़ने लगी थी। मुस्लिम आक्रमणों के कारण भय और निराश बढ़ रही थी, धार्मिक शिथिलाचार की ओर कदम बढ़ने लगे थे। इन सभी दृष्टियों से वसुनन्दी ने अष्ट मूलगुणों की ओर विशेष ध्यान न देकर सप्तव्यसन निवृत्ति तथा जिनबिम्ब प्रतिष्ठा प्रवृत्ति की ओर समाज को आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर श्रावकाचार की रचना की । अष्ट मूलगुणों का अन्तर्भाव स्वतः इस वर्णन में हो जाता है। ३.. आचार्य कुन्दकुन्द परम्परा का अनुगामी होने के कारण वसुनन्दि ने उनके द्वारा प्रतिपादित ग्यारह प्रतिमाओं की परम्परा का अनुसरण किया है। सम्भव हो इसी परम्परा का अनुसरण उवासगदसाओ में भी रहा हो क्योंकि उसका उल्लेख बार-बार वसुनन्दि ने किया है। ४. अष्टमूलगुणों का वर्णन वसुनन्दि ने नहीं किया। कुन्दकुन्दाचार्य और उपासकदशांग भी इस सन्दर्भ में मौन है। सर्वप्रथम इनका वर्णन करने वालों में आचार्य समन्तभद्र दिखाई देते हैं मुख्य रूप से। वह भी उन्होंने मात्र एक श्लोक संख्या ५१ में इसका उल्लेख ‘आहु’ कहकर किया है लगता है, वे किन्हीं आचार्यों के मत का उल्लेख कर रहे हों। अत: उन्हें पांच अणुव्रत ही श्रावक के मूलगुणों में सम्मिलित करना इष्ट रहा है। मांस, मधु आदि के परिहार की बात वे भोगोपभोग परिमाणव्रत (श्लोक ८४, रत्नकाण्ड) के प्रसंग में कर ही चुके है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो भी हो अष्टमूलगुण परम्परा को मानने और न मानने की दोनों परम्परायें उस समय थी। कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, उमास्वामि, उवासगदसाओं पूज्यपाद अकलंक, विद्या वसुनन्दि आदि अघृमूलगुण परम्परा से विमुख थे जबकि समन्तभद्र, जिनसेन, सोमदेव आदि आचार्य ने अष्टमूलगुणों को श्रावकाचार का आधार माना। वसुनन्दि ने दर्शन प्रतिमाधारी के लिए सप्तव्यसनों के साथ पंच उदुम्बर फलों के त्याग को भी आवश्यक माना है (श्लोक ५७५८)। तब व्रत प्रतिमा में इसके विधान की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती। रात्रिभोजनत्याग को . भी प्रथम प्रतिमा के साथ जोड़कर अमितगति के मन का सम्मान किया गया. ' है यहां। बारह व्रतों के अतिचारों का वर्णन न करना भी वसुनन्दि की विशेषता रही है।. कुन्दकुन्द कार्तिकेय, देवसेन आदि आचार्यों भी अपने ग्रन्थों में अतिचारों के विषय में मौन रहे। वसुनन्दि ने उन्हीं का अनुकरण किया है। वसुनन्दि की एक अन्यतम विशेषता यह है कि उन्होंने ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वरूपं नये ढंग से दिया हैं समन्तभद्र ने उसे स्वदारसन्नोस या परदारागमन परित्याग कहा (रत्न ५९) तो सोमदेव ने स्ववधू और विनस्त्री (वैश्या) को छोड़कर परमहिला परिहार रूप से स्वीकारा (यशास्तिलक, सप्तम अध्याय), जिसे आशाधर ने अन्यस्त्री और प्रकटस्त्री परिस्वाग के रूप में प्रतिपादित किया। (सागार. ४.५२)। पर वसुनन्दि ने एक नया ही विचार प्रस्तुत किया उन्होंने कहा कि जो अष्टमी आदि पर्वो के दिन स्त्री-सेवन नहीं करता है और सदा अनंग क्रीड़ा का परित्यागी है वह स्थूल ब्रह्मचारी या ब्रह्मचर्याणुव्रत का धारी है (गाथा २१२)। यह उन्होंने इसलिए किया की उनके अनुसार सप्तव्यसनों का त्याग पहली प्रतिमा में हो ही जाता है तो दूसरी प्रतिमा में उसकी पुनरावृत्ति क्यों की जाये? इसलिए द्वितीय प्रतिमाधारी के लिए यह व्रत इस प्रकार का विश्लेषित किया गया। ७. वसुनन्दि के पूर्व दशव्रत को कुछ चिन्तक गुणव्रत के अन्तर्गत रखने थे और कुछ उसे शिक्षाव्रत का अंग मानते थे। वसुनन्दि ने इस लीक से हटकर एक नयी दृष्टि दी कि दिग्व्रत के भीतर भी जिस देश में व्रतभंग का कारण उपस्थित हो, वहां पर नहीं जाना सो देशव्रत है। (गा. २१५) अनेक परिस्थितियों में व्रतभंग की स्थिति आसकती है। इसलिए यह व्याख्या अनुचित नहीं है। ८. दशव्रत के समान अनुर्थदण्डव्रत की भी व्याख्या वसुनन्दि ने अपने ढंग से की है। उनके अनुसार स्वंग, दण्ड, पाश, अस्त्र आदि का न रचना, कूटतुला न रखना, हीनाधिक मनोन्मान न करना, कूट एवं मांसभक्षी जानवरों का न पालना Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) · अनर्थदण्डव्रत है “गाथा २१६” अनाचार को दूर करने के लिए यह भी आवश्यक था। ९. ,इसी तरह वसुनन्दि ने भोगोपभोग परिमाण नामक शिक्षाव्रत को विभाजित क भोगविरति और उपभोगविरति नामक दो शिक्षाव्रतों की गणना की है। यह अनुकरण श्रावकप्रतिक्रमण का है। उसकी गाथा को भी उन्होंने आत्मसात कर लिया है। १०. श्रावक प्रतिक्रमण के ही आधार पर वसुनन्दि ने सल्लेखना को भी शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत रख लिया है। उमास्वामि समन्तभद्र आदि आचार्यों ने इसे मरणान्तिक कर्तव्य के रूप में माना है। ११. आ. कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने छठी प्रतिमा का नाम रात्रिभुकित्त्वांग रखा है जबकि वसुनन्दि ने रात्रिभुक्तित्याग को जैन होने का मूल अंग मानकर उसके स्थान पर दिवामैथुन त्याग को छठी प्रतिमा कहा है। ठीक है पांचवी प्रतिमा तक रात्रिभजन की अनुमति कैसे दी जा सकती है? आध्कालीन आशाधर आदि विद्वानों ने भुज् धातु के माध्यम से दोनों परम्पराओं का समन्वय कर लिया है। १२. वसुनन्दि की एक अन्यतम विशेषता यह भी है कि उन्होंने ग्यारहवीं प्रतिमाधारी प्रथमोन्कृष्ट श्रावक के लिए भिक्षा पात्र लेकर अनेक घरों से भिक्षा मांग कर और एक स्थान पर बैठकर आहार ग्रहण करने का विधान किया है। दिगम्बर परम्परा में ऐसा विधान अन्यत्र कही नहीं मिलता। वसुनन्दि ने उवासयज्झयण' के आधार पर संक्षेप में इसका व्याख्यान किया है (गा. ३१३)। यह ग्रन्थ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ। पर ऐसा लगता है, समय की आवश्यकता को ध्यान में रखकर श्वेताम्बर परम्परा के आधार पर यह अनुकरण किया गया है। १३. वसुनन्दि के श्रावकाचार का समीक्षात्मक अध्ययन करने पर लगता है उसपर कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, यतिवृषभ, उवासगदसाओं, देवसेन, रविषेण, जिनसेन, सोमदेव, अभितगति, षटखण्डागम, श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र आदि का प्रभाव पड़ा है। इसी तरह वसुनन्दी का प्रभाव आशाधर आदि उत्तरवर्ती विद्वानों पर दिखाई देता है। १४. प्रतिमाधारियों में प्रथम छ: प्रतिमाधारक स्त्रीभोगी होने के कारण गृहस्थ है अत: उन्हें जघन्य श्रावक कहा जाता है, मध्यवर्ती प्रतिमाधारी (७-९ वीं) मध्यम श्रावक माना जाता है और दसवीं प्रतिमाधारी को मध्यम न मानकर उत्तम श्रावक माना गया है। इसे भिक्षुक भी कहा जाता है। आचार्य जिनसेन की “दीक्षाद्य क्रिया 'एक शटकधारी' पद से मिलती जुलती है।'' 'क्षुल्लक' पद हीन जाति वालों Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) के लिए रहता था। ग्यारहवी प्रतिमा के दो भेद वसुनन्दि ने किये हैं प्रथमोकृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट सोलहवी शती के विद्वान् राजमल्ल ने उन्हें क्रमश: क्षुल्लक और ऐलक कहा है। ऐलक शब्द कदाचित नञ समास के आधार पर अचेलक से निकला हो और अचेलक का स्थान ऐलक ने ले लिया हो जिसका अर्थ है। नाम मात्र का वस्त्रधारक साधु । इस तरह संक्षेप में हम यह कह सकते है कि वसुनन्दि के समय तक आते-आते श्रावकाचार की वर्णन परम्परा में परिवर्तन की आवश्यकता महशूस होने लगी औरश्वेताम्बर परम्परा से उसे किसी सीमा तक समझौता करना पड़ा। इस दृष्टि से वसुनन्दि श्रावकाचार का विशेष महत्त्व सिद्ध होता है । श्रावकाचार का सम्बन्ध जिन भक्ति, स्तुति और पूजन से भी है। जैन साहित्य में इन विद्याओं पर विपुल साहित्य उपलब्ध होता है। उसमें आचार्यों ने जैनधर्म पालन, करने वाले की जीवन पद्धति का सर्वाङ्ग विवेचन किया है जो सामुदायिक चेतना से आपूरित है। जैन श्रावक की समूची जीवन पद्धति इस प्रकार से प्रतिष्ठित की गई है कि वह अपने समीपस्थ प्राणियों को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाये और सर्वोदय की भावना रखता हुआ सामाजिक सन्तुलन बनाये रखे। जैन श्रावक की जीवन पद्धति में जिनेन्द्रदेव की पूजा का भी विधान है। वह तदाकार और अतदाकार, दो प्रकार से की जाती है। तदाकार पूजन में षायाण, धातु आदि की प्रतिष्ठित जैन प्रतिमा का पूजन की जाती है । सोमदेब ने इस प्रकार की पूजन के लिए प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजाफल इन छह कर्तव्यों को आवश्यक बताया है। अतदाकार स्थापना में प्रस्तावना, पुराकर्म आदि नहीं किये जाते। क्योंकि जब प्रतिमा ही नहीं है तो अभिषेक आदि किसका किया जायेगा ? अतः पवित्र, पुष्प, पल्लव, फलक, भूर्जपत्र, सिकता, शिलातल, क्षिति, व्योम या हृदय में अर्हनार्दन की अतदाकार स्थाना करनी चाहिए। इस स्थापत्र में भूर्जपत्र आदि पवित्र बाह्य वस्तु के या हृदय के मध्यभाग में अर्हन्त को, उसके दक्षिण भाग में गणधर को, पश्चिम भाग में जिनवाणी को, उत्तर में साधु को और पूर्व में रत्नत्रय रूप धर्म को स्थापित करना चाहिए। अर्हन्न तनुमध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात् । श्रुती: साधुस्तदनु च पुरोऽपि दृगवगमवृत्तानि ।। भूर्जे फलके सिचर्य शिलातले सैकते क्षितौ व्योग्नि । हृदये चेति स्थघाः समय समाचार वेदिभि र्नित्यम् ।। इसके बाद अवात्मक अष्टद्रव्य द्वारा क्रमाः देव, शास्त्र, गुरु और रत्नत्रय धर्म Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५) का पूजन करे तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, पंचगुरु, अर्हद, सिद्ध, आचार्य और शान्ति भक्ति करे। तदाकार पूजन द्रव्यात्मक है और अतदाकार भावात्मक है। आचार्य वसुनन्दि यद्यपि अतदाचार स्थापना के पक्षधर नहीं है पर इस प्रकार का विधान है और यह पूजन लोकव्यवहार में प्रचलित भी है। आचार्य वसनन्दि के समय तक जैन संस्कृति में आचार्य हरिभद्र, जिनसेन और सोमदेव के विचार भलीभाँति पल्लवित हो चुके थे। वैदिक संस्कृति की यज्ञ-याज्ञ परम्परा जैन संस्कृति की अहिंसक धर्म-परम्परा के साथ जुड़कर एकाकार सी हो चुकी थी। जैनधर्म में अहिंसक विधि-विधानों का प्रचलन बढ़ गया था। लगभग सभी तरह के संस्कार भी प्रतिष्ठित हो चुके थे। परं यहाँ यह तथ्य विशेष दृष्टव्य है कि इन विधि-विधानों में किसी भी परिस्थिति में हिंसक तत्त्वों ने प्रवेश नहीं किया था। सारे देवी-देवताओं को भी जैन परम्परा ने पूर्ण अहिंसक ही रखा। इस आचार-परम्परा का यह फल हुआ कि धर्म के नाम पर किसी भी जीव की ताड़ना नहीं होती थी। सामाजिक सन्तुलन की दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि वर्ण भेद और वर्ग भेद से दूर रहकर जैन धर्म ने एक नये समाज को जन्म दिया जो जातिवाद की वीभत्स आयाम से दूर रहकर पूरी मानवतावाद पर प्रतिष्ठित था। पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी यह उचित ही हुआ। विशुद्ध मानवतावाद पर आधारित इस जैन परम्परा ने आत्मिक और सामाजिक विकास में जो अवदान दिया वह अपने आपमें अत्यन्त अनूठा और अनुपम रहा है। जीवन पद्धति में चारित्र को विशेष महत्त्व देना जैनधर्म का एक विशिष्ट अवदान है। श्रावकाचार इसी अवदान की भूमिका है। ४. प्रस्तुत संस्करण का संपादन . प्रस्तुत संस्करण स्व० पं० हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री द्वारा सम्पादित और आरतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित (सन् १९५२) संस्करण पर आधारित है। कुछ अन्य पाण्डुलिपियाँ भी देखी गई पर उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं मिला। इसमें जिन प्रतियों का उपयोग हुआ है, उनका परिचय इस प्रकार है१. इ. उदासीन आगम इन्दौर की प्रति है। आकार ६-१० है। पत्र संख्या ४३४ है। इसमें मूल गाथायें ५४८ हैं। हिन्दी टीका सहित है। साधारणत: शुद्ध है। २. झ. ऐलक पन्नालाल दि जैन सरस्वती भवन झालरापाटन की प्रति है। आकार १०-६ इंच है। पत्र संख्या ३७ है प्रतिपत्र में पंक्ति संख्या ९-१० है। प्रत्येक पंक्ति में अक्षर संख्या ३०-३५ है। प्रति शुद्ध है। कुल गाथा संख्या ५४६ है। अर्थबोधक टिप्पणी भी हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) ३. ध. धर्मपुराण दिल्ली नये मन्दिर की प्रति है। आकार ५-१/२-१० इंच है। पत्र संख्या ४८ हैं प्रतयेक पत्र में पंक्ति संख्या ६ और प्रत्येक पंक्ति में अक्षर संख्या ३६-४० है। गाथा संख्या ५४६ है। प. पंचायती मन्दिर दिल्ली भण्डार की प्रति है। आकार ५-१-२- १०-१/२ इंच है। पत्र संख्या १४ है। प्रत्येक पत्र में पक्ति संख्या १५ है। और प्रत्येक पंक्ति में अक्षर संख्या ५० से ५६ है। इसमें गाथा संख्या ५४६ है। ब. ऐलक पन्नालाल दि जैन सरस्वती भवन व्यावर की प्रति है। आकार ४४१० इंच है। पत्र संख्या ४१ है। प्रत्येक पंक्ति में पक्ति संख्या ९ और प्रत्येक पंक्ति में अक्षर संख्या ३२ से ३६ है। लिपिकाल वि.सं. १६६४ अजमेर। म. बाबा सूरजभान जी द्वारा देवबन्द से लगभग ४५ वर्ष पूर्व प्रकाशित है। मुद्रितहोने से इसका संकेत म रखा गया है। प्रस्तुत वसुनन्दी श्रावकाचार हिन्दी व्याख्याकार हैं मुनिश्री सुनील सागर जी। वे एक दिगम्बर तरुण तपस्वी और प्रतिभा के धनी साहित्यकार है। बुन्देलखण्ड की माटी से जुड़े हुए हैं और गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा संस्थापित सागर विद्यालय के स्नातक है। कुशल अध्येता और जिज्ञासु साधक है। आपने श्रावकाचार की गाथाओं का अर्थ और विशेषार्थ देकर विषय को अन्य ग्रन्थों के उद्धरणों के साथ परिपुष्ट और स्पष्ट किया है। आपसे साहित्य जगत को भारी आशायें है। इस ग्रन्थ के प्रेरक बिन्दु पू. आचार्य श्री सन्मति सागर जी महान तपस्वी और आगमविज्ञ हैं। वे चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री आदिसागर जी महाराज अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश आचार्य प्रवर हैं। वे बहुभाषाविद तलस्पर्शी विद्वान साधक हैं। उन्हीं के संघ में मुनिश्री सुनील सागर जी जैसे विद्वान् साधक साधनारत हैं। वाराणसी चातुर्मास के योग से यह संस्करण तैयार किया गया है। आचार्य श्री की ही प्रेरणा से इस ग्रन्थ का प्रकाशन का अर्थभार श्री भोपालचन्द्र जैन, इटावा ने वहन किया है। उनके ही अर्थ सौजन्य से पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से इसका प्रकाशन हुआ है। एतदर्थ हम उनके आभारी है। उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन का भार हमें सौंपा इसके लिए भी हम उनके कृतज्ञ हैं। प्रस्तावना के लेखन में मैंने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म और पर्यावरण' का आधार लिया है। इसलिए पुनरावृत्ति होना स्वाभाविक है। सुधी पाठक क्षमा करें। वाराणसी दि. १९-११-९९ प्रोफेसर भागचन्द्र जैन 'भास्कर' निदेशक पार्थनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची क्र० विषय गाथा संख्या पृष्ठसंख्या १. मंगलाचरण और श्रावकधर्म प्ररूपण करने की प्रतिज्ञा २. उपदेश सुनने की प्रेरणा ३. . देशव्रत की ग्यारह प्रतिमा ४. सम्यग्दर्शन कहने की प्रतिज्ञा ५. सम्यग्दर्शन का स्वरूप ६. आप्त-आगम और पदार्थों का निरूपण ७. अठारह दोषों से रहित आप्त हैं ८. सात तत्त्वों पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है जीव तत्त्व का वर्णन ९. जीव के सिद्ध और संसारी दो भेद १०. संसारी-जीवों के दो भेद ११. स्थावर जीवों के भेद १२. उस जीवों के भेद १३. जीवों की जानकारी के सम्बन्ध में विशेष सूचना १५ ... अजीव तत्त्व वर्णन १४: अजीव द्रव्य के भेद १६-१७ १५. पुद्गल द्रव्य के छह भेद और दृष्टान्त १६. अरूपी अजीव द्रव्य १७. काल द्रव्यं के भेद २०-२१ १८. द्रव्यों के परिणामित्व आदि गुण १९. द्रव्यों के गुणों का स्पष्टीकरण १८ .१९ २३-२४ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ . . . ४ २०. अर्थपर्याय एवं व्यंजनपर्याय का स्वरूप २१. जीव और पुद्गल का परिणामित्व २२. अपरिणामी द्रव्य २३. जीवत्व एवं मूर्तत्व गुण वाले द्रव्य २४. सप्रदेशी एवं अप्रदेशी द्रव्य २५. एक रूप तथा अनेक रूप द्रव्य २६. क्षेत्रवान् द्रव्य क्रियावान् द्रव्य २८. नित्य-अनित्य और परिणामी द्रव्य २९. कारण भूत द्रव्य ३०. जीव द्रव्य कर्मों का कर्ता-भोक्ता ३१. सर्वगत द्रव्य ३२. द्रव्यों का अप्रवेशी स्वभाव ३३. उपरोक्त सन्दर्भ में गाथा ३४. आश्रव के कारण ३५. शुभ और अशुभ आश्रव के कारण ३६. बंध तत्त्व का लक्षण एवं भेद ३७. संवर तत्त्व का लक्षण एवं भेद ३८. निर्जरा तत्त्व का लक्षण एवं भेद. ३९. मोक्ष का लक्षण ४०. पदार्थों को जानने के उपाय सम्यग्दर्शन का वर्णन ४१. सम्यग्दृष्टि कौन? ४२. सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वर्णन ४३. सम्यग्दर्शन के आठ गुण ४४. अष्टगुणधारी जीव सम्यग्दृष्टि है ४५. कर्मनिर्जरा का कारण सम्यग्दर्शन .४३ ५१ . ६५ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२-५५ ६७ ५६ ७९ ८१ ६०-६९ ८३ ७०-७९ ८८ ९४ ९८ १०४ १०५ ८८-१९३ १०७ ४६. आठ अंगों में प्रसिद्ध होने वालों के नाम ४७. आठ गुणों से युक्त जीव ही सम्यग्दृष्टि है सामान्य श्रावकाचरण ४८. दर्शन (सामान्य) श्रावक का लक्षण ४९. उदुम्बर फलों के नाम सप्तव्यसनों के नाम ५१. जुआ खेलने से हानियां मद्य दोष वर्णन ५३. मधु दोष वर्णन मांस-दोष वर्णन ५५. मांस भक्षण के और भी दोष ५६. लौकिक शास्त्रों में मांस के दोष ५७. वेश्यागमन दोष वर्णन ५८. शिकार दोष वर्णन ५९. चौर्यदोष वर्णन . ६०. परस्त्रीगमन दोष-वर्णन ६२: मद्यपायी यादव ६३. मांसलोलुपी राजा बक • ६४. वेश्यागमन में प्रसिद्ध चारुदत्त ६५. शिकार व्यसन में प्रसिद्ध ब्रह्मदत्त ६६. चोरी व्यसन में प्रसिद्ध श्रीश्रूति ६७. परस्त्री व्यसन में प्रसिद्ध रावण ६८. सप्तव्यसनों का उपसंहार ६९. सप्तव्यसन सेवी रुद्रदत्त ७०. व्यसन के दुष्परिणामों से संसार के दुःख नरक गति दुःख वर्णन ७१. व्यसन सेवी नरकों में उत्पन्न होता है ९४-१०० ११३ १०१-१११ ११६ ११२-१२४ १२१ • १२६ १२८ १२७ १२८ १२८ १३२ १२९ १३८ १३० १३९ १३१ १४० १३२ १४२ १३३ १४३ १३४ १४३ १३५-१३६ १४४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. नारकियों का उछलना ७३. उष्णताजनित दुःख ७४. शीतजन्य दुःख ७५. शीत-उष्णता भी व्यसनों का फल ७६. शस्त्रों से प्राप्त दुःख ७७. जुआ खेलने का फल ७८. शिलाओं से प्राप्त दुःख ७९. शरीर के तिल बराबर टुकड़े होने पर भी मरण नहीं ८०. मद्य एवं मधु सेवन का फल ८१. पत्तों से प्राप्त दु:ख ८२. मांससेवक व्यसन का फल ८३. वैतरणी नदी के दुःख (iv) ८४. परस्त्री एवं वेश्यागमन का फल ८५. इन्द्रियों से पापबन्ध ८६. शिकार खेलने का फल ८७. असुर कुमार देव नारकियों को भिड़ाते हैं ८८. नरकों एवं बिलों की संख्या ८९. सात पृथ्वियों के नाम ९०. नारकियों की आयु ९१. व्यसन सेवन से नरकगति तिर्यञ्च गति दुःख वर्णन ९२. तिर्यञ्च स्थावरों के दुःख ९३. त्रस पर्याय की दुर्लभता ९४. पञ्चेन्द्रिय पर्याय की दुर्लभता ९५. तिर्यञ्च के दुःखों का वर्णन ९६. व्यसनों से तिर्यञ्चगति १३७ १३८ १३९ १४० १४१-१४२ १४३-१५० १५१-१५२ १५३ १५४-५५ १५.६-५७ १५८-६० १६१-६२ . १६३-६४ १६५ १६६-६९ १७० १७१ १७२ १७३-१७५ १७६ १७७ १७८ १७९ १८०-८१ १८२ १४७ १४८ १४९ १४९ १५० १५१. १५३ १५४ : १५५० .१५६. १५६-५७ १५७ १५८ १५९ १५९ १६१ १६१ १६३ १६५ १६९ १६९ १७० १७० १७१ १७२ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (v) १८३ १७३ १८४ १७४ १८५ १७४ १८६ १७५ १८७-९० १७६ १७७ १९२-९३ १७८ १७९ १९४ १९५-९८ १९९-२०० . १८० . — मनुष्यगति दुःख वर्णन ९७. व्यसनों से संयोग-वियोग के दुःख ९८. भूख-प्यास की वेदना से मरण ९९. माँ-बाप के अभाव में दुःख १००. पापात्मा को भीख भी नहीं मिलती १०१. कुष्टादि रोगजनित दुःख देवगति दुःख वर्णन १०२. व्यसन फल से देवगति में दुःख १०३. देवगति में मानसिक दुःख १०४. देवों की नीच जातियां १०५. मरण के चिह्न, व्याकुलता एवं अशरणता १०६. मरणकाल में देवों की विवशता १०७. देव निदान से एकेन्द्रिय होते हैं १०८. मिथ्यात्व दुःख का कारण १०९. संसारवास को धिक्कार ११०. व्यसनों से बहुत प्रकार के दुःख .: ग्यारह प्रतिमा-वर्णन १११. दर्शन प्रतिमा वर्णन ११२. दर्शन प्रतिमा का उपसंहार ....द्वितीय प्रतिमा वर्णन ११३. सामान्य से पंचाणुव्रतों का लक्षण निर्देश ११४. अहिंसाणुव्रत का लक्षण ११५. सत्याणुव्रत का लक्षण ११६. अचौर्याणुव्रत का लक्षण ११७. ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण ११८. परिग्रह परमाणाणुव्रत का लक्षण २०११८२ २०२ १८३ २०३ १८३ २०४ १८४ २०५ १८५ २०६. १८९ २०७. १९० २०८ १९२ P १९४ २१० १९९ २१२ । २०१ २१३ २०४ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणव्रत वर्णन ११९. दिग्व्रत (गुणव्रत) का लक्षण १२०. देशव्रत (गुणव्रत) का लक्षण १२१. अनर्थदण्ड त्याग (गुणव्रत) का लक्षण शिक्षाव्रत - वर्णन १२२. भोग विरति शिक्षाव्रत का लक्षण १२३. परिभोगनिवृत्ति शिक्षाव्रत का लक्षण १२४. अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत का लक्षण १२५. अतिथि संविभाग के पांच अधिकार पात्रभेद - वर्णन १२६. उत्तम-मध्यम-जघन्य पात्र कौन हैं ? १२७. कुपात्र और अपात्र कौन हैं ? दातार-गुण-वर्णन १२८. दाता के सप्तगुण दानविधि-वर्णन नवधा भक्ति का नाम निर्देश (vi) १२९. १३०. नवधा भक्ति की विधि १३१. उपसंहार एवं प्रतिज्ञा दातव्य - वर्णन १३२. दातव्य किसे कहते हैं १३३. आहारदान का लक्षण १३४. दुःखियों को करुणादान १३५. औषधि दान का लक्षण १३६. शास्त्र दान १३७. अभयदान - शिखामणि २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१९. २२.० .२२१-२२ २२३ २२४ २२५ २२६-३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २०७ २०९ २११ २१४ २१५ २१६ २.१७ २१८ .२२० २२१ २२३ २२३-२४ २२६ २२७ २३१ २३४ २३५ २३८ - २३९ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vii) २३९ २४० २४० २४० २४४ २४२ २४५ २४५ २४६ २४७ २४६ २४७ २४८ २४८ २४९ २४९ २५३ २५१ .. दानफल-वर्णन १३८. दानफल कहने की प्रतिज्ञा १३९, उत्तम पात्र को दिए गए दान का फल १४०. कुपात्र में दिए गए दान का फल २४१ १४१. अपात्र में दिए गए दान का फल १४२. अपात्र विशेष में दिए गए दान का फल दुःखदायी २४३ १४३. दान का फल विस्तार से कहने की प्रतिज्ञा २४४ १४४. उत्तम पात्र में मिथ्यादृष्टि द्वारा दिए गए दान का फल २४५ १४५. मध्यम पात्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल १४६. जघन्य पात्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल २४७ १४७. कुपांत्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल २४८ १४८. बद्धायुष्क मनुष्य भोगभूमियाँ होते हैं १४९. भोगभूमि में कल्पवृक्ष सुख सामग्री देते है २५० १५०. दस प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम १५१. मधांगं कल्पवृक्ष .. २५२ १५२. तूर्यांग-भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष २५३ १५३. ज्योतिरंग-गृहांग जाति के कल्पवृक्ष १५४. भाजनांग और दीपांग जाति के कल्पवृक्ष २५५ १५५. वस्त्रांग और भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष १५६. मालांग जाति के कल्पवृक्ष २५७ १५७: उत्तम भोग भूमिया मनुष्यों की कान्ति ऊँचाई और २५८ आयु १५८. मध्यम भोग भूमियाँ मनुष्यों की ऊँचाई आयु और २५९ ।। कान्ति १५९. जघन्य भोगभूमियाँ मनुष्यों की ऊँचाई आयु और २६० कान्ति १६०. कुभोग भूमियाँ मनुष्यों की आयु आदि वर्णन २६१ १६१. भोग भूमियों में यौवन प्राप्त होने का काल २५३ २५३ २५४ २५४ २५४ २५५ २५६ २५५ २५६ २५६ २५७ २५८ २५८ २५९ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० २७६-२७८ (viii) १६२. भोग भूमियाँ जीवों की कलायें और लक्षण २६३ १६३. भोग भूमि में युगल का जन्म और आर्य-आर्या का मरण २६४ २६४ १६४. सम्यग्दृष्टि महर्द्धिक देव होते हैं २६५-२६६ २६५ १६५. आहारदान परम्परा से मोक्ष का कारण २६७-२६९ १६६. दान के फल का उपसंहार २७० सल्लेखना वर्णन १६७. सल्लेखना शिक्षाव्रत का लक्षण २७१-२७२ . . १६८. दूसरी प्रतिमा का उपसंहार २७३ सामायिक प्रतिमा १६९. सामायिक शिक्षाव्रत का स्वरूप २७४-२७५ १७०. साम्य भाव ही सामायिक १७१. सामायिक प्रतिमा का उपसंहार २७९ २७७ प्रोषध प्रतिमा १७२. प्रोषध के प्रकार .. २८० १७३. उत्कृष्ट प्रोषधोपवास की विधि २८१,२८९ २७९ १७४. मध्यम प्रोषधोपवास की विधि - २९०-२९१ १७५. जघन्य प्रोषधोपवास की विधि . २९२ . २८३ १७६. उपवास के दिनों में राग के कारणों को छोड़ना चाहिए २९३ १७७. प्रोषधोपवास प्रतिमा का उपसंहार २९४ १७८. सचित्तत्याग-प्रतिमा २८८ १७९. दिवामैथुन त्याग प्रतिमा २९६ १८०. ब्रह्मचर्य प्रतिमा २९७ १८१. आरम्भ त्याग प्रतिमा २९८ १८२. परिग्रह त्याग प्रतिमा २९७ १८३. अनुमति त्याग प्रतिमा ३०० । २९९ २८२ २८६ २८७ २९५ २९० २९१ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ ३०१ ३०१ ३०४ ३०६ ३०६ - उद्दिष्टत्याग-प्रतिमा १८४. उद्दिष्टत्याग प्रतिमाधारी के दो भेद १८५. प्रथम, उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) का स्वरूप ३०२-३१० १८६. द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक) का स्वरूप १८७. श्रावकों को क्या नहीं करना चाहिए ३१२ १८८. ग्यारहवीं प्रतिमा का उपसंहार ३१३ रात्रिभोजन दोष वर्णन १८९. रात्रिभोजी के प्रतिमायें नहीं ठहरती ३१४ १९०. रात्रिभोजी कीट-पतंगें भी खा जाता है १९१. दीपक के प्रकाश में भी जीव भोजन में गिरते हैं ३१६ १९२. रात्रिभोजी संसार में भटकता है १९३. त्रययोगों से रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए ३१८ १९४. मंगल-कामना १९५. समय एवं स्थान ३०८ ३१५ ३०९ ३१० ३१७ ३१२ ३१८ ३२० ३२३ ३२३ ३२४ परिशिष्ट .. १. - श्रीषेण राजा की कथा (आहार दान फल) २. धनपति सेठ की पुत्री वृषभसेना की कथा (औषधदानफल) ३. कौण्डेश की कथा (ज्ञानदानफल) ४. सूकर की कथा (अभयदानफल) - ५. यमपाल चाण्डाल की कथा (अहिंसाणुव्रत) ६. धनदेव की कथा (सत्याणुव्रत) ७. वारिषेण की कथा (अचौर्याणुव्रत) ८. नीली की कथा (ब्रह्मचर्याणुव्रत) ९. जयकुमार की कथा (परिग्रहपरिमाणाणुव्रत) १०. रात्रिभोजनत्याग की कथा ११. गाथानुक्रमणिका ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३२ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.. ऐतिहासिक-नाम-स -सूची १३. भौगोलिक-न 5-नाम-सूची १४. पारिभाषिक शब्द - कोष १५. सन्दर्भ-ग्रन्थ : -सूची (x) ३३८ ३३८ ३३९ ३४२ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याकार मुनि श्री सुनील सागर जी Page #116 --------------------------------------------------------------------------  Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।।श्री वीतरागाय नमः।। सिरि वसुणंदि आइरिय-विरइयं उवासयज्झयणं वसुनन्दि-श्रावकाचार मङ्गलाचरण और श्रावकधर्म प्ररूपण करने की प्रतिज्ञा सुरवइ-किरीड-मणि-किरण-वारि-धाराहि सित्त-पय-कमलं।' वर-सयल-विमल-केवल-पयासिया सेस-तच्चत्थं ।।१।। सायारो णायारो भवियाणं जेण२ देसिओ धम्मो।। णमिऊण तं' जिणिंदं सावय धम्मं परूवेमो।।२।। (युगलं) अन्वयार्थ— मंगलाचरण करते हुए आचार्यश्री कहते हैं, (सुरवइ-किरीडमणिकिरण-वारि-धाराहि) देवेन्द्रों के मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणरूपी जलधारा से, (सित्त-पय-कमलं) (जिमके) चरण कमल अभिषिक्त हैं, (वर-सयल-विमल केवल-पयासिया सेस-तच्चत्थं) (जो) सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण :. तत्त्वार्थ को प्रकाशित करने वाले हैं, (और) (जेण) जिनके द्वारा, (भवियाणं) भव्य जीवों के लिए, (सायारो णायारो धम्मो देसिओ) सागार (श्रावकधर्म) और अनागार (मुनिधर्म) धर्म का उपदेश दिया गया है, (तं जिणिंद) उन जिनेन्द्र को, (णमिऊण) नमस्कार करके (वसुनन्दि) (सावयधम्म) श्रावकधर्म का, (परूवेमो) प्ररूपण (कथन) करते हैं।।१-२।। अर्थ- देवेन्द्रों के मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणरूपी जलधारा से जिनके चरण कमल अभिषिक्त हैं, जो सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञान के द्वारा समस्त तत्त्वार्थ को प्रकाशित करने वाले हैं और जिन्होंने भव्य जीवों के लिए श्रावकधर्म और मुनिधर्म का उपदेश दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करके हम (वसुनन्दि) श्रावकधर्म का प्ररूपण करते हैं। व्याख्या - शुभ कार्यों के प्रारम्भ करते समय मंगलाचरण करने की प्राचीन पद्धति है। उपलब्ध साहित्य में शायद ही कोई ऐसा ग्रन्थ हो जिसमें मंगलाचरण न १. ध. जुअलं। २. द. जिणेण। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२) आचार्य वसुनन्दि किया गया हो । प्रायः सभी वैदिक और अवैदिक साहित्यकारों ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करने की पद्धति को अपनाया है, भले ही वह प्रत्यक्ष हो या परोक्ष । यहाँ भी ग्रन्थकर्ता आचार्यश्री वसुनन्दि ग्रन्थ की निर्विघ्नतापूर्वक समाप्ति के लिये, नास्तिकता का परिहार करने के लिये, शिष्टाचार का पालन करने के लिये और उपकार के स्मरण करने के लिये अपने इष्ट देवता विशेष को नमस्कार करते हैं । शङ्का - - होती है? - क्या इष्टदेव को नमस्कार करने से ही शास्त्र की समाप्ति निर्विघ्नतापूर्वक भूत, समाधान – हाँ! जिनेश्वर का स्तवन करने पर विघ्नों का समूह, शाकिनी, सर्प आदि भाग जाते हैं और विष निर्विष हो जाता है। कहा भी है विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति, विषं निर्विषतां यान्ति, शाकिनी - भूत - पन्नगाः । स्तूयमाने जिनेश्वरे । । १ जिन भगवान् के स्मरण से बड़े-बड़े उपसर्ग (संकट) टल जाते हैं, बड़े-बड़े कार्यों की सिद्धि हो जाती है। क्या उनका स्मरण करने से ग्रन्थ समाप्ति निर्विघ्न नहीं हो सकती? अर्थात् अवश्य होती है। - -- नास्तिकता परिहार आप्त आदि के विषय में आस्तिक्य सम्यक्त्व की प्राप्ति का मूल कारण है। अतः इष्ट देवता को नमस्कार किया गया है। शिष्टाचार, अनुशासनप्रियता एवं बड़ों के प्रति आदरपूर्वक आचरण करना तथा उपकार का स्मरण करना भी मंगलाचरण के प्रमुख कारण हैं । षड्खण्डागम में कहा गया है कि मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम, कर्ता इन छह के व्याख्यान करने के पश्चात् ही आचार्य शास्त्र का व्याख्यान करे।' आचार्य परम्परा से प्राप्त इस न्याय का उल्लंघन करने पर कुमार्ग के प्रवर्तन का प्रसंग आयेगा इसलिये सर्वप्रथम मंगलाचरण आवश्यक होता है। पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ, सौख्य, श्री, अथ, नमः आदि सभी शब्द मंगल के ही नाम हैं । ३ जो मल का गालन करता है, विनाश करता है, घात करता है, जलाता है, मारता है, शोधन करता है, विध्वंस करता है, वह मंगल कहा जाता है – मम् पापं गालयति मंगलम्' कहा भी है - गालयदि, विणासयदि, घादेदि, दहेदि, हंति, सोधयदि । विद्धंसेदि मलाई, जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं ।। षट्खण्डागम १/७. १. समाधि भक्ति: आ. पूज्यपाद । २. ३. ति० प० १ / १०. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (३) आचार्य वसुनन्दि मल के दो भेद है – द्रव्यमल और भावमल। इनमें से द्रव्यमल के दो भेद हैं - बाह्य और अभ्यन्तर। पसीना, मल, धूल, कीचड़ आदि बाह्य मल हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध के भेद से चार भेद रूप ज्ञानावरणादि आठ कर्म, जो आत्मा में एक क्षेत्रावगाह रूप बद्ध हैं, अन्तरंग या अभ्यन्तर द्रव्यमल हैं। यह मल सब पापों के कारण हैं। जीव के अज्ञान, अदर्शन रूप परिणाम भावमल हैं। इन मलों को जो नष्ट करे, वह मंगल है।२ __ अथवा जो मंग अर्थात् सख को, पण्य को लाता है, इसलिये भी ग्रन्थकार इस मंगल के द्वारा कार्य की सिद्धि करते हैं - मंगं सुखं लातीति मंगलम्।३ मंगल के छह भेद हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु के नामों को नाम मंगल कहते हैं। कृत्रिम-अकृत्रिम, जिनबिम्ब आदि स्थापना मंगल हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु के शरीर द्रव्य मंगल हैं। जिन स्थानों पर तपस्या आदि के द्वारा गुण प्राप्त किये गये हों ऐसे तप कल्याणक के स्थान, केवलज्ञान की उत्पत्ति के स्थान आदि क्षेत्र मंगल हैं। इसके अनेक भेद हैं। इसी प्रकार जिनमहिमा से सम्बद्ध नन्दीश्वर दिवस (अष्टाह्निका) बगैरह काल मंगल है। मंगल पर्याय रूप से परिणत जीव द्रव्य भाव मंगल है। ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में भाव मंगल करना चाहिये। शास्त्र के आदि में मंगलाचरण करने से शिष्य शास्त्र-पारगामी होते हैं, मध्य में मंगलाचरण करने से विद्या में विघ्न नहीं आता तथा अन्त में मंगलाचरण करने से विद्या का फल प्राप्त होता है। - प्रस्तुत कृति में कृतिकार आचार्य श्री वसुनन्दि मंगलाचरण करते हुए कहते है कि जिन जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमल देवेन्द्रों के मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणरूपी जलधारा से अभिषिक्त है अर्थात् सौ इन्द्रों से वन्दित हैं। वे शत् इन्द्र इस प्रकार होते हैं- भवनवासी देवों के चालीस इन्द्र (इनके दस भेद हैं प्रत्येक भेद में दो-दो इन्द्र और दो-दो प्रतीन्द्र होते हैं अत: ४० इन्द्र कहे गये हैं। व्यन्तरों के ३२ इन्द्र (इनके आठ भेदों में दो-दो इन्द्र और दो-दो प्रतीन्द्र होते हैं), कल्पवासी देवों के २४ इन्द्र (कल्पवासी देवों के बारह भेद हैं। प्रत्येक में एक इन्द्र और एक प्रतीन्द्र होता है अत: २४ इन्द्र हुए), ज्योतिषी देवों के चन्द्र और सूर्य ये दो इन्द्र, मनुष्यों का एक इन्द्र चक्रवर्ती और तिर्यंच का एक इन्द्र सिंह इस प्रकार सब (४०+३२+२४+२+१+१) मिलाकर सौ १०० इन्द्र होते हैं। १. ति.प. १/१३. ३. ति.प. १/१८. ____२. ४. ति.प., १/१४. ति.प., १/२१-२९. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (४) आचार्य वसुनन्दि . वे जिनेन्द्र देव सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञान के द्वारा समस्त तत्त्वार्थ को प्रकाशित करने वाले हैं। यहाँ तत्त्व शब्द भाव सामान्य का वाचक है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है। यहाँ 'तत' पद से कोई भी पदार्थ लिया जा सकता है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसका उस रूप होना यही तत्त्व शब्द का अर्थ है। अर्थ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है ....... अर्यते निश्चीयते इत्यर्थः - जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द बना है - 'तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः'। अथवा भाव द्वारा भाव . वाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव- भाव वाले से अलग नहीं पाया जाता। ऐसी स्थिति में इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थ: तत्त्वार्थ:'। इसी तत्त्वार्थ का. श्रद्धान करना तत्त्वार्थ श्रद्धान कहलाता है, इसे ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसे तत्त्वार्थ को प्रकाशित करने वाले तथा भव्य जीवों के लिए श्रावक और मुनि धर्म का उपदेश देने वाले उन जिनेन्द्र को नमस्कार करके मैं श्रावक धर्म अर्थात् श्रावकाचार का प्ररूपण. करता हूँ।।१-२।। उपदेश सुनने की प्रेरणा विउल-गिरि - पव्वए णं इंदभूइणा सेणियस्स जंह सिटुं। तह गुरु पडिवाडीए भणिज्जमाणं णिसामेह।।३।। अन्वयार्थ– जिस प्रकार, (विउल-गिरि-पव्वए णं) विपुल गिरि पर्वत पर, (भगवान् महावीर के समवशरण में) (इंद्रभूइणा) इन्द्रभूति गौतम ने, (सेणियस्स) श्रेणिक राजा को, (जह सिटुं) जिस प्रकार (श्रावक) धर्म का उपदेश दिया है, (तह) उसी प्रकार, (गुरुपरिवाडीए) गुरु-परिपाटी (परम्परा) से प्राप्त, (भणिज्जमाणं) कहे जाने योग्य धर्म को (हे भव्य! तुम) (णिसामेह) सुनो।।३।। ___अर्थ- विपुलाचल पर्वत पर भगवान् महावीर के समवसरण में इन्द्रभूति नामक गौतम गणधर ने बिम्बसार नामक श्रेणिक महाराज को जिस प्रकार से श्रावक धर्म का उपदेश दिया था, उसी प्रकार गुरु परम्परा से प्राप्त वक्ष्यमाण श्रावकधर्म को, हे भव्य जीवों, तुम लोग सुनों। व्याख्या- भव्य जीवों के लिये उपदेश सुनने की प्रेरणा देते हुए आचार्य श्री ने यहाँ पर विपुलाचल पर्वत पर लगे हुए भगवान् महावीर के समवशरण का दृश्य दिखाते हुए कहा है- कि हे भव्य जीवो! जिस प्रकार भगवान् महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम ने तत्कालीन मगध के सम्राट श्रेणिक (बिम्बिसार) को श्रावक धर्म का उपदेश दिया है उसी प्रकार गुरुपरिपाटी से प्राप्त श्रावक धर्म का व्याख्यान मैं तुम सबके १. झ. द. इरि. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (५) लिये प्रस्तुत कर रहा हूँ। उसे ध्यान से सुनो। आचार्य यहाँ एक मनोवैज्ञानिक की भूमिका से उपदेश देकर जीवों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। वे जानते हैं कि यह संसारी जीव जल्दी से अथवा बिना आह्वान धर्म का उपदेश नहीं सुनना चाहता। इसमें उसका स्वयं का भी दोष नहीं है, दोष है उस पर अनादि काल से पड़े हुए कुसंस्कारों का । इस जीव ने काम भोग-विषयक बन्ध की कथा तो कई बार सुनी, उससे परिचित हुआ और उसका अनुभव भी किया इसलिये सुलभ है, दुष्प्राप्य नहीं है; किन्तु एक भिन्न आत्मा का एकत्व न कभी सुनने में आया, न परिचय में आया और न ही अनुभव में आया इसलिये एक यही दुर्लभ है, दुष्प्राप्य है। इसे किसी प्रकार से भी सद्धर्म की ओर आकर्षित कर आत्मोन्नति के मार्ग पर लगाना चाहिये। प्राथमिक भूमिका में इस जीव को सामान्य श्रावक धर्म प्रिय लगेगा, क्योंकि वहाँ पर भोगों को स्वच्छन्दतापूर्वक भोगने की आज्ञा भी नहीं है तो कठोरतापूर्वक निषेध भी नहीं है। अतः प्रथम ही श्रावक धर्म के प्रारम्भिक विकल्पों पर चर्चा करना उचित होगा, जिससे अनादि कालीन कुसंस्कारों अथवा वैभाविक परिणतियों पर प्रहार तो शुरू होगा ही, अध्यात्म की दिशा का सूर्य भी दिखने लगेगा। आचार्य वसुनन्दि वे जानते हैं कि यह संसारी प्राणी सहजत: किसी की बात को न तो सुनना ही चाहता है और न ही मानना चाहता है, अतः उन्होंने अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिये भगवान् महावीर से चली आई आचार्य परम्परागत धार्मिक बातों को कहने की प्रतिज्ञा की है तथा सुनने, की प्रेरणा दी है। ज्ञातव्य ही है कि ऋजुकूला नदी के तट पर केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद छ्यासठ दिन तक भगवान् महावीर की दिव्य ध्वनि नहीं खिरी। इसका मूल कारण था गणधर का अभाव। जब प्रभु विहार करते हुए तत्कालीन मगध की राजधानी राजगृह के विपुलाचल पर्वत पर पहुँचे तब इन्द्र के माध्यम से वहाँ इन्द्रभूति गौतम पधारे। उन्होंने प्रभु के चरण- सान्निध्य में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली और मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त किया। दूसरे ही दिन प्रात:काल से प्रभु की दिव्य ध्वनि प्रारम्भ हुई जिसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए गौतम स्वामी ने राजा श्रेणिक सहित असंख्यात भव्य जीवों को धर्म का उपदेश दिया। वर्तमान राजगिर ही प्राचीन राजगृह है, वहाँ पर अभी भी कई पुरा अवशेष भगवान् महावीर के समय के हैं। विपुलाचल पर्वत सहित अन्य चार पर्वत भी यथास्थित हैं। अभी कुछ ही वर्षों में कुछ नये निर्माण कार्य भी पर्वतों पर हुए हैं जिनमें से प्रमुख है “भगवान् महावीर का प्रथम देशना स्मारक, विपुलाचल पर्वत" । १. समयसार गाथा नं. ४. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि राजगृह को चन्द्रप्रभु भगवान् के अलावा तेईस तीर्थङ्करों ने अपनी पद रज से पवित्र तो किया ही है। पर महासौभाग्य की बात यह भी है कि यहीं बीसवें तीर्थङ्कर भगवान् मुनिसुव्रत का जन्म भी हुआ था। उन्होंने राज्योपभोग के बाद यहीं के निकटवर्ती उद्यान नीलवन (नीलगुफा) में दिगम्बरी दीक्षा धारण की तथा कुछ काल के भ्रमण के बाद यहीं केवलज्ञान प्राप्त किया। कथाग्रन्थों के आधार पर हम कह सकते हैं कि भगवान् महावीर की जहाँ प्रथम देशना हुई वहाँ उनसे सहस्रों वर्ष पूर्व भगवान् मुनिसुव्रत के चार कल्याणक (गर्भ,जन्म,तप,ज्ञान) हुए थे।।३।। देशविरत की ग्यारह प्रतिमा दंसण-वय-सामाइय, पोसह-सचित्त-राहु१. भत्ते य। बंभारंभ-परिग्गह-अणुमण-उद्दिट्ठ देस विरयम्मि।।४।। अन्वयार्थ- (दसण-वय-सामाइय) दर्शन, व्रत, सामायिक, (पोसह-सचित्त राइ-भत्ते) प्रोषध-सचित्तत्याग, रात्रिभुक्ति, (य बंभारंभ-परिग्गह-अणुमण-उद्दिट्ट) ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिगृह त्याग, अनुमति त्याग, और उद्दिष्ट त्याग, (ये) (देश विरयम्मि) देशविरत के स्थान हैं।।४।। . . अर्थ- दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा (प्रोषध प्रतिमा), सचित्तत्याग प्रतिमा, रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरम्भ त्याग प्रतिमा, परिग्रह त्याग प्रतिमा, अनुमति त्याग प्रतिमा और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा ये ग्यारह देशविरत (पंचमगुणस्थान) अथवा श्रावकों की कक्षायें हैं। ____ व्याख्या- देशविरति नामक पञ्चम गुणस्थान में दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग, ये ग्यारह स्थान (प्रतिमा, कक्षा या श्रेणी-विभाग) होते हैं।।४।। शङ्का - प्रतिमा किसे कहते हैं? समाधान – जहाँ पर संयम रूप भाव हो, भोगों में, विषय कषायों में अरुचि हो, तथा व्रतों की, नियमों की प्रतिज्ञा हो, संकल्प हो उसे प्रतिमा कहते हैं। कहा भी है - संयम अंश जग्यो जहाँ, भोग अरुचि परिणाम। . उदय प्रतिज्ञा को भयो, प्रतिमा ताको नाम ।। १. द.ध. राय. २. यह गाथा अत्यल्प अन्तर के साथ चारित्तपाहुड (२२) एवं श्रावक प्रतिक्रमण में भी दृष्टव्य है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि ऊपर कही हुई प्रतिमाओं में से किसी भी प्रतिमा के धारण कर लेने पर श्रावक के लिए पूर्व प्रतिमाओं का कर्तव्य पालन करना भी अनिवार्य होता है। उदाहरण के लिये- तीसरी प्रतिमाधारी के लिये पहली और दूसरी प्रतिमा का निर्दोष पालन करना भी अनिवार्य है; क्योंकि अपने-अपने पदों के गुण/चारित्र पूर्व पदों के चारित्र से युक्त होने पर ही विशुद्धि (शुभ-भावों) को प्राप्त कराने में समर्थ होते हैं। जैसे कोई 'विद्यार्थी आठवीं कक्षा में पढ़ रहा है तो उसे पिछली सात कक्षाओं में पढ़े हुए विषय का ज्ञान होना आवश्यक है अगर उसे पिछली सात कक्षाओं की पढ़ाई का कुछ ज्ञान नहीं तो उसका आठवीं कक्षा में पढ़ना और न पढ़ना बराबर है। इसी प्रकार प्रतिमाओं के सम्बन्ध में जानना चाहिये। . शङ्का – उपरोक्त गाथा में दी गई प्रतिमाओं की नामावली से हम कैसे समझें कि इनमें से किन प्रतिमाओं में क्या ग्रहण करना है तथा किन में क्या छोड़ना है? जैसे बंभारम्भ' तो इसमें से ब्रह्मचर्य ग्रहण करना है या छोड़ना है तथा आरम्भ को छोड़ना हे या ग्रहण करना है, स्पष्ट कीजिए? समाधान - आचार्य श्री उमास्वामी ने कहा है - 'हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्।'२ अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से विरत (विरक्त) होना व्रत है। ऋषि पातंजलि ने कहा है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह यम हैं। ३ प्रतिज्ञा करके जो आत्मोत्थान के कारणभूत नियम लिये जाते हैं वह व्रत हैं अथवा “यह करने योग्य है और यह नहीं करने योग्य है'' इस प्रकार नियम करना व्रत है। .. अब उपरोक्त गाथा को देखें तो उसमें स्पष्ट रूप से 'देशविरयम्मि' पद आया हैं जिसका अर्थ होता है एक देशविरति अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का स्थूल रूप से त्याग। जब हम देशविरति नामक गणस्थान अथवा देश संयमी श्रावक के भेद कर रहे हैं तो स्वाभाविक रूप से उनमें हिंसादि पापों की एकदेश निवृत्ति होगी। ____ अब हम उन प्रतिमाओं में कुछ ग्रहण करने रूप समझें जिनमें हिंसादिक दोषों की प्रवृत्ति नहीं है और उन प्रतिमाओं में कुछ त्याग रूप समझें जिनमें हिंसादिक की प्रवृत्ति सम्भव है। जैसे - दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, ब्रह्मचर्य प्रतिमा में हिंसादि की निवृत्ति होती है अत: इनको ग्रहण करना है तथा सचित्त भक्षण, रात्रि भोजन, आरम्भ, १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक सं. १३६. २. तत्त्वार्थसूत्र अ. ७, सू. १. ३. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। – पा.यो. सू. २.३०. ४. सर्वार्थसिद्धि : आ. पूज्यपाद अ. ७, सूत्र १, वा. ६६४. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि परिग्रह, अनुमति और उद्दिष्ट कार्य करने से हिंसादिक दोष लगते हैं अत: ये वर्जनीय हैं। आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि, कुन्दकुन्दाचार्य, वीरसेनाचार्य आदि सभी पूर्वाचार्यों के कथन को पुष्ट करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कहा है - पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि णवरिं तु। थोववदो होदि तदो देसवदो होदि पंचमओ।।१ अर्थात् अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायों के उपशम से और प्रत्याख्यानावरण कषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदय होते हुए सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावरूप क्षय से सकल संयम रूप भाव नहीं होता; किन्तु इतना विशेष है कि स्तोकव्रत रूप देश संयम होता है अर्थात् प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय रहते हुए सकल चारित्र रूप परिणाम नहीं होता है, क्योंकि प्रत्याख्यान अर्थात् सकल संयम को जो आवरण करती है, उस कषाय को प्रत्याख्यानावरण कहते हैं। देशसंयम से युक्त जीव पंचम गुणस्थानवर्ती हैं। इस गुणस्थानवी जीव स हिंसा से तो विरक्त रहते हैं पर ये पूर्ण हिंसा से विरक्त नहीं होते अर्थात् अहिंसादि व्रतों का एकदेश (कुछ भागों का) पालन करते है अतः देशव्रती कहलाते हैं।।४।। सम्यग्दर्शन कहने की प्रतिज्ञा एयारस ठाणाई सम्मत्तविवज्जियस्स जीवस्स। जम्हा ण संति तम्हा, सम्मत्तं सुणह वोच्छामि।।५।। अन्वयार्थ – ऊपर कहे हुए, (एयारस ठाणाई) ग्यारह स्थान, (जम्हा) जिस कारण से, (सम्मत्तविवज्जियस्स) सम्यक्त्व रहित, (जीवस्स) जीव के, (ण संति) नहीं होते हैं, (तम्हा) उस कारण से, (इसलिये) (सम्मत्तं वोच्छामि) मैं सम्यक्त्व को कहता हूँ, (सुणह) तुम लोग सुनो।।५।। _____ अर्थ- उपयुक्त ग्यारह स्थान चूंकि सम्यक्त्व से रहित जीव के नहीं होते, अत: मैं सम्यक्त्व का वर्णन करता हूँ, सो हे भव्य जीवों! तुम लोग सुनो। __ व्याख्या- आचार्य श्री पहले प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि वे श्रावक धर्म का व्याख्यान करेंगे। श्रावकों के ग्यारह स्थानों का उल्लेख करन के बाद वे सम्यक्त्व को कहने की प्रतिज्ञा करते हुए कहते हैं कि सम्यक्त्व रहित जीव के ग्यारह प्रतिमायें नहीं होती और जो सम्यक्त्व से रहित रहकर प्रतिमाओं का पालन करते हैं उससे कुछ परमार्थ नहीं सधता; इसीलिए यहाँ सम्यक्त्व को स्पष्ट किया गया है। सो तुम सब लोग ध्यान से १. गोम्मटसार जीवकांड, गाथा क्र. ३०. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (९) आचार्य वसुनन्दि सुनो! यहाँ आचार्य श्री पुन: संकेत कर रहे हैं कि ध्यान से सुनो, कहीं ऐसा न हो कि शरीर तो यहाँ बैठा रहे और मन चला जाये बाजार या किसी अन्य स्थान की सैर करने। सम्हल कर बैठो, मनोयोगपूर्वक सुनो, क्योंकि बिना एकाग्रता के कोई भी कार्य-सिद्धि नहीं हो पाती। किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिये मन, वचन और काय की एकाग्रता अपेक्षित है। भोजन से लेकर मन्त्र एवं मोक्षसिद्धि तक के सभी कार्य एकाग्रता से ही सम्भव हैं। अत: एकाग्र होकर सुनो। आपने अनुभव किया होगा जब आपका पढ़ने में मन नहीं लग रहा हो तो कई पृष्ठ पलट जाते हैं और अच्छे-अच्छे विषय निकल जाते हैं फिर भी कुछ पता नहीं पड़ता। भोजन करते हुए रसगुल्ला और जलेबी खा लेने पर भी एकाग्रता के अभाव में स्वाद नहीं आता। अगर आप जिनवाणी का स्वाद लेना चाहते हैं तो ध्यान देकर, कान लगाकर सुनो। ___लोक में एक कथा प्रचलित है तीन तरह के श्रोताओं के सम्बन्ध में। एक मूर्तिकार तीन मूर्तियां बनाकर लाया। मूर्तियाँ एक जैसी शक्ल में थीं पर मूल्य क्रमश: सौगुणा अधिक। प्रथम मूर्ति सौ रुपये की, दूसरी मूर्ति दस हजार रुपये की और तीसरी मूर्ति दस लाख रुपये की थी। जब कोई भी उन मूर्तियों को खरीदने तैयार न हुआ तो मूर्तिकार उस राज्य के राजा के पास गया और मूर्तियाँ खरीद लेने को कहा। राजा ने मूल्य सुनकर एक जैसी शक्ल सूरत, वजन वाली मूर्तियों में इतनी सस्ती-महंगी का कारण पूछा ......। तो मूर्तिकार बोला- पहली वाली मूर्ति के कानों का छेद आर-पार है अर्थात् यह एक • कान से सुनती है और दूसरे से निकाल देती है। दूसरी मूर्ति के कान का छेद मुंह से बाहर निकलता है अर्थात् यह मूर्ति सुनती है पर पचा नहीं पाती; कुछ ही समय में दूसरों को सुना देती है। तीसरी मूर्ति की विशेषता बताते हुए उसने कहा कि इस मूर्ति के कान के छेद पेट में उतरते हैं अर्थात् यह मूर्ति सुनती भी है, बात को मन में भी रखती है और उसे जीवन में आचरित करने का भी विचार करती है। तो श्रोताओं, पाठकों एवं अध्येताओं को चाहिये कि वे पहली और दूसरी मूर्ति जैसे न बनें, अपितु तीसरी मूर्ति जैसा बनने का प्रयत्न करें अर्थात् पहले तो ध्यान से सुनें, उसे अन्तस् में उतारें और फिर तद्रूप आचरण करने का प्रयास करें।।५।। सम्यग्दर्शन का स्वरूप अत्तागम-तच्चाणं, जं सद्दहणं सु-णिम्मलं होइ। संकाइ-दोस-रहियं, तं सम्मत्तं मुणेयव्वं ।।६।। अन्वयार्थ – (अत्तागम-तच्चाणं) आप्त (सच्चे देव), आगम (सच्चे शास्त्र) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०) आचार्य वसुनन्दि) और तत्त्वों का, (संकाइ-दोस-रहियं) शंकादि दोष रहित, (ज) जो, (सणिम्मल) अच्छी तरह निर्मल, (सद्दहणं) श्रद्धान, (होइ) होता है, (त) उसे, (सम्मत्त) सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन), (मुणेयव्व) जानना चाहिये।।६।। अर्थ- सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सात तत्त्वों का शङ्कादि (पच्चीस) दोषों से रहित जो अति निर्मल श्रद्धान है, उन पर आस्था है, विश्वास है वह सम्यग्दर्शन है। व्याख्या- आप्त (सत्यार्थ देव) आगम (शास्त्र) और तत्त्वों का शंकादि . (पच्चीस) दोष-रहित जो अतिनिर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना ... चाहिए।। शङ्का - यहाँ पर मात्र सच्चे देव, सच्चे शास्त्र तथा सात तत्त्वों पर पच्चीस . दोषों रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है, सच्चे गुरु का ग्रहण क्यों नहीं किया . गया? समाधान - प्रथम तो आप्त में ही सच्चे गुरु का स्वरूप आ गया; क्योंकि पूर्वाचार्यों ने अरहंत सिद्ध के अलावा अन्य तीन परमेष्ठियों को एक देश जिन कहा है। जिस प्रकार से अरहंत एवं सिद्धात्मा के अन्दर पूर्ण वीतराग भाव उपलब्ध हुए हैं, उसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय एवं साधु भी उन वीतराग भावों को कुछ अंशों में उपलब्ध कर चुके तथा शीघ्र वीतरागता मय होने के सामर्थ्य से युक्त हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र लिखते हैं “सिद्धशब्देनैव चार्हदादीनामपि ग्रहणम्।"१ अर्थात् सिद्ध शब्द के ग्रहण से अर्हद् आदि का भी ग्रहण जानना चाहिये और भी कुछ स्थलों पर आचार्यों ने अहँत्, सिद्ध के साथ आचार्य, उपाध्याय एवं साधु को ग्रहण किया है। अत: सच्चे देव पद में ही सच्चे गुरु का कथन समझना चाहिये। द्वितीय-आगम के अन्तर्गत भी साधुओं को गिना जा सकता है; क्योंकि आगम को साधु की आँख कहा है “आगम चक्खू साहू' । २ साधु जिनदेव कथित शास्त्रों के अनुसार ही अपनी चर्या करता है। तृतीय- सात तत्त्वों के अन्तर्गत जीव तत्त्व में भी साधु को ग्रहण कर सकते हैं; क्योंकि साधु भी जीव है और जीव तत्त्व पर श्रद्धान करना भी सम्यक्त्व में सम्मिलित है, जिससे सच्चे गुरु पर सहज ही श्रद्धान माना जाता है। हाँ, यह अवश्य है कि यह सच्चे गुरु का गुरु रूप नहीं, जीव रूप श्रद्धान कहलायेगा। १. समाधितंत्र टीका, श्लोक १. २. नियमसार गाथा-१ की टीका, द्रव्यं संग्रह गाथा-१ की टीका, बोधप्राभृत (बोहपाहुड), मूलाचार गाथा क्र. १०९४. ३. प्रवचनसार गाथा २३४. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि शङ्का – सम्यक्त्व में दोष पैदा करने वाले पच्चीस दोष कौन से हैं? समाधान – शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, और अप्रभावना ये आठ; ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इनका मद करना, ये आठ; कुदेव, कुगुरु, कुधर्म एवं इनके सेवक, ये छह अनायतन तथा देव मूढ़ता, गुरु मूढ़ता और लोकमूढ़ता ये सब मिलाकर सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष कहलाते हैं। इनके सद्भाव में सम्यग्दर्शन में दोष उत्पन्न होते रहते हैं। विस्तार भय से परिभाषायें यहाँ नहीं लिख रहे हैं। सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में महान तार्किक आचार्य समन्तभद्र जी लिखते हैं - श्रद्धानं परमार्थाना-माप्तागमतपोभृताम्। त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग, सम्यग्दर्शन-मस्मयम्।।रत्न. श्रा.४।। अर्थात् सच्चे देवशास्त्र और गुरु को मोक्ष के कारणभूत मान कर उनका आठ अंगसहित, तीन मूढ़तारहित तथा आठ मदरहित दृढ़ श्रद्धान करना अर्थात् उनकी पूजा-भक्ति, विनय आदि करना सम्यग्दर्शन है।।६।। आप्त, आगम और पदार्थों का निरूपण अत्ता दोसा-विमुक्को, पुव्वापर-दोस-वज्जियं वयणं । तच्चाई जीव दव्वाइ'-याई समयम्हि णेयाणि ।।७।। अन्वयार्थ – आगे कहे जाने वाले, (दोस-विमुक्को ) (सभी) दोषों से विमुक्त पुरुष को, (अत्ता) आप्त (कहते हैं), (पुव्वापर-दोस-वज्जियं) पूर्वापर दोष से रहित (आप्त के), (वयणं) वचन को आगम कहते है (और), (जीवदव्याइयाई) जीवद्रव्य आदिक तत्त्व हैं, (इन्हें), (समयम्हि णेयाणि) समय अर्थात् परमागम से जानना चाहिये।।७।। · अर्थ- आगे कहे जाने वाले सर्व दोषों से विमुक्त पुरुष को आप्त कहते हैं। पूर्वापर दोषों से रहित, आप्त के विचन को आगम कहते हैं। और जीवद्रव्य आदिक तत्त्व हैं, इन्हें परमागम से जानना चाहिए। व्याख्या - जो अठारह दोषों से रहित वीतराग, सर्वज्ञ व हितोपदेशी है वही सच्चा देव है, अन्य किसी भी प्रकार का सच्चा देवपना नहीं हो सकता है। जिसके अन्दर थोड़ा-सा भी राग-द्वेष है वह तीन काल में भी सच्चा देव नहीं कहा जा सकता है। जो परम पद में स्थित हों, केवलज्ञान ज्योति से युक्त हों, राग से रहित वीतरागी १. ध. दिवाइं. २. र.श्रा. श्लो. ५. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२) आचार्य वसुनन्दि हों, कर्ममल से रहित हों, कृतकृत्य हों, समस्त पदार्थों को एक साथ जानने-देखने वाले हों, तीनों लोकों के प्राणियों का हित करने वाले हों, तथा आदि, मध्य एवं अन्त से रहित हों वे सच्चे देव हैं, हितोपदेशी और सर्वज्ञ हैं । १ ऐसे सच्चे देव के द्वारा कहे गये वचन, जो वादी प्रतिवादी से खण्डन होने वाले नहीं हों, प्रत्यक्ष- अनुमान आदि विरोध से रहित हों, वस्तु स्वरूप का उपदेश करने वाले हों, सब जीवों का कल्याण करने वाले हों तथा मिथ्यामार्ग का खण्डन करने वाले हों, आगम (शास्त्र) कहलाते हैं । २ आचार्य माणिक्य नन्दी लिखते हैं- “आप्तवचनादि निबन्धनमर्थज्ञानमागमः।’३ अर्थात् आप्त के वचन तथा अंगुलि संज्ञा आदि से होने वाले अर्थ (तात्पर्य) ज्ञान को आगम (आगम प्रमाण) कहते हैं। - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। ये तत्त्व सात ही होते हैं, कम या अधिक नहीं। इनका विशेष उल्लेख स्वयं आचार्य श्री वसुनन्दि. आगे ग्रन्थ में कर रहे हैं । । ७ ।। अठारह दोषों से रहित आप्त हैं ।।८।। छुह - तहा - भयदोसो, राओ मोहो- जरा रुजा - 1 - चिंता । मिच्चू' - खेओ - सेओ - अरइ-मओ- विम्हओ - जम्म णिद्दा तहा विसाओ दोसा एएहिं वज्जिओ अत्ता । वयणं तस्स पमाणं संतत्थ - परूवयं जम्हा ।। ९ ।। १. ३. ५. अन्वयार्थ — (छुह - तण्हा भय- -दोसो) क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, (राओ मोहो जरा रुजा चिंता) राग, मोह, जरा (बुढ़ापा), रुजा (रोग), चिंता, (मिच्चू - खेओ-सेओअरइ-मओ - विम्हओ - जम्मं ) मृत्यु, खेद, स्वेद ( पसीना ), अरति, मद, विस्मय (आश्चर्य), जन्म, (णिद्दा तहा विसाओ ) निद्रा और विषाद (ये), (दोसा) (अठारह) दोष हैं, (एएहिं वज्जिओ अत्ता) इनसे रहित आप्त कहलाता है। (तथा), (तस्स वयणं पमाणं) उसी आप्त के वचन प्रमाण हैं, (जम्हा) क्योंकि (वे), (संतत्य परूवयं) विद्यमान अर्थ के प्ररूपक हैं । । ८-९ ।। अर्थ - क्षुधा, तृष, भय, द्वेष, राग, मोह, जरा, रोग, चिन्ता, मृत्यु, खेद, स्वेद, - ० श्रा० श्लो० ७. परीक्षामुख, तृ० प० सू० ९५. द. मिच्चुस्सेओखेओ. २. ४. ६. श्रा० श्लो. १. ध. तम्हा. ध. सुत्तत्य. ~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३) आचार्य वसुनन्दि अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद, ये अठारह दोष कहलाते हैं, जो आत्मा इन दोषों से रहित है वही आप्त कहलाता है। तथा उसी आप्त के वचन प्रमाण है, क्योंकि वे विद्यमान अर्थ के प्ररूपक हैं। व्याख्या- सम्भवत: आचार्य वसनन्दि ने यहाँ पर आचार्य श्री समन्तभद्र का अनुसरण करते हुए अठारह दोषों का स्पष्ट उल्लेख किया है। आप्त को अठारह दोषों से विरहित बताने के बाद आचार्य वसुनन्दि ने उन अठारह दोषों को स्पष्ट किया है; किन्तु आचार्य श्री समन्तभद्र ने क्षुधा, तृषा, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मृत्यु, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह- ये ग्यारह नाम गिनाकर तथा अन्य सात दोषों के ग्रहणार्थ 'च' शब्द रखा है। फिर भी उनके (रत्नकरण्ड श्रावकाचार) टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने सभी दोषों का स्पष्टीकरण निम्न प्रकार किया - क्षुधा भूख को कहते हैं, तृषा प्यास को कहते हैं, जरा वृद्धावस्था को कहते हैं, वात,पिस तथा कफ के विकार से होने वाले रोगों को व्याधि कहते हैं। कर्मों की अधीनता से चारों गतियों में उत्पत्ति होना जन्म कहलाता है, एक शरीर की आयु पूर्ण हो जाने को मृत्यु कहते हैं, डर को भय कहते हैं, इसके इहलोक, परलोक, अत्राण, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक भय की अपेक्षा सात भेद हैं, जाति, कुल, ज्ञान आदि के गर्व को स्मय, मद अथवा अहङ्कार कहते हैं। इष्ट वस्तुओं में प्रीति रूप परिणाम होना राग है, अनिष्ट वस्तुओं में अप्रीति रूप परिणाम होना द्वेष है, शरीरादिक परवस्तुओं में अहं बुद्धि करना मौह है। इष्ट वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिये तथा अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होने पर उसे दूर करने के लिये परिणामों में जो विकलता • होती है उसे चिन्ता कहते हैं। अनिष्ट वस्तुओं का समागम होने पर जो अप्रसन्नता होती है, उसे अरति कहते हैं। मद, श्वेद और परिश्रमजन्य थकावट को दूर करने के लिये नींद लेना निद्रा है। इसके निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पाँच भेद हैं। आश्चर्य रूप परिणाम को विस्मय कहते हैं, नशा को मद कहते हैं, पसीना को स्वेद कहते हैं, और थकावट को खेद कहते हैं। इन सभी अठारह दोषों से रहित आप्त होते हैं। शङ्का– भूख (क्षुधा) के अभाव में भोजन नहीं होता और बिना भोजन के अधिक काल तक शरीर की स्थिति सम्भव नहीं, फिर देशोन कोटि वर्ष पूर्व तक आप्त के शरीर की स्थिति रह सकती है, यह भोजन के अभाव में सम्भव नहीं। अत: आप्त को आहार अवश्य होता होगा जिससे क्षुधा दोष का भी सद्भाव मानना भी अनिवार्य हो जायेगा। समाधान – आप्त भगवान् के आहारमात्र सिद्ध किया जा रहा है या कवलाहार? प्रथम पक्ष में सिद्ध साधनता दोष आता है, क्योंकि “सयोग केवली पर्यन्त के जीव १. र.श्रा. श्लोक सं. ६. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४) आचार्य वसुनन्दि आहारक हैं।" ऐसा आगम का वाक्य है और दूसरे पक्ष में देवों के शरीर स्थिति के साथ व्यभिचार आता है, क्योंकि देवों के कवलाहार के अभाव होने पर भी शरीर की स्थिति देखी जाती है। यदि यहाँ कोई कहे कि – १. नोकर्माहार, २. कर्माहार, ३. कवलाहार, ४. लेपाहार, ५. ओज आहार और ६. मानसाहार इनमें से देवों के मानसिक आहार होता है, जिससे उनके शरीर की स्थिति बनी रहती है तो इसका उत्तर यह है कि केवली भगवान् के भी नोकर्माहार होता है जिससे उनके शरीर की स्थिति बनी रहती है। यदि यहाँ कोई कहे कि हमारा और आप्त का शरीर एक जैसा है अत: हमारे समान उनके भी आहार होना चाहिये? यदि शरीर की तुलना से आप्त के आहार होना मानते हो तो जिस प्रकार उनके शरीर में पसीना आदि का अभाव है उसी प्रकार आपके शरीर में भी होना चाहिये। यदि कहो कि यह तो भगवान् का अतिशय है; तो इसका उत्तर होगा कि जब आप्त भगवान् के पसीना आदि के अभाव का अतिशय माना जाता है तब भोजन के अभाव का अतिशय क्यों नहीं हो सकता? दूसरी बात यह है कि हम अपने से आप्त की तुलना करने लग जायें तो हमारे इन्द्रियजनित ज्ञान की तरह ही उनका ज्ञान ठहरेगा, जिससे उनके अतीन्द्रियज्ञान असम्भव हो जायेगा और तब सर्वज्ञता के लिये ही जलांजलि देनी पड़ेगी!! ___ यदि आप कहो कि हमारे और उनके ज्ञान में ज्ञानत्व की अपेक्षा समानता होने पर भी उनका ज्ञान अतीन्द्रिय है तो इसका उत्तर यह है कि हमारे और उनके शरीर-स्थिति की समानता होने पर भी उनकी शरीर स्थिति आहार (कवलाहार) बिना क्यों नहीं हो सकती? अरहंत भगवान के असाता वेदनीय का उदय होने से बभक्षा- भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है, इसलिये भोजनादिक में उनकी प्रवृत्ति होती है? यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि जिस वेदनीय के साथ मोहनीय कर्म सहायक रहता है वही बुभुक्षा उत्पन्न करने में समर्थ होता है। जिनके मोह कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है ऐसे अरहंत को भोजन की इच्छा कैसे हो सकती है? यदि ऐसा न माना जाये तो फिर रिरंसा-रमण करने की इच्छा भी उनको मानना पड़ेगी और सुन्दर स्त्री आदि के सेवन का प्रसंग आ जायेगा। जिसके आने पर आप्त की वीतरागता ही न रहेगी। यदि यह कहो कि, विपरीत भावनाओं के वश से रागादिक की हीनता का अतिशय देखा जाता है, जिससे केवली के रागादिक का ह्रास अपनी चरम सीमा को प्राप्त हो जाता है। इसलिये उनकी वीतरागता में बाधा नहीं आती?- यदि ऐसा है तो उनके भोजनाभाव की परम प्रकर्षता क्यों नहीं हो सकती, क्योंकि भोजनाभाव की भावना से भोजनादिक में भी ह्रास का अतिशय Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५) आचार्य वसुनन्दि देखा जाता है। जैसे जो पुरुष एक दिन में अनेक बार भोजन करता है, वही पुरुष कभी विपरीत भावना के वश से एक बार भोजन करता है। कोई पुरुष एक दिन के अन्तर से भोजन करता है और कोई पुरुष सप्ताह, पक्ष, मास तथा छह मास आदि के अन्तर से भोजन करता है। दूसरी बात यह भी है कि अरहन्त भगवान् के जो बुभुक्षा सम्बन्धी पीड़ा होती है और उसकी निवृत्ति भोजन के रसास्वादन से होती है तो यहाँ पूँछना यह है कि वह रसास्वादन उनके रसना इन्द्रिय से होता है या केवलज्ञान से? यदि रसना इन्द्रिय से होता है, ऐसा माना जाये तो मतिज्ञान का प्रसंग आने से केवलज्ञान का अभाव हो जायेगा. और यदि केवलज्ञान से रसास्वादन माना जाये तो फिर भोजन की आवश्यकता ही क्या है? क्योंकि केवलज्ञान के द्वारा तो तीन लोक के मध्य में रहने वाले दूरवर्ती रस का भी अच्छी तरह अनुभव हो सकता है। एक बात यह भी है कि भोजन करने वाले अरहंत के केवलज्ञान हो भी कैसे सकता है, क्योंकि भोजन करते समय वे श्रेणी से पतित होकर प्रमत्तविरत (छठा) गुणस्थानवर्ती हो जावेंगे। जब अप्रमत्त विरत साधु, आहार की कथा करने मात्र से प्रमत्त हो जाते हैं, तब अरहंत भगवान् भोजन करते हुए भी प्रमत्त न हों, बड़े आश्चर्य की बात है?? अगर अरहंत भोजन करने भी लग जायें तो केवलज्ञान के द्वारा मांस आदि अशुद्ध द्रव्यों को देखते हुए वे भोजन कैसे कर सकते हैं, इससे अन्तराय का प्रसंग भी आता है जिससे उनका अन्तराय कर्म नष्ट हुआ नहीं माना जायेगा। और जब अल्पशक्ति धारक श्रावक भी मांसादि पंदार्थों को देखने से अन्तराय करते हैं तब अनन्तवीर्य के धारक अरहन्त भगवान् क्या अन्तराय नहीं करेंगे? यदि नहीं करते तो उनमें गृहस्थ से भी हीन शक्ति का प्रसंग आता है। - यदि अरहंत भगवान् के क्षुधा सम्बन्धी पीड़ा होती है तो उनके अनन्त सुख किस प्रकार हो सकता है? जबकि वे नियम से अनन्त चतुष्टय के स्वामी होते हैं। जो अन्तराय से सहित है उसके ज्ञान के समान सुख की अनन्तता नहीं हो सकती। अर्थात् जिस प्रकार अन्तराय सहित ज्ञान में अनन्तता नहीं होती उसी प्रकार अन्तराय सहित अरहन्त के सुख में अनन्तता नहीं हो सकती। यदि कहो कि "क्षुधा पीड़ा ही नहीं है" तो प्रत्यक्ष से विरोध आता है। लोक में एक उक्ति प्रसिद्ध है “क्षुधा समा नास्ति शरीरवेदना' अर्थात् क्षुधा के समान शरीर की कोई दूसरी पीड़ा नहीं है। उपर्युक्त सम्पूर्ण तथ्यों के आधार पर हम देखते हैं कि अरहन्त के क्षुधा, तृषा आदि कोई भी दोष नहीं होता। ऐसे ही आप्त (अरहन्त) के द्वारा कहे हुए वचन प्रमाणित होते हैं, क्योंकि वे विद्यमान पदार्थों के प्ररूपक होते हैं। अर्थात् सम्पूर्ण लोक में जो Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६) आचार्य वसुनन्दि) चराचर पदार्थ हैं उन सब का कथन जिनेन्द्र कथित शास्त्रों में प्राप्त होता है, अन्यत्र नहीं। इसका विशेष स्पष्टीकरण प्रमेयकमल मार्तण्ड, अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि दार्शनिक ग्रन्थों में किया गया है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में यह भी मतभेद का एक विषय रहा है।।८-९।। सात तत्त्वों पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है जीवाजीवासव-बंध-संवरो णिज्जरा तहा मोक्खो। एयाइं सत्त तच्चाई, सद्दहंतस्स' सम्मत्तं ।।१०।।.. अन्वयार्थ- (जीवाजीवासव-बंध-संवरो णिज्जरा) जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, (तहा) तथा, (मोक्खो ) मोक्ष, (एयाइं सत्त तच्चाई) ये सात तत्व (कहलाते) हैं, (इनका), (सहहंतस्स) श्रद्धान करना, (सम्मत्त) सम्यक्त्व (कहलाता) है।।१०।। अर्थ- सम्यग्दर्शन का कथन करते हुए, कथित परिभाषा में से आप्त और आगम का निरूपण कर चुकने के बाद यहाँ पर आचार्य सात. तत्त्वों के सम्बन्ध में चर्चा करते हैं जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इन पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। - व्याख्या- यहाँ पर एक बार फिर आचार्य देव भव्यों के लिए सम्यक्त्व की परिभाषा स्वतन्त्र रूप से कह रहे हैं। अगर इस गाथा का सम्बन्ध छठवीं गाथा से न जोड़ा जाये तो यहाँ स्वतन्त्र रूप से सम्यग्दर्शन के लक्षणं का प्रतिपादन हुआ है। अगर आप कहें कि इससे तो पुनरुक्ति दोष हुआ, सो ठीक नहीं; क्योंकि आचार्य यहाँ प्राथमिक भव्य जीवों को उपदेश दे रहे है। प्रारम्भिक अवस्था में जब कोई बात स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आती तो गुरु उसे पुन:-पुन: अलग-अलग प्रकार से वही बात समझाते हैं। यहाँ पर आचार्य ने एक साथ दो कार्य सिद्ध किये हैं। प्रथम तो पूर्वकथित गाथा का स्पष्टीकरण और द्वितीय आचार्य उमास्वामी का अनुसरण करते हुए पुन: सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है। शङ्का – तत्त्व किसे कहते हैं? तथा सात तत्त्वों के सम्बन्ध में स्पष्ट समझावें? समाधान - तत्त्व शब्द के अर्थ को हम पहली गाथा की टीका में कह चुके हैं। सात तत्त्वों के सम्बन्ध में भी यहाँ विशेष स्पष्ट नहीं करेंगे, क्योंकि आगे ग्रन्थकार स्वयं उनका कथन करेंगे। हां! उनके लक्षणों को जरूर यहाँ संक्षिप्त रूप से कहते हैंजीव का लक्षण चेतना है, जो ज्ञानादिक के भेद से अनेक प्रकार की है। जीव से विपरीत १. ध. सद्दहणं. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१७) आचार्य वसुनन्दि लक्षण वाला अजीव है। शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वार रूप आश्रव है। आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है। आश्रव का रोकना संवर है। आत्मा से कर्मों का एकदेश अलग होना निर्जरा है तथा सभी कर्मों का अलग हो जाना मोक्ष हैं। शङ्का सात तत्त्वों को उपरोक्त क्रम में ही क्यों रखा गया है ? - - समाधान - सभी प्रकार का फल जीव को मिलता है अत: प्रथम जीव को ग्रहण किया है। अजीव-जीव का उपकारी है यह दिखाने के लिये जीव के बाद अजीव का कथन किया है। आस्रव जीव और अजीव दोनों को विषय करता है अतः इन दोनों के बाद आश्रव का ग्रहण किया है । बन्ध आस्रवपूर्वक होता है, इसलिये आस्रव के बाद बन्ध का कथन किया है। संवृत जीव के बन्ध नहीं होता, अतः संवर बन्ध का उल्टा हुआ इस बात का ज्ञान कराने के लिये बन्ध के बाद संवर का कथन किया है। संवर के होने पर निर्जरा होती है, इसलिये संवर के पास निर्जरा कही है। मोक्ष अन्त में प्राप्त होता है, इसलिये उसका कथन भी अन्त में किया है। इस विषय को सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवार्तिक में देखा जा सकता है। इस प्रकार जिस वस्तु का जैसा स्वरूप जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है उसी प्रकार मानना, श्रद्धा करना, विश्वास करना सम्यग्दर्शन है ।। १० । जीवतत्त्व का वर्णन जीव के सिद्ध और संसारी ये दो भेद सिद्धा संसारत्या दुविहा जीवा जिणेहिं पण्णत्ता । असरीरा णंत - चउट्ठ-य ण्णिया णिव्वुदा- सिद्धा । । ११ । । • अन्वयार्थ (सिद्धा संसारत्या) सिद्ध (और) संसारी (ये), (दुविहा) दो प्रकार के (जीवा) जीव, (जिणेहिं पण्णत्ता) जिनेन्द्र भगवान् ने कहे हैं, (जो) (असरीरा) शरीर रहित हैं, (णंत - चउट्ठ- यण्णिया) अनन्त चतुष्टय से युक्त हैं (तथा जन्म मरणादिक से), (णिव्वुदा) निर्वृत्त हैं, (वे), (सिद्धा) सिद्ध हैं । । ११ । । — अर्थ — जीव मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं सिद्ध और संसारी । यहाँ पर सिद्ध जीव का लक्षण बताते हुए कहा है कि जो शरीर रहित हैं अर्थात् जिसके औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण इन पांच शरीरों में से कोई भी शरीर नहीं है अथवा इस प्रकार कहें कि जिनका संसारी जीवों से भिन्न ज्ञान ही शरीर है, अनन्त ज्ञान, १. सर्वार्थसिद्धि, १/४. २. ध॰ ट्ठयणिया. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८) आचार्य वसुनन्दि) अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से जो संयुक्त हैं, तथा जन्म-मरण, रोग-मृत्यु आदिक से रहित हैं वे सिद्ध हैं। व्याख्या- चेतना, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य, अवगाहनत्व, निर्ममत्व, निरापेक्ष भाव जीवों के उत्तम धर्म हैं। उपरोक्त छहों द्रव्यों में जीव द्रव्य सबसे उत्तम द्रव्य है, क्योंकि जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि उत्तम-उत्तम गुण पाये जाते हैं। विश्व में अनन्तानन्त स्वतन्त्र-स्वतन्त्र जीव है। उनमें से अनन्त जीव, स्वतन्त्र अनन्त सुख को भोग करने . वाले मुक्त जीव हैं और अनन्त जीव कर्म बन्धन में पड़कर परतन्त्र होकर अनन्त दुःख को सहने वाले भी हैं। स्वयं जीव ही सुख अथवा मुक्तावस्था, दुःख अथवा संसारावस्था. दोनों का निर्माण करता है। कहा भी है आत्मा स्वयं का सुख-दुःख का कर्ता है। सुपथगामी आत्मा स्वयं का मित्र है एवं कुपथगामी आत्मा स्वयं का शत्रु है। स्वभावत: प्रत्येक आत्मा द्रव्य दृष्टि से समान है, प्रत्येक आत्मा में अनन्त सुख आदि गुण सद्भाव होते हुए भी स्वर्जित कर्म के कारण वह अनन्त सुखादि तत्त्व वर्तमान में तिरोहित हैं, किन्तु नाश नहीं हुए हैं। जब प्रबुद्ध आत्मा स्वपुरुषार्थ के माध्यम से जीव के स्वभावभूत आगे वर्णित अहिंसा उत्तम क्षमादि धर्म का पालन करेगा तब पूर्व संचित कर्म नष्ट होकर तिरोहित ज्ञान-सुखादि गुण प्रगट हो जायेंगे। उस कर्मरहित अवस्था जीव को ही परमात्मा कहते हैं। अर्थात् पतित आत्मा ही धर्म साधन के माध्यम से पावन होकर परमात्मा बन जाता है। जिस प्रकार खान से निकला हुआ अशुद्ध स्वर्ण १६ ताप अग्नि से शुद्ध स्वर्ण हो जाता है उसी प्रकार कर्म कलंक से दूषित संसारी आत्मा भी धर्मरूप अग्नि से शुद्ध होकर परमात्मा बन जाता है। . समस्त कर्म से मुक्त होने के बाद मुक्त जीव एक समय में सिद्ध शिला में विराजमान हो जाते हैं और वहाँ पर अनन्त सुखादि गुणों को भोगते हुए वहाँ ही अनन्त काल तक स्थिर रहते हैं। संसारावस्था का निर्माण करने वाले कर्म के अभाव के कारण पुनः संसार में नहीं आते हैं। वहाँ विश्व को देखते जानते हए रहते हैं, परन्तु किसी के भी कर्ता,धर्ता, हर्ता नहीं बनते हैं, क्योंकि वे राग-द्वेष से रहित हैं। जीव के अस्तित्व को समस्त आस्तिक दर्शन स्वीकार करते हैं, परन्तु वैज्ञानिक लोग अभी तक उसे पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार नहीं कर पाये हैं। वस्तुत: जीव अमूर्तिक. होने के कारण इन्द्रियगम्य नहीं है और भौतिक साधन से भी उसका शोध और बोध नहीं हो सकता है। उसको जानने के लिये जिन्होंने स्वयं आत्मा का साक्षात्कार किया है उन केवल ज्ञानी के आत्मा सम्बन्धी उपदेश एवं अन्तर दृष्टि, अनुभव आदि कार्यकारी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९) आचार्य वसुनन्दि हो सकते हैं। आत्मज्ञान से रहित समस्त ज्ञान भौतिक ज्ञान होने से केवल शव सम्बन्धी ज्ञान है एवं आत्मा का ज्ञान शिव सम्बन्धी ज्ञान है। जब तक जीव स्वयं को नहीं जानेगा, केवल पर को ही जानता रहेगा उसके बराबर अज्ञानी कौन हो सकता है? इसलिये कहा गया है “आत्मज्ञानं सर्वज्ञाने प्रतिष्ठितम्" आत्म ज्ञान सर्व ज्ञान में श्रेष्ठ है। जीव एक द्रव्य होने से उसकी कभी नवीन रूप से सृष्टि नहीं हुई। इस सिद्धान्त के अनुसार डारविन का जीव विकासवाद सिद्धान्त खण्डित हो जाता है, क्योंकि यदि जीवरूप, चैतन्य शक्ति रूप द्रव्य पहले नहीं था तब रासायनिक-भौतिक परिवर्तन के माध्यम से चैतन्य शक्तियुक्त जीव द्रव्य कैसे उत्पन्न हो सकता है और दूसरी बात, जीव परिवर्तित होते-होते बानर समाज रूप में परिवर्तित हुए और बानर समाज परिवर्तित होते-होते मानव समाज रूप हुआ तब अभी उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार बानरादि समाज नहीं होना चाहिए था, किन्तु वह समाज उपलब्ध है इसलिये डारविन का सिद्धान्त पूर्ण सत्य सिद्धान्त नहीं है। इस गाथा का सूक्ष्म अध्ययन करने से यह तथ्य अनुभव में आता है कि जो “असरीरा" पद दिया है वह मुख्य रूप से सिद्ध परमेष्ठियों को ग्रहण करता है, क्योंकि वे सब प्रकार के शरीरों से रहित हैं, किन्तु जो “णंतचउट्ठयण्णिया" पद है वह मुख्य रूप से अरहन्तों के ग्रहण के लिये है। चूंकि यह सत्य है कि यह गुण सिद्ध परमात्मा में भी पाये जाते हैं पर इन गुणों का लक्षण रूप में उल्लेख अरहन्त परमात्माओं पर ही पूर्णरूपेण घटित होता है, क्योंकि ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य क्रमश: एक-एक कर्मों के एक साथ नष्ट हो जाने पर प्रादुर्भूत होते हैं। संसारापेक्षया जीवन्मुक्त होने से अरहन्त भी सिद्ध तुल्य ही हैं। जन्म, मरण, आदिक सिद्ध के भी नहीं है और अरहंत के भी नहीं हैं। अत: इस गाथा में सिद्ध जीवों में अरहन्तों को भी लिया गया है। गुणस्थान एवं मार्गणा आदि की अपेक्षा जीवन्मुक्त होते हुए भी अरहन्त भगवान् संसारी जीवों की श्रेणी में गिने जाते हैं।।११।। संसारी जीवों के दो भेद संसारत्था दुविहा थावर-तस- भेयओ' मुणेयव्या। पंचविह थावरा-खिदि-जलग्गि-वाऊ-वणप्फइणो।।१२।। अन्वयार्थ - (थावर-तसभेयओ) स्थावर (और) त्रस के भेद से, १. ध. भेददो. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०) आचार्य वसुनन्दि (संसारत्या) संसारी जीव, (दुविहा) दो प्रकार के, (मुणेयव्या) जानना चाहिये। (इनमें), (थावरा) स्थावर जीव, (पंचविह) पाँच प्रकार के हैं, (खिदि लतग्गि वाऊ वणप्फइणो) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भेद से।।१२।। __अर्थ- स्थावर और त्रस के भेद से संसारी जीव दो प्रकार के जानना चाहिए। इनमें स्थावर जीव पाँच प्रकार के हैं- पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। __व्याख्या- स्थावर नाम कर्म के उदय से होने वाली जीवों की अवस्था विशेष को स्थावर कहते हैं अथवा एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहते हैं। संसारी जीव मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं – स्थावर और त्रस। त्रस नामकर्म के उदय से जीवों की जो अवस्था होती है, वह त्रस कहलाते हैं अथवा दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों को त्रस कहते हैं। स्थावर जीवों के पांच भेद हैं- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायकायिक और वनस्पतिकायिक। यह सभी पृथ्वी आदिक स्थावर नामकर्म के उदय से होते हैं। जैसे- पृथ्वी कायिक नाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की अवस्था विशेष को पृथ्वीकायिक कहते हैं। इसी प्रकार अन्य को भी जानना चाहिये। इनमें से प्रत्येक के भी चार-चार भेद होते हैं। जैसे- पृथ्वी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव। इनमें से जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गणवाली है, वह पृथिवी है। पृथ्वीकायिक जीव द्वारा जो छोड़ा गया शरीर है वह पृथिवीकाय है। जिस जीव के पृथिवी रूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते हैं। कार्माण काययोग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को काय रूप से ग्रहण नहीं किया तब तक वह पृथिवीजीव कहलाता है। इसी प्रकार जल आदिक के भी चार-चार भेद कर लेने चाहिये। यह सभी स्थावर एकेन्द्रिय ही होते हैं तथा इनके स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, उच्छ्वास-निःश्वास और आयु ये चार प्राण होते हैं। पेड़-पौधे, घास-चारा (बड़ी घास), फल-फूल, जल, अग्नि, वायु (हवा) तथा पृथ्वी आदि ये सभी जीव हैं और इनके आश्रित भी जीव रहते हैं। कुछ वर्षों पूर्व भारत के एक वैज्ञानिक “जगदीशचन्द्र बसु” ने प्रायोगिक रूप से वृक्ष में जीव सिद्ध किया है। अब तो कई वैज्ञानिक यहाँ तक मानने लगे है कि पेड़-पौधों में मनुष्य से भी अधिक संवेदनशीलता पाई जाती है। इसी प्रकार जल-पृथ्वी आदि में भी जीवों की सिद्धि की जा रही है। त्रस जीवों के सम्बन्ध में विशेष कथन आगे किया जायेगा। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१) आचार्य वसुनन्दि स्थावर जीवों के भेद पज्जत्तापज्जत्ता बायर- सुहुमा णिगोय णिच्चियरा। पत्तेय पयट्ठियरा' थावर काया अणेयविहा ।।१३।। अन्वयार्थ – (पज्जत्तापज्जत्ता) पर्याप्तक-अपर्याप्तक, (बायर-सुहुमा) बादर-सूक्ष्म, (णिच्चियरा णिगोय) नित्य निगोद- इतर निगोद, (पयट्ठियरा- पत्तेय) प्रतिष्ठित प्रत्येक-अप्रतिष्ठित प्रत्येक, (के भेद से), (थावर काया) स्थावर कायिक जीव, (अणेयविहा) अनेक प्रकार के होते हैं।।१३।। अर्थ- पर्याप्त-अपर्याप्त, बादर-सूक्ष्म, नित्यनिगोद-इतरनिगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येकं और अप्रतिष्ठित प्रत्येक के भेद से स्थावरकायिक जीव अनेक प्रकार के होते हैं। ___व्याख्या- स्थावर जीवों के भेदों को आगे स्पष्ट करते हुए यहाँ ग्रन्थकार कहते हैं कि वे स्थावर जीव पर्याप्तक-अपर्याप्तक, बादर-सूक्ष्म, नित्य-निगोद- इतर निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येक-अप्रतिष्ठित प्रत्येक के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं। . आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन- इन पर्याप्तियों की पूर्णता होना अर्थात् इनकी प्रवृत्तियों में परिणमन की शक्तियों के कारणभूत पुद्गल-स्कन्धों की निष्पत्ति का नाम पर्याप्ति है। जिन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी अथवा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के ये चार, पाँच या छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्तक कहलाते हैं। अपर्याप्तक के दो भेद हैं- १. निवृत्यपर्याप्तक और २. लब्ध्यपर्याप्तक। . जिन जीवों के अन्तर्मुहूर्त में उपरोक्त प्रकार से पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जायेंगीं वे निवृत्यपर्याप्तक कहलाते हैं तथा जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण होने के पूर्व ही मृत्यु (मरण) को प्राप्त हो जाती हैं, वे लब्ध्यपर्याप्तक कहलाते हैं। एकेन्द्रियों के भेद सम्बन्धित संक्षिप्त नक्शा स्थावर पृथ्वी जल अग्नि वायु वनस्पति सू. बा. सू. बा. सू. बा. सू. बा. सू. बा. सू. बा. सू. बा. सू. बा. १. झ.ध. पयट्ठियरा. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार नित्य नि. प. साधारण अ. इ. नि. प० अ० (२२) प्रति० अ. आचार्य वसुनन्दि प्रत्येक प. अप्र. - अ. सू० बा० सू० बा० सू० बा० सू० बा० सू० बा० सू० बा० सू० बा. सू. बा. सूक्ष्म जीव सूक्ष्म जीव सिर्फ एकेन्द्रियों में ही होते हैं। सूक्ष्म जीव का तात्पर्य ऐसे जीवों से है जो न किसी भी वस्तु से रोके जा सकते हैं और न ही वे किसी वस्तु को रोकने में समर्थ हैं अर्थात् न उन्हें कोई वस्तु बाधक है और न ही वे किसी को बाधक हैं। बादर जीव सभी इन्द्रियों में होते हैं । पञ्चेन्द्रिय जीवों के सैनी (मन वाले जीव) और असैनी (बिना मन वाले जीव) ये दो भेद हैं। इन सभी में पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के जीव होते हैं । अतः एकेन्द्रिय के चार, द्वि इन्द्रिय के दो, तीन इन्द्रिय के दो, चार इन्द्रिय के दो, पञ्चेन्द्रिय के चार भेद हुए, सभी को जोड़ने पर चौदह जीव समास होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में वनस्पति कायिक के मुख्य दो भेद होते हैं – प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति। इनमें से प्रत्येक वनस्पति के प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति ये दो भेद तथा साधारण वनस्पति के नित्य निगोद और इतर निगोद ये दो भेद होते हैं। सामान्यतः एक जीव का एक शरीर अर्थात् जिनका पृथक्-पृथक् शरीर होता है या एक-एक शरीर के प्रति एक-एक आत्मा को प्रत्येक काय (वनस्पति) कहते हैं। जिसमें एक शरीर में अनन्त जीव हैं अर्थात् अनन्त जीवों के सम्मिलित शरीर को साधारण काय (वनस्पति) कहते हैं, क्योंकि उस शरीर में अनन्त जीवों का जन्म, श्वासोच्छ्वास आदि समान (साधारण) रूप से होता है। मरण, मूलाचार के अनुसार जिनकी शिरा (नसें), सन्धि (बन्धन) तथा गांठें नहीं दिखती, जिसे तोड़ने पर समान टुकड़े हो जाते हैं, दोनों भागों में परस्पर तन्तु न लगा रहे तथा जिनका छेदन करने पर भी पुन: वृद्धि (अंकुरण) को प्राप्त हो जाय, उसे साधारण शरीर तथा इन सब लक्षणों में विपरीत को प्रत्येक शरीर कहते हैं । मूल, गोमट्टसार जीवकाण्ड (गाथा १८८ ) के अनुसार जिन वनस्पतियों के कन्द, त्वचा, प्रवाल, क्षुद्रशाखा, पत्र, फूल तथा बीजों को तोड़ने से समान भाग हो उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं और जिनका भंग समान न हो उसको अप्रतिष्ठित . प्रत्येक कहते हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३) आचार्य वसुनन्दि) साधारण वनस्पति के इतर निगोद और नित्य निगोद यह दो भेद हैं। जो जीव कभी भी त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं कर सकते वह नित्य निगोद है तथा जो जीव निगोद से निकलकर त्रस पर्याय प्राप्त कर पुन: निगोद में गये वे इतर निगोद कहलाते हैं। जिन जीवों के एक ही शरीर के आश्रय अनन्तानन्त जीव रहते हैं उसे निगोद कहते हैं। निगोदिया जीवों का आहार और श्वाच्छ्वोश्वास एक साथ होता है तथा एक निगोद जीव के मरने पर अनन्त निगोद जीवों का मरण और एक निगोद जीव के उत्पन्न होने पर अनन्त निगोद जीवों की उत्पत्ति होती है। निगोदिया जीव सिद्धों से अनन्त गुणें हैं। सुई के अग्रभाग में बादर निगोद के अनन्त जीव रह सकते हैं तथा सूक्ष्म निगोद तो उनसे भी अनन्त गुणें रह सकते हैं। लोकाकाश में जितने प्रदेश हैं उतने सूक्ष्म निगोद के गोले हैं। एक-एक गोले में असंख्यात निगोद हैं तथा एक-एक निगोद में पुन: अनन्त जीव हैं। निगोद वाले जीव से कम आयुष्य और किसी जीव का नहीं होता। ये एक श्वास में अठारह बार जन्मते-मरते हैं। ____ लाटी संहिता के अनुसार मूली, अदरख, आलू, गाजर, प्याज, अरबी, रतालू, जमीकन्द, आदि मूल, गण्डरीक के स्कन्ध, पत्ते, दूध और पर्व ये चारों अवयव, आक का दूध, करोर, सरसों आदि के फूल, ईख की गाँठ और उसके आगे का भाग, पाँच उदम्बर फल (बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर और अंजीर) तथा कुमारी पिण्ड (गंवारपाठा), वृक्षों की कोपलें, तथा कुछ वृक्षों की जड़, पत्ते, फूल, फल आदि साधारण होते हैं। इनमें अनन्त जीवों का पिण्ड सतत् विद्यमान रहता है। इनके साथ-साथ सप्रतिष्ठित वनस्पति भी अभक्ष्य (अखाद्य) है। इस प्रकार यहाँ पर स्थावर कायिकों के अनेक भेदों • में से कुछ भेदों का कथन किया गया है। आधुनिक विज्ञान केवल पञ्चस्थावर जीव में वनस्पतिकायिक जीव को जीव सिद्ध कर पाया है अन्य चार स्थावर (पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक) को जीव सिद्ध अभी तक नहीं कर पाये हैं। कुछ वनस्पतिकायिक अत्यन्त स्थूल होने के कारण उनको जीव सिद्ध करना सरल हुआ; किन्तु चार स्थावर जीवों के शरीर इतने सूक्ष्म हैं कि उनके एक शरीर को हमें चक्षु अथवा यंत्र के माध्यम से देखना कठिन हो जाता है। उदाहरणस्वरूप एक जल बिन्दु एक जलकायिक जीव नहीं है; किन्तु असंख्यात जलकायिक जीवों का शरीर है, तो विचार करिये कि एक शरीर कितना सूक्ष्म है और उस शरीर में जो जैविक क्रिया होती है उसको वैज्ञानिक लोग अभी तक शोध नहीं कर पाये हैं। भारत के स्वनाम धन्य वैज्ञानिक डॉ० जगदीशचन्द्र बोस ने सन् १९०६ में वनस्पति में वैज्ञानिक दृष्टि से जीव सिद्ध करके विज्ञान जगत् को चमत्कृत कर दिया, जिससे उन्हें नोबल पारितोषिक मिला, परन्तु जैनधर्म में लिखित रूप से ईसापूर्व से Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४) आचार्य वसुनन्दि) भी वनस्पति जीव प्रसिद्ध है इसके साथ-साथ अन्य चार प्रकार के स्थावरों का अत्यन्त वैज्ञानिक दृष्टि से वर्णन है। इससे सिद्ध होता है कि जैनधर्म केवल प्राचीन नहीं है, परन्तु एक प्रामाणिक वैज्ञानिक धर्म है। विज्ञान में जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान में जो वर्णन है उससे बहुत ही विस्तृत एवं प्रामाणिक वर्णन जैनधर्म में है। वैज्ञानिकों को शोध करने के लिए जैनधर्म का जीवविज्ञान सर्चलाइट के समान कार्य कर सकता है। प्राय: जीव की उत्क्रान्ति एकेन्द्रिय से लेकर द्विन्द्रिय, द्विन्द्रिय से त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय . से चतुरिन्द्रिय, एवं चतुरिन्द्रय से पञ्चेन्द्रिय होती है, परन्तु अनेक जीव सीधे एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय भी बन सकता हैं और पञ्चेन्द्रिय भी जघन्य कार्य के कारण एकेन्द्रिय बन सकता है तथा पञ्चेन्द्रिय आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के माध्यम से भगवान् भी बन सकता है। क्रमिक एक जीव की उत्क्रान्ति की अपेक्षा डारविन का उत्क्रान्त जीव सिद्धान्त कुछ अंश से सत्य होते हुए भी पूर्ण सत्य नहीं हैं; क्योंकि वह सम्पूर्ण एक प्रकार जीव जाति परिवर्तित होकर दूसरी उच्च जीव जाति रूप परिणमन करना मानता है। उनके सिद्धान्त के अनुसार उत्क्रान्ति ही उत्क्रान्ति है अवक्रान्ति नहीं है, परन्तु उत्क्रान्ति के साथ-साथ अवक्रान्ति होती है। जीव सम्बन्धी शोध करने के लिये वैज्ञानिकों को गोम्मटसार जीवकाण्ड, धवला सिद्धान्त शास्त्र, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिये।।१३।। त्रस जीवों के भेद वि-ति-चउ-पंचिंदियभेयओ तसा चउव्विहा मुणेयव्या। पज्जत्तियरा सण्णियरभेयओ हुंति बहुभेया।।१४।। अन्वयार्थ- (वि-ति-चउ-पंचिंदियभेयओ) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय (और) पञ्चेन्द्रिय के भेद से, (तसा) त्रस जीव, (चउविहा) चार प्रकार के, (मुणेयव्वा) जानना चाहिये। (ये ही त्रस जीव), (पज्जत्तियरा) पर्याप्तक-अपर्याप्तक (और), (सण्णियरभेयओ) संज्ञी-असंज्ञी (आदिक), (बहुभेया) बहुत भेद (प्रकार), (हुति) होते हैं।।१४।। अर्थ-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय के भेद से त्रसकायिक जीव चार प्रकार के जानना चाहिए। ये ही त्रस जीव पर्याप्त-अपर्याप्त और संज्ञी-असंज्ञी आदिक प्रभेदों से अनेक प्रकार के होते हैं। ___ व्याख्या- त्रस जीवों के मुख्यत: चार भेद हैं - दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय जीव। जिनके त्रस नामकर्म का उदय हैं वे त्रस है अथवा जिस कर्म के उदय से जीवों Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५) आचार्य वसुनन्दि में गमनागमन स्वभाव होता है यह त्रस नामकर्म है और इस कर्म के उदय से प्राप्त होने वाली जीव की पर्याय विशेष को त्रस कहते हैं। ___दो इन्द्रिय नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली जीव की अवस्था विशेष को दो इन्द्रिय जीव कहते हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय आदिक में जानना चाहिये। यह सभी पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो-दो भेद वाले हैं। पुनः पञ्चेन्द्रिय के दो भेद हैं- सैनी और असैनी। जिन जीवों में अपना भला-बुरा सोचने की क्षमता होती है वे सैनी हैं तथा इनसे विपरीत असैनी होते हैं। पुनः सैनी के देव, मनुष्य, तिर्यश्च और नारकी ये चार भेद हैं, इनके भी बहुत प्रभेद हैं तथा असैनी के भी बहुत भेद हैं। . ___ सीप, शङ्ख, शम्बूक, कौंडी, सुनी, आटा एवं चावलों में पड़ने वाला सफेद कीड़ा तथा पेट के कीड़े आदि दो इन्द्रिय हैं। कुन्थु, चींटी, चीटा, कुम्भी, बिच्छू, बीर बहुही, घुनका कीड़ा, तिरुला, खटमल, जुआँ, चीलर आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। भौरा, उड़ने वाले अधिकांश कीड़े, मच्छर, मक्खी, वरें, टिड्डी आदि चार इन्द्रिय जीव हैं। मनुष्य, देव, नारकी, हाथी, घोड़ा, मगर, कछुआ, कुत्ता, हंस, बिल्ली, खरगोश आदि पञ्चेन्द्रिय जीव हैं।।१५।। जीवों की जानकारी के सम्बन्ध में विशेष सूचना आउ-कुल-जोणि-मग्गण-गुण-जीवुवओग' पाण सण्णाहिं। गाऊण जीव दव्यं सहहणं होई - कादव्व।।१५।। अन्वयार्थ- (आउ-कुल-जोणि-मग्गण-गुण-जीवुवओग पाण सण्णाहिं) आयु, कुल, योनि, मार्गणास्थान, गुणस्थान, जीवसमास, उपयोग, प्राण (और) संज्ञा के द्वारा, (जीवदव्य) जीव द्रव्य को, (णाऊण) जानकर, (सहहण) श्रद्धान, (कायव्व) करना चाहिये।।१५।। अर्थ- आयु, कुल, योनि, मार्गणास्थान, गुणस्थान, जीवसमास, प्राण और संज्ञा के द्वारा जीवद्रव्य को जानकर उसका श्रद्धान करना चाहिए। व्याख्या- जीव द्रव्य के सम्बन्ध में विशेष जानने के इच्छक भव्य जीवों को सूचना देते हुए आचार्य कहते हैं कि आयु, कुल, योनि, मार्गणस्थान, गुणस्थान, जीव-समास, उपयोग, प्राण और संज्ञा के द्वारा जीव द्रव्य को विशेष रूप से जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिये। आयु- विवक्षित गति में कर्मोदय से प्राप्त शरीर में रोकने वाले और जीवन के कारणभूत आधार को आयु कहते हैं। आयु मुख्यत: चार प्रकार की होती है- देवायु, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६) आचार्य वसुनन्दि मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु। देवों और नारकियों की जघन्य (कम से कम) आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) आय तेतीस सागर होती है। मनुष्यों और तिर्यंचों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट से कम समय) और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य तक की होती है। ___कुल- भिन्न-भिन्न शरीरों की उत्पत्ति के कारणभूत नोकर्म वर्गणा के भेदों को कुल (कुलकोटि) कहते हैं। इन्हें भी मनुष्यादि की अपेक्षा कहते हैं - . . मनुष्य के १४ लाख करोड़, देव के २६ लाख करोड़, नारकी के २५ लाख करोड़, तिर्यंचों के १३४-१/२ लाख करोड़ कुलकोटि होते हैं। सब मिलाकर १९९-१/२ (एक सौ साढ़े निन्यानवे) लाख करोड़ कुल कोटि होते हैं। योनि- कन्द, मूल, अण्डा, गर्भ, रस, स्वेद आदि की उत्पत्ति के स्थान को . योनि कहते हैं। मूलत: सचित्त, शीत, संवृत्त तथा इनकी प्रतिपक्ष भूत अचित्त, उष्ण, विवृत्त तथा मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृत-विवृत्त की अपेक्षा योनि के नौ भेद हैं। विस्तार से इन सब योनियों के चौरासी लाख भेद होते हैं, जिन्हें आगम से जानना चाहिये। यहां अति संक्षेप से उन्हें कहते हैं – नित्यनिगोद्र, इतर निगोद, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की सात-सात लाख योनियाँ हैं। वृक्षों की दस लाख योनियां हैं। विकलेन्द्रियों की २+२+२ मिलाकर छह लाख योनियां हैं। देव-नारकी और तिर्यंचों की चार-चार लाख योनियां हैं तथा मनुष्यों की चौदह लाख योनियां हैं। मार्गणास्थान- जिन स्थानों के द्वारा अनेक अवस्थाओं में स्थित जीवों का ज्ञान हो, उन्हें मार्गणा स्थान कहते हैं। मार्गणायें चौदह होती हैं- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार मार्गणा। गुणस्थान- मोह और योग के निमित्त से होने वाली आत्मा के सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणों की तारतम्यरूप विकसित अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। यह भी चौदह ही होते हैं - मिथ्यात्व, सासादन (सासन), मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, छद्मस्थ उपशान्त वीतराग, छद्मस्थ क्षीण वीतराग, सयोगकेवली और अयोगकेवली। जीवसमास- जिन सदृश धर्मों द्वारा अनेक जीवों का संग्रह किया जाये, उन्हें जीव समास कहते हैं। यह भी मुख्यत: चौदह होते हैं - एकेन्द्रिय सूक्ष्म, एकेन्द्रिय बादर, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय सैनी और पञ्चेन्द्रिय असैनी यह Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७) आचार्य वसुनन्दि सातों ही पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। अथवा, पृथिवी आदि पाँच स्थावरों के सूक्ष्म-वादर की अपेक्षा दस, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये चार, सब मिलाकर चौदह जीवसमास ही होते हैं। उपयोग- बाह्य तथा आभ्यन्तर कारणों के द्वारा होने वाली आत्मा के चेतन गुण की परिणति को उपयोग कहते हैं। उपयोग के मुख्य दो भेद हैं - दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग। पुनः दर्शनोपयोग के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं तथा ज्ञानोपयोग के कुमाते, कुश्रुत, कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये आठ भेद हैं। सब मिलाकर उपयोग के बारह भेद होते हैं। प्राण-जीव में जिनका संयोग रहने पर 'यह जीता है' और वियोग होने पर यह मर गया' ऐसा व्यवहार हो उन्हें प्राण कहते हैं। प्राण दस होते हैं – पांच (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण) इन्द्रिय प्राण, तीन (मन, वचन, काय) बल प्राण, श्वासोच्छ्वास और आयु। यह एकेन्द्रियादिकों में क्रमश: ४, ६, ७, ८, ९ (असैनी), १० (सैनी पञ्चेन्द्रिय) पर्याप्तक अवस्था में पाये जाते हैं। संज्ञा - आहारादि की वांछा को संज्ञा कहते हैं। इसके चार भेद हैं - आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा। परिभाषायें सरल हैं। ग्रन्थ विस्तार के भय से यहाँ विशेष स्पष्ट नहीं किया है। अजीव तत्त्व-वर्णन अजीव द्रव्य के भेद दुविहा अजीवकाया उ रूविणो अरूविणो मुणेयव्या। खंधा देस पएसा अविभागी रूविणो चदुधा।।१६।। सयलं मुणेहि खधं अद्धं देसो पएसमद्धद्धं । परमाणू अविभागी पुग्गलदव्वं जिणुद्दिटुं ।।१७।। (जुअलं)।२ १. ध. रुविणोऽरूविणो. . २. ये दोनों पंचास्तिकाय की गाथा क्र. ७४-७५ से मिलती हैं। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (अजीवकाया उ) अजीव द्रव्य को, (रूविणो अलविणो) रूपी (और) अरूपी (के भेद से), (दुविहा) दो प्रकार का, (मुणेयव्वा) जानना चाहिये। (इनमें), (रूविणो) रूपी अजीव द्रव्य, (खंधा देस-पएसा अविभागी) स्कन्ध, देश, प्रदेश (और) अविभागी (के भेद से), (चदुधा) चार प्रकार का है। (सयलं खंध) सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य को स्कन्ध, (अद्धं) आधे (स्कंध) को, (देसो) देश, (अद्धद्धं) आधे से आधे (स्कंध के चौथे भाग) को, (पएस) प्रदेश (और), (अविभागी पुग्गलदव्य) अविभागी पुद्गल द्रव्य को, (परमाण) परमाणु, (मुणेहि) जानो, ऐसा, (जिणुट्ठि). जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। अर्थ- अजीवद्रव्य को रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार का जानना चाहिए। इनमें रूपी अजीवद्रव्य स्कन्ध, देश, प्रदेश और अविभागी के भेद से चार प्रकार का होता है। सकल पद्गलद्रव्य को स्कन्ध, स्कन्ध के आधे भाग को देश, आधे के आधे को अर्थात् देश केआधे को प्रदेश और अविभागी अंश को परमाणु जानना चाहिए। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। व्याख्या- यहाँ प्रथम गाथा में अजीव तत्त्व (द्रव्य) के मुख्य दो भेद बतलाये गये हैं- रूपी और अरूपी। इनमें रूपी अजीव द्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अविभागी पुद्गल परमाणु ये चार भेद कहे गये हैं। मूर्त (रूपी) और अमूर्त (अरूपी) द्रव्य के स्वरूप के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द पश्चास्तिकाय में कहते है - जे खलु इंदिय गेज्झा विसया जीवेहिं होति ते मुत्ता । ___ सेसं हवदि अमुत्तं, चित्तं उभयं समादियदि।।९९।। जो इन्द्रियों से ग्रहण होते हों अथवा होने की योग्यता रखते हों वे मूर्त (रूपी) हैं। शेष सभी अमूर्त (अरूपी) हैं। इस प्रकार दोनों को जानना चाहिये। द्वितीय गाथा में क्रमश: चारों की परिभाषाएं कही गई हैं - अनन्तानन्त परमाणुओं से निर्मित होने पर भी जो एक हो वह स्कन्ध नाम की पर्याय है, उसकी आधी स्कन्धदेश (देश) नामक पर्याय है और उससे भी आधी स्कन्ध प्रदेश (प्रदेश) नामक पर्याय है। इस प्रकार भेद के कारण द्वि-अणुक स्कन्धपर्यन्त अनन्त स्कन्ध प्रदेश पर्यायें होती हैं। निर्विभाग (अविभाग) एक प्रदेश वाला, स्कन्ध का अन्तिम अंश जो है वह परमाणु कहलाता है। परमाणु की परिभाषा करते हुए नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिये गेझं। जं दव्वं अविभागी तं परमाणु विआणाहि ।।२६।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९) आचार्य वसुनन्दि - अर्थात् जिसका आदि, मध्य और अन्त एक है, और जिसे इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकतीं, ऐसा जो विभाग रहित द्रव्य है उसे परमाणु समझो। अन्य सभी स्कन्धादि की श्रेणी में आते हैं। पुद्गल- जिस द्रव्य में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण होते हैं और जो पूरन-गलन रूप होता है (पूरन अर्थात् मिलना, गलन अर्थात् बिछुड़ना) और जो शब्द छाया-प्रकाश रूप परिणमन करता है उसको पुद्गल कहते हैं। दृश्यमान समस्त जगत् पुद्गल ही है। जिसको छूकर जाना जाता है, देखकर जाना जाता है, चखकर जाना जाता है, सूंघकर जाना जाता है और सुनकर जाना जाता है वह समस्त द्रव्य पुद्गल ही है। ___ अप, तेज, वायु, अग्नि आदि पुद्गल ही हैं। विज्ञान इसको मेटर (metter) कहता है। पुद्गल दो प्रकार के हैं- (१) अणु, (२) स्कन्ध। । अणु- पुद्गल का अविभाज्य प्रदेश जो कि पुनः कोई भी प्रक्रिया से खण्डित नहीं हो सकता है एवं जिसका आदि- मध्य- अन्त एक ही है और जो अग्नि से जलता नहीं है, पानी से गीला नहीं होता है, कोई यन्त्र के (किसी) माध्यम से अथवा चक्षु से दिखाई नहीं देता है उसे अणु कहते हैं। ___ अणु अर्थात् परमाणु जब मन्द गति में गमन करता है तब एक समय में एक प्रदेश गमन करता है और जब तीव्र गति से गमन करता है तब एक समय में चौदह राजू गमन कर सकता है और मध्यम गति में अनेक विकल्प है। अणु जब गमन करता है तब उसकी गति को कोई भी वस्तु या यन्त्रादि भी नहीं रोक सकते हैं। अर्थात् एक राजू असंख्यात योजन है, जिसको वैज्ञानिक दृष्टि से असंख्यात प्रकाश वर्ष कह सकते हैं। स्कन्ध- एकाधिक परमाणु जब उपयुक्त योग्य स्निग्ध (धन) एवं रूक्षत्व (ऋण) गुण के कारण से बंधते हैं तब स्कन्ध उत्पन्न होता है। सूक्ष्म अवगाहनत्व गुण के कारण एवं विशेष बंध प्रक्रिया के कारण संख्यात-असंख्यात, अनन्त या अनन्तानन्त परमाणु बनने के बाद भी चक्षु इन्द्रिय के अगोचर हो भी सकते हैं। पञ्चेन्द्रियों के द्वारा गृहीत समस्त पुद्गल स्थूल स्कन्ध ही हैं। सूक्ष्म स्कन्ध को भी इन्द्रिय के माध्यम से नहीं देख सकते हैं। __ वैज्ञानिक लोग कुछ वर्ष पूर्व प्रकाश, विद्युत आदि को द्रव्यत्व रहित केवलशक्ति मानते थे, परन्तु वर्तमान आधुनिक वैज्ञानिक आइनस्टीन विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि जहाँ पर भौतिक शक्ति है वहाँ भौतिक द्रव्य है, जहाँ पर भौतिक द्रव्य रहेगा वहाँ भौतिक शक्ति रहेगी। इसको सिद्ध करने वाला आइनस्टीन का सूत्र है -E=MC2 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य वसुनन्दि वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०) परन्तु जैनधर्म प्रकाश, विद्युत, उद्योत (चन्द्रकिरण, सूर्य किरण), अन्धकार आदि को पुद्गल की पर्याय प्राग्ऐतिहासिक काल से भी मान रहा था। विज्ञान जो आक्सीजन, हाइड्रोजन, आदि १०५ या कभी ८५ मौलिक द्रव्य मानता है, वह वस्तुत: एक पुद्गल द्रव्य ही है, क्योंकि उनमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण समान गुण पाये जाते हैं। विज्ञान जिसको वर्तमान अणु मानता है वह जैनधर्म की अपेक्षा स्थूल स्कन्ध ही है, जिसमें अनन्तानन्त परमाणु मिले हुए हैं। वैज्ञानिक परमाणु को अभिभाज्य मानते है उनके द्वारा ऐसा माना हुआ परमाणु पुनः पुनः अनेक विभाग में विभाजित होता जा रहा है। इससे सिद्ध होता है कि उनका सिद्धान्त अपरिवर्तित पूर्ण सत्य सिद्धान्त नहीं है । अन्तरंग एवं बहिरङ्ग कारण अर्थात् वातावरण के कारण पुद्गल में विभिन्न परिवर्तन होता रहा है। पुद्गल शुद्ध परमाणु रूप परिणमन होकर भी पुनः अशुद्ध पर्याय रूप में परिणमन कर सकता है। भौतिक वस्तु की घनावस्था, तरल अवस्था एवं वाष्प अवस्था पुद्गल की पर्याय ही है। पुद्गल में जो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण एक क्षण में है दूसरे क्षण में उसका स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण अन्य भी हो सकता है। जैसे : कच्चा आम का वर्ण हरा, स्पर्श कठोर, रस तीखा व खट्टा, गन्ध- खट्टी (असुरभि गन्ध) और वही आम जब पक जाता है तब वर्ण- पीला, स्पर्श- नरम, रस- मीठा तथा गन्ध-सुगन्धित हो जाती है। इसी प्रकार पुद्गल में वर्ण से वर्णान्तर, रस से रसान्तर, स्पर्श से स्पर्शान्तर, गन्ध से गन्धान्तर होकर विभिन्न वैचित्रपूर्ण अवस्था विशेष को प्राप्त होता रहता है। आधुनिक भौतिक वैज्ञानिक जगत् में जो शोध हुआ है, शोध हो रहा है उसका क्षेत्र प्राय: पुद्गल है। विद्युत, अणुबम, रेडियो, टेलीविजन, टेपरिकार्ड, कम्प्यूटर, टेलीफोन, सिनेमा आदि केवल पुद्गल की ही देन है। पुद्गल में भी अनन्त शक्तियाँ निहित हैं । पुद्गल जितना शुद्ध से शुद्धतर होता जाता है उतनी उसकी शक्तियाँ, ऊर्जा समन्वित होती जाती है। वैज्ञानिकों को पुद्गल सम्बन्धी शोध करने के लिये तत्त्वार्थसूत्र का पञ्चम अध्याय, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय आदि ग्रन्थ बहुत सहायक हो सकते हैं । । १७ । । पुद्गल द्रव्य के छह भेद और दृष्टान्त पुढवी जलं च छाया चउरिंदिय विसय कम्म परमाणू । अइ थूल थूल थूलं सुहुमं सुहुमं च ' अइ सुहमं ।। १८ ।। १. चकारात 'सुहुमथूलं' ग्राह्यम। २. मुद्रित पुस्तक में इस गाथा के स्थान पर निम्न दो गाथायें पाई जाती हैं— अइथूल थूल थूलं सुहुमंच सुहुमथूलं च । सुहुमं च सुहुम-सुहुमं धराइयं होई छक्यं । । ४ । । क्रमशः... Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (३१) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (अइ थूल) अति स्थूल (बादर-बादर), (थूल) स्थूल, (बादर), (थूलं सुहुम) स्थूल-सूक्ष्म, (सुहुमं च) सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म (और), (अइसुहुम) अतिसूक्ष्म, (आदिक की अपेक्षा पुद्गल के छह भेद होते हैं, इनके दृष्टान्त क्रमश: कहते हैं।), (पुढवी, जलं छाया) पृथ्वी, जल, छाया, (चउरिदियविसय) चार इन्द्रियों के विषय, (कम्म च परमाणू) कर्म और परमाणु।।१८।। अर्थ- पृथिवी अतिस्थूल पुद्गल है। जल स्थूल है। छाया स्थूल-सूक्ष्म है। चार इन्द्रियों के विषय सूक्ष्मस्थूल हैं। कर्म सूक्ष्म हैं और परमाणु सूक्ष्म सूक्ष्म हैं। व्याख्या- यहाँ पर ग्रन्थकार ने अन्य प्रकार से पुद्गल के छह भेद बताये हैं तथा उन्हें दृष्टान्तों के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट भी किया है १. बादर-बादर - जिसका छेदन-भेदन और अन्यत्र प्रापण हो सके उस स्कन्ध को बादर-बादर कहते हैं। जैसे पृथ्वी, लकड़ी, कपड़ा, पाषाणादि। २. बादर - जिसका छेदन-भेदन न हो सके; किन्तु अन्यत्र ले जाया जा सके वह स्कन्ध बादर है। जैसे- जल, तेल, दूध, रस आदि। ३. बादर-सूक्ष्म – जिसका छेदन-भेदन और अन्यत्र प्रापण (प्राप्ति) भी न हो सके ऐसे नेत्र से दिखने योग्य स्कन्ध को बादर-सूक्ष्म कहते हैं। जैसे - छाया, प्रकाश, चांदनी आदि। छाया आदि दिखते हैं इसलिये बादर हैं ; किन्तु हाथ से पकड़ने में नहीं आते इसलिये सूक्ष्म हैं। . ४. सूक्ष्म-बादर - नेत्र को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों के द्वारा अनुभव में आने योग्य पुद्गल स्कन्ध को सूक्ष्म स्थूल कहते हैं जैसे- स्पर्श, रस, गन्ध, शब्द। शब्द, आदि दिखने में नहीं आते इसलिये सूक्ष्म हैं पर उनके कार्य प्रत्यक्ष देखे जाते हैं इसलिये बादर हैं। जैसे बारुद के शब्द से पहाड़ तक फट जाता है, मिर्च आदि मसाले की तीव्र गन्ध से छींक आ जाती है, आदि। __ . ५. सूक्ष्म- जिसको किसी इन्द्रिय से ग्रहण न किया जा सके ऐसे पद्गल स्कन्ध को सूक्ष्म कहते हैं जैसे- कर्मवर्गणायें। ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म- जो स्कन्ध नहीं हैं ऐसे अविभागी पुद्गल परमाणु को सूक्ष्म-सूक्ष्म कहते हैं। . पृढवी जलं च छाया, चउरिंदिय विसय कम्म परमाणू। छव्विह भेयं भणियं पुग्गल दव्वं जिणिंदेहि।।९।। ये दोनो गाथायें गो. जीवकाण्ड ६०३-६०२, मूलाचार २७८-७९, नियमसार २१-२२-२३-२४, लघुद्रव्य संग्रह-७, में भी कुछ शब्दभेदों के साथ पाई जाती हैं। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (३२) स्थूल के लिये बादर शब्द का भी प्रयोग होता है। आचार्य वसुनन्दि अरूपी अजीव द्रव्य चडविहमरूविदव्वं धम्माधम्मंवराणि कालो य। गइ - ठाणुग्गहण - लक्खणाणि तह वट्टण' गुणो य । । १९ । । अन्वयार्थ – (धम्माधमंवराणि य कालो) धर्म, अधर्म, आकाश और काल (ये) (चडविह) चार प्रकार के, (अरूवि - दव्यं) अरूपी द्रव्य हैं। (इनमें आदि के तीन), (गइ - ठाण य उग्गहण लक्खणाणि) गति, स्थिति और अवगाहन लक्षण वाले हैं, (तह) तथा, (काल), (वट्टण गुणो) वर्तना गुण वाला है। - अर्थ — चार अजीव द्रव्य अरूपी (अमूर्तिक) हैं — धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । क्रमशः गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना ये इनके लक्षण हैं। व्याख्या— इन चारों द्रव्यों में किसी भी प्रकार का रूप, रस, गन्ध अथवा स्पर्श नहीं पाया जाता है, अत: इन्हें अरूपी या अमूर्तिक कहते हैं। धर्मद्रव्य (धर्मास्तिकाय)— जीव और पुद्गल गति शक्तियुक्त है फिर भी गति करने के लिये जो बाह्य निमित्त उदासीन रूप से कारण बनता है, उसे धर्म द्रव्य कहते हैं। जैसे - स्व शक्ति से गमन करती हुई मछली के लिये पानी, पानी के बिना वह चल नहीं सकती। धर्म द्रव्य अमूर्तिक है। नित्य शुद्ध है, लोकाकाश प्रमाण है। गति परिणित जीव एवं पुद्गलों को गमन करने में उदासीन निमित्त होता है । विश्व में जीव और पुद्गल गमनागमन रूप क्रिया करते हैं उस गमनागमन क्रिया के लिये एक माध्यम चाहिये। उस माध्यम रूप द्रव्य को धर्म द्रव्य कहते हैं। यहाँ धर्मद्रव्य का अर्थ पुण्य रूप क्रिया या आचरण नहीं है, परन्तु यह एक पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त अभौतिक, अमूर्तिक, नित्य, शुद्ध, असंख्यात प्रदेशी वाला एक अखण्ड द्रव्य है। गइ परिणयाण धम्मो पुग्गल जीवाण गमण सहयारी | तोयं जह मच्छाणं अच्छंताणेव सो गेई || १७ द्रव्य संग्रह । । जैसे गमन करती हुई मछली को पानी गमन करने में सहायक होता है परन्तु - पानी जबर्दस्त मछली को गमन नहीं कराता है उसी प्रकार गमन करते हुए 'जीव- पुद्गल द्रव्य को उदासीन निमित्त बनता है । अ. ध. वत्तण. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (३३) आचार्य वसुनन्दि जिस प्रकार रेल स्वशक्ति से गमन करते हए गमन करने के लिये रेल की पटरी की परम आवश्यकता होती है बिना रेल की पटरी के बिना रेल नहीं चल सकती है उसी प्रकार धर्म द्रव्य गति क्रिया के लिये नितान्त आवश्यक है। विश्व की समस्त स्थानान्तरित रूप क्रिया (एक स्थान से दूसरे स्थान के लिये गमन) बिना धर्म द्रव्य की सहायता से नहीं हो सकता है। विश्व की समस्त क्रियायें धर्म द्रव्य की सहायता के बिना तीन काल में भी सम्भव . नहीं है। यहाँ तक कि श्वासोच्छ्वास के लिये, रक्त संचालन के लिये, पलक झपकने और अंग-प्रत्यंग संकोच-विस्तार (फैलाना) के लिये, तार-बेतार के माध्यम से शब्द भेजने के लिये, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा आदि में संवाद एवं चित्र भेजने के लिये, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि के गमनं के लिये धर्म द्रव्य की सहायता नितान्त आवश्यक है। धर्मद्रव्य के अभाव में किसी प्रकार की भी क्रियायें सम्भव नहीं हैं। वैज्ञानिकों ने एक 'ईथर' (Ethor) नाम के पदार्थ की खोज की है जिसे हम धर्म द्रव्य के समकक्ष मान सकते हैं। यहाँ धर्म द्रव्य से तात्पर्य पुण्य कार्यों से नहीं हैं। ___ अधर्म द्रव्य- गति शक्ति के समान ही जीव-पुद्गल में स्थिति शक्ति भी है फिर भी ठहरने में जो बाह्य निमित्त उदासीन रूप से सहायक बनता है, उसे अधर्म द्रव्य कहते है। जैसे— पथिक के लिये छाया, रेलगाड़ी के लिए पटरी, बैठने के लिये कुर्सी, पाटा, फर्श, जमीन आदि। . अधर्म द्रव्य के अभाव में स्थिर क्रिया नहीं हो सकती है। इसके अभाव से विश्व के सम्पूर्ण जीव एवं पुद्गल अनिश्चित एवं अव्यवस्थित रूप से सर्वदा चलायमान ही रहेंगे। बैठने की इच्छा होने पर भी बैठ नहीं सकेंगे, गाड़ी रोकने पर भी न रुकेगी, प्रत्येक व्यक्ति-वस्तु यत्र-तत्र घूमती रहेगी। .. - आधुनिक विज्ञान की अपेक्षा जो केन्द्राकर्षण शक्ति (Gravitational force) है उसके साथ अधर्म द्रव्य की सादृश्यता पाई जाती है। यहाँ अधर्म से तात्पर्य पाप कार्यों से नहीं है। ___ आकाश द्रव्य- जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म एवं काल द्रव्य को अवकाश देता है अथवा जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश (रहने का स्थान) देने वाला है वह आकाश द्रव्य कहलाता है। अवकाश का तात्पर्य स्थान देने से है छुट्टी से नहीं। आकाश द्रव्य के दो भेद हैं – लोकाकाश और अलोकाकाश। जिस आकाश प्रदेश में जीव आदि द्रव्य रहते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं। उसको छोड़कर अन्य अवशेष आकाश मात्र को अलोकाकाश कहते हैं। आकाश द्रव्य अमूर्तिक है, नित्य शुद्ध है, सर्वव्यापी है, सबसे बड़ा द्रव्य है, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३४) आचार्य वसुनन्दि) स्व-पर को अवकाश (स्थान) देना इसका धर्म है। __ आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेशी सर्वव्यापी सबसे बड़ा द्रव्य है। अन्न पगाल आदि पांच द्रव्य इस आकाश के जिस मध्य भाग में रहते हैं उसे लोकाकाश (विश्व) कहते है। लोकाकाश केवल असंख्यात प्रदेशी है। आकाश अमूर्तिक होने के कारण इसका भाग (टुकड़ा) नहीं हो सकता है तो भी जहाँ पर अन्य-अन्य द्रव्य पाये जाते है उसको लोकाकाश तथा शेष भाग को अलोकाकाश व्यवहार चलाने के लिये कल्पित कियां गया है। आकाश (Sky) अन्य द्रव्य से रहित एक शून्य (खोखलापन) नहीं है, परन्तु वह स्वयं अस्तित्व, वस्तुत्व, अमूर्त आदि अनन्त गुण सहित एक वास्तविक द्रव्य हैं। प्रत्येक द्रव्य के रहने के लिये यह द्रव्य सहायक होता है। इसके अभाव से द्रव्य का. अस्तित्व असम्भव हो जाता है। कुछ दर्शन आकाश को मानते है, कुछ इसको नहीं मानते है, विज्ञान अभी जिस प्रकार जैनधर्म में वर्णन है उसी प्रकार मानता है। :: लोकाकाश के तीन भेद है - ऊर्ध्वलोक (स्वर्गलोक), मध्य लोक (जिसमें भारत, एशिया, पृथ्वी, जम्बूद्वीप, लवण, समुद्र आदि असंख्यात द्वीप समुद्र है), अधोलोक (नरक लोक)। आकाश में पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, गृह, नक्षत्र, निहारिका आदि रहते है। काल द्रव्य- वर्तना अर्थात् परिवर्तन लक्षण वाले द्रव्य को काल कहते हैं। जीवादि द्रव्य अपनी नवीन पर्याय के उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकता। इसलिये उसे प्रवर्त्ताने वाला काल है। यही 'वर्तना लक्षण' काल द्रव्य का उपकार है। वर्तना के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसार में कहा गया है - अन्तीतैकसमया प्रति द्रव्य विपर्ययम्। अनुभूति: स्वसत्तायाः स्मृता सा खलु वर्तना।।४१।। । अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के एक-एक समयवर्ती परिणमन में जो स्वसत्ता की अनुभूति होती है उसे वर्तना कहते हैं। कालद्रव्य अमूर्तिक, नित्य, शुद्ध एवं लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में स्वतन्त्र-स्वतन्त्र अवस्थित है। काल द्रव्य स्वयं के परिणमन के लिये एवं जीव- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश के परिणमन के लिये निमित्त सहायक होता है। काल दो प्रकार के है - (१) निश्चय काल, (२) व्यवहार काल। (१) निश्चय काल - रत्नराशि के समान स्वतन्त्र रूप से लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में स्थित होने वाले असंख्यात कालाणु निश्चय काल द्रव्य है। (२) व्यवहार काल - सूर्य, चन्द्र आदि के गमन के कारण जो दिन, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वसुनन्दि-श्रावकाचार (३५) आचार्य वसनन्दि) रात, ऋतु, अयन, घड़ी, मिनट आदि जो व्यवहार होता है उसको व्यवहार काल कहते हैं। अढ़ाई द्वीप में सूर्य, चन्द्र के गमन के कारण व्यवहार काल है। स्वर्ग-नरक में व्यवहार काल नहीं होने पर भी यहाँ की अपेक्षा वहाँ का व्यवहार चलता है, परन्तु निश्चय काल स्वर्ग, नरक आदि सम्पूर्ण लोकाकाश में भरा पड़ा है। प्रत्येक द्रव्य में जो उत्पाद-व्यय आदि शुद्ध परिणमन होता है उसके लिये भी काल द्रव्य चाहिए। काल द्रव्य के अभाव से परिणमन का अभाव हो जायेगा जिससे प्रत्येक द्रव्य कूटस्थ हो जायेगा अर्थात् अपरिवर्तनशील हो जायेगा। कूटस्थ के कारण कोई भी कार्य नहीं हो सकेगा। कुछ दार्शनिक केवल व्यवहार काल को मानते है। निश्चय काल के अभाव से व्यवहार काल भी नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु प्रतिपक्ष सहित होती है अर्थात् व्यवहार का प्रतिपक्ष निश्चय भी होना चाहिये। वर्तमान वैज्ञानिक इसको (Time substances).कहते हैं। विश्व संरचना के लिये जीव का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण है। जीव ज्ञाता है, द्रष्टा है, कर्ता है, भोक्ता है, प्रभु है, विभु है। जीव बिना समस्त विश्व श्मसान के समान सन्नाटा चैतन्य रहित है। द्वितीय महत्त्वपूर्ण भूमिका पुद्गल द्रव्य की है। विश्व की समस्त भौतिक संरचना पुद्गल से होती है। विश्व को गृह मानने से गृह का स्वामी जीव है एवं गृह का निर्माण पुद्गल से होता है। धर्म द्रव्य पथिक के लिये मार्ग है तो अधर्म द्रव्य पथिक के लिये स्टेशन है। काल पुरातन को मिटाकर नवीनीकरण का सूत्रधार है तो आकाश सबको विश्राम देने के लिये मदद करता है। इस प्रकार विश्व के लिये ६ द्रव्य परस्पर सहयोगी बनकर रहते हैं। विश्व शाश्वतिक होने के कारण विश्व में स्थित सम्पूर्ण द्रव्य भी शाश्वतिक है। उनमें परस्पर सहकार से परिणमन होता रहता है। जैनधर्म स्वाभाविक विश्व एवं द्रव्यों को मानता है एवं जैनधर्म वस्तु स्वभाव धर्म होने के कारण जैसे विश्व अकृत्रिम, स्वाभाविक एवं अनादि अनन्त है उसी प्रकार जैनधर्म भी अकृत्रिम, स्वाभाविक एवं अनादि निधन है। ऐतिहासिक शोध के अभाव से कुछ वर्ष पूर्व कुछ ऐतिहासिक विद्वान् एवं दार्शनिक विद्वान् जैनधर्म को अर्वाचीन मानते थे। कोई जैनधर्म को हिन्दू धर्म की शाखा, कोई बौद्ध धर्म की शाखा मानते थे, कोई जैनधर्म के संस्थापक महावीर या पार्श्वनाथ भगवान को अथवा प्राचीन सिद्ध करने के लिये आदिनाथ भगवान् को मानते थे, परन्तु जैनधर्म का संस्थापक कोई नहीं हो सकता है, क्योंकि जैनधर्म एक प्राकृतिक धर्म है। तीर्थङ्कर गणधर, आचार्य आदि केवल धर्म प्रचारक है। अभी तक अनन्त २४ तीर्थङ्कर हो गये है और भविष्य में अनन्त २४ तीर्थङ्कर प्रचारक होंगे। जैसे- आकाश को कोई तैयार नहीं कर सकता है; किन्तु आकाश के विषय में जान सकता है, पुस्तक लिख सकता है उसके बारे में व्याख्यान दे सकता है उसी प्रकार जैनधर्म का संस्थापक नहीं कर सकता Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि है, परन्तु उसको जान सकता है, उसके ऊपर अमल कर सकता है और उसका प्रचारप्रसार कर सकता है इसलिये जैनधर्म, हिन्दू धर्म या बौद्धधर्म की शाखा नहीं है।।१९।। काल द्रव्य के भेद परमत्यो ववहारो दुविहो कालो जिणेहि पण्णत्तो। लोयायास-पएसट्ठियाणवो मुक्खकालस्स।।२०।। गोणसमयस्स' एए कारणभूया जिणेहि णिट्ठिा। .. तीदाणागदभूतो ववहारो णंत समओ य।।२१।। (युगलं). अन्वयार्थ- (जिणेहि) जिनेन्द्र भगवान्, (कालो) काल द्रव्य, (दुविहो) दो. प्रकार (का), (पण्णत्तो) कहा है; (परमार्थ काल और व्यवहार काल)। (मुक्खकालस्स) मुख्य काल के, (अणवो) अणु, (लोयायासपएसट्ठिय) लोंकाकाश के प्रदेशों पर स्थित हैं। (एए) इन (कालाणुओं) को, (गोणसमयस्स). व्यवहार काल का, (कारणभूया) कारणभूत, (जिणेहि णिहिट्ठा) जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है, (य) और (ववहारो) व्यवहार, (तीदाणागदभूतो य) अतीत और अनागत स्वरूप, (णंतसमओ) अनन्त समय वाला कहा है। अर्थ- जिनेन्द्र भगवान् ने कालद्रव्य को दो प्रकार का कहा है-- परमार्थकाल और व्यवहारकाल। मुख्यकाल के अणु लोकाकाश के प्रदेशों पर स्थित हैं। इन कालाणुओं को व्यवहारकाल का कारणभूत जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। व्यवहारकाल अतीत और अनागत स्वरूप अनन्त समय वाला कहा गया है। व्याख्या- यहाँ पर काल द्रव्य के मुख्य रूप से दो भेद बताये हैं - १. परमार्थ काल और २. व्यवहार काल। परमार्थ काल के सम्बन्ध में द्रव्यसंग्रह में कहा है - लोयायास पदेसे, एक्केके जे ठिया हु इक्केका । रयणाणं रासीमिव ते कालाणु असंख दव्वाणि ।। अर्थात् लोकाकाश के प्रदेशों पर जो एक-एक कालाणु प्रत्येक प्रदेश पर विद्यमान है, वह रत्नों की राशि के समान है और वैसे असंख्यात द्रव्य है। . व्यवहार काल- समय, निमिष, घड़ी, दिन, माह, वर्ष आदि को व्यवहार काल कहते हैं। जब एक पुद्गल का परमाणु एक आकाश प्रदेश से निकटवर्ती आकाश प्रदेश पर मन्दगति से उल्लंघ कर जाता है तब समय नाम का सबसे सूक्ष्म काल प्रकट होता १. व्यवहारकालस्य. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार. (३७) आचार्य वसुनन्दि है और इसी प्रकार सेकेण्ड, मिनिट आदि की उत्पत्ति हो जाती है। __काल यह व्यपदेश (संज्ञा) मुख्य काल का बोधक है, निश्चय काल द्रव्य के अस्तित्व को सूचित करता है, क्योंकि बिना मुख्य के गौण अथवा व्यवहार की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यह मुख्य काल द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य है तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा उत्पन्न ध्वंसीहै तथा व्यवहार काल वर्तमान की अपेक्षा उत्पन्नध्वंसी है और भूत भविष्यत की अपेक्षा दीर्घान्तरस्थायी है।।२०-२१।। ___ मुख्य काल अर्थात् परमार्थ काल के अण लोकाकाश के प्रदेशों पर स्थित हैं। यह कालाणु ही व्यवहार काल से कारणभूत हैं। व्यवहार काल अतीत और अनागत स्वरूप अनन्त समय वाला कहा गया है। द्रव्यों के परिणामित्व आदि गुण परिणामि-जीव-मुत्ताइएहि णाऊण दव्य-सम्भावं। जिण-वयणमणुसरंतेहि थिर-मई होइ कायव्वा।। २२।। अन्वयार्थ- (परिणामि-जीव-मुत्ताइएहि) परिणामित्व, जीवत्व और मूर्तत्व के द्वारा, (दव्य-सम्भाव) द्रव्य के सद्भाव को, (णाऊण) जानकर, (जिण-वयणमणुसरंतेहि) जिन भगवान् के वचनों का अनुसरण करते हए, (थिर-मई होई कायवा) (जीवों को) अपनी बुद्धि स्थिर करना चाहिये।।२२।। अर्थ- परिणामित्व, जीवत्व और मूर्तत्व के द्वारा द्रव्य के सद्भाव को जानकर जिनेन्द्र प्रभु के वचनों पर श्रद्धान करते हुए उनका अनुसरण कर निश्चल बुद्धि होना चाहिये। व्याख्या 'परिणामित्व- दो द्रव्य पर्यायों वाले होते हैं। अपनी जाति का विरोध न करते हुए वस्तु का जो विकार है- परिणमन है उसे परिणाम कहा जाता है और जिन द्रव्य विशेषों में यह पाया जाता है उन द्रव्यों का परिणामित्व गुण है, ऐसा कहा जाता है। सभी द्रव्यों में स्वभाव परिणामित्व गुण होता है। किन्तु दो द्रव्यों में कहीं विभाव पर्यायें भी होती हैं। अत: यहाँ जीव और पुद्गल को ही परिणामी समझना चाहिये। जीवत्व- जो जीता था, जीता है तथा जीवेगा वह जीव है। जिस द्रव्य विशेष में यह लक्षण पाया जाये वह जीवत्व गुण युक्त है। मूर्तत्व- स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण का सद्भाव जिसका स्वभाव है वह मूर्त है, जिसके यह गुण पाया जाये वह मूर्तत्व गुण से युक्त है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३८) आचार्य वसुनन्दि यहाँ पर 'परिणामित्व' पद को ग्रहण कर द्रव्यों की सूचना दी उसके बाद ‘जीवत्व' और 'मूर्तत्व' पद ग्रहण कर जीव एवं पुद्गल द्रव्य को स्वतन्त्र रूप से पुनः कहा गया है।।२२।। द्रव्यों के गुणों का स्पष्टीकरण परिणामि जीव मुत्तं सपएसं एयखित्त किरिया य। णिच्चं कारणकत्ता सव्वगदमियरम्मि अपवेशा।।२३।। . दुण्णि य एवं एयं पंच य तिय एय दुण्णि चउरो य। पंच य एयं एवं मूलस्स य उत्तरे णेयं ।। २४।। (युगलं) अन्वयार्थ - (छह द्रव्यों में से), (दुण्णि परिणामि) (जीव, पुद्गल ये) दो द्रव्य परिणामी हैं, (जीव एयं) एक जीव द्रव्य (चेतन) है, (मुत्तं एय) एक मूर्तिक द्रव्य (पुद्गल) है, (सपएसं पंच) सप्रदेशी द्रव्य पांच (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश) हैं, (य) और, (एयखित्त तिय) एक क्षेत्रावगाही द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश) तीन हैं, (य) और, (खित्त एय) क्षेत्रवान् द्रव्य एक (आकाश) है, (य) और, (किरिया दुण्णि ) दो द्रव्य (जीव, पुद्गल) क्रियावान् हैं, (य) और (णिच्चं चउरो) चार द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) नित्य हैं, (कारण पंच) पांच द्रव्य (जीवरहित) कारण रूप हैं, (य) और (कत्ता एयं) एक (जीव) द्रव्य कर्ता है, (सव्वगदं एय) एक (आकाश) द्रव्य सर्वगत है, (य) और (इयरम्मि अपवेशो) (वे छहीं द्रव्य) एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करते हैं। (इस प्रकार), (मूलस्स उत्तरे णेयं) मूल द्रव्यों के उत्तर गुण जानना चाहिये।।२३-२४।। भावार्थ- यहाँ प्रस्तुत दो गाथाओं के पूर्व की गाथा में सामान्य रूप से द्रव्यों की पहचान कराई थी तथा उनके गुणों का संक्षिप्त वर्णन किया था। अब यहां पर आचार्य स्वयं ही छह द्रव्यों के गुणों का स्पष्टीकरण करते हैं। जीव, पद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों में से जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी अर्थात् पर्यायों वाले हैं। एक जीव द्रव्य ही चेतन है बाकी सब अचेतन हैं। एक पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है बाकी सभी द्रव्य अमूर्तिक (अरूपी) हैं। जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये पांच द्रव्य प्रदेशी अर्थात् प्रदेश वाले हैं, इसीलिये ये बहुप्रदेशी या अस्तिकाय कहलाते हैं, एक काल द्रव्य अप्रदेशी है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक और एक क्षेत्रावगाही हैं। एक आकाश द्रव्य ही क्षेत्रवान् है अर्थात् अन्य द्रव्यों को क्षेत्र (स्थान, अवकाश) देता है। जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं, बाकी सभी निष्क्रिय हैं। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (३९) आचार्य वसुनन्दि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाश और काल ये चार द्रव्य नित्य हैं, (क्योंकि इनकी व्यञ्जन पर्याय नहीं है)। पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये पांच द्रव्य कारण रूप है। एक जीव द्रव्य कर्ता है। एक आकाश द्रव्य सर्वव्यापी है। ये छहों द्रव्य एक क्षेत्र में रहने वाले हैं, तथापि एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं होता है। इस प्रकार छहों मूल द्रव्यों के उपर्युक्त उत्तर गुण जानना चाहिये। इन सभी द्रव्यों को क्रमशः आगे और स्पष्ट करेंगे। अर्थ पर्याय एवं व्यंजन पर्याय का स्वरूप सुहुमा अवायविसया खण खइणो अत्थ-पज्जया दिट्ठा। . वंजण पज्जाया पुण थूला गिर-गोयरा चिर-विवत्था।। २५।। अन्वयार्थ- (अत्थ-पज्जया दिट्ठा) अर्थ पर्याय कही गई हैं, (सुहुमा) सूक्ष्म, (अवाय-विसया). अवाय (ज्ञान) विषयक, (खण-खइणो) क्षण-क्षण में बदलने वाली, (पुण) पुनः (किन्तु), (वंजण-पज्जाया थूला) व्यञ्जन पर्याय स्थूल, (गिर-गोयरा) शब्द-गोचर, और (चिरविवत्था) चिरस्थायी हैं।।२५।। अर्थ- अर्थपर्याय सूक्ष्म हैं, ज्ञान विषयक हैं, शब्द से नहीं कही जा सकती है, क्षण-क्षण में बदलती है। व्यञ्जन पर्याय स्थूल हैं, शब्द गोचर हैं, और चिरस्थायी हैं। - व्याख्या- १. अर्थ पर्याय- पञ्चस्तिकाय एवं ज्ञानार्णवरे ग्रन्थ में कहा हैअर्थ पर्याय सूक्ष्म है, प्रतिक्षण नाश होने वाली है तथा वचन के अगोचर है। और व्यञ्जन पर्यय स्थूल होती है, चिरकाल तक रहने वाली, वचनगोचर व अल्पज्ञानी को भी दृष्टिगोचर होने वाली होती है। अर्थपर्याय और व्यञ्जन पर्यायों में कालकृत भेद है, क्योंकि समयवर्ती अर्थ पर्याय है और चिरकाल स्थाई व्यञ्जन पर्याय है। अर्थात् ऐसा नहीं है कि अर्थ पर्याय किसी दूसरे पदार्थ में हो रही हो और व्यञ्जन पर्याय किसी दूसरे पदार्थ में। दोनों पर्यायें प्रत्येक पदार्थ (संसारी जीव व पुद्गल) में होती हैं पर समयवर्ती अर्थात् एक समय (सेकेण्ड का बहुत छोटा हिस्सा) वाली होने से अर्थपर्याय संसारी जीवों द्वारा देखी और जानी नहीं जा सकती। किन्तु चिरस्थायी अथवा बहुत समय में परिवर्तित होने वाली व्यञ्जन पर्याय हमें दिखाई देती है। (क) स्वभाव अर्थ पर्याय- आचार्य देवसेन ने 'आलाप पद्धति' में अर्थ पर्याय के स्वभाव अर्थ पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय ये दोभेद बताये हैं; देखिये सूत्र अर्थपर्यायास्ते द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात्।।१६।। १. पंचास्तिकाय गाथा, १६ टीका २. ज्ञानार्णव ६/४५. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (४०) आचार्य वसुनन्दि स्वभाव अर्थ पर्याय सभी द्रव्यों में होती है; किन्त विभाव अर्थ पर्याय जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में ही होती है, क्योंकि ये दो द्रव्य ही बन्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। द्रव्य और गुणों में स्वभाव पर्याय भी होती है और विभाव पर्याय भी होती है। जीव में जीवत्वरूप स्वभाव पर्यायें होती हैं और कर्मकृत विभाव-पर्यायें भी होती हैं। पुद्गल में विभाव पर्यायें कालप्रेरित होती हैं जो स्निग्ध व रूक्षगुण के कारण बन्ध रूप होती हैं। नियमसार ग्रन्थ में कहा है – “जो पर्यायें कर्मोपाधि से रहित हैं, वे स्वभाव पर्यायें हैं।" कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि भणिदा।।१५।। अगुरु लघुगुण का परिणमन स्वाभाविक अर्थ पर्यायें हैं। वे पर्यायें बारह प्रकारहैं, छ: वृद्धि रूप और छ: हानि रूप। अनन्तभग्गवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि, ये छ: वृद्धि रूप पर्यायें हैं। अनन्तभाग हानि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि, अनन्तगुणहानि, ये छ: हानि रूप.पर्यायें हैं। इस प्रकार छ: वृद्धि रूप और छ: हानि रूप अर्थ पर्यायें जाननी चाहिथे।२ ___शङ्का – लोकाकाश में काल द्रव्य के विद्यमान रहने से सभी द्रव्यों सहित आकाश में भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता रहता है; किन्तु अलोकांकाश में तो काल द्रव्य का अभाव है अत: अलोकाकाश में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तथा पर्यायें नहीं होना चाहिये और अगर इस बात को स्वीकार किया जाये तो आकाश नाम का कोई द्रव्य ही नहीं ठहरेगा, क्योंकि आगम वाक्य हैं – 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।' समाधान – जो स्वभाव पर्याय युक्त द्रव्य हैं, अथवा जो अर्थ पर्याय युक्त द्रव्य हैं। उनकी पर्यायों का परिवर्तन पर-निमित्त से नहीं होता है। प्रत्येक द्रव्य में आगम-प्रमाण से सिद्ध अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद वाला अगुरुलघुगुण स्वीकार किया गया है जिसका छ: स्थान पतित वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है। अत: अलोकाकाश में पर्यायें अथवा उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वभाव से होते हैं। इसलिये कोई बाधा नहीं आती प्राकृत नय चक्र में स्वभाव पर्याय का कथन निम्न प्रकार किया गया है अगुरुलहुगा अणंता, समया समया समुब्भवा जे वि । दव्वाणं ते भणिया, सहाव गुण पज्जया जाण ।।२२।। अर्थात् अगुरुलघुगुण अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद वाला है, उस अगुरुलघुगुण १. नयचक्र, श्लोक १८-१९-२०. २. आलापपद्धति सूत्र १७... ३. सर्वार्थसिद्धि, ५/७ वा. ३९. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • (वसुनन्दि-श्रावकाचार. (४१) आचार्य वसुनन्दि में प्रतिसमय पर्यायें उत्पन्न होती रहती हैं। अगुरुलघुगुण की पर्यायों को शुद्ध द्रव्यों की स्वभाव पर्यायें जाननी चाहिये। - प्रत्येक शुद्ध द्रव्य में अनन्त गुण होते हैं। उन अनन्त गुणों में एक अगुरुलघुगुण भी होता है जिसमें अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं। इस अगुरुलघुगुण में ही नियत क्रम से अविभाग प्रतिच्छेदों की छः प्रकार की वृद्धि और छ: प्रकार की हानि रूप प्रति समय परिणमन होता रहता है। यह प्रतिसमय का परिणमन ही शुद्ध (धर्म, अधर्म, आकाशादि) द्रव्यों की स्वभाव पर्यायें हैं और यही उत्पाद व्यय ध्रौव्यत्व भी है। __ आचार्य जयसेन ने “पञ्चास्तिकाय” (गाथा १६ की टीका) में लिखा है - “स्वभावगुणपर्याया अगुरुलघुकगुणषट्हानिवृद्धिरूपाः सर्वद्रव्य साधारणाः।" अर्थात् अगुरुलघुगुण षट्हानि षट्वृद्धि रूप सर्व द्रव्यों में साधारण स्वभाव गुण पर्याय है। इसी ग्रन्थ में अगुरुलघुगुण का स्वरूप बताते हुए लिखा है - "सूक्ष्मावाग्गोचरा: प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणदभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः।" सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं, नान्यथावादिनो जिनाः।। अर्थ- जो सूक्ष्म वचन के अगोचर और प्रति समय में परिणमनशील अगुरुलघुनाम के गुण हैं, उन्हें आगम प्रमाण से स्वीकार करना चाहिए। जिनेन्द्रभगवान् के कहे हए जो सूक्ष्म तत्त्व हैं वे हेतुओं अर्थात् तर्क के द्वारा खण्डित नहीं हो सकते, इसलिये जो सूक्ष्म तत्त्व हैं वे आज्ञा (आगम) से सिद्ध है, अत: उनको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् अन्यथावादी नहीं होते हैं। अर्थात् जैसा उन्होंने अपने शुद्ध ज्ञान से देखा है, वैसा ही कथन किया है। ... यद्यपि अगुरुलघुगुण सामान्य गुण है, सर्वद्रव्यों में पाया जाता है तथापि संसार अवस्था में कर्म परतन्त्र जीवों में उस स्वाभाविक अगुरुलघुगुण का अभाव है। यदि कहा जाय कि स्वभाव का विनाश मानने पर जीव का भी विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि लक्षण के विनाश होने पर लक्ष्य का विनाश होता है, ऐसा न्याय है, सो भी बात नहीं है अर्थात् अगुरुलघुगुण के विनाश होने पर भी जीव का विनाश नहीं होता है, क्योंकि ज्ञान-दर्शन को छोड़कर अगुरुलघुत्व जीव का लक्षण नहीं है; चूँकि वह आकाश आदि अन्य द्रव्यों में भी पाया जाता है। अनादि काल से कर्म नोकर्म से बंधे हुए जीवों के कमोंदयकृत अगुरुलघुत्व है; किन्तु मुक्त जीवों के कर्म नोकर्म की अत्यन्त निवृत्ति हो जाने पर स्वाभाविक अगुरुलघुगुण का आविर्भाव होता है। १. धवल पु. पृ. ५८. २. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ८/११. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (ख) विभाव अर्थ पर्याय “विभावार्थपर्यायाः षड्विधाः मिथ्यात्व - कषाय-राग-द्वेष- पुण्यपाप- रूपाऽध्यवसायाः।।१८।। (आलाप पद्धति) (४२) आचार्य वसुनन्दि अर्थात् मिथ्यात्व कषाय आदि रूप जीव के परिणामों में कर्मोदय के कारण जो प्रतिसमय हानि या वृद्धि होती है वह विभाव अर्थ पर्याय है। इसके छ: भेद हैं— मिथ्यात्व, कषाय, राग, द्वेष, पुण्य, पाप । इन छह रूप अध्यवसाय विभाव अर्थ पर्यायें हैं। कषायों की षट्स्थानगत हानि वृद्धि होने से विशुद्ध या संक्लेश शुभ-अशुभ लेश्याओं के स्थानों में जीव की अशुद्ध (विभाव) अर्थपर्यायें जाननी चाहिये। द्वि अणुक आदिक स्कंधों में वर्णादि से अन्य वर्णादि होने रूप पुद्गल की विभाव अर्थ पर्यायें हैं। इस प्रकार जीव के लेश्यारूप परिणामों में और पुद्गल स्कन्धों के वर्णादि में जो प्रतिक्षण परिणमन होता है वह विभाव अर्थ पर्याय है। २. व्यञ्जन पर्याय “व्यञ्जनपर्यायास्तेद्वेधा स्वाभावविभावपर्यायभेदात्। अर्थात् स्वभाव व्यञ्जन पर्याय और विभाव व्यञ्जन पर्याय के भेद से व्यञ्जन पर्याय दो प्रकार की है । पुनः द्रव्य व्यञ्जन पर्याय और गुण व्यञ्जन पर्याय के भेद से इनके दो-दो भेद हुए हैं। पुनः इन चारों गुणों का जीव और पुद्गल पर प्रयोग आलापपद्धतिकार ने निम्न प्रकार किया है। विभाव द्रव्यव्यञ्जनपर्यायाश्चतुर्विधा नरनारकादिपर्यायाः अथवा चतुरशीति लक्ष योनयः ।। १९ ।। अर्थात् नर-नारक आदि रूप चार प्रकार की अथवा चौरासी लाख योनि रूप जीव की विभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है। विभावगुण व्यञ्जन पर्याया मत्यादयः ।। २० ।। अर्थात् मतिज्ञान आदिक जीव की विभाव गुण व्यञ्जन पर्यायें हैं। “स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपंर्यायाश्चरमशरीरात् किंचिन्यूनसिद्धपर्यायाः । । २१ । । ” अर्थात् अन्तिम शरीर से कुछ कम जो सिद्ध पर्याय है, वह जीव की स्वभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है। “स्वभावगुणव्यंजनपर्याया अनन्तचतुष्टयरूपा जीवस्य ।। २२ ।” अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य इन अनन्तचतुष्टरूप • Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (४३) आचार्य वसुनन्दि) जीव की स्वभाव गुण व्यञ्जन पर्याय है। "पुद्गलस्य तु द्वयणुकादयो विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः।।२३।।" अर्थात् द्वि-अणुकादि स्कन्ध पुद्गल की विभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय हैं। “रसरसान्तरगंधगंधान्तरादि विभावगुणव्यञ्जनपर्यायाः।।२४।।" अर्थात् द्वि-अणुक आदि स्कन्धों में एक वर्ण से दूसरे वर्ण रूप, एक रस से दूसरे रस रूप, एक गन्ध से दूसरे गन्ध रूप, एक स्पर्श से दूसरे स्पर्श रूप होने वाला चिरकाल स्थायी परिणमन पुद्गल की विभाव गुण व्यञ्जन पर्याय है। "अविभागी पुद्गलपरमाणु स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः।।२५।।" अर्थात् अविभागी पुद्गल परमाणु पुद्गल की स्वभाव द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है। “वर्णगंधरसैकैकाविरूद्ध स्पर्श द्वयं स्वभावगुणव्यंजनपर्यायाः।।२६।। अर्थात् पुद्गल परमाणु में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और परस्पर अविरूद्ध दो स्पर्श होते हैं। इन गुणों की जो चिरकाल स्थायी पर्यायें हैं वे स्वाभाव-गुण-व्यञ्जन पर्यायें हैं। । उपरोक्त सन्दर्भ में निम्न ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं - धवल पुस्तक ११,१२,१४/ तिलोयपण्णत्ति/ बृ०द्र०संग्रह/ तत्त्वार्थराजवार्तिक अ० ५, पञ्चास्तिकाय आदि।।२५।। . जीव और पुद्गल का परिणामित्व परिणामजुदो जीओ गइगमणुवलंभओ असंदेहो। तह पुग्गलो य पाहण पहुइ-परिणामदंसणा गाउं ।। २६।। अन्वयार्थ- (जीओ परिणाम जदो) जीव परिणामयक्त (परिणामी) है, (क्योंकि), (गइगमण असंदेहो उवलंभो) गतियों में गमन निःसन्देह पाया जाता है। (य) और, (तह) उसी प्रकार, (पाहण-पहुइ-परिणाम-दंसणा) पाषाण, पृथ्वी आदि पर्यायों के परिणमन से, (पुग्गलो) पुद्गल (भी परिणामी) जानना चाहिये। ।।२६।। .. अर्थ-नरक, स्वर्ग आदि गतियों में गमन करने के कारण निश्चित रूप से जीव परिणाम (पर्याय) युक्त है। इसी तरह पाषाण, पृथ्वी, मिट्टी आदि स्थूल पर्यायों के परिणमन देखे जाने से पुद्गल को परिणामी जानना चाहिये। व्याख्या- आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है - १. पंचास्तिकाय गाथा १६ टीका. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (४४) आचार्य वसुनन्दि कम्मं णाम समक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं, णेरइयं वा सुरं कुणदि ।।१७।। अर्थात् नाम संज्ञा वाला कर्म अपने स्वभाव से जीव के स्वभाव का पराभव करके मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव पर्यायों को करता है। जीव जब दूसरी गति में जाता है तब नवीन शरीररूप नोकर्म पुद्गलों के साथ सम्बन्ध को प्राप्त करता है, उससे मनुष्य, देव, तिर्यंच, नारक पर्यायों की उत्पत्ति होती है। चेतनरूप जीव के साथ अचेतन रूप पुद्गल के मिलने से जो मनुष्यादि पर्यायें हुई यह असमान जाति द्रव्य पर्याय है। ये समान जातीय तथा असमानजातीय अनेक द्रव्यों की एक रूप द्रव्य पर्यायें पुद्गल और जीव में ही होती हैं। ये अशुद्ध ही होती हैं, क्योंकि अनेक द्रव्यों के परस्पर संश्लेष-सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं। यहाँ पर द्रव्य व्यञ्जन पर्याय की अपेक्षा होने से जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों ' को ही ग्रहण किया गया है। पर्यायों सम्बन्धी विशेष ज्ञान पञ्चास्तिकाय, आलाप पद्धति (सटीक) आदि ग्रन्थों से जानना चाहिये। इस गाथा केपहले भी पर्यायों के सम्बन्ध में काफी कुछ स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया गया है।।२६।। ____ अपरिणामी द्रव्य वंजण परिणइ विरहा धम्मादीया हवे अपरिणामा। अत्थपरिणाममासिय सव्वे परिणामिणो अत्था।। २७।। अन्वयार्थ- (वंजण परिणइ विरहा) व्यञ्जन पर्याय के अभाव से, (धम्मादीया) धर्मादिक (चार द्रव्य), (अपरिणामा) अपरिणामी, (हवे) होते हैं। (अत्य परिणाममासिय) (किन्तु) अर्थपर्याय की अपेक्षा, (सव्वे) सभी, (अंत्था) पदार्थ, (परिणामिणो) परिणामी हैं।।२७।। भावार्थ- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल इन चार द्रव्यों में मात्र अर्थ पर्याय होती है, व्यञ्जन पर्याय न होने से इन्हें अपरिणामी कहा है। किन्तु जब अर्थ पर्याय की अपेक्षा कथन किया जाता है तब सभी द्रव्य परिणामी ठहरते हैं, क्योंकि छहों द्रव्यों में भी अर्थपर्याय होती हैं।।२७।। जीवत्व एवं मूर्तत्व गुण वाले द्रव्य जीवो हु जीवदव्वं एक्कं चिय चेयणा चुआ सेसा। मुत्तं पुग्गलदव्वं रूवादिविलोयणा ण सेसाणि ।। २८।। १. पंचास्तिकाय गाथा १७ टीका. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (४५) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ – (हु) निश्चय से, (एक्कं जीवदव्वं चिय) एक जीव द्रव्य ही, (जीवो) जीवत्वधर्म से युक्त है, (सेसा) शेष सभी द्रव्य, (चेयणा चुआ) चेतना से रहित हैं। (पुग्गलदव्वं मुत्तं) पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, (क्योंकि उसमें), (रूवादिविलोयणा) रूपादिक देखे जाते हैं, (ण सेसाणि) शेष द्रव्य मूर्तिक नहीं हैं।।२८।। अर्थ- एक जीवद्रव्य ही जीवत्वधर्म से युक्त है, शेष सभी द्रव्य चेतना से रहित हैं। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है, क्योंकि उसमें रूपादिक देखे जाते हैं, शेष द्रव्यमूर्तिक नहीं हैं। व्याख्या- एक जीव द्रव्य ही जीवत्व धर्म से युक्त है अर्थात् जो चार प्राणों से जीता था, जीता है और जीवेगा वह जीव है और शेष सभी द्रव्य चेतना से रहित हैं। एकमात्र जीव द्रव्य ही ऐसा है जिसमें जानने-देखने एवं अनुभव करने की शक्ति है, अन्य किसी भी द्रव्य में यह शक्ति नहीं होती, अत: वे चेतना से रहित अजीव द्रव्य कहे जाते हैं। . एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक है अर्थात् रस, रूप, गन्ध आदि से सहित है। पद्गल के छोटे से छोटे हिस्से में कोई न कोई स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण अवश्य ही पाये जाते है इसलिये इन्हें मूर्तिक कहते हैं, शेष सभी द्रव्य अमूर्तिक (अरूपी) हैं, क्योंकि उनमें रूप, रस, गन्ध आदि नहीं पाये जाते हैं।।२८।। __सप्रदेशी एवं अप्रदेशी द्रव्य स-पएस पंच कालं मुत्तूण पएस-संचया णेया। अ-पएसी खलु कालो पएस-बंधच्चुदो जम्हा।।२९।। अन्वयार्थ– (कालं मुत्तूण) काल द्रव्य को छोड़कर, (पंच सपएस णेया) पांच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिये (क्योंकि उनमें), (पएस-संचया) प्रदेशों का संचय पाया जाता है। (कालो खलु अपएसी) काल द्रव्य निश्चय से अप्रदेशी है, (जम्हा) क्योंकि (पएस-बंधच्चुदो) प्रदेशों के बंध से रहित है।।२९।। अर्थ- कालद्रव्य के अलावा पाँच द्रव्य अप्रदेशी हैं, क्योंकि उनमें प्रदेशों का संचय पाया जाता है। कालद्रव्य निश्चय से अप्रदेशी है, क्योंकि वह प्रदेशों के बन्ध से रहित है। व्याख्या- काल द्रव्य को छोड़कर शेष पांच द्रव्य सप्रदेशी अर्थात् प्रदेश वाले होते हैं। कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योंकि वह प्रदेशों के बंध या समूह से रहित है, अर्थात् कालद्रव्य के कालाणु भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिकदेव ने कहा है - Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (४६) लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का | रयणाणं रासीमिव ते कालाणु असंख दव्वाणि ।। २२ ।। अर्थात् जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि की भांति भिन्न-भिन्न रूप से एक-एक स्थित हैं वे कालाणु असंख्य द्रव्य हैं। प्रदेश का लक्षण करते हुए वे आगे कहते हैं - जावदियं आयासं अविभागी पुग्गलाणुउट्टद्धं । तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिह ।। २७।। अर्थात् जितना आकाश अविभागी पुद्गल परमाणु से रोका (व्याप्त हो जाता है. उसे सर्व अणुओं को स्थान देने में योग्य प्रदेश जानों अर्थात् एक आकाश प्रदेश अन्त अणुओं को स्थान देने की योग्यता रखता है । । २९ । । एक रूप तथा अनेक रूप द्रव्य धम्माधम्मागासा एग सरुवा पएस अविओगा । ववहार काल पुग्गल - जीवा हु अणेय रूवा ते ।। ३० ।। अन्वयार्थ - ( धम्माधम्मागासा) धर्म, अधर्म, आकाश, (एगसरुवा) एक स्वरूप हैं, (क्योंकि), (पएस- अविओगा) ( इन तीनों द्रव्यों के) प्रदेश अवियुक्त हैं। (ववहार- - काल पुग्गल - जीवा) व्यवहार काल - पुद्गल (और) जीव, (अणेयरूवा तेहु) अनेक रूप हैं ।। ३० ।। भावार्थ — धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीनों द्रव्य एकस्वरूप हैं अर्थात् अपने स्वरूप या आकार को बदलते नहीं हैं, क्योंकि इन तीन द्रव्यों के प्रदेश परस्पर अवियुक्त हैं अर्थात् समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। तीनों लोकों में ऐसा कोई भी स्थान नहीं, जहाँ ये तीनों द्रव्य अवियुक्त रूप में न पाये जाते हो । व्यवहार काल (घण्टा, मिनिट आदि), पुद्गल और जीव ये तीन एक स्वरूप नहीं हैं। यह अनेक स्वरूप हैं तथा अपने आकार आदि को भी बदलते रहते हैं । । ३० ।। क्षेत्रवान् द्रव्य आगासमेव खित्तं अवगाहण लक्खणं जदो भणियं । सेसाणि पुणोऽखित्तं अवगाहण लक्खणाभावा ।। ३१ । । - अन्वयार्थ – (अगासमेव खित्तं) आकाश द्रव्य ही क्षेत्रवान् है, (जदो) क्योंकि उसका, (अवगाहण लक्खणं भणियं) अवगाहन लक्षण कहा गया है। (पुण साणि अखित्तं) पुनः शेष द्रव्य अक्षेत्रवान् हैं, (क्योंकि, उनमें ), (अवगाहण लक्खणाभावा) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (४७) आचार्य वसुनन्दि अवगाहन लक्षण का अभाव है।।३१।। अर्थ- आकाशद्रव्य क्षेत्रवान है, क्योंकि वह दूसरे द्रव्यों को स्थान देता है। शेष द्रव्य क्षेत्रवान नहीं हैं, क्योंकि उनमें अवगाहन लक्षण का अभाव पाया जाता है। व्याख्या- अवगाहन अर्थात् स्थान देने वाला लक्षण होने से आकाशद्रव्य क्षेत्रवान् कहा है। इस सन्दर्भ में आचार्य श्री नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रह में लिखते हैं - अवगासदाण जोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं। जेण्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं।। ___ यहां पर आकाश के दो भेद करते हुए कहा है कि जिस द्रव्य के अन्दर अवकाश (अवगाहन) देने की योग्यता है अर्थात् जो जीवादिक द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देता है उसे जिनेन्द्र भगवान् ने लोकाकाश कहा है तथा जहाँ जीवादिक द्रव्य नहीं पाये जाते हैं उसे अलोकाकाश कहा है। अलोकाकाश भी जीवादिक द्रव्यों को अवगाहन देने में समर्थ है; किन्तु वहाँ आकाश के अलावा अन्य कोई भी द्रव्य नहीं पाया जाता इसलिये यह सामर्थ्य से ही कहा है। शेष पांच द्रव्य क्षेत्रवान् नहीं हैं, क्योंकि उनमें अवगाहन (अवकाश) देने की सामर्थ्य नहीं है।।३२।। . क्रियावान् द्रव्य .. सक्किरिय' जीव-पुग्गल गमणागमणाइ-किरिय-उवलंभा। सेसाणि पुण वियाणसु किरिया-हीणाणि तदभावा।। ३२।। अन्वयार्थ- (जीव-पुग्गल सक्किरिय) जीव-पुद्गल सक्रिय हैं, (क्योंकि इनमें), (गमणागमणाइ किरिय-उवलंभा) गमन, आगमन आदि क्रियायें पायी जाती हैं। (पुण सेसाणि) पुनः शेष द्रव्य, (किरिया-हीणाणि) क्रिया रहित, (वियाणस) जानना चाहिये, (क्योंकि), (तदभावा) उन गमन आदि क्रियाओं का अभाव है। भावार्थ- जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य क्रियावान् हैं अर्थात् इनमें हलन-चलन, गमन-आगमन आदि क्रियायें होती है। इनके अलावा शेष चार द्रव्य निष्क्रिय हैं, क्योंकि उनमें हलन-चलन, गमन-आगमन आदि क्रियायें नहीं पायी जाती है। आठ कर्मों से रहित लोकाग्र में सिद्धशिला पर विराजमान सिद्ध जीव भी निष्क्रिय हैं।।३२।। - १. ध. 'सक्किरिया पुणुजीवा पुग्गल गमणाई' । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (४८) आचार्य वसनन्दि नित्य, अनित्य और परिणामी द्रव्य मुत्ता' जीवं कायं णिच्चं सेसा पयासिया समये। वंजण परिणाम-चुआ इयरे तं परिणयं पत्ता।।३३।। अन्वयार्थ- (जीवं कायं मुत्ता) जीव पुद्गल को छोड़कर, (सेसा) शेष द्रव्यों को, (समये णिच्चं पयासिया) आगम में नित्य कहा गया है (क्योंकि वे), (वंजण-परिणाम-चुआ) व्यञ्जन पर्याय से रहित हैं। (इयरे तं परिणयं पत्ता) दूसरे (जीव, पुद्गल) द्रव्य व्यञ्जन पर्याय से युक्त हैं (इसलिये वे परिणामी और अनित्य हैं)। भावार्थ- जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों को छोड़कर शेष चार द्रव्यों को परमागम (जिनवाणी) में नित्य कहा है, क्योंकि इनमें अर्थ पर्याय ही होती है, व्यञ्जन पर्याय नहीं होती है। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में व्यञ्जन पर्याय पायी जाती है, इसलिये इन्हें परिणामी (पर्यायवान्) और अनित्य कहा गया है।।३३।। कारणभूत द्रव्य जीवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंच कायाई। जीवो सत्ता भूओ सो ताणं कारणं होई ।। ३४।। अन्वयार्थ- (जीवस्सुवयारकरा) जीव के उपकार करने से, (उन्हें) (कायाई) कारणभूत माना गया है।, (पंच) पाँच द्रव्य, (कारणभूया हु) निश्चित ही कारणभूत हैं। (किन्तु), (जीवो सत्ताभूओ) जीव सत्ता स्वरूप है, (सो) (इसलिये) वह, (ताणं) उन द्रव्यों का, (कारणं ण होइ) कारण नहीं होता है।।३४।। भावार्थ- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांचों द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, इसलिये वे कारणभूत हैं। किन्तु जीव सत्तास्वरूप है, इसलिये वह किसी भी द्रव्य का कारण नहीं होता है।।३४।। जीव द्रव्य कर्मों का कर्ता भोक्ता कत्ता सुहासुहाणं कम्माणं फल-भोयओ जम्हा। जीवो तप्फल- भोया भोया सेसा ण कत्तारा ।। ३५।। अन्वयार्थ – (जीवो) जीव, (सुहासुहाणं) शुभ और अशुभ, (कम्माणं) १. झ. मोत्तुं, ब मोत्तूं. २. झ.ब., संतय. . ३. ब. ताण. ४. ब. फलयभोयओ. ५. द. कत्तारो, प. कत्तार. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (४९) आचार्य वसुनन्दि) कर्मों का, (कत्ता) कर्ता है, (जम्हा) क्योंकि (वही कर्मों के), (फलभोयओ) फल को प्राप्त करता है, (और वही), (तप्फलभोया) उस कर्मफल का भोक्ता है, (सेसा) शेष द्रव्य, (ण भोया कत्तारा) कर्ता भोक्ता नहीं हैं।।३५।। अर्थ- एक जीव द्रव्य ही शुभ और अशुभ कर्मों का करने वाला है, क्योंकि उदयागत कर्मों के फल को भोगते हुए देखा जाता है, इसलिये भोक्ता भी सिद्ध होता है। शेष द्रव्य कर्मों के कर्ता भोक्ता नहीं हैं।।३५।। __व्याख्या- यह जीव मन, वचन, काय की शुभ रूप चेष्टाओं से शुभ (अच्छे) कर्मों का बंध कर्ता है और अशुभ रूप चेष्टाओं से अशुभ (बुरे) कर्मों का बंध करता है। यही जीव अपने पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का भोक्ता भी होता है अर्थात् शुभ कर्मोदय के होने पर सुख रूप और अशुभ कर्मोदय से दुःख रूप फल को भोगता है शेष कोई भी द्रव्य कर्मों का कर्ता और भोक्ता नहीं हैं। . सर्वगत द्रव्य सव्वगदत्ता सव्वगमायासं णेव सेसगं दव्वं। .. अप्परिणामादीहिं य बोहव्वा ते पयत्तेण।।३६।। अन्वयार्थ- (सव्व-गदत्ता) सर्वत्र व्यापक होने से, (आयासं) आकाश को, (सव्वगम्) सर्वगत कहते हैं।, (सेसगं दव्वं णेव) शेष कोई भी द्रव्य (सर्वगत) नहीं है। (इसप्रकार), (अप्परिणामादीहि य) अपरिणामित्व आदि के द्वारा, (ते) उन (द्रव्यों) को (पयत्तेण) प्रयत्नपूर्वक, (बोहव्वा) जानना चाहिये।।३६।। - भावार्थ- सम्पूर्ण लोक और अलोक में व्यापक होने से आकाश को सर्वत्र व्यापी (सर्वगत) कहते हैं। शेष कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं हैं जो सर्वगत हो, क्योंकि जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं, बाहर नहीं रहते हैं। - इस प्रकार परिणामित्व, जीवत्व, मूर्तत्व, प्रदेशत्व, सक्रियत्व, नित्यत्व, कारणत्व, कर्तृत्व और सर्वगत्तत्त्व आदि के द्वारा इन सभी द्रव्यों को प्रयत्न के साथ जानना चाहिये, तथा अटल श्रद्धा करना चाहिए।।३६।। अप्रवेशी द्रव्यों का स्वभाव ताण पवेसो वि तहा णेओ अण्णोण्णमणुपवेसेण। णिय-णियभावं पि सया एगीहुंता वि ण मुयंति।।३७।। १. झ. उक्तं. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (५०) आचार्य वसुनन्दि) अन्वयार्थ - (ताण) (यद्यपि ये छहों द्रव्य) वे, (पवेसो) प्रवेश कर रहते है, (तहा पि) फिर भी, (अण्णोण्णमणुपवेसेण) एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं, (णेओ) जानना चाहिए। (क्योंकि), (एगीहुंता वि सया) सदा एक होने पर भी, (णिय-णिय-भावं पि ण मुयंति) अपने-अपने स्वभाव को भी नहीं छोड़ते हैं।।३७।। अर्थ- वे छहो द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश कर रहते हैं, फिर भी एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं जानना चाहिए। क्योंकि मिलकर रहते हुए भी वे अपने-अपने - स्वभाव को नहीं छोड़ते है। व्याख्या- यद्यपि जीवादिक छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश कर इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार एक शक्कर से भरे हुए गिलास में पानी, नीबू, नमक ऊपर से डालने पर भी रह जाते हैं, फिर भी एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं होता है; क्योंकि . कोई भी द्रव्य अपने वास्तविक स्वभाव को नहीं छोड़ता अर्थात् सभी अपने-अपने स्वभाव में रहते हैं।।३७।। उपरोक्त सन्दर्भ में कहा भी है - अण्णोणं पविसंता दिंता उग्गासमण्णमण्णेसिं । मेलंता वि य णिच्चं सग-सग भावं ण विजहंति ।।३८।। अन्वयार्थ – (छहों द्रव्य), (अण्णोणं पविसंता) एक दूसरे में प्रवेश करते हुए, (उग्गास-मण्णमण्णेसिं दिता) एक दूसरे को अवकाश देते हुए, (मेल्लंता वि य णिच्चं) और परस्पर मिलते हुए भी, (सग-सग-भावं ण विज़हंति) अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। भावार्थ- छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश कर रहते है, एक दूसरे को अवकाश (स्थान) देते हैं और परस्पर नित्य ही मिलकर भी रहते है, किन्तु अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते है। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है वह उसी स्वभाव में स्थिर रहेगा जैसेजीव द्रव्य का स्वभाव चेतना है अथवा जानना देखना है तो वह कभी-भी, कही भी रहे अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है। प्रस्तुत गाथा आचार्य कुन्दकुन्द के पञ्चास्तिकाय में आई है। बहुत सम्भव है आचार्य वसुनन्दी ने उद्धरण के रूप में ली होगी, जो पुरानी प्रतियों ‘उक्तं च' लिखा होने पर भी मूल में शामिल है। १. पंचास्तिकाय गा. ७. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वसुनन्दि- श्रावकाचार आश्रव के कारण (५१) आचार्य वसुनन्दि मिच्छत्ताविरइकसाय - जोय हेऊहिं? आसवइ कम्मं । जीवम्हि उवहि मज्झे जह सलिलं छिद्द णावाए । । ३९ । । १ अन्वयार्थ - (जह उवहिमज्झे) जिस प्रकार समुद्र के मध्य, (छिद्दणावाए) छेद वाली नाव में, (सलिलं) पानी आता है, ( उसी प्रकार ), ( जीवम्हि ) जीव में, . (मिच्छत्ताविरइ- कसाय- जोय हेऊहिं) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन कारणों से, (कम्मं आसवइ) कर्म आस्त्रवित होता है । । ३९ ।। अर्थ – यहाँ एक दृष्टान्त प्रस्तुत कर द्राष्टान्त की ओर इंगित करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं - जिस प्रकार समुद्र अथवा नदी में तैरती हुई छिद्र युक्त नाव में पानी भरने लगता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, और योग के कारण से जीव में कर्म आते हैं। व्याख्या- “शुभाशुभकर्मागमद्वाररूपं आस्रवः ।” अर्थात् शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वार रूप आस्रव है। प्रस्तुत गाथा में कर्माश्रव के मुख्यतः चार भेद बतायें हैं, किन्तु अन्य आचार्यों ने कर्माश्रव में कारणभूत प्रमाद सहित पांच कारण माने हैं। सम्भव है आचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण करते हुए आचार्य वसुनन्दि ने भी आश्रव के चार कारण माने होंगे। प्रस्तुत है उनका स्पष्टीकरण • मिथ्यात्व - अपने स्वरूप को भूलकर शरीर आदि पर द्रव्यों में आत्मबुद्धि करना मिथ्यात्व है। इसे विपरीत श्रद्धान भी कहते है । मिथ्यादृष्टि की समस्त क्रियायें और विचार शरीराश्रित व्यवहारों में उलझे रहते हैं। लौकिक यश, लाभ आदि की कामना से ही धर्माचरण करता है । इसे स्व- पर विवेक नहीं रहता और पदार्थों के स्वरूप में भ्रान्ति बनी रहती है। यह मिथ्यात्व सहज और गृहीत दो प्रकार का होता है। इन दोनों ही मिथ्या दृष्टियों में तत्त्व रूचि जागृत नहीं होती। ये अनेक प्रकार के देव, गुरु और मूढ़ताओं को धर्म मानते हैं। अनेक प्रकार के ऊँच नीच आदि भेदों की सृष्टि कर मिथ्या अहङ्कार का पोषण करते हैं। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर के मद से मत्त होकर १. झ. हेदूहिं. २. मिथ्यात्वादि चतुष्केन जिनपूजादिना च यत् । कर्माशुभं शुभं जीवमास्पन्दे, स्थात्स आस्रवः । । ६ । । गुण. श्रव. ३. सर्वार्थसिद्धि १/४/वा० १८. ४. समयसार १०९, १६४ आदि. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वकाचार वसुनन्दि-श्रावकाचार (५२) आचार्य वसुनन्दि अन्य व्यक्तियों को तुच्छ समझते हैं। उनमें आत्मनिष्ठा के अभाव में भय, स्वार्थ, घृणा, पर-निन्दा आदि दुर्गुणों का केन्द्र बना रहता है। संक्षेप में आत्मशक्ति को न पहचानना और शरीर, इन्द्रिय आदि को आत्मा समझना मिथ्यात्व है। अहंता और ममता के कारण आत्मा अपने निज स्वरूप को पहचान नहीं पाती। मिथ्यात्व के कारण आत्मबोध न होने से अपने स्वरूप से विमुखता बनी रहती है। जिस प्रकार बालक मिट्टी के घरोंदे बनाते और बिगाड़ते रहते हैं, उसी प्रकार आत्मा ही इस संसार को बनाती रहती है। अतएव मिथ्यात्व का त्याग अत्यन्त आवश्यक है। मिथ्यात्व के पांच भेद हैं - १. एकान्त, २. विपरीत, ३. विनय, ४. संशय और ५. अज्ञान। ____ अविरति— सदाचार या चारित्र धारण की ओर रुचि या प्रवृत्ति नहीं होना अविरति है। अविरति पांच व बारह प्रकार की है - १. हिंसा, २. झूठ, ३. चोरी, ४. कुशील, ५.परिग्रह अथवा (१-६) इन्द्रियों और मन के विषय में प्रवृत्ति (७-१२) पाँच स्थावर और त्रस जीवों की हिंसा करना। कषाय- आत्मा स्वभावत: ज्ञानदर्शन और शान्तिरूप है। उसमें किसी भी प्रकार का विवाद नहीं है। पर क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें आत्मा को कषती हैं और उसे स्वरूप से च्युत कर देती है। जो संसार को बढ़ाये अथवा देश-चारित्र व सकल-चारित्र का घात करे उस कषाय का त्याग किये बिना आत्म-चेतना निर्मल नहीं हो सकती। ये इस प्रकार के विकार हैं, जो निरन्तर आत्मा को कलुषित बनाते हैं। ___वस्तुत: ये विकार ही आत्मा के अन्तरंग शत्रु हैं। इनके हटाने से आत्म-दृष्टि प्राप्त होती है। कषाय के पच्चीस भेद हैं। सोलह कषाय और नव नो कषाय। सोलह कषायों के अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ की गणना है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद की गणना नो कषायों में हैं। योग- मन, वचन, काय के निमित्त से आत्म प्रदेशों में होने वाले, परिस्पन्द क्रिया को योग कहते है। योग के पन्द्रह भेद हैं - १. सत्यमनोयोग- सत्यार्थ को विषय करने वाला मनोयोग। २. असत्यमनोयोग- असत्य को विषय करने वाला मनोयोग। ३. उभय मनोयोग- दोनों प्रकार के पदार्थों को विषय करने वाला मनोयोग। ४. अनुभय मनोयोग- न सत्य और न मृषा। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (५३) आचार्य वसुनन्दि) इसी प्रकार चार (५-८) वचनयोग के भेद जानना चाहिए। ९. औदारिक काययोग- मनुष्य-तिर्यंचों का स्थूल शरीरजन्य काययोग। १०. औदारिक मिश्र काययोग- औदारिक शरीर पूर्ण होने के पहले। ११. वैक्रियिक काययोग- विभिन्न प्रकार की विक्रिया-रूपान्तर करने की शक्ति। १२. वैक्रियक मिश्र काययोग– वैक्रियिक शरीर के उत्पन्न होने की पूर्व स्थिति। १३ आहारक काय योग - रसादि धातुरहित उत्कृष्ट संहनन और संस्थान सहित उत्तमांग सिर से उत्पन्न शरीर। १४. आहारक मिश्र काययोग – आहारक शरीर पूर्ण होने की पूर्व स्थिति। १५. कार्मणकाय योग - ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का समूह। यह सभी कर्माश्रव में कारण हैं। चंकि अनेक आचार्यों ने प्रमाद को अलग से ग्रहण किया है; किन्तु यहां पर अविरति आदि में ही प्रमाद गर्भित कर लिया गया है। इन सभी आश्रवों से बचना चाहिए।।३९।। . शुभ और अशुभ आश्रव के कारण अरहंत- भत्तियाइसु सुहोवओगेण आसवइ पुण्णं। विवरीएण दु' पावं णिहिष्टुं जिण-वरिंदेहि।।४०।। अन्वयार्थ- (अरहंतभत्तियाइस) अरहंत भक्ति आदि (पण्यक्रियाओं) में. - (सुहोवओगेण) शुभोपयोग के होने से, (पुण्णं आसवइ) पुण्य का आस्रव होता है।, (विवरीएण द) इससे विपरीत, (अशुभोपयोग से), (पावं) पाप का (आस्रव होता - है), (ऐसा) (जिणवरिंदेहि) जिनेन्द्र भगवान् ने (णिहिट्ठ) कहा है।।४०।। अर्थ- देवशास्त्र गुरु की भक्ति में शुभोपयोग होने से पुण्य का आश्रव होता है। इससे विपरीत अशुभोपयोग से पाप का आश्रव होता है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। ... व्याख्या- “शुभोपयोग से पुण्य कर्म का आस्रव होता है और अशुभोपयोग से पाप कर्म का आस्रव होता है। जिन कर्मों का रस- अनुभाग शुभप्रद होता है, वे पुण्यकर्म और जिनकर्मों का अनुभाग अशुभप्रद होता है, वे पापकर्म कहे जाते हैं। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - १. ब.उ. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (५४) आचार्य वसुनन्दि) जो जाणदि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे। जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स।।१५७।। अर्थात् जो अरिहंतों, सिद्धों तथा अनगारों को जानता है और श्रद्धा करता है, और जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है, उसका वह शुभोपयोग है। विसय कसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठि जुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो तस्स सो असुहो ।।१५८।।. . अर्थात् जिसका उपयोग विषय कषायों में अवगाढ़ (मग्न) है, कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, कषायों की तीव्रता अथवा पापों में उद्यत है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है, उसका वह उपयोग अशुभ है। सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद एवं तत्त्वार्थराजवार्तिक (अ० ६, सू० ३) में आचार्य . अकलंकदेव कहते हैं – “पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्।" अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करे अथवा जिससे आत्मा पवित्र की जाती है, वह पुण्य कहलाता है। "तत्प्रतिद्वन्द्विरूपं पापम्।" अर्थात् पुण्य का प्रतिद्वन्द्वी पाप है, जो आत्मा को अशुभ रूप करें, वह पाप है।।४०।। बंध तत्त्व का लक्षण एवं भेद अण्णोणाणुपवेसो जो जीव पएसकम्मखंधाणं। सो पयडि-द्विदि-अणुभव-पएसदो चउविहो बंधो।।४१।। अन्वयार्थ- (जो जीव पएस कम्मखंधाणं) जो जीवप्रदेश और कर्म स्कन्धों का, (अण्णोणाणुपवेसो) परस्पर में एकमेक हो जाना है (वह बंध है), (सो बंधो) वह बंध (पयडि-द्विदि-अणुभव-पएसदो) प्रकृति, स्थिति, अनुभव, प्रदेश के भेद से (चउविहो) चार प्रकार है।। ४१।। अर्थ- जीव प्रदेश और कर्म स्कन्धों का परस्पर में तालमेल हो जाना बन्ध है। वह बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध के भेद से चार प्रकार का है। व्याख्या- दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को बंध कहा जाता है। बंध के दो भेद हैं - भावबंध और द्रव्यबंध। जिन राग-द्वेष और मोहादि विकारी भावों से कर्म का बन्ध होता है, उन भावों को भावबंध कहते हैं और कर्म पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों १. ध. अण्णुणा. २. स्यादन्योऽन्यप्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः। स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावादि स्वभावकः ।।१७।।गु श्रा. । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (५५) आचार्य वसुनन्दि से सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। द्रव्यबन्ध आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध है। कर्म और आत्मा के एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध को बन्ध कहा जाता है। यह बन्ध सभी आत्माओं नहीं होता है, जो आत्मा कषायवान् है, वही आत्मा कर्मों को ग्रहण करता है। जैसे— यदि लोहे का गोला कर्म न हो, तो पानी को ग्रहण नहीं कर पाता है। पर गर्म होने पर वह जैसे अपनी ओर पानी को खींचता है । उसी प्रकार शुद्धात्मा कर्मों को ग्रहण करनेमें असमर्थ है, पर कषायसहित जब आत्मा प्रवृत्ति करती है तो वह प्रत्येक समय निरन्तर अनन्त कर्मों का बन्ध करती है। इस प्रकार कर्मों को ग्रहण करके उनसे संश्लेष को प्राप्त हो जाना ही बन्ध है । बन्ध के योग और कषाय ये दो प्रधान हेतु हैं। भेद विवक्षा से यहां पर चार प्रकार का बन्ध बताया गया है। --- १. प्रकृति बन्ध - प्रकृति, शील अथवा स्वभाव एकार्थवाची शब्द हैं। जैसे— गुड़ का स्वभाव या. प्रकृति मधुर है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति अर्थज्ञान न होने देना है, इसी प्रकार अन्य कर्मों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। . २. स्थिति बन्ध— उस स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थिति है। ३. अनुभाग बन्ध कहते हैं। कर्मों के रसविशेष (फलदान शक्ति) को अनुभाग बन्ध ४. प्रदेश बन्ध - कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कन्धों के परमाणुओं की गणना को प्रदेश बन्ध कहते हैं। अन्य आचार्यों ने मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बन्ध का हेतु कहा है। ग्रन्थकार ने इन्हें आश्रव के हेतुओं में ले लिया है, अत: मात्र कथन पद्धति का अन्तर समझना चाहिये। यहां यह विशेष ध्यातव्य है कि बन्ध संयोगपूर्वक नहीं होता अपितु यह एक ऐसा मिश्रण है, जिसमें रासायनिक परिवर्तन होता है। मिलने वाली दोनों वस्तुयें अपनी वास्तविक अवस्था को छोड़कर अन्य तीसरी अवस्था को प्राप्त होती हैं। जैसे दूध और पानी मिलने पर एक तीसरी अवस्था उत्पन्न करते हैं । । ४१ ।। संवर तत्त्व का लक्षण एवं भेद सम्मत्तेहिं वएहिं य कोहाइकसाय- णिग्गह-गुणेहि । जोग - णिरोहेण तहा कम्मासव संवरो होइ । । ४२ । । १ सम्यक्त्वव्रतैः कोपादिनिग्रहाद्योगरोधतः । ́कर्मास्रवनिरोधो यः सत्संवरः स उच्यते । । १८ ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (५६) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ - (सम्मत्तेहिं) सम्यग्दर्शन के द्वारा, (वएहि) व्रतों के द्वारा, (य) और, (कोहाइकसायणिग्गह गुणेहि) क्रोधादि कषायों के निग्रहरूप गुणों के द्वारा, (तहा) तथा (जोगणिरोहेण) योगनिरोध से, (कम्मासवसंवरो होइ) कर्मों का आश्रव रुकता है अर्थात् संवर होता है।।४२।। अर्थ- सम्यग्दर्शन के द्वारा, व्रतों के द्वारा और क्रोध, मान, माया, लोभ, रूप कषायों, नौ नो कषायों के निग्रह रूप, रोकने रूप, गुणों के द्वारा तथा मन-वचन-काय इन योगों के निरोध से कर्मों का आश्रव रुकता है और संवर होता है। व्याख्या-जिस प्रकार नाव के छेद से पानी आना बन्द करने के लिए विभिन्न उपाय करकेउसे रोकते हैं, उसी प्रकार कर्मास्रव भी रोकना चाहिये। कर्मों का आत्मा में आना रुक जाना ही संवर है। .. सभी श्रावकों एवं साधओं को सम्भव नहीं कि वे पूर्णरूपेण संवर कर सकें अंतएव विवेकपूर्वक शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आहार आदि का ग्रहण करना चाहिये। सम्पूर्ण प्रवृत्तियों पर सम्यक् विवेक का नियन्त्रपा रहना भी संवर के अन्तर्गत माना जाता है। सम्यग्दर्शन का वर्णन तो चल ही रहा है, व्रतों एवं कषायों का कथन भी यथास्थान आयेगा फिर भी यहां संवर के कुछ कारण कहते हैं - (१) गुप्ति- अकुशल प्रवृत्तियों से मन, वचन एवं काय की रक्षा। (२) समिति- चलने बोलने, आहार करने, आदान-निक्षेपण एवं मल-मूत्र विसर्जन सम्बन्धी सम्यक् प्रवृत्ति। (३) धर्म- क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचन, ब्रह्मचर्य आदि आत्मस्वरूप परिणति। (४) अनुप्रेक्षा- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ, एवं धर्म आदि रूप आत्म-चिन्तन। (५) परीषह जय- स्वेच्छया क्षुधा, तृषा आदि की वेदना का सहना। (६) चारित्र- समतां भाव की आराधना एवं उसके कारणभूत धर्मों का पालन। वस्तुत: कर्मों का आना रुक जाना ही संवर है, जब तक जीवन में संवर को स्थान नहीं मिलेगा तब तक कर्मों से मुक्ति सम्भव नहीं है।।४२।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (५७) आचार्य वसनन्दि) निर्जरा तत्त्व का लक्षण एवं भेद । जह रूद्धम्मि पवेसे सुस्सइ सरपाणियं रविकरहिं। तह आसवे णिरुद्ध तवसा कम्मं मुणेयव्यं ।।४३।। सविवागा अविवाणा दुविहा पुण णिज्जरा मुणेयव्या। सव्वेसिं जीवाणं पढमा विदिया तवस्सीणं।।४४।।* (युगल) अन्वयार्थ- (जह रुद्धम्मि पवेसे) जिस प्रकार जल का प्रवेश रुक जाने पर, (सरपाणिय) सरोवर का पानी, (रविकरहिं) सूर्य किरणों के द्वारा, (सुस्सइ) सूख जाता है, (तह) उसी प्रकार, (आसवेणिरुद्ध) आश्रव के रुक जाने पर, (तवसा कम्म) तप से कर्म, (सूख जाते हैं), (मुणेयव्य) जानना चाहिये। (पुण) पुनः, (सविवागा अविवागा) सविपाक (और) अविपाक के भेद से, (णिज्जरा) निर्जरा, (दुविहा) दो प्रकार की, (मुणेयव्या) जानना चाहिये, (सव्वेसिं जीवाणं) सभी जीवों को, (पढमा) प्रथम, (तवस्सीणं) तपस्वियों को, (विदिया) दूसरी (निर्जरा होती है)।।४३-४४।। अर्थ-जिस प्रकार जल का प्रवेश रुक जाने पर सरोवरका पानी सूर्य किरणों के द्वारा सूख जाता है, उसी प्रकार आश्रव के रुक जाने पर तप से कर्म सूख जाते हैं। सविपाक और अविपान के भेद से वह निर्जरा दो प्रकार की जानना चाहिए। सभी जीवों को प्रथम और तपस्वियों को दूसरी निर्जरा होती है। .. व्याख्या- निर्जरा का अर्थ है जर्जरित कर देना या झाड़ देना। बद्ध कर्मों को नष्ट कर देना या पृथक् कर देना निर्जरा तत्त्व है। निर्जरा दो प्रकार की होती है - १. औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा और २. अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा। तप आदि के द्वारा कर्मों को बलात् उदय में लाकर बिना फल भोगे ही झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। स्वाभाविक क्रम से प्रति समय कर्मों का फल देकर झड़ते जाना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा प्रत्येक प्राणी को प्रतिक्षण होती है अर्थात् जिस प्रकार कर्मों का बंध प्रतिक्षण होता है, उसी प्रकार निर्जरा भी होती है। इसमें पुराने कर्मों के स्थान पर नवीन कर्म बंधते जाते हैं। गुप्ति समिति और तप रूपी अग्नि के बल से कर्मों को फल देने के पहले ही भस्म कर देना अविपाक निर्जरा है। यह गलत मान्यता है कि सम्पूर्ण कर्मों को भोगे बिना उन्हें नष्ट नहीं किया जा १. सविपाकाविपाकाथ निर्जरास्याद् द्विधादिमा। संसारे सर्वजीवनानां द्वितीया सुतपस्विनाम्।। १९गुणभू. श्रा. । *. यह दोनों गाथायें कई पुरानी प्रतियों में क्रमश: ४४-४३ संख्या पर हैं। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि सकता है। यदि आत्मा में पुरुषार्थ है, साधना है, तप है तो सम्पूर्ण पुरातन वासनाएं क्षण मात्र में क्षीण हो सकती हैं। विवश होकर, हाय-हाय कर कर्मों का फल भोगना और उन्हें निर्जरित करना तो एक साधारण सी बात है। अर्जित कर्म संस्कार इच्छापूर्वक समभाव से कष्ट सहने एवं तपाचरण से ही नष्ट होते हैं। अत: नवीन कर्मों के बन्ध को रोकना और संचित कर्मों की निर्जरा करना जीव का पुरुषार्थ है।।४३-४४।। मोक्ष का लक्षण हिस्सैस-कम्म-मोक्खो मोक्खो जिण-सासणे समुद्दिट्ठो। तम्हि कए जीवोऽयं अणुहवइ अणंतयं सोक्खं।।४५।। अन्वयार्थ- (णिस्सेस-कम्म-मोक्खो) सम्पूर्ण कर्मों के क्षय हो जाने को, (जिण-सासणे) जिनशासन में, (मोक्खो समुट्ठिो) मोक्ष कहा गया है।; (तम्हि कए) उस मोक्ष के प्राप्त करने पर, (जीवोऽयं) यह जीव, (अणंतयं सोक्खं) अनन्त सुख का, (अणुहवइ) अनुभव करता है।।४५।। , अर्थ- सम्पूर्ण कर्मों के क्षय हो जाने को जिनशासनं में मोक्ष कहा है। उस मोक्ष को प्राप्तकर यह जीव अनन्त सुखों का अनुभव करता है।' व्याख्या- कर्मबन्धनों से छुटकारा पाना मोक्ष है। "जब आत्मा भावकर्मद्रव्यकर्म मलकलंक और शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुण रूप और अब्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं।२ यहां कर्मों के नाश का अर्थ इतना ही है कि कर्म पद्गल जीव से भिन्न हो जाते हैं। कार्मणवर्गणाएं आत्मा के साथ संयुक्त होने के कारण उस आत्मा के गुणों का घात करने से कर्मत्व पर्याय को धारण करती हैं और मोक्ष में यह कर्म पर्याय नष्ट हो जाती है। आत्मा और पुद्गल कर्मों का जुदा-जुदा हो जाना ही मोक्ष है। मोक्ष होने पर जीव द्रव्य अपनी स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर लेता है। न तो आत्मा दीपक की तरह बुझ जाती है और न कर्म पुद्गल का ही सर्वथा समूल नाश होता है। __उस अनुपम मोक्ष को प्राप्त करने पर यह जीव अनन्त गुणों का स्वामी हो जाता है तथा अनन्त सुखों का अनुभव करता हुआ वहां रहता है।।४५।। । १. निर्जरा-संवराभ्यां यो विश्वकर्मक्षयो भवेत् । स मोक्ष इह विज्ञेयो भव्यैर्ज्ञानसुखात्मकः।।२०।। गुणभू श्रा.। १. सर्वार्थसिद्धि १/१, वा. १. . Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि पदार्थों को जानने के उपाय णिद्देसं सामित्तं-साहण-महियरण-ठिदि विहाणाणि। ‘एएहि सव्वभावा जीवादीया मुणेयव्वा ।।४६।। अन्वयार्थ-(णिद्देसं-सामित्तं-साहण-महियरण-ठिदि-विहाणाणि) निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, (एएहिं) इनके द्वारा, (जीवादीया) जीवादिक, (सव्वभावा) सभी पदार्थ, (मुणेयव्या) जानना चाहिए।।४६।। अर्थ- निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, इनके द्वारा जीवादिक सभी पदार्थ जानना चाहिए। • व्याख्या- यहां पर तत्त्वों अथवा पदार्थों को जानने के लिये ग्रन्थकार ने छह अनुयोग द्वार या उपाय प्रस्तुत किये हैं १. किसी वस्तु के स्वरूप का कथन करना निर्देश है। २. स्वामित्व का अर्थ आधिपत्य है। ३. जिस निमित्त से वस्तु उत्पन्न होती है उसे साधन कहते है। ४: अधिष्ठान या आधार अधिकरण है। ५. जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है। ६. विधान का अर्थ है भेद या प्रकार। . शङ्का- छह अनुयोग द्वारों से जीव को कैसे जानें? समाधान- ज्ञान, दर्शन अथवा चेतना जीव का लक्षण है, यह हुआ निर्देश। जीव का स्वामी स्वयं जीव है यह हुआ स्वामित्व। जीव विभिन्न पर्यायों में कर्म के निमित्त से उत्पन्न होता है अथवा सिद्ध पर्याय में स्वभाव रूप उत्पन्न होता है यह हुआ साधन। जीव तीन लोक में रहता है यह हुआ आधार। जीव अनन्त काल तक रहेगा यह हुआ काल। जीव मुख्यत: दो प्रकार के हैं - संसारी और मुक्त। पुन: संसारी जीव दो प्रकार के हैं - स्थावर और त्रस इत्यादि, यह हुआ विधान। इस प्रकार इन छह अनुयोगों को अच्छी तरह जानकर इनके द्वारा जीवादिक सात तत्त्वों, पदार्थों, द्रव्यों एवं सम्यग्दर्शनादि को अच्छी तरह जानना चाहिये। पदार्थों (वस्तुओं) को जानने के और भी अन्य उपाय, (अनुयोग द्वार) आचार्यश्री २. निदेशः स्वरूपाभिधानम्। स्वामित्वमाधिपत्यम्। साधनमुतपत्तिकारणम्। अधिकरणमधिष्ठानम्। स्थिति काल परिच्छेदः। विधानं प्रकारः। (सर्वार्थसिद्धि) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (६०) आचार्य वसुनन्दि उमास्वामी ने कहे हैं — “नामस्थापना द्रव्यभावतस्तन्यासः । । ५ । ।” प्रमाण-नयैरधिगमः । । ६ ॥ सत्संख्या क्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पवहुत्वैश्च ।। ८ ।। इत्यादि । इन्हें विस्तार से सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक आदि में देखना चाहिये । । ४६ ।। सम्यग्दृष्टि कौन? सत्त वि तच्चाणि मए भणियाणि जिणागमाणुसारेण । सम्माट्ठी याणि सद्दहंतो अन्वयार्थ – (सत्त वि तच्चाणि मए) ये सात तत्त्व मैंने, (जिणागमाणुसारेण भणियाणि) जिनागमानुसार कहे है; (एयाणि सहहंतो ) इन पर श्रद्धान करने वाला, (सम्माइट्ठी) सम्यग्दृष्टि, (मुणेयव्वा) जानना चाहिये ।। ४७ ।। मुणेयव्वो ।। ४७ ।। अर्थ — मैंने (आचार्य वसुनन्दी ने ) जिनेन्द्र देव द्वारा कथित ग्रन्थों को अच्छी तरह जानकर इन सात तत्त्वों का यहां पर कथन किया है। जो भव्य जीव इन सात तत्त्वों को रुचिपूर्वक श्रद्धान करता है, मानता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना चाहिये। जो जीव सात तत्त्वों को जानकर भी उन पर श्रद्धा नहीं करता, जिनागम को नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है। व्याख्या— प्रत्येक भव्य जीव को सदा सावधान रहना चाहिए कि कहीं उसके द्वारा देव, शास्त्र, गुरु अथवा महान पुरुषों की अवज्ञा न हो जाये । वह जिनवाणी के सूत्रों के विरुद्ध न चल जाये। जो हमेशा अपने श्रद्धान, विश्वास को सुरक्षित रखते हुए प्रवृत्ति करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि हैं। आचार्य शिवकोटि सम्यग्दर्शन का लक्षण करते हुए कहते हैं - अमीषां पुण्यहेतूनां श्रद्धानं तन्निगद्यते । तदेव परमं तत्त्वं तदेव परमं पदम् ।। ( रत्नमाला ९ ) ।। अर्थ- देव-शास्त्र-गुरु पर जो कि पुण्य के हेतु हैं, उन पर श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन ही परम तत्त्व और परम पद हैं। संस्कृत भाषा में “सम्” नामक एक उपसर्ग है, जिसका अर्थ है, अच्छ से। “अञ्चगतिपूजनयोः” इस नियमानुसार अञ्च धातु का अर्थ गमन करना अथवा पूजन करना है। “समञ्चतीति सम्यक् " इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अच्छी तरह से गमन कर रहा हो अथवा जो निजात्मा के गमन स्वभाव में परिणमन कर रहा हो, वह सम्यक् है, ऐसा अर्थ सम्-अञ्च में क्विप् प्रत्यय लगाने पर बनता है । यह नियम है कि जो धातु गमनार्थक होती हैं, वे ज्ञानार्थक भी होती हैं। जब अञ्च धातु ज्ञानार्थक मानी जायेगी, तब अर्थ होगा, सम्पूर्ण पदार्थों को सम्यक् प्रकार Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (६१) आचार्य वसुनन्दि) से जानना। आचार्य अकलंक देव ने लिखा है कि - सम्यगिति प्रशंसाओं निपातः स्वयन्तो वा।।१।। सम्यगित्ययं निपातः प्रशंसाओं वेदितव्यः सर्वेषां प्रशस्तरूपगतिजातिकुलायुर्विज्ञानादीनाम् आभ्युदयिकानां मोक्षस्य च प्रधान कारणत्वात्। 'प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनम'। ननु च “सम्यगिष्टार्थ तत्त्वयोः' इति वचनात् प्रशंसाभाव इति, तन्न, अनेकार्थत्वानिपातानाम्। अथवा सम्यगिति तत्त्वार्थों निपातः, तत्त्वं दर्शनं सम्यग्दर्शनम्" अविपरीतार्थ विषयं तत्त्वमित्युच्यते, अथवा क्वयन्तोऽयं शब्द: समश्चतीति सम्यक्। यथा अर्थोऽवस्थितस्तथैवावगच्छतीत्यर्थः । (राजवार्तिक १/२/१) अर्थ- 'सम्यक्' यह प्रशंसार्थक शब्द (निपात) या क्वयन्त प्रत्ययान्त है। सम्यक् शब्द को निपात, प्रशंसा अर्थ में जानना चाहिए क्योंकि यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, आयु, विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस् का प्रधान कारण होता है। प्रशस्त दर्शन सम्यग्दर्शन है। शङ्का– 'सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः' इस प्रमाण के अनुसार सम्यक् शब्द का प्रयोग इष्टार्थ और तत्त्व अर्थ में होता है अत: इसका प्रशंसा अर्थ उचित नहीं है। समाधान- निपात शब्द अनेकार्थक है, इसलिए प्रशंसा अर्थ मानने में कोई विरोध नहीं है। अथवा सम्यक शब्द का अर्थ तत्त्व में निपात किया जाता है, जिसका अर्थ है तत्त्वदर्शन सम्यग्दर्शन अविपरीत अर्थ को तत्त्व कहते हैं। अथवा सम्यक् शब्द क्विप् प्रत्ययान्त है। इसका अर्थ है, जो पदार्थ जैसा हैउसको वैसा ही मानने वाला। . देवशास्त्र और गरु पर किया गया श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन के महत्त्व को बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि - ___जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होइ। तह जिणदंसण मूलो णिहीट्ठो मोक्ख मग्गस्स ।। (दर्शनपाहुड, ११) अर्थ- जिस प्रकार मूल से वृक्ष का स्कन्ध और शाखाओं का परिवार वृद्धि आदि अतिशय से युक्त होता है, उसी प्रकार जिन दर्शन-आर्हत् मत अथवा जिनेन्द्रदेव का प्रगाढ़ श्रद्धान मोक्ष मार्ग का मूल कहा गया है। ग्रन्थकार कहते हैं कि सम्यकत्त्व ही परम तत्त्व है एवं सम्यकत्त्व ही परम पद है और ऐसा सम्यग्दर्शन तत्त्वज्ञानी के ही सम्भव है।।४७।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (६२) आचार्य वसुनन्दि सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वर्णन णिस्संका णिकंखा णिव्विदिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगृहण ठिदियरणं वच्छल्ल पहावणा चेव ।। ४८।। अन्वयार्थ– (णिस्संका णिकंखा णिविदिगिच्छा अमूढदिट्ठी य उवगृहण ठिदियरणं वच्छल्ल चेव पहावणा) निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, . अमूढ़दृष्टि और उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना (ये सम्यग्दर्शन के आठ. ' अंग हैं)।।४८।। अर्थ- निःशंकित, निकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग है। व्याख्या– जिस प्रकार मानव शरीर में दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पृष्ठ, उरुस्थल, और मस्तक ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों से परिपूर्ण रहने पर ही मनुष्य. कार्य करने में समर्थ होता है, इसीप्रकार सम्यग्दर्शन के भी निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं। इन अष्टाङ्ग युक्त सम्यग्दर्शन का पालन करने से ही संसार-संतति का उन्मूलन होता है। इन अंगों में प्रारम्भिक चार अंग वैयक्तिक और बाद वाले चार अंग सामाजिक उन्नति के लिये आवश्यक हैं। निःशंकित अंग – वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी परमात्मा के वचन कदापि मिथ्या नहीं हो सकते। कषाय अथवा अज्ञान के कारण ही मिथ्या भाषण होता है। जो राग-द्वेष मोह से रहित निष्कषाय, सर्वज्ञ हैं, उनके वचन मिथ्या नहीं हो सकते। इस प्रकार वीतराग-वचन पर दृढ़ आस्था रखना निःशंकित अंग है। नि:कांक्षित अंग- किसी प्रकार के प्रलोभन में पड़कर परमत की अथवा सांसारिक सुखों की अभिलाषा करना कांक्षा है, इस कांक्षा का न होना निःकांक्षित धर्म है। सांसारिक सुख की किसी प्रकार की आकांक्षा न करना निःकांक्षित अंग है। निर्विचिकित्सा अंग- मुनिजन देह में स्थित होकर भी देह सम्बन्धी वासना से अतीत होते है। अत: वे शरीर का संस्कार नहीं करते। उनके मलिन शरीर को देखकर ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है। वस्तुत: मनुष्य के अपवित्र देह भी रत्नत्रय के द्वारा पूज्यता को प्राप्त हो जाता है। अतएव मलिन शरीर की ओर ध्यान न देकर रत्नत्रयभूत आत्मा की ओर दृष्टि रखना और बाह्य मलिनता से जुगुप्सा या ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है। अमूढ़दृष्टि अंग- सम्यग्दृष्टि की प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्वक होती है। वह किसी का भी अन्धानुकरण नहीं करता। वह सोच-विचारकर प्रत्येक कार्य करता है। उसकी Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (६३) आचार्य वसुनन्दि प्रत्येक क्रिया आत्मा को उज्ज्वल बनाने में निमित्त होती है। वह किसी मिथ्यामार्गी जीव को अभ्युदय प्राप्त करते हुए देखकर भी ऐसा विचार करता है कि उसका वह वैभव पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों का फल है, मिथ्यामार्ग के सेवन का नहीं। अत: वह मिथ्यामार्ग की न तो प्रशंसा करता है और न उसे उपादेय ही मानता है। यह श्रद्धालु तो होता है, पर अन्ध श्रद्धालु नहीं। अमूढ़दृष्टि अन्ध श्रद्धा का पूर्णरूपेण त्याग करता है। उपगूहन अंग रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष मार्ग स्वयं निर्मल है। यदि कदाचित् अज्ञानी अथवा शिथिलाचारियों द्वारा उसमें कोई दोष उत्पन्न हो जाय - लोकापवाद का अवसर आ जाये तो सम्यग्दृष्टि जीव उसका निराकरण करता है, उस दोष को छिपाता है। यह क्रिया उपगूहन कहलाती है। अज्ञानी और अशक्त व्यक्तियों द्वारा रत्नत्रय और रत्नत्रय के धारक व्यक्तियों में आये हुए दोषों का प्रच्छादन करना उपगूहन-अंग है। इस अंग का अन्य नाम उपबृंहण भी है, जिसका अर्थ आत्मगुणों की वृद्धि है। करना है । स्थितिकरण अंग— सांसारिक कष्टों में पड़कर, प्रलोभनों के वशीभूत होकर या अन्य किसी प्रकार से बाधित होकर जो धर्मात्मा व्यक्ति अपने धर्म से च्युत होने वाला है अथवा चारित्र से भ्रष्ट होने वाला है, उसका निवारण करना अथवा भ्रष्ट होने के निमित्त को हटाकर उसे उसके धर्म / आचरण में स्थिर करना स्थितिकरण अंग है। वात्सल्य अंग— धर्मे का सम्बन्ध अन्य सांसारिक सम्बन्धों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह राग प्रशस्त की ओर ले जाता है । सधर्मी बन्धुओं के प्रति उसी प्रकार का आन्तरिक स्नेह करना, जिस प्रकार गाय अपने बछड़े से करती है। वस्तुतः सधर्मी बन्धुओं के प्रति निश्छल और आन्तरिक स्नेह करना वात्सल्य है । मायाचार, अभिमान, धूर्तता आदि को छोड़कर सद्भावनापूर्वक सधर्मियों का आदर, सत्कार, पुरस्कार, विनय, वैयावृत्त्य, प्रशंसा आदि करना वात्सल्य है। प्रभावना अंग— जगत् में वीतराग मार्ग का विस्तार करना, धर्म सम्बन्धी भ्रम को दूर करना और धर्म की महत्ता को स्थापित करना प्रभावना है। देव, शास्त्र, गुरु और धर्म के स्वरूप को लेकर जनसाधारण में जो अज्ञान भाव है, उसे दूर करना प्रभावना अंग के अन्तर्गत है। सम्यग्दृष्टि रत्नत्रय के तेज से आत्मा को प्रभावित करते हुए दान, तप, विद्या, जिनपूजा, मन्त्रशक्ति आदि के द्वारा लोक में जिनशासन का महत्त्व प्रकट करता है। जिन शासन की महिमा जिन-जिन कार्यों से अभिव्यक्त होती है, उन उन कार्यों का आचरण सम्यग्दृष्टि करता है। इन आठ अंगों का पालन प्रत्येक जैन श्रावक / साधक को करना चाहिये जिसमें आठ अंग हैं वही सम्यग्दृष्टि है । । ४८ ।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (६४) आचार्य वसुनन्दि सम्यग्दर्शन के आठ गुण संवेओ णिव्वेओ जिंदा गरहा' उपसमो भत्ती। वच्छल्लं' अणुकंपा अट्ठ गुणा होति सम्मत्ते ।। ४९।।३ अन्वयार्थ- (सम्मत्ते) सम्यग्दर्शन के होने पर, (संवेओ णिव्वेओ जिंदा, गरहा उवसमो भत्ती वच्छल्लं अणुकंपा) संवेग, निग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य, अनुकम्पा, (अट्ठ गुणा) (ये) आठ गुण, (होति) होते हैं।।४९।। . अर्थ- सम्यग्दर्शन के होने पर संवेग, निवेग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण होते हैं। व्याख्या- सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के सिवाय आठ गुण भी होते हैं जिन्हें ग्रन्थकार ने यहां प्रस्तुत किया है। संवेग- जन्म, मरण आदि अठारह दोषों से रहित देव में, हिंसादि दोषों से रहित धर्म में, आत्मा का हित करने वाले शास्त्र में और परिग्रह रहित गुरु में अत्यन्त अनुराग व प्रेम रखना संवेग कहलाता है, अथवा संसार के दुःखों से भयभीत रहना संवेग कहलाता है। निवेग (निवेद)- ये इन्द्रियों के भोग काले सर्प के फण के समान हैं तथा यह जन्म-मरण रूपी संसार सज्जन पुरुषों को अत्यन्त दुःख देने वाला है और यह शरीर अनन्त रोगों का घर है ऐसे इस संसार शरीर और भोगों से विरक्त होना वैराग्य धारण करना निर्वेद कहलाता है। संवेग और निर्वेद में विशेष अन्तर नहीं है। निन्दा-अपने द्वारा किये गये पाप कर्मों की पश्चातापपूर्वक आत्म-साक्षी में निन्दा करना निन्दा है। आ० जयसेन ने भी लिखा है- आत्म साक्षिदोषप्रकटनं निन्दा। (समयसार, तात्पर्यवृत्ति ३०६)। ____ गर्दा— राग-द्वेष आदि विकारों के द्वारा जो पाप किये गये हैं, उनकी श्रेष्ठ गुरु के सामने बैठकर भक्तिपूर्वक व पश्चात्तपपूर्वक आलोचना करना गुरु के सामने अपने सर्व दुष्कर्मों का निवेदन करना गर्दा है। १. झ. गरुहा. २. झ.ध.प. प्रतिषु गाथोत्तरार्धस्यायं पाठः ‘पूयाअवण्णज़णणं अरुहाईणं पयत्तेण।' ३. संवेगो निवेदो निंदा गर्दा तथोपशमभक्ती। वात्सल्यं अनुकंपा चाष्टगुणाः सन्ति सम्यक्त्वे।७० ।। उमा.श्राव ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (६५) आचार्य वसुनन्दि उपशम- जिसके हृदय में राग-द्वेष, मोह, मद व क्रोध कषायादि दोष स्थिरता को प्राप्त नहीं होते उस श्रेष्ठ भव्य जीव के उपशम गुण जानना चाहिये। भक्ति- इन्द्र, चक्रवर्ती आदि महापुरुष भी जिनकी सेवा करते हैं ऐसे भगवान् अरहन्तदेव और निर्ग्रन्थ गुरु की पूजा करना, सेवा-स्तुति करना, उनकी सब प्रकार से विनय करना भक्ति गुण है। वात्सल्य- जो मुनि अथवा सधर्मी किसी स्वाभाविक रोग आदि से दुःखी हैं उनकी औषधि आदि से सेवा शुश्रूषा करना वात्सल्य गुण कहलाता है। .. अनुकम्पा– संसार सागर में दुःखी प्राणियों को देखकर, उनके प्रति जो अत्यन्त करुणा या दया रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं वह अनुकम्पा है। जिसके हृदय में यह सम्यग्दर्शन के आठ गुण सुशोभित रहते हैं, वह भव्य प्राणी संसार सुखों को भोगता हुआ अल्प समय में ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।।४९।। ___ अष्ट गुणधारी जीव सम्यग्दृष्टि है इच्चाइ-गुणा बहवो सम्पत्त-विसोहिकारया भणिया। जो, उज्जमेदि एसु' सम्माइट्ठी जिणक्खादो।।५० ।। अन्वयार्थः- (इच्चाइगुणा बहवो) (उपरोक्त आठ अंग आदि) इत्यादि अनेक गुण, (सम्मत्त-विसोहिकारया) सम्यग्दर्शन की विशुद्धि करने वाले, (भणिया) कहे गये हैं। (जो) जो (जीव), (एस) इनमें, (उज्जमेदि) उद्यम करता है, (उसे), (सम्माइट्ठी जिणक्खादो) जिनेन्द्रदेव ने सम्यग्दृष्टि कहा है।।५० ।। भावार्थ-आठ अंग, आठ गुण, आस्तिक्य आदि अनेक गुण जिनेन्द्र प्रभु ने सम्यग्दर्शन की विशुद्धि करने वाले कहे है। जो भी जीव इन सभी गुणों को धारण करने का प्रयत्न करता है, हमेशा उन गुणों में रत रहने का उद्यम करता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है।।५०।। कर्म निर्जरा का कारण सम्यग्दर्शन संकाइ-दोस-रहिओ णिस्संकाइ-गुण-जुयं परमं। कम्म-णिज्जरण हेऊ तं सुद्धं होइ सम्मत्तं ।। ५१।। अन्वयार्थ (जो), (संकाइ-दोस-रहिओ) शंकादि दोषों से रहित है, (णिस्संकाइ परमं गुणजुयं) निःशंकादि परम गुणों से युक्त है, (और), १. झ. 'एदे'. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (६६) आचार्य वसुनन्दि (कम्मणिज्जरण हेऊ) कर्मनिर्जरा का कारण है, (तं) वह, (सुद्धं) शुद्ध, (सम्मतं होइ) सम्यग्दर्शन होता है । । ५१ ।। अर्थ- जो शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित है, निःशंकित, निःकांक्षित आदि गुणों से सहित है और कर्म निर्जरा का कारण है, वह शुद्ध (निर्मल) सम्यग्दर्शन जानना चाहिये। सम्यग्दर्शन के अभाव में ऐसी निर्जरा नहीं हो सकती, जो जीव को व्यख्या सुखी कर सके। आचार्य शिवकोटी सम्यग्दर्शन का महत्त्व बताते हुए लिखते हैं विरत्या संयमनापि हीनः सम्यक्त्यवान्नरः । सुदैवं याति कर्माणि शीर्णयत्येव सर्वदा ।। १० ।। अर्थ — व्रत और संयम से हीन सम्यग्दृष्टि जीव भी निरन्तर पुण्यकर्मों का श्र और पाप कर्मों का विनाश करता है। पाँच पापों से विरक्त होना, व्रत है तथा पञ्चेन्द्रिय व मन को वश करना और षट्कायिक जीवों की विराधना नहीं करना, सो संयम है। यदि सम्यग्दृष्टि जीव इनसे रहित हो (अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान वर्ती जीव नियमतः व्रत संयम से हीन होता है) तो भी वह सुदैव को प्राप्त करता है । इस श्लोक में दैव शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दैव का अर्थ भाग्य करने पर सम्यग्दृष्टि सौभाग्यशाली होता है, ऐसा अर्थ होगा। इससे सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थङ्कर चक्रवर्ती-बलभद्र-कामदेव आदि महापुरुष होगा, ऐसा अर्थ ध्वनित होता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार - ओजस्तेजो विद्या वीर्ययशो वृद्धि विजय विभवसनाथाः । महाकुला महार्था, मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३६) अर्थ — सम्यग्दर्शन से पवित्र जीव यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तो ओज, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और वैभव से संयुक्त महान कुलों में उत्पन्न होने वाले, महान पुरुषार्थी, मनुष्य शिरोमणि होते हैं । दैव शब्द का अर्थ पर्याय करने पर सुदैव का अर्थ अच्छी देव पर्याय अर्थात् विमानवासी देवपर्याय, यह अर्थ ध्वनित होता है। उमास्वामी के ‘सम्यकत्वं च।' (तत्त्वार्थसूत्र, ६ / २१) के आधार पर टीकाकार आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि -- Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (६७) आचार्य वसुनन्दि "अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मा विशेषगतिः पृथक्करणात्।। सम्यक्त्वं दैवस्यायुष आश्रव इत्यभिधानेऽपि सौधर्मादि विशेषगतिर्भवति। कुतः? पृथक्करणात्। (राजवार्तिक ६/२१/१) अर्थ- विशेष कथन न होने पर भी पृथक् सूत्र होने से सौधर्मादि विशेष गति जाननी चाहिए। सम्यक्त्व देवायु के आस्रव का कारण है। ऐसा सामान्यकथन होने पर भी सम्यग्दर्शन सौधर्मादि कल्पवासी देव सम्बन्धी आयु के आश्रव का कारण है, यह समझना चाहिए, क्योंकि पृथक् सूत्र से यह ज्ञात होता है। चतुर्थ गुणस्थान में भी अनन्त संसार की कारणभूत कर्म प्रकृतियों का आश्रव नहीं होता। सम्यग्दर्शन के होने पर ४१ कर्म प्रकृतियों का बंध रुक जाता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में विच्छिन्न होने वाली १६ प्रकृतियाँ- मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तामृपाटिका संहनन, एकेन्द्रियजाति, विकलत्रयतीन, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरकगति नरकागत्यानुपूर्वी, नरकायु। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान में बन्धव्युच्छिन्न होने वाली २५ प्रकृतियाँ हैंअनन्तानुबंधी,क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्यानगृद्धी, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, वज्रनाराचसंहनम, नाराचसंहनन अर्धनाराचसंहनन, कीलकसंहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु, उद्योत। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९५-९६) एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुका जीव अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक काल संसार में नहीं भटकता, यह सम्यग्दर्शन का महत्त्व है।।५१।। आठ अंगों में प्रसिद्ध होने वालों के नाम रायगिहे णिस्संको चोरो णामेण अंजणो भणिओ। चंपाए णिक्कंखा वणिगसुदा गंतमइणामा।। ५२।। णिविदिगिच्छो राओ उहायणु णाम रुहवरणयरे। रेवइ महुराणयरे अमूढदिट्ठी मुणेयव्या।। ५३।। ... १. झ प्रतौ पाठोऽयमधिक:- ‘अतोगाथाषट्कं भावसंग्रहग्रंथात्। भावसंग्रह गा. २८०-२८३. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (६८) आचार्य वसुनन्दि) ठिदि-यरण-गुण-पउत्तो मागहणयरम्हि वारिसेणो दु। हथणापुरम्हि णयरे वच्छल्लं विण्हुणा रइयं ।। ५४।। उवगृहणगुण जुत्तो जिणयत्तो तामलित्त णयरीए। वज्जकुमारेण कया पहावणा चेव महुराए ।। ५५।। (चतुष्कं) अन्वयार्थ- (रायगिहे) राजगृह नगर में, (अंजणो णामेण चोरो) अंजन नाम का चोर, (णिस्संको) निःशंक, (भणिओ) कहा गया है। (चंपाए) चम्पानगरी में, (णंतमइ णामा वणिदसुगा) अनन्तमति नाम की वणिक् पुत्री, (णिक्कंखा) निःकांक्ष, (रुहवरणयरे) रूद्दवर नगर में, (उद्दायणु णाम राओ) उद्दायन नाम का राजा, (णिव्विदिगिच्छो) निर्विचिकित्सा, (महुराणयरे) मथुरा नगर में, (रेवड़) रेवती . (रानी), (अमूढ-दिट्ठी) अमूढ़दृष्टि, (मुणेयव्वा) जानना चाहिये। (मागह-णयरम्हि) मागध नगर में, (वारिसेणो दु) वारिषेण राजकुमार, (ठिदि-यरणगुणपउत्तो) स्थितिकरण गुण को प्राप्त हुआ, (हथणापुरम्हि पयरे) हस्तिनापुर नगर में, (विण्हुणा) विष्णु के द्वारा, (वच्छल्लं) वात्सल्य, (रइयं) प्रकट किया गया, (तामलित्तणयरीए) ताम्रलिप्त नगरी में, (जिणयत्तो) जिनदत्त, (उवगृहण-गुण-जुतो) उपगृहनगुण से युक्त हुआ है।, (चेव) और इसी प्रकार, (महुराए) मथुरा नगर में, (वज्जकुमारेण) वज्रकुमार के द्वारा, (पहावणा) प्रभावना अंग, (प्रकट) किया।।५२-५५।। ____ भावार्थ- राजगृह नगर में रहने वाला अंजन नामक चोर निःशंकित अंग में प्रसिद्ध हुआ है। चम्पापुर नगरी में रहने वाली श्रेष्ठीपत्री अनन्तमति निःकांक्षित अंग में प्रसिद्ध हुई है। रूद्रवर नामक नगर में राज्य करने वाला राजा उद्दायन निर्विचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध हुआ है। मथुरानगर के महाराज की रानी रेवती अमूढदृष्टि अंग में प्रसिद्ध जानना चाहिये। मागधनगर (राजगृह) के महाराजा श्रेणिक के पुत्र राजकुमार वारिषेण स्थितिकरण गुण को प्राप्त हुए। हस्तिनापुर नगरी में विष्णु कुमार मुनि ने वात्सल्य गुण का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया। ताम्रलिप्त नगरी के नगर श्रेष्ठी जिनदत्त ने उपगूहन गुण में प्रसिद्धि प्राप्त की और मथुरा नगरी में वज्रकुमार मुनि ने महती धर्म प्रभावना कराकर महान् प्रभावना गुण को प्राप्त किया। इस प्रकार एक-एक अंग में प्रसिद्ध अंगों के नाम सहित आठ व्यक्तियों के नाम, घटनास्थान और अन्य भावों को ग्रन्थकार ने यहाँ प्रस्तुत किया है।।५२-५५।। (१) अञ्जन चोर की कथा धन्वन्तरि और विश्वलोमा पुण्य कर्म के प्रभाव से अमित पुत्र और विद्युत्प्रभ नाम के देव हुए और एक दूसरे के धर्म की परीक्षा करने के लिए पृथिवीलोक पर आये। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (६९) आचार्य वसुनन्दि तदनन्तर उन्होंने यमदग्नि ऋषि को तप से विचलित किया। मगध देश के राजगृह नगर में जिनदत्त नाम का सेठ उपवास का नियम लेकर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को श्मसान में कायोत्सर्ग से स्थित था । उसे देखकर अमितपुत्र देव ने विद्युत्प्रभ से कहा कि हमारे मुनि दूर रहे इस गृहस्थ को ही तुम ध्यान से विचलित करो। तदनन्तर विद्युत्प्रभ देव ने उस पर अनेक प्रकार के उपसर्ग किये, फिर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। तदनन्तर प्रात:काल अपनी माया को समेट कर विद्युत् प्रभ ने उसकी बहुत प्रशंसा की और उसे आकाशगामिनी विद्या दी। विद्या प्रदान करते समय उससे कहा कि तुम्हें यह विद्या सिद्ध हो चुकी है। दूसरे के लिए पञ्च नमस्कार मन्त्र की अर्चना और आराधना की विधि से सिद्ध होगी। जिनदत्त के यहाँ सोमदत्त नाम का एक ब्रह्मचारी वटु रहता था, जो जिनदत्त के लिए फूल लाकर देता था। एक दिन उसने जिनदत्त सेठ से पूछा कि आप प्रात:काल ही उठ कर कहाँ जाते है ? सेठ ने कहा कि मैं अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना भक्ति करने के लिये जाता हूँ । मुझे इस प्रकार से आकाशगामिनी विद्या का लाभ हुआ हैं। सेठ के ऐसा कहने पर सोमदत्त वटु ने कहा कि मुझे भी यह विद्या देओ जिससे मैं भी तुम्हारे साथ पुष्पादिक लेकर वन्दना भक्ति करूँगा । तदनन्तर सेठ ने उसके लिए विद्या सिद्ध करने की विधि बतलाई । सोमदत्त वटु ने कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान में वटवृक्ष की पूर्व दिशा वाली शाखा पर एक सौ आठ रस्सियों का एक मूँज का सीका बाँधा, उसके नीचे सब प्रकार के पैने शस्त्र ऊपर की ओर दो कर रखें पश्चात् गंध, पुष्प आदि लेकर सींके के बीच प्रविष्ट हो उसने वेला दिन के उपवास का नियम लिया। फिर पञ्चनमस्कार मन्त्र का उच्चारण कर छुरी से सींके की एक-एक रस्सी को काटने के लिए तैयार हुआ । परन्तु नीचे चमकते हुए शस्त्रों के समूह को देखकर वह डर गया तथा विचार करने लगा कि यदि सेठ के वचन असत्य तो मरण हो जावेगा। इस प्रकार शङ्कित चित्त होकर वह सीके पर बार-बार चढ़ने और उतरने लगा। मुख - उसी समय राजगृही नगरी में एक अञ्जन सुन्दरी नाम की वेश्या रहती थी। एक दिन. उसने कनकप्रभ राजा की कनका रानी का हार देखा। रात्रि को जब अञ्जन चोर उस वेश्या के यहाँ गया तब उसने कहा कि यदि तुम मुझे कनका रानी का हार दे सकते हो तो मेरे भर्ता बन सकते हो अन्यथा नहीं। तदनन्तर अञ्जन चोर रात्रि में हार चुराकर आ रहा था कि हार के प्रकाश से वह जान लिया गया। अंगरक्षकों और कोटपालने उसे पकड़ना चाहा, परन्तु वह हार छोड़कर भाग गया। वटवृक्ष के नीचे सोमदत्त बटुक को देखकर उसने उससे सब समाचार पूछा तथा उससे मन्त्र लेकर वह सीके पर चढ़ गया। उसने निःशङ्कित होकर उस विधि से एक ही बार में सींके की सब रस्सिया काट दी। ज्योंही वह शस्त्रों के ऊपर गिरने लगा त्यों ही विद्या सिद्ध हो गई। सिद्ध हुई विद्या ने उससे कहा कि मुझे आज्ञा दो। अञ्जन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (७०) आचार्य वसुनन्दि ले चलो। उस समय जिनदत्त सेठ सुदर्शन मेरु के चैत्यालय में स्थित था। विद्या ने अञ्जन चोर को ले जाकर सेठ के आगे खड़ा कर दिया। अपना पिछला वृतान्त कह कर अञ्जन चोर ने सेठ से कहा कि आपके उपदेश से मुझे जिस प्रकार यह विद्या सिद्ध हुई है। उसी प्रकार परलोक की सिद्धि के लिये भी आप मुझे उपदेश दीजिये। तदनन्तर चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के पास दीक्षा लेकर उसने कैलास पर्वत पर तप किया और केवलज्ञान प्राप्त कर वहीं से मोक्ष प्राप्त किया। (२) अनन्तमती की कथा अंग देश की चम्पानगरी में राजा वसुवर्धन रहते थे। उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। प्रियदत्त नाम का सेठ था, उसकी स्त्री का नाम अंगवती था और दोनों के अनन्तमती नाम की पुत्री थी। एक बार नन्दीश्वर-अष्टाह्निक पर्व की अष्टमी के दिन सेठ ने धर्मकीर्ति आचार्य के पाद मूल में आठ दिन तक का ब्रह्मचर्य व्रत लिया। सेठ ने क्रीड़ावश अनन्तमती को भी ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया। अन्य समय जब अनन्तमती के विवाह का अवसर आया तब उसने कहा कि पिताजी! आपने तो मुझे ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया था, इसलिये विवाह से क्या प्रयोजन है? सेठ ने कहा- मैंने तो तुझे क्रीड़ावश ब्रह्मचर्य दिलाया था, न कि सदा के लिये। अनन्तमती ने कहा कि पिताजी, भट्टारक महाराज ने तो वैसा नहीं कहा था। इस जन्म में मेरा विवाह त्याग है। ऐसा कहकर वह समस्त कलाओं के विज्ञान की शिक्षा लेती हुई रहने लगी। एक बार जब वह पूर्ण यौवनवती हो गई तब चैत्र मास में अपने घर के उद्यान में झूला-झूल रही थी उसी समय विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थित किन्नरपुर नगर में रहने वाला कुण्डलमण्डित नामक विद्याधरों का राजा अपनी सुकेशी नामक स्त्री के साथ आकाश में जा रहा था। उसने उस अनन्तमती को देखा। देखते ही वह विचार करने लगा कि इसके बिना जीवित रहने से क्या प्रयोजन है? ऐसा विचार कर वह अपनी स्त्री को तो घर पर छोड़ आया और शीघ्र ही आकर विलाप करती हुई अनन्तमती को हर ले गया। जब वह आकाश में जा रहा था तब उसने अपनी स्त्री सुकेशी को वापिस आती देखा। देखते ही वह . भयभीत हो गया और उसने पर्णलघु विद्या देकर अनन्तमती को महा अटवी में छोड़ दिया। वहां उसे रोती देख भीम नामक भीलों का राजा अपने वसति में ले गया और मैं तुम्हें प्रधान रानी का पद देता हूँ। तुम मुझे चाहो ऐसा कहकर रात्रि के समय उसके न चाहने पर भी उपभोग करने के लिए उद्यत हुआ व्रत के माहात्म्य से वन देवता ने उस भीलों के राजा की अच्छी पिटाई की। ‘यह कोई देवी है', ऐसा समझ कर भीलों का राजा डर गया और उसने वह अनन्तमती बहुत से बनिजारों के साथ ठहरे हुए पुष्पक नामक प्रमुख बनिजारे के लिये दे दी। प्रमुख बनिजारे ने लोभ दिखाकर विवाह करने की इच्छा की, परन्तु अनन्तमती ने उसे स्वीकृत नहीं किया। तदनन्तर वह बनिजारा उसे लाकर अयोध्या की कामसेना नाम की वेश्या को सौंप गया। कामसेना ने उसे वेश्या Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (७१) आचार्य वसुनन्दि बनाना चाहा, पर वह किसी भी तरह वेश्या नहीं हुई । तदनन्तर उस वेश्या ने सिंहराज नामक राजा के लिये वह अनन्तमती दिखलाई और वह राजा रात्रि में उसे बलपूर्वक सेवन करने के लिये उद्यत हुआ, परन्तु उसके व्रत के महात्म्य से नगर देवता ने राजा के ऊपर उपसर्ग किया, जिससे डरकर उसने उसे घर से निकाल दिया। खेद के कारण अनन्तमती रोती हुई बैठी थी कि कमलश्री नाम की आर्यिका ने यह श्राविका है; ऐसा मानकर बड़े सम्मान के साथ उसे अपने पास रख लिया । तदनन्तर अनन्तमती का शोक भुलाने के लिये प्रियदत्त सेठ बहुत से लोगों के साथ वन्दना भक्ति करता हुआ अयोध्या गया और अपने साले जिनदत्त सेठ के घर सन्ध्या के समय पहुँचा। वहां उसने रात्रि के समय पुत्री के हरण का समाचार कहा । प्रात:काल होने पर सेठ प्रियदत्तं तो वन्दना भक्ति करने के लिये गये। इधर जिनदत्त सेठ की स्त्री ने अत्यन्त गौरवशाली पाहुने के निमित्त उत्तम भोजन बनाने और घर में चौक पूरने के लिये कमलश्री आर्यिका की श्राविका को बुलवा लिया। वह श्राविका सब काम करके अपनी वसतिका में चली गई । वन्दना भक्ति करके जब प्रियदत्त सेठ वापिस आये तब चौक देखकर उन्हें अनन्तमती का स्मरण हो आया, उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। गद् गद् वचनों से अश्रुपात करते हुए उन्होंने कहा कि जिसने यह चौक पूरा है उसे मुझे दिखलाओं । तदनन्तर वह श्राविका बुलाई गई। पिता और पुत्री का मेल होने पर जिनदत्त सेठ ने बहुत भारी उत्सव किया। अनन्तमती ने कहा कि पिताजी! अब मुझे तप दिला दो, मैंने एक ही भव में संसार की विचित्रता देख ली है । तदनन्तर कमलश्री आर्यिका के पास दीक्षा लेकर उसने बहुत काल तप किया। अन्त में संन्यासपूर्वक मरण कर उसकी आत्मा सहस्रार स्वर्ग में देव हुई। (३) उद्दायन राजा की कथा एक बार अपनी सभा में सम्यग्दर्शन के गुणों का वर्णन करते हुए सौधर्मेन्द्र ने वत्सदेश के रौरकपुर नगर के राजा उद्दायन महाराज के निर्विचिकित्सित गुण की बहुत प्रशंसा की। उसकी परीक्षा करने के लिये एक वासव नाम का देव आया उसने विक्रिया से एक ऐसे मुनि का रूप बनाया जिसका शरीर उदुम्बर कुष्ठ से गलित हो रहा था । उस मुनि ने विधिपूर्वक खड़े होकर उसी राजा उद्दायन के हाथ से दिया हुआ समस्त आहार और जल माया से ग्रहण किया। पश्चात् अत्यन्त दुर्गन्धित वमन कर दिया। दुर्गन्ध के भय से परिवार के सब लोग भाग गये, परन्तु राजा उद्दायन अपनी रानी प्रभावती के साथ मुनि की परिचर्या करता रहा। मुनि ने उन दोनों के ऊपर वमन कर दिया। हाय-हाय मेरे द्वारा विरुद्ध आहार दिया गया है। इस प्रकार अपनी निन्दा करते हुए राजा ने मुनि के अंगों का प्रक्षालन किया। अन्त में देव अपनी माया को समेट कर असली रूप में प्रकट हुआ और पहले का सब समाचार कहकर तथा राजा की प्रशंसा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (७२) आचार्य वसुनन्दि कर स्वर्ग चला गया। उद्दायन महाराज वर्धमान स्वामी के पाद मूल में तप ग्रहण कर मोक्ष गये और रानी प्रभावती तप के प्रभाव से ब्रह्मस्वर्ग में देव हुई। (४) रेवती रानी की कथा विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी सम्बन्धी मेघकूट नगर का राजा चन्द्रप्रभ अपने चन्द्रशेखर पुत्र के लिये राज्य देकर, परोपकार तथा वन्दना-भक्ति के लिये कुछ विद्याओं को धारण करता हुआ दक्षिण मथुरा गया और वहाँ गुप्ताचार्य के समीप क्षुल्लक हो गया। एक समय वह क्षुल्लक, वन्दना-भक्ति के लिये उत्तर मथुरा की ओर जाने लगा। जाते समय उसने गुप्ताचार्य से पूछा कि क्या किसी से कुछ कहना है? भगवान् गुप्ताचार्य ने कहा कि सुव्रतमुनि को वन्दना और वरुण राज की महारानी रेवती के लिये आशीर्वाद कहने के योग्य है। क्षुल्लक ने तीन बार पूछा फिर भी उन्होंने इतना ही कहा। तदनन्तर क्षुल्लक ने कहा कि वहाँ ग्यारह अंग के धारक भव्य सेनाचार्य तथा अन्य धर्मात्मा लोग भी रहते है। उनका आप नाम भी नहीं लेते है। उसमें कुछ कारण अवश्य होगा, ऐसा विचार कर क्षुल्लक उत्तर मथुरा गया। वहाँ जाकर उसने सुव्रत मुनि के लिए भट्टार की वन्दना कही। सुव्रत मुनि ने परम वात्सल्य भाव दिखलाया। उसे देखकर वह भव्य सेन की वसतिका में गया। क्षुल्लक के वहाँ पहुँचने पर भव्यसेन ने उससे सम्भाषण भी नहीं किया। भव्य सेन, शौच के लिये बाहर जा रहे थे, सो क्षुल्लक उनका कमण्डलु लेकर उनके साथ बाह्य भूमि में गया और विक्रिया से उसने आगे ऐसा मार्ग दिखाया जो कि हरे-हरे कोमल तृणों के अंकुरों से आच्छादित था। उस मार्ग को देखकर क्षुल्लक ने कहा भी कि आगम में ये सब जीव कहे गये है। भव्यसेन आगम पर अरुचि-अश्रद्धा दिखाते हुए तृणों पर चले गये। क्षुल्लक ने विक्रिया से कमण्डलु का पानी सुखा दिया। जब शद्धि का समय आया तब कमण्डल में पानी नहीं है तथा कहीं कोई विक्रिया भी नहीं दिखाई देती है, यह देख वे आश्चर्य में पड़ गये। तदनन्तर उन्होंने स्वच्छ सरोवर में उत्तम मिट्टी से शुद्धि की। इन सब क्रियाओं से उन्हें मिथ्यादृष्टि जानकर क्षुल्लक ने भव्यसेन का अभव्यसेन नाम रख दिया तदनन्तर दूसरे दिन पूर्व दिशा में पद्मासन . पर स्थित चार मुखों से सहित यज्ञोपवीत आदि से युक्त तथा देव और दानवों से वन्दित ब्रह्मा का रूप दिखाया। राजा तथा भव्यसेन आदि लोग वहाँ गये, परन्तु रेवती रानी लोगों से प्रेरित होने पर भी नहीं गई। वह यही कहती रही कि यह ब्रह्म नाम का देव कौन है? इसी प्रकार दक्षिण दिशा में गरुड़ के ऊपर आरूढ़ चार भुजाओं से सहित तथा गदा, शंख आदि के धारक नारायण का रूप दिखाया। पश्चिम दिशा में बैल पर आरुढ़ तथा अर्धचन्द्र जटा-जूट, पार्वती और गणों से सहित शंकर का रूप दिखाया उत्तर दिशा में समवसरण के मध्य में आठ प्रातिहार्यों से सहित सुर-नर, विद्याधर और मुनियों के समूह से वन्द्यमान पर्यंकासन से स्थित तीर्थङ्कर देव का रूप दिखाया। वहाँ सब लोग गये, परन्तु रेवती रानी लोगों के द्वारा प्रेरणा की जाने पर भी नहीं गई। वह Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (७३) आचार्य सुन्द यही कहती रही कि नारायण नौ ही होते है। रूद्र ग्यारह ही होते है और तीर्थङ्कर चौबीस होते है ऐसा जिनागम में कहा गया है। और वे सब हो चुके है। यह तो कोई मायावी है। दूसरे दिन चर्या के समय उसने एक ऐसे क्षुल्लक का रूप बनाया, जिसका शरीर बीमारी से क्षीण हो गया था। वह रेवती रानी के घर के समीपवर्ती मार्ग में मायामयी मूर्च्छा से पड़ रहा। रेवती रानी ने जब यह समाचार सुना तब वह भक्तिपूर्वक उठाकर ले गई उसका उपचार किया और पथ्य कराने के लिए उद्यत हुई, उस क्षुल्लक ने सब आहार कर दुर्गन्ध से युक्त वमन कर दिया। रानी ने वमन दूर कर कहा हाय मैंने प्रकृति विरुद्ध अपश्य आहार दिया। रेवती रानी के उक्त वचन सुनकर क्षुल्लक ने सन्तोष से सब माया को संकोच कर उसे गुप्ताचार्य को परोक्ष वन्दना कराकर उनका आशीर्वाद कहा और लोगों के बीच उसकी अमूढ़ दृष्टिता की खूब प्रशंसा की। यह सब कर क्षुल्लक अपने स्थान पर चला गया। राजा वरुण शिवकीर्ति पुत्र के लिये राज्य देकर तथा तप ग्रहण कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ तथा रेवती रानी भी तप कर ब्रह्म स्वर्ग में देव हुई। (५) जिनेन्द्र भक्त सेठ की कथा सुराष्ट्र देश के पाटलिपुत्र नगर में राजा यशोधर रहता था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था। उन दोनों के सुवीर नाम का पुत्र था। सुवीर सप्त व्यसनों से अभिभूत था तथा ऐसे ही चोर पुरुष उसकी सेवा करते थे। उसने कानो कान सुना कि पूर्व गौड़ देश की ताम्रलिप्त नगरी में जिनेन्द्र भक्त सेठ के सतखण्डा महल के ऊपर अनेक रक्षकों से सहित श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा के ऊपर जो छत्रत्रय लगा है। उस पर एक विशेष प्रकार का अमूल्य वैडूर्य मणि संलग्न है। लोभवश उस सुवीर ने अपने पुरुषों से पूछा कि क्या कोई उस मणि को लाने के लिये समर्थ है ? सूर्य नामक चोर ने गला फाड़कर कहा कि यह तो क्या है मैं इन्द्र के मुकुट का मणि भी ला सकता हूँ। इतना कहकर वह कपट से क्षुल्लक बन गया और अत्यधिक कायक्लेश से ग्राम तथा नगरी में क्षोभ करता हुआ क्रम से ताम्रलिप्त नगरी पहुँच गया। प्रशंसा से क्षोभ को प्राप्त हुए जिनेन्द्र भक्त सेठ ने जब सुना तब वह जाकर दर्शन कर वन्दना कर तथा वार्तालाप कर उस क्षुल्लक को अपने घर ले आया। उसने पार्श्वनाथ देव के उसे दर्शन कराये और माया से न चाहते हुए भी उसे मणि का रक्षक बनाकर वही रख लिया। एक दिन क्षुल्लक से पूछकर सेठ समुद्र यात्रा के लिये चला और नगर से बाहर निकल कर ठहर गया । वह चोर क्षुल्लक घर के लोगों को सामान ले जाने में व्यग्र जानकर आधी रात के समय उस मणि को लेकर चलता बना। मणि के तेज से मार्ग में कोतवालों ने उसे देख लिया और पकड़ने के लिये उसका पीछा किया। कोतवालों से बचकर भागने में असमर्थ हुआ वह चोर क्षुल्लक सेठ की ही शरण में जाकर कहने लगा कि मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। कोतवालों का कल-कल शब्द सुनकर तथा पूर्वापर विचार कर सेठ ने जान लिया कि यह चोर है, परन्तु धर्म का उपहास बचाने के लिये उसने कहा कि यह मेरे कहने से Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (७४) आचार्य वसुनन्दि ही रत्न लाया है, आप लोगों ने अच्छा नहीं किया, जो इस महा तपस्वी को चोर घोषित किया । तदनन्तर सेठ के वचनों को प्रमाण मानकर कोतवाल चले गये और सेठ ने उसे रात्रि के समय निकाल दिया। इसी प्रकार अन्य सम्यग्दृष्टि को भी असमर्थ और अज्ञानी जनों से आये हुए धर्म के दोष का आच्छादन करना चाहिये । (६) वारिषेण की कथा मगध देश के राजगृह नगर में राजा श्रेणिक रहता था। उसकी रानी का नाम चेलिनी था। उन दोनों के वारिषेण नाम का पुत्र था। वारिषेण उत्तम श्रावक था । एक बार वह उपवास धारणकर चतुर्दशी की रात्रि में श्मशान में कायोत्सर्ग से खड़ा था। उसी दिन बगीचे में गई हुई मगध सुन्दरी नामक वेश्या ने श्रीकीर्ति सेठानी के द्वारा पहिना हुआ हार देखा। तदनन्तर उस हार को देखकर 'इस आभूषण के बिना मुझे जीवन से क्या प्रयोजन है', ऐसा विचार कर वह शय्या पर पड़ी रही। उस वेश्या में आसक्त विद्युच्चोर जब रात्रि के समय उसके घर आया तब उसे शय्या पर पड़ी देख बोला कि हे प्रिये इस तरह क्यों पड़ी हो ? वेश्या ने कहा कि यदि श्रीकीर्ति सेठानी का हार मुझे देते हो तो मैं जीवित रहूँगी और तुम मेरे पति होओगे अन्यथा नहीं। वेश्या के यह वचन सुनकर तथा उसे आश्वासन देकर विद्युच्चोर आधी रात के समय श्रीकीर्ति सेठानी के घर गया और अपनी चतुराई से हार चुराकर बाहर निकल आया। हार के प्रकाश से यह चोर है, ऐसा जानकर गृह के रक्षकों तथा कोतवालों ने उसे पकड़ना चाहा। जब वह चोर भागने में असमर्थ हो गया तब वारिषेण कुमार के आगे उस हार को डालकर छिपकर बैठ गया। कोतवालों ने उस हार को वारिषेण के आगे पड़ा देखकर राजा श्रेणिक से कह दिया कि राजन्! वारिषेण चोर है । यह सुनकर राजा ने कहा कि इस मूर्ख का मस्तक छेदकर लाओ। चाण्डाल ने वारिषेण का मस्तक काटने के लिये जो तलवार चलाई वह उसके गले में फूलों की माला बन गई। उस अतिशय को सुन कर राजा श्रेणिक ने जाकर वारिषेण से क्षमा कराई। विद्युच्चोर ने अभयदान पाकर राजा से जब अपना सब वृत्तान्त कहा तब वह वारिषेण को घर ले जाने के लिये उद्यत हुआ। परन्तु वारिषेण ने कहा कि अब तो मैं पाणिपात्र में भोजन करूँगा अर्थात् दिगम्बर मुनि बनूँगा। तदनन्तर वह सूरसेन गुरु के समीप मुनि हो गया। एक समय वह मुनि राजगृह के समीपवर्ती पलाशकूट ग्राम में चर्या के लिये प्रविष्ट हुए। वह राजा श्रेणिक के अग्निभूति मंत्री के पुत्र पुष्पडालने उन्हें पड़गाहाचर्या कराने के बाद वह अपनी सोमिल्ला नामक स्त्री से पूछकर स्वामी का पुत्र तथा बाल्य काल का मित्र होने के कारण कुछ दूर तक भेजने के लिए वारिषेण मुनि के साथ चला गया। अपने लौटने के अभिप्राय से वह क्षीर वृक्ष आदि को दिखाता तथा बार-बार मुनि को वन्दना करता था। परन्तु मुनि हाथ पकड़ कर उसे साथ ले गये और धर्म का विशिष्ट उपदेश सुनाकर तथा वैराग्य उपजाकर उन्होंने उसे तप ग्रहण करा दिया। तप धारण करने पर भी वह सोमिल्ला स्त्री को नहीं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (७५) आचार्य सुन्द भूलता था। पुष्पडाल और वारिषेण दोनों ही मुनि बारह वर्ष तक तीर्थ यात्रा कर भगवान् वर्धमान स्वामी के समवसरण में पहुँचे। वहाँ वर्धमान स्वामी और पृथिवी से सम्बन्ध रखने वाला एक गीत देवों के द्वारा गाया जा रहा था उसे पुष्पडालने सुना। गीत का भाव यह था कि जब पति प्रवास को जाता है तब स्त्री खिन्न चित्त होकर मैली कुचैली रहती है, परन्तु जब वह घर छोड़कर ही चल देता है तब वह कैसे जीवित रह सकती है ? पुष्पडालने यह गीत अपने तथा सोमिल्ला के सम्बन्ध में लगा लिया इसलिये वह उत्कण्ठित होकर चलने लगा । वारिषेण मुनि यह जानकर उसका स्थितिकरण करने के लिये उसे अपने नगर ले गये । चेलिनी ने उनदोनों मुनियों को देखकर विचार किया कि वारिषेण क्या चारित्र से विचलित होकर आ रहा है? परीक्षा करने के लिये उसने दो आसन दिये - एक सराग और दूसरा वीतराग । वारिषेण ने वीतराग आसन पर बैठकर कहा कि हमारा अन्तःपुर बुलाया जावे। महारानी चेलिनी ने आभूषणों से सजी हुई उसकी बत्तीस स्त्रियाँ बुलाकर खड़ी कर दी । तदनन्तर वारिषेण ने पुष्पडाल से कहा कि ये स्त्रियाँ और मेरा युवराज पद तुम ग्रहण करो। यह सुनकर पुष्पडाल अत्यन्त लज्जित होता हुआ उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त हुआ। परमार्थ से तप करने लगा। (७) विष्णु कुमार मुनि की कथा • अवन्तिदेश की उज्जयिनी नगरी में राजा श्रीवर्मा राज्य करता था। उसके बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि ये चार मन्त्री थे । वहाँ एक समय शास्त्रों के आचार, दिव्य ज्ञानी तथा सात सौ मुनियों से सहित अकम्पनाचार्य ने आकर उद्यान में ठहर गये। अकम्पनाचार्य समस्त संघ को मना कर दिया कि राजादिक के आने पर किसी के साथ .: वार्तालाप न किया जावे, अन्यथा समस्त संघ का नाश हो जावेगा। राजा अपने धवल गृह पर बैठा था, वहाँ से उसने पूजा की सामग्री हाथ में लेकर जाते हुए नागरिकों को देखकर मन्त्रियों से पूछा कि ये लोग कहाँ जा रहे है, यह यात्रा का समय तो है नहीं। मन्त्रियों ने कहा कि नगर के बाहिर उद्यान में बहुत से नग्न साधु आये हैं। वहीं ये लोग जा रहे है। राजा ने कहा कि हम भी उन्हें देखने के लिए चलते है। ऐसा कहकर राजा मन्त्रियों सहित वहाँ गया। एक-एक कर समस्त मुनियों की वन्दना राजा ने की, परन्तु किसी ने भी आशीर्वाद नहीं दिया। दिव्य अनुष्ठान के कारण ये साधु अत्यन्त निःस्पृह हैं। ऐसा विचार कर जब राजा लौटा तो खोटा अभिप्राय रखने वाले मन्त्रियों ने यह कह कर उन मुनियों का उपहास किया कि ये बैल है, कुछ भी नहीं जानते है, मूर्ख है, इसीलिये छल से मौन लेकर बैठे है। ऐसा कहते हुए मन्त्री राजा के साथ जा रहे थे कि उन्होंने आगे चर्या कर आते हुए श्रुतसागर मुनि को देखा। देखकर कहा कि यह तरुण बैल पेटभर कर आ रहा है। यह सुनकर उन मुनि ने राजा के मन्त्रियों से शास्त्रार्थ कर उन्हें हरा दिया। वापिस आकर मुनि ने यह सब समाचार अकम्पनाचार्य से कहा। अकम्पनाचार्य ने कहा कि तुमने समस्त संघ को मरवा दिया। यदि शास्त्रार्थ के स्थान Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (७६) आचार्य वसुनन्दि) पर जाकर तुम.रात्रि को अकेले खड़े रहते हो तो संघ जीवित रह सकता है और तुम्हारे अपराध की शुद्धि हो सकती है। तदनन्तर श्रुतसागर मुनि वहाँ जाकर कायोत्सर्ग से स्थित हो गये। अत्यन्त लज्जित और क्रोध से भरे हुए मन्त्री रात्रि में समस्त संघ को मारने के लिये जा रहे थे कि उन्होंने कायोत्सर्ग से खड़े हए उन मुनिको देखकर विचार किया कि जिसने हमलोगों का पराभव किया है वही मारने के योग्य है। ऐसा विचार कर चारों मन्त्रियों ने मुनि को मारने के लिये एक साथ खड्ग ऊपर उठाये। परन्तु जिसका आसन कम्पित हुआ था, ऐसे नगर देवता ने आकर उन सबको उसी अवस्था में कील दिया। प्रात:काल सब लोगों ने उन मन्त्रियों को उसी प्रकार कीलित देखा। मन्त्रियों की इस कुचेष्टा से राजा बहुत क्रुद्ध हुआ, परन्तु ये मन्त्री वंश परम्परा से चले आ रहे है। यह विचार कर उन्हें मारा तो नहीं सिर्फ गर्दभारोहण आदि कराकर निकाल दिया। तदनन्तर कुरु जांगल देश के हस्तिनापुर नगर में राजा महापद्म राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था उनके दो पुत्र थे - पद्म और विष्णु। एक समय राजा महापद्म, पद्म नामक पुत्र को राज्य देकर विष्णु नामक पुत्र के साथ श्रुतसागरचन्द नामक आचार्य के पास मुनि हो गये। वे बलि आदिक आकर पद्म राजा के मन्त्री बन गये।उसी समय कुम्भपुर के दुर्ग में राजा सिंहबल रहता था। वह अपने दुर्ग के बल से राजा पद्म के देश में उपद्रव करता था। राजा पद्म उसे पकड़ने को चिन्ता में दुर्बल होता जाता था। उसे दुबला देख एक दिन बलि ने कहा कि देव! दुर्बलता का क्या कारण है? राजा ने उसे दुर्बलता का कारण बताया।उसे सुनकर तथा आज्ञा प्राप्त कर बलि वहाँ गया और अपनी बुद्धि के माहात्म्य से दुर्ग को तोड़कर तथा सिंहबल को लेकर वापिस आ गया। उसने राजा पद्म को यह कहकर सिंहबल को सौंप दिया कि यह वही सिंहबल है। राजा पद्म ने सन्तुष्ट होकर कहा कि तुम अपना वाञ्छित वर माँगो। बलि ने कहा कि जब मागूंगा तब दिया जावे। तदनन्तर कुछ दिनों में विहार करते हुए वे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि उसी हस्तिनागपुर में आये।उनके आते ही नगर में हलचल मच गई। बलि आदि मन्त्रियों ने उन्हें पहिचान कर विचार किया कि राजा इनका भक्त है। इस भय से उन्होंने उन मुनियों को मारने के लिये राजा पद्म से अपना पहले का वर . मांगा कि हमलोगों को सात दिन का राज्य दिया जावे। तदनन्तर राजा पद्म उन्हें सात दिन का राज्य देकर अन्त:पुर में चला गया। इधर बलि ने आतापनगिरि पर कायोत्सर्ग से खड़े हुए मुनियों को बाड़ी से वेष्टित कर मण्डप लगा यज्ञ करना शुरु किया। जूंठे सकोरे बकरा आदि जीवों के कलेवर तथा धूम आदि के द्वारा मुनियों को मारने के लिये बहुत भारी उपसर्ग किया। मुनि दोनों प्रकार का संन्यास लेकर स्थिर हो गये। तदनन्तर मिथिला नगरी में आधी रात के समय बाहिर निकले हुए श्रुतसागर चन्द्र आचार्य ने आकाश में काँपते हुए श्रवण नक्षत्र को देख कर अवधिज्ञान से जानकर कहा कि महामुनियों के ऊपर महान् उपसर्ग हो रहा है। यह सुनकर पुष्पधर नामक विद्याधर क्षुल्लक ने पूछा कि कहाँ किन पर महान् उपसर्ग हो रहा है? उन्होंने कहा कि हस्तिनागपुर में Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार. (७७) आचार्य वसुनन्दि अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर। उपसर्ग कैसे नष्ट हो सकता है? ऐसा क्षुल्लक द्वारा पूछे जाने पर कहा कि धरणिभूषण पर्वत पर विक्रिया ऋद्धि के धारक विष्णुकुमार मुनि स्थित है, वे उपसर्ग को नष्ट कर सकते है। यह सुन क्षुल्लक ने उनके पास जाकर सब समाचार कहा। मुझे विक्रिया ऋद्धि है क्या? ऐसा विचार कर विष्णुकुमार मुनि ने अपना हाथ पसारा तो वह पर्वत को भेदकर दूर तकं चला गया। तदनन्तर विक्रिया का निर्णय कर उन्होंने हस्तिनागपुर जाकर राजा पद्म से कहा कि तुमने मुनियों पर उपसर्ग क्यों कराया? आपके कुल में ऐसा कार्य किसी ने नहीं किया। राजा पद्म ने कहा कि क्या करूँ मैंने पहले इसे वर दे दिया था। तदनन्तर विष्णुकुमार मुनि ने एक बौने ब्राह्मण का रूप बनाकर उत्तम शब्दों द्वारा वेदपाठ करना शुरु किया। बलि ने कहा कि तुम्हें क्या दिया जावे? बौने ब्राह्मण ने कहा कि तीन डग भूमि देओ। 'पगले ब्राह्मण! देने को बहुत है और कुछ मांग' इस प्रकार बार-बार लोगों के कहे जाने पर भी वह तीन डग भूमि ही माँगता रहा तदनन्तर हाथ में संकल्प का जल लेकर जब उसे विधिपूर्वक तीन डग भूमि दे दी गई तब उसने एक पैर मेरु पर रक्खा , दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर रक्खा और तीसरे पैर के द्वारा देव विमानों आदि में क्षोभ उत्पन्न कर उसे बलि की पीठ कर रक्खा तथा बलि को बाँधकर मुनियों का उपसर्ग दूर किया। तदनन्तर वे चारों मन्त्री राजा पद्म के भय से आकर विष्णुकुमार मुनि तथा अकम्पनाचार्य आदि मुनियों के चरणों में संलग्न हुए, चरणों से गिरकर क्षमा मांगने लगे। वे मन्त्री श्रावक बन गये। (८) वज्रकुमार मुनि की कथा हस्तिनागपुर में बल नामक राजा रहता था। उसके पुरोहित का नाम गरुड़ था। गरुड़ के एक सोमदत्त नाम का पुत्र था। उसने समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर अहिच्छत्रपुर में रहने वाले अपने मामा सुभूति के पास जाकर कहा कि मामाजी! मुझे दुर्मुख राजा के दर्शन करा दो परन्तु गर्व से भरे हुए सुभूति ने उसे राजा के दर्शन नहीं कराये। तदनन्तर हठधर्मी होकर वह स्वयं ही राजसभा में चला गया। वहाँ उसने राजा के दर्शन कर आशीर्वाद दिया और समस्त शास्त्रों की निपुणता को प्रकट कर मन्त्रिपद प्राप्त कर लिया। उसे वैसा देख सुभूति मामा ने अपनी यज्ञदता नाम की पुत्री विवाहने के लिये दे दी। एक समय वह यज्ञदता जब गर्भिणी हुई तब उसे वर्षाकाल में आम्रफल खाने का दोहला हुआ। तदनन्तर बाग-बगीचों में आम्रफलों को खोजते हुए सोमदत्त ने देखा कि जिस आम्रवृक्ष के नीचे सुमित्राचार्य ने योग ग्रहण किया है वह वृक्ष नाना फलों से फला हुआ है।उसने उस वृक्ष से फल लेकर आदमी के हाथ घर भेज दिये और स्वयं धर्मश्रवण कर संसार से विरक्त हो गया तथा तप धारण कर आगम का अध्ययन करने लगा। जब वह अध्ययन कर परिपक्व हो गया तब नाभिगिरि पर्वत पर आतपन योग से स्थित हो गया। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) आचार्य वसुनन्दि इधर यज्ञदत्ता ने पुत्र को जन्म दिया। पति के मुनि होने का समाचार सुनकर वह अपने भाई के पास चली गई । पुत्र की शुद्धि को जानकर वह अपने भाइयों के साथ नाभिगिरि पर्वत पर गई। वहाँ आतापनयोग में स्थित सोमदत्त मुनि को देखकर अत्यधिक क्रोध के कारण उसने वह बालक उनके पैरों के ऊपर रख दिया और गालियाँ देकर स्वयं घर चली गई। उसी समय अमरावती नगरी का रहने वाला दिवाकर देव नाम का विद्याधर जो कि अपने पुरन्दर नामक छोटे भाई के द्वारा राज्य से निकाल दिया गया था, अपनी स्त्री के साथ मुनि की वन्दना करने के लिये आया था। वह उस बालक को लेकर अपनी स्त्री को सौंपकर तथा उसका वज्रकुमार नाम रखकर चला गया। वह वज्रकुमार कनक नगर में विमल वाहन नामक अपने मामा के समीप समस्त विद्याओं में परगामी होकर क्रम-क्रम से तरुण हो गया । तदनन्तर गरुड़वेग और अङ्गवती की - पुत्री पवनवेगा हेमन्तपर्वत पर बड़े श्रम से प्रज्ञप्ति नाम की विद्या सिद्ध कर रही थी। उसी समय वायु से कम्पित बेरी का एक पैना काँटा उसकी आँख में जा लगा। उसकी पीड़ा से चित्त चञ्चल हो जाने से विद्या उसे सिद्ध नहीं हो रही थी। तदनन्तर वज्रकुमार ने उसे वैसा देख कुशलतापूर्वक वह काँटा निकाल दिया। काँटा निकल जाने से उसका चित्त स्थिर हो गया तथा विद्या सिद्ध हो गई । विद्या सिद्ध होने पर उसने कहा कि आपके प्रसाद से यह विद्या सिद्ध हुई है इसलिये आपही मेरे भर्त्ता हैं । ऐसा कह कर उसने वज्रकुमार को विवाह लिया। एक दिन वज्रकुमार ने दिवाकर देव विद्याधर से कहा कि तात! मैं किसका पुत्र हूँ सत्य कहिये, उसके कहने पर ही मेरी भोजनादि में प्रवृत्ति होगी। तदनन्तर दिवाकर देव ने पहले का सब वृतान्त सच - सच कर दिया। उसे सुनकर वह अपने पिता के दर्शन करने के लिये भाइयों के साथ मथुरा नगरी की दक्षिण गुहा में गया। वहाँ दिवाकर देव ने वन्दना कर वज्रकुमार के पिता सोमदत्त को सब समाचार कह दिया। समस्त भाइयों को बड़े कष्ट से विदा कर वज्रकुमार मुनि हो गया। इसी बीच में मथुरा में एक दूसरी कथा घटी। वहाँ पूतिगन्ध राजा राज्य करता था। उसकी स्त्री का नाम उर्विला था । उर्विला सम्यग्दृष्टि तथा जिनधर्म की प्रभावना में अत्यन्त लीन थी। वह प्रतिवर्ष आष्टाह्निक पर्व में तीन बार जिनेन्द्र देव की रथयात्रा करती थी। उसी नगरी में एक सागरदत्त सेठ रहता था। उसकी सेठानी का नाम समुद्रदत्ता था। उन दोनों के एक दरिद्रा नाम की पुत्री हुई। सागरदत्त के मर जाने पर एक दिन दरिद्रा दूसरे के. घर में फेके हुए भात के सींथ खा रही थी। उसी समय चर्या के लिये प्रविष्ट हुए दो मुनियों ने उसे वैसा करते हुए देखा । तदनन्तर छोटे मुनि ने बड़े मुनि से कहा कि हा बेचारी बड़े कष्ट से जीवन बिता रही है। यह सुनकर बड़े मुनि ने कहा कि यह इसी नगरी में राजा की प्रिय पट्टरानी होगी । भिक्षा के लिये भ्रमण करते हुए एक बौद्ध साधु ने मुनि राज के वचन सुनकर विचार किया कि मुनि का कथन अन्यथा नहीं होगा इसलिये वह उसे अपने विहार में ले गया और वहाँ अच्छे आहार से उसका पालन-पोषण करने लगा। एक दिन भरी जवानी में वह चैत्र मास के समय झूल रही थी कि उसे देखकर वसुनन्दि-: - श्रावकाचार Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (७९) आचार्य वसुनन्दि L राजा अत्यन्त विरहावस्था को प्राप्त हो गया । तदनन्तर मन्त्रियों ने उसके लिये बौद्ध साधु से याचना की | उसने कहा कि यदि राजा हमारे धर्म को ग्रहण करे तो मैं इसे दे दूँगा | राजा ने वह सब स्वीकृत कर उसके साथ विवाह कर लिया और वह उसकी अत्यन्त प्रिय पट्टरानी बन गई। फाल्गुन मास की नन्दीश्वर यात्रा में उर्विला ने रथयात्रा की तैयारी की।उसे देख उस पट्टरानी ने राजा से कहा कि देव! मेरा बुद्ध भगवान् का रथ इस समय नगर में पहले घूमे। राजा ने कह दिया कि ऐसा ही होगा । तदनन्तर उर्विला ने कहा कि यदि मेरा रथ पहले घूमता है तो मेरी आहार में प्रवृत्ति होगी, अन्यथा नहीं । ऐसी प्रतिज्ञा कर वह क्षत्रिय गुहा में सोमदत्त आचार्य के पास गई। उसी समय वज्रकुमार मुनि की वन्दना-भक्ति के लिये दिवाकर देव आदि विद्याधर आये थे। वज्रकुमार मुनि - यह सब वृतान्त सुनकर उनसे कहा कि आप लोगों को प्रतिज्ञा पर आरुढ़ उर्विला की रथयात्रा कराना चाहिये। तदनन्तर उन्होंने बुद्ध दासी का रथ तोड़ कर बड़ी विभूति के साथ ड्रर्विला की रथयात्रा कराई। उस अतिशय को देखकर प्रतिबोध को प्राप्त हुई बुद्धदासी तथा अन्य लोग जैन धर्म में लीन हो गये । । ५२-५५।। आठ गुणों से युक्त जीव ही सम्यग्दृष्टि है एरिसगुण अट्ठजुयं सम्मत्तं जो धरेइ दिढचित्तो । सो. हवइ सम्मदिट्ठी सद्दहमाणो पयत्ये य । । ५६।। अन्वयार्थ - (जो ) जो जीव, (दिढचित्तो) दृढ़चित्त होकर, पयत्थे सद्दहमाणों) पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ, (एरिसगुण अट्ठजुयं) इस प्रकार आठ गुणों से युक्त, .: (सम्मत्तं धरेइ) सम्यक्त्व को धारण करता है, (सो) वह, (सम्मादिट्ठी) सम्यग्दृष्टि, (हवाइ) होता है ।। ५६ ।। अर्थ — जो जीव दृढ़चित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ इन आठ गुणों से युक्त सम्यक्त्व को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है। व्याख्या– प्रथम तो जो दृढ़चित्त है, जिसका मन चलायमान नहीं है, द्वितीय जीवादिक सम्पूर्ण पदार्थों का जिनाज्ञानुसार श्रद्धान करता है, और तृतीय ऊपर कहे हुए निःशंकितादि आठ गुणों से सहित होकर जो जीव सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) को धारण करता है, वह जीव सम्यग्दृष्टि कहलाता है। आ० समन्तभद्र ने कहा है नांगहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरं न्यूनो निहन्ति विषवेदनां । । रत्न. श्रा० २१ । । अर्थ — अङ्गों से हीन सम्यग्दर्शन संसार की संतति को छेदने के लिए समर्थ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (८०) आचार्य वसुनन्दि नहीं है। क्योंकि एक अक्षर से भी हीन मन्त्र विष की पीड़ा को नष्ट नहीं करता। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पृष्ठ, उरस्थल और मस्तक ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों से ही मनुष्य अपना काम करने में समर्थ होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्व, अमूढ़दृष्टित्व, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं। इन आठ अंगों के द्वारा ही सम्यग्दर्शन की पूर्णता होती है और सम्यग्दर्शन संसार की संतति के छेदने रूप अपने काम में समर्थ होता है। जब तक मनुष्य शंकाशील रहता है, तब तक वह किसी काम में आगे नहीं बढ़ता परन्तु शंका के दूर होते ही उसका पैर आगे बढ़ने लगता है। दो पैरों में सबसे पहले दाहिना पैर आगे बढ़ता है इसलिए निःशंकित अंग को मनुष्य के दाहिने पैर की उपमा दी जाती है। मनुष्य का बायाँ पैर किसी आकांक्षा के बिना ही दाहिने पैर के पीछे चल देता है इसलिए नि:काक्षित अंग के लिए बायें पैर की उपमा दी जाती है। शरीर के मल-मूत्रादि पदार्थों को साफ करने के लिए मनुष्य का बायाँ हाथ किसी ग्लानि के बिना आगे आता है इसलिए निर्विचिकित्सित अंग के लिए बायें हाथ की उपमा दी जाती है। शरीर के किसी अंग पर कोई आपत्ति आती है तो उसके निवारणार्थ मनुष्य का दाहिना हाथ सबसे पहले उस अंग की सहायता करता है। इसलिए स्थितिकरण अंग के लिए दाहिने हाथ की उपमा दी जाती है। खोटे कार्यों से बचने के लिए मनुष्य की पीठ सहायक होती है अर्थात् खोटे कार्यों की ओर पीठ देने से मनुष्य पाप से बच जाता है इसलिए खोटे कार्यों से मानसिक, वाचनिक और शारीरिक असहयोग कराने वाले अमूढ़दृष्टित्व अंग के लिए पीठ की उपमा दी जाती है। जिस प्रकार मनुष्य अपने नितम्ब को प्रकट करने में लज्जा का अनुभव करता है, उसे प्रकट नहीं करता, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव किसी के दोषों को प्रकट करने में लज्जा का अनुभव करता है उसे वह प्रकट नहीं करता, इसलिए उपगृहन अंग के लिए नितम्ब की उपमा दी जाती है। मनुष्य का जिसके साथ स्नेह होता है वह उसे अपने उर:स्थल (छाती) से लगाता है इसलिए वात्सल्य अंग के लिए उर:स्थल की उपमा दी जाती है। और जिस प्रकार मनुष्य अपना सिर उठाकर अर्थात् मुख दिखाकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है, उसी प्रकार प्रभावना अंग के द्वारा सम्यग्दृष्टि मनुष्य दूसरों को समीचीन धर्म की ओर आकर्षित करता है इसलिए प्रभावना अंग के लिए शिर-मस्तक की उपमा दी जाती है। अपना-अपना कार्य करने के लिए सम्यग्दर्शन के आठों अंग आवश्यक हैं। वैसे तो निःशंकितत्त्व आदि आठों अंग निज और पर की अपेक्षा दो-दो प्रकार के हैं परन्तु विशेषता की अपेक्षा जब विचार करते हैं तो निःशंकितत्त्व, निःकांक्षितत्त्व, निर्विचिकित्सत्व और अमूढ़दृष्टित्व इन चार अंगों का स्व से सम्बन्ध अधिक जान पड़ता है और उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन चार का सम्बन्ध समष्टि-समाज से अधिक जान पड़ता है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (८१) आचार्य वसुनन्दि) व्यक्तिगत स्वकीय उन्नति के लिए प्रारम्भिक चार अंगों का होना अत्यन्त आवश्यक है और समष्टि-समाज सम्बन्धी उन्नति के लिए उपगूहन आदि चार अंगों का होना आवश्यक है। जिस समाज में एक-दूसरे के दोष देखे जाते हैं, कोई किसी की सहायता नहीं करता, कोई किसी के सुख-दुःख में सम्मिलित होकर आत्मीयता प्रकट नहीं करता और न समीचीन कार्यों का प्रसार करता है वह समाज बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है परन्तु इसके विपरीत जिस समाज में दोष देखने की अपेखा गण देखे जाते हैं, विपत्ति पड़ने पर एक-दूसरे का सहयोग किया जाता है। सबके साथ आत्मीयभाव रखा जाता है और समीचीन कार्यों का प्रसार किया जाता है वह समाज संसार में चिरकाल तक जीवित रहता है।।५६।। सामान्य श्रावकाचरण .. दर्शन (सामान्य) श्रावक का लक्षण पंचुम्बर- सहियाइं सत्त वि विसणाइं जो विवज्जेइ । सम्मत्त-विसुद्ध-मई सो दंसण सावओ भणिओ।।५७।। अन्वयार्थ- (सम्मत्त-विसुद्ध-मई) सम्यग्दर्शन से जिसकी बुद्धि विशुद्ध है, (जो) (ऐसा) जो जीव, (पंचुंबर-सहियाइं) पांच उदुम्बरफल सहित, (सत्त वि विसणाई विवज्जेइ) सातों व्यसनों को भी छोड़ता है, (सो) वह, (दसण सावओ भणिओ) दर्शन श्रावक कहा गया है।।५७।। - भावार्थ- जिसके मन में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई है अर्थात् जो सम्यग्दर्शन सहित है और ज्ञान में भी निर्मलता प्राप्त हुई है, ऐसा जो जीव पांच उदुम्बर फलों सहित सप्त व्यसनों का त्याग करता है वह दर्शन श्रावक अर्थात् सामान्य श्रावक कहा जाता है। .... इस गाथा के चिन्तन से ऐसा ज्ञात होता है जैसे कि ग्रन्थकार ने पांच उदुम्बरों को एक संख्या में लेकर तथा सप्त व्यसनों को २ से ८ संख्या में लेकर श्रावक के आठ मूल गुणों का कथन किया हो। इस सन्दर्भ का आगे गाथा क्र० २०५ में खुलासा करेंगे।।५७।। उदुम्बर फलों के नाम उंबर-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाण-तरु पसूणाई। णिच्चं तससंसिद्धाइ२ ताइं परिवज्जियव्वाइं ।।५८।। १. द. पंपरीय. २. पं. संहिद्धाइं. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (८२) आचार्य वसुनन्दि. ___ अन्वयार्थ- (उंबर-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाणं,तरुपसूणाई) ऊंबर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर फल, संधानक (अचार), वृक्षों के फूल (ये सब), (णिच्चं) हमेशा, (तससंसिद्धाइं) त्रस जीवों से संसक्त रहते है, (ताई) इसलिये उनका, (परिवज्जियाई) त्याग करना चाहिये।।५८।। अर्थ- ऊँमर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकरफल, अचार, वृक्षों के फूल आदि में हमेशा त्रसजीव रहते हैं, अत: इनका त्याग करना चाहिए। व्याख्या- जैनाचार में उम्बर, बड़ (बरगद), पीपल, कठूमर और पाकर ये पांच फल हैं जो बड़े-बड़े वृक्षों पर उगते हैं और सर्वथा अभक्ष्य (न खाने योग्य) होते हैं। इनमें त्रस जीव हमेशा रहते हैं तथा दिखते भी हैं। यहाँ सम्भवतः ग्रन्थकार ने “पिंपरीय" पद में 'य' अलग लिखा होना चाहिये जिससे पांचवें फल का भी निषेध प्रस्तुत किया जा सके। संधानक अर्थात् अचार जिसे सभी बड़े स्वाद से खाते हैं लगभग चौबीस घण्टे में अखाद्य हो जाता है। उसमें त्रस जीव पड़ जाते हैं। कई बार तो सफेद फफून्द भी पड़ जाती है जो स्वयं एकेन्द्रिय है और त्रस जीवों की उत्पत्ति में आधार बनती है, अत: अचार भी त्याज्य है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूखे आम, आवला आदि को योग्य मसाले के साथ बिना गीला किये तेल में डालकर अचार तैयार करते हैं तो उसकी मर्यादा अधिक है। ___ वृक्षों के फूल खाना या उनकी साग बनाने का भी निषेध है, क्योंकि इन सबमें हमेशा असंख्यात जीव विद्यमान रहते हैं। इन्हें खाने से महा हिंसा का दोष लगता है तथा आचरण के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य भी बिगड़ता है। अत: इनको पूर्णरूपेण छोड़ना चाहिये।।५८।। सप्त व्यसनों के नाम जूयं मज्जं मंसं वेसा-पारद्धि-चोर-परयारं। दुग्गइ-गमणस्सेणादि हेउभूदाणि पावाणि।।५९।। अन्वयार्थ- (जूयं मज्जं मंसं वेसा-पारद्धि-चोर-परयारं) जुआ, मद्य, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी, परदार, (एदाणि) ये सब, (दुग्गइ-गमणस्स) दुर्गति गमन के, (हेउभूदाणि) कारण भूत, (पावाणि) पाप हैं।। ५९।। १. द्यूतमध्वामिषं वेश्या खेटचौर्यपराङ्गना। सप्तैव तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत सुधी।।१४।। गुण० श्राव०. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि अर्थ- जुआ, मद्य, मांस, वेश्या, चोरी, परदार-सेवन ये सब दुर्गति के कारणभूत पाप (व्यसन) हैं। व्याख्या- बाजी लगाकर किसी भी प्रकार का खेल खेलना जुआ है। दो इन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय जीवों के शरीर के कलेवर को मांस कहते हैं। जिसे बनाने में अनन्त जन्तु-जीवों की हिंसा होती है; जो मनुष्य को शारीरिक एवं आध्यात्मिक रूप से हानि पहुंचाती है तथा आत्मा में मोह (भ्रम) रूप दशा उत्पन्न करती है वह मद्य (शराब) है। जिस स्त्री का स्वामी एक व्यक्ति नहीं होता वह वेश्या है। तलवार- बन्दूक या अन्य किसी प्रकार से मनोरंजन अथवा स्वार्थ के लिये किसी जीव की हिंसा करना शिकार है। किसी की पड़ी हुई, रखी हुई अथवा विस्मृत हुई वस्तु को उठाना या स्वामित्व करना चोरी है। जिस स्त्री का कोई एक पुरुष स्वामी है वह परदारा है। यह सातों व्यसन नियम से दुर्गति के कारण हैं। अत: प्रत्येक भव्यात्मा को चाहिये कि वह इन महा अनिष्ट कारक व्यसनों से बचे। व्यसन का सामान्य अर्थ होता है- वह खोटी आदत जिसे जल्दी न छोड़ा जा सके और जिसका परिणाम भयानक दुःख एवं अपयश करने वाला हो। दुःख का पर्यायवाची एक नाम व्यसन भी है। अत: कह सकते हैं जो व्यसन हैं, वह दुःख रूप ही हैं। . शङ्का- वेश्यागमन और परस्त्री सेवन में क्या अन्तर है? समाधान- वेश्यागमन शब्द का अर्थ है वेश्या के यहाँ जाना अर्थात् जो वेश्या के यहाँ जानां मात्र है वह भी व्यसन की श्रेणी में आता है। चाहे कोई वेश्या का सेवन करे या न करे, किन्तु अगर वेश्या के यहाँ आता-जाता भी है तो भी वह लोक में महा निन्दा/अपयश को प्राप्त होता है, किन्तु परस्त्री सेवन में ऐसा नहीं है। परस्त्री अर्थात् रिश्तेदारों, मित्रों एवं सम्बन्धियों के यहाँ आने-जाने में कोई दिक्कत नहीं है। उन परिवारों के सदस्यों से वार्ता करने में भी दोष नहीं है, किन्तु किसी स्त्री विशेष के प्रति आकर्षित होकर उसका सेवन करना। यह व्यसन की श्रेणी में आता है। इन दोनों में इतना ही अन्तर समझना चाहिये। क्योंकि परस्त्री सेवन और वेश्यागमन को एक मानने में कई दोष आते हैं। यहां परस्त्री सेवन से परपुरुष सेवन भी उपलक्षितार्थ है। इन सात व्यसनों के सम्बन्ध में विशेष स्पष्ट आगे ग्रन्थकार स्वयं करेंगे।।५९।। जुआ खेलने से हानियां जूयं खेलंतस्स हु कोहो माया माण-लोहा' या एए हवंति तिव्वा पावइ पावं तदो बहुगं ।।६०।। १. झ. 'लोहो' इति पाठः. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (८४) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (जूयं खेलंतस्स हु) जुआ खेलने वाले पुरुष के निश्चित ही, (कोहो-माया-माण य लोहा) क्रोध, मान, माया और लोभ, (एए) ये (कषायें), (तिव्या हवंति) तीव्र होती हैं, (जिससे जीव), (बहुगं पावं पावइ) बहुत पाप को प्राप्त करता है।।६०।। भावार्थ- जो व्यक्ति जुआ अथवा लाटरी खेलता है निश्चित रूप से वह कभी हारता है और कभी जीतता भी है; हार-जीत की स्थिति में वह साम्य नहीं बना पाता और भयानक क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों से घिर जाता है, जिनसे महान् पाप को ही एकत्रित करता है।।६०।। पावेण-तेण जर-मरण वीचिपउरम्मि दुक्ख-सलिलम्मि। . चउ-गइ-गमणावत्तम्मि हिंडइ भव-समुद्दम्मि।।६१।। अन्वयार्थ- (तेण पावण) उस पाप के कारण, (जन्म-जर-मरण-वीचिपउरम्मि) जन्म, जरा, मरण रूपी प्रचुर तरंगों वाले, (दुक्ख सलिलम्मि) दुःखरूपी जल से भरे हुए, (चउ-गइ-गमणावत्तम्मि) चतुर्गति-गमन रूप आवर्तों से युक्त (भव-समुद्दम्मि) संसार रूपी समुद्र में, (हिंडइ) घूमता है।।६१।। भावार्थ- जो चार कषायों के कारण से पाप उत्पन्न हुआ था उस पाप के कारण से यह जीव जन्म, जरा और मरण रूपी बहुत तरंगों वाले, दुःख रूपी जल से भरे हुए तथा देव, मनुष्य, तिर्यश्च और नारकी रूप पर्यायों रूपी आवर्तों (भंवरों) से संयुक्त होकर संसाररूपी समुद्र में घूमता है।।६१।। . . , तत्थ वि दुक्ख मणंतं छेयण- भेयण-विकत्तणाईणं। पावइ सरण-विरहिओ जूयस्स फलेण सो जीवो।।६२।। अन्वयार्थ- (जूयस्स फलेण सो जीवो) वह जीव जुआ के फल से, (तत्थ वि) और भी, (सरण-विरहिओ) शरण रहित हो करके, (छेयण-भेयण-विकत्तणाईणं) छेदन,भेदन विकर्तनादि के, (अणंत दुक्खं पावइ) अनन्त दुःख पाता है।।६२।। भावार्थ- जुआ खेलने वाला जीव जुआ के फल से और भी भयानक कष्टों को भोगता है। वह निस्सहाय या अशरण होकर छेदन-भेदन कर्त्तन आदि के अनन्त दुःखों को पाता है। छेदन अर्थात् छेद किया जाना, भेदन अर्थात् शरीर के आरपार छेद कर देना और कर्त्तन अर्थात् शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देना आदि महान कष्ट इस चूत . (जुआ) के कारण भोगने पड़ते हैं।।६२।। १. व. 'विरहियं' इति पाठः. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (८५) गणे इg - मित्तं ण गुरुं मायरं पियरं वा । जूवंधो वुज्जाई कुणइ अकज्जाई बहुगाई । । ६३ । । आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ — (जूवंधो) जुआ खेलने में अन्धा हुआ मनुष्य, (ण गणेड़ इट्ठ मित्तं) इष्ट मित्रों को कुछ नहीं गिनता है, (ण गुरुं) न गुरु को, ( ण य मायरं पियरं वा) और न ही माता वा पिता को ही वह कुछ गिनता है, (किन्तु), (बुज्जाइं) स्वच्छन्द होकर, (अकज्जाएं बहुगाईं कुणइ) बहुत से अकार्यों को करता है । । ६३ । । भावार्थ- जब मनुष्य जुएँ में मस्त हो जाता है तो वह जुएँ में अन्धा-सा हो जाता है। फिर वह अपने इष्ट मित्रों, गुरु, माता-पिता आदि के मना करने पर भी खेलना तो बन्द नहीं करता अपितु उल्टा अपने पूज्यों का अपमान करने लगता है। वह किसी को कुछ नहीं समझता, सिर्फ में जो कर रहा हूँ वही अच्छा है, इत्यादि सोचकर स्वच्छन्द होकर बड़े-बड़े अकार्यों अर्थात् न करने योग्य कार्यों को भी कर डालता है ।। ६३ ।। सजणे य परजणे वा देसे सव्वत्थ होइ णिल्लज्जो । माया वि ण विस्सासं वच्चइ जूयं रमंतस्स ।। ६४ । । अन्वयार्थ - (जूयं रमंतस्स) द्यूत में रत रहने वाले मनुष्य का, ( माया वि ण विस्साखं वच्चइ) माता भी विश्वास नहीं करती, (वह जुआरी), (सजणे य परजणे) स्वजन में और परजन में, (देसे वा) देश अथवा परदेश में, (सव्वत्थ) सभी जगह, ( णिल्लज्जो होइ) निर्लज्ज होता है । । ६४ । । भावार्थ — जो हमेशा ही द्यूत क्रीड़ा में रत रहने वाला व्यक्ति है उसका विश्वास ग्राम, नगर व देशवासी तो करते ही नहीं, उसका स्वयं का पिता परिवार भी विश्वास नहीं करता, जन्मदात्री माँ भी उससे दूर रहना चाहती है तथा किंचित् भी विश्वास नहीं करती है। ऐसा मनुष्य स्वजनों में, परजनों में, देश-विदेश में अथवा अन्य कहीं भी निर्लज्ज होकर घूमता रहता है ।। ६४ ।। अग्गिं विस- चोर- सप्पा- दुक्खं थोवं कुणंति' इहलोए । दुक्खं जणेइ जूयं णरस्स भव-सय सहस्सेसु । । ६५ । । - - अन्वयार्थ - ( इहलोए अग्गि-विस- चोर - सप्पा) इस लोक में अग्नि, विष, चोर और सर्प (तो), (थोवं दुक्खं कुणंति) थोड़ा दुःख करते हैं, (किन्तु), (जूयं) जुआ, (णरस्स) मनुष्य के, (भव-सय- सहस्सेसु) लाखों भवों में, (दुक्खं) दुःख को, (जणेइ) उत्पन्न करता है । । ६५ ।। भावार्थ - सामान्य रूप से संसार में देखा जाता है कि अग्नि, विष, चोर और १. ब. 'करंति' इति पाठ:. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (८६) आचार्य वसुनन्दि सर्प भयानक दुःख देने वाले हैं, यह मनुष्य के प्राण तक ले लेते हैं अत: कष्टकर हैं। किन्तु यहाँ आचार्य कहते है कि इन से भी खतरनाक अगर कोई है तो वह है जुआ। अग्नि, विष आदि तो मनुष्य को एक ही भव में दुःख देते हैं, नष्ट करते हैं; किन्तु जुआ मनुष्य को लाखों भवों तक दुःख उत्पन्न करता रहता है।।६५।। अक्खेहि णरो रहिओ ण मुणइ सेसिंदिएहिं वेएइ। जूयंधो ण केण वि जाणइ संपुण्ण करणो वि।।६६।। अन्वयार्थ– (यद्यपि), (अक्खेहि रहिओ णरो) आंखों से रहित मनुष्य, (ण मुणइ) जानता नहीं है, (तथापि), (सेसिंदिएहिं वेएइ) शेष इन्द्रियों से वेदन करता है, (किन्तु), (जूयंधो) जुआ खेलने में अन्धा हुआ मनुष्य, (संपुण्णकरणो वि) सम्पूर्ण इन्द्रियों वाला होकर भी, (केण वि ण य जाणइ) किसी के द्वारा भी नहीं जानता है।।६६।। भावार्थ- जिसकी आँखे नहीं है, ऐसा व्यक्ति अन्धा होकर भी दूसरी इन्द्रियों के माध्यम से वस्तुस्थिति का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, किन्तु जो जुआ खेलने में रत है, जुआ खेलने में ही अधिकांश समय लगाता है, ऐसा द्यूतांध व्यक्ति इन्द्रियों वाला होकर भी अन्धा है, क्योंकि वह अपना और अपने परिवार का हित भी नहीं जान पाता। अपयश होने पर भी वह द्यूत में मस्त रहता है, अत: वह अन्धे से भी अन्धा है।।६६।। अलियं करेइ सवहं जंपइ मोसं भणइ अइ-दुटुं। पासम्मि-बहिणि-मायं सिसुपि हणेइ कोहंघो।।६७।। अन्वयार्थ- (अलियं करेइ सवह) (वह) झूठी शपथ लेता है, (जंपइ मोसं) झूठ बोलता है, (अइ-दुटुं भणइ) अत्यन्त कठोर शब्द कहता है, (कोहंधो) क्रोध में अन्धा होकर, (पासम्मि) पास में स्थित (बिहिणि-मायं सिसुपि) बहिन-माता (और) शिशु को भी, (हणेइ) मारता है। भावार्थ- जुआ खेलने वाला व्यक्ति किसी से धन पाने के लिये झूठी शपथ लेता है, झूठ बोलता है, अत्यन्त कठोर और कर्कश शब्द बोलता है तथा जुएँ में हार जाने पर अथवा और खेलने के लिये धन प्राप्त न होने पर वह क्रोध में अन्धा होकर अपनी पत्नि को तो पीटता ही है, माँ-बहिन और बच्चों को भी नहीं छोड़ता अर्थात् उन्हें भी मारता है।।६७।। ण य भुंजइ आहारं, णि ण लहेइ रत्ति-दिण्णं ति। कत्थ वि ण कुणेइ रइं अत्थइ चिंताउरो' णिच्च।।६८।। १. झ. 'वरो' इति पाठः. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (८७) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ-(वह), (आहारंण भुंजइ) आहार नहीं करता है, (णि ण लहेइ रत्ति दिण्णं ति) रात-दिन नींद नहीं लेता है, (य) और, (कत्थ वि ण कुणेइ रई) किसी से भी स्नेह (प्रेम) नहीं करता है (किन्तु), (णिच्चं) हमेशा, (अत्थइ) धन के लिये, (चिंताउरो) चिन्तातुर रहता है।।६८।। भावार्थ- चिन्ताओं के कारण जुआरी को भोजन नहीं रुचता और न ही वह भोजन कर पाता है, चिन्तामग्न रहने से बिका हुआ-सा बैठा रहता है न रात को ही नींद लेता है और न ही दिन को और वह परिवार, मित्र, स्त्री, पुत्र आदि किसी से भी स्नेह नहीं करता उसे तो सिर्फ एक चिन्ता रहती है कि धन कहाँ से मिले। वह मन में हमेशा यहीं तन्त्र सोचता रहता है कि धन कैसे और कहां से मिले। धन लुटाते-लुटाते वह स्वयं तो कंगाल हो ही जाता है, परिवार भी भिखारियों-सा जीवन जीने के लिये मजबूर हो जाता है, किन्तु उसकी इस ओर कोई दृष्टि ही नहीं होती। जिस परिवार का पालन-पोषण करना उसका कर्त्तव्य है वह उसको कुछ भी नहीं करता उल्टा मारपीट कर जो चल-अचल सम्पत्ति होती है, उसको और लेकर जुएँ में लुटा देता है और अपने आपको, परिवार को अपने हाथ से बर्बाद करता रहता है।।६८।। . इच्चेवमाइ बहवो दोसे' णाऊण जूयरमणम्मि । परिहरियव्वं णिच्वं दंसणगुणमुव्व हंतेण ।।६९।। अन्वयार्थ– (जूय रमणम्मि) जुआ खेलने में, (इच्चेवमाइ बहवो) इत्यादि बहत, (दोसे णाऊण) दोषों को जानकर के, (दंसण गुण मुव्वहंतेण) दर्शन गुण को धारण करने वाले को, (णिच्चं परिहरियव्व) हमेशा (द्यूत का) त्याग करना चाहिये। अर्थ- ऊपर कहे हए सम्पर्ण दोषों को जान करके प्रत्येक श्रावक को चाहिये कि वह प्रत्येक प्रकार के जुएँ का त्याग करें। इस भयानक व्यसन से भयभीत होकर इसे त्याग कर सच्चा सम्यग्दृष्टि श्रावक बनना चाहिये। दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक को तो नियम रूप से पूर्णत: इसका त्याग करना ही चाहिये। - व्याख्या- प्रत्येक पाक्षिक श्रावक को पांच पापों के पूर्ण त्याग का अभ्यास करने की तरह व्यसनों के पूर्ण त्याग का भी अभ्यास करना चाहिये। सात व्यसनों में जुआ सिरमौर है। इसलिये सप्त व्यसनों में इसे प्रथम स्थान दिया गया है। जुआ खेलने वाला व्यक्ति स्वयं तो विपत्तियों में पड़ता ही है अपने परिवार बगैरह को भी विपत्ति में डाल देता है। यहां इतना विशेष जानना कि पाक्षिक (सामान्य) श्रावक मन-बहलावे के लिये बिना शर्त के ताश, चौपड़ एवं कैरम आदि खेल सकता है। प्रारम्भिक श्रावक होने से वह शीघ्र ही जुआ आदि नहीं छोड़ पायेगा। सम्भवत: इसी बात को ध्यान में १. “झ. 'दोसाः' इति पाठः. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वसुनन्दि-श्रावकाचार (८८) आचार्य वसुनन्दि रखकर आचार्य अमृतचन्द्र ने अनर्थदण्ड त्याग नामक गुणव्रत में चूत को दूर से ही छोड़ने की प्रेरणा की है, क्योंकि वह सब अनों की जड़ है, माया का घर है और चोरी तथा झूठ का स्थान है। इनके बिना जुआरी का काम नहीं चलता। किसी ने जुआरी की संसार में जीवन बिताने की दशा का चित्रण करते हुए लिखा है कि उसके पास लंगोटी के सिवाय दूसरा वस्त्र नहीं बचता, निकृष्ट अन्न का भोजन करता है, जमीन पर सोता है, गन्दी बातें करता है, कुटुम्बी जनों से हमेशा लड़ाई-झगड़ा चलता रहता है, दुराचारी उसके साथी होते हैं, दूसरों को ठगना उसका व्यापार होता . है, चोर मित्र होते है, और सज्जनों को वह अपना बैरी समझता है। प्राय: जुए के व्यसनी की ऐसी ही दशा होती है। आचार्य पद्मनन्दि ने जुए की निन्दा करते हुए कहा है - भवनमिदमकीत्तेश्चौर्य वेश्यादि सर्व, व्यसनपतिरशेषापन्निधिः पापबीजम्। . विषमनरकमार्गेष्वग्रयायीति मत्वा, क इह विशदबुद्धिधूतमङ्गी करोति।। . . (पद्म०पंच०, १/११७) अर्थात् यह जुआ अपयश का घर है, चोरी, वेश्या आदि सब व्यसनों का स्वामी है, सब विपत्तियों का स्थान है, पाप का बीज है, दुःखदायी नरक के मार्गों में अग्रगामी है, ऐसा जानकर कौन बुद्धिमान् जुआ खेलना स्वीकार कर सकता है अर्थात् कोई नहीं।" वास्तव में बुद्धिमानों को तो उस स्थान पर भी नहीं जाना चाहिये जहां जुए जैसे निकृष्ट कार्य (खेल) होते हों।।६९।। मद्यदोष-वर्णन मज्जेण णरो अवसो कुणेइ कम्माणि णिंद णिज्जाइं। इहलोए परलोए अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ।।७०।। अन्वयार्थ- (मज्जेण णरो अवसो) मद्यपान से मनुष्य अवश, (उन्मत्त) होकर, (कणेड कम्माणि णिंद णिज्जाई) निन्दनीय कर्म करता है, (जिससे), (इहलोए-परलोए) इस लोक-परलोक में, (अणंतयं दुक्खं) अनन्त दुःखों का (अणुहवइ) अनुभव करता है।।७०।। भावार्थ- शराब पीने से मनुष्य उन्मत्त अर्थात् पागल जैसा हो जाता है, वह किसी के वश में न रहकर अनेक निन्दनीय कार्यों को भी कर डालता है। फलस्वरुप इसलोक- वर्तमान भव, परलोक-परभव में अनन्त दुःखों को अनुभव करता है, अर्थात् भोगता है।।७०।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (८९) आचार्य वसुनन्दि) ___ अइलंघिओ विचिट्ठो पडेइ रत्थाययंगणे मत्तो। पडियस्स सारमेया वयणं विलिहंति जिम्माए।।७१।। ‘अन्वयार्थ- (मत्तो) उन्मत्त मनुष्य, (अइलंपिओ) लोक मर्यादा को लांघता है, (विचिट्ठो) बेसुध होता हुआ, (रत्थाययंगणे पडेइ) चौराहे पर गिर पड़ता है।, (पडियस्स) उस गिरे हुए के, (वयणं) मुख को, (सारमेया) कुत्ते, (जिन्माए) जीभ से, (विलिहंति) चाटते हैं।।७१।। भावार्थ- शराब पीने से नशे में धुत्त उन्मत्त मनुष्यय विवेक से रहित होकर, लोक मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, विभिन्न प्रकार की चेष्टाएं करता है, चौराहे (रथ्यांगण) पर गिर पड़ता है। उस पड़े हुए शराबी के मुख से लार बहती देखकर कुत्ते भी उसे चाटते हैं।।७१।। उच्चार-पस्सवणं तत्येव कुणंति सो समुल्लवइ। पडियोवि सुरा मिट्ठो पुणो वि मे देइ मूढमई।।७२।। अन्वयार्थ- (तत्थेव) उसी दशा में (कुत्ते उस पर), (उच्चारं) टट्टी, (प्रस्सवणं) प्रस्रवण (पेशाब), (कुणंति) करते हैं, (किन्तु), (पडिओ वि) पड़ा हुआ होने पर भी, (सो) वह, (मूढ़ मई) मूढ़मति, (सुरा मिट्ठो) शराब मीठी है, (पुणो वि) पुन:-पुन:, (मे देह) मुझे देओ (ऐसा), (समुलवइ) बोलता है।।७२।। भावार्थ-शराबी व्यक्ति जब कहीं चौराहे पर, नाली आदि में गिर जाता है तो प्रथम तो कुत्ते आकर उसका मुंह चाटते है, फिर जैसाकि उनका स्वभाव होता है उसी के अनुसार उस शराबी पर टट्टी और पेशाब भी करते है और भाग जाते हैं, किन्तु वह मुर्ख व्यक्ति कुत्तों की पेशाब तक चाटने लगता है और कहता है शराब बहुत मीठी — है। मुझे और भी दो...... और भी दो।।७२ ।। जं किंचि तस्स दव्वं अजाणमाणस्स हिप्पइ परेहि। लहिऊण किंचि सण्णं इदो तदो धावई खलंतो।।७३।। अन्वयार्थ- (तस्स) उस, (अजाणमास्स) अज्ञान दशा में पड़े शराबी के, (जं किंचि) जो कुछ भी, (दव्यं) द्रव्य होता है (उसे), (परेहि) दूसरों के द्वारा, (हिप्पइ) हरण कर लिया जाता है।, (किंचि सण्णं लहिऊण) कुछ संज्ञा (चेतना) पाकर (वह), (खलंतो) गिरता-पढ़ता, (इदो-तदो) इधर-उधर, (धावई) दौड़ता है। भावार्थ- जब वह शराबी व्यक्ति नशे में उन्मत्त हो जमीन पर गिर कर बेहोश १. ब. रत्याइयंगणे। प. रत्थाएयंगणे। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (९०) आचार्य वसुनन्दि) जैसा हो जाता है तब उसे बेसुध अवस्था में देखकर दूसरे लोगों के द्वारा, चोरों के द्वारा उसके पास जो धन होता है वह अपहरण कर लिया जाता है। पुनः जब वह कुछ सुध में आता है, चेतना को प्राप्त होता है तो अपने धन को अपने पास न पाकर गिरता-उठता इधर-उधर दौड़ लगाता है।।७३।। जेणज्ज मज्झ दव्वं गहियं दुद्वेण से जमो कुद्धो। कहिं जाइ सो जिवंतो सीसं छिंदामि खग्गेण ।।७४।। . अन्वयार्थ– (जेणज्ज मज्झ दव्यं गहियं) जिसने मेरा द्रव्य ग्रहण किया है (से) उस, (दुगुण) दुष्ट ने, (जमो कुद्धो) यम को कुद्ध किया है, (सो जिवंतो) वह जीता हुआ, (कहिं जाइ) कहा जाता है (देखता हूँ)?, (खग्मेण) तलवार से, (सीसं छिंदामि) शिर छेदूंगा।।७४।। भावार्थ- जब अन्य चोर बगैरह उस शराबी का धन लेकर भाग जाते हैं, तब वह होश में आने पर इधर-उधर दौड़ता हुआ चिल्लाता है- “जिस दुष्ट ने, बदमाश ने मेरा द्रव्य चुराया है उसने मुझे नहीं साक्षात् यमराज को क्रोधित किया है; देखता हूँ वह जीता हुआ बचकर कहाँ जाता है। तलवार से उसका शिरच्छेद करूँगा, गर्दन काट कर मार डालूंगा।।७४।। एवं सो गज्जंतो कुवियो गंतूण मंदिरं णिययं । घित्तूण लउडि सहसा रुट्ठो भंडाइं फोडेइ ।।७५।। अन्वयार्थ- (एवं सो) इस प्रकार वह, (कुवियो) कुपित होकर, (गज्जंतो) गरजता हुआ, (णिययं मंदिर गंतूण) अपने घर जाकर, (लउडि चित्तूण) लकड़ी को लेकर, (रुट्ठो) रुष्ट होकर, (सहसा) अचानक, (भंडाइं फोडेइ) बर्तनों को फोड़ने लगता है।।७५।। भावार्थ- इस प्रकार कुपित होकर गरजता हुआ वह शराबी चोर को कहीं न पाकर अपने घर जाता है और क्रोध में तो रहता ही है सो लकड़ी उठाकर रुष्ट होकर सहसा घर के ही बर्तन-भाण्डों को फोड़ने लगता है। चोर को न पीट सका सो बर्तनों को फोड़ने लगा अर्थात् वह इतना बावला हो जाता है कि यह भी नहीं सोच पाता कि पहले ही मेरी चोरी हो गई है और अब मैं बर्तन फोड़ रहा हूँ तो यहभी तो बिना मूल्य के नहीं मिलते है?।।७५।। णिययं पि सुयं बहिणिं अणिच्छमाणं बला विधंसेइ। जंपइ अजंपणिज्जं ण विजाणइ किं पि मयमत्तो।।७६।। अन्वयार्थ– (वह), (णिययं पि सुर्य बहिणिं) अपने पुत्र को बहिन को और Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (९१) आचार्य वसुनन्दि अन्य को भी (जिन्हें), (अणिच्छमाणं) अपनी इच्छा के अनुकूल नहीं समझता, (बाला) बलपूर्वक, (विधंसेइ) मारता है, (अजंपणिज्जं जंपइ) न बोलने योग्य वचन बोलता है, (मयमत्तो) मद मत्त हुआ, (किंपि ण विजाणइ) कुछ भी नहीं जानता है।।७६।। भावार्थ- बर्तनों को तोड़ चुकने के बाद भी जब शराबी का क्रोध शान्त नहीं होता तब वह अपने पुत्र को बहिन को और जिन्हें अपनी इच्छा के अनुकूल नहीं समझता उन्हें भी जबरदस्ती मारने लगता है। न बोलने योग्य खोटे बचनों को बोलता है। मद्य से उन्मत्त हुआ मनुष्य कुछ भी नहीं जानता। अपने हित और अहित को भूल असैनी से भी बेकार हो जाता है।।७६।। इय अवराइं बहुसो काऊण बहूणि लज्जणिज्जाणि। अणुबंधइ बहु पावं मज्जस्स वसंगदो संतो।। ७७।। अन्वयार्थ- (मज्जस्स वसंगदो संतो) मद्य के वशीभूत होकर, (इय अवराई बहुसो) इस प्रकार बहुत से अपराध (और), (बहूणि लज्जणिज्जाणि काऊण) अनेक लज्जा के योग्य निर्लज्ज कार्यों को करके, (बहु पावं अणुवंधइ) बहुत से पापों को बांधता है। ७७।। भावार्थ- मद्यपान से उन्मत्त पुरुष मद्य के वशीभूत होकर के उपरोक्त प्रकार से बहुत अपराध कार्यों को करके तथा अनेक लज्जा के योग्य निर्लज्ज कार्यों को करके बहुत परिमाण में पाप कर्मों का बंध करता है।।७७।। पावेण तेण बहुसो जाइ-जरा-मरण-सावयाइण्णे। पावइ अणंत दुक्खं पडिओ संसार कंतारे।।७८।। अन्वयार्थ- (तेण बहुसो पावेण) उस बहुत से पाप के कारण, (जाइ-जरा-मरण सावयाइण्णे) जन्म-जरा-मृत्युरूपी श्वापदों से आकीर्ण, (संसार कंतारे पडिओ) संसाररूपी वन में पड़कर, (अणंत दुक्खं पावइ) अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है। भावार्थ- उस भयानक पूर्वकृत पापों के परिणामस्वरूप वह मद्य पायी जन्म, जरा, मृत्युरूपी श्वापदों (सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर जानवरों) से आकीर्ण अर्थात् भरे हुए संसाररूपी भयानक जंगल में पड़कर अनन्त दुःखों को बहुत काल तक प्राप्त करता है। एक शराब मात्र के सेवन से जीव अविवेकी, उन्मत्त होकर भयानक कर्मों का बंध कर लेता है परिणामस्वरूप जब वे कर्म भयानक अशुभ फल देते हैं तो रोता है, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (९२) आचार्य वसुनन्दि) लेकिन रोने से होता क्या है जो किया है वह उसे भोगना ही पड़ता है और बहुत समय तक इस संसाररूपी जंगल में रहना पड़ता है जहां सिंह, व्याघ्र आदि से भी खतरनाक जन्म-जरा मृत्युरूपी श्वापद (पशु) रहते हैं।।७८।। एवं बहुप्पयारं दोसं णाऊण' मज्जपाणम्मि। मण-वयण-काय-कय-कारिदाणुमोएहिं वज्जिज्जो।।७९।। अन्वयार्थ- (एवं बहुप्पयारं) इस प्रकार बहुत प्रकार से, (मज्जपाणम्मि) मद्यपान में, (दोसंणाऊण) दोष जानकर, (मण-वयण-कायकयकारिदाणुमोएहि) मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना से, (वज्जिज्जो) छोड़ना चाहिये।।७९।। अर्थ- आचार्य कहते है कि इन दस गाथा सूत्रों से बहुत प्रकार से मद्यपान के बहुत दोषों को जानकर मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना अर्थात् इनं नौ कोटियों से शराब का त्याग करना चाहिये। व्याख्या-मदिरा अर्थात् शराब मन को मोहित करती है, और मोहित चित पुरुष धर्म को भूल जाता है तथा धर्म को भूला हुआ जीव निडर होकर हिंसा का आचरण करता है अर्थात् बेधड़क हिंसा करता है। मदिरा बहुत से जीवों के रस से उत्पन्न होती है तथा बहुत से जीवों के उत्पन्न होने का स्थान मानी जाती है इस कारण जो मदिरा को पीते है, उनके जीवों की हिंसा अवश्य होती है। घमण्ड, डर, ग्लानि, हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोध आदि हिंसा के भेद है और ये सब ही मदिरा से उत्पन्न होते हैं। अत: मदिरा सर्वथा त्याग देना चाहिये।२ ___ मद्यपायी मनुष्य मूछित होकर गिर पड़ता है। कुत्ते उसके मुख में मूत्र कर देते हैं। चोर वस्त्रादि हर लेते हैं। दुनियां उस पर हँसती है। जिनके कुल में शराब नहीं पी जाती है, उन्हें भी देव-गुरु की साक्षीपूर्वक मद्यपान न करने का नियम लेना चाहिए।३ नियम लेने वाला धूर्तिल चोर की तरह प्राणों से हाथ नहीं धोता और नियम न लेने वाला मद्यपायी एकपद नामक संन्यासी की तरह अगम्यागमन और अभक्ष्यभक्षण करके दुर्गति में भ्रमण करता है। यह दोनों कथाएँ आचार्य सोमदेव के उपासकाचार (पृ० १३०-१३२) में वर्णित हैं। ___ जिस मद्य की एक बूंद से यदि उसमें पैदा होने वाले जीव बाहर फैले तो समस्त संसार उनसे भर जाये तथा जिस मद्य को पीकर उन्मत्त हुए प्राणी अपने इस जन्म और दूसरे जन्म को भी दुःखमय बना लेते हैं, उस मद्य को अवश्य छोड़ना चाहिये।३ १. झ. नाऊण. २. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लोक ६२-६३-६४. ३. अमितगति श्रा. ५/२-१२. ४. सागार धर्मामृत, २/४, पृ. ४४. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (९३) आचार्य वसुनन्दि मद्यपान करने से मन मोहित हो जाता है। धर्म को भूल जाता है तथा सदाचरण को भी विस्मरण कर देता है। उससे पापास्रव होता है।उस मद्य में स्थित असंख्य सूक्ष्म जीव के वध से पाप बंध होता है। चावल, महुआ, गुड़ आदि को घड़ा में भरकर उसको जमीन में गाड़ देते हैं अनेक दिनों में चावलादि सड़कर उनमें अनेक लट आदि त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। पुन: उसको ऊबाल करके मद्य निकालते हैं इसलिये मद्य त्रस जीवों का रस ही है। मद्य के वर्ण सदृश असंख्यात सूक्ष्म जीव प्रत्येक समय में मद्य में रहते हैं। मद्यपान से ज्ञान तन्तु शिथिल हो जाते हैं जिससे मन मोहित होकर स्मरण शक्ति को, विवेक शक्ति को खो डालता है जिससे वह सदाचार को भूल जाता है। पागलों के समान कुछ ने कुछ बकता रहता है। वह बहिन, स्त्री में किसी प्रकार का भेद नहीं देखता है उनसे अनैतिकतापूर्ण आचरण भी कर लेता है, दूसरों को अपशब्द भी कहता है, मारपीट भी करता है, अपना कर्तव्य सुचारू रूप से पालन नहीं कर पाता है। इससे पापास्रव होता है। मद्य में स्थित जीवों के घात से भी पापास्रव होता है। शरीर-मन-ज्ञान, तन्तु, स्नायु, पाचनशक्ति, मद्य से क्षीण होने के कारण शरीर में अनेक रोग एवं मन में भी अनेक मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं जिससे वे क्षीण शक्ति होकर विशेष कोई कार्य नहीं कर पाता है जिससे वह विशेष अर्थोपार्जन नहीं कर पाता है। अर्थाभाव से बाल-बच्चे अशिक्षित रहते हैं एवं खाद्य अभाव से योग्य पोषण भी नहीं हो पाता है इससे सन्तान को भी बहुत बड़ी क्षति पहुँचती है। मद्यपान से भी व्यर्थ अर्थ व्यय होता है। अज्ञानी मनुष्य अर्थ को देखकर, मद्य पीकर अनेकों अनर्थों को निमन्त्रण देता है। एक पशु भी जानबूझ कर अनर्थ अर्थात् विपत्तियों को स्वीकार नहीं करता है, परन्तु मद्यपायी जानबूझकर विपत्तियों को अर्थ अर्थात् धन देकर स्वीकार करता है इस दृष्टि से मद्यपायी पशु से भी पशु हैं। ___ केवल मद्यपान इस व्यसन में गर्भित नहीं है इसके साथ-साथ विदेशी बरण्डी, विस्की, रम, ताड़ी, गाजा, भाग, चाय, काफी, चरस, तम्बाक्खू, बीड़ी, सिगरेट, अफीम, गुडाख, पानपराग आदि-आदि मद्य व्यसन में अन्तर्भक्त हैं। उपरोक्त नशीले पदार्थों में अनेक विषाक्त रसायन पदार्थ रहते है जिससे टी०बी०, कैंसर, रक्तचाप, कोकिन, दमा, खासी, कब्जियत, बदहजमी, सिरदर्द, पेटदर्द, अल्सर आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। बीड़ी, सिगरेट, जर्दा, तम्बाकू में निकोटिन विष रहता है, चाय में केफिन विष रहता है, मद्य में अल्कोहल विष रहता है जो कि शरीर के लिये बहुत क्षति पहुँचाते है और उससे कैंसर आदि रोग उत्पन्न होते हैं। __ महात्मा गांधी स्वतन्त्रता के पहले बोलते थे एवं उनकी तीव्र भावना थी कि स्वतन्त्रता के पश्चात् मेरे को सर्वप्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ कार्य करना है तो भारत से पूर्ण मद्य निषेध करना है। महात्मा गांधी यहाँ तक कहते थे- "Tea is white poison" Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (९४) आचार्य वसुनन्दि चाय सफेद विष है यदि चाय को सफेद विष मानते थे तो अन्य मद्यादि साक्षात् विष को वे क्या मानते होंगे इसे आप सहज ही समझ सकते है, परन्त अत्यन्त शर्म की बात है कि वर्तमान की स्वतन्त्र सरकार स्वयं मद्य फैक्ट्री खोलकर, मद्य दुकान प्रत्येक गांव में खोलकर भारत की जनता को विष पिलाने में सतत् प्रयत्नशील है। सरकार सोचती है कि इससे कछ आर्थिक लाभ भी होता है परन्त मढ़ सरकार यह नहीं जानती कि वह अर्थ किनके है और उस मद्य से जो शारीरिक, मानसिक क्षति होती है उस क्षति को पूर्ण करने के लिये सरकार को एवं जनता को अर्थ व्यय करना पड़ता है। इससे लाभ की अपेक्षा व्यय कितना अधिक है। स्वास्थ्य के लिये सरकार, अस्पताल खोलती है एवं रोगी बनाने के लिये जनता को मद्य पिलाती है। इसलिये भारत की स्वतन्त्र सरकार को तथा प्रादेशिक शासकों को मद्य के प्रचारक कुछ पूंजीपतियों को मद्य का दुःपरिणाम जानकर उसका सम्पूर्ण शासकीय क्षेत्र में कानून लगाकर निषेध करना चाहिये तथा प्रजा को भी प्रवृत्त होकर स्व-इच्छा से मद्य तथा अन्य अन्य नशीली चीज सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।।७९।। मधुदोष-वर्णन जह मज्जं तह य महू जणयदि पावं णरस्स अइ बहुयं। असुइव्व शिंदणिज्जं वज्जेयव्वं पयत्तेण ।।८।। अन्वयार्थ- (जह मज्जं तह य मह) मद्य के समान मधु-सेवन भी, (णरस्स) मनुष्य के, (अइ बहुयं) अत्यधिक, (पावं जणयदि) पापों को उत्पन्न करता है। (असुइव्व) अशुचि के समान, (णिंदणिज्ज) निन्दनीय (मधु); (पयत्तेण) प्रयत्न से, (वज्जेयव्यं) छोड़ना चाहिये। भावार्थ- जिस प्रकार मद्यपान से मत्त होकर मनुष्य बहुत से कर्मों का बंध करता है उसी प्रकार मधु-सेवन से भी बहुत से कर्मों को उत्पन्न कर बंध करता है। मधु को मधु-मक्खियों का शौच (टट्टी) भी कहते है जो कि सत्य है। तो ऐसे शौच के समान अर्थात् अशुचि पूर्ण मधु जैसे पदार्थों का सेवन कौन करना चाहेगा अर्थात् कोई नहीं।।८०।। दह्ण असण मज्झे पडियं जह मच्छियं पि णिट्ठिवइ। , कह मच्छियंडयाणं णिज्जासं' णिग्विणो पिबइ ।। ८१।। अन्वयार्थ- (जह) जब, (असणमज्ञ) भोजन के मध्य में, (पडियं) पड़ी हुई, (मच्छियं पि दद्वण) मक्खी को भी देखकर, (णिट्ठिवइ) उगल देता है, (तो १. झ. नियसिंह निच्चोटनं निबोडनमिति। प.नि. पीलनम्। ध. निर्यासम्. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (९५) आचार्य वसुनन्दि फिर), (मच्छियंडयाणं) मक्खियों के अण्डो से, (णिज्जासं) निदर्यतापूर्वक निकाले हुए रस को, (णिग्घिणो) निर्घण, (कह) कैसे, (पिबई) पीता है। भावार्थ- जब भोजन की थाली में पड़ी हुई मक्खी को देखकर मनुष्य मुंह का ग्रास (कौर) उगलकर भी कुल्लाकर मुख शुद्धि करता है, तब फिर ऐसा कौन दुर्बुद्धि होगा जो मक्खियों के असंख्यात् अण्डों से निर्दयतापूर्वक बनाई गई शहद को ग्रहण करेगा।। ८१।। भो भो जिम्भिंदिय लुद्धयाणमच्छरेयं पलोएह। .. किमि मच्छिय णिज्जासं महुं पवित्तं भणंति जदो।। ८२।। · अन्वयार्थ- (भो- भो) भो-भो मनुष्यो, (जिब्भिंदिय-लुद्धयाणमच्छरेयं पलोएह) जिह्वेन्द्रिय-लुब्धक मनुष्यों के आश्चर्य को देखो (कि वे), (मच्छिय-णिज्जासं) मक्खियों के रस स्वरूप, (महुं) मधु को, (पवित्त) पवित्र, (जदो भणंति) जैसे कहते हैं? भावार्थ- आचार्य यहाँ पर जनसामान्य से कह रहे हैं कि हे! हे! लोगों जिह्वा इन्द्रिय के लोलुपी मनुष्यों के आश्चर्य को देखो अथवा उन्हें आश्चर्य से देखों कि वे मक्खियों के रस को पवित्र कहते है और उसका सेवन करते हैं? ।। ८२ ।। लोगे वि सुप्पसिद्धं बारह गामाइ जो डहइ अदओ। तत्तो सो अहिययरो पाविट्ठो जो महुं हणइ ।। ८३।। • अन्वयार्थ- (लोगे वि सुप्पसिद्धं) लोक में भी यह अच्छी तरह प्रसिद्ध है (कि), (जो अदओ बारह गामाइ डहइ) जो अदयी मनुष्य बारह गांवों को जलाता है, (तत्तो अहिययरो) उससे भी अधिक, (पाविट्ठो) पापी, (सो) वह (है), (जो) जो, (महुं हणइ) मधु को तोड़ता है। भावार्थ- ग्रन्थकार तत्कालीन प्रचलित लोक कहावत को उद्धरित करते हुए कहते है कि लोक में यह भलीभांति प्रसिद्ध है कि जो निर्दयी पापी बारह गांवों को जलाता है उससे भी अधिक पापी वह है जो मधुमक्खियों के द्वारा बनाये गये मधु के छत्ते को तोड़ता है अथवा नष्ट करता है। मधुमक्खियों के समूह के घात से उत्पन्न अपवित्र मधु की एक बूंद भी खाने वाला सात गांवों को जलाने में जितना पाप होता है, उससे भी अधिक पाप का बंध करता है। १. झ.ध.मच्छेयर. २. सागार धर्मामृत, २/११, पृ. ५३. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (९६) आचार्य वसुनन्दि) जो अवलेहइ णिच् णिरयं सो जाइ णत्थि संदेहो। एवं णाऊण फुडं वज्जेयव्वं महु तम्हा ।।८४।। अन्वयार्थ- (जो अवलेहइ णिच्चं) जो हमेशा मधु को चाटता है, (सोणिरयं जाइ) वह नरक जाता है, (णत्थि संदेहो) इससे सन्देह नहीं है, (एवं फुडं णाऊण) ऐसा स्पष्ट रूप से जानकर, (महुं वज्जेयव्यं) मधु को छोड़ देना चाहिये। ___ अर्थ- जो मनुष्य महेशा ही मधु खाता है अथवा चाटता है वह निश्चित रूप. से नरक गति का पात्र बनता है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। ऐसा स्पष्ट रूप . से जानकर मधु का त्याग करना चाहिये। व्याख्या- यद्यपि मधु भोजन का दैनिक अंग नहीं है, तथापि वैदिक संस्कृति में मधु अतिथि सत्कार का विशिष्ट अंग रहा है। मनुस्मृति में कहा है कि मघा नक्षत्र : और त्रयोदशी होने पर मधु से मिली हुई कोई भी वस्तु दें तो पितर उससे तृप्त होते हैं। पितर यह अभिलाषा करते हैं कि हमारे कुल में कोई ऐसा उत्पन्न हो जो त्रयोदशी तिथि को मधु तथा घी से मिली हुई खीर से हमारा श्राद्ध करे (३/२७३-२७४)। किन्तु मधु हिंसा से प्राप्त होता है। हिंसा से प्राप्त वस्तु किसी को भी समर्पित की जाये सुख-शान्ति में सहयोगी नहीं हो सकती। आचार्य अमृत चन्द्र पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में कहते हैं - स्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ।।७० ।। मधुकलशमपिप्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके । भजति मूढधी को यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ।।६९।। अर्थात् यदि कोई छल से अथवा मधुमक्खियों के छत्ते से स्वयं टपके हुए मधु को प्राप्त कर भी ले तो भी उसमें रहने वाले जन्तुओं के घात से हिंसा अवश्य होती है। लोक में मधु की प्राप्ति प्राय: मधुमक्खियों की हिंसा से होती है। जो मूढबुद्धि मधु का सेवन करता है, वह निश्चित ही हिंसक है। आचार्य सोमदेव अपने उपासकाध्ययन में लिखते हैं - उद्घान्तार्भकगर्भेऽस्मिन्नण्डजाण्डकखण्डवत् । कुतो मधु मधुच्छत्रे व्याधलुब्धक जीवितम् ।।२९४-९५।। १. आस्वादयति. . ३. प. जादि.. २. ४. झ.नियं.. झ. नाऊण. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (९७) ___ आचार्य वसुनन्दि) अर्थात् मधुमक्खियों के अण्डों के निचोने से पैदा हुए मधु का, जो रज और वीर्य के मिश्रण के समान है, कैसे सज्जन पुरुष सेवन करते हैं? मधु का छत्ता व्याकुल शिशुओं के गर्भ जैसा है और अण्डों से उत्पन्न होने वाले जन्तुओं के छोटे-छोटे अण्डों के टुकड़ों जैसा है। भील, व्याध वगैरह हिंसक पुरुष उसे खाते हैं। उसमें माधुर्य कहाँ? आचार्य अमितगति ने भी अमितगतिश्रावकाचार में कहा है - योऽत्तिनाम मधु भेषजेच्छया सोऽपि याति लघु दुःख मुल्वणम्। किन्न न नाशयति जीवितेच्छया भक्षितं झटिति जीवितं विषम्।। (५/२७-३३) जो औषधि के रूप में भी मधु का सेवन करता है वह भी तीव्र दुःख को प्राप्त होता है। यदि कोई जीवन की इच्छा से विष खावे तो क्या विष उसका जीवन नष्ट नहीं कर देता? अत: सुख के इच्छुक पण्डितजन घोर दुःखदायी मधु का सेवन नहीं करते। औषधि के रूप में मधु को कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिये अपितु गुड़ या शक्कर की चासनी का प्रयोग करना चाहिये। यह स्वास्थ्य के लिये भी लाभदायक है तथा पूर्णत: अहिंसोत्पन्न भी। . शहद वास्तव में मधुमक्खियों के अण्डे, बच्चे एवं मास का निचोड़ है। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक किलो शहद के लिये उन मक्खियों को लगभग ७०,००० किलो मीटर का चक्कर लगाना पड़ता है, इस बीच वह ६०,००० फूलों से रस चूसती है। . उपासकाध्ययन नामक ग्रन्थ में लिखा है कि उच्छिष्टं मधुमक्षिका मधुरसं वेश्मन् विनाशं तदा। कौशानि प्रभवन्ति बहूजीवस्तेऽपि मृत्युक्षणे।। रक्तं चाण्डजदेहिनां पललरुपं वा मधु भक्षणे । रूत्रं नगरमिव प्रभाति बहु धायत्संहरन्तेऽप्यदयम् ।।२८।। (अध्याय क्रमांक ४) अर्थात् प्रथमतः शहद मक्खियों की झूठन है। ग्रन्थकार ने शहद के छत्ते को विशाल नगर की उपमा दी है। जैसे किसी भी नगर में एक दिन में कितने ही लोग जन्म लेते हैं, तो कितने ही लोग अपनी जीवन लीला पूर्ण करते हैं। उसी प्रकार छत्ते में बहुत से जीव अण्डों के माध्यम से निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं, व उसी समय कई Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (९८) आचार्य वसुनन्दि) जीव आयु की समाप्ति से मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। जब शहद को निकाला जाएगा न जाने कितने जीव प्रत्यक्ष रूप में मारे जाएंगे? अतएव मधु भक्षण करने वाला जीव मांस भक्षी भी है। आगे और भी विश्लेषण करते हुए आचार्य देव ने लिखा है कि - भक्षणे भवति हिंसा नित्यमुदभवन्ति यज्जीवराशी । स्पर्शनेऽपि मृयन्ते सूक्ष्म निगोद रसज देहिनः ।।२९।। . . . अगदेऽपि न सेवितव्यः हिंसा भवति सेवनकाले । भावे विकृता खलु प्रदाता सुखमाभाति कदा ।।३०।। अर्थात् इस शहद में हमेशा सूक्ष्म निगोद शरीर ही जिसका रस है, ऐसे निगोदिया जीव उत्पन्न होते रहते हैं। वे जीव मात्र स्पर्श से भी मरण को प्राप्त होते है। औषधि के रूप में भी इसका सेवन अनुचित है। इसके सेवन से हिंसा होती है। भावों में विकृति आती है और किंचित् भी सुख प्राप्त नहीं होता। सज्जनों को यह जान लेना चाहिए कि शहद की एक बूंद खाने में ७ गांव जलाने के बराबर पाप लगता है, ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है। अतएव किसी भी अवस्था में मधु भक्ष्य नहीं है। . कई लोग (अन्यमतावलम्बी) पूजादिक कार्यों में मधु को इष्ट मानते हैं। आचार्य भगवन्त उन्हें समझाते है कि हिंसाजनक और अशुद्ध पदार्थों से उत्पन्न मधु पवित्र कार्यों में ग्राह्य कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता। ___आयुर्वेदिक औषधियों में भी अल्पज्ञानी वैद्यों के द्वारा मधु के प्रयोग का उपदेश दिया जा रहा है, परन्तु सद्गृहस्थ को औषधि के रूप में भी मधुभक्षण कदापि नहीं करना चाहिये।।८४।। मांस दोष-वर्णन मंसं अमेज्झ सरिसं किमिकुलभरियं दुगंधबीभत्छ । पाएण छिवेउं जं ण तीरए तं कहं भोत्तुं ।। ८५।। अन्वयार्थ- (मंसं अमेज्झ सरिस) मांस विष्टा के समान है, (किमिकुलभरियं) कृमियों के समूह से भरा हुआ है, (दुगंधबीभच्छं) दुर्गन्धियुक्त और बीभत्स है, (ज) जो, (पारण छिवे ण) पांव से छूने योग्य नहीं है, (तीरए तं कहं भोत्तुं) तो फिर वह खाने योग्य कैसे हो सकता है? अर्थ- मांस अमेध्य अर्थात् टट्टी के समान है, छोटे-छोटे कीड़ों के समूह से भरा हुआ है, दुर्गन्धि से युक्त, बीभत्स अर्थात् दिखने में भयानक और पैर से छूने के Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (९९) आचार्य वसुनन्दि) योग्य भी नहीं है, तो फिर भला ऐसा सैकड़ों दोषों से युक्त मांस खाने योग्य कैसे हो सकता है।। ८५।। व्याख्या- मांस के टुकड़े वृक्ष में नहीं लगते हैं, मांस के लिये त्रसकायिक बड़े जीवों का घात करना पड़ता है। उस मांस में कच्ची अवस्था में, पक्व अवस्था में एवं पकती हुई अवस्था में उसी जाति के करोड़ों निगोदिया जीव रहते हैं। मांस भक्षण से द्रव्य हिंसा एवं भाव हिंसा सदा सर्वदा होती है। मांसभक्षी जीव द्रव्यतः तथा भावतः तात्कालिक कुपरिणामी एवं भावी नारकी है। वह सर्वत्र अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है। शाकाहार के लिये जैसे धान्य-फल आदि वनस्पति सरलता से प्राप्त होती हैं। उस प्रकार मांस कोई भी वनस्पति से नहीं मिलता है। मांस के लिये बकरा, गाय, भैंस, मुर्गा, अण्डा, मछली आदि बड़े जीवों को निर्दय भाव से मारना पड़ता है। मारने के बाद भी वह मांस जीव से रहित नहीं होता है, किन्तु मांस के प्रत्येक कण में जिस जीव का मांस है उस जीव जाति के असंख्यात कोटि सूक्ष्म निगोदिया जीव प्रत्येक समय में रहते हैं। जैसे उदाहरणस्वरूप गाय का मांस है, उस मांस में गाय जातीय पञ्चेन्द्रिय सूक्ष्म निगोदिया जीव होते है। मांस को पकाते समय भी रहते है, पक्व होने के बाद भी अर्थात् तरकारी अवस्था में भी रहते है। मांस को छूने मात्र से अनेक जीव मर जाते हैं इसी प्रकार प्रत्येक समय में असंख्यात जीवों का घात होता रहता है। यह हुई द्रव्य हिंसा। बिना क्रूर निर्दय परिणाम से मांस के लिये कोई जीव का घात नहीं हो सकता है और भावों में जो कठोरता, निर्दयता है वह ही महान भाव हिंसा है इसलिये मांस भृक्षण से द्रव्य हिंसा एवं भाव हिंसा होती है। अगर कोई विचार करें कि स्वयं मरे हुए जीव के मांस खाने में कोई दोष नहीं है, तो ऐसा भी नहीं है उपरोक्त वर्णित तदजातीय जीवों का सद्भाव होने से एवं उन जीवों का घात होने से निश्चित रूप से दोष लगता ही है। कोई सोचेगा बना हुआ मांस खरीद कर खाने पर कोई दोष नहीं लगेगा, परन्तु उस मांस में भी असंख्यात जीव रहने से दोष निश्चित रूप से लगेगा ही। इस प्रकार जो बधिक जीव बध करता है वह भी हिंसा का भागी है, जो मांस पकाता है वह भी दोष का भागी है, जो मांस परोसता है वह भी दोष का भागी है, जो मांस खाता है वह भी दोष का भागी है। कोई-कोई जिह्वा लोलुपी, कुतर्की मूढ़ जीव मानते हैं कि एक प्रकार का कृत्रिम अण्डा (हाय ब्रेड अण्डा) जिसमें जीव उत्पन्न नहीं होता है वह अण्डा मांस नहीं है? परन्तु अज्ञानी नहीं जानता है कि वह अण्डा रज और वीर्य के संयोग से बना है, मुर्गी के गर्भ में बढ़ा है, गर्भ से अण्डा निकलने के बाद भी कुछ समय तक वृद्धि को प्राप्त होता है। यदि जीव नहीं होता है तो वह अण्डा बढ़ता कैसे? बढ़ने के कारण उसमें Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१००) आचार्य वसुनन्दि निश्चित जीव हैं, परन्तु उसमें इतनी जीवन शक्ति नहीं है कि उससे मुर्गी का बच्चा उत्पन्न हो सके। जैसे कुछ वृक्ष की शाखा को कलमी करने से नवीन वृक्ष उत्पन्न होता है और कुछ से उत्पन्न नहीं होता है, किन्तु दोनों प्रकार की शाखा वृक्ष से संयुक्त है। दोनों शाखायें बढ़ती है। दोनों पत्ते, पुष्प, फल धारण करती हैं। कदाचित् आपके मतानुसार पक्षी का जीव नहीं है तो भी उस मांस में तद्जातीय जीव करोड़ों की तादाद में रहते हैं। अण्डा भक्षण में उन जीवों का घात होता ही है। ___ प्रत्येक मांस में क्लोरिन आदि अनेक विषाक्त तत्त्व रहते है जिससे कैंसर, टी०बी०, रक्तचाप आदि रोग होते हैं। मनुष्य शरीर के अवयव यथा दांत, जिह्वा, आंत, नाखून आदि शाकाहारी प्राणी के समान है। मांसाहारी प्राणियों में जो शरीर के अवयव होते हैं वे अवयव शाकाहारी प्राणियों से अलग प्रकार के होते हैं। मांसाहारी प्राणियों के नाखून तीक्ष्ण, लम्बे एवं शक्तिशाली होते हैं जिससे वे शिकार को पकड़कर चीड़-फाड़ कर सके, किन्तु मनुष्य का नाखून उस प्रकार नहीं है। मांसाहारी पशुओं के दांत अत्यन्त तीक्ष्ण, नोकदार रहते है जिससे वे शिकार को फाड़ कर खा सकें, परन्तु मनुष्य के दांत शाकाहारी, गाय-भैंस के समान चपटे होते हैं। मांसाहारी प्राणी पानी को जीभ से चाट-चाट कर पीते हैं, परन्तु मनुष्य शाकाहारी प्राणियों के समान मुख में पानी भरकर पीता है। मांसाहारी प्राणियों की जिह्वा अत्यन्त रुक्ष, करकस एवं काटोंदार रहती है जिससे हड्डी में लगा हुआ मांस चाँटकर खाया जा सके। जबकि मनुष्य की जिह्वा चिकनी एवं कोमल रहती है। मांसाहारी प्राणियों के आंत छोटी रहती है, किन्तु मनुष्य की आंत शाकाहारी प्राणियों की आंत के समान लम्बी रहती है। इससे सिद्ध होता है कि प्रकृति से भी मनुष्य शाकाहारी प्राणी है। शाकाहार से अर्थ व्यय कम होता है एवं मांसाहार में अर्थ व्यय भी अधिक होता है। एक गाय से जीवनभर हजारों लीटर दूध प्राप्त कर सकते हैं। उससे दही, मठा, मक्खन, घी आदि उत्तम-उत्तम अमृत समान प्राणदायक सात्विक आहार प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु गाय को मारकर उसके मांस का प्रयोग मात्र एक-दो दिन के लिये ही हो सकता है। जिस गाय से जीवनभर अनेक सन्तान, हजारों लीटर दूध, अनेक टन प्राकृतिक स्वरूप उत्तम खाद उत्पन्न हो सकता है। उसको मारकर उससे प्राप्त कुछ किलो मांस से उपरोक्त सम्पूर्ण वस्तुओं की महती क्षति को पूर्ण नहीं कर सकते। , ___ प्रकृति में एक प्रकार समतोल रहता है। समतोल के अभाव में एक विक्षेप उत्पन्न होता है जिससे अनेक प्राकृतिक विप्लव होते हैं। जैसे - अनावृष्टि, दूषित वायुमण्डल, अनेक रोगों की उत्पत्ति आदि। उदाहरणस्वरूप कुछ वर्ष पूर्व भारत सरकार ने खेत के लिये, जनबस्ती के लिये एवं औद्योगिककार्य के लिये वन सम्पत्ति काट डाली। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०१) आचार्य वसुनन्दि वनस्पतियों की कमी से आक्सीजन (प्राण वायु) का अभाव हुआ, उष्णता बढ़ी, जिससे वर्षा होना कम हो गया, वातावरण दूषित हो गया, रोगों की वृद्धि हुई, वनस्पति सम्पत्ति का ह्रास हुआ, वन्य पशुओं का अभाव होते चला गया। इन सब उपरोक्त दुर्घटनाओं का सरकार ने अनुभव करके पुन: वृक्षारोपण प्रारम्भ किया। यदि केवल निम्न श्रेणीय जीवों के घात से इतना विप्लव हो सकता है तो क्या अभी जो सरकार पञ्चेन्द्रिय जीव, गाय, बकरा, सूअर, मुर्गा, मछली आदि का निर्मम भावों से अरबों की तादाद से घात करा रही है उससे क्या सुफल मिल सकता है अर्थात् तीन काल में भी नहीं मिल सकता है। . जलाशय से मछली, मेढ़क आदि को मारने से पानी दूषित एवं कीड़ों से भर जाता हैं, क्योंकि मछली आदि दूषित अंश को खाकर पानी को स्वच्छ रखते हैं। अस्वच्छ पानी के सेवन से रोग होता है। पक्षियों को मारने से विषाक्त कीड़ों की बढ़वारी बहुत हो जाती है। सिद्धान्ततः सम्पूर्ण विश्व प्रकृति का शरीर है। वनस्पति, पशु-पक्षी, मनुष्य, जलवायु आदि प्रकृति के शरीर के अवयव स्वरूप है। जैसे एक मनुष्य के एक हाथ को कष्ट देंगे तो दूसरा हाथ यह नहीं सोंचेगा कि मुझे तो कष्ट दे नहीं रहा है तो मैं उसका विरोध क्यों करूँ। परन्तु शरीर एक होने से जिसको क्षति नहीं पहुँच रही है वह हाथ भी शरीर की रक्षा के लिये एवं स्वसुरक्षा के लिये विरोध करेगा, बदला लेगा। इसी प्रकार प्रकृति के कोई भी अवयव को यदि मनुष्य क्षति पहुँचाता है तो मनुष्य को जान लेना चाहिये कि सम्पूर्ण प्रकृति उसके विरोध में विप्लव करेगी और मनुष्य समाज को ध्वंस करके ही रहेगी। . केवल मांस खाना हिंसात्मक नहीं है, परन्त कोई प्रकार की चर्म की वस्तु जैसे चप्पल, वेग, वेल्ट, आदि। प्रसाधन की वस्तु जैसे- नख पालिस, लिपिस्टिक, सेम्पू, इत्र, सेण्ट, स्नो, पाउडर, मूल्यवान् साबुन आदि जीवों के शारीरिक अवयवों से बनता है इसलिये इनका प्रयोग करना भी हिंसात्मक है। - मद्य मांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्दभक्षणम् । ये कुर्वन्ति वृथा तेषां, तीर्थ यात्रा जपस्तपः ।। (महाभारत) मद्यपान, मांस भक्षण, रात्रि भोजन, जमीकन्द भक्षण (आलू, प्याज, मूली, गाजर, लहसुन आदि) जो करता है उसकी तीर्थयात्रा, जप, तप सब वृथा हो जाते हैं। यावंति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत! तावद्वर्ष सहस्त्राणि पच्यते पशुघातका।। शुक्रशोणित संभूतं यो मांसं खादते नरः । जलेन कुरुते शौचं हसंते तत्र देवताः।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०२) आचार्य वसुनन्दि अस्थिनि वसति रुद्रस्तथा मांसे जनार्दनः । शुक्रे वसति ब्रह्मा तस्मान्मासं न भक्षयेत् ।। (विष्णुपुराण) पशु में जितने रोम रहते हैं उस पशु के घात से वह पशु घातक का उतने हजार वर्ष नरक में कष्टों को प्राप्त करता है। जैसे एक जीव में १०० रोम है तो उस पशु घातक को १००x१०००=१००००० (एक लाख) वर्ष तक नरक में यातनाएँ भोगनी पड़ेगी। विचार करो कि एक जीव में कितने करोड़ रोम रहते हैं तो उस पशु घातक को नरक में कितने वर्ष तक दुःख में पचना पड़ेगा। जीव का शरीर रज-वीर्य से बनता है। जो मांस खाता है वह दूषित रज-वीर्य को खाता है। मांस खाकर ऊपर से पानी से शरीर को शुद्धि करने से कभी भी शुद्धि नहीं हो सकता है। इसीलिये मांसभक्षी जल में शुद्धि करता है तब देवता लोग उसे देखकर हंसते हैं। . जीव की हड्डी में रुद्र वास करते हैं। मांस में विष्णु वास करते हैं, शुक्र में ब्रह्मा वास करते हैं इसलिये मांस नहीं खाना चाहिये। . यूपं छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिर कर्दमम्। यद्येवं गम्यते स्वर्ग नरकं केन गम्यते।। अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य सुसंयमं। मद्य मांसादि त्यागश्च तद्वैधर्मस्य लक्षणम्।।(महाभारत, शान्तिपर्व) अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं सुसंयमं। ' मद्य मांस मधुत्यागो रात्रि भोजन वर्जनम्।। मारकण्ड।। जो यूप (यज्ञ की विशेष लकड़ी) को छेदकर, पशु को मारकर, रुधिर की कीचड़ बनाकर यदि स्वर्ग जावें तो नरक किस पाप से जायेगा? अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, उत्तम संयम, मद्य-मांसादि का त्याग धर्म का लक्षण है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, उत्तम संयम का पालन तथा मद्य, मांस, मधु सेवन का त्याग व रात्रि भोजन त्याग धर्म है। भांग, मछली, सुरापान, जो जो प्राणी खायें। तीर्थ बरत अरु नेम किये सभे रसातल जायें।। (गुरु ग्रन्थ साहब कबीर) भांग खाना, मछली खाना, सुरापान जो-जो प्राणी करते हैं वे कितने भी तीर्थ यात्रा करें, व्रतादि पालन करें, नियम धारण करें तो भी वे सब रसातल (नरक) कों जायेंगे। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार. (१०३) आचार्य वसुनन्दि) मुसलमान मारे करद, हिन्दू मारे तलवार। कह कबीर दोनों मिली, जाये जम के द्वार ।। मुसलमान करद (चाकू से गला काटना) करता है, हिन्दू तलवार से काटता है, कबीर कहते हैं कि मुसलमान और हिन्दू दोनों मिलकर यम के द्वार पर जायेंगे। मांसाहारी मानवा, परतछ राक्षस अंग। तिनकी संगति मत करो, परत भजन में भंग ।। जो मांस खाता है वह प्रत्यक्ष राक्षस है उसकी संगति मत करो, क्योंकि उससे भजन कीर्तन में, प्रभु नाम गाने में, धर्म कार्य में विपत्ति आती है। है भला तेरा इसी में, मांस खाना छोड़ दें। इस मुबारक पेट में, कबरें बनाना छोड़ दें।। इसमें तेरा भला है कि तू मांस खाना छोड़ दें। मांस खाने से तेरा पवित्र पेट कब्र खाना बन जाता है। तू नहीं खायेगा तो तेरा पेट कबर खाना नहीं बनेगा। जो शिर काटे और का, अपना रहे कटाय। . धीरे धीरे नानका, बदला कही न जाय।। जो दूसरे का शिर काटता है उसका शिर एक न एक दिन अवश्य कट जाता है। सिक्ख के आदि गुरु नानकदेव कहते हैं कि बदला कभी चूकता नहीं है। जो रत्त जगे कापडे, जामा होवे पलीत। जे रत्त पीवे मानुषा, तिन क्यों निर्मल चित्त।। कपड़ा में रक्त लगने पर कपड़ा अपवित्र हो जाता है और जो मनुष्य रक्त पीता है, मांस खाता है उसका मन कैसे पवित्र हो सकता है? Thou Shalt not kill. तुम कोई भी प्राणी को मत मारो। (ईसा मसीह) 'हिंसा प्रसूतानि सर्व दुःखानि।' हिंसा सम्पूर्ण दुःखों को जन्म देती है। Animal food for those who will fight and die; And vegetable food fot those who will live and think." मांस-आहार उनके लिये है जो लड़ेंगे एवं मरेंगे। शाकाहार उनके लिये हैं जो जीवित रहेंगे एवं चिन्तन करेंगे। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०४) यावज्जीवं च यो मांसं विषवत्परिवर्जयेत् । वशिष्ठो भगवान्नाह प्राप्नुयात्स्वर्गसम्पदम् ।। आचार्य वसुनन्दि सम्पूर्ण जीवन जो मांस को विषतुल्य त्याग कर देता है वैदिक ऋषि वशिष्ठ भगवान् कहते है वह स्वर्ग सम्पत्ति को प्राप्त करता है। हिन्दू धर्म में कहा गया है कि पहले धर्मात्मा शाकाहारी ब्राह्मण धर्मशक्ति से आकाश में उड़कर गमन करते थे, परन्तु ब्राह्मण लोग मांस खाने से धार्मिक शक्ति क्षीण हो गई तब से ब्राह्मण लोग जमीन पर चलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि मांस नहीं खाने से कितनी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है और खाने से कितनी क्षति होती है। रक्तमात्र प्रवाहेण स्त्री निंद्या जायते स्फुटं । द्विधातुंजं पुनर्मांस पवित्रं जायते कथं ।। रितुवती के समय में अर्थात् रज निकलने से स्त्री अपवित्र हो जाती है और निश्चय से निन्दनीय होती है। परन्तु मांस रज एवं वीर्य दो धातुं से बनता है तब मांस पवित्र कैसे हो सकता है? कदापि नहीं हो सकता है; क्योंकि इसमें तो दो अपवित्र वस्तुओं का मिश्रण है। मांस भक्षण के और भी दोष मंसासणेण वड्डई दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमइ तो तं पिवण्णिए पाउणए दोसे ।। ८६ । । अन्वयार्थ— (मंसासणेण) मांस खाने से, (दप्पो वड्डइ) दर्प बढ़ता है, (दप्पेण मज्जमहिलसइ) दर्प से वह शराब पीने की इच्छा करता है, (जूयं पि. रमइ) जुआ भी खेलता है, (तो) (इसप्रकार ) वह, (तपि) उन सभी, (वण्णिए दोसे) कहे गये दोषों को, (पाउणए) प्राप्त होता है। भावार्थ- मांस के सेवन से दर्प अर्थात् अभिमान बढ़ता है, अभिमान से वह मांसाहारी व्यक्ति शराब पीने की इच्छा करता है, इसी कारण जुआ भी खेलता है और धीरे-धीरे वह व्यक्ति ऊपर कहे हुए सभी दोषों को करने लगते है। कहने का तात्पर्य है कि एक व्यसन का सेवन करने से वह सातों व्यसनों में लिप्त हो जाता है और अपनी पारिवारिक सुख-शान्ति को नष्ट कर नारकी जैसा जीवन जीने लगता है ।। ८६ ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार. (१०५) आचार्य वसुनन्दि - लौकिक शास्त्रों में मांस के दोष लोइय' सत्थम्मि वि वण्णियं जहा गयण-गामिणो विण्या। भुवि मंसासणेण पडिया तम्हा ण पउंजए' मंसं।। ८७।। अन्वयार्थ- (लोइय सत्यम्मि वि) लौकिक शास्त्रों में भी, (वण्णिय) वर्णित है, (जहा) जैसे, (गयण गामिणो विप्पा) गमन गामी विप्र, (मंसासणेण) मांस खाने से, (भुवि पडिया) पृथ्वी पर गिर पड़े, (तम्हा) इसलिए, (मंसं ण पउंजए) मांस का प्रयोग नहीं करना चाहिए। · अर्थ- लौकिक शास्त्रों में कहा है कि मांस खाने से आकाश में चलने वाले ब्राह्मण भी मांस के दोष से धरती पर गिर पड़े, उनकी आकाश में चलने की विद्या नष्ट हो गई। इसलिए बुद्धिमानों को कभी भी मांस का प्रयोग नहीं करना चाहिए। व्याख्या- पं० आशाधर जी मांस की निन्दा करते हए सागार धर्मामत में लिखते हैं - स्थानेऽश्नन्तु पलं हेतोः स्वतश्चाशुचिकश्मलाः । .. श्वादिलालावदप्यधुः शुचिम्मन्याः कथन्नु तत् ।।६।। (अ० २) . अर्थात् मांस स्वभाव से अपवित्र है और कारण से भी अपवित्र है (ऐसे अपवित्र मांस को जाति और कुल के आचार से हीन लोग खायें तो ठीक भी हो सकता है) किन्तु अपने को विशुद्ध आचारवान् मानने वाले कुत्ते की लार के तुल्य भी उस मांस को कैसे खाते हैं? यही आश्चर्य है। - इसी बात को आचार्य सोमदेव भी कहते है - स्वभावाशुचि दुर्गन्धमन्यापायं दुरास्पदम् । सन्तोऽदन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गति प्रदम ।। (सोम०उपा०, २७९ श्लोक) स्थल प्राणी के घात हए बिना मांस पैदा नहीं होता। और स्थल प्राणी की उत्पत्ति माता-पिता के रज-वीर्य से होती है। अत: मांस का कारण भी अपवित्र है और मांस स्वयं अपवित्र है ही उस पर मक्खियां भिन-भिनाती हैं, चील, कौए उसे देखकर मंडराते हैं। कसाईखाने को देखना कठिन होता है। ऐसे घृणित मांस को कुछ सभ्य लोग होटलों में बैठकर खाते ही हैं; किन्तु गंगा स्नान करके किसी के छु जाने के भय से गीली धोती स्वभाव १. ब. लोइये. .. २. इ. 'न वज्जए', झ. न पवज्जए इति पाठः . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०६) आचार्य वसुनन्दि पहने और हाथ में मांस का झोला लिये आचारवान् लोगों को भी देखा जा सकता है, जो मांस भक्षण में धर्म मानते हैं। ऐसे लोगों को लक्ष्य कर ही आशाधर जी ने उपरोक्त श्लोक लिखा है। मनुस्मृति में मांस भक्षण का विधान भी मिलता है और विरोध भी। विरोध में लिखाहै, जो व्यक्ति पशु को मारने की सम्मति देता है, जो पशुवध करता है, जो उसके अंग-अंग पृथक् करता है, जो मांस बेचता या खरीदता है, जो पकाता है, जो परोसता है और जो खाता है ये सभी पशु को मारने वाले के समान अपराधी हैं। (५/५१)। किन्तु आगे ही लिखा . है - 'मांस भक्षण आदि में दोष नहीं है। ये तो प्राणियों की प्रवृत्तियां हैं। किन्तु ‘इनकी निर्वृत्ति का महाफल है।' जिनके त्याग का महाफल है उनका सेवन निदोष कैसे हो सकता है? यह स्ववचन विरोध है। __ आशाधर जी आगे कहते हैं - स्वयं मरे हए भी मच्छ, भैंसा आदि के मांस को खाने वाला और छूने वाला भी हिंसक है; क्योंकि उस मांस की पकी हुई और बिना पकी डलियों में सदा निगोदिया जीवों के समूह उत्पन्न होते रहते हैं। ___ आशाधर जी से पूर्ववर्ती आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में कहते हैं - स्वयं मरे हुए भैंसा, बैल आदि का जो मांस होता है, उसमें भी हिंसा होती है, क्योंकि उस मांस के आश्रय से जो निगोदिया जीव उत्पन्न होते हैं उनका तो घात होता ही है। कच्ची, पकी हुई तथा पकती हुई मांस की डलियों में उसी जाति के निगोदिया जीव हमेशा उत्पन्न होते रहते हैं। अत: जो मांस डली को खाता है वह बहुत से जीवों का घात करता है। १ इनके भी पहले आचार्य हरिभद्र ने भी यही बातें अपने सम्बोध प्रकरण में कही हैं।२ शंका- कुछ मांसभक्षी यह दलील देते हैं कि जैसे अन्न जीव का शरीर है वैसे ही मांस भी जीव का शरीर है अत: अन्न की तरह मांस भी खाद्य है? समाधान- इस कथन का खण्डन करते हुए आचार्य सोमदेव अपने उपासकाचार (३०२-३०५) में कहते हैं - मांस जीव का शरीर है यह ठीक है; किन्तु जो-जो जीव का शरीर है वह माँस है, ऐसी व्याप्ति नहीं है। जैसे नीम वृक्ष है यह ठीक है; किन्तु जो-जो वृक्ष हैं वह नीम है यह कहना ठीक नहीं है तथा जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनों जीव हैं फिर भी पक्षी को मारने की अपेक्षा ब्राह्मण को मारने में ज्यादा पाप है। वैसे ही फल भी जीव का शरीर है और मांस भी जीव का शरीर है; किन्तु फल खाने की अपेक्षा मांस खाने में ज्यादा पाप है, जो यह कहता है कि फल और मांस दोनों ही जीव का शरीर होने से समान है उसके लिए पत्नि और माता दोनों ही स्त्री होने १. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय,श्लो०६६-६८.२. संबोध प्रकरण, गाथा ६/१७५. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१०७) आचार्य वसुनन्दि से समान है तथा शराब और पानी दोनों ही पेय होने से समान हैं। अत: जैसे वह पत्नि और पानी का उपभोग करता है वैसे ही माता और शराब का उपभोग वह क्यों नहीं करता। गौ का दूध शुद्ध है; किन्तु गोमांस शुद्ध नहीं है। वस्तु का वैचित्र्य इसी प्रकार है, इसी तरह मांस और दूध का एक कारण होने पर भी मांस छोड़ने योग्य है और दूध पीने योग्य है। जैसे एक विष वृक्ष का पत्ता आयुवर्धक होता है और जड़ मृत्यु का कारण होती है। मांस भी शरीर का हिस्सा है और दूध भी शरीर का हिस्सा है, फिर भी मांस में दोष है दूध में नहीं। जैसे ब्राह्मणों में जीभ से शराब का स्पर्श करने में दोष है पैर में लग जाने में नहीं। इसलिये जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें बौद्ध, सांख्य, चार्वाक, वैदिक और शैवों के मतों की परवाह न करके मांस का त्याग करना चाहिए। जैसे जो परस्त्री गामी पुरुष अपनी माता के साथ सम्भोग करता है तो दो पाप करता है। एक तो. परस्त्री गमन का पाप करता है, दूसरे माता के साथ सम्भोग करने का पाप करता है। उसी तरह जो मनुष्य धर्म बुद्धि से लालसापूर्वक मांस भक्षण करता है, वह भी दो पाप करता है। एक तो वह मांस खाता है, दूसरे धर्म बुद्धि से खाता है। इस तरह शास्त्रकारों ने मांस को हिंसापरक मानकर उसका निषेध किया है। ‘आज के वैज्ञानिक युग में मांस मनुष्य का प्राकृतिक आहार नहीं माना जाता। मांस भोजी पशुओं के शरीर की रचना भिन्न ही प्रकार की होती है। उनके दांतों की रचना भी मांस भक्षण के अनुकूल ही होती है। मनुष्य के शरीर की रचना उससे विपरीत है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी मांसाहार बुरा है। प्राकृतिक चिकित्सा में वह त्याज्य माना गया है, तामसिक है, अत: मांस भक्षण नहीं करना चाहिये।।८७।। वेश्या गमन दोष वर्णन कारुय-किराय-चंडाल-डोंब- पारसियाणमुच्छिटुं। सो भक्खेइ जो सह वसइ एयरत्तिं पि वेस्साए ।।८८ ।। ..... अन्वयार्थ- (जो एयरत्तिं पि) जो एक रात भी, (वेस्साए सह वसइ) वेश्या के साथ रहता है, (सो) वह, (कारुय-किराय-चंडाल-डोंब-पारसियाणमुच्छि8 भक्खेइ) कारु (लुहार), किरात, चाण्डाल, डोंब, पारसी आदि नीच लोगों का जूठा खाता है। भावार्थ- जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्या के साथ निवास करता है, वह कारु अर्थात् लुहार, चमार, किरात (भील), चाण्डाल, डोंब (भंगी) और पारसी आदि नीच लोगों का जूठा खाता है, क्योंकि वेश्या इन सभी नीच लोगों के साथ समागम करती है।।८८।। १. झ.व. वेसाए. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१०८) आचार्य वसुनन्दि रत्तं णाऊणं णरं सव्वस्सं हरइ वंचण सएहिं। काऊण मुयइपच्छा पुरिसं चम्मट्ठि परिसेसं ।।८९।। अन्वयार्थ- (रत्तं णाऊणं णरं) मनुष्य को अनुरक्त जानकर (वेश्या), (सएहिं वंचण) सैकड़ों प्रवंचनाओं से, (सव्वस्स) (उसका) सर्वस्व, (हरइ) हर लेती है, (पुरिस) पुरुष को, (चम्मट्ठि परिसेस) चर्म और हड्डी शेष, (काऊण) करके, (पच्छा मुयइ) बाद में छोड़ देती है। भावार्थ- वेश्या मनुष्य को अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ों प्रवंचनाओं से उसका सर्वस्व हर लेती है, और पुरुष को अस्थि चर्म परिशेष करके अर्थात् जब . उसमें हाड़ और चाम ही अवशेष रह जाता है, तब उसको छोड़ देती है। जब मनुष्य की सम्पूर्ण धन-दौलत और सम्पत्ति वेश्या के पास पहुंच जाती है तथा मनुष्य के शरीर में खून, मांस, वीर्य आदि कम हो जाता है तब वेश्या उसे मरी हुई मक्खी के समान छोड़ देती है।।८९।। पभणइ पुरओ एयस्स सामी मोत्तूण णत्थि मे अण्णो। .. उच्चइ अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि।।९।। अन्वयार्थ- (एयस्स पुरओ) एक के सामने, (पभणइ) कहती है (तुम्हें), (मोत्तण) छोड़कर, (अण्णो मे सामी णत्थि) कोई दूसरा मेरा स्वामी नहीं है, (पुणो) पुन:, (अण्णस्स) अन्य के (सामने), (उच्चइ) कहती है, (और भी), (बहुयाणि) बहुत प्रकार से, (चाडूणि) चापलूसी (करेइ) करती है। भावार्थ- वह वेश्या एक पुरुष के सामने कहती है कि तुम्हें छोड़कर अर्थात् तुम्हारे सिवा मेरा कोई स्वामी नहीं है, तुम ही मेरे लिए सब कुछ हो। इसी प्रकार वह अन्य किसी विट पुरुष से भी ऐसा ही कहती है कि तुम ही मेरे स्वामी हो, यह धन सम्पत्ति और शरीर तक तुम्हें समर्पित है। तुम बहुत सुन्दर हो, तुम जैसे बलवान् पुरुष को पाकर में धन्य हो गई, तुम्हारे लिये तो मैं अपनी जान भी दे सकती हूँ इत्यादि अनेक चाटुकारियां अर्थात् खुशामदी बातें करती है।।९० ।। माणी कुलजो सूरो वि कुणइ दासत्तणं पि णीचाणं। वेस्सा' कएण बहुगं अवमाणं सहइ कामंधो।।९१।।। १. झ. नाऊण. ३. झ. ब. तं ण. ५. ब. वेसा. २. ४. ब. सव्वं सहरइ. झ. बुच्चइ. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०९) आचार्य वसुनन्दि) अन्वयार्थ- (कामंधो) कामांध, (माणी) मानी, (कुलजो) कुलीन, (सूरो वि) शूरवीर मनुष्य भी, (णीचाणं पि) नीचों की भी, (दासत्तणं कुणइ) दासता करता है, (नेस्सा कएण) वेश्या के द्वारा किये हुए, (बहुगं) बहुत, (अवमाणं) अपमानों को, (सहइ) सहता है। भावार्थ- कामेन्द्रिय के वशीभूत होकर मनुष्य स्त्री का भोग करना चाहता है, ऐसा इन्द्रिय लम्पटी जब किसी वेश्या आदि की चाहना करता है तब वह अपनी मान-मर्यादा को भी ताक में रख देता है। मानी, कुलीन और शूरवीर मनुष्यों को भी वेश्या के चक्कर में फंसकर नीच लोगों की दासता स्वीकार करना पड़ती है अर्थात् उनकी नौकरी करनी पड़ती है। वह धूर्त वेश्या के द्वारा किये गये कई अपमानों को सहता है।।९१।। . जे मज्जमंसदोसा वेस्सा गमणम्मि होंति ते सव्वे । पावं पि तत्थ हिटुं पावइ णियमेण सविसेसं ।। ९२।। अन्वयार्थ (जे मज्जमंस दोसा) जो दोष मद्य मांस में हैं, (ते सव्वे) वे सभी, (वेस्सा गमणम्मि) वेश्यागमन में, (होंति) होते हैं, (पावं पि तत्थ हिटुं पावइ) (इससे) उन्नका पाप तो पाता ही है, (णियमेण) नियम से, (सविसेस) कुछ विशेष (पाप के फल को भी पाता है)। भावार्थ-जो-जो दोष मद्य और मांस के सेवन में होते हैं वे सभी दोष वेश्यागमन में भी होते हैं। इसलिये वेश्या सेवी मद्य और मांस सेवन के पाप फल को तो प्राप्त होता ही है, किन्तु वेश्या सेवन के विशेष अधम पाप को भी नियम से प्राप्त होता है अर्थात् उसे तिगुना-चौगुना पाप का भागीदार होना पड़ता है।।९२।। . पावेण तेण दुक्खं पावइ संसार-सायरे घोरे । ... तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयणकाएहिं ।। ९३।। अन्वयार्थ- (तेण पावेण) उस पाप से (जीव), (घोरे) भयानक, (संसार-सायरे) संसाररूपी समुद्र में, (दुक्खं पावइ) दुःखों को पाता है, (तम्हा) इसलिए, (वेस्सा) वेश्या का, (मण-वयकाएहिं) मन-वचन-काय से, (परिहरियव्वा) त्याग करना चाहिए। अर्थ- उस वेश्या सेवन करने से उत्पन्न पाप के कारण यह जीव घोर संसार-सागर में भयानक दुःखों को प्राप्त करता है। नरकों में तो लोहे की गर्म बनावटी स्त्री से आलिंगन कराया जाता है जिससे बेचारे नारकी का सारा-शरीर जल जाता है १. ब. वेसा २. ब. वेसा. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (११०) आचार्य वसुनन्दि और भी भयङ्कर-भयङ्कर दुःख वेश्या सेवी को भोगना पड़ते है। अत: मन, वचन, काय से वेश्यागमन का त्याग करना चाहिये । व्याख्या– वेश्या मांस खाती है, मद्य पीती है, झूठ बोलती है, केवल धन के लिए प्रेम करती है, नीच से नीच पुरुष उन्हें भोगता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने उन्हें धोबियों के कपड़ा धोने के पत्थर की उपमा दी है। जैसे धोबे के पत्थर पर सभी प्रकार के कपड़े धोए जाते हैं, वही स्थिति वेश्या की है। जिसने वेश्या सेवन का त्याग किया है वह गाने बजाने और नाच आदि आसक्ति, बिना प्रयोजन बाजारों में घूमना, व्यभिचारी पुरुषों की संगति तथा वेश्या के घर आना-जाना, उसके साथ वार्तालाप करना, उसका आदर-सत्कार भी सदा के लिए छोड़ना चाहिए। वेश्यागमन करने से ब्रह्मचर्य भावना का घात होता है, वेश्यागमन अनीति की मूल है, इहलोक, परलोक में दु:खदायी है। वेश्या को पण्य-स्त्री कहते हैं। वे स्त्रियाँ रुपया लेकर अपने शील को पर पुरुष बेचती हैं। रुपया के लोभ से वे रोगी, पापी, हीन, दीन व्यक्तियों के साथ भी भोग करती है जिससे उसकी योनी में अनेक संक्रामक रोग होते है जिससे उनके साथ जो भोग करता है उनको भयंकर सुजाक, गर्मी आदि संक्रामक रोग हो जाते हैं जिससे लिंग में मरण प्रायः तीव्र वेदना होती है। वह जार पुरुष लज्जा के कारण किसी को उस रोग के बारे में नहीं बताता है जिससे उसका इलाज होना भी कठिन हो जाता है इस प्रकार जार पुरुष रुपया देकर रोगों को खरीदता है । जार पुरुष को सब कोई हीन दृष्टि से देखते हैं । वेश्या में आशक्त होकर अपनी सारी सम्पत्ति दे डालता है जिससे वह निर्धन हो जाता है और परिवार जन कष्ट उठाते हैं। तद्भव मोक्षगामी स्वाध्याय प्रेमी, ज्ञानी चारुदत्त जो कि विवाह के पश्चात् भी अपनी नव युवती सुन्दरी स्त्री को देखता तक नहीं था वही चारुदत्त वसन्तसेना वेश्या के कारण १२ वर्ष तक वेश्या के घर में रहा और ३२ लाख स्वर्ण दीनार खो डाली एवं अंत 'सण्डासगृह में उसे डलवा दिया गया। इस प्रकार धन, यौवन, धर्म, स्वास्थ्य, शील आदि को नाश करने वाले वेश्यागमन का त्याग करना चाहिये । में " महान दुःख की बात है कि कुछ प्रादेशिक सरकार वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने के लिये वेश्याओं को लायसेंस दे रही हैं जिससे बाम्बे, पूना आदि महानगरी में वेश्याओं की संख्या खूब बढ़ रही है, परन्तु विवेकी सरकार तथा जनता को चाहिये कि इसका शक्त विरोध एवं निषेध करे जिससे देश में शील, न्याय नीति कायम रहेगी। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१११) आचार्य वसुनन्दि वेश्या के यहाँ आना-जाना, उसका सहवास करना, वेश्याओं का नृत्य देखना, गाना सुनना, उनसे लेन-देन करना आदि वेश्यागमन में अन्तर्भूत है। वेश्यागमन का दुष्परिणाम जो भौतिकवादी. विलास प्रिय अमेरिका आदि देश शील का मखोल उड़ाते थे वे आज एड्स रोग के कारण शील को महत्त्व देने लगे हैं। नीतिकारों ने कहा है - . “आर्त नर धर्म परा भवन्ति” दुःखीजन धर्मपरायण होते हैं। दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, सो दुःख काय को होय।। यह एड्स रोग वेश्यागमन से होता है। इसका वर्णन नवभारत टाइम्स २९ मई १९८८ में आया हुआ विषय यहाँ उद्धृत कर रहे हैं- लेख का नाम है- यौन क्रान्ति का अन्त - जान देने और दिल लुटाने के मुहावरे आज सच्चाई बन गए है। मन चलों की दुनिया में खलबली मच गई है। रंगीन रातें संगीन बनती जा रही है। लालबत्ती वाले इलाकों में आशिक और माशक बेमौत मर रहे हैं। तमाम वेश्याएँ विष कन्याओं में बदलती जा रही है। परकीया प्रेम की दुहाई देने वाले घर लौट रहे हैं। कौमार्य और ब्रह्मचर्य जैसी गई-गुजरी बातें फिर से श्रद्धा की पात्र हो गई है। जो पश्चिमी देश आधुनिकता के नाम पर उन्मुक्तं यौन उच्छंखलता में आकर डूबे हुए थे, वे आज अपने किए पर पछता रहे हैं। . यह अजीब जीव एक किस्म का वाइरस यानी विषाणु है। जितना छोटा उतना खोटा। यह वाइरस इतना छोटा है कि इसका व्यास १०० नेनोमीटर या ०.१ माइक्रोमीटर मापा गया है। ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव ने आज लगभग १३३ देशों में एड्स का असाध्य रोग फैलाकर ऐसी दहसत पैदा की है कि उसके सामने परमाणु युद्ध का आतंक भी नहीं रह गया है। इस रोगाण का शोध १९८३ में पेरिस के डॉक्टर लुक मोंटारनीर ने और १९८४ में अमेरिका के डॉ० रॉबर्ट गैली ने किया। एड्स का वाइरस आधुनिक समाज में व्याप्त हिंसा और आतंक का मानो वामन अवतार है। एड्स का वाइरस वामन देह के अन्दर खन में पलता है पहले यह हमारे खून की प्रतिरक्षा प्रणाली के पहरेदारों को दबोचता है उसके बाद चाहे फ्लू हो या निमोनिया किसी भी रोगाणु के खिलाफ रोगी के खून में ऐंटीबाडी नहीं बनती है। एक बार पूरे खून में एड्स के विषाणु फैल जाये तो चन्द महीनों में ही मौत रोगी को अपने पंजे में दबोच लेती है। अमेरिका में सतरादिक में ब्लू फिल्मों के बेताज बादशाह माने जाने वाले जॉन होल्मस का १४००० रमणियों का रिकार्ड है। जुलाई १९८६ में वे एडम वाइरस Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (११२) आचार्य वसुनन्दि की चपेट में आये और मार्च १९८८ में निमोनिया ने प्राण लिये । अक्सर अतिसार, बुखार और वजन घटते जाने से एड्स के लक्षण प्रगट होते हैं। धीरे-धीरे ओजहीन होता हुआ एड्स रोगी सूख कर कांटा हो जाता है। एड्स का वाइरस सबसे पहले दिमाग पर हमला बोलता है और रोगी सनक का शिकार हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अकेले अफ्रीका देशों में ही २० लाख से अधिक स्त्री-पुरुषों की देह में एड्स का वाइरस पल रहा है। सारी दुनिया में ५० लाख से १ करोड़ लोग इस घातक वाइरस के जीते-जागते बम बने घूम रहे हैं। इनमें से १५ लाख - अकेले अमेरिका में है। यूनीसेफ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अगले दशक में ५० लाख से ३ करोड़ तक बच्चे भी एड्स के शिकार हो जाएँगे। इस समयभी ६ हजार बच्चे जाम्बिया में और १४००० अमेरिका में एड्स से पीड़ित हैं। इनको यह रोग माता-पिता से लगा. है स्तनपान से उतना खतरा नहीं है। केवल दो बच्चों को यह रोग एड्सग्रस्त माँ के स्तनपान से पहुँचा। रक्त-शुक्राणु और खराब सुइयों के कारण ही एड्स अधिक फैलता है। तथाकथित यौन-क्रान्ति आखिरी सांसें गिन रही है। दुनिया भर के दुराचार के अड्डों में सनसनी फैल गई है। जो काम सन्त महात्मा नहीं कर पाए वह 'एड्स' की बीमारी फैलाने वाले एक निहायत क्षुद्र प्राणी ने कर दिखाया। इसीलिये एक बार फिर पश्चिमी स्कूलों में नैतिकता की दुहाई दी जा रही है। मैथुन में हिसा मेडिकल शोध से सिद्ध हुआ है कि २५ बिन्दु वीर्य में ६० मिलियन (६ करोड़ ) से ११० (११ करोड़) मिलियन सूक्ष्म जीव रहते हैं। शोधकर्त्ताओं ने स्वयं सूक्ष्मदर्शक यन्त्र में वीर्य से जीव चलते-फिरते हुए देखे हैं । जीवों का आकार प्रायः सूक्ष्म मनुष्य के आकार के समान है। माता का रज एसिड (अम्ल) गुणयुक्त होता हैं। पिता का वीर्य आलक्काइन् (क्षारगुण) गुणयुक्त होता है। सम्भोग में रज एवं वीर्य के संयोग होने पर एसिड एवं आलक्काइन् का रासायनिक मिश्रण होने के कारण जो रासायनिक प्रतिक्रिया होती है उससे उन जीवों का संहार हो जाता है। आचार्यों का इस विषय में विशेष लिखने का कारण यह है कि अज्ञानता के कारण मनुष्य समाज को जो महती क्षति पहुँच रही है, उससे मनुष्य समाज की रक्षा हो । यदि एक मनुष्य भी आंशिक रूप से ब्रह्मचर्य को आचरण में लायें तो आचार्यों का लिखना सार्थक हो जायेगा । । ९३ ।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (११३) आचार्य वसुनन्दि) शिकार दोष वर्णन सम्मत्तस्स पहाणो अणुकंवा वण्णिओ गुणो जम्हा। पारद्धि रमण सीलो सम्मत्तविराहओ तम्हा।।९४।। अन्वयार्थ– (सम्मत्तस्स पहाणो गुणो) सम्यक्त्व का प्रधान गुण, (जम्हा) यतः, (अणुकंवा वण्णिओ) अनुकम्पा कहा गया है, (तम्हा) ततः, (पारद्धि रमणसीलो) शिकार के स्वभाव वाला, (सम्मत्तविराहओ) सम्यक्त्व का विराधक है। भावार्थ- सम्यग्दर्शन का प्रधान गुण अनुकम्पा कहा गया है जिसके अन्दर अनुकम्पा आदि गुण हैं वह सम्यग्दृष्टि है, किन्तु जिनके अन्दर अनुकम्पा नहीं है, जो शिकार आदि हिंसक कार्यों में लगे रहते हैं वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं अर्थात् नहीं हो सकते।।९४।। . दवण. मुक्ककेसं पलायमाणं तहा पराहुत्तं । रद' परियतिणं सूरा कयापराहं वि ण हणंति।।९५।। अन्वयार्थ– (मुक्ककेसं) जिनके केश मुक्त हैं, (पलायमान) भाग रहे है, (तहा) तथा, (पराहुत्तं) पराङ्गमुख है, (रदधरियतिण) दांतों से तृण दावे हुए है (ऐसे), (कयावराहं वि) अपराधी जीव को भी, (सूरा ण हणंति) शूरवीर नहीं मारते हैं। भावार्थ- जो मुक्त केश है अर्थात् डर के मारे जिनके रोंगटे खड़े हो गये हैं, ऐसे भागते हुए तथा पराङ्मुख अर्थात् अपनी ओर पीठ किये हुए है और दांतों में जो तृण अर्थात् घास को दाबे हुए हैं, ऐसे अपराध करने वाले जीवों को भी शूरवीर नहीं मारते। फिर निरपराध पशुओं को कैसे मार सकते है? ।।९५।। णिच्चं पलायमाणो तिण चारी तह णिरवराहो वि। .. कह णिग्यणो हणिज्जइ आरण्णणिवासिणो वि मए ।।९६।। - अन्वयार्थ- (णिच्चं पलायमाणो) (जो भय से) नित्य ही भागने वाले है, (तिणचारी) तृण चरते है, (तह) तथा, (णिरवराहो वि) निरपराध भी है, (ऐसे), (आरण्णणिवासिणो मए वि) वनों में रहने वाले मृगों को भी, (णिग्यणो) निर्दयी मनुष्य, (कह) कैसे, (हणिज्जइ) मारते हैं? भावार्थ- जो हमेशा ही भय के कारण इधर-उधर भागते रहते हैं, तृण अर्थात् घास खाने वाले हैं तथा निरपराध भी है ऐसे वनों में रहने वाले मृगों अर्थात् जानवरों १. झ. दंत. २. ब. तणं ३. ब. तणं. ४. झ.ब. हणिज्जा. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (११४) आचार्य वसनन्दि को कैसे यह पापी निर्दयी मनुष्य मारते हैं? बड़े आश्चर्य की बात है। बलवान् और अपराधी तो कदाचित् दण्ड के पात्र हो सकते हैं, किन्तु यह दीन-हीन प्राणी तो मात्र दया के पात्र हैं।।९६।। गो वंभणित्थिघायं परिहरमाणस्स होइ' जइ धम्मो। सव्वेसिं जीवाणं दयाए२ ता किं ण सो हुज्जा।।९७।। अन्वयार्थ- (गो वंभणित्थिघायं परिहरमाणस्स) गो-ब्राह्मण एवं स्त्रीघात . का परिहार करने वाले के, (जइ) यदि, (धम्मो होइ) धर्म होता है, (तो), (सव्वेसिं जीवाणं दयाए) सभी जीवों की दया करने से, (ता किं ण सो हुज्जा) वह क्यों नहीं होगा? भावार्थ- जब गाय, ब्राह्मण एवं स्त्री घात का परिहार करने वाले पुरुष को धर्म होता है तब जो सभी जीवों पर दया करेगा उसे धर्म क्यों नहीं होगा अर्थात् अवश्य होगा। सभी जीवों की रक्षा करने से जीवों को अभयदान देने एवं उन्हें न सताने दोनों का पुण्य प्राप्त होगा।।९७।। गो-बंभण-महिलाणं विणिवाए हवइ जह महापावं। तह इयर पाणिघाए वि होइ पावं ण संदेहो।।१८।। अन्वयार्थ- (जह) जिस प्रकार, (गो-वंभण महिलाणं विणिवाए) गाय, ब्राह्मण, महिलाओं को मारने में, (महापावं हवइ) महापाप होता है, (तह) उसी प्रकार, (इयर पाणिघाए वि) दूसरे प्राणियों का घात होने पर भी, (पावं होइ) पाप होता है, (ण संदेहो) इसमें सन्देह नहीं है। भावार्थ- यदि गाय, ब्राह्मण और स्त्रियों की हिंसा करने में महापाप होता है, तो दूसरे प्राणियों का घात करने पर भी हिंसा होती है, इसमें बिल्कुल भी सन्देह नहीं करना चाहिये, क्योंकि सभी जीवों के प्राण समान हैं। सभी को सुख-दुःख का अनुभव होता है और सभी जीवित रहना चाहते, सुखी रहना चाहते हैं।।९८।। महु-मज्ज-मस-सेवी पावइ पावं चिरेण जं घोरं। तं एयदिणे पुरिसो लहेइ पारद्धि रमणेण।।१९।। अन्वयार्थ- (महुमज्ज मंससेवी) मधु, मद्य, मांससेवी, (जं पावं) जिस घोर पाप को, (चिरेण पावइ) बहुत काल में पाता है, (तं) उसको, (घोरं पारद्धि रमणेण) शिकार करने से, (पुरिसो) पुरुष, (एयदिणे लहेइ) एक दिन में प्राप्त करता है। १. ब. इवइ. २. ब. दयायि. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (११५) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- मद्य, मांस, मधु का सेवन करने वाला जिस पाप को बहुत काल में पाता है, उसको शिकारी पुरुष एक दिन में प्राप्त करते हैं। व्याख्या- बहुत काल तक मधु, मद्य और मांस के सेवन करने वाला जिस घोर पाप को प्राप्त होता है, उस पाप को शिकारी पुरुष एक दिन भी शिकार खेलने से प्राप्त होता है अर्थात् मद्य, मांस और मधु से भी कई गुणा पाप शिकार खेलने में है। अत: किसी भी जीव को नहीं मारना चाहिए। एक शिकारी जाल बिछाता है अथवा शिकार करता है, तब उसके परिणाम अत्यन्त खोटे होते हैं। वह यही सोचता रहता है कि कब कोई पशु-पक्षी जाल में फँसे अथवा कब मैं उसका शिकार करूँ। ऐसे खोटे परिणामों के कारण उसे सैकड़ों जीवों को मारने का पाप लगेगा। जबकि किसान खेती करते हुए भी हिंसक नहीं क्योंकि उसके भाव जीव मारने के नहीं धान्य उत्पन्न करने के हैं। अत: द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की हिंसा छोड़नी. चाहिए।।९९।। संसारम्मि अणंतं दुक्खं पाउणदि तेण पावेण । .. तम्हा विवज्जियव्वा पारद्धी देसविरएण।।१०।। अन्वयार्थ- (तेण पावेण) उस पाप से, (संसारम्मि) संसार में (जीव), (अणंत दुक्ख) अनन्त दुःखों को, (पाउणदि) प्राप्त करता है, (तम्हा) इसलिए, (देस विरएण) देशव्रती को, (पारद्धि) शिकार का, (विवज्जियव्या) त्याग करना चाहिये। . अर्थ- उस शिकार खेलने से उत्पन्न हुए पाप के कारण यह जीव संसार के अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है। अत: इस व्यसन का त्याग देशविरतियों अर्थात् पञ्चम गुणस्थान वरती श्रावकों को तो करना ही चाहिए, सामान्य मनुष्यों द्वारा भी यह (शिकार) छोड़ा जाना चाहिए। . व्याख्या- बेचारी हरिणी जंगल में तृण खाकर रहती है, उसका कोई रक्षक नहीं है। स्वभाव से ही डरपोक है, किसी को सताती नहीं। खेद है कि मांस के लोभी नीच लोग उस हरिणी को भी नहीं छोड़ते हैं। यदि हमें चोटीं भी काटती है तो तलमला है, किन्तु अन्य पशुओं को वाणों, तलवारों या चाकू से बींध डालते समय मन में जरा भी दया नहीं रहती। ऐसे हिंसक पापी मनुष्यों को ध्यान रखना चाहिए कि "जैसा कर्म करोगे, वैसा ही फल भोगना पड़ेगा।" अगर आज शक्तिशाली होकर हम किसी को सताएंगे, काटेंगे तो निश्चित समझो कालान्तर में उसके द्वारा हम भी सतायें जायेंगे और काटे जायेंगे। हिंसा में शिकार सबसे बढ़ा पाप है इसे तो सर्वथा नियमपूर्वक छोड़ना चाहिए। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (११६) आचार्य वसुनन्दि आजकल तो और नये आधुनिक ढंग से शिकार होने लगे हैं जैसे चूहों को पिंजरों में पकड़ना, दवा डालकर खटमलों या मच्छरों को मारना, आधुनिक हथियारों या मशीनों से पशुओं को काटना आदि। नाखून पालिस, सौन्दर्य प्रसाधन एवं चमड़े के वेल्ट, पर्स आदि भी पशुओं के क्रूर ढंग से किये गये शिकार से प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति हिंसक सामग्रियों का उपयोग करतेहै वे भी हिंसा पाप के भागीदार हैं, उन्हें भी शिकार व्यसन का दोष लगता है। वे भी कसाई की श्रेणी में गिने जाने योग्य हैं। अत: नेलपालिस, लिपिस्टिक आदि सौन्दर्य प्रसाधनों एवं चमड़े की वस्तुओं का त्याम अनिवार्य रूप से प्रत्येक सदाचारी मनुष्य को करना चाहिये। ___ हम अगर हिंसक वस्तुओं का त्याग कर देंगे तो निश्चित रूप से कुछ पशुओं की हिंसा बचेगी। कम से कम जो हमारे हिस्से में पाप आ रहा था वह तो नहीं आयेगा। अगर दस पुरुष या महिलायें हिंसा से उत्पन्न वस्तुओं का त्याग कर देते हैं तो प्रतिदिन एक बड़े पशु की हिंसा बच सकती है, वह भी सुख का जीवन जी सकता है। सौन्दर्य प्रसाधनों एवं चमड़े की वस्तुओं की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर आजकल कई ऐसी कम्पनियां बाजार में आई है जिनका काम सिर्फ हिंसा से उत्पन्न सामग्रियों को तैयार करवा कर बेचना है। इनके लिए कच्चे माल अर्थात् पशुओं की हड्डी, खून, मांस अथवा खाल की व्यवस्था या तो कसाई करते है या कसाईखाने करते हैं। कई बार तो भोले-भाले किसान भी इन पापियों के लोभ लालच में आकर अपने पशुओं को बेच देते है। कसाईखाने में ले जाकर उनकी क्या दुर्दशा होती है? उन्हें कितने भयङ्कर कष्ट भोगने पड़ते है, उसे वे ही जानते हैं। किसी जीव को दुःख न हो ऐसी भावना धारण कर हिंसक वस्तुओं का सभी को सर्वथा त्याग करना चाहिए।।१०।। चौर्यदोष-वर्णन परदव्वहरणसीलो इह-परलोए असाय बहुलाओ। पाउणए जायणाओ ण कयावि सुहं पलोएइ।।१०१।। अन्वयार्थ- (परदव्व-हरण-सीलो) परद्रव्य को हरण करना ही जिसका स्वभाव है (वह), (इह परलोए) इस लोक में, परलोक में, (असाय-बहुलाओ) दुःखों से मरी हुई, (जायणाओ पाउणए) यातनाओं को पाता है, (सुह) सुख को, (कयावि ण पलोएइ) सुख को कभी भी नहीं देखता है। भावार्थ- जिस मनुष्य का स्वभाव ही चोरी करना है अर्थात् जिसे दूसरे के धन हरण करने में ही आनन्द आता है, ऐसा वह मनुष्य इस लोक में और परलोक में असाता बहुल अर्थात् भयानक दुःखों से भरी हुई यातनाओं-दुःखों को प्राप्त करता है। ऐसा पापात्मा जीव चाहकर भी सुख का किंचित भी अंश नहीं पाता अर्थात् दुःखी Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (११७) आचार्य वसुनन्दि) ही रहता है।।१०१।। हरिऊण परस्स धणं चोरो परिवेवमाणसव्वंगो। 'चइऊणणियय गेहं धावइ उप्पहेण संतत्तो।।१०२।। अन्वयार्थ- (परस्स धणं) दूसरे के धन को, (हरिऊण) हरण कर, (चोरो) चोर (भय से), (परिवेवमाण सव्वंगो) सर्वाङ्ग से कांपता हुआ, (संतत्तो) सन्तप्त होता हुआ, (णिययगेहं चइऊण) अपने पर को छोड़कर, (उप्पहेण) उत्पथ से, (घावइ) भागता है। भावार्थ- पराये धन को हर कर भयभीत हुआ चोर थर-थर कांपता है और वह अपने घर को छोड़कर सन्तप्त होता हुआ उन्मार्ग से अर्थात् अमार्ग से इधर-उधर भागता है। भयभीत होने के कारण वह सही मार्ग पर भी नहीं जाता है। सोचता है - पकड़ा न जाउ, इसलिये जहां से कोई आता जाता नहीं ऐसे मार्ग से अथवा बिना मार्ग के भागता फिरता है।।१०२।। किं केण वि दिट्ठो हं ण वेत्ति हिइएण धगधगंतेण । ल्हुक्कड़ पलाइ पखलइ णिहं ण लहेइ भयविट्ठो ।।१०३।। अन्वयार्थ- (किं केण वि दिवो ह) क्या मैं किसी से देखा गया हँ, (ण वेति) अथवा नहीं देखा गया हूँ, (इति धगधगंतेण) इस प्रकार धक्-धक् करते हुए, (हिइएण) हृदय से, (ल्हुक्कइ-पखलइ) लुकता-छिपता-गिरता, (पलाइ) भागता है, (भयविट्ठो) भय से आविष्ट होने के कारण, (णि ण लहेइ) नींद नहीं लेता है। भावार्थ-किसी ने मझे देखा है अथवा नहीं? इस प्रकार भयभीत मन से विचार करता हुआ चोर तेज धड़कते हृदय से युक्त होकर लुकता-छिपता भागता है। भागते हुए इधर-उधर देखने के कारण गिर जाता है। पुनः उठकर तेजी से भागता है। इस प्रकार अत्यन्त भयभीत होता हुआ किसी इष्ट स्थान पर पहुंच भी जाता है, तो भी उसे इस बात का भय रहता है, कहीं किसी ने मुझे भागते हुए देख तो नहीं लिया? कहीं कोई पीछा तो नहीं कर रहा था? सो जाने पर इस धन की रक्षा कौन करेगा आदि; विभिन्न चिन्ताओं और भय के कारण वह नींद भी नहीं ले पाता है।।१०३।। ण गणेइ माय-वप्पं गुरु-मित्तं सामिणं तवस्सिं वा। पबलेण' हरइ छलेण किंचिण्णं किंपि जं तेसिं ।।१०४।। १. ब. णिययगेहं. २. झ.ब. संत्तट्ठो. ३. म.. पलायमाणो. ४. झ. भयघत्यो, ब. झयबच्छो. ५. झ.ब. पच्चेलिउ. ६. झ. कि घणं, ब. किं वणं. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (११८) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (चोर), (माय-वप्पं) माता-पिता, (गुरु-मित्तं) गुरु-मित्र, (सामिणं वा तवस्सि) स्वामी अथवा तपस्वी को, (ण गणेइ) नहीं गिनता है, (प्रत्युत), (तेसिं) उनके पास, (जं किंचिण्णं किंपि) जो किंचित कुछ भी होता है, (पबलेण) बलपूर्वक (अथवा), (छलेण) छल से, (हरइ) हर लेता है। भावार्थ- जिसे चोरी करने की आदत पड़ चुकी है ऐसा मनुष्य अपने मा-बाप, गुरु-मित्र, स्वामी और तपस्वियों को भी कुछ नहीं समझता है, उनसे किंचित भी भयभीत नहीं होता प्रत्युत उनके पास जो थोड़ा कुछ भी होता है उसका भी बलपूर्वकं अथवा छल से हरण कर लेता है।।१०४।। लज्जा तहाभिमाणं जस-सीलविणासमादणासं च। परलोय भयं चोरो अगणंतो साहसं कुणइ।।१०५।। अन्वयार्थ- (चोरो) चोर, (लज्जा अभिमाणं-जस-शीलविणासं) लज्जा, अभिमान, यश, शील, विनाश को, (तहा) तथा, (आदणासं) आत्म नाश को, (च) और, (परलोय भयं) परलोक के भय को, (अगणंतो) न गिनता हुआ (चोरी करने का), (साहस) साहस, (कुणइ) करता है। भावार्थ- चोरी करने वाला लज्जा, अभिमान, यश और शील का तो विनाश करता ही है, अपमान- निन्दा आदि को तो सहता ही है साथ ही वह परलोक के भय को भी न गिनता हुआ अपनी आत्मा को भी पतन के मार्ग पर ले जाकर उसका हनन/तिरस्कार करता है अर्थात् संसाररूपी समुद्र में डुबो कर चोरी आद्रि कुत्सित कृत्य करने का साहस करता है।।१०५।। हरमाणो परदव्वं दगुणारक्खिएहि तो सहसा। रज्जूहिं बंधिऊणं पिप्पइ सो मोर बंधेण।।१०६।। अन्वयार्थ- (सो) उस चोर को, (परदव्यं) परद्रव्य को, (हरमाणो दवण) हरण करता हुआ देखकर, (आरक्खिएहि) आरक्षक, (रज्जूहि) रस्सियों से, (बंधिऊणं) बांध करके, (मोर बंधेण) मोर बंध से, (पिप्पइ) पकड़ लेते हैं। ___ भावार्थ- उस चोर को परधन (द्रव्य) का हरण करते हुए जब कोई आरक्षक, पहरेदार, चौकीदार अथवा कोटपाल देख लेता है, तो वे उस चोर को रस्सियों से बांधकर, मोरबंध अर्थात् पीठ पर दोनों हाथों को पकड़ कर बांध देते है और उसे पकड़कर ले जाते हैं। हिंडाविज्जइ टिंटे रत्थासु चढाविऊण खरपुष्टुिं। वित्थारिज्जइ चोरो एसो ति जणस्स मज्झम्मि।।१०७।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (११९) आचार्य वसुनन्दि) अन्वयार्थ- (चोर को), (खरपुष्टुिं चढाविऊण) गधे पर बैठाकर, (टिंटे-रत्यास) जुआखाने-गलियों में, (हिंडाविज्जइ) घुमाते हैं (और), (जणस्स मज्झम्मि) लोगों के बीच में, (एसो चोरो इति) यह चोर है इस प्रकार से, (वित्यारिज्जइ) विस्तार करते हैं। भावार्थ- चोरी करते हुए पकड़े जाने पर चोर को प्रथम तो बांधकर सजा दी जाती है। पुन: उसे गधे पर बैठाकर जुआखाने अथवा गलियों में घुमाते है और जहां पर कुछ या अधिक लोग एकत्रित हों वहां जोर-जोर से कहते है यह चोर है, यह चोर है। इस प्रकार कहकर उसकी बदनामी करते हैं।।१०७।। अण्णो वि परस्स धणं जो हरइ सो एरिसं फलं लहइ। एवं भणिऊण पुणो णिज्जइ पुर बाहिरे तुरियं ।। १०८।। अन्वयार्थ- (अण्णो जो वि) अन्य जो भी मनुष्य, (परस्स धणं) परधन को, (हरइ) हरता है, (सो) वह, (एरिसं) इस प्रकार के, (फल) फल को, (लहइ) प्राप्त करता है, (एवं भणिऊण) इस प्रकार कहकर, (पुणो) पुन:, (तुरियं) तुरन्त, (पुर बाहिरे) नगर के बाहर, (णिज्जइ) ले जाते हैं। भावार्थ- 'यह चोर है' इस प्रकार कहते हुए कोटपाल (चौकीदार) दूसरे लोगों से कहता है कि यदि अन्य कोई भी मनुष्य इस प्रकार के कृत्य करता है तो उसे भी यही सजा दी जाएगी। चोरी जैसे दुष्कर्म का फल यही है, जो चोरी- करता है उसकी यही दशा होता है, इस प्रकार कह कर पुन: वे उसे शीघ्र ही नगर के बाहर ले जाते हैं।।१०८।। णेत्तुद्धारं अह पाणि-पायगहणं णिसुंभणं अहवा। - जीवंतस्स वि सूलावारोहणं कीरइ खलेहि।।१०९।। अन्वयार्थ- (अह) अब (इसके बाद), (खलेहि) खलजनों के द्वारा, (णेत्तुद्धार) आंखे निकाल ली जाती है, (पाणि पायगहण णिसुंभणं) हाथ-पैर काट डालते है, (अहवा) अथवा, (जीवंतस्स वि) जीवित रहते हुए भी, (सूलावारोहणं) शूलारोहण, (कीरइ) कर देते हैं। भावार्थ- नगर के बाहर ले जाकर खलजन (चाण्डाल बगैरह) उसकी आँखें निकाल लेते हैं, हाथ-पैर काट डालते हैं अथवा उसे जीवित ही शूली पर चढ़ा कर भयङ्कर दुःख देते हैं।।१०९।। १. झ. हरेइ. २. ब. खिलेहि. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२०) एवं पिच्छंता वि हु परदव्वं चोरियाई गेहंति । ण मुणंति किं पि सहियं पेच्छह हो मोह' माहप्पं । । ११० ।। आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ — (एवं पिच्छंता वि हु) इस प्रकार (दुःख) देखते हुए भी, (लोग), (चोरियाई) चोरी से, (परदव्वं गेण्हंति) परद्रव्य ग्रहण करते हैं, (सहियं) स्वहित, (किं पिं) कुछ भी, (ण मुणंति) नहीं जानते हैं, (हो) अहो! (मोह माहप्पं) मोह के माहात्म्य को, (पेच्छह) देखो । भावार्थ — पूर्वकथित भयङ्कर दुःखों को देखते हुए भी और भोगते हुए भी मूढ़ मनुष्य चोरी से दूसरों के द्रव्य का अपहरण करते हैं। वह यह नहीं समझते कि चोरी करने से आत्मा का, स्वयं का कितना अहित हो रहा है; देखो तो मोह की महिमा बड़ी विचित्र है।। ११० ।। पर लोए वि य चोरो चउगड़- संसार- सायर निमण्णो । पावड़ दुक्खमणंतं तेयं तेयं परिवज्जए तम्हा । । १११ । । अन्वयार्थ — (परलोए वि य) और परलोक में भी, (चोरो) चोर, (चउगइ संसार सायरो निमण्णो) चतुर्गति रूप संसार में निमग्न होता हुआ, '(अनंत दुक्ख) अनन्त दुःखों को, (पावइ) पाता है, (तम्हा) इसलिए, (तेयं) चोरी का, (परिवज्जए) त्याग करना चाहिए। अर्थ — इस लोक में तो चोर दुःख पाता ही है परलोक में भी वह दु:खी ही रहता है। वह हमेशा चतुर्गति रूप संसार में घूमता रहता है, डूबता - उभरता रहता है, गोते खाता रहता है, किंचित भी सुख नहीं पाता है अत: चोरी का नियम से त्याग करना चाहिए। १. व्याख्या आचार्यों ने धन को ग्यारहवां प्राण कहा है। चोरी करने वाले पुरुष की सारा जगत् निन्दा करता है। धन मनुष्यों का बाह्य प्राण है अतः जो किसी का धन हरण करता है, वह उसके प्राण हरण करता है। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं। ― अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।। १०३ ।। पु०सि० अर्थात् जो पुरुष जिस जीव के पदार्थों को या धन को हरण करता है, वह पुरुष उस जीव के प्राणों को हरण करता है, क्योंकि बाह्य जगत् में जो ये धनादिक पदार्थ प्रसिद्ध हैं, वे सब ही पुरुषों के बाह्य प्राण है; इससे चोरी भी साक्षात् स्व-पर की हिंसा ब. मोहस्स. . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२१) आचार्य वसुनन्दि) है। उपरोक्त सम्पूर्ण तथ्यों को जानकर भव्य जीवों को चोरी का, धरोहर छिपा लेने का, ज्यादा धन लेकर कम वापिस देने आदि का त्याग करना चाहिए।।१११।। परस्त्रीगमन-दोष-वर्णन दलूण परकलत्तं णिब्बुद्धी जो करेइ अहिलासं। ण य किं पि तत्थ पावइ पावं एमेव अज्जेइ ।।११२।। अन्वयार्थ- (जो णिब्बुद्धी) जो निर्बुद्धि पुरुष, (परकलत्तं) परस्त्री को, (दट्ठण) देखकर, (अहिलासं) अभिलाषा, (करइ) करता है, (तत्थ किं पि ण य पावइ) वह कुछ भी नहीं पाता है, (एमेव) केवल पाप, (अज्जेइ) अर्जित करता है। भावार्थ- जो मूढ़ मनुष्य परस्त्री को देखकर उसे भोगने की अभिलाषा इच्छा करता है, वह मूर्ख पाता तो कुछ नहीं अपितु मात्र पाप का ही अर्जन करता है। उसके दुर्भाव केवल पाप बंध कराते हैं।।११२।।। हिस्सइ रुयइ गायइ णिययसिरं हणइ महियले पडइ। परमहिलमलभमाणो असप्पलावं पि जंपेइ।।११३।। अन्वयार्थ– (णिस्सइ) निःश्वास छोड़ता है, (रुयइ) रोता है, (गायइ) गाता है, (णिययसिरं हणइ) अपना सिर फोड़ता है, (महियले पडेइ) पृथ्वी तल पर गिरता है (और), (परमहिलमलभमाणो) पर-स्त्री को प्राप्त न करता हुआ, (असप्पलावं पि जंपेइ) असत्प्रलाप भी बोलता है। - भावार्थ- परस्त्री लंपटी पुरुष जब पर-महिला अर्थात् इच्छित परस्त्री को नहीं पाता तब वह दीर्घ निःश्वास छोड़ने लगता है, रोता है, गाता है, अपने शरीर, सिर, छाती आदि को पीटता है, भूमि में गिर पड़ता है तथा झूठ वचन बोलता है, न बोलने योग्य वचन बोलता है अथवा अकेला बैठा-बैठा ही बोलता रहता है, कुल मिलाकर उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है।।११३।। चिंतेइ मम किमिच्छइ ण वेइ सा केण वा उवाएण। अण्णेमि कहमि कस्स वि ण वेत्ति चिंताउरो सदद।।११४।। अन्वयार्थ– (चिंतेइ) परस्त्री लंपटी सोचता है, (किं मम सा इच्छइ) क्या वह मेरी इच्छा रखती है, (ण वेइ) अथवा नहीं?, (केण वा उवाएण) अथवा किस उपाय से लाऊँ, (अण्णेमि कहमि कस्स वि ण वा इति) अन्य किसी से कहूँ अथवा नहीं इस प्रकार से, (सददं) हमेशा, (चिंताउरो) चिंतातुर रहता है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१२२) आचार्य क्सुनन्दि भावार्थ- परस्त्री लम्पटी सोचता है कि वह स्त्री मुझे चाहती है अथवा नहीं अथवा किस उपाय से उसे अपने पर आसक्त करू अथवा उसे कैसे लाऊँ? दूसरे से कहूँ अथवा नहीं? अगर दूसरे से कहा तो मेरी बदनामी होगी और नहीं कहा तो देखे जाने पर अपयश के साथ-साथ दण्ड भी भोगना पड़ सकता है? ऐसी स्थिति में मैं क्या करूं? इस प्रकार से सोचता हुआ वह हमेशा आर्त ध्यान में लगा रहता है, चिन्तातुर रहता है।।११४।। ण य कत्थवि कुणइ रई मिटुं पि य भोयणं ण भुंजेइ। . णिई पि अलहमाणो अच्छइ विरहेण संतत्तो।।११५।। अन्वयार्थ- (य) और (वह), (कत्थ वि रई) कहीं भी रति, (ण कुणइ) नहीं करता है, (मिटुं पि भोपणं ण भुंजेइ) मीठा भी भोजन नहीं खाता है, (य) और, (णि पि अलहमाणो) निद्रा नहीं लेता हुआ, (विरहेण) स्त्री विरह से, (संतत्तो अच्छइ) सन्तप्त बना रहता है। ____ भावार्थ- वह परस्त्री लम्पटी मनुष्य कही भी रति नहीं करता है अर्थात् किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु से स्नेह नहीं करता, उसे सुरुचिकर मीठा स्वादिष्ट भोजन भी अच्छा नहीं लगता। अत: वह भोजन भी नहीं करता है। स्त्री में मन लगा होने के कारण उसे नींद भी नहीं आती है अत: वह जागता ही रहता है। स्त्री विरह से वह हमेशा सन्तप्त अर्थात् पागल-सा बना रहता है।।११५।। लज्जा-कुल-मज्जायं छंडिऊण मज्जाइभोयणं किच्चा। परमहिलाणं चित्तं अणुमंतो पत्थणं कुणइ।।११६।। अन्वयार्थ- (लज्जा कुल-मज्जाय) लज्जा (और) कुल मर्यादा को, (छंडिऊण) छोड़ कर, (मज्जाइभोयणं किच्चा) मद्यादि का भोजन करके, (परमहिलाणं चित्तं) पर स्त्रियों के चित्त को, (अणुमंतो) नहीं जानता हुआ (उनसे), (पत्थणं कुणइ) प्रार्थना करता है। ____भावार्थ- परस्त्री लम्पटी अपनी लज्जा और कुल मर्यादा को छोड़ कर मद्य, मांस, मधु आदि अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन करके पर स्त्रियों के चित्त को नहीं जानता हुआ उनसे उनके साथ रमण करने की प्रार्थना करता है।।११६।। . णेच्छंति जइ वि ताओ उवयारसयाणि कुणइ सो तह वि। णिन्मच्छिज्जंतो पुण अप्पाणं झूरइ विलक्खो।।११७।। १. ब. अलभमानो. २. इ. कुलकम्म. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार. (१२३) आचार्य वसुनन्दि - अन्वयार्थ- (जइ वि) यदि फिर भी, (ताओ) उसे (वे स्त्रियां), (णेच्छंति) नहीं चाहती हैं, (तह वि) तो भी, (सो) वह, (उवयार-सयाणि) सैकड़ों खुशामदें, (कुणाइ) करता हैं, (णिन्मच्छिज्जंतो) भर्त्सना किया जाता हुआ भी, (पुण) पुन:, (विलक्खो ) विलक्ष होकर, (अप्पाणं झूरइ) अपने आपको झूरता रहता है। भावार्थ- बार-बार प्रार्थना किये जाने पर भी जब वे स्त्रियाँ उसे नहीं चाहती हैं, तब वह उनकी सैकड़ों खुशामदें करता है, सरस और चापलूसी पूर्ण व्यवहार करता है फिर भी उनके द्वारा भर्त्सना किया जाता हुआ वह विलक्ष अर्थात् लक्ष्य भ्रष्ट होकर अपने आपको झूरता है अर्थात् उसके एक भिन्न प्रकार की ही स्थिति हो जाती है। जितना कष्ट घोर अपमान होने पर होता है, उससे ज्यादा कष्ट उसे परस्त्रियों के द्वारा अपमानित होने पर होते हैं। । ११७।। अह भुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बलं धरेऊणं। किं तत्थ हवइ सुक्खं पच्चेल्लिउ पावए दुक्खं ।। ११८।। अन्वयार्थ- (अह) अथवा, (अणिच्छमाणं) नहीं चाहती हुई, (परमहिलं) परस्त्री को, (बलं घरेऊणं) जबर्दस्ती पकड़कर, (भुंजइ) भोगता है, (तत्थ किं) वहाँ क्या, (सुक्खं हवइ) होता है?, (पच्चेल्लिउ) प्रत्युत, (दुक्खं पावए) दुःख को ही पाता है। . . ____भावार्थ- कदाचित् वह परस्त्री लम्पटी नहीं चाहने वाली किसी पर-महिला को जबर्दस्ती पकड़कर भोगता है, तो वैसी दशा में उसमें क्या सुख पाता है? अर्थात् कुछ भी सुख नहीं पाता प्रत्युत दुःखों को ही प्राप्त करता है।।११८।। अह कावि पाव बहुला असई णिण्णासिऊण णियसीलं। - सयमेव पच्छियाओ' उवरोहवसेण अप्पाणं।।११९।। - अन्वयार्थ- (अह) अथवा, (कावि) कोई, (पांव बहुला) पापिनी, (असई) दुराचारिणी, (णियसील) अपने शील का, (णिण्णासिऊण) नाश करके, (उवरोह-वसेण) उपरोध के वश से, (सयमेव) स्वयं ही, (अप्पाणं) अपने आपको, (पच्छियाओ) उपस्थित कर देवे। विशेषार्थ- कदाचित् कोई पापिनी, दुराचारिणी स्त्री अपने शील का नाश करके किसी के बार-बार कहने पर उसके पास स्वयं ही जाती है और अपने आपको उसके सामने उपस्थित भी कर देती है।।११९।। १. झ. सयमेवं. २. ध. प्रस्थिता. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२४) आचार्य वसुनन्दि जइ देइ तह वि तत्थ सुण्णहर - खंडदेउलयमज्झम्मि' । सच्चित्ते भयभीओर सोक्खं किं तत्थ पाउणए । । १२० । । अन्वयार्थ — (जइ देइ) (और) सौंप भी देती है, (तह वि) तो भी, (तत्य) उस, (सुण्णहर) शून्य पर, (खंडदेउलयमज्झम्मि) खण्डित देवालय के मध्य, (सच्चित्ते) अपने मन में, (भयभीओ) भयभीत होने से, (तत्थ) वहां, (किं सोक्खं) क्या सुख, (पाउणए) पा सकता है ? भावार्थ— और वह दुराचारिणी स्त्री उसे अपने आपको सौंप भी देती है, तो भी उस शून्यघर या खण्डित देवालय अर्थात् देवकुल के मध्य (भीतर) उस स्त्री के साथ रमण करता हुआ वह अपने चित्त में बहुत ही भयभीत रहता है। उसे भय रहता है कि उसे कोई परिजन, पुरजन या अन्य कोई परस्त्री सेवन करते हुए देख लेगा तो कठोर दण्ड एवं घोर अपयश का पात्र बनना पड़ेगा; इस प्रकार भयभीत होते हुए भोग करने पर क्या वह मूढ़ सुख पा सकता है ? अर्थात् नहीं पा सकता है, क्योंकि जहाँ भय होता है वहाँ सुख रंचमात्र भी नहीं होता । हाँ! व्याकुलता जनित दुःख अवश्य ही होता है ।। १२० ।। सोऊण किं पि सद्दं सहसा परिवेवमाण सव्वंगो । ल्हुक्कइ पलाइ पखलइ चउद्दिसं णियइ भयभीओ । । १२१ । । अन्वयार्थ - (किं पि सद्दं) कुछ भी शब्द, (सोऊण) सुनकर (सहसा) सहसा(सव्वंगो परिवेवमाण) सर्वाङ्ग से कांपता हुआ, (ल्हुक्कड़) लुकता है, (पलाइ) भागता है, (पखलइ) गिरता है (और), (भयभीओ) भयभीत होकर, (चउद्दिसं) चारों दिशाओं को, (णियइ) देखता है। भावार्थ — उस एकान्त स्थान में भोग करता हुआ परस्त्री सेवी किसी भी प्रकार का किञ्चित भी शब्द सुनकर अचानक थर-थर कांपने लगता है, कोई देख न ले इसलिए छिपता है, भागता है, भागते हुए गिरता है तो फिर उठ कर भागता है और गिरता है। इस प्रकार भयभीत होता हुआ वह यत्र-तत्र चारों दिशाओं एवं आकाश अथवा पृथ्वी को देखता है। उसकी स्थिति अजीव (अकथनीय) प्रकार की हो जाती है।। १२१ ।। जड़ पुण केण वि दीसइ णिज्जइ तो बंधिऊण णिवगेहं । चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउणइ सविसेसं । । १२२ । । १. झ. मज्झयारम्भि. झ०म० भयभीदो. • Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२५) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (जइ पुण वि) यदि फिर भी, (केण) किसी के द्वारा भी, (दीसइ) देखा जाता है, (तो बंधिऊण) तो बांधकर, (णिवगेह) राज-दरबार को, (णिज्जइ) ले (जाया) जाता है, (तत्य) वहां, (वि) भी, (सो) वह, (चोरस्स) चोर से, (सविसेसं) विशेषता सहित, (णिग्गह) दण्ड को, (पाउणइ) पाता है। भावार्थ- उस परस्त्री सेवी के छिप जाने पर अथवा भाग जाने पर भी अगर वह किसी के द्वारा देख लिया जाता है तो वह बांधकर राजा अथवा मुखिया के पास ले जाया जाता है और वहां पर चोरी करने वाले को जो दण्ड प्राप्त होता है उससे भी अधिक दण्ड को पाता है।।१२२।। पेच्छह मोहविणडिओ . लोगो दवण एरिसं दोसं। पच्चक्खं तह वि खलो परिस्थिमहिलसदि' दुच्चित्तो।।१२३।। अन्वयार्थ- (मोह विडिओ पेच्छह) मोह की विडम्बना देखो (कि), (खलो लोगो एरिस) खल लोग (लोक) इस प्रकार के, (दोस) दोषों को, (पच्चक्खं) प्रत्यक्ष, (दखूण) देखकर, (तह वि) फिर भी, (दुच्चित्तो) खोटे चित्त में, (परिस्थिमहिलसदि) परायी स्त्री की अभिलाषा करते हैं। भावार्थ- मोह की विडम्बना देखो कि परस्त्री- मोह से मोहित हए खल लोग इस प्रकार के दोषों को प्रत्यक्ष देखकर भी और उनका अनुभव करके भी अपने खोटे चित्त (मन) में परस्त्री के साथ रमण करने की अभिलाषा करते हैं? कितने आश्चर्य की बात है।।१२३।। । .. परलोयम्मि अणंतं दुक्खं पाउणइ इहभव समुहम्मि। परयारा परमहिला तम्हा तिविहेण वज्जिजा।। १२४।। __ अन्वयार्थ– (परलोयम्मि) परलोक में, (इहभव समुद्दम्मि) इस भव सागर में, (अणंतं दुक्ख) अनन्त दुःखों को, (पाउणइ) पाता है।, (तम्हा) इसलिए, (परयारा) परस्त्री, (परिमहिला) पर-महिला को, (तिविहेण) तीन प्रकार से, (वज्जिजा) छोड़ना चाहिए। अर्थ- परलोक में, इस लोक में दोनों ही जगह परस्त्रीसेवी अनन्तदुःखों को पाता है, इसलिए परस्त्री, पर-महिला को तीन प्रकार से छोड़ना चाहिए। भावार्थ- परस्त्री लम्पटी मनुष्य इस लोक में तो विविध प्रकार के कष्ट पाता ही है, परलोक में भी इस संसाररूपी समुद्र में गोते लगाते हुए अनन्त दुःखों को पाता है। इस प्रकार परस्त्री गमन के दोष जानकर मन, वचन और काय इन तीन प्रकार से १. झं.ब. भो चित्तं. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (१२६) आचार्य वसुनन्दि इसका त्याग करना चाहिए। गाथा में "परयारा" और "परमहिला" इन दो शब्दों को ग्रहण किया गया है जिनका अर्थ क्रमशः "परिगृहीता स्त्री” अर्थात् जिस स्त्री का कोई स्वामी है, और “अपरिगृहीता स्त्री" जिस स्त्री का कोई स्वामी अर्थात् पति नहीं है; जानना चाहिए तथा इन दोनों प्रकार की स्त्रियों का मन, वचन, काय से त्याग करना चाहिये। जो पापी परस्त्री का सेवन करते है, वे लोक में निन्दा के पात्र तो होते ही है, दण्ड भुगतते भी है कदाचित् वह उस स्त्री के पति के द्वारा मारे भी जाते है; इस प्रकारपरस्त्री सेवी अपने प्राणों तक से हाथ धो डालता है। सागार धर्मामृत में पं० आशाधर ने परस्त्री सेवन का त्याग करने के साथ और किन-किन दोषों को छोड़ना चाहिए इस सम्बन्ध में कहा है कन्यादूषणान्धर्व विवाहादि विवर्जयेत् । परस्त्री व्यसन त्याग व्रतशुद्धि विधित्सया ।। २३ ।। अर्थात् परस्त्री के त्यागी को परस्त्री त्याग व्यसनं को निर्दोष करने की इच्छा से कन्यादूषण अर्थात् कुमारी कन्या के साथ रमण और गान्धर्व विवाह अर्थात् बिना परिजनों की अनुमति के विवाह नहीं करना चाहिये । खोटे परिमाणों से सहित होकर अपनी अथवा दूसरों की मां- बहिन-बेटी का स्पर्श करना भी महापाप है। इसलिए स्वदार सन्तोष व्रत धारण कर अपनी स्त्री को छोड़कर बाकी सभी स्त्रियों को माँ-बहिन और बेटी की दृष्टि से देखना चाहिए। जो उम्र में बड़ी हों वह माँ, जो उम्र में बराबर हों वह बहिन और जो उम्र में छोटी हों उन स्त्रियों को बेटी तुल्य मानना चाहिए। खोटे परिणामों का त्याग करना चाहिए, क्योंकि खोटे परिणामों का फल भी खोटा ही होता है ।। १२४ । । सप्तव्यसनों से प्रसिद्ध महानुभवों के दृष्टान्त जुआ में प्रसिद्ध युधिष्ठिर जुहिट्ठिरो' राया । । १२५ ।। रज्जब्मंसं वसणं बारह संवच्छराणि वणवासो । पत्तो तहावमाणं जूएण अन्वयार्थ - (जूएण) जुआ से, (जुहिट्ठिरो राया ) युधिष्ठिर राजा, (रज्जमंसं) राज्य भ्रष्ट हुए, (बारह संवच्छराणि) बारह वर्ष तक, (वनवासो वसणं) वनवास में रहे, (तहा अवमाणं पत्तो) तथा अपमान को प्राप्त हुए । १. जुहिट्ठिलो इति पाठान्तरः. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२७) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- जुआ से युधिष्ठिर राजा राज्यभ्रष्ट हुए, बारह वर्ष तक वन में भटकते रहे और अनेक अपमानों को प्राप्त हुए। व्याख्या- जुआ खेलने के कारण ही युधिष्ठिर राजा अपने राज्य से भ्रष्ट अर्थात् दूर हुए और बारह वर्ष तक वन में रहना पड़ा तथा साथ ही उन्हें कितने ही प्रकार के अपमान सहने पड़े। अत: द्यूत व्यसन का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। उनके सम्बन्ध में एक पौराणिक आख्यान इस प्रकार है - हस्तिनापुर में धृतराज नाम का एक प्रसिद्ध राजा रहता था। उसके अम्बिका अम्बालिका और अम्बा नाम की तीन रानियां थीं। इनमें अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और अम्बा से विदुर उत्पन्न हुए थे। इनमें धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र तथा पाण्डु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव नामक पांच पुत्र थे। पाण्डु राजा के स्वर्गस्थ (दीक्षित) होने पर कौरवों और पाण्डवों में राज्य के निमित्त से परस्पर विवाद होने लगा था। एक समय युधिष्ठिर दुर्योधन के साथ द्यूतक्रीड़ा में सम्मिलित हुए, वे उसमें समस्त सम्पत्ति हार गए। अन्त में उन्होंने द्रौपदी आदि को भी दाँव पर लगा दिया और दुर्योधन ने इन्हें भी जीत लिया। इससे द्रौपदी आदि को भी अपमानित होना पड़ा तथा कुन्ती माता और द्रौपदी के साथ पांचों भाइयों को बारह वर्षों तक वनवास भी करना पड़ा। इसके अतिरिक्त उन्हें द्यूत व्यसन के निमित्त से और भी अनेक दुःख सहन करने पड़े तथा विभिन्न प्रकार के अपमानों/दुःखों/परेशानियों को भी उन्होंने वर्षों तक सहन किया। अत: जुआ सर्वथा त्याग देना चाहिए। इस कथा को विस्तार रूप में हरिवंश पुराण अथवा पाण्डवपुराण ग्रन्थों में देखें।।१२६।। मद्यपायी यादव उज्जाणम्मि रमंता तिसाभिभूया जल त्ति णाऊण। . . . पिबिऊण जुण्णमज्जं णट्ठा ते जादवा तेण।।१२६।। ... अन्वयार्थ– (उज्जाणम्मि रमंता) उद्यान में क्रीड़ा करते हुए, (तिसाभिभूय) प्यास से पीड़ित होकर, (जुण्णमज्ज) पुरानी शराब को, (जल त्ति णाऊण) यह जल है ऐसा जानकर, (पिबिऊण) पीकर, (ते जादवा) वे यादव, (तेण) उसी से, (गट्ठा) नष्ट हो गये। ____ अर्थ- उद्यान में क्रीड़ा करते हुए, प्यास से पीड़ित यादवों ने पुरानी शराब को जल समझकर पी लिया जिससे वे विनाश को प्राप्त हुए। १. झ.ब.तो. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१२८) आचार्य वसुनन्दि) व्याख्या- उद्यान में क्रीड़ा करते हुए, खेलते हुए, यादवों ने प्यास से पीड़ित होकर गढ्ढों में भरी हुई पुरानी शराब को पानी समझ कर पी लिया, जिसके कारण वे नाश को प्राप्त हुए। हरिवंशपुराण के आधार पर यह कथा संक्षिप्त रूप से यहां प्रस्तुत करते है - किसी समय भगवान् नेमिजिन का समवशरण गिरनार पर्वत पर आया था। उस समय अपने पुरवासी उनकी वन्दना करने और उपदेश सुनने के लिए गिरनार पर्वत पर पहुंचे थे। धर्मश्रवण के अन्त में बलदेव ने पूछा कि हे भगवन्! यह द्वारिकापुरी कुबेर के द्वारा निर्मित की गई है। उसका विनाश कब और किस प्रकार से होगा? उत्तर में भगवान नेमिनाथ जिन बोले- यह नगरी मद्य (शराब) के निमित्त से बारह वर्ष में द्वीपायन कुमार के. द्वारा भस्म हो जायेगी। यह सुनकर रोहिणा का भाई द्वीपायनकुमार दीक्षित हो गया और इस अवधि को पूर्ण करने के लिये पूर्व दिशा में . जाकर तप करने लगा। तत्पश्चात् वह द्वीपायन मुनि भ्रान्तिवश ‘अब बारह वर्ष बीत चुके है" ऐसा समझ कर फिर से वापिस आ गया और द्वारिका के बाहरीपर्वत के निकट एक शिला पर बैठकर ध्यान करने लगा। इधर जिन बचन के अनुसार मद्य को द्वारिकादाह का कारण जानकर कृष्ण ने प्रजा को मद्य और उसकी सामग्री को भी दूर फेंक देने का आदेश दिया था। तदनुसार मद्यपायी जनों ने मद्य और उसके साधनों को कादम्ब पर्वत के पास एक गड्ढे में फेक दिया था। इसी समय शम्बु कुमार आदि राजकुमार वनक्रीड़ा के लिये उधर गये थे। उन लोगों को प्यास लगी तो उस प्यास से पीड़ित होकर पूर्व निक्षिप्त उस मद्य को पानी समझ कर उन्होंने पी लिया। परिणामस्वरूप वे उन्मत्त होकर नाचते-गाते हुए वे द्वारिका की ओर आ रहे थे। उन्होंने मार्ग में द्वीपायन मुनि को स्थित देखकर और उन्हें द्वारिकादाह कारण समझ कर उनके ऊपर पत्थरों की वर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे क्रोधवश उनके शरीर के बायें कन्धे से अशुभ तैजस का पुतला निकला। जिसके माध्यम से सम्पूर्ण द्वारिका में आग लग गई और द्वारिका भस्म हो गई। इस दुर्घटना में नगरवासियों में कृष्ण और बलभद्र को छोड़कर शेष कोई भी प्राणी जीवित न बचा था और यह सब मद्यपान के कारण ही हुआ था। अत: मद्यपान का त्याग करना चाहिए। यहाँ तक कि बोतलों में बन्द पेय पदार्थों का भी त्याग कर देना चाहिए।।१२३।। . मांसलोलुपी राजा बक मंसासणेण गिद्धो' बगरक्खो एग चक्कणयरम्म। रज्जाओ पन्मट्टो अयसेण मुओ गओ णरयं। । १२७।। १. म. लुद्धो. २. ब. एय.. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२९) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (एगचक्कणयरम्मि) एक चक्र नगर में, (मंसासणेण गिद्धो) मांस खाने में गृद्ध, (बगरक्खो ) बक राक्षस, (रज्जाओ पन्भट्टो) राज्य से भ्रष्ट हुआ, (अयसेण) अपयश से, (मुओ) मरा (और), (णरयं गओ) नरक गया। अर्थ- एकचक्र नगर में मांस लोलुपी राजा वक रहता था। जो इसी कारण से राज्य भ्रष्ट हुआ, अपयश का पात्र हुआ तथा मरकर नरक गया। व्याख्या- एक चक्र नगर में राज्य करने वाला राजा बक मांसलोलुपी हो जाने के कारण से लोक में बक नामक राक्षस के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। मांस गृद्धि के कारण ही वह राज्य भ्रष्ट हुआ, प्रजा ने उसे नगर से निकाल दिया। इस लोक में दुःख और अपयश को प्राप्त होता हुआ मरा और मरकर नरक गया। उसकी कथा कहते हैं पाण्डव वहाँ से चलकर धीरे-धीरे श्रुतपुर नाम के एक नगर में आये और यहाँ उन्होंने एक जिनालय में जाकर भगवान् की प्रतिमाओं का पूजन किया और भक्ति भाव से उनकी स्तुति की। वहाँ कुछ देर ठहरकर वे रात में रहने के लिये एक वणिक् के घर पर आये। वे बहुत थके हुए थे इसलिये शयन करना चाहते थे। वे उनकी कटी में ठहर गये। संकट को हरने वाले विकट पराक्रमी पाण्डव बैठे हए वहाँ के विचित्र जिनालयों के बाबत कुछ चर्चा कर रहे थे कि इतने में सन्ध्या होते ही उस घर वाले वैश्य की भार्या महान् शोक से पीड़ित होकर अत्यन्त दीनता के साथ विलाप करने लगी। तब दयालु कुन्ती ने उसके पास जाकर उसे आश्वासन दिया, धीरज बंधाया और आँसुओं से परिपूर्ण नेत्रों वाली खेद खिन्न उस वैश्यभार्या से प्रेम के साथ पूछा कि तुम इतना भारी शोक क्यों कर रहे हो? वैश्यभार्या ने कहा कि सुनिये मैं अपने दुःखपूर्ण रोने का कारण बताती हूँ। देवी इसी श्रुतपुर में श्रीमान् बक नाम का राजा था। वह बगुले की नाई ही धर्महीन था, परन्तु प्रजा के ऊपर शासन करने में अच्छा प्रवीण था।उसे कारणवश मांस खाने की चाट पड़ गई और वह इतनी जबर्दस्त कि वह हमेशा मांस के सम्बन्ध में ही अपनी सारी बुद्धि खर्च किया करता था। उसका रसोइया उसे सदा पशु का मांस पका-पका कर देता था और वही नीच निर्दय उसके लिये पशुओं का घात करता था। लेकिन एक दिन कहीं से भी जब उसे पशु का मांस न मिला तब वह दुष्ट मांस की खोज में नगर से बाहर निकला और श्मशान भूमि के किसी गड्ढे में से एक मरे हुए बच्चे को खोद कर ले आया एवं उस पापी ने उस बच्चे को मसाला आदि डाल कर बड़ी चतुराई से पकाया और उसका मांस बक राजा को खिला दिया। राजा को वह मांस बहुत ही अच्छा स्वाद का मालूम पड़ा। अत: मांसलोलुपी ने बड़े भारी आग्रह के साथ रसोइये से पूछा कि पाकवर तुम ऐसा अच्छा सुस्वाद मांस कहाँ से लाये। मैंने तो कभी ऐसा उत्तम मांस खाया ही नहीं। यह सुन रसोइया अभयदान मांग कर डरता-डरता बोला Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१३०) आचार्य वसुनन्दि की प्रभो माफ कीजिये यह मांस मनुष्य का है। आज कहीं से भी जब मुझे पशु का मांस न मिल सका तब मैंने इसे ही चतुराई से पकाकर आपको खिलाया है। ___ यह सुनकर राजा बोला कि प्रिय यह मांस मुझे बहुत ही अच्छा मालूम हुआ है और इससे मुझे तृप्ति हुई है इसलिये अब से तुम मुझे मनुष्य का ही मांस खिलाया करो। राजा की इतनी सम्मति पाकर वह रसोइया और भी निडर हो गया और अब वह हमेशा मनुष्य के मांस की खोज में गली-कूचों में जाकर नगर के बच्चों को मिठाई आदि बाँटने लगा। मिठाई लेकर सब बच्चों के चले जाने पर जो बच्चा पीछे रह जाता उसे पकड़ कर वह उसका गला घोट देता और उसका मांस राजा को खिला देता, ऐसा दुष्कृत्य वह रोज करने लगा। उधर धीरे-धीरे जब नगर के बच्चे प्रतिदिन कम होने लगे तब सारे नगर में खलबली मच गई और लोगों ने छुप-छुप कर बच्चों के घातक को देखना-खोजना आरम्भ कर दिया। इसके थोड़े ही दिनों में वह रसोइया पकड़ा गया। लोगों के पछने पर उसने साफ-साफ कह दिया कि मेरा तनिक-सा भी इस दुष्कृत्य में अपराध नहीं है। किन्तु मुझसे राजा ने जैसा करवाया वैसा ही मैंने किया। इस पर सब लोगों की सम्मति से राजा बक राजगद्दी पर से उतार दिया गया। इसके बाद बक वन में रहकर मनुष्यों को मारकर खाने लगा। धीरे-धीरे जब उसने नगर के बहुत से मनुष्यों को मार खाया तब नगर के लोगों ने मिलकर विचार कर यह निश्चय किया कि इसके लिये बारी-बारी से हर रोज एक मनुष्य खाने को देना चाहिये। बस इसी नियम के अनुसार अपनी-अपनी बारी पर सब लोगों ने उसे घर-घर से एक-एक मनुष्य प्रतिदिन ख़ाने को दिया और धीरे-धीरे आज बारह वर्ष ऐसे ही बीत गये पाप योग से आज मेरे प्यारे बच्चे की बारी है और इसी से दुःखी होकर मैं रो रही है। देवी मेरे रोने का दूसरा और कोई निमित्त नहीं है। नगर के लोग आज ही एक गाड़ी में मिठाई आदि भर कर और उसके बीच में मेरे प्यारे पुत्र को बैठाकर उस अधर्मी को भेंट में देंगे तथा साथ में एक भैसा भी देंगे। माता मेरा यह एक ही तो प्यारा आँखों का तारा सर्वस्व पुत्र है और यही आज काल के गाल में पहुँचाया जा रहा है। इसके बिना हाय! अब मैं क्या करूँगी और कैसे अपना जीवन बिताऊँगी? पुत्र के वियोग का चित्र मेरे आँखों के सामने खिंच रहा है और वह मेरी छाती को.चीरे डालता है। हृदय में वज्र के जैसी चोट कर रहा है। बताइए अब मैं कैसे और किसके भरोसे धीरज धरूँ। मुझे तो कोई उपाय ही नहीं सूझ पड़ता है। यह सुनकर कुन्ती का हृदय दया से भीग गया। वह मिष्टभाषिणी उसके लिए सुख का उपाय सोचती हुई उसे शान्ति देकर बोली कि वणिग्वधू तुम डरो मत। सबेरा होने दो। तुम्हारे पुत्र की बारी आने पर मैं उसकी रक्षा का उपाय करुंगी। सुनो मैं उस भूत की बलि के लिये अपना अतीव रूप-शाली पुत्र भेज दूंगी। तुम्हारा पुत्र आनन्द Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३१) आचार्य वसुनन्दि) चैन से अपने मन्दिर ही में रहेगा। तुम्हें और उसे कोई चिन्ता न करनी चाहिये। उस वैश्यभार्या को इस तरह समझा कर कुन्ती वहाँ गई जहाँ कि भीम बैठा हुआ था। उसे आती देखकर भीम उठ खड़ा हुआ और उसने उसके चरणकमलों में प्रणाम किया। इसके बाद कुछ देर बैठकर सबके मन को अपनी ओर झुकाने के लिये कुन्ती ने भीम को उस दुष्ट बक राजा का सारा हाल कह सुनाया। वह बोली कि भीम! जरा शान्तचित्त से मेरी बात पर ध्यान दो। इस बेचारी वैश्यपत्नी का एक ही पुत्र है और उसी को लोग आज नरभक्षी बक राक्षस के लिये देंगे। पुत्र के बिना वह बेचारी जीवन-भर के लिये दुःखिनी हो जायगी। इसे अपना जीवन भी बोझमय हो जायगा देखो आज रात में तुम लोग इसके घर बड़े आराम के साथ ठहरे हो इसके सिवाय इसने तुम्हारा खूब अतिथि-सत्कार किया है। वस्त्र जटा आदि द्वारा तुम्हारी पाछनगत की है। अस्तु जब कि तुम लोग परोपकारी हो और तुम्हारा यही सच्चा व्रत है। तब तुम्हें इनबातों की तो परवाह नहीं है कि कोई तुम्हारी भलाई करे या न करे। तब तुम परोपकार दृष्टि से ही ऐसा काम करो जिससे कि इसका प्यारा पुत्र जीता रह जाय, इसकी आँखों के सामने बना रहे और बेटा भीम आगे के लिये कोई ऐसा उपाय कर दो जिससे यह मनुष्य जो कि हमेशा मनुष्यों को खाया करता है और महान् निर्दय है नरभक्षण से रुक जाय, आगे ऐसा दुष्कृत्य न करे जिससे लोगों में बड़ी भारी खलबली मच रही है। कुन्ती के वचनों को सुनकर कर्मवीर भीम ने कहा कि माता भला आप यह क्या कहती हो? मैं तो तुम्हारा आज्ञाकारी हूँ। तुम्हारी आज्ञा पालने के लिये आज ही उस मनुष्य राक्षस के पास जाने को तैयार हूँ। इस प्रकार अति प्रवीण और न्याय के जानकार माता-पुत्र इस प्रकार परोपकार की बाते कर ही रहे थे कि इतने में उस वैश्य पुत्र को ले जाने के लिये कोतवाल ने आकर उससे कहा कि वैश्यवर उस मनुष्य-राक्षस की बलि के लिये गाड़ी में सवार होकर अतिशीघ्र मेरे साथ चलो, देर न करो और जरा देर के जीवन के लिये देर करने से भी क्या होगा? . कोतवाल की बात सुनकर उससे भीम ने कहा कि आप जाइए मैं आकर उस नर-पिशाच को अपनी बलि दे दूँगा। भीम के वचनों को सुनकर यम के दूत जैसा कोतवाल हर्षित होता हुआ चला गया। इसी समय पूर्व दिशा में सूरज का उदय हो आया। जान पड़ता था कि मानो उसके दुश्चरित्र को देखने के लिये ही आया है। और है भी सच कि दयालु पुरुष लोगों के दुश्चरित्र को देखकर जहाँ तक बन सकता है उसे सुधारने की कोशिश करते है। इसके बाद एक गाड़ी सजाई गई और उसमें कढ़ाई पर भोजन रखा गया। उसके ऊपर भीम बड़ी निर्भयतापूर्वक सवार होकर चला। वह ऐसा जान पड़ता था मानो उस नर-पिशाच को जलाने के लिये आग ही जा रही है। वह थोड़ी ही देर में उस यम के जैसे पापी बक के पास पहुँच गया। उसे सामने आया देखकर वह दुष्ट उसके ऊपर Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३२) आचार्य वसुनन्दि झपटा और क्रोध से गर्जना कर उसने सभी दिशाओं को शब्दमय बना दिया। उसे इस तरह क्रोधित देखकर भीम ने कहा कि दैत्येन्द्र आओ मैं आज तुम्हारे भुज दण्डों का पराक्रम देखकर ही तुम्हें अपनी बलि दूँगा वैसे नहीं । खेद है कि इतने काल तक तुमने इन गरीब लोगों को व्यर्थ ही सताया। सच है कि जो दीनता दिखाते है, दांतों में तिनकों को दबाकर रहते है, वे संसार में मारे जाते है। तात्पर्य यह कि गरीबों पर ही सबका वश चलता है, बलवानों पर नहीं; क्योंकि बलि का सामना करने के लिये कुछ ताकत की जरुरत होती है। इसके बाद क्रोध से उद्धत हुए वे दोनों ही खम ठोककर भिड़ गये और आकाश तथा पृथ्वी को उन्होंने गुँजा दिया। वे कभी मस्तक के द्वारा और कभी पाँवों के द्वारा एक दूसरे पर प्रहार करते थे तथा हाथों की कुहानियों से एक दूसरे का सिर फोड़ते थे। इस समय वे दोनों ही दया से कोसो दूर थे, कोई भी किसी पर तीव्र प्रहार करने में कसर न रखता था। दोनों ही निर्दय भाव से एक दूसरे पर टूटते थे । यम के पुत्र जैसे उन दोनों में बड़ा भारी भीषण युद्ध हुआ । आखिर निर्भय भीमं ने उस पापी नरभक्षक दुष्ट और क्रोध से काँप रहे नरपिशाच को तृण के जैसा निःसृत्व कर उसके सिर में अपने भुजदण्ड का एक ऐसा भीषण प्रहार किया कि वह बिल्कुल ही हतप्रभ हो गया। इसके बाद ही वह फिर न उठ खड़ा हो इसके लिये क्रोध में आकर बलि भीम ने उसकी पीठ में एक ऐसी जोर की लात मारी कि जिससे वह अधम जमीन पर लोट गया। भीम ने उसका तब भी पिण्ड न छोड़ा और वह उसके दोनों पांव पकड़ कर उसे आकाश में चारों ओर घुमाने लगा। जान पड़ता था कि उसे जमीन पर पछाड़ना ही चाहता है तब वह नर-पिशाच बड़ा डरा और भीम के हा-हा खाने लगा। अन्त में आयुष्यपूर्ण होने के बाद बक राजा मरा। तैतीस सागर की आयु वाला सांतवें नरक में नारकी हुआ वहाँ पर घोर दुःखों को सहन किया । । १२७ । । वेश्यागमन में प्रसिद्ध चारुदत्त सव्वत्थ णिवण बुद्धि बेसासंगेण चारुदत्तो वि । खइऊण धणं पत्तो दुक्खं परदेसगमणं च ।। १२८ । । अन्वयार्थ - (सव्वत्य णिवुण बुद्धि) सभी विषयों में निपुण बुद्धि, (चारुदत्तो वि) चारुदत्त ने भी, (वेसासंगेण) वेश्या की संगति से, (धणं खड़ऊण) धन को खोकर, (दुक्खं पत्तो) दुःख पाया, (च) और, (परदेसगमणं) परदेश जाना पड़ा। भावार्थ- सम्पूर्ण विषयों में विशिष्ट चातुर्य रखने वाला चारुदत्त भी अपने धन को सुरक्षित नहीं रख सका, अपितु वेश्या की संगति हो जाने से सम्पूर्ण धन को खोकर परदेश जाने के लिए बाध्य हुआ और विविध प्रकार के दुःख सहन करने पड़े। यह कथा कुछ विस्तृत रूप से कहते है - . Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१३३) आचार्य वसुनन्दि देवों द्वारा पूजित जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों को नमस्कार कर चारुदत्त सेठ की कथा लिखी जाती है। जिस समय की यह कथा है उस समय चम्पापुरी का राजा शूरसेन बड़ा बुद्धिमान और प्रजाहितैषी था। उसके नीतिमय शासन की सारी प्रजा एक स्वर से प्रशंसा करती थी। वहीं भानुदत्त सेठ अपनी स्त्री सुभद्रा के साथ रहता था। सुभद्रा के कोई सन्तान न थी। सन्तान प्राप्ति की इच्छा से वह अनेक देवी-देवताओं की पूजा किया करती और मानताएँ माना करती थी । फिर भी वह सफल मनोरथ न हुई । कुदेवों की पूजा स्तुति से कभी कोई कार्य सिद्ध हुआ है क्या ? एक दिन वह भगवान् का दर्शन करने मन्दिर में गयी वहाँ चारणमुनि को देखा। उन्हें नमस्कार कर उसने पूछा- प्रभो ! क्या कभी मेरा मनोरथ पूर्ण होगा, अन्तर्यामी मुनिराज बोले बेटी! तू जिस इच्छा से कुदेवों की पूजा-मानता करती है वह ठीक नहीं है, इससे लाभ के बदले हानि हो सकती है। तू विश्वास कर कि संसार में अपने पुण्य-पाप के सिवाय और कोई देवी-देवता किसी को कुछ देने-लेने में समर्थ नहीं होते। अब तक पाप का उदय था इसलिये तेरी इच्छा पूरी न हो सकी। अब तेरे पुण्य का उदय होगा जिससे तुझे एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी, इसलिये तुम पवित्र जिनधर्म पर विश्वास करो। मुनिराज की बातों को सुनकर सुभद्रा बड़ी खुश हुई, उन्हें नमस्कार कर वह घर चली आई और तब से कुदेवों की पूजा-मानता छोड़ जिन भगवान् के पवित्र धर्म पर विश्वास कर दान, पूजा, व्रत आदि करने लगी। इस तरह कुछ दिन सुख के साथ बीतने पर मुनिराज के कहे अनुसार उसको पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम चारुदत्त रखा गया। उम्र की बढ़ती के साथ उसमें सद्गुण भी बढ़ते गये। पुण्यवानों को अच्छी बातें अपने-आप प्राप्त होती है। - चारुदत्त बचपन से ही मन लगाकर पढ़ता - लिखता था । पच्चीस वर्ष की उम्र तक किसी प्रकार की विषय-वासना उसे छू तक न गई। वह दिन-रात पुस्तकों का अभ्यास, विचार, मनन, चिन्तन में मग्न रहता, इससे बचपन से ही उसमें विरक्ति-सी आने लगी थी। वह नहीं चाहता था कि विवाह कर संसार के माया जाल में फसे । पर माता-पिता के बहुत आग्रह करने पर उसे अपने मामा की गुणवतीपुत्री मित्रवती के साथ विवाह करना पड़ा। विवाह हो गया सही, पर तब भी चारुदत्त उसका रहस्य नहीं समझ पाया । उसने कभी अपनी स्त्री का मुँह तक नहीं देखा, पुत्र की यह दशा देख उसकी माँ को बड़ी चिन्ता हुई। चारुदत्त की विषयों की ओर प्रवृत्ति हो इसके लिये उसे व्यभिचारी लोगों के संगति में डाल दिया इससे उसकी इच्छा सफल हुई। अब चारुदत्त विषयों में इतना फंस गया कि वह वेश्या प्रेमी बन गया उसे लगभग बारह वर्ष वेश्या के यहाँ रहते बीत . गये। इस अरसे में उसने अपने घर का सब धन खो दिया। चम्पापुर में चारुदत्त एक अच्छे धनिकों की गिनती में था, पर अब वह एक साधारण स्थिति का आदमी रह गया। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३४) आचार्य वसुनन्दि रुपये की कमी हो जाने से उसकी स्त्री का गहना अब उसके खर्च के काम में आने लगा। वेश्या की कुटनी माँ ने जब देखा कि चारुदत्त दरिद्र हो गया है तो अपनी लड़की से कहा कि बेटी अब तुम्हें इसका साथ जल्दी छोड़ देना चाहिए; क्योंकि दरिद्र मनुष्य अपने काम का नहीं। वसन्त सेना की माँ ने युक्ति से चारुदत्त को घर से निकाल बाहर किया। वेश्याओं का प्रेम धन के साथ रहता है, मनुष्य के साथ नहीं। अतएव जहाँ धन नहीं वहाँ वेश्या का प्रेम नहीं, अब चारुदत्त को जान पड़ा कि इस प्रकार विषय-भोग में आसक्त रहने का भयंकर दुष्परिणाम होता है। वह अब वहाँ एक पल के लिये भी न ठहरा और अपनी स्त्री का आभूषण साथ ले विदेश चलता बना। उस अवस्था में अपना काला मुँह वह अपनी माँ को दिखला ही कैसे सकता था? वहाँ से चलकर चारुदत्त उलूख देश के उशिरावर्त शहर में पहुँचा। चम्पापुर से चलते समय इसका मामा भी साथ ही गया था। उशिरावर्त में कपास खरीदकर ये ताम्रलिप्तापुरी की ओर रवाना हुए। रास्ते में इन्होंने विश्राम के लिये एक वन में डेरा डाल दिया। इतने में एक आँधी आई उससे परस्पर की रगड़ से बाँसों में आग लग गई। आग की चिनगारियाँ उड़कर कपास पर जा पड़ी। देखते-देखते सब कपास भस्मीभूत हो गया। इस हानि से चारुदत्त बहुत दुःखी हुआ। वहाँ से अपने मामा से सलाह कर वह समुद्रदत्त सेठ के जहाज द्वारा पवनद्वीप में पहुँचा यहाँ इसके भाग्य का सितारा चमका और इसने खूब धन कमाया। अब इसे माता के दर्शन के लिये देश लौट जाने की इच्छा हुई। इसने चलने की तैयारी कर जहाज में अपना माल-असबाब लाद दिया। जहाज अनुकूल समय देखकर रवाना हुआ। जैसे-जैसे वह जन्मभूमि की ओर आगे बढ़ता जाता था वैसे-वैसे उसकी प्रसन्नता अधिक होती जाती थी। पर अपना चाहा तो कुछ होता नहीं है जबतक दैव को वह मंजूर न हो यही कारण था कि चारुदत्तं की इच्छा पूरी न हो पायी; क्योंकि अचानक किसी अनिष्टकर चील से टकराकर जहाज फट गया। चारुदत्त का सब माल असबाब समुद्र के विशाल उदर में विलीन हो गया। वह फिर पहले सरीखा दरिद्र हो गया, पर दुःख उठाते-उठाते उसकी सहन शक्ति अधिक हो गयी थी। एक के बाद एक आने वाले दुःखों ने इसे निराशा के गहरे गड्ढे से निकाल पूर्ण आशावादी और कर्तव्यशील बना दिया था इसलिये इस बार भी उसे अपनी हानि का कुछ विशेष दुःख नहीं हुआ। वह फिर धन कमाने के लिये विदेश चल पड़ा। इस बार फिर उसने बहुत धन कमाया। घर लौटते समय फिर उसकी पहले जैसी दशा हुई। इतने में ही उसके बुरे कर्मों का अन्त न हुआ। ऐसी भयङ्कर घटनाओं का उसे सात बार सामना करना पड़ा। कष्ट पर कष्ट आने पर भी वह अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हुआ आखिरी बार जहाज के फट जाने से वह स्वयं भी समुद्र में जा गिरा पर भाग्य से एक तख्ता के सहारे वह किनारे लग गया। यहाँ से चलकर वह राजगृह पहुँचा जहाँ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३५) आचार्य विष्णु मित्र भी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोला अच्छा हुआ जो तुमने अपना सब हाल कह सुनाया। धन के लिये अब तुम्हें इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। आओ मेरे साथ चलो। यहाँ से कुछ दूर आगे एक जंगल है वहाँ पर्वत की तलहटी में रसायन से भरा एक कुआ है जिससे सोना बनाया जाता है उससे थोड़ा-सा रस निकाल कर तुम ले आओ तो तुम्हारी सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी। चारुदत्त संन्यासी के पीछे-पीछे चला। दुर्जनों द्वारा धन के लोभी इसी प्रकार ठगे जाते हैं। संन्यासी के साथ चारुदत्त एक पर्वत के पास पहुँचा । रस लाने को सब बातें समझाकर संन्यासी ने चारुदत्त के हाथ में एक तूम्बी दी। सीके पर बैठाकर उसे कुएँ में उतार दिया। चारुदत्त तूम्बी में रस भर रहा था कि इतने में एक मनुष्य ने उसे ऐसा करने से रोका। चारुदत्त पहले तो डरा पर जब उस मनुष्य ने कहा कि डरो मततब वह कुछ सरस होकर बोला तुम कौन हो और इस कुएँ में कैसे आये? कुएँ में बैठा हुआ मनुष्य बोला— मैं उज्जैनी का रहने वाला हूँ और मेरा नाम धनदत्त है। सिंहलद्वीप से लौटते समय तूफान में पड़कर मेरा जहाज फट गया जिससे बहुत धन, जन की हानि हुई। शुभ कर्म से एक पहिया मेरे हाथ लग गयी जिसके सहारे मैं बच गया। समुद्र से निकलकर मैं अपने शहर की ओर जा रहा था कि रास्ते में मुझे यही संन्यासी मिला। यह दुष्ट मुझे धोखा देकर यहाँ लाया। कुएँ में से रस भरकर भाग गया। मैं आकर कुएँ में गिरा। भाग्य से चोट तो अधिक न लगी पर दो-तीन दिन इसमें पड़े रहने से अब मेरे प्राण घुट रहे है। उसकी हालत सुनकर चारुदत्त को बड़ी दया आई पर वह स्वयं भी उसी परिस्थिति में आ फंसा था इसलिए उसकी कुछ सहायता न कर सका। चारुदत्त ने उससे पूछा तो मैं इसे रस भरकर न दूँ? धनदत्त ने कहा- ऐसा मत करो रस तो भरकर दे ही दो अन्यथा यह ऊपर से पत्थर बगैरह मारकर बड़ा कष्ट पहुँचायेगा। तब चारुदत्त ने एक बार तुम्बी रस से भरकर सीके में रख दी। संन्यासी ने उसे निकाल लिया। चारुदत्त को निकालने के लिये उसने फिर सीका नीचे डाला अबकी बार स्वयं सीके पर न बैठ चारुदत्त ने कुछ वजनदार पत्थरों को उसमें रख दिया। जब सीका आधी दूर आया तब संन्यासी उसे काटकर चलता बना। चारुदत्त की जान बच गयी। उसने धनदत्त का बड़ा उपकार माना और कहा — मित्र | आज तुमने मुझे जीवन दान दिया है जिसके लिये मैं जन्म-जन्मान्तर तुम्हारा ऋणी रहूँगा। उस कुएं से निकलने का उपाय पूछने पर धनदत्त बोला- यहाँ रस पीने प्रतिदिन एक गोह आया करती है, जो आज चली गई, कल फिर आयेगी सो तुम पूछ पकड़कर निकल जाना। इतना कहते-कहते उसका गला रुक गया और प्राण संकट में पड़ गये। अपने उपकारी की कुछ भी सेवा करने में असमर्थ चारुदत्त ने उसे पञ्च नमस्कार मन्त्र सुनाया और साथ ही संन्यास भी लिवा दिया। 'सबेरा होते ही सदा की तरह उस दिन भी गोह रस पीने आई। रस पीकर जाते Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३६) आचार्य वसुनन्दि समय चारुदत्त ने उसकी पूछ पकड़ ली और उसके सहारे बाहर निकल आया। तमाम जंगल पार करने पर रास्ते में उसकी रुद्रदत्त से भेंट हो गयी। वहाँ से वे दोनों अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये रत्नद्वीप गये। रत्नद्वीप जाने के लिये पहले एक पर्वत पर जाना पड़ता था पर्वत पर जाने का रास्ता बहुत संकीर्ण था। इसलिये वहाँ जाने के लिये इन्होंने दो बकरे खरीदे और उन पर सवार होकर सकुशल पर्वत पर पहुँच गये। वहाँ जाकर चारुदत्त के साथी ने विचारा कि दोनों बकरों को मार कर दो चमड़े की थैलियाँ बनानी चाहिए और उलट कर उनके भीतर घुस दोनों का मुंह सी देना चाहिए। मांस के लोभ से यहाँ सदा भैरुण्ड पक्षी आया करते है। वे अपने को उठाकर उस पार रत्नद्वीप ले जायेंगे। वहाँ थैलियों को फाड़कर हम बाहर हो जायेंगे। मनुष्य को देखकर पक्षी उड़ जायेगा और सीधी तरह अपना सब काम बन जायेगा। चारुदत्त ने रुद्रदत्त की पाप-भरी बात सुनकर उसे बहुत फटकारा और कहा कि ऐसे पाप द्वारा प्राप्त किये धन की मुझे कुछ जरुरत नहीं। रात को ये दोनों सो गये। चारुदत्त को गाढ़ी नींद में सोया देख पापी रुद्रदत्त चुपके से उठा और जहाँ बकरे बंधे थे वहाँ गया। उसने पहले अपने बकरे को मारा और फिर चारुदत्त के बकरे पर हाथ बढ़ाया। इतने में अचानक चारुदत्त की नींद खुल गयी। रुद्रदत्त को अपने पास सोया न पाकर उसका सिर ठनका जाकर देखा कि पापी रुद्रदत्त बकरे का गला काट रहा है। मारे क्रोध के चारुदत्त लाल पीला हो गया। उसने रुद्रदत्त के हाथ से छुरा छीनकर उसे खूब खरी-खोटी सुनायी। सच है निर्दयी पुरुष कौन-सा पाप नहीं करते। उस अधमरे बकरे को टकर-टकर देखते- देखकर चारुदत्त का हृदय दया से भर आया। उसकी आँखों से आसुओं की बूंदे टपकने लगी बकरा प्राय: काटा जा चुका था। इसलिये उसके बचाने का प्रयत्न करने से वह लाचार था उसकी शान्ति के साथ मृत्यु और सुगति के लिये चारुदत्त ने उसे पञ्च नमस्कार मन्त्र सुनाकर संन्यास दे दिया। जो धर्मात्मा जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश का रहस्य समझते हैं उनका जीवन परोपकार के लिये ही होता है। चारुदत्त की इच्छा थी कि मैं पीछे लौट जाऊँ पर इसके लिये उसके पास कोई साधन न था इसलिये लाचार हो उसे भी रुद्रदत्त की तरह उस थैली की शरण लेनी पड़ी। उड़ते हुए मेरुण्ड पक्षी -दो मांस-पिण्ड देख वहाँ आये और उन दोनों को चोंचों से उठा चलते बने। रास्ते में उनमें परस्पर में लड़ाई होने लगी जिसके फलस्वरूप रुद्रदत्त जिस थैली में था वह चोच से छूट पड़ी। रुद्रदत्त समुद्र में गिरकर मर गया। मरकर भी अपने पाप के फल को भोगने के लिये उसे नरकगामी होना पड़ा। चारुदत्त की थैली को जो पक्षी लिये था उसने रत्नद्वीप के एक सुन्दर पर्वत पर ले जाकर रख दिया। चोच मारते ही चारुदत्त देख पड़ा और पक्षी डरकर भाग गया। जैसे ही चारुदत्त थैली को बाहर निकला कि धूप में ध्यान लगाये एक महात्मा दीख पड़े। उन्हें धूप में मेरु Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि की तरह निश्चल देखकर चारुदत्त की उनपर बहुत श्रद्धा हुई। मुनिराज का ध्यान पूरा होते ही उन्होंने चारुदत्त से कहा – क्यों चारुदत्त अच्छी तरह तो हो न? मुनि द्वारा अपना नाम सुनकर चारुदत्त को बड़ी खुशी हुई कि इस अपरिचित देश में भी उसे कोई पहचानता है साथ ही उसे इस बात पर आश्चर्य भी हुआ। वह मुनिराज से बोलाप्रभो! मालूम होता है कि आपने कहीं मुझे देखा है बतलाइये तो आपको मैं कहाँ मिला था? मुनि बोले- सुनो! मैं अमितगति विद्याधर हूँ। एक दिन मैं चम्पापुरी के बगीचे में अपनी प्रिया के साथ सैर करने गया था उसी समय धूम सिंह नामक विद्याधर वहाँ आया और मेरी स्त्री को देख उसकी नियत खराब हो गयी। अपनी विद्या के बल से उस कामान्ध पापी ने मुझे एक वृक्ष में कील दिया और मेरी प्यारी को विमान पर बैठाकर आकाश मार्ग से लेकर चल दिया। भाग्यवश उस समय तुम वहाँ आ गये तुम्हें दयावान् समझ मैंने वहीं रखी एक औषधि को पीसकर मेरे शरीर पर लेप करने को कहा। तुमने वैसा ही किया जिससे दुष्ट विद्याओं का प्रभाव नष्ट हुआ और मैं छूट गया। जिस प्रकार गुरूपदेश से जीव माया मिथ्या की कील से छूट जाता है। मैं उसी समय कैलाश पर्वत पर गया और धूम सिंह को उचित दण्ड दे अपनी स्त्री को छुड़ा लाया। उस समय तुमको मैंने मनमानी वस्तु मांगने को कहा पर तुमने कुछ भी लेने से इन्कार किया। वह भी ठीक ही था; क्योंकि सज्जन पुरुष दूसरों की भलाई किसी प्रकार की आशा से नहीं करते है। इसके बाद मैं अपने नगर को आया- कल्याण की इच्छा से पुत्रों को राज्य सौंप मैंने दीक्षा ले ली जो. मोक्ष को देने वाली है। चारण ऋद्धि के प्रभाव से मैं यहाँ आकर तपस्या कर रहा हूँ। यही कारण है कि मैं तुम्हें पहचानता हूँ। चारुदत्त इन बातों को सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह वहाँ बैठा ही था कि मुनिराज के दो पुत्र उनकी पूजा करने वहाँ आये। मुनिराज ने चारुदत्त से भी उनका परिचय कराया। परस्पर मिलकर इन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। इसी समय एक खूबसूरत युवक वहाँ आया। युवक ने आते ही चारुदत्त को प्रणाम किया। चारुदत्त ने उसे ऐसा करने से रोकते हए कहा कि पहले तुम्हें गुरुदेव को नमस्कार करना उचित था। आगत युवक ने अपने परिचय देते हुए कहा कि मैं पहले बकरा था। पापी रुद्रदत्त जब मेरा आधा गला काट चुका था उस समय भाग्य से आकर आपने मुझे नमस्कार मन्त्र सुनाया और साथ ही संन्यास दे दिया। मैं शान्ति से मर कर मन्त्र के प्रभाव से सौधर्म-स्वर्ग में देव हुआ। इसलिये मेरे गुरु तो आप ही हैं- आपने ही मुझे सन्मार्ग बतलाया है। श्रीधर्मदेव धर्मप्रेम से प्रेरित हो दिव्य वस्त्राभरण चारुदत्त को भेंटकर और उसे नमस्कार कर स्वर्ग चला गया। परोपकारियों का इस प्रकार सम्मान होना ही चाहिए। इधर विद्याधर और वराहग्रीव मुनिराज को नमस्कार कर चारुदत्त से बोले- चलिये हम आपको आपकी जन्मभूमि चम्पापुरी में पहुँचा आवे। चारुदत्त कृतज्ञता प्रकाशित करते हुए जाने को सहमत हो गया। उन्होंने चारुदत्त को माल-असबाब Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३८) आचार्य वसुनन्दि सहित बहुत जल्द विमान द्वारा चम्पापुरी पहुंचा दिया। इसके बाद वे उसे नमस्कार कर अपने स्थान को लौट गये। पुण्यबल से संसार में सब कुछ हो सकता है। अतएव पुण्य प्राप्ति के लिये जिन भगवान् के आदेशानुसार दान, पूजा, व्रत, शीलरूप चार पवित्र धर्म का सदा पालन करते रहना चाहिये। अचानक अपने प्रियपुत्र के आ जाने से चारुदत्त की माता को बड़ी खुशी हुई। उन्होंने बार-बार उसे छाती से लगा कर अपने हृदय को ठण्डा किया। मित्रवती के भी आनन्द का ठिकाना न रहा। वह आज अपने प्रियतम से मिलकर जिस सुख का अनुभव कर रही थी उसकी समानता में स्वर्ग का दिव्य सुख भी तुच्छ है। बात की बात में चारुदत्त के आने का समाचार सारे नगर में फैल गया जिससे सबको आनन्द हुआ। चारुदत्त किसी समय बड़ा धनी था। अपने कुकर्मों से वह राह का भिखारी बन गया। जब उसे अपनी दशा का ज्ञान हुआ तो फिर कर्मशील बनकर उसने कठिनाइयों का सामना किया। कई बार असफल होने पर भी वह निराश नहीं हुआ। अपने उद्योग से उसके भाग्य का सितारा फिर चमक उठा और पूर्ण तेज प्रकाश करने लगा। कई वर्षों तक खूब सुख भोग कर अपनी जगह अपने सुन्दर नाम के पुत्र को नियुक्त कर वह उदासीन हो गया। दीक्षा ले उसने तप आरम्भ किया और अन्त में संन्यास सहित मरकर सर्वार्थसिद्धि में गया। वहाँ पर तेतीस सागर जैसी दीर्घ आयु को प्राप्त कर सदा तत्त्वचर्चा, धर्मचर्चा आदि आत्महित के कार्यों में अपना समय व्यतीत करते हुए वह देव परम सुख का अनुभव करता है, उस सुख की कोई सीमा नहीं है, संसार में यह सर्वोत्तम सुख है। जिन भगवान् के उपदेश धर्म की इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर आदि भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं। तुम भी उसी धर्म का आश्रय लो जिससे उस परम पद को प्राप्त कर सको।।१२८।। शिकार व्यसन में प्रसिद्ध ब्रह्मदत्त होऊण चक्कवट्टी चउदहरयणाहिओ' वि संपत्तो। मरिऊण बंभदत्तो णिरयं पारद्धिरमणेण।। १२९।। अन्वयार्थ– (चक्कवट्टी होऊण) चक्रवर्ती होकर, (चउदहरयणाहिओ वि संपत्तो) चौदह रत्नों के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी, (बंभदत्तो पारद्धिरमणेण) ब्रह्मदत्त शिकार खेलने से, (मरिऊण) मरकर, (णिरयं) नरक गया। १. ब. रयणीहिओ. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३९) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- चक्रवर्ती पदधारी चौदह रत्न और नौ निधियों का स्वामी होकर भी ब्रह्मदत्त शिकार व्यसन के परिणामस्वरूप मरकर भयङ्कर नरक में गया। - व्याख्या - यह कथा निम्न प्रकार है उज्जयिनी नगरी में एक ब्रह्मदत्त नाम का राजा था। वह मृगया (शिकार) व्यसन में अत्यन्त आसक्त था। किसी समय वह मृगया के लिये वन में गया था। उसने वहाँ एक शिलातल पर ध्यानावस्थित मुनि को देखा। इससे उसका मृगया कार्य निष्फल हो गया। वह दूसरे दिन भी उक्त वन में मृगया के निमित्त गया किन्तु मुनि के प्रभाव से फिर भी उसे इस कार्य में सफलता नहीं मिली। इस प्रकार वह कितने ही दिन वहाँ गया, किन्तु उसे इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकी। इससे उसे मुनि के ऊपर अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ। किसी एक दिन जब मुनि आहार के लिये नगर में गये हुए थे तब ब्रह्मदत्त ने अवसर पाकर उस शिला को अग्नि से प्रज्वलित कर दिया। इसी बीच मुनिराज भी वहाँ वापिस आ गये और शीघ्रता से उसी जलती हुई शिला के ऊपर बैठ गये। अत्यन्त कष्ट होने पर भी उन्होंने ध्यान को नहीं छोड़ा इससे उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। वे अन्तकृत् केवली होकर मुक्ति को प्राप्त हुए। इधर ब्रह्मदत्त राजा मृगया व्यसन एवं मुनि प्रतिद्वेष के कारण सातवें नरक में नारकी होकर उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् बीच-बीच में क्रूर हिंसक तिर्यंच होकर क्रम से छठे और पांचवें आदि शेष नरको में भी गया। मृगया व्यसन में आसक्त होने से प्राणियों को ऐसे ही भयानक कष्ट सहने पड़ते है। अतः किसी भी प्रकार के शिकार नहीं करना चाहिए । । १२९ ।। चोरी व्यसन में प्रसिद्ध श्रीभूति णासावहारदोसेण दंडणं पाविऊण सिरिभूई । मरिऊण अट्टझाणेण हिंडिओ दीहसंसारे । । १३० ।। अन्वयार्थ - (णासावहारदोसेण) न्यासापहार के दोष से, (दंडणं पाविऊण) दण्ड को पाकर, (सिरिभूई) श्रीभूति, (अट्टझाणेण मरिऊण) आर्त्त ध्यान से मरकर, ( दीहसंसारे) दीर्घ संसार में, (हिंडिओ) फिरा । अर्थ — न्यासापहार के दोष के दण्ड पाकर श्रीभूति आर्त्तध्यान से मरकर दीर्घसंसार में घूमा। व्याख्या— न्यासापहार अर्थात् धरोहर को अपहरण करने के दोष से दण्ड पाकर श्रीभूमि नाम का ब्राह्मण आर्त्त ध्यान से भरकर दीर्घ संसार में घूमा। उसे हमेशा यही चिन्ता रहतीथी कि मैं कैसे इन रत्नों को सम्हाल कर रखूं ताकि सेठ को वापिस आने पर न देने पड़े अथवा ऐसा कौन-सा उपाय करूँ जिससे किसीभी तरीके से सेठ यह रत्न मुझसे प्राप्त न कर पाये। इस प्रकार के कुविचारों से मरकर वह नरक गया। यहाँ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४०) आचार्य वसुनन्दि कथा के प्रमुख अंश प्रस्तुत है - बनारस नगर में राजा जयसिंह राज्य करता था। उसकी रानी का नाम जयावती था। इस राजा के एक शिवभूति नामक पुरोहित था जो अपनी सत्यवादिता के कारण पृथिवी पर सत्यघोष इस नाम से प्रसिद्ध हो गया था। उसने अपने यज्ञोपवीत में एक छुरी बांध रक्खी थी। वह कहा करता था कि यदि मैं कदाचित् असत्य बोलू तो इस छुरी से अपनी जिह्वा काट डालूँगा। इस विश्वास से बहुत से लोग इसके पास सुरक्षार्थ अपना धन रखा करते थे। किसी एक दिन पद्मपुर से धनपाल नाम का सेठ आया और इसके पास अपने पास के कीमती चार रत्न रख कर व्यापारार्थ देशान्तर चला गया। वह बारह वर्ष विदेश में रह कर और बहुत सा धन कमा कर वापिस आ रहा था। मार्ग में उसकी नाव (जहाज) डूब गई और सब धन नष्ट हो गया। इस प्रकार वह धनहीन होकर बनारस वापिस पहुँचा उसने शिवभूति पुरोहित से अपने चार रत्न वापिस माँगे। पुरोहित ने पागल बतला कर उसे घर से बाहर निकलवा दिया। पागल समझ कर ही उसकी बात राजा आदि किसी ने भी नहीं सुनी। एक दिन रानी ने उसकी बात सुनने के लिये राजा से आग्रह किया। राजा ने उसे पागल बतलाया जिसे सुनकर रानी ने कहा कि पागल वह नहीं है; किन्तु तुम ही हो। तत्पश्चात् राजा की आज्ञानुसार रानी ने इसके लिये कुछ उपाय सोचा। उसने पुरोहित के साथ जुआ खेलते हुए उसकी मुद्रिका और छुरीयुक्त यज्ञोपवीत भी जीत लिया। जिसे प्रत्यभिज्ञानार्थ पुरोहित को स्त्री के पास भेजकर वे चारों रत्न मंगा लिये। राजा को शिवभूति के इस व्यवहार से बड़ा दुःख हुआ। उसने उसे गोबर भक्षण मुष्टिघात अथवा निजद्रव्य समर्पण में से किसी एक दण्ड को सहने के लिये बाध्य किया। तदनुसार वह गोबर भक्षण के लिये उद्यत हुआ; किन्तु खा नहीं सका। अतएव उसने मुष्टिघात (घूसा मारना) की इच्छा प्रगट की। तदनुसार पहलवानों द्वारा मुष्टिघात किये जाने पर वह मर गया और राजा के भाण्डार में सर्प हुआ। इस प्रकार उसे चोरी व्यसन के वश में होकर यह कष्ट सहना पड़ा।।१३०।। परस्त्री गमन व्यसन में प्रसिद्ध रावण होऊण खयरणाहो वियक्खणो अद्धचक्कवट्टी वि। मरिऊण गओ' णरयं परिस्थिहरणेण लंकेसो।।१३१।। अन्वयार्थ- (वियक्खणो) विचक्षण, (अद्धचक्कवट्टी) अर्द्ध चक्रवर्ती (और), (खयरणाहो) विद्याधरों का स्वामी, (होऊण वि) होकर भी, (परिस्थिहरणेण) परस्त्री के हरण से, (लंकेसो) लंका का स्वामी, (मरिऊण) मरकर, (णरयं) नरक, (गओ) गया। कवट्टा वि। १. ब. गयउ. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४१) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- विचक्षण बुद्धिमान, तीन खण्डों का अधिपति अर्थात् अर्द्धचक्रवर्ती और विद्याधरों का स्वामी होकर भी लंका का राजा रावण परस्त्री हरण के पाप से मरणकर नरक गया। व्याख्या-जिस प्रकार चक्रवर्ती एक आर्य खण्ड और पांच म्लेच्छ खण्डों पर शासन करता है उसी प्रकार से अर्द्धचक्रवर्ती भी आधे अर्थात् तीन खण्डों पर राज्य करता है, एक आर्य और दो म्लेच्छ खण्ड। विजयार्ध पर्वत के उस तरफ वाले देशों पर वह शासन नहीं करता। ऐसा शक्तिशाली और महापण्डित रावण सीता के हरण मात्र के पाप से नरक गया। यह कथा लघुरूप में यहाँ प्रस्तुत है - किसी समय अयोध्या नगरी में राजा दशरथ राज्य करते थे। उनके ये चार पत्नियाँ थी- कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी और सुप्रभा। इनके यथाक्रम से ये चार पुत्र उत्पन्न हुए थे – रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न एक दिन राजा दशरथ को अपना बाल सफेद दिखायी दिया। इससे उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ। उन्होंने रामचन्द्र को राज्य देकर जिन दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। पिता के साथ भरत के भी दीक्षित हो जाने का विचार ज्ञात कर उसकी माता कैकेयी बहुत दुःखी हुई। उसने इसका एक उपाय सोचकर राजा दशरथ से पूर्व में दिया गया वर माँगा। राजा की स्वीकृति पाकर उसने भरत के लिये राज्य देने की इच्छा प्रकट की। राजा विचार में पड़ गये। उन्हें खेद खिन्न देखकर रामचन्द्र ने मन्त्रियों से इसका कारण पूछा और उनसे उपर्युक्त समाचार ज्ञातकर स्वयं ही भरत के लिये प्रसन्नतापूर्वक राज्यतिलक कर दिया। तत्पश्चात् मेरे यहाँ रहने पर भरत की प्रतिष्ठा न रह सकेगी, इस विचार से वे सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या से बाहिर चले गये। इस प्रकार जाते हुए वे दण्डकवन के मध्य में पहुँचकर वहाँ ठहर गये। यहाँ वन की शोभा देखते हुए लक्ष्मण इधर-उधर घूम रहे थे। उन्हें एक बाँसों के समूह में लटकता हुआ एक खड्ग (चन्द्रहास) दिखायी दिया। उन्होंने लपककर उसे हाथ में ले लिया और परीक्षणार्थ उसी बाँस समूह में चला दिया। इससे बाँस समूह के साथ उसके भीतर बैठे हुए शम्बूक कुमार का शिर कटकर अलग हो गया। यह शम्बूक कुमार ही यहाँ बैठकर उसे बाहर वर्षों से सिद्ध कर रहा था। इस घटना के कुछ ही समय के पश्चात् खरदूषण की पानी और शम्बूक की माता सूर्पणखा वहाँ आ पहुंची। पुत्र की इस दुरवस्था को देखकर वह विलाप करती हुई इधर-उधर शत्रु की खोज करने लगी। वह कुछ हो दूर रामचन्द्र और लक्ष्मण को देखकर उनके रूप पर मोहित हो गयी। उसने इसके लिये दोनों से प्रार्थना की। किन्तु जब दोनों में से किसी ने भी उसे स्वीकार न किया तब वह अपने शरीर को विकृत कर खरदूषण के पास पहुँची और उसे युद्ध के लिये उत्तेजित किया। खरदूषण भी अपने साले रावण को इसकी सूचना कराकर युद्ध के लिये चल पड़ा। सेना सहित खरदूषण को आता देखकर लक्ष्मण भी युद्ध के लिए चल दिया। वह जाते समय रामचन्द्र से यह कहता गया कि यदि मैं Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४२) आचार्य वसुनन्दि विपत्तिग्रस्त होकर सिंहनाद करूँ तभी आप मेरी सहायता के लिये आना अन्यथा यही स्थित रहकर सीता की रक्षा करना। इसी बीच पुष्पक विमान में आरुढ़ होकर रावण भी खरदूषण की सहायतार्थ लंका से इधर आ रहा था। वह यहाँ सीता को बैठी देखकर उसके रूप पर मोहित हो गया और उसके हरण का उपाय सोचने लगा। उसने विद्या विशेष से ज्ञात करके कुछ दूर से सिंहनाद किया। इससे रामचन्द्र, लक्ष्मण को आपत्तिग्रस्त समझकर उसकी सहायतार्थ चले गये। इस प्रकार रावण अवसर पाकर सीता हर कर ले गया। इधर लक्ष्मण खरदूषण को मारकर युद्ध में विजय प्राप्त कर चुका था। वह अकस्मात् रामचन्द्र को इधर आते देखकर बहुत चिन्तित हुआ। उसने तुरन्त ही रामचन्द्र को वापिस जाने के लिये कहा। उन्हें वापिस पहुँचने पर वहाँ सीता दिखायी नहीं दी। इससे ये बहुत व्याकुल हुए। थोड़े समय के पश्चात् लक्ष्मण भी वहाँ आ पहुँचा। उस समय उनका परिचय सुग्रीव आदि विद्याधरों से हुआ। जिस किसी प्रकार से हनुमान लंका जा पहुँचा उसने वहाँ रावण के उद्यान में स्थित सीता को अत्यन्त व्याकुल देखकर सान्त्वना दी और शीघ्र ही वापिस आकर रामचन्द्र को समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। अन्त में युद्ध की तैयारी करके रामचन्द्र सेना सहित लंका.जा पहुँचे। उन्होंने सीता को वापिस देने के लिये रावण को बहुत समझाया, किन्तु वह सीता को वापिस करने के लिये तैयार नहीं हुआ। उसे इस प्रकार परस्त्री में आसक्त देखकर स्वयं उसका भाई विभीषण भी उससे रुष्ट होकर रामचन्द्र की सेवा में आ मिला। अन्त में दोनों में घमासान युद्ध हुआ जिसमें रावण के अनेक कुटुम्बी जन और स्वयं वह भी मारा गया। परस्त्री मोह से रावण की बुद्धि नष्ट हो गयी थी। इसीलिये उसे दूसरे हितैषी जनों के प्रिय वचन भी अप्रिय ही प्रतीत हुए और अन्त में मरकर नरक गया।।१३०।। सप्तव्यसनों का उपसंहार करते है एदे' महाणुभावा दोसं एक्केक्क-विसण सेवाओ। पत्ता जो पुण सत्त वि सेवइ वणिज्जए किं सो।।१३१।। अन्वयार्थ – (एदे) ये, (महाणुभावा) महानुभाव, (एक्केक्क विसण सेवाओ) एक-एक व्यसन का सेवन करने से, (दोस) दुःख को, (पत्ता) प्राप्त हुए। (जो पुण) फिर जो, (सत्त वि) सातों ही (व्यसनों का), (सेवइ) सेवन करता है, (सो किं) उसके दुःख का क्या, (वणिज्जए) वर्णन किया जाए। . विशेषार्थ- आचार्य श्री यहां पर सप्त व्यसनों से प्राप्त फल का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि जब महाराज युधिष्ठिर, महापराक्रमी यादव, राजा बक, महाबुद्धिमान श्रेष्ठीपुत्र चारुदत्त, चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त, ब्राह्मण श्रीभूति और विचक्षण बुद्धि वाला, १. प. एए. २. झ.ब.वसण. . Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४३) आचार्य वसुनन्दि) अर्द्धचक्रवर्ती रावण जैसे महापुरुष जब एक-एक व्यसन सेवन के फल से भयङ्कर दुःखों को प्राप्त हुए, तब उस बेचारे प्राणी के दुःखों का क्या कहना जो सप्त व्यसनों का सेवन कस्ता है।।१३२।। सप्तव्यसन सेवी रुद्रदत्त साकेते सेवंतो सत्त वि वसणाइ रुद्रदत्तो वि। मरिऊण गओ णिरयं भमिओ पुण दीहसंसारे ।। १३३।। अन्वयार्थ- (साकेते) साकेत नगर में, (सत्त वि) सातों ही, (वसणाइ) व्यसनों को, (सेवंतो) सेवन करता हुआ, (रुद्ददत्तो वि) रुद्रदत्त भी, (मरिऊण) मरकर, (णिरयं गओ) नरक गया (और), (पुण दीहसंसारे) फिर दीर्घसंसार में, (भमिओ) घूमा। भावार्थ- साकेत नगर में रहने वाला रुद्रदत्त सातों ही व्यसनों का सेवन करता था, परिणामस्वरूप मरण कर वह नरक गति को प्राप्त हुआ और दीर्घ संसार अर्थात् चिरकाल तक भयङ्कर संसार में घूमा। रुद्रदत्त की कथा ग्रन्थान्तरों से जानना चाहिये।। १३३।। व्यसन के दुष्परिणामों से संसार के दुःख . सत्तण्हं विसणाणं फलेण संसार सायरे जीवो। . जं पावइ बहुदुक्खं तं संखेवेण वोच्छामि।। १३४।। ___अन्वयार्थ- (सत्तण्ह) सातों, (विसणाणं) व्यसनों के, (फलेण) फल से, (जीवो) जीव, (संसार सायरे) संसार-सागर में, (ज) जो, (बहुदुक्खं पावइ) भारी दुःख पाता है, (तं) उसे, (संखेवेण) संक्षेप से, (वोच्छामि) कहता हूँ। भावार्थ- सप्त व्यसनों का भयङ्कर फल बताने की प्रतिज्ञा करते हुए आचार्य यहाँ पर कहते हैं कि सातों व्यसनों के फल से यह जीव संसाररूपी समुद्र में जिन-जिन मारी दुक्खों को पाता है, उसे संक्षेप से मैं यहाँ कहता हूँ। संसार-दुःखों का विस्तृत वर्णन कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी देखें।।१३४।। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४४) आचार्य वसुनन्दि नरकगति दुःख वर्णन व्यसन सेवी नरकों में उत्पन्न होता है अइ-णिदुर-फरुसाइं पूइ-रुहिराई अइदुगंधाई। असुहावहाई णिच्वं णिरएसुप्पत्तिठाणाई ।। १३५।। .. तो तेसु समुप्पण्णो आहारेऊण पोग्गले असुहे। ... .. अंतोमुहुत्त काले पज्जत्तीओ समाणेइ ।। १३६।। .' (जुअलं) अन्वयार्थ– (णिरएसुप्पत्तिठाणाइं) नरकों में उत्पत्ति के स्थान, (अइणिहर फरुसाइं) अत्यन्त निष्ठुर स्पर्श वाले, (पूइ-रुहिराइं) पीप-रुधिर आदि, (अइंदुगंधाई) अति दुर्गन्धित, (असुहा) अशुभ पदार्थ, (णिच्चं वहाई) नित्य बहते रहते हैं। (तेसु) उनमें, (समुप्पण्णो) उत्पन्न होकर, (तो) वह जीव, (असुहे पोग्गले) अशुभ पुद्गलों को, (आहारेऊण) ग्रहण करके, (अंतोमुहुत्तकाले) अन्तर्मुहुर्त काल में, (पज्जत्तीओ) पर्याप्तियों को, (समाणेइ) सम्पन्न कर लेता है। अर्थ- नरकों में नारकियों की उत्पत्ति के स्थान अत्यन्त निष्ठुर स्पर्शवाले, पीप-रुधिर आदि अत्यन्त दुर्गन्धित पदार्थों को नित्य बहाने वाले हैं। उनमें उत्पन्न होने वाला जीव अशुभ पुद्गलों को ग्रहण करके अन्तर्मुहूर्त काल में पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है। विशेषार्थ- नरकों में नारकियों के उत्पत्ति के स्थान अत्यन्त निष्ठुर स्पर्श वाले हैं, पीप और रुधिर आदिक अति दुर्गन्धित और अशुभ पदार्थ उनमें निरन्तर बहते रहते हैं। उनमें उल्टे मुंह गिरकर नारकी जीव अशुभ पुद्गलों को ग्रहण करके अन्तर्मुहुर्त काल में पर्याप्तियों को सम्पन्न कर लेता है। यह ध्यान रखना चाहिये कि नरकों में वे ही जीव जन्म लेते हैं जिन्होंने नरकाय का बंध किया है और ऐसे जीव नियम से पर्याप्तियाँ पूर्ण कर अन्तर्मुहूर्त में ही सम्पूर्ण अङ्गोपाङ्गों से युक्त पूर्ण शरीर वाले हो जाते हैं अर्थात् वहां बालक और वृद्ध आदि नहीं होते। नारकियों के उत्पत्ति स्थान प्रारम्भ की तीन पृथ्वियों में नारकियों के उत्पत्ति स्थान कुछ तो ऊँट के आकार के हैं, कुछ कुम्भी (घड़िया), कुछ कुस्थली, मुद्गल, मृदंग और नाड़ी के आकार के हैं। चौथी और पांचवी पृथिवी में नारकियों के जन्मस्थान अनेक तो गौ के आकार के है, अनेक हाथी, घोड़ा आदि पशुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपुर के समान हैं। अन्तिम दो भूमियों में कितने ही उत्पत्ति स्थान खेत के १. ब. असुहो. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसुनन्दि-श्रावकाचार (१४५) आचार्य वसुनन्दि समान हैं, कितने ही झालर और कटोरों के समान हैं, और कितने ही मयूरों के आकार वाले हैं। वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और चार कोश अर्थात् एक योजन के विस्तार से सहित हैं; उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं वे सौ.योजन तक चौड़े कहे गये हैं। उन समस्त उत्पत्ति स्थानों की ऊँचाई अपने विस्तार से पांच गुनी है। वहां पृथ्वी तीक्ष्ण क्षार और शस्त्रों जैसी प्रतीत होती है। आचार्य गण उपमान देते हुए कहते हैं कि प्रथम नरक की भूमि का एक सुई की नोंक बराबर हिस्सा भी अगर मध्य लोक में आ जावे तो एक कोश तक के, दूसरी पृथ्वी का आ जावे तो डेढ़ कोश तक के, तीसरी पृथ्वी का आ जावे तो दो कोश तक के, चौथी पृथ्वी का आ जावे तो ढाई कोश तक के, पांचवीं पृथ्वी का आ जावे तो तीन कोश तक के, छठवीं पृथ्वी का आ जावे तो साढ़े तीन कोश तक के और सातवीं पृथ्वी का आ जावे तो चार कोश तक के जीव भस्म हो जायेंगे। हम कह सकते है कि सुई की नोंक के बराबर पौद्गलिक मिट्टी का पिण्ड “परमाणु बम'' से कहीं ज्यादा खतरनाक सिद्ध होगा। ___ उपरोक्त तथ्यों से अनुमान लगाया जा सकता है कि वह छोटा-सा टुकड़ा, कितनी भयानक दुर्गन्धि, तीक्ष्णता और उष्णता अथवा शीतता से युक्त होगा। उन नरकों में सम्पूर्ण पृथ्वी ही इसी प्रकार की है। वहां हमेशा भयानक दुर्गन्धि से युक्त पदार्थ बहते रहते हैं। ११ ऐसे भयंकर नरकों में जीव हमेशा जाते रहते हैं, अगर कुछ अन्तराल पड़ता है तो वह इस प्रकार है – प्रथम पृथ्वी में नारकियों की उत्पत्ति का अन्तराल अड़तालीस घड़ी (१९.१२ घण्टे) तक हो सकता है। नीचे की छह भूमियों में क्रमश: एक सप्ताह, एक पक्ष, एक माह, दो माह, चार माह और छह माह तक का अन्तराल (विरह, विघ्न) पड़ सकता है। शङ्का- कौन से जीव किस पृथ्वी (नरक) तक मरण कर जा सकते हैं? समाधान- इस सम्बन्ध में मूलाचार की गाथायें देखिये - पढमं पुढवीमसण्णी पढमं विदियं च सरिसवा जंति । पक्खी जाव दु तदियं जाव चउत्थी दु उरसप्पा ।।१२४२।। आपंचमी त्ति सीहा इत्थीसो जंति छठि पुढवि त्ति । गच्छंति माघवी त्ति य मच्छा मणुया य जे पावा ।।१२४३।। असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय (कुछ तोते, मेढ़क, सर्प आदि) तीव्र पाप के कारण पहली पृथ्वी तक जा सकते हैं, पेट के बल सरकने वाले (सरीसर्प) पञ्चेन्द्रिय दूसरी पृथ्वी तक, पक्षी तीसरी पृथ्वी तक, सर्प चौथी पृथ्वी तक, सिंह पांचवीं पृथ्वी तक, स्त्री छठ्ठी पृथ्वी तक, और पुरुष (मनुष्य) तथा मच्छ तीव्र पापों के कारण से सातवीं पृथ्वी (नरक) तक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४६) आचार्य वसुनन्दि) जा सकता है। यह सब सिद्धान्त उत्कृष्टता की अपेक्षा कहे हैं; क्योंकि कम पापी मनुष्य या अन्य कोई जीव पूर्ववर्ती भूमियों में भी उत्पन्न होते हैं। नारकी की परिभाषा करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं - ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल भावे य। अण्णोण्णेहिं य जम्हा, तम्हा ते णारया भणिया।।१४७।। (गोम्मटसार/जीवकाण्ड). अर्थात् जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में स्वयं तथा आपस में प्रीति (स्नेह) को प्राप्त नहीं होते उनको नारत (नारकी) कहते हैं। यह हमेशा ही अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम, अशुभतर देह, अशुभतर वेदना और अशुभतर विक्रिया वाले होते हैं। आचार्य उमास्वामी ने भी कहा है - नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः। (त० सू०, ३/३) अशुभतर लेश्या- सूत्र में 'तरप्' प्रत्यय का प्रयोग एक से दूसरे की प्रकर्षता को दिखाता है अर्थात् नीचे-नीचे की भूमियों में अशुभ- अशुभ लेश्यायें हैं। देखें - काऊ काऊ काऊ णीला-णीला य णील किण्हा य। किण्हा य परम किण्हा लेस्सा पढमादिपुढवीणं ।।५२९।। - (गोम्मटसार जीवकाण्ड) प्रथम में जघन्य कापोत, द्वितीय में मध्यम कापोत, तृतीय में उत्कृष्ट कापोत और जघन्य नील, चौथी में मध्यम नील, पांचवीं में उत्कृष्ट नील और जघन्य कृष्ण, छठवीं में मध्यम कृष्ण और सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या होती है। अशभतर परिणाम- उस क्षेत्र के कारण वहां के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द परिणाम (पर्याय) अति दु:ख के कारण होने से अशुभतर हैं। अशुभतर देह- उनके शरीर अशुभ नाम कर्म के उदय से अशुभ, अंगोपांग, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण स्वर वाले और वीभत्स तथा निर्लन अर्थात् पंखरहित पक्षियों की आकृति वाले होते हैं। उनका संस्थान हुण्डक होने से, वे टेढ़े-मेढ़े शरीर वाले कुबड़े होते हैं। वे देह से ही क्रूर, वीभत्स एवं विकराल दिखाई देते है। यद्यपि उन नारकियों का शरीर वैक्रियक है तथा अशुभतर विक्रिया के कारण से उसमें औदारिक शरीर की तरह मल, मूत्र, खखार, रुधिर, मज्जा, पीप, वमन, केश, अस्थि आदि अधिक मात्रा और विकराल रूप में होते हैं। और इसीलिए उनकी देह अशुभतर है। रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीनहाथ और छह अंगुल (३१ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४७) आचार्य वसुनन्दि हाथ ६ अंगल) है। आगे-आगे के नरकों में ऊँचाई दुगनी-दुगुनी होकर सातवें नरक में पांच सौ धनुष (दो हजार हाथ) हो जाती है। अशुभतर वेदना- अभ्यन्तर असाता वेदनीय कर्म का उदय होने पर अनादि स्वाभाविक शीत-उष्णजन्य बाह्य निमित्त से होने वाली तीव्र वेदना होती है। कार्तिकेयानुप्रेक्षाकार दुःखों के पांच भेद करते हुए लिखते हैं - असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं। खित्तुभवं च तिव्वं अण्णोण-कयं च पंचविहं।।३५।। ___ अर्थ - १. असुरकुमारों के द्वारा दिया जाने वाला दुःख, २. शारीरिक दुःख, ३. मानसिक दुःख, ४. क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला अनेक प्रकार का दुःख, ५. परस्पर में दिया गया दुःख, यह पांच प्रकार का दुःख नारकियों को निरन्तर भोगना पड़ता है। इन भयङ्कर वेदनाओं को नारकी जीव जीवनपर्यन्त भोगते हैं। ___ अशुभतर विक्रिया - नारकी जीव विचारते हैं कि हम शुभ कार्य करेंगे, परन्तु कार्य अशुभ ही होते हैं। दुःख से अभिभूत मन वाले नारकियों के दुःख को दूर करने की इच्छा होते हुए भी भयङ्कर दुःखों के ही कारण बन जाते हैं। . (श्रुतसागरसूरिकृत तत्त्वार्थवृत्ति, ३/३/२४०) उपरोक्त प्रकार की भयङ्कर परिस्थितियों में जन्म लेकर अर्थात् नरकायु का उदय आने पर अशुभ पुद्गलों को ग्रहण करके नारकी अन्तर्मुहूर्त काल में पर्याप्तियों को सम्पन्न कर लेता है।। १३५-१३६ ।। ___नारकियों का उछलना - उववायाओ णिवडइ पज्जत्तयओ दंडत्ति महिवीढे । अइ-कक्खडमसहतो सहसा उप्पडदि पुण पडइ ।। १३७।। - अन्वयार्थ- (पज्जत्तयओणिवडइ) पर्याप्तियों को पूर्ण करके, (उववायाओ) उपपादस्थान से, (दंडत्ति) दण्डे के समान, (महिवीडे) महीपृष्ट पर (गिर पड़ता है), (आकक्खडमसहतो) अत्यन्त कर्कश धरातल को न सहता हुआ, (सहसा) सहसा, (उप्पडदि) ऊपर की ओर उछलता है, (पुण) फिर, (पडइ) गिरता है। अर्थ- वह नारकी पर्याप्तियों को पूरा कर उपपादस्थान से दण्डे के समान महीपृष्ठ पर गिर पड़ता है। पुन: नरक के अति कर्कश धरातल को नहीं सहन करता हुआ वह अचानक ऊपर को उछलता है और फिर नीचे गिर पड़ता है। १. झ. दड त्ति, ब. उदडत्ति. २. प. महिवट्टे, म. महीविट्टे. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४८) __ आचार्य वसुनन्दि व्याख्या- यह उछलने-गिरने का क्रम तब तक चलता रहता है जब तक उस जीव के अन्दर उस क्षेत्र को स्पर्श करने की सामर्थ्य कुछ अंशों में जागृत नहीं हो जाती है अथवा वह सोचता है कि अब मैं कहीं जा नहीं सकता फिर क्यों इतना दुःखानुभव करूँ तब वह उस पृथ्वी पर ठहरने योग्य शक्तियाँ विकसित करता है और उछलना धीरे-धीरे कम होते-होते गेंद की तरह रुक जाता है। उपपाद स्थान से गिरने के पश्चात् नारकियों के उछलने का उत्कृष्ट प्रमाण कहते हैं – घर्मा नामक पहली पृथ्वी के उत्पत्ति स्थानों में उत्पन्न होने वाले नारकी जीव जन्मकाल में जब नीचे गिरते है तब सात योजन, सवा तीन कोश (९४ कि०मी०) ऊपर आकाश में उछलकर पुनः नीचे गिरते हैं। दूसरी वंशा पृथ्वी के जीव पन्द्रह योजन, अढ़ाई कोश (१८८ कि०मी०), तीसरी मेघा पृथ्वी के जीव इकतीस योजन, एक कोश (३६३ कि०मी०), चौथी अंजना पृथ्वी के जीव बासठ योजन, दो कोश (७२५. कि०मी०), पांचवी अरिष्टापृथ्वी के जीव एक सौ पच्चीस योजन (१४५० कि०मी०), छठवी मघवा पृथ्वी के जीव दो सौ पचास योजन (२९०० कि०मी०), और सातवी माघवी पृथ्वी के जीव पांच सौ योजन (५८०० कि०मी०) ऊँचे उछल कर पृथ्वी तल पर गिरते हैं। और भयंकर असहनीय दुःखों को सहते हैं।। १३७ ।। उष्णताजनित दुःख जइ को वि उसिण णरए मेरुपमाणं लिवेइ लोहडं। ण वि पावइ धरणितलं विलिज्ज तं अंतराले वि ।।१३८।। अन्वयार्थ- (जइ) यदि, (को वि) कोई भी, (उसिणणिरए) उष्ण नरक में, (मेरुपमाणं) मेरु-प्रमाण, (लोहंड) लोहे का गोला, (खिवेइ) डाले (तो), (तं वि) वह भी, (धरणी तलं ण पावइ) महीतल को नहीं प्राप्त होकर, (अंतराले वि) अन्तराल में ही, (विलिज्ज) विला जाएगा। अर्थ- नरकों में ऐसी भयङ्कर उष्ण वेदना होती है कि यदि कोई मेरु पर्वत के बराबर लोहे के पिण्ड को भी वहाँ फेंकता है तो वह पृथ्वी तक पहुँचने के पहले ही पिघल कर अन्तराल में ही विला (गल) जाता है। व्याख्या- प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम नरक के दो लाख विलों में अर्थात् सभी (३०+२५+१५+१०+२) = ८२ (ब्यासी) लाख बिलों में भयङ्कर १. त्रिलोकसार गा. १८.३. २. विलयम् जत्तंत., झ. विलज्जत, विलिज्जंतं अंत./ म. विलयं जात्यंत./ मूलाराधना गा. १५६३. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४९) आचार्य वसुनन्दि उष्ण वेदना है। जैसे ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्न काल में बादल रहित आकाश में महातीक्ष्ण सूर्य किरणों से सन्तप्त दिगन्तराल में जहाँ शीत वायु का प्रवेश नहीं है, दावाग्नि के समान अत्यन्त उष्ण एवं रूक्ष वाय चल रही है, ऐसे उष्ण प्रदेश में चारों तरफ से दीप्त अग्निशिखा से व्याप्त, प्यास से आकुलित निष्प्रतिकार पित्त ज्वर से पीड़ित शरीर वाले मानव को जो उष्णताजन्य दुःख होता है उससेभी अनन्त गुणा दुःख नारकियों को नरक की भूमियों में होता है।।१३८।। शीतजन्य दुःख अह तेवंड तत्तं खिवेइ जइ को वि सीयणयरम्म। .. सहसा धरणिमपत्तं सडिज्ज' तं खंड खंडेहिं ।। १३९।। अन्वयार्थ– (अह) अब, (जइ) यदि, (को वि) कोई भी, (तेवंड) उतना ही बड़ा (तत्त) तप्त लोहे का गोला, (सीयणयरम्म खिवेइ) शीतनरक में डालता है, (तं) तो वह, (धरणिमपत्त) पृथ्वी को अप्राप्त होता हुआ, (सहसा) सहसा, (खंड-खंडेहि) खण्ड-खण्ड में, (सडिज्ज) बिखर जाता है। ____ अर्थ- यदि कोई उतना ही अर्थात् मेरु प्रमाण बड़े तप्त लोहे के गोले को शीतवेदना वाले नरक में फेंके, तो वह भूमितल को प्राप्त न कर बीच में ही सहसा खण्ड-खण्ड होकर बिखर जायेगा, वहाँ ऐसी भयानक ठण्ड (शीत) होती है। व्याख्या- पांचवें नरक के एक लाख बिल, छठवें एवं सातवें नरक के सभी बिलों में अर्थात् दो लाख बिलों में भयंकर शीत वेदना है। जैसे - हिम (बर्फ) के गिरने से सभी दिशायें शीत से व्याप्त हो गई हैं, आकाश से च्युत जलकणों से पृथ्वी तल भर गया है। ऐसे माघ मास में रात्रि के समय शीत वायु के कारण से शरीर में रोमांच हो गये हैं, तथा दांत कट-कट बज रहे हैं, शीत से जिसका शरीर अभिभूत है तथा अकड़ गया है, अग्नि और वस्त्र जिसके पास नहीं है ऐसे मनुष्य को जो शीतजन्य दुःख होता है, उससे अनन्त गुणा शीतजन्य दुःख नारकियों को होता है। उन्हें वह दुःख अनिवार्य रूप से सहने पड़ते हैं। उनसे वहां बचने का कोई भी साधन नहीं है।।१३९।। शीत-उष्णता भी व्यसनों का फल तं तारिस सीदुण्हं खेत्तसहावेण होइ णिरएसु। विसहइ जावज्जीवं वसणस्स फलेणिमो जीओ।।१४०।। १. झ. तेवडं, ब ते वट्ट. २. झ. संडेज्ज, य. सडेज्ज. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५०) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (तं णिरएस) उन नरकों में, (तारिस सीदुण्हं) उस प्रकार की शीतोष्णता, (खेत्त-सहावेण) क्षेत्र के स्वभाव से, (होइ) होती है, (वसणस्स) व्यसनों के, (फलेणिमो जीओ) फल से यह जीव, (जावज्जीव) जीवन पर्यन्त, (विसहइं) सहन करता है। भावार्थ- नरकों में उपरोक्त प्रकार की सर्दी और गर्मी क्षेत्र के स्वभाव से ही होती है। सो व्यसनों के फल से यह जीव ऐसी तीव्र शीत-उष्ण वेदना को यावज्जीवन अर्थात् जीवनपर्यन्त सहा करता है।।१४०।। __शस्त्रों से प्राप्त दुःख तो तम्हि जायमत्ते सहसा दहण णारया सव्वे। पहरंति-सत्ति-मुग्गर' -तिसूल-णाराय-खग्गेहिं ।।१४१।। . तो खंडिय-सव्वंगो करुणपलावं रुवेइ दीणमुहो । पभणंति तओ रुट्ठा किं कंदसि रे दुरायारा।।१४२।। अन्वयार्थ- (तो तम्हि) फिर भी उस नरक में, (जायमत्ते) उत्पन्न होने के साथ ही (उसे), (दट्टण) देखकर, (सहसा) एक दम से, (सव्वे णारया) सभी नारकी, (सत्ति-मुग्गर-तिसूल-णाराय-खग्गेहि) शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, बाण और खड्ग से, (पहरंति) प्रहार करते हैं। (तो खंडिय-सव्यंगो) जिससे (उसके) सर्वाङ्ग खण्डित हो गये हैं, (ऐसा वह), (दीणमुहो) दीनमुख होकर, (करुणपलावं) करुण प्रलाप करता हुआ, (रुवेइ) रोता है, (तओ) तब, (रुट्ठा) रुष्ट नारकी, (पभणंति) कहते है, (रे दुरायारा) रे दुराचारी, (किं कंदसि) अब क्यों चिल्लाता है। भावार्थ- उस नरक में जीव के उत्पन्न होते ही उसे देखकर सभी नारकी सहसा (एकदम) शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, बाण और खड्ग से प्रहार करने लगते हैं। उनके द्वारा भयङ्कर आघात होने से नवीन नारकी का सम्पूर्ण शरीर खण्डित हो जाता है। भयङ्कर दुःखों को पाता हुआ वह नारकी अपने को असहाय जानकर, दीन-मुख होकर करुण प्रलाप करता हआ जोर-जोर से रोता है। तब पुराने नारकी उस पर रुष्ट होकर कहते हैं कि रे दुराचारी, अब क्यों चिल्लाता है, जो पाप किये हैं उनका फल भोग। नरकों में नारकी एक-दूसरे से लड़ने के लिए विभिन्न प्रकार के शस्त्र विक्रिया से प्राप्त कर लेते हैं, कई बार स्वयं ही शस्त्र रूप हो जाते है तथा दूसरों से लड़ते . है उसे काटते-पीटते अथवा छीलते है। वे हमेशा ही संक्लेश अर्थात् आर्त/रौद्र परिणामों से युक्त होते हैं।।१४१-४२।। १. ब. मोग्गर. २. ब. खंडय.. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५१) आचार्य वसुनन्दि ___ जुआ खेलने का फल जोधणमएणमत्तो लोहकसाएण रंजिओ पुव्वं । गुरूवयणं लंघित्ता जूयं रमिओ जं आसि ।।१४३।। तस्सफल मुदयमागयमलं हि रुयणेण विलह रे दुट्ठ। रोवंतो वि ण छुट्टसि कयावि पुवकय कम्मस्स ।। १४४।। एवं सोऊण तओ माणसदुक्खं वि' से समुप्पण्णं । तो दुविह-दुक्खदड्डो रोसाइट्ठो इमं भणइ ।। १४५।। " जइ वा पुव्वम्मि भवे. जूयं रमियं मए मदवसेण । तुम्हं को अवराहो कओ बला जेण में हणइ ।।१४६।। एवं भणिए घित्तूण सुट्ट९० रुडेहिं अग्गिकुंडम्मि । पज्जलयम्मि । णिहित्तो डज्झइ सो अंगमंगेसु ।। १४७।। तत्तो णिस्सरमाणं दद्ण ज्झसरेहि११ अहव कुंतेहिं । पिल्लेऊण रडतं तत्थेव छुहंति अदयाए ।। १४८।। हा मुयह मं मा पहरह-पुणो-वि ण करेमि एरिसं पावं। दंतेहि अंगुलीओ धरेइ-करुणं१२ पुणो रुवइ ।।१४९।। ण मुयंति तह वि पावा पेच्छह लीलाए कुणइ जं जीवो१३। · तं पावं बिलवंतो एयहिं१४ दुक्खेहिं णित्थरइ१५ ।।१५०।। __(कुलक) १. इ. जं मांसि. २. ब. रुण्णेण. ३. इ. नं, झ.ब.तं. ४. ब. कयाइं. ५. इ.झ.ब.म. विसेसमुप्पण्णं. ६. इ.ब. मा. ७. तुम्हे, झ. तोम्हि, ब. तोहितं. ८. इ. महं, म. हं. ९. इ. हणहं. १०. इ. मुद्ध, म. मुधा. ११. इ. तासे हि, म. ता सही. १२. झ.ब. कलुणं. . १३. इ. जूबो. १४. ब. इयहं. १५. म. णित्थरो हं हो, प. णिच्छरइं. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५२) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ (जोव्यण मएणमत्तो) यौवन के मद से मत्त होकर (और), (लोहकसाएण) लोभकषाय से, (रंजिओ) अनुरंजित होकर, (पुव्वं) पूर्व में, (ज) जो, (गुरुवयणं) गुरुवचन का, (लंघित्ता) उल्लंघन कर, (जूयं रमिओ आसि) जुआ खेला है। (अब), (तस्सफलमुदयमागय) उस पाप का फल उदय आया है, (रुवणेण अलं हि) रोने से बस कर, (रे दुठ) रे दुष्ट, (विसह) (उसे) सहन कर, (रोवंतो वि) रोने से भी, (पुवकयकम्मस्स) पूर्वकृत कर्म से, (कयावि) कभी भी, (ण छुट्टसि) नहीं छूटेगा, (एवं सोऊण) इस प्रकार के वचन सुनकर, (तओ) उसके, (माणसदुक्खं वि) मानसिक दुःख भी, (समुप्पण्ण) उत्पन्न होता है, (तो से) तब वह, (दुविह दुक्खदडो) दोनों प्रकार के दुःख से दग्ध होकर, (रोसट्ठो) रोष में आकर, (इमं भणइ) इस प्रकार कहता है। (जइ वा मए पुष्यम्मि-भवे) यदि मैंने पूर्व भव में, (मदवसेण) मद के वश होकर, (जूयं रमियं) जुआ खेला है, (तुम्हं को अवराहो कओ) तुम्हारा क्या अपराध किया है, (जेण) जिस कारण से, (मं) मुझे, (बला) : जबर्दस्ती, (हणइ) मारते हो। (एवं भणिए) ऐसा कहने पर, (रुद्वेहिं) रुष्ट हुए, (नारकी उसे), (चित्तूण) पकड़कर, (सुट्ट) खूब, (पज्जलयम्मि) प्रज्वलित, (अग्गिकुंडम्मि) अग्निकुण्ड में, (णिहित्तो) डाल देते हैं; (सो) वह, (अंगमंगेसु) अंग-अंग में, (उज्झइ.) जल जाता है। (तत्तो णिस्सरमाणं) वहाँ से निकलते हुए, (दलूण) देखकर, (ज्झसरेहिं) झसरों से, (अहव) अथवा, (कुंतेहिं) भालों से, (पिल्लेऊण) छेद कर, (रडत) चिल्लाते हुए, (अदयाए) निर्दयतापूर्वक, (तत्थेव) उसी कुण्ड में, (छुहंति) डाल देते हैं। (हा मं मुयइ) हाय, मुझे छोड़ दो, (मा पहरह) प्रहार मत करो (मैं), (एरिसं पावं) ऐसा पाप, (पुणो वि ण करेमि) फिर कभी नहीं करूँगा, (दंतेहिं) दाँतों से, (अंगुलीओ धरेइ) अंगुलियां दबाता है (और), (करुणं) करुण प्रलाप-पूर्वक, (पुणो) पुन:, (रुवई) रोता है। (तह वि पावा) तो भी वे पापी, (ण मुयंति) (उसे) नहीं छोड़ते, (पेच्छह) देखो, (ज) जो (पाप), (जीवो) जीव, (लीलाए कुणइ) लीला से करता है, (तं पावं) उस पाप को, (बिलवंतो) विलाप करते हुए, (एयहिं) इन इन दुःखों से, (णित्थरइ) भोगता है। ___भावार्थ- पुराने नारकी उस नवीन नारकी से रुष्ट होकर कहते है, रे! दुराचारी, अब क्यों रोता और चिल्लाता है। ख्यालकर तूने पूर्वभव में यौवन से मदमत्त होकर लोभ कषाय से अनुरंजित होकर, गुरुओं की आज्ञा का उल्लंघन कर जुआ खेला है। अब उस पाप का ही फल उदय में आया है, इसलिए रोना-धोना बन्द कर और उसे सहन कर। मूर्ख तू सोचता है कि रोने से मैं दुःख पाने से बच जाऊगा। पर ध्यान रख! रोने से पूर्व कृत कर्म के फल से कभी भी छुटकारा नहीं मिलता उन्हें भोगना ही पड़ता है। जब इस प्रकार के दुर्वचन सुनकर वह नारकी और भी उद्वेलित हो जाता है तथा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५३) आचार्य वसुनन्दि मानसिक दुःख भी बढ़ जाता है, तब वह दोनों प्रकार के अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुःखों से दग्ध होकर और क्रोध में आकर कहता हैं- यदि मैंने पूर्व भव में मद के वश में होकर जुआ खेला है तो तुम लोगों का क्या अपराध किया? जो तुम सब मुझे जबर्दस्ती पकड़ कर मारते हो। नवीन नारकी के इस प्रकार कहने पर अति रुष्ट हुए अन्य नारकी उसे पकड़कर खूब तेज जलती हुई अग्नि के कुण्ड में फेंक देते हैं, जहाँ पर वह आग से पूर्णरूपेण जल जाता है, उसका अंग-अंग जलने लगता है। भयङ्कर दुःख से पीड़ित होने से वह उस कुण्ड से निकलता है। उसे निकलता देख वे नारकी झसरों (एक शस्त्र विशेष) और भालों से छेदकर पुन: उसी अग्निकुण्ड में डाल देते हैं। इस प्रकार के भयङ्कर दुःखों से दुःखित हो वह रोते हुए कहता है- हाय! मुझे छोड़ दो, मैं ऐसा पाप फिर कभी नहीं करूँगा। इस प्रकार कहता हुआ तथा अंगुलिओं को दाँतों से दबाता हुआ करुण-प्रलापपूर्वक पुन: रोने लगता है। ___ तो भी वे पापी नारकी उसे नहीं छोड़ते हैं। बार-बार और बहुत मात्रा में उसे दुःख देते रहते हैं। देखो! यह जीव जो पाप खेल-खेल में अथवा कौतुहल मात्र से करता है, उस पाप के फल को वह उपर्युक्त दुःखों से भोगता है। . वास्तव में बुद्धिमानी तो इसी में है कि कभी भी किसी भी प्रकार का पाप कषायों के वश, खेल-खेल में अथवा मनोरंजन के लिए नहीं करना चाहिए। सभी का प्रयास यही रहना चाहिए कि मुझसे किसी भी स्थिति में कोई भी पाप न हो जावे; क्योंकि पाप तो व्यक्ति हँस-हँस कर बांध लेता है; किन्तु जब उन पापों का फल उदय में आता है तब उसे सिर्फ रोना ही हाथ लगता है। रोने पर उस पाप का फल कम नहीं होता है। उसे पूरा ही भोगना पड़ता है। अत: किसी भी प्रकार के पाप करने से बचने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए।। १४३-१५०।। शिलाओं से प्राप्त दुःख तत्तो पलाइऊणं कह वि य माएण' दलसम्बंगो। गिरिकंदरम्मि सहसा पविसइ सरण ति मण्णंतो।।१५१।। तत्थवि पडंति उवरि सिलाउ तो ताहिंचुण्णिओ संतो। गलमाणरुधिरधारो रडिऊण खणं तओ णीइ ।।१५२।। इ. तेहि. १. झ. वयमाएण, ब. वप्रमाएण. २. ३. म. णियइ. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य वसुनन्दि (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१५४) अन्वयार्थ - (दसव्वंगो) जला दिये गये है सर्वाङ्ग जिसके, (ऐसा वह नारकी), (कह वि य माएण) किसी भी प्रकार से, (तत्तो) उस (अग्निकुण्ड) से, (पलाइऊणं) भागकर, (गिरिकंदरम्मि) पर्वत की गुफा में, (सरण त्ति मण्णंतो) शरण मिलेगा ऐसा मानता हुआ', (सहसा ) अचानक (एकदम ), ( पविसइ) प्रवेश करता है । (तत्थ वि) वहां भी, (उवरिं) (उसके ऊपर, (सिलाउ) शिलाएं, (पति) पड़ती है, (तो) तब, ( ताहिं ) उनसे, (चुण्णिओ संतो) चूर्ण होता हुआ, (गलमाणरुधिरधारो ) जिसके खून की धारा बह रही है (ऐसा होकर), (रडिऊण) चिल्लाता हुआ, (खणं) क्षणमात्र में, (तओ) वहां से, (णीइ) निकल भागता है। भावार्थ - जबर्दस्ती दूसरे नारकियों ने अग्निकुण्ड में डालकर जिसके सर्व अंग जला दिये हैं, ऐसा वह नारकी मौका पाते ही उस अग्निकुण्ड से भागकर पर्वत की गुफा में यह सोच कर शीघ्र प्रवेश करता है कि 'यहाँ शरण मिलेगी, यहाँ मैं सुख से बैठ सकूंगा। किन्तु वहाँ पर भी उसके ऊपर बड़ी-बड़ी चट्टाने टूट कर पड़ने लगती हैं, तब वह नारकी उनसे चूर-चूर होता हुआ अर्थात् टुकड़े-टुकड़े होता हुआ और जिसके शरीर से माथे से एवं अन्य अंगों से खून की धार बह रही है, ऐसा होकर चिल्लाता हुआ शीघ्र ही वहां से भाग निकलता है। जहाँ वह क्षण भर शरण पाने के लिये गया था वहाँ से भी उसे पाप के उदय से दुःख ही प्राप्त हुए । । १५१-१५२।। शरीर के तिल बराबर टुकड़े होने पर भी मरण नहीं रइयाण सरीरं कीरड़ जड़ तिलपमाण खंडाइ | पारद - रसुव्व लग्गइ अपुण्णकालम्मि ण मरेइ । । १५३।। अन्वयार्थ - (णेरइयाण सरीरं) नारकियों के शरीर के, (जड़) यदि, (तिलपमाणखंडाइ) तिल बराबर भी खण्ड कर दिये जावें, (तो भी वह), ( पारद - रसुव्व लग्गइ) पारे के समान आपस में मिल जाते हैं, (क्योंकि), ( अपुण्णकालम्मि ण मरेइ) अपूर्ण काल में नहीं मरता है। विशेषार्थ — बड़ी-बड़ी शिलाएं गिरने से जिसका सारा शरीर चूर-चूर हो गया है अर्थात् तिल-तिल प्रमाण हो गया है, ऐसा भी नारकी असमय में, अकाल में मरण को प्राप्त नहीं होता है अपितु शरीर तुरन्त ही पारे के समान जुड़ जाता है। वैक्रियक शरीर वालों का अकाल में मरण नहीं होता है। । १५३ ।। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५५) आचार्य वसुनन्दि मद्य एवं मधु सेवन का फल तत्तो पलायमाणो संभइ सो णारएहिं दलूण। पाइज्जइ विलवंतो अय-तंबय कलयलं तत्तं ।। १५४।। पच्चारिज्जइ जं ते पीयं मज्ज-महुं च पुव्व भवे। तं' पावफलं पत्तं पिबेहि अयकलयलं घोरं ।।१५५।। अन्वयार्थ- (तत्तो) वहां से, (पलायमाणो) भागता हुआ, (दट्ठण) देखकर, (सो) वह, (णारएहि) नारकियों द्वारा, (संभइ) रोक लिया जाता है (और उनके द्वारा), (विलवंतो) विलाप करते हुए (नारकी के लिए), (तत्तं अय-तंबय) तपाये हुए लोहे-ताबें आदि का, (कलयलं) रस, (पाइज्जइ) पिलाया जाता है। (ते) वे (नारकी), (पच्चारिज्जइ) उलाहना देते है कि (ज) जो (तूने), (पुव्वभवे) पूर्व भव में, (मज्ज च महुं पीयं) मद्य और मधु को पिया है, (तं पावफलं पत्तं) उस पाप का फल प्राप्त हुआ है, (अब इस), (घोरं) घोर, (अयकलयलं पिबेहि) 'अयकलकल' को पी। भावार्थ- अग्निकुण्ड से निकल कर गुफा में घुसने पर वहाँ जब उस नारकी के ऊपर बड़ी-बड़ी शिलायें गिरती है तब वह वहाँ से भागता है। वहां से भागता हुआ देखकर अन्य नारकी उसे जबर्दस्ती पकड़ लेते हैं और विलाप करते हए उस नारकी को भयङ्कर तप्त लोहे और तांबे आदि को पिघला कर बनाया हुआ रस पिलाते हैं। जब वह बार-बार कहने पर भी स्वयं नहीं पीता है, तो दूसरे नारकी जबर्दस्ती पकड़कर उसके मुंह में वह रस डाल देते हैं। जिससे वह नारकी तिलबिला कर चिल्लाने लगता है, तब दूसरे नारकी उसे पूर्वभव की याद दिलाते हुए कहते है कि तूने पूर्व भव में जो मद्य और मधु को पीकर पाप किया था, उसका यह फल है। अत: अब यह घोर 'अयकलकल'पिओ। .. मूलाराधना (१५६९) की आशाधरी टीका में कहा है - तांबा-शीसक-तिलसर्जरस-गुग्गुल-सिक्थक लवण जतुव वज्रलेप का क्वाथ करके अर्थात् मिला करके उबालने पर 'कलकल' कहा जाता है। १. ब. पइज्जइ, म. पाविज्जइ. २. इ. अयवयं, य अससंवय. ३. कलयलं, ताम्र सीसक-तिल-सर्जरस-गुग्गुल-सिक्थक लवण-जतु वज्रलेपा मिलित्ता 'कलकल' इत्युच्यन्ते। - मू.गा. १५६९ आशा. टी.. ४. ब.ब.म. तो. ५. ब. तव. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५६) आचार्य वसुनन्दि पत्तों से प्राप्त दुःख कह वि तओ जइ छुट्टो असिपत्त वणम्मि विसइ भयभीओ। णिबडंति तत्थ पत्ताइं खग्गसरिसाइं अणवरयं।। १५६।। तो तम्हि पत्तपडछिणेण छिण्णकर-चरण भिण्णपुट्ठि सिरो। पगलंतरूहिरधारो कंदंतो सो तओ णीइ२।। १५७।। ___ अन्वयार्थ- (जइ) यदि (कह वि तओ छुट्टो) कैसे भी वहाँ से छूटा (तो), (भयभीओ) भयभीत होता हुआ, (असिपत्तवणम्मि) असिपत्र वन में, (विसइ) प्रवेश करता है, (तत्य) वहां, (खग्गसरिसाई) खड्ग के समान, (पत्ताई) पत्ते, (अणवरयं) हमेशा (उसके ऊपर), (णिबंडंति) मिरते हैं। (तम्हि) उसमें, (पत्तपडणेण) पत्तों के गिरने से (उसके), (छिण्णकर-चरण भिण्णपुट्ठि-सिरो) हाथ, पैर, पीठ, शिर आदि कट-कट कर अलग हो जाते हैं, (और), (पगलंतरुहिरधारो) खून की धारा बहने लगती है, (तो) तब, (सो) वह, (कंदंतो) चिल्लाता हुआ, (तओ) वहां से, (णीइ) भागता है। भावार्थ- लोहा, तांबा आदि का मिश्रित रस पिलाते-पिलाते जब वे नारकी क्षण भर के लिए भी इधर-उधर हो जाते हैं अथवा किसी अन्य नारकी को दुःख देने में संलग्न होते है। तब यह नारकी वहां से छूटकर के भागा भी तो भयभीत हुआ असिपत्र वन में 'यहाँ दुःखों से' बच जाऊँगा ऐसा सोच कर घुसता है। किन्तु असिपत्र वन के वृक्षों के पत्ते तलवार के समान तीक्ष्ण होते हैं, जब वह नारकी क्षणभर के लिये भी रुकता है तो उसके ऊपर तेजधार वाले वृक्षों के पत्ते निरन्तर गिरने लगते है। जब उस असिपत्र वन में पत्तों के गिरने से उसके हाथ, पैर, पीठ, शिर आदि अंग कट-कट कर अलग हो जाते है, और शरीर से खून की धारा बहने लगती है, तब वह रोता, चिल्लाता हुआ वहाँ से भी भागता है।।१५६-१५७।। मांससेवन व्यसन का फल तुरियं पलायमाणं सहसा धरिऊण णारया कूरा। छित्तूण तस्स मंसं तुंडम्मि छुहंति' तस्सेव ।। १५८।। भोत्तुं अणिच्छमाणं णियमंसं तो भणंति रे दुट्ठ। अइमिटुं भणिऊण भक्खंतो आसि जं पुव्वं ।। १५९।। १. झ. बच्छ. २. इ.म. णियइ. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार. (१५७) आचार्य वसुनन्दि) तं किं ते विस्सरियं जेण मुहं कुणसि रे पराहुत्तं । एवं भणिऊण कुसि छुहिति तुंडम्मि पज्जलियं ।। १६० ।। अन्वयार्थ- (तुरियं) शीघ्रता से, (पलायमाणं) भागता हुआ (देखकर), (कूरा णारया) क्रूर नारकी, (सहसा धरिऊण) सहसा पकड़कर (और), (तस्स) उसका, (मंसं छित्तूण) मांस काटकर, (तस्सेव) उसी के, (तुंडम्मि) मुख में, (छुहंति) डालते है। (जब वह), (णियमंसं) अपने मांस को, (भोत्तुं अणिच्छमाणं) नहीं खाना चाहता है, (तो) तब, (वे नारकी), (भणंति) कहते हैं, (रे दुट्ठ) अरे दुष्ट! (तू तो), (पुव्वं) पूर्व भव में, (अइमिटुं भणिऊण) बहुत मीठा कहकर (मांस), (भक्खंतो जं आसि) मांस जो खाया करता था।, (रेतं किं ते विस्सरियं) अरे! सो क्या वह तू भूल गया है, (जेण) जिससे, (महं) मुख को, (पराहुत्त) पराङ्गमुख, (कुणसि) करता है, (एवं भणिऊण) ऐसा कहकर, (पज्जलिय) जलते हुए, (कुर्सि) कुश को, (उसके), (तुंडम्मि) मुख में, (छुहिति) डालते हैं। भावार्थ- असिपत्र वन के दुःखों से घबरा कर शीघ्रता से अन्य किसी दिशा में भागते हुए उस नारकी को देखकर क्रूर/दुष्ट नारकी सहसा (एकदम) उसे जबर्दस्ती पकड़ लेते है और उसका मांस काटकर उसके ही मुख में डालते हैं। जब वह अपने मांस को नहीं खाना चाहता है, तब वे नारकी उससे कहते हैं कि, अरे दुष्ट! तू तो पूर्व भव में परजीवों के मांस को बहुत मीठा कहकर खाया करता था। पर अब क्या हुआ? क्या भूल गया उस बात को जो अब अपना ही मांस खाने से मुंह को मोड़ता है? ऐसा कहकर वे नारकी जलते हुए कुश को उसके मुख में जबर्दस्ती डाल देते हैं।।१५८-१६०।। वैतरणी नदी के दुःख अइतिव्वदाहसंतविओ तिसावेयणासमभिभूओ। किमि-पूय-रुहिरपुण्णं वइतरणिणइं तओ विसइ।। १६१।। तत्थवि पविट्ठमित्तो' खारुण्हजलेणदड्डसव्वंगो। णिस्सरइ तओ तुरिओ हाहाकारं पकुव्वंतो।।१६२।। अन्वयार्थ– (अइतिव्वदाहसंताविओ) अतितीव्र दाह से संतापित होकर, (तिसावेयणा-समभिभूओ) प्यास की वेदना से परिपीड़ित होकर (वह), (किमि-पूइ-रुहिरपुण्णं) कृमि-पीप-रुधिर से पूर्ण, (वइतरणिणइं). वैतरणी नदी में, १. ब.सत्तो, म.प. मित्ता. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५८) आचार्य वसुनन्दि (विसइ) घुसता है।, (तत्थवि) वहां भी, (पविट्ठमित्तो) घुसते ही, (खारुण्हजलेण) खारे और गर्म जल से, (दसव्वंगो) (उसका) सारा शरीर जल जाता है, (तओ) तब (वह), (तुरिओ) शीघ्र ही, (हाहाकारं पकुव्वंतो) हाहाकार करता हुआ, (णिस्सरइ) निकलता है। भावार्थ- जब जलते हुए कुश को उसके मुख में डाला जाता है तब वह अति तीव्र दाह से संतापित होकर और प्यास की भयङ्कर वेदना से पीड़ित होकर, प्यास बुझाने और शरीर की गर्मी शान्त करने की इच्छा से कृमि, पीप और रुधिर से परिपूर्ण वैतरणी नामक नदी में घुसता है। उसमें घुसते ही खारे अर्थात् क्षारयुक्त तेजाब जैसे पदार्थ से और उष्ण जल से उसका शरीर जल जाता है, तब वह अतिशीघ्र ही हाहाकार करता हुआ वहां से निकलता है।।१६१-१६२।। परस्त्री एवं वेश्या सेवन का फल दट्ठण णारया णीलमंडवे' तत्तलोहपडिमाओ। आलिंगाविंति तहिं धरिऊण बला बिलवमाणं।।१६३।। अगणित्ता गुरुवयणं, परिस्थि-वेसं च आसि सेवंतो।' एण्हिं तं पाप फलं ण सहसि किं रुवसि तं जेण।।१६४।। अन्वयार्थ- (उस नारकी को भागता हुआ), (दलूण) देखकर, (णारया) नारकी, (णीलमंडवे) नील मण्डप में, (तत्तलोहपडिमाओ) तप्त लोह प्रतिमाओं से, (बलाधरिऊण) जबर्दस्ती पकड़कर, (विलवमाणं) विलाप करते हुए (उसे), (आलिंगाविंति) आलिंगन कराते है। (और कहते है), (अगणित्ता गुरुवयणं) गुरुवचनों नहीं गिन कर, (परिस्थि-वेसंच) परस्त्री और वेश्या का, (सेवंतो आसि) सेवन किया है, (एण्हिं) इस समय, (तं) उस, (पावफलं) पाप फल को, (किं ण सहसि) क्यों नहीं सहता है, (जेण रुवसि तं) जिससे की रोता है। . भावार्थ- नारकी उसे भागता हुआ देखकर और पकड़कर काले लोहे से बनाए गये नील मण्डप में ले जाकर विलाप करते हुए उस नारकी को तपाई हुई पुतलियों से आलिंगन कराते हैं और कहते हैं कि गुरुजनों के वचनों को कुछ नहीं गिनकर तूने परस्त्री सेवन और वेश्यागमन किया है, अब इस समय उस पाप के फल को क्यों नहीं सहता है जिससे कि रो रहा है। अब रोना धोना बन्द कर और उस पूर्वकृत पापकर्म के उदय को सहन कर।।१६३-१६५।। १. काललोहघटितमंडपे (मूलाराधना गा. १५६९, विजयोदया टीका). Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५९) आचार्य वसुनन्दि) इन्द्रियों से पाप बंध पुष्वभवे जं कम्मं पंचिंदिय वस गएण जीवेण । * हसमाणेण विबद्धं तं किं णित्थरसि' रोवंतो।।१६५।। अन्वयार्थ- (पुटवभवे) पूर्वभव में, (पंचिंदियवसगयेण) पांचों इन्द्रियों के वश होकर, (हसमाणेण) हँसते हुए, (जीवेण) जीव के द्वारा, (जं कम्म) जो कर्म, (विबद्धं) बांधे गए हैं, (तं किं णित्थरसि रोवंतो) उन्हें क्या रोते हुए दूर कर सकता है। भावार्थ- हे पापी जीव! तने पूर्व भव में पांचो इन्द्रियों के वशीभूत होकर पापकृत्य करते हुए जो कर्म बांधे है। उनके फल का उदय होने पर अब क्यों रोता है, क्या रोने से वे कर्म अपना फल देना छोड़ देंगे? अर्थात् नहीं छोड़ेंगे। पुराने कर्म अपना फल देकर ही जायेंगे।।१६५।। शिकार खेलने का फल किकवाय-गिद्ध-वायसरूवं धरिऊण णारया चेव। पहरंतिर वज्जमयतुंड-तिक्खणहरेहि दयरहिया।।१६६।। धरिऊण उड्डजंघे करकच चक्केहिं केइ फाडंति। मुसलेहिं मुग्गरेहिं य चुण्णी चुण्णी कुणंति परे ।। १६७ ।। जिब्भाछेयण णयणाण फोडणं दंतचूरणं दलणं। मलणं कुणंति खंडंति केइं तिलमत्तखंडेहिं ।। १६८।। अण्णे कलंववालुय थलम्मि तत्तम्मि पाडिऊण पुणो। लोट्टाविंति रंडतं णिहणंति घसंति भूमीए।। १६९।। अन्वयार्थ- (वे) (दयरहिया) दयारहित, (णारया चेव) नारकी जीव ही, (किकवाय-गिद्ध-वायसरुवं धरिऊण) कृकवाक, (कुक्कुट-मुर्गा) गिद्ध, काक १. प. णिरसि, झ.ब. णिच्छंरसि. २. प. पहणंति. ३. ह. तिक्खणहिं (मूलाराधना १५७१). ४. म. चुण्णीकुवंति परे णिरया. ५. कलंववालुयं- कदंबप्रसूनाकारा वालुकाचितदुः प्रवेशा: वज्रदलालंकृतखदिरांगार कणप्रकरोपमानाः (मूलारा गा. १५६८ विजयोदया टीका). Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६०) आचार्य वसुनन्दि आदि के रूपों को धारण करके, (वज्जमयतुंड-तिक्खणहरेहि) वज्रमय चोंचों (और) तीक्ष्ण नखों से, (पहरंति) प्रहार करते हैं।, (केई) कोई नारकी (दूसरे नारकी को), (अजंघ-परिऊण) लल्टा धरकर, (करकच-चक्केहिं) करकच (और) चक्र से, (फाउंति) फाड़ते हैं, (परे) अन्य (दूसरे), (मुसलेहि य मुग्गरेहि) मूसल और मुद्गरों से, (चुण्णी -चुण्णी ) चूर-चूर, (कुणंति) कर डालते हैं।, (केई) कोई (नारकी), (जिन्माछेयण) जीभ काटते हैं, (णयणाण फोडणं) आंखें फोड़ते हैं, (दंतचूरणं) दांत तोड़ते हैं, (दलणं-मलणं कुणंति) दलन-मलन करते हैं, (और), (तिलमत्तखंडेहि) - तिलप्रमाण खण्डों से, (खंडंति) टुकड़े कर डालते हैं।, (अण्णे) अन्य नारकी, (कलंववालुयथलम्मि तत्तम्मि) तपाये हुए तीक्ष्ण रेतीले मैदान में, (पाडिऊण लोट्टविंति) डालकर लुटाते हैं, (पुणो) फिर, (रडत) रोते हुए (उसको), (णिहणंति) . मारते हैं, (और), (भूमीए घसंति) भूमि पर घसीटते है। . . भावार्थ-वे दयारहित नारकी जीव ही कृकवाक (मुर्गा-कुक्कुट), गिद्ध, कौओं . आदि के रूपों को धारण करके वज्रमय मजबूत चोंचों, से और भयङ्कर कठोर नाखूनों से दूसरे नारकियों को नोचते हैं। कितने क्रूर नारकी दूसरे नारकी को जबर्दस्ती पकड़कर उसे उर्ध्वजंघ अर्थात् उल्टा करके (शिर नीचे और पैर ऊपर करके) करकच अर्थात् करोंत से चीर-फाड़ डालते हैं तथा कितने ही नारकी उसे मूसल और मुद्गरों से चूरा-चूरा कर डालते हैं। कितने ही नारकी दूसरे झूठ बोलने वाले अथवा शिकार का उपदेश देने वाले अथवा मांस खाने वाले नारकियों की जीभ काटते हैं। जो परस्त्री को गलत दृष्टि से देखते है, सच्चे, देव,शास्त्र, गुरु में और अन्य गुणीजनों में दोष देखते हैं तथा हमेशा ही गन्दे चित्र देखते हैं, ऐसे लोगों की नरक में आंखे फोड़ी जाती हैं। अन्य दूसरे नारकी किसी मांसभक्षी अथवा पशुओं के अंगों के सामान का व्यापार करने वालों के दांत तोड़ते है और उसके सम्पूर्ण शरीर को रौंद डालते हैं। दाल की तरह दल देते हैं तथा कपड़ों की तरह पटक-पटक कर मलते हैं। उसके शरीर के तिल के बराबर टुकड़े करके इधर-उधर फेंक देते हैं। ___ कितने ही नारकी दूसरे (नवीन) नारकी को मिलकर पकड़ते है तथा भयङ्कर तपते हुए तीक्ष्ण रेतीले मैदान में डालकर लुटाते हैं, लोट-पोट कर देते हैं, उल्टा सीधा करके पुन: उस जोर-जोर से रोते हुए नारकी को मारते है और उस भयङ्कर कठोर तीक्ष्ण भूमि . पर घसीटते है, उसका शरीर खून से लथ-पथ, छिद्रमय हो जाता है। जिन-जिन तरीकों से उसने पूर्व भव में हिंसा, शिकार की होती है उनसे भी भयङ्कर तरीकों से उसे त्रास भोगना पड़ता है।।१६६-१६९।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६१) आचार्य वसुनन्दि असुरकुमार देव नारकियों को भिड़ाते हैं असुरा वि कूरपावा तत्थ वि गंतूण पुष्ववेराई। सुमराविऊण तओ जुद्धं लायंति अण्णोण्णं ।। १७० ।। अन्वयार्थ— (कूरपावा) क्रूर-पापी, (असुरा वि) असुर जाति के देव भी, (तत्थ वि गंतूण) वहां जाकर, (पुव्ववेराई सुमराविऊण) पूर्व वैरों की याद दिलाकर, (तओ) उनको, (अण्णोण्णं) आपस में, (जुद्धं लायंति) युद्ध करवाते हैं। ____ अर्थ- क्रूर-पापी असुर जाति के देव भी नरकों में जाकर नारकियों को पूर्वभाव के बैरों (शत्रुता) की याद दिलाकर उन्हें आपस में लड़ाते हैं। व्याख्या- क्रूर परिणामी अत्यन्त पापी असुरकुमार देवों की जाति के अम्ब और अम्बावरीश देव तीसरे नरक तक जाकर नारकियों को पूर्वभव के वैरों का स्मरण दिलाकर आपस में लड़वाते हैं। संक्लिष्ट असुर कुमार की परिभाषा करते हुए आचार्य श्रुतसागर सूरि तत्त्वार्थवृत्ति में लिखते हैं - प्राग्भवसंभावितातितीव्रसंक्लेश परिणामोपार्जितपापकर्मोदयात् सम् सम्यक् सन्ततं वाक्लिश्यन्ते स्म आर्तरौद्रध्यानसंप्राप्ता ये ते संक्लिष्टाः । असुरत्वप्रापकदेवगतिनामकर्मप्रकार कर्मोदयादस्यन्ति क्षिपन्ति प्रेरयन्ति परानित्यसुराः । संक्लिष्टाश्च ते असुराश्च संक्लिष्टाऽसुराः । - अर्थ- जो पूर्वभव सम्भावित अतिव्र परिणामों से उपार्जित पाप कर्म के उदय से निरन्तर क्लिष्ट रहते हैं। आर्त रौद्र ध्यान से युक्त रहते हैं, वे संक्लिष्ट कहलाते हैं। अथवा असुरत्व प्रापक देवगति नामकर्म के भेदों में एक असुर नाम कर्म है, जिसके उदय से जो दूसरों पर फेंकते हैं, प्रेरते हैं, दुःख देते हैं, वे असुर कहलाते हैं। पापी मनुष्य जिस प्रकार इस लोक में दो कुत्तों अथवा अन्य पशुओं को आपस में लड़ाकर आनन्द मानते है उसी तरह नरक में भी नारकियों को आपस में लड़ाकर असुरकुमार देव आनन्द मानते हैं।। १७०।। नरकों एवं बिलों की संख्या सत्तेव अहोलोए पुढवीओ तत्थ समसहस्साइं। णिरयाणं चुलसीई सेटिंद-पइण्णयाण हवे ।। १७१।। अन्वयार्थ- (अहो-लोए) अधोलोक में, (सत्तेव) सात ही, (पुढवीओ) पृथ्वियां हैं, (तत्थ) उनमें, (सेढिंद-पइण्णयाण) श्रेणीबद्ध, इन्द्रक (और) प्रकीर्णक (नाम के), (चुलसीई सयसहस्साई णिरयाणं हवे) चौरासी लाख नरक हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१६२) आचार्य वसुनन्दि अर्थ - अधोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं, उनमें श्रेणीबद्ध, इन्द्रक और प्रकीर्णक नाम के चौरासी लाख नरक हैं। विशेषार्थ - अधोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं; उनमें श्रेणीबद्ध अर्थात् पंक्तिबद्ध, इन्द्रक अर्थात् प्रमुख (बीचोंबीच ) और प्रकीर्णक अर्थात् तारों की तरह इधर-उधर बिखरे हुए जैसे चौरासी लाख नरक हैं अर्थात् सात नरकों की सात पृथ्वियों में चौरासी लाख बिल हैं जिनमें नारकी रहते हैं। सभी नरकों (पृथ्वियों) में ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्य भाग में नरक हैं। वे इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और पुष्प प्रकीर्णक के रूप में तीन भागों में विभाजित हैं। प्रथम पृथ्वी में १३ नरक प्रस्तार हैं और उनमें सीमन्तक, निरय, रौरव आदि १३ ही इन्द्रक (बिल) हैं। द्वितीय पृथ्वी में ११ नरक प्रस्तार और स्तनक, संस्तनक आदि ग्यारह इन्द्रक हैं। तृतीय पृथ्वी में ९ प्रस्तार हैं और तप्त, त्रस्त आदि नौ इन्द्रक हैं। चतुर्थ पृथ्वी में ७ नरक प्रस्तार हैं और आय मार आदि सात इन्द्रक हैं। पञ्चम पृथ्वी ५ नरक प्रस्तार हैं और तम, भ्रम आदि पांच इन्द्रक हैं । छट्ठम पृथ्वी में ३ नरक प्रस्तार हैं और हिम, वर्दल और ललक ये तीन ही इन्द्रक हैं। सप्तम पृथ्वी में एक प्रस्तार और एक ही अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक है। सीमन्तक इन्द्रक नरक की चारों दिशाओं और चार विदिशाओं में क्रमबद्ध नरक हैं तथा मध्य में प्रकीर्णक हैं। दिशाओं की श्रेणी में ४९ - ४९ नरक हैं तथा विदिशाओं की श्रेणी में ४८- ४८ । निरय आदि शेष इन्द्रकों में दिशा और विदिशा के श्रेणीबद्ध नरकों की संख्या क्रम से एक-एक कम होती गई है। अन्तिम अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक नरक सम्बन्धी प्रत्येक दिशा में एक-एक श्रेणीबद्ध नरक बचता है। विदिशाओं में कोई भी नरक नहीं बचता और न ही पुष्यप्रकीर्णक होते है। इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण के लिये तत्त्वार्थराजवार्तिक (अ०३, सूत्र २) के आधार से तैयार की गई तालिका प्रस्तुत है पृथिवी १ २ m x 5 w 9 ३ ४ ५ ७ इन्द्रक श्रेणीबद्ध पुष्यप्रकीर्णक योग १३ ४४२० २९९५५६७ ३०००००० ११ २६८४ २४९७३०५ २५००००० १४७६ १४९८५१५ १५००००० ७०० ९९९२९३ १०००००० २६० २९९७३५ ३००००० ६० ९९९३२ ९९९९५ ४ ९६०४ ७ 5 ४९ X ८३९०३४७ ८४००००० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६३) आचार्य वसुनन्दि सातवीं पृथ्वी में विदिशाओं में नरक नहीं हैं। पूर्व दिशा में काल, पश्चिम में महाकाल, दक्षिण में रौरव, उत्तर में महारौरव और मध्य में अप्रतिष्ठान नामक नरक हैं। ___ इन सातों पृथिवियों में कुछ नरक संख्यात लाख योजन विस्तार वाले और कुछ असंख्यात लाख योजन विस्तारवाले हैं। पांचवें भाग तो संख्यात योजन विस्तार वाले और ४ भाग असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। - इन्द्रक बिलों की गहराई प्रथम नरक में १ कोश और आगे क्रमश: आधा-आधा कोश बढ़ती हुई सातवें नरक में ४ कोश हो जाती है। श्रेणीबद्ध की गहराई अपने इन्द्रक की गहराई से तिहाई और अधिक है। प्रकीर्णकों की गहराई, श्रेणी और इन्द्रक दोनों की मिली हुई गहराई के बराबर है। ये सब नरक ऊँट आदि के समान अशुभ आकार वाले हैं। इनके शोचन-रोचन आदि भद्दे-भद्दे नाम हैं। सम्पूर्ण बिलों की संख्या ८४ (चौरासी) लाख है। सात पृथिवियों के नाम रयणप्पह-सक्करपह-बालुप्पह-पंक-धूम-तमभासा। तमतमपहा य पुढवीणं जाण अणुवत्थणामाई।। १७२।। अन्वयार्थ- (पुढवीणं) (उन) पृथिवियों के, (रयणप्पह) रत्नप्रभा, (सक्करपह) शर्कराप्रभा, (बालुप्पह) बालुकाप्रभा, (पंक-धूम-तमभासा य तमतमपहा) पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और तमस्तमप्रभा, (अणुवत्थणामाई) अन्वर्थ नाम, (जाण) जानना चाहिए। ___ अर्थ- उन सातों पृथ्वियों के क्रमश: रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा (तमस्तमप्रभा) ये अन्वर्थ अर्थात् सार्थक नाम जानना चाहिए। __व्याख्या–प्रस्तुत है श्रुतसागर सूरिकृत तत्त्वार्थवृत्ति (३/१/२३९) के आधार से उन पृथ्वियों के नामों का स्पष्टीकरण। सम्पूर्ण लोक को तीन भागों में विभक्त किया जाता है - १. अधोलोक, २. उर्ध्वलोक, ३. मध्यलोक। इन लोकों में अधोलोक में नारकी जीव रहते हैं। उनके निवासार्थ सात पृथ्वियाँ कही गई हैं - १. रत्नप्रभा-भूमि - जिसकी प्रभा चित्र आदि रत्नों की प्रभा के समान है वह रत्नप्रभा ___ भूमि है। यह पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। इसके तीन भाग १. इ. अनुतृतथ., म. अणुवट्ट.. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६४) आचार्य वसुनन्दि हैं - १. खरभाग सोलह हजार योजन मोटा जहां पर भवनवासी एवं व्यन्तरदेव निवास करते हैं। २. पंक भाग चौरासी हजार योजन मोटा है इसमें भवनवासियों के असुरकुमार एवं व्यन्तरों के राक्षस जाति के देव रहते हैं। ३. अव्वहुल भाग अस्सीहजार योजन मोटा है इसमें प्रथम पृथ्वी के नारकी रहते हैं। २. शर्करा-प्रभा - जिसकी प्रभा शर्करा (शक्कर) के समान है वह शर्करा प्रभा भूमि है। यह पृथ्वी बत्तीसहजार योजन मोटी है। ३. बालुका-प्रभा – जिसकी प्रभा बालुका के समान है वह बालुकाप्रभा-भूमि है। यह पृथ्वी अट्ठाईसहजार योजन मोटी है। ४. पंक-प्रभा - जिसकी प्रभा कीचड़ के समान है वह पंकप्रभा भूमि है। यह पृथ्वी चौबीसहजार योजन मोटी है। ५. धूम-प्रभा - जिसकी प्रभा धूम (धुआं) के समान हो वह धूमप्रभा भूमि है। यह पृथ्वी बीसहजार योजन मोटी है। ६. तम-प्रभा - जिसकी प्रभा अन्धकार के समान है वह तमप्रभा भूमि है। यह पृथ्वी सोलहहजार योजन मोटी है। ७. महातम-प्रभा – जिसकी प्रभा महा (गाढ) अन्धकार के समान है वह महातम प्रभाभूमि है। यह आठहजार योजन मोटी है। इन भूमियों अथवा नरकों के दूसरे नाम क्रमश: घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा और माधवी भी है। . शङ्का– जीवों का नरकों में लगातार कितने बार जन्म सम्भव है? . __समाधान- पहली पृथिवी से निकला हुआ जीव यदि पाप के कारण अव्यवहत (निरन्तर) रूप से पहली पृथिवी में जावे तो सात बार तक जा सकता है। दूसरी से निकला दूसरी में छह बार, तीसरी से निकला तीसरी में पांच बार, चौथी से निकला चौथी में चार बार, पांचवी से निकला पांचवीं में तीन बार, छठवी से निकला छठवी में दो बार और सातवी पृथ्वी से निकला जीव सातवीं पृथ्वी में एक बार जा सकता है। शङ्का– यहाँ निरन्तर से क्या अर्थ लेना है? समाधान- निरन्तर से तात्पर्य है कि नरक से निकल कर वह पशु या मनुष्य होगा पुन: उस पर्याय से नरक चला जायेगा; क्योंकि नारकी जीव मरकर पर्यायान्तर के बिना नरकों में उत्पन्न नहीं होते। वे सीधे देवों और भोग भूमियां जीवों में भी उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१६५) आचार्य वसुनन्दि शङ्का — किस पृथिवी से निकलकर नारकी जीव, क्या बन सकता है ? - समाधान — सातवीं पृथ्वी से निकला हुआ प्राणी नियम से संज्ञी तिर्यञ्च होता है तथा संख्यात वर्ष की आयु का धारक हो मरणकर पुन: नरक जाता है। छठवी पृथिवी से निकला हुआ जीव संयम को प्राप्त नहीं होता। पांचवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव संयम तो पा सकता है; किन्तु मोक्ष नहीं जा सकता। चौथी पृथिवी से निकला हुआ जीव मोक्ष पा सकता है: किन्तु तीर्थङ्कर नहीं हो सकता है। तीसरी, दूसरी और पहली पृथिवी से निकला जीव सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के कारण तीर्थङ्कर पद पा सकता है। नरकों से निकले हुए जीव बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती पद को छोड़कर ही मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर सकते है अर्थात् मनुष्य होकर भी बलभद्र, नारायण अथवा चक्रवर्ती नहीं हो सकते।' 4 शङ्का — नारकियों में अवधि ज्ञान की सीमा कितनी है ? समाधान- देवों की तरह नारकियों को भी भव प्रत्यय अवधि ज्ञान होता है। प्रथम नरक के नारकी अपने अवधि ज्ञान से एक योजन अर्थात् चार कोष तक की बात जानते है। दूसरे के साढ़े तीन कोष, तीसरे के तीन कोष, चौथे के ढाई कोष, पांचवें के दो कोष, छटवें के. डेढ़ कोष और सातवें के एक कोष प्रमाण की बात को अपने अवधिज्ञान से जान लेते है । यह प्रमाण सम्यग्दृष्टि नारकियों की अपेक्षा कहा है, मिथ्यादृष्टियों के तो इससे भी कम ज्ञान की सीमा होती है। इस प्रकार से यहाँ सात नरकों का संक्षेप से वर्णन किया गया है। नारकियों की आयु पढमाए पुढवीए वाससहस्साइं दह जहण्णाऊ । समयम्मि वण्णिया सायरोवमं होइ उक्कस्सं । । १७३ ।। पढमाइ जमुक्कस्सं विदियाइसु साहियं जहण्णं तं । तिय सत्त दस य सत्तरस दुसहिया वीस तेत्तीसं । । १७४ । । सायरसंखा एसा कमेण विदियाइ जाण पुढवीसु । उक्कस्साउपमाणं णिदिट्ठ जिणवरिंदेहि।।१७५।। अन्वयार्थ – (समयम्मि) परमागम में, (पढमाए पुढवीए) प्रथम पृथ्वी के नारकियों की (जहण्णाऊ) जघन्य आयु, (दह वाससहस्साइं ) दस हजार वर्ष की, (वण्णिया) कही गई है, (उक्कस्सं) उत्कृष्ट आयु, (सायरोवमं) एक साग़रोपम की, Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६६) आचार्य वसुनन्दि (होइ) होती है, (पढमाइ जमुक्क्स्स ) प्रथमादि पृथ्वियों में जो उत्कृष्ट आयु कही है, (साहियं) कुछ अधिक, (तं) वही, (विदियाइस) द्वितीयादि नरकों में, (जहण्णं जाण) जघन्य आयु जानो, (जिणवरिंदेहि) जिनेन्द्र भगवान् ने, (विदियाइ पुढवीसु) द्वितीयादिक पृथ्वियों में, (उक्कस्साउपमाणं) उत्कृष्ट आयु का प्रमाण, (तिय सत्त दस य सत्तरस दुसहिया बीस तेत्तीसं) तीन, सात, दस, सत्तरह, बाईस, तेतीस, (सायरसंख्या) सागर प्रमाण, (एसा कमेण) इस क्रम से, (णिट्ठि) कहा है। अर्थ- शास्त्रों में प्रथम पृथ्वी के नारकियों की आयु दस हजार वर्ष की कही गई है, और उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम की होती है। प्रथमादि पृथ्वियों में जो उत्कृष्ट आयु कही गई है, कुछ अधिक वही द्वितीयादि नरकों में जघन्य आयु जानो। जिनेन्द्र भगवान् ने द्वितीयादिक पृथ्वियों में उत्कृष्ट आयु का प्रमाण तीन, सात, दस, सत्तरह, बाईस, तेतीस सागर प्रमाण क्रम से कहा है। ___व्याख्या- सिद्धान्त शास्त्रों में प्रथम नरक के नारकियों की जघन्य (अत्यल्प) आयु दस हजार वर्ष कही गई है और उत्कृष्ट (अधिकतर) आयु एक सागरोपम अथवा सागर की कही गई है। प्रथम आदि नरकों में जो उत्कृष्ट आयु है उससे कुछ अधिक अर्थात् एक समय अधिक वही आयु दूसरे आदि नरकों की जघन्य आयु है। दूसरी पृथ्वी में उत्कृष्ट आयु तीन सागर, तीसरी में सात सागर, चौथी में दस सागर, पांचवीं में सत्तरह सागर, छठवीं में बाइस सागर और सातवीं पृथ्वी में तेतीस सागर है। सागर और सागरोपम दोनों एकार्थवाची हैं। शङ्का– सागर किसे कहते हैं? क्या सागरोपम सागर से भिन्न है? . समाधान- सागर का लक्षण समझने के लिए अंगल, हस्त, धनुष आदि के प्रमाण को समझना आवश्यक है। यहाँ पर परमाणु से पल्य और सागर बनाने तक की प्रक्रिया को प्रदर्शित करते हैं___परमाणु- आदि, अन्त और मध्य से रहित पुद्गल के एक अविभागी टुकड़े को परमाणु कहते हैं। वह परमाणु अन्तरङ्ग बहिरङ्ग कारणों से स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण गुणों के द्वारा स्कन्ध की तरह पूरण और गलन अर्थात् वृद्धि-हानि को प्राप्त होता रहता है, इसलिए उसे पुद्गल कहते हैं। उन अनन्तानन्त परमाणुओं के समूह (स्कन्ध) का नाम अवसन्नासन्न है। आगे-आगे के प्रमाणों को स्पष्ट करते हैं अनन्तानन्त परमाणुओं का - १ अवसन्नासन्न ८ अवसनासन्न का १ सन्नासन्न ८ सन्नासन्नों का १ त्रुटिरेणु Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६७) आचार्य वसुनन्दि ८ त्रुटिरेणुओं का- १ त्रसरेणु ८ त्रसरेणुओं का १ रथरेणु ८ रथरेणुओं का- उत्तम भोगभूमिजों का १ बालाग्र ८ इन बालाग्रों का- मध्यम भोगभूमिजों का १ बालाग्र ८ इन बालाग्रों का- जघन्य भोगभूमिजों का १ बालाग्र ८ इन बालायों का- कर्म भूमिजों का १ बालाग्र ८ कर्मभूमिज के बालारों की- १ लिक्षा ८ लिक्षा की १ यूका ८ यूका की ८ जौ का . १ अंगुल अंगुल के तीन भेद – उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल। उपर्युक्त परिभाषा से सिद्ध हुआ अंगुल उत्सेधांगुल कहलाता है। पाँच सौ उत्सेधांगुल का एक प्रमाणांगुल होता है। जिस काल में भरत और ऐरावत में जो-जो मनुष्य हुआ करते हैं उस-उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल होता है। ' किस अंगुल से किसका माप होता है? – उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवासस्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है। : प्रमाणांगुल से द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड या सरोवर, जगती और भरत आदि क्षेत्रों का प्रमाण जाना जाता है। .. आत्मांगुल से झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुन्दुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवासस्थान, नगर और उद्यान आदिकों का प्रमाण समझना चाहिए। - धनुष का प्रमाण- छह अंगुलों का – १ पाद, २ पादों की १ वितस्ति, दो वितस्तियों का १ हाथ, २ हाथ का १ रिक्कू, दो रिक्कू का १ दण्ड या धनुष अर्थात् ४ हाथ का १ धनुष और दो हजार धनुष का एक कोस होता है। योजन का प्रमाण- चार कोस का एक योजन होता है इसे लघु योजन कहते हैं। इसी योजन को पांच सौ से गुणा करने पर १ महायोजन बनता है। यथा - ४४५०० =२०००, इन २००० कोस का एक महायोजन होता है। प्रल्य का प्रमाण– चार कोस के योजन विस्तार वाले गोल गड्डे का गणित शास्त्र से घनफल निकाल लीजिये। अर्थात् एक योजन व्यास वाले एक योजन गहरे गड्ढे का Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार घन फल कर लीजिये । (१६८) एक योजन व्यास वाले गोल क्षेत्र का घनफल १९ १०= परिधि, ×- क्षेत्रफल, ११ घनफल, २४ - आचार्य वसुनन्दि _१×१×१० = १०, उत्तम भोगभूमि के एक दिन से लेकर सात दिन तक के उत्पन्न हुए मेढ़ें के करोड़ों रोमों के अविभागी खण्ड करके उन खण्डित रोमाग्रों से उस एक योजन विस्तार वाले प्रथम गड्ढे को पृथ्वी के बराबर अत्यन्त सघन भरना चाहिये । इस गड्ढे के रोमों की संख्या - ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५ १२१९२०००००० 0000000000, व्यवहार पल्य • सौ-सौ वर्ष में एक-एक रोम खण्ड के निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली हो, उतने काल को 'व्यवहार पल्य' कहते हैं। - उद्धार पल्य- - व्यवहार पल्य की रोमराशि में से प्रत्येक रोम खण्ड को असंख्यात करोड़ वर्षों के जितने समय हों उतने खण्ड करके, उनसे दूसरे पल्य को भरकर पुनः एक-एक समय में एक-एक रोम खण्ड को निकालें। इस प्रकार जितने समय में वह दूसरा पल्य खाली हो जाय उतने काल को 'उद्धार पल्य' समझना चाहिये । - अद्धा पल्य • उद्धार पल्य की रोमराशि में से प्रत्येक रोमखण्ड के असंख्यात वर्षों के समय प्रमाण खण्ड करके तीसरे गड्ढे के भरने पर और पहले के समान एक-एक समय में एक-एक रोमखण्ड को निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली हो जाय उतने काल को 'अद्धा पल्य' कहते हैं । मध्य के उद्धार पल्य से द्वीप और समुद्रों का प्रमाण जाना जाता है। इस अद्धा पल्य से नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों की आयु तथा कर्मों की स्थिति का प्रमाण जाना जाता है। - सागर- - दस कोड़ाकोड़ी व्यवहार पल्य का एक व्यवहार सागर, दस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों का एक उद्धार सागर, दस कोड़ाकोड़ी अद्धा पल्यों का एक अद्धा सागर होता है। अर्थात् एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर कोड़ाकोड़ी बनता है। ऐसे दस कोड़ाकोड़ी पल्यों का एक सागर होता है। कुलकरों की देव नारकियों की आयु में जो पल्य और सागर का प्रमाण आया है और ऊँचाई में धनुष का प्रमाण आया है उनको समझने के लिये इन परिभाषाओं को याद रखना चाहिये। सागर और सागरोपम में अन्तर कुछ भी नहीं है। 'सागर' शब्द तो सिर्फ काल की गणना को सूचित करता हैं जबकि सागरोपम से यह अर्थ स्पष्ट होता है कि यह Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१६९) आचार्य वसुनन्दि) गणना उपमा है, वास्तव में छद्मस्थ जीव इन्हें गिनने में समर्थ नहीं हैं। जो राशि गणना के द्वारा न कही जा सके वह उपमा के द्वारा कही जाती है, उसे ही उपमान कहते हैं।।१७३-१७५।। व्यसन सेवन से नरकगति एत्तियपमाणकालं सारीरं माणसं बहुपयारं । दुक्खं सहेइ तिव्वं वसणस्स फलेणिमो जीवो।।१७६।। अन्वयार्थ– (वसणस्स फलेण) व्यसन के फल से, (इमो जीवो) यह जीव, (एत्तियपमाण कालं) इतने (उपरोक्त) प्रमाण काल तक, (बहुपयारं) बहुत प्रकार के, (सारीरं माणसं तिव्वं दुक्खं सहेइ) शारीरिक, मानसिक तीव्र दुःखों को सहता है। अर्थ- व्यसन के फल से यह जीव उपरोक्त प्रमाणकाल तक बहुत प्रकार के शारीरिक, मानसिक तीव्र दुःखों को सहता है। व्याख्या- व्यसन सेवन के फल से यह जीव ऊपर कहे हुए सागरों प्रमाण काल तक शारीरिक, मानसिक और भी अनेक प्रकार के तीव्र दुःखों को सहन करता हुआ दुःखी रहता है। अत: नरकों के भयङ्कर दुःखों से बचने के लिए इन व्यसनों का त्याग करना चाहिए। शङ्का- व्यसन सैवियों के अलावा और कौन से जीव नरक जाते हैं? समाधान- तत्त्वार्थवृत्तिकार आचार्य श्रुतसागर लिखते हैं - - तेसु नरकेषु मद्यपायिनो-मांसभक्षका-मखारौ-प्राणिघातका-असत्यवादिनः परद्रव्यापहारकाः परस्त्री-लम्पटा: महालोभाभिभूताः रात्रिभोजिनः स्त्री-बाल-वृद्धऋषि-विश्वासघातका-जिनधर्मनिन्दका रौद्रध्यानाविष्टा इत्यादिपापकर्मानुष्ठातारः समुत्पद्यन्ते। . अर्थ- सरल है। इसका विशेष विस्तार आचार्य भास्करनन्दि की तत्त्वार्थवृत्ति में भी उपलब्ध है।। १७६।। तिर्यञ्चगति दुःख-वर्णन तिर्यञ्च स्थावरों के दुःख तिरियगईए वि तहा थावरकायेसु बहुपयारेसु। अच्छइ अणंतकालं हिंडतो जोणिलक्खेसु।। १७७।। अन्वयार्थ- (तहा वि) फिर भी, (तिरियगईए) तिर्यश्चगति में, (बहुपयारेसु थावरकायेस) बहुत प्रकार के स्थावर कायिकों में, (जोणिलक्खेस) लाखों योनियों Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७०) आचार्य वसुनन्दि) में, (अणंकालं) अनन्त काल, (अच्छइ) स्थित हो, (हिंडतो) घूमता रहता है। भावार्थ- नरकों से निकलकर वह व्यसनी जीव पुन: तिर्यञ्चगति के दुःखों को प्राप्त होता है। वहाँ वह बहुत प्रकार के स्थावर कायिकों की लाखों अर्थात् बावन लाख योनियों में अनन्त काल तक जन्म-मरण करता हुआ घूमता रहताहै। एकेन्द्रिय जीवों को भी जलाये जाना, काटे जाना, गलाये जाना रौंदे जाना, छीले जाना आदि भयङ्कर दुःख भोगने पड़ते हैं।।१७७।। स पर्याय की दुर्लभता कहमवि णिस्सरिऊणं तत्तो वियलिंदिएसु संभवइ । तत्थ वि किलिस्समाणो कालमसंखेज्जयं वसइ।। १७८।। अन्वयार्थ- (तत्तो) उन स्थावरों में से, (कहमवि) किसी प्रकार से भी, (णिस्सरिऊणं) निकलकर, (वियलिदिएस) विकलेन्द्रियों में, (संभवइ) उत्पन्न होता है, (तत्यवि) वहां भी, (किलिस्समाणो) क्लेश उठाता हुआ, (कालमसंखेज्ज) असंख्यात काल तक (संसार में), (वसइ) बसता है। . भावार्थ- उन स्थावर कायिक जीवों में से किसी भी प्रकार से निकलकर वह व्यसनी जीव विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होता है और वहाँ पर भी विकलेन्द्रियों अर्थात् दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीवों में भयङ्कर दुःखों को भोगता है। कभी वह कृमि होता है, कभी टट्टी का कीड़ा होता है, कभी सड़ी वस्तु में पैदा होता, कभी केंचुआ हो कुचला जाता है, कभी चींटी, खटमल, पिस्सू, भौरा, बरें, बिच्छू आदि होकर भयङ्कर दुःखों को पाता है। विकलेन्द्रिय होकर भी वह असंख्यात वर्षों तक छह लाख योनियों में दुःख प्राप्त करता है।।१७८।। पञ्चेन्द्रिय पर्याय की दुर्लभता तो खिल्लविल्ल्जोएण कह वि पंचिंदिएसु उववण्णो। तत्थ वि असंखकालं जोणिसहस्सेसु परिभमइ।। १७९।। अन्वयार्थ- (कह वि) किसी प्रकार से भी, (खिल्लविल्लजोएण) खिल्लविल्लयोग से, (पंचिंदिएस) पञ्चेन्द्रियों में, (उववण्णो) उत्पन्न हुआ, (तो),तो, (तत्थ वि) वहां भी, (असंखकालं) असंख्यात काल तक, (जोणिसहस्सेसु) हजारों योनियों में, (परिभमइ) परिभ्रमण करता है। भावार्थ- यदि कदाचित् खिल्लविल्ल योग से अर्थात् उत्कृष्ट भाग्य से विकलेन्द्रियों में से निकलकर पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ तो भी पञ्चेन्द्रि तिर्यञ्च जीवों Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७१) आचार्य वसुनन्दि की चार लाख योनियों में असंख्यात काल तक परिभ्रमण करता रहता है अर्थात् उन्हीं योनियों में बार-बार घूमता रहता है। - खिल्लविल्ल योग- भाड़ में भूनते हए धान्य में से दैववशात जैसे कोई एक दाना उछलकर बाहर आ पड़ता है उसी प्रकार दैववशात् एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों में से कोई एक जीव निकलकर पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न हो जाता है, तब उसे खिल्लविल्ल योग से उत्पन्न होना कहते हैं। तिर्यञ्चों के दुःखों का वर्णन छेयण-भेयण-ताडण-तासण-णिल्लंछणं तहा दमणं। णिक्खलण-मलण-दलणं पउलण उक्कत्तणं चेव।। १८०।। बंधण-भारारोवण लंछण पाणण्णरोहणं सहणं । सीउण्ह- भुक्ख-तण्हादिजाण तह पिल्लयविओयं ।।१८१।। अन्वयार्थ- (तिर्यंच योनि में), (छेयण) छेदन, (भेयण) भेदन, (ताडण) ताड़न, (तासण) त्रासन, (णिल्लंछणं) निलांछन, (तहा) तथा, (दमणं) दमन, (णिक्खलण) निक्खलन (नाक छेदन), (मलण) मलन, (दलण) दलन, (पउलण) प्रज्वलन, (उक्कत्तणं) उत्कर्तन, (बंधण) बंधन, (भारारोवणं) भारारोपण, (लंछण) लांछन, (पाणण्णरोहणं) अन्न-पान निरोध, (च) और, (सीउण्हं) शीत-उष्ण, (भुक्ख तण्हादिजाण) भूख-प्यास आदि से उत्पन्न, (तह) तथा, : (पिल्लयविओयं) पिल्लों के वियोग जनित दुःख को भोगता है। अर्थ- तिर्यंच गति में छेदन, भेदन, ताड़न, त्रासन, निन्छन, दमन, नाक-छेदन, प्रज्वलन, उत्कर्तन, बंधन, भारारोपण, लांछन, अन्नपान निरोध और शीत-ऊष्ण, भूख-प्यास तथा बच्चों के वियोग आदि से उत्पन्न दुःखों को व्यसनी जीव प्राप्त करता है। ___ व्याख्या- इस जीव को तिर्यञ्च गति में विभिन्न प्रकार के भयङ्कर दुःख सहन करने पड़ते हैं, उन्हीं को कुछ स्पष्ट करते हैं छेदन-अंग का अपनयन करना छेद है। भेदन- अंग के आर-पार छेद कर देना भेदन है। ताड़न- डण्डों आदि से पीटना। त्रासन- पटक कर, धकेल कर, खींचकर, घसीट कर कष्ट देना। निलांछन- बधिया करना अर्थात् लिंग के ऊपरी हिस्से वाली नश तोड़ देना। दमन- धमकाना, जबर्दस्ती भूसा-अनाज खाते हुए रोकना। निक्खलननाक, कान, पूंछ आदि अंगों में छेद करना। मलन- छोटे-छोटे जीवों को मसल देना, १. यह दोनों गाथाएँ मूलाराधना में क्रमांक १५८२-८३ पर हैं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७२) आचार्य वसुनन्दि कान, पूंछ आदि मरोड़ देना अथवा घास आदि को रौंदना। दलन- छोटे-छोटे जीवों अथवा पेड़-पौधे, पुष्पों आदि के टुकड़े करना, पशुओं को आपस में रगड़ उत्पन्न कराना। प्रज्वलन- जलाना, विभिन्न प्रकार से जीवों को तपाना, धूप में बांध देना, छोड़ देना अथवा आग में जला देना। उत्कर्तन- बड़े अथवा छोटे पशुओं तथा अन्य जीवों के अंग अथवा उपांगों को काट देना अथवा शरीर से पृथक् कर देना। बन्धन- इच्छित स्थान में जाने से रोक देना अर्थात् खूटे आदि में रस्सी इस प्रकार बांध देना जिससे वह इष्ट देश (स्थान) में गमन न कर सके। भारारोपण- अत्यन्त लोभ के कारण अथवा अन्य कारणों से पशुओं पर भार (वजन) लादना। लांछन- शरीर में तेज गर्म शस्त्र अथवा अन्य किसी प्रकार से दाग (चिह्न) लगा देना। अन्न-पान निरोध- पशओं को चारा-पानी नहीं देना अथवा जीवों को उनके योग्य आहार-पानी नहीं देना। शीत-भयङ्कर ठण्ड में कीचड़, नदी के किनारे, नाली अथवा किसी अत्यन्त शीत स्थान में पड़े रहने से प्राप्त वेदना। उष्ण- भयङ्कर धूप, आग के पास, भट्टी के ऊपर-नीचे अथवा अन्य किसी अत्यन्त गर्म स्थान में प्राप्त वेदना। भूख- क्षुधा की अधिकता, असाता कर्म का तीव्र उदय अथवा भोजन न मिलने से भूख की वेदना। प्यास- पानी न मिलने से उत्पन्न वेदना। पिल्लों के वियोग जनित दुःख-पिल्लें (बच्चों) के खो जाने, किसी के द्वारा उठा ले जाने, मर जाने अथवा मार दिये जाने पर भी उन पशुओं को भयङ्कर दुःख होता है। बच्चों की माँ के मर जाने से भी उन्हें बहुत दुःख होता है, इत्यादि बहुत प्रकार उत्पन्न असंख्य दुःखों को तिर्यञ्च जीव (पशु) प्राप्त करके दुःखी होते हैं।। १८०-१८१ ।। व्यसनों से तिर्यंचगति इच्चेवमाइ बहुयं दुक्खं पाउणइ तिरियजोणीए। विसणस्स फलेण जदो वसणं परिवज्जए तम्हा ।। १८२।। २ । ध.प. जाईए. इतः पूर्वं झ.ब. प्रत्योः इमे गाथेऽधिके उपलभ्येतेतिरिएहिं खज्जमाणो दुट्ठमणुस्सेहि हम्ममाणो वि। सव्वत्थ वि संतठ्ठो भयदुक्खं विसहदे भीम।।१।। अण्णोण्णं खज्जंता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं। माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ राखेदि।।२।। अर्थ-तिर्यंञ्चों के द्वारा खाया गया, दुष्ट शिकारी लोगों के द्वारा मारा गया और सब ओर से संत्रस्त होता हुआ भय-जनित, भयंकर दुःख को सहता है। तिर्यञ्च परस्पर में एक दूसरे को खाते हुए दारुण दुःख पाते हैं। जिस योनि में माता भी अपने पुत्र को खा लेती हैं, वहाँ दूसरा. कौन रक्षा कर सकता है।।१-२।। - स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ४१-४२ १. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (१७३) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ - (जीव ) (इच्छेवम्) इस प्रकार, (विसणस्स फलेण) व्यसन के फल से, (जदो) जब, (तिरियजोणीए) तिर्यंच योनि में, (बहुयं) बहुत प्रकार के, (आइ) इत्यादि, (दुक्खं) दुःखों को, (पाउणइ) पाता है, (तम्हा) तो (इसलिए), (वसणं) व्यसनों को, (परिवज्जए) छोड़ देना चाहिए। भावार्थ - ऊपर कहे हुए विविध प्रकारों से जब यह जीव व्यसनों के फल को तिर्यञ्च गति में भोगता है, पाता है, तब इन भयङ्कर दुःखों से बचने के लिए व्यसनों का त्याग कर देना चाहिए। व्यसनी जीवों को अवश्य ही यह महान दुःख भोगने पड़ते हैं । । १८२ ।। मनुष्यगति दुःख वर्णन व्यसनों से संयोग-वियोग के दुःख मणुयत्ते' वि य जीवा दुक्खं पावंति बहुवियप्पेहिं । इठ्ठाणिट्ठेसु सया वियोय- संयोयजं तिव्वं । । १८३ । । अन्वयार्थ - ( मणुयत्ते वि य) मनुष्य भव में भी, (जीवा) जीव, (बहुवियम्पेहिं) बहुत प्रकार, (इट्ठाणिट्ठेसु) इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में, (वियोय-संयोयजं) वियोग-संयोगजनित, (तिव्वं) तीव्र, (दुक्ख) दुःखों को, (सया) हमेशा, (पावंति) पाते हैं। भावार्थ— व्यसनों के परिणामस्वरूप यह जीव मनुष्य भव में भी इष्ट अर्थात् अच्छे लगने वाले पदार्थों के वियोग (दूर) हो जाने से और अनिष्ट पदार्थों के संयोग (मेल) हो जाने से हमेशा दुःख ही पाते हैं; हमेशा दुःखी रहते हैं। मनुष्य का स्वरूप आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहते हैं - - मण्णंति जदो णिच्चं मणेण णिउणा मणुक्कडा जम्हा । उब्वा य सब्बे तम्हा ते माणुसा भणिदा । । १४९ ।। अर्थ - जिस कारण से जो जीव नित्य 'मन्यन्ते' अर्थात् हेय उपादेय आदि के भेद को जानते हैं। अथवा 'मनसा निपुणाः' अर्थात् कला शिल्प आदि में कुशल होते हैं। अथवा 'मनसा उत्कटाः' अर्थात् अवधान आदि दृढ़ उपयोग के धारी हैं। अथवा मनु के वंशज हैं। इसलिए वे जीव सभी मनुष्य हैं, ऐसा आगम में कहा गया है ।। १८३ ।। १. झ. ब. मणुयत्तेण (मयुयत्तणे ? ). Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (१७४) भूख-प्यास की वेदना से मरण उप्पण्णपढमसमयम्हि कोई जणणीइ छंडिओ संतो। कारणवसेण इत्थं सीउण्ह - भुक्ख तण्हाउरो मरइ । । १८४ ।। अन्वयार्थ — (उप्पण्णपढमसमयम्हि ) उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही, (कारणवसेण) कारणवश से, (जणणीइ) माता के द्वारा, (छंडिओ संतो) छोड़ दिये गये (कोई) कितने ही जीव, ( इत्थ) इस प्रकार (सीउण्ड भुक्ख तण्हाउरो ). शीत-उष्ण, भूख-प्यास से पीड़ित होकर, (मरइ) मर जाते हैं। माता भावार्थ — कितने ही जीव ऐसे हैं जो मनुष्य योनि में जन्म लेकर किसी कारणवश के द्वारा छोड़ दिये जाते हैं। इस प्रकार के जीव निःसहाय होते हैं, जिस कारण शीत - उष्ण, भूख और प्यास की वेदना सहन करते हुए मरण को प्राप्त हो जाते हैं। पौराणिक कथा ग्रन्थों में भी ऐसे कई उदाहरण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि बड़े-बड़े सम्पत्ति धारियों द्वारा भी, लोकलाज, भय, अपवाद के कारण से अथवा अयोग्य सन्तानें यत्र-तत्र छोड़ी गई, बहाई गई अथवा फेंक दी गई। कंस और कर्ण इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं । । १८४ । । माँ-बाप के अभाव में दुःख बालत्तणे वि जीवो माया पियरेहिं कोवि परिहीणो । - उच्छि भक्तो जीवइ दुक्खेण परगेहे । । १८५ । । अन्वयार्थ - (बालत्तणे वि) बालपन में ही, (माया - पियरेहि) माता-पिता से, (परिहीणो) रहित, (कोवि जीवो) कोई जीव, (परगेहे) पराये घर में, ( उच्छिष्टं भक्खतो) जूठन खाता हुआ, (दुक्खेण) दुःख के साथ, (जीवइ) जीता है। अर्थ — बालपन में ही माता-पिता से रहित कोई जीव पराये घर में जूठन खाता हुआ, दु:ख के साथ जीता है। व्याख्या - बालपन में ही कोई जीव माता-पिता के मर जाने, बिछुड़ जाने अथवा विदेश चले जाने से भयङ्कर दुःख का अनुभव करते हुए दूसरों के घर में जूठन खाते हुए जीते हैं। प्रथम तो जिन बच्चों के माँ-बाप बचपन में मर जाते हैं, उन्हें संरक्षण देने वाला भी कोई नहीं मिलता कदाचित् मिल भी जाये तो वह उन्हें विभिन्न प्रकार से कष्ट पहुंचाता है, न समय से भोजन देता है और न ही पानी। 'कहाँ से आ गया, न जाने किसकी औलाद है, किस पापी ने जन्म लिया जो मां-बाप को ही चाट गया'........ आदि आदि दुर्वचनों को सहता हुआ, जूठन (उच्छिष्ठ, खाने के Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७५) आचार्य वसुनन्दि बाद बचा हुआ भोजन) खाते हुए भी दु:खी होता है और दुःखमय जीवन जीता रहता है। आचार्य गुणभद्र कहते हैं - 'बाल्ये वेत्सि न किंचिदप्यपरिपूर्णाङ्गो हितं वाहितं ।' (आ० ८९) अर्थात् प्राणी बाल्यावस्था में शरीर के पुष्ट न होने से कुछ भी हित-अहित को नहीं जानता है। अपमानजनक और अहितकर कार्य भी कर डालता है। भावप्राभृत में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - कि हे मुनिवर ! तू ज्ञान रहित शिशुकाल में विष्टा आदि अपवित्र वस्तुओं के मध्य लेटा है तथा उसी बाल्य अवस्था की प्राप्ति के कारण तूने अनेक बार अशुचि वस्तु का भक्षण किया है। देखिए प्रस्तुत गाथा सिसुकाले य अयाणे असुईमज्झम्मि लोलि ओसि तुमं । असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण । । ४१ । । स्वामी कुमार रचित कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में भी एक गाथा इस आशय को स्पष्ट करने वाली है - बालो वि पियर चत्तो पर-उच्छिट्ठेण वड्ढदे दुहिदो । एवं जायण सीलो गमेदि कालं महा महादुक्खं । । ४६ ।। मार्ता-पिता के वियोगजन्य दुःखों को भी व्यसनी जीव प्राप्त होते हैं । । १८५ ।। पापात्मा को भीख भी नहीं मिलती पुव्वं दाणं दाऊण को वि सधणो जणस्स जहजोगं । पच्छा सो धणरहिओ ण लहइ कूर पि जायंतो । । १८६ । । अन्वयार्थ — (पुव्वं) पूर्वभव में, (जणस्स) मनुष्यों को, (जहजोगं) यथायोग्य, (दाणं दाऊण) दान देकर, (को वि) कोई भी, (सधणो) धनवान् हुआ, . (पच्छा) बाद में, (सो) वह, (धणरहिओ) धन रहित हो गया (तो), (जायंतो) मांगने पर; (कूर पिं) कूर (कौर) भी, (ण लहइ) नहीं पाता है। भावार्थ — यदि कोई मनुष्य पूर्वभव में मनुष्यों को यथायोग्य धन, भोजन, भूमि आदि दान देकर इस भव में धनवान् परिवार में उत्पन्न होकर धनवान् हुआ, किन्तु बाद में पापोदय के कारण जब उसका सम्पूर्ण धन नष्ट हो जाता है और भरपेट भोजन का भी ठिकाना नहीं रहता है तब उसे मांगने पर कौर (रोटी का टुकड़ा अथवा भात) भी नहीं मिलता है। वास्तव में वर्तमान की सम्पन्नता और विपन्नता हमारे ही पूर्वकृत कर्मोदय का फल है । । १८६ ।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७६) कुष्ठादि रोगजनित दुःख अण्णो उ पावरोएण' बाहिओ णयर - बज्झदेसम्मि । अच्छइ सहाय रहिओ ण लहइ सघरे वि चिट्ठेउं ।। १८७ । । तिसओ वि भुक्खिओ' हं पुत्ता मे देहि पाणमसणं च । · एवं कूवंतस्स वि ण कोइ वयणं च से देइ ।। १८८ ।। तो रोय- सोयभरिओ सव्वेसिं सव्वहियाउ ५ दाऊण । दुक्खेण मरइ पच्छा धिगत्थु मणुयत्तणमसारं । । १८९ ।। अण्णाणि एवमाईणि जाणि दुक्खाणि मणुयलोयम्मि । दीसंति ताणि पावइ वसणस्स फलेणिमो जीवो । । १९० ।। आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ — (अण्णो उ) कोई अन्य मनुष्य, (पावरोएण) पाप रोग से, (बहिओ) पीड़ित होकर, (णयर - बज्झदेसम्मि) नगर के बाह्य प्रदेश में, (सहायरहिओ) असहाय होकर, (अच्छइ) रहता है, (सघरे वि) अपने घर में भी, (ण चिट्ठेउ लहइ) नहीं ठहरने पाता है। (तिसओ वि भुक्खओहं ) मैं प्यासा और भूखा है, (पुत्ता) बच्चो, (मे पाणमसणं च देहि मुझे पानी और भोजन दो, ( एवं कूवंतस्सवि) इस प्रकार चिल्लाते हुए भी, (से कोइ वयणं चण्ण देइ) उसको कोई वचन भी नहीं देता है। (तो) तब, (रोय सोयभरिओ) रोग-शोक से भरा हुआ वह, (सव्वेसिं) सभी को, (सव्वहियाउ दाऊण) सभी प्रकार के अहितों (कष्टों) को देकर, (पच्छा) बाद में, (दुक्खेण मरइ) दुःख से मरता है, (ऐसे ), ( मणुयत्तणमसारं धिगत्यु) असार मनुष्य जीवन को धिक्कार हो, ( एवमाईणि) इनको आदि लेकर, (अण्णाणि) अन्य, (जाणि) जितने, (दुक्खाणि) दु:ख, (मणुयलोयम्मि) मनुष्यलोक में, (दीसंति) दिखते है, (ताणि) उनको, (वसणस्स) व्यसन के, (फलेण) फल से, (इमो जीवो) यह जीव, (पावइ) पाता है। भावार्थ— संसार में मनुष्यगति में कई दुःखों को भोगना पड़ता है। कोई मनुष्य पापरोग अर्थात् कुष्टरोग से पीड़ित होकर नगर के बाह्य प्रदेश में एक ओर पड़ा रहता है, न उसका वहाँ कोई सहायक ही होता है और न ही रक्षक अपितु रोग के कारण वह अपने घर में भी नहीं रह पाता । १. कुष्टरोगेणेत्यर्थ. २. पभुक्खिओ. ३. ब. देह. ४. कूजंतस्सई. ब. सवहियाउ, सर्व हितान् इत्यर्थः . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१७७) आचार्य वसुनन्दि - मैं बहुत प्यासा हूँ, मैं बहुत दिनों से भूखा हूँ; बच्चों! मुझे पानी एवं भोजन दो, मुझे खाने-पीने को दो; इस प्रकार चिल्लाते हुए भी उसको कोई वचन से भी आश्वासन नहीं देता, पानी और भोजन देना तो बहुत दूर की बात है। तब भयङ्कर रोग से बुरी तरह पीड़ित रोग और शोक से भरा हुआ वह सब लोगों को नानाप्रकार के कष्ट देता है और बाद में स्वय भी आर्त रौद्र परिणाम करते हुए; दुःख से मरता है। जिस मनुष्य जीवन में विभिन्न प्रकार के दुःख-शोक और कष्ट भरे पड़े हैं उसे धिक्कार हो। इन ऊपर कहे हुए दुःखों को आदि लेकर और भी अन्य दुःख जो मनुष्य लोक में दिखाई देते हैं, वे सब व्यसनों का फल हैं। व्यसन सेवन करने से भयङ्कर पाप का बंध होता है परिणामस्वरूप जीव मनुष्य गति को पाकर भी सुखी नहीं हो पाता, अपितु दुःखों को ही भोगता है। आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन में कहते हैं - 'व्यापत्पर्वमयं विरामविरसं मूलेऽप्यभोग्योचितं । बिष्वक्षुत्क्षतपातकुष्ठकुथिताधुग्रामयैश्छिद्रितम् ।। मानुष्यं घुण भक्षितेक्षुसदृशं नामैकरम्यं पुनः। " निःसारं परलोक बीज मचिरात्कृत्वेह सारी कुरु ।।८१।। अर्थ- आपत्तियों रूप पोरों से निर्मित, अन्त में नीरस, मूल में भी उपभोग के अयोग्य तथा सब और से भूख, क्षतपात (घाव) कोढ और दुर्गन्ध आदि तीव्र रोगों से छेद युक्त की गई ऐसी यह मनुष्य पर्याय घुनों से खाये हुए गन्ने के समान केवल नाम से ही रमणीय है। तू इस निःसार पर्याय को परभव. का बीज करके सारभूत कर ले। इसी में बुद्धिमानी है।।१९०।। देवगतिदुःख-वर्णन व्यसन फल से देवगति में दुःख किंचुवसमेण पावस्स कह वि देवत्तणं वि संपत्तो। तत्थवि पावइ दुक्खं विसणज्जिय कम्मपागेण।।१९१।। अन्वयार्थ- (कह वि) किसी प्रकार से भी, (पावस्स) पाप के, (किंचवसमेण) किंचित उपशमन से, (देवत्तणं वि) देवपना भी, (संपत्तो) प्राप्त हुआ (तो), (तत्थ वि) वहां पर भी, (विसणज्जियकम्मपागेण) व्यसन से उपार्जित कर्म के फल से, (दुक्खं) दुःखों को, (पावइ) पाता है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१७८) आचार्य वसुनन्दि भावार्थ- मनुष्य गति में कुछ अच्छे कर्म करने से अथवा पाप के उपशमन से कोई व्यसनी मनुष्य कदाचित् देवगति में भी उत्पन्न हो गया तो वहां परभी वह व्यसन सेवन से उपार्जित पाप कर्मों के फल को भोगता है अर्थात् दुःखों को प्राप्त होता है। ____ गोम्मटसार जीवकाण्ड में देव का स्वरूप कहते हुए आचार्य नेमिचन्द्र जी स्पष्ट करते हैं - दिव्वंति जदो णिच्चं गुणेहि अट्ठहि दिव्वभावेहिं । भासंत दिव्व काया तम्हा ते वण्णिया देवा।।१५१।। अर्थ- जिस कारण से जो जीव नित्य- निरन्तर कुलाचल, महासमुद्र आदि में 'दीव्यन्ति' अर्थात् क्रीड़ा करते हैं, मत्त होते हैं, कामाविष्ट होते हैं, अणिमा आदि . आठ अमानवीय गुणों से युक्त होते हैं तथा धातुमल दोष से रहित मनोहर शरीरों से . जो भासमान हैं, वे जीव परमागम में देव कहे गये हैं। । १९१।। देवगति में मानसिक दुःख दगुण महड्डीणं देवाणं ठिइज्जरिद्धिमाहप्पं । अप्पड्डिओ विसूरइ माणसदुक्खेण डझंतो।। १९२।। हा मणुयभवे उप्पज्जिऊण तव-संजमं विलद्भूण। मायाए जं वि कयं देव दुग्गयं तेण संपत्तो।।१९३।। अन्वयार्थ- (महड्डीणं देवाणं) महर्द्धिक देवों की, (ठिइज्जरिद्धिमाहप्पं) स्थिति जनित रिद्धि के माहात्म्य को, (दट्ठण) देखकर, (अप्पटिओ) अल्पऋद्धि वाला देव, (माणसदुक्खेण) मानसिक दुःख से, (डझंतो) जलता हुआ, (विसूरइ) विसूरता रहता है। (और सोचता है), (हा) हाय! (मणुयभवे) मनुष्य भव में, (उप्पज्जिऊण) उत्पन्न होकर, (तव-संजमं विलखूण) तप-संयम को भी ग्रहण कर, (मायाए) माया से, (जं वि कयं) जो भी किया, (तेण) उससे, (देव दुग्गयं) देव दुर्गति को, (संपत्तो) प्राप्त हुआ हूँ। विशेषार्थ- देव पर्याय में महान ऋद्धि, ऐश्वर्य, वैभव वाले देवों को देखकर तथा उन्हें अधिक स्थिति जनित उत्तमोत्तम ऋद्धियों वाला जानकर अल्प ऋद्धि वाला देव अन्दर ही अन्दर मानसिक ताप से जलता है तथा विसूरता (झूरता) रहता है अर्थात् उसकी एक अकथनीय काषायिक स्थिति बन जाती है। कदाचित् वह सोचता है कि अब व्यर्थ में ईर्ष्या, मान अथवा मत्सर करने से क्या फायदा क्योंकि यह सब मेरे पूर्व कृत मायाचार का ही फल है। हाय! मुझे धिक्कार हो जो मैंने मनुष्य भव पाकर उसमें, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (१७९) आचार्य वसुनन्दि) भी महादुर्लभ तप-संयम प्राप्त कर उसका मायाचार पूर्वक पालन किया जिसके कारण से मेरी देव दुर्गति हुई है, अगर में तप-संयम का अच्छी तरह से पालन करता तो अवश्य ही ऊँचा देव होता।। १९२-१९३ ।। देवों की नीच जातियाँ कंदप्य किन्भिसासुर-वाहण-सम्मोह देवजाईसु। जावज्जीवं णिवसइ विसहंतो माणसं दुक्खं ।। १९४।। अन्वयार्थ– (कंदप्प किन्भिसासुर-वाहण-सम्मोह देवजाईसु) कन्दर्प, किल्विषिक, असुर, वाहन, सम्मोहन आदि देव जातियों में, (माणसं दुक्खं) मानसिक दुःख, (विसहंतो) सहन करता हुआ, (जावज्जीव) जीवनपर्यन्त, (णिवसइ) निवास करता है। अर्थ- कन्दर्प, किल्विंषिक, असुर, वाहन, सम्मोहन आदि देव जातियों में मानसिक दुःख सहन करता हुआ, जीवन पर्यन्त निवास करता है। ___व्याख्या- कन्दर्प, किल्विषक, असुर, वाहन, सम्मोहन आदि देवों की जातियों में महान मानसिक दुःखों को सहन करता हुआ कोई देव जीवनपर्यन्त निवास करता है। अब क्रमश: इनके सम्बन्ध में कुछ स्पष्ट करते हैं - . कन्दर्प- कन्दर्प शब्द में 'कातंत्त-रूपमाला' के। पुष्यतिययोर्नक्षत्रे।। ४९६।। सूत्र से 'इकण्' प्रत्यय लगकर इन देवों की जाति का नाम कान्दर्पिक हो जाता है। यह देव भूलोक के भाँड़ों (नपुंसकों) की तरह तरह हँसी-मजाक और चेष्टायें करने वाले होते हैं। वास्तविकता में स्वर्ग में नपुंसक लिंग नहीं होता है। किल्विषिक- अन्त्यवासी अर्थात् गांव के बाहर रहने वाले भंगी आदि के समान स्वर्ग में जो देव होते हैं, वे किल्विषिक कहलाते हैं। किल्बिष (पाप) जिसके हो वह किल्विषिक कहलाता है। ये इन्द्र की सभाओं में प्रवेश नहीं कर सकते। ___ इसी को आचार्य अकलंक भट्ट के शब्दों में देखिये - ‘अन्त्यवासिस्थानीयाः किल्विषिकाः।१०। किल्विषं पापं तदेषामस्तीति किल्विषिका: ते अन्त्यवासिस्थानीया मताः। (अ० ४, सूत्र ४, तत्त्वार्थराजवार्तिक)। ___असुर- आचार्य अकलंक के अनुसार- ‘असुरनामकर्मोदयादसुराः।। २ ।। देवगति नामकर्मविकल्पस्यासुरत्वसंवर्तनस्य कर्मण उदयादस्यन्ति परानित्यासुराः। (३/५ रा०) अर्थात् असुर नामकर्म के उदय से असुर होते हैं। असुरत्व संवर्तन देवगति नामकर्म के विकल्प कर्म के उदय से दूसरों को दुःख देते हैं, वे असुर कहलाते हैं। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८०) आचार्य वसुनन्दि) वाहन- आचार्य अकलंक के अनुसार – अभियोग्या दाससमानाः । ९ । यथेह दासा वाहनादि व्यापारं कुर्वन्ति तथा तत्राऽऽभियोग्या वाहनादिभावेनोपकुर्वन्ति। (४/४) अर्थात् जो दासों के समान होते हैं वे अभियोग्य देव कहलाते हैं। जैसे यहाँ पर दास लोग वाहन आदि के द्वारा व्यापार (क्रियाएं) करते हैं उसी प्रकार स्वर्गों में आभियोग्य जाति के देव वाहन आदि के द्वारा इन्द्रादि देवों का उपकार करते हैं। अभिमुख्य (सेवामुख्य) के योग अभियोग कहलाते हैं। अभियोग में होने वाले आभियोग्य कहलाते हैं। यह देव मुख्यत: वाहन आदि विक्रिया करते हैं, अत: इन्हें ही वाहन जाति के देव कहते हैं। सम्मोहन-यह भी देवों की एक जाति है। यह देव नृत्य-गान कर दूसरों को मोहित आकर्षित करके आनन्द मानते है। इनके हाव-भाव विदूषकों जैसे रहते है।।१९४।। मरण के चिह्न, व्याकुलता एवं अशरणता छम्मासाउयसेसे वत्थाहरणाइं हुंति .मलिणाई। णाऊण चवणकालं अहिययरं रुयइ सोगेंण।।१९५।। हा हा कह णिल्लोए' किमिकुलभरियम्मि अइदुगंधम्मि। णवमासं-पूइ-रुहिराउलम्मि गन्मम्मि वसियव्व।। १९६।। किं करमि' कत्थ वच्चमि कस्स साहामि जामि कं शरणं। ण वि अत्थि एत्थ बंधू जो मे धारेइ णिवडतं।।१९७।। वज्जाउहो३ महप्पा एरावण-वाहणो सुरिंदो वि। जावज्जीवं सो सेविओ वि ण घरेइ मं तह वि।।१९८।। ___ अन्वयार्थ- (देवगति में), (छम्मासाउयसेसे) छह माह आयु शेष रहने पर, (वत्थाहरणाई) वस्त्राभूषण, (मलिणाई) मलिन, (हुति) हो जाते हैं (तब), (चवणकालं) च्यवन काल को, (णाऊण) जानकर, (सोगेण) शोक से, (अहिययरं) और भी अधिक, (रुयइ) रोता है। (हा हा) हाय! हाय! (णिल्लोए) नृलोक में, (किमिकुलभरियम्मि) कृमि कुल-भरित, (अइदुगंधम्मि) अति दुर्गन्धित, (पूइ-रुहिराउलम्मि) पीप और खून से व्याप्त, (गब्मम्मि) गर्भ में, (णवमासं) नौ माह, (वसियव्वं) रहूंगा। (किं करमि) मैं क्या करूं?, (कत्थ वच्चमि) कहा जाऊँ, (कस्स साहामि) किसको प्रसन्न करु, (कं शरणं जामि) किसकी शरण में जाऊँ?, २. इ. करम्मि. १. नृलोके. ३. वज्रायुधः. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१८१) आचार्य वसुनन्दि (मे) मेरा, (एत्य वि बंधूण अस्थि) ऐसा बन्धु नहीं है, (जो णिवणंत) जो गिरते हुए (मुझे ), ( धारेई) बचा सके।, ( वज्जाउहो) बज्रायुध, (महप्पा) महात्मा, (एरावण-वाहणो ) ऐरावत हाथी की सवारी वाला (और), (जावज्जीवं सो सेविओ) जीवनपर्यन्त जिसकी सेवा की है, (तहवि) ऐसा, (सुरिंदोवि) सुरेन्द्र भी, (मं) मुझे, (ण धरेइ) नहीं रख सकता है। भावार्थ- देवगति में छह माह मात्र जीवन काल शेष बचने पर देवों को अपना मरण काल समझ में आने लगता है। उनके वस्त्र और आभूषण मैले अर्थात् कान्तिरहित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह मिथ्यादृष्टि देव अपना मरण काल निकट समझ कर शोक से और भी अधिक रोता है । और कहता है कि हाय ! हाय! अब मैं मरण कर मनुष्य लोक में कृमियों के समूह से भरे, अतिदुर्गन्धित, पीप और खून से व्याप्त गर्भ में नौ माह तक रहूंगा। वह देव व्याकुलित होता हुआ सोचता है - अब मैं क्या करूँ, कहां जाऊं; किससे कहूं, किसको प्रसन्न करूँ, किसकी शरण में जाऊँ? जो मुझे भयावह दुर्गन्धित गर्भवास से बचा ले। यहां पर कोई मेरा ऐसा मित्र भी तो नहीं है, जो यहाँ से गिरते हुए मुझे बचा सके। वज्रदण्ड जिसका हथियार है, महान शक्ति सम्पन्न, ऐश्वर्ययुक्त आत्मा है, ऐरावत हाथी पर सवारी करता है तथा जिसकी मैंने जीवनभर सेवा की है, ऐसा देवों का स्वामी इन्द्र भी मुझे अब और समय के लिए यहां नहीं रख सकता है। मुझे बचाने में अब कोई भी समर्थ नहीं है। । १९५-१९८।। मरणकाल में देवों की विवशता जड़ मे होहिहि मरणं ता होज्जउ किंतु मे समुप्पत्ती । एगिदिएसु जाइज्जा णो मणुस्सेसु कइया वि । । १९९ । । अहवा किं कुणइ पुराज्जियम्मि उदयागयम्मि कम्मम्मि | सक्को वि जदो ण तरइ अप्पाणं रक्खिउं काले । । २०० ।। अन्वयार्थ - (जइ) यदि, (मे मरणं होहिहि ) मेरा मरण हो, (तो होज्जउ) तो होवे, (किंतु) किन्तु, (मे समुप्पत्ति) मेरी उत्पत्ति, (एगिंदिएसु) एकेन्द्रियों में, (जाइज्जा) होवे, (मणुस्सेसु) मनुष्यों में, (कइया वि ण) कभी भी न होवे। (अहवा) अथवा, (किं कुणइ) क्या करूँ, (पुराज्जियम्मि) पूर्वोपार्जित, (कम्मम्मि) कर्म के, (उदयागयम्मि) उदय आने पर, (जदो) जब (सक्को वि) इन्द्र भी, (अप्पाणं रक्ख काले) अपने रक्षा के समय में, (तरइ ण) समर्थ नहीं ! ! | भावार्थ— जिसका आयुष्य छह मास या इससे कम का बचा है ऐसा देव रोता-विलखता हुआ विभिन्न प्रकार के संकल्प - विकल्प करता है और गर्भवास के दुःखों Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८२) आचार्य वसुनन्दि से भयभीत होकर सोचता है कि यदि मेरा मरण हो तो हो जावे, किन्तु उत्पत्ति मनुष्यों अथवा गर्भजों में न होवे भले ही एकेन्द्रियों में हो जावे। अथवा कोई देव सोचता है कि अब क्या किया जा सकता है, मरना तो है ही और जो कर्म किये है उनका भी फल भोगना पड़ेगा; क्योंकि जब पूर्वोपार्जित कर्म उदय में आता है तब इन्द्र भी मरणकाल में अथवा अन्य आपत्ति काल में अपनी रक्षा करने में समर्थ नहीं होता, फिर मुझ जैसे तुच्छ देवों की शक्ति ही क्या है। आत्मानुशासन में आचार्य गुणभद्र लिखते हैं - नेता यत्र बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुरा सैनिकाः। स्वगों दुर्गमनुग्रहः खलु हरेरैरावणो वारण:।। द्रव्याश्चर्यवलान्वितोऽपि बलभिद्रग्नः परैः सङ्गरे । तद्व्यक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग्धिग्वृथा पौरुषम्।।३२।। अर्थात् जिसका मन्त्री बृहस्पति था, शस्त्र वज्र था, सैनिक देव थे, दुर्ग (किला) स्वर्ग था, हाथी ऐरावण था, तथा जिसके ऊपर विष्णु (त्रिलोकदर्शी तीर्थङ्कर) का अनुग्रह था; इस प्रकार अद्भुत बल से संयुक्त वह इन्द्र भी युद्ध में दैत्यों (मृत्यु आदि) के द्वारा पराजित हुआ। इसलिए यह स्पष्ट है कि निश्चय से दैव (भाग्यकर्म) ही प्राणी का रक्षक है, पुरुषार्थ व्यर्थ है, ऐसे पुरुषार्थ को बार-बार धिक्कार है।।१९९-२००।। देव निदान से एकेन्द्रिय होते हैं एवं बहुप्पयारं सरणविरहिओ खरं विलवमाणो। एइंदिएसु जायइ मरिऊण तओं णियाणेण।। २०१।। . अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (सरणविरहिओ) शरण रहित होकर (वह देव), (बहुप्पयारं) बहुत प्रकार के, (खरं) करुण, (विलवमाणो) विलाप करता हुआ, (णियाणेण) निदान से, (तओ मरिऊण) वहाँ से मरकर, (एइंदिएसु) एकेन्द्रियों में, (जायइ) उत्पन्न होता है। भावार्थ- ऊपर कहे हुए कथनानुसार शरण रहित होकर वह देव अपने को निःसहाय जानकर विभिन्न प्रकार के करुण विलाप करता है, रोता है, चिल्लाता है और अत्यन्त दुःखित होता हुआ निदान के फल से एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है। एकेन्द्रियों में पृथ्वी, जल, और वनस्पति में उत्पन्न होता है अग्नि और वायु में उत्पन्न नहीं होता।।२०१।। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८३) आचार्य वसुनन्दि) मिथ्यात्व दुःख का कारण तत्थ वि अणंतकालं किलिस्समाणो सहेइ बहुदुक्खं । मिच्छसंसियमई जीवो किं किं दुक्खं ण पाविज्जइ२।। २०२।। अन्वयार्थ– (तत्थ वि) वहां पर भी, (अणंतकालं) अनन्तकाल तक, (किलिस्समाणो) दुःख पाता हुआ, (बहुदुक्खं) बहुत दुःखों को, (सहेइ) सहन करता है (वास्तव में), (मिच्छत्तसंसियमई जीवो) मिथ्यात्व से संसक्त बुद्धि वाला जीव, (किं किं) क्या-क्या, (दुक्खं) दुःख को, (ण) नहीं, (पाविज्जइ) पाता है। भावार्थ- एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर वहाँ पर भी वह जीव अनन्तकाल तक दुःख पाता हुआ भयङ्कर दुःखों को सहन करता है। सच बात तो यह है कि मिथ्यात्व से संसक्त बुद्धि वाला जीव किन-किन दुःखों को नहीं पाता अर्थात् सभी दुःखों को पाता है। .. जिसकी बुद्धि मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान से युक्त है ऐसे ही जीव संसार के भयंकर से भयंकर दुःखों को पाते हैं सम्यग्दृष्टि जीव तो अल्प काल में ही दुःखों से छूट जाता है। मिथ्यात्व को दुःख का कारण बताते हुए आचार्य समन्तभद्र कहते हैं न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यत्तनूभृताम् । ।र० श्रा०३४।। अर्थात् शरीरधारी जीवों को तीनों लोकों एवं तीनों कालों में सम्यक्त्व के समान अन्य कोई भी सुखकारक नहीं है। तथा मिथ्यात्व के समान कोई भी वस्तु दुःखकारक नहीं है। अत: दुःख के आधारभूत मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए।। २०२ ।। - संसारवास को धिक्कार है पिच्छह दिव्वे भोए जीवो भोत्तूण देव लोयम्मि। एइंदिएसु जायइ धिगत्यु संसार वासस्स।। २०३।। अन्वयार्थ-(पिच्छह) देखो! (देवलोयम्मि) देवलोक में, (दिव्वे भोए) दिव्य भोगों को, (भोत्तूण) भोगकर, (जीवो) (यह) जीव, (एइंदिएस) एकेन्द्रियों में, (जायइ) उत्पन्न होता है, (ऐसे), (संसार वासस्स) संसार-वास को, (धिगत्थु) धिक्कार है। . १. ब. पुतौ 'दुक्खं पाहो नास्ति. २. ३. प. पेच्छह. ४. झ. पाविज्जा, प. पापिज्ज. ब. धिगत्थ. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८४) आचार्य वसुनन्दि भावार्थ- संसार भी कितना विचित्र है। देखो ! जो देव पुण्योदय से देवलोक में विभिन्न प्रकार के भोगोपभोग से उत्पन्न सुखों को भोगता रहा वही देव पापोदय से मरणकाल में दिव्य-भोगों से दूर हो जाता है फलस्वरुप खोटे परिणामों से मरण कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है। ऐसे संसार वास को धिक्कार हो । इस गाथा का विशिष्ट खुलासा आचार्य गुणभद्र के " तत्त्वानुशासन' में देखें । वहाँ पर आचार्यश्री ने मनुष्य जीवन, संसार दुःख, स्त्रीसंगति पतन का कारण आदि कई विषयों पर विशद प्रकाश डाला है। व्यसनों से बहुत प्रकार के दुःख एवं बहुप्पयारं दुक्खं संसार सायरे घोरे । जीवो सरण - विहीणो विसणस्स फलेण पाउणइ । । २०४ । । अन्वयार्थ – (एवं) इस प्रकार, (बहुप्पयारं) बहुत प्रकार के, (दुक्ख) दुक्खों को, (घोरे संसार सायरे) घोर संसार - सागर में (यह), (जीवो) जीव, (सरण विहीणी) शरण रहित होकर, (विसणस्स) व्यसन के, (फलेण) फल से, ( पाउणइ) प्राप्त होता है। भावार्थ - उपरोक्त कथित प्रकार के अनेक प्रकार के दुःखों को यह जीव व्यसनों के फलस्वरूप ही पाता है। यहाँ ग्रन्थकार ने तो संक्षेप में वर्णन किया ही है। ग्रन्थ विस्तार के भय से मैंने भी विस्तार नहीं किया है। आचार्यश्री यहाँ पर सिर्फ एक तथ्य रखना चाहते है कि संसार में जितने प्रकार दुःख हैं वे सभी व्यसनों के ही दुष्परिणाम हैं। के Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुंनन्दि-श्रावकाचार (१८५) आचार्य वसुनन्दि) ग्यारह प्रतिमा वर्णन दर्शन प्रतिमा वर्णन पंचुंबर-सहियाइं परिहरेइ इय' जो सत्त विसणाई। सम्मत्त-विशुद्धमई सो दंसण-सावओ भणिओ ।।२०५।।२ अन्वयार्थ- (जो) जो, (सम्मत्त-विशुद्धमई) सम्यग्दर्शन से विशुद्ध बुद्धि वाला जीव, (इय) इन, (पंचुंबर-सहियाई) पांच उदुम्बर सहित, (सत्त विसणाई) सप्त व्यसनों का, (परिहरइ) त्याग करता है, (सो) वह, (दसण-सावओ) दर्शन श्रावक, (भणिओ) कहा गया है। . ___ अर्थ- जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध बुद्धि वाला जीव इन पाँच उदुम्बर सहित सप्त व्यसनों का त्याग करता है, वह दर्शन श्रावक कहा गया है। व्याख्या- यहाँ पर श्रावकों के ग्यारह स्थानों में से प्रथम स्थान का लक्षण प्रस्तुत किया गया है। शङ्का- कुछ शब्द भेद के साथ यही गाथा क्रमांक ५७ पर आई है। अब हमारे सामने द्विविधा यह है कि किस गाथा को दर्शन प्रतिमा का लक्षण माने, अगर एक को दर्शन प्रतिमा का लक्षण मान लें तो दूसरी गाथा व्यर्थ ठहरती है? ___ समाधान- दोनों गाथायें अपने स्थान पर ठीक हैं। गाथा क्र० ५७ पर जो पांच • उदुम्बर फल और सप्त व्यसनों को छोड़ने की बात आई है, अधिक सम्भव है। वह आचार्य ने आठ मूलगुणों की दृष्टि से ही कही हो। जैसाकि उनके परवर्ती विद्वान् पण्डित आशाधर जी ने लिखा है - मद्य-पल-मधु निशासन-पञ्चफलीविरति-पञ्चकाप्तनुती। जीवदया जल गालनमिति च क्वचिदष्ट मूलगुणाः।।१८।।सा. ध./द्वि.अ. ।। अर्थ- मद्य का त्याग, मांस का त्याग, मधु का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, त्रिकाल देव वन्दना, जीव दया और छने पानी का उपयोग ये आठ मूलगुण किसी शास्त्र में कहे हैं। प्रस्तुत श्लोक में पञ्चफलों अथवा पञ्चोदुम्बरों फलों को अलग-अलग पांच गणना १. प.ध. प्रत्यो: इय पदं गाथारम्भेऽस्ति। उदुंबराणि पंचैव सप्त च व्यसनान्यपि। वर्जयेद्यः सः सागारो भवेदार्शनिकाह्वयः।।११२।। - गुण. श्रा. ।। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८६) आचार्य वसुनन्दि में न गिनकर एक में ही गिना है। इस दृष्टि से सम्भव है ग्रन्थकार ने पांच उदुम्बर फलों को क्रम संख्या एक पर रखकर और सप्त व्यसनों को क्रमश: २ से ७ क्रम पर रखकर कुल आठ मूल गुणों को प्रस्तुत किया हो। दीर्घ दृष्टि से देखने पर सात व्यसन और पञ्चफलों के त्याग करने पर मद्य, मांस, मधु का त्याग स्वत: हो जाता है फलत: उनके त्याग से अहिंसाणुव्रत का, चोरी के त्याग से अचौर्याणुव्रत का, परस्त्री एवं वेश्या के त्याग से ब्रह्मचर्याणुव्रत का और जुआ के त्याग से परिग्रहपरमाणाणुव्रत आदि का पालन होता है। अगर कहा जावे कि उन्होंने वहाँ अष्टमूलगुण नहीं गिनाये हैं? तो सम्भव है स्वामिकार्तिकेय की तरह उन्होंने भी श्रावकों के बारह भेद ग्रहण किये.हों और पूर्वोक्त गाथा में दर्शन प्रतिमा का पूर्व रूप अथवा सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए पंचोदुम्बर और सप्त व्यसनों का त्याग तो बताया हो, किन्तु उसमें भी ढील रखी हो। गाथा में आगत 'वि' शब्द भी कुछ रहस्य-सा छोड़ता है। देखिये कार्तिकेयानुप्रेक्षा में आगत बारह स्थानों के नाम - सम्मइंसण-सुद्धो रहिओ-मज्जाइ-थूल-दोसेहिं। वय-धारी सामाइउ पव्व-वई पासुयाहारी ।।३०५।। . राई-भोयण विरओ मेहुण सारंभ संग चत्तो य । कज्जाणुमोय विरओ उद्दिट्टाहार विरदो य ।।३०६ ।। अर्थ- शुद्धसम्यग्दृष्टि-मद्य आदि स्थूल दोषों से रहित सम्यग्दृष्टि, व्रतधारी, सामायिकव्रती, पर्वव्रती, प्रासुकाहारी, रात्रिभोजन त्यागी, मैथुनत्यागी, आरम्भत्यागी, परिग्रहत्यागी, कार्यानुमोदविरत और उद्दिष्टआहार विरत, ये श्रावकधर्म के बारह भेद हैं। प्रस्तुत गाथाओं के टीकाकार आचार्य शुभचन्द्र प्रथम स्थान अर्थात् शुद्ध . सम्यग्दृष्टि की व्याख्या करते हुए लिखते है - मूढवयं मदाचाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शंकांदयश्चैते दृग्दोषाः पञ्चविंशति ।। इति पंचविंशतिमलरहितोऽसम्यग्दृष्टि । अर्थ- तीन मूढ़ताओं, आठ मद, षट् आयतन और आठ शंकादि दोष यह सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं इनसे रहित सम्यग्दृष्टि होता है। दूसरे स्थान अर्थात् दर्शन प्रतिमा का लक्षण निरूपित करते हुए लिखते हैं - Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. वसुनन्दि- श्रावकाचार (१८७) आचार्य वसुनन्दि द्वितीय मद्यादिस्थूलदोषै रहितः मद्यादयः मद्यमांसमधूनि पञ्चोदुम्बरादि सजंतुफलानि । द्यूतं मांसं सुरावेश्या पापर्द्धिः परदारता। स्तेयेनसह सप्तेति व्यसनानि विदूरयेत्।। कन्दमूलपत्रशाकासनचर्मपात्रगतघृततैलजलहिंग्वादीनि च वै रहित: । अर्थ — मद्य, मांस, मधु, पांच उदुम्बर फल और जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, परस्त्री और चोरी- इन सात व्यसनों का त्यागी शुद्ध, सम्यग्दृष्टि दूसरा भेद है। (प्रसंगवश इन दो स्थानों की चर्चा की है) । - इस सम्बन्ध में चारित्रपाहुड गाथा क्रं० २१ की श्रुतसागरी टीका एवं कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा क्र० २०५ - ६ की शुभचन्दाचार्य की टीका विशेष द्रष्टव्य है। आचार्य वसुनन्दि ने भी सम्भवत: इसी कथन शैली का अनुशरण किया है और गाथा क्र० ५७ को कुछ ढीला छोड़ा है। इस गाथा में अष्टमूलगुणों का वर्णन है इस विषय को भी नकारा नहीं जा सकता; क्योंकि विभिन्न आचार्यों ने मूलगुणों के नाम विभिन्न प्रकार से प्रस्तुत किये हैं। प्रस्तुत हैं कुछ आचार्यों के मत— मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणु व्रतपञ्चकंम्। अष्टौर्मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा। ।रत्न०श्रा०६६।। मधुमांसपर्रित्यागः पञ्चचोदुम्बर वर्जनम् । हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् । । महापुराण, ३८ / १२२ ।। मद्यं मासं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।। पुरुषार्थ सि०६१।। त्याज्यं मांसं च मद्यं च मधूदुम्बरपंचकम्। अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ता गृहिणो दृष्टिपूर्वकाः । । पद्म० पञ्च०६/२३ ।। हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसान्मद्याद्विरतिर्गृहिणोष्ट सन्त्यमीमूलगुणः ।। चारित्रसार ३ ।। मद्यमांसमधुरात्रिभोजनं क्षीरवृक्षफलवर्जनं त्रिधा । कुर्वते व्रतजिघ्रक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते व्रतम् ।। अमित० श्रा०५/१ ।। मद्यमांसमधुत्याग संयुक्ताणुव्रतानि नुः । अष्टौमूलगुणः पञ्चोदुम्बरैश्चार्यकेष्वपि।।रत्नमाला-शिवकोटि।। तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम्। क्वचिदव्रतिनां यस्मात् सर्वसाधारण : इमे ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८८) निसर्गाद्वाकुलाम्नायादायादास्ते गुणः स्फुटम्। तद्विना न व्रतं यावत् सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् । आचार्य वसुनन्दि एतावताविनाप्येषः श्रावको नास्ति नामतः । किं पुनः पाक्षिको गूढो नैष्टिकोऽथवा ।। मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बरपञ्चकः । नामतः श्रावकः ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही । । पञ्चाध्यायी, ३ / ७२३-७२३।। इस प्रकार कई विद्वान् आचार्यों की शिक्षा प्रणाली भिन्न भिन्न रही है। चूंकि जितने भी प्रकार से मूलगुणों का वर्णन किया गया है अगर उन सभी का तुलनात्मक अध्ययन करें तो निष्कर्ष एक ही आयेगा कि प्राणियों को पापों से बचना चाहिए और पुण्य कार्य करना चाहिए। अत: प्रत्येक पद्धति से कहे गये आठ मूलगुण हम सभी को श्रद्धा से स्वीकार होना चाहिए। शङ्का - सभी आचार्यों ने मूलगुणों की संख्या तो आठ गिनाई है, किन्तु नामों में वैषम्य है, क्यों ? • समाधान- भवभीरु दिगम्बराचार्य तीर्थङ्कर वाणी के प्रसारक और अनेकान्त प्रेमी होते हैं। वे स्वयं सतत् सावधान रहते है कि कहीं उनके वचनों से विषय प्ररूपणा में प्रस्खलन न हो जावे, इसके लिए वे सतत् सजग रहते हुए, तीर्थङ्करों और परम्पराचार्यों की वाणी का प्रचार एवं प्रसार करते है । अत: हमें आचार्यों की वाणी भी तीर्थङ्कर की वाणी के समान मानकर उस पर श्रद्धान करना चाहिए। हमारे कोई भी आचार्य एकान्तवादी अथवा हठाग्रही नहीं हुए। और इसलिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों को देखते हुए उन्होंने सिद्धान्तों को सुरक्षित रखते हुए जन-जीवन हितार्थ आचरणगत सूत्रों का संवर्तन-संवर्द्धन और परिवर्तन भी किया। उन्होंने अपने काल में प्राणियों की जिन बुरी आदतों, खोटे विचारों अथवा कुत्सित आचरणों की ओर दृष्टि देखी उसे ही उन्होंने 'अष्टमूलगुण' के रूप में प्रस्तुत किया । आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी तक किसी भी आचार्य ने श्रावक के आठ मूलगुणों का स्पष्ट विवेचन नहीं किया है। आठ मूलगुणों का सबसे प्राचीन प्रकरण सर्वश्रेष्ठ तार्किक आचार्य समन्तभद्र की कृतिरत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्राप्त होता है। आपके बाद कई आचार्यों ने अष्टमूलगुणों का प्ररूपण किया है। उपरोक्त अष्टमूलगुणों की कथन पद्धति देखने से बहुत विवक्षाओं से एक कथ की शैली अर्थात् स्याद्वाद की पुष्टि होती है। आचार्य उमास्वामी का सूत्र 'अर्पितानर्पित सिद्धेः'।। त०सू० ५/३२ ।। अर्थात् मुख्यतः और गौणता की अपेक्षा एक वस्तु में विरोधी मालूम पढ़ने वाले दो धर्मों की सिद्धि होती है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८९) आचार्य वसुनन्दि इस सम्बन्ध में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - विधिनिषेधश्च कथश्चिदिष्टौ विवक्षया मुख्य गुणव्यवस्था। इति प्रणीति सुमतेस्तवेयं मतिप्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ।। . स्वयंभूस्त्रोत, ५/१ ।। अर्थ- अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही किसी अपेक्षा से इष्ट हैं। वक्ता की इच्छा से उनमें मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है। इस तरह यह तत्त्व निरुपण की पद्धति आप सुमतिनाथ स्वामी की है। हे स्वामिन्! आपकी स्तुति करते हुए मुझे मति का उत्कर्ष होवे। .. आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में लिखते हैं - एकेनाकर्षन्ती . श्लथयंती वस्तुतत्त्वमितरेण। अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मथान नेत्रमिव गोपी।।२२५।। अर्थ- जिस प्रकार ग्वालिन दही को विलोती हुई एक रस्सी को अपनी ओर खींचती है दूसरी रस्सी को ढीला करती है। उसी तरह जिनेन्द्र देव की स्याद्वाद नीति वस्तु के स्वरूप को एक सम्यग्दर्शन से अपनी ओर खींचती है, दूसरे सम्यग्ज्ञान से ढीला करती है और अन्तिम सम्यक्चारित्र से परमात्म प्राप्ति की सिद्धि करती है। .. जैनागम में जहाँ कहीं भी परस्पर विरुद्ध अथवा अन्तर वाला कथन पाया जाये जानना चाहिये कि वहाँ इसी स्याद्वाद शैली का अवतरण किया गया है। .. मूलगुणों की संख्या में एकत्व और कथन में वैषम्य इस स्याद्वाद नीति का प्रस्तुत उदाहरण है। परमोदार चरित हमारे पूज्य आचायों ने तत्कालीन समाज में जिन कमियों/त्रुटियों को पाया अथवा निज मार्ग से पतित होते भोले प्राणियों को देखा तो उन्होंने उसे इस रूप में सम्बोधित किया कि समाज निज आचरणों को जाने और मानें। कभी भी किसी भी आचार्य की हठाग्रहता नहीं रही। - निष्कर्षत: हम कह सकते है कि गाथा क्र० ५७ में आठ मूल गुणों का अथवा बारह स्थानों में से प्रथम स्थान का कथन किया गया है। यहां प्रस्तुत गाथा में शुद्ध रूप से प्रथम प्रतिमा (दर्शन प्रतिमा) का कथन किया गया है।।२०५।। दर्शन प्रतिमा का उपसंहार एवं दंसणसावयठाणं पढमं समासओ भणियं। वय सावयगुण ठाणं एत्तो विदियं पवक्खामि।।२०६।। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९०) आचार्य वसुनन्दि __ अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार से, (दंसणसावय पढमं ठाणं) दार्शनिक श्रावक का प्रथम स्थान, (समासओ) संक्षेप से, (भणिय) कहा, (एत्तो) इससे आगे, (वयसावयविदियं गुण ठाणं) व्रतिक श्रावक का दूसरा गुणस्थान, (पवक्खामि) कहता हूँ। भावार्थ- आचार्य यहाँ पर प्रथम प्रतिमा का उपसंसहार करते हुए कहते हैं कि मैं पाँच उदुम्बरफलों और सप्तव्यसनों के त्याग रूप प्रथम प्रतिमा स्थान का कथन करके अब आगे दूसरी प्रतिमा स्थान (गुणस्थान) का कथन करूँगा। यहाँ गुणस्थान से तात्पर्य द्वितीय प्रतिमान्तर्गत गुणों से है। . प्रस्तुत गाथा में यह स्पष्ट है कि उपरोक्त गाथा २०५ में दर्शन प्रतिमा का लक्षण. है। अब हम पुन: यह कह सकते है कि गाथा ५७ में आठ मूलगुणों का कथन मानना ही उचित लगता है।।२०६।। द्वितीय व्रत प्रतिमा वर्णन बारह व्रतों का निर्देश पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति पुण' तिण्णि। . सिक्खावदाणि चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि।।२०७।। अन्वयार्थ– (विदिय ठाणम्मि) द्वितीय स्थान में, (पंचेव अणुव्वयाइं) पांचों ही अणुव्रत (तिण्णि-गुणव्वयाइं) तीन गुणव्रत, (पुण) पुन:, (चत्तारि सिक्खावदाणि) चार शिक्षाव्रत, (हवंति) होते है (ऐसा), (जाण) जानो।' अर्थ- द्वितीय-स्थान में पाँचों ही अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। व्याख्या- प्रथम स्थान में पांच उदुम्बरफल और सप्तव्यसनों का प्रधानतया त्याग होता है। द्वितीय स्थान अर्थात् दूसरी व्रत प्रतिमा में अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह-परमाणाणुव्रत ये पांच अणुव्रत, दिग्व्रत, १. ब. तद (तह?). २. पंचधाणुव्रतं यस्य त्रिविधम् च गुण व्रतम्। शिक्षाव्रतं चतुर्धा स्यात्सः भवेत् व्रतिको यतिः।।१३०।।गणभू. श्रा० ।। पंचधाणुव्रतं त्रेधा गुणव्रतमगारिणाम्। शिक्षाव्रतं चतुर्थेति गुणा: स्युद्वादशोत्तरे।।४।। – सा.ध./अ. चार य. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१९१) आचार्य वसुनन्दि देशव्रत और अनर्थ दण्ड त्याग व्रत ये तीन गुण व्रत, भोगविरति, परिभोगविरति, अतिथि संविभाग और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत शामिल हैं। (५+३+४=१२) इन सभी गुणों का योग, बारह होता है; कहने का तात्पर्यदूसरी प्रतिमा में प्रधानतया बारह व्रत धारण किये जाते हैं। आचार्य अमितगति ने लिखा है मद्यादिभ्यो विरतैर्व्रतानि कार्याणि भक्तितो भव्यैः । द्वादशतसा छेत्तुं शस्त्राणि सितानि भववृक्षम् || अमि० श्रा०६/१/४ ।। अर्थ — मद्य आदि के त्यागी भव्य को बारह व्रत पालने चाहिए। ये संसार वृक्ष को छेदने के लिए तीक्ष्ण शस्त्र हैं। - सागार धर्मामृत (४/४) की स्वोपज्ञ टीका में पं० आशाधर जी लिखते हैं। महाव्रतापेक्षया लघुव्रतमहिंसादि । अस्य पञ्चधात्वं बहुमतत्वादिष्यते। क्वचित्तु रात्र्यभोजनमप्यणुव्रतमुच्यते। यथाह चारित्रसारे— बधादसत्याच्चौर्याच्च कामाद् ग्रन्थान्निवर्तनम्। पञ्चधाणुव्रतं रात्र्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम्।। गुणव्रतं गुणार्थमणुव्रतानामुपकारार्थं व्रतं, दिग्विरत्यादीनामणुव्रतानुवृंहणार्थत्वात्। शिक्षाव्रतं शिक्षायैः अभ्यासायव्रतम् । देशावकाशिकादीनां प्रतिदिवसाभ्यसनीयत्वात् । शिक्षा प्रधानं व्रतं शिक्षाव्रतं देशावकाशिकादेर्विशिष्टश्रुतज्ञानभावना परिणतत्वेनैव निर्वाह्यत्वात्। अर्थ — महाव्रत की अपेक्षा लघु अहिंसादि व्रतों को अणुव्रत कहते हैं। हिंसा आदि पांचों पापों का सर्वदेश त्याग महाव्रत और एकदेश त्याग अणुव्रत है। बहुत आचार्यों के मत से अणुव्रत पांच माने गये है। कहीं पर रात्रि भोजन त्याग को भी अणुव्रत कहा है, जैसे चारित्र सार में कहते हैं- वध से असत्य से, चोरी से, काम सेवन से, ग्रन्थ (परिग्रह) से अलग होना (यह) पांच अणुव्रत हैं। रात्रि भुक्ति त्याग छठवां अणुव्रत है। › गुणव्रत—गुण का अर्थ है उपकार, जो व्रत अणुव्रतों का उपकार करते हैं, उनकी वृद्धि में सहायक होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते है । शिक्षाव्रत, जो व्रत शिक्षा अर्थात् अभ्यास के लिए होते हैं उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं क्योंकि इनका अभ्यास प्रतिदिन किया जाता है इसी कारण से गुणव्रतों से शिक्षाव्रतों में भेद हैं। क्योंकि गुण व्रत प्रायः जीवनपर्यन्त के लिए होते हैं । अथवा शिक्षाप्रधान व्रत को शिक्षाव्रत कहते हैं अर्थात् जो विशिष्ट श्रुतज्ञान रूप भावना से परिणत होते हैं वे ही शिक्षाव्रतों का निर्वाह कर सकते हैं । । २०७ ।। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९२) आचार्य वसुनन्दि सामान्य से पंचाणुव्रतों का लक्षण निर्देश पाणाइवायविरई सच्चमदत्तस्स वज्जणं चेव। थूलयड बंभचेरं' इच्छाए गंथपरिमाणं ।। २०८।। अन्वयार्थ- (पाणाइवायविरई) प्राणातिपातविरति, (सच्चम्) सत्य, (अदत्तस्स) अदत्तवस्तु का, (वज्जणं) त्याग, (बंभचेरं) ब्रह्मचर्य, (च) और, (इच्छाएं) इच्छानुसार, (गंथपरिमाणं) ग्रन्थ परिमाण, (थूलयड) स्थूल व्रत हैं। अर्थ- प्राणातिपातविरति, सत्य और अदत्तवस्तु का त्याग तथा ब्रह्मचर्य और परिग्रह का परिमाण करना स्थूलव्रत है। व्याख्या- गाथा में आगत “थूलयड' अर्थात् स्थूलव्रत सभी व्रतों के साथ । जोड़ना हैं, जैसे- स्थूलप्राणातिपातविरतिव्रत, स्थूलसत्यव्रत, स्थूलअदत्तवस्तु वर्जनव्रत, स्थूलब्रह्मचर्यव्रत और इच्छानुसार परिग्रहपरिमाणव्रत यह पांच अणुव्रत हैं। दूसरे शब्दों में इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि स्थूल हिंसा का त्याग, स्थूल झूठ का त्याग, स्थूल चोरी का त्याग, स्वदारसन्तोष और सीमित परिग्रह रखना यह पाँच अणुव्रत हैं। स्थूल व्रत- स्थूल का अर्थ होता है मोटा। हिंसा आदि को स्थूल कहने के दो हेतु दिये हैं। प्रथम, चलते-फिरते दिखाई देते प्राणी की हिंसा स्थूल हिंसा है, क्योंकि जिसकी हिंसा की गयी वह स्थूल है सूक्ष्म नहीं। इसी तरह स्थूल झूठ बगैरह भी समझना चाहिए। दूसरा, ऐसी हिंसा झूठ आदि को साधारण लोग भी हिंसा, झूठ आदि कहते हैं। अत: उसके त्याग को स्थूल व्रत कहा है। सारांश यह है कि जिसे सामान्य लोग भी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह कहते हैं, उनका त्यांग अणुव्रती करता है। गृही श्रावक की आत्मशक्तियां इतनी विकसित नहीं होती कि वह सीधे महाव्रतों का पालन कर सके, अत: उसके लिए अणुव्रतों का उपदेश दिया गया है। आचार्य सोमदेव कहते हैं - "तद् व्रतमाचरितव्यं यत्र न संशयतुलामारोहत: शरीरमनसी।। नी०वा०९।। अर्थात् वह व्रत आचरण करना चाहिए जिससे शरीर और मन संशय की तराजू पर न चढ़ने पाये अर्थात् जिनके पालन से क्लेश न हो वे व्रत पालन करने चाहिये। चारायण मुनि ने भी कहा है - अशक्त्या य: शरीरस्य, व्रतं नियममेव वा। संक्लेश भवेत् पश्चात् पश्चातापात् फलच्युतिः।।यश०आ०७।। .. १. ब. बंभचेरो. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९३) आचार्य वसुनन्दि) अर्थ- जो मनुष्य शरीर की सामर्थ्य का विचार न कर व्रत का नियम करता है उसका मन संक्लेशित होता है। जिससे वह पश्चाताप करने लगता है और इससे पालन किये गये व्रत का फल नहीं मिलता है।" आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा। औत्सर्गिकी निवृत्तिर्विचित्ररुपापवादिकी त्वेषा ।।७६ ।। अर्थ- साधारणत: सर्वथा त्याग को उत्सर्ग त्याग कहते हैं। यह नौ प्रकार का होता है। मन से, वचन से, काय से, आप न करना, दूसरे से न कराना, और करने वाले को भला नहीं समझना। इन नौ भेदों में से किसी भेद का थोड़ा बहुत किसी प्रकार से त्याग करने को अपवाद कहते हैं। इसके बहुत भेद हैं। तात्पर्य यही है कि लिये गये नियम का सही रूप में पालन करो। शङ्का- पुराणों में कथन आता है कि चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े राजा भी अणुव्रतों का पालन करते थे, यह कैसे सम्भव है, क्योंकि उन्हें दण्ड आदि व्यवस्थायें रखनी ही पड़ती हैं। समाधानं- चक्रवर्ती अथवा धर्म प्रिय राजा निष्पक्ष होकर जो शत्रु और पुत्र को दण्ड देता है उसका वह दण्ड इस लोक की भी रक्षा करता है, क्योंकि उससे अपराध रुकते हैं और परलोक की भी रक्षा होती है। वह न्यायपूर्वक व्रतों में सावधानी रखते हुए अपनी पदवी और शक्ति के अनुसार शासन करता है। आचार्य जिनसेन महापुराण पर्व चौबीस (२४) में स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं - ततः सम्यक्त्वशुद्धिं च व्रतशुद्धिं च पुष्कलाम् । - निष्कलां भरतो भेजे परमानन्दमुद्वहन् ।।१६३ ।। स लेभे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शननायकाम्। व्रतशीलावलिं मुक्तेः कण्ठिकामिव निर्मलाम् ।।१६५ ।। ____अर्थ— 'भगवान् का उपदेश सुनने के बाद परमानन्द का अनुभव करते हुए भरत ने सम्पूर्ण सम्यक्त्व विशुद्धि और व्रतशुद्धि को समझा। तथा भगवान् की आराधना करके सम्यग्दर्शनपूर्वक व्रतशीलावली को जो मुक्ति की निर्मल कण्ठी के समान है, धारण किया। शान्तिनाथ पुराण में असग महाकवि ने अपराजित राजा के श्रावक धर्म स्वीकार करने का कथन किया है - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (१९४) जाततत्त्वरुचिः साक्षात्तत्राणुव्रतपञ्चकम् । भव्यतानुगृहीतत्वादगृहीदपराजितः ।। आचार्य वसुनन्दि अर्थ - भव्यत्वभाव के अनुग्रह से तत्त्वों में रूचि होने पर अपराजित राजा ने पांच अणुव्रतों को स्वीकार किया । इस प्रकार और भी कई कथन पुराणों में आते हैं, जिन सभी का तात्पर्य यही है कि व्रत धारण कर शक्ति भर उसका पालन करना चाहिये । अणुव्रतानि पञ्चैच त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारियेवं द्वादशधा व्रतम् । । रत्नमा० १४ । । अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानिं चत्वारि द्वादशेति गृहि व्रते । । पद्मनं० पं०६/२४।। इस प्रकार सामान्यतया व्रतों का स्वरूप कहा है ।। २०८ ।। अहिंसाणुव्रत का लक्षण जे तसकायाजीवा पुव्वुद्दिट्ठा ण हिंसियव्वा ते ' । ए. इंदिया विणिक्कारणेण पढमं वयं थूलं । । २०९।। अन्वयार्थ - (जे) जो, (तसकाया जीवा) त्रसकाय जीव, (पुष्बुद्दिट्ठा) पहले कहे गये हैं, (ते) वे, (ण हिंसियव्वा) नहीं मारने चाहिये (और), (णिक्कारणेण) विना प्रयोजन, (एइंदिया वि) एकेन्द्रिय जीवों को भी (नहीं मारना), (पढमं) प्रथम, (थूलवयं) स्थूल व्रत है। अर्थ — जो त्रसकायजीव पहले कहे गये हैं, वे नहीं मारने चाहिए और बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवों को भी नहीं मारना प्रथम स्थूलव्रत है। व्याख्या- जहां पर जीव द्रव्य का वर्णन किया है वहां पर त्रसकायिक आदि जीवों का भी कथन आ चुका है। वहां से सम्पूर्ण कथन को जानकर जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए। बिना प्रयोजन के एकेन्द्रिय जीवों को भी कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। यह पांच अणुव्रतों में प्रथम स्थूल व्रत अर्थात् अहिंसाणुव्रत है। कुछ प्रमुख आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट परिभाषायें प्रस्तुत हैं संकल्पात् कृतकारित मननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान्। न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलबधाद्विरमणं निपुणाः । । रत्न० श्रा०५३ ।। तसघादं जो ण करदि मणवयकायेहि णेव कारयदि । कुव्वंतं पि ण इच्छदि पढमवयं जायदे तस्स । । कार्त्तिकेयानु०३३८ ।। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९५) आचार्य वसुनन्दि धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तम्। स्थावर हिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ।। पुरुषार्थसि०७५ ।। शान्ताद्यष्टकषायस्य संकल्पैर्नवभिस्त्रसान्। अहिंसतो दयार्द्रस्य स्यादहिंसेत्यणुव्रतम् ।।सा० ध०४/७।। इन सभी श्लोकों का भाव स्पष्ट ही है। आगे आचार्य हेमचन्द्र का एक श्लोक इस विषय की पुष्टि में प्रस्तुत है - पङ्गु कुष्ठिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूणां हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ।।योगशास्त्र, २/१९/५।। ' अर्थ– हिंसा का फल पंगुपना, कुष्ठिपना, का नापना आदि देखकर बुद्धिमान् को निरपराध त्रस जन्तुओं की संकल्पी हिंसा छोड़ देनी चाहिए। आचार्य उमास्वामी कहते हैं - यत्कषायोदयात्प्राणि प्राणानां व्यपरोपणम् । न क्वापितदहिंसाख्य व्रत विश्व हितंकरम् ।।उमा० श्रा०,३३२।। अर्थ- कषाय के निमित्त से प्राणियों के प्राणों का व्यपरोपण करना हिंसा कहलाती है। इस प्रकार कषाय के निमित्त से किसी काल या किसी क्षेत्र में प्राणों का व्यपरोपण (वियोग) नहीं करना अहिंसां व्रत कहलाता है। यह अहिंसा व्रत समस्त लोक का हित करने वाला है। . .. आचार्य उमास्वामी का हिंसा के फल को दर्शाने वाला श्लोक हेमचन्द्र के श्लोक जैसा है, देखिये - विलोक्यानिष्टकुष्टित्वपङ्गुत्वादि फलं सुधीः । . सानां न क्वचित्कुर्यात् मनसापि हि हिंसनम् ।।उमा० श्रा०३३३।। त्रस जीवों की रक्षा के साथ-साथ एकेन्द्रियों की यथाशक्य रक्षा करने पर प्राय: सभी आचार्यों ने जोर दिया है। देखिये कुछ आचार्यों के मन्तव्य - भूपय:पवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम्। यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत् कुर्यादजन्तुजित् । ।सोमदेव., उपास० ३४७ स्तोकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम्। शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।। पु.सि. ७७।। यन्मुक्त्यङ्गमहिंसैव तन्मुमुक्षुरुपासकः । एकाक्षवधमप्युज्झेद्यः स्यानावयंभोगकृत।।११।। सा०५० Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९६) आचार्य वसुनन्दि इन श्लोकों का अर्थ मूल श्लोक के भावों पर है। आचार्य सोमदेव प्रवृत्ति सावधानी रखने को अपने ग्रन्थ में लिखते है "गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत्।” अर्थात् घर के सब काम देखभाल कर करना चाहिए। और भी देखिये - - आसनं शयनं यानं मार्गमन्यत्र तादृशम्। अदृष्टं तन्न सेवेत यथाकालं भजन्नपि । । सो० उपा० ३२२ ।। अर्थात् आसन् शय्या, मार्ग, अन्न तथा अन्य भी जो वस्तु हो, समय पर उसका उपयोग करते समय बिना देखे उपयोग नहीं करना चाहिए। इसी के भावों को पं० आशाधर जी के शब्दों में देखें इत्यनारम्भजां जह्याद्धिंसामारम्भजां प्रति । व्यर्थस्थावरहिंसावद्यतनासवहेद् गृही । । ४/१० । । गृही श्रावकों के लिए स्पष्ट निर्देश देते हुए पं० आशाधर आगे लिखते हैंगृहवासो विनारम्भान्न चारम्भो विना बधाद् । त्याज्यः स यत्नात्तन्मुख्यो दुस्त्यजस्त्वानुषङ्गिकः।।४/१२।। दुःखमुत्पद्यते जन्तोर्मनः संक्लिश्यतेऽस्यते। तत्पर्यायश्च यस्यां स हिंसाहेया प्रयत्नतः । ।४/१३।। अर्थ — गृहस्थाश्रम आरम्भ के बिना सम्भव नहीं और आरम्भ हिंसा के बिना होता नहीं। इसलिए जो मुख्य संकल्पी हिंसा है उसे सावधानतापूर्वक छोड़ना चाहिए। जीविका मूलक कृषि आदि के आरम्भ से उत्पन्न हिंसा छोड़ना अधिक शक्य नहीं है। जिस हिंसा में जीव को दु:ख उत्पन्न होता है, उसके मन में संक्लेश होता है, और उसकी वर्तमान् पर्याय छूट जाती है उस हिंसा को पूरे प्रयत्न से छोड़ना चाहिए। अहिंसाव्रत के फल के सन्दर्भ में आचार्य शिवकोटि का श्लोक द्रष्टव्य है - — मनोवचनकायैर्यो न जिघांसति देहिनः । स स्याद् गजादि युद्धेषु जयलक्ष्मी निकेतनम् ।। रत्नमाला ३९।। अर्थ - जो मन, वचन, काय से जीवों को नहीं मारता है, वह गजादि के भयङ्कर युद्ध में भी विजय प्राप्त करता है। आचार्य समन्तभद्र में कहते हैं - “अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् । । स्वयंभू, ११९।।” अर्थात् प्राणियों की अहिंसा इस जगत् में परम ब्रह्म रूप से प्रसिद्ध है । अत: अहिंसा का ही आचरण श्रेयस्कर है।।२०९।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वसुनन्दि-श्रावकाचार. (१९७) आचार्य वसुनन्दि सत्याणुव्रत का लक्षण अलियं ण जंपणीयं पाणिवहकरं तु सच्च वयणं पि। रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ।। २१०।। अन्वयार्थ- (रायेण य दोसेण) राग से और द्वेष से, (अलियं) झूठ, (ण जंपणीय) नहीं बोलना चाहिए, (य) और, (पाणिवहकरं तु) प्राणियों का घात करने वाला, (सच्चवयणं पि) सत्य वचन भी (नहीं बोलना), (विदियं थूलं वयं णेयं) दूसरा स्थूल व्रत जानना चाहिए। - अर्थ- राग और द्वेषादि कारणों से झूठ नहीं बोलना चाहिए और प्राणियों का घात करने वाला सत्यवचन भी नहीं बोलना दूसरा स्थूलव्रत है। .. विशेषार्थ- झूठ बोलने के मूलत: दो ही कारण होते है राग अथवा द्वेष। किसी इष्ट वस्तु को न बताना उसे छिपा जाना और कुछ का कुछ बोलना झूठ है। इसी प्रकार द्वेष से झूठ बोलकर किसी को पिटवा देना, लुटवा देना अथवा अन्य कुछ करना भी झूठ है। यहां पर दोनों कारणों से उत्पन्न झूठ को छोड़ने का तो निर्देश दिया ही साथ ही कहा है कि सत्याणुव्रती को ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए जिससे किसी प्राणी का घात हो। आचार्य शिवकोटी शुभचन्द्र- अमृतचन्द्र आदि आचार्यों ने भी सत्य व्रत के फल को स्पष्ट करते हुए लिखा हैं - ... सु-स्वरः स्पष्ट वागिष्टमत: व्याख्यान-दक्षिणः। क्षणार्द्ध निर्जितागतिरसत्य विरतेर्भवेत्।। रत्नमाला ४० ।। (शिवकोटि) अर्थ – असत्य का त्यागी सुस्वर, स्पष्टवादी, इष्टमत के व्याख्यान में दक्ष तथा क्षणार्द्ध में ही विपक्षियों पर विजय प्राप्त करने वाला होता है। एकत: सकलं पापं असत्योत्थं ततोऽन्यतः। साम्यमेव वदन्त्यार्यास्तुलायां घृतयोस्तयोः।। ज्ञानार्णव, ९/३३ ।। (शुभचन्द्र) अर्थ- आर्यजनों ने तराज के एक पलड़े में सम्पूर्ण पापों व दूसरे में असत्य से उत्पन्न हुए पापों को रखकर तोला। वे कहते है दोनों समान हैं। १. इ.स. विइयं, ब. बीयं. २. क्रोधादिनापि नो वाच्यं, त्रयोऽसत्यं मनीषिणा। सत्यं तदपि नो वाच्यं, यत्स्यात् प्राणिविघातकम्।।गुण श्रा. १३४।। - Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९८) आचार्य वसुनन्दि यदिदं प्रमादयोगादसरभिधानं विधीयते किमपि। तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः।। पुरु०सि०९१।।(अमृतचन्द्र) अर्थ – जो कुछ भी प्रमाद के योग से असत्य कथन किया जाता है, वह असत्य जानना चाहिए। उस असत्य के भेद भी चार हैं - १. विद्यमान वस्तु का निषेध करना, २. अविद्यमान वस्तु का सद्भाव बताना, ३. कुछ का कुछ कह देना, ४. गर्हित, सावद्य और अप्रिय वचन बोलना। इनका विशद वर्णन पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (९१-१०१) में देखें। विश्वासायतन विपत्ति दलनं देवैः कृताराधना। मुक्तः पथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याघ्रोरगस्तम्भनम्। श्रेया संवसनं समृद्धिजननं सौजन्य संजीवनम्। कीतें केलिवनं प्रभावभवनं, सत्यं वचः पावनम्।। : (सूक्ति मुक्तावली- २९, सोमप्रभ)। अर्थ- सत्यवचन विश्वास का घर है, विपत्ति को दूर करने वाला है, देवों के द्वारा जिसका आराधन किया गया है, मुक्ति के लिए पाथेय समान है, जल और अग्नि को शान्त करने वाला है अर्थात् सत्य के प्रताप से जल तथा अग्नि का भय या महान संकट भी शान्त हो जाता है, व्याघ्र सर्प को स्तम्भन करने वाला है। सज्जनता का जीवन है, कीर्ति का क्रीडावन है, प्रभाव का मन्दिर है, ऐसा पवित्र सत्य वचन है। प्रथम संस्कृत श्रावकाचारकार आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं - स्थूलमलीकं न वदति, न परान् वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावाद वैरमणम् । ।रत्न० श्रा०५५।। अर्थ- जो लोकविरूद्ध, राज्यविरूद्ध और धर्मविपातक ऐसी झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है, तथा दूसरों की विपत्तियों के लिए कारणभूत सत्य को भी न स्वयं कहता है और न दूसरों से कहलवाता है, उसे सन्तजन स्थूल मृषावाद से विरमण अर्थात् विरक्त कहते हैं। यहाँ कहने का आशय यही है कि भय, आशा, क्रोध, हास्य आदि कारणों से झूठ न बोलना तथा समय आने पर प्राणी रक्षा योग्य वचन बोलना द्वितीय सत्याणुव्रत हैं।।२१०।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९९) आचार्य वसुनन्दि अचौर्याणुव्रत का लक्षण पुरगाम पट्टणाइसु पडियं णटुं च णिहिय वीसरियं। परदव्वमगिण्हंतस्स होइ थूलवयं तदियं ।। २११।। २ अन्वयार्थ- (पुर-गाम-पट्टणाइस) पुर-ग्राम-पत्तन आदि में, (पडियं) पड़ा हुआ, (ण8) खोया हुआ, (णिहियं) रखा हुआ, (वीसरिय) भूला हुआ, (च) और, (परदव्यमगिण्हंतस्स) पराया द्रव्य नहीं लेने वाले के, (तदियं) तीसरा, (थूलवयं) स्थूल व्रत (होइ) होता है। 'अर्थ- पुर, ग्राम, नगर, देश अथवा क्षेत्र आदि में पड़े हुए, खोए हुए, रखे हुए अथवा भूले हुए पर द्रव्य को ग्रहण नहीं करने वाले पुरुष के तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है। व्याख्या- स्वामिकार्तिकेय कार्तिकेयानप्रेक्षा में लिखते हैं - जो बहुमुल्लं वत्थु अप्पयं मुल्लेण णेव गिण्हेदि। वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि।।३३५।। । जो परदव्वं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण। दिढ चित्तो सुद्ध-मई अणुब्बई सो हवे तिदिओ।।३३६ ।। अर्थ- जो बहुमूल्य वस्तु को अल्प मूल्य में नहीं लेता, दूसरे की भूली हुई वस्तु को भी नहीं उठाता, थोड़े लाभ से ही सन्तष्ट रहता है, तथा कपट, लोभ, माया से परांये द्रव्य का हरण नहीं करता, वह शुद्ध मति दृढ़ निश्चयी श्रावक अचौर्याणुव्रती है।। आचार्य प्रवर उमास्वामी महाराज ने लिखा है कि “अदत्तादानं स्तेयम्" (तत्त्वार्थसूत्र ७/१५) अदत्त क्या है? यह बताते हुए आ० भास्करनन्दि लिखते हैं कि"दीयते स्म दत्तं-परेण समर्पितमित्यर्थः। नादत्तमदत्तम् (तत्त्वार्थवृत्ति सुखबोधा टीका ७/१.५) पर के द्वारा जो वस्तु दी गई हो, वह दत्त है। जो दत्त नहीं है, वह अदत्त है। आदान यानि हस्तादिक के द्वारा ग्रहण करना। अदत्त का ग्रहण करना चोरी है। - बिना दी हुई वस्तु वह चाहे छोटी हो या बड़ी, अल्पमूल्यवान् हो या अतिमूल्यवान्, अपने अधिकार में ले लेना, चौर्यकर्म है। ग्रहण करना तो दूर ही रहा, अपितु ग्रहण करने रूप भावों का उत्पन्न होना ही चोरी है। यह अभिप्राय आ० पूज्यपाद १. ब. तइयं. २. ग्रामे चतुःपथादौ वा विस्मृतं पतितं धृतम्। परद्रव्यं हिरण्यादि वयं स्तेयविबर्जिना।।गुणभू. श्रा. १३५।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२००) आचार्य वसनन्दि स्वामी को इष्ट है। वे कहते हैं कि - यत्र संक्लेश परिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति। बाह्यवस्तुनो ग्रहणे चाग्रहणे च। (सर्वार्थसिद्धि, ७/१५) अर्थात् बाह्यवस्तु का ग्रहण हो अथवा न हो विनादी हुई वस्तु को ग्रहण करते समय संक्लेश भाव अवश्य होता है जहाँ संक्लेश परिणाम होते है, वहाँ चोरी अवश्यमेव है। चोरी के लिए आगम में करीब-करीब ३० समानार्थक शब्द प्राप्त हुए हैं। यथा१. चोरिका, २. परहत, ३. अदत्य, ४. क्रूरकृत्य, ५. परलाभ, ६. असंयम, ७. परधनगृद्धि, ८. लोल्य तस्करत्व, ९. अपहार, १०. हस्तलघुत्व, ११. पापकर्मकरण, १२. स्तन्य, १३. हरण विप्रणाश, १४. आदान, १५. धनलुम्पना, १६. अप्रत्यय, १७. अवपीडन, १८. आक्षेप, १९. क्षेप, २०. विक्षेप, २१. कूटता, २२. कांक्षा, २३. कुलमषी, २४. लालपण प्रार्थना, २५. व्यसन, २६. इच्छा, २७. मूर्छा, २८. तृष्णागृद्धि, २९. निवृत्तिकर्म, ३०. अपराक्ष। इसके इतने ही नाम पर्याप्त नहीं है। क्रिया के अनुसार इसके और भी नाम हो सकते हैं। इसके दुष्फल को बताते हुए आ० शिवकोटि लिखते हैं कि परलोगम्मिय चोरो करेदि णिरयम्मि अप्पणो वसदिं। विवाओ वेदणाओ अणुभवहिदि तत्थ सुचिरंपि।। . (भगवती आराधना, ८६५) अर्थ- चोर मरकर नरक में वास करता है और वहाँ चिरकाल तक तीव्र कष्ट भोगता है। आ० शुभचन्द्र लिखते हैं कि - हदियस्य पदं धत्ते परवित्ता मिषस्पृहा। करोति किं न किं तस्य कण्ठलग्नेव सर्पिणी ।। (ज्ञानार्णव, १०/७) अर्थ- जिस पुरुष के हृदय में परधनरूप मांस भक्षण की इच्छा स्थान पा लेती है वह उसके कण्ठ में लगी हुई सर्पिणी के समान है और वह क्या-क्या नहीं करेगी? अर्थात् सब ही अनिष्ट करती है। चौर्य कर्म अनार्य कर्म है। इसमें लोभ की बाहुल्यता होती है, परन्तु कपटादि समस्त दोष इस कर्म के सहारे अपना जीवन-यापन करते हैं। यह दुर्गति के लिए भेजा गया आमन्त्रण पत्र है। यह अपकीर्ति का भण्डार है। प्रेमीजनों में भी भेद उत्पन्न करने वाला यह चौर्य कर्म परस्पर में अप्रीति का जनक है। पाप पंक में उन्मज्जन-निमज्जन करने में प्रवृत्त कराने वाला यह स्तेय कर्म चिरकाल पर्यन्त संसार के चतुर्गति रूप भ्रमण का प्रमुख कारण है। उभयलोक में आत्मा का अहित करने में निपुण यह कर्म समस्त Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२०१) आचार्य वसुनन्दि) पुरुषार्थों का विनाशक है। इसीलिए भव्य जीवों को स्व-धन में सन्तोष रखते हुए परद्रव्य से अपने चित्त को हटाना चाहिये। इससे वह संसार की समस्त विभूतियों को प्राप्त करता हुआ अन्ततोगत्वा मोक्षपद को प्राप्त करता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहते हैं - निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्व मविसृष्टम्। न हरति यन्त्र च दत्ते तदकृश चौर्यादुपारमणम्।।र० श्रा०५७।। अर्थ- रखा हुआ, गिरा हुआ, भूला हुआ ऐसे पर धन को जो न दूसरों को देता है और न स्वयं लेता है, उसे स्थूल चोरी का त्यागी कहा है। . इस सम्बन्ध में आ० अमृतचन्द्रसूरि, आ० शिवकोटि, आ० सोमदेव, पं० आशाधर जी आदि का मत भी प्रसिद्ध है।।२११।। . ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकीडा सयाविवज्जतो। थूलयडवंभयारी जिणेहि भणिओ पवयणम्मि।। २१२।। अन्वयार्थ- (पव्वेस) पर्वो में, (इत्थिसेवा) स्त्री सेवन (और), (अणंगकीडा) अनंगक्रीड़ा, (सया विवज्जतो) सदैव त्याग करने वाले को, (पवयणम्मि) प्रवचन में, (जिणेहि) जिनेन्द्र भगवान् ने, (थूलमडबंभयारी) स्थूल व्रत ब्रह्मचारी, (भणिओ) कहा है। . विशेषार्थ– अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाह्निका, दशलक्षण आदि पवों के दिनों में स्त्री सेवन और सदैव अनंगक्रीड़ा का त्याग करने वाले जीव को प्रवचन में जिनेन्द्र भगवान् ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है। "पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्य' इन शब्दों में आ० समन्तभद्र ने अष्टमी और चतुर्दशी को प्रोषधोपवासी के लिये पर्व कहा है। ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण करते हुए उन्होंने लिखा है - . न तु पर दारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत्। सा परदार निवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ।।५८।। अर्थ- जो पाप के भय से परस्त्रियों के प्रति न स्वयं गमन करता है और न दूसरों को गमन कराता है वह परस्त्री त्याग अथवा स्वदारसंतोष नामका अणुव्रत है। १. स्त्रीसेवानंगरमणम्, यः पर्वणि परित्यजेत्। स: स्थूल ब्रह्मचारी च प्रोक्तं प्रवचने जिनैः।। - गुणभू० श्रा० १३६. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०२) आचार्य वसुनन्दि) इसी सन्दर्भ में अन्य आचार्यों ने भी अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये है - सोऽस्ति स्वदार सन्तोषी योऽन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियौ। न गच्छत्यंहसो भीत्या नाव्यैर्गमयति त्रिधा।।सा० ध०५२।।(आशाधर) अर्थ- जो गृहस्थ पाप के भय से परस्त्री और वेश्या को मन, वचन, काय और कृतकारित, अनुमोदना से न तो स्वयं सेवन करता है और न दूसरे पुरुषों से सेवन कराता है वह स्वदारसंतोषी है। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि यह ब्रह्मचर्याणुव्रत द्वितीय-प्रतिमाधारी श्रावक के लिए बतलाया गया है, सामान्य श्रावक के लिए तो जो आचार्य समन्तभद्र, आ० अमृतचन्द्र सूरि और आ० सोमदेव ने कहा है वही मान्य है। और सामान्य अवस्था में भी उपरोक्त कथित पालन हो तो श्रेष्ठ है। मात-पत्री-भगिन्यादि संकल्पं परयोषिति। तन्वानः कामदेवः स्याद् मोक्षस्यापि च भाजनम् । ।रत्नमा० ४२।।(शिवकोटि) अर्थ- परस्त्री को माता, पुत्री और भगिनी आदि के समान मानना चाहिये। जो ऐसा संकल्प करता है, वह कामदेव होता है तथा वह मोक्ष का भी पात्र बन जाता है। ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म और चर्य इन दो शब्दों का सुमेल है। ब्रह्म शब्द की निष्पत्ति बृंह धातु से हुई है। ब्रह्म के अनेक अर्थों में परमात्मा, आत्मा, मोक्ष आदि प्रसिद्ध हैं। 'चरगतिभक्षणयोः' धातु से चर्य शब्द की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्म के लिए जो चर्या है, वह ब्रह्मचर्य है। आत्मा, आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा में जो चर्या करता है, वह निश्चय ब्रह्मचर्य है। इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त करने के लिए इन्द्रिय विषयों व विकार भावों से दूर हटना, व्यवहार ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य व्रत के परिपालक दो तरह के साधक होते हैं। महाव्रती और अणव्रती। महाव्रती तो स्त्री मात्र का त्याग करके आत्म रमण का प्रयत्न करते हैं। अणुव्रती पर स्त्री सेवन का पूर्णतया त्याग करता है व स्व स्त्री में भी अत्यधिक राग नहीं करता। ब्रह्मचर्य अणुव्रत को इसी कारण दो नाम दिये गये है १. स्व-द्वार सन्तोषव्रत, २. परस्त्री त्याग व्रत। योषिता यानि स्त्री। वह स्व और पर के भेद से दो प्रकार की है जिसके साथ अग्नि की साक्षी में सात फेरे खाये हैं अर्थात् धर्मानुकूल विवाह किया है, वह स्व-स्त्री है। ब्रह्मचर्याणव्रती शाश्वत पर्यों के दिनों में अर्थात् अष्टाहिनका, पर्युषण, अष्टमी, चतुर्दशी इत्यादि दिनों में स्व-स्त्री के साथ भी कामक्रीड़ा नहीं करता है और इसे अनंगक्रीड़ा कभी भी नहीं करना चाहिए। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (२०३) आचार्य वसुनन्दि स्व-स्त्री के अलावा जितनी भी स्त्रियाँ हैं, वे सब पर है। उनके भी दो भेद हैं। जो दूसरे के द्वारा विवाहित है, वह परिगृहीता स्त्री है तथा जो अनाथ, स्व-छन्द अथवा अविवाहित है, वह अपरिगृहीता है। पर-स्त्री का पूर्ण त्याग करना आध्यात्मिक और लौकिक दोनों दृष्टियों से उचित है। ___ एक कवि लिखता है - पर नारी पैनी छुरी तीन ठौर से खाय। . धन खर्चे यौवन हरे, मरे नरक ले जाय।। आ० अमृतचन्द्र जी का उपदेश है कि - ये निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं शक्नुवन्ति न हि मोहात् । निःशेष शेषयोषिनिषेवणं तैरपि न कार्यम् ।। (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, ११०) अर्थ- जो जीव मोह के उदय से अपनी स्त्री मात्र को छोड़ने के लिए समर्थक नहीं है, तो उन्हें भी शेष समस्त स्त्रियों का सेवन नहीं करना चाहिए। कामदेव बहुत बलिष्ट है। उसने समस्त जगत् को आक्रान्त कर रखा है। अत: तप-त्याग के शस्त्रों के द्वारा उस पर पूर्ण विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये, यदि उसमें स्वयं को असमर्थ देखे तो विधिपूर्वक स्व-दार सन्तोषव्रत गुरु चरणों में ग्रहण करना सद्गृहस्थ का कर्तव्य है। : जो पर-स्त्री का त्याग कर देता है व अध्यात्म पथ की ओर बढ़ने हेतु सतत् प्रयत्न करता है, ऐसा भव्य जीव लौकिक एवं पारलौकिक सुख पाता है। . : वीर्य शरीर का ओज है। उसकी सुरक्षा शरीर की शान्ति, कान्ति और स्फूर्ति को कायम रखती है। मन को स्थिर करने में मदद करती है, बुद्धि का वर्धन करती है। यह सब लौकिक सुखों की प्राप्ति है। ब्रह्मचर्य से संयम निर्दोष पलता है, आत्मसाधना निर्विघ्न होती है, जिससे कर्मों का नाश होकर मोक्ष प्राप्त होता है, यह पारलौकिक सुख है। यदि गृहस्थ पर-स्त्री को माता-पुत्री अथवा भगिनी आदि रूप मानता है, तो कामदेव होता है और शीघ्र मोक्ष प्राप्त करता है। श्री पद्मनन्दि भट्टारक लिखते हैं कि - शोचिः केश शिखेव दाह जननी, नीचप्रियेवापगा। प्रोद्यध्दूमततीव कालिमचिता शम्पेव भीतिप्रदा ।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०४) आचार्य वसुनन्दि सन्ध्येव क्षणरागिणी हृतजगा प्राणा भुत्जङ्गीव सो। कार्याकार्य विचार चारुमतिभिस्त्याज्या परस्त्री सदा ।। (श्रावकाचार सारोद्धार, ३/२२७) अर्थ- कार्य-अकार्य का विचार करने वाले सुन्दर बद्धिशाली आर्य पुरुषों द्वारा ऐसी परस्त्री सदा त्यागने योग्य है, जो कि शोकरूप केश शिखा वाली, अग्नि के समान दाह को उत्पन्न करती है, नदी के समान नीच प्रिय है, उत्तरोत्तर उठती हुई धूमपंक्ति के समान कालिमा से व्याप्त है, बिजली की गर्जना के समान भय को देने वाली है, सन्ध्या के समान कुछ क्षणों की लालिमा वाली है और सर्पिणी के समान जगत् के प्राण हरण करने वाली है। सम्पूर्ण दोषों की खान वह स्त्री कार्य और अकार्य का विचार करने में चतुर बुद्धिमानों द्वारा सदा ही छोड़ने योग्य है। आ० पूज्यपाद लिखते हैं - परेषां योषितो दृष्ट्वा निजमातृसुतासमा: । कृत्वा स्वदार संतोषं, चतुर्थं तदणुव्रतं ।।पूज्यपाद श्राव०२४।। अर्थ- दूसरों की स्त्रियों को अपनी माता, (बहिन) और पुत्री के समानं देखकर अपनी स्त्री में सन्तोष करना, यह चतुर्थ अणुव्रत है। कुछ भेद के साथ श्री सोमदेव पण्डित ने कहा है - . , बधूवित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने। . . माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्मागृहाश्रमे।।सो०उपा०४०५।। अर्थ- स्वस्त्री और वित्तस्त्री को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों में माता, बहन, बेटी की भावना रखना गृहस्थ का ब्रह्माणुव्रत है। यह कथन सामान्य श्रावक की अपेक्षा से है। दूसरी प्रतिमा वाले को स्वदार सन्तोषी ही होना चाहिए।।११२।। परिग्रह परिमाणाणुव्रत का लक्षण जं परिमाणं कीरइ घण-धण्ण-हिरण्ण कंचणाईणं। तं जाण' पंचमवयं णिहिट्ठमुवासयज्झयणे।।२१३।। १. ब. जाणि. २. धनधान्यहिरण्यादिप्रमाणं यद्विधीयते। ततोऽधिके च दातास्मिन् निवृत्तिः सोऽपरिग्रहः।।१३७।। गुणभू. श्रा. ।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०५) आचार्य वसुनन्दि) ___ अन्वयार्थ- (धण-धण्ण-हिरण्य-कंचणाईणं) धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण आदि का, (ज) जो, (परिमाणं) परिमाण, (कीरइ) किया जाता है, (तं) वह, (पंचमवयं) पंचमव्रत, (उवासयज्झयणे) उपासकाध्ययन में, (णिट्ठिम्) कहा गया है। अर्थ- धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण आदि का जो परिमाण किया जाता है, वह पंचम अणुव्रत जानना चाहिए, ऐसा उपासकाध्ययन में कहा गया है। व्याख्या- धन, धान्य, सोना-चाँदी, जमीन जायदाद आदि सभी वस्तुओं का जो प्रमाण करना है वही उपासकाध्ययन में अपरिग्रहाणुव्रत कहा गया है। . उपासकाध्ययन का लक्षण करते हुए आचार्य शुभचन्द्र अंगपण्णति में लिखते हैं - जत्थे यारह सद्धा दाणं पूयं च संहसेवं च। वयगुण शीलं किरिया तेसिं मंता वि मुच्चंति।।४७।। अर्थ- जिस ग्रन्थ में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का, श्रावक के व्रतों का, सम्यग्दर्शन की विशुद्धि का, दान, पूजा, संघसेवा, श्रावकों के व्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत रूप सात शीलों का, श्रावक की क्रियाओं का तथा उनके भेदों का अर्थात् धारण करने की विधि आदि.का वर्णन है। वह उपासकाध्ययनांग कहलाता है। तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी परिग्रह का लक्षण लिखते हैं – “मर्छा . परिग्रहः'। –त०सू० ७/१७। अर्थ- मूर्छा अर्थात् परवस्तुओं में ममत्वभाव ही परिग्रह है। इन्हीं भावों को आचार्य समन्तभद्र, आ० अमृतचन्द्र, आ० सोमदेव, पण्डित आशाधर आदि भी पुष्ट करते हैं। रत्नमालाकार आचार्य शिवकोटि कहते हैं - अतिकांक्षा हता येन ततस्तेन भवस्थितिः। हस्विता निश्चितावस्थ कैवल्य सुखसंगतिः ।।४४।। अर्थ- जिसने आशा का नाश किया है, वह भवस्थिति को कम करता है तथा अवश्य ही केवलज्ञान व सुखादि की संगति को प्राप्त करता है। परित: गृह्यति आत्मानमिति परिग्रहः इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो आत्मा को सर्वतोमुखेन जकड़ लेवे, वह परिग्रह है अथवा मूर्छा को परिग्रह कहते हैं। मूर्छा क्या है? आचार्य अकलंक देव लिखते हैं कि- बाह्याभ्यन्तरोपधिसंरक्षणादि व्याप्रतिमूर्छा। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०६) आचार्य वसुनन्दि) (राजवार्तिक,७/१७/१) बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के रक्षण आदि के व्यापार को मूर्छा कहते हैं। ___ बाह्य परिग्रह में स्त्री पुत्र परिजनादि चेतन परिग्रह है तथा मणि मुक्ता पुष्प वाटिका आदि अचेतन परिग्रह हैं। आगम शास्त्र में इसके संग्रह नय से दश भेद किये हैं। क्षेत्र वास्तु हिरण्य सुवर्ण धन धान्य दासी-दास, कुष्य-भाण्ड। आभ्यन्तर परिग्रह १४ हैं। बृहत् प्रतिक्रमण में लिखा है कि - मिच्छत्त वेय-राया-तहेव हस्सादिया य छद्दोसा। चत्तारि तह कसाया, चउदस अब्भंतरं गंथा।। अर्थ- मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्यादि षट् नोंकषाय, चार कषाय ये १४ आभ्यन्तर परिग्रह हैं।(यह गाथा भगवती आराधना में भी पायी जाती है- देखो १.११२) परिग्रह सम्पूर्ण विभावों का मूल है। परिग्रह के संग्रहार्थ मनुष्य अनेक प्रकार के आरम्भ जनक कार्य करता है, जिससे षट्कायिक जीवों का घात होता है। पर द्रव्य को ग्रहण करने के लिए झूठ भी बोलता है, अधिक संग्रह की इच्छा से मिलावट करना, कम तौलना आदि चौर्यकर्म भी करता है। दूसरे द्वारा अपने धन का हरण होने पर परिग्रही क्रोध करता है, मेरे पास इतना वैभव है यह भाव भी परिग्रही को होता है, धन को अनैतिक रूप से प्राप्त करने के लिए वह अनेक प्रकार का कपट करता है। जैसे-जैसे परिग्रह बढ़ता जाता है, वह उसे और अधिकाधिक चाहता है। धनवान् निर्धन का उपहास करता है यह हास्य है। अपने द्रव्य के प्रति उसे अनुराग होता है, यह रति है। अपने धन का नाश होते देख, उसे अरति होती है। दूसरा मेरा परिग्रह हरण न कर लेवे, यह भय उसे सतत सताता है, धन का हरण होने पर परिग्रही जीव शोक करता है, परिग्रह में कमी आने पर वह जुगुप्सा करने लगता है। परिग्रही पुरुष अपने परिग्रह को विकसित करने के लिए सतत प्रयत्न करता है। इसमें वह कलह करता है, परनिन्दा करता है, चुगली करता है, अपमान को सहन करता है, दूसरों पर सन्देह करता है। इस तरह परिग्रह सम्पूर्ण दोषों को उत्पन्न करता है। परिग्रह को दुःख का मूल बताते हुए आ० शुभचन्द्र लिखते हैं कि - संगात्कामस्तत: क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाऽशुभम् । तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां, दुःखं वाचामगोचरम् ।। (ज्ञानार्णव, १६/१२) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०७) ___ आचार्य वसुनन्दि अर्थ- परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप और पाप से नरकगति होती है। उस नरक गति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है। परिग्रह से मनुष्य के मन की तृप्ति असम्भव है। अग्नि को संस्कृत भाषा में "अनलम्” कहते है। समास विच्छेद करने पर दो शब्द बनते हैं न अलम्, अलम् यानि तृप्ति। बहुत से काष्ठ व घृतादि का प्राशन करके भी अग्नि तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार अति संचय करने पर भी परिग्रही मन सन्तुष्ट नहीं होता। अत: साधक को प्रयत्नपूर्वक अतिकांक्षा का हनन करना होगा, जिससे वह साधना निर्विघ्न कर सके ताकि केवलज्ञान और परम सुख प्राप्त कर सके। देशव्रती श्रावक किन्हीं भी वस्तुओं का सम्पूर्ण त्याग नहीं कर सकता तो उसे प्रत्येक वस्तु की मर्यादा अवश्य बना लेना चाहिये। मर्यादायें हो जाने से उसकी मूर्छा, उसका ममत्व सीमित पदार्थों में बंध जायेगा जिससे उसके व्रत निर्दोष बनेंगे और कर्मबन्ध भी अत्यल्प होगा, परिणामस्वरूप वह शीघ्र ही परमपद को प्राप्त कर लेगा।।१५३।। गुणव्रत-वर्णन दिग्वतं (गुणव्रत) का लक्षण पुव्वुत्तर-दक्षिण-पच्छिमासु काऊण जोयणपमाणं। . परदो' गमणणियत्ती दिसि विदिसि गुणव्वयं पढम।। २१४।। -. अन्यवार्थ-(पव्वत्तर-दक्षिण-पच्छिमासु) पूर्व-उत्तर-दक्षिण-पश्चिम दिशाओं में, (जोयणपमाणं) योजनों का प्रमाण, (काऊण) करके, (परदो) उससे आगे, (दिसि-विदिसि) दिशाओं-विदिशाओं में, (गमणणियत्तो) गमन नहीं करना, (पढम) . प्रथम, (गुणव्वयं) गुणव्रत है। - अर्थ- पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में योजनों का प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशाओं में गमन नहीं करना, यह प्रथम दिग्वत नाम का गुणव्रत है। व्याख्या- पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ऐशान, उर्ध्व १. ब. परओ. २. दिग्देशानर्थदण्डविरति: स्याद् गुणव्रतम्। सा दिशाविरतिर्या स्याद्दिशानुगमनप्रमा।। १४१ । । गुणम् क्षा. ।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०८) आचार्य वसुनन्दि और अधो आदि दिशा-विदिशाओं में “मैं सौ योजन ही जाऊँगा" अथवा एक हजार कि०मी० ही जाऊँगा आदि प्रमाण करना, दिशाओं में जाने की सीमा करके उस की हुई सीमा से आगे गमन-आगमन नहीं करना प्रथम दिग्वत नाम का गुणव्रत है। ___तीनगुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को शीलव्रत कहा जाता है। व्रतशुद्धि हेतु शीलव्रतों का पालन करना अत्यन्त अनिवार्य है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि का कथन द्रष्टव्य है - परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ।। पु०सि० १३६।। । अर्थ – जिसप्रकार नगरों की रक्षा परकोटे करते हैं, उसी प्रकार निश्चय से व्रतों की रक्षा शील करते हैं। इसलिए व्रत परिपालनार्थ शीलों का पालन करना चाहिए। अब प्रथम ही यहाँ पर दिग्व्रत के सम्बन्ध में चर्चा करते हैं - आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - .. दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्नयास्यामि। ' इति संकल्पो दिग्वत मामृत्यगुणाय विनिवृत्यै ।।६८र० श्रा० ।। अर्थ- मृत्युपर्यन्त सूक्ष्मपाय की निवृत्ति के लिये दिशाओं की मर्यादा करके 'इसके बाहर नहीं जाऊँगा' इस प्रकार का संकल्प करना दिग्व्रत है। आ० स्वामिकार्तिकेय कहते हैं - जह लोहणासणटुं संग पमाणं हवेइ जीवस्स। सव्व दिसाण पमाणं तह लोहं णासए णियमा।।३४१।। जं परिमाणं कीरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं। उवओगं जाणित्ता गुणव्वदं जाण तं पढमं ।।३४२।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थ – जैसे लोभ का नाश करने के लिए जीव परिग्रह का परिमाण करता है वैसे ही समस्त दिशाओं का परिमाण भी नियम से लोभ का नाश करता है। अत: अपनी आवश्यकता को समझकर सुप्रसिद्ध सब दिशाओं का जो परिमाण किया जाता है वह पहला गुणव्रत है। चौपाई (हिन्दी) में स्पष्ट शब्दों में पं० दौलतराम जी लिखते हैं - पूरब आदि दिशा चउ जानो, ईशानादि विदिश चउ मानो। . अध ऊरध मिलि दस दिशि होई, करे प्रमाण व्रती है सोई ।। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०९) आचार्य वसनन्दि शीलवान् व्रत धारक भाई, जाके दरशनते अघ जाई। या दिशिकों एतो ही जाऊँ, आगे कबहुं न पाँव धराऊँ।। या विधि सों जु दिशा को नेमा, करै सुबुद्धि परिव्रत प्रेमा। मरजादा न उलंघे जोई, दिग्व्रत धारक कहिये सोई।।क्रियाकोष।। आ० श्रुतसागर सूरि तत्त्वार्थवृत्ति में लिखते हैं – “तासु दिक्षु प्रदिक्षु च हिमाचलविन्ध्यपर्वादिकम् अभिज्ञानपूर्वकं मर्यादा कृत्वा परतो नियमग्रहणं दिग्विरतिव्रतमुच्यते।"(७/२१) अर्थात् उन दिशाओं और विदिशाओं में हिमाचल, विन्ध्याचल, आदि प्रसिद्ध स्थानों की अभिज्ञानपूर्वक मर्यादा करके उससे बाहर जाने का मरणपर्यन्त के लिये त्याग करना दिग्विरति व्रत कहलाता है। लाटी संहिता में कहा है - पूर्वस्यां दिशि गच्छामि यावद्गंगाम्बुकेवलम् । तबहिर्वपुषाऽनेन न गच्छामि सचेतनः ।।६/११३।। अर्थ – दिशाओं की मर्यादा करके मैं इससे बाहर नहीं जाऊँगा, जब तक सचेतन हूँ। पूर्वादि दिशा और गंगादिक नदी तक जाऊँगा आदि मर्यादायें दिग्व्रत हैं। दिव्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डविरत यह तीन गुण तत्त्वार्थसूत्र के आधार से गिनाये जाते हैं। सर्वार्थसिद्धि महापुराण, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सोमदेव उपाकाध्ययन, चारित्रसार, अमितगति उपासकाचार, पद्मनंदि पंचविंशतिका, और लाटी संहिताकार भी इन्हें स्वीकार करते हैं। स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा और सागार धर्मामृत ये रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुगामी हैं। आ०कुन्दकुन्द दिशि-विदिशि प्रमाण, अनर्थदण्डत्याग और भोगोपभोगपरिमाण को गुणव्रत कहते हैं, ऐसा ही कथन पद्मपुराण और भावसंग्रह में भी है। शील के मुख्य दो भेदों में गुणव्रत के तीन और शिक्षाव्रत के चार भेद माने गये है। गणना में किसी भी ग्रन्थ में मतभेद नहीं है मात्र विषयगत भेद ही प्राप्त होता है।।२१४।। देशव्रत का लक्षण . वय- भंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण। कीरई गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ।।२१५।।२ १. इ.झ.ब. विइय. २. यत्र व्रतस्य भंग: स्याद्देशे तत्र प्रयत्नतः। गमनस्य निवृत्तिा सा देशविरतिर्मता।। १४१।। गुणभू श्रा. ।। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१०) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (जम्मि देसम्मि) जिस देश में, (वयभंगकारणं होइ) व्रतभंग का कारण उपस्थित होता है, (तत्थ णियमेण) उसमें नियम से (जो), (गमणणियत्ती) गमन निवृत्ति, (कीरइ) की जाती है, (तं) उसे, (विदिय) द्वितीय, (गुणव्वयं जाण) गुणव्रत जानो। अर्थ- जिस देश में रहते हुए व्रत-भंग का कारण उपस्थित हो, उस देश में नियम से जो गमन निवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशव्रत नाम का गुणव्रत जानना चाहिए। व्याख्या- आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - देशावकाशिकंस्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य। प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य।।९२।। गृहहारिंग्रामाणं क्षेत्रनदीदावयोजनानां च। देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः।।९३।। संवत्सरमुतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च। . . देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधिं प्राज्ञाः । ।रत्न० श्रा०९४।। अर्थ-दिग्व्रत में निश्चित किये गये विशाल देश का काल परिमाण करके प्रतिदिन अणुव्रतों को लेकर सीमित करना देशावकाशिक व्रत है। गृहों से शोभित ग्राम, क्षेत्र, नदी, जंगल या योजन का प्रमाण ये देशावकाशिक की सीमा होती है। वर्ष, ऋतु, अयन, मास, चतुर्मास, पक्ष और नक्षत्र ये देशावकाशिक के काल की मर्यादा होती है। मर्यादाओं के बाहर स्थूल और सूक्ष्म पांचों पापों का त्याग हो जाने से देशावकाशिक के द्वारा महाव्रतों की सिद्धि होती है। आचार्य सोमदेव ने भी सोमदेवउपासकाध्ययनांग (४४९-४५१) में आचार्य समन्तभद्र के कथन की पुष्टि की है। आ० अमृतचन्द्र सूरि का भी यही अभिप्राय जान पड़ता है। आचार्य समन्तभद्र के श्लोक (र०क० ९२) जैसा एक श्लोक श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र (३/८४) की टीका में कहा है - दिग्व्रते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः। दिने रात्रौ च देशावकाशिकव्रतमुच्यते ।।३/८४।। अर्थ – दिग्व्रत में किये हुए परिमाण को पुनः संक्षेप में करना अर्थात् मर्यादा के अन्दर रात्रि/दिन/प्रहर/घंटा आदि की मर्यादा करना देशावकाशिक व्रत है।।२१५ ।। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२११) आचार्य वसुनन्दि) अनर्थदण्डत्याग गुणव्रत का लक्षण अय-दंड-पास-विक्कय कूड-तुलामाण कूरसत्ताणं। जं संगहो' ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं ।। २१६।। ३ अन्वयार्थ- (अय-दंड-पास-विक्कय) लोहे के शस्त्र, दण्ड, जालविक्रय, (कूड-तुलामाण) झूठी-तराजू और कूट मान का, (कूरसत्ताणं) क्रूर जीवों का, (ज) जो, (संगहो ण कीरइ) संग्रह नहीं करता है, (तं) उसे, (तदिय) तृतीय, (गुणव्वयं जाण) गुणव्रत जानो। अर्थ- लोहे के शस्त्र तलवार, कुदाली, वगैरह के, तथा दण्डे और पाश (जाल) आदि के बेचने का त्याग करना, झूठी तराजू और कूट मान अर्थात् नापने-तोलने आदि के बाँटों का कम नहीं रखना तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियों का संग्रह नहीं करना, सो यह तीसरा अनर्थदण्ड-त्याग नाम का गुणव्रत जानना चाहिए। व्याख्या- लोहे के शस्त्र, तलवार, कुदाली बगैरह, तथा डण्डे और पाश (जाल) आदि के बेचने का त्याग करना, झूठी तराजू और कूटमान अर्थात् नापने-तोलने आदि के बांटों को कम नहीं रखना, तथा कुत्ता, बिल्ली, नेवला आदि क्रूर प्राणियों का संग्रह नहीं करना, सो यह तीसरा अनर्थ दण्ड त्याग नाम का गुणव्रत जानना चाहिये। अनर्थदण्ड त्यागवत- अर्थ:- अनर्थः।। “स्वरेऽक्षरविपर्ययः।।” (कातन्त्र रूपमाला ४६३) के अनुसार “तत्पुरुष समासे नस्य अक्षरविपर्ययो भवति स्वरे परे।" अर्थात् नज़ तत्पुरुष समास से नकार के आगे स्वर आने पर अक्षर विपर्यय हो जाता है। अर्थात् अ आगे और न पीछे हो जाता है, जिससे अन् शब्द बनता है और पुन: अनर्थ बनता है। . ___अर्थ शब्द अनेकार्थवाची है। यथा-आशय, प्रयोजन, लक्ष्य, उद्देश्य, • अभिलाषा, आदि अनेक अर्थ, अर्थ शब्द के हैं जिनमें से प्रयोजन यह अर्थ यहाँ ग्रहण • करना चाहिए। अनर्थदण्डव्रत का लक्षण करते हुए पं० आशाधर जी कहते हैंपीडा पापोपदेशाद्यैदेहाद्यर्थाद्विनाऽङिनाम् । अनर्थदण्डस्तत्त्यागोऽनर्थदण्डव्रतं मतम् ।।६।। १. ब. संगहे. २. इ.झ.प. तइयं, ब तिइयं. . ३. कूटमानतुलापास-विषं शास्त्रादिकस्य च। क्रूरप्राणभृतांत्यागस्ततृतीयं गुणव्रतम् ।। १४१ । ।गुणभू श्रा. ।। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१२) आचार्य वसुनन्दि अर्थ - अपने तथा अपने सम्बन्धियों के किसी मन, वचन, काय सम्बन्धी प्रयोजन के बिना पापोदेश, हिंसादान, दुःश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या के द्वारा प्राणियों को पीड़ा देना अनर्थदण्ड है, और उसका त्याग अनर्थदण्ड व्रत माना गया है। जिन कार्यों को करने का कोई अर्थ या प्रयोजन नहीं होता, वे कार्य अनर्थ हैं. उनसे विरक्त होना अनर्थदण्ड व्रत है। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्डः । ततो विरतियानर्थदण्डविरतिः । (सर्वार्थसिद्धि, ७/२१) अर्थात् उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है वह अनर्थ दण्ड है इससे विरत होना अनर्थदण्ड विरतिव्रत है । इसके पांच भेद हैं। यथा पापोपदेश हिंसा दानापध्यान दुःश्रुतीः पञ्च । प्राहुः प्रमादचयामनर्थदण्डानदण्ड धराः ।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार - ७५ ) अर्थ- पापों के नहीं धारण करने वाले निष्पाप आचार्यों ने अनर्थदण्ड के पांच भेद कहे है। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या। क. पापोपदेश विरति — “पापस्य उपदेशः पापोपदेशः " (पाप का उपदेश, पापोपदेश है। इस तरह यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास का प्रयोग है। आचार्य प्रभाचन्द्र के अनुसार पापोपार्जन हेतुरुपदेश: पापोपदेशः / पाप के उपार्जन हेतु जो उपदेश दिया जाता है, वह पापोपदेश है। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका- ७६ ) जिन कार्यों को करने से पापों का उपार्जन होता है, यथा- अमुक देश में प्राणी सस्ते में मिल जायेंगे, वहाँ से उन्हें खरीदकर अमुक देश में बेचो तो तुम्हें लाभ होगा इस तरह के उपदेश को पापोपदेश कहते हैं। आ० समन्तभद्र ने लिखा है कि तिर्यक्क्लेशवणिज्या हिंसारम्भ प्रलम्भनादीनाम्। कथाप्रसङ्ग प्रसवः स्मर्तव्य पाप उपदेशः । । अर्थ— तिर्यञ्चों को क्लेश पहुँचाने का उन्हें बंध करने आदि का उपदेश देना, तिर्यञ्चों के व्यापार करने का उपदेश देना, हिंसा, आरम्भ और दूसरों को छल कपट आदि से ठगने की कथाओं का प्रसंग उठाना ऐसी कथाओं का बार-बार कहना, यह पापोपदेश अनर्थदण्ड है। पाप के कारणभूत उपदेश को न देना पापोपदेश विरति है । ख. हिंसादान विरति— हिंसा की वस्तुयें देना हिंसादान है। आ० समन्तभद्र के अनुसार Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१३) आचार्य वसुनन्दि परशुकृपाण खनित्र ज्वलनायुधशृङ्गि शृंखलादीनाम्। वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार - ७७) अर्थ- हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, आग, अस्त्र-शस्त्र, विष और सांकल आदि के देने को ज्ञानी जन हिंसादान नामका अनर्थदण्ड कहते है। अत: हिंसोपकरण नहीं देना चाहिये, यही हिंसादान विरति है। ग. अपध्यान विरति-अप यानि कत्सित-खोटा, ध्यान यानि चिन्तन। किसी की हार हो जाये, किसी की धनहानि हो जाये, ऐसा चिन्तन अपध्यान है। . आ. समन्तभद्र ने कहा है कि - वधबन्धच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्चपरकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ।। __ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार- ७८) अर्थ- द्वेष से किसी प्राणी के वध, बन्ध और छेदनादिका चिन्तन करना तथा राग से परस्त्री आदि का चिन्तन करना, इसे जिनशासन में अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड कहा गया है। अपध्यान से विरक्त होना, अपध्यान विरति है। घ. दुःश्रुति विरति- दुर उपसर्ग कुत्सित अर्थ का प्रतिपादक है। श्रति का अर्थ शास्त्र है, जो शास्त्र राग-द्वेष और मोह का वर्धन करते हैं। विषय-कषायों की इच्छा को बढ़ाते हैं, वे कुशास्त्र हैं, उनका पठन-पाठन दुःश्रुति है। आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि - आरम्भ सङ्ग साहस मिथ्यात्व द्वेष रागमदमदनैः । चेत: कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ।। (रत्नकरण्ड- श्रावकाचार ७९) ___ अर्थ-आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, मद और काम भाव के प्रतिपादन द्वारा चित्त को कलुषित करने वाले शास्त्रों का सुनना दुःश्रुति नाम का अनर्थदण्ड है। कुशास्त्रों का पठन-पाठन का त्याग करना, दुःश्रुति विरति है।. ङ. प्रमादचर्या विरति- प्रमादस्य चर्या (प्रमादपूर्वक चर्या करना, प्रमादचर्या है) Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (२१४) आचार्य वसुनन्दि प्रमाद को परिभाषित करते हुए भास्करनन्दि आचार्य लिखते हैं कि प्रमादः कुशलकर्मस्वनादरउच्यते (तत्त्वार्थवृत्ति, ८/१) कुशल कर्मों में अनादर को प्रमाद कहते है। उस प्रमाद से युक्त.चर्या को, प्रमादचर्या कहते हैं। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि - क्षितिसलिलदहन पवनारम्भं विफलम् वनस्पतिच्छेदम्। सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते।। . __ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ८०) अर्थ-प्रयोजन के बिना भूमि को खोदना, पानी का ढोलना, अग्नि का जलाना, पवन का चलाना और वनस्पति का छेदन करना तथा निष्प्रयोजन स्वयं घूमना और दूसरों को घुमाना, इत्यादि प्रमादयुक्त निष्फल कार्यों के करने को ज्ञानीजन प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड कहते है। प्रमादयुक्त चर्या प्रमाद चर्या है। अत: प्रमाद (आलस्य) पूर्वक प्रवृत्तियों का त्याग करना चाहिए। उपरोक्त पांच प्रकार की दुःप्रवृत्तियों का अनर्थ रूप से वर्जन करना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है। यहां तक तीन गुणव्रतों का कथन पूर्ण हुआ।।२१६।। . शिक्षाव्रत-वर्णन भोगविरति शिक्षाव्रत का लक्षण . . जं परिमाणं कीरइ मंडल-तंबोल-गंध पुप्फाणं। तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते।। २१७।। १ । अन्वयार्थ- (मंडण-तंबोल-गंध-पुप्फाणं) मण्डन, ताम्बूल, गन्ध और पुष्पादिक का, (ज) जो, (परिमाणं कीरइ) परिमाण किया जाता है, (तं) उसे, (सुत्ते) सूत्र में, (भोयविरइ पढमं सिक्खावयं भणियं) भोगविरति नाम का प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है। १. भोगस्य चोपभोगस्य संख्यानं पात्र सत्क्रिया। सल्लेखनेति शिक्षाख्यं व्रतमुक्तं चतुर्विधम्।।१४३।। यः सकृद् भुज्यते भोगास्ताम्बूलकुसुमादिकम्।। तस्य चा क्रियते संख्या भोगसंख्यानमुच्यते।।१४४।।गुणभू. श्रा० । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. वसुनन्दि- श्रावकाचार (२१५) आचार्य वसुनन्दि अर्थ — मण्डन अर्थात् शारीरिक शृङ्गार, ताम्बूल, गन्ध और पुष्पादिक का जो परिमाण किया जाता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में भोगविरति नाम का प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है। व्याख्या— मण्डन अर्थात् शारीरिक शृङ्गार, ताम्बूल, गन्ध और पुष्पादिक का जो परिमाण (सीमा) किया जाता है, उसे द्वादशांगान्तर्गत उपासकाध्ययनांग सूत्र में भोगविरति नाम का प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है। प्रायः सभी आचार्यों ने भोगोपभोग परिमाण व्रत को एक में गिनाया है किन्तु श्रावक प्रतिक्रमण (२/९/१ ) में तथा प्रस्तुत श्रावकाचार में भोगविरति और उपभोग विरति में दो अलग-अलग व्रत गिनाये है । भोग की परिभाषा देखिये भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो।। ( रत्न० श्रा० ८३ ) ।। इसके टीकाकार आ० प्रभाचन्द्र भी लिखते हैं। “भुक्त्वा” “परिहातव्य” स्त्याज्य स ‘भोगो' ऽशनपुष्प गंधविलेपन प्रभृतिः । जो पदार्थ एक बार भोगकर छोड़ दिये जाते हैं, फिर से काम में नहीं आते ऐसे भोजन, पुष्प, गन्ध तथा विलेपन आदि पदार्थ भोग कहलाते हैं। सम्पूर्ण भोग्य सामग्रियों की सीमा करना और अन्य अयोग्य सामग्रियों का त्याग कर देना भोग विरति शिक्षाव्रत है ।। २१७ ।। परिभोग - निवृत्ति शिक्षाव्रत का लक्षण सगसत्तीए महिला वत्थाहरणाण जं तु परिमाणं । तं परिभोयणिवृत्ति' विदियं' सिक्खावयं जाण । । २१८ ।। ३ अन्वयार्थ - (सगसत्तीए) अपनी शक्ति के अनुसार, (महिला) स्त्री-सेवन, (वत्थाहरणाण) वस्त्राभूषणों का, (जं) जो, (परिमाणं) परिमाण किया जाता है, (तं) उसे, (परिभोयणिवृत्ति) परिभोग - निवृत्ति नाम का, (विदियं सिक्खावयं जाण) द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए। अर्थ — अपनी शक्ति के अनुसार स्त्री-सेवन और वस्त्र आभूषणों का जो परिमाण ब. णियत्ती. १. स. विइयं ब. वीयं. ३. उपभोगो मुहुर्भोग्यो वस्त्रस्याभरणादिकः । या यथाशक्तितः संख्या सोपभोगप्रभोच्यते । । १४५ ।। गुणभू० श्रा० ।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१६) आचार्य वसुनन्दि किया जाता है, उसे परिभोग-निवृत्ति नाम का द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए। व्याख्या- अपनी शक्ति के अनुसार स्त्री-सेवन और वस्त्र-आभूषणों का जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग-निवृत्ति नाम का द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए। आचार्य वसनन्दि ने इस शिक्षाव्रत का नाम उपभोग परिमाण न करके आचार्य उमास्वामी के अनुकरण में परिभोग परिमाण किया है। अन्य कई ग्रन्थकारों ने इसे उपभोग परिमाण शिक्षाव्रत ही नाम दिया है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः उपभोगः।।८३।। टीका– य: पूर्वं भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः स उपभोगो वसनाभरण प्रभृति: वसनं वस्त्रम्। जो पहले भोगकर फिर से भोगने में आते हैं, ऐसे वस्त्र तथा आभूषण आदि उपभोग कहलाते हैं। अर्थात् जिन किन्हीं भी वस्तुओं का बार-बार उपयोग किया जाता है, उन सबकी सीमा करना परिभोग अथवा उपभोग परिमाण व्रत कहलाता है।।२१८।। ___ अतिथि-संविभाग शिक्षाव्रत का लक्षण . . . अतिहिस्स संविभागो तइयं सिक्खावयं मुणेयव्यं। तत्थ वि पंचहियारा गेया सुत्ताणुमग्गेण ।। २१९।। अन्वयार्थ– (अतिहिस्स संविभागो) अतिथि के संविभाग को, (तइयं सिक्खावयं मुणेयव्यं) तृतीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए, (तत्थवि पंचहियारा) उसके भी पांच अधिकार, (सुत्ताणुमग्गेण) सूत्रानुसार, (णेया) जानना चाहिए। अर्थ- अतिथि के संविभाग को तीसरा शिक्षाव्रत जानना चाहिए। इस अतिथि संविभाग के पांच अधिकार उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार (निम्न प्रकार) जानना चाहिए। व्याख्या- अतिथि के लिए बराबर हिस्से में रखी गई वस्तु को देने वाले द्रव्य-भावों युक्त व्यक्ति को तृतीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए। इसे भी पांच अधिकारों द्वारा आगे उपासकाध्ययनांग सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। आगे आचार्यश्री स्वयं स्पष्ट करेंगे। अत्यन्त प्राचीन जैन व्याकरण “कातंत्र रूपमाला' के अनुसार “न तिथि:'' स्थित १. स्वरूप पुण्यार्थमन्यस्य रत्नत्रयसमृद्धये। यद्दीयतेऽत्र तद्दानं तत्र पश्चाधिकारकम्।।१४६।। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२१७) आचार्य वसुनन्दि) पद का समास "नस्य तत्पुरुषे लोप: ।।४६२।।'' से नत्र संज्ञक तत्पुरुष समास में नकार का लोप हो जाता है अत: अतिथि: पद सिद्ध होता है। - अतिथि का लक्षण बताते हुए आ० श्रुतसागर सूरि लिखते हैं-संयमाविराधयन् अतति भोजनार्थं गच्छति यः सोऽतिथिः। अथवा न विद्यते तिथि: प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीयादिका यस्य सोऽतिथि:। अनियतकाल भिक्षागमनमित्यर्थः। अर्थात् संयम की विराधना नहीं करते हुए जो भोजन के लिए भ्रमण करते हैं उनको अतिथि कहते हैं। अथवा जिसके प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया आदि तिथियाँ नहीं हैं, उसे अतिथि कहते हैं। जिनके अनियत काल भिक्षागमन है अर्थात् भिक्षाकाल निश्चित नहीं है, उसे अतिथि कहते हैं। अतिथियों को आहारादिक दान देना अथवा भोजनादिक सामग्री में उनके लिए विभाग करना अतिथि संविभाग है। इस सम्बन्ध में सर्वार्थसिद्धि (७/२१), सो०उपा० (८७८), अमित० श्रा० (६/९५), रत्न० श्रा० (१११-११२) भी द्रष्टव्य हैं।। २१९।। . . अतिथि संविभाग के पांच अधिकार पत्तंतर दायारो दाण विहाणं तहेव दायव्यं। दाणस्स फलं णेया पंचहियारा कमेणेदे।। २२०।। अन्वयार्थ- (पत्तंतर) पात्रों का भेद, (दायारो) दातार, (दाणविहाणं) दान विधान, (दायव्यं) दातव्य, (तहेव) तथा, (दाणस्स फलं) दान का फल, (एदे) यह, (पंचहियारा) पांच अधिकार, (कमेण) क्रम से, (णेया) जानना चाहिए। अर्थ- पात्रों का भेद, दातार, दान-विधान, दातव्य अर्थात् देने योग्य पदार्थ · और दान का फल, ये पाँच अधिकार क्रम से जानना चाहिए। व्याख्या- पात्रों के भेद, दातार की अपेक्षा, दान विधि अथवा विधान की अपेक्षा, दान देने योग्य वस्तु की अपेक्षा और दान फल की अपेक्षा अतिथि संविभाग के पांच अधिकार हैं। आचार्य उमास्वामी ने भी दान के पाँच अधिकार बताये हैं - विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेष: । त० सू०,७/३९।। अर्थ- विधि, देय वस्तु, दाता और पात्र की विशेषता से दान के फल में विशेषता आती है। इस सम्बन्ध में पुरुषार्थ के श्लोक १६८-१६९-१७०-१७१ आदि तथा १. पात्रं दाता दानविधि देयं दानफलं तथा। अधिकारा भवन्त्येते दाने पञ्च यथाक्रमम्।।१४७।।गुणभू श्रा० ।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (२१८) सागार धर्मामृत (पंचम अध्याय) भी द्रष्टव्य है। आचार्य वसुनन्दि पात्र - भेद - वर्णन उत्तम - मध्यम- जघन्य पात्र कौन हैं तिविहं मुणेह पत्तं उत्तम मज्झिम- जहण्णभेएण । ar - णियम - संजमधरो उत्तमपतं हवे साहू ।। २२१ । । १ एयारस ठाणठिया मज्झिमपत्तं खु सावया भणिया । अविरयसम्माइट्ठी अन्वयार्थ - (उत्तम - मज्झिम- जहण्ण भेएण) उत्तम - मध्यम- जघन्य के भेद . से, (पत्तं) पात्र, (तिविहं मुणेह) तीन प्रकार के जानो, ( उनमें ), (वय- णियम - संजम धरो) व्रत-नियम-संयम को धारण करने वाले, (साहू) साधु, (उत्तमपत्तं) उत्तम पात्र, ( हवे) होते हैं, (एयारस ठाणठिया) ग्यारह स्थानों में स्थित, (सांवया) श्रावक, (मज्झिमपत्तं) मध्यम पात्र, (भणिया) कहे गये हैं, (खु) निश्चय से, (अविरयसम्माइट्ठी) अविरत सम्यग्दृष्टि जीव को, (जहणणपत्तं) जघन्य पात्र, (मुणेयव्वं) जानना चाहिए। जहणणपत्तं मुणेयव्यं ।। २२२ ।। २ अर्थ — उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार के पात्र जानना चाहिए। उनमें व्रत, नियम और संयम को धारण करने वाला साधु उत्तम पात्र है। ग्यारह प्रतिमा स्थानों में स्थित श्रावक मध्यम पात्र कहे गये हैं, और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव को जघन्य पात्र जानना चाहिए। व्याख्या - जो व्रत-नियम और संयम का सकल रूप में पालन करते हैं, ऐसे . मुनिराज उत्तम पात्र हैं। ग्यारह प्रतिमाओं में स्थित श्रावक मध्यम पात्र हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य पात्र जानना चाहिए। सागार धर्मामृत में पं० आशाधर पात्र का स्वरूप कहते हैंयत्तारयति जन्माब्धेः स्वाश्रितान्यानपात्रवत् । मुक्त्यर्थगुणसंयोगभेदात्पात्रं त्रिधास्ति तत् । । ५/४३ ।। पात्रं त्रिधोत्तमं चैतन्मध्यमं च जघन्यकम् । सर्वसंयमसंयुक्तः साधुः स्यात्पात्रमुत्तमम्।। १४८।। एकादश प्रकारोऽसौ गृही पात्र मनुत्तमम् । विरत्या रहितं सम्यग्दृष्टिपात्रं जघन्यकम् ।। १४९ गूणभू० श्र० ।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२१९) आचार्य वसुनन्दि) - अर्थ- जो जहाज की तरह अपने आश्रितों को अर्थात् दानकर्ता, कराने वाले और दान की अनुमोदना करने वालों को संसार समुद्र से पार कर देता है वह पात्र है। मुक्ति के कारण या मुक्ति ही जिनका प्रयोजन है उन सम्यग्दर्शन आदि गुणों के संयोग के भेद से पात्र तीन प्रकार के हैं। आगे का एक श्लोक और देखिये यतिः स्यादुत्तमं पात्रं मध्यमं श्रावकोऽधमम्। सुदृष्टिस्तद्विशिष्टत्वं विशिष्टगुणयोगतः।।४४।। अर्थ-मनि उत्तम पात्र हैं। श्रावक मध्यम पात्र हैं और सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। गुणविशेष के सम्बन्ध से उन उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों में परस्पर में तथा दूसरों से भेद हैं।। आचार्य सोमदेव पात्रों के भेद भिन्न प्रकार से कहते हैंपात्रं च त्रिविधं धर्मपात्रं-कार्यपात्रं-कामपात्रं चेति।।नी०वा० १२।। अर्थ- और वे दान देने योग्य पात्र तीन प्रकार के हैं— धर्मपात्र, कार्यपात्र और कामपात्र के भेद से। धर्मपात्र- मोक्ष मार्ग के अनुयायी तथा प्रणेताओं को धर्मपात्र कहते है। - कार्यपात्र- स्वामी की आज्ञानुसार चलने वाले, प्रतिभा सम्पन्न, चतुर और कर्तव्यनिष्ठ भृत्यों को कार्यपात्र कहते हैं। कामपात्र- इन्द्रियजन्य सुखानुभव के साधन स्वरूप कमनीय, सौम्य, लावण्ययुक्त कामनियों व पुरुषों को कामपात्र कहा है। यह सभी अपने स्वभावानुसार फल देते हैं। .. यशस्तिलक में इन्हीं आचार्य ने पात्रों के पाँच भेद किये हैं- (१) समयी-जैन सिद्धान्त के वेत्ता, (२) व्रती-श्रावक, (३) साधु, (४) आचार्य और (५) जैन शासन की प्रभावना करने वाले। इन पात्रों का विवेचन उपरोक्त ग्रन्थ से जानना चाहिए। प्राणियों का मन उत्तम होने पर भी यदि दान, पूजा, तप और जिनभक्ति से शून्य है तो वह कोठी में भरे धान आदि बीजों के समान है। स्वर्गादि फलों की उत्पत्ति नहीं कर सकते। इन्हीं बीजों को धर्मरूपी उपजाऊ भूमि में वपित (बो) कर दिया जाय तो सुख शान्तिरूपी फल उत्पन्न कर सकते हैं। सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्यश्री सन्मति सागरजी दान देने योग्य पात्रों के नौ भेदों का उल्लेख करते हैं Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२०) उत्तम पात्र मध्यम पात्र उत्तम पात्र तीर्थङ्कर मुनि तत्त्ववेत्ता - मुनि मध्यम पात्र | १०वीं - ११वीं प्रतिमाधारी ७ से ९ प्रतिमाधारी जघन्य पात्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षायोपशिक सम्यग्दृष्टि इन सभी पात्रों को दान देना चाहिए ।। २२२ ।। आचार्य वसुनन्दि जघन्य पात्र अनगारी - मुनि १ से ६ प्रतिमाधारी उपशम सम्यग्दृष्टि कुपात्र और अपात्र कौन हैं? वय-तव- सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जिओ कुत्तं तु । सम्मत- सील - वयवज्जिओ अपत्तं हवे जीओ । । २२३ । । १ अन्वयार्थ – (वय-तव- सीलसमग्गो) व्रत-तप-शील से सहित, (तु) किन्तु, (सम्मत्तविवज्जिओ) सम्यक्त्व से रहित, ( कुपत्तं) कुपात्र है । ( सम्मतसीलवय वज्जिओ) सम्यक्त्व-शील-व्रत रहित, (जीओ) जीव, (अपत्तं हवे ) अपात्र हैं। अर्थ — जो व्रत, तप और शील से सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित है, वह कुपात्र है। सम्यक्त्व, शील और व्रत से रहित जीव अपात्र है। १. व्याख्या— जिसने व्रत-धारण किये हैं, तप करता है, शीलवान् भी हैं; किन्तु सम्यग्दर्शन- सच्ची श्रद्धा से रहित है, ऐसा जीव कुपात्र है और जो सम्यक्त्व तथा शील- व्रत-तप आदि सभी से रहित है वह अपात्र जानना चाहिए। भूमि तीन प्रकार की होती है— उपजाऊ, अल्प उपजाऊ और अनुपजाऊ । उपजाऊ भूमि में बोया गया बीज महान फल देता है। अल्प उपजाऊ भूमि में बोया गया बीज अल्प फल देता है तथा अनुपजाऊ भूमि में डाला गया बीज कुछ भी फल नहीं देता अपितु स्वयं भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार सत्पात्रों में दिया गया दान अत्यन्त बृहत् फल प्रदान करता है। कुपात्रों में दिया गया दान अत्यन्त अल्प फल को देता है तथा अपात्रों में दिया गये दान का फल ही प्राप्त नहीं होता अपितु कभी-कभी उल्टा पाप बंध और हो जाता है। अपात्र को दान देना निष्फल है। आ० सोमदेव कहते हैं भस्मनिहुतमिवापात्रेष्वर्थव्ययः ।। नी०वा० ११ ।। अर्थात् अपात्रों में दान राख में ढकी हुई अग्नि में होम किये जाने के समान निष्फल है। तयःशीलव्रतैर्युक्तः कुदृष्टि स्यात्कुपात्रकम्। अपात्रं व्रतसम्यक्त्व तपः शीलविवर्जितम् । । गुणभू० श्रा० १५० ।। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२१) आचार्य वसुनन्दि यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि विवेकपूर्वक करुणाबुद्धि से कुपात्र को दान देना चाहिए, क्योंकि वह द्रव्य व्रत-तप-शील आदि से सहित है, कदाचित् दानी के अनुग्रह अथवा अन्य कारणों से सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। यदि कोई कुपात्र या अपात्र रोगी, शोकी, विपत्तिग्रस्त है, तो उसे जीवनदान के लिए अन्न, वस्त्र, औषधि, फल आदि दे देना चाहिए। यह दयादत्ति है जिसे आचार्य करुणादान भी कहते है। सत्पात्र मान कर इन्हें दान नहीं देना चाहिए। दान-पूजादि कार्यों के पूर्व स्व-विवेक से पात्र-अपात्र-पूज्य-अपूज्यादि को समझना अनिवार्य है।।२२३।। दातार-गुण-वर्णन दाता के सप्त गुण सद्धा भत्ती तुट्ठी विण्णाणमलुद्धया खमा सत्ती।२ जत्थेदे सत्त गुणा तं दायरं पसंसति ।। २२४।। अन्वयार्थ- (जत्थ) जिसमें, (सद्धा) श्रद्धा, (भत्ती) भक्ति, (तुट्ठी) तुष्टी, (विण्णाणम्) विज्ञान, (अलुद्धया) अलुब्धता, (खमा) क्षमा, (सत्ती) शक्ति, (ऐदे सत्त गुणा) ये सात गुण होते हैं; (तं दायारं) उस दातार की, (पसंसंति) प्रशंसा की जाती है। ... अर्थ- जिस दातार में श्रद्धा, भक्ति, सन्तोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति, ये सात गुण होते हैं, ज्ञानी जन उस दातार को प्रशंसा करते हैं। ____व्याख्या– जिस दातार में श्रद्धा, भक्ति, सन्तोष, विवेक, अलोभता, क्षमा और शक्ति ये सात गुण पाये जाते हैं, उसकी प्रशंसा सभी ज्ञानी जन करते हैं। पं० आशाधर दाता का लक्षण और उसके गुणों को लिखते हैं- नवकोटिविशुद्धस्य दाता दानस्य यः पति। भक्तिश्रद्धासत्त्वतुष्टि ज्ञानालौल्यक्षमागुणाः । ।सा०ध०४७।। अर्थ- नौ कोटियों से शद्ध दान का जो स्वामी होता है, जो दान देता है वह दाता है। भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलोलुपता, और क्षमा ये उसके गुण हैं। १. ब. मलुद्धदया. २. प.ध. सत्तं. . ३. श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं तुष्टि शक्तिरलुब्धता। क्षमा च यत्र सप्तैते गुणा दाता प्रशस्यते।। १५१।।गुणभू. श्रा. । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२२) आचार्य वसुनन्दि महापुराण (२०/१३६-१३७) के अनुसार नौ कोटियां इस प्रकार हैं- देय शुद्धि, उसके लिये आवश्यक दाता और पात्र की शुद्धि ये तीन। दाता की शुद्धि, उसके लिये आवश्यक देय और पात्र की शुद्धि ये तीन। पात्र शुद्धि, उसके लिए आवश्यक देय और दाता की शुद्धि। ये नौ शुद्धियां हैं। अर्थात् दान के मुख्य आश्रय तीन हैंदाता, पात्र और देय वस्तु। प्रत्येक की शुद्धि के साथ अन्य दो की शुद्धि भी आवश्यक है। इन नौ कोटियों से विशुद्ध अर्थात् पिण्ड शुद्धि में कहे गये दोषों के सम्पर्क से रहित दान का जो देने वाला है वह दाता है और उसके सात गुण प्रसिद्ध है। कहा भी है श्रद्धा शक्तिश्च भक्तिश्च विज्ञानं चाप्यलुब्धता। क्षमा त्यागश्च सप्तैते प्रोक्ता दान पतेर्गुणाः। महापु०,२०/८२।।.. अर्थ- श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, और त्याग यह दान देने वाले के सात गुण कहे हैं। सोमदेव के उपासकाध्ययन, अमितगति के श्रावकाचार एवं पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय आदि सभी ग्रन्थों में इन सात गुणों का उल्लेख प्राप्त होता है। आ० अमितगति ने तो सात गुणों के भेद से दाता के भी सात भेद कहे हैं भाक्तिकं तौष्टिकं श्राद्धं सविज्ञानमलोलुपम्। सात्त्विकं क्षमकं सन्तो दातारं सप्तधा विदुः ।।अमि० श्रा०,९/३।। अर्थ- जो धर्मात्मा की सेवा में स्वयं तत्पर रहता है, उसमें आलस्य नहीं करता है उस शान्त दाता को भाक्तिक कहते हैं। जिसको पहले दिये गये और वर्तमान में दिये जाने वाले दान से हर्षहै वह दाता तौष्टिक है। देय में आसक्ति न होना तुष्टि गुण है। साधुओं को दान देने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है। ऐसी जिसकी श्रद्धा है वह दाता श्राद्ध है अर्थात् श्रद्धा गुण से युक्त है। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का सम्यक्रूप से विचार करके साधुओं को दान देता है वह दाता विज्ञानी (ज्ञानी) है। जो दान देने पर भी मन, वचन, काय से सांसारिक फल की याचना नहीं करता वह दाता अलोलुप (अलोभी) है। जो साधारण स्थिति का होते हुए भी ऐसा दान देता है जिसे देखकर धनवानों को भी आश्चर्य होता है, वह दाता सात्त्विक है। दुर्निवार कलुषता के कारण उत्पन्न होने पर भी जो किसी पर कुपित नहीं होता वह दाता क्षमाशील है। इस तरह दाता के गुणों से दाताओं में भी भेद हो जाते हैं। वैसे प्रत्येक दाता में यह सात गुण . अवश्य होना चाहिए।।२२४।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२३) आचार्य वसुनन्दि दानविधि-वर्णन नवधा- भक्ति का नाम निर्देश पडिगह मुच्चट्ठाणं पादोदयमच्चणं च पणमं च। मण-वयण-कायसुद्धी एसणसुद्धि य दाण विही।। २२५।। अन्वयार्थ– (पडिगहमुच्चट्ठाणं) प्रतिग्रह, उच्चस्थान देना, (पादोदयमच्वणं) पैर धोना, अर्चा करना, (पणम) प्रणाम करना, (मण-वयण-कायसुद्धी) मन, वचन, कायशुद्धि, (य) और, (एसणसुद्धी) भोजनशुद्धि, (यह), (दाणविही) दान की विधि है। अर्थ- प्रतिग्रह अर्थात् पड़िगाहना- सामने जाकर लेना, उच्च स्थान देना अर्थात् ऊंचे आसन पर बिठाना, पादोदक अर्थात् पैर धोना, अर्चा करना, प्रणाम करना, मन:शुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणा अर्थात् भोजन की शुद्धि, ये नौ प्रकार की दान की विधि हैं। व्याख्या- मुनियों अथवा उत्तम पात्रों का प्रतिग्रहण करना, पड़गाहन करना अर्थात् उनके सामने जाकर उन्हें लेना, अपने घर या भोजनालय में लाकर उन्हें ऊंचे आसन पर विराजमान करना, उनके दोनों पैरों को धोना और गन्धोदक लेना। यहाँ पादोदक से भासित होता है कि पहले पज्यों के पांव धोवें तदनन्तर उस पादोदक को माथे से लगावें। अर्चा करना अर्थात् अष्ट द्रव्यादिक से पूजा करना, प्रणाम करना, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और आहार जल शुद्धि, इसप्रकार दान की विधि नौ प्रकार की है। एषण शुद्धि और आहार शुद्धि एकार्थवाची है। ... सत्पात्रों को दान देते समय इन नौ विधियों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि एवं पं० आशाधर के साथ-साथ अन्य श्रावकचारकारों ने भी इन्हीं नौ विधियों अर्थात् नवधा भक्ति का उल्लेख किया है। नवधा भक्ति की विधि पत्तं णियघरदारे दळूणण्णत्थ वा विमग्गित्ता। पडिगहणं कायव्वं णमोत्थु ठाहु त्ति भणिऊण ।। २२६।। १. ध, पडिगह उच्चट्ठाणं. २. स्थापनोच्चासनपाद्यपूजाप्रणमनैस्तथा। मनो वाक्कायशुद्ध्या वा शुद्धो दानविधि स्मृतः।।१५२ ।।गुणभू. श्रा. ।। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२४) आचार्य वसुनन्दि णेऊण णिययगेहं णिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि। ठविऊण तओ चलणाण धोवणं होइ कायव्वं ।। २२७।। पाओदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अच्चणं कुज्जा। गंधक्खय-कुसुम-णेवज्ज-दीव-धूवेहिं य फलेहि।। २२८।। पुष्पंजलिं खिवित्ता पयपुरओ वंदणं तओ कुज्जा। चइऊण अट्ट-रुद्दे मणसुद्धि होइ कायव्वा।। २२९।। णिठ्ठर-कक्कस वयणाइवज्जणं तं वियाण वचिसुद्धिं । . सव्वत्थ संपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धि वि।। २३०। । चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए। . . संजयिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी।। २३१।। . ।।कुलकं।। अन्वयार्थ- (पत्तं) पात्र को, (णियघरदारे दट्ठण) अपने घर के द्वार पर देखकर, (वा) अथवा, (अण्णत्थ विमग्गित्ता) अन्यत्र से विमार्गण कर, (णमोत्थु) नमस्कार हो, (ठाहु) ठहरिये, (त्ति भणिऊण) ऐसा कहकर, (पडिगहणं) प्रतिग्रहण, (कायव्व) करना चाहिए। (णिययगेहं णेऊण) अपने घर में ले जाकर, (णिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि) निरवद्य तथा ऊँचे स्थान पर, (ठविऊण) बिठाकर, (तओ) तदनन्तर, (चलणाण धोवणं होइ) चरणों को धोना होता है, (सो), (कायव्व) करना चाहिए। (पवित्तं पाओदयं) पवित्र पादोदक को, (सिरम्मि काऊण) सिर में लगा करके, (गंधक्खय-कुसुम-णेवज्ज-दीव-धूवेहि य फलेहि) गन्ध, अक्षत; पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से, (अच्चणं कुज्जा) पूजन करना चाहिए। (तओ) तदनन्तर, (पयपुरओ) चरणों के सामने, (पुष्पंजलि खिवित्ता) पुष्पांजलि क्षेपण कर, (वंदणं कुज्जा) वंदना करे (तथा), (अट्ट-रूद्दे चइऊण) आर्त-रौद्र ध्यान छोड़कर, (मणसुद्धी होइ) मन शुद्धि होती है (सो), (कायव्व) करना चाहिए। (णिट्टर-कक्कस वयणाइवज्जणं) निष्ठुर-कर्कश आदि वचनों का त्याग करने को, (वचिसुद्धि) वचनशुद्धि, (वियाण) जानना चाहिए, (तह) तथा, (सव्वत्थ संपुडंगस्स) सर्वत्र विनीत अंग रखने वाले के, (कायसुद्धी वि होइ) कायशुद्धि भी होती है। (चउदस मल परिसुद्ध) चौदह मल दोषों से रहित, (जइणाए) यतना से, (सोहिऊण) शोधकर, (संजयिजणस्स) संयमी जनों को, (ज) जो, (दाणं) दान, (दिज्जइ) दिया जाता है, (सा) वह, (एसणासुद्धी) एषणा शुद्धि, (णेया) जानना चाहिए। __ अर्थ- पात्र को अपने घर के द्वार पर देखकर, अथवा अन्यत्र से विमार्गण करखोजकर, 'नमस्कार हो, ठहरिए,' ऐसा कहकर प्रतिग्रहण करना चाहिए। पुन: अपने Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंसुनन्दि-श्रावकाचार (२२५) आचार्य वसुनन्दि घर में ले जाकर निरवद्य अर्थात् निर्दोष तथा ऊंचे स्थान पर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणों को धोना चाहिए। पवित्र पादोदक को शिर में लगाकर पुन: गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से पूजन करना चाहिए। तदनन्तर चरणों के सामने पुष्पांजलि क्षेपण कर वन्दना करे। तथा, आर्त और रौद्र ध्यान छोड़कर मन:शुद्धि करना चाहिए। निष्ठुर और कर्कश आदि वचनों के त्याग करने को वचनशुद्धि जानना चाहिए। सब ओर सम्पुटित अर्थात् विनीत अंग रखने वाले दातार के कायशुद्धि होती है। चौदह मल-दोषों से रहित, यतना से शोधकर संयमी जन को जो आहार दान दिया जाता है, वह एषणा-शुद्धि जानना चाहिए। व्याख्या- सत्पात्रों को अपने घर के द्वार पर देखकर, अथवा अन्यत्र मन्दिर, पुरा, मुहल्ला आदि से विमार्गण कर- खोजकर, नमस्कार हो, ठहरिये' ऐसा कहकर प्रतिग्रहण करना चाहिए। प्रतिग्रहण के बाद उन्हें अपने घर में ले जाकर निरवद्य अर्थात् निर्दोष ऊँचे स्थान पर बिठाकर, प्रासुक जल से उनके चरणों को धोना चाहिए। पाद प्रक्षालन से प्राप्त जल को माथे आदि पर लगाकर, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल आदि से पूजा करनी चाहिए। पूजन के बाद उनके चरणों के आगे ‘पुष्पांजलि क्षेपण' करें तदनन्तर गवासन आदि शुभ आसन से नमस्कार करना चाहिए। पुन: आतं, रौद्रध्यान छोड़कर शुभ कार्यों में मन को लगाकर मनशुद्धि करना चाहिए। निष्ठुर, कर्कश, खोटे वचनों का त्याग करना, वचनशुद्धि है। सब ओर से सम्पुटित अर्थात् विनीत अंग रखने वाले दातार के कायशुद्धि होती है। अर्थात् विनीत होना चाहिए। चौदह मल दोषों से रहित यत्नपूर्वक शोधकर संयमीजनों को जो आहारदान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए। नवधाभक्ति के सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्र, पं० आशाधर एवं सम्यक्त्व कौमुदीकार आदि आचार्यों का यही मत हैं कि सर्वप्रथम दाता (श्रावक) अपने घर से बाहर निकल कर पात्रों को इधर-उधर देखें अथवा अन्यत्र मन्दिर, धर्मशाला अथवा चौराहा आदि स्थान से प्राप्त कर 'हे स्वामी नमोऽस्तु... नमोऽस्तु... नमोऽस्तु, अत्र... अत्र...अत्र... तिष्ट... तिष्ट... तिष्ट... वचन बोलकर उन्हें अपने घर में लेजाकर स्वच्छ-निर्दोष ऊँचे आसन पर बैठाकर उनके पैर धोवे तदनन्तर पादोदक माथे (सिर) पर लगावे और पूजन करें। पूजन के बाद पुष्पांजलि क्षेपण कर पंचांग प्रमाण मनशुिद्धि के लिए आर्त-रौद्र ध्यान छोड़कर धर्मध्यान और शुभकार्यों का आश्रय लेना चाहिए। निष्ठुर (कठोर), कर्कश, खोटे, गन्दे वचनों का त्याग कर मौन रहना अथवा शुभ वचन बोलना यह वचन शुद्धि है। विनम्र भावों से युक्त होकर विनम्र शरीर वाला होना तथा शुभ क्रियायें करना व शारीरिक शुद्धि रखना कायशुद्धि जानना चाहिए। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२६) आचार्य वसुनन्दि) एषणशुद्धि अर्थात् भोजन-पानशुद्धि- इसके अन्तर्गत पात्र को चौदह मल-दोषों से रहित, यत्नपूर्वक शोधकर आहार दान दिया जाता है। प्रस्तुत श्रावकाचार की अ००व० प्रति में एक गाथा अधिक प्राप्त है, जो चौदह दोषों का विवेचन करती है। मूलत: वह गाथा मूलाचार (४८४) में प्राप्त है। अत: उसे आ. वसुनन्दी की मानना कहा तक उचित है यह विद्वानों का विषय है। देखिये गाथा णह-जंतु-रोम-अट्ठी-कण-कुंडय-मंस-रुहिर-चम्माइं। ... कंद-फल-मूल-बीया छिण्ण मला चउद्दशा होति ।।४८४।। अर्थ- नख-जन्तु, रोम, हड्डी, कण (मल) कुंडय (मूत्र), मांस, रुधिर, चर्म (चमड़ा), कन्द, फल, मूल, बीज, छिन्न यह चौदह मल कहलाते हैं। इनसे रहित शुद्ध आहार सत्पात्रों को देना एषणा-शुद्धि है। इन नौ-विधियों से पात्रों का दान देना चाहिए।।२२६-२३१।। उपसंहार एवं प्रतिज्ञा, दाणसमयम्मि एवं सुत्ताणुसारेण णव विहाणाणि। भणियाणि मए एण्हिं दायव्वं वण्णइस्सामि।। २३२।। अन्वयार्थ– (एवं) इस प्रकार से, (सुत्ताणुसारेण) सूत्रानुसार, (मए) मैंने, (दाणसमयम्मि) दान के समय में, (णवविहाणाणि) नौ विधानों को, (भणियाणि) कहा।, (एण्हि) अब, (दायव्यं) दातव्य का, (वण्णइस्सामि) वर्णन करूँगा। अर्थ- इस प्रकार उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार मैंने दान के समय में आवश्यक नौ विधानों को कहा। अब दातव्य वस्तु का वर्णन करूँगा। व्याख्या- इस प्रकार उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार मैंने दान के प्रकरण में आवश्यक नौ विधानों अर्थात् नवधा भक्ति का वर्णन किया। अब आगे दान देने योग्य वस्तु के सम्बन्ध में चर्चा करूँगा। उपरोक्त नौ-विधानों का प्रत्येक श्रावक को ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है।। २३२ ।। • दातव्य-वर्णन दातव्य किसे कहते हैं? आहारोसह-सत्थाभयभेओ जं चउव्विहं दाणं। तं वुच्चइ दायव्वं णिहिट्ठमुवासयज्झयणे ।। २३३।। . १. झ.ब.एयं. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२७) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ– (आहारोसह-सत्याभयभेओ) आहार, औषध, शास्त्र, अभय के भेद से, (ज) जो, (चउव्विहं दाणं) चार प्रकार का दान है, (तं) व, (दायव्यं) दातव्य, (वुच्चइ) कहलाता है (ऐसा), (उवासयज्झयणे) उपासकाध्ययन में, (णिहिट्ठम्) कहा गया है। अर्थ- आहार, औषध, शास्त्र और अभय के भेद से जो चार प्रकार का दान है, वह दातव्य कहलाता है, ऐसा उपासकाध्ययन में कहा गया है। · व्याख्या- आहार दान, औषध दान, शास्त्र दान अथवा ज्ञानदान, और अभयदान अथवा आवासदान यह चार प्रकार का दान दातव्य है। जो वस्तु किसी के उपकारार्थ दी जाने योग्य है, वह दातव्य है। ऐसा उपासकाध्ययनसूत्र में कहा गया है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये। अनपेक्षितोपंचारोपक्रियमगृहाय विभवेन।।१११।। अर्थ-तप ही जिसका धन है तथा सम्यग्दर्शनादि गुणों के जो निधान है ऐसे गृहत्यागी मुनीश्वर के लिए विधि द्रव्य आदि सम्पत्ति के अनुसार प्रतिदान और प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित धर्म के निमित्त जो दान दिया जाता है, वह वैयावृत्य कहलाता है। आ० समन्तभद्र ने दान को ही वैयावृत्ति कहा है। "व्यावृत्ति: दुःखनिवृत्ति: प्रयोजनं यस्स तत् वैयावृत्यं” इस व्युत्पत्ति के अनुसार दुःखनिवृत्ति ही जिसका प्रयोजन है उसे वैयावृत्य कहते हैं। वैयावृत्य में भी दान की प्रधानता है। आगे वे कहते हैं - नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ।। २१३।। अर्थ- सात गणों से सहित और कौलिक, आचारिक तथा शारीरिक शद्धि से सहित दाता के द्वारा गृह सम्बन्धी कार्य तथा खेती आदि के आरम्भ से रहित सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों को नवधाभक्ति पूर्वक जो आहारादि के द्वारा गौरव किया जाता है, वह दान माना जाता है। दान अथवा दातव्य के चार भेद करते हुए वे आगे लिखते हैं आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन। वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः।।११७।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२८) आचार्य वसुनन्दि अर्थ — विद्वज्जन आहार, औषध और उपकरण तथा आवास के भी दान से वैयावृत्य को चार प्रकार का कहते हैं । आ० वसुनन्दि ने उपकरण के स्थान पर शास्त्र और आवास के स्थान पर अभयदान ग्रहण किया है, सो अधिक भेद नहीं है। आचार्य समन्तभद्र ने उपकरण शब्द में पिच्छी, कमण्डलु, शास्त्र आदि सभी प्रकार के उपकरण ग्रहण किये है तथा आ० वसुनन्दि के अनुसार अभयदान में जिन-जिन वस्तुओं से दूसरे जीवों का भय दूर किया जा सकता है, ऐसे आवासादि सभी वस्तुओं को ग्रहण किया जानना चाहिए। आचार्य कार्त्तिकेय लिखते हैं -- भोयणदाणं सोक्खं ओसह - दाणेण सत्थ- दाणं च । जीवाण अभय दाणं सुदुल्लहं सव्व दाणेसु । । ३६२ । । अर्थ - भोजन दान से सुख होता है । औषध दान के साथ शास्त्रदान और जीवों को अभयदान सब दानों में दुर्लभ है। जैनाचार पद्धति के श्रावकाचार कर्त्ता सभी आचार्यों ने दातव्य वस्तु के मुख्यतः चार ही भेद बतलाये है। कुछ आचार्यों ने इन्हीं के विस्तार स्वरूप अधिक भेद भी गिनाये हैं। रत्नमाला में दान के भेद देखिये आहारभयभैषज्यशास्त्रदानादि भेदतः । चतुर्धा दानमाम्नातं जिनदेवेन योगिना । । ३१ । । अर्थ – आहार - औषध - अभय और शास्त्रदान के भेद से दान चार प्रकार का है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है । यह दान साधुओं को दिया जाता है। चतर्विध की आत्मसाधना निर्विघ्न हो, इस उद्देश्य से जिनेन्द्र देव ने चार प्रकार के दान की प्ररूपणा की है। आहार -दान- भूख सबसे बड़ा पाप है। वह शरीर की कान्ति को नष्ट कर देती है, बुद्धि को भ्रष्ट करती है, व्रत-संयम और तप में व्यवधान उत्पन्न करती है, आवश्यक कर्मों के परिपालन में बाधा उत्पन्न करती है, उस भूख के शमन करने के लिए प्रासुक, वातावरणानुकूल, साधना का वर्द्धन करने वाला आहार भक्तिपूर्वक मुनियों के लिए देना, आहारदान कहलाता है। अभयदान- • मुनियों के निवास हेतु प्रासुक वसतिका प्रदान करना, अभयदान है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ मनुष्य के लिए इष्ट हैं। वह बिना जीवन के सम्भव नहीं है। अतः दूसरों के जीवन की रक्षा करना, अभयदान हैं। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२९) आचार्य वसुनन्दि) दया धर्म का मूल हैं, सम्पूर्ण दानों में जीवनदान सर्वश्रेष्ठ दान है, अत: अभयदान देना निहायत जरुरी ही नहीं अनिवार्य भी होना चाहिए। औषध दान- असाता वेदनीय कर्म के उदय से तथा वीर्यान्तराय कर्म के उदय से शरीर में रोगों की उत्पत्ति होती है। यह रोग शरीर को अस्वस्थ और मन को अप्रसन्न बनाते हैं। रोगों के कारण साधना में कुछ शिथिलता आती है। शरीर रोग-ग्रस्त हो जाने पर रोग निवारणार्थ शुद्ध औषधि देना तथा समुचित परिचर्या करना, औषधदान है। शास्त्र दान- जगत् में प्राणी का हितकारी बन्धु ज्ञान ही है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य तिर्यश्च के समान माना गया है। ज्ञान से ही इस लोक और परलोक सम्बन्धित सम्पूर्ण हेयोपदेयता का बोध होता है। भेदविज्ञान का कारण भी ज्ञान ही है। ज्ञान से श्रद्धा व चरित्र दृढ़ होता है, मन एवं इन्द्रियाँ विषयों से विरक्त होती है, चित्त पवित्र होता है। अत: ज्ञान प्राप्ति के लिए जिनवाणी भेंट करना, पढ़ाने के लिए शिक्षक रख देना, स्कूल खुलवा देना आदि शास्त्रदान हैं। चारों दानों का फल बताते हुए आ० पूज्यपाद लिखते है किज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभय दानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजाद् भवेत् ।। (पूज्यपाद श्रावकाचार, ७१) ... अर्थ : ज्ञानदान से मनुष्य ज्ञानवान होता है, अभयदान से निर्भय रहता है. अन्न . दान से नित्य सुखी और औषधिदान से सदा निरोग रहता है। - आचार्य अमितगति दान की प्रेरणा देते हुए लिखते है कि - नानादुःखव्यसन निपुणान्नाशिना तृप्ति हेतून् . कर्माराति प्रचयन परांस्तत्त्वतोऽवेत्य भोगान्। मुक्त्वाकाङ्क्षां विषयविषयां कर्म निर्माश नेच्छो, दद्यादानं प्रगुणमनसा संयतायापि विद्वान् ।। (सुभाषितरत्न संदोह, १९/१७) ___ अर्थ- कर्मनाश का इच्छुक विद्वान् विषयभोगों को यथार्थतः अनेक दुःखों एवं .. आपत्तियों को प्राप्त कराने वाले, नश्वर, तृष्णा के बढ़ाने वाले और कर्मरूप शत्रुओं के संचय में तत्पर जानकर तद्विषयक अभिलाषा को छोड़ता हुआ संयमी जन के लिए सरल चित्त से दान देवे। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३०) आचार्य वसुनन्दि अत: सत् श्रावक को स्व कल्याणार्थ चार प्रकार का दान यति-निकाय में अवश्य ही देना चाहिए। आगम में दान के चार भेद अन्य प्रकार से भी कहे गये हैं पात्रदत्ति- सद्भक्ति से युक्त होकर पात्रों को चतुर्विध दान देना, पात्र दान है। आ० जिनसेन ने लिखा है कि - महातपोधना-यार्चा प्रतिग्रह पुरःसरम्। प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते। (महापुराण, ३८/३७) अर्थ- महान तपस्वी साधुजनों के लिए प्रतिग्रह आदि नवधा भक्तिपूर्वक आहार, औषधि आदि का देना पात्र दत्ति कही जाती है। पात्र के तीन भेद हैं— उत्तम, मध्यम और जघन्य। उनका वर्णन करते हुए आ० अमृतचन्द्र ने लिखा है कि पात्रं त्रिभेदयुक्तं संयोगा मोक्षकारण गुणानाम्। , अविरत सम्यग्दृष्टि विरताविरतश्च सकल विरतश्च ।। (पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, १७१) अर्थ : मोक्ष के कारण स्वरूप गण सम्यक्रत्नत्रय का जिनमें संयोग हो, ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवी, विरताविरत (देशविरतं पंचमगुणस्थानवर्ती) और सकलविरत छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज ये तीन प्रकार के पात्र कहे गये हैं। समदत्ति : आ० जिनसेन लिखते हैं कि - समानायात्मनाऽन्यस्मै, क्रियामन्त्र व्रतादिभिः। निस्तारकोत्तमायेह भूहमाद्यति सर्जनम् ।। समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते। समान प्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता शृद्धयाऽन्विता।। (महापुराण, ३८/३८-३९) अर्थ- क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने समान हैं, ऐसे अन्य साधर्मी बन्धु के लिए और संसार तारक उत्तम गृहस्थ के लिये भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। तथा मध्यमपात्र में समान सम्मान की भावना के साथ श्रद्धा से युक्त जो दान दिया जाता है,वह भी समानदत्ति है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३१) आचार्य वसुनन्दि दयादत्ति- पं० मेधावी लिखते हैं कि - सर्वेभ्यो जीवराशिभ्यः स्वशक्तया करणैस्त्रिभिः । - दीयतेऽभयदानं यद्दयादानं तदुच्यते।। (धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ६/१९०) अर्थ- सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए कृत, कारित तथा अनुमोदना से अपनी शक्ति अनुसार अभयदान देने को बुद्धिमान् लोग दयादान (दयादत्ति) कहते हैं। अन्वयदत्ति- इसे सकल दत्ति भी कहते हैं। पं० मेधावी ने लिखा है किसमर्थाय स्वपुत्राय तदभावेऽन्यजाय वा। यदेतद्दीयते वस्तु स्वीयं तत्सकलं मतम् ।। . (धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ६/१९६) अर्थ- सब तरह समर्थ अपने पुत्र के लिए अथवा पुत्र के न होने पर दूसरे से उत्पन्न होने वाले (दत्तक) पुत्र के लिए अपनी धनधान्यादि रूप सम्पूर्ण वस्तु का जो देना है उसे सकल दत्ति कहते हैं। इस तरह चारों दानों के द्वारा जैनधर्म के आराधकों की उन्नति करें, तथा दीन और अनाथों को भी करुणापूर्वक दान देना चाहिये।।२३४।। आहारदान का लक्षण ... असणं पाणं खाइमं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुव्वुत्त-णव-विहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायव्वो।। २३४।। अन्वयार्थ- (असणं-पाणं-खाइम-साइयम्) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, (इदि चउविहो वराहारो) यह चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार, (पुव्वुत्त) पूर्वोक्त, (णव-विहाणेहिं) नवधा भक्ति से, (तिविह पत्तस्स) तीन प्रकार के पात्रों को, (दायव्यो) देना चाहिए। अर्थ – अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्ति से तीन प्रकार के पात्रों को देना चाहिए। व्याख्या- अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य यह चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार कहा गया है, इसे विधि अर्थात् नवधा भक्तिपूर्वक तीन प्रकार के पात्रों को देना चाहिए। आ० प्रभाचन्द्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार (१०९) की टीका करते हुए लिखते हैं१. वसु. श्रा. खाइमं इति पाठान्तरः . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३२) आचार्य वसनन्दि अशनं हि भक्तमुद्गादि, पानं हि पेयमथितादि, खाद्यं मोदकादि, लेह्यं खादि। अर्थात् भात, मूंग आदि अशन कहलाते हैं, छांछ आदि पीने योग्य पदार्थ पान कहलाते हैं, लाडू आदि खाद्य कहलाते हैं और रबड़ी आदि चाटने योग्य पदार्थ लेह्य कहलाते हैं। आ० अमितगति कहते हैं - रागो निषूद्यते येन-येन धमों विवर्द्धते। संयम- पोष्यते येन विवेको येन जन्यते ।।८१।। आत्मोपशम्यते येन येनोपक्रियते परः। न येन नाश्यते पात्रं तद्दातव्यं प्रशस्यते ।।अ० श्रा०८/८२।। . अर्थ- जिससे राग नष्ट होता है, धर्म की वृद्धि होती है, संयम पुष्ट होता है, विवेक उत्पन्न होता है, आत्मा में शान्ति आती है, पर का उपकार होता है, तथा पात्र का बिगाड़ नहीं होता वही द्रव्य प्रशंसनीय होता है। .. आ० अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं - रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते। द्रव्यं तदेव देयं सुतपः स्वाध्यायवृद्धिकरम्।।पु०सि०१७०।। अर्थ- जो राग-द्वेष, असंयम, मद, दुःख, भय आदि उत्पन्न नहीं करता और सुतप तथा स्वाध्याय की वृद्धि करता है, वही द्रव्य साधु को देने योग्य है। पं० आशाधर जी लिखते हैं - पिण्डशुद्धयुक्तमन्नादिद्रव्यं वैशिष्ट्य मस्य तु। रागाद्यकारकत्वेन रत्नत्रय चयाङ्गता।।सा० ध०४६।। अर्थ- आहार, औषध, आवास, पुस्तक, पिच्छिका आदि द्रव्य देने योग्य हैं। राग-द्वेष, असंयम, मद, दुःख आदि को उत्पन्न न करते हुए सम्यग्दर्शन आदि की वृद्धि का कारण होना उस द्रव्य की विशेषता है। आहार दान की प्रशंसा करते हुए आ० कार्तिकेय लिखते हैंभोयणदाणे दिण्णे तिण्णि वि दाणाणि होति दिण्णाणि। भुक्ख-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीणं ।।३६३।। भोयण-बलेण साहू सत्थं सेवेदि रत्ति-दिवसं पि। भोयण-दाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होति।।३६४।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३३) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- भोजनदान देने पर तीनों ही दान दिये होते हैं; क्योंकि प्राणियों को भूख और प्यासरूपी व्याधि प्रतिदिन होती है। भोजन के बल से ही साधु रात-दिन शास्त्र का अभ्यास करते हैं और भोजन दान देने पर प्राणों की भी रक्षा होती है। आहार दान की महत्ता दिखाते हुए टीकाकार शुभचन्द्र लिखते हैं - मरणसमं णत्थिभयं खुहासमा वेयणा णत्थि। वंछसमं णत्थि जरो दारिद्दसमो बइरिओ णत्थि।। अर्थ- मृत्यु के समान कोई भय नहीं है, भूख के समान कोई कष्ट नहीं है, वांछा के समान ज्वर नहीं है और दारिद्र के समान कोई वैरी नहीं है। वे आगे कहते हैं - देहो पाणा. रुवं विज्जा धम्मं तवो सुहं मोक्खं । सव्वं दिण्णं णियमा हवेइ आहार दाणेण ।।१।। भुक्खसमा 'ण हु वाही अण्ण समाणं च ओसहं णस्थि । तम्हा तद्दाणेण य आरोयत्तं हवे दिण्णं ।।२।। आहारमओ देहो आहारेण विणा पडेइ णियमेण । तम्हा. जेणाहारो . दिण्णो देहो हवे तेण ।।३।। ता देहो ता पाणा ता रुवं ताम जाण विण्णाणं । जामाहारो पविसइ देहे जीवाण सुक्खयरो।।४।। आहारसणे देहो देहेण तवो तवेण रयसडणं । रयणासे वरणाणं णाणे मोक्खो जिणो भणइ ।।५।। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, ३६३-६४) अर्थ- आहारदान देने से शरीर, प्राण, रुप, विद्या, धर्म, तप, सुख, ज्ञान, मोक्ष सभी नियम से दिया हुआ समझना चाहिये। भूख के समान व्याधि नहीं और अन्न के समान औषधि नहीं है, अत: अन्नदान से औषध दान ही दिया जानना चाहिए। यह शरीर आहारमय है! आहार न मिलने से यह नियम से टिक नहीं सकता, अत: जिसने आहार दिया उसने शरीर ही दिया जानना चाहिए। शरीर, प्राण, रूप, ज्ञान बगैरह तभी तक हैं जब तक शरीर में सुखदायक आहार पहुँचता है। आहार से शरीर रहता है, शरीर से तपश्चरण होता है, तप से कर्मरूपी रज का नाश होता है, कर्मरूपी रज का नाश होने पर उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है और उत्तम ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३४) आचार्य वसुनन्दि उपरोक्त सभी तथ्यों को जानकर रत्नत्रय के धारी पात्रों को आहार अर्थात् भोजन दान अवश्य ही देना चाहिए ।। २३४ ।। दुःखियों को करुणादान अइबुढ्ड - बाल - मूयंध - बहिर-देसंतरीय - रोडाणं । जहजोग्गं दायव्वं करुणादाण त्ति भणिऊण ।। २३५ ।। अन्वयार्थ – (अइबुड्ड) अतिवृद्ध, (बाल) बालक, (मूयंध) मूक, अन्ध, (बहिर) बधिर, (देसंतरीय) देशान्तरीय, (रोडाणं ) दरिद्रियों को, (करुणादाणत्ति भणिऊण) करुणादान दे रहा हूँ' ऐसा कहकर (जहजोग्गं) यथायोग्य, (दायव्वं) देना चाहिए। अर्थ — अति वृद्ध, बालक, मूक (गूंगा), अन्ध, वधिर (बहिरा), देशान्तरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवों को 'करुणा दान दे रहा हूँ' ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए। व्याख्या- अतिवृद्ध - जिसकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गई हैं, शरीर कांपता है, दीन मुख है, ऐसे अत्यन्त वृद्ध जनों को, बाल- जो अविकसित वय वाले हैं, जिनमें कार्य-अकार्य का विवेक नहीं है, जो युवा होकर भी ज्ञान-हीन, अत्यन्त दुर्बल शरीर वाले हैं ऐसे बालकों को, मूक- जो स्पष्टभाषी नहीं है, जिन्हें जनभाषा बोलनी नहीं आती, ऐसे मूक जनों को, अन्य - जिनकी आंखें किसी व्याधि विशेष से ग्रसित है, जिन्हें बिल्कुल भी नहीं दिखता अथवा अत्यल्प दिखता है, ऐसे अन्ध जमों को, बधिर जो बहरे हैं, जिन्हें कानों से सुनाई नहीं देता, ऐसे बधिरजनों को, देशान्तरीय- जो किसी अन्य देश से आये हैं, परदेशी हैं ऐसे देशान्तरीय जनों को, तथा रोगी अर्थात् जो किसी प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हैं और जो दरिद्र अर्थात् गरीब हैं, ऐसे दरिद्रजनों को “मैं करुणादान दे रहा हूँ” ऐसा कहकर अर्थात् मन में समझकर यथायोग्य आहार आदि का दान देना चाहिए । दिगम्बराचार्यों ने सम्यग्दृष्टि श्रावक को कुपात्रों अथवा अपात्रों में दान देने का सीधा निषेध नहीं किया अपितु दिशादर्शन देते हुए कहा है कि, कुपात्रों अथवा अपात्रों को स्वविवेक और करुणाबुद्धिं से दान देना चाहिए। करुणाबुद्धि से विवेकपूर्वक दान देने में दोष नहीं, अपितु दोष है उन्हें पात्र समझ कर दान देने में । अपात्र में पात्र बुद्धि हो तब सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) में दोष आता है । अपात्र को अपात्र समझकर करुणापूर्वक दान देना चाहिए, उसमें भी विवेक की आवश्यकता होती है कि पात्र योग्य है १. दरिद्राणाम् . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (२३५) आचार्य वसुनन्दि अथवा अयोग्य, उसे आवश्यकता है अथवा नहीं, आदि का ध्यान रखना चाहिए । । २३५ ।। औषधिदान का लक्षण उववास-वाहि परिसम-किलेस' - परिपीडयं - मुणेऊण । पत्थं सरीरजोगं भेसजदाणं पि दायव्वं ।। २३६ ।। अन्वयार्थ - ( उववास) उपवास, (वाहि) व्याधि, (परिसम) परिश्रम, (किलेस) क्लेश, (परिपीडयं) परिपीड़ित को, (मुणेऊण) जानकर, ( सरीरजोग्गं) शरीर के योग्य, (पत्थं) पथ्यरूप; (भेसजदाणं पि) औषधिदान भी, (दायव्वं) देना चाहिए। अर्थ — उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से परिपीड़ित जीव को जानकर अर्थात् देखकर शरीर के योग्य पथ्यरूप औषध दान भी देना चाहिए । व्याख्या— उपवास — चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है । आचार्य प्रभाचन्द्र लिखते हैं किं पुनः प्रोषधोपवास शब्दाभिधेयं ? प्रत्याख्यानं । केषां ? चतुरभ्यवहार्याणां चत्वारि अशनपानखाद्यलेह्यलक्षणानि तानि चाभ्यवहार्याणि च भक्षणीयानि तेषां । अर्थ - प्रोषधोपवास शब्द से क्या अर्थ समझना चाहिये ? त्याग किसका ? अशन, पानखाद्य और लेह्य लक्षण वाले सभी पदार्थों का त्याग करना चाहिए । व्याधि - पं० आशाधर जी इष्टोपदेश की टीका में लिखते हैं“व्याधिर्वातादिदोषवैषम्यं।” अर्थात् वात, पित्त, कफ आदि दोषों की विषमता ही व्याधि है। नीतिकारों ने कहा है- “ शरीरं व्याधि मन्दिरम् । " शरीर व्याधियों का घर है। आ० शिवकोटि भगवती आराधना ग्रन्थ में लिखते हैं जदि रोगा एक्कम्मि चेव अच्छिम्मि होंति छण्णउदी । सव्वम्मि दाइं देहे होदव्वं कदिहिं रोगेहिं । । १०५४।। - अर्थ — यदि एक नेत्र बराबर शरीर में छ्यानवे रोग उत्पन्न होते हैं तो सम्पूर्ण शरीर में कितनी व्याधियां होगी ? अर्थात् बहुत होगी। १. झ. पडि. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि इस कथन की पूर्ति करते हुए आ० अमितगति लिखते हैं कोट्य: पंचाष्टषष्टीश्च लक्षा: सह सहस्रकैः । नवभिनवतिः पंचशत्याशीतिश्चतुर्युता।।म०क०१०८६।। अर्थ- मानव शरीर में पांच करोड़, अड़सठ लाख, निन्यानवें हजार, पांच सौ चौरासी रोग होते हैं। आ० शुभचन्द्र ने उपरोक्त रोगों की संख्या ही नारकियों के शरीर में बताई हैं, . (देखिये- कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा सं० ३९ की संस्कृत टीका)। आ० शिवकोटि पुन: कहते हैं - वाइयपित्तिमसिभियरोगा तण्हा छुहा समादी य। णिच्चं तवंति देहं अद्दहिदजलं च जह अग्गी। भ०आ० १०५३।। अर्थ- वातजन्य रोग, पित्तजन्य रोग, कफजन्य रोग, क्षुधा-तृषा, श्रम आदि से अग्नि तप्त जल के समान यह शरीर सन्तप्त होता है। अत: जो मोक्षमार्ग में साधनारत साधक हैं, उन्हें यथायोग्य स्वास्थ्य और साधनावर्द्धक औषधियों का आहार आदि के समय अथवा योग्य समय में दान देना चाहिए। . औषधिदान के अन्तर्गत रत्नत्रय साधकों की तेल आदि पदार्थों से मालिश करना उनके हाथ-पैर आदि दाबना भी ग्रहण करना चाहिए। आ० शिवकोटि वैयावृत्ति की प्रेरणा देते हुए कहते हैं - येनाद्यकाले यतीनां वैयावृत्यं कृतं मुदा । तेनैव शासनं जैनं प्रोद्धतं शर्मकारणम् । रत्नमाला।। अर्थ- जिस पुरुष ने आज के वर्तमान काल में हर्षपूर्वक साधुओं की वैयावृत्ति की, उसने ही सुख के कारणभूत जैनशासन का उद्धार किया। वैयावृत्ति की परिभाषा करते हुए आ० समन्तभद्र लिखते हैं कि - व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात्। वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम्।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ११२) अर्थ- गुणानुराग से संयमी पुरुषों की आपत्तियों को दूर करना, उनके चरणों का मर्दन करना (दाबना) तथा इसी प्रकार की और भी जो उनकी सेवा-टहल या Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (२३७) सार-संभाल की जाती है, वह सब वैयावृत्त्य है । इस कलिकाल में संहनन की हीनता, असंयम की बहुलता आदि कारणों से चारित्र का परिपालन करना, अत्यन्त कठिन हो चुका है। मिथ्यात्व के बोल बाले के कारण संयमी जीवन व्यतीत करना - अत्यन्त दुष्कर हो रहा है । फिर भी आश्चर्य है कि आज अनेको युवासन्त आत्मकल्याण के साथ-साथ पर-कल्याण करने में संलग्न हैं। फिर भी मुनियों की संख्या नगण्य है अर्थात् पात्र प्राप्ति अतिशय दुर्लभ है। आचार्य वसुनन्दि वैभव हाथी के कर्ण अथवा काक के चक्षु के समान अत्यन्त चंचल है। कब आये और कब जाये? इसका कोई निश्चय नहीं है । पुण्य के फल से प्राप्त हुई विभूति को पुण्य करके ही स्थिर रखा जा सकता है। अतः गृहस्थ को सदैव यह प्रयत्न करना चाहिए कि वे अपने वैभंव का सदुपयोग करे। वैभव की अस्थिरता और पात्र की दुर्लभता देखते हुए वैयावृत्ति में मन को लगाना, सद्गृहस्थ का कर्तव्य है । आ० शिवार्य ने लिखा है कि वैयावृत्ति के १६ गुण बताते हुए गुणपरिणामो सढ्ढा वच्छल्लं भत्तिपत्तलंभो य। संभाणं तवपूया अव्विच्छत्ती समाधी य । आणा संजमसाखिल्लदा य दाणं च अविदिगिंछा य। वेज्जावच्चस्स गुणा पभावणा - कज्जपुण्णाणि ।। (भगवती आराधना, ३२४, ३१५) अर्थ - १. साधुनि के गुणन में परिणाम, २. श्रद्धान, ३. वात्सल्य, ४ . भक्ति, ५. पात्रलाभ, ‘६. सन्धान-जो रत्नत्रय तै जोग, ७. तप, ८. पूजा, ९. धर्मतीर्थ की अव्युच्छित्ति, १०. समाधि, ११. तीर्थङ्करनि की आज्ञा का धारना, १२. संयम की सहायता, १३. दान, १४. निर्विचिकित्सा, १५. भावना, १६. कार्यपूर्णता एते वैयावृत्य करने तै गुणप्रकट होय हैं। वैयावृत्ति करने से धर्म प्रभावना होती है, संयमी की सुरक्षा होती है। जो हर्षपूर्वक वैयावृत्ति करते हैं, वे मानो सुख के कारणभूत जैनधर्म का और अपनी आत्मा का उद्धार कर रहे हैं। दीन-दुःखियों को औषधि-दिला देना, औषधालय खुलवाना, रोगी-शोकदुःखी जनों को फल, दूध, भोजन आदि देना भी औषधि दान का ही रूप ह।। २३६ ।। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (२३८) शास्त्र दान आगम-सत्याइं लिहाविऊण दिज्जंति जं जहाजोग्गं । तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा । । २३७ ।। अन्वयार्थ - (आगम - सत्थाई) आगम-शास्त्रों को, (लिहाविऊण) लिखवाकर, (जं) जो, (जहाजोग्गं) यथायोग्य पात्र को, (दिज्जंति) दिये जाते हैं, (तं) उसे, (तहा) तथा, (जिणवयणज्झावणं) जिन वचनों का अध्यापन कराना, (सत्थदाणं) शास्त्र दान, (जाण) जानना चाहिए। अर्थ - जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को दिये जाते हैं, उसे शास्त्र दान जानना चाहिए तथा जिन वचनों का अध्यापन कराना - पढ़ाना भी शास्त्र दान हैं। व्याख्या– जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कथित, गणधरों द्वारा उद्बोधित और परम्पराचार्यों द्वारा लिखित जिन-आगम को लिखवाना - छपवाना, विद्यालय खुलवाना, अध्यापन करना-कराना अर्थात् पढ़ना और पढ़ाना आदि जो भी निःस्वार्थ ज्ञान दान है वह शास्त्रदान समझना चाहिए। परम्पराचार्यों में प्रमुख आचार्यों की गणना करते हुए आ० श्रुतसागर सूरि सूत्रप्राभृतम् की गाथा संख्या दो की टीका में कहते हैं - - आचार्याणां परम्परा श्रेणिर्यत्र मार्गे स आचार्यपरम्परः आचार्यप्रवाहमुक्तौ मार्गस्तेन मार्गेण । कोऽसौ मार्ग चेदुच्यते - श्रीमहावीरादनन्तरं श्री गौतमः सुधर्मो जम्बूश्चेति त्रयः केवलिनः। विष्णुः, नन्दिमित्रः, अपराजितः, गोवर्धनः, भद्रबाहुश्चेति पञ्चश्रुतकेवलिनः। तदनन्तरं, विशाखः, प्रोष्ठिलः, क्षत्रियः, नागसेनः, जयसेनः, सिद्धार्थः, धृतिषेणः विजय:, बुद्धिलः, गङ्गदेवः, धर्मसेनः, इत्येकादशपूर्विणः । नक्षत्रः, जयपालः, पाण्डुः,ध्रुवसेनः, कंसाश्चेतिपञ्चैकादशाङ्गधराः । सुभद्रः, यशोभद्रः, भद्रबाहुः, लोहाचार्य एते चत्वार एकाङ्गधारिणः । जिनसेनः, अर्हद्वलिः, माघनन्दी, धरसेनः, पुष्पदन्तः, भूतबली:, जिनचन्द्र:, कुन्दकुन्दाचार्य:, उमास्वामी, समन्तभद्र स्वामी, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपादः, एलाचार्य, वीरसेन:, जिनसेनः, नेमिचन्द्रः, रामसेनाश्चेति प्रथमाङ्गपूर्वभागज्ञाः। अकलङ्कः, अनन्तविद्यानन्दी, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्रः, रामचन्द्रः एते सुतार्किकाः। वासवचन्द्रः गुणभद्र एतौ नग्नौ अन्ते वीरङ्गजश्च । चूँकि यह आचार्यों की नामावली कालक्रमानुसार नहीं है फिर भी इतना स्पष्ट है कि इस प्रकार के निस्पृही, विद्वान्, दिगम्बराचार्यों की और आगमानुसारी विद्वानों की वाणी ही समादर के योग्य है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३९) आचार्य वसुनन्दि आ०कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते हैं- "आगमचक्खू साहू' (२३४) अर्थात् साधुओं की आंखें आगम ही हैं। सामान्यजन चर्म चक्षुओं से देखते हैं, किन्तु मुनिगण आगम में वस्तुस्थिति को जानते और देखते है, अत: सत्पात्रों को शास्त्रदान देना चाहिए। पूर्वाचार्यों द्वारा रचित जिनवाणी का अनुवादन, लेखन एवं प्रकाशन श्रेष्ठ विद्वानों के सम्पादकत्व में होना चाहिए।।२३७।। अभयदान-शिखामणि जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं। तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणाणं ।। २३८।। · अन्वयार्थ– (मरणभयभीरुजीवाणं) मरण से भयभीत जीवों का, (ज) जो, (णिच्च) नित्य, (परिरक्खा कीरइ) परिरक्षण किया जाता है, (त) वह, (सव्वदाणाणं) सर्व दानों का, (सिहामणि) शिखामणि रूप, (अभयदाणं) अभयदान, (जाण) जानों। अर्थ- मरण से भयभीत जीवों का जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सर्व दानों का शिखामणि रूप अभयदान जानना चाहिए। व्याख्या- प्राणों के वियोग रूप मरण भय से जो भयभीत जीव हैं, उनकी, हमेशा ही रक्षा करना तथा सुदा ही सर्व जीवों पर करुणा धारण कर उन्हें प्राणदान देना, आश्रय देना आदि रूप सर्व दानों में शिखामणि स्वरूप अभयदान जानना चाहिए। .. चूँकि सभी दानों की अपनी-अपनी महत्ता है। प्रत्येक दान भव्य जीवों के आध्यात्मिक विकास में अत्यन्त सहयोगी हैं, किन्तु यहाँ पर आचार्य श्री ने अभयदान को सर्व दानों में शिखामणि कहा है सो ठीक ही है, क्योंकि भयभीत प्राणी न तो आहार ही कर सकता है, न ही अध्ययन कर सकता है और न ही स्वस्थ रह सकता है। एक अन्य कारण यह भी है कि तीन प्रकार के दान तो केवल मनुष्यों या स्थूल तिर्यञ्चों को ही दिये जा सकते हैं, किन्तु चौथे अभयदान के अन्तर्गत दया सभी जीवों पर धारण की जा सकती है। विवेकयुक्त प्रवृत्तियों से छोटे-छोटे जीवों का भी रक्षण किया जा सकता है। सत्पात्र एवं मनुष्यादि स्थूल प्राणियों को अभयदान कई प्रकार से दिया जा सकता है, किन्तु छोटे-छोटे जीवों की रक्षा कर, उनको कष्ट न पहुंचे इस प्रकार की प्रवृत्ति कर उन्हें अभय प्रदान किया जा सकता है। मुनि आदि सत्पात्रों को योग्य वसतिका-विहार आदि देकर, विहार में उनके साथ रहकर आदि प्रकार से अभयदान दिया जा सकता है। एक दृष्टि से देखा जाये तो जिस प्रकार आहार, औषध और शास्त्रदान में एक भी दान देने पर चारों दिये ऐसा समझा जाता है, उसी प्रकार अभयदान देने से चारों Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४०) आचार्य वसुनन्दि ही दान दिये, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि भयरहित प्राणी ही भोजन कर सकता है। भय रहित प्राणी ही औषधि आदि का सेवन कर स्वस्थ रह सकता है और भय रहित प्राणी ही शास्त्र स्वाध्याय एवं पठन-पाठन आदि कर सकता है। अत: अभयदान सब दानों में शिखामणि है। आहार, आवास आदि उन सभी वस्तुओं को इसके अन्तर्गत ग्रहण किया जा सकता है, जिनसे किन्हीं भी जीवों का किञ्चित भी रक्षण होता है।। २३८।। । दानफल-वर्णन दान का फल कहने की प्रतिज्ञा अण्णाणिणो वि जम्हा कज्जं ण कुणंति णिप्फलारंभं। तम्हा दाणस्स फलं समासदो वण्णइस्सामि।। २३९।।' अन्वयार्थ- (जम्हा) चूँकि, (अण्णाणिणो वि) अज्ञानीजन भी, (णिप्फलारंभ) निष्फल आरम्भ वाले, (कज्जं ण कुणंति) कार्य को नहीं करते हैं, (तम्हा) इसलिए (मैं), (दाणस्स फलं) दान का फल, (समासदो) संक्षेप से, (वण्णइस्सामि) वर्णन करूँगा। अर्थ- चूंकि, अज्ञानीजन भी निष्फल आरम्भ वाले कार्य को नहीं करते हैं, इसलिए मैं दान का फल संक्षेप से वर्णन करूंगा। व्याख्या- जितने भी प्रवृत्तिरत प्राणी हैं, उनकी जो भी क्रियायें हैं निश्चित ही किसी इष्ट फल की प्राप्ति के लिए होती हैं। बिना फल की चाह के क्रियायें संसारी जीवों में अधिक सम्भव नहीं है। जब सामान्य ज्ञानी अथवा अज्ञानी जीव भी फल के लिए प्रवृत्ति करते हैं तो दान जैसे महान कार्य निष्फल के लिए कैसे हो सकते हैं? अर्थात् नहीं हो सकते। इसलिए मैं (आ० वसुनन्दि) यहाँ पर संक्षेप से दान के फल का निरुपण करूँगा।।२३९।। उत्तम पात्र को दिये गये दान का फल जह उत्तमम्मि खित्ते पइण्णमण्णं सुबहुफलं होइ। तह दाणफलं णेयं दिण्णं तिविहस्स पत्तस्स ।। २४०।। अन्वयार्थ- (जह उत्तमम्मि खित्ते) जैसे उत्तम-खेत में, (पइण्णमण्णं) बोया गया अन्न, (सुबहुफल) बहुत अधिक फल (वाला), (होइ) होता है, (तह) वैसे ही, १. झ.ब. छित्ते. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (२४१) आचार्य वन्दि (तिविहस्स पत्तस्स) त्रिविध पात्र को, (दिण्णं) दिये गये (दाणफलं) दान का फल, (णेयं) जानना चाहिए। अर्थ — जिस प्रकार उत्तम खेत में बोया गया अन्न बहुत अधिक फल को देता है, उसी प्रकार त्रिविध पात्र को दिये गये दान का फल जानना चाहिए ।। व्याख्या- जिस उपजाऊ मिट्टी वाले खेत में बोया गया अच्छा बीज यथायोग्य खाद-पानी, प्रकाश आदि मिलने पर बहुत अधिक फल अर्थात् फसल को देता है, उसी प्रकार तीन तरह के सत्पात्रों को दिया हुआ दान अत्यधिक शुभ फल को प्रदान कर जीवों को सुखी करता है। आचार्य योगीन्द्र (जोइन्दु) देव, दान, पूजा एवं पञ्चपरमेष्ठि वंदना आदि को परम्परा से मोक्ष का कारण बताते हुए कहते हैं - दाणु ण णु. मुणिवरहँ ण वि पुज्जिउ जिण पाहु | पंच ण वंदिय परम गुरु किमु होसइ सिव- लाहु || प० प्र० १६८ ।। अर्थ- आहार आदि दान मुनीश्वर आदि पात्रों को नहीं दिया, जिनेन्द्र भगवान को भी नहीं पूजा, अरहंत आदिक पंच परमेष्ठी भीनहीं पूजे तब मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? अर्थात् दान, पूजा, वंदना आदि के बिना मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी रयणसार में कहते हैं— 'दाणं भोयण मेत्तं दिदि धण्णो हवेई सायारो।' अर्थात् सागार (श्रावक) भोजन मात्र के दान देने से धन्य होता है। सुपात्रों को दान देने से भोग-उपभोग की सामग्री तथा स्वर्ग-सुख मिलता ही है क्रमशः · मोक्ष (निर्वाण) सुख भी मिलता हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। देखिये गाथा - दिण्णदि सुपत्तदाणं विसेसदो होदि भोगसग्गमही। णिव्वाणसुहं कमसो णिद्दिवं जिणवरिंदेहिं । । २० सा० १६ । । रयणसार ग्रन्थ की वैसे तो प्रत्येक गाथा अपने आपमें एक नया सन्देश देती है किन्तु दान के सम्बन्ध में एक और विशेष उल्लेखनीय गाथा है - जो मुणि भुत्तवसेसं भुञ्जदि सा भुञ्जदे जिणुद्दिठ्ठे । संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवर - सोक्खं ।। २२ ।। अर्थात् जो श्रावक मुनियों को आहार दान के पश्चात अवशेष अंश का सेवन करता है, वह संसार के सारभूत सुखों को प्राप्त होता हुआ शीघ्र ही मोक्ष सुख को पाता है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४२) आचार्य वसुनन्दि आचार्य श्री समन्तभद्र रत्न करण्डश्रावकाचार में कहते हैंगृहकर्मणापिनिचितं कर्म-विमार्टि खलु गृहविमुक्तानाम्। अतिथीनां प्रति पूजा रुधिरमलं धावते वारि ।।११४।। अर्थात्- निश्चित रूप से जिस प्रकार जल खून को धो देता है उसी प्रकार गृहरहित निर्ग्रन्थ मुनि आदि सत् पात्रों को दिया हुआ दान गृहस्थी-सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित सुदृढ़ पापकर्मों को भी नष्ट कर देता है। वे आगे और भी कहते हैं- .... क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगते दानमल्पमपि काले। फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीर भृताम् ।।११६।। अर्थात्- उचित समय में योग्य पात्र के लिये दिया हुआ थोड़ा भी दान उत्तम पृथ्वी में पड़े हुए वट वृक्ष के बीज के समान शरीरधारी प्राणियों के लिए माहात्म्य और वैभव से युक्त छाया की प्रचुरता से सहित बहुत अधिक अभिलषित (इच्छित) फल को देता है। परमात्मप्रकाश (१११-४) टीका में आचार्य ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं'गृहस्थानामाहार-दानादिकमेव परमो धर्मः' अर्थात्- आहारदान आदिक ही गृहस्थों के परम धर्म हैं। इन्हीं व्यवहार-धर्मों को पालन करने वाला श्रावक एक दिन स्वयं भी मुनि बन जाता है और कालान्तर में कल्याण का भाजन बनता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं- . , जो पुण लच्छिं संचदि ण च देदि सुपत्तेसु। सो अप्पाणं वंचदि, मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ।।२३।। । अर्थात्- जो मनुष्य लक्ष्मी का केवल संचय करता है, न उसे उत्तम पात्रों में दान देता है और न ही शुभ कार्यों में लगाता है, वह अपनी आत्मा को ठगता है और उसका मनुष्यपर्याय में जन्म लेना निष्फल है। पात्र-दान की महत्ता को ध्यान में रखकर लिखी गयीं आचार्य पद्मनन्दी जी की कुछ पंक्तियाँ देखिये- . सौभाग्यसौर्य-सुखरूप-विकिता धी, विद्या वपुर्धन गृहाणिकुले च जन्म । संपद्यतेऽखिलमिदं किल पात्रदानात, तस्मात् किमत्र सततं क्रियते न यत्न।। अर्थात्- सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, सुन्दरता, विवेक, बुद्धि, विद्या (विभिन्न प्रकार की कलायें), शरीर, धन, महल और उच्चकुल ये सब निश्चय से सुपात्र दान के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। फिर, हे भव्य जनो! तुम इस सुपात्र-दान के विषय में प्रयत्न Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२४३) आचार्य वसुनन्दि क्यों नहीं करते? अर्थात् यत्नपूर्वक सच्चे त्यागियों (मुनियों) को आहार और योग्य वस्तुयें दान दो। आचार्य श्री श्रुतसागर जी तत्त्वार्थवृत्ति पृष्ठ पचपन (५५) पर आहार आदि के दान देने से दाता को सम्यग्दर्शन आदि की वृद्धि कैसे होती है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुये कहते हैं- शुद्ध, सरस आहार देने से मुनि के शरीर में शक्ति, आरोग्यता आदि होती है और इससे मुनि के ज्ञानाभ्यास, उपवास, तीर्थयात्रा, धर्मोपदेश आदि में सुखपूर्वक प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार पीछी-कमण्डलु, पुस्तक आदि संयम के उपकरण देने से भी परोपकार होता है। सम्यग्नज्ञानी दाता अपने हाथ से योग्य पात्र के लिये योग्य वस्तु का दान दे, इससे सम्यग्दर्शन की वृद्धि होती है। ___ आजकल कुछ लोग व्यस्तता के कारण स्वयं दान न देकर, दूसरों से दिलाते हैं यह कार्य उचित नहीं। आचार्य सोमदेव यशस्तिलकचम्पू काव्य में कहते हैं धर्मेषु स्वामीसेवायां सुतोत्पत्तौ च क: सुधी। अन्यत कार्य देवाभ्यां प्रतिहस्त समादिशेत्।।पृष्ठ ४०५।। . अर्थात्- धर्म, स्वामी सेवा और पुत्रोत्पत्ति में स्वयं प्रवृत्ति करना चाहिये। ये कार्य दूसरों से नहीं कराना चाहिये। समर्थ होते हुए भी अगर धर्म कार्य आप दूसरों से करवायेंगे तो पुण्य भी करने वाले को ही प्राप्त होगा। हाँ, अगर आप में धर्मकार्य करने की योग्यता नहीं है तब अवश्य दूसरों से कराने पर बराबर फल की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति कार्य भी नहीं कर सकते और धन-अन्न आदि देकर दूसरे से कराने में भी समर्थ नहीं हैं ऐसे व्यक्ति पूजा, दान, वैयावृत्ति आदि धर्म-कार्यों की तथा करने वालों की प्रशंसा करके ही पुण्य कमाते हैं। दान आदि न देने वालों की निन्दा करते हुये क्रियाकोष में लिखा है.. जानो गृद्धसमान, ताके सुत दारादिका । जो नहीं करे सुदान ताके धन आमिष समा ।।१९८६।। ___ अर्थात् जो दान नहीं करता है उसका धन मांस के समान है और उस कमाई को खाने वाले पुत्र, स्त्री आदि गिद्ध-मंडली के समान हैं। अन्यत्र देखिये ऐषां न पूजा जिनपुंगवस्य, दानं न शीलं न तपोजपश्च। न धर्मसारं गुरुसेवनं च गेहे रथे ते बृषभाश्चरन्ति ।। अर्थात्- जिसके द्वारा न जिनेन्द्र भगवान की पूजा की जाती है, न सत्पात्रों को दानं दिया जाता है, न शील (संयम) का पालन किया जाता है, न जप-तप किया Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४४) आचार्य वसुनन्दि जाता है और न धर्म के सारभूत गुरु की सेवा ही की जाती है, ऐसे मनुष्य गृहस्थी रूपी रथ में जुते हुए बैल के समान संसार में भ्रमण करते है। मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि सुपात्रों को दान देकर उनकी रत्नत्रय साधना में सहायक बनकर महान पुण्य अर्जित कर स्वर्गापवर्ग सुख को प्राप्त कर निज में लीन हो सकें।।२४०।। कुपात्र में दिये गये दान का फल . . . जह मज्झिमम्मि खित्ते अप्पफलं होइ वाबियं वीयं। . मज्झिमफलं विजाणह कुपत्तदिण्णं तहा दाणं ।। २४१।। अन्वयार्थ- (जह) जिस प्रकार, (मज्झिमम्मि खित्ते) मध्यम खेत में, (वावियं वीय) बोया गया बीज, (अप्पफलं) अल्पफल (वाला), (होइ) होता है, (तहा) उसी प्रकार, (कुपत्तदिण्णं दाणं) कुपात्र में दिया गया दान, (मज्झिमफलं) मध्यम फल वाला, (विजाणह) जानना चाहिए। . अर्थ- जिस प्रकार मध्यम खेत में बोया गया बीज अल्प फल देता है, उसी प्रकार कुपात्र में दिया गया दान मध्यम फल वाला जानना चाहिए।। व्याख्या- फसल की वृद्धि और कमी में मिट्टी अर्थात् क्षेत्र का बहुत बड़ा महत्त्व है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ सेव, अंगूर, मौसम्मी, अनन्नास जैसे फल बड़ी मात्रा में उत्पन्न होते हैं, किन्तु योग्य क्षेत्र न मिलने से वे दूसरी जगह या तो फलते ही नहीं और अगर फलते भी है तो अत्यल्प मात्रा में। इसी तरह काजू, अखरोट, बादाम, चावल, केला व अन्य पदार्थों के भी निश्चित स्थान हैं, जहाँ वे बड़ी मात्रा में उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र या तो उत्पन्न ही नहीं होते और होते है तो अल्पं फल देते हैं। ऐसा ही पात्रों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। जो साधक, जो सत्पात्र, सत्श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र के साथ अपनी साधना कर रहा है निश्चित ही अपने सहायकों को उत्तम फल देगा, किन्तु जो साधक साधना तो कर रहा है पर सम्यक्तया नहीं कर रहा वह उत्तम फल नहीं दे सकता और एक व्यक्ति साधना ही नहीं कर रहा है उसे दानादि देने का क्या फल होगा अर्थात् कुछ नहीं? . सम्भवत: आचार्यों ने कुपात्र दान का फल अल्प फल इसलिये कहा है कि उस पात्र में अभी भले ही सम्यग्दर्शन नहीं है किन्तु व्रत तो हैं, हो सकता वह इसी भव में सम्यक्त्व प्राप्त कर सच्चा साधक बन जाये।।२४१।। १. झ.ब. छित्ते. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४५) आचार्य वसुनन्दि अपात्र में दिये गये दान का फल जह ऊसरम्मि खित्ते' पइण्णवीयं ण किं पिरे रुहेइ। फलवज्जियं वियाणह अपत्तदिण्णं तहा दाण।। २४२।। अन्वयार्थ- (जह) जिस प्रकार, (ऊसरम्मि खित्ते) ऊसर खेत में, (पइण्णवीय) बोया गया बीज, (किंपि) कुछ भी, (ण रुहेइ) नहीं उगता है, (तहा) उसी प्रकार, (अपत्तदिण्णं दाणं) अपात्र में दिया गया दान, (फलवज्जियं) फल-रहित, (वियाणह) जानना चाहिए। अर्थ- जिस प्रकार उसर खेत में बोया गया बीज कुछ भी नहीं ऊगता है उसी प्रकारं कुपात्र में दिया गया दान भी फल-रहित जानना चाहिए।। व्याख्या– जिस प्रकार कंकड़-पत्थर और कठोरता से युक्त ऊसर (बंजर) भूमि में बोया गया उत्तम बीज भी कुछ फल नहीं देता प्रत्युत स्वयं भी नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पाखंडी साधुओं, भिखारियों एवं गाय-वृक्ष आदि को पात्र बुद्धि से दिया गया दान किंचित भी फल नहीं देता। करुणाबुद्धि से विवेकपूर्वक दिया गया दान फलदायी भी हो सकता है।।२४२।। अपात्र विशेष में दिये गये दान का फल दुःखदायी कम्हि अपत्त विसेसे दिण्णं दाणं दुहावहं होइ। ... जइ विसहरस्स दिण्णं तिव्वविसं जायए खीरं ।। २४३।। - अन्वयार्थ— (कम्हि अपत्त विसेसे) किसी अपात्र विशेष में, (दिण्णं दाणं) दिया गया दान, (दुहावहं होइ) दुःख देने वाला होता है, (जह) जैसे, (विसहरस्स) विषधर को, (दिण्णं) दिया गया, (खीरं) दूध, (तिव्यविसं) तीव्र विष, (जायए) हो जाता है। अर्थ- प्रत्युत किसी अपात्र विशेष में दिया गया दान अत्यन्त दुःख का देने वाला होता है। जैसे विषधर सर्प को दिया गया दूध तीव्र विषरूप हो जाता है।। व्याख्या- दान देना स्वयं के लिए हानिकारक भी हो सकता है अगर विवेकपूर्वक नहीं दिया है, तो। अगर किसी अपात्र को आपने दान दिया और उसने उसका दुरुपयोग किया तो आपका ही दान आपको दुःख देने वाला हो सकता है। एक १. झ.ब. छित्ते. २. झ. किंचि रु होइ, ब. किं पि विरु होइ. ३. झ.ब.उ. पत्त.. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि छोटी सी कथा आती है आगम में कि– एक सेठ ने भिखारी को दान में एक रुपया दे दिया। भिखारी बाजार में गया और एक रुपये में उसने मछली पकड़ने का जाल खरीदा और प्रतिदिन मछली पकड़कर बेचता और अपनी आजीविका चलाने लगा। यहाँ उस अपात्र दान के फलस्वरूप नगर का सर्वश्रेष्ठ सेठ गरीब होने लगा। उसकी गद्दियाँ लुटने लगीं, कारखाने अग्नि-पानी से नष्ट होने लगे। ऐसी स्थिति में उस सेठ को बड़ी चिन्ता हुई और उसने वस्तुस्थिति का पता लगाया तो उसे अपने किये का होश आया। किसी तरह से उसने भिखारी को दिये गये एक रुपये से खरीदे हुए जाल को लेकर जला दिया तब कहीं उसकी स्थिति कुछ सामान्य हुई इसी प्रकार के और भी उदाहरण देखे जा सकते हैं। अत: कभी भी दान दो विवेकपूर्वक पात्र-अपात्र को परख कर देना चाहिए। गाथा में आये हए 'अपत्त' शब्द के स्थान पर अन्य प्रतिलिपियों में ‘पत्त' शब्द आया है, जो गाथा छन्द एवं अर्थ को दखते हुए अधिक उचित है। क्योंकि यहाँ पात्र शब्द को सुपात्र, कुपात्र, एवं अपात्र के लिए सामान्य प्रयोग किया गया है। कदाचित् सुपात्र को दिया गया दान भी दुःखकर हो सकता है? . शंका- सुपात्र को दिया गया दान कैसे दुःखकर हो सकता है? समाधान- विवेक के अभाव में दिया गया सुपात्र दान भी दुःखकर हो सकता है। जैसा कि एक उदाहरण आता है कि रानी ने मुनिराज को कड़वी तुम्बी (तुमड़ी) आहार में दे दी परिणामस्वरूप मुनिराज को वेदना हुई और समाधिमरण हो गया। कुछ कालोपरान्त रानी का भी मरण हुआ और खोटे परिणामों से मरणकर वह नरक गई। इसी प्रकार ईर्ष्यापूर्वक दान देना, लोभ के वशीभूत होकर दान देना आदि भी दुःख के कारण हैं। अत: दान विवेकपूर्वक देना चाहिए।।२४३।। दान का फल विस्तार से कहने की प्रतिज्ञा मेहावीणं एसा सामण्णपरुवणा मए उत्ता। इण्डिं पभणामि फलं समासओ मंदबुद्धीणं।। २४४।। अन्वयार्थ- (मेहावीप) मेधावियों के लिए, (मए) मैंने, (एसा) यह, (फल) दान के फल का, (सामण्ण परुवणा उत्ता) सामान्य प्ररूपण कहा, (इण्हि) अब, (मंदबुद्धीणं) मंदबुद्धियों के लिए, (समासओ) संक्षेप से, (पभणामि) कहता हूँ। भावार्थ- मेधावी अर्थात् बुद्धिमान पुरुषों के लिए मैंने यह उपर्युक्त दान के फल का सामान्य प्ररूपण किया है। अब मंदबुद्धिजनों अर्थात् जिनको दानविधि अथवा १. प्रतिषु ‘मेहाविऊण' इति पाठः. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४७) आचार्य वसुनन्दि शास्त्र का ज्ञान अल्प है उनके लिए संक्षेप से किन्तु पहले की अपेक्षा विस्तार से दान का फल कहता हूँ।।२४४।। उत्तमपात्र में मिथ्यादृष्टि द्वारा दिये गये दान का फल मिच्छादिट्ठि भद्दो दाणं जो देइ उत्तमे पत्ते। तस्स फले णुववज्जइ सो उत्तम भोयभूमीसु।। २४५।। अन्वयार्थ- (जो) जो, (मिच्छादिट्ठि भद्दो) मिथ्यादृष्टि भद्र, (उत्तमे पत्ते) उत्तम पात्र में, (दाणं) दान, (देइ) देता है, (तस्स फले) उसके फल से, (सो) वह, (उत्तमभोयभूमीसु) उत्तम भोगभूमि में, (उववज्जइ) उत्पन्न होता है। अर्थ-जो मिथ्यादृष्टि भद्र अर्थात् मन्दकषायी पुरुष उत्तम पात्र में दान देता है, उसके फल से वह उत्तम भोग भूमियों में उत्पन्न होता है।। व्याख्या- कोई भद्र मिथ्यादृष्टि जीव, सरल परिणामी, देवशास्त्र गुरु के भक्त बनकर अगर उत्तम पात्र में अर्थात् दिगम्बर मुनिराज को आहार आदिक दान देते हैं तो वे उस पुण्य के फल से उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं और बहुत सुखों को पाते हैं। ___ जब मुनि-संघ विहार करता है, तब रास्ते में कई भद्र परिणामी आवास आदि की व्यवस्था करते हैं, कई व्यक्ति भोजन आदि के बारे में पूंछते हैं, कितने ही व्यक्ति पैर-मर्दन आदि करते हैं वे ऐसे ही और भी व्यवहार मुनिराजों से करते हैं, परिणामस्वरूप उत्तम भोगभूमि को प्राप्त करते हैं।।२४५।। - मध्यमपात्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल . जो मज्झिमम्मि पत्तम्मि देइ दाणं खु वामदिट्ठी वि। सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु।। २४६।। . अन्वयार्थ (जो) जो, (वामदिट्ठी वि) मिथ्यादृष्टि भी, (मज्झिमम्मि पत्तम्मि) मध्यम पात्र में, (दाणं देइ) दान देता है, (सो) वह, (जीवो) जीव, (मज्झिमासु भोयभूमीसु) मध्यमभोगभूमि में, (उप्पज्जइ) उत्पन्न होता है। भावार्थ- जो मिथ्यादृष्टि होकर भी भद्रपरिणामी हैं ऐसे पुरुष ऐलकक्षुल्लक-वर्णी-व्रती आदि को आहार-आवासादिक दान देकर पुण्यफलस्वरूप मध्यम भोगभूमि को प्राप्त करते हैं।। २४६।। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४८) आचार्य वसुनन्दि . जघन्य पात्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल जो पुण जहण्णपत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो वि णरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जीवो।। २४७।। अन्वयार्थ- (जो) जो, (पुण) पुनः, (तहाविहो वि णरो) उक्त प्रकार का मनुष्य भी, (जहण्णपत्तम्मि) जघन्य पात्र में, (दाणं देइ) दान देता है, (सो) वह, (जीवो) जीव, (फलेण) (उसके) फल से, (जहण्णसु भोयभूमीस) जघन्य भोगभूमि में, (जायइ) उत्पन्न होता है। भावार्थ- जो उसी प्रकार का अर्थात् उपरोक्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य भी जघन्य पात्र अर्थात् सम्यग्दृष्टि जनों को आहार, आवास, धन, कन्या, आदि दान देते हैं, उसके फल से वे जघन्य भोगभूमि के सुखों को प्राप्त करते हैं।।२४७।। कुपात्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल जायइ कुपत्तदाणेण वामदिट्ठी कुभोगभूमीसु। . अणुमोयणेण तिरिया वि उत्तट्ठाणं जहाजोगं।।२४८।। अन्वयार्थ- (वामदिट्ठी) मिथ्यादृष्टि जीव, (कुपत्तदाणेण) कुपात्रदान देने से, (कुभोगभूमीस) कुभोगभूमियों में, (जायइ) उत्पन्न होता है, (अणुमोयणेण) अनुमोदना करने से, (तिरिया वि) तिर्यश्च भी, (जहाजोग्गं) यथायोग्य, (उत्तट्ठाणं) उपर्युक्त स्थानों को प्राप्त करते हैं। अर्थ- मिथ्यादृष्टि जीव कुपात्रों में दान देने से कुभोगभूमियों में उत्पन्न होता है, अनुमोदना करने से तिर्यश्च भी यथायोग्य उपर्युक्त स्थानों को प्राप्त करते हैं।। ___ व्याख्या- मिथ्यादृष्टि जीव कुपात्र को दान देने से कुभोगभूमियों में उत्पन्न होता है। दान की अनुमोदना करने से तिर्यञ्च भी यथायोग्य उपर्युक्त स्थानों को प्राप्त करते हैं। मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च जीव उत्तमपात्र दान की अनुमोदना के पुण्य से उत्तमभोगभूमि में, मध्यम पात्र दान की अनुमोदना से मध्यम भांगभूमि में और जघन्यपात्र दान की अनुमोदना से जघन्य भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार कुपात्र दान की अनुमोदना करने से कुभोग भूमि में तथा अपात्र दान की अनुमोदना से भी तदनुकूल फल को प्राप्त होते हैं। भोगभूमि में सिंह, हाथी, घोड़ा, सर्प, व्याघ्र, गाय-भैंस-बकरी आदि सभी प्रकार के पशु होते हैं, किन्तु वे क्रूर नहीं होते, सरल परिणामी होते हैं, कभी-भी लड़ते-झगड़ते नहीं अपितु आराम से रहते हुए वहाँ के फल, फूल एवं घास आदि स्वादिष्ट पदार्थों का सेवन करते हैं।।२४८।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४९) आचार्य वसुनन्दि) बद्धायुष्क मनुष्य भोगभूमियाँ होते हैं बद्धाउगा सुदिट्ठी' अणुमोयणेण तिरिया वि। ‘णियमेणुवज्जंति य ते उत्तम भोयभूमीसु ।। २४९।। अन्वयार्थ- (बद्धाउगा सुदिट्ठी) बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टिं, (य) और, (अणुमोयणेण) अनुमोदना से, (तिरिया वि) तिर्यञ्च भी, (उत्तम भोयभूमीस) उत्तम भोगभूमि में, (ते) वे, (णियमेण) नियम से, (उववज्जति) उत्पन्न होते हैं। ___अर्थ- बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्था में पहिले मनुष्यायु को बाँध लिया है और पीछे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देने से और दान की अनुमोदना करने से उक्त प्रकार के तिर्यश्च भी नियम से उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। . व्याख्या– बद्धायुष्क– सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने से पूर्व जिसने किसी परभावसम्बन्धी आयु का बंध कर लिया है, उसे बद्धायुष्क कहते हैं। अबद्धायुष्क- जिसने सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने से पूर्व परभव सम्बन्धी आयु नहीं बाँधी है अर्थात् आयुकर्म का बंध नहीं किया है, वह जीव अबद्धायुष्क हैं। ___ जिसने परभव सम्बन्धी आय-कर्म का बन्ध कर लिया है वह निश्चित रूप से उसी आयु को प्राप्त करेगा। यदि किसी ने नरकायु का बन्ध सम्यग्दर्शन होने से पूर्व किया है तो वह प्रथम नरक में जायेगा, आगे नहीं। इसी प्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च आयु का बन्ध किया है तो भोगभूमियों में जन्म लेगा, कर्मभूमियों में नहीं। यदि देवायु का बन्ध किया है तो अच्छे देवों में उत्पन्न होगा। शंका- क्या सम्यक्त्व के प्रभाव से आयुबन्ध का विनाश नहीं हो सकता? समाधान- नहीं। आयुबन्ध होने बाद वह छूटता नहीं- ऐसा उसका स्वभाव ही है। आ० वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि- जिस्से गईए आउअंवद्धं तत्थेव णिच्छएण अज्जत्ति। (धवला १०/२३९) जिस गति की आयु बन्ध चुकी है, जीव निश्चय से वहीं उत्पन्न होता है। किसी जीव ने नरक या तिर्यश्च आयु का पूर्व में बन्ध कर लिया हो, तो वह मरकर भोगभूमि में ही जन्म लेगा। यह सम्यग्दर्शन का अपूर्व लाभ है। सम्यग्दर्शन के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए आ० समन्तभद्र ने लिखा है कि १. इं. सद्दिट्ठी, ब. सदिट्ठी. २. एकः प्रतिषु भोगभूमीसु इति पाठः. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (२५०) सम्यग्दर्शन शुद्धा, नारक तिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि। दुष्कुल विकृताल्पायु, दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः।। ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३५ ) अर्थ— जो व्रती नहीं हैं और सम्यक् दर्शन करके शुद्ध हैं ( सहित हैं) वे नरक गति को, निर्यञ्चगति को, नपुंसकपने को, स्त्रीपने को, दुष्कुल को, रोग को, अल्पायु को और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते हैं और न इनका बन्ध करते हैं । पण्डित दौलतराम जी ने लिखा है प्रथम नरक बिन षट्-भू-ज्योतिष, वान भवन षंड नारी । थावर विकलत्रय पशु में नहीं, उपजत सम्यक् धारी । । छहढाला, १६ ।। शंका- क्या नरक- तिर्यंच आयु का बन्ध होने पर भी सम्यक्दर्शन हो सकता है ? समाधान- - हाँ! नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों आयुओं में से किसी का भी बन्ध होने पर सम्यग्दर्शन हो सकता है, किन्तु अणुव्रत और महाव्रत वही धारण कर सकता है जिसने देव आयु के अलावा अन्य किसी आयु का बन्ध न किया हो अथवा किसी भी आयु का बन्ध न किया हो। जैसा कि आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कहा है चत्तारि वि खेत्ताइं आउगबंधंण होइ सम्मत्तं । अणुवद महव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तुं । । गो० जी० ६५३।। शंका— अभी आपने कहा— “अथवा किसी आयु का बन्ध न किया हो तो क्या ऐसा सम्भव है कि बिना आयु बन्ध के भी जीव कुछ काल रहता हो । समाधान— हाँ! बिना आगामी आयु बन्ध के भी यह जीव रहता है, क्योंकि आयुकर्म का बन्ध जीवन में आठ बार ही होता है और वह भी आयु के त्रिभाग पड़नें पर। आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं एक्के एक्कं आऊ एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे। अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वत्थ । । गो० कर्मका० ६४२ ।। अर्थ — एक जीव-एक भव में एक ही आयु का बन्ध करता है, वह भी जीवन में आठ-बार और बन्ध योग्य आयु के त्रिभाग शेष रहने पर, ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए। विशेष स्पष्टीकरण के लिए यहाँ मेरे (मुनि सुनीलसागर) द्वारा लिखित कथानक 'पथिक' का एक प्रकरण प्रस्तुत है— Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५१) आचार्य वसुनन्दि कल की तत्त्व चर्चा से अनुराग कुछ संतुष्ट सा नहीं था। आयुबन्ध का प्रकरण समझ में नहीं आ रहा था। अत: प्रश्न करते हुए बोला- भैया! कल आपने जो आयु बन्ध के सम्बन्ध में बातें कही थीं, वह मुझे अच्छी तरह से समझ में नहीं आई। यह आयु का त्रिभाग क्या चीज है और आठ बार बन्ध होना..... कुछ समझ में नहीं आ रहा है। विराग ने उसे समझाते हुए कहा- आगामी (वध्यमान) आयुकर्म का बन्ध जो वर्तमान (भुज्यमान) आयु के त्रिभाग में होता है, उस त्रिभाग का समय जीवन में अधिकतम आठ बार आता है। फिर भी यदि आयुकर्म का बन्ध न हो तो जीवन के अन्त समय में अर्थात् मरण के अन्तर्मुहूर्त पहले तक भी बन्ध होता है। और अब है, त्रिभाग की बात तो उसे मैं एक उदाहरण के द्वारा बताता हूँ। मान लो मेरी भुज्यमान आयु इक्यासी वर्ष है, तो इक्यासी में तीन का भाग देकर उसमें एक (तीसरा) भाग घंटाने पर अर्थात् दो-तिहाई उम्र बीत जाने पर इक्यासी वर्ष के प्रथम त्रिभाग चौवन वर्ष की उम्र में आयेगा, तब आगामी आयु का बन्ध होगा। यदि उसमें आगामी (बध्यमान) आयु का बंध नहीं हुआ तो शेष बचे वर्तमान आयु के सत्ताईस वर्षों का दूसरा त्रिभाग बहत्तर वर्ष की उम्र में आयेगा। उसमें आगामी आयु कर्म का बन्ध होगा। तब भी न हुआ तो वर्तमान आयु का नौ वर्ष का तीसरा त्रिभाग अठहत्तर वर्ष की उम्र में आयेगा जिसमें आगामी आय का बन्ध होगा। इसके बाद चौथा त्रिभाग अस्सी वर्ष में, पाँचवा त्रिभाग अस्सी वर्ष आठ माह में, छठवां त्रिभाग अस्सी वर्ष दस माह बीस दिन में, सातवां त्रिभाग अस्सी वर्ष ग्यारह माह सोलह घंटे में और आठवां त्रिभाग अस्सी वर्ष ग्यारह माह पच्चीस दिन बारह घंटे व चालीस मिनिट में आयेगा, जिसमें आगामी आयु का बन्ध होगा। . इस प्रकार बध्यमान आयु के आठ अवसर आते हैं। यदि इन आठों अवसरों में आयु कर्म का बन्ध नहीं हुआ तो आवली का असंख्यातवाँ भाग अर्थात सैकेंड का असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर आगामी आयु बन्ध अवश्य ही होगा। यह सिद्धान्त ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से लिखा है। _ विराग की बात पूर्ण होते ही अनुराग बोला- अगर पहला त्रिभाग ५४ (चौवन) वर्ष की उम्र में आता है, तो जिनका एक-दो वर्ष की उम्र (आयु) में अथवा चालीस-पचास वर्ष की उम्र में ही मरण हो जाता है, तो क्या उनको आयु बन्ध नहीं होता होगा? समझाते हुए विराग बोला- मरण काल का अचलावली काल शेष रहने पर नियम से आयुबन्ध हो जाता है। लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि जो व्यक्ति एक-दो वर्ष की उम्र में मरण कर रहा है, तो उसका एक भी विभाग न पड़ा होगा। वह तो मैंने एक दृष्टांत बताया था, हाँ! अगर किसी की वर्तमान आयु ही एक या दो वर्ष की Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५२) आचार्य वसुनन्दि) है, तो उसके त्रिभाग उसी आयु के अन्दर पड़ जायेंगे। क्योंकि कर्मभूमियाँ मनुष्यों की जघन्य (कम से कम) आयु अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट में कुछ समय कम) की है और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) आयु एक लाख कोटि पूर्व की है। अनुराग संतुष्ट मन होता हुआ बोला- यह विषय तो अच्छी तरह समझ में आ गया। लेकिन कई बार लोगों के मुँह से सुना जाता है जैसी गति वैसी मति' इसका अर्थ तो यही हुआ न कि जैसी जिसकी गति होनी होगी, उसकी बुद्धि भी वैसी हो जाएगी। अगर यह बात है, तो फिर हम क्यों धर्म कार्यों में पुरुषार्थ करें। . विराग समझाते हुए बोला- जब तक आयु बन्ध नहीं हुआ है, तब तक ‘मति अनुसार गति' बनती है, आयु बन्ध होने पर गति के अनुसार मति होती है। यदि कुगति में जाना पसन्द न हो तो मति को व्यवस्थित करना आवश्यक है। क्योंकि हो सकता है, आज तक हमारा आयु बन्ध न हुआ हो तो, हम अपनी गति जैसी चाहे वैसी बना सकते हैं। एक बात और ध्यान रखने की है कि आजकल निर्व्यसनी, उच्चवर्गीय स्वस्थ शाकाहारी मनुष्यों की औसत आयु सत्तर-पचहत्तर से लेकर अस्सी-पचासी वर्ष तक होती है। जिसका प्रथम विभाग लगभग पचास से पचपन वर्ष की उम्र में पड़ेगा, जिसमें कि आगामी आयु बन्ध हो सकता है। ___ कदाचित् किसी का आयु बन्ध भी हो गया तो भी निराश होकर बैठने की बजाय धर्म कार्यों में लगकर, स्वाध्याय द्वारा परिणामों को विशुद्ध रखा जाय तो आयु कर्म की स्थिति में उत्कर्षण-अपकर्षण (घटना-बढ़ना) हो सकता है। धर्म कार्यों में किया गया पुरुषार्थ व्यर्थ नहीं जाता, इसका जीवंत उदाहरण हुए राजा श्रेणिक, जिन्होंने कि सातवें नरक की आयु को बांधा था, किन्तु धर्म के प्रभाव से वह आयु घटते-घटते चौरासी हजार वर्ष की रह गई। प्रत्येक प्राणी को अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में सावधान रहना अनिवार्य है। अगर हम सावधानीपूर्वक शुभ प्रवृत्ति करेंगे तो कभी भी खोटी आयु का बन्ध नहीं होगा और असावधानीपूर्वक क्रियाओं के करने से खोटी आयु का बन्ध भी हो सकता है। 'जो अपनी मृत्यु को देखकर जीते हैं अथवा अपने आयकर्मबन्ध को ध्यान में रखकर जीते हैं। वे कभी पापपूर्ण प्रवृत्ति नहीं करते, क्योंकि वह जानते हैं कि जिस समय हमने पाप किया, उसी समय मरण अथवा आयुबन्ध हो गया तो नियम से कुगति का पात्र बनना पड़ेगा। 'जो अपनी मृत्यु को जानकर जीता है, वह कभी भी अनाचार, अत्याचार और भ्रष्टाचार नहीं करता, क्योंकि जीवन के हर पल में उसे मृत्यु ही दिखाई देती है।।२४९।।' Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (२५३) भोगभूमि में कल्पवृक्ष सुख सामग्री देते हैं तत्थवि दहप्पयारा कप्पदुमा दिति उत्तमे भोए । र्खेत' सहावेण सया पुव्वज्जि य पुण्ण सहियाणं । । २५० । । अन्वयार्थ— (तत्थ वि) वहाँ भी, (दहप्पयारा कप्पदुमा) दस प्रकार के कल्पवृक्ष, (खेत्तसहावेण) क्षेत्र स्वभाव से, (पुव्वज्जियपुण्णसहियाणं) पूर्वोपार्जित पुण्य- संयुक्त जीवों को, (सया) हमेशा, (उत्तमे भोए दिति) उत्तम भोग देते हैं। भावार्थ — उन सभी उत्तम, मध्यम, जघन्य, प्रकार की भोगभूमियों में दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं। वे एकेन्द्रिय जीवों की वनस्पति जाति के नहीं अपितु पृथ्वीकायिक होते हैं। क्षेत्र जन्य स्वभाव से ही वे जिन जीवों ने पूर्व भव में पुण्य किया है ऐसे जीवों को उत्तम उत्तम प्रकार के भोग-उपभोग की सामग्री प्रदान करते हैं । । २५० ।। दस प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम मज्जंग - तूर- भूसण- जोइस - गिह- भायणांग- दीवंगा । वयंग-भोयगा मालंगा सुरतरु दसहा । । २५१ । । अन्वयार्थ — (मज्जंग) मद्यांग, (तूर) तूर्यांग, (भूसण) भूषणांग, (जोइस) ज्योतिरंग, (गिह) गृहांग, (भायणंग) भाजनांग, (दीवंगा) दीपांग, (वत्थंग) वस्त्रांग, (भोयणंगा) भोजनांग, (मालंगा) मालांग, (ये) (दसहा) दस प्रकार के, (सुरतरु) कल्पवृक्ष हैं। आचार्य वसुनन्दि भावार्थ - मद्यांग, तूर्यांग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग, वस्त्रांग, भोजनांग और मालांग ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । । २५१ । । मद्यांग कल्पवृक्ष २ अइसरसमइसुगंधं दिट्ठे ? चि य जं इंदिय बल पुट्ठियरं मज्जंगा झ. ब. छित्त०, इ. छेत्त. . ३. झ० 'जं' इति पाठो नास्ति. जणेइ अहिलासं । पाणयं पाणयं दिति । । २५२ ।। अन्वयार्थ— (अइसरसम्) अति- सरस, (अइसुगंधं) अति सुगन्धित, (य) और, (जं) जो, (दिडुं चिय) देखने मात्र से ही, (अहिलासं) अभिलाषा को, (जणेइ) पैदा करते हैं, (इंदिय - बलपुट्ठियरं ) इंद्रिय-बल पुष्टिकारक, (पाणयं) पानक, (मज्जंगा दिंति) मद्यांग वृक्ष देते हैं। झ०प० दिट्ठवि. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (२५४) आचार्य वसुनन्दि भावार्थ— अत्यन्त-सरस-स्वादिष्ट, अति सुगन्धित और जो देखने मात्र से ही अभिलाषा अर्थात् पीने की इच्छा पैदा करते हैं, ऐसा इन्द्रियों को पुष्ट करने वाले पेय पदार्थ मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष देते हैं। यह पेय इन्द्रियों को पुष्टिकारक होते हैं, मद अर्थात् गाढ़ मूर्च्छा को उत्पन्न नहीं करते है ।। २५२ ।। तूर्यांग - भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष तय-वितय-घणं सुसिरं वज्जं तूरंगपायवा दिंति । वरमउड- - कुंडलाइय- आभरणं भूसणदुमा वि ।। २५३ ।। अन्वयार्थ - (तूरंगपायवा) तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष, (य-वित घणं- सुसिरं) तत, वितत, घन (और) सुषिर स्वर वाले, ( वज्जं दिंति) बाजों को देते हैं, (भूसणदुमा) भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष, (वरमउड) उत्तम मुकुट, (कुंडलाइय) कुंडलादिक, (आभरणं वि) आभरण भी देते हैं। अर्थ — तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष तत, वितत, घृन और सुषिर स्वर वाले बाजों को देते हैं। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट कुंडलादिक आभरण भी देते हैं। व्याख्या- तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष तत, वितत, घन और सुषिर स्वर वाले वीणा, पटु, पटह, मृदंग, ढोलक, तमूरा आदि कई प्रकार के वादित्रों को देते हैं। आचार्य शुभचन्द्र स्वामि कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २०६ की टीका में कहते हैं ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् । घनं तु कंसतालादि, सुषिरं वंशादिकं विदुः ।। - अर्थ — तत-वीणा वगैरह के शब्द को तत कहते हैं। ढोल, तबला वगैरह के शब्द को वितत कहते हैं। कांसे के बाजे के शब्दों को घन कहते है और बांसुरी वगैरह के शब्दों को सुषिर स्वर कहते हैं । भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट, कुण्डल, हार, मेखला (करधौनी), मुकुट, केयूर, भालपट्ट, कटक, प्रालम्ब, सूत्र (प्रह्यसूत्र), नूपुर, मुद्रिकायें, अंगद, असि, छुरी, ग्रैवेय ओर कर्णपूर आदि सोलह जाति के आभरणों (आभूषणों) को प्रदान करते हैं ।। २५३ ।। ज्योतिरंग-गृहांग जाति के कल्पवृक्ष ससि सूरपयासाओ अहियपयासं कुणंति जोइदुमा | - णाणाविहपासाए दिंति सया गिहदुमा दिव्वे । । २५४ ।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५५) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ– (जोइदुमा) ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष, (ससि-सूरपयासओ) चन्द्र-सूर्य के प्रकाश से, (अहियपयास) अधिक प्रकाश को, (कुणंति) करते हैं, (गिहदुमा) गृहांगजाति के कल्पवृक्ष, (सया) सदा, (णाणाविहदिव्वपासाए) नाना प्रकार के दिव्य प्रासादों को, (दिति) देते हैं। . भावार्थ- ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष मध्यदिन के करोड़ों सूर्यों की तरह होते हुए नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र आदि की कान्ति का संहरण करते हैं अर्थात् उन वृक्षों से इतना तेज प्रकाश निकलता है जिसके सामने सूर्य-चन्द्र का आभास तक मालूम नहीं पड़ता। ये वृक्ष हमेशा प्रकाशमान रहते है, अत: वहाँ कभी रात और दिन में भेद मालम नहीं पड़ता। गृहांग जाति के कल्पवृक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकार के विशाल-विशाल दिव्य भवनों (प्रासादों) को प्रदान करते हैं।।२५४।। भाजनांग और दीपांग जाति के कल्पवृक्ष कच्चोल-कलस-थालाइयाई, भायणदुमा पयच्छति। उज्जोयं दीवदुमा कुणंति गेहस्स मज्झम्मि।। २५५।। अन्वयार्थ-(भायणदुमा) भाजनांग कल्पवृक्ष, (कच्चोल-कलस-थालाइयाई) वाटकी, कलश, थाली आदि को (पयच्छंति) देते हैं। (दीवदुमा) दीपांग कल्पवृक्ष, (गेहस्स मज्झम्मि) घर के मध्य (भीतर), (उज्जोवं) प्रकाश, (कुणंति) करते हैं। ___ भावार्थ- भाजनांग कल्पवृक्ष सुवर्ण-रजत आदि से निर्मित झारी, कलश, गागर, चामर, आसन, पलंग आदि देते हैं। दीपांग जाति के कल्पवृक्ष घर के भीतर प्रकाश करने के लिए शाखा, प्रवाल, फल-फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश को देते हैं।।२५५।। .. . वस्त्रांग और भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष - वर- पट्ट-चीण-खोमाइयाई वत्थाई दिति नत्थदुमा। वर-चउविहमाहारं भोयणरुक्खा पयच्छंति ।। २५६ ।। - अन्वयार्थ– (वत्थदुमा) वस्त्रांग कल्पवृक्ष, (वर-पट्ट-चीण-खोमाइयाइं) उत्तम रेशमी, चीनी और कोशे आदि के, (वत्थाई) वस्त्रों को, (दिति) देते हैं, (भोयणरुक्खा ) भोजनांग कल्पवृक्ष, (वर-चउविहमाहारं) उत्तम चार प्रकार के आहार को, (पयच्छंति) प्रदान करते हैं। भावार्थ- वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम रेशमी (विशुद्ध), चीनी और कोशे १. ब. कंचोल.. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (२५६) आदि के दिव्य वस्त्रों को देते हैं। भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, इतने ही प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार की दाल, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ त्रेसठ प्रकार के स्वाद्य एवं त्रेसठ प्रकार के रसों को दिया करते हैं । । २५६ ।। मालांग जाति के कल्पवृक्ष वर - बहुलं परिमलामोयमोड़यासामुहाउ मालाओ। मालादुमा पयच्छंति विविह कुसुमेहिं रइयाओ ।। २५७ ।। अन्वयार्थ – (मालादुमा) मालांग- कल्पवृक्ष, (विविहकुसुमेहिं) नाना प्रकार के पुष्पों से, (रइयाओ) रची हुई, (वर - बहुल परिमलामोयमोइयासामुहाउ) प्रवर, बहुल, परिमल सुगंध से दिशाओं के मुख को सुगन्धित करने वाली, (मालाओ )मालाओं को, (पयच्छंति) देते हैं। विशेषार्थ — मालांग जाति के कल्पवृक्ष बेल, तरु, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए बहुत सुगंधी प्रदान करने वाली, अत्यन्त कोमल और रमणीय सोलह हजार भेदरूप पुष्पों की मालाओं को देते हैं । । २५७ ।। . उत्तमभोगभूमियाँ मनुष्यों की कान्ति, ऊँचाई और आयु उक्कि भोयभूमीसु जे गरा उदय सुज्ज समतेया । छधणुसहस्त्तुंगा हुति तिपल्लाउगा सव्वे ।। २५८ ।। - अन्वयार्थ – (उक्किट्ठ भोयभूमीसु) उत्कृष्ट भोगभूमि में, (जे णरा) जो मनुष्य हैं, (ते-वे) (सव्वे) सब, (उदय - सुज्ज समतेया ) उदय होते हुए सूर्य के समान तेजवाले, (छधणुसहस्सुत्तुंगा) छह हजार धनुष ऊँचे (और), (तिपल्लाउगा) तीन पल्य की आयु वाले, (हुंति) होते हैं । अर्थ - उत्कृष्ट भोगभूमि में जो मनुष्य हैं, वे सब उदय होते हुए सूर्य के समान तेजवाले छह हजार धनुष ऊँचे और तीन पल्य की आयु वाले होते हैं। भावार्थ— उत्तम भोगभूमि में हमेशा प्रथम सुषमा- सुषमा काल रहता है। वह भूमिरज, धूम, अग्नि, हिम, कण्टक आदि से रहित एवं शंख, बिच्छू, चींटी, टिड्डी, मक्खी, खटमल आदि विकलत्रय जीवों से रहित होती है। वहाँ दिव्य बालु, मधुर गंध से युक्त मिट्टी और पंचवर्ण वाले चार अंगुल ऊँचे तृण (धूब) होते हैं। वहाँ वृक्षों के समूह, कमल आदि से युक्त निर्मल जल से परिपूर्ण वापियाँ (बावड़ी), उन्नत पर्वत, उत्तम-उत्तम प्रासाद (महल), इन्द्रनील मणि आदि से सहित पृथ्वी एवं मणिमय बालू ★ ब. बहल. इ. सहस्सा तुंगा. १. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५७) आचार्य वसुनन्दि से शोभित उत्तम-उत्तम नदियाँ होती हैं। वहाँ असंज्ञी जीव भी पैदा नहीं होते और न ही वहाँ के जाति विरोधी जीव आपस में वैर-भाव या शत्रुता रखते हैं। वहाँ रात-दिन का भेद नहीं होता है एवं जुआ खेलना, शिकार करना, मांस खाना, परस्त्रीरमण, परधनहरण आदि व्यसन (पाप) भी नहीं होते हैं। वहाँ के मनुष्यों की उत्पत्ति एक ही माता-पिता से पुत्र-पुत्री के रूप में होती है, बाद में वे पति-पत्नी जैसा व्यवहार करने लगते हैं, क्योंकि वहाँ विवाह आदि की परम्परा नहीं है, पुरुष को आर्य एवं स्त्री को आर्या कहते हैं। वे युगल मनुष्य उत्तम तिल मशा आदि व्यंजनों एवं शंख, चक्र आदि चिह्नों सहित तथा स्वामी और नौकर (भृत्य) के भेदों से रहित होते हैं। इनके शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस (लगभग नौ कि.मी. से कुछ अधिक) तथा आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। यहाँ के प्रत्येक स्त्री-पुरुष के पृष्ठ भाग में दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। ये चार दिन में बेर बराबर भोजन करते हैं। इनके शरीर मलमूत्र पसीने से रहित, सुगन्धित निश्वास से सहित, तपे हुए स्वर्ण सदृश वर्ण वाले, समचतुरस्र संस्थान और वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त होते हैं, प्रत्येक मनुष्य का बल नौ हजार हाथियों सदृश होता है। इस भूमि में नर-नारी के अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता है और न ही ग्राम-नगर आदि की रचना ही होती है। दुकान और बाजार आदि भी नहीं होते केवल दस प्रकार के कल्प-वृक्ष होते हैं जो युगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को दिया करते हैं।। २५८।। मध्यमभोगभूमियाँ मनुष्यों की ऊँचाई-आयु और कान्ति देहस्सुच्चत्तं मज्झिमासु चत्तारि धणुसहस्साई। - पल्लाणि दुण्णि आऊ पुणिंदुसमप्पहा पुरिसा ।। २५९।। . अन्वयार्थ– (मज्झिमासु) मध्यम भोगभूमियों में, (देहस्सुच्चत्तं) देह की ऊँचाई, (चत्तारिधणुसहस्साई) चार हजार धनुष है, (दुण्णि पल्लाणि आऊ) दो पल्य की आयु है, (पुरिसा पुण्णिंदुसमप्पहा) पुरुष पूर्णचन्द्र के समान प्रभा वाले • होते हैं। ____ अर्थ- मध्यम भोगभूमियों में देह की ऊँचाई चार हजार धनुष है, दो पल्य की - आयु है, और सभी पुरुष पूर्णचन्द्र के समान प्रभाव वाले होते हैं।। ____ व्याख्या– मध्यम भोगभूमियों में हमेशा द्वितीय ‘सुषमा' नामक काल रहता है। यहाँ के मनुष्य चार हजार धनुष अर्थात् दो कोस (लगभग छह कि.मी. से कुछ अधिक) ऊँचे, दो पल्य प्रमाण आयु वाले और वर्ण चन्द्रमा के सदृश धवल होता है। इनके पृष्ठ भाग में एक सौ अट्ठाईस हड्डियाँ होती हैं। अतीव सुन्दर समचतुरस्र संस्थान से युक्त ये भोगभूमिज तीसरे दिन बहेड़ा के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। यहाँ इतनी विशेषताएँ हैं, शेष उत्तम भोग-भूमि के समान जानना चाहिए।।२५९।। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५८) आचार्य वसुनन्दि जघन्यभोगभूमियाँ मनुष्यों की ऊँचाई, आयु और कान्ति दोधणुसहस्सुत्तुंगा' मणुया पल्लाउगा जहण्णासु। उत्तत्तकणयवण्णा हवंति पुण्णाणुभावेण ।। २६०।। अन्वयार्थ— (जहण्णासु) जघन्य भोगभूमियों में, (पुण्णाणुभावेण) पुण्य के प्रभाव से, (मणुया) मनुष्य, (दोधणुसहस्सुत्तुंगा) दो हजार धनुष ऊँचे, (पल्लाउमा) एक पल्य की आयु वाले, (उत्तत्तकणयवण्णा) तपाये गये स्वर्ण के समान वर्ण वाले, (हवंति) होते हैं। अर्थ- जघन्य भोगभूमियों में पुण्य के प्रभाव से मनुश्य दो हजार धनुष ऊँचे, एक पल्य की आयु वाले और तपाये गये स्वर्ण के समान वर्ण वाले होते हैं।। व्याख्या- जघन्य भोगभूमि में हमेशा तृतीय काल रहता है। यहाँ के मनुष्यों की ऊँचाई दो हजार धनुष अर्थात् एक कोस (लगभग तीन कि०मी० से कुछ अधिक), आयु एक पल्य की और शरीर का रंग तपाये हुए स्वर्ण के समान होता है। यहाँ के स्त्री-पुरुषों के पृष्ठभाग में हड्डियाँ चौसठ होती हैं। सभी मनुष्य समचतुरस्र संस्थान से युक्त, एक दिन के अन्तराल से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करने वाले होते हैं। शेष वर्णन उत्तम भोगभूमि के समान जानना चाहिए। ।२६०।। . - कुभोगभूमियाँ मनुष्यों की आयु आदि वर्णन जे पुण कुभोयभूमीसु सक्कर-समसाय मट्टियाहार।३ फल-पुप्फाहारा केई तत्थ पल्लाउगा . सव्वे ।। २६१।। अन्वयार्थ- (जे पुण कुभोयभूमीस) जो जीव कुभोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं, (केई) (उनमें से) कितने ही, (तत्थ) वहाँ पर, (सक्कर समसायमट्टियाहारा) शक्कर के समान स्वादिष्ट मिट्टी का आहार करते हैं, (कोई) (फल-पुष्पाहारा) फल-पुष्पों का आहार करते हैं, (सव्वे पल्लाउगा) सभी एक पल्य की आयु वाले होते हैं। ___ अर्थ- जो जीव कुभोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं, उनमें से कितने ही वहाँ पर स्वभावतः उत्पन्न होने वाली शक्कर के समान स्वादिष्ट मिट्टी का आहार करते हैं, और कितने ही वृक्षों से उत्पन्न होने वाले फल-पुष्पों का आहार करते हैं और ये सभी जीव एक पल्य की आयु वाले होते हैं।। २. म. उत्तमकंचणवण्णा. १. इ. सहसा तुंगा. ३. इ. मट्टियायारा. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५९) आचार्य वसुनन्दि) व्याख्या- जो मिथ्याभाव से युक्त मन्दकषायी, मधुमांसादि के त्यागी, गणियों के गुणों में अनुरक्त, मुनियों एवं अन्य पात्रों को आहार देते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि और बद्धमनुष्यायुष्क भोगभूमियों और कुभोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं। __कुभोगभूमियाँ मनुष्यों को अन्तद्वीपज म्लेक्ष भी कहते हैं। इनके रहने के स्थान कहते हैं- लवणसमुद्र की आठों दिशाओं में आठ और उनके अन्तराल में आठ, हिमवान और शिखरी तथा दोनों विजयाओं के अन्तराल में आठ इस तरह चौबीस अन्तर द्वीपं हैं। दिशावर्ती द्वीप वेदिका से तिरछे पाँच सौ योजन आगे हैं। विदिशा और अन्तरालवर्तीद्वीप ५५० योजन जाकर हैं। पर्वतों के अन्तिम भागवर्ती द्वीप छह सौ योजन भीतर आगे हैं। दिशावर्ती द्वीप सौ योजन आगे हैं। दिशावर्ती द्वीप सौ योजन विस्तृत है। पूर्व दिशा में एक जांघ वाले, पश्चिम में पूंछ वाले, उत्तर में गूंगे, दक्षिण में सींग वाले मनुष्य रहते हैं। विदिशाओं में खरगोश के कान सरीखे कान वाले, पड़ी के समान कान वाले, बहुत चौड़े कान वाले और लम्बे कर्ण वाले मनुष्य हैं। शिखरी पर्वत के दोनों अन्तरालों में मेघ और बिजली के समान मुख वाले, हिमवान् के दोनों अन्तरालों में मत्स्यमुख और कालमुख, उत्तरविजया के दोनों अन्त में हस्तिमुख और आदर्शमुख और दक्षिण विजयार्ध के दोनों अन्त में गोमुख और मेषमुख वाले प्राणी हैं। एक टांग वाले मनुष्य गुफाओं में रहते हैं और शक्कर के समान स्वादिष्ट मिट्टी का आहार करते हैं। बाकी वृक्षों पर रहते हैं और स्वादिष्ट पुष्प फलों आदि का आहार करते हैं। ये सब प्राणी पल्योपम आयु वाले हैं। ये चौबीसों द्वीप जल स्तर से एक योजन ऊँचे हैं। इसी तरह कालोदधि समुद्र में इससे दुगुने अर्थात् ४८ (अड़तालीस) द्वीप कुभोगभूमियाँ • मनुष्यों को रहने के लिए हैं। .. इस समबन्ध में विशेष तिलोयपण्णत्ति में देखें।।२६१।। . भोगभूमियों में यौवन प्राप्त होने का काल जायंति जुयत-जुयला उणवण्णदिणेहि जोव्वणं तेहिं । समचउरससंठाणा वरवज्जसरीर संघयणा ।। २६२।। अन्वयार्थ- (भोगभूमियों में जीव) (जुयल-जुयला-जायंति) युगल-युगलिया उत्पन्न होते हैं, (तेहिं) ये सब, (उणवण्णदिणेहिं जोव्वणं) उनचास दिनों में यौवन दशा को प्राप्त हो जाते हैं, (तथा) (समचउरससंठाणा) समचतुरस्र संस्थान (और) (वरवज्जसरीरसंघयणा) वज्रवृषभनाराच संहनन वाले होते हैं। व्याख्या- भोगभूमियाँ मनुष्य, स्त्री और पुरुष युगल रूप से ही जन्म लेते हैं। वे सब बालक-बालिका युगल शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसनें में, उपवेशन, १. म. संहणणा. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६०) आचार्य वसुनन्दि) अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुणप्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता में क्रमश: इक्कीस (२१), पैतीस (३५) और उनचास (४९) दिन व्यतीत करते हैं। उत्तम भोगभूमि वाले २१ दिनों में, मध्यम भोगभूमि वाले ३५ दिनों में और जघन्यभूमि वाले ४९ दिनों में युवावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। वे सभी समचतुरस्र संस्थान और वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त इन्द्रों से भी सुन्दर होते हैं।।२६२।। भोगभूमियाँ जीवों की कलायें और लक्षण बाहत्तरि कल सहिया चउसद्विगुणसण्णिया तणुकसाया। बत्तीसलक्खणधरा उज्जमसील विणीया य।। २६३।। अन्वयार्थ- (भोगभूमिया मनुष्य) (बाहत्तरि कलसहिया) बहत्तर कलाओं से सहित, (और स्त्रियाँ) (चउसद्विगुणसण्णिया) चौसठ गुणों से समन्वित, (तणुकसाया) मंदकषायी, (बत्तीसलक्खणधरा) बत्तीस लक्षणों के धारक, (उज्जमसीला). उद्यमशील, (य) और, (विणीया) विनीत होते हैं।. अर्थ- भोगभूमियाँ मनुष्य बहत्तर कला-सहित और स्त्रियाँ चौसठ गुणों से युक्त, मन्दकषायी, बत्तीस लक्षणों के धारक, उद्यमशील और विनीत होते हैं। व्याख्या- जैन साहित्य के एक ग्रन्थ औपप०, पृ० १४८-१४९ पर पुरुषों की बहत्तर कलायें निम्न प्रकार से कही हैं१. लेख-लेखन - अक्षर-विन्यास, तद्विषयक कला का ज्ञान २. गणित - अंक-विद्या का ज्ञान, इसके अन्तर्गत लौकिक और अलौकिक सभी प्रकार की गणित सम्बन्धी सामग्री का ज्ञान होता है ३. रूप (चित्र) » م - भित्ति-पाषाण, वस्त्र आदि पर चित्रांकन, रेखाचित्र आदि का ज्ञान - अभिनय, नृत्य आदि - गन्धर्व-विद्या, संगीत आदि। - स्वर एवं लय सम्बन्धी वाद्य बजाने की कला - निषाद, ऋषभ, गान्धार, षडज, मध्यम, धैवत तथा पंचम स्वरों का परिज्ञान - मृदंग-वादन की विशेष कला م ७. स्वरगत ८. पुष्करगत Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार ९. समताल १०. द्यूत ११. जनवाद १२. पासक १३. अष्टापद १४. पौरस्कृत्य १५. उदक- मृत्तिका १६. अन्न-विधि १७. पान-विधि १८. वस्त्र - विधि १९. विलेपन-विधि २०. शयन - विधि २१. आर्या २२. प्रहेलिका २३. मागधिका २४. गाथा २५. गीतिका २६. श्लोक २७. हिरण्ययुक्ति २८. सुवर्णयुक्ति २९. गन्धयुक्ति ३०. चूर्णयुक्ति ३१. आभरण-विधि ३२. तरुणी प्रतिकर्म (२६१) गान एवं ताल में लयात्मक समीरण का ज्ञान जुए का दाँव चलने की कला वार्तालाप करने या वाद-विवाद करने की कला पासा फेंकने की कला एक विशेष प्रकार की द्यूत-क्रीड़ा का परिज्ञान नगर की सुरक्षा-व्यवस्था सम्बन्धी कला (अथवा आशुकवित्व) मिट्टी के बर्तन बनाने की कला अनाजोत्पादन अथवा भोजन- परिपाक की कला पेय पदार्थों के निर्माण व प्रयोग की कला वस्त्र बनाने व पहिनने की कला शरीर पर सुगन्धित लेप, मण्डन करने की कला शय्या बनाने, सजाने आदि की कला आर्या आदि मात्रिक छन्द बनाने की कला " गूढाशययुक्त गद्य-पद्यात्मक रचना की कला — मागधी प्राकृत की काव्य-रचना की कला - - - - - - ― आचार्य वसुनन्दि - शौरसेनी, अर्धमागधी, पैशाची, प्राकृत गाथा - रचने की कला गीति, उपगीति आदि की काव्य-कला अनुष्टुप आदि छन्द-रचना-कला रजत-निष्पाद-चाँदी बनाने की कला सोना बनाने की कला सुगन्धित पदार्थ बनाने की कला तान्त्रिक विधि से चूर्णमिश्रित औषधि द्वारा दूसरों को सम्मोहित करने की कला आभूषण बनाने एवं पहिनने की कला युवति-सज्जा की कला Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार ३३. स्त्री- लक्षण ३४. पुरुष - लक्षण ३५. अश्व - लक्षण ३६. गज- लक्षण ३७. गो-लक्षण ३८. कुक्कुट - लक्षण ३९. चक्र- लक्षण ४०. छत्र - लक्षण ४९. चर्म - लक्षण ४२. दण्ड- लक्षण ४३. असि - लक्षण ४४. मणि- लक्षण ४५. काकिणी- लक्षण ४६. वास्तुविद्या ४७. स्कन्धावार-मान ४८. नगर-निर्माण ४९. वास्तु-निवेशन ५०. व्यूह-रचना ५१. चार - -- - - - ―――― - - ---- आचार्य वसुनन्दि (२६२) पद्मिनी, शंखिनी, चित्रणी आदि महिलाओं के लक्षण जानने की कला उत्तम, मध्यम, अधम आदि पुरुषों के लक्षण अथवा शश पुरुष आदि के लक्षण जानने की कला अश्व के विविध जातियों के जानने की कला गज के शुभाशुभ लक्षण जानने की कला गाय, बैल के शुभाशुभ लक्षण जानने की कला मुर्गे के शुभाशुभ लक्षण जानने की कला चक्र-निर्माण-विधि की कला छत्र-निर्माण-विधि की कला ढाल आदि चर्म-निर्मित वस्तुओं के लक्षण जानने की कला दण्ड के शुभाशुभ लक्षण जानने की कला तलवार के उत्तम, मध्यम एवं जघन्य लक्षण जानने की कला रत्न- परीक्षा करने की कला चक्रवर्ती के एतत्संज्ञक़ रत्न के लक्षणों की पहिचान भवन-निर्माण एवं उनके शुभाशुभ लक्षण जानने की क़ला शत्रु - विजय के लिए अपनी सैन्य-शक्ति का परिणाम सामान्य अथवा युद्धोपयोगी विशेष नगर - रचने की कला का ज्ञान भवनों के उपयोग, विनियोग, निर्माण आदि की कला का • ज्ञान आवश्यकतानुसार विशिष्ट आकार में सैन्य दल स्थापित करने तथा शत्रु-व्यूह की प्रतिरोधक अपनी प्रतिव्यूह अर्थात् विशिष्ट व्यूह-रचना की कला का ज्ञान चन्द्र, सूर्य, राहु, केतु आदि ग्रहों की गति का ज्ञान अथवा राशि, गण, वर्ण एवं वर्ग का ज्ञान तथा प्रतिचार अर्थात् इष्टजन, अनिष्टनाशक, शान्तिकर्म का ज्ञान Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६३) आचार्य वसुनन्दि) ५२. चक्र व्यूह - चक्राकृति में सेना को स्थापित करने की कला ५३. गरुड़ व्यूह - गरुडाकृति में सेना को सुसज्जित करने की कला ५४. शकट व्यूह - शकटाकृति में सेना को सज्जित करने की कला ५५. युद्ध-कला - रण-क्षेत्र में युद्ध की कलाबाजियों का ज्ञान ५६. नियुद्ध - पैदल युद्ध करने की कला ५७. युद्धातियुद्ध - तलवार, भाला आदि फेंककर युद्ध करने की कला का ज्ञान ५८. मुष्टियुद्ध - मुक्कामारी कर युद्ध करने की कला ५९. बाहुयुद्ध - भुजाओं द्वारा युद्ध करने की कला ६०. लतायुद्ध - लताओं द्वारा शत्रुओं को वेष्टित कर पराजित करने की कला ६१. इषु-शस्त्र-तथा - नाग बाण के प्रयोग तथा छुरा फेंककर आक्रमण करने की क्षुर-प्रवाह कला ६२. धनुर्वेद - धनुष-विद्या में प्रवीणता ६३. हिरण्यपाक -. रजत-सिद्धि-कला ६४. सुवर्ण-पाक - स्वर्ण-सिद्धि-कला ६५. वृत्त-खेल - रस्से पर चलने की कला . ६६. सूत्र-खेल - कच्चे सूत्र पर चमत्कारी कार्य दिखाने की कला ६७. नालिका-खेल - नालिका में पाँसे या कौड़ियाँ डालकर अपना दाँव जीतने की कला ६८. पत्रच्छेद्य-कला - १०८ पत्तों की यथेष्ट संख्या के पत्तों को एक बार में छेदन-भेदन ६९. काष्ठच्छेद-कला- चटाई के समान क्रमश: फैलाए गए पत्रादि के छेदन की क्रिया को जानने की कला ७०. सजीव - पारद आदि मारित धातुओं को पुनः सजीव करना ७१. निर्जीव - पारद, स्वर्ण आदि धातुओं का मारण करना ७२. शकुनरुत - पक्षियों के शब्द, गति, चेष्टा आदि जानने की कला Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६४) आचार्य वसुनन्दि भोगभूमि की स्त्रियों में संगीत कला, छंद कला, अलङ्कार कला, चित्राम कला, शिल्प कला, नृत्य कला, गान कला, शृङ्गार करने की कला, पुरुष को आकर्षित करने की कला वीणादि बजाने की कला तथा माला बनाना आदि चौसठ कलायें होती हैं। वहाँ के स्त्री-पुरुष अत्यन्त मन्दकषायी होते हैं। वे कभी भी आपस में शस्त्र आदि से नहीं लड़ते, न ही किसी से महीनों तक बैर-भाव रखते हैं। अभिमान अत्यल्प होने से वहाँ शासन आदि की व्यवस्थाएँ भी नहीं है। वहाँ राजा, मन्त्री, श्रेष्ठी आदि पद भी नहीं होते। माया कषाय की कमी के कारण वे सरल स्वभावी, प्रसन्नचित्त और छल-कपट से रहित होते हैं। लोभकषाय की अल्पता के कारण उनमें संग्रहवृत्ति भी नहीं होती। वे बहुत से मकान, बहुत सी भोग-उपभोग की सामग्री एकत्रित करके नहीं रखते है। वे सभी श्रीवत्स, स्वस्तिक, हल, मूसल, चक्र, शृङ्गार, कलश, वज्र, मत्स्य, वृषभ, कमल, ध्वजा, अंकुश, तोरण, चामर, छत्र, सिंहासन, कछुआ, चन्द्र, सूर्य, लक्ष्मी, जम्बूवृक्ष, नक्षत्र, कल्पवृक्ष आदि बत्तीस शुभलक्षणों को धारण करने वाले होते हैं। सदा उद्यमशील रहते हुए वे अत्यन्त विनयवान और निरभिमानी होते हैं। मान-मर्दन आदि का अभाव होने से सभी प्रसन्नचित्त और चिन्ता-तनाव आदि से रहित होते हैं।।२६३।। भोगभूमि में युगल का जन्म और आर्य-आर्या का मरण णवमासाउगि सेसे गन्भं धारिऊण सूई समयम्हि। , सुहमिच्चुणा मरित्ता णियमा देवत्तु पावंति ।। २६४।। अन्वयार्थ- (णवमासाउगि सेसे) नौ माह आयु शेष रहने पर, (गम्भं धरिऊण) गर्भ को धारण कर, (सूइ समयम्हि) प्रसूति-समय में, (सुहमिच्चुणा) सुख मृत्यु से, (मरित्ता) मरकर, (णियमा) नियम से, (देवत्तु) देवपने को, (पावंति) पाते हैं। अर्थ- नौ मास आयु शेष रह जाने पर गर्भ को धारण करके प्रसूति-समय में सुख मृत्यु से मरकर नियम से देवपने को पाते हैं।।। व्याख्या- भोगभूमियाँ मनुष्य कल्पवृक्षों से प्राप्त वस्तुओं को ग्रहण करके और विक्रिया से बहुत प्रकार के शरीरों को बनाकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हैं। ये युगल कदलीघातमरण (अकाल मृत्यु) से रहित होते हुए चक्रवर्ती के भोगोंकी अपेक्षा अनन्तगुणे सुख को भोगते हैं। १. इ. सूय. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (२६५) आचार्य वसुनन्दि भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्चों की नवमास आयु शेष रहने पर स्त्रियों को गर्भ रहता है और दोनों युगल के मृत्यु का समय निकट आने पर बालक-बालिका का जन्म होता है । सन्तान के जन्म लेते ही माता-पिता क्रमशः जम्भाई और छींक आने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और उनेक शरीर शरत्कालीन मेघ सदृश विलीन हो जाते हैं। मृत्यु के बाद मनुष्य तिर्यञ्च यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो भवनत्रिक-भवनवासी, व्यन्तरवासी या ज्योतिष्क में जन्म लेते हैं। यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं ।। २६४।। सम्यग्दृष्टि महर्द्धिक देव होते हैं - जे पुण सम्माइट्ठी विरयांविरया वि तिविहपत्तस्स । जायंति दाणफलओ कप्पेसु महड्डिया देवा । । २६५ । । अच्छरसंममज्झगया तत्थाणुहविऊण विविहसुरसोक्खं । समाणा मंडलियाईसु जायंते २ । । २६६ । । त् अन्वयार्थ — (जे पुण सम्माइट्ठी) जो सम्यग्दृष्टि (और), (विरयाविरया) विरताविरत जीव, (तिविहपत्तस्स) तीनों प्रकार के पात्रों को, (दाणफलओ) दान देने के फल से, (कप्पेसु) कल्पों में, (महड्डिया देवा) महर्द्धिक देव, (जायंति) होते हैं। (ते-वे) (तत्थ) वहाँ पर, (अच्छरसयमज्झगया) सैकड़ों अप्सराओं के मध्य में रहकर, (विविहसुरसोक्खं) नाना प्रकार के देव-सुखों को, (अणुहविऊण) भोग करके (आयु के अन्त में), (तत्तो) वहाँ से, (चुया) च्युत होकर, (समाणा) सम्माननीय, (मंडलियाईसु) मांडलिक आदिको में, (जायंते) उत्पन्न होते हैं। अर्थ — जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत जीव हैं, वे तीनों प्रकार के पात्रों को दान देने के फल से स्वर्गों में महर्द्धिक देव होते हैं। वहाँ पर सैकड़ों अप्सराओं के मध्य में रहकर नाना प्रकार के देव सुखों को भोगकर आयु के अन्त में वहाँ से च्युत होकर मांडलिक राजा आदिकों में उत्पन्न होते हैं । । व्याख्या— जो सम्यग्दृष्टि जीव और विरताविरत अर्थात् संयमासंयमी (देश-व्रती) जीव तीन प्रकार के सत्पात्रों को आहार - आवास आदि का दान देते है वे इस पुण्य के प्रभाव से महान ऋद्धि वाले देवों में जन्म लेते हैं। भावपाहुड गाथा १५वी टीका में श्रुतसागरसूरि लिखते हैं— १. २. इ. समाण, झ॰ समासा, समाणं इत्यादि पाठः. प॰ जायंति. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६६) आचार्य वसुनन्दि अणिमा महिमा लघिमा गरिमान्तर्धन कामरुपित्वं। प्राप्तिकाम्यवशित्वेशित्वाप्रतिहतत्वमिति वैक्रियिकाः।। इत्यार्योक्तलक्षणान् गुणान् दृष्ट्वा (इड्डी) ऋद्धि इंद्राणीप्रमुख परिवारं। अर्थात् अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, अन्तर्धान, कामरुपित्व, प्राप्तिकाम्य, वशित्व, ईशित्व और अप्रतिहतत्व ये देवों के विक्रियाजन्य गुण हैं। इनके सिवाय देवों का जो इन्द्राणी आदि का प्रमुख परिवार है वह सब ऋद्धि कहलाता है। जैसा कि कहा गया है स्वर्गों के इन्द्र दक्षिणेन्द्र तथा उत्तरेन्द्र के भेदों में विभाजित हैं। दक्षिणेन्द्रों की प्रमुख देवियाँ इस प्रकार है- शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिन्दी, सुलसा, अञ्जका और भानु। ___ उत्तरेन्द्रों की प्रमुख देवियाँ इस प्रकार हैं- श्रीमती, रामा, सुषीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, सुमित्रा और वसुन्धरा। प्रथम स्वर्ग में सोलह हजार देवियों का परिवार है। विक्रिया से अनेक रूप बनाने वाली देवाङ्गनाएँ इनसे पृथक हैं। आगे-आगे के स्वर्गों में इनकी संख्या क्रमश: दूनी-दूनी होती जाती है, जो इस प्रकार है १६०००, ३२०००, ६४०००, १२८०००, २५६०००, ५१२०००, १०२४००० क्रमाद् नीचे लिखे सात स्थानों में इन्द्रों के क्रम से बत्तीस हजार, आठ हजार, दो हजार, पांच सौ, ढाई सौ, सवा सौ और तिरेशठ, बल्लभिकाएँ यानी अत्यन्त प्रिय देवांगनाएँ होती हैं। सप्तस्थान इस प्रकार है १. सौधर्मेशान, २. सानत्कुमार-माहेन्द्र, ३. ब्रह्मब्रह्मोत्तर, ४. लान्तव-कापिष्ठ, ५. शुक्रमहाशुक्र, ६. शतारसहस्रार और ७. आनतप्राणत-आरणअच्युत इन चार स्वर्गों का एक स्थान। देवों का माहात्म्य भी नाना प्रकार का होता है जैसे इन्द्र के कहने से दीर्घायु मनुष्य . भी मर जाता है और अल्प आयु वाले की भी आयु जल्दी समाप्त नहीं होती है। (भा०पा०, गा०१५ टीका)। ऐसी महान ऋद्धियों से सहित होकर वे इन्द्र अथवा महान देव वहाँ सैकड़ों अप्सराओं के समूह से सदा ही घिरे रहते हैं। नाना-प्रकार के सुखों को भोगते हैं। देवों के सुख चक्रवर्ती और भोगभूमियाँ मनुष्य से भी अधिक होते हैं। विद्याओं और ऋद्धि-सिद्धियों के माध्यम से वे विविध प्रकार के भोग-उपभोग सामग्री प्राप्त कर लेते हैं तथा नदी, गिरि, सरोवर, उद्यान आदि अनेक स्थानों पर इच्छित क्रीड़ा करते हुए आनन्द मग्न रहते हैं। जहाँ मनुष्य तीन-काल में भी नहीं पहुंच सकता ऐसे स्थानों पर भी महार्द्धिक देव क्रीड़ा करते हैं। वे छोटे-नीच देवों से वाहन आदि का कार्य लेते हैं Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२६७) आचार्य वसुनन्दि तथा कई देवों के स्वामी होते हैं। इस प्रकार विभिन्न प्रकार सुखों का दीर्घकाल तक अनुभव करते हुए वे देव वहाँ से च्युत होकर चक्रवर्ती, महामांडलिक, मांडलिक आदि विशिष्ट महापुरुषों में उत्पन्न होते हैं।।२६५-६६।। आहारदान परम्परा से मोक्ष का कारण तत्थ वि बहुप्पारं मणुयसुहं भुंजिऊण णिव्विग्धं । विगदभया' वेरग्गकारणं किंचि दद्वण ।। २६७।। पडिबुद्धिऊण चइऊण णिवसिरिं संजमं च घित्तूण। उप्पाइऊण णाणं कोई गच्छंति णिव्वाणं ।। २६८।। अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो-पुणो लहिऊण । सत्तट्ठभवेहि तओ करंति कम्मक्खयं णियमा।। २६९।। अन्वयार्थ- (तत्थ वि) वहाँ पर भी, (बहुप्पयारं) नाना प्रकार के, (मणुयसुह) मनुष्यसुखों को, (णिविग्ध) निर्विघ्न, (भुंजिऊण) भोगकर, (विगदभया) भय-रहित होते हुए (वे), (किं चि) कुछ भी, (वेरग्गकारणं दट्ठण) वैराग्य का कारण देखकर, (पडिबुद्धिऊण) प्रतिबुद्धित हो, (णिवसिरिं) राज्यलक्ष्मी को, (चइऊण) छोड़कर, (च) और, (संजमं चित्तूण) समय को ग्रहण कर, (केई) कितने ही, (णाणं उप्पाइऊण) ज्ञान को उत्पन्न कर, (णिव्वाणं गच्छंति) निर्वाण को प्राप्त होते हैं। (अण्णे उ) और अन्य जीव, (सुदेवत्तं सुमाणुसत्त) सुदेवत्व-सुमानुषत्व को, (पुणो-पुणो) पुन:-पुन:, (लहिऊण) प्राप्त कर, (सत्तट्ठभवेहि) सात-आठ भव के, (तओ) पश्चात्, (णियमा) नियम से, (कम्मक्खयंकरंति) कर्मक्षय को करते हैं। अर्थ- वहाँ पर भी नाना प्रकार के मनुष्य सुखों को निर्विघ्न भोगकर भय-रहित होते हुए वे कोई भी वैराग्य का कारण देखकर प्रतिबुद्धित हो; राज्यलक्ष्मी को छोड़कर और संयम को ग्रहण कर कितने ही जीव केवलज्ञान को उत्पन्न कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। और कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्व को पुन: पुन: प्राप्त कर सात-आठ भव के पश्चात् नियम से कर्मक्षय को करते हैं।। व्याख्या- स्वर्ग से च्युत होकर आने वाले वे जीव सदाचारी विशिष्ट मनुष्यों में जन्म लेकर वहाँ पर भी विभिन्न प्रकार के मानवीय सखों को निर्विघ्न रूप से भय-रहित -- १. ब. विगदब्भयाइ. २. ब. लहिओ. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६८) आचार्य वसुनन्दि होकर भोगते हैं। बहुतकाल तक इन्द्रियजन्य सुखों का अनुभव करते हुए तथा श्रावकों के व्रतों का पालन करते हुए कितने ही जीव थोड़ा सा भी वैराग्य का कारण देखकर (पाकर) प्रतिबुद्धित हो, राज्य वैभव को छोड़कर अथवा पुत्रादि को सौंपकर संयम को ग्रहण कर कितने ही मनुष्य केवलज्ञान को उत्पन्न कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। कितने ही जीव सुदेवत्व अर्थात् कर्मों को नष्ट कर मोक्ष को प्राप्त कर अनन्त सुखों को प्राप्त कर लेते हैं। __भगवान् वृषभदेव के पूर्वभव का कथन करते हुए पं० आशाधर महापुराणानुसार दान के फल को कहते हैं- आगम में ऐसा सुना जाता है कि मुनिदान के कर्ता राजा वज्रजंघ ने, अपने पति को दान देने की प्रेरणा करने वाली पतिव्रता श्रीमती ने, और दान की अनुमोदना करने वाले मतिवर मन्त्री, अकम्पन सेनापति, आनन्द पुरोहित तथा धनमित्र सेठ, व नकुल, सिंह, वानर और शूकर आदि ने मुनिदान और अनुमोदना • से जो फल प्राप्त किया वह परापर गुरुओं के उपदेशरूपी दर्पण में व्यक्त हुआ आज भी किसी अन्य जीव के चित्त में आश्चर्य पैदा नहीं करता है? अर्थात् दान का माहात्म्य आश्चर्यकारी है। दान के फल का उपसंहार एवं पत्तविसेसं दाणविहाणं फलं च णाऊण । अतिहिस्स संविभागो कायव्वो देसविरदेहिं ।। २७० ।। अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (पत्तविसेस) पात्र विशेष को, (दाणविहाणं) दान के विधान को, (च) और, (फल) (उसके) फल को, (णाऊण) जानकर, (देसविरदेहि) देशविरती श्रावकों को, (अतिहिस्स) अतिथि का, (संविभागो) संविभाग, (कायव्यो) करना चाहिए। भावार्थ- इस प्रकार पात्रों की विशेषता, दान के प्रकार, दातव्य और उसके फल को जानकर देशविरती श्रावकों को और सामान्य श्रावकों को यथाशक्ति अतिथि का संविभाग अर्थात् दान अवश्य करना चाहिए। कभी-कोई विशेष स्थिति हो, अस्वस्थ हों अथवा अन्य कोई कारण हो तो आहार दानादिक सम्भव नहीं है इसके सिवा हमेशा अतिथियों को आहार दानादिक देना चाहिए।।२७०।। १. सागार धर्मामृत, पं.अ.श्लो. ५०. २. प. विरएहिं. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६९) आचार्य वसुनन्दि सल्लेखना-वर्णन सल्लेखना शिक्षाव्रत का लक्षण धरिऊण वत्थमेत्तं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं । सगिहे जिणालए वा तिविहाहारस्स वोसरणं ।। २७१।। जं गुरु सयासम्मि' सम्ममालोइऊण तिविहेण। सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिक्खावयं भणियं ।। २७२।। अन्वयार्थ- (ज) जो, (वत्थमेत्त) वस्त्रमात्र, (परिग्गह) परिग्रह को, (धरिऊण) रखकर, (अवसेस) अवशिष्ट, (परिग्गह) परिग्रह को, (हेडिऊण) छोड़कर, (सगिहे) अपने घर में, (वा) अथवा, (जिणालए) जिनालय में रहकर, (गुरुसयासम्मि) गुरु के समीप में, (सम्ममालोइऊण तिविहेण) मन-वचन-काय से भले प्रकार आलोचना करके, (तिविहाहारस्स वोसरणं) तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है, (उसे) (सुत्ते) सूत्र में, (सल्लेखणं) सल्लेखना नाम का (चउत्थं सिक्खावयं) चौथा शिक्षाव्रत, (भणियं) कहा गया है। अर्थ- जो श्रावक वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर और अवशिष्ट समस्त पदार्थों को सम्पूर्ण श्रावक परिग्रहों को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर गुरु के समीप में मन, वचन, 'काय से अपनी भले प्रकार आलोचना करके पान (पीने की वस्तु) के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययनसूत्र में सल्लेखना नाम का चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है। व्याख्या- आ० वसुनन्दि ने सल्लेखना का जो स्वरूप कहा है, वह स्वामी समन्तभद्र द्वारा प्रतिपादित रत्नकरण्डश्रावकाचार के स्वरूप से भिन्न है। स्वामी समन्तभद्र ने सल्लेखना का जो स्वरूप बताया है, उसमें उन्होंने गृहस्थ अथवा मुनि की अपेक्षा कोई भेद नहीं रखा है। बल्कि समाधिमरण करने वाले को सर्वप्रकार का परिग्रह छुड़ाकर और पञ्चमहाव्रत स्वीकार कराकर विधिवत् मुनि बनाने का विधान किया है। उन्होंने आहार को क्रमश: घटाकर केवल पान (पेय) पर निर्भर रखा और अन्त में उसका भी त्याग करके यथाशक्ति उपवास करने का विधान किया है। परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में सल्लेखना धारण करने वाले के लिए एक वस्त्र और जलग्रहण करने का विधान है और इस प्रकार मुनि और श्रावक के समाधिमरण के सम्बन्ध में भिन्नता प्रदर्शित है। समाधिमरण के नाना भेदों का विस्तार से प्ररूपण करने वाले मूलाराधना ग्रन्थ में यद्यपि श्रावक और मुनि की अपेक्षा समाधिमरण में कोई भेद नहीं किया हैं, तथापि वहाँ १. इ. पयासम्मि. Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७०) आचार्य वसुनन्दि भक्तप्रत्याख्यान समाधिमरण के औत्सर्गिक और आपवादिक ऐसे दो भेद अवश्य किये हैं। सम्भवत: उस अपवाद लिंग को ही ग्रन्थकार ने श्रावक के लिये विधेय माना है। हालाँकि मूलाराधनाकार ने विशिष्ट अवस्था में ही अपवाद लिंग का विधान किया है। यथा आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महड्डिओ हिरिमं। मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंग।। मूलारा. २/७९।। . इसको स्पष्ट करते हुए पं० आशाधर जी ने भी लिखा है- . .. हीमान्महर्द्धिको यो वा मिथ्यात्वप्रायबान्धवः। सोऽविविक्ते पदं नाग्न्यं शतलिंगोऽपि नार्हति।।सा.ध.८/३७।। अर्थात जो कोई धनवान, महर्द्धिक एवं लज्जावान् हो और उसके कुटम्बी मिथ्यावी हों, तो उसे सल्लेखनाकाल में सर्वथा नग्न न करें। मूलाराधनाकार आदि सभी आचार्यों ने सल्लेखना करने वाले के क्रमश: चारों प्रकार के आहार का त्याग आवश्यक बतलाया है। पर प्रस्तुत ग्रन्थकार उसे तीन प्रकार के आहार-त्याग का ही विधान कर रहे हैं, यह एक दूसरी विशेषता है कि वे गृहस्थ के समाधि-मरण में बतला रहे हैं। ज्ञात होता है कि सल्लेखना करने वाले की व्याधि आदि के कारण शारीरिक निर्बलता को दृष्टि में रखकर ही उन्होंने ऐसा विधान किया है, जिसकी पुष्टि पं० आशाधर जी ने भी की है। यथा व्याध्याद्यपेक्षयाऽम्भो वा समाध्यर्थं विकल्पयेत्। भृशं शक्तिक्षये जह्यादप्यासन्नमृत्युकः । ।सा. ध.८/६५।। अर्थात् व्याधि आदि के कारण क्षपक यदि चारों प्रकार के आहार का त्याग करने और तृषापरिषह सहन करने में असमर्थ हो, तो वह ज़ल को छोड़कर शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग करे और जब अपनी मृत्यु निकट जाने तो उसका भी त्याग कर देवे। 'व्याध्याद्यपेक्षया' पद की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं____ 'यदि पैत्तिकी व्याधिर्वा, ग्रीष्मादिः कालो वा, मरुस्थलादिदेशोवा, पैत्तिकी प्रकृतिर्वा, अन्यदप्येवंविधं तृषापरीषहोद्रेकासहन-कारणं वा भवेत्तदा गुर्वनुज्ञया पानीयमुपयोक्ष्येऽहमितिप्रत्याख्यानं प्रतिपद्यतेत्यर्थः।' अर्थात् यदि पैत्तिक व्याधि हो, अथवा ग्रीष्म आदि काल हो, या मरुस्थल आदि शुष्क और गर्म देश हो, या पित्त प्रकृति हो, अथवा इसी प्रकार का अन्य कोई कारण हो, जिससे कि क्षपक प्यास की परिषह न सह सके, तो वह गुरु की आज्ञा से पानी को छोड़कर शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग करे। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (२७१) सागार धर्मामृत में पं० आशाधर कहते हैं कायः स्वस्थोऽनुवर्त्यः स्यात् प्रतीकार्यश्च रोगितः । उपकारं विपर्यस्यंस्त्याज्यः सद्भिः खलो यथा ।। ६ ।। अर्थ - साधु पुरुषों को यदि शरीर स्वस्थ हो तो अनुकूल आहार-विहार से उसे स्वस्थ रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि रोग हो जाय तो योग्य औषधि आदि से उस्का उपचार करना चाहिए। यदि शरीर स्वास्थ्य और आरोग्य के लिये किये गये उपकार को भूलकर विपरीत प्रवृत्ति करे अर्थात् स्वस्थ होकर अधर्म का साधन बने या चिकित्सा करने पर भी रोग बढ़ता जाये तो दुर्जन की तरह उसे त्याग देना चाहिए । इस संसारी जीव ने अनन्त बार जन्म लिया और अनन्त - बार मरण किया, किन्तु कभी भी साम्य-भाव, समाधिपूर्वक मरण नहीं हो पाया। इस जीव ने शान्त परिणामों से संसार के सम्पूर्ण जीवों से न तो अन्तर भावों से क्षमा ही माँगी और न ही उन्हें क्षमा प्रदान की, अपितु बैर भावों को पुष्ट करता रहा, परिणामस्वरूप संसार में घूमता हुआ भयंकर दुःखों को पा रहा है। अगर यह जीव साम्य-भावों को धारण कर, 1. दिगम्बर मुद्रा प्राप्तकर निर्मल भावों से एक बार भी मरण कर ले तो संसार के भयंकर दुःखों से निश्चित ही छूट जायेगा । धर्म परीक्षा में कहा है - जो सुधी पुरुष कषाय निदान और मिथ्यात्व रहित होकर संन्यास विधि के धारणपूर्वक मरण करते हैं, वे मनुष्य देवलोक में सुखों को भोगकर २१ भव के भीतर मोक्षपद को प्राप्त होते हैं । ( १९/९६) आचार्य देवसेन कहते हैं— जेसिं हुंति जहण्णा चउव्विहाराहणा हु खवयाणं । सत्तट्ठभवे गंतुं तेवि य पावंति णिव्वाणम् । । आ०सार १०९ ।। अर्थ - निश्चय से जिन क्षपकों के चार प्रकार की जघन्य आराधनायें होती हैं, वे भी. सात-आठ भव व्यतीत कर निर्वाण को पाते हैं। समाधिमरण का फल बताते हुए 'पाक्षिकादि प्रतिक्रमण' में कहा है- 'उक्कस्सेण दो तिण्ण भव गहणाणि, जहण्णे सत्तट्ठ भव- गहणाणि तदो सुमाणुसत्तादो-सुदेवत्तं, देवत्तादो-सुमाणुसत्तं, तदो साइहत्था, पच्छा णिगंथा होऊण, सिज्झंति, बुज्झंति, मुंचंति, परिणिव्वाणयंति, सव्वदुखाणमंतिं करेंति । इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट ही है । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७२) आचार्य वसुनन्दि) समाधिमरण परम्परया मोक्ष का कारण बताते हुए आचार्य महावीर कीर्ति जी कहते हैं एक-त्रयादि-भवेषु-मोक्ष जननी संसार रोगापहां। श्री चिन्तामणिरादिसागर यति: चिन्त्यांसमाधिश्रितः।।प्रबोधाष्टकम् ७।। अर्थ- एक तीन आदि भवों में मोक्ष को देने वाली और संसार रूप रोग का अपहरण करने वाली, श्री-लक्ष्मी को प्रदान करने के लिए चिन्तामणि के समान समाधि का आचार्य आदिसागर यति (अंकलीकर) ने आश्रय लिया। . .. पद्मपुराण में कहा है भवानामेवमष्टानमन्तः कृत्वानुवर्तनम्। रत्नत्रयस्य निर्ग्रन्थो भूत्वा सिद्धिं समश्नुते।।४/२०४।। : : अर्थ- जो गृहस्थ धर्म का पालन कर मरण करता है; ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवों में रत्नत्रय का पालन कर अन्त में निर्ग्रन्थ हो सिद्धपद को प्राप्त होता है। दूसरी प्रतिमा का उपसंहार । एवं वारसभेयं वयठाणं वण्णियं मए विदियं । सामाइयं तइज्जं ठाणं संखेवओ वोच्छं ।। २७३।। अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (वारसभेय) बारह भेद वाले, (विदिय) दूसरे, (वयठाणं) व्रतस्थान का, (मए) मैंने, (वणिय) वर्णन किया, (अब), (सामाइयं तइज्ज) सामायिक नामक तृतीय, (ठाणे) स्थान को, (संखेवओ) संक्षेप से, (वोच्छं) कहूँगा। भावार्थ- इस प्रकार बारह भेदवाले दूसरे व्रतस्थान का मैंने वर्णन किया। अब सामायिक नामक तीसरे स्थान को मैं संक्षेप से कहूँगा।।२५३।। सामायिक प्रतिमा सामायिक शिक्षाव्रत का स्वरूप . होऊण सुई चेइयगिहम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो। अण्णस्य सुइपएसे पुव्वमुहो उत्तरमुहो वा ।। २७४।। १. झ. करेइ. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७३) ___आचार्य वसुनन्दि जिणवयण-धम्म-चेइय-परमेट्ठि जिणालयाण णिच्चं पि। जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु।। २७५।। अन्वयार्थ- (सई होऊण) शद्ध होकर के, (चेइयगिहम्मि) चैत्य गृह में, (व) अथवा, (सगिहे) अपने ही घर में, (चेइयाहिमुहो). प्रतिमा के सन्मुख होकर, (अथवा), (अण्णत्थ सुइपएसे) अन्य पवित्र स्थान में, (पुव्वमुहो) पूर्वमुख, (वा) अथवा, (उत्तरमुहो) उत्तरमुख होकर, (जिणवयण) जिनवाणी, (धम्म) धर्म, (चेइय) चैत्य, (परमेट्ठी) पंचपरमेष्ठी, (जिणालयाण) जिनालयों की, (ज) जो, (णिच्चं) नित्य, (तियालं) त्रिकाल, (वंदणं कीरइ) वंदना की जाती है, (तं) वह, (खु) निश्चय से, (सामाइय) सामायिक है। . अर्थ- स्नानादिक से शुद्ध होकर मन्दिर में अथवा अपने ही गृह चैत्यालय में भगवान के अभिमुख होकर अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्व या उत्तरमुख होकर जो जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब (प्रतिमा), पंचपरमेष्ठी और जिनालयों (मन्दिर, क्षेत्र) की जो नित्य त्रिकाल वन्दना की जाती है वह तीसरा सामायिक नामक स्थान है। व्याख्या- सामायिक के लिए योग्यस्थान का निर्णय करते हुए आ० समन्तभद्र कहते हैं- . - एकान्ते सामयिकं नियाक्षेपे वनेषु वास्तुषु च। चैत्यालयेषु वापि परिचेतव्यं प्रसन्नधिया।।रत्न० श्रा० ९९।। . अर्थ- चित्त को चंचल करने वाले कारणों से रहित एकान्त स्थान, जैसेवन, मकान या चैत्यालय में प्रसन्न मन से सामायिक करना चाहिए। उन्होंने समय निर्णय करते हुए तत्कालीन सांकेतिक संकल्पों को दर्शाया है मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धन पर्यङ्कबन्धनं चापि। स्थानमुपवेसनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः।।१८।। अर्थ- केशों का बंध, मट्ठी का बन्ध, वस्त्र का बन्ध, पालथी बन्ध, स्थान और बैठने को समय के ज्ञाताओं ने समय कहा है। अर्थात् सामायिक में ये सब आवश्यक होते हैं। वे सामायिक के माहात्म्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैंसामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि। चेलोपसृष्ट मुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्।।१०२।। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७४) आचार्य वसुनन्दि) अर्थ- सामायिक के समय में गृहस्थ के आरम्भ और परिग्रह नहीं होता है, इसलिए उसे वस्त्र डाले हुए मुनि के समान कहा है। सम्पूर्ण पापकार्यों से रहित सामायिक में श्रावक भी मुनि तुल्य हो जाता है। पं० आशाधर सामायिक का काल निर्णय करते हुए लिखते हैं परं तदेवमुक्त्ङ्गमिति नित्यमतन्द्रितः। नक्तं दिनान्तेऽवश्यं तद्भावयेच्छक्तितोऽन्यदा।।सा०प० २९।। . . अर्थ- सामायिक ही मोक्ष का उत्कृष्ट साधन है, इसलिए आलस्य त्यागकर नित्य रात्रि और दिन के अन्त में अवश्य ही सामायिक करना चाहिए तथा अपनी शक्ति के अनुसार मध्याह्न आदि काल में भी सामायिक करना चाहिए। . आ० अमृतचन्द्र सूरि भी यही बात कहते हैंरजनीदिनयोरन्ते तदवश्यंभावनीयमविचलितम्। . इतरत्र पुन: समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम्।।पु०सि० १४९।। . अर्थ- श्रावक को प्रात: और सायं दो बार सामायिक अवश्य करना चाहिए। यदि शक्ति हो तो मध्याह्न में या अन्य समय में भी सामायिक कर सकते हैं। नियमित समय के अलावा अन्य समय में भी सामायिक करने से कोई दोष नहीं हैं बल्कि गुण ही है।।२७४-७५।। साम्य भाव ही सामायिक काउस्सग्गम्हि ठिओ लाहालाहं च सत्तु-मित्तं च। संजोय-विप्पजोयं तिण कंचण चंदणं वासिं ।। २७६।। जो पस्सइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं । वर-अट्ठपाडि-हेरेहिं संजुयं जिण-सरुवं च।। २७७।। . सिद्ध सरुवं झायइ अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं। खणमेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स।। २७८।। अन्वयार्थ- (जो) जो श्रावक, (काउसग्गम्हि ठिओ) कायोत्सर्ग में स्थित होकर, (लाहालाह) लाभ-अलाभ को, (सत्तु-मित्तं) शत्रु-मित्र को, (संजोय १. कुठारं टिप्पणी- गाथा २७४ से ३१२ तक की अनेक गाथायें लगभग संस्कृत छाया जैसी ही गुणभूषण श्रावकाचार में १६४ से १८८ श्लोक तक उपलब्ध हैं। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७५) आचार्य वसुनन्दि विप्पजोय) संयोग-वियोग को, (तिण-कंचण) तृण-कंचन को, (चंदणं वासिं) चन्दन को और तलवार को, (समभावं) समभाव से, (पस्सइ) देखता है, (च) और, (मणम्मि) मन में, (पंचणवयारं धरिऊण) पंचनमस्कार मन्त्र को धारण कर, (वरअपाडिहेरेहि) उत्तम अष्ट प्रतिहार्यों से, (संजुयं) संयुक्त, (जिणसरुवं) जिनवर के स्वरूप को, (च) और, (सिद्धसरुवं) सिद्धभगवान के स्वरूप को, (झायइ) ध्याता है, (अहवा) अथवा, (ससंवेयं) संवेग-सहित, (अविचलंगो) अविचल अंग होकर, (खणमेक्कम्) एक क्षण को भी, (झाणुत्तम) उत्तम ध्यान को, (झायइ) ध्याता है, (तस्स) उसके, (उत्तमं सामाइयं) उत्तम सामायिक होती है। अर्थ- जो श्रावक कायोत्सर्ग में स्थित होकर लाभ-अलाभ को, शत्रु-मित्र को, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग को, तृण-कांचन को, चन्दन को और कुठार को समभाव से देखता है। और मन में पञ्च नमस्कार मन्त्र को धारण कर उत्तम अष्ट प्रातिहार्यों से संयुक्त अर्हन्त जिनके स्वरूप को और सिद्ध भगवान् के स्वरूप को ध्यान करता है। अथवा संवेग-सहित अविचल-अंग होकर एक क्षण को भी उत्तम ध्यान करता है, उसके उत्तम सामायिक होती है।। व्याख्या- आ० कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते हैं समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्ठ कंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।।२४१।। अर्थ- शत्रु-मित्र वर्ग में समता, सुख-दुख में समता, प्रशंसा-निन्दा में समता, पत्थर-कंचन में समता और जीवन-मरण में भी समता धारण करना श्रमण का लक्षण है। सामान्य साधक को भी सामायिक काल में यतितुल्य कहा है अत: उसे भी समतावान होना चाहिए। १. सामायिक- आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि एकत्वेन गमनं समयः। समेकीभावे वर्तते तद्यथा 'संगतं धृत संगतं तैलम्' इत्युक्ते एकीभूतमिति गम्यते। एकत्वेन गमनं समय: प्रतिनियत काय वाङ्मनस्कर्म पर्यायार्थं प्रतिनिवृत्तत्वादात्मनो द्रव्यार्थेनैकत्व गमनमित्यर्थः। समय एव सामयिकम्। समय: प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम्। – (राजवार्तिक, ७/२१/७) ___ अर्थ— एकत्वरूप से गमन (लीनता) का नाम समय है। 'सम' शब्द एकीभाव अर्थ में है। जैसे 'संगतधृत, संगततैल' ऐसा कहने पर तैल वा धृत एकमेव हुई वस्तु का ज्ञान होता है, अर्थात् इसमें 'समः' शब्द एकीभाव अर्थ में है। इसी प्रकार ‘एकत्व से गमन' एकमेक हो जाने का नाम समय है। अर्थात् काय, वचन और मन की क्रियाओं से निवृत्ति होकर आत्मा का द्रव्यार्थ में एकत्वरूप से लीन होना समय है। समय का Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७६) आचार्य वसुनन्दि) भाव या समय का प्रयोजन ही सामायिक है, अर्थात् मन, वचन और काय की क्रियाओं का निरोध करके अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना ही, सामायिक है। सामायिक में संलग्न साधक को मन में पंचपरमेष्ठी मन्त्र को स्थापित करके अष्ट प्रातिहार्यों एवं अनन्त चतुष्टय युक्त अर्हतजिन के स्वरूप का अनन्तगुणों से युक्त सिद्ध भगवान का, आचार आदि गुणों से युक्त आचार्य का, द्वादशांग के ज्ञान को धारण करने वाले उपाध्याय एवं ज्ञान-दर्शन- तप और चारित्र में संलग्न साधु परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए। ॐ, अर्हं नमः, ॐ ह्री नमः, ॐ ह्री अर्हं असिआउसा नमः, आदि मन्त्रों का भी चिन्तन-मनन एवं ध्यान करना चाहिए। संवेग— संसार से भयभीत चित्त अथवा धर्म में दृढ़ आस्थावान होकर, अविचल अंग होकर एक क्षण भी जो उत्तम ध्यान करता है वह उत्तम सामायिक व्रतधारी श्रावक है। आचार्य आदिसागर (अंकलीकर) अपने शिष्य महावीर कीर्ति को प्रारम्भिक काल में शिक्षा देते हुए कहते हैं- एकान्त स्थान में पद्मासन से स्थिर बैठकर, आँखें मींचकर, हाथ-पर हाथ धरकर पंचपरमेष्ठी मन्त्र अथवा अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिए। (प्रवोधाष्टक प्रस्तावना, २) चेतना की दो दिशाएँ हैं— एक चंचल और दूसरी स्थिर । चंचल चेतना को चित्त और स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है। यह मत ध्यानशतककार को भी स्वीकार है । वे कहते हैं कि जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । जो स्थिर अध्यवसान एकाग्रता को प्राप्त मन है, उसका नाम ध्यान है। इससे विपरीत जो चंचल चित्त है, वह भावना है। — ध्यान को समझाते हुए आ० श्रुतसागर लिखते हैं कि ‘अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। किंवत् ? अपरिस्पन्दमानाग्नि ज्वालावत्। यथा अपरिस्पन्दमानाग्नि ज्वाला शिखा इत्युच्यते तथा अपरिस्पन्देनावभासमानं ज्ञानमेवं ध्यानमिति तात्पर्यार्थः । (तत्त्वार्थवृत्ति, ९/२७)। -- अर्थ - निश्चल अग्नि शिखा के समान अपरिस्पन्दमान निश्चल ज्ञान ही ध्यान कहलाता है। जैसे अपरिस्पन्दमान (स्थिर) अग्नि की ज्वाला शिखा कहलाती है, उसी प्रकार निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान कहलाता हैं। ध्यान चेतना का सम्यक् रूपान्तरण है। ध्यान के बिना आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता । ध्यान द्वारा ही आत्मा अपनी प्रगति करता है। जैसे अग्नि के सम्पर्क में आने पर सुवर्ण की किट्ट कालिमा नष्ट होती है और सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि के सम्पर्क में आने वाला आत्मा अपने पर लगी हुई कर्मों की किट्ट कालिमा Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७७) आचार्य वसुनन्दि को भस्म करके शुद्ध हो जाता है। ध्यान के महत्त्व को बताते हुए आ० जिनसेन लिखते हैंध्यानमेव तपोयोगाः शेषाः परिकरा: मताः। . ध्यानाभ्यासो ततोयत्नः शश्वत्कार्यों मुमुक्षुभिः।। – (आदिपुराण, २१/७) अर्थ- ध्यान तपों में सर्वश्रेष्ठ है। शेष तप उसके परिकर के सदृश है, अतएव मुमुक्षु जीवों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक निरन्तर ध्यान का अभ्यास किया जाना चाहिए। अशान्त मन को शान्ति का अथाह भण्डार प्रदान करने वाला एकमात्र कुबेर ध्यान ही है। आत्माभिमुख होकर समस्त दु:ख के कारणों का उच्चाटन करने का एकमात्र साधन ध्यान ही है। अतएव ध्यान समस्त तपों में सारभूत तप है, जो कि स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त करा सकता है। रत्नमालाकार आ० शिवकोटि ने ध्येयभूत आत्मा के लिए तीन विशेषण दिये हैं- चिदानन्द, परंज्योति, केवलज्ञान का लक्षण सम्पन्न। चैतन्य का आनन्द अर्थात् अव्याबाध सुखों का निलय है आत्मा, अत: आत्मा को चिदानन्द यह विशेषण दिया गया है। दीपक सीमित प्रकाश करता है, परन्तु चैतन्य ज्योति चराचर को प्रकाशित करती है, अत: आत्मा ही परंज्योति है। तीन लोक व अलोक के समस्त पदार्थों को ज्ञेय बनाने का सामर्थ्य आत्मा में है, अत: आत्मा केवलज्ञान सम्पन्न है। . ऐसे आत्मतत्त्व का सदैव ध्यान करना चाहिये।।२७६-७८।। . ... सामायिक प्रतिमा का उपसंहार . एवं तइयं ठाणं भणियं सामाइयं समासेण।। .. पोसहविहिं चउत्थं ठाणं एत्तो पवक्खामि ।। २७९।। अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (सामाइयं तइयं ठाणं) सामायिक नामक तीसरा स्थान, (समासेण) संक्षेप से, (भणियं) कहा, (एत्तो) अब, (पोसहविहिं) प्रोषधविधि नाम के, (चउत्थं ठाणं) चौथे स्थान को, (पवक्खामि) कहूँगा। भावार्थ- इस प्रकार सामायिक नामक तीसरे प्रतिमास्थान को संक्षेप से कहा। अब इससे आगे प्रोषधविधि नाम के चौथे प्रतिमा स्थान को कहूँगा।।२७९।। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७८) प्रोषध प्रतिमा प्रोषध के प्रकार उत्तम - मज्झ जहणणं' तिविहं पोसहविहाणमुद्दिवं । सगसत्तीए मासम्मि चउस्सु पव्वेषु २ कायव्वं । । २८० ।। अन्वयार्थ — (उत्तम - मज्झ - जहणणं) उत्तम, मध्यम, जघन्य, (विविह) तीन - प्रकार का, ( पोसहविहाणमुद्दिठं ) प्रोषध-विधान कहा गया है, (सगसत्तीए) अपनी शक्ति के अनुसार, (मासम्मि) माह के, (चउस्सु-पव्वेसु) चारों पर्वों में, (कामव्यं) करना चाहिए । १. ३. अर्थ — उत्तम, मध्यम, जघन्य के भेद से तीन प्रकार का प्रोषध-विधान कहा गया है। श्रावकों को अपनी शक्त्यनुसार माह के चारों पर्वों में अर्थात् दो अष्टमी और दो चतुर्दशी के दिनों में यह किया जाना चाहिए। व्याख्या- आ० समन्तभद्र कहते हैं आचार्य वसुनन्दि पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु। चतुरभ्यवहार्य्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः । । रत्न० श्रा० १०६ ।। अर्थ — चतुर्दशी और अष्टमी के दिन हमेशा के लिए व्रतविधान की इच्छा से चार प्रकार के आहारों का त्याग करना प्रोषधोपवास जानना चाहिए ।। २८० । । उत्कृष्ट प्रोषधोपवास की विधि सत्तम्मि- तेरसि दिवसम्मि अतिहिजणभोयणावसाणम्मि । भोत्तूण भुंजणिज्जं तत्थ वि काऊण मुहसुद्धिं । । २८१ । । पक्खालिऊण वयणं कर-चरणे णियमिऊण तत्थेव । पच्छा जिणिंदभवणं गंतूण जिणं णमंसित्ता । । २८२ ।। गुरुपुरओ किदिबम्मं वंदणपुव्वं कमेण काऊण। गुरु सक्खियमुववासं गहिऊण चउव्विहं विहिणा । । २८३ । । वायण कहाणुपेहण- सिक्खावण- चिंतणोवओगेहिं ऊण दिवससेसं " इ॰ मज्झम-जहणं. ब. किरियम्मि. 1 अवराहियवंदणं किच्चा । । २८४ । । २. प. पव्वसु. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७९) आचार्य वसुनन्दि) रयणि समयम्हि ठिच्चा काउस्सग्गेण णिययसत्तीए। पडिलेहिऊण भूमिं अप्पपमाणेण संथारं ।। २८५।। दाऊण किंचि रत्तिं सइऊण जिणालए णियघरे वा। अहवा सयलं रत्तिं काउस्सग्गेण णेऊण।। २८६।। पच्चूसे अद्विता वंदणविहिणा जिणं णमंसित्ता। तह दव्व-भावपुज्जं जिण-सुय-साहूण काऊण ।। २८७।। उत्तविहाणेण तहा दिण्हं रत्तिं पुणो वि गमिऊण। पारणदिवसम्मि. पुणो पूर्य काऊण पुव्वं व।। २८८।। गंतूण णिययगेहं अतिहिविभागं च तत्थकाऊण। जो भुंजइ तस्स फुडं पोसहविहि उत्तमं होइ ।। २८९।। अन्वयार्थ- (सत्तम्मि-तेरसि दिवसम्मि) सप्तम-त्रयोदशी के दिन, (अतिहिजण- भोयणावसाणम्मि) अतिथिजन के भोजन के अन्त में, (भुंजणिज्ज) भोज्यवस्तु को, (भोत्तूण) खाकर, (तत्थ वि) और वहीं पर, (मुहसुद्धि) मुखशुद्धि करके, (वयणं-कर-चरणे) मुख़ को (और) हाथ-पैरों को, (पक्खालिऊण) धोकर, (तत्थेव) वहाँ पर ही, (णियमिऊण) नियम-करके, (जिणं णमंसित्ता) जिन भगवान् को नमस्कार करके, (गुरुपुरओ) गुरु के सामने, (वंदणपुव्वं) वंदनापूर्वक, (कमेण) क्रम से, (किदियम्म) कृतिकर्म, (काऊण) करके, (गुरुसक्खियम्) गुरु की साक्षी से, (विहिणा) विधिपूर्वक, (चउव्विहं) चारों प्रकार का, (उववासं गहिऊण) उपवास को ग्रहण कर, (वायण) शास्त्र-वाचन, (कहा-सिक्खावण) कथा पठन-पाठन (और), (अणुपेहण-चिंतण) अनुप्रेक्षा-चिन्तन आदि के, (उवओगेहिं) उपयोग के द्वारा, (दिवससेसं णेऊण) दिवस व्यतीत करके, (अवराण्हियवंदणं-किच्चा) अपराह्निक वंदना करके, (रयणि समयम्हि) रात्रि के समय, (णिययसत्तीए) अपनी शक्ति के अनुसार, (काउस्सग्गेण ठिच्चा) कायोत्सर्ग से स्थित होकर, (भूमि पडिलेहिऊण) भूमिका प्रतिलेखन करके, (और) (अप्पपाणं) अपने शरीर प्रमाण, (संथारं दाऊण) बिस्तर लगाकर, (रत्ति) रात्रि में, (किंचि) कुछ समय तक, (जिणालये वा णियघरे) जिनालय अथवा निजघर में, (सइऊण) सोकर, (अहवा) अथवा, (सयलं रत्ति) सारी रात्रि, (काउस्सग्गेण णेऊण) कायोत्सर्ग से बिताकर, (पच्चूसे उद्वित्ता) प्रत्यूष में उठकर, (वंदणविहिणा) वंदना विधि से, (जिणं १. ध झ.ब. प्रतिषु ‘णाऊण' इति पाठ:. २. दियहं. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (२८०) आचार्य वसुनन्दि णमंसित्ता) जिन-भगवान का नमस्कार कर, (तह) तथा, (जिण- सुय- साहूण) देव, शास्त्र, गुरु की, (दव्व - भावपुज्जं काऊण) द्रव्य-भाव पूजा करके, (उत्तविहाणेण ) पूर्वोक्त विधान से, (तहा) उसी प्रकार, (दिहं - रत्तिं) दिन-रात को, (पुणो वि) फिर भी, (गमिऊण) बिताकर, (पारणदिवसम्मि) पारणा के दिन, (पुणो पुव्वं व) पुनः पूर्व के समान, (पूयं काऊण) पूजन करके, (गंतूणणिययगेहं ) अपने घर जाकर, (च) और, (तत्थ) वहाँ, (अतिहिविभागं ) अतिथि विभाग को, (काऊण) करके, (जो) जो, (भुंजइ) भोजन करता है, (तस्स) उसके, (फुडं) निश्चय से, (उत्तम) उत्तम, (पोसहविहि) प्रोषधविधि, (होई) होती है। अर्थ- सप्तमी और त्रयोदशी के दिन अतिथि अर्थात् सत्पात्रों को भोजन कराकर बाद में वह स्वयं भोज्य सामग्री का भोजन करे भोजन के बाद मुंह हाथ-पैरों आदि को धोकर वहीं पर स्व-साक्षी में उपवास सम्बन्धी नियम कर लेवे। बाद में जिनेन्द्रभवम अर्थात् मन्दिर में जाकर तथा जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके, गुरु के सामने. वंदनापूर्वक क्रम से कृतिकर्म करके, गुरु की साक्षी से विधिपूर्वक चारों प्रकार के आहार के त्यागरूप उपवास को ग्रहण करके शास्त्र - वाचन, धर्मकथा पठन-पाठन अथवा सुनना-सुनाना, अनुप्रेक्षा चिन्तन, भजन-कीर्त्तन आदि के द्वारा उपयोग को शुभरूप रखकर दिवस व्यतीत करके तथा अपराह्निक (सायंकालीन) वंदना करके, रात्रि के समय अपनी शक्ति के अनुसार कायोत्सर्ग से स्थित होकर, बाद में भूमि का प्रतिलेखन (संशोधन) करके और अपने शरीर प्रमाण बिस्तर (चटाई बगैरह) लगाकर रात्रि में कुछ समय तक जिनालय में अथवा अपने घर में सो लेना चाहिए। अगर शक्ति है तो सम्पूर्ण रात्रि कायोत्सर्ग से बिताकर प्रात: काल वह स्थान छोड़ना चाहिए, तदुपरान्त वंदना विधि 'जिन भगवान को नमस्कार कर तथा देव, शास्त्र और गुरु की द्रव्य व भाव पूजन करके पूर्वोक्त विधान से उसी प्रकार सारा (सम्पूर्ण) दिन और रात फिर से बिताकर के दिन अर्थात् नवमी या पूर्णमासी को पुन: पूर्व के समान पूजन करके तत्पश्चात् अपने घर जाकर और वहाँ अतिथि को दान देकर जो भोजन करता है, उसके निश्चय से उत्तम प्रोषध विधि होती है। व्याख्या सम्यक्त्वकौमुदी-ग्रन्थ में भी प्रोषध की विधि इसी प्रकार कही है, देखिए— “सप्तमी त्रयोदशी दिने एकभक्तं कृतोपवासं संगृह्याष्टमी चतुर्दशीदिने जिन भवने स्थातव्यम्। नवमीपञ्चदशीदिने प्रभाते जिन वन्दनादिकं कृत्वा निजग्रहं गत्वाऽऽत्म शक्त्या पात्रदानं दत्वाऽऽत्मना भुञ्जीत । तस्मिन्नेव पारणकदिने ह्येक भुक्तं कुर्वीत । एषा सा प्रोषधप्रतिमा। (पृ॰ १९१) शंका- कृतिकर्म किसे कहते है ? समाधान— 'पाप विनाशोपायः तत्कृतिकर्म' है अथवा जिन अक्षर समूहों से वा Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८१) आचार्य वसुनन्दि जिन परिणामों से अथवा जिन क्रियाओं से अष्टकर्म नष्ट किये जाते हैं अर्थात आवर्त्त व शिरो त पूर्वक जो स्तुति वन्दन आदि किया जाता है वह कृतिकर्म कहलाता है अथवा जिन क्रियाओं को करता हुआ साधक कृतकृत्य अवस्था को प्राप्त होता है उसे कृतिकर्म कहते हैं। __विधि- विज्ञप्ति देने के बाद नमस्कार, तीन आवर्त और एक शिरोनति करके णमोअरहंताणं आदि तथा चत्तारिमंगलं इत्यादि पाठ पढ़ते हुए अढाइज्ज-दीव-दो........ इत्यादि सूत्र पढ़ने के बाद तीन आवर्त एक शिरोनति करके सत्ताईस श्वाच्छोश्वास में एक कायोत्सर्ग करे अर्थात नौ बार णमोकार मन्त्र का जाप करें। पश्चात् नमस्कार कर तीन आवर्त और एक शिरोनति कर थोस्सामि हं' इत्यादि चतुर्विंशति स्तव पढ़ें। स्तव पूर्ण कर सिद्ध, श्रुत, आचार्य, योगि, शांति, समाधि इत्यादि जो भी भक्ति इच्छित हो बोलें। अष्टमी क्रिया- श्रावक व साधुओं को अष्टमी के दिन सिद्ध, श्रुत, चारित्र तथा शान्ति भक्ति करनी चाहिए। देखिये अष्टम्यां सिद्धभक्त्याऽमा श्रुतचारित्र शान्तयः। भवन्ति भक्तीनूनं साधूनामपि सम्मति।।रत्नामाला ५३।। चामुण्डराय कहते हैं- अष्टम्यां सिद्ध-श्रुत-चारित्र-शान्तयः। (चारित्रसार) . . पं० आशाधर भी इसी की पुष्टि करते हैं- 'स्यात-श्रुत-चारित्र, शान्ति भवत्यष्टमी क्रिया। (अन० धर्मा० १/४७)। _. संस्कृत क्रियाकाण्डकार का मत इनसे कुछ भिन्न है, यथा ___सिद्ध-श्रुत-सु-चारित्र, चैत्य पञ्चगुरुस्तुतिः। - शान्ति भक्तिश्च षष्ठीयं क्रिया स्यादष्टमीतिथौ।। अर्थ– अष्टमी के दिन सिद्ध-श्रुत-चारित्र-चैत्य-पंचगुरु एवं शान्ति भक्ति करनी चाहिए। चतुर्दशी क्रिया- चतुर्दशी के दिन सिद्ध, श्रुत, पंचगुरु व शान्तिभक्तिपूर्वक नमन करना चाहिए व नित्य सामायिक देववंदना आदि के काल में भी चैत्य व पंचगुरु भक्ति करना चाहिए। यथा चतुर्दश्यां तिथौ सिद्धश्चैत्य श्रुत-समन्विते पञ्च। गुरु शान्ति नुतीनित्यं चैत्यं च गुरुरपि।।रत्नमाला ५५।। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८२) आचार्य वसुनन्दि चामुण्डराय लिखते हैं किचतुर्दशी दिने तयोर्मध्ये सिद्ध-श्रुत-शान्तिभक्तिर्भवति। (चारित्रसार) अर्थात्- प्रतिदिन देववन्दना के समय चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति बोली जाती है। चतुर्दशी के दिन उसके साथ सिद्ध-श्रुत और शान्ति भक्ति बोलनी चाहिये। पं० आशाधर जी ने चतुर्दशी क्रिया में २ मत प्रस्तुत किये हैं। यथात्रिसमय वन्दने भक्तिद्वयमध्ये, श्रुतनुतिं चतुर्दश्याम्। . प्राहुस्तद्रक्तित्रयमुखान्तयोः केऽपि सिद्ध शान्तिनुती। (अनगार धर्मामृत९/४५) अर्थ- त्रिकाल में देव-वन्दना के समय तो नित्य चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति की जाती है, परन्तु चतुर्दशी के दिन श्रुतभक्ति करनी चाहिये। अन्य मतानुसार सिद्धभक्ति और शान्तिभक्ति भी बोलनी चाहिये। यदि किसी कारणवशात् क्रिया चतुर्दशी को न कर सकें तो दूसरे दिन करना चाहिये। कहा भी है कि चतुर्दशी क्रिया धर्म व्यासङ्गादिवशान्न चेत्। कर्तुं पायेंत पक्षान्ते तर्हि कार्याष्टमी क्रिया।। (अनगार धर्मामृत, ९/४६) अर्थ- किसी धार्मिक कार्य में फँस जाने के कारण यदि साधु चतुर्दशी की क्रिया न कर सके तो अमावस्या और पूर्णमासी को अष्टमी क्रिया करनी चाहिए। वर्तमान में प्रत्येक क्रिया के उपरान्त समाधिभक्ति करने की परम्परा मुनिसंघों में प्रचलित है।।२८१-२८९।। मध्यम प्रोषधोपवास की विधि जह उक्कस्सं तह मज्झिमं वि पोसहविहाणमुद्दिढ़। णवर विसेसो सलिलं छंडित्ता' वज्जए सेसं ।। २९०।। . मुणिऊण गुरुवकज्जं सावज्जविवज्जियं णियारम्भ। जइ कुणइ तं पि कुज्जा सेसं पुव्वं व णायव्वं ।। २९१।। अन्वयार्थ- (जह उक्कस्स) जिस प्रकार उत्कृष्ट, (पोसहविहाणमुट्ठि) प्रोषधविधान कहा गया है, (तह) उसी प्रकार, (मज्झिमं वि) मध्यम प्रोषध विधान भी जानना चाहिए, (णवर विसेसो) केवल विशेषता (यह है कि), (सलिलं छंडित्ता) जल को छोड़कर, (सेसं वज्जए) शेष का त्याग करना चाहिए, (गुरुवकज्ज) आवश्यक कार्य को, (मुणिऊण) समझकर, (णियारंभं) अपने आरम्भ को, (जइ कुणइ) यदि करना चाहे, (तो) (तं पि कुज्जा) उसे कर सकता है, (किन्तु शेष विधान) Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२८३) आचार्य वसुनन्दि) (पुव्वं व) पूर्व के समान, (णायव्व) जानना चाहिए। अर्थ- जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रोषध का विधान किया गया है, उसी प्रकार मध्यम प्रोषध का भी विधान जानना चाहिए। किन्तु, यहाँ पर विशेषता केवल यह है कि साधक पानी को छोड़कर (ग्रहण करता है), शेष तीन प्रकार के आहार को त्याग देता है। आवश्यक कार्य को जानकर अपने घरु आरम्भ को भी कर सकता है। शेष पूर्व के समान जानना चाहिए। व्याख्या– जिस प्रकार गाथा २८३ में चारों प्रकार के आहार का त्याग रूप चार प्रकार का उपवास ग्रहण करने को कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी जल के अलावा तीन प्रकार के आहार के त्याग रूप तीन प्रकार का उपवास करने को कहा है। यहाँ एक प्रकार के त्याग रूप उपवास नहीं है। अत: इसे मध्यम उपवास की संज्ञा दी गई है। मध्यम उपवास का धारी श्रावक अत्यन्त आवश्यक कार्य को जानकर, समझकर सावद्य-रहित अपने घरु आरम्भ को यदि करना, चाहे तो कर भी सकता हैं, किन्तु शेष विधान पूर्व के समान ही जानना चाहिए। आरम्भ-रहित उपवास का माहात्म्य बताते हुए आ० कार्तिकेय कहते हैं एक्कं पि णिरारंभं उपवासं जो करेदि उवसंतो। बहु-भव-संचिय-कम्मं सो णाणी खवदि लीलाए।।३७७।। उपवासं कुब्वंतो आरंभं जो करेदि मोहादो। सो णिय देहं सोसदि ण झाउए कम्म लेस्सं पि।।का०अनु०३७८।। अर्थ- जो ज्ञानी आरम्भ को त्यागकर उपशमभावपूर्वक एक भी उपवास करता है, वह बहुत भवों से संचित कर्म को लीलामात्र में क्षय कर देता है। जो उपवास करते हुए मोहवश आरम्भ करता है, वह अपने शरीर को सुखाता है। उसके लेशमात्र भी कर्मों की निर्जरा नहीं होती है। अत: आरम्भरहित होकर उपवास करने का प्रयत्न करना चाहिए।।२९०-९१।। जघन्यप्रोषधोपवास की विधि आयंबिल णिव्वयडी' एयट्ठाणं च एयभत्तं वा। जं कीरइ तं णेयं जहण्णमं पोसहविहाणं ।। २९२।। अन्वयार्थ- (ज) जो (पर्व के दिनों में), (आयंबिल) आचाम्ल; (णिव्वयडी) निर्विकृति, (एयट्ठाणं) एकस्थान, (वा) अथवा, (एयभत्तं) एकभक्त को, (कीरइ) १. ब. णिग्घियडी Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८४) आचार्य वसुनन्दि करता है, (तं) उसे, (जहण्णय) जघन्य, (पोसहविहाणं) प्रोषध-विधान, (णेयं) जानना चाहिए। अर्थ- जो अष्टमी और चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, अथवा एकभक्त को करता है, उसे जघन्य प्रोषध-विधान जानना चाहिए। व्याख्या- प्रोषधोपवासप्रतिमाधारी श्रावक के लिए उत्तम-मध्यम अथवा जघन्य प्रोषध करना आवश्यक होता है। यहाँ जघन्य प्रोषधोपवास के सम्बन्ध में समझना है। आचाम्ल- जब निर्जल उपवास करने की शक्ति नहीं हो, तब इसे करने को आचाम्ल या आयंबिल कहते हैं। विद्वानों के अभिमतानुसार- छह रसों में से आम्ल (खट्टा) रस के अलावा शेष रसों का त्याग करके नीबू, इमली आदि के रस के साथ . केवल पानी के भीतर पकाया गया अन्न, धूघरी या रुखी रोटी आदि भी खाई जा सकती है। पानी में उबले चावलों को इमली आदि के रस के साथ खाने को भी कुछ विद्वानों ने आचाम्ल कहा है। इस व्रत के भी तीन भेद हैं। इस सम्बन्ध में पं० हीरालाल द्वारा उद्धृत टिप्पणी द्रष्टव्य है आयंबिल-अम्लं चतुथों रसः, स एव प्रायेण व्यंजने, यत्र भोजने ओदन-कुल्माष-सक्तुप्रभृतिके तदामाचामाम्लम्। आयंविलमपि तिविहं उक्किट्ठ-जहण्ण-मज्झिमदएहिं।। तिविहं जं विउलपूवाइ पकप्पए तत्थ।।१०२।। मिय-सिंधव-सुंठि मिरीमेही सोवच्चलं च विडलवणे। ' हिंगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ।। १०३।। – अभिधानराजेन्द्र (शब्दकोष)। निर्विकृति- इस व्रत में विकार उत्पन्न करने वाले भोजन का त्याग किया जाता है। दूध, घी, दही, तेल, गुड़ आदि रसों को शास्त्रों में विकृति संज्ञा दी गई है, क्योंकि वे सब इन्द्रिय विकारोत्पादक हैं। अतएव उक्त रसों का या उनके द्वारा पके हुए पदार्थों का परित्याग कर बिल्कुल सात्विक एवं रुक्ष भोजन करने को निर्विकृतिव्रत कहा गया है। इसे करने वाला भाड़ के भुंजे चना, मक्का, ज्वार, गेहूँ या पानी में उबले अन्न घुघरी आदि भी खा सकता है। कुछ लोगों के अनुसार दो अन्नों के संयोग से बनी हुई सत्तू खिचड़ी आदि भी खाई जा सकती है। पं० आशाधर ने सागर धर्मामृत (५/३५) में लिखा है- विक्रियते जिह्वामनसि येनेति विकृतिोरसेक्षुरसफलरसधान्यरसभेदाच्चतुर्विधा। तत्र गोरस: क्षीरघृतादि, इक्षुरस: खण्डगुडादि, फलरसो द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दः, धान्यरसस्तैलमाण्डादिः। अथवा यद्येन सह Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८५) आचार्य वसुनन्दि भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते। विकृतिर्निष्क्रान्तं भोजनं निर्विकृतिः। अर्थ- जिसके आहार से जिह्वा और मन में विकार पैदा होता है उसे विकृति कहते हैं। जैसे- दूध, घी आदि गोरस, खाण्ड, गुड आदि इक्षुरस, दाख, आम आदि फल-रस और तेल, माण्ड आदि धान्य रस। ऐसे चार प्रकार के रस विकृति है। ये जिस आहार में न हों वह निर्विकृति है। जिसको मिलाकर भोजन करने से भोजन में विशेष स्वाद आता है उसको विकृति कहते हैं। इस विकृति रहित भोजन अर्थात् व्यंजनादिक से रहित भात आदि का भोजन निर्विकृति है। ... एकस्थान- एकासन, एयठाण और एकस्थान यह सभी एकार्थवाची हैं। चूंकि इन सभी का अर्थ एकस्थान होता है, किन्तु यहाँ आहार का प्रकरण होने से एकस्थान का भोजन अर्थ लेना चाहिए। कुछ विद्वान् इसका अर्थ थाली में एक बार परोसा गयाभोजन भी करते हैं। आगम में इनका उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया है। श्वेताम्बर विद्वान् जिनदास महत्तर ने आवश्यक चूर्णि में लिखा है- एकट्ठाणे जं जथा अंगुवंगं, ठवियं तहेव समुद्दिसितव्वं, आगारे से आउटण पसारणं नत्थि। अर्थजिस आसन से भोजन को बैठे, उससे दाहिने हाथ और मुंह को छोड़कर कोई भी अंग-उपांग को चल-विचल न करे, यहाँ तक कि किसी अंग में खुजलाहट उत्पन्न होने पर उसे दूर करने के लिए दूसरा हाथ भी नहीं उठाना चाहिए। आ० सिद्धसेन ने प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में भी ऐसा ही अर्थ किया है. एकं-अद्वितीयं, स्थान-अंगविन्यासरूपं यत्र तदेकस्थानप्रत्याख्यानम्। तद्यथाभोजनकालेंगोपाङ्गं स्थापितं तस्मिंस्तथा स्थिति एवं भोक्तव्यम्। मुख्यस्य हस्तस्य च अशक्यपरिहारत्वच्चलनमप्रतिषिद्धमिति। ... अर्थ पूर्व सूत्रवत् है। - एकभक्त- एक-भक्त = एकभक्त अर्थात् दिन में एक बार भोजन करना एकभक्त है। इसे एकाशन, एकात्त, एयभत्त भी कहते हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में इसका अर्थ समान ही किया गया है। अ० कुन्दकुन्द ने मूलाचार में कहा हैउदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि। एकम्हि दुअ तिये वा मुहुत्तकालेय भत्तं तु।।३८।। - १. भगवती आराधना/मूलाराधना टीका, २५४/४७५/१९. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८६) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी छोड़कर, वा मध्याह्न काल में एक मुहूर्त, तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना वह एक भक्त (मूलगुण) है। जिनदास महत्तर ने आवश्यक चूर्णि में लिखा हैएगासणं णाम पुता भूमीतो न चालिज्जंति, सेसाणि हत्थे पायाणि चालेज्जावि। आवश्यकवृत्ति में हरिभद्रसूरि कहते हैंएकाशनं नाम सकृदुपविष्टपुताचलनेन भोजनम्। . प्रवचनसारोद्धार में आ० सिद्धसेन कहते है एकं-सकृत्, अशनं-भोजनं; एकं वा अशनं-पुताचलनतो यत्र प्रत्यख्याने तदेकाशमेकासनं वा। अर्थात भोजन के लिए बैठकर फिर भूमि से नहीं उठते हए एक बार भोजन करने को एकाशन या एकभक्त कहते हैं। पुतनाम नितम्बका है। एकाशन । करते समय नितम्ब भूमि पर लगे रहना चाहिए। हाँ, .एकाशन करने वाला नितम्ब को न चलाकर शेष हाथ-पैर आदि अंग-उपांगों को आवश्यकता पड़ने पर चला भी सकता है। कुछ विद्वान लगातार तीन एकासन अर्थात् सप्तमी-अष्टमी-नवमी और त्रयोदशी-चतुर्दशी-पंद्रस के दिनों में एक बार भोजन करने को भी जघन्य प्रोषधोपवास में गिनते हैं। अशक्यावस्था में इन दिनों में भी दूसरे समय औषध, दूध, पानी आदि गुरु आज्ञा से ले सकते हैं।।२९२।। उपवास के दिनों में राग के कारणों को छोड़ना चाहिए । सिरहाणुव्वट्टण-गंध-मल्लकेसाइदेहसंकप्पं । अण्णं पि रागहेउं विवज्ज्जए पोसहदिणम्मि ।। २९३।। अन्वयार्थ- (पोसहदिणम्मि) प्रोषण के दिन, (सिरहाणुव्वट्टण-गंधमल्लकेसाइ-देहसंकप्पं) शीर्ष स्नान करना, उवटन करना, गंध लगाना, माला पहिनना केश, शरीरादि को संस्कारित करना (तथा), (अण्णं पि) अन्य भी, (रागहेडे) राग के कारणों को, (विवज्जए) छोड़ना चाहिए। अर्थ- प्रोषध के दिन शिर से स्नान करना, उवटना करना, सुगंधित द्रव्य लगाना, माला पहनना, बालों आदि का सजाना, देह का संस्कार करना, तथा अन्य भी राग के कारणों को छोड़ देना चाहिए।। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२८७) आचार्य वसुनन्दि) व्याख्या- प्रोषध के दिन शिर से स्नान करना, उवटना करना, साबुन आदि लगाना, सुगन्धित तेल-इत्र आदि द्रव्य लगाना, माला पहनना, बालों आदि का सजाना, शरीर को संस्कारित करना, बार-बार कंघी आदि करना तथा अन्य भी राग को बढ़ाने वाले कारणों को छोड़ देना चाहिए। रत्नकरण्डश्रावकाचार में आ० समन्तभद्र ने कहा है पञ्चानां पापानामलंगक्रिारम्भगन्धपुष्पाणाम्। .. स्नानाञ्जननस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात्।।१०७।। ___ अर्थ- उपवास के दिन पाँच पापों अलंकार धारण करना, खेती आदि का आरम्भ करना, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों का लेप करना, पुष्पमालाएं धारण करना या पुष्पों को सूंघना, स्नान करना, अञ्जन-काजल, सुरमा आदि का लगाना इन सबका परित्याग करना चाहिए। दान-पूजादि के निमित्त सामान्य स्नान कर सकता है। उपवास के दिन श्रावक क्या करें धर्मामृतं सतृष्णं श्रवणाभ्यां पिबतु पापयेद्वान्यान्। ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः। ।रत्न. श्रा. १०८।। अर्थ- उपवास करने वाला व्यक्ति उत्कंठित होता हुआ कानों से धर्मरूपी अमृत को स्वयं पीवे अथवा दूसरों को पिलावे अथवा आलस्यरहित होता हुआ ज्ञान और ध्यान में तत्पर होवे।।२९३।। प्रोषधोपवास प्रतिमा का उपसंहार . एवं चउत्थठाणं विवण्णियं पोसहं समासेण। १ एत्तो कमेण सेसाणि सुणह संखेवओ वोच्छं।। २९४।। ___ अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (चउत्थ पोसहं ठाणं) चौथे प्रोषध नामक स्थान को, (संमासेण) संक्षेप से, (विवण्णिय) वर्णन करके, (एत्तो) अब, (कमेण) क्रम से, (सेसाणि) शेष स्थानों को, (संखेवओ) संक्षेप से, (वोच्छं) कहूँगा, (सुणह) सुनो!। . भावार्थ- इस प्रकार प्रोषध नाम का चौथा प्रतिमास्थान संक्षेप से वर्णन किया गया। अब इससे आगे शेष सचित्तत्यागप्रतिमा, दिवामैथुनत्याग, ब्रह्मचर्यप्रतिमा, आरम्भनिवृत्तिप्रतिमा, परिग्रहत्यागप्रतिमा, अनुमतित्यागप्रतिमा, उद्दिष्टत्यागप्रतिमा स्थानों को संक्षेप से कहूँगा सो सुनो! ।।२९४।। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (२८८) सचित्तत्याग- प्रतिमा जं वज्जिज्ज हरियं तुयं, पत्त- पवाल- कंद - फल- बीयं । अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिव्वित्ति तं ठाणं । । २९५ । । - अन्वयार्थ - (जं) जो, (हरियं तुयं पत्त पवाल- फंद - फल- बीयं) हरित त्वक्, पत्र, प्रवाल, कंद, फल, बीज, (च) और, (अप्पासुगं सलिलं) अप्रासुक जल, ( वज्जिज्जइ) छोड़ता है, (तं) उसे, (सचित्तणिव्वित्ति) सचित्त निवृत्ति नामक, (ठाणं) स्थान होता है। अर्थ — जहाँ पर हरित त्वक् (छाल) पत्र, प्रवाल, कन्द, फल, बीज और अप्रासुक जल त्याग किया जाता है, वह सचित्तविनिवृत्ति वाला पांचवां प्रतिमा : स्थान है ।। आम, व्याख्या - जो ज्ञानी श्रावक सचित्त अर्थात् जिसमें जीव मौजूद है ऐसी ह छाल को, नागवल्ली, पालक, मैथी, नींबू, मूली, सरसों, चना, धतूरा, मुनगा वगैरह के पत्तों को नहीं खाता है, सचित्त खरबूज, ककड़ी, पेठी, नीबू, अनार, बिजौरा, केला, सेव, संतरा आदि फलों को नहीं खाता, सचित्त हल्दी, अदरक, बगैरह मूलों को नहीं खाता, छोटी-छोटी नई कोंपलों को नहीं खाता, तथा सचित्त चने, मूंग, तिल, उड़द, अरहर, जौ, गेहूँ, मक्का बगैरह को नहीं खाता, वह सचित्त त्यागी कहलाता है। ऐसा सचित्त त्यागी अप्रासुक जल एवं अन्य वस्तुओं का त्याग करता है । सचित्त त्याग अप्रासुक प्रतिमा के सम्बन्ध में कुछ आचार्यों के कथनसच्चित्तं पत्त-फलं छल्ली मूलं च किसलयं बीयं । जो ण य भक्खदि णाणी सचित्त विरदो हवे सो दु । । ३७९ ।। (कार्तिकै०) • स्वामि कार्त्तिकेय मूलफलशाकशाखाकरीकन्द प्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्ति ।। १४१ ।। (रत्न० श्रा०) स्वामी समन्तभद्र हरिताङ्कुरबीजाम्बुलवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रत्कृपश्चतुर्निष्ठः सचित्तविरतः स्मृतः ।।७/८ ।। (सा०ध. ) - पं० आशाधर - इन सभी श्लोकों का अर्थ उपरोक्त जैसा ही है। आगम में हरित वनस्पति में अनन्त निगोदिया जीवों का वास कहा है। प्रत्येक Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्सुनन्दि-श्रावकाचार . (२८९) आचार्य वसुनन्दि वनस्पति के दो भेद हैं- सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक। जिस वनस्पति के आश्रय से साधारण वनस्पतिकायिक जीव रहते हैं उसे निगोद कहते हैं। ऐसे जीव सप्रतिष्ठित,प्रत्येक में भी होते हैं। ऐसी वनस्पति को पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक पैर से छूने में भी ग्लानि करता है। यद्यपि सामान्य श्रावक भी ऐसा करता है किन्तु सचित्तत्यागी उससे भी बढ़कर करता है। महापुराण में ब्राह्मणवर्ण की उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि भरत चक्रवर्ती ने परीक्षा के लिए मार्ग में हरित घास बिछवा दी थी। तो जो दयालु विचारवान् आगन्तुक थे वे उस पर नहीं आये। भरत ने उनसे इसका कारण पूछा तो वे बोले- हे देव! हमने सर्वज्ञदेव के वचन सुने हैं हरित अंकुर आदि में अनन्त जीव रहते हैं, जिन्हें निगोद कहते हैं। इसलिए दयामूर्ति सचित्तत्यागी अचित्त-वस्तुओं का ही प्रयोग करता है। जिह्वा इन्द्रिय का जीतना बड़ा कठिन है। जो लोग विषयसख से विरक्त हो जाते हैं वे भी जिह्वा लम्पटी पाये जाते हैं। किन्त सचित्त का त्यागी जिह्वा इन्द्रिय को भी जीत लेता है। सचित्त का त्याग करने से सभी इन्द्रियाँ वश में होती हैं, क्योंकि सचित्त वस्तु का सेवन मादक और पुष्टिकारक होता है। इसी से यद्यपि सचित्त को अचित्त करके खाने में कुछ अंशों में प्राणिसंयम नहीं पलता किन्तु इन्द्रिय संयम को पालने की दृष्टि से सचित्त त्याग आवश्यक है। ___अचित्त करने के तरीके बताते हुए मूलाचारकार लिखते हैं ___ तत्तं पक्कं सुक्कं अंबिललवणेहि मीसियं दव्वं। ... जं जंतेण य छिण्णं तं सव्वं पासुयं भणिय।। तपाकर, पकाकर, सुखाकर, खटाई-नमक-मिर्च आदि तीक्ष्ण पदार्थ मिलाकर तथा चाकू वगैरह से काटकर देने पर सभी सचित्त वस्तु अचित्त हो जाती है। ऐसी वस्तु के खाने से पहला लाभ तो यह है कि इन्द्रियाँ वश में होती हैं। दूसरे इससे दयाभाव • प्रकट होता है। तीसरे भगवान की आज्ञा का पालन होता है, और चौथे संयम के पालन से ध्यान तथा मोक्ष की सिद्धि होती है, अत: अचित्त वस्तुओं का ही सेवन करना चाहिए। ____और भी कहा है- मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसून और बीज इनको अपक्वावस्था में न खाने वाला व्रती सचित्त त्याग प्रतिमाधारी है। मूल - गाजर, मूली आदि फल - आम, अनार, अमरुद आदि शाक - हरे पत्तेवाली सब्जी वृक्ष की नई कोपल करीर - बांस का अंकुर Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्द वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९०) आचार्य वसुनन्दि - जमीकन्द प्रसून - गोभी आदि के फूल बीज - गेहूं आदि ये अप्रासुक अवस्था में सचित्त (जीवयुक्त) होते हैं। अतएव इसको जो नहीं खाता, उसे सचित्त त्याग प्रतिमाधारी कहते हैं। इसमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि श्रावक अभक्ष्य भक्षण नहीं करता है, अतएव श्रावक अवस्था के प्रारम्भ में ही जमीकन्दादिक का त्याग हो जाता है। यहाँ भक्ष्य पदार्थों में यदि वह पदार्थ सचित्त हो, तो उसको खाने का निषेध किया है। दिवामैथुन त्याग-प्रतिमा मण-वयण-काय-कय- 'कारियाणुमोएहिं मेहुणं णावधा। दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सो सावओ छट्ठो।। २९६।। अन्वयार्थ– (जो) जो, (मण-वयण-काय) मन, वचन, काय (और), (कय-कारियाणुमोएहिं) कृत, कारित, अनुमोदना से, (णवधा) नौ प्रकार, (मेहुण) मैथुन को, (दिवसम्मि) दिन में, (विवज्जइ) छोड़ता है, (सो) वह, (छट्ठो) छठा, (सावओ) श्रावक है। अर्थ- जो पुरुष मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नवकोटियों से दिवस में स्त्री सेवन का त्याग करता है, वह श्रावक छटवी प्रतिमा का धारक कहा गया है। व्याख्या- सागार धर्मामृत में कहा गया है स्त्रीवैराग्यनिमित्तैकचित्तः प्राग्वृत्तनिष्ठितः। यस्त्रिधाऽह्नि भजेन्न स्त्रीं रात्रिभक्तव्रतस्तु सः।।७/१२।। . अर्थ- जो पाँच प्रतिमाओं के आचार में पूरी तरह से परिपक्व होकर स्त्रियों से वैराग्य के निमित्तों में एकाग्र मन होता हुआ मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से दिन में स्त्री का सेवन नहीं करता, वह रात्रिभक्तव्रत होता है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा गया है अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम्। स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः।। १४२।। १. ब. किरियाणु.. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९१) आचार्य वसुनन्दि अर्थ — जो जीवों पर दयालु चित्त होता हुआ रात्रि में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य पदार्थों को नहीं खाता है, वह रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमाधारी है। छठवीं प्रतिमा के स्वरूप को लेकर ग्रन्थकारों में मतभेद हैं। छठवी प्रतिमा का नाम रात्रिभक्तव्रत है। भक्त का अर्थ स्त्रीसेवन भी होता है जिसे सामान्य भाषा में भोगना कहते हैं और भोजन भी होता है। इस ग्रन्थ तथा चारित्रसार और सागार धर्मामृत में जो दिवा मैथुन त्याग का व्रत लेता है वह रात्रिभक्तव्रत है और रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुसार रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करना रात्रिभक्तव्रत कहा गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है— जो ज्ञानी श्रावक, रात्रि में चारों प्रकार के भोजन को नहीं करता और न ही दूसरे को कराता है वह रात्रि भोजन का त्यागी होता है (गा० ३८२)। रात्रिभक्त व्रत को ही आचार्यों ने विषय की दृष्टि से दिवामैथुन या रात्रि भोजन त्याग नाम दिये हैं। सम्यक्त्व कौमुदी में कहा है— “रात्रि में औषध, पान तथा पानी आदि चारों प्रकार आहारों का जिसमें त्याग किया जाता है और दिन में मैथुन का त्याग किया जाता है वह रात्रि भुक्तिव्रत नामक प्रतिमा है । ” (पृष्ठ १९२ ) ।। २९६ ।। ब्रह्मचर्य प्रतिमा पुव्वुत्तणवविहाणं पि· मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो । इत्थिकहाइ णिवित्तो? सत्तमगुण बंभयारी सो । । २९७ ।। अन्वयार्थ — (जो) (पुव्वुत्तणवविहाणं) पूर्वोक्त नौ प्रकार के, (मेहुणं) मैथुन को, (सव्वदा सर्वदा, (विवज्जंतो) त्याग करता हुआ, (इत्थिकहाइ पि) स्त्री कथा आदि से भी, (णिवित्तो) निवृत्त हो जाता है, (सो) वह, (सत्तमगुणबंभयारी) सातवें गुणकाधारी ब्रह्मचारी है। विशेषार्थ — स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है सव्वेसिं इत्थीणं जो अहिलासं ण कुव्वदे णाणी । मण-वाया-कायेण य बंभ - वई सो हवे सदओ । । ३८४ । । अर्थ — जो ज्ञानी, मन, वचन काय और कृत- कारित अनुमोदना से सब प्रकार की स्त्रियों की अभिलाषा नहीं करता वह दयालु ब्रह्मचर्यव्रत का धारी है। मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगन्धि वीभत्सं । पश्मन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः । । १४३ ।। २. ब. णियत्तो. १. ब. सव्वहा. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९२) आचार्य वसुनन्दि शुक्रशोणित रूप मल से उत्पन्न, मलिनता का कारण, मल मूत्रादि को झरा वाले दुर्गन्ध सहित और ग्लानि को उत्पन्न करने वाले शरीर को देखता हुआ जो कामसेवन से विरत होता है, वह ब्रह्मचारी है । चारित्रसार में ब्रह्मचारी पाँच प्रकार के कहे हैं- उपनय ब्रह्मचारी, अवलम्बन ब्रह्मचारी, दीक्षा ब्रह्मचारी, गूढ़ ब्रह्मचारी, और नैष्ठिक ब्रह्मचारी । यहाँ नैष्ठिक ब्रह्मचारी मुख्य रूप से वर्णित है, शेष को वहीं से जानना चाहिए। यौवन और सौन्दर्य से युक्त स्त्रियों का अलंकृत शरीर यद्यपि मूर्ख मनुष्यों के लिए आनन्द उत्पन्न करने वाला है तथापि सत्पुरुषों के लिए नहीं। क्योंकि सूजकर फूले हुए बहुत से मुर्दों से अत्यन्त व्याप्त श्मशान को पाकर काले कौओं का समूह ही संतुष्ट होता है, राजहंसों का समूह नहीं । १ आ० शुभचन्द्र कहते हैं वरमालिङ्गिता क्रुद्धा चलल्लोलात्र सर्पिणी । न पुनः कौतुकेनापि नारी नरक पद्धति।। अर्थ — क्रुद्ध एवं चंचल नागिन का आलिंगन कर लेना अच्छा हैं परन्तु कौतुक से भी स्त्री का आलिंगन करना अच्छा नहीं, क्योंकि वह नरक का मार्ग है। उन्होंने और भी कहा है— मालतीव मृदून्यासां विद्धि चाङ्गानि योषितां । दारमिष्यन्ति मर्माणि विपाके ज्ञास्यसि स्वयं । । १ । काकः कृमिकुलाकीर्णे करङ्के कुरुते रतिम् । यथा वद्वराको यं कामी स्त्रीगुह्यमन्थने । । २ । । अर्थ — इन स्त्रियों के शरीर को तू मालती लता के समान कोमल मानता है. सो भले ही मानता रह परन्तु ये विपाककाल में तेरे मर्म को विदीर्ण कर देंगे, यह तू स्वयं जान। जिस प्रकार कौआ कीड़ों से व्याप्त नर पञ्जर में प्रीति करता है उसी प्रकार यह बेचारा कामी पुरुष स्त्री के गुह्यभाग के मन्थन में प्रीति करता है। भावप्राभृतम् (१२०) की टीका में कहा है गूथकीटो यथा गूथे रतिं कुरुत एव हि। तथा स्त्र्यमेध्यसंजातः कामी स्त्रीविड्रतो भवेत ।। १. भावप्राभृत गाथा १२० की टीका. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९३) आचार्य वसुनन्दि अर्थ — जिस प्रकार विष्टा का क्रीड़ा विष्टा (टट्टी) में ही प्रीति करता है, उसी प्रकार स्त्री के अपवित्र योनिस्थान से उत्पन्न हुआ कामी पुरुष स्त्री के अमेध्यस्थान में प्रीति करता है। आ. कुन्दकुन्द कहते हैं— लिंगम्मियइत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिओ सुहुमो काओ तासं कह होई पव्वज्जा ।। सू० पा० २४।। अर्थ - स्त्रियों की योनि में, स्तनों के बीच में, नाभि और कांख में सूक्ष्म शरीर के धारक जीव कहे गये हैं, अतः उनकी दीक्षा कैसे हो सकती है ? आ० शुभचन्द्र कहते हैं— मैथुनाचरणे मूढ! म्रियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसंमुत्पन्ना लिङ्गसंघट्टपीडिताः । । ज्ञानार्णव।। आ० वीरसेन कहते हैं— 'घाए घाए असंखेज्जा" (धवला पु० ) अर्थात् प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़ जीव मरते हैं। आ० योगीन्द्र देव ने कहा है जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बभु वियारि । एक्कहि केम समंति वढ वे खंडा पडियारि । । प० प्र० १२१ । । अर्थ - जिस पुरुष के चित्त में मृगनयनी विद्यमान है उसके हृदय में ब्रह्मचर्य का विचार नहीं रह सकता क्योंकि अरे वत्स! एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहती हैं। स्वामी कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका में एक श्लोक उद्धृत है— यो न च याति विकारं युवतिजनकटाक्षबाणविद्धोऽपि । स त्वेव शूरशूरो रणशूरो नो भवेच्छूरः ।। अर्थ — जो युवतियों के कटाक्षरूपी बाणों से घायल होने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता वही पुरुष शूरवीरों में शूरवीर है। जो रण के मैदान में शूर है वह सच्चा शूर नहीं है। ब्रह्म यानि आत्मा, आत्मा के लिए जो चर्या की जाती है, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसका अर्थ है कि आत्मा की आत्मा के माध्यम से आत्मा में जो चर्या होती है, उसको ब्रह्मचर्य ऐसा कहते हैं। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९४) आचार्य वसुनन्दि यह बहुत ऊँची दशा है, इतनी ऊँची दशा हजारों में से एकाध व्यक्ति ही प्राप्त कर सकता है। इस दशा की ओर बढ़ने के लिए अनेक प्रयत्न करना आवश्यक हैं, जिसमें एक है, ब्रह्मचर्य प्रतिमा। गृहस्थ पहले से ही स्वदार संतोष नामक व्रत का स्वामी होता है। अर्थात् वह पर स्त्री के प्रति अपने मन में कोई दुर्भावना उत्पन्न नहीं होने देता। इस प्रतिमा में व्रती . स्व स्त्री से भी रति क्रीड़ा नहीं करता। यह व्रती कामोद्दीपक वस्तुओं का प्रयोग नहीं करता, स्त्री राग कथा श्रवण आदि वासना को बढ़ाने वाले कार्य भी नहीं करता। वह .. मन को स्वस्थ व पवित्र रखने के लिए प्रति समय स्वाध्याय व गुरु सेवा में मन को लगाता है। मन बड़ा चंचल है। प्रतिक्षण वह विभावों की ओर बढ़ रहा है। प्रति समय : वासनाओं का ज्वार उभर रहा है, मनोसागर में। इस ज्वार को रोकने के लिए मन को विषय वासनाओं से दूर करना जरुरी है। यह कार्य ब्रह्मचारी ही कर सकता है, अतएव . इस प्रतिमा का बहुत बड़ा महत्त्व है। ब्रह्मचर्य से शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है, जिससे कि तप व त्याग में वृद्धि करने में सहयोग मिलता है। ज्ञान की वृद्धि करने का अवसर मिलता है, ध्यान में मन लगने लगता है। अर्थात् सारी साधनाओं का मूल यह व्रत है, अतएव आध्यात्मिक उन्नति का इच्छुक अन्य जीव इसे ग्रहण करता है। आगम में ब्रह्मचर्य अर्थात् शील के अठारह हजार भेद कहे, हैं। वे इस प्रकार हैं- देवी, मानुषी, तिरश्ची और अचेतन ये चार प्रकार की स्त्रियाँ हैं। इनको मन, वचन, काय से गुणा करने पर १२ भेद होते हैं। इन बारह को कृत, कृत, और अनुमोदना से गुणा करने में ३६ भेद होते है। इनको पाँचों इन्द्रियों से गुणा करने पर १८० भेद होते हैं। इनको दस संस्कारों से गुणा करने पर १८०० भेद होते हैं। इनमें काम की १० चेष्टाओं से गुणा करने पर १८००० (अठारह हजार) भेद होते हैं। दस संस्कार- शरीर का संस्कार करना, शृङ्गार रस का राग सहित सेवन करना, हंसी क्रीडा करना, संसर्ग की चाह करना, विषय का संकल्प करना, शरीर की ओर ताकना, शरीर को सजाना, कुछ लेना-देना, पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण करना और मन में भोग की चिन्ता करना। काम की दस चेष्टाएँ- चिन्ता, दर्शन की इच्छा, आहें भरना. शरीर में पीडा.. शरीर में जलन, खाना-पीना छोड़ देना, मूर्छित हो जाना, उन्मत्त हो जाना, जीवन में सन्देह और वीर्यपात अथवा मृत्यु। आचार्य कुन्दकुन्द दूसरे प्रकार से शील के भेद कहते हैं। यथा Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (२९५) आचार्य वसुनन्दि) जोए करणे सण्णा इंदिय भोम्मादि समणधम्मे य। अण्णोणेहि अब्भत्था अट्ठारससीलसहस्साई।मूलाचार १३६९।। ३ योग४३ करणx४ संज्ञाx५ इन्द्रिय ४१० भूमि आदि ४१० धर्म = १८००० (अठारह हजार)। भावप्राभृत (११८) की टीका में आ० श्रुतसागर शील के भेदों को अन्य प्रकार से कहते हैं- अचेतनकाष्ट, पाषाण, लेप से निर्मित स्त्रियाँ ३ प्रकार x योग ४३ कृत, कारित, अनुमोदना x ५ स्पर्शादि x २ द्रव्य भाव x चार कषायें = ७२० । - चेतन स्त्री-देवी, मानुषी, तिरश्ची ३ प्रकार x ३ योग x कृत, कारित, अनुमोदना x ५ स्पर्शादि x २ द्रव्य-भाव ४४ संज्ञायें x १६ कषायें = १७२८०। चेतन और अचेतन दोनों प्रकार की स्त्रियों से विरक्ति रूप शील ७२०+१७२८०-१८००० (अठारह हजार) प्रकार का होता है। ऐसे ब्रह्मचर्य का हमेशा पालन करना चाहिए।।२९७।। आरम्भत्याग प्रतिमा जं किंचि गिहारंभं बहु थोगं वा सयाविवज्जेइ। आरम्भणियत्तमई सो अट्ठमु सावओ भणिओ।। २९८।। अन्वयार्थ- (जं किंचि) जो कुछ भी, (बहु थोगं वा) बहुत या थोड़ा, (गिहारंम्भ) गृहकार्य सम्बन्धी आरम्भ को, (सया विवज्जेइ) सदा के लिए छोड़ता है, (सो) वह, (आरम्भणियत्तमई) आरम्भनिवृत्तमति, (अट्ठमु) आठवां, (सावओ) श्रावक, (भणिओ) कहा गया है। अर्थ- जो कुछ भी थोड़ा या बहुत गृह सम्बन्धी आरम्भ होता है, उसे जो सदा के लिए त्याग करता है, वह आरम्भ से निवृत्त हुई है बुद्धि जिसकी, ऐसा आरम्भ त्यागी आठवां श्रावक कहा गया है।। ... व्याख्या-- जो घर-गृहस्थी सम्बन्धी छोटे-बड़े कार्यों में आरम्भ होता है, उसे जो पुरुष हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ देता है, वह आरम्भ से निवृत्त हुई है, बुद्धि जिसकी, ऐसा आरम्भ का त्यागी आठवां श्रावक कहा गया है। आ० स्वामि कार्तिकेय ने कहा है जो आरंभं ण कुणदि अण्णं कारयदि णेव अणुमण्णे। . .. हिंसा संत? मणो चत्तारंभो हवे सो हू ।।३८५।। १. अ. थोवं. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (२९६) आचार्य वसुनन्दि हिंसा के भय से जो श्रावक तलवार चलाना, मुनीमी करना, खेती करना, व्यापार करना, इत्यादि आरम्भों को न तो स्वयं करता है, न दूसरों को प्रेरणा देता है और न ही आरम्भ करते हुए की अनुमोदना करता है, वह आरम्भ त्यागी है। इसी प्रकार लाटी संहिताकार, चरित्रसारकार, सागारधर्मामृतकार आदि विद्वानों ने भी सभी प्रकार के आरम्भ का त्याग मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से करने के लिए कहा है, किन्तु सर्वमान्य तार्किक चूड़ामणि आचार्य समन्तभद्र ने ऐसा नहीं कहा है। यथा— सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भविनिवृत्तः ।। रत्न० श्रा० १४४।। अर्थ — जो प्राण घात के कारण सेवा, खेती, व्यापार आदि आरम्भ से निवृत्त . होता है वह आरम्भ त्याग प्रतिमा का धारक है। शंका— क्या आरम्भ त्यागी दान पूजा आदि कर सकता है ? समाधान — इसके समाधान हेतु उपरोक्त श्लोक के 'प्राणातिपातहेतो' पद की व्याख्या करते हुए आ० प्रभाचन्द्र ने लिखा है— प्राणातिपातहेतोः प्राणानामतिपातो वियोजनं तस्य हेतोः कारणभूतान्। अनेन स्नपनदानपूजाविधानाद्यारम्भादुपरतिर्निराकृता तस्य प्राणातिपाहेतुत्वाभावात् प्राणिपीडापरिहारेणैव तत्सम्भवात्। जो आरम्भ प्राणघात का हेतु है उससे निवृत्त होना चाहिए। इस विशेषण से यह सिद्ध हो जाता है कि वह अभिषेक, दान, पूजा, विधान आदि का आरम्भ कर सकता है, उससे उसकी निवृत्ति नहीं होती क्योंकि वह प्राणघात का कारण नहीं है, प्राणी हिंसा को बचाकर ही यह कार्य किये जाते हैं। स्वयंभूस्तोत्र में आ० समन्तभद्र ने कहा है पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्य राशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिबाम्बुराशौ । । १२/३ ।। अर्थ — हे भगवन्! इन्द्र आदि के द्वारा पूजनीय तथा कर्मरूप शत्रुओं को जीत - वाले आपकी पूजा करने वाले मनुष्य के जो सराग परिणति अथवा आरम्भजनित थोड़ा सा पाप का लेश होता है, वह बहुत भारी पुण्य की राशि में दोष के लिए समर्थ नहीं है, क्योंकि विष की अल्पमात्रा शीतल एवं आह्लादकारी जल से युक्त समुद्र में दोष उत्पन्न करने वाली नहीं है। शंका — आरम्भत्याग प्रतिमा का धारी श्रावक क्या कूटना, पीसना, आंग जन्नाना, पानी भरना और बुहारी लगाना इस पंचसूनाओं का भी त्यागी होता है? वह Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९७) आचार्य वसुनन्दि अपने स्नान के लिये पानी भरेगा? अपने वस्त्र धोवेगा? अपने लिये भोजन बनाएगा? अपने स्थान को बुहारी से साफ करेगा अथवा नहीं? समाधान- स्वामी समन्तभद्र ने आरम्भ के लिए जो सेवाकृषि वाणिज्यप्रमुखात्' 'प्राणातिपातहेतो' यह दो विशेषण दिये है, उनसे सिद्ध होता है कि यहाँ व्यापार सम्बन्धी आरम्भ का त्याग इष्ट है। टीकाकार का भी यही भाव विदित होता है। आगामी प्रतिमा परिग्रह त्याग है, उस प्रतिमा की भूमिका रूप इस प्रतिमा में धनार्जन करना छोड़ देना चाहिए। जो कुछ संचय है उसी से निर्वाह करना चाहिए। टीकाकार की तो यह भी सम्मति भासित होती है कि जिस आरम्भ में प्राणिघात नहीं है, आवश्यकता पढ़ने पर वह किया भी जा सकता है। . इस प्रतिमा का धारी श्रावक परिग्रह रखते हुए भी निमन्त्रण न होने की स्थिति में स्वयं भोजन बनाकर नहीं खावे- भूखा रहे यह कुछ उचित नहीं जान पड़ता। यह श्रावक भोजन के विषय में स्वाश्रित है, पराश्रित नहीं है इसिलये वह सावधानीपूर्वक अपना और स्थिति विशेष में सुपात्र के लिए भी आहार बना सकता है। पानी भरना, कपड़े धोना तथा अपने स्थान को कोमल बुहारी आदि से यत्नपूर्वक साफ कर सकता है, ऐसा सिद्ध होता है। लाटी संहिता में भी कहा है प्रक्षालनं च वस्त्राणां प्रासुकेन जलादिना। कुर्याद्वा स्वस्व हस्ताभ्यां कारयेद्वा सधर्मणा।। इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट है। . 'सेवाकृषि वाणिज्यप्रमुखात्' इस विशेषण में जो प्रमुख शब्द है उससे पशु पालन . आदि हिंसक व्यापारों का निषेध विवक्षित है, सूनाओं का नहीं। अपसूना रम्भाणामार्याणामिष्यते दानम्। (११३) इस श्लोक में सूनाओं और आरम्भों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है इससे सिद्ध होता है कि आरम्भ शब्द से व्यापार ही अभीष्ट - है सूनाओं का आरम्भ में समावेश नहीं है।।२९८।। परिग्रहत्याग-प्रतिमा मोत्तूण वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं। तत्थ वि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो।।२९९।। अन्वयार्थ- (जो) जो, (वत्थमेत्तं परिग्गह) वस्त्रमात्र-परिग्रह को, (मोत्तूण) छोड़कर, (सेसं विवज्जए) शेष को त्याग देता है, (तत्थवि) उसमें भी, (मुच्छं ण करेइ) मूर्छा नहीं करता, (सो) वह, (णवमो सावओ) नवमां श्रावक (जाणइ) जानना चाहिए। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (२९८) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- जो वस्त्र मात्र परिग्रह को रखकर शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्र-मात्र परिग्रह में भी मूर्छा नहीं करता है, उसे परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी नवां श्रावक जानना चाहिए।। व्याख्या- जो वस्त्रमात्र-परिग्रह को अपने पास रखकर शेष सभी प्रकार की अनावश्यक वस्तुओं का त्याग कर देता है, और अपने पास विद्यमान अल्प-वस्तु में भी राग नहीं करता वह परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारी श्रावक कहलाता है। . . आचार्य कार्तिकेय ने लिखा हैजो परिवज्जइ गंथं अन्भंतर-बाहिरं च साणंदो। पावंति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी।।का० अनु० ३८६।। अर्थ- जो संसार से बाँधता है उसे ग्रन्थ अथवा परिग्रह कहते हैं। परिग्रह ‘दा प्रकार का है आभ्यंतर और बहिरंग, जो इन्हें आनन्दपूर्वक छोड़ देता है वह ज्ञानी निर्ग्रन्थ अर्थात अपरिग्रही (परिग्रहत्यागी) है। आभ्यंतर परिग्रह चौदह प्रकार का है। यथा- . मिथ्यात्ववेद हास्यादिषट्कषायचतुष्टयम्। रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश।। अर्थ- मिथ्यात्व, वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार, राग और द्वेष यह १४ अभ्यंतर परिग्रह है। बहिरंग परिग्रह दस प्रकार का है यथा क्षेत्रं वास्त धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम्। यानं शय्यासनं कुप्यं भांडं चेति बहिर्दश।। अर्थ- खेत, मकान, धन, धान्य, (गेहूँ, चना आदि), द्विपद (नौकर), चतुष्पद (पशु), यान (वाहन), शय्या- आसन, कुप्य और भांड यह दस प्रकार का बहिरंग परिग्रह है। जो इन दोनों प्रकार के परिग्रह को पाप का मूल मानकर त्याग देता है तथा त्याग करके मन में सुखी होता है वही निर्ग्रन्थ अथवा परिग्रह का त्यागी है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः। स्वस्थः सन्तोषपर: परिचित्त परिग्रहाद्विरतः।।१४५।। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९९) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- दश बाह्य वस्तुओं में ममताभाव को छोड़कर निर्ममत्वभाव में लीन होता हुआ जो आत्मस्वरूप में स्थित तथा संतोष में तत्पर रहता है, वह सब ओर से चित्त में स्थित परिग्रह से विरत होता है। जो परिग्रह अनुपयोगी रूप से घर में पड़ा है, उसके त्याग का कोई विशेष महत्त्व नहीं है क्योंकि त्याग के पूर्व भी उसमें कोई ममत्व नहीं है। किन्तु जो गृहस्थी के निर्वाह के लिए आवश्यक होने से मन में अपना स्थान बनाये रखता है, ऐसे परिग्रह से निवृत्त होना इस प्रतिमा की विशेषता है। बाह्य परिग्रह के त्याग का कारण सन्तोष है, क्योंकि जब तक संतोष नहीं होता तब तक त्याग नहीं हो सकता। जितने परिग्रह को निश्चित किया है उसमें संतुष्ट रहने से ही व्रत की रक्षा होती है। पं० आशाधर ने कहा है स ग्रन्थविरतो यः प्राग्व्रतव्रातस्फुरद्धृतिः। नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान्।।सा० ध०७/२३।। अर्थ- पहले की दर्शन आदि प्रतिमा सम्बन्धी व्रतों के समूह से जिसका सन्तोष बढ़ा हुआ है वह आरम्भविरत श्रावक 'ये मेरे नहीं हैं और न मैं इनका नहीं हूँ' ऐसा संकल्प करके मकान खेत आदि परिग्रहों को छोड़ देता है उसे परिग्रहविरत कहते हैं। परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारी श्रावक अपने निर्वाह के योग्य वस्त्र तथा बर्तनों को रखकर शेष परिग्रह से अपना स्वामित्व छोड़ देता है। यदि पुत्र है तो समीचीन शिक्षा के साथ अपने परिग्रह का भार उसे सौंप देता है और यदि पुत्र नहीं है तो दत्तकपुत्र या भाई, भतीजा आदि को परिग्रह का भार सौंपकर निश्चिंत होता है। घर में रहता है और घर में भोजन करता है। यदि अन्य सधर्मी भाई निमन्त्रण देते हैं तो उनके घर भी जाता है। स्वयं व्यापार नहीं करता परन्तु पुत्र आदि, यदि किसी वस्तु के संग्रह आदि में अनुमति मांगते हैं तो उन्हें योग्य अनुमति देता है। चरित्रसार में कहा है- परिग्रह क्रोधादि कषायों की, आर्त और रौद्र ध्यान की, हिंसा आदि पाँच पापों की तथा भय की जन्मभूमि है, धर्म और शुक्लध्यान को पास भी नहीं आने देता ऐसा मानकर परिग्रह से निवृत्त सन्तोषी श्रावक परिग्रहत्यागी होता है। (पृष्ठ १९) ।।२९९।। अनुमतित्याग प्रतिमा पुट्ठो वाऽपुट्ठो वा णियगेहि परेहिं च सगिहकज्जमि। अणुमणणं जो ण कुणइ वियाण सो सावओ दसमो।।३०० ।। अन्वयार्थ– (णियगेहि) स्वजनों से, (च) और, (परेहिं) परजनों से, (पुट्ठो) Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३००) आचार्य वसुनन्दि पूछा गया, (वा) अथवा, (अपुट्ठो) नहीं पूछा गया, (सगिहकज्जमि) अपने गृह सम्बन्धी कार्य में, (जो) जो, (अणुमणणं) अनुमोदना, (ण कुणइ) नहीं करता, (सो) वह, (दसमो सावओ) दसमां श्रावक, (वियाण) जानो। अर्थ- स्वजनों से और परजनों से पूछा गया, अथवा नहीं पूछा गया जो श्रावक अपने गृह-सम्बन्धी कार्य में अनुमोदना नहीं करता है, उसे अनुमति त्याग प्रतिमाधारी दसवां श्रावक जानना चाहिए।। व्याख्या- स्वजनों-परजनों के पूछने पर अथवा नहीं पूछने पर जो श्रावक गृह एवं व्यापार सम्बन्धी कार्यों में अनुमति नहीं देता है, उसे अनुमति त्याग प्रतिमाधारी दसवां श्रावक जानना चाहिए। आ० समन्तभद्र का कथन द्रष्टव्य है अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे ऐहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुविरत: स मन्तव्यः।। रत्न० श्रा० १४५ ।। अर्थ- जो खेती आदि आरम्भ, धन धान्यादि परिग्रह तथा इस लोक सम्बन्धी विवाह आदि कार्यों में अनुमति नहीं देता है तथा इष्ट-अनिष्ट परिणति में समबुद्धि रखता है, उसे अनुमति त्याग प्रतिमा का धारक श्रावक जानना चाहिए। स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है जो अणुमणणं ण कुणदि गिहत्थ-कज्जेसु-पाव मूलेसु।. , भवियव्वं भावंतो अणुमण-विरओ हवे सो दु ।।३८८।। अर्थ- 'जो होना है वह होगा ही' ऐसा विचारकर जो श्रावक पाप के मूल गार्हस्थिक कार्यों की अनुमोदना नहीं करता वह, अनुमतित्याग प्रतिमा का धारी है। परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारी श्रावक आरम्भ और परिग्रह को छोड़ने पर भी अपने पुत्र पौत्रों के विवाह आदि कार्यों की, वणिज-व्यापार की, मकान आदि बनवाने की अनुमति आदि देता था, क्योंकि उसका मोह गृह और गृह सम्बन्धी कार्यों में रहता था। किन्तु अनुमोदनाविरति श्रावक यह सोचकर कि, जिसका जैसा होना है, वैसा होओ अपने घर-परिवार से उदासीन हो जाता है। उसके पुत्र वगैरह कोई गार्हस्थिक कार्य करें तो वह उससे कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। अब वह यदि घर में रहता है तो उदासीन बनकर रहता है, नहीं तो घर को छोड़कर चैत्यालय, उदासीन आश्रम अथवा धर्मशाला के एकान्त स्थान में रहने लगता है। भोजन के लिए अपने अथवा दूसरों के घर बुलाने पर ही जाता है। बिना आमन्त्रण के आहार को नहीं जाता है। तथा वह यह भी नहीं कहता कि मेरे लिए अमुक वस्तु बनाना; जो कुछ गृहस्थ जिमाता है, जीम आता है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (३०१) आचार्य वसुनन्दि) दिन में एक बार ही भोजन-पान ग्रहण करता है। __अनुमति देने का त्यागी श्रावक लौकिक कार्यों में अनुमति नहीं देता। किन्तु पारलौक्रिक-धार्मिक कार्यों में अनुमति दे सकता है अर्थात् मंदिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, शास्त्र लेखन आदि कार्यों में अनुमति दे सकता हैं। ऐसे कार्यों में भी स्वयं अग्रसर होकर किसी कार्य के कराने का विकल्प अपने ऊपर नहीं लेता।।३००।। उद्दिष्टत्याग-प्रतिमा उद्दिष्टत्याग प्रतिमाधारी के दो भेद . एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो। वत्येक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ ।।३०१।। अन्क्यार्थ– (एयारसम्मि ठाणे) ग्यारहवें स्थान में, (उक्किट्ठ सावओ) उत्कृष्ट श्रावक, (दुविहो) दो प्रकार का, (हवे) होता है, (पढमो एक वत्थ धरो) प्रथम एक वस्त्र रखने वाला, (विदिओ कोवीणपरिग्गहो) दूसरा कोपनी मात्र परिग्रह वाला। भावार्थ- ग्यारहवें प्रतिमास्थान में गया हुआ साधक उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं- प्रथम एक वस्त्र के साथ-साथ लंगोटी (कोपीन) रखने वाला और दूसरा कोपीन (लंगोटी) मात्र परिग्रह को रखने वाला होता है।।३०१।। प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) का स्वरूप धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढमो। ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ।।३०२।। भुंजेइ पाणिपत्तम्मि भायणो वा सई समुवइट्ठो। उववासं पुण णियमा चउव्विहं कुणइ पव्वेसु ।। ३० ३।। पक्खालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा। भणिऊण धम्मलाहं जायइ भिक्खं सयं चेव।।३०४।। सिग्धं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तओ। अण्णमि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण कायं वा ।।३०५।। १. झ.ब. बिइओ. २. ब. वयणं. ३. ब. लेहइ मि. ४. ब. कायव्वं. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०२) आचार्य वसुनन्दि जइ . अद्धवहे' कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । भोत्तूण णिययभिक्खं तस्सण्णं भुंजए सेसं ।। ३०६।। अह ण भणइ तो भिक्खं भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं। पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुयं सलिलं ।। ३०७।। जं किं पि पडियभिक्खं भुंजिज्जो सोहिऊण जत्तेण। पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरु सयासम्मि ।। ३०८।। जइ एवं ण रएज्जो काउंरिसगिहम्मि२ चरिमाए ।। . पविसत्ति एय भिक्खं पवित्तिणियमणं३ ता कुज्जा ।। ३०९।। . गंतूण गुरुसमीवं पच्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा। .. गहिऊण तओ सव्वं आलोचेज्जापयत्तेण ।। ३१०।। . अन्वयार्थ– (पढम) प्रथम उत्कृष्ट श्रावक, (धम्मिल्लाणं) बालों का, (चयणं) चयन (कटवाना), (कत्तरि) कैंची, (वा) अथवा, (छुरेण) छुरा से, (करेइ) कराता है, (तथा) (पयडप्पा) प्रयत्नशील होकर, (उवयरणेण) उपकरण से, (ठाणाइस) स्थान आदि में, (पडिलेहइ) प्रतिलेखन करता है, (पाणिपत्तम्मि वा भायणे) पाणिपात्र अथवा हाथ में, (सई) एक बार, (समुवइट्ठो) बैठकर, (मुंजेइ) भोजन करता है, (पुण) किन्तु, (चउविहं पव्वेसु) चारों प्रकार के पर्यों में, (णियमा) नियम से, (उववासं कुणइ) उपवास करता है। (पक्खालिंऊण पत्तं) पात्र को प्रक्षालित (धो) करके, (चरियाय) चर्चा के लिए, (पंगणे पविसइ) श्रावक के आँगन में प्रवेश करता है (और), (ठिच्चा) ठहर कर, (धम्मलाह) धर्मलाभ', (भणिऊण) कहकर, (सयं चेव) स्वयं ही, (भिक्खं जायइ) भिक्षा मांगता है, (लाहालाहे) लाभ के अलाभ में, (अदीणवयणो) अदीनमुख हो, (तओ) वहाँ से, (सिग्धं णियत्तिऊण) शीघ्र निकलकर, (अण्णमि गिहे) अन्य घर में, (बच्चइ) जाता है, (वा) और, (मोणेण) मौन से, (कार्य) शरीर को, (दरिसइ) दिखलाता है, (जइ) यदि, (अद्धवहे) अर्द्धपथ में, (को वि) कोई भी, (पत्थेइ) प्रार्थना करे और (भणति) कहता है (कि), (भोयणं कुणह) भोजन कर लीजिए, (तो) (णिययभिक्ख) अपनी भिक्षा को, (भोत्तूण) खाकर, (सेस) शेष, (तस्सण्णं) उसके अन्न को (भुंजए) खावे, (अह) अथवा, (ण भणइ) नहीं कहता है, (तो) तो, (णियपोट्टपूरणपमाणं) अपने पेट को पूरण करने के प्रमाण, (भिक्खं भमेज्ज) भिक्षा को घूमता है, (पच्छा) बाद १. प. अट्ठवहे. २. काउंरिसिगोहणम्मि. ३. ध. णियमेण. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०३) आचार्य वसुनन्दि में, (एयम्मिगिहे) एक घर में, (पासुगं सलिलं) प्रासुक जल, (जाएज्ज) मांगे, (जं किं पि) जो कुछ भी, (पडियभिक्ख) भिक्षा प्राप्त है (उसे), (सोहिऊण) शोधकर ( जिज्जो) भोजन करे, (जत्तेण) यत्न से, (पत्तं पक्खालिऊण) पात्र को प्रक्षालन कर, (गुरुसयासम्मि) गुरु के पास में, (गच्छिज्जो) जावे। (जई) यदि, (एवं) इस प्रकार, (ण रएज्जो) न रुचे, (तो मुनियों की चर्या के बाद) (काउंरिसगिहम्मि) किसी पुरुष के घर में, (चरियाए) चर्या के लिए, (पविसत्ति) प्रवेश करता है, (एयभिक्खं) एक भिक्षा करता है, (ता) इस प्रकार भिक्षा न मिले तो, (पवित्तिणियमणं) प्रवृत्तिनियमन (उपवास), (कुज्जा) करना चाहिए, (गंतूण गुरुसमीव) गुरु के समीप जाकर, (विहिणा) विधिपूर्वक, (चउव्विहं) चतुर्विध, (पच्चक्खाणं) प्रत्याख्यान, (गहिऊण) ग्रहण कर, (तओ) तदनन्तर, (पयत्तेण) प्रयत्न से, (सव्वं) सभी दोषों की, (आलोचेज्जा) आलोचना करे। अर्थ- प्रथम उत्कृष्ट श्रावक अर्थात् क्षुल्लक बालों का कैंची अथवा उस्तरे से चयन करवाता है अर्थात् मुण्डन करवाता है। मुनि पद का अभ्यास करने के लिए केशलोंच भी करता है, तथा प्रयत्नशील अर्थात् सावधान होकर पीछी आदि कोमल उपकरण से स्थान, आसन, शय्या आदि का प्रतिलेखन अर्थात् संशोधन करता है। पाणिपात्र, थाली अथवा कटोरा आदि भाजन में रखकर दिन में एक-बार बैठकर भोजन करता है। किन्तु माह की दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चार पर्यों में चतुर्विध आहार को त्याग कर नियम से उपवास करता है। (अशक्यावस्था में आहार भी कर सकता है)। पात्र (कटोरे) को प्रक्षालन (साफ) करके चर्या के लिए श्रावक के घर में प्रवेश करता है और आंगन में ठहरकर 'धर्म-लाभ' कहकर स्वयं ही भिक्षा मांगता है। भिक्षा न मिलने पर अदीनमुख हो वहाँ से शीघ्र निकलकर दूसरे घर में जाता है और मौन से अपने शरीर को दिखलाता है यदि अर्ध-पथ में अर्थात् मार्ग के बीच में ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करता हुआ कहे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घर से प्राप्त अपनी भिक्षा को खाकर, शेष अर्थात्- जितना पेट खाली रहे तत्प्रमाण उस श्रावक के अन्न को खावे। यदि कोई भोजन के लिए न कहे तो अपने पेट के पूरण करने के प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य-अन्य श्रावकों के घर जावे। आवश्यक भिक्षा प्राप्त हो जाने के बाद किसी एक श्रावक के घर जाकर प्रासुक पानी मांगे। और जो भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे। भोजन के बाद अपना पात्र और हाथ-मुँह प्रयत्न के साथ साफ करे और गुरु के पास जावे। यदि किसी को इस प्रकार की आहार चर्या अच्छी न लगे, तो वह मुनियों के गोचरी कर जाने के बाद चर्या के लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षा के नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चर्या के लिए किसी श्रावक जन के घर में जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले, तो उसे प्रवृत्ति-नियमन करना चाहिए अर्थात् फिर किसी के घर न जाकर उपवास का नियम कर लेना चाहिए। पश्चात् गुरु Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०४) आचार्य वसुनन्दि के समीप जाकर विधिपूर्वक चतुर्विध आहार के त्यागरूप प्रत्याख्यान ग्रहण कर पुनः प्रयत्न के साथ सर्वदोषों की आलोचना करे अर्थात् चर्या आदि में लगे हए दोषों को गुरु के सामने कहे, और गोचरी सम्बन्धी प्रतिक्रमण भी करे। व्याख्या- आ० समन्तभद्र ने कहा है गृहतो मुनिवनमित्वा गुरुपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य। भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः।।१४७।। अर्थ- जो घर से मनियों के वन को जाकर गुरु के पास व्रत ग्रहण कर भिक्षा भोजन करता हुआ तपश्चरण करता है तथा वस्त्र के एक खण्ड को धारण करता है वह उत्कृष्ट श्रावक है। चरित्रसार (पृष्ठ १९) में कहा है- उद्दिष्टविरत श्रावक अपने उद्देश्य से बनाये : गये भोजन, उपधि, शयन, वस्त्र आदि को ग्रहण नहीं करता है, भिक्षाभोजी और बैठकर हस्तपुट में भोजन करता है, रात्रिप्रतिमा आदि तप करता है, आतापन आदि योग नहीं । करता है। स्वामिकार्तिकेय ने कहा है जो गण कोडि विसुद्धं भिक्खायरणेण भुंजदे भोज्ज। जायण-रहियं जोग्गं उद्दिट्टाहार-विरदो सो।।३९०।। अर्थ- जो श्रावक भिक्षाचरण के द्वारा बिना याचना किये, नव कोटि से शुद्ध योग्य आहार को ग्रहण करता है वह उद्दिष्ट आहार का त्यागी है। आ० समन्तभद्र स्वामी ने इस प्रतिमा का नाम 'भैक्ष्याशन' दिया है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह उद्दिष्ट आहार का त्यागी है। यह गुरु के समीप रहता है और वस्त्र का केवल एक खण्ड (टुकड़ा) रखता है। इस प्रतिमा का विशद वर्णन अमितगति श्रावकाचार और सागार धर्मामृत में दृष्टव्य है।।३०२-३१०।। द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक) का स्वरूप एमेव होइ बिइओ णवरिविसेसो कुणिज्ज णियमेण। . लोचं धरिज पिच्छं अँजिज्जो पाणिपत्तम्मि।। ३११।। अन्वयार्थ- (एमेव) इस प्रकार ही, (बिइयो) द्वितीय श्रावक, (होइ) होता है, (णवरिविसेसो) केवल विशेषता यह है (कि उसे), (णियमेण) नियम से (लोचं) केशलोंच (कुणिज्ज) करना चाहिए, (पिच्छं धरिज्ज) पीछी रखना चाहिए (और) Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [(. वसुनन्दि- श्रावकाचार (३०५) ( पाणिपत्तम्मि) पाणिपात्र में, (भुंजिज्जो) भोजन करना चाहिए । अर्थ - इस प्रकार ही अर्थात् प्रथम उत्कृष्ट श्रावक के समान ही द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है, केवल विशेषता यह है कि उसे नियम से केशों का लोंच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्र में खाना चाहिए । । आचार्य वसुनन्दि व्याख्या– प्रथम उत्कृष्ट श्रावक अर्थात् क्षुल्लक के समान द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक अर्थात् ऐलक होता है, केवल विशेषता यह है कि उसे नियम से मुनियों की तरह केशलोंच करना चाहिए, पिच्छी रखना चाहिए और हाथ में ही भोजन करना चाहिए। यह भी बैठकर ही भोजन करता है । पं० आशाधार ने कहा है तद्वद् द्वितीयः किन्त्वार्यसञ्ज्ञो लुञ्चत्यसौ कचान् । कौपीनमात्रयुग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखनम् ।। ४८ ।। स्वपाणिपात्र एवात्ति संशोध्यान्येन भोजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुर्वते । । सा०ध०४९ ।। अर्थ- दूसरे उत्कृष्ट श्रावक की क्रिया पहले के समान है। विशेष यह है कि यह ‘आर्य' कहलाता है, दाड़ी, मूंछ और सिर के बालों को हाथ से उखाड़ता है, केवल लंगोटी पहनता है और मुनि की तरह पीछी रखता है। अन्य गृहस्थ आदि के द्वारा अपने हस्तपुट में ही दिये गये आहार को सम्यक् रूप से शोधन करके खाता है। वे सभी श्रावक परस्पर में 'इच्छामि' इस प्रकार के उच्चारण द्वारा विनय व्यवहार करते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार (श्लोक १४७) में कहा है- ऐलक सिर्फ लिङ्ग ओट-लिङ्ग का परदा अर्थात् लंगोट धारण करते हैं और क्षुल्लक लंगोट के सिवाय एक खण्ड वस्त्र भी रखते हैं। खण्डवस्त्र का अर्थ इतना छोटा वस्त्र लिया जाता है कि जिससे शिर ढकने पर पैर न ढक सके और पैर ढकने पर शिर न ढक सके। दोनों ही पैदल विहार करते हैं रेल, मोटर आदि में यात्रा करना इस पद में वर्जित है । पहली से लेकर छटवीं प्रतिमा तक के श्रावक को जघन्य श्रावक, सातवीं से नौवीं प्रतिमा तक के श्रावक को मध्यम श्रावक, दशमी तथा ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक को उत्तम श्रावक कहा जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक पुरुष को आर्य और स्त्री को आर्या-आर्यिका कहते हैं। आर्यिका १६ हाथ की एक सफेद साड़ी रखती है। स्त्री पर्याय में धारण किये जाने वाले व्रतों का यह सर्वश्रेष्ठ रूप है, इसलिए इसे उपचार से महाव्रतों का धारक माना जाता है। आर्यिका से उतरता हुआ दूसरा स्थान क्षुल्लिका है। यह १६ हाथ की साड़ी के सिवाय एक सफेद चद्दर भी रखती हैं। ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका और क्षुल्लिका दूसरे दिन शुद्धि के समय बदलने के लिए दूसरा लंगोट, चद्दर Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०६) आचार्य वसुनन्दि और साड़ी भी रखती हैं, साथ के ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारणियाँ उसकी व्यवस्था रखती हैं। पिछले दिन के वस्त्रों को धोकर यही सुखाती हैं। आर्यिका के केश लोंच तथा भोजन की विधि ऐलक के समान है और क्षुल्लिका के केशलोंच तथा आहार की व्यवस्था क्षुल्लक के समान है।।३११।। श्रावकों को क्या नहीं करना चाहिए दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु णत्थि अहियारो। . . . सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं ।।३१२।। अन्वयार्थ- (दिणपडिम) दिनप्रतिमा, (वीरचरिया) वीरचर्या, (तियालजोगेसु) त्रिकालयोग में ध्यान करना, (सिद्धत) सिद्धान्त (और), (रहस्साण वि) रहस्य ग्रन्थों का भी, (अज्झयणं) अध्ययन, (अहियारो) अधिकार, (देसविरदाणं) देशव्रतियों को, (णत्थि) नहीं है। अर्थ- दिन में प्रतिमा योग धारण करना अर्थात् नग्न होकर दिनभर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या अर्थात् मुनि के सम्मान गोचरी करना, त्रिकाल योग अर्थात् गर्मी में पर्वत के शिखर पर, बरसात में वृक्ष के नीचे और सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, सिद्धान्त-ग्रन्थ का अर्थात केवली, श्रुतकेवली-कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्नदशंपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रन्थों का अध्ययन और रहस्य अर्थात, प्रायश्चित्त शास्त्रों का अध्ययन, इतने कार्यों में देशविरती श्रावकों का अधिकार नहीं है। व्याख्या- सागारधर्मामृत (७/५०) विशेषार्थ में- सिद्धान्त का अर्थ आशाधर जी ने अपनी टीका में सूत्ररूप परमागम कहा है। जो गणधर, प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली या अभिन्न दसपूर्वी के द्वारा कहा गया हो उसको सूत्र कहते हैं। वर्तमान में कोई ऐसा सिद्धान्त ग्रन्थ नहीं है जो इनके द्वारा कहा गया हो। षट्खण्डागम, कसायपाहुड और महाबन्ध पूर्वो से सम्बद्ध होने से पूर्व सम्बन्धी ग्रन्थ हैं। पीछे आशाधर जी ने पाक्षिक के प्रकरण में (२/२१) नवीन जैनधर्म धरण करने वाले को भी द्वादशांग और चौदहपूर्वो के आश्रित उद्धारग्रन्थों को पढ़ने की प्रेरणा की है। वर्तमान उक्त सिद्धान्त ग्रन्थ उसी के अन्तर्गत है।।३१२।। ग्यारहवीं प्रतिमा का उपसंहार उद्दिपिंडविरओ दुवियप्यो सावओ समासेण। एयारसम्मि ठाणे भणिओ सुत्ताणुसारेण।।३१३।। १. प.ब. विरयाणं. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०७) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (एयारसम्मिठाणे) ग्यारहवें स्थान में, (सुत्ताणुसारेण) सूत्रानुसार, (समासेण) संक्षेप से, (उद्दिपिण्डविरओ) उद्दिष्ट आहार के त्यागी (दुवियप्पो सावओ) दोनों प्रकार के श्रावकों का, (भणिओ) वर्णन किया। ___अर्थ- ग्यारहवें प्रतिमास्थान में उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार संक्षेप से मैंने उद्दिष्ट आहार के त्यागी दोनों प्रकार के श्रावकों का वर्णन किया है। व्याख्या- स्वामिकार्तिकेय ने कहा है___ जो सावय वयसुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि। सो अच्चुदम्मि सग्गे इंदो सुर-सेविदो होदि।।३९१ ।। अर्थ- जो श्रावक व्रतों से शुद्ध होकर अन्त में उत्कृष्ट आराधना को करता है वह अच्युत स्वर्ग में देवों से पूजित इन्द्र होता है। पं० आशाधर जी कहते हैंदानशीलोपवासा भेदादपि चतुर्विधः। स्वधर्मः श्रावकैः कृत्यो भवोच्छित्त्यै यथायथम्।।सा० ध०७/५१।। अर्थ- संसारपरिभ्रमण का विनाश करने के लिए दान, शील, उपवास ओर जिनादि पूजा के भेदं से चार, प्रकार का अपना आचार श्रावकों को अपनी-अपनी . प्रतिमासम्बन्धी आचरण के अनुसार करना चाहिए। . और भी कहा है प्राणान्तेऽपि न भतव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतम्। . प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःखं व्रतभङ्गो भवे-भवे।।७/५२।। अर्थ- गुरु अर्थात् पंचपरमेष्ठी, दीक्षागुरु और प्रमुख धार्मिक पुरुषों के सामने - लिये गये.व्रत को प्राणान्त होने पर भी नहीं भंग करना चाहिए। अर्थात् व्रतभंग न करने पर यदि प्राणों का भी नाश होता हो तब भी व्रतभंग नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्राणों का अन्त तो उसी क्षण में दुःखदायी होता है। किन्तु व्रत का भंग भव-भव में दुःखदायी होता है। श्रावक को जो मुनिराजों का समिति गुप्ति आदि आचरण है, वह भी अपनी शक्ति और संयम की भूमिका का भी अच्छी तरह विचारकर पालन करना चाहिए। कहा भी है यत्प्रागुक्तं मुनीन्द्राणां वृत्तं तदपि सेव्यताम्। सम्यङ् निरुप्य पदवीं शक्तिं च स्वामुपासकैः । ।सा०५०५९।। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (३०८) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आ० अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है इयमेकैव समर्थाधर्मस्वं मे ममा समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या । । १७४ । । अर्थ — यह सल्लेखना ही एकमात्र ऐसी है जो मेरे तप त्याग, व्रत- शील, धर्मरूपी धन को मेरे साथ ले जाने में समर्थ है, इसलिए हमेशा ही भक्तिपूर्वक सल्लेखना की भावना करना चाहिए । । ३१३ । । रात्रिभोजनदोष - वर्णन रात्रिभोजी के प्रतिमाएँ नहीं ठहरती एयारसेसु पढमं वि' जदो णिसिभोवणं कुणंतस्स । ठाणं ण ठाइ तम्हा णिसिभुक्तिं परिहरे णियमा । । ३१४ ।। - अन्वयार्थ – (जदो) चूँकि, (णिसिभोवणं. कुणंतस्स) रात्रिभोजन करने वाले h, (एयरसेसु पढमं ठाणं वि) ग्यारह में से पहला स्थान भी, (ण ठाइ) नहीं ठहरता, (तम्हा) इसलिए, (णियमा) नियम से, ( णिसिभुत्तिं) रात्रि भोजन का, (परिहरे) परिहार करना चाहिए | १. अर्थ - चूंकि, रात्रि को भोजन करने वाले मनुष्य के ग्यारह प्रतिमाओं में से पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए रात्रि भोजन का त्यांग करना चाहिए। व्याख्या— भोजन के चार भेद हैं- खाद्य- स्वाद्य- लेह्य और पेय । खाद्य — खाने योग्य पदार्थ, खाद्य है । यथा - रोटी, भात, कचौड़ी, पूड़ी आदि । स्वाद्य — स्वाद लेने योग्य पदार्थ स्वाद्य है । यथा चूर्ण, ताम्बूल, सुपारी आदि । लेह्य — चाटने योग्य पदार्थ लेह्य है । यथा— रबड़ी, मलाई, चटनी आदि । - पेय— पीने योग्य पदार्थ पेय है । यथा पानी, दूध, शरबत आदि । रात्रिकाल में चारों प्रकार के आहार का पूर्ण त्याग करना, रात्रिभोजन त्याग नामक व्रत है। रात्रि भोजन त्यागी को भोजन का त्याग कब करना चाहिये ? यह बताते हुए आ० पूज्यपाद कहते हैं कि दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे । नक्तं तं प्राहुराचार्या न नक्तं रात्रिभोजनम्।। (पूज्यपाद श्रावकाचार, ९४ ) . ब. पि. ब. वाइ.. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०९) आचार्य दसुनन्दि) अर्थ- दिन के आठवें भाग में सूर्य के मन्द प्रकाश के हो जाने पर अवशिष्ट काल को आचार्य गण 'नक्त (रात्रि) कहते हैं। केवल रात्रि में भोजन करने को ही नक्त भोजन नहीं कहते, अपितु इस समय में भोजन करना भी रात्रि भोजन है। रात्रि भोजन त्यागी को रात्रि में बना हुआ रात्रि में खाना, दिन का बना हुआ, रात्रि में खाना तथा रात्रि का बना हुआ दिन में खाना, ये तीनों दोष टालने चाहिये। आ० अमृतचन्द्र ने लिखा है कि अर्कालोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत्कथं हिंसम्। अपि बोधित प्रदीपे, भोज्यजुषां सूक्ष्मजन्तूनाम्।। (पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, ११३) - अर्थ- सूर्य के प्रकाश के बिना रात्रि के अन्धकार में भोजन करने वाला दीपक के जला लेने पर भी भोजन में प्रीतिवश गिरने वाले सूक्ष्म जन्तुओं की हिंसा को कैसे बचा कसता है? अर्थात् नहीं बचा सकता। इससे यह कु-तर्क भी व्यर्थ हो जाता है कि दीपक अथवा लाइट के प्रकाश में भोजन करना दूषक नहीं है निश्चित ही रात्रिभोजन में दोष हैं।।३१४।। . . रात्रिभोजी कीट-पतंगे भी खा जाता है चम्मट्ठि-कीड-इंदुर'- भुयंग-केसाइ असणमज्झम्मि। पडियं ण किं पि पस्सइ भुंजइ सव्वं पि णिसिसमये।।३१५।। अन्वयार्थ- (असणमज्झम्मि) भोजन के मध्य, (पडियं) गिरा हुआ, (चम्ममट्ठि-कीड-उंदुर भुयंग-केसाइ) चर्म, हड्डी, कीट-पतंग, चूहा, सर्प और केश आदि, (किंपि) कुछ भी, (ण पस्सइ) नहीं दिखता है, (इसलिए) (णिसिसमये) रात्रि के समय में, (सव्वं पि) सबको भी, (मुंजई) खा जाता है। ____अर्थ- भोजन के मध्य गिरा हुआ चर्म, अस्थि, कीट-पतंग, मेंढक, चूहा, सर्प और केश आदि रात्रि के समय कुछ भी नहीं दिखाई देता है, और इसलिए रात्री भोजी पुरुष सबको खा जाता है। व्याख्या- रात्रि में सूर्यप्रकाश के अभाव में अनेक सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं। भोजन के साथ यदि जीव पेट में चले गये तो रोग का कारण बनते हैं। यथाइनके पेट में जाने पर ये रोग होते है चींटी-चींटा बुद्धिनाश १. ध. दुंदुर. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार जूँ, जूएँ मक्खी लिक, लीख बाल (३१०) जलोदर वमन कोड़ स्वरभंग आचार्य वसुनन्दि बिच्छु, छिपकली मरण रात्रि भोजन का त्याग करने से प्राणी संयम पलता है। अहिंसा व्रत विशुद्ध होता है, करुणा भाव का संरक्षण होता है तथा स्वास्थ्य लाभ होता है - अतः बुद्धिमानों को रात्रि भोजन का पूर्णतया त्याग करना चाहिये । रत्नमाला में कहा है छत्र चामर वाजीभ रथ पदाति संयुताः । विराजन्ते नरा यत्र ते रात्र्याहार वर्जिन: ।। ४९ । । ग्रन्थकार कहते हैं कि छत्र-चंवर - घोड़ा - हाथी - रथ और पदातियों से युक्त नर (राजा) जहाँ कहीं भी दिखाई पड़ते हैं, ऐसा समझना चाहिए कि उन्होंने पूर्व भव में रात्रिभोजन का त्याग किया था। उस त्याग से उपार्जित हुए पुण्य को वे भोग रहे हैं । । ३१५ ।। दीपक के प्रकाश में भी जीव भोजन में गिरते हैं दीउज्जोयं जड़ कुणइ तह वि चउरिंदिया अपरिमाणा । णिवडंति दिट्ठिराएण मोहिया असणमज्झम्मि । । ३१.६ । । -- अन्वमार्थ – (जइ) यदि, (दीउज्जोयं कुणइ) दीपक जलाया जाता है, (तह वि) तो भी, (अपरिमाणा चउरिंदिया) अगणित चतुरिन्द्रिय जीव (दिट्ठिराएण मोहिया) दृष्टिराग से मोहित होकर, (असणमज्झम्मि) भोजन के मध्य में, (णिवडंति) गिरते हैं। अर्थ — यदि दीपक जलाया जाता है, तो भी पतंगे आदि अगणित चतुरिन्द्रिय जीव दृष्टिराग से मोहित होकर भोजन के मध्य में गिरते हैं । । विशेषार्थ -- यदि प्रकाश के लिए दीपक भी जला लिया जाय तो उसके प्रकाश को देखकर चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत होकर बहुत से कीट-पतंगे आ जाते हैं। बहुत से तो भोजन में गिर जाते हैं, बहुत से जल करके मर जाते हैं और बहुत से हाथ-पैर आदि चलाने से मर जाते हैं, अत: भयंकर हिंसा का भी दोष लगता है और शारीरिक बीमारियाँ भी होती हैं। ऐसे ही मनुष्य अधिक मात्रा में रोगी पाये जाते हैं जो रात्रीभोजी अथवा Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (३११) आचार्य वसुनन्दि व्यसनी हों। जैनाचार-श्रावकाचार की पद्धति के अनुसार चलने वाला और विवेक से काम करने वाला श्रावक कभी भी भयंकर रोगों का शिकार नहीं होता है। प्रत्येक श्रावक को रात्रि में चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना चाहिए। यदि कोई श्रावक ऐसा नहीं कर सकता है, तो उसे अपनी शक्ति एवं संयम की अपेक्षा खाद्य, स्वाद्य, लेह्य आदि का त्याग अवश्य करना चाहिए। रात्रि भोजन त्याग के सम्बन्ध में प्रस्तुत है कथानक 'पथिक' का एक अंश सूर्य तो पहले ही अस्त हो चुका था। अब अनुराग, विराग को कमरे से निकालकर, होटल के उस भाग में ले गया। जहाँ कि नाना प्रकार की भोजन सामग्री सजी हुई थी। वह एक बहुत बड़ा हाल था। जमीन पर कालीन बिछी हुई थी। चारों ओर रोशनी जगमग-जगमग कर रही थी। होटल के एक भाग में विभिन्न प्रकार के खाद्य व्यंजन सजे हुए थे और पास ही मादक पेय पदार्थों को भी बड़े ढंग से सजाया गया था। वह जाकर एक केबिन के अंदर पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए। अनुराग ने एक बेरे को बुलाते हुए कहा- दो थालियाँ लगाकर लाओ। विराग ने टोकते हुए कहा- दो नहीं एक ही लाना। - क्यों? ...... अनुराग बोला। . – इसलिए कि मैं न तो रात में भोजन करता हूँ और ना ही होटल की कोई भी वस्तु खाता-पीता हूँ।..... विराग बोला। - ऐसा क्यों? - ऐसा. इसलिए कि रात्रि भोजन करने से प्रथम तो असंख्यात जीवों की हिंसा का पाप लगता है, और दूसरी बात है, कि स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। - किसने देखा कि जीव हिंसा होती है और रही स्वास्थ्य की बात, तो डॉक्टरों की क्या कमी है। - डॉक्टरों की भी कमी नहीं है और ना ही रुपयों की कमी है, लेकिन ऐसा कौन सा मूर्ख होगा कि जो रोगों को स्वयं आमन्त्रण देगा। और जो तुमने कहा ना, कि किसने देखा हिंसा होती है वह भगवान तो देख ही रहे हैं। हमें भी साक्षात् भोजन में मच्छर, कीड़े गिरते हुए दिखते हैं और कई बार भोजन में बड़े-बड़े कीड़े भी निकल आते हैं। - एकाध पड़ जाता होगा, तो क्या हुआ? - - एकाध नहीं पड़ जाता, उसमें दिखने वाले तो सैकड़ों पड़ ही जाते हैं, न दिखने वालों की तो संख्या नहीं है। तुम्हें मालूम होगा कि सूर्य के अभाव में जीवों Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३१२) आचार्य वसुनन्दि की उत्पत्ति ज्यादा होती है। सूर्य के रहते उससे निकलने वाली इन्फ्रारेड और अल्ट्रावायलेट किरणों के कारण इन जीवों का उत्पादन दिन में अत्यल्प होता है और रात्रि में अत्यधिक.....। __ - क्या? यार तुम भी बुजुर्गों जैसी बातें करते हो, छोड़ों इन रुढ़ियों को, यह तो तब की बात है, जब प्रकाश नहीं होता था अथवा कम होता था? - अनुराग! यह तब की बात नहीं, अब की बात है। ऐसा नहीं है कि पहले प्रकाश नहीं होता था आज के प्रकाश से तेज होता था मणियों का प्रकाश लेकिन रात्रि भोजन कोई नहीं करता था, मालूम है रात्रि भोजन करना मांस सेवन करने जैसा है और पानी पीना....खून जैसा। रात्रिभोजी संसार में भटकता है एयइरिसमाहारं भुंजतो आदणासमिह लोए। पाउणइ परभवम्मि चउगइ संसार दुक्खाई।। ३१७।। अन्वयार्थ– (एयइरिसमाहारं भुजंतो) इस प्रकार के आहार को खाता हुआ (मनुष्य), (इह लोए) इस लोक में, (आदणासम्) आत्मा का नाश करता है (और), (परभवम्मि) परभव में, (चउगइ संसारदुक्खाई) चतुर्गति रूप संसार के दुःखों को, (पाउणइ) प्राप्त करता है। अर्थ- इस प्रकार के कीट-पतंग युक्त आहार को खाने वाला पुरुष इस लोक में अपनी आत्मा का या अपने आपका नाश करता है, और परभव में चतुर्गतिरूप संसार के दुःखों को पाता है।। व्याख्या- जो मनुष्य रात्रि भोजन करता है, वह अपनी आत्मा का नाश करता है उसे भयंकर कर्मों का बंध होता है। इस भव में तो वह शरीर आदि में रोगों के बाहुल्य से दुःखी होता ही है, किन्तु परलोक में इससे भी भयंकर चार-गतियों में भ्रमण रूप दुःखों को प्राप्त करता है। महाभारत के ज्ञान पर्व अ० ७० श्लोक २०३ में कहा है उलूकाकाकमार्जारगृद्ध शंबरशूकराः। अहिवृश्चिकगोधाश्च, जायन्ते रात्रि भोजनात्।। अर्थ- रात्रि के समय भोजन करने वाला मनुष्य मरकर इस पाप के फल से उल्लू, कौआ, बिलाव, गीध, शंबर, सुअर, सांप, बिच्छू, गुहा आदि निकृष्ट जीवों में जन्म लेता है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (३१३) आचार्य वसुनन्दि) श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है वासरे च रजन्यां च यः खादन्नेव तिष्ठति। शृङ्गपुच्छ परिभ्रष्टः, स: स्पष्ट पशुरेव हि।।यो० शा०।। अर्थ- जो दिन और रात दोनों में खाता रहता है, वह बिना सींग और पूछ वाला स्पष्टत: पशु ही है। - रात्रि भोजन करने वाला अनेक पापों का संग्रह करके नरक और तिर्यञ्चगति का पात्र होता हुआ भयानक दुःखों को प्राप्त होता है। कदाचित् मनुष्य भी होता है तो लंगड़ा, बहरा, अंधा, गरीब अथवा कुष्टी होता है। देवों में जाता है तो नीच देव होता है और बहुत प्रकार के दुःखो को भोगता है। इन सभी दोषों से बचने के लिए रात्रि भोजन का त्याग अवश्य ही कर देना चाहिए। सूर्य के प्रकाश में नीलाकाश के रंग के सूक्ष्म कीटाणु स्वत: नष्ट हो जाते हैं उनका प्रसार और प्रभाव रात्रि में होता है। वे सूक्ष्म जीव सूर्य के तेज प्रकाश में भी आँखों से दिखाई नहीं देते। भोजन में गिरकर वे मर जाते है जिससे रात्रिभोजी को हिंसा का दोष लगता है और उन कीटाणुओं के पेट में जाने से अनेक असाध्य रोग भी हो जाते हैं। . . . रात्रि भोजन की महता दिखाते हुए महाभारतकार ने लिखा है ये रात्रौसर्वदाऽऽहारं वर्जयंति सुमेधसः।। तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते।।शांतिपर्व १६।। ___ अर्थ- जो श्रेष्ठ बुद्धि वाले विवेकी मनुष्य रात्रि में भोजन करने का सदैव के लिए त्याग करते हैं, उनको एक माह में १५ दिन के उपवास का फल प्राप्त होता है। सूर्य प्रकाश और विज्ञान जब सूर्य की किरणें किसी तिरछे शीशे अथवा प्रिज्म से गुजरती हैं तो उसमें सात रंग दिखाई पड़ते हैं जो बैंगनी, गुलाबी, नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल होते हैं। यह रंग सूर्य प्रकाश के आन्तरिक अंश व रूप हैं और स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं। सर्वाधिक विटामिन 'डी' इन्हीं से प्राप्त होता है। ये जीवन शक्ति प्रदायक प्राणतत्त्व अर्थात् आवश्यक अग्नि का सर्जन करते हैं। सूर्य प्रकाश की इन्फ्रारेड और अल्ट्रा वायलेट किरणें एक्स-रे की तरह पुदगल के भीतर तक घुसकर कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं। इनके सद्भाव में कीटाणु शारीरिक क्षति नहीं पहुँचा सकते। आधुनिक विज्ञानवेत्ता ऐसी नकली किरणे बनाकर विभिन्न रोगों की जानकारी प्राप्त करने और उन्हें Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (३१४) आचार्य वसुनन्दि नष्ट करने में समर्थ हुए हैं। यह किरणें असली रूप में एकमात्र सूर्य प्रकाश में ही होती हैं, रात्रि के प्रकाश में यह किरणें नहीं होती फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के कीटाण उत्पन्न हो जाते हैं। सूर्य का प्रकाश विभिन्न गुणों से संयुक्त प्राकृतिक होता है, अत: उसके प्रकाश में भोजन करने से कीटाणुओं के आक्रमण से बचा जा सकता है। जो मनुष्य हमेशा दिन में ही भोजन करते हैं, वे दीर्घजीवी और स्वस्थ होते हैं। वर्तमान में भारत के साथ-साथ अन्य कई देशों में दिवस-भोजन का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। रात को सूर्य रश्मि के अभाव से छुद्र पतंगा आदि जीव गुप्त स्थान से निकलकर विचरणे लगते हैं वे सब आहारादि वस्तुओं में गिर भी जाते हैं उस आहार को करने से उन जीवों का भी भोजन हो जाता है जिससे हिंसा का दोष एवं मांस भक्षण का दोष लगता है। उन विषाक्त जीवों से अनेक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। आहार में नँ खाने से जलोदर रोग हो जाता है, मकड़ी खाने से कुष्ठ रोग हो जाता है, मक्खी खा जाने से वमन होता है, केश खाने से स्वर भंग हो जाता है, चींटी खा जाने से पित्त निकल आता है विषभरी छिपकली के विष से आदमी को अनेक रोग हो जाते हैं एवं मरण को भी प्राप्त हो जाता है। रात को सूर्य किरणों के अभाव से पाचन शक्ति मंद हो जाती है जिससे खाया हुआ भोजन ठीक से नहीं पचता है। उससे बदहजमी, गेस्टिक, पेट दर्द, सिर दर्द, आदि रोग हो जाते हैं। इसी प्रकार रात्री भोजन सर्वत्र मांस भक्षण के सदृश हानिकारक होने से त्यजनीय है। सूर्य किरण में अनेक गुण है। विटामिन डी भी है। सर्य किरण से विषाक्त कीट-पतंग संचार नहीं करते हैं वायु वातावरण शुद्ध हो जाता है, पाचन शक्ति बढ़ती है। दिन को वनस्पति अंगार-विश्लेषण के कारण प्राण वायु (आक्सीजन) छोड़ते हैं जिससे दिन को पर्याप्त प्राणवायु मिलती है। दिन में जितना प्रकाश रहता है उतना प्रकाश और स्वास्थ्य कर प्रकाश कोई भी कृत्रिम प्रकाश नहीं हो सकता है और रात को कृत्रिम प्रकाश से कीट-पतंग अधिक संख्या से आकर्षित होकर प्रकाश के स्थान में आते हैं यह आप सबको अवगत है ही। इसी प्रकार अनेक कारणों से रात को भोजन करना धर्मतः एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है। दिवसस्य मुखे चान्ते, मुक्त्वा द्वे द्वे सुधार्मिकैः। घटिके भोजनं कार्य, श्रावकाचार चंचुभिः ।। धर्मात्मा श्रावकों को सबेरे और शाम को आरम्भ और अन्त की दो-दो घड़ी (४८ मिनट) छोड़कर भोजन करना चाहिये। वर्तमान आधुनिक वैज्ञानिक एवं डॉक्टर लोगों ने सिद्ध किया है कि रात्रि में सूर्य किरणों के अभाव से एवं सोने से खाया हुआ भोजन ठीक से पच नहीं पाता है, इसलिये Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३१५) आचार्य वसुनन्दि) अनेक रोग होते हैं। इसलिये रात्रि में शयन के३-४ घंटे पहले लघु आहार करना चाहिये जिससे आहार शयन के पहले पच जायेगा। वैदिक ग्रन्थ महाभारत के शांतिपर्व में लिखा है चत्वारि नरक द्वाराणि प्रथमं रात्रि भोजनम्। परस्त्रीगमनं चैव, संधानानंत कायिके।।१५।। नरक के ४ द्वार हैं- (१) रात्रि में भोजन करना, (२) पर स्त्री गमन करना, (३) अचार खाना, (४) जमीकन्द खाना। वैदिक ग्रन्थ मार्कण्डेयपुराण में कहा है___ अस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिर मुच्यते। अन्नं मांस समं प्रोक्तं मार्कण्डेय महर्षिणा।।अ०३३, श्लोक ५३।। सूर्य अस्त होने के बाद जल को रुधिर और अन्न को मांस के समान कहते हैं यह मार्कण्डेय महाऋषि ने बताया है। अतः रात्रि भोजन का त्याग अवश्य ही कर देना चाहिए।।३१७।। .. त्रययोगों से रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए एवं बहुप्पयारं दोसं णिसिमोयणम्मि णाऊण। तिविहेण राइभुत्ती परिहरियव्वा हवे तम्हा।।३१८।। अन्वयार्थ (एवं) इस प्रकार, (णिसिभोयणम्मि) रात्रिभोजन में, (बहुप्पयारं - दोसं हवे णाऊण) बहुत प्रकार के दोष होते हैं, जानकर के, (तिविहेण) मन, वचन, काय से, (राइभुत्ती) रात्रिभुक्ति का, (परिहरियव्वा) त्याग करना चाहिए। अर्थ- इस प्रकार रात्रि भोजन में बहुत प्रकार के दोष जान करके मन, वचन, "काय से रात्रि भोजन का परिहार करना चाहिए।। ____ व्याख्या- उपरोक्त चार गाथाओं द्वारा रात्रि-भोजन के सम्बन्ध में बहुत प्रकार के दोष दिखाकर विशद वर्णन किया। रात्रि भोजन करने में बहुत दोष होते हैं, इसलिए उन दोषों को जानकर रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए। ___ यहाँ तक आचार्य वसुनन्दी जी ने श्रावकाचार से सम्बन्धित सभी प्रमुख तथ्यों का कथन कर दिया है। अगर हम स्वामी समन्तभद्र की शैली का ख्याल करें तो लगता है कि यह ग्रन्थ यहीं समाप्त हो गया। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। ग्रन्थकार ने श्रावकाचार का साङ्गोपाङ्ग और विस्तृत वर्णन करने के लिए इस ग्रन्थ में आगे श्रावकों Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३१६) आचार्य वसनन्दि) के विशेष कर्तव्य विनय, वैयावृत्त्य, काय क्लेश, पूजन-विधान, ध्यान, जिन-बिम्ब प्रतिष्ठा आदि का विस्तृत वर्णन किया है। श्रावक धर्म पालन का फल, गुणस्थानों का वर्णन कर्मों का स्थिति खण्डन एवं समुद्घात आदि का वर्णन भी बड़ी कुशलता के साथ किया है। __ मैं ३१८ गाथाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन करके इतने हिस्से को वसुनन्दी श्रावकाचार के पूर्वार्द्ध का रूप दे रहा हूँ।३१८।। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३१७) आचार्य वसुनन्दि मंगल कामना वर को वर वर न वरो, अवर वरे कई बार। सुधी बनो धीवर नहीं, मिटने बार-अबार ।।१।। नंदन बन वंदन करो, तज दो मन से राग। दीप देहरी के बनो, चूल्हे की न आग।।२।। श्रावक श्री को जा रहे, श्रेय कहे धीवान । वरण करें चारित्र को, शनैः शनैः सुज्ञान।।३।। कारण आतम ज्ञान है, देह जीव में भेद । चातक बन पातक बना यही रहा बस खेद।।४।। रत्न चुनो सम्भाल कर, रक्षा करो सम्भाल। टीन के डिब्बे में नहीं, टिकता ऐसा माल ।।५।। कान लगाकर सुन चलो, एक और नई बात । काका से भी न कहो, माल रखे की बात ।।६।। रमण करो निज रूप में, परखों खुद को आप। मुक्ति लायक हो सका, क्या खुद में खुद माप ।।७।। निलय बना निज देह को, प्रभु बना निज आत्म । सुरत रहो निज भाव में, फिर क्या आत्मानात्म ।।८।। नील गगन में शोभता, जैसे पूनम चांद। लगन लगा जिन में रहो, जैसे अनहद नांद ।।९।। सार-समय को गह लहे, निज में निज का सार । गगन गंध में सार न, सारे रहे असार ।।१०।। रस रूपादिक हैं नहीं, मुझमें केवल ज्ञान । जीव रहा था जीव हूँ, जीव बने भगवान ।।११।। - Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (३१८) आचार्य वसुनन्दि समय एवं स्थान आश्विन शुक्ला द्वादशी, दिन है गुरु महान । पन दो पन दो है कहा, वीर प्रभु निर्वान । । १ । । तीरथ काशी गा रहा, क्षमा धर्म की बात । क्षमा धारने से मरु, हुआ था पारसनाथ ।। २ ।। विघ्नहरण - मंगल करन, बोलो काशी नाथ । विश्वनाथ पारस कहो, सब ही पारसनाथ ।। ३।। चन्द्रपुरी में चन्द्र जिन, सिंहपुरी में श्रेय । जन्में काशी के निकट, दान करें मम ध्येय ।।४।। जन्में नाथ सुपार्श्व जी, पार्श्वनाथ भगवान । काशी नगरी में किया, पूर्ण बोध मय काम ।।५।। गमक सिंधु आदि गुरु, वर आचार्य महान । महावीर कीर्ती गुरु, सन्मति सिन्धु प्रणाम । । ६ । । व्याख्या सन्मति बोधिनी, कही जिनानुसार । त्रुटि कहीं मम रह गई, धी जन पढ़े सुधार ।।७।। ।। समाप्तोऽयं ग्रन्थः । । पन-५, दो-२, पन-५, दो-२, ५२५२ 'अंकानां वामतो गति:' के अनुसार वीरनिर्वाण संवत् २५२५. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. श्रीषेणराजा की कथा (आहारदानफल) प्राचीन समय में श्रीषेण राजा ने आहारदान दिया। फलतः वे शान्तिनाथ तीर्थङ्कर हुए। मलय नाम का एक प्रसिद्ध देश था । यहाँ की राजधानी रत्नसंचयपुर के राजा श्रीषेण थे। उनकी उदारता, न्यायप्रियता अत्यन्त प्रसिद्ध थी। उनकी दो रानियाँ थींसिंह नन्दिता और अनन्दिता । दोनों ही विदुषी थी। दोनों के दो पुत्र थे - इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन। इस प्रकार राजा श्रीषेण धन, सम्पत्ति, राज, विभव आदि से सम्पन्न थे । उनकी प्रजापालकता प्रसिद्ध थी । इसी नगर में सात्यकि नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी सत्यभामा नाम की एक पुत्री थी । रत्नसंचयपुर के समीप ही एक दूसरा गाँव था । वहाँ धरणीधर नाम का एक अच्छा वैदिक था । उसकी पत्नी अग्निला से दो पुत्र थे इन्द्रभूति और अग्निभूति। उनके यहाँ एक दासीपुत्र रहता था, जिसका नाम कपिल था। जब धरणीधर अपने पुत्रों को वेदाध्ययन कराता तो वह छुपकर सुन लिया करता था । कपिल की बुद्धि तीव्र थी। वह विद्वान् हो गया । धरणीधर को बड़ा आश्चर्य हुआ। एक शूद्र को शिक्षा • देने के कारण जनता में बड़ा असन्तोष फैला। लोगधरणीधर को धमकाने लगे। धरणीधर ने घबड़ाकर कपिल को देश से निकाल दिया। कपिल रास्ते में ब्राह्मण बन गया। वह रत्नसंचयपुर पहुँचा। रूप और विद्या से सम्पन्न था ही, सात्यकि ने ब्राह्मण समझ अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया । कपिल को अनायास स्त्रीरत्न की प्राप्ति हो गयी। वह सुखपूर्वक रहने लगा। राजा ने उसके पाण्डित्य की प्रशंसा सुनकर अपने यहाँ पुराण की कथा सुनाने के लिये नियुक्त कर लिया। एक बार सत्यभामा रजस्वला हुई थी। कपिल 'नें उस समय भी संसर्ग करना चाहा। इस दुराचार को देखकर सत्यभामा को सन्देह हुआ। उसने इस पापी को ब्राह्मण न समझ कर उससे प्रेम करना छोड़ दिया। वह अलग रहकर जीवन बिताने लगी। संयोग से धरणीधर पर ऐसी विपत्ति पड़ी कि वह दरिद्री हो गया। वह कपिल के यहाँ रत्नसंचयपुर गया। यद्यपि अपने पिता को देखकर कपिल को क्रोध ही हुआ फिर भी बड़ा सम्मान किया। उसे भय था कि कहीं मेरे सम्बन्ध में • लोगों को भड़का न दें। कपिल ने सब लोगों से अपने पिता का परिचय कराया। उसने मायाचार इसलिये किया कि उसकी माता का भेद न खुल जाय । धरणीधर दरिद्र तो था ही, उसने धन के लोभ में कपिल को अपना पुत्र मान लेने में कोई आपत्ति न की। एक दिन सत्यभामा ने थोड़ा-सा धन देकर धरणीधर से पूछा - - महाराज आप ब्राह्मण Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२० परिशिष्ट हैं, मुझे विश्वास है कि आप कभी झूठ नहीं बोलेंगे अपने कपिलजी का दुराचार देखकर मुझे विश्वास नहीं होता कि ये आप जैसे पवित्र ब्राह्मण के पुत्र हो। धरणीधर ने सारी बातें कह सुनाई और उसी दिन रत्नसंचयपुर के लिये चल पड़ा। सत्यभामा की घृणा और भी बढ़ गयी। वह कपिल से बोलना चालना छोड़कर एकान्तवास करने लगी। इस प्रकार घृणा करते देखकर कपिल बलात्कार करने पर उतारू हो गया; किन्तु सत्यभामा ने श्रीषेण महाराज के यहाँ जाकर सब बातें कह सुनायीं। श्रीषेण अत्यन्त क्रोधित हुए। उन्होंने कपटी कपिल को देश से निकाल दिया। दुष्टों को दण्ड देना राजा. का धर्म है। ऐसा न करने से वह च्युत होते हैं। एक बार आदित्यगती और अरिंजय . नाम के दो मुनिराज श्रीषेण के यहाँ आहार के लिए पधारे। राजा ने आदरपूर्वक आहार कराया। इस पात्रदान से देवों ने रत्नों और सुगन्धित फूलों की वर्षा की। पश्चात् श्रीषेण. ने अनेक वर्षों तक राज्य किया। मृत्यु के बाद वे धातकीखण्ड के उत्तरकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुए। उनकी दोनों रानियाँ तथा सत्यभामा भी भोगभूमि में उत्पन्न हुई। इस : भोगभूमि में लोग कल्पवृक्षों से प्राप्त होने वाले सुखों को भोगते हैं। आयु पूर्ण होने तक ऐसा ही सुख भोंगेगे। यहाँ के लोगों के भाव सदा, पवित्र रहते हैं। यहाँ न किसी की सेवा करनी पड़ती है और न किसी को अपमान सहन करना पड़ता है। श्रीषेण ने भोगभूमि का पूरा सुख भोगा। अन्त में वे स्वर्ग में गये। यहाँ भी दिव्य सुख भोग कर पुन: मनुष्य हुए। कई बार ऐसे ही परिवर्तन होने के बाद श्रीषेण ने हस्तिनापुर के महाराज विश्वसेन की रनी ऐरा के यहाँ अवतार लिया। यही सोलहवें तीर्थङ्कर के नाम से प्रसिद्ध हुए। जन्म के समय देवों ने उत्सव मनाया। सुमेरु पर्वत पर क्षीरसमुद्र के जल से इनका अभिषेक किया गया। भगवान् शान्तिनाथ का जीवन बड़ी पवित्रता से व्यतीत हआ। अन्त में योगी हो, धर्म का उपदेश कर उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। यह पात्रदान का फल है। जो लोग पात्रों को भक्तिपूर्वक दान देंगे वे अवश्य उच्च सुख प्राप्त करेंगे। २. धनपति सेठ की पुत्री वृषभसेना की कथा (औषधदानफल) भारत के कावेरी नामक नगर के राजा का नाम उग्रसेन था। वे प्रजापालक तथा राजनीति के बड़े विद्वान् थे। इसी नगर में धनपति नाम का एक सेठ रहता था। इसकी पत्नी धनश्री माने लक्ष्मी थी। धनश्री की एक देवकुमारी-सी पुत्री उत्पन्न हुई, जिसका नाम वृषभसेना रखा गया। एक दिन की घटना है कि वृषभसेना की धाय रूपवती उसे स्नान करा रही थी। एक महारोगी कुत्ता उस गड्ढे में गिर पड़ा जिसमें वृषभसेना के स्नान करने का पानी इकट्ठा हो गया था। जब कुत्ता पानी से बाहर हुआ तो बिल्कुल निरोग दिख पड़ा। रूपवती चकित हो गई। उसने समझ लिया कि वृषभसेना असाधारण लड़की है। उसने जल की परीक्षा के लिये थोड़ा-सा जल अपनी मां की आँखों में डाल दिया। उसकी माँ की आँखें वर्षों से खराब थीं। उसका भी रोग जाता रहा। अब रूपवती का सारा सन्देह दूर हो गया। इस रोग को नाश करने वाले जल के प्रभाव से रूपवती की Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२१ __परिशिष्ट बड़ी प्रसिद्धि हुई। वह इसी जल से असाध्य से असाध्य रोगों की चिकित्सा करने लगी। उग्रसेन और मेघपिंगल की पुरानी शत्रुता थी। एक बार उग्रसेन ने अपने मन्त्री को मेघपिंगल पर चढ़ाई करने की आज्ञा प्रदान की। मेघपिंगल ने यह योजना की कि जिन कूपों से शत्रु सेना में पीने के लिये जल आता था, उसमें विष डलवा दिया। बहुत सी सेना मर गयी और जो सैनिक बचे वे भाग खड़े हुए। जिन लोगों को विष का असर हुआ था उन्हें रूपवती ने उसी जल से आराम किया। यह हाल सुनकर उग्रसेन को बड़ा क्रोध हुआ। उसने स्वयं आक्रमण किया। किन्तु उन्हें भी जहर मिला हुआ जल पीना पड़ा। उग्रसेन की तबियत बहुत बिगड़ गयी। उन्हें रूपवती के जल का प्रभाव मालूम था। उन्होंने एक आदमी को सेठ के यहाँ से जल लाने के लिए भेजा। उसी समय रूपवती जल लेकर राजा के यहाँ पहँची। जल के स्पर्श से ही राजा रोगमुक्त हो गये। उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। जल के सम्बन्ध में पूछने पर रूपवती ने सब बातें बतला दीं। राजा ने धनपति सेठ को बुलाया और आदर-सत्कार कर वृषभसेना से विवाह की इच्छा प्रकट की। धनपति ने उत्तर दिया – महाराज मुझे विवाह कर देने में कोई आपत्ति नहीं। किन्तु आपको अष्टाह्रिक पूजा करनी पड़ेगी और अभिषेक करना पड़ेगा। पिंजरे के पशु-पक्षी तथा जेल के कैदियों को छोड़ना पड़ेगा। उग्रसेन ने शर्त स्वीकार कर ली और उन्हें कार्य में भी परिणत कर दिया। बड़ी धूमधाम से वृषभसेना का विवाह हआ। उसे पटरानी होने का सौभाग्य मिला। उग्रसेन भी अन्य रानियों की अपेक्षा वृषभसेना से अधिक प्रेम करने लगे; किन्तु वृषभसेना का समय पूजा अभिषेक में ही अधिक व्यतीत होता था। वह साधुओं को चारों प्रकार के दान देती और व्रत, तप, शील, संयमादिक का यथासाध्य पालन करती थी। बनारस का राजा पृथ्वीचन्द्र, उग्रसेन के यहाँ कैद था। वृषभसेना के विवाह के समय भी उसकी मुक्ति न हुई। पृथ्वीचन्द्र की पत्नी नारायणदत्ता को आशा थी कि उसके पति छोड़ दिये जायेंगे, पर उसकी आशा सफल न हो सकी। पर अपने मन्त्रियों की राय से उसने दूसरी ही युक्ति सोची। नारायणदत्ता ने वृषभसेना के नाम से बनारस में कई दानशालायें बनवा दीं। वहाँ स्वदेशी और विदेशी सबको समान रूप से भोजन मिलने लगा। थोड़े ही दिनों में दानशालाओं की प्रसिद्धि हो गयी। दूर-दूर के ब्राह्मण भोजन के लिये आने लगे। जब यह संवाद वृषभसेना को मिला तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। पता लगाने पर असली रहस्य खुला। वृषभसेना ने उग्रसेन से प्रार्थना कर उसी समय पृथ्वीचन्द्र को छुड़वा दिया। पृथ्वीचन्द्र ने कृतज्ञता स्वीकार की। पहले उल्लेख किया जा चुका है कि मेघपिंगल से उग्रसेन की शत्रता थी। अब उग्रसेन ने पृथ्वीचन्द्र को उस पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी। मेघपिंगल डर गया; क्योंकि वह पृथ्वीचन्द्र से कई बार हार मान चुका था। उसने लड़ना उचित न समझा। अत: उग्रसेन की शरण में आ गया। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार ३२२ परिशिष्ट एक दिन दरबार में उग्रसेन ने यह घोषणा की कि आज की आने वाली भेंट का आधा हिस्सा वृषभसेना को और आधा मेघपिंगल को दिया जायगा । उस दिन भेंट बहुमूल्य वस्तुओं के अतिरिक्त दो कम्बल प्राप्त हुए। राजा ने अपनी घोषणा के अनुसार आधा-आधा द्रव्य और एक-एक कम्बल मेघपिंगल और वृषभसेना के यहाँ भिजवा दिये। संयोग से मेघपिंगल की रानी यही कम्बल ओढकर वृषभसेना के महल में आयी। वृषभसेना के पास भी ऐसा ही कम्बल था। वह भूल से अपना कम्बल वहीं छोड़ वृषभसेना का कम्बल ओढ़कर लौट आयी। कुछ दिनों बाद मेघपिंगल को दरबार में जाना पड़ा। वह वृषभसेना का कम्बल ओढ़े चला गया। राजा ने कम्बल पहचान लिया। उनकी आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। वे सोचने लगे कि वृषभसेना का कम्बल इसके पास कैसे गया? उग्रसेन के क्रोधित होने का कारण मेघपिंगल की समझ में न आया। वहाँ से हट जाना ही उसके लिये उचित था । वह एक तेज घोड़े पर सवार होकर दूर निकल गया। इस प्रकार मेघपिंगल को भागते देखकर राजा का सन्देह और भी बढ़ा। उन्होंने मेघपिंगल को पकड़ लाने के लिये कुछ तेज सवारों को दौड़ाया, इधर वृषभसेना' को समुद्र में फिकवाने की आज्ञा दे दी। निर्दोष वृषभसेना समुद्र में फेंक दी गयी। पर यदि मनुष्य निष्कलंक है तो उसका बाल भी बाँका नहीं हो सकता। वृषभसेना को अपनी पवित्रता पर पूर्ण विश्वास था। वह परमात्म प्रेम में लीन हो गई। उस समय वृषभसेना की तेजस्विता ने ज्योति का रूप धारण किया। उस ज्योति के समक्ष देवों को भी सर झुकाना पड़ा। उन्होंने वृषभसेना को एक सिंहासन पर बिठाकर पूजा की और जय-जयकार मनाया। जब वृषभसेना के शील का माहात्म्य उग्रसेन को मालूम हुआ तो उन्हें महान् पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने वृषभसेना के समक्ष जाकर क्षमा माँगी और महल में चलने की प्रार्थना की। यद्यपि वृषभसेना प्रतिज्ञा कर चुकी थी कि इस कष्ट से मुक्त होने पर योगिनी बनकर आत्महित करूंगी, पर स्वयं महाराज लिवाने आये तो उसने महल में एक बार जाकर दीक्षा लेने का निश्चय किया। रास्ते में गुणधर मुनिराज के दर्शन हुए। वृषभसेना ने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। उसने मुनि से पूर्वजन्म का हाल पूछा। मुनि ने बतलाया कि पूर्वजन्म में ब्राह्मण की लड़की थी। तेरा नाम नागश्री था। तू इसी राजघराने में झाडू दिया करती थी। एक दिन मुनिदत्त नाम के मुनिराज कोट के अन्दर एक पवित्र गढ़े में ध्यान कर रहे थे। उस वक्त तूने मूर्खता से कहा- ओ नंगे ढोंगी! उठ यहाँ से, मुझे झाडू देने दे। मुनि तो ध्यानमग्न थे। उन्होंने तेरी बातों पर ध्यान न दिया। तुझे और क्रोध हुआ। तूने कूड़े-करकट से मुनि को ढंक दिया। यद्यपि तू उस समय मूर्ख थी, पर तूने वह काम बुरा किया। सच्चे निर्ग्रन्थ साधु सदा पूजने योग्य होते हैं। उन्हें कष्ट देना उचित नहीं । प्रातःकाल जब राजा उधर से निकले तो उनकी दृष्टि गढ़े पर पड़ी। मुनि के साँस लेने से कूड़ा नीचे ऊँचे हो रहा था। उन्हें सन्देह हुआ। उन्होंने कूड़े को हटाया तो मुनि दिख पड़े। मुनि शीघ्र ही गढ़े से निकाले गये। तुझे भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ। तूनें मुनि से अपने अपराधों की क्षमा माँगी। मुनि Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार ३२३ परिशिष्ट कष्ट दूर करने के लिये तूनें बड़ा यत्न किया, औषधि आदि से भरपूर सेवा की। उसी फल से इस जन्म में धनपति सेठ की पुत्री हुई और जो तूनें औषधिदान किया था उसके फल से तुझे सर्वोपरि औषधि प्राप्त हुई कि तेरे स्नान के जल से कठिन से कठिन रोग नष्ट हो जाते हैं। मुनि पर कूड़ा डालने से मुनि को जो कष्ट हुआ था, उससे तुझे इस जन्म में झूठा कलंक लगा। मुनि द्वारा पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर वृषभसेना का वैराग्य और भी बढ़ गया, उसने स्वामी से क्षमा माँगकर मुनि द्वारा योगदीक्षा ग्रहण कर ली। जिस प्रकार वृषभसेना ने औषधिदान से सर्वोपरि औषधि प्राप्त की उसी प्रकार सत्पुरुषों को उचित है कि वे रोगियों का सदा उपचार करते रहे। औषध-दान महापुण्य का कारण होता है। ३. कौण्डेश की कथा ( ज्ञानदानफल) में भारत के कुरुमरी नामक गाँव में गोविन्द नाम का ग्वाला रहता था। उसने जंगल वृक्ष की कोटर में जैनधर्म का एक पवित्र ग्रन्थ देखा । वह उसे घर लाया और पूजा करने लगा। एक दिन उस ग्वाले ने ग्रन्थ को पद्मनन्दि नामक मुनि को भेंट कर दिया । गोविन्द ने मृत्यु के बाद कुरुमरी गाँव के चौधरी के यहाँ जन्म ग्रहण किया। इस बालक की सुन्दरता देखकर सबको प्रसन्नता हुई। पूर्वजन्म के पुण्यफल से ही ये सब बातें सुलभ हो गयी। एक दिन इसे पद्मनन्दि मुनि के दर्शन हुए। उन्हें देखते ही इसे जातिस्मरण हो गया। मुनि को नमस्कार कर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। उसके हृदय की पवित्रता बढ़ती गयी। वह शान्ति से मृत्यु प्राप्त कर पुण्योदय से कौण्डेश नामक राजा हुआ। उसकी सुन्दरता और कान्ति को देखकर एक बार चन्द्र को भी लज्जित होना पड़ता था, शत्रु उसके भय से काँपते थे । वह प्रजापालक और दयालु था। इस प्रकार कौण्डेश का समय शान्तिपूर्वक व्यतीत हो रहा था । किन्तु विषय सम्पत्ति को क्षण-क्षण नष्ट होते 'देख उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसे घर में रहना दुःखमय जान पड़ा। वह राज्य का अधिकारी अपने पुत्र को बनाकर जिनमन्दिर में गया और वहाँ निर्ग्रन्थगुरु को नमस्कार • कर. दीक्षित हो गया । पूर्वजन्म में कौण्डेश ने शास्त्रदान किया था, उसके फल से वह थोड़े समय में ही श्रुतकेवली हो गया। जिसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। ज्ञानदान तो केवलज्ञान काभी कारण होता है। जिस प्रकार शास्त्रदान से एक ग्वाला श्रुतज्ञानी हुआ, उसी प्रकार सत्पुरुषों को भी दान देकर आत्महित करना चाहिये। जो भव्य जन जिस ज्ञानदान की पूजा, प्रभावना, मान, स्तवन किया करते हैं, वे उत्तम सुख, दीर्घायु आदि का मनोवांछित फल प्राप्त करते हैं । यह ज्ञानदान की कथा केवलज्ञान प्राप्त करने में सहायक हो, यह मेरी मनोकामना है। ४. सूकर की कथा (अभयदानफल) भारतवर्ष मालवा पवित्र और धनशाली देश है । वहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२४ परिशिष्ट देखने के लायक होते है। स्वर्ग के देव भी यहाँ आकर इच्छित सुख प्राप्त करते है। मालवे के तमाम नगरों में बड़े विशाल जिनमन्दिर बने थे। उन मन्दिरों की ध्वजाएँ ऐसी दिख पड़ती थी, मानो वे स्वर्ग का मार्ग बतला रही हों। जिस समय की यह कथा है, उस समय मालवा धर्म का केन्द्र बन रहा था। मालवे के धरगाँव नामक नगर में देविल नाम का एक धनी कुम्हार और धर्मिल नाम का एक नाई रहता था। इन दोनों ने मिलकर नगर में बाहर से आने वाले यात्रियों के ठहरने के लिये एक धर्मशाला बनवा दी। एक दिन की बात है देविल ने एक मुनि को लाकर धर्मशाला में ठहरा दिया। जब यह बात . धर्मिल को मालूम हुई तो उसने मुनि को निकालकर एक संन्यासी को लाकर ठहरा दिया। ठीक ही है, दुष्टों को साधु सन्त अच्छे नहीं लगते। सबेरे जब देविल मुनि के दर्शन के लिये आया तो उन्हें धर्मशाला में न देख एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए देखा। . उसे धर्मिल की दुष्टता पर बड़ा क्रोध हुआ। उसने धर्मिल को बुरी तरह फटकारा। धर्मिल भी क्रोधित हुआ। यहाँ तक झगड़ा बढ़ा कि वे लड़ कर मर मिटे। दोनों की क्रूर भावों : से मृत्यु होने के कारण क्रम से सूअर और व्याघ्र हुए। ये दोनों विन्ध्य पर्वत की अलग-अलग गुफाओं में रहतेथे। एक दिन संयोग से.पृथ्वी को पवित्र करते हुए दो मुनिराज इसी गुफा में आकर ठहरे। उन्हें देखते ही सूअर को जाति स्मरण हो गया। उसने मुनियों के उपदेश से कुछ व्रत ग्रहण कर लिये। गुफा में मनुष्यों का गन्ध पाकर धर्मिल का जीव व्याघ्र मुनियों को खाने के लिए झपटा। सूअर देख रहा था। वह द्वार रोकर खड़ा हो गया। दोनों में लड़ाई होने लगी। एक मुनियों का रक्षक था और दूसरा भक्षक। अतएव देविल का जीव मृत्यु प्राप्त कर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। उसके शरीर की कान्ति चमकती हुई मन को मोहित करने लगी। वह ऋद्धि-सिद्धियों का धारक हुआ। जो लोग जिन भगवान् की प्रतिमाओं की, कृत्रिम और अकृत्रिम मन्दिर में पूजा करते हैं, तथा मुनियों की भक्ति करते हैं, उन्हें ऐसे ही सुख प्राप्त होते हैं। अतएव सुख चाहने वाले सत्पुरुषों को जिनपूजा, पात्र दान, व्रत-उपवासादि धर्म का पालन करना चाहिये। देविल को तो स्वर्ग मिला, पर धर्मिल अपने पाप से नरक गया। इस प्रकार पुण्य और पाप का फल जान कर सत्पुरुषों को उचित है कि वे पवित्र जैनधर्म में अपना विश्वास दृढ़ करें। ५. यमपाल चाण्डाल की कथा (अहिंसाणुव्रत) सुरम्य देश पोदनपुर नगर में राजा महाबल रहता था। नन्दीश्वर पर्व को अष्टमी के दिन राजा ने यह घोषणा की कि आठ दिन तक जीवघात नहीं किया जावेगा। राजा का बल नाम का एक पुत्र था, जो कि मांस खाने में आसक्त था। उसने यह विचार कर कि यहाँ कोई पुरुष दिखाई नहीं दे रहा है, इसलिये छिपकर राजा के बगीचे में राजा के मेंढा को मरवाकर तथा पकवाकर खा लिया। राजा ने जब मेंढा मारे जाने का समाचार सुना, तब वह बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने मेंढा मारने वाले की खोज शुरू कर Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार - ३२५ परिशिष्ट दी। उस बगीचे का माली पेड़ के ऊपर चढ़ा था। उसने मेंढा को मारते हुए राजकुमार को देख लिया था। माली ने रात में यह बात अपनी स्त्री से कही। तदनन्तर छिपे हुए गुप्तचर पुरुष ने राजा से यह समाचार कह दिया। प्रात:काल माली भी बुलाया गया। उसने भी यह समाचार फिर कह दिया। मेरी आज्ञा को मेरा पुत्र ही खण्डित करता है इससे रुष्ट होकर राजा ने कोटपाल से कहा कि बलकुमार के नौ टुकड़े करा दो अर्थात् उसे मरवा दो। - तदनन्तर उस कुमार को मारने के स्थान पर ले जाकर चाण्डाल को लाने के लिये जो आदमी गये थे उन्हें देखकर चाण्डाल ने अपनी स्त्री से कहा कि हे प्रिये! तुम इन लोगों से यह कह दो कि चाण्डाल गाँव गया है। ऐसा कहकर वह घर के कोने में छिप कर बैठ गया। जब सिपाहियों ने चाण्डाल को बुलाया तब चाण्डाली ने कह दिया कि वह आज गाँव गया है। सिपाहियों ने कहा कि वह पापी अभागा आज गाँव चला गया। राजकुमार को मारने से उसे बहुत भारी सुवर्ण और रत्नादिका लाभ होता। उनके वचन सुनकर चाण्डाली को धन का लोभ आ गया। अत: वह मुख से तो बार-बार यही कहती रही कि वह गाँव गया है, परन्तु हाथ के संकेत से उसे दिखा दिया। तदनन्तर सिपाहियों नेउसे घर से निकाल कर मारने के लिए वह राजकुमार सौंप दिया। चाण्डाल ने कहा कि मैं आज चतर्दशी के दिन जीवघात नहीं करता हूँ। तब सिपाहियों ने उसे ले जाकर राजा से कहा कि देव!. यह राजकुमार को नहीं मार रहा है। उसने राजा से कहा कि एक बार मुझ साँप ने डस लिया था, जिससे मृत समझ कर मुझे श्मशान में डाल दिया गया था। वहाँ सर्वौषधि ऋद्धि के धारक मुनिराज के शरीर की वायु से मैं पुनः जीवित हो गया। उस समय मैंने उन मुनिराज के पास चतुर्दशी के दिन जीवघात न करने का व्रत लिया था, इसलिये आज मैं नहीं मार रहा हूँ- आप जो समझे सो करें। 'अस्पृश्य चाण्डाल के भी व्रत होता है' यह विचार कर राजा बहुत रुष्ट हुआ और उसने दोनों को मजबूत बँधवाकर सुमार (शिशुमार) नामक तालाब में डलवा दिया। उन दोनों में चाण्डाल ने प्राणघात होने पर भी अहिंसा व्रत को नहीं छोड़ा था, इसलिये उसके व्रत के माहात्म्य से जलदेवता ने जल के मध्य सिंहासन, मणिमय मण्डप, दुन्दुभिबाजों का शब्द तथा साधुकार - अच्छा किया आदि शब्दों का उच्चारण, यह सब महिमा की। महाबल राजा ने जब यह समाचार सुना तब भयभीत होकर उसने चाण्डाल का सम्मान किया तथा अपने छत्र के नीचे उसका अभिषेक कराकर उसे स्पर्श करने के योग्य विशिष्ट पुरुष घोषित कर दिया। यह प्रथम अणुव्रत की कथा पूर्ण सत्याणुव्रत से धनदेव सेठ ने पूजातिशय को प्राप्त किया था। उसकी कथा इस प्रकार है - Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( वसुनन्दि- श्रावकाचार ६. धनदेव की कथा (सत्याणुव्रत) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावती देश में एक पुण्डरीकिणी नामक नगरी है। उसमें जिनदेव और धनदेव नाम के दो अल्प पूँजी वाले व्यापारी रहते थे। उन दोनों में धनदेव सत्यवादी था। एक बार वे दोनों 'जो लाभ होगा उसे आधा-आधा ले लेवेंगे। ऐसे बिना गवाह की व्यवस्था कर दूर देश गये। वहाँ बहुत-सा धन कमाकर लौटे और कुशलपूर्वक पुण्डरीकिणी नगरी आ गये। उनमें जिनदेव, धनदेव के लिये लाभ का आधा भाग नहीं देता था। वह उचित समझकर थोड़ा-सा द्रव्य उसे देता था। तदनन्तर झगड़ा होने पर न्याय होने लगा। पहले कुटुम्बीजनों के सामने, फिर महाजनों के सामने और अन्त में राजा के आगे मामला उपस्थित किया गया। परन्तु बिना गवाही का व्यवहार होने से जिनदेव कह देता कि मैंने इसके लिये लाभ का आधा भाग देना नहीं कहा था, उचित भाग ही देना कहा था। धनदेव सत्य ही कहता था कि दोनों का आधा-आधा भाग ही निश्चित हुआ था । तदनन्तर राजकीय नियम के दोनों अनुसार उन को दिव्य न्याय दिया गया। अर्थात् उनके हाथों पर जलते हुए अङ्गारे रखे गए। इस दिव्यन्याय से धनदेव निर्दोष सिद्ध हुआ, दूसरा नहीं । तदनन्तर सब धन धनदेव के लिये दिया गया और धनदेव सबलोगों के द्वारा पूजित हुआ तथा धन्यवाद को प्राप्त हुआ। इस प्रकार दूसरी अणुव्रत की कथा है। ३२६ परिशिष्ट चौर्यविरति अणुव्रत से वारिषेण ने पूजा का अतिशय प्राप्त किया था। इसकी कथा स्थितिकरणगुण के व्याख्यान के प्रकरण में कही गई है। वह इस प्रकरण में भी देखना चाहिये। ब्रह्मचर्याणुव्रत से नीली नाम की वणिक्पुत्री पूजातिशय को प्राप्त हुई है। उसकी कथा प्रकार है - - ७. वारिषेण कुमार की कथा ( अचौर्याणुव्रत) सम्यग्दर्शन के छठवे अंग, स्थितिकरण की कथा में लिखे आये हैं कि पूर्वकाल में राजगृह नगर के राजा श्रेणिक थे, उनके कई पुत्रों में से एक का नाम वारिषेण था। उसी राजगृही नगरों में विद्युत चोर रहता था । उसकी प्रीति मगध सुन्दरी वेश्या से थी। चौदश की रात्रि को जब विद्युत चोर वेश्या के पास गया तो उसने कहा कि श्रीकीर्ति सेठ के यहाँ जो रत्नहार है वह मुझे ला दीजिये । वेश्या के कहने से विद्युत चोर रत्नहार तो चुरा लाया, परन्तु शहर के कोतवाल ने चोर के पास चमकता हुआ पदार्थ देखकर उसका पीछा किया। चोर भी मगधसुन्दरी के पास न जाकर भागते-भागते मुर्दाखाने में पहुँचा। वहाँ वारिषेणकुमार खड़े हुए सामायिक कर रहे थे, सो उनके पास रत्नहार फेंककर वह चोर कहीं छिप गया। जब कोतवाल वारिषेण के पास पहुँचा और उनके सामने रत्नहार रक्खा देखा तो उसे सन्देह हुआ कि वारिषेण ही यह हार चुरा लाये हैं, और सामायिक का पाखण्ड w Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार ३२७ परिशिष्ट करके खड़े हो गये हैं । अन्त में महाराज श्रेणिक को इस बात की सूचना की गई तो उन्होंने कोतवाल आदि के कहने पर भरोसा करके वारिषेण का मस्तक काट डालने की आज्ञा दे दी। जब चाण्डाल हाथ में तलवार लेकर श्री वारिषेणकुमार के गले पर चलाने लगा, तब उनके पुण्य के प्रभाव से वह तलवार पुष्पमाला हो के उनके कण्ठ में पड़ गयी । यह अद्भुत घटना देखकर देवता लोग जय-जय शब्द बोलते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे। वारिषेण ने न तो रत्नहार पास में रखने पर अपना ध्यान छोड़ा था, न अब भी छोड़ा। जब श्रेणिक महाराज को यह समाचार मिले तो अपनी मूर्खता पर पछताने लगे। वारिषेण के पास गये और अपने अपराध की क्षमा माँगी। राजा श्रेणिक ने श्री वारिषेण कुमार से घर पर चलने को बार- बार कहा, परन्तु उन्होंने संसार का ऐसा चरित्र देखकर जिनदीक्षा ले ली और महातप करके मोक्ष को पधारे। नीली की कथा (ब्रह्मचर्याणुव्रत) लादेश के भृगुकच्छ नगर में राजा वसुपाल रहता था। वहीं एक जिनदत्त नाम का सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम जिनदत्ता था । उनके एक नीली नाम की पुत्री थी, जो अत्यन्त रूपवती थी। उसी नगर में एक समुद्रदत्त नाम का सेठ रहता था, उसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था और उन दोनों के एक सागरदत्त नाम का पुत्र था। एक बार महापूजा के अवसर पर मन्दिर में कायोत्सर्ग से खड़ी हुई तथा समस्त आभूषणों से सुन्दर नीली को देखकर सागरदत्त ने कहा कि क्या यह कोई देवी है? यह सुनकर उसके मित्र प्रियदत्त ने कहा कि यह जिनदत्त सेठ की पुत्री नीली है। नीलीका रूप देखने से सागरदत्त उसमें अत्यन्त आसक्त हो गया और यह किस तरह प्राप्त हो सकती है, इस प्रकार उसके विवाह की चिन्ता से दुर्बल हो गया। समुद्रदत्त ने यह सुनकर उससे कहा कि हे पुत्र ! जैन को छोड़कर अन्य किसी के लिये जिनदत्त इस पुत्री को विवाह के लिये नहीं देता है। ८. तदनन्तर वे दोनों पिता पुत्र कपट से जैन हो गये और नीलीको विवाह लिया । विवाह के पश्चात् वे फिर बुद्धभक्त हो गये। उन्होंने नीलीका पिता के घर जाना भी बन्द कर दिया। इस प्रकार धोखा होने पर जिनदत्त ने यह कह कर सन्तोष कर लिया कि यह पुत्री मेरे हुई ही नहीं है अथवा कुआ आदि में गिर गई है अथवा मर गई है। नीली अपनेपति को प्रिय थी, अतः वह श्वसुराल में, जिनधर्म का पालनकरती हुई एक भिन्न घर में रहने लगी। समुद्रदत्त ने यह विचार कर कि बौद्ध साधुओं के दर्शन से, संसर्ग से, उनके , धर्म और देव का नाम सुनने से काल पाकर यह बुद्ध की भक्त हो जायेगी, एक वचन, Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२८ परिशिष्ट दिन समुद्रदत्त ने कहा कि नीली बेटी? बौद्ध साधू बहुत ज्ञानी होते हैं, उन्हें देने के लिये हमें भोजन बनाकर देओ। तदनन्तर नीली ने बौद्ध साधुओं को निमन्त्रित कर बुलाया और उनकी एक-एक प्राणहिता- (पनहिया) जूती को अच्छी तरह पीसकर तथा मसालों से सुसंस्कृत कर उन्हें खाने के लिए दे दिया। वे बौद्ध साधु भोजनकर जब जाने लगे तो उन्होंने पूछा कि हमारी जूतियाँ कहाँ है? नीली ने कहा कि आप ही अपने ज्ञान से जानिये, जहाँ वे स्थित है। यदि ज्ञान नहीं है तो वमन कीजिये, आपकी जूतियाँ आपके ही पेट में स्थित हैं। इस प्रकार वमन किये जाने पर उनमें जूतियों के टुकड़े दिखाई दिये। इस घटना से नीली के श्वसुर पक्ष के लोग बहुत रुष्ट हो गये। तदनन्तर सागरदत्त की बहन ने क्रोधवश उसे परपुरुष के संसर्ग का झूठा दोष लगाया। जब इस दोष की प्रसिद्धि सब ओर फैल गई, तब नीली भगवान् जिनेन्द्र के आगे संन्यास लेकर कायोत्सर्ग से खड़ी हो गई और उसने नियम ले लिया कि इस दोष से पार होने पर ही मेरी भोजन आदि में प्रवृत्ति होगी, अन्य प्रकार नहीं। तदनन्तर क्षोभ को प्राप्त हुई नगरदेवता ने आकर रात्रि में उससे कहा कि हे महासति! इस तरह प्राणत्याग मत करो, मैं राजा को तथा नगर के प्रधान. पुरुषों को स्वप्न देती हूँ कि नगर के सब प्रधान द्वार कीलित हो गये हैं, वे महापतिव्रता स्त्री के बाँये चरण के स्पर्श से खुलेंगे। वे प्रधान द्वार प्रात:काल आपके पैर का स्पर्श कर खुलेंगे, ऐसा कहकर वह नगरदेवता राजा आदि को वैसा स्वप्न दिखाकर तथा नगर के प्रधान द्वारों को बन्द कर बैठ गई। प्रात:काल नगर के प्रधान द्वारों को कीलित देखकर राजा आदि ने पूर्वोक्त स्वप्न का स्मरण कर नगर की सब स्त्रियों के पैरों से द्वारों की ताड़ना कराई। परन्तु किसी भी स्त्री के द्वारा एक भी प्रधान द्वार नहीं खुला। सब स्त्रियों के बाद नीली को भी वहाँ उठाकर ले जाया गया। उसके चरणों के स्पर्श से सभी प्रधान द्वार खुल गये। इस प्रकार नीली निर्दोष घोषित हुई और राजा आदि के द्वारा सम्मान को प्राप्त हुई। यह चतुर्थ अणुव्रत की कथा पूर्ण हुई। ____ परिग्रहविरति अणुव्रत से जयकुमार पूजातिशय को प्राप्त हुआ था। उसकी कथा इस प्रकार है - ९. जयकुमार की कथा करुजांगल देश के हस्तिनागपुर नगर में कुरुवंशी राजा सोमप्रभ रहते थे। उनके जयकुमार नाम का पुत्र था। वह जयकुमार परिग्रहपरिमाणव्रत का धारी था तथा अपनी स्त्री सुलोचना से ही सम्बन्ध रखता था। एक समय, पूर्व विद्याधर के भवों की कथा के बाद जिन्हें अपने पूर्वभवों का ज्ञान हो गया था, ऐसे जयकुमार और सुलोचना हिरण्यधर्मा और प्रभावती नामक विद्याधर युगल का रूप रखकर मेरु आदि पर वन्दना-भक्ति करके कैलास पर्वत पर भरत चक्रवर्ती के द्वारा प्रतिष्ठापित चौबीस Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२९ परिशिष्ट जिनालयों की वन्दना करने के लिये आये।उसी अवसर पर सौधर्मेन्द्र ने स्वर्ग में जयकुमार के परिग्रहपरिमाणव्रत की प्रशंसा की। उसकी परीक्षा करने के लिये रतिप्रभ नाम का देव आया। उसने स्त्री का रूप रख चार स्त्रियों के साथ जयकुमार के समीप जाकर कहा कि सुलोचना के स्वयंवर के समय जिसने तुम्हारे साथ युद्ध किया था उस नमि विद्याधर राजा की रानी को जो कि अत्यन्त रूपवती, नवयौवनवती, समस्त विद्याओं को धारण करने वाली और उससे विरक्तचित्त है, स्वीकृत करो, यदि उसका राज्य और अपना जीवन चाहते हो तो। यह सुनकर जयकुमार ने कहा कि हे सुन्दरि! ऐसा मत कहो, परस्त्री मेरे लिये माता के समान है। तदनन्तर उस स्त्री ने जयकुमार के ऊपर बहुत उपसर्ग किया, परन्तु उसका चित्त विचलित नहीं हुआ। तदनन्तर वह रतिप्रभदेव माया को संकुचित कर, पहले का सब समाचार कहकर प्रशंसा कर और वस्त्र आदि से पूजा कर स्वर्ग चला गया। इस प्रकार पञ्चम अणुव्रत की कथा पूर्ण हुई। १०. रात्रिभोजन त्याग की कथा इस पृथ्वी तल पर एक लाख योजन का जम्बूद्वीप है इस जम्बूद्वीप के दक्षिण दिशा में भरत नाम का क्षेत्र है। इस भरत क्षेत्र के मालव देश की उत्तर दिशा में प्रसिद्ध चित्रकूट नाम का नगर था, उस नगर में जागरिक नाम का एक चण्डाल रहताथा। उसके मातंगिनी नाम की भार्या थी। वह चण्डाल अत्यन्त क्रोधी और पापिष्ट था।एक दिन उस गाँव में एक दयांमूर्ति विषयरूपी वन को नाश करने के लिये हाथी के समान, संसाररूपी समुद्र को सुखाने के लिए दावानल के समान अनेक देशस्थ शिष्यों से शोभित रत्नत्रयधारी दिगम्बर महामुनि का आगमन हुआ। जिस प्रकार बादलों की ध्वनि सुनकर मयूर नाचने लगते हैं उसी प्रकार मुनिरूपी बादलों को देखकर भव्यंजीवरूपी मयूर नाचने लगा। यतिरूपी सूर्य का अवलोकन कर भव्यरूपी कमल विकसित हो गये। सारे नागरिक लोग मुनिराज के दर्शन करने के लिये गये। उनको जाते हुए देखकर यह सब कहाँ जा रहे हैं? आज कौन-सा उत्सव, ऐसा विचार कर जागरिक की भार्या मातंगिनी भी उसके पीछे-पीछे जाने लगी, वृक्ष के नीचे शिला पर बैठे हुए मुनिपुंगव को नमस्कार कर सम्पूर्ण नागरिक लोग मुनिराज के सामने बैठ गये। यतिवर अपनी दन्तावलि की किरणों के द्वारा सभा को प्रकाशित करते हुए धर्मोपदेश करने लगे। अनादिकाल कर्मसंस्कारों के कारण जीव वास्तविक स्वभाव को भूले हुए, अत: यह विषयवासनाजन्य सुखों को ही वास्तविक सुख समझ रहा है। ये विषय सुख भी आरम्भ में बड़े सुन्दर मालूम पड़ते हैं, इनका रूप बड़ा ही लुभावना है, जिसकी भी इन पर दृष्टि पड़ती है वही इनकी ओर आकृष्ट हो जाता है, पर इनका परिणाम हलाहल विष के समान होता है। कहा भी है - Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३३० परिशिष्ट ... आयातरम्ये परिणामदुःखे सुखे कथं वैषयिके रतोऽसि। अर्थात् – वैषयिक सुख परिणाम में दुःखकारक होते हैं इनसे जीवन को क्षणिक शान्ति मिल सकती है। किन्तु अन्त में दुःखदायक ही होते हैं। इसलिये मानव जीवन की सार्थकता करने के लिये मनुष्यों को इनका परित्याग करने का प्रयत्न करना चाहिये। वह त्याग दो प्रकार का है, एक मुनिधर्मरूप और दूसरा गृहस्थ धर्मरूप। सम्पूर्ण सावद्ययोग से विरत होना मुनिधर्म है और एक देश हिंसा, झूठ, चोरी, कुशल, परिग्रहादिका त्याग करना गृहस्थधर्म है। उत्कृष्ट साक्षात् मोक्ष का कारण मुनिधर्म है, . परम्परा मोक्ष का कारण श्रावकधर्म है। तीन मकार का त्याग (मधु, मांस, मद्य) पंचोदुम्बर फल का त्याग, रात्रिभोजन का त्याग, पानी छान कर पीना और रोज देवदर्शन करना यह श्रावकों के मूलगुण हैं। श्रावकों को इनका पालन अवश्य करना चाहिये। सम्यक्त्व और व्रत के बिना मानवजन्म पशु के समान है। मानव जन्म प्राप्त करना अत्यन्त : दुर्लभ है - जगत्यनन्तैकहृषीकसंकुले, त्रसत्वसंज्ञित्वमनुष्यतार्यता।। सुगोत्रसद्गात्रविभूतिवार्तता सुधिसुधर्माश्च यथाग्रदुर्लभाः।। .. अनन्तानन्त, पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकायादि एकेन्द्रिय जीवों से व्याप्त इस संसार में त्रसत्वपना, संज्ञित्व पद की प्राप्ति, मानवजन्म, आर्यक्षेत्र, सुगोत्र, सुन्दर शरीर, विभूति, आजीविका, अच्छी बुद्धि, सद्धर्म की प्राप्ति यह एकेक उत्तरोत्तर दुर्लभ से दुर्लभ है। मानवजन्म को प्राप्त कर - श्रद्धानगंधसिन्धुरमदुष्टमुद्यदवगममहामात्रम्। धीरो व्रतबलपरिवृतमारूढोरीन् जयेत्प्रणिधिहेत्या।। निर्दोष श्रद्धानरूपी हाथी पर चढ़कर ज्ञानरूपी अंकुश चारित्ररूपी सेना से युक्त होकर समाधिरूपी तलवार से कर्मरूपी शत्रुओं का नाश कर मोक्षपद प्राप्त करना चाहिये। ऐसे परमोत्कृष्ट मनुष्य जन्म को व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिये। मुनिवर के समीचीन प्राणी मात्र का हित करने वाले धर्मोपदेश को सुन कर किन्हीं ने मुनिव्रत धारण किया। किन्हीं पवित्र सम्यक्त्व ग्रहण किया और किन्हीं ने उत्कृष्ट श्रावक व्रत ग्रहण किया। जब सब लोग यथाशक्ति व्रत ग्रहण कर चुके तब सबके पीछे खड़ी हुई जागरिक की भार्या विनयपूर्वक दोनों हाथों को मस्तक पर रखकर कहने लगी। हे निष्कारण बन्धु! जगतारक जगबन्धु! पतित पावन! गुरुवर्य! मुझ पतिता का भी व्रत देकर उद्धार करो। मैं मांस मदिरादि का त्याग करने में असमर्थ हूँ, मेरे योग्य व्रत देवो। मुनि- कुंजर ने उसको भव्य समझकर कहा हे वत्सा! तुम रात्रिभोजन का त्याग करो, उसने कहा भो देव! मैं पूर्ण रात्रिभोजन त्याग करने के लिये असमर्थ हूँ, तब गुरुदेव ने कहा हे पुत्री! तीन प्रहर रात्रि व्यतीत होने के बाद में सूर्योदय हो तब तक भोजन नहीं करना अर्थात् रात्रि के Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार ३३१ परिशिष्ट पिछले प्रहर में भोजन नहीं करना । मातंगिनी ने सहर्ष व्रत स्वीकार किया और अपने घर गई। उसके मन में अत्यन्त उल्लास था, मानो एक निधि ही प्राप्त हो गई। जब सन्ध्याकाल हुई उसका पति घर पर आया उसने अपने पति को सारा वृत्तान्त कहा । उसका पति अतिक्रोधी था, धर्ममार्ग से पराङ्मुख था, पाप कार्यों में रत था। ज्योंही उसने त्याग की बात सुनी कि उसकी क्रोधरूपी अग्नि जाज्वल्यमान हो गई। वह क्रोध में आकर कहने लगा कि तूने किसको पूछकर व्रत ग्रहण किये । तुझे अभी भोजन करना पड़ेगा। मातंगिनी ने कहा प्राण जाने पर भी मैं अपने व्रतों को नहीं छोडूंगी, क्योंकि शरीर नष्ट हुआ तो कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, फिर दूसरा शरीर मिल जायगा, परन्तु व्रतों का मिलना बड़ा कठिन है, ऐसा विचार कर वह अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रही । उसके पति ने क्रोध में आकर इतने जोर से मारा कि उसके प्राण चले गये। क्रोधी क्या नहीं करता हन्तात्मानमपि ध्वन्तः क्रुद्धाः किं किं न कुर्वते । बड़े खेद की बात है अपने आपका भी घात करने वाले क्रोधी क्या-क्या नहीं करते? वह जागरिक की भार्या मरकर रात्रिभुक्तित्याग व्रत के प्रभाव से छप्पन करोड़ दीनार के स्वामी सागरदत्त सेठ के नागश्री नाम की अत्यन्त रूपवती पुत्री हुई। देखो, एक प्रहरमात्र रात्रिभोजन का त्याग करने वाली चण्डालनी सद्गति को प्राप्त हुई तो हमेशा के लिये त्याग करने वाले को सद्गति क्यों नहीं होगी ? अवश्य होगी। ऐसा विचार कर रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिये। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार ३३२ परिशिष्ट गाथानुक्रमणिका गाथाङ्क ३०७ .१३९ ११८ १८ २०० गाथाङ्क अह ण भणइ तो भिक्खं १३५ अह तेवंडं तत्तं १६१ । अह भुंजइ परमहिलं अहवा किं कुणइ पुरा आ . आउ-कुल-जोणि-मग्गण आगमसत्थाई लिहा आगासमेव खित्तं . १६४ आयंविल-णिब्वियडी आहरणवासियाहिं .. २६६ आहारोसहसत्था २३५ २५२ २३७ २९२ ६५ ३०४ १९० २३९ १६ ८२ अइणिटुरफरसाइं अइतिव्वदाहसंता अइथूल-थूल-थूलं अइलंघिओ विचिट्ठो अइवुड्डबालमूयं अइसरसमइसुगंधं . अक्खेहि णरो रहिओ अणित्ता गुरुवयणं अग्गिविसचोरसप्पा अच्छरसयमज्झगया अण्णाणि एवमाईणि अण्णाणिणो वि जम्हा अण्णे कलंबवालुयअण्णे उ सुदेवत्तं अण्णो उ पावरोएण अण्णोण्णं पविसंता अण्णोणाणुपवेसो अण्णो वि परस्स धणं अतिहिस्स संविभागो अत्तागमतच्चाणं अत्ता दोसविमुक्को अयदंडपासविक्कय अरहंतभत्तियाइसु अलियं करेइ सवहं अलियं जंपणीयं असणं पाणं खाइम असुरा वि कूरपावा अह कावि पावबहुला ७७ ३१७ इच्चाइगुणा बहवो इच्चेवमाइबहुवो . इच्चेवमाइबहुयं । १८७ इय अवराई बहुसो. ३८ | इय एरिसमाहारं . ४१ १०८ | उक्किट्ठभोयभूमी उच्चारं पस्सवणं ६ | उज्जाणम्मि रमंता ७ उत्तम-मज्झ-जहण्णं उत्तविहाणेण तहा उद्दिट्ठपिंडविरओ ६७ | उप्पण्णपढमसमयम्हि २१० । उवगृहणगुणजुत्तो २३४ | उववायाओ णिवडइ १७० | उववास-वाहि-परिसम११९ | उंबर-वड-पिप्पल-पिंप २५८ ७२. १२६ २८० २१६ २८८ -३१३ १८४ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३३३ परिशिष्ट गाथाङ्क १९७ १०३ १७६ १९१ ग ३१० २८९ २८३ २१ ९८ गाथाङ्क किं करमि कस्य वच्चमि किं केण वि दिह्रो हैं २२ | किंचुवसमेण पावस्स १३२ ३११ / गंतूण गुरुसमीवं | गंतूण य णियगेहं गुरुपुरओ किदियम्म ३०१ | गोणसमयस्स एए ३१४ | गो-बंभण-महिलाणं ५६ गो-बंभणित्थिघायं २९४ २७९ चउदसमलपरिसुद्धं २०६ चउविहमरूविदव्वं २७० चम्मट्ठि-कीड-उंदुर ११० | चिंतेइ मं किमिच्छइ ७९ छम्मासाउयसेसे | छुहतण्हाभयदोसो ३१८ | छेयण-भेयण-ताडण २७ एत्तियपमाणकालं एदे कारणभूदा एदे महाणुभावा एमेव होइ विइओ एयारसठाणठिया एयारस ठाणाई एयारसम्मि ठाणे एयारसेसु पढमं एरिसगुण अट्ठजुयं एवं चउत्थठाणं एवं तइयं ठाणं एवं दंसणसावयएवं पत्तविसेसं एवं पिच्छंता वि हु एवं बहुप्पयारं एवं बहुप्पयारं एवं बहुप्पयारं एवं बहुप्पयारं एवं बारसभेयं .एवं भणिए चित्तूण एवं सोऊण तओ एवं सो गज्जतो २३१ -११४ २०१ ه २०४ , ه २७३ ३०६ ३०९ १३८ १२० १२२ १९९ १४६ २५५ ३५ १४७ जइ अद्धवहे कोइ वि १४५ जइ एवं ण रएज्जो जइ कोवि उसिण णरए जइ देइ तह वि तत्थ | जइ पुण केण वि दीसइ जइ मे होहिहि मरणं २४३ जइ वा पुव्वम्मि भवे १७८ जह उक्कस्सं तह मज्झिमं १५६ जह उत्तमम्मि खित्ते १९४ | जह ऊसरम्मि खित्ते | जह मज्जं तह य महू ८८ जह मज्झिमम्मि खित्ते १६६ । जह रुद्धम्मि पवेसे कच्चोल-कलस-थाला कत्ता सुहासुहाणं कम्हि अपत्तविसेसे कहमवि णिस्सरिऊणं कह वि तओ जइ छुट्टो कंदप्प-किन्भिसासुर काउस्सग्गमि ठिओ कारुय-किराय-चंडाल किकवाय-गिद्ध-वायस २९० २४० २४२ ८० २७६ २४१ ४४ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार गाथाङ्क ६८ ० m ९६ ३३४ परिशिष्ट गाथाङ्क २९८ | ण य कत्थ वि कुणइ रइं ७३ | ण य भुंजइ आहारं ३०८ / णवमासाउगि सेसे २६४ २३८ | णासावहारदोसेण १.३० २७२ | णिच्चं पलायमाणो २१३ | णिट्टर-कक्कसवयणाइ . . २३० २१७ | णिद्दा तहा विसाओ २९५ | णिद्देसं सामित्तं २४८ णिययं पि सुयं बहिणिं . २६२ | णिव्विदिगिच्छो राओ २७५ | णिस्ससइ रुयइ गायइ १६८ | णिस्संका णिक्कंखा | णिस्सेसकम्ममोक्खो | णेऊण णिययगेहं . . .२२७ . | णेच्छंति जइ वि ताओ .. ११७ णेत्तुद्धारं अह पा १०९ ५९ । णेरइयाण सरीरं १५३ जं किं चि गिहारंभ जं किं चि तस्स दव्वं जं किं पि पडियभिक्खं जं कीरइ परिरक्खा जं कुणइ गुरुसयासम्मि जं परिमाणं कीरइ जं परिमाणं कीरइ जं वज्जिज्जइ हरियं जायइ कुपत्तदाणेण जायंति जुयल-जुयला जिणवयण-धम्म-चेइयजिब्भाछेयण-णयणाण जीवस्सुवयारकरा जीवाजीवासवबंधजीवो हु जीवदव्वं जूयं खेलंतस्स हु जूयं मज्जं मंसं जेणज्ज मज्झ दव्वं जे तसकाया जीवा जे पुण कुभोयभूमीसु जे पुण सम्माइट्ठी जे मज्ज-मंसदोसा जो अवलेहइ णिच्चं जो पस्सइ समभावं जो पुण जहण्णपत्तम्मि जो मज्झिमम्मि पत्तम्मि जोव्वणमएण मत्तो ७६ . १४८ १५१ २०२ .२५० २४७ | तत्तो णिस्सरमाणं . . तत्तो पलाइऊणं . | तत्थ वि अणंतकालं तत्थ वि दहप्पयारा | तत्थ वि दुक्खमणंतं | तत्थ वि पडीत उवरिं | तत्थ वि पविट्ठमित्तो | तत्थ वि बहुप्पयारं | तय-वितय-धणं सुसिरं तस्स फलमुदयमागय५४ | तं किं ते विस्सरियं तं तारिससीदुण्हं ६३ | तिरियगईए वि तहा १०४ | तिविहं मुणेह पत्तं १५० | तिसिओ विभुक्खिओ हं १५२ १६२ २६७ २४६ १४३ २५३ १४४ ठिदियरणगुणपउत्तो १६० १४० १७७ ण गणेइ इट्ठमित्तं ण गणेइ माय-बप्पं ण मुयंति तह वि पापा २२१ १८८ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार ३३५ परिशिष्ट or तुरियं पलायमाणं तो खंडियसव्वंगो तो खिल्लविल्लजोएण तो तम्हि जायमत्ते तो तम्हि पत्तपडणेण तो तेसु समुप्पण्णो तो रोय-सोयभरिओ १४१ १५७ १६३ १९२ ० umr २८६ दह्रण असणमज्झे . दळूण णारया णील- . दट्ठण परकलत्तं. दतॄण महड्डीणं - दह्रण मुक्ककेसं दंसण-वय-सामाइय दाऊण किंचि रत्तिं दाणसमयम्मि एवं दिणपडिम-वीरचरियादीउज्जोयं जइ कुणइ दुण्णि. य एयं एवं दुविहा अजीवकाया देहस्सुच्चत्तं मज्झिमासु दोधणुसहस्सुत्तुंगा गाथाङ्क गाथाङ्क १५८ पडिगहमुच्चट्ठाणं २२५ १४२ पडिबुद्धिऊण चइऊण २६८ १७९ पढमाइ जमुक्कस्सं १७४ पढमाए पुढवीए १७३ पत्तं णियघरदारे २२६ १३६ पत्तंतर दायारो २२० १८९ | पभणइ पुरओ एयस्स परदव्वहरणसीलो १०१ परमट्ठो ववहारो परलोए वि य चोरो १११ परलोयम्मि अणंतं १२४ परिणामजदो जीओ २६ परिणामि जीव मुत्तं परिणामि जीवमुत्तापव्वेसु इत्थिसेवा २१२ पंचुंबरसहियाई २०५-५७ पंचेव अणुव्वयाई २०७ ३१६ पाओदयं पवित्तं २२८ २४ पाणाइवायविरई पावेण तेण जर-मरणपावेण तेण दुक्खं | पावेण तेण बहुसो ७८ पिच्छह दिव्वे भोए २०३ पुट्ठो वा पुट्ठो वा ३०० पुढवी जलं च छाया १६७ पुष्फंजलिं खिवित्ता २२९ २७१ पुर-गाम-पट्टणाइसु पुव्वभवे जं कम्म १६५ ३०४ पुव्वं दाणं दाऊण १८६ २८२ पुव्वुत्तणवविहाणं २९७ १५५ पुव्वुत्तर-दक्षिण-पच्छिमासु २१४ पेच्छह मोहविणडिओ १२३ २३२ . ३१२ ० ur २५९ or ३०२ १८ -धम्माधम्मागासा धम्मिल्लाणं चयणं धरिऊण उड्डजंघं धरिऊण वत्थमेत्तं पक्खालिऊण पत्तं पक्खालिऊण वयणं पच्चारिज्जइ जं ते पच्चूसे उठ्ठित्ता . पज्जत्तापज्जत्ता २८७ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार श्रावकाचार परिशिष्ट गाथाङ्क गाथाङ्क बद्धाउगा सु दिट्ठी बंधण-भारारोवण बालत्तणे वि जीवो बाहत्तरिकलसहिया वि-ति-चउ-पंचिंदियभेयओ १९८ २२३ भंजेइ पाणिपत्तम्मि भो भो जिब्भिदियलुद्ध भोत्तुं अणिच्छमाणं ८२ २८४ २४९ लज्जा-कुलमज्जायं १८१ । लज्जा तहाभिमाणं . १८५ | लोइयसत्थम्मि वि २६३ | लोगे वि सुप्पसिद्धं १४ | वज्जाउहो महप्पा ३०३ वय-तव-सीलसमग्गो वयभंगकारणं होइ २१५ १५९ वरपट्ट-चीण-खोमाइयाई | वंजणपरिणइविरहा २८ वायण-कहाणुपेहपण . ७० विउलगिरिपव्वए णं : २६९ १८३ सक्किरिय जीव-पुग्गल , ३२ सगसत्तीए महिला . . . २१८ सजणे य परजणे वा ६४ १२७ सत्तण्हं विसणाणं . सत्तमि-तेरसिदिवसम्मि , २८१ सत्त वि तच्चाणि मए ४७ सत्तेव अहोलोए .. १७१ २४५ सद्धा भत्ती तुट्ठी २९१ | सपएस पंच कालं सम्मत्तस्स पहाणो सम्मत्तेहिं वएहिं य सयलं मुणेह खंधं सविवागा अविवागा सव्वगदत्ता सव्वग सव्वत्थ णिवुणबुद्धी १२८ ससि-सूरपयासाओ २८५ संकाइदोसरहिओ ५२ | संवेओ णिव्वेओ ८५ मज्जंग-तूर-भूसण मज्जेण णरो अवसो मण-वयण-काय-कय-कारि- मणुयत्ते विय जीवा महु-मज्ज-मंससेवी मंसं अमेज्झसरिसं मंसासणेण गिद्धो मंसासणेण वड्डइ माणी कुलजो सूरो मिच्छत्ताविरइकसायमिच्छादिट्ठी भद्दो मुणिऊण गुरुवकज्जं मुत्ता जीवं कायं मेहावीणं एसा मोत्तूण वत्थमेत्तं १३४ २२४ १२५ रज्जब्भंसं वसणं रत्तं णाऊण णरं रयणप्पह-सक्करपह रयणिसमयम्हि ठिच्चा रायगिहे णिस्संको १७२ २५४ .५१ ४९. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार ३३७ परिशिष्ट गाथाङ्क १३६ १०६ १७५ १०२ १९३ गाथाङ्क १२ | सो तेसु समुप्पण्णो १०० १३३ हरमाणो परदव्वं हरिऊण परस्स धणं हा मणुयभवे उप्पज्जिऊण | हा मुयह मं मा पहरह २७८ | हा हा कह णिल्लोए ११ हिंडाविज्जइ टिंटे होऊण खयरणाहो होऊण चक्कवट्टी २५ होऊण सुई चेइय१२१ ३०५ संसारत्था दुविहा संसारम्मि अणंतं साकेते सेवंतो सायरसंखा एसा सायारो अणयारो सिग्धं लाहालाहे सिद्धसरूवं झायइ सिद्धा संसारत्था सिराहाणुव्वट्टण-गंधसुरवइतिरीडमणिकिरणसुहुमा अवायविसया सोऊण किं पि सदं १४९ १९६ १०७ १२९ २७४ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार ३३८ परिशिष्ट ऐतिहासिक-नाम-सूची नाम अनन्तमति इन्द्रभूति उद्दायन राजा अंजनचोर कुन्दकुन्द चारूदत्त वसुनन्दि पृ०सं० | नाम ५२ | रुद्रदत्त ___३ | रेवती लंकेश (रावण) ५२ | बज्रकुमार ५४० १२८ | वसुदेव वारिषेण ५४२ वासुदेव ५४४ विष्णुकुमार | श्रीनन्दि १२९ | श्रीभूति . १२६ । श्रेणिक १२५ .५४६ ३४८ जिनदत्त ५५ . ५४ ३४९ ५४ नयनदि नेमिचन्द बकराक्षस ब्रह्मदत्त यादव युधिष्ठिर १२७ ५४०. १३० भौगोलिक-नाम-सूची नाम पृ.सं. .. १२५ . ५२ ५५ युधिष्ठिर चंपानगरी ताम्रलिप्तनगरी मथुरा मागध रुद्रवरनगर राजगृह ५३-५५ ५४ ५२ लंका مر ه साकेत हस्तिनापुर ع Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ('वसुनन्दि-श्रावकाचार परिशिष्ट ३३९ ५ श्रावकाचार शब्द पृष्ठ संख्या २३ २५ २ पृष्ठ संख्या | शब्द निगोदिया पंचेन्द्रिय योनि ५ | मार्गणा गुणस्थान | जीवसमास उपयोग प्राण संज्ञा अजीव www 20 २७ . २७ २७ शब्द मंगलाचरण इन्द्रभूति गौतम विपुलाचल पर्वत दिव्यध्वनि . राजगृह. देशविरत ग्यारह प्रतिमा प्रतिमा उमास्वामी . पातंजलि नेमिचन्द्र कषाय सम्यग्दर्शन . . लोककथा आप्त प्रभाचन्द्र सप्ततत्त्व पच्चीस दोष अठारह दोष माणिक्यनन्दी समन्तभद्र कवलाहार तत्त्व जीवतत्त्व आत्मा २२,४३ २८ २९,३१ Www ० ० WW०० ३३ ३३,४४ ३४,३६ परमाणु ८,९,१६ पुद्गल अणु १०,११,१३ स्कन्ध अजीव १०,१२,१७ धर्मद्रव्य | अधर्मद्रव्य ११,१२,१३ | आकाश १२ काल | वर्तना १४ | | विश्वसंरचना तीर्थंकर १७,४८ | द्रव्यसंग्रह द्रव्यगुण १७,१९ । अर्थपर्याय १८,३७,४४,४५ अगुरुलघुगुण २०,२१ । व्यंजनपर्याय २०,२४ | अपरिणामी द्रव्य २१ | क्रियावान् द्रव्य १६ 31 १७ संसारी ३८ ३९ ४१ द्रव्य स्थावर स पर्याप्ति Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट पृष्ठ संख्या ९३ ९७ . ९८ १०६ १०० मिथ्यात्व ११५ ५२ १३८ मोक्ष वसुनन्दि-श्रावकाचार ३४० शब्द पृष्ठ संख्या | शब्द परिणामी द्रव्य ४८ | मघुदोष कारणभूत द्रव्य ___४८ / मांस दोष सर्वगत द्रव्य ४९ | शाकाहार अप्रवेशी स्वभाव | वेश्यागमन दोष आश्रव ५१,५३ शिकार दोष चौर्य दोष अविरति परस्त्रीगमनदोष योग युधिष्ठिर कषाय यादव शुभोपयोग बक राक्षस चारुदत्त संवर ५५,५६ | ब्रह्मदत्त निर्जरा ५७,६५ | श्रीभूति . रावण अनुयोगद्वार रुद्रदत्त सम्यग्दृष्टि ६०,६५,७९ नरकगति दुःख आठ अंग ६२,६७ अशुभतर लेश्या आठ गुण पृथिवियाँ सम्यग्दर्शन सागर प्रमाण अंजनचोर तिर्यंचगति अनन्तमती मनुष्यगति उद्दायन राजा गुणभद्र रेवती रानी देवगति जिनेन्द्र भक्त मरणचिन्ह वारिषेण मिथ्यात्व विष्णुकुमार दर्शन प्रतिमा वज्रकुमार अष्टमूलगुण श्रावक व्रतप्रतिमा उदुम्बरफल अहिंसाणुव्रत व्यसन-सप्त सत्याणुव्रत | अचौर्याणुव्रत | ब्रह्मचर्याणुव्रत १४२ '१४२ १४५ १६२ १६५ १६६ १६८ १७२ १७४ १७६ १८२ १८४ or or or wor or or or १८६ १८९ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार ३४१ परिशिष्ट पृष्ठ संख्या शब्द परिग्रहपरिमाणाणुव्रत २०३ २५२ गुणव्रत २५६ देशव्रत २१४ २१७ पृष्ठ संख्या | शब्द कल्पवृक्ष २०६ | मद्यभोगभूमि २०८ कुभोगभूमि २१० सल्लेखना २१३ | सामायिक | प्रोषध २१५ सचित्तत्याग दिवामैथुनत्याग ब्रह्मचर्य २२२ संस्कार आरम्भत्याग २३० | परिग्रहत्याग .२३३ अनुमतित्याग उद्दिष्टत्याग | ऐलक २३८ | रात्रिभोजदोष २३९ सूर्यप्रकाश अनर्थदण्ड शिक्षाव्रत परिभोगनिवृत्ति अतिथिसंविभाग पात्रभेद दातारगुण नवधाभक्ति दातव्य आहारदान करुणादान औषधिदान शास्त्रदान . अभयदान दानफल २५७ २६८ २७१ २७७ २८७ २८९ २९० २९३ २९४ २९६ - २९८ २२० २२५ २३४ २३७ ३०० ३०३ ३०७ ३०९ :. नोट- ग्रन्थ में और भी बहुत सी परिभाषायें आई है, जिन्हें विषयसूची के आधार - से ग्रन्थ में ही देखें। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची क्र० सांकेतिक नाम रचनाकार प्रकाशक पूर्ण नाम | षड्-खण्डागम (वसुनन्दि-श्रावकाचार १. षट्-खण्डा० आ० पुष्पदंत/भूतवलि | ति०प० तिलोय-पण्णत्ति आ० यतिवृषभ जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, १९७३ जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, वि०सं० १९९९ सम्पा०- हीराचन्द नेमिचन्द, बम्बई, १९५२ अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला, वि०सं० १९७६ का०रूप० कातंत्र-रूपमाला आ० शर्ववर्म आ० वट्टकेर मूला० श्रा०प्र० स०सा० मूलाचार श्रावक प्रतिक्रमण (३४२) समयसार प्र०सा० प्रवचनसार नि०सा० नियमसार पंचास्तिकाय आ० कुन्दकुन्द आ० कुन्दकुन्द आo कुन्दकुन्द .. | आ० कुन्दकुन्द अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली, १९५८ | परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, १९३५ श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, १९६९ . पं०का० आचार्य वसुनन्दि Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० १०. द०पा० ११. १२. सांकेतिक नाम १४. भा०पा० बो०पा० १३. मो० पा० र०सा० १५. त०सू० १६. उ० श्रा० १७. र० श्रा०, रत्न० श्रा० पूर्ण नाम दर्शन - पाहुड भाव- पाहड बोध मोक्ष रयणसार तत्त्वार्थ सूत्र उमास्वामी श्रावकाचार रत्नकरण्ड श्रावकाचार रचनाकार आ० कुन्दकुन्द आ० कुन्दकुन्द आ कुन्दकुन्द आ० कुन्दकुन्द आ० कुन्दकुन्द आ० उमास्वामी आ० उमास्वामी आ० समन्तभद्र प्रकाशक माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, वि०सं० १९७७ 1 माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, वि०सं० १९७७ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, वि०सं० १९७७ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, वि०सं० १९७७ वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर, १९७४ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६ माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९२६ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३४३) आचार्य वसुनन्दि Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाकार प्रकाशक क्र० | सांकेतिक नाम स्वयं० स्तो० भ०आ०,मूलारा० रत्न०मा० का०अनु० ,कार्तिके० स०सि० स०भ० सतं० (वसुनन्दि-श्रावकाचार पूर्ण नाम | स्वयम्भू स्त्रोत । | भगवती आराधना रत्नमाला कार्तिकेयानुप्रेक्षा सर्वार्थसिद्धि समाधिभक्त (दशभक्ति) समाधितंत्र परमात्मप्रकाश तत्त्वार्थराजवार्तिक धवला पुस्तक महापुराण आत्मानुशासन गोम्मटसार जीवकाण्ड आ० समन्तभद्र भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्, लुहारिया आ० शिवकोटी सखाराम दोशी, सोलापुर, १९३५ ।। आ० शिवकोटी आ० स्वामि कार्तिकेय | राजचन्द्र ग्रन्थमाला, आगास १९६० आ० पूज्यपाद भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, १९५५ आ० पूज्यपाद बुन्देलखण्ड स्याद्वाद परिषद्, टीकमगढ़ आ० पूज्यपाद टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर आ० योगीन्दु/जोइन्दु राजचन्द्र ग्रन्थमाला, वि०सं० २०१७ आ० अकलंक भट्ट कलकत्ता,१९२९ | आ० वीरसेन अमरावती | आ० जिनसेन भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, १९५१ • आ० गुणभद्र। अजिताश्रम, लखनऊ, १९२८ आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती | जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकता (३४४) प०प्र० त०रा० २७. | ध० पु० २८. म०पु० २९. आ०शा० गो० जीव० आचार्य वसुनन्दि ३० । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाकार प्रकाशक क्र० | सांकेतिक नाम ३१. | गो० कर्म० ३२. क्ष०सा० ३३. | त्रि०सा० पूर्ण नाम गोमटसार कर्मकाण्ड क्षपणसार त्रिलोकसार (वसुनन्दि-श्रावकाचार ३४. | द्र०सं० ३५. | पु०सि० द्रव्यसंग्रह पुरुषार्थ सिद्धयुपाय आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती | जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती | परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्त चंक्रवर्ती | मानिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९६३ आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तिकदेव | देहली, १९५६ आ० अमृतचन्द्र सूरि | सेन्ट्रल जैन पब्लिक हाउस, लखनऊ, १९३३ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९७१ आ० माणिक्यनन्दी स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी आ० शुभचन्द्र राजचन्द्र ग्रन्थमाला, अगास, १९६० आ० शुभचन्द्र राजचन्द्र ग्रन्थमाला, अगास, १९६० आ० जयसेन परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, वि०सं० १९७२ (MR) ३६. न०च० नयचक्र | प०म० परीक्षामुख ज्ञानार्णव ३७. | ३८. ज्ञानार्णव ३९. | कार्तिकेन्टीका ४०. | पं०का०टी० कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका पंचास्तिकायटीका आचार्य वसुनन्दि ४१. | स०तं०टी० समाधितंत्र-टीका आ० प्रभाचन्द्र Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनाकार क्र० | सांकेतिक नाम पूर्ण नाम | र० श्रा०टी० रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका सा० ध० (स०) | सागार धर्मामृत सटीक अन०ध०(स०) अनगार धर्मामृत सटीक इष्टो०टी० इष्टोपदेश टीका गुण० श्रा० ,गुणभू० श्रां० | गुणभूषण श्रावकाचार सो०3०,सोम०० सोमदेव उपासकाध्ययन प०पं०,पद्म०पंच० | पद्मनन्दी पंचविंशतिका (वसुनन्दि-श्रावकाचार प्रकाशक श्री मुनिसंघ सेवा समिति, सागर माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, १९१७ माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, १९१७ वीरसेवा मन्दिर, वाराणसी जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९७६ | आ० प्रभाचन्द्र पं० आशाधर पं० आशाधर पं० आशाधर आ० गुणभूषण आ० सोमदेव आ० पद्मनन्दी (३४६) ४९. द०सा० दर्शनसार आ० देवसेन श्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, वि०सं० २०१८ सम्पा० नाथूराम प्रेमी, बम्बई, वि० सं० १९७४ सम्पा० महावीरजी, वि०नि० २४८८ श्री अनन्त कीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वि०सं० १९७९ श्रीमहावीर जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी,१९७६ चारित्र-सार ५०. | | चा०सा० ५१. अमित० श्रा० चामुण्डराय आ० अमितगति . अमितगति श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि ५२. नी०वा० नीतिवाक्यामृतम् आ० सोमदेव Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० सांकेतिक नाम रचनाकार प्रकाशक | पूर्ण नाम यशस्तिलक चम्पू - ५३. | यशस्तिलक आ० सोमदेव (वसुनन्दि-श्रावकाचार .५४. | भा०सं० भावसंग्रह आ० भावसेन श्रीमहावीर जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, | १९७६ | अखिल भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद, लुहारिया अखिल भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद, | लुहारिया वेस्ट मलाड, बम्बई, १९७४ ५५. आ०प० आलापपद्धति आ० देवसेन आराधनासार आ० देवसेन ५६. | आ० सा० ५७. धर्म० श्रा० पंचा० (३४७) धर्मसंग्रह श्रावकाचार पंचाध्यायी पं० राजमल्ल श्रीगणेशवर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी, १९८६ ५८. | क्रि०को० ५९. | ला०सं० क्रियाकोश लाटी संहिता, |पं० दौलतराम श्रीमद्राजमल्ल श्री माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई आचार्य वसुनन्दि ६०. सं०प्र० संबोध प्रकरण (अन्य) | हरिभद्रसूरि Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक जैन प्रसारक सभा, भावनगर, १९२६ वसुनन्दि-श्रावकाचार ६३. क्र० सांकेतिक नाम ६१. यो०शा० ६२. । | पा०यो०सू० | सु० रत्न०सं० ६४. तत्त्वार्थवृत्ति ६५. तत्त्वार्थवृत्ति ६६. प्रबोधाष्ठक आदि पु० ६८. सू०१० ६९. अंग प० म०क० धर्म० परी० सम्य०कौ० । ७३. पथिक पूर्ण नाम रचनाकार योगशास्त्र (अन्य) हेमचन्द्र सूरि पातंजलियोगसूत्र (अन्य) पातंजलि ऋषि सुभाषितरत्न सन्दोह आ० सकलकीर्ति | तत्त्वार्थवृत्ति (सुखबोधा टीका) आ० भास्करनन्दी तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरी टीका) आ० श्रुतसागर सूरि प्रबोधाष्कम् स्तोत्र आ० महावीर कीर्ति आदिपुराण आ० जिनसेन सुक्ति मुक्तावलि आ० सोमप्रभ . अंग पण्णत्ति आ० शुभचन्द्र मरण कण्डिका . . आ० अमितगति. धर्म परीक्षा आ० अमितगति सम्यक्त्व कौमुदी आ० अमितगति पथिक (औपन्यासिक कथानक)| मुनि सुनील सागर ६७. (३४८) ७१. आचार्य वसुनन्दि) Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य वसुनन्दि आचार्य वसुनन्दि ने अपने जन्म से किस देश को पवित्र किया, किस जाति में जन्म लिया, उनके माता-पिता का नाम क्या था, जिमदीक्षा कब ली और कितने समय जीवित रहे, इन सब बातों को जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है । ग्रन्थ के अन्त में दी हुई प्रशस्ति से केवल इतना पता चलता है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में श्रीनन्दि नाम के एक आचार्य हुए। उनके शिष्य नयनन्दि और उनके शिष्य नेमिचन्द्र हुए और उनके शिष्य आ० वसुनन्दि हुए। विविध प्रमाणों से आ० वसुनन्दि का समय बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध निश्चित किया जा सकता है। आ० वसुनन्दि नाम के कई आचार्य हुए हैं । उनमें से प्रस्तुत ग्रन्थकार ने किन और कौन-कौन सी कृतियों की रचना की है यह तो निश्चित नहीं कहा जा सकता किन्तु निम्न कृतियों को अवश्य उनके नामान्तर्गत रखा जा सकता है - वसुनन्दिश्रावकाचार ( उपासकाध्ययन), प्रतिष्ठापाठ (वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ) और मूलाचारवृत्ति, आप्त-मीमांसावृत्ति, जिनशतक टीका । सम्भवत: मूलाचार पर वृत्ति करने के बाद आपको 'सैद्धान्तिक' उपाधि से परवर्त्ती विद्वानों ने स्मरण किया है। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री सुनील सागरजी सागर जिलान्तर्गत तिगोड़ा (हीरापुर) नामक ग्राम में जन्में बालक संदीप के माता-पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ श्रेष्ठी श्रीमान् भागचन्द्र जी एवं श्रीमति मुन्नी देवी जैन को। व्यापारवशात् आप अपनी जन्मभूमि छोड़कर भोह जिला के किशुनगंज नामक ग्राम में जा बसे। जहाँ मेधावी बालक का प्राथमिक शिक्षण पूर्ण हआ। उच्चस्तरीय शिक्षा पाने हेतु सागर के श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय भेजा गया। सत्संगति, अध्यात्मज्ञानवशात् शास्त्री एवं बी०काम० परीक्षाओं के मध्य युवा हृदय में वैराग्य का ज्वार आने लगा और वे तीसरी बार विद्यालय छोड़कर, दीक्षार्थ उद्धत हुए किन्तु आचार्यश्री ने आगे और पढ़ने को कहा। अन्तरंगज्ञानी को अब बाह्य ज्ञान से ज्यादा सरोकार नहीं रहा; और विशिष्ट संघर्षों और अवरोधों से जूझते हुए अन्ततः 20.4.97 महावीर जयंती के दिन विजय पा ही ली और आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) के तृतीय पट्टाधीश तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मति सागर जी से बरुआसागर, जिला- झाँसी (उत्तर प्रदेश) में दीक्षित होकर मुनि श्री सुनील सागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। आप मृदुभाषी, बहुभाषाविज्ञ, उद्भट विद्वान्, उत्कृष्ट साधक, मार्मिक प्रवचनकार और अच्छे साहित्यकार हैं। अब तक आपकी लेखनी से निःसृत प्रमुख कृतियाँ हैंपथिक, धरती के देवता, विश्व का सूर्य, काशी दर्शन, मेरी सम्मेद शिखर यात्रा, इष्टोपदेश, (टीका), चम्पापुर की चाँदनी, भक्ति से मुक्ति, अमरत्व का अमृत, बिना पूंछ का बन्दर (कविता संग्रह), मानवता के आठ सूत्र, आदि।