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वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३३)
आचार्य वसुनन्दि अर्थ- भोजनदान देने पर तीनों ही दान दिये होते हैं; क्योंकि प्राणियों को भूख और प्यासरूपी व्याधि प्रतिदिन होती है। भोजन के बल से ही साधु रात-दिन शास्त्र का अभ्यास करते हैं और भोजन दान देने पर प्राणों की भी रक्षा होती है।
आहार दान की महत्ता दिखाते हुए टीकाकार शुभचन्द्र लिखते हैं - मरणसमं णत्थिभयं खुहासमा वेयणा णत्थि। वंछसमं णत्थि जरो दारिद्दसमो बइरिओ णत्थि।।
अर्थ- मृत्यु के समान कोई भय नहीं है, भूख के समान कोई कष्ट नहीं है, वांछा के समान ज्वर नहीं है और दारिद्र के समान कोई वैरी नहीं है। वे आगे
कहते हैं -
देहो पाणा. रुवं विज्जा धम्मं तवो सुहं मोक्खं । सव्वं दिण्णं णियमा हवेइ आहार दाणेण ।।१।। भुक्खसमा 'ण हु वाही अण्ण समाणं च ओसहं णस्थि । तम्हा तद्दाणेण य आरोयत्तं हवे दिण्णं ।।२।। आहारमओ देहो आहारेण विणा पडेइ णियमेण । तम्हा. जेणाहारो . दिण्णो देहो हवे तेण ।।३।। ता देहो ता पाणा ता रुवं ताम जाण विण्णाणं । जामाहारो पविसइ देहे जीवाण सुक्खयरो।।४।। आहारसणे देहो देहेण तवो तवेण रयसडणं । रयणासे वरणाणं णाणे मोक्खो जिणो भणइ ।।५।।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, ३६३-६४) अर्थ- आहारदान देने से शरीर, प्राण, रुप, विद्या, धर्म, तप, सुख, ज्ञान, मोक्ष सभी नियम से दिया हुआ समझना चाहिये। भूख के समान व्याधि नहीं और अन्न के समान औषधि नहीं है, अत: अन्नदान से औषध दान ही दिया जानना चाहिए। यह शरीर आहारमय है! आहार न मिलने से यह नियम से टिक नहीं सकता, अत: जिसने आहार दिया उसने शरीर ही दिया जानना चाहिए। शरीर, प्राण, रूप, ज्ञान बगैरह तभी तक हैं जब तक शरीर में सुखदायक आहार पहुँचता है। आहार से शरीर रहता है, शरीर से तपश्चरण होता है, तप से कर्मरूपी रज का नाश होता है, कर्मरूपी रज का नाश होने पर उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है और उत्तम ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है।