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वसुनन्दि-श्रावकाचार
(२३४)
आचार्य वसुनन्दि
उपरोक्त सभी तथ्यों को जानकर रत्नत्रय के धारी पात्रों को आहार अर्थात् भोजन दान अवश्य ही देना चाहिए ।। २३४ ।।
दुःखियों को करुणादान
अइबुढ्ड - बाल - मूयंध - बहिर-देसंतरीय - रोडाणं ।
जहजोग्गं दायव्वं करुणादाण त्ति भणिऊण ।। २३५ ।।
अन्वयार्थ – (अइबुड्ड) अतिवृद्ध, (बाल) बालक, (मूयंध) मूक, अन्ध, (बहिर) बधिर, (देसंतरीय) देशान्तरीय, (रोडाणं ) दरिद्रियों को, (करुणादाणत्ति भणिऊण) करुणादान दे रहा हूँ' ऐसा कहकर (जहजोग्गं) यथायोग्य, (दायव्वं) देना चाहिए।
अर्थ — अति वृद्ध, बालक, मूक (गूंगा), अन्ध, वधिर (बहिरा), देशान्तरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवों को 'करुणा दान दे रहा हूँ' ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए।
व्याख्या- अतिवृद्ध - जिसकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गई हैं, शरीर कांपता है, दीन मुख है, ऐसे अत्यन्त वृद्ध जनों को, बाल- जो अविकसित वय वाले हैं, जिनमें कार्य-अकार्य का विवेक नहीं है, जो युवा होकर भी ज्ञान-हीन, अत्यन्त दुर्बल शरीर वाले हैं ऐसे बालकों को, मूक- जो स्पष्टभाषी नहीं है, जिन्हें जनभाषा बोलनी नहीं आती, ऐसे मूक जनों को, अन्य - जिनकी आंखें किसी व्याधि विशेष से ग्रसित है, जिन्हें बिल्कुल भी नहीं दिखता अथवा अत्यल्प दिखता है, ऐसे अन्ध जमों को, बधिर जो बहरे हैं, जिन्हें कानों से सुनाई नहीं देता, ऐसे बधिरजनों को, देशान्तरीय- जो किसी अन्य देश से आये हैं, परदेशी हैं ऐसे देशान्तरीय जनों को, तथा रोगी अर्थात् जो किसी प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हैं और जो दरिद्र अर्थात् गरीब हैं, ऐसे दरिद्रजनों को “मैं करुणादान दे रहा हूँ” ऐसा कहकर अर्थात् मन में समझकर यथायोग्य आहार आदि का दान देना चाहिए ।
दिगम्बराचार्यों ने सम्यग्दृष्टि श्रावक को कुपात्रों अथवा अपात्रों में दान देने का सीधा निषेध नहीं किया अपितु दिशादर्शन देते हुए कहा है कि, कुपात्रों अथवा अपात्रों को स्वविवेक और करुणाबुद्धिं से दान देना चाहिए। करुणाबुद्धि से विवेकपूर्वक दान देने में दोष नहीं, अपितु दोष है उन्हें पात्र समझ कर दान देने में । अपात्र में पात्र बुद्धि हो तब सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) में दोष आता है । अपात्र को अपात्र समझकर करुणापूर्वक दान देना चाहिए, उसमें भी विवेक की आवश्यकता होती है कि पात्र योग्य है
१. दरिद्राणाम् .