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वसुनन्दि- श्रावकाचार
(२३५)
आचार्य वसुनन्दि
अथवा अयोग्य, उसे आवश्यकता है अथवा नहीं, आदि का ध्यान रखना
चाहिए । । २३५ ।।
औषधिदान का लक्षण
उववास-वाहि परिसम-किलेस' - परिपीडयं - मुणेऊण । पत्थं सरीरजोगं भेसजदाणं पि दायव्वं ।। २३६ ।।
अन्वयार्थ - ( उववास) उपवास, (वाहि) व्याधि, (परिसम) परिश्रम, (किलेस) क्लेश, (परिपीडयं) परिपीड़ित को, (मुणेऊण) जानकर, ( सरीरजोग्गं) शरीर के योग्य, (पत्थं) पथ्यरूप; (भेसजदाणं पि) औषधिदान भी, (दायव्वं) देना चाहिए।
अर्थ — उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से परिपीड़ित जीव को जानकर अर्थात् देखकर शरीर के योग्य पथ्यरूप औषध दान भी देना चाहिए ।
व्याख्या— उपवास — चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है । आचार्य प्रभाचन्द्र लिखते हैं
किं पुनः प्रोषधोपवास शब्दाभिधेयं ? प्रत्याख्यानं । केषां ? चतुरभ्यवहार्याणां चत्वारि अशनपानखाद्यलेह्यलक्षणानि तानि चाभ्यवहार्याणि च भक्षणीयानि तेषां ।
अर्थ - प्रोषधोपवास शब्द से क्या अर्थ समझना चाहिये ? त्याग किसका ? अशन, पानखाद्य और लेह्य लक्षण वाले सभी पदार्थों का त्याग करना चाहिए । व्याधि - पं० आशाधर जी इष्टोपदेश की टीका में लिखते हैं“व्याधिर्वातादिदोषवैषम्यं।” अर्थात् वात, पित्त, कफ आदि दोषों की विषमता ही व्याधि है।
नीतिकारों ने कहा है- “ शरीरं व्याधि मन्दिरम् । " शरीर व्याधियों का घर है। आ० शिवकोटि भगवती आराधना ग्रन्थ में लिखते हैं
जदि रोगा एक्कम्मि चेव अच्छिम्मि होंति छण्णउदी ।
सव्वम्मि दाइं देहे होदव्वं कदिहिं रोगेहिं । । १०५४।।
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अर्थ — यदि एक नेत्र बराबर शरीर में छ्यानवे रोग उत्पन्न होते हैं तो सम्पूर्ण शरीर में कितनी व्याधियां होगी ? अर्थात् बहुत होगी।
१. झ. पडि.