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________________ (२३६) वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि इस कथन की पूर्ति करते हुए आ० अमितगति लिखते हैं कोट्य: पंचाष्टषष्टीश्च लक्षा: सह सहस्रकैः । नवभिनवतिः पंचशत्याशीतिश्चतुर्युता।।म०क०१०८६।। अर्थ- मानव शरीर में पांच करोड़, अड़सठ लाख, निन्यानवें हजार, पांच सौ चौरासी रोग होते हैं। आ० शुभचन्द्र ने उपरोक्त रोगों की संख्या ही नारकियों के शरीर में बताई हैं, . (देखिये- कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा सं० ३९ की संस्कृत टीका)। आ० शिवकोटि पुन: कहते हैं - वाइयपित्तिमसिभियरोगा तण्हा छुहा समादी य। णिच्चं तवंति देहं अद्दहिदजलं च जह अग्गी। भ०आ० १०५३।। अर्थ- वातजन्य रोग, पित्तजन्य रोग, कफजन्य रोग, क्षुधा-तृषा, श्रम आदि से अग्नि तप्त जल के समान यह शरीर सन्तप्त होता है। अत: जो मोक्षमार्ग में साधनारत साधक हैं, उन्हें यथायोग्य स्वास्थ्य और साधनावर्द्धक औषधियों का आहार आदि के समय अथवा योग्य समय में दान देना चाहिए। . औषधिदान के अन्तर्गत रत्नत्रय साधकों की तेल आदि पदार्थों से मालिश करना उनके हाथ-पैर आदि दाबना भी ग्रहण करना चाहिए। आ० शिवकोटि वैयावृत्ति की प्रेरणा देते हुए कहते हैं - येनाद्यकाले यतीनां वैयावृत्यं कृतं मुदा । तेनैव शासनं जैनं प्रोद्धतं शर्मकारणम् । रत्नमाला।। अर्थ- जिस पुरुष ने आज के वर्तमान काल में हर्षपूर्वक साधुओं की वैयावृत्ति की, उसने ही सुख के कारणभूत जैनशासन का उद्धार किया। वैयावृत्ति की परिभाषा करते हुए आ० समन्तभद्र लिखते हैं कि - व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात्। वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम्।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ११२) अर्थ- गुणानुराग से संयमी पुरुषों की आपत्तियों को दूर करना, उनके चरणों का मर्दन करना (दाबना) तथा इसी प्रकार की और भी जो उनकी सेवा-टहल या
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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