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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (२३७) सार-संभाल की जाती है, वह सब वैयावृत्त्य है । इस कलिकाल में संहनन की हीनता, असंयम की बहुलता आदि कारणों से चारित्र का परिपालन करना, अत्यन्त कठिन हो चुका है। मिथ्यात्व के बोल बाले के कारण संयमी जीवन व्यतीत करना - अत्यन्त दुष्कर हो रहा है । फिर भी आश्चर्य है कि आज अनेको युवासन्त आत्मकल्याण के साथ-साथ पर-कल्याण करने में संलग्न हैं। फिर भी मुनियों की संख्या नगण्य है अर्थात् पात्र प्राप्ति अतिशय दुर्लभ है। आचार्य वसुनन्दि वैभव हाथी के कर्ण अथवा काक के चक्षु के समान अत्यन्त चंचल है। कब आये और कब जाये? इसका कोई निश्चय नहीं है । पुण्य के फल से प्राप्त हुई विभूति को पुण्य करके ही स्थिर रखा जा सकता है। अतः गृहस्थ को सदैव यह प्रयत्न करना चाहिए कि वे अपने वैभंव का सदुपयोग करे। वैभव की अस्थिरता और पात्र की दुर्लभता देखते हुए वैयावृत्ति में मन को लगाना, सद्गृहस्थ का कर्तव्य है । आ० शिवार्य ने लिखा है कि वैयावृत्ति के १६ गुण बताते हुए गुणपरिणामो सढ्ढा वच्छल्लं भत्तिपत्तलंभो य। संभाणं तवपूया अव्विच्छत्ती समाधी य । आणा संजमसाखिल्लदा य दाणं च अविदिगिंछा य। वेज्जावच्चस्स गुणा पभावणा - कज्जपुण्णाणि ।। (भगवती आराधना, ३२४, ३१५) अर्थ - १. साधुनि के गुणन में परिणाम, २. श्रद्धान, ३. वात्सल्य, ४ . भक्ति, ५. पात्रलाभ, ‘६. सन्धान-जो रत्नत्रय तै जोग, ७. तप, ८. पूजा, ९. धर्मतीर्थ की अव्युच्छित्ति, १०. समाधि, ११. तीर्थङ्करनि की आज्ञा का धारना, १२. संयम की सहायता, १३. दान, १४. निर्विचिकित्सा, १५. भावना, १६. कार्यपूर्णता एते वैयावृत्य करने तै गुणप्रकट होय हैं। वैयावृत्ति करने से धर्म प्रभावना होती है, संयमी की सुरक्षा होती है। जो हर्षपूर्वक वैयावृत्ति करते हैं, वे मानो सुख के कारणभूत जैनधर्म का और अपनी आत्मा का उद्धार कर रहे हैं। दीन-दुःखियों को औषधि-दिला देना, औषधालय खुलवाना, रोगी-शोकदुःखी जनों को फल, दूध, भोजन आदि देना भी औषधि दान का ही रूप ह।। २३६ ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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