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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (२३८) शास्त्र दान आगम-सत्याइं लिहाविऊण दिज्जंति जं जहाजोग्गं । तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा । । २३७ ।। अन्वयार्थ - (आगम - सत्थाई) आगम-शास्त्रों को, (लिहाविऊण) लिखवाकर, (जं) जो, (जहाजोग्गं) यथायोग्य पात्र को, (दिज्जंति) दिये जाते हैं, (तं) उसे, (तहा) तथा, (जिणवयणज्झावणं) जिन वचनों का अध्यापन कराना, (सत्थदाणं) शास्त्र दान, (जाण) जानना चाहिए। अर्थ - जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को दिये जाते हैं, उसे शास्त्र दान जानना चाहिए तथा जिन वचनों का अध्यापन कराना - पढ़ाना भी शास्त्र दान हैं। व्याख्या– जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कथित, गणधरों द्वारा उद्बोधित और परम्पराचार्यों द्वारा लिखित जिन-आगम को लिखवाना - छपवाना, विद्यालय खुलवाना, अध्यापन करना-कराना अर्थात् पढ़ना और पढ़ाना आदि जो भी निःस्वार्थ ज्ञान दान है वह शास्त्रदान समझना चाहिए। परम्पराचार्यों में प्रमुख आचार्यों की गणना करते हुए आ० श्रुतसागर सूरि सूत्रप्राभृतम् की गाथा संख्या दो की टीका में कहते हैं - - आचार्याणां परम्परा श्रेणिर्यत्र मार्गे स आचार्यपरम्परः आचार्यप्रवाहमुक्तौ मार्गस्तेन मार्गेण । कोऽसौ मार्ग चेदुच्यते - श्रीमहावीरादनन्तरं श्री गौतमः सुधर्मो जम्बूश्चेति त्रयः केवलिनः। विष्णुः, नन्दिमित्रः, अपराजितः, गोवर्धनः, भद्रबाहुश्चेति पञ्चश्रुतकेवलिनः। तदनन्तरं, विशाखः, प्रोष्ठिलः, क्षत्रियः, नागसेनः, जयसेनः, सिद्धार्थः, धृतिषेणः विजय:, बुद्धिलः, गङ्गदेवः, धर्मसेनः, इत्येकादशपूर्विणः । नक्षत्रः, जयपालः, पाण्डुः,ध्रुवसेनः, कंसाश्चेतिपञ्चैकादशाङ्गधराः । सुभद्रः, यशोभद्रः, भद्रबाहुः, लोहाचार्य एते चत्वार एकाङ्गधारिणः । जिनसेनः, अर्हद्वलिः, माघनन्दी, धरसेनः, पुष्पदन्तः, भूतबली:, जिनचन्द्र:, कुन्दकुन्दाचार्य:, उमास्वामी, समन्तभद्र स्वामी, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपादः, एलाचार्य, वीरसेन:, जिनसेनः, नेमिचन्द्रः, रामसेनाश्चेति प्रथमाङ्गपूर्वभागज्ञाः। अकलङ्कः, अनन्तविद्यानन्दी, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्रः, रामचन्द्रः एते सुतार्किकाः। वासवचन्द्रः गुणभद्र एतौ नग्नौ अन्ते वीरङ्गजश्च । चूँकि यह आचार्यों की नामावली कालक्रमानुसार नहीं है फिर भी इतना स्पष्ट है कि इस प्रकार के निस्पृही, विद्वान्, दिगम्बराचार्यों की और आगमानुसारी विद्वानों की वाणी ही समादर के योग्य है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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