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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३९) आचार्य वसुनन्दि आ०कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते हैं- "आगमचक्खू साहू' (२३४) अर्थात् साधुओं की आंखें आगम ही हैं। सामान्यजन चर्म चक्षुओं से देखते हैं, किन्तु मुनिगण आगम में वस्तुस्थिति को जानते और देखते है, अत: सत्पात्रों को शास्त्रदान देना चाहिए। पूर्वाचार्यों द्वारा रचित जिनवाणी का अनुवादन, लेखन एवं प्रकाशन श्रेष्ठ विद्वानों के सम्पादकत्व में होना चाहिए।।२३७।। अभयदान-शिखामणि जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं। तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणाणं ।। २३८।। · अन्वयार्थ– (मरणभयभीरुजीवाणं) मरण से भयभीत जीवों का, (ज) जो, (णिच्च) नित्य, (परिरक्खा कीरइ) परिरक्षण किया जाता है, (त) वह, (सव्वदाणाणं) सर्व दानों का, (सिहामणि) शिखामणि रूप, (अभयदाणं) अभयदान, (जाण) जानों। अर्थ- मरण से भयभीत जीवों का जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सर्व दानों का शिखामणि रूप अभयदान जानना चाहिए। व्याख्या- प्राणों के वियोग रूप मरण भय से जो भयभीत जीव हैं, उनकी, हमेशा ही रक्षा करना तथा सुदा ही सर्व जीवों पर करुणा धारण कर उन्हें प्राणदान देना, आश्रय देना आदि रूप सर्व दानों में शिखामणि स्वरूप अभयदान जानना चाहिए। .. चूँकि सभी दानों की अपनी-अपनी महत्ता है। प्रत्येक दान भव्य जीवों के आध्यात्मिक विकास में अत्यन्त सहयोगी हैं, किन्तु यहाँ पर आचार्य श्री ने अभयदान को सर्व दानों में शिखामणि कहा है सो ठीक ही है, क्योंकि भयभीत प्राणी न तो आहार ही कर सकता है, न ही अध्ययन कर सकता है और न ही स्वस्थ रह सकता है। एक अन्य कारण यह भी है कि तीन प्रकार के दान तो केवल मनुष्यों या स्थूल तिर्यञ्चों को ही दिये जा सकते हैं, किन्तु चौथे अभयदान के अन्तर्गत दया सभी जीवों पर धारण की जा सकती है। विवेकयुक्त प्रवृत्तियों से छोटे-छोटे जीवों का भी रक्षण किया जा सकता है। सत्पात्र एवं मनुष्यादि स्थूल प्राणियों को अभयदान कई प्रकार से दिया जा सकता है, किन्तु छोटे-छोटे जीवों की रक्षा कर, उनको कष्ट न पहुंचे इस प्रकार की प्रवृत्ति कर उन्हें अभय प्रदान किया जा सकता है। मुनि आदि सत्पात्रों को योग्य वसतिका-विहार आदि देकर, विहार में उनके साथ रहकर आदि प्रकार से अभयदान दिया जा सकता है। एक दृष्टि से देखा जाये तो जिस प्रकार आहार, औषध और शास्त्रदान में एक भी दान देने पर चारों दिये ऐसा समझा जाता है, उसी प्रकार अभयदान देने से चारों
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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