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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४०)
आचार्य वसुनन्दि ही दान दिये, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि भयरहित प्राणी ही भोजन कर सकता है। भय रहित प्राणी ही औषधि आदि का सेवन कर स्वस्थ रह सकता है और भय रहित प्राणी ही शास्त्र स्वाध्याय एवं पठन-पाठन आदि कर सकता है। अत: अभयदान सब दानों में शिखामणि है।
आहार, आवास आदि उन सभी वस्तुओं को इसके अन्तर्गत ग्रहण किया जा सकता है, जिनसे किन्हीं भी जीवों का किञ्चित भी रक्षण होता है।। २३८।। ।
दानफल-वर्णन दान का फल कहने की प्रतिज्ञा
अण्णाणिणो वि जम्हा कज्जं ण कुणंति णिप्फलारंभं। तम्हा दाणस्स फलं समासदो वण्णइस्सामि।। २३९।।'
अन्वयार्थ- (जम्हा) चूँकि, (अण्णाणिणो वि) अज्ञानीजन भी, (णिप्फलारंभ) निष्फल आरम्भ वाले, (कज्जं ण कुणंति) कार्य को नहीं करते हैं, (तम्हा) इसलिए (मैं), (दाणस्स फलं) दान का फल, (समासदो) संक्षेप से, (वण्णइस्सामि) वर्णन
करूँगा।
अर्थ- चूंकि, अज्ञानीजन भी निष्फल आरम्भ वाले कार्य को नहीं करते हैं, इसलिए मैं दान का फल संक्षेप से वर्णन करूंगा।
व्याख्या- जितने भी प्रवृत्तिरत प्राणी हैं, उनकी जो भी क्रियायें हैं निश्चित ही किसी इष्ट फल की प्राप्ति के लिए होती हैं। बिना फल की चाह के क्रियायें संसारी जीवों में अधिक सम्भव नहीं है। जब सामान्य ज्ञानी अथवा अज्ञानी जीव भी फल के लिए प्रवृत्ति करते हैं तो दान जैसे महान कार्य निष्फल के लिए कैसे हो सकते हैं? अर्थात् नहीं हो सकते। इसलिए मैं (आ० वसुनन्दि) यहाँ पर संक्षेप से दान के फल का निरुपण करूँगा।।२३९।। उत्तम पात्र को दिये गये दान का फल
जह उत्तमम्मि खित्ते पइण्णमण्णं सुबहुफलं होइ। तह दाणफलं णेयं दिण्णं तिविहस्स पत्तस्स ।। २४०।।
अन्वयार्थ- (जह उत्तमम्मि खित्ते) जैसे उत्तम-खेत में, (पइण्णमण्णं) बोया गया अन्न, (सुबहुफल) बहुत अधिक फल (वाला), (होइ) होता है, (तह) वैसे ही, १. झ.ब. छित्ते.