SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (२४१) आचार्य वन्दि (तिविहस्स पत्तस्स) त्रिविध पात्र को, (दिण्णं) दिये गये (दाणफलं) दान का फल, (णेयं) जानना चाहिए। अर्थ — जिस प्रकार उत्तम खेत में बोया गया अन्न बहुत अधिक फल को देता है, उसी प्रकार त्रिविध पात्र को दिये गये दान का फल जानना चाहिए ।। व्याख्या- जिस उपजाऊ मिट्टी वाले खेत में बोया गया अच्छा बीज यथायोग्य खाद-पानी, प्रकाश आदि मिलने पर बहुत अधिक फल अर्थात् फसल को देता है, उसी प्रकार तीन तरह के सत्पात्रों को दिया हुआ दान अत्यधिक शुभ फल को प्रदान कर जीवों को सुखी करता है। आचार्य योगीन्द्र (जोइन्दु) देव, दान, पूजा एवं पञ्चपरमेष्ठि वंदना आदि को परम्परा से मोक्ष का कारण बताते हुए कहते हैं - दाणु ण णु. मुणिवरहँ ण वि पुज्जिउ जिण पाहु | पंच ण वंदिय परम गुरु किमु होसइ सिव- लाहु || प० प्र० १६८ ।। अर्थ- आहार आदि दान मुनीश्वर आदि पात्रों को नहीं दिया, जिनेन्द्र भगवान को भी नहीं पूजा, अरहंत आदिक पंच परमेष्ठी भीनहीं पूजे तब मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? अर्थात् दान, पूजा, वंदना आदि के बिना मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी रयणसार में कहते हैं— 'दाणं भोयण मेत्तं दिदि धण्णो हवेई सायारो।' अर्थात् सागार (श्रावक) भोजन मात्र के दान देने से धन्य होता है। सुपात्रों को दान देने से भोग-उपभोग की सामग्री तथा स्वर्ग-सुख मिलता ही है क्रमशः · मोक्ष (निर्वाण) सुख भी मिलता हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। देखिये गाथा - दिण्णदि सुपत्तदाणं विसेसदो होदि भोगसग्गमही। णिव्वाणसुहं कमसो णिद्दिवं जिणवरिंदेहिं । । २० सा० १६ । । रयणसार ग्रन्थ की वैसे तो प्रत्येक गाथा अपने आपमें एक नया सन्देश देती है किन्तु दान के सम्बन्ध में एक और विशेष उल्लेखनीय गाथा है - जो मुणि भुत्तवसेसं भुञ्जदि सा भुञ्जदे जिणुद्दिठ्ठे । संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवर - सोक्खं ।। २२ ।। अर्थात् जो श्रावक मुनियों को आहार दान के पश्चात अवशेष अंश का सेवन करता है, वह संसार के सारभूत सुखों को प्राप्त होता हुआ शीघ्र ही मोक्ष सुख को पाता है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy