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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४२)
आचार्य वसुनन्दि आचार्य श्री समन्तभद्र रत्न करण्डश्रावकाचार में कहते हैंगृहकर्मणापिनिचितं कर्म-विमार्टि खलु गृहविमुक्तानाम्।
अतिथीनां प्रति पूजा रुधिरमलं धावते वारि ।।११४।। अर्थात्- निश्चित रूप से जिस प्रकार जल खून को धो देता है उसी प्रकार गृहरहित निर्ग्रन्थ मुनि आदि सत् पात्रों को दिया हुआ दान गृहस्थी-सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित सुदृढ़ पापकर्मों को भी नष्ट कर देता है। वे आगे और भी कहते हैं- ....
क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगते दानमल्पमपि काले।
फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीर भृताम् ।।११६।।
अर्थात्- उचित समय में योग्य पात्र के लिये दिया हुआ थोड़ा भी दान उत्तम पृथ्वी में पड़े हुए वट वृक्ष के बीज के समान शरीरधारी प्राणियों के लिए माहात्म्य और वैभव से युक्त छाया की प्रचुरता से सहित बहुत अधिक अभिलषित (इच्छित) फल को देता है।
परमात्मप्रकाश (१११-४) टीका में आचार्य ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं'गृहस्थानामाहार-दानादिकमेव परमो धर्मः' अर्थात्- आहारदान आदिक ही गृहस्थों के परम धर्म हैं। इन्हीं व्यवहार-धर्मों को पालन करने वाला श्रावक एक दिन स्वयं भी मुनि बन जाता है और कालान्तर में कल्याण का भाजन बनता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं- . ,
जो पुण लच्छिं संचदि ण च देदि सुपत्तेसु।
सो अप्पाणं वंचदि, मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ।।२३।। ।
अर्थात्- जो मनुष्य लक्ष्मी का केवल संचय करता है, न उसे उत्तम पात्रों में दान देता है और न ही शुभ कार्यों में लगाता है, वह अपनी आत्मा को ठगता है और उसका मनुष्यपर्याय में जन्म लेना निष्फल है।
पात्र-दान की महत्ता को ध्यान में रखकर लिखी गयीं आचार्य पद्मनन्दी जी की कुछ पंक्तियाँ देखिये- .
सौभाग्यसौर्य-सुखरूप-विकिता धी, विद्या वपुर्धन गृहाणिकुले च जन्म । संपद्यतेऽखिलमिदं किल पात्रदानात, तस्मात् किमत्र सततं क्रियते न यत्न।।
अर्थात्- सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, सुन्दरता, विवेक, बुद्धि, विद्या (विभिन्न प्रकार की कलायें), शरीर, धन, महल और उच्चकुल ये सब निश्चय से सुपात्र दान के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। फिर, हे भव्य जनो! तुम इस सुपात्र-दान के विषय में प्रयत्न