SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२४३) आचार्य वसुनन्दि क्यों नहीं करते? अर्थात् यत्नपूर्वक सच्चे त्यागियों (मुनियों) को आहार और योग्य वस्तुयें दान दो। आचार्य श्री श्रुतसागर जी तत्त्वार्थवृत्ति पृष्ठ पचपन (५५) पर आहार आदि के दान देने से दाता को सम्यग्दर्शन आदि की वृद्धि कैसे होती है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुये कहते हैं- शुद्ध, सरस आहार देने से मुनि के शरीर में शक्ति, आरोग्यता आदि होती है और इससे मुनि के ज्ञानाभ्यास, उपवास, तीर्थयात्रा, धर्मोपदेश आदि में सुखपूर्वक प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार पीछी-कमण्डलु, पुस्तक आदि संयम के उपकरण देने से भी परोपकार होता है। सम्यग्नज्ञानी दाता अपने हाथ से योग्य पात्र के लिये योग्य वस्तु का दान दे, इससे सम्यग्दर्शन की वृद्धि होती है। ___ आजकल कुछ लोग व्यस्तता के कारण स्वयं दान न देकर, दूसरों से दिलाते हैं यह कार्य उचित नहीं। आचार्य सोमदेव यशस्तिलकचम्पू काव्य में कहते हैं धर्मेषु स्वामीसेवायां सुतोत्पत्तौ च क: सुधी। अन्यत कार्य देवाभ्यां प्रतिहस्त समादिशेत्।।पृष्ठ ४०५।। . अर्थात्- धर्म, स्वामी सेवा और पुत्रोत्पत्ति में स्वयं प्रवृत्ति करना चाहिये। ये कार्य दूसरों से नहीं कराना चाहिये। समर्थ होते हुए भी अगर धर्म कार्य आप दूसरों से करवायेंगे तो पुण्य भी करने वाले को ही प्राप्त होगा। हाँ, अगर आप में धर्मकार्य करने की योग्यता नहीं है तब अवश्य दूसरों से कराने पर बराबर फल की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति कार्य भी नहीं कर सकते और धन-अन्न आदि देकर दूसरे से कराने में भी समर्थ नहीं हैं ऐसे व्यक्ति पूजा, दान, वैयावृत्ति आदि धर्म-कार्यों की तथा करने वालों की प्रशंसा करके ही पुण्य कमाते हैं। दान आदि न देने वालों की निन्दा करते हुये क्रियाकोष में लिखा है.. जानो गृद्धसमान, ताके सुत दारादिका । जो नहीं करे सुदान ताके धन आमिष समा ।।१९८६।। ___ अर्थात् जो दान नहीं करता है उसका धन मांस के समान है और उस कमाई को खाने वाले पुत्र, स्त्री आदि गिद्ध-मंडली के समान हैं। अन्यत्र देखिये ऐषां न पूजा जिनपुंगवस्य, दानं न शीलं न तपोजपश्च। न धर्मसारं गुरुसेवनं च गेहे रथे ते बृषभाश्चरन्ति ।। अर्थात्- जिसके द्वारा न जिनेन्द्र भगवान की पूजा की जाती है, न सत्पात्रों को दानं दिया जाता है, न शील (संयम) का पालन किया जाता है, न जप-तप किया
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy