SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४४) आचार्य वसुनन्दि जाता है और न धर्म के सारभूत गुरु की सेवा ही की जाती है, ऐसे मनुष्य गृहस्थी रूपी रथ में जुते हुए बैल के समान संसार में भ्रमण करते है। मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि सुपात्रों को दान देकर उनकी रत्नत्रय साधना में सहायक बनकर महान पुण्य अर्जित कर स्वर्गापवर्ग सुख को प्राप्त कर निज में लीन हो सकें।।२४०।। कुपात्र में दिये गये दान का फल . . . जह मज्झिमम्मि खित्ते अप्पफलं होइ वाबियं वीयं। . मज्झिमफलं विजाणह कुपत्तदिण्णं तहा दाणं ।। २४१।। अन्वयार्थ- (जह) जिस प्रकार, (मज्झिमम्मि खित्ते) मध्यम खेत में, (वावियं वीय) बोया गया बीज, (अप्पफलं) अल्पफल (वाला), (होइ) होता है, (तहा) उसी प्रकार, (कुपत्तदिण्णं दाणं) कुपात्र में दिया गया दान, (मज्झिमफलं) मध्यम फल वाला, (विजाणह) जानना चाहिए। . अर्थ- जिस प्रकार मध्यम खेत में बोया गया बीज अल्प फल देता है, उसी प्रकार कुपात्र में दिया गया दान मध्यम फल वाला जानना चाहिए।। व्याख्या- फसल की वृद्धि और कमी में मिट्टी अर्थात् क्षेत्र का बहुत बड़ा महत्त्व है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ सेव, अंगूर, मौसम्मी, अनन्नास जैसे फल बड़ी मात्रा में उत्पन्न होते हैं, किन्तु योग्य क्षेत्र न मिलने से वे दूसरी जगह या तो फलते ही नहीं और अगर फलते भी है तो अत्यल्प मात्रा में। इसी तरह काजू, अखरोट, बादाम, चावल, केला व अन्य पदार्थों के भी निश्चित स्थान हैं, जहाँ वे बड़ी मात्रा में उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र या तो उत्पन्न ही नहीं होते और होते है तो अल्पं फल देते हैं। ऐसा ही पात्रों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। जो साधक, जो सत्पात्र, सत्श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र के साथ अपनी साधना कर रहा है निश्चित ही अपने सहायकों को उत्तम फल देगा, किन्तु जो साधक साधना तो कर रहा है पर सम्यक्तया नहीं कर रहा वह उत्तम फल नहीं दे सकता और एक व्यक्ति साधना ही नहीं कर रहा है उसे दानादि देने का क्या फल होगा अर्थात् कुछ नहीं? . सम्भवत: आचार्यों ने कुपात्र दान का फल अल्प फल इसलिये कहा है कि उस पात्र में अभी भले ही सम्यग्दर्शन नहीं है किन्तु व्रत तो हैं, हो सकता वह इसी भव में सम्यक्त्व प्राप्त कर सच्चा साधक बन जाये।।२४१।। १. झ.ब. छित्ते.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy