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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४५) आचार्य वसुनन्दि अपात्र में दिये गये दान का फल जह ऊसरम्मि खित्ते' पइण्णवीयं ण किं पिरे रुहेइ। फलवज्जियं वियाणह अपत्तदिण्णं तहा दाण।। २४२।। अन्वयार्थ- (जह) जिस प्रकार, (ऊसरम्मि खित्ते) ऊसर खेत में, (पइण्णवीय) बोया गया बीज, (किंपि) कुछ भी, (ण रुहेइ) नहीं उगता है, (तहा) उसी प्रकार, (अपत्तदिण्णं दाणं) अपात्र में दिया गया दान, (फलवज्जियं) फल-रहित, (वियाणह) जानना चाहिए। अर्थ- जिस प्रकार उसर खेत में बोया गया बीज कुछ भी नहीं ऊगता है उसी प्रकारं कुपात्र में दिया गया दान भी फल-रहित जानना चाहिए।। व्याख्या– जिस प्रकार कंकड़-पत्थर और कठोरता से युक्त ऊसर (बंजर) भूमि में बोया गया उत्तम बीज भी कुछ फल नहीं देता प्रत्युत स्वयं भी नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पाखंडी साधुओं, भिखारियों एवं गाय-वृक्ष आदि को पात्र बुद्धि से दिया गया दान किंचित भी फल नहीं देता। करुणाबुद्धि से विवेकपूर्वक दिया गया दान फलदायी भी हो सकता है।।२४२।। अपात्र विशेष में दिये गये दान का फल दुःखदायी कम्हि अपत्त विसेसे दिण्णं दाणं दुहावहं होइ। ... जइ विसहरस्स दिण्णं तिव्वविसं जायए खीरं ।। २४३।। - अन्वयार्थ— (कम्हि अपत्त विसेसे) किसी अपात्र विशेष में, (दिण्णं दाणं) दिया गया दान, (दुहावहं होइ) दुःख देने वाला होता है, (जह) जैसे, (विसहरस्स) विषधर को, (दिण्णं) दिया गया, (खीरं) दूध, (तिव्यविसं) तीव्र विष, (जायए) हो जाता है। अर्थ- प्रत्युत किसी अपात्र विशेष में दिया गया दान अत्यन्त दुःख का देने वाला होता है। जैसे विषधर सर्प को दिया गया दूध तीव्र विषरूप हो जाता है।। व्याख्या- दान देना स्वयं के लिए हानिकारक भी हो सकता है अगर विवेकपूर्वक नहीं दिया है, तो। अगर किसी अपात्र को आपने दान दिया और उसने उसका दुरुपयोग किया तो आपका ही दान आपको दुःख देने वाला हो सकता है। एक १. झ.ब. छित्ते. २. झ. किंचि रु होइ, ब. किं पि विरु होइ. ३. झ.ब.उ. पत्त..
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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