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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि छोटी सी कथा आती है आगम में कि– एक सेठ ने भिखारी को दान में एक रुपया दे दिया। भिखारी बाजार में गया और एक रुपये में उसने मछली पकड़ने का जाल खरीदा और प्रतिदिन मछली पकड़कर बेचता और अपनी आजीविका चलाने लगा। यहाँ उस अपात्र दान के फलस्वरूप नगर का सर्वश्रेष्ठ सेठ गरीब होने लगा। उसकी गद्दियाँ लुटने लगीं, कारखाने अग्नि-पानी से नष्ट होने लगे। ऐसी स्थिति में उस सेठ को बड़ी चिन्ता हुई और उसने वस्तुस्थिति का पता लगाया तो उसे अपने किये का होश आया। किसी तरह से उसने भिखारी को दिये गये एक रुपये से खरीदे हुए जाल को लेकर जला दिया तब कहीं उसकी स्थिति कुछ सामान्य हुई इसी प्रकार के और भी उदाहरण देखे जा सकते हैं। अत: कभी भी दान दो विवेकपूर्वक पात्र-अपात्र को परख कर देना चाहिए। गाथा में आये हए 'अपत्त' शब्द के स्थान पर अन्य प्रतिलिपियों में ‘पत्त' शब्द आया है, जो गाथा छन्द एवं अर्थ को दखते हुए अधिक उचित है। क्योंकि यहाँ पात्र शब्द को सुपात्र, कुपात्र, एवं अपात्र के लिए सामान्य प्रयोग किया गया है। कदाचित् सुपात्र को दिया गया दान भी दुःखकर हो सकता है? . शंका- सुपात्र को दिया गया दान कैसे दुःखकर हो सकता है? समाधान- विवेक के अभाव में दिया गया सुपात्र दान भी दुःखकर हो सकता है। जैसा कि एक उदाहरण आता है कि रानी ने मुनिराज को कड़वी तुम्बी (तुमड़ी) आहार में दे दी परिणामस्वरूप मुनिराज को वेदना हुई और समाधिमरण हो गया। कुछ कालोपरान्त रानी का भी मरण हुआ और खोटे परिणामों से मरणकर वह नरक गई। इसी प्रकार ईर्ष्यापूर्वक दान देना, लोभ के वशीभूत होकर दान देना आदि भी दुःख के कारण हैं। अत: दान विवेकपूर्वक देना चाहिए।।२४३।। दान का फल विस्तार से कहने की प्रतिज्ञा मेहावीणं एसा सामण्णपरुवणा मए उत्ता। इण्डिं पभणामि फलं समासओ मंदबुद्धीणं।। २४४।। अन्वयार्थ- (मेहावीप) मेधावियों के लिए, (मए) मैंने, (एसा) यह, (फल) दान के फल का, (सामण्ण परुवणा उत्ता) सामान्य प्ररूपण कहा, (इण्हि) अब, (मंदबुद्धीणं) मंदबुद्धियों के लिए, (समासओ) संक्षेप से, (पभणामि) कहता हूँ। भावार्थ- मेधावी अर्थात् बुद्धिमान पुरुषों के लिए मैंने यह उपर्युक्त दान के फल का सामान्य प्ररूपण किया है। अब मंदबुद्धिजनों अर्थात् जिनको दानविधि अथवा १. प्रतिषु ‘मेहाविऊण' इति पाठः.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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