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________________ 'वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४७) आचार्य वसुनन्दि शास्त्र का ज्ञान अल्प है उनके लिए संक्षेप से किन्तु पहले की अपेक्षा विस्तार से दान का फल कहता हूँ।।२४४।। उत्तमपात्र में मिथ्यादृष्टि द्वारा दिये गये दान का फल मिच्छादिट्ठि भद्दो दाणं जो देइ उत्तमे पत्ते। तस्स फले णुववज्जइ सो उत्तम भोयभूमीसु।। २४५।। अन्वयार्थ- (जो) जो, (मिच्छादिट्ठि भद्दो) मिथ्यादृष्टि भद्र, (उत्तमे पत्ते) उत्तम पात्र में, (दाणं) दान, (देइ) देता है, (तस्स फले) उसके फल से, (सो) वह, (उत्तमभोयभूमीसु) उत्तम भोगभूमि में, (उववज्जइ) उत्पन्न होता है। अर्थ-जो मिथ्यादृष्टि भद्र अर्थात् मन्दकषायी पुरुष उत्तम पात्र में दान देता है, उसके फल से वह उत्तम भोग भूमियों में उत्पन्न होता है।। व्याख्या- कोई भद्र मिथ्यादृष्टि जीव, सरल परिणामी, देवशास्त्र गुरु के भक्त बनकर अगर उत्तम पात्र में अर्थात् दिगम्बर मुनिराज को आहार आदिक दान देते हैं तो वे उस पुण्य के फल से उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं और बहुत सुखों को पाते हैं। ___ जब मुनि-संघ विहार करता है, तब रास्ते में कई भद्र परिणामी आवास आदि की व्यवस्था करते हैं, कई व्यक्ति भोजन आदि के बारे में पूंछते हैं, कितने ही व्यक्ति पैर-मर्दन आदि करते हैं वे ऐसे ही और भी व्यवहार मुनिराजों से करते हैं, परिणामस्वरूप उत्तम भोगभूमि को प्राप्त करते हैं।।२४५।। - मध्यमपात्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल . जो मज्झिमम्मि पत्तम्मि देइ दाणं खु वामदिट्ठी वि। सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु।। २४६।। . अन्वयार्थ (जो) जो, (वामदिट्ठी वि) मिथ्यादृष्टि भी, (मज्झिमम्मि पत्तम्मि) मध्यम पात्र में, (दाणं देइ) दान देता है, (सो) वह, (जीवो) जीव, (मज्झिमासु भोयभूमीसु) मध्यमभोगभूमि में, (उप्पज्जइ) उत्पन्न होता है। भावार्थ- जो मिथ्यादृष्टि होकर भी भद्रपरिणामी हैं ऐसे पुरुष ऐलकक्षुल्लक-वर्णी-व्रती आदि को आहार-आवासादिक दान देकर पुण्यफलस्वरूप मध्यम भोगभूमि को प्राप्त करते हैं।। २४६।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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