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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२४८) आचार्य वसुनन्दि . जघन्य पात्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल जो पुण जहण्णपत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो वि णरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जीवो।। २४७।। अन्वयार्थ- (जो) जो, (पुण) पुनः, (तहाविहो वि णरो) उक्त प्रकार का मनुष्य भी, (जहण्णपत्तम्मि) जघन्य पात्र में, (दाणं देइ) दान देता है, (सो) वह, (जीवो) जीव, (फलेण) (उसके) फल से, (जहण्णसु भोयभूमीस) जघन्य भोगभूमि में, (जायइ) उत्पन्न होता है। भावार्थ- जो उसी प्रकार का अर्थात् उपरोक्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य भी जघन्य पात्र अर्थात् सम्यग्दृष्टि जनों को आहार, आवास, धन, कन्या, आदि दान देते हैं, उसके फल से वे जघन्य भोगभूमि के सुखों को प्राप्त करते हैं।।२४७।। कुपात्र में मिथ्यादृष्टि के दान का फल जायइ कुपत्तदाणेण वामदिट्ठी कुभोगभूमीसु। . अणुमोयणेण तिरिया वि उत्तट्ठाणं जहाजोगं।।२४८।। अन्वयार्थ- (वामदिट्ठी) मिथ्यादृष्टि जीव, (कुपत्तदाणेण) कुपात्रदान देने से, (कुभोगभूमीस) कुभोगभूमियों में, (जायइ) उत्पन्न होता है, (अणुमोयणेण) अनुमोदना करने से, (तिरिया वि) तिर्यश्च भी, (जहाजोग्गं) यथायोग्य, (उत्तट्ठाणं) उपर्युक्त स्थानों को प्राप्त करते हैं। अर्थ- मिथ्यादृष्टि जीव कुपात्रों में दान देने से कुभोगभूमियों में उत्पन्न होता है, अनुमोदना करने से तिर्यश्च भी यथायोग्य उपर्युक्त स्थानों को प्राप्त करते हैं।। ___ व्याख्या- मिथ्यादृष्टि जीव कुपात्र को दान देने से कुभोगभूमियों में उत्पन्न होता है। दान की अनुमोदना करने से तिर्यञ्च भी यथायोग्य उपर्युक्त स्थानों को प्राप्त करते हैं। मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च जीव उत्तमपात्र दान की अनुमोदना के पुण्य से उत्तमभोगभूमि में, मध्यम पात्र दान की अनुमोदना से मध्यम भांगभूमि में और जघन्यपात्र दान की अनुमोदना से जघन्य भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार कुपात्र दान की अनुमोदना करने से कुभोग भूमि में तथा अपात्र दान की अनुमोदना से भी तदनुकूल फल को प्राप्त होते हैं। भोगभूमि में सिंह, हाथी, घोड़ा, सर्प, व्याघ्र, गाय-भैंस-बकरी आदि सभी प्रकार के पशु होते हैं, किन्तु वे क्रूर नहीं होते, सरल परिणामी होते हैं, कभी-भी लड़ते-झगड़ते नहीं अपितु आराम से रहते हुए वहाँ के फल, फूल एवं घास आदि स्वादिष्ट पदार्थों का सेवन करते हैं।।२४८।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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