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| वसुनन्दि-श्रावकाचार
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आचार्य वसनन्दि
अशनं हि भक्तमुद्गादि, पानं हि पेयमथितादि, खाद्यं मोदकादि, लेह्यं खादि। अर्थात् भात, मूंग आदि अशन कहलाते हैं, छांछ आदि पीने योग्य पदार्थ पान कहलाते हैं, लाडू आदि खाद्य कहलाते हैं और रबड़ी आदि चाटने योग्य पदार्थ लेह्य कहलाते हैं। आ० अमितगति कहते हैं -
रागो निषूद्यते येन-येन धमों विवर्द्धते। संयम- पोष्यते येन विवेको येन जन्यते ।।८१।। आत्मोपशम्यते येन येनोपक्रियते परः। न येन नाश्यते पात्रं तद्दातव्यं प्रशस्यते ।।अ० श्रा०८/८२।। .
अर्थ- जिससे राग नष्ट होता है, धर्म की वृद्धि होती है, संयम पुष्ट होता है, विवेक उत्पन्न होता है, आत्मा में शान्ति आती है, पर का उपकार होता है, तथा पात्र का बिगाड़ नहीं होता वही द्रव्य प्रशंसनीय होता है। .. आ० अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं -
रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते।
द्रव्यं तदेव देयं सुतपः स्वाध्यायवृद्धिकरम्।।पु०सि०१७०।।
अर्थ- जो राग-द्वेष, असंयम, मद, दुःख, भय आदि उत्पन्न नहीं करता और सुतप तथा स्वाध्याय की वृद्धि करता है, वही द्रव्य साधु को देने योग्य है।
पं० आशाधर जी लिखते हैं - पिण्डशुद्धयुक्तमन्नादिद्रव्यं वैशिष्ट्य मस्य तु।
रागाद्यकारकत्वेन रत्नत्रय चयाङ्गता।।सा० ध०४६।।
अर्थ- आहार, औषध, आवास, पुस्तक, पिच्छिका आदि द्रव्य देने योग्य हैं। राग-द्वेष, असंयम, मद, दुःख आदि को उत्पन्न न करते हुए सम्यग्दर्शन आदि की वृद्धि का कारण होना उस द्रव्य की विशेषता है।
आहार दान की प्रशंसा करते हुए आ० कार्तिकेय लिखते हैंभोयणदाणे दिण्णे तिण्णि वि दाणाणि होति दिण्णाणि। भुक्ख-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीणं ।।३६३।। भोयण-बलेण साहू सत्थं सेवेदि रत्ति-दिवसं पि। भोयण-दाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होति।।३६४।।