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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३१) आचार्य वसुनन्दि
दयादत्ति- पं० मेधावी लिखते हैं कि -
सर्वेभ्यो जीवराशिभ्यः स्वशक्तया करणैस्त्रिभिः । - दीयतेऽभयदानं यद्दयादानं तदुच्यते।।
(धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ६/१९०) अर्थ- सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए कृत, कारित तथा अनुमोदना से अपनी शक्ति अनुसार अभयदान देने को बुद्धिमान् लोग दयादान (दयादत्ति) कहते हैं।
अन्वयदत्ति- इसे सकल दत्ति भी कहते हैं। पं० मेधावी ने लिखा है किसमर्थाय स्वपुत्राय तदभावेऽन्यजाय वा। यदेतद्दीयते वस्तु स्वीयं तत्सकलं मतम् ।।
. (धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ६/१९६) अर्थ- सब तरह समर्थ अपने पुत्र के लिए अथवा पुत्र के न होने पर दूसरे से उत्पन्न होने वाले (दत्तक) पुत्र के लिए अपनी धनधान्यादि रूप सम्पूर्ण वस्तु का जो देना है उसे सकल दत्ति कहते हैं।
इस तरह चारों दानों के द्वारा जैनधर्म के आराधकों की उन्नति करें, तथा दीन और अनाथों को भी करुणापूर्वक दान देना चाहिये।।२३४।।
आहारदान का लक्षण ... असणं पाणं खाइमं साइयमिदि चउविहो वराहारो।
पुव्वुत्त-णव-विहाणेहिं तिविहपत्तस्स दायव्वो।। २३४।।
अन्वयार्थ- (असणं-पाणं-खाइम-साइयम्) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, (इदि चउविहो वराहारो) यह चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार, (पुव्वुत्त) पूर्वोक्त, (णव-विहाणेहिं) नवधा भक्ति से, (तिविह पत्तस्स) तीन प्रकार के पात्रों को, (दायव्यो) देना चाहिए।
अर्थ – अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्ति से तीन प्रकार के पात्रों को देना चाहिए।
व्याख्या- अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य यह चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार कहा गया है, इसे विधि अर्थात् नवधा भक्तिपूर्वक तीन प्रकार के पात्रों को देना चाहिए।
आ० प्रभाचन्द्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार (१०९) की टीका करते हुए लिखते हैं१. वसु. श्रा. खाइमं इति पाठान्तरः .