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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२३०) आचार्य वसुनन्दि
अत: सत् श्रावक को स्व कल्याणार्थ चार प्रकार का दान यति-निकाय में अवश्य ही देना चाहिए।
आगम में दान के चार भेद अन्य प्रकार से भी कहे गये हैं
पात्रदत्ति- सद्भक्ति से युक्त होकर पात्रों को चतुर्विध दान देना, पात्र दान है।
आ० जिनसेन ने लिखा है कि -
महातपोधना-यार्चा प्रतिग्रह पुरःसरम्। प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते। (महापुराण, ३८/३७) अर्थ- महान तपस्वी साधुजनों के लिए प्रतिग्रह आदि नवधा भक्तिपूर्वक आहार, औषधि आदि का देना पात्र दत्ति कही जाती है।
पात्र के तीन भेद हैं— उत्तम, मध्यम और जघन्य। उनका वर्णन करते हुए आ० अमृतचन्द्र ने लिखा है कि
पात्रं त्रिभेदयुक्तं संयोगा मोक्षकारण गुणानाम्। , अविरत सम्यग्दृष्टि विरताविरतश्च सकल विरतश्च ।।
(पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, १७१) अर्थ : मोक्ष के कारण स्वरूप गण सम्यक्रत्नत्रय का जिनमें संयोग हो, ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवी, विरताविरत (देशविरतं पंचमगुणस्थानवर्ती) और सकलविरत छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज ये तीन प्रकार के पात्र कहे गये हैं। समदत्ति : आ० जिनसेन लिखते हैं कि -
समानायात्मनाऽन्यस्मै, क्रियामन्त्र व्रतादिभिः। निस्तारकोत्तमायेह भूहमाद्यति सर्जनम् ।। समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते। समान प्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता शृद्धयाऽन्विता।।
(महापुराण, ३८/३८-३९) अर्थ- क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने समान हैं, ऐसे अन्य साधर्मी बन्धु के लिए और संसार तारक उत्तम गृहस्थ के लिये भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। तथा मध्यमपात्र में समान सम्मान की भावना के साथ श्रद्धा से युक्त जो दान दिया जाता है,वह भी समानदत्ति है।