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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२९) आचार्य वसुनन्दि) दया धर्म का मूल हैं, सम्पूर्ण दानों में जीवनदान सर्वश्रेष्ठ दान है, अत: अभयदान देना निहायत जरुरी ही नहीं अनिवार्य भी होना चाहिए। औषध दान- असाता वेदनीय कर्म के उदय से तथा वीर्यान्तराय कर्म के उदय से शरीर में रोगों की उत्पत्ति होती है। यह रोग शरीर को अस्वस्थ और मन को अप्रसन्न बनाते हैं। रोगों के कारण साधना में कुछ शिथिलता आती है। शरीर रोग-ग्रस्त हो जाने पर रोग निवारणार्थ शुद्ध औषधि देना तथा समुचित परिचर्या करना, औषधदान है। शास्त्र दान- जगत् में प्राणी का हितकारी बन्धु ज्ञान ही है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य तिर्यश्च के समान माना गया है। ज्ञान से ही इस लोक और परलोक सम्बन्धित सम्पूर्ण हेयोपदेयता का बोध होता है। भेदविज्ञान का कारण भी ज्ञान ही है। ज्ञान से श्रद्धा व चरित्र दृढ़ होता है, मन एवं इन्द्रियाँ विषयों से विरक्त होती है, चित्त पवित्र होता है। अत: ज्ञान प्राप्ति के लिए जिनवाणी भेंट करना, पढ़ाने के लिए शिक्षक रख देना, स्कूल खुलवा देना आदि शास्त्रदान हैं। चारों दानों का फल बताते हुए आ० पूज्यपाद लिखते है किज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभय दानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजाद् भवेत् ।। (पूज्यपाद श्रावकाचार, ७१) ... अर्थ : ज्ञानदान से मनुष्य ज्ञानवान होता है, अभयदान से निर्भय रहता है. अन्न . दान से नित्य सुखी और औषधिदान से सदा निरोग रहता है। - आचार्य अमितगति दान की प्रेरणा देते हुए लिखते है कि - नानादुःखव्यसन निपुणान्नाशिना तृप्ति हेतून् . कर्माराति प्रचयन परांस्तत्त्वतोऽवेत्य भोगान्। मुक्त्वाकाङ्क्षां विषयविषयां कर्म निर्माश नेच्छो, दद्यादानं प्रगुणमनसा संयतायापि विद्वान् ।। (सुभाषितरत्न संदोह, १९/१७) ___ अर्थ- कर्मनाश का इच्छुक विद्वान् विषयभोगों को यथार्थतः अनेक दुःखों एवं .. आपत्तियों को प्राप्त कराने वाले, नश्वर, तृष्णा के बढ़ाने वाले और कर्मरूप शत्रुओं के संचय में तत्पर जानकर तद्विषयक अभिलाषा को छोड़ता हुआ संयमी जन के लिए सरल चित्त से दान देवे।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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