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वसुनन्दि-श्रावकाचार
(१३५)
आचार्य
विष्णु मित्र भी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोला अच्छा हुआ जो तुमने अपना सब हाल कह सुनाया। धन के लिये अब तुम्हें इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। आओ मेरे साथ चलो। यहाँ से कुछ दूर आगे एक जंगल है वहाँ पर्वत की तलहटी में रसायन से भरा एक कुआ है जिससे सोना बनाया जाता है उससे थोड़ा-सा रस निकाल कर तुम ले आओ तो तुम्हारी सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी। चारुदत्त संन्यासी के पीछे-पीछे चला। दुर्जनों द्वारा धन के लोभी इसी प्रकार ठगे जाते हैं।
संन्यासी के साथ चारुदत्त एक पर्वत के पास पहुँचा । रस लाने को सब बातें समझाकर संन्यासी ने चारुदत्त के हाथ में एक तूम्बी दी। सीके पर बैठाकर उसे कुएँ में उतार दिया। चारुदत्त तूम्बी में रस भर रहा था कि इतने में एक मनुष्य ने उसे ऐसा करने से रोका। चारुदत्त पहले तो डरा पर जब उस मनुष्य ने कहा कि डरो मततब वह कुछ सरस होकर बोला तुम कौन हो और इस कुएँ में कैसे आये? कुएँ में बैठा हुआ मनुष्य बोला— मैं उज्जैनी का रहने वाला हूँ और मेरा नाम धनदत्त है। सिंहलद्वीप से लौटते समय तूफान में पड़कर मेरा जहाज फट गया जिससे बहुत धन, जन की हानि हुई। शुभ कर्म से एक पहिया मेरे हाथ लग गयी जिसके सहारे मैं बच गया। समुद्र से निकलकर मैं अपने शहर की ओर जा रहा था कि रास्ते में मुझे यही संन्यासी मिला। यह दुष्ट मुझे धोखा देकर यहाँ लाया। कुएँ में से रस भरकर भाग गया। मैं आकर कुएँ में गिरा। भाग्य से चोट तो अधिक न लगी पर दो-तीन दिन इसमें पड़े रहने से अब मेरे प्राण घुट रहे है। उसकी हालत सुनकर चारुदत्त को बड़ी दया आई पर वह स्वयं भी उसी परिस्थिति में आ फंसा था इसलिए उसकी कुछ सहायता न कर सका। चारुदत्त ने उससे पूछा तो मैं इसे रस भरकर न दूँ? धनदत्त ने कहा- ऐसा मत करो रस तो भरकर दे ही दो अन्यथा यह ऊपर से पत्थर बगैरह मारकर बड़ा कष्ट पहुँचायेगा। तब चारुदत्त ने एक बार तुम्बी रस से भरकर सीके में रख दी। संन्यासी ने उसे निकाल लिया। चारुदत्त को निकालने के लिये उसने फिर सीका नीचे डाला अबकी बार स्वयं सीके पर न बैठ चारुदत्त ने कुछ वजनदार पत्थरों को उसमें रख दिया। जब सीका आधी दूर आया तब संन्यासी उसे काटकर चलता बना। चारुदत्त की जान बच गयी। उसने धनदत्त का बड़ा उपकार माना और कहा — मित्र | आज तुमने मुझे जीवन दान दिया है जिसके लिये मैं जन्म-जन्मान्तर तुम्हारा ऋणी रहूँगा। उस कुएं से निकलने का उपाय पूछने पर धनदत्त बोला- यहाँ रस पीने प्रतिदिन एक गोह आया करती है, जो आज चली गई, कल फिर आयेगी सो तुम पूछ पकड़कर निकल जाना। इतना कहते-कहते उसका गला रुक गया और प्राण संकट में पड़ गये। अपने उपकारी की कुछ भी सेवा करने में असमर्थ चारुदत्त ने उसे पञ्च नमस्कार मन्त्र सुनाया और साथ ही संन्यास भी लिवा दिया।
'सबेरा होते ही सदा की तरह उस दिन भी गोह रस पीने आई। रस पीकर जाते