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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३४) आचार्य वसुनन्दि रुपये की कमी हो जाने से उसकी स्त्री का गहना अब उसके खर्च के काम में आने लगा। वेश्या की कुटनी माँ ने जब देखा कि चारुदत्त दरिद्र हो गया है तो अपनी लड़की से कहा कि बेटी अब तुम्हें इसका साथ जल्दी छोड़ देना चाहिए; क्योंकि दरिद्र मनुष्य अपने काम का नहीं। वसन्त सेना की माँ ने युक्ति से चारुदत्त को घर से निकाल बाहर किया। वेश्याओं का प्रेम धन के साथ रहता है, मनुष्य के साथ नहीं। अतएव जहाँ धन नहीं वहाँ वेश्या का प्रेम नहीं, अब चारुदत्त को जान पड़ा कि इस प्रकार विषय-भोग में आसक्त रहने का भयंकर दुष्परिणाम होता है। वह अब वहाँ एक पल के लिये भी न ठहरा और अपनी स्त्री का आभूषण साथ ले विदेश चलता बना। उस अवस्था में अपना काला मुँह वह अपनी माँ को दिखला ही कैसे सकता था? वहाँ से चलकर चारुदत्त उलूख देश के उशिरावर्त शहर में पहुँचा। चम्पापुर से चलते समय इसका मामा भी साथ ही गया था। उशिरावर्त में कपास खरीदकर ये ताम्रलिप्तापुरी की ओर रवाना हुए। रास्ते में इन्होंने विश्राम के लिये एक वन में डेरा डाल दिया। इतने में एक आँधी आई उससे परस्पर की रगड़ से बाँसों में आग लग गई। आग की चिनगारियाँ उड़कर कपास पर जा पड़ी। देखते-देखते सब कपास भस्मीभूत हो गया। इस हानि से चारुदत्त बहुत दुःखी हुआ। वहाँ से अपने मामा से सलाह कर वह समुद्रदत्त सेठ के जहाज द्वारा पवनद्वीप में पहुँचा यहाँ इसके भाग्य का सितारा चमका और इसने खूब धन कमाया। अब इसे माता के दर्शन के लिये देश लौट जाने की इच्छा हुई। इसने चलने की तैयारी कर जहाज में अपना माल-असबाब लाद दिया। जहाज अनुकूल समय देखकर रवाना हुआ। जैसे-जैसे वह जन्मभूमि की ओर आगे बढ़ता जाता था वैसे-वैसे उसकी प्रसन्नता अधिक होती जाती थी। पर अपना चाहा तो कुछ होता नहीं है जबतक दैव को वह मंजूर न हो यही कारण था कि चारुदत्तं की इच्छा पूरी न हो पायी; क्योंकि अचानक किसी अनिष्टकर चील से टकराकर जहाज फट गया। चारुदत्त का सब माल असबाब समुद्र के विशाल उदर में विलीन हो गया। वह फिर पहले सरीखा दरिद्र हो गया, पर दुःख उठाते-उठाते उसकी सहन शक्ति अधिक हो गयी थी। एक के बाद एक आने वाले दुःखों ने इसे निराशा के गहरे गड्ढे से निकाल पूर्ण आशावादी और कर्तव्यशील बना दिया था इसलिये इस बार भी उसे अपनी हानि का कुछ विशेष दुःख नहीं हुआ। वह फिर धन कमाने के लिये विदेश चल पड़ा। इस बार फिर उसने बहुत धन कमाया। घर लौटते समय फिर उसकी पहले जैसी दशा हुई। इतने में ही उसके बुरे कर्मों का अन्त न हुआ। ऐसी भयङ्कर घटनाओं का उसे सात बार सामना करना पड़ा। कष्ट पर कष्ट आने पर भी वह अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हुआ आखिरी बार जहाज के फट जाने से वह स्वयं भी समुद्र में जा गिरा पर भाग्य से एक तख्ता के सहारे वह किनारे लग गया। यहाँ से चलकर वह राजगृह पहुँचा जहाँ
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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