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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३६) आचार्य वसुनन्दि समय चारुदत्त ने उसकी पूछ पकड़ ली और उसके सहारे बाहर निकल आया। तमाम जंगल पार करने पर रास्ते में उसकी रुद्रदत्त से भेंट हो गयी। वहाँ से वे दोनों अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये रत्नद्वीप गये। रत्नद्वीप जाने के लिये पहले एक पर्वत पर जाना पड़ता था पर्वत पर जाने का रास्ता बहुत संकीर्ण था। इसलिये वहाँ जाने के लिये इन्होंने दो बकरे खरीदे और उन पर सवार होकर सकुशल पर्वत पर पहुँच गये। वहाँ जाकर चारुदत्त के साथी ने विचारा कि दोनों बकरों को मार कर दो चमड़े की थैलियाँ बनानी चाहिए और उलट कर उनके भीतर घुस दोनों का मुंह सी देना चाहिए। मांस के लोभ से यहाँ सदा भैरुण्ड पक्षी आया करते है। वे अपने को उठाकर उस पार रत्नद्वीप ले जायेंगे। वहाँ थैलियों को फाड़कर हम बाहर हो जायेंगे। मनुष्य को देखकर पक्षी उड़ जायेगा और सीधी तरह अपना सब काम बन जायेगा। चारुदत्त ने रुद्रदत्त की पाप-भरी बात सुनकर उसे बहुत फटकारा और कहा कि ऐसे पाप द्वारा प्राप्त किये धन की मुझे कुछ जरुरत नहीं। रात को ये दोनों सो गये। चारुदत्त को गाढ़ी नींद में सोया देख पापी रुद्रदत्त चुपके से उठा और जहाँ बकरे बंधे थे वहाँ गया। उसने पहले अपने बकरे को मारा और फिर चारुदत्त के बकरे पर हाथ बढ़ाया। इतने में अचानक चारुदत्त की नींद खुल गयी। रुद्रदत्त को अपने पास सोया न पाकर उसका सिर ठनका जाकर देखा कि पापी रुद्रदत्त बकरे का गला काट रहा है। मारे क्रोध के चारुदत्त लाल पीला हो गया। उसने रुद्रदत्त के हाथ से छुरा छीनकर उसे खूब खरी-खोटी सुनायी। सच है निर्दयी पुरुष कौन-सा पाप नहीं करते। उस अधमरे बकरे को टकर-टकर देखते- देखकर चारुदत्त का हृदय दया से भर आया। उसकी आँखों से आसुओं की बूंदे टपकने लगी बकरा प्राय: काटा जा चुका था। इसलिये उसके बचाने का प्रयत्न करने से वह लाचार था उसकी शान्ति के साथ मृत्यु और सुगति के लिये चारुदत्त ने उसे पञ्च नमस्कार मन्त्र सुनाकर संन्यास दे दिया। जो धर्मात्मा जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश का रहस्य समझते हैं उनका जीवन परोपकार के लिये ही होता है। चारुदत्त की इच्छा थी कि मैं पीछे लौट जाऊँ पर इसके लिये उसके पास कोई साधन न था इसलिये लाचार हो उसे भी रुद्रदत्त की तरह उस थैली की शरण लेनी पड़ी। उड़ते हुए मेरुण्ड पक्षी -दो मांस-पिण्ड देख वहाँ आये और उन दोनों को चोंचों से उठा चलते बने। रास्ते में उनमें परस्पर में लड़ाई होने लगी जिसके फलस्वरूप रुद्रदत्त जिस थैली में था वह चोच से छूट पड़ी। रुद्रदत्त समुद्र में गिरकर मर गया। मरकर भी अपने पाप के फल को भोगने के लिये उसे नरकगामी होना पड़ा। चारुदत्त की थैली को जो पक्षी लिये था उसने रत्नद्वीप के एक सुन्दर पर्वत पर ले जाकर रख दिया। चोच मारते ही चारुदत्त देख पड़ा और पक्षी डरकर भाग गया। जैसे ही चारुदत्त थैली को बाहर निकला कि धूप में ध्यान लगाये एक महात्मा दीख पड़े। उन्हें धूप में मेरु
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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