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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
आचार्य वसुनन्दि की तरह निश्चल देखकर चारुदत्त की उनपर बहुत श्रद्धा हुई। मुनिराज का ध्यान पूरा होते ही उन्होंने चारुदत्त से कहा – क्यों चारुदत्त अच्छी तरह तो हो न? मुनि द्वारा अपना नाम सुनकर चारुदत्त को बड़ी खुशी हुई कि इस अपरिचित देश में भी उसे कोई पहचानता है साथ ही उसे इस बात पर आश्चर्य भी हुआ। वह मुनिराज से बोलाप्रभो! मालूम होता है कि आपने कहीं मुझे देखा है बतलाइये तो आपको मैं कहाँ मिला था? मुनि बोले- सुनो! मैं अमितगति विद्याधर हूँ। एक दिन मैं चम्पापुरी के बगीचे में अपनी प्रिया के साथ सैर करने गया था उसी समय धूम सिंह नामक विद्याधर वहाँ आया और मेरी स्त्री को देख उसकी नियत खराब हो गयी। अपनी विद्या के बल से उस कामान्ध पापी ने मुझे एक वृक्ष में कील दिया और मेरी प्यारी को विमान पर बैठाकर
आकाश मार्ग से लेकर चल दिया। भाग्यवश उस समय तुम वहाँ आ गये तुम्हें दयावान् समझ मैंने वहीं रखी एक औषधि को पीसकर मेरे शरीर पर लेप करने को कहा। तुमने वैसा ही किया जिससे दुष्ट विद्याओं का प्रभाव नष्ट हुआ और मैं छूट गया। जिस प्रकार गुरूपदेश से जीव माया मिथ्या की कील से छूट जाता है। मैं उसी समय कैलाश पर्वत पर गया और धूम सिंह को उचित दण्ड दे अपनी स्त्री को छुड़ा लाया। उस समय तुमको मैंने मनमानी वस्तु मांगने को कहा पर तुमने कुछ भी लेने से इन्कार किया। वह भी ठीक ही था; क्योंकि सज्जन पुरुष दूसरों की भलाई किसी प्रकार की आशा से नहीं करते है। इसके बाद मैं अपने नगर को आया- कल्याण की इच्छा से पुत्रों को राज्य सौंप मैंने दीक्षा ले ली जो. मोक्ष को देने वाली है। चारण ऋद्धि के प्रभाव से मैं यहाँ आकर तपस्या कर रहा हूँ। यही कारण है कि मैं तुम्हें पहचानता हूँ। चारुदत्त इन बातों को सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह वहाँ बैठा ही था कि मुनिराज के दो पुत्र उनकी पूजा करने वहाँ आये। मुनिराज ने चारुदत्त से भी उनका परिचय कराया। परस्पर मिलकर इन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई।
इसी समय एक खूबसूरत युवक वहाँ आया। युवक ने आते ही चारुदत्त को प्रणाम किया। चारुदत्त ने उसे ऐसा करने से रोकते हए कहा कि पहले तुम्हें गुरुदेव को नमस्कार करना उचित था। आगत युवक ने अपने परिचय देते हुए कहा कि मैं पहले बकरा था। पापी रुद्रदत्त जब मेरा आधा गला काट चुका था उस समय भाग्य से आकर आपने मुझे नमस्कार मन्त्र सुनाया और साथ ही संन्यास दे दिया। मैं शान्ति से मर कर मन्त्र के प्रभाव से सौधर्म-स्वर्ग में देव हुआ। इसलिये मेरे गुरु तो आप ही हैं- आपने ही मुझे सन्मार्ग बतलाया है। श्रीधर्मदेव धर्मप्रेम से प्रेरित हो दिव्य वस्त्राभरण चारुदत्त को भेंटकर और उसे नमस्कार कर स्वर्ग चला गया। परोपकारियों का इस प्रकार सम्मान होना ही चाहिए। इधर विद्याधर और वराहग्रीव मुनिराज को नमस्कार कर चारुदत्त से बोले- चलिये हम आपको आपकी जन्मभूमि चम्पापुरी में पहुँचा आवे। चारुदत्त कृतज्ञता प्रकाशित करते हुए जाने को सहमत हो गया। उन्होंने चारुदत्त को माल-असबाब