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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३८) आचार्य वसुनन्दि सहित बहुत जल्द विमान द्वारा चम्पापुरी पहुंचा दिया। इसके बाद वे उसे नमस्कार कर अपने स्थान को लौट गये। पुण्यबल से संसार में सब कुछ हो सकता है। अतएव पुण्य प्राप्ति के लिये जिन भगवान् के आदेशानुसार दान, पूजा, व्रत, शीलरूप चार पवित्र धर्म का सदा पालन करते रहना चाहिये। अचानक अपने प्रियपुत्र के आ जाने से चारुदत्त की माता को बड़ी खुशी हुई। उन्होंने बार-बार उसे छाती से लगा कर अपने हृदय को ठण्डा किया। मित्रवती के भी आनन्द का ठिकाना न रहा। वह आज अपने प्रियतम से मिलकर जिस सुख का अनुभव कर रही थी उसकी समानता में स्वर्ग का दिव्य सुख भी तुच्छ है। बात की बात में चारुदत्त के आने का समाचार सारे नगर में फैल गया जिससे सबको आनन्द हुआ। चारुदत्त किसी समय बड़ा धनी था। अपने कुकर्मों से वह राह का भिखारी बन गया। जब उसे अपनी दशा का ज्ञान हुआ तो फिर कर्मशील बनकर उसने कठिनाइयों का सामना किया। कई बार असफल होने पर भी वह निराश नहीं हुआ। अपने उद्योग से उसके भाग्य का सितारा फिर चमक उठा और पूर्ण तेज प्रकाश करने लगा। कई वर्षों तक खूब सुख भोग कर अपनी जगह अपने सुन्दर नाम के पुत्र को नियुक्त कर वह उदासीन हो गया। दीक्षा ले उसने तप आरम्भ किया और अन्त में संन्यास सहित मरकर सर्वार्थसिद्धि में गया। वहाँ पर तेतीस सागर जैसी दीर्घ आयु को प्राप्त कर सदा तत्त्वचर्चा, धर्मचर्चा आदि आत्महित के कार्यों में अपना समय व्यतीत करते हुए वह देव परम सुख का अनुभव करता है, उस सुख की कोई सीमा नहीं है, संसार में यह सर्वोत्तम सुख है। जिन भगवान् के उपदेश धर्म की इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर आदि भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं। तुम भी उसी धर्म का आश्रय लो जिससे उस परम पद को प्राप्त कर सको।।१२८।। शिकार व्यसन में प्रसिद्ध ब्रह्मदत्त होऊण चक्कवट्टी चउदहरयणाहिओ' वि संपत्तो। मरिऊण बंभदत्तो णिरयं पारद्धिरमणेण।। १२९।। अन्वयार्थ– (चक्कवट्टी होऊण) चक्रवर्ती होकर, (चउदहरयणाहिओ वि संपत्तो) चौदह रत्नों के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी, (बंभदत्तो पारद्धिरमणेण) ब्रह्मदत्त शिकार खेलने से, (मरिऊण) मरकर, (णिरयं) नरक गया। १. ब. रयणीहिओ.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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