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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१३९) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- चक्रवर्ती पदधारी चौदह रत्न और नौ निधियों का स्वामी होकर भी ब्रह्मदत्त शिकार व्यसन के परिणामस्वरूप मरकर भयङ्कर नरक में गया। - व्याख्या - यह कथा निम्न प्रकार है उज्जयिनी नगरी में एक ब्रह्मदत्त नाम का राजा था। वह मृगया (शिकार) व्यसन में अत्यन्त आसक्त था। किसी समय वह मृगया के लिये वन में गया था। उसने वहाँ एक शिलातल पर ध्यानावस्थित मुनि को देखा। इससे उसका मृगया कार्य निष्फल हो गया। वह दूसरे दिन भी उक्त वन में मृगया के निमित्त गया किन्तु मुनि के प्रभाव से फिर भी उसे इस कार्य में सफलता नहीं मिली। इस प्रकार वह कितने ही दिन वहाँ गया, किन्तु उसे इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकी। इससे उसे मुनि के ऊपर अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ। किसी एक दिन जब मुनि आहार के लिये नगर में गये हुए थे तब ब्रह्मदत्त ने अवसर पाकर उस शिला को अग्नि से प्रज्वलित कर दिया। इसी बीच मुनिराज भी वहाँ वापिस आ गये और शीघ्रता से उसी जलती हुई शिला के ऊपर बैठ गये। अत्यन्त कष्ट होने पर भी उन्होंने ध्यान को नहीं छोड़ा इससे उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। वे अन्तकृत् केवली होकर मुक्ति को प्राप्त हुए। इधर ब्रह्मदत्त राजा मृगया व्यसन एवं मुनि प्रतिद्वेष के कारण सातवें नरक में नारकी होकर उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् बीच-बीच में क्रूर हिंसक तिर्यंच होकर क्रम से छठे और पांचवें आदि शेष नरको में भी गया। मृगया व्यसन में आसक्त होने से प्राणियों को ऐसे ही भयानक कष्ट सहने पड़ते है। अतः किसी भी प्रकार के शिकार नहीं करना चाहिए । । १२९ ।। चोरी व्यसन में प्रसिद्ध श्रीभूति णासावहारदोसेण दंडणं पाविऊण सिरिभूई । मरिऊण अट्टझाणेण हिंडिओ दीहसंसारे । । १३० ।। अन्वयार्थ - (णासावहारदोसेण) न्यासापहार के दोष से, (दंडणं पाविऊण) दण्ड को पाकर, (सिरिभूई) श्रीभूति, (अट्टझाणेण मरिऊण) आर्त्त ध्यान से मरकर, ( दीहसंसारे) दीर्घ संसार में, (हिंडिओ) फिरा । अर्थ — न्यासापहार के दोष के दण्ड पाकर श्रीभूति आर्त्तध्यान से मरकर दीर्घसंसार में घूमा। व्याख्या— न्यासापहार अर्थात् धरोहर को अपहरण करने के दोष से दण्ड पाकर श्रीभूमि नाम का ब्राह्मण आर्त्त ध्यान से भरकर दीर्घ संसार में घूमा। उसे हमेशा यही चिन्ता रहतीथी कि मैं कैसे इन रत्नों को सम्हाल कर रखूं ताकि सेठ को वापिस आने पर न देने पड़े अथवा ऐसा कौन-सा उपाय करूँ जिससे किसीभी तरीके से सेठ यह रत्न मुझसे प्राप्त न कर पाये। इस प्रकार के कुविचारों से मरकर वह नरक गया। यहाँ
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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