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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४०) आचार्य वसुनन्दि कथा के प्रमुख अंश प्रस्तुत है - बनारस नगर में राजा जयसिंह राज्य करता था। उसकी रानी का नाम जयावती था। इस राजा के एक शिवभूति नामक पुरोहित था जो अपनी सत्यवादिता के कारण पृथिवी पर सत्यघोष इस नाम से प्रसिद्ध हो गया था। उसने अपने यज्ञोपवीत में एक छुरी बांध रक्खी थी। वह कहा करता था कि यदि मैं कदाचित् असत्य बोलू तो इस छुरी से अपनी जिह्वा काट डालूँगा। इस विश्वास से बहुत से लोग इसके पास सुरक्षार्थ अपना धन रखा करते थे। किसी एक दिन पद्मपुर से धनपाल नाम का सेठ आया और इसके पास अपने पास के कीमती चार रत्न रख कर व्यापारार्थ देशान्तर चला गया। वह बारह वर्ष विदेश में रह कर और बहुत सा धन कमा कर वापिस आ रहा था। मार्ग में उसकी नाव (जहाज) डूब गई और सब धन नष्ट हो गया। इस प्रकार वह धनहीन होकर बनारस वापिस पहुँचा उसने शिवभूति पुरोहित से अपने चार रत्न वापिस माँगे। पुरोहित ने पागल बतला कर उसे घर से बाहर निकलवा दिया। पागल समझ कर ही उसकी बात राजा आदि किसी ने भी नहीं सुनी। एक दिन रानी ने उसकी बात सुनने के लिये राजा से आग्रह किया। राजा ने उसे पागल बतलाया जिसे सुनकर रानी ने कहा कि पागल वह नहीं है; किन्तु तुम ही हो। तत्पश्चात् राजा की आज्ञानुसार रानी ने इसके लिये कुछ उपाय सोचा। उसने पुरोहित के साथ जुआ खेलते हुए उसकी मुद्रिका और छुरीयुक्त यज्ञोपवीत भी जीत लिया। जिसे प्रत्यभिज्ञानार्थ पुरोहित को स्त्री के पास भेजकर वे चारों रत्न मंगा लिये। राजा को शिवभूति के इस व्यवहार से बड़ा दुःख हुआ। उसने उसे गोबर भक्षण मुष्टिघात अथवा निजद्रव्य समर्पण में से किसी एक दण्ड को सहने के लिये बाध्य किया। तदनुसार वह गोबर भक्षण के लिये उद्यत हुआ; किन्तु खा नहीं सका। अतएव उसने मुष्टिघात (घूसा मारना) की इच्छा प्रगट की। तदनुसार पहलवानों द्वारा मुष्टिघात किये जाने पर वह मर गया और राजा के भाण्डार में सर्प हुआ। इस प्रकार उसे चोरी व्यसन के वश में होकर यह कष्ट सहना पड़ा।।१३०।। परस्त्री गमन व्यसन में प्रसिद्ध रावण होऊण खयरणाहो वियक्खणो अद्धचक्कवट्टी वि। मरिऊण गओ' णरयं परिस्थिहरणेण लंकेसो।।१३१।। अन्वयार्थ- (वियक्खणो) विचक्षण, (अद्धचक्कवट्टी) अर्द्ध चक्रवर्ती (और), (खयरणाहो) विद्याधरों का स्वामी, (होऊण वि) होकर भी, (परिस्थिहरणेण) परस्त्री के हरण से, (लंकेसो) लंका का स्वामी, (मरिऊण) मरकर, (णरयं) नरक, (गओ) गया। कवट्टा वि। १. ब. गयउ.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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