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________________ (२१) विशुद्ध हृदय से समदृष्ट होता है। समताजीवी व्यक्ति ही मर्यादाओं व नियमों का प्रतिष्ठापक होता है। वही उसकी समाचारिता है। यही उसकी सर्वोदयशीलता है। ___ • महावीर की अहिंसा पर विचार करते समय एक प्रश्न हर चिन्तक के मन में उठ खड़ा होता है कि संसार में जब युद्ध आवश्यक हो जाता है, तो उस समय साधक अहिंसा का कौन सा रूप अपनायेगा। यदि युद्ध नहीं करता है तो आत्मरक्षण और राष्ट्ररक्षा दोनों खतरे में पड़ जाती है जबकि आत्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा करना हमारा कर्तव्य है। चंद्रगुप्त, चामुण्डराय, खारवेल आदि जैसे धुरन्धर जैन अधिपति योद्धाओं ने शत्रुओं के शताधिक बार दांत खट्टे किए हैं। जैन साहित्य में जैन राजाओं की युद्धकला पर भी बहुत कुछ लिखा मिलता है। बाद में उन्हीं राजाओं को वैराग्य लेते हुए भी प्रदर्शित किया गया है। यह उनके अनासक्ति भाव का सूचक है। अत: यह सिद्ध है कि रक्षणात्मक हिंसा पाप का कारण नहीं है। ऐसी हिंसा को तो वीरता कहा गया है। यह विरोधी हिंसा है। चूर्णियों और टीकाओं में ऐसी हिंसा को गर्हित माना गया, है। सोमदेव ने इसी स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए स्पष्ट कहा है यः शस्त्रवृत्ति समरे रिपुः स्यात् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य। तत्रैव अस्वाणि नृपाः क्षिपन्ति न दीनकालीन कदाशयेषु ।। ७. अपरिग्रह और सामाजिक सन्तुलन अपरिग्रह सर्वोदय का अन्यतम अंग है। उसके अनुसार व्यक्ति और समाज परस्पर आश्रित है। एक दूसरे के सहयोग के बिना जीवन का प्रवाह गतिहीन सा हो जाता हैं • (परस्परोपग्रहो जीवानाम्)। प्रगति सहमूलक होती है, संघर्षमूलक नहीं। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच संघर्ष का वातावरण प्रगति के लिए घातक होता है। ऐसे घातक वातावरण के निर्माण में सामाजिक विषम वातावरण प्रमुख कारण होता है। तीर्थङ्कर महावीर ने इस तथ्य की मीमांसा कर अपरिग्रह का उपदेश दिया और सही समाजवाद की .. स्थापना की। समाजवादी व्यवस्था में व्यक्ति को समाज के लिए कुछ उत्सर्ग करना पड़ता है। दूसरों के सुख के लिए स्वयं के सुख को छोड़ देना पड़ता हैं सांसारिक सुखों का मूल साधन संपत्ति का संयोजन होता है। हर संयोजन की पृष्ठभूमि में किसी न किसी प्रकार का राग, द्वेष, मोह आदि विकार भाव होता है। संपत्ति के अर्जन में सर्वप्रथम हिंसा होती हैं, बाद में उसके पीछे झूठ, चोरी, कुशील अपना व्यापार बढ़ाते हैं। संपत्ति का अर्जन परिग्रह है और परिग्रह ही संसार का कारण है। जैन संस्कृति वस्तुत: मूल रूप से अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निर्ग्रन्थ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। अप्रमाद का भी उपयोग इसी संदर्भ में
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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